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________________ १०४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास विचार में यह शिक्षा अर्वाचीन है । क्योंकि इसका सम्बन्ध तैत्तिरीय चरण से है । कृष्ण यजुर्वेद से सम्बद्ध भारद्वाज श्रौत भी उपलब्ध हैं । अतः सम्भव है कि उक्त भारद्वाज शिक्षा का कोई मूल ग्रन्थ भरद्वाजप्रणीत रहा हो, अथवा यह भारद्वाज कोई भरद्वाज-वंश का व्यक्ति उपलेख-बड़ोदा प्राच्यविद्यामन्दिर के सूचीपत्र भाग १, सन् १९४२ ग्रन्थाङ्क ५४२, पृष्ठ ३८ पर उपलेख का एक सभाष्य हस्तलेख निर्दिष्ट है। उसका मूल भरद्वाज कृत कहा गया है । ६-भागुरि (४००० वि० पू०) यद्यपि प्राचार्य भागुरि का उल्लेख पाणिनीय अष्टक में उपलब्ध नहीं होता, तथापि भागुरि-व्याकरणविषयक मतप्रदर्शक निम्न श्लोक वैयाकरण-निकाय में अत्यन्त प्रसिद्ध है वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः । १५ प्रापं चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा ॥' अर्थात्-भागुरि प्राचार्य के मत में 'अव' और 'अपि' उपसर्ग के प्रकार का लोप होता हैं । यथा-अवगाह =वगाह, अपिधान=पिधान तथा हलन्त शब्दों से प्राप् (टाप्) प्रत्यय होता है। यथा-वाक वाक् =वाचा, निश् =निशा, दिश्=दिशा । पातञ्जल महाभाष्य ४।१।१ से भो विदित होता है कि कई प्राचार्य हलन्त प्रातिपदिकों से स्त्रीलिंग में टाप् प्रत्यय मानते थे। पाणिनि ने अजादिगण में क्रुञ्चा उष्णिहा देवविशा शब्द पढ़े हैं। काशि। कार ने इनमें हलन्तों से टाप माना है। भागुरि के व्याकरणविषयक कुछ वचन जगदीश तर्कालङ्कार ने २५ शब्द-शक्तिप्रकाशिका में उद्धृत किये हैं। उन्हें हम आगे लिखेंगे। १. न्यास ६॥२॥३७, पृष्ठ २६४ । धातुवृत्ति, इण धातु पृष्ठ २४७ । प्रक्रियाकौमुदी भाग १, पृष्ठ १८२ । अमरटीकासर्वस्व,भाग १, पृष्ठ ५३ में इस प्रकार पाठ भेद है- टापं चापि हलतानां दिशा वाचा गिरा क्षुधा। वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः। ३० २. यस्ता नकारान्तात क्रुञ्चा, उष्णिहा, देवविशा इति ।
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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