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________________ आचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङ्मय २९३ यथार्थतां कथं नाम्नि माभूद् वररुचेरिह । व्यधत्त कण्ठाभरणं य: सदारोहरणप्रियः ॥ कृष्णचरित की प्रस्तावनान्तगत मुनिकविवर्णन में लिखा यः स्वर्गारोहणं कृत्वा स्वर्गमानीतवान् भुवि । काव्येन रुचिरेणैव ख्यातो वररुचिः कविः ॥ इस श्लोक से प्रतीत होता है कि पूर्वोद्धृत राजशेखरीय श्लोक के चतुर्थ चरण का पाठ अशुद्ध है । वहां 'सदारोहरणप्रियः' के स्थान में 'स्वर्गारोहणप्रियः' पाठ होना चाहिए।' महाभाष्य के प्रथमाह्निक में पतञ्जलि ने भ्राजसंज्ञक श्लोकों का उल्लेख किया है, और तदन्तर्गत निम्न श्लोक वहां पढ़ा है- १० यस्तु प्रयुडक्ते कुशलो विशेषे शब्दान यथावद व्यवहारकाले। सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र वाग्योगविद् दुष्यति चापशब्दैः ।। कैयट आदि टीकाकारों के मतानुसार भ्राजसंज्ञक श्लोक कात्यायन विरचित हैं। पानिणि ने स्वयं 'जाम्बवतीविजय' नामक एक महाकाव्य रचा १५ था। इसका दूसरा नाम 'पातालविजय' है । इस महाकाव्य में न्यूनातिन्यून १८ सर्ग थे । पाश्चात्य तथा तदनुगामी भारतीय विद्वान् जाम्बवतीविजय को सूत्रकार पाणिनि-विरचित नहीं मानते, परन्तु यह ठोक नहीं । भारतीय प्राचीन परम्परा के अनुसार यह काव्य व्याकरणप्रवक्ता महामुनि पाणिनि विरचित ही है । इस काव्य के विषय में २० हमने विस्तार से इसी ग्रन्थ के ३० वें अध्याय में लिखा है । ___ महाभारत जैसे बृहत्काव्य का साक्षात् निर्देश पाणिनि ने ६।२। ३८ में किया है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं।' * ऋतुग्रन्थ-पाणिनि ने 'वसन्तादिभ्यष्ठक' में वसन्त आदि ऋतुओं पर लिखे गये ग्रन्थों के पठन-पाठन का उल्लेख किया है। २५ वसन्तादि गण में 'वसन्त' वर्षा, हेमन्त, शरद, शिशिर' का पाठ है। इस से स्पष्ट है कि इन सब ऋतुओं पर ग्रन्थ लिखे गए थे। सम्भव १. वाररुच काव्य के विषय में देखो भाग २ में अध्याय ३० । २. पूर्व पृष्ठ २८७, टि० ३। ३. अष्टा० ४।२।६३॥
SR No.002282
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages770
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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