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पाणिनीय अष्टाध्यायो में स्मृत आचाय
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अर्थात् शाकटायन के मत शब्द तीन प्रकार के हैं । जातिशब्द, गुणशब्द और क्रियाशब्द । यदृच्छा शब्द उसके मृत में नहीं हैं । महाभाष्यकार ने यदृच्छा शब्दों की सत्ता स्वीकार करके भी सिद्धान्त रूप से न सन्ति यदृच्छाशब्दाः स्वीकार किया है।' मीमांसक भी यदृच्छा शब्दों को स्वीकार नहीं करते । द्र० - लोकवेदाधिकारण १३ | अधि०
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१३ उपसर्ग - २० उपसर्ग प्रायः सब आचार्यों को सम्मत हैं । परन्तु शाकटायन आचार्य ' अच्छ' 'श्रद्' और 'अन्तर' इन तीन को भी उपसर्ग मानता है । इस विषय में बृहद्देवता २२६५ में शौनक लिखता है—
प्रच्छ श्रदन्तरित्येतान् श्राचार्यः शाकटायनः । उपसर्गान् क्रियायोगान् मेने ते तु त्रयोऽधिकाः ॥
पाणिनि ने ' अच्छ' 'श्रत्' और 'अन्तर' की केवल गति संज्ञा मानी है । कात्यायन ने 'श्रत्' और 'अन्तर' शब्द की उपसर्ग संज्ञा का भी विधान किया है । "
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arcerer के अन्य ग्रन्थ
१. देवत ग्रन्थ - हम पूर्व लिख चुके हैं कि शौनक ने बृहद्देवता में शाकटायन के देवता विषयक अनेक मत उद्धृत किये हैं । अतः प्रतीत होता है । शाकटायन ने ऋग्वेद की किसी शाखा की देवतानुक्रमणी सदृश कोई ग्रन्थ रचा था ।
२. निरुक्त - इस के लिए कौण्ड भट्ट कृत वैयाकरणभूषणसार की काशिका व्याख्या पृष्ठ २६३ देखना चाहिए ।
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३. कोष – केशव ने अपने नानार्थार्णवसंक्षेप में शाकटायन के कोषविषयक अनेक उद्धरण दिये हैं जिन से विदित होता है कि शाकटायन ने कोई कोष ग्रन्थ भी रचा था ।
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१. द्र० - ऋक् सूत्रभाष्य ।
२. श्रच्छब्दस्योपसंख्यानम् । महाभाप्य १ । ४ । स्याङ्किविधिसमासणत्वेषूपसंख्यानम् । महाभाष्य १ । ४ । ६४ ॥
३. श्वश्रूः श्वशुरयोषिति । पितृस्वसारस्त्वस्यार्थं व्याचष्टे शाकटायनः । भाग १, पृष्ठ १९ ॥ इत्यादि ।
५८ ॥ अन्त शब्दा:
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