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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास .
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५. वररुचिस्तु चकारात् क्वचिदघोषेऽप्युत्वं भवति । यथा वातोऽपि तापपरितो सिञ्चति । 'द्र० १।१।६, २०, २३; ५।८ इत्यादि ।'
इसी प्रकार वररुचिवृत्ति तथा वररुचि के नाम पुरस्सर मत दुर्गटीका, पञ्जिका, व्याख्यासार, कलापचन्द्र, बिल्वेश्वर टीका दुर्गवृत्ति टिप्पणी आदि में मिलते हैं । __ अहमदाबाद के 'लालभाई दलपति भाई संस्कृति विद्यामन्दिर' में वररुचिकृत कृदन्त भाग की वृत्ति का एक हस्तलेख है । उस के पञ्चम और षष्ठ पाद के अन्त में निम्न पाठ है
पण्डित वररुचिविरचितायां कृद् वृत्तौ पञ्चमः पादः समाप्तः । पण्डित वररुचिविरचितायां कृवृत्तौ षष्ठः पादः समाप्तः ।
कातन्त्र व्याकरण विमर्श के कर्ता ने इस वृत्ति को अन्य वररुचि कृत माना है ।
३-शशिदेव शशिदेव कृत 'शशिदेव वृत्ति' का उल्लेख अल्बेरूनी ने अपनी १५ भारतयात्रा विवरण में किया है । यह वृत्ति अनुपलब्ध हैं और अन्यत्र भी इस का उल्लेख नहीं मिलता है ।
४-दुर्गसिंह __प्राचार्य दुर्गसिंह वा दुर्गसिंह्म विरचित कातन्त्रवृत्ति सम्प्रति उपलब्ध है । यह उपलब्ध वृत्तियों में सब से प्राचीन है। दुर्गसिंह ने अपने ग्रन्थ में अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया । अतः दुर्गसिंह का इतिवृत्त सर्वथा अज्ञात है।
दुर्ग के अनेक नाम-दुर्गसिंह ने लिङ्गानुशासन की वृत्ति में अपने-अनेक नामों का उल्लेख किया है । यथा
१. का० व्या० विमर्श, पृष्ठ ७ । २. का० व्या० विमर्श, परिशिष्ट २, पृष्ठ २७५ पर 'वररुचि' शब्द । ३. का. व्या० विमर्श, पृष्ठ ८ । ४. अल्बेरूनी का भारत, भाग २, पृष्ठ ४० ।