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प्राचार्य पाणिनि से अर्वाचीन वैयाकरण ६८३ गणरत्नमहोदधि, कातन्त्रगणधातुवृत्ति और माधवीया धातुवृत्ति' में मिलता है। वर्धमान, पतञ्जलि और कात्यायन के साथ शिवस्वामी का प्रथम निर्देश करता है। दूसरे स्थान पर 'परः पाणिनिः, अपरः शिवस्वामी' उदाहरण देता है। इससे प्रतीत होता है कि वर्धमान की दृष्टि में शिवस्वामी पाणिनि के सदृश महावैयाकरण था । ५
काल . कल्हण ने राजतरङ्गिणी ५। ३४ में लिखा है कि शिवस्वामी कश्मीराधिपति अवन्तिवर्मा के राज्यकाल में विद्यमान था। अवन्तिवर्मा का राज्यकाल सं० ६१४-६४० तक है । अतः वही काल शिवस्वामी का है।
पं० गुरुपद हालदार ने अपने 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' (पृष्ठ ४५२) में लिखा है-'शिवस्वामी शिवयोगी बलियामो प्रसिद्ध । षड्गुरुशिष्य सम्भवतः इहाकेह छयजन गुरुर मध्ये अन्यतम बलिया स्वीकार करिया छैन ।' -- 'कफिफणाभ्युदय लिखिलेनो शिवस्वामी बौद्ध न हेन, तिनि १५ सनातनधर्मावलम्बी छिलेन । स्मार्तदेर मध्येप्रो तिनि एकथन प्रमाणपुरुष । मदनपारिजाते स्मृतिचन्द्रिकाय एवं पराशरमाधवोये ताहार मतवाद उद्धृत हईया छ ।'
हालदार महोदय को भूल-पं० गुरुपद हालदार का उपर्युक्त , लेख ठीक नहीं है। शिवस्वामी और शिवयोगी भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं । शिवस्वामी का काल दशम शताब्दी का पूर्वार्ध है, यह हम ऊपर लिख चुके हैं । शिवयोगी षड्गुरुशिष्य का अन्यतम गुरु है। षड्गुरु
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. १. अत्र वृत्तिकारशिवस्वामिभ्यां भाष्योक्तमस्वस्य स्वत्वेन करणं प्रसिद्धिवशात् पाणिग्रहणविषय उपसंहृतम् । धातुवृत्ति पृष्ठ १६६ ॥ शिवस्वामिकश्यपौ । तु दीर्घान्तमाहतः । धातुवृत्ति पृष्ठ ३१६ । शिवस्वामी वकारोपधं पपाठ । २५ धातुवृत्ति पृष्ठ ३५७ ।
२. मुख्यशब्दस्यादिवचनत्वात् शिवस्वामिपतञ्जलिकात्यायनप्रभृतयो लभ्यन्ते । पृष्ठ २।
३. गणरत्नमहोदधि, पृष्ठ २६ । ४. मुक्ताकणः शिवस्वामी कविरानन्दवर्धनः । प्रथां रत्नाकरश्चागात साम्राज्येऽवन्तिवर्मणः ॥ ...