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पाणिनीयाष्टक में अनुल्लिखित प्राचीन प्राचार्य १३ अपने विषय का प्रथम ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ भी अत्यन्त विस्तृत था। १२ वीं शताब्दी से पूर्वभावी महाभारत का टीकाकार देवबोध लिखता है
यान्युज्जहार माहेन्द्राद् व्यासो व्याकरणार्णवात् । पदरत्नानि कि तानि सन्ति पाणिनिगोष्पदे ।
इस वचन से ऐन्द्र तन्त्र के विस्तार की कल्पना सहज में की जा सकती है। तिब्बतीय ग्रन्थों के अनुसार ऐन्द्र व्याकरण का परिमाण २५ सहस्र श्लोक था। पाणिनीय व्याकरण का परिमाण लगभग एक सहस्र श्लोक है। तदनुसार ऐन्द्र तन्त्र पाणिनीय व्याकरण से लगभग २५ गुना बड़ा रहा होगा।
कई व्यक्ति उपर्युक्त श्लोक में 'माहेन्द्रात्' के स्थान में 'माहेशात्' पढ़ते हैं। यह ठीक नहीं है । यह श्लोक देवबोध का स्वरचित है । इस में 'माहेन्द्रात्' का कोई पाठभेद उपलब्ध नहीं होता।
ऐन्द्र व्याकरण के सूत्र कथासरित्सागर में लिखा हैं कि ऐन्द्र तन्त्र अति पुरा काल में ही १५ नष्ट हो चुका था, परन्तु महान् हर्ष का विषय है कि उस के दो सूत्र प्राचीन ग्रन्थों में हमें सुरक्षित उपलब्ध हो गये ।
ऐन्त्र का प्रथम सूत्र- विक्रम की प्रथम शताब्दी में होने वाले भट्टारक हरिश्चन्द्र ने अपनी चरकव्याख्या में लिखा है।
शास्त्रेष्वपि–'अथ वर्णसमूह' इति ऐन्द्रव्याकरणस्य । २०
तदनुसार ऐन्द्र व्याकरण का प्रथम सूत्र 'अथ वर्णसमूहः' था। इससे स्पष्ट है कि उस में पाणिनीय अष्टक के समान प्रारम्भ में
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१. जर्नल गंगानाथ झा रिसर्च इंस्टीट्यूट, भाग १, सख्या ४ पृष्ठ ४१०, सन् १९४४ । २. श्री गुरुपद हालदार कृत व्याकरण दर्शनेर इतिहास, भाग १, पृष्ठ ४६५ । तथा बंगला विश्वकोश-महेश्वर शब्द । . ३. चरक न्यास पृष्ठ ५८ । स्वर्गीय पं० मस्तराम शर्मा मुद्रापित । शब्दभेद-प्रकाश के टीकाकार ज्ञानविमलगणि ने 'सिद्धिरनुक्तानां रूढे:' सूत्र की टीका में इस 'सिद्धि..' सूत्र को ऐन्द्रव्याकरण का प्रथम सूत्र लिखा है (व्याक० द० इ० पृष्ठ ४८४ ) । यह ठीक गहीं ।