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३२६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___ क-पाणिनि तिङि चोदात्तवति (१७१) में गति और तिङ्पदों को पृथक्-पृथक् दो पद मानकर गति को अनुदात्त विधान करता है, वहां कात्यायन उदात्तगतिमता च तिङा' (२।२।१८) वार्तिक द्वारा समास का विधान करता है। ___ख-पाणिनि सर्वस्य द्वे, अनुदात्तं च (८।१।१-२) द्वारा द्विवचन में दोनों को स्वतन्त्र पद मानता है, परन्तु कात्यायन अव्यय के द्विर्वचन में अव्ययमव्यथेन' (२।२।१८) वार्तिक द्वारा समास का विधान करता है।
ग-पाणिनि इव शब्द के प्रयोग में दोनों को स्वतन्त्र पद मानता १० है और इव को चादयोऽनुदात्ताः नियम के अनुसार अनुदात्त स्वीकार
करता है, परन्तु कात्यायन इवेन विभक्तयलोपः पूर्वपदप्रकुतिस्वरत्वं च (२।२।१८) वार्तिक द्वारा उसके समास का विधान करता है और पूर्वपदप्रकृतिस्वर का विधान करके इव को अनुदात्तं पदमेकवर्जम (६।१।१५८) नियम से अनुदात्त मानता है।
शुक्लयजुःप्रातिशाख्य में उदात्ततिङ्युक्त गति (उपसर्ग), द्विवचन और इव पद के प्रयोग को समासरूप मानकर पदपाठ में अन्य समासों के समान अवग्रह से निर्देश करने का विधान किया है। यथा
अनुदात्तोपसर्गे चाख्याते। ५।१६।। उपस्तृणन्तीत्युप स्तृणन्ति । अवधावतीत्यव धावति । ___ इवकारानेडितायनेषु च । ५ । १८॥ सुचीवेतिनुचि इव । प्रतिप्रप्र।
५. सायण ने अपने ऋग्वेद-भाष्य की भूमिका में स्पष्ट रूप से वार्तिककार का नाम वररुचि लिखा है।
डा० वर्मा के मिथ्या आक्षेप और उनका उत्तर २५ श्री डा. सत्यकाम वर्मा ने अपने 'संस्कृत व्याकरण का उदभव
१. किन्ही संस्करणों में यह वार्तिक नहीं मिलता । वहां इसका व्याख्यान भाग-'उदात्तवता तिडा गतिमता चाव्ययं समस्यत इति वक्तव्यम्' विद्यमान है।
२. इस विषय में कीलहान संस्क० भाग १, पृष्ठ ४१७ पर टिप्पणी देखें (तृ० सं०)। ३० ३. तस्यैतस्य व्याकरणस्य प्रयोजनविशेषो वररुचिना वातिककारेण दर्शितः
रक्षोहागमलध्वसन्देहा: प्रयोजनम्। षडङ्ग प्रकरण, पृष्ठ २५, पूना संस्करण ।