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संस्कृत भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास
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१०: भट्टोजि दीक्षित ने शब्दकौस्तुभ १।१।२७ में लिखा हैचाक्रवर्मण प्राचार्य के मत में 'द्वय' शब्द की सर्वनाम संज्ञा होती थी।' तदनुसार 'द्वये, द्वयस्मै, द्वयस्मात, द्वयेषाम, द्वयस्मिन्' प्रयोग भी साधु थे। परन्तु पाणिनि के व्याकरणानुसार 'द्वय' शब्द की केवल प्रथमा विभक्ति के बहवचन में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा होती है। माघ ५ कवि ने शिशुपालवध में 'द्वयेषाम्' पद का प्रयोग किया।
११. प्राकृत-भाषा में देव आदि अकारान्त पुंल्लिङ्ग शब्द के तृतीया विभक्ति के बहवचन में 'देवेहि' आदि प्रयोग होते हैं। अर्थात् 'भिस्' को 'ऐस्' नहीं होता । प्राकृत के नियमानुसार 'भिस्' के भकार को हकार होता है, और सकार का लोप हो जाता है। १० अपभ्रंश शब्दों की उत्पत्ति लोक-प्रयुक्त शब्दों से होती है, अतः प्राकृत के 'देवेहि' आदि प्रयोगों से सिद्ध है कि कभी लौकिक-संस्कृत में 'देवेभिः' आदि शब्दों का प्रयोग होता था, वेद में 'देवेभिः' 'कर्णभिः' आदि प्रयोग प्रसिद्ध हैं । पाणिनीय व्याकरणानुसार लोक में 'देवेभिः' आदि प्रयोग नहीं बनते । कातन्त्र व्याकरण केवल लौकिक-भाषा का १५ व्याकरण है, परन्तु उसमें 'भिस् ऐस् वा' सूत्र उपलब्ध होता है।
१. 'यत्त कश्चिदाह चाक्रवर्मणव्याकरणे द्वयपदस्यापि सर्वनामताभ्युपगमात्' । भट्टोजि दीक्षित चाक्रवर्मण के मत का निर्देश करके भी उसके मत का निराकरण करता है। नवीन वैयाकरणों का 'यथोत्तरमुनीनां प्रामाण्यम्' मत व्याकरण-शास्त्र-विरुद्ध है । क्वचित् मतभेद से दो प्रकार के रूप निष्पन्न होने पर २० दोनों ही प्रयोगार्ह स्वीकृत होते हैं । महाभाष्यकार ने लिखा है-'इहान्ये वैयाकरणा मृजेरजादौ संक्रमे विभाषा वृद्धिमारभन्ते, तदिहापि साध्यम्' (१।१।३) । पाणिनि के मतानुसार 'मृजन्ति' रूप ही होना चाहिये । परन्तु भाष्यकार ने यहां अन्य वैयाकरणों द्वारा निर्दिष्ट रूपान्तरों को भी 'साध्य' कहा है। अतः 'यथोत्तरमुनीनां प्रामाण्यम्' मत सर्वथा चिन्त्य है।
२५ २. अष्टा० १।१।३।३।
३. व्यथां द्वयेषामपि मेदिनीभृताम् ।१२।१३॥ हेमचन्द्र इसे अपपाठ मानता है । देखो हैमव्या० बृहद्वृत्ति पृष्ठ ७४ ।
४. भिसो हि । वाररुच प्राकृतप्रकाश ५।५॥ यथा—सिद्धेहि णाणाविधेह, हिङगुविद्धेहि इत्यादि । भासनाटकचक्र पृष्ठ १६५ ।। पालि में 'देवेहि देवेभि' ३० दोनों प्रयोग होते हैं।
५. २।१।१८॥