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संस्कृत भाषा प्रवृत्ति, विकास और ह्रास २३ अपि वा कर्तृ सामान्यात् तत् प्रमाणमनुमानं स्यात् । १।३।२ ॥
अर्थात्-कल्पसूत्रों श्रौत, गृह्य और धर्म सूत्रों की जिन विधियों का मूल आम्नाय में नहीं मिलता, वे अप्रमाण नहीं हैं । आम्नाय और कल्पसूत्रों के कर्ता प्रवक्ता समान होने से ग्राम्नाय में अनुक्त कल्पसूत्र की विधियों का भी प्रामाण्य है । अर्थात् जिन ऋषियों ने आम्नाय = ५ वेद की शाखाओं और ब्राह्मण-ग्रन्थों का प्रवचन किया, उन्होंने ही कल्पसूत्रों की भी रचना की । अतः यदि उन का वचन एक ग्रन्थ में प्रमाण है तो दूसरे में क्यों नहीं ?
शबरस्वामीआदि नवीन मीमांसक शाखा, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् सबको अपौरुषेय तथा वेद मानते हैं। अतः उन्होंने 'कर्तृ १० सामान्यात्' पद का अर्थ 'श्रौतकर्म के अनुष्ठाता और स्मृति के कर्ता किया है । परन्तु जैमिनि वेद और आम्नाय में भेद मानता है।' वात्स्यायन मुनि ने 'द्रष्ट्रप्रवक्तृसामान्याच्चाप्रामाण्यानुपपत्तिः' के द्वारा धर्मशास्त्रों का प्रामाण्य सिद्ध किया है। जैमिनि भी 'अपि वा कर्तृसामान्यात् तत्प्रमाणमनुमानं स्यात्' सूत्र द्वारा स्मृतियों का प्रामाण्य १५ सिद्ध करता है। दोनों के प्रकरण तथा विषय-प्रतिपादन-शैली की समानता से स्पष्ट है कि जैमिनि के 'कर्वसामान्यात' पद का अर्थ 'बाम्नाय और स्मृतियों के समान प्रवक्ता' ही है।
(घ) भगवान् पाणिनि का एक प्रसिद्ध सूत्र है.. पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषुः।४।३।१०५॥ । इस सूत्र में पाणिनि ने ब्राह्मण-ग्रन्थों और कल्प-सूत्रों के दो
- १. जैमिनि ने 'वेदांश्चैके संन्निकर्ष पुरुषाख्या' १।१।२७ के प्रकरण में वेद के अनित्यत्वदोष का ३१ वें सूत्र से समाधान करके द्वितीय पाद के प्रारम्भ में 'आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानां तस्मादनित्यमुच्यते' के प्रकरण में आम्नाय के अनित्यत्व दोष और उसके समाधान का निरूपण किया है । यदि २५ वोद और आम्नाय एक हो तो 'आम्नायस्य क्रियार्थत्वात्' सूत्र में आम्नाय ग्रहण करना व्यर्थ होगा, क्यों कि वेद का प्रकरण अव्यवहित पूर्व विद्यमान है, और अनित्यत्वं दोष का समाधान भी पुनरुक्त होगा । विशेष, द्रष्टव्य, हमारी मीमांसाशाबर-भाष्य की प्रार्षमतविमर्शिनी, हिन्दी व्याख्या, भाग १ । ...
तुलना करो+आम्नायः पुनर्मन्त्राश्च ब्राह्मणानि च । कौशिकसूत्र ११३ ॥ ३०