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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
समन्तभद्र के मत उद्धृत किये हैं ।' पाल्यकीर्ति ने इन्द्र, सिद्धनन्दी श्रीर श्रार्यवज्र के मतों का उल्लेख किया है । "
श्री नाथूराम प्रेमी और प्राग्देवनन्दी - व्याकरणकार
पं० नाथूराम प्रेमी ने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थ में लिखा है- 'जहां तक हम जानते हैं, इन छः (भूतबलि, श्रीदत्त, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन, समन्तभद्र ) श्राचार्यों में से किसी का भी कोई व्याकरण ग्रन्थ नहीं है । परन्तु जान पड़ता है इनके ग्रन्थों में कुछ भिन्न तरह के शब्द प्रयोग किये गये होंगे, और उन्हीं को व्याकरण- सिद्ध करने के लिये ये सब सूत्र रखे गये हैं । शाकटायन ने भी १० इसी का अनुकरण करके तीन प्राचार्यों के मत दिये हैं । "
हमारा मत
प्राचीन और अर्वाचीन समस्त वैयाकरण- परम्परा के अनुशीलन से हम इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि प्राचार्य पूज्यपाद और पात्यकीर्ति ने जिन-जिन आचार्यों के मत स्वीय व्याकरणों में उद्धृत किये हैं, १५ उन्होंने स्व-स्व व्याकरणशास्त्रों का प्रवचन अवश्य किया था ।
श्री प्रेमीजी ने इनके विषय में जिन प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है, ठीक उसी प्रकार पाश्चात्त्य और तदनुयायी कतिपय भारतीय व्यक्ति पाणिनि द्वारा स्मृत शाकल्य प्रादि वैयाकरणों के लिये भी व्यवहार करते हैं । अर्थात् पाणिनि द्वारा स्मृत शाकल्य २० आदि आचार्यों ने भी कोई स्वीय व्याकरण-ग्रन्थ नहीं लिखे थे, ऐसा कहते हैं । किन्तु पाणिनि द्वारा स्मृत कई प्राचार्यों के प्राचीन व्याकरणसूत्रों के उपलब्ध हो जाने से जैसे पाश्चात्त्य मत निर्मूल हो गया, और उन आचार्यों का व्याकरणप्रवक्तृत्व सिद्ध हो गया, उसी प्रकार कालान्तर में प्राग्देवनन्दी जैन वैयाकरणों का व्याकरणप्रवक्तृत्व भी २५ श्रवश्य सिद्ध होगा । देवनन्दी और पाल्यकीर्ति जैसे प्रामाणिक
१. यथाक्रम - राद् भूतबलेः । ३ । ४ । ८३ ॥ गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् । १ । ४ । ३४ ।। कृवृषिमृजां यशोभद्रस्य । २।१।६६ रात्रेः कृति प्रभाचन्द्रस्य । ४ | ३ | १८० ॥ वेत्तेः सिद्धसेनस्य । ५ । १ । ७ ॥ चतुष्टयं समन्तभद्रस्य । ५ । ४ । १४० ।।
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२. यथाक्रम — जराया ङस् इन्द्रस्याचि । १ । २ । ३७ ॥ शेषात् सिद्धनन्दिनः । २ । १ । २२६ ॥ ततः प्रागु आर्यवज्रस्य । १ । २ । १३ ॥
३. जैन साहित्य और इतिहास, प्र० सं० पृष्ठ १२० ; द्वि० सं० पृष्ठ ४७ ।