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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
मैत्रेयरक्षित धापूप्रदीप ११६५ वि० सं० धर्मकीर्ति रूपावतार' ११४० " . हरदत्त
पदमञ्जरी १११५ ॥ कैयट
महाभाष्यप्रदीप १०६० , ५ . इस प्रकार कैयट का काल अधिक से अधिक विक्रम की ग्यारहवीं
शताब्दी का उत्तरार्ध माना जा सकता है। यह उपर्युक्त ग्रन्थकारों में न्यूनातिन्यून २५ वर्ष का अन्तर मानकर उत्तर सीमा हो सकती है। अर्थात् इस उत्तर काल में कैयट को नहीं रख सकते । सम्भव है कैयट
इस से भी अधिक प्राचीन ग्रन्थकार हो, परन्तु दृढ़तर प्रमाण के १० अभाव में अभी इतना ही कहा जा सकता है।
महाभाष्य-प्रदीप कयट ने अपनी टीका के प्रारम्भ में लिखा है कि मैंने यह व्याख्या भर्तृहरिनिबद्ध साररूप ग्रन्थसेतु के आश्रय से रची है। यहां कैयट
का अप्रिाय भर्तृहरिविरचित 'वाक्यप्रदीय' और 'प्रकीर्णकाण्ड' से १५ है । यह 'सार' शब्द के निर्देश से स्पष्ट है।
कैयट ने सम्पूर्ण प्रदीप में केवल एक स्थान पर भर्तृहरिविरचित 'महाभाष्यदीपिका' की ओर संकेत किया है, दीपिका का पाठ कहीं पर उद्धृत नहीं किया । इसके विपरीत 'वाक्यपदीय' और 'प्रकीर्णकाण्ड' के शतशः उद्धरण भाष्यप्रदीप में उद्धृत हैं । प्रदीप से कैयट का व्याकरण-विषयक प्रौढ़ पाण्डित्य स्पष्ट विदित होता है । सम्प्रति महाभाष्य जैसे दुरुह ग्रन्थ को समझने में एकमात्र सहारा प्रदीप ग्रन्थ है। इसके विना महाभाष्य पूर्णतया समझ में नहीं आ सकता। प्रतः पाणिनीय संप्रदाय में कयटकृत 'महाभाष्यप्रदीप' अत्यन्त महत्त्व रखता है।
१. रूपावतार और धर्मकीति को हेमचन्द्र ने लिङ्गानुशासन की स्वोपज्ञबत्ति में (पृ०७१) उद्धृत किया है--वाः वारि, रूपावतारे तु धर्मकीर्तिनास्य नपंसकत्वमुक्तम । हेमचन्द्राचार्य ने स्वव्याकरण की रचना सम्भवतः सं० १९६५ के लगभग की थी। ऐसा हम आगे निरूपण करेंगे।
२. तथापि हरिबद्धन सारेण ग्रन्थसेतुना....
३. विस्तरेण भर्तृहरिणा प्रदर्शित ऊहः । नवाह्निक निर्णयसागर संस्करण पृष्ठ २०॥
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