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पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य
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शांख्यायन आरण्यक' आदि में उपलब्ध होता है । यदि यही वैयाघ्रपद्य व्याकरण - प्रवक्ता हो, तो वह अवश्य ही पाणिनि से प्राचीन होगा । यदि यह वैयाघ्रपद्य साक्षात् वसिष्ठ का पौत्र हो, तो निश्चय ही यह वसिष्ठपौत्र पराशर का समकालिक होगा । तदनुसार इस का काल विक्रम से न्यूनातिन्यून ४००० चार सहस्र वर्ष पूर्व होना ५ चाहिए ।
काशिका ८।२।१ में उद्धृत 'शुष्किका शुष्कजङ्घा च' कारिका को भट्टोजि दीक्षित ने वैयाघ्रपद्यविरचित वार्त्तिक माना है । अतः यदि यह वचन पाणिनीय सूत्र का प्रयोजन - वार्तिक हो, तो निश्चय ही वार्तिककार वैयाघ्रपद्य अन्य व्यक्ति होगा । हमारा विचार है यह १० कारिका वैयाघ्रपदीय व्याकरण की है । परन्तु पाणिनीय सूत्र के साथ भी संगत होने से प्राचीन वैयाकरणों ने इसका सम्बन्ध पाणिनि के 'पूर्वत्रासिद्धम्' सूत्र से जोड़ दिया। महाभाष्य में यह कारिका नहीं है ।
वयाघ्रपदीय व्याकरण का परिमाण
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काशिका ४।२।६५ में उदाहरण दिया- 'दशका : वैयाघ्रपदीयाः । इसी प्रकार काशिका ५।१०५८ में पढ़ा है - 'दशकं वैयाघ्रपदीयम्' । इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि वैयाघ्रपद्य - प्रोक्त व्याकरण में दश अध्याय थे |
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पं० गुरुपद हालदार ने इस व्याकरण का नाम वैयाघ्रपद लिखा है, और इसके प्रवक्ता का नाम व्याघ्रपात् माना है । यह ठीक नहीं है; यह हमारे पूर्वोद्धृत उदाहरणों से विस्पष्ट है । यदि वहां व्याघ्रपाद प्रोक्त व्याकरण अभिप्रेत होता, तो 'दशकं व्याघ्रपदीयम्' प्रयोगहोता है । हां, महाभाष्य ६ । २।३६ में एक पाठ है - श्रापिशलपाणि-नीयव्याडीयगौतमीयाः । इस में 'व्याडीय' का एक पाठान्तर 'व्याघ्रपदीय' है । यदि यह पाठ प्राचीन हो, तो मानना होगा कि प्राचार्य व्याघ्रपात् ने भी किसी व्याकरणशास्त्र का प्रवचन किया था । इस से अधिक हम इस व्याकरण के विषय में नहीं जानते ।
१. ६७॥
२. अत एव शुष्किका इति वैयाघ्रपद्यवार्तिके जिशब्द एव पठ्यते । शब्दकौस्तुभ १ । १ । ५६ ।। ३. भ्रष्टा० ८।२।१ ।। ४. व्याकरण दर्शनेर इति० पृष्ठ ४४४ ।
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