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८७ प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६८६ ___ इसकी पुष्टि दण्डनाथविरचित हृदयहारिणी टीका के प्रत्येक पाद की अन्तिम पुष्पिका से भी होती है। उस का पाठ इस प्रकार है___ 'इति श्रीदण्डनायनारायणभट्टसमुद्धृतायां सरस्वतीकण्ठाभरणस्य लघुवृत्तौ हृदयहारिण्या" ....।
इस पाठ में 'समुद्धृतायां और लघुवृत्तौ' पद विशेष महत्व के ५ हैं । इनसे सूचित होता है कि नारायणभट्ट ने किसी विस्तृत व्याख्या का संक्षेपमात्र किया है, अन्यथा वह ‘समुद्धृतायां' न लिखकर' विरचितायां आदि पद रखता। प्रतीत होता है कि उसने भोजदेव की स्वोपज्ञ बहदवत्ति का उसी के सब्दों में संक्षेप किया है।' अत एव क्षीर वर्धमान आदि ग्रन्थकारों के द्वारा भोज के नाम से उद्धृत वृत्ति १० के पाठ प्रायः नारायणभट्ट की वृत्ति में मिल जाते हैं। ___ भोज के अन्य ग्रन्थ -महाराज भोजदेव ने व्याकरण के अतिरिक्त योगशास्त्र, वैद्यक, ज्योतिष, साहित्य और कोष आदि विषयों के अनेक ग्रन्थ रचे हैं।
२-दण्डनाथ नारायण भट्ट (१२ वीं शताब्दी वि०)
दण्डनाथ नारायणभट्ट नामक विद्वान् ने सरस्वतीकण्ठाभरण पर 'हृदयहारिणी' नाम्नी व्याख्या लिखी है । दण्डनाथ ने अपने ग्रन्थ में अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया। अतः इसके देश काल आदि का बृत्त अज्ञात है। ' दण्डनाथ का नाम-निर्देश-पूर्वक सबसे प्राचीन उल्लेख देवराज की २० निघण्टु-व्याख्या में उपलब्ध होता है।' यह उसकी उत्तर सीमा है । देवराज सायण से पूर्ववर्ती है। सायण ने देवराज की निघण्टीका को उद्धृत किया है। देवराज का काल विक्रम की १४ वीं शताब्दी
१. त्रिवेन्द्रम से प्रकाशित सरस्वतीकण्ठाभरण के सम्पादक ने इस अभिप्राय को न समझकर 'समुद्धृतायां' का संबन्ध काशिकावृत्ति के साथ जोड़ा है। २५ द्र०-चतुर्थ भाग की भूमिका, पृष्ठ १२ ।
२. निघण्टुटीका पृष्ठ २१८, २६०, २६७ सामश्रमी संस्करण। त्रिवेन्द्रम संस्करण के चतुर्थ भाग के भूमिका लेखक के. एस. महादेव शास्त्री ने दण्डनाथ के कालनिर्णय पर लिखते हुए सायण का ही निर्देश किया है, देवराज का उल्लेख नहीं किया है । द्र०-भूमिका, भाग ४, पृष्ठ १७ ।