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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
१२-माध्यन्दिनि (३००० वि० पू०) माध्यन्दिनि प्राचार्य का उल्लेख पाणिनीय तन्त्र में नहीं है । काशिका ७।१।९४ में एक कारिका उद्धृत है
संबोधने तूशनसस्त्रिरूपं सान्तं तथा नान्तमथाप्यदन्तम् । माध्यन्दिनिर्वष्टि गुण त्विगन्ते नपुंसके व्याघ्रपदां वरिष्ठः ॥
कातन्त्रवृत्तिपञ्जिका के रचयिता त्रिलोचनदास ने इस कारिका को व्याघ्रभूति के नाम से उद्धृत किया है।' सुपद्ममकरन्दकार ने भी इसे व्याघ्रभूति का वचन माना है। न्यासकार और हरदत्त इसे
आगम वचन लिखते हैं। ___इस वचन में माध्यन्दिनि आचार्य के मत में 'उशनस्' शब्द के संबोधन में 'हे उशनः, हे उशनन, हे उशन' ये तीन रूप दर्शाये हैं । विमलसरस्वती कृत रूपमाला (नपुंसकलिङ्ग प्रकरण) और प्रक्रियाकौमुदी की भूमिका के पृष्ठ ३२ में एक वचन इस प्रकार उद्धृत है
इक: षण्ढेऽपि सम्बुद्धौ गुणो माध्यन्दिनेमते।
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि माध्यन्दिनि प्राचार्य ने किसो व्याकरणशास्त्र का प्रवचन, प्रवश्य किया था।
परिचय माध्यन्दिनि पद अपत्यप्रत्ययान्त है। तदनुसार इसके पिता का नाम मध्यन्दिन था। पाणिनि के मत में बाह्वादि गण को प्राकृति२० गण मान कर ऋष्यण को बाधकर 'इ' प्रत्यय होता है । जैन शाक
टायनीय गणपाठ के बाह्वादि गण (२।४।२२) में इसका साक्षान्निर्देश मिलता है।
१. कातन्त्र चतुष्टय १००। २. सुपद्म सुबन्त २४ ।।
३. अनन्तरोक्तमर्थमागमवचनेन द्रढयति । न्यास ७११६४॥ तदाप्तागमेन २५ द्रढयति । तथा चोक्तम ....। पदमजरी ७।१।६४; भाग २, पृष्ठ ७३६ ।
४. मध्यन्दिनस्यापत्यं माध्यन्दिनिराचायः । पदमजरी ७१९४; भाग २ पृष्ठ ७३६ ।।
५. अष्टा०४।
१६।।. ६. जैन शाकटायन व्याकरण परिशिष्ट, पृष्ठ २)