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५२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास रूपी महत्त्वपूर्ण कार्य के कारण शिव का 'महादेव' नाम प्रसिद्ध हुअा।
स्थाणु-महाभारत अनुशासन पर्व प्र०८४ श्लोक ६०-७२ के अनुसार शिव ने देवों के हित की कामना से उनकी प्रार्थना पर
अविप्लुतब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। इसलिए शिव को ब्रह्मचारी', ५ ऊर्ध्वरेता', ऊर्ध्वलिङ्ग', और ऊर्ध्वशायी' (=उत्तानशायी) भी कहते
हैं । यतः शिव ने नित्य ब्रह्मचर्य के कारण पार्वती में किसी वंशकर (=पुत्र) को उत्पन्न नहीं किया, इस कारण विष का एक नाम स्थाणु भा प्रसिद्ध हुआ। लोक में भी फलशाखा-विहीन शुष्क वृक्ष (ठ) के लिए स्थाणु शब्द का व्यवहार होता है ।
विशालाक्ष-महाभारत अनुशासन पर्व १७३७ में विशालाक्ष नाम पढ़ा है। यह नाम शिव को राजनीति-विषयक दीर्घदष्टि को प्रकट करता है । कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में विशालाक्ष नाम से शिव के अर्थशास्त्र के अनेक मत उद्घत किए हैं।
शिव परमयोगी थे, परन्तु देवों की प्रार्थना पर उन्होंने तात्कालिक १५ देवासुर संग्रामों में अनेक बार महत्त्वपूर्ण भाग लिया। उनमें त्रिपुर
दाह एक विशेष घटना है । यह एक ऐसा महान कार्य था । जिसे अन्य कोई भी देव करने में असमर्थ था । अतएव त्रिपुरदाह के कारण शिव देव से महादेव बने । समुद्रमन्थन के समय लोक
कल्याण के लिए शिव का विषपान करना, और योगज-शक्ति से २० उसे जीर्ण कर देना भी एक आश्चर्यमयी घटना थी। इसी प्रकार
दक्ष प्रजापति के यज्ञ का ध्वंस भी एक विशेष घटना थी। इसी में इन्द्र के भ्राता पूषा का दन्त भग्न हुआ था।
गृह-हेमचन्द्र कृत अभिधानचिन्तामणि कोष को स्वोपज्ञ टीका में शेष के कोष का एक वचन उद्धृत है । उस में शिव का नाम गद्य२५ १. महा० अनु. १७१७५॥ २. महा० अनु० १७१४६।।
ऊर्ध्वरेता:-प्रविप्लुतब्रह्मचर्यः । ऊर्ध्वलिङ्गः अधोलिङ्गो हि रेतः सिंचति, न तूर्ध्वलिङ्गः। ऊर्ध्वशायी-उत्तानशायी-इति नीलकण्ठः ।
३. स्थिरलिङ्गश्च यन्नित्यं तस्मात् स्थाणुरिति स्मृतः ॥ नित्येन ब्रह्मचर्येण लिङ्गमस्य यदा स्थितम् ।। महा• अनु० १६१ ॥११, १५ ॥ ३० ४. तुलना करो-इन्द्र का वृत्र-वध से महेन्द्र बनना (इन्द्र प्रकरण में देखें)।
५. पूष्णो दन्तविनाशनः । महा० शान्ति. २८४॥ ४६ ॥