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________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास टीका का 'शब्दार्णवचन्द्रिका' नाम भी तभी उपपन्न होता है जब कि मूल ग्रन्थ का नाम 'शब्दार्णव' हो। २. जैनेन्द्रप्रक्रिया के नाम से प्रकाशित ग्रन्थ के अन्तिम श्लोक में लिखा है-गुणनन्दी ने जिसके शरीर को विस्तृत किया है, उस शब्दा५ णव में प्रवेश करने के लिये यह प्रक्रिया साक्षात् नौका के समान है ।' इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्राचार्य गुणनन्दी ने ही मूल जैनेन्द्र व्याकरण में परिवर्तन और परिवर्धन करके उसे इस रूप में सम्पादित किया है और गुणनन्दी द्वारा सम्पादित ग्रन्थ का नाम 'शब्दार्णव' है। अत एव सोमदेव सूरि ने अपनी वृत्ति के प्रारम्भ में पूज्यपाद के १० साथ गुणनन्दी को भी नमस्कार किया है। इसी प्रकार 'शब्दार्णव' के धातुपाठ में चुरादिगण के अन्त में गुणनन्दी का नामोल्लेख भी तभी सुसम्बद्ध हो सकता है, जब कि शब्दार्णव का सम्बन्ध गुणनन्दी के साथ हो। काल १५ जैन सम्प्रदाय में गुणनन्दी नाम के कई प्राचार्य हुए हैं। अतः किस गुणनन्दी ने शब्दार्णव का सम्पादन किया, यह अज्ञात है । जैन शाकटायन व्याकरण जैनेन्द्र शब्दानुशासन की अपेक्षा अधिक पूर्ण है, उस में किसी प्रकार के उपसंख्यान आदि की आवश्यकता नहीं है।' प्रतीत होता है, गुणनन्दी ने जैन शाकटायन व्याकरण की पूर्णता को देख कर ही पूज्यपाद विरचित शब्दानुशासन को पूर्ण करने का विचार किया हो और उस में परिवर्तन तथा परिवर्धन करके उसे इस रूप में सम्पादित किया हो । शाकटायन व्याकरण अमोघवर्ष (प्रथम) के राज्यकाल में लिखा गया है । अमोघवर्ष का राज्यकाल सं० १. सैषा श्रीगुणनन्दितानितवपुः शब्दार्णवनिर्णय, नावस्याश्रयतां २५ विविक्षुमनसां साक्षात् स्वयं प्रक्रिया। . २. श्रीपूज्यपादममलं गुणनन्दिदेवं सोमावरव्रतिपूजितपादयुग्मम् । ३. शब्दब्रह्मा स जीयाद् गुणनिधिगुणनन्दिव्रतीश: सुसौख्यः ।। - ४. इष्टिर्नेष्टा न वक्तव्यं वक्तव्यं सूत्रतः पृथक् । संख्यातं नोपसंख्यानं यस्य शब्दानुशासने । चिन्तामणि टीका के प्रारम्भ में। ३० ५. इस के विषय में विस्तार से आगे शाकटायन के प्रकरण में लिखेंगे।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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