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प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण
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महाराज भोज का एक दानपत्र सं० १०७८ वि० का उपलब्ध हुआ है, और इनके उत्तराधिकारी जयसिंह का दानपत्र सं० १११२ मिला है। अतः भोज का राज्यकाल सामान्यतया सं० १०७५-१११० तक माना जाता है। - सौराष्ट्र की राजधानी भुजनगर (भुज) के राजा भोज (राज्य- ५ काल सं० १६८८-१७०२) की तुष्टि के लिये विनय सागर उपाध्याय ने एक अभिनव भोज-व्याकरण की रचना की थी।
__संस्कृतभाषा का पुनरुद्धारक महाराज भोजदेव स्वयं महाविद्वान्, विद्यारसिक और विद्वानों का प्राश्रयदाता था। उसने लुप्तप्रायः संस्कृतभाषा का पुनः एक बार १० उद्धार किया। वल्लभदेवकृत भोजप्रबन्ध में लिखा है
'चाण्डालोऽपि भवेद्विद्वान यः स तिष्ठतु मे पुरि। विप्रोऽपि यो भवेन्मूर्खः स पुराद् बहिरस्तु मे ॥
महाराज भोज की इतनी महती उदारता के कारण इनके समय में तन्तुवाय (जुलाहे) तथा काष्ठभारवाहक (लकड़हारे) भी संस्कृत १५ भाषा के अच्छे मर्मज्ञ बन गये थे। भोजप्रबन्ध में लिखा है कि एक बार धारा नगरी में बाहर से कोई विद्वान आया। उसके निवास के लिये नगरी में कोई गृह रिक्त नहीं मिला । अतः राज्यकर्मचारियों ने एक तन्तुवाय को जाकर कहा कि तू अपना घर खाली कर दे, इसमें एक विद्वान् को ठहरावेंगे । तन्तुवाय ने राजा के पास जाकर जिन २० चमत्कारी शब्दों में अपना दुःख निवेदन किया, वे देखने योग्य हैं। तन्तुवाय ने कहा
'काव्यं करोमि नहि चारुतरं करोमि, . यत्नात् करोमि यदि चारुतरं करोमि ।
भूपालमौलिमणिमण्डितपादपीठ ! हे साहसाङ्क ! कवयामि वयामि यामि ॥' एक अन्य अवसर पर भोजराज ने एक वृद्ध लकड़हारे को कहा
'भूरिभारभराकान्त ! बाघति स्कन्ध एष ते।' इसके उत्तर में उस वृद्ध लकड़हारे ने निम्न चमत्कारी उत्तरार्ष पढ़ा