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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
अत्पकालिक वैयाकरण ___ आचार्य हेमचन्द्र और प्राचार्य मलयगिरि संस्कृत-शब्दानुशासन के अन्तिम रचयिता हैं। इनके साथ ही उत्तर भारत में संस्कृत के उत्कृष्ट मौलिक ग्रन्थों का रचनाकाल समाप्त हो जाता है। उसके अनन्तर विदेशी मुसलमानों के आक्रमण और आधिपत्य से भारत की प्राचीन धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थानों में भारी उथल-पुथल हुई। जनता को विविध असह्य यातनाएं सहनी पड़ी। ऐसे भयंकर काल में नये उत्कृष्ट वाङमय की रचना सर्वथा असम्भव
थी। उस काल में भारतीय विद्वानों के सामने प्राचीन वाङमय की १० रक्षा की ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समस्या उत्पन्न हो गयी थी। अधिकतर
आर्य राज्यों के नष्ट हो जाने से विद्वानों को सदा से प्राप्त होनेवाला राज्याश्रय भी प्राप्त होना दुर्लभ हो गया था। अनेक विघ्न-बाधाओं के होते हए भी तात्कालिक विद्वानों ने प्राचीन ग्रन्थों की रक्षार्थ उन
पर टीका-टिप्पणी लिखने का क्रम बराबर प्रचलित रक्खा । उसी १५ काल में संस्कृतभाषा के प्रचार को जीवित-जागत रखने के लिये
तत्कालीन वैयाकरणों ने अनेक नये लघुकाय व्याकरण ग्रन्थों की रचनाएं की। इस काल के कई व्याकरण-ग्रन्थों में साम्प्रदायिक मनोवृत्ति भी परिलक्षित होती है । इस अर्वाचीन काल में जितने व्याकरण
वने, उनमें निम्न व्याकरण कुछ महत्त्वपूर्ण हैं - २० १-जौमर २-सारस्वत ३-मुग्धबोध ४-सुपद्म
५-भोज व्याकरण' ६-भट्ट अकलङ्क कृत अब हम इनका नामोद्देशमात्र से वर्णन करते हैं
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१४. क्रमदीश्वर (सं० १३०० वि० से पूर्व) क्रपदीश्वर ने 'संक्षिप्तसार' नामक एक व्याकरण रचा है। यह सम्प्रति उसके परिष्कर्ता जुमरनन्दी के नाम पर 'जोमर' नाम से प्रसिद्ध है । क्रमदीश्वर ने स्वीय व्याकरण पर रसवती नाम्नी एक वृत्ति भी रची थी। उसी वृत्ति का जुमरनन्दी ने परिष्कार किया।
१. भोज व्याकरण विनयसागर उपाध्याय कृत है । २. सम्भवतः हेमचन्द्राचार्य और वोपदेव के मध्य ।।