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अष्टाध्यायी के वार्तिककार
३३५ १-सायण अपने ऋग्भाष्य के उपोद्घात में लिखता है
तस्यतस्य व्याकरणस्य प्रयोजनविशेषो वररुचिना वार्तिके दर्शितः-रक्षोहागमलध्वसन्देहाः प्रयोजनम् इति । एतानि रक्षादीनि प्रयोजनानि प्रयोजनान्तराणि च महाभाष्ये पतञ्जलिना स्पम्टीकृतानि ।' __अर्थात् वररुचि कात्यायन ने व्याकरणाध्ययन के प्रयोजन 'रक्षोहागम' आदि वात्तिक में दर्शाये हैं ।
२-व्याकरणाध्ययन के प्रयोजनों का अन्वाख्यान करके पतजलि ने लिखा है
एवं विप्रतिपन्नबुद्धिभ्योऽध्येतृभ्यः सुहृद् भूत्वाऽचार्य इदं शास्त्र- १० मन्वाचष्टे, इमानि प्रयोजनान्यध्येयं व्याकरणम् इति । .
यहां आचार्य पद निश्चय ही कात्यायन का वाचक है, और इदं शास्त्रं का अर्थ वार्तिकान्वाख्यान शास्त्र ही है। प्राचार्य पद महाभाष्य में केवल पाणिनि और कात्यायन के लिए ही प्रयुक्त होता है, यह हम पूर्व' कह चुके हैं । यदि व्याकरणाध्ययन के प्रयोजनों का १५ निर्देशक रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम् वार्तिककार का न माना जाये, तो यह प्राचार्य पद भाष्यकार का बोधक होगा। तो क्या भाष्यकार अपने लिये स्वयं प्राचार्य पद का प्रयोग कर रहे हैं ?
३-महाभाष्य के इस प्रकरण की तुलना 'विङति च" सूत्र के महाभाष्य से की जाये, तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि रक्षादि पांच २० प्रयोजन वार्तिककार द्वारा कथित हैं, और 'इमानि च भूयः" वाक्यनिर्दिष्ट १३ प्रयोजन भाष्यकार द्वारा प्रतिपादित हैं। 'क्ङिति च' सूत्र पर प्रयोजनवात्तिक इस प्रकार है-विङति प्रतिषेधे तन्निमित्तग्रहणमुपधारोरवीत्यर्थम् ।
महाभाष्यकार ने इस वात्तिक में निर्दिष्ट प्रयोजनों की व्याख्या २५ करके लिखा है-इमानि च भूयः तन्निमित्तग्रहणस्य प्रयोजनानि ।
१. षडङ्ग प्रकरण, पृष्ठ २६, पूना संस्क० । तुलना करो-कात्यायनोऽपि व्याकरणप्रोजनान्युदाजहार-रक्षोहागमलध्वसंदेहाः प्रयोजनम् । ते० सं० सायणभाष्य, भाग १ पृष्ठ ३० । २. महा० १११॥ प्रा० १॥ ३. पूर्व पृष्ठ २२६ ।
४. अष्टा० १३१॥५॥ ३० ५. महाभाष्य 'अथ शब्दा०' भाग १, पृष्ठ २। ।