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पाणिनि और उसका शब्दानुशासन
व्याख्या कि एक जीर्ण प्रति उपलब्ध हुई। इस के विषय में यह . अनुमान किया जाता है कि यह उद्भट का विवरण है । इस प्रति का हस्तलेख भोजपत्रों पर दशम शती की शारदा लिपि में लिखा हुआ है। यह अभी अभी प्रकाशित हया । इस के ३४ वें पृष्ठ के अन्त में और ३५ वें पृष्ठ के आदि में निम्न पाठ है
....."इदमुदाहरणं समासोक्तेः-उपोढ [.......... परोऽपि मोहाद गलितं न रक्षित (म्) । अत्र शशिरजनी व्याषाणपरे य प्रxxx सहसुxत [.
इस पर सम्पादक ने जो पाठशोधन करके पाठपूर्ति की है, वह इस प्रकार है
उपरोपरागेण विलोलतारकं, तथा गृहीतं शशिना निशामुखम् । यथा समस्तं तिमिरांशुकं तथा परोऽपि रागाद् गलितं न लक्षितम् ॥
यह श्लोक प्रायः पाणिनि के नाम से स्मृत है। पो. पिटर्सन ने JRAS १८९१, पृष्ठ ३१३-३१६ में पाणिनि के नाम से उद्धृत वचनों का संग्रह किया है । और पिशल ने माना है कि काव्यकार पाणिनि ही वैयाकरण १५ पाणिनि है। ZDMG XXXIX पृष्ठ ६५-८, ३१३-३१६ । तथा अभी अभी के. उपाध्याय ने भी IHQ XIII, पृष्ठ १३७ में लिखा है । पैरिस से प्रकाशित दुर्घटवृत्ति भाग १ पृष्ठ ७३ में रेणु ने अनुमात किया है कि काव्यकार पाणिनि ६ वीं शती से पूर्व का है। अब इतना निश्चित हो गया कि काव्यकार पाणिनि उद्भट (पाठवीं शती) से पूर्वभावी।
हमारा निश्चित मत है कि ज्यों-ज्यों पुरानी सामग्री प्रकाश में प्राती जाएगी, त्यों-त्यों काव्यकार पाणिनि और वैयाकरण पाणिनि का एकत्व भी सुदृढ़ होता जायगा। _हर्ष का विषय है कि डा० सत्यकाम वर्मा ने अपने 'सं० व्या० का उद्भव और विकास' अन्थ में पाश्चात्य मनोवृत्ति का त्याग करके इस २५ काव्य को वैयाकरण पाणिनि की कृति स्वीकार किया है ।
३. द्विरूपकोश लन्दन की इण्डिया आफिस लाइब्रेरी में द्विरूपकोश का एक हस्तलेख है। उसकी संख्या ७८६० है। यह कोश छ: पत्रों में पूर्ण है । ग्रन्थ के अन्त में 'इति पाणिनिमुनिना कृतं द्विरूपकोशं सम्पूर्णम्' लिखा है। १०