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पांचवां अध्याय पाणिनि और उसका शब्दानुशासन
(२९०० विक्रम पूर्व) संस्कृत भाषा के जितने प्राचीन आर्ष व्याकरण बने, उन में सम्प्रति एकमात्र पाणिनीय व्याकरण साङ्गोपाङ्ग रूप में उपलब्ध ५ होता है। यह प्राचीन आर्ष वाङमय की एक अनुपम निधि है। इस से वेदवाणी का प्राचीन और अर्वाचीन और समस्त वाङमय सूर्य के पालोक की भांति प्रकाशमान है । इस की अत्यन्त सुन्दर, सुसम्बद्ध और सूक्ष्मतम पदार्थ को धोतित करने की क्षमतापूर्ण रचना को देखने वाला प्रत्येक विद्वान् इसको मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करने लगता है। १. भारतीय प्राचीन आचार्यों के सूक्ष्मचिन्तन सुपरिपक्व ज्ञान और अद्भुत प्रतिभा का निदर्शन कराने वाला यह अनुपम ग्रन्थ है। इस से वेदवाणी परम गौरवान्वित है। संसार भर में किसी भी इतर प्राचीन अथवा अर्वाचीन भाषा का ऐसा परिष्कृत व्याकरण आज तक नहीं बना।
परिचय पाणिनि के नामान्तर-त्रिकाण्डशेष में पुरुषोत्तमदेव ने पाणिनि के निम्न पर्याय लिखे हैं।'
(१) पाणिन, (२) पाणिनि, (३) दाक्षीपुत्र, (४) शालङ्कि (५) शालातुरीय, (६) आहिक । ___ श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा के याजुष-पाठ में (७) पाणिनेय' नाम भी उपलब्ध होता है । यशस्तिलक चम्पू में (८) पणिपुत्र शब्द का भी व्यवहार मिलता है।
१. पाणिनिस्त्वाहिको दाक्षीपुत्र: शालङ्किपाणिनौ। शालोत्तरीय .....। तुलना करो—सालातुरीयको दाक्षीपुत्रः पाणिनिराहिकः । वैजयन्ती, पृष्ठ ६५। २५
२. दाक्षीपुत्रः पाणिनेयो येनेदं व्याहृतं भुवि । पृष्ठ ३८ (मोनमोहन । घोष सं०)। ३. पणिपुत्र इव पदप्रयोगेषु । पाश्वास २, पृष्ठ २३६ ।