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६२४ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास लिखता है-'मूल में उसमें चार अध्याय थे।" दुर्गसिंह के पूर्व श्लोक से स्पष्ट है कि कातन्त्र का चौया अध्याय कात्यायनकृत हैं । अतः मूल ग्रन्थ में तीन ही अध्याय थे। कीथ का मूल में चार अध्याय लिखना चिन्त्य है।
कातन्त्रपरिशिष्ट का कर्ता-श्रीपतिदत्त प्राचार्य कात्यायन द्वारा कृत्प्रकरण का समावेश हो जाने पर भी कातन्त्र व्याकरण में अनेक न्यूनताएं रह गईं। उन्हें दूर करने के लिये श्रीपतिदत्त ने कातन्त्र-परिशिष्ट की रचना की । श्रीपतिदत्त का
काल अज्ञात है, परन्तु वह विक्रम की ११ वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती है, १० इतना स्पष्ट है।
परिशिष्ट-वृत्ति-श्रीपतिदत्त ने स्वविरचित कातन्त्र-परिशिष्ट पर वृत्ति भी लिखी है । कातन्त्रोत्तर का कर्ता-विजयानन्द (१२०७ वि० पूर्व)
कातन्त्र व्याकरण की महत्ता बढ़ाने के लिये विजयानन्द ने १५ 'कातन्त्रोत्तर' नामक ग्रन्थ लिखा । इसका दूसरा नाम विद्यानन्द है।'
पट्टन के जैनग्रन्थागारों के हस्तलिखित ग्रन्थों के सूचीपत्र पृष्ठ २६१ पर 'कातन्त्रोत्तर' ग्रन्थ का निर्देश है । इस हस्तलेख के अन्त में निम्न पाठ है--
___ 'दिनकर-शतपतिसंख्येऽष्टाधिकान्दमुक्ते श्रीमद्गोविन्दचन्द्र२० देवराज्ये जाह्नव्या दक्षिणकूले श्रीमद्विजयचन्द्रदेववडहरदेशभुज्यमाने
श्रीनामदेवदत्तजह्मपुरोदिग्विभागे पुरराहूपुरस्थिते पौषमासे षष्ठयां तिथौ शौरिदिने वणिक्जल्हणेनात्मजस्यार्थे तद्धितविजयानन्दं लिखित. मिति । यादृशं दृष्टं तथा लिखितम्' ।
इससे इतना स्पष्ट है कि यह प्रति सं० १२०८ में लिखी गई २५ थी। अतः विजयानन्द विक्रम सं० १२०० से पूर्ववर्ती है।
१. हिन्दी अनुवाद, पृष्ठ ५११ ॥ २. सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पैरा नं. ६६ ।
३. जैन पुस्तकप्रशस्तिसंग्रह में भी 'पाटण खेतरवसहीपाठकावस्थित' भाण्डागार के सं० १२०८ के लिखे कातन्त्रोत्तर के हस्तलेख का निर्देश है।
३० द्र० पृष्ठ १०६ ।