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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
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अक्षरसमाम्नाय का उपदेश था। ऋक्तन्त्र' तथा ऋक्प्रातिशाख्य'
आदि में भी अक्षरसमाम्नाय का उल्लेख मिलता है। लाघव के लिये व्याकरण-ग्रन्थों के प्रारम्भ में अक्षरसमाम्नाय के उपदेश की शली अत्यन्त प्राचीन है। इसलिये आधुनिक वैयाकरणों का अष्टाध्यायी के प्रारम्भिक अक्षरसमाम्नाय के सूत्रों को अपाणिनीय मानना महती भूल है। इस पर विशेष विचार 'पाणिनि और उस का शब्दानुशासन' प्रकरण में करेंगे। फिर भी यह विचाणीय है कि ऐन्द्रतन्त्र का वर्ण समूह शिक्षा-सूत्रों में निर्दिष्ट तथा लोक-प्रसिद्ध क्रम से था अथवा
स्वशास्त्र की दृष्टि से पाणिनीय अक्षरसमाम्नाय के सदृश विशिष्टक्रम १० से निर्दिष्ट था। ऐन्द्र सम्प्रदाय के कातन्त्र में सिद्धो वर्णसमाम्नायः
सूत्र में लोक विदित वर्णक्रम की ओर संकेत है । अतः सम्भव है ऐन्द्रतन्त्र का वर्णसमूह लोकप्रसिद्ध क्रमानुसारी रहा हो ।
अन्य सूत्र-दुर्गाचार्य ने अपनो निरुक्तवृत्ति के प्रारम्भ में ऐन्द्र व्याकरण का एक सूत्र उद्धृत किया है१५ नैक पदजातम्, यथा 'अर्थः पदम्' इत्यन्द्राणाम् ।'
अर्थात् ऐन्द्र व्याकरण में सब अर्थवान् वर्णसमुदायों को पद संज्ञा होतो है । उन के यहां नरुक्तों तथा अन्य वैयाकरणों के सदृश नाम,
आख्यात, उपसर्ग और निपात ये चार विभाग नहीं हैं। सूषण विद्याभूषण ने भो 'अर्थः पदम्' को ऐन्द्र नाम से उद्धृत किया है।'
१. प्रपाठक १ खण्ड ४।
२. देखो वि णुमित्र कृत वर्गद्वयवृत्ति। ३. निरुक्तवृत्ति पृष्ठ १०, पंक्ति ११ । दुर्गवृत्ति में 'यथार्थः पदमैन्द्राणामिति' पाठ है। प्रकरणानुसार इति पद 'ऐन्द्राणाम्' से पूर्व होना चाहिए । तुलना करो—'अर्थ:पदम्' वाज० प्राति.
३॥ २॥ व्याकरण महाभाष्य के मराठी अनुवाद के प्रस्तावना खण्ड के लेखक २५ म०म० काशीनाथ वासुदेव अभ्यंकर ने दुर्गटीका के हमारे द्वारा परिष्कृत
पाठ को ही दुर्गवृत्ति के नाम से उद्धृत किया है। द्र० पृष्ठ १२६ टि० २। इस खण्ड में अन्यत्र भी हमारा नाम निर्देश न करके ग्रन्थ के अनेक उद्धरण स्वीकार किए हैं।
४. कलापचन्द्रे सुषेण विद्याभूषण लिखिया छन -'अर्थः पदम' पाहरेन्द्राः, ३० 'विभक्त्यन्तं पदम्' प्राहुरापिशलीया:, 'सप्तिङन्तं पदं पाणिनीया', (सन्धि
२०) । व्याक० द० इ० पृष्ठ ४० ।