________________
१.
अष्टाध्यायो के वृत्तिकार ४८३ विरचित 'अष्टाध्यायीवृत्ति' का उल्लेख करते हैं । भर्तृहरि महाभाष्य १।१।३८ की व्याख्या में लिखता है___'अतः एषां व्यावृत्त्यर्थ कुणिनापि तद्धितग्रहणं कर्तव्यम् ।..." अतो गणपाठ एव ज्यायान् अस्यापि वृत्तिकारस्य इत्येतदनेन प्रतिपादयति ।"
कैयट महाभाष्य ११११७५ की टीका में लिखता है
'कुणिना प्राग्ग्रहणमाचार्यनिर्दशार्थ व्यवस्थितविभाषार्थं च व्याख्यातम् । ...."भाष्याकारस्तु कुणिदर्शनमशिश्रयत् ।'
हरदत्त भी 'पदमजरी' में लिखता है-'कुणिना तु प्राचां ग्रहणमाचार्यनिर्देशार्थ व्याख्यातम्, भाष्यकारोऽपि तथैवाशिश्रयत् ।
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि प्राचार्य कुणि ने अष्टाध्यायी की कोई वृत्ति अवश्य रची थी।
परिचय वृत्तिकार प्राचार्य कुणि का इतिवृत्त सर्वथा अन्धकारावृत्त है। हम उस के विषय में कुछ नहीं जानते।
'ब्रह्माण्ड पुराण' तीसरा पाद ८९७ के अनुसार एक 'कुणि' वसिष्ठ का पुत्र था। इस का दूसरा नाम 'इन्द्रप्रमति' था। एक इन्द्रप्रमति ऋग्वेद के प्रवक्ता प्राचार्य पैल का शिष्य था । निश्चय ही वृत्तिकार कुणि इन दोनों से भिन्न व्यक्ति है ।
काल प्राचार्य कुणि का इतिवृत्त-अजात होने से उसका काल भी अज्ञात है। भर्तृहरि आदि के उपर्युक्त उद्धरणों से केवल इतना प्रतीत होता है कि यह प्राचार्य महाभाष्यकार पतञ्जलि से पूर्ववर्ती है।
१. इमारा हस्तलेख पृष्ठ ३०६, पूना सं० पृष्ठ २३० । २. पदमञ्जरी १।१७५, भाग १, पृष्ठ १४५ । ३. वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग १, पृष्ठ ७८ प्र० सं० ।