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२०४ संस्कृतव्याकरण-शास्त्र का इतिहास मास और पक्ष का निश्चय न होने से पाणिनीय वैयाकरण प्रत्येक त्रयोदशी को अनध्याय करते हैं । यह परिपाटो काशी आदि स्थानों, में हमारे अध्ययन काल तक वर्तमान थी। ___ अनुज=पिङ्गल की मृत्यु-पञ्चतन्त्र के पूर्व उद्धृत श्लोक के ५ तृतीय चरण में लिखा है--पिङ्गल को समुद्रतट पर मगर ने निगल लिया था ।
पाणिनि की महत्ता-प्राचार्य पाणिनि की महत्ता इसी से स्पष्ट है कि उस के दोनों पाणिनि और पाणिन नाम गोत्ररूप से लोक में
प्रसिद्ध हो गए । अर्थात् उसके वंशजों ने अपने पुराने गोत्र नाम के १० स्थान पर इन नए नामों का व्यवहार करने में अपना अधिक गौरव समझा।
पाणिनि गोत्र--बोधायन श्रौत सूत्र प्रवराध्याय (३) तथा मत्स्य पुराण १६७ । १० के गोत्रप्रकरण में पाणिनि गोत्र का निर्देश है ।'
पाणिन गोत्र-वायु पुराण ६११६६ तथा हरिवंश १।२७।४६ में १५ पाणिन गोत्र स्मृत है।'
पाणिनि की प्रतिप्रसिद्धि-काशिकाकार ने २११६ की वृत्ति में इतिपाणिनि तत्पाणिनि और २।१।१३ को वृत्ति में प्राकुमारं यशः पाणिनेः उदाहरण दिए हैं। इन से स्पष्ट है कि पाणिनि की यशः पताका लोक में सर्वत्र फहराने लग गई थी। __ पैङ्गलोपनिषद्-पिङ्गल नाम से सम्बद्ध एक पैङ्गलोपनिषद् भो है, परन्तु हमें वह नवीन प्रतीत होती है ।
१. पैङ्गलायना: वहीनरयः,..."काशकृत्स्नाः, पाणिनिर्वाल्मीकि ...... आपिशलयः । बौ० श्री० ॥ पाणिनिश्चैव्व न्याया: सर्व एते प्रकीर्तिताः । मत्स्य पुराण ॥
२. बभ्रवः पाणिनश्चैव घानजप्यास्तथैव २५ च । वायुः । यहां 'धानञ्जयास्तथैव' पाठ शुद्ध प्रतीत होता है।
३. काशिकाकार ने प्रथम उदाहरणों का अर्थ किया हैं—पाणिनिशब्दो लोके प्रकाशते । अन्तिम उदाहरण का अर्थ नहीं किया । कई विद्वानों का विचार है कि इस का अर्थ 'बालकों पर्यन्त पाणिनि का यश व्याप्त हो गया,
ऐसा है। हमारा विचार है 'पाकुसर्या आकुमारम्' अर्थात् 'दक्षिण में कुमारी ३० अन्तरीय पर्यन्त पाणिनि का यश पहुंच गया' होना अधिक संगत है।