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________________ पाणिनीय अष्टाध्यायी में स्मृत आचाय १७१ अब रही द्वय पद की सर्वनाम संज्ञा । महाभाष्य ने 'द्वये प्रत्यया विधीयन्ते तिङश्च कृतश्च" इस वाक्य में द्वय पद की सर्वनाम संज्ञा मानी है। यद्यपि यहां द्वय पद को स्थानिवद्भाव से तयप्प्रत्ययान्त मानकर 'प्रथमचरमतयाल्पार्ध०२ सूत्र से जस्विषय में इस की विकल्प से सर्वनाम संज्ञा मानी जा सकती है, तथापि अाधुनिक वैयाकरणों के ५ 'यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्" इस द्वितीय नियम से 'प्रथमचरम०' सूत्र से द्वय शब्द को सर्वनाम संज्ञा नहीं हो सकती, क्योंकि महाभाष्यकार ने 'द्वय' पद में होने वाले 'प्रयच्' को स्वतन्त्र प्रत्यय माना है न कि तयप का आदेश । अतः यहां 'प्रथचरम०' सूत्र की प्रवत्ति नहीं हो सकती। महाभाष्यकार के मत में द्वय पद को सर्वनाम संज्ञा होती है १० यह पूर्व उद्धरण से व्यक्त है। इसीलिये चन्द्रगोमी ने अपने व्याकरण में 'प्रथमचरम०' सूत्र में 'अय' अंश का प्रक्षेप करके 'प्रथमचरमतयायाल्पार्ध" ऐसा न्यासान्तर किया है । 'ययोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्' इस नियम में भी वे ही पूर्वोक्त दोष उपस्थित होते हैं, जो 'नियतकालाः स्मृतयः' में दर्शाए हैं । आधुनिक १५ वैयाकरणों के उपर्युक्त दोनों नियम शास्त्रविरुद्ध होने से अशुद्ध हैं, यह स्पष्ट है । अतः किसी भी शिष्टप्रयोग को इन नियमों के अनुसार अशुद्ध बताना दुःसाहसमात्र है। नवीन वैयाकरणों के इस मत की पालोचना प्रक्रियासर्वस्व के रचयिता नारायण भट्ट ने 'अपाणिनीयप्रामाणिकता' नामक लघु ग्रन्थ में भले प्रकार की है। वैयाकरणों को २० यह ग्रन्थ अवश्य देखना चाहिए। प्राचीन आर्ष वाङमय में शिष्ट-प्रयुक्त शब्दों के साधुत्व ज्ञान के लिए हमारा 'पादिभाषायां प्रयुज्यमानानाम् अपाणिनीयपदानां साधुत्वविवेचनम्' निवन्ध देखिए। १. महाभाष्य २।३।६५॥ ६।२।१३६॥ २. अष्टा० १।१।३३॥ २५ ३. भाष्यप्रदीपविवरण ३३११८०॥ ४. अयच प्रत्ययान्तरम् । महाभाष्य ११११४४,५६॥ । ५. चान्द्र व्याक २।१।१४।। हेमचन्द्र ने भी 'अय' का पृथग्ग्रहण किया है। उदाहरण में त्रय शब्द की भी विकल्प से सर्वनाम संज्ञा मानी है। देखो हैम बृहदवृत्ति १४।१०॥ ६. यह ग्रन्थ 'ब्रह्मविलास मठ पेरुरकाडा ३० ट्वेिण्ड्रम' से प्रकाशित हुआ है। इसे इस ग्रन्थ के तीसरे भाग में देखें । ७. द्र० -वेदवाणी, वर्ष १४, अङ्क १,२,४,५ । यह लेख शीघ्र प्रकाशित
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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