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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इनके अतिरिक्त निम्न ग्रन्थों से भी प्रस्तुत संस्करण में सहायता प्राप्त हुई
१-जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (भाग ५) लक्षण साहित्यलेखक-पं० अम्बालाल प्रे० शाह । सन् १९६६ । ।
२-संस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा (आचार्य श्री कालूगणी स्मृति ग्रन्थ)-लेखक =अनेक विद्वान् । सन् १९७७ ।
हम उपर्युक्त सभी ग्रन्थों के सम्पादक और लेखक महानुभावों के प्रति कृतज्ञ हैं, जिन के ग्रन्थों से प्रस्तुत संस्करण के संशोधन परिष्करण
और परिवर्धन में साहाय्य प्राप्त हुआ। ___ इस बार तृतीय भाग में कुछ नई सामग्री जोड़ी है। उन में निम्न तीन अंश विशेष महत्त्वपूर्ण हैं
१-समुद्रगुप्त विरचित कृष्ण-चरित-इस ग्रन्थ का थोड़ा सा अंश गोण्डल (काठियावाड़) के वैद्यप्रवर जीवराम कालिदास को उपलब्ध हया था। उस को उन्होंने अपनी टिप्पणियों के साथ सन् १९४१ में छपवाया था । हमने इस कृष्णचरित को व्याडि कात्यायन और पतञ्जलि आदि के प्रकरण में उद्धृत किया है । सम्प्रति यह मुद्रित अंश भी दुर्लभ हो चुका है। कृष्ण-चरित का थोड़ सा उपलब्ध अंश भी भारतीय प्राचीन इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अतः हम उसे तृतीय भाग में मूल मात्र दे रहे हैं ।
२. श्री जार्ज कार्डोना द्वारा मेरे 'संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास' तथा व्याकरण विषयक अन्य सम्पादित वा प्रकाशित ग्रन्थों पर लिखी गई टिप्पणियां।
३-अनेक विद्वानों के पत्र-सं० व्या० शा० का इतिहास के लेखन वा परिष्कार आदि के लिये समय-समय पर मुझे अनेक सहृदय विद्वज्जनों ने पत्र द्वारा सुझाव दिये थे। उन्हें मैं इस बार तृतीय भाग में छाप रहा हूं । इन पत्रों में से अनेक पत्रों का उल्लेख मैंने इस इतिहास में अनेक स्थानों पर किया है। इन पत्रों के प्रकाशन से पाठकों को जहां मूल पत्र देखने को उपलब्ध होंगे, वहां पत्र-लेखक सभी स्वर्गत वा विद्यमान महानुभावों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का भी मुझे अवसर प्राप्त होगा। पत्र-लेखक महानुभावों में स्व० श्री पं० भगव