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।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक:१
आराधना
वीर जैन
श्री महावी
कोबा.
अमृतं
अमृत
तु विद्या
तु
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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प रा श र - स्मृति:
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BIBLIOTHECA INDICA — A COLLECTION OF ORIENTAL WORKS
PARĀŠARA-SMRTI
PARĀŠARA MĀDHAVA
VOLUME I
ĀCHĀRAKĀNDA
With the Gloss By MADHAVĀCHARY YA
Edited with Notes By
MAHĀMAHOPĀDHYAYA CHANDRAKĀNTA TARKĀLANKARA
SIRWILLIAMIONES
MDCCXLVI-MOXCXCM
THE ASIATIC SOCIETY
1 9 74
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BIBLIOTHECA INDICA A COLLECTION OF ORIENTAL WORKS
पराशर स्मृति:
श्रीमन्माधवाचार्य्यं कृतव्याख्या सहिता
-
आचारकाण्डरूप प्रथमभागात्मिका
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महामहोपाध्याय श्रीचन्द्रकान्त तर्कालङ्कार परिशोधिता
SIR WILLIAMJONES
DCCXLVI-MDCCXCM
दि एशियाटिक सोसाइटि १९७४
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Work Number 303 © The Asiatic Society
First Published in 1893 Reprinted in 1974
Published by Dr Sisir Kumar Mitra General Secretary The Asiatic Society 1 Park Street Calcutta 16
Printed by Shri P. K. Mukherjee S. Antool & Co. Private Ltd. 91 Acharya Prafulla Chandra Road Calcutta-9
And Shri T. K. Mitra Venus Printing Works 52/7 Bepin Behari Ganguli Street Calcutta 12
Price Rs. 40.00
$ 7.00 £ 2.80
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PRE FACE
We are happy to release the Volume One of Mm. Chandrakänta Tarkālaņkāra's annotated edition of Parāśara Mādhava or Parāśara Smrti with the gloss of Mādhavāchārya Vidyaranya. The Second Volume containing the Prāyaśchitta Kanda and the Vyavahāra Kānda, was published last year. The publication of the present volume has been unavoidably delayed as some portions of it could not be brought under photo offset process and had to be done through letter press. The Society published the original edition in its Bibliotheca - Indica Series as early as 1890-93. Naturally it went out of print long ago, and even the Society's library copies have become too brittle to handle. We are thankful to the authorities of the Samkara Vidyābhavana Chatuspāțhi, Tārakeswara and of the Sanskrit College, Calcutta, for kindly lending their copies which were found to be rather in a better state.
In tune with the well known concept of Manu, Acharah prabhavo Dharmah Parāśara observes in the opening kända of his treatise that he is truly a religious man who follows the prescriptions of āchara ( Chaturņāmapi varņānām acharo Dharmapalakah). Āchārakāņda, the first part of the Samhitā, discusses the basic duties of all the four varņas, their domestic and socio-religious rites and ceremonies and also norms of their social relationship, but in a spirit of accomodation with the changing character of the age. Madhavacharyya, a scholar of deep erudition, possessing wide experience of men and matters, felt the need of explaining the inner significance of the social regulations in order to standardise life against the background of some fixed values.
Parasara Smrti with its liberal approach to social problems became Mādhava's medium. He analysed critically the prescriptions outlined in the text and in addition to the
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commentary provided a digest of social and religious regulations, and there lies the real value of his work. Madhava's methodology came to be followed by later commentators in different parts of the country including Bengal and the treatise is still considered indispensable for students and scholars on Dharmaśāstra. The complete list of contents has been appended at the end of Volume II.
:'. The Society records its thanks to the Ministry of Education and Culture, Government of India, for providing the 50% of the cost of production by way of advance. Thanks are also due to Pandit Jadavendra Nath Tarkatīrtha for his valued assistance in the publication of the work.
The Asiatic Society, August, 1974
S. K. MITRA General Secretary
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91 TT - FH fa:
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श्रीगणेशाय नमः।
पराशरमाधवः।
(माधवाचार्यश्चन थाख्या सहिता पराशरसंहिता ।)
प्रथमोऽध्यायः ।
याचार-काण्डम् । (टीकाकारोपनामरिका ।)
वागीशाद्याः सुमनमः सर्वार्थानामुपक्रमे । यं नत्वा कृतकृत्याः स्युस्तं नमामि गजाननम् ॥१॥ सोऽहं प्राप्य विवेक-तीर्थ-पदवीमावाय-तीर्थे परं मज्जन्, सज्जन-तीर्थ-सङ्ग-निपुण: * सदृत्त-तीर्थं श्रयन् । लब्धामाकलयन् प्रभाव-लहरीं श्रीभारती-तीर्थताविद्या-तीर्थमुपाश्रयन् हदि भजे श्रीकण्ठमव्याइतम् ॥२॥ सत्येक-व्रत-पालको विगुणधीत्यर्थी चतुर्वेदिता पञ्चकन्ध-कृती षड़न्वय-दृढ़ः सप्ताङ्ग-ससहः । अष्ट-व्यक्ति-कला-धरो नव-निधिः पुष्यद्दश-प्रत्यय:
* सब्जनसङ्गतीर्थनिपुण, इति कालमाधवीये पाठः + अहव्यक्तिकृताधरी,-इति सो० दि० पुस्तके पाठः। अव्यक्तकला
धरो, इति को प्र. पुस्तके पाठः । + पुष्पद्दशप्रत्ययः, इति से दि० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः ।
[१ब,बाका
स्माताच्छाय-धुरन्धरोविजयते* श्रीवृक्षण-क्ष्मा-पति:(१) ॥३॥ इन्द्रस्थाङ्गिरमानलस्य सुमतिः शैव्यस्य मेधातिथि
म्योधर्म-सुतस्यां वैष्य-नपतेः खोजा, निमेगातमिः । प्रत्यगदृष्टिररुन्धती-सहचरोरामस्य पुणात्मनोयवत्तस्य विभोरभूत् कुल-गुरुमन्त्री तथा माधवः ॥४॥
* विजयतां,-इति मु. पाठः
+ वैन्य, इति मु. पाठः। (१) व्यर्थी त्रिवर्गार्थी (त्रिवर्गच धर्मार्थकामाः)। चतुर्वेदिता धान्विति
कयादिविद्याचतुश्यवेदिता । यथार कामन्दकः । "काधिक्षिकों त्रयीं वाती दण्डनीतिश्च पार्थिवः। तदिस्तित् क्रियोपेचिन्तयेदिनयान्वितः" इति । पञ्चकन्धा मन्त्रस्य पञ्चाङ्गानि (सहाबादीनि) तेव कृती कुशलः । तदुक्तं कामन्दकीये । “सहायाः साधनोपाया विभा. गोदेशकालयाः। विपत्तेश्च प्रतीकारः सिद्धिः पञ्चाङ्गमिष्यते'-इति घरमा गुणानां सन्ध्यादीनामन्वयेन दृतः । तथा चामरः। सम्धिनी विग्रहायानमासनं देधमाश्रयः। षड्गुणाः" इति । सप्त बहानि यस्यां, तादृशी सर्वसहा यस्य स तथोक्तः । “खाम्यमात्यसरकोषराएदुर्गबलानि च । सप्ताङ्गानि"-इत्यमरः। अशाभिर्व्यक्तियोसा कलानां (अधानामछाभिर्गुणने चतुःपछयः कला भवन्ति) तासांधरः। अथवा । व्यज्यते अनयेति व्यक्तिर्बुद्धिः । अौ या व्यक्तिकलाबुड्यथा बुद्धिगुणा इति यावत् । तासां धरः। तदाह कामन्दकः । “शुश्रूधा श्रवणश्चैव ग्रहणं धारणन्ता। उन्होऽपाहोऽर्थविज्ञानं तत्त्वज्ञानच धीगुणाः" इति । नवानां प्रभावादीनां निधिः । पुष्यन्तो दशप्रत्ययाः सम्पबेतवः शास्त्रादयो यस्य स तथा । तथा च कामन्दकः । "शास्त्रं प्रज्ञा तिर्दाक्ष्यं प्रागल्भ्यं धारयिष्णुता। उत्साहावाग्मिता दार्थमापत्तोशप्तहिष्णुता। प्रभावः शुचिता मैत्रीत्यागः सत्यं कृतज्ञता । कुलं शीलं दमश्चेतिगुणाः सम्पत्तिहेतवः" इति । सम्पहेतुनयाने वेतेष परम्मोकोक्तानां नवानां 'नव-शब्देन, पूर्वोकोक्तानां शास्त्र दानां दशानान्तु 'प्रत्यय'-शब्देन निर्देशः कृत इति मन्तव्यम् ।
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९ख०,या का०]
पराशरमाधकः ।
प्रजा-मल-मही विवेक-मलिलै: सिका, बलोपत्रिका' मन्त्रैः पल्लविता, विशाल-विटपा सन्ध्यादिभिः षड्गुणैः । मत्या कारकिता, यश:-सुरभिता, मिड्या समुद्यन्फला संप्राप्ता भुवि भाति नीति लतिका सर्वोत्तरं माधवम् ॥५॥ tश्रीमती जननी यस्य सुकीर्तिमायणः पिता । सायणोभोगनाथश्च मनोवुद्धी महादरौ ॥६॥ यस्य वौधायन|| सूत्र शाखा यस्य च याजुषी । भारद्वाजं कुलं यस्य सर्वज्ञः सहि माधवः ॥७॥ समाधवः सकल-पुराण-संहिताप्रवर्तकः, स्पति-सुषमा पराशरः । पराशर-स्मृति-जगदीहिताप्तये पराशर-स्मृति-विकृती प्रवर्तते ॥८॥ पराशर-मतिः पृर्न व्याख्याता निवन्धृभिः । मयाऽतो माधवार्येण नयाख्यायां प्रयत्यवे** ॥६॥
* बलापंत्रिका,-इति सो• दि० पुस्तके पाठः । बलापत्रिका,-इति
मु. पुस्तके पाम्। है ऽमत्रैः-इति मेर• पुस्तकयोः स. पस्तके च पाठः। # श्रीमती यस्य जननी--इवि मु. पुस्तके पाठः। एवं तत्र, रतत् __ लोकात् पूर्व 'यस्य बौधायनं'-इत्यादि को वर्चते। $ मनोबुद्धिः, इति मु० पुस्तके पाठः । ॥ बोधायनं, इति मु. पुस्तके पाठः । पा मुखमा, इति से० पुस्तकहये, स. पुस्तके च पाठः । ** तडाख्येयं प्रवय॑ते,-ति मु. पुस्तके पाठः।
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पराशरमाधवः।
[१०,०का।
ननु, नेयं स्मृतियाख्यानमहति, तत्-प्रामाण्यस्य(१) दुनिरूपत्वात् । यत्नु,-वेद-प्रामाण्य-कारणं जैमिनिना मृत्रितम्,-"तत् प्रमाणं वादरायणस्यान्यानपेक्षत्वात्” (मी० १,१,५०)-इति । न तत् पौरुषेयेषु(२) मूलप्रमाण-सापेक्षेषु ग्रन्थेषु* योजयितुं शक्यते।३) । तहस्तु मूल-प्रमाणमुपजीव्य प्रामाण्यम् । तन्न, मूलस्य दुर्लभत्वात् । न तावत् प्रत्यक्षं मूलम् । धिर्मस्थातीन्द्रियत्वात्()। नाप्यनुमानम् ,(५) तस्य प्रत्यक्षमापेक्षत्वात्(६) । नापि पुरुषान्तर-वाक्यम् । (विप्रलम्भकस्य पुंसा यथा-दृष्टार्थ-वादित्वाभावात् ।।
* ग्रन्थेष,-इति सो० प्र० पुस्तके नास्ति । + दुर्भणत्वात् ,-इति मु० पुस्तकपाठः।
तस्यातीन्द्रियत्वात्,-इति मु० पुस्तकपाठः । 6 यथार्थदृष्टार्थ,-इति से० स० पुस्तक पाठः।
(१) तदिति स्मृतेः परामर्शः। (२) पौरुषेयत्वं मूलप्रमाणसापेक्षत्वे हेतुगर्भविशेषणम्। पुंवचा मूल
प्रमाणसापेक्षाणामेव प्रामाण्याभ्युपगमादिति भावः।
जैमिन्युक्तस्य प्रामाण्य हेतोरन्यानपेक्षत्वस्य तत्राभावादित्यभिप्रायः । (8) मुखादिवदात्मगुणत्वा विशेषेपि अयोग्यत्वादतीन्द्रियत्वं धर्मस्य । धर्मे
प्रत्यक्षं न मूलमित्येतच्च.-"सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षमनिमित्तं विद्यामानोपलम्भनत्वात्"(१,१,४)-इति मीमांसासूत्रादौ व्यक्तम् । अत्र 'मूलम्'---इत्यनु पञ्जनीयम् । एवं परत्र । अनुमानस्य व्यायादिप्रत्यक्षसापेक्षत्वादित्यर्थः । तच्च, "अथ तत्पूर्वक मनुमानम्"-(१,१,३)- इति न्यायसूत्रादौ व्यक्तं बहुव। पुरुषान्तराणां हि विप्रलम्भकाविप्रलम्भकभेदेन दैविध्यं । हिविधानामपि तेषां वाक्यं न मलमिति क्रमेण प्रतिपादयति विप्रलम्भकस्येति । प्रतारकस्रेत्यर्थः।
(७)
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९ख०,या०का
परापारमाधवः।
अविप्रलम्मकस्थापि संशय-विपर्यय-सम्भवात्(१) । नापि चोदना(२) तस्या अनुपलब्धः। (२)नो खलु* स्मर्यमाणानां शौचाद्याचाराणां मूलभूतां काञ्चिचोदनां प्रत्यक्षतउपलभामहे । (५)नाप्यनुमातुं शक्यते, शाक्यादि-प्रणीत-चैत्य-वन्दनादि-स्मृतिम्वतिप्रसङ्गात्(५) ।
अथोच्येत,–'मन्वादि-स्मृतीनां शाक्यादि-स्मतीनों चास्ति महद्वैषम्यम् । प्रत्यक्ष-वेदेनैव माक्षामन्यादि-सतीनां प्रामाण्याङ्गीका
* न खलु,-इति मु० पुस्तकयाठः । + अथोच्यते,-इति मु. पुस्तकपाठः । + शाक्यादिग्रन्थानां,-इति मु• पुस्तकपाठः ।
(१) संशय एकस्मिन् धम्मिणि विरुद्धमामाधर्मप्रकारकमनवधारणात्मक
ज्ञानम् , 'स्थाणुवा पुण्यो वा'-इत्याद्याकारकम् । विपर्यया विपरीतज्ञानं, अतइति तत्प्रकारकनिश्चयात्मकमिति यावत् । यथा स्थाणा पुरुष इति पुरुष स्थाणुरिति चैवमादि निश्चयः । सम्भवश्वानयोः करणापाटवादिदोषमूलकविशेषदर्शनाभावादिभ्य इति यथायधमूह नीयम् । "चोदनेति क्रियायाः प्रवर्तकं वचनमाडः"-(१,१,२) इति मीमांसाभाष्यम् । तच वाक्यं वैदिकमेव, पौरुषेयस्य मूलप्रमाणान्तरसा
पेक्षत्वादिति भावः। (३) उक्तमेव वियोति नाबवित्यादिना। (७) माभूत् प्रत्यक्षा चोदमा मूलं, अनुमेया तु स्यादित्याशा निराकरोति
'नाप्यनुमायुं शक्यते'-रति । चोदना,-इति धनुषव्यते। (५) शाक्यो बौद्धाचार्यः । चैत्यं बुद्धप्रतिमा । आदिपदात् जैनाचार्यादिप्र
णीताईदाधुपासनादिस्मतिपरिग्रहः। अतिप्रसङ्गादिति स्मतेचोदनानुमापकत्वे तासामपि सातितया तचापि चोदनानुमानप्रसङ्गादित्यर्थः । तथाच वेदवाझतिष व्यभिचारात् न सत्या चोदनानुमामसम्भव इति तात्पर्य्यम्।
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पराशरमाधवः।
रिया
[१च्य०,का०का।
रात्। “यदै किं च मनुरवदत्तनेषजम्" इति धावायते। नत्वेवं शाक्यादि-स्मृत्यनुग्राहकं किञ्चिद्वैदिकं वचोऽस्ति । अतोनोक्रातिप्रसङ्ग' -इति । तन, 'यदै किं च,'–इत्यस्यार्थवादत्वेन खार्थे तात्पर्याभावात्()। "मानवी ऋची धाये कुर्यात्” इति विधानात्
(१) कार्य्यताबोधकप्रत्ययासमभिव्याहतं वाक्यमर्थवादः । अयमभिसन्धिः ।
प्रथमतोद्धव्यवहारादेव सर्वशब्दानां शक्तिग्रहः व्याकरणादीनां व्यवहाराधीनशक्तिग्रहमूलकत्वात्। व्यवहारश्च गवामयनादिरूपः 'गामानय'-इत्यादिकार्य्यतावाचिप्रत्ययसमभिव्याहतवाक्यसाध्या 'गौरस्ति'-इत्यादिताव्यवहारासम्भवात् । तथाच प्रवर्तकवाक्यएव व्युत्पत्तिग्रहेण उपस्थितत्वात् कार्य्यत्वान्वयबोधं प्रत्येकपदानां हेतुत्वं व्युत्पत्सुरवधारयति । तस्मादर्थवादस्थले न शाब्दबोधः, किन्तु पदार्थानामुपस्थित्यनन्तरं असंसर्गाग्रहमात्रम्। प्रयोजनन्धर्थवादानां विधिस्तुति-निषेधनिन्दाभ्यां प्रत्ति-निवृत्ती रव। तथाहि, बहुवित्त. व्ययायामसाध्ये यागादौ पुरुषं प्रवर्तयितुमपारयन्तो विधिशक्तिरवसीदति, सा च स्तुत्या उत्तभ्यते, इति प्रत्तिफलिकायां शाब्दयां भावनायां अङ्गत्वं स्तुत्यर्थवादानाम् । तदुक्तम् । "लिडोऽभिधा सैव च शब्दभावना भाव्या च तस्यां पुरुषप्रत्तिः । संबन्धबोधः करणं तदीयं प्ररोचना चागतयोपयुज्यते"-इति। एवं नित्तिफलिकायां भावमायामङ्गत्वं निन्दार्थवादानां बोध्यम् । स्तुतिनिन्दे घ, “यस्य पर्णमयी जुऊर्भवति न स पापरलोकं टणोति”-इति, "तस्य यदश्रयसीयंत तद्रमतमभवत्".-इति चैवमादिवदसताप्यर्थेन दृश्येते, इति न खार्थे तात्पर्य्यमर्थवादानाम्, इति मीमांसकसिद्धान्तः । स्परञ्चतत् पूर्वमीमांसादावर्थवादाधिकरणादौ । यथा चौदाहतार्थवादयोः (दस्यपर्णमयीत्यादि तस्य यदश्रु इत्याद्योः) अर्थो न वस्तुतः सन्तो, तथा मीमांसादर्शनस्य चतुर्थाध्यायटतीयपादस्थ द्वितीयसूत्रस्य, एवं तस्यैव प्रथमाध्याय द्वितीयपाद दशमसूत्रस्य शावरभाष्ये यथाक्रम स्पष्ठम् ।
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१०,या०का ]
पराशरमाधवः ।
तविधिस्तावकत्वेन, 'यदै किं च'-इत्यादेः पठितत्वात् । तस्य* विधेरयमर्थः ;-दष्टि-विकृतिरूपे सोमारौद्रे चरावतिदेशतः प्राप्तासु मामिधेमीषु मध्ये प्रक्षेप्तव्यौ धाय्या संज्ञको यौ धौ मन्त्रौ, तौ मानवौ कर्त्तव्यौ, दति। तब,मानव-वचममुक्तार्थवादेन अस्यते । अतोन स्मृति-प्रामाण्यं वेदेनेोकम् इति शाक्यादि-स्मृतिवदप्रमाणभूताएव मन्वादि-स्मृतयः । तथाचोकम्,
"प्रायेणानृत-वादित्वात् पुंसां भ्रात्यादि-सम्भवात् ।
चोदनाऽनुपलब्धेश्च श्रद्धामात्रात् प्रमाणता"(१) ॥ इति। (२)अस्तु वा, कथंचित् मनु-स्मृतेः प्रामाण्यम्, तथापि, प्रकृतायाः
* तस्य च,-इति मु० पुस्तकपाठः। + तत्र मानवत्वमुक्तेनार्थवादेन प्रशस्यते, इति मु° पुस्तकपाठः । + दुनिरूपं प्रमाण्यं,-इति मु० पुस्तकपाठः ।
(१) 'पुंसाम्'-इति मध्यपठितं मध्यमणिन्यायात पूर्वापरयोरन्वेति ।
'श्रद्धामात्रात्'-इत्यनेन, अप्रमाणभूताएव स्मृतयः, श्रद्धा-जड़स्यैव तु परं तत्र प्रामाण्याभिमानः, इत्युक्तम् । यद्यपि कार्य्यताबोधकपदान्तीवेनैव पदानामन्वयबोधहेतुत्वं पूर्वमवधुतं, तथाप्यर्थवादेभ्योपि शाब्दमतेरुत्पादात् तस्याश्चानुभवसिद्धत्वेनायलपितुमशक्यत्वादुत्तरकालं तदुपेक्ष्यते, पूर्वग्रहीतस्यापरिहार्यत्वानियमात् । तदुक्तम् "कार्यत्वस्यान्वयज्ञाने प्राक् ग्टहीतापि हेतुता। पदानामर्थवादेभ्यः पश्चाबोधादुपेच्यते”-इति । । बिधिस्तावकत्वमप्यर्थवादानां असति बाधके खार्थहारैव, न तु स्वार्थपरित्यागेन । अन्यथा, "यन्न दुःखेन सम्भिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम्। अभिलाघोपनीतं यत् तत् सुखं खःपदास्पदम्”-इत्याद्यर्थवादेभ्यः खर्गादिकमपि न सियेत् । तदिदमुक्तम् । “खार्थद्दारैव तात्पर्य तस्य खादिवत् विधौ”-इति । तमिमं न्यायसिद्धान्तं वक्ष्यमाणमुत्तरमीमांसासिद्वान्तञ्च मनमि निधायाह अस्तु वेति ।
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पराशरमाधवः।
[११०,०का ।
पराशरस्मतेः किमायातम् ? । नहि मनोरिव पराशरस्य महिमानं कचिवेदः प्रख्यापयति(१) । तस्मात् , तदीय-स्मते१निरूपं प्रामाण्यम् ।
अत्रोच्यते। प्रामाण्यस्य स्वतस्वात् अप्रामाण्ये कारणाभावाच स्पतयः प्रमाणम्(२) । यत्तु,-अप्रामाण्य-साधकमनृत-वादित्वादि हेतुत्रयमुपन्य स्तम् । तदसिद्धम,(२) श्रा-जन्म-सिद्धेषु मनु-पराशरादिषु अनृत-वदन -धान्योरत्यन्तानाशङ्कितत्वेन हेत्व:) स्वरूपासिद्धेः । नवा श्राजन्म-सिद्धौ विवदितव्यम्, पराशरादि-सद्भाव-वाधिनामेव (५) मन्त्रार्थवादेतिहास-पुराणानां(१) तदीय-सिद्धि-बोधकत्वात् । * तदीयस्मतेः प्रामाण्यं दुर्निरूपमिति, इति मु० पुस्तकपाठः । + वादन,-इति मु. पुस्तकपाठः । । न चाजन्मसिद्धावेव,-इति मु° पुस्तकपाठः ।
६ सद्भावाधबोधकानामेव,-इति मु० पुस्तकपाठः । (१) यथा मनोर्महिमानं वेदः प्रख्यापयति, तथा पराशरस्य न,-इति
व्यतिरेके दृष्टान्तः। (२) धियां तत्त्वपक्षपातखाभाव्यात् प्रामाण्यस्य खतस्त्वम् । यत्रेदमुक्तम् ,--
"निरुपद्रवभूतार्थखभावस्य विपर्यायैः। न वाधो यत्नवत्वेपि बुद्धेस्तत् पक्षपाततः" इति । सत्यपि धियां तत्त्वपक्षपातखाभाव्ये शुक्तिरज
तादिबुद्धीनां यदप्रामाण्यं तदोषादेव, स्मृतिषु च स नास्तीति भावः । (३) 'तदसिद्धम्'-इतिसामान्याभावे विशेषाभावकूटस्य हेतुत्वमाह था
जन्मेति । (8) व्यतवदनभ्रान्त्योरप्रामाण्यसाधकयारित्यर्थः । (५) पराशरादिसझावं बोधयितुं शीलं येषामिति णिन् । (६) "तच्चोदकेषु मन्त्राख्या” (२,१,३२) इति जैमिनिसूत्रम् । अभिधा
नस्य चोदकेषु मन्त्रसंज्ञा इति तदर्थः। "प्रायिकमिदं लक्षणम् , बनभिधायका अपि केचित् मन्त्रा इत्युच्यन्ते"- इति शावरभाष्यम्। "अभियुक्तानां मन्त्रोऽयमिति समाख्यानं मन्त्रलक्षणम"-(२,१, ७०) इति न्यायमालाविस्तरे। अर्थवादलक्षणं पूर्वमुक्तम् । इति
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१०,आ.का.]
पराशरमाधवः।
मन्त्राद्यप्रामाण्ये च पराशराद्यसमावेनाश्रयामिद्धिः केन वार्यते *(१) । मानान्तराविरुद्धवानामननुवादिना ) मन्त्रादीनां खार्थे प्रामाण्यमुत्तरमीमांसायां देवताधिकरणे (१,३,८०) व्यवस्थापितम्। अर्थवादाधिकरणे तु (मी० १,२,१०) खार्थे प्रामाण्यनिराकरण विरुद्धवानुवादयोः मावकाशम्। अतः,-'यदै किं च'-इत्यर्थवादस्य विधिस्तावकस्य स्वार्थेपि तात्पर्य्यमस्ति,-दति, न शाक्यादि-स्पति
• केन वा वार्येत, इति मु. पुस्तकपाठः । | मानान्तराविसद्धानां मन्वादिस्मृतीनां,-इति मु. पुस्तकपाठः । हासः पुरावृत्तम् । पुराणम् , “सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशामन्वन्तराणि च। वंशानुचरितञ्चैव पुराणं पञ्चलक्षणम्" इत्युक्तलक्षणकोग्रन्थः । ब्राह्मणभागस्यार्थवादे भारतादोनामितिहामे, उपपुराणानां पुराणेऽन्तर्भावः। विधेः पराशरादिसद्भावबोधकत्वासम्भवात् तस्य नात्रो
पादानमिति ज्ञेयम् । (१) अयमाशयः । पराशरोऽतवादी पुरुषत्वात् इत्यादिरीत्या पराशरपक्ष
कानुमानेन तस्याटतवादित्वं प्रसाध्य, पराशरस्मतिरप्रमाणं पुरुषवाक्यत्वात् मिथ्यावाक्यत्वादा इत्यादिरीत्या प्रस्ततायाः मतेरप्रामाण्यं भवता सिपाधयिषितम् । तत्र च, पराशरादीनां प्रमाणान्तरागोचर. तया मन्त्रार्थवादादिभ्यएव तसिद्धिाच्या। तथाच मन्त्रादीनां प्रामाण्ये तदीयसिद्धेरपि सतरवावगमात् कालात्ययापदियो हेतुः, मन्त्रादेरप्रमाण्ये च पराशरादेरेवासिद्धत्वादाश्रयासिद्धः,-इत्युभयतः पाशा रज्जः। प्रत्यक्षविरुद्धार्थवादिना "यावाणः सवन्ते"-इति, "बनस्पतय सत्रमासत" इति चैवमादीनां अर्थवादाना खार्थे प्रामाण्यं नास्तीति सर्वसम्मतं । एतच मीमांसाप्रथमाध्याये अात्मतत्त्वविवेकादौ च स्पई। प्रमाणान्तरसिद्धार्थस्य वदनमनुवादः। मीमांसकनये तस्य प्रामाण्यं नास्ति, अनधिगतार्थविषयकत्वस्य तन्मते प्रमालक्षवघटकत्वादिति बाध्यं ।
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पराशरमाधवः ।
[१ब.,आका।
वत्, इति युक्रम् (१) । एतदेवाभिप्रेत्य(२) चतुर्विंशतिमते शाक्यादिवाक्यानामनादरणीयत्वमुक्तम् ,___अचार्वाकवाक्यानि वौद्धादि-पठितानि तु ।
विप्रलम्भक-वाक्यानि तानि सर्वाणि वर्जयेत्' (२) । इति। न च, पराशर-महिनोऽश्रौतत्वम्, “महोवाच व्यासः पाराशर्य:"-इतिश्रुतौ पराशर-पुत्रत्वमुपजीव्य व्यासस्य स्तुतत्वात् । यदा सर्व सम्प्रतिपन्नमहिनोवेदव्यासस्यापि स्तुतये पराशर-पुत्रत्वमुपजीव्यते, तदा किमु वक्रव्यमचिन्त्यमहिमा पराशरः, इति । किञ्च वाजसनेयि-शाखायां वंशब्राह्मणे वेद-सम्प्रदाय-प्रवर्तक-गुरु-शिष्यपरम्परायां पराशरस्य पुत्र-पौत्रौ श्रूयते;-2 “घृतकौशिक
* न शाक्यादिप्रतिबन्धियुक्ता,-इति मु० पुस्तकपाठः । + अत्र चार्वाक,-इति मु० पुस्तकपाठः । 1 पुत्रपौत्राः श्रूयन्ते,-इति मु० पुस्तकपाठः। 5 'हतकोशिकात् पृतकौशिकः' -- इति म०प्र०पुस्तके पाठः । कुशिकाय निर्चतकौशिकात् तकौशिक, इत्यादि मु. पुस्तकपाठः ।
(१) शाक्यादिस्मृतिवत् पराशरादिस्मृतयाप्यप्रमाणमिति युक्तं नेत्यर्थः । (२) मन्वादिसद्भावबोधकार्थवादसत्त्वात् तदीयस्मृतीनां प्रामाण्यं, शाक्या
दिसद्भावबोधकार्थवादाद्यभावाच तदीयस्मृतीनामप्रामाण्यमित्येतद
भिप्रेत्येत्यर्थः। (३) जैनानां तीर्थङ्घरोऽहनामा। चार्वाकस्तु लोकायतिकापरनामधेया
नास्तिकः । “घङ्गनालिङ्गानादिजन्यं सुखमेव परमपुरुषार्थः"-इत्यादि पृथग्जनरमणीयवाक्यप्रयोक्तत्वात् चावाकत्वं तस्य । बुद्धो बौद्धधर्मोपदेशा। यादिशब्दात् अन्येपि वेदवाह्याः कापालिकादयो. सह्यन्ते।
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१५०,चाका०]
पराशरमाधवः।
पाराशायणात्, पारामायण: पाराशात्, पाराशर्योजावूकयात्" इति । तस्मात्, पराशरोऽपि मनु-समानएव। ___ एष* न्यायोवशिष्ठात्रि-याज्ञवल्क्यादिषु योजनीयः, तत्तद्विषयश्रुतीनामुपलम्भात् । “सषयो वा इन्द्रं प्रत्यक्षमपश्यन्त" "वशिष्ठः प्रत्यक्षमपश्यत्" "अत्रिरददादौाय प्रजा पुत्र-कामाय" "अथइ याज्ञवस्क्यस्य वे भार्ये बभूवतः” इत्याद्याः श्रुतयः । न चैवं मति मन्वादि-स्मतौ कुतोऽनादरः,-दति शङ्खनीयम,(१) मन्दादि-मृतेर्मेधातिथ्यादिभिर्व्याख्यातत्वात् ।
(२)या च मूलभूत-चोदना-ऽनुपलधिरुपन्यस्ता, माऽप्यमिड्डा । “पञ्च वा एते महायज्ञाः सतति प्रतायन्ते मतति मंतिष्ठन्ते-देवयज्ञः पित-यज्ञोभूत-यज्ञोमनुष्ययशोब्रह्म-यज्ञः"-इत्यादीनां स्मार्त्तधर्ममूलभूत-चोदनानामुपलम्भात् । 'मतति' सततमित्यर्थः । यत्रापि शौचादौ चोदना नोपलभ्यते-तत्रापि मा सम्भाव्यते(२)। तथाचोकं भट्टाचार्यैः,
* एष एव,-इति मु. पुस्तकपाठः | + सततं नित्यमित्यर्थः-इति मु० पुस्तकपाठः।
चोदना इति सो० स० पुस्तकयोनास्ति । (९) मन्वादिस्मताविति जात्यभिप्रायमेकवचनम् । (एवं परत्र ।) मन्वादि.
स्मतिमव्याख्याय पराशरस्मृतिरेव कुतोव्याख्यायते इत्याशार्थः । (२) अप्रामाण्यसाधिकायामूलभूतचोदनानुपलबेरपि खरूपासिद्धि प्रति
पादयितुमाह याचेति। सम्भाव्यते अनुमीयते । स्मातीनां पञ्चमहायज्ञानां मूलभूतचोदनायाः साक्षादुपलम्भात् अनुपलब्धचोदनानामपि स्मातीनां शौचादीनां मलभूतचोदना शक्या धनमातुं। यएव हि मन्यादयः पञ्चमहायज्ञा
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· पराशरमाधवः।
[१५.,पाका ।
"वैदिकैः स्मर्यमाणत्वात् परिग्रह-ममत्वतः ।
सम्भाव्य-वेद-मूलत्वात् स्मृतीनां मानतोचिता"९) । इति । मनुनाऽप्येतदेवाकम्,
"श्रुतिं पश्यन्ति मुनयः स्मरन्ति च तथा मतिम् । तस्मात् प्रमाणमुभयं प्रमाणेः प्रापितो भुवि ।
योऽवमन्येत ते व हेतु-शास्त्राप्रयात् (२) विजः । — म साधुभिर्वहितकार्योनास्तिकावेदनिन्दकः" । इति । भानुशासनिकेऽपि,
"धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परम|| श्रुतिः ।
* तत्परिग्रहदार्णतः, इति मु• पुस्तकमाठः । + प्रमितं-इति मु. पुस्तकपाठः । है ते मले,-इति मु० म० पाठः। ६ नरः, इति मु० युस्तकपाठः।
॥ प्रथम-इति मु० पुस्तकपाठः। . दीनां मीरस्तएव शौचादीनामपि। तदेतत् मीमांसाप्रथम-मृतीयप्रथमाधिकरणे स्पछं। परन्त विस्मरणात् वेदानां शाखोच्छेदाहा सा चोदना नामदादिभिरुपलभ्यते। एतदपि नत्र, न्याय कुसुमा
अलौ शब्दमणिप्रतिषु च यथायथं सुव्यक्तम् ।। (१) वैदिकः स्मर्यमाणत्वात् , -- इति सम्भाव्यवेदमूलतायां हेतुः । तथाच
जैमिनिसूत्रम् । “अपि वा कसामान्यात् प्रमाणमनुमानं स्यात्" (मी०१,३,२) इति । परिग्रहः शिष्परिग्रहः । स च वैदिके स्मार्ने च पदार्थे समानः । वयमपि सम्भाव्य वेदमूलतायां हेतुः। स्मृतयः प्रमाणे शिष्परिट होतत्वाद्देदवदित्यनुमानसम्भवात् । सम्भायवेद:
मलत्वात् अनुमीयमानवेदमूलत्वात् । (२) हेतु शास्त्रं कुतऊपदेशकचार्वाकदर्शनादि ।
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१०, था०का०]
पराशरमाधवः।
द्वितीयं धर्मशास्त्रन्तु वतीयं लोक-संग्रहः (१) । इति । तस्मात् व्याख्यातुं योग्या पराशर-स्मृतिरिति मिद्धम् ।
(२)पराशर-स्मतावस्यां ग्रन्थ-क्लप्तिर्विविच्यते । द्वे काण्डे, द्वादशाध्यायाः, श्लोकाः अष्टोनषट्शतम् । श्राचारस्थादिमः काण्डः प्रायश्चित्तस्य चान्तिमः । दृष्ट-प्राप्तिरनिष्टस्य निवृत्तिश्चानयोः क्रमाव(३) । एते सर्वे पुण्य-लोका भवन्तीति श्रुतिर्जगो;विहितादाश्रमाचारादिष्टाप्तिं पारलौकिकीम* । प्रसको नरकोऽनिष्टो निषिद्धाचरणेन यः(४) । तन्नित्तिः स्फुटा। शास्त्रे प्रायश्चित्ताभिधायिनी । पर-लोक-प्रधानस्य (५) धर्मस्यैषा इयी गतिः,
* दिछाप्तिः पारलौकिकी,-इति मु. पुस्तकपाठः ।
+ स्फुटं--इति मु° पुस्तकपाठः । (१) धर्मशास्त्रं धर्मापदेशाप्रधानमन्वादिसंहिता । तत्र हि धर्मोपदेशएव
प्रधानं, काचित्कमितिकृत्ताख्यानन्त्वानुषङ्गिकं । पुराणे तु तदैपरीत्यं । अतोन तत् धर्मशास्त्रं । स्परञ्चैतत् श्राइविवेकटीकादो। तुपाब्दात पुराणसंग्रहः । लोकसंग्रहालोकव्यवहारः । दौर्बल्यच्चामीघां यथात्तरं ज्ञेयमित्यन्यत्र विस्तरः । पराशरस्मृतेाख्येयत्वं प्रतिपाद्य तस्याः काण्डविभागादिकं वक्तमय
क्रमते पराशरेति । (३) काण्डहयस्यैतत्वयं क्रमात् प्रयोजनमित्यर्थः । (४) निधिद्धाचरणेन यानरका प्रसक्त इत्यन्वयः । नरकस्य विशेषणं
'अनियः' इति । (५) व्यवहारस्तु न परलोकप्रधान इत्यनुपदमेव व्यक्तीभविष्यति ।
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पराशरमाधवः ।
१.,पाका ।
प्रायश्चित्तं तथाऽऽचारः, श्रौत-धर्फतथेक्षणात् । श्रौत-धोऽग्रिहोत्रादिराचारस्तदनुष्ठितिः । अयथाविध्यनुष्ठाने प्रायश्चित्तं श्रुतौ श्रुतम् । कल्प-सूत्र-कृतः श्रौते* प्रायश्चित्तमनुष्ठितिम् । असचयन्नुभे एव, व्यवहारन्तु(ए) नाबुवन् । तहदेवायमाचार्य: पर-लोक-प्रसाधनम् । स्मात्तं धम्मै विवक्षुः मन् काण्डदय()मवाचत । (१)ननु चोदनयागम्य व्यवहारेऽपि धर्मता,अस्तीति चेदनुष्ठातुलोकेऽस्मिन्नुपयुज्यते ।
* सूत्रे, इति मु. पस्तकयाठः ।
प्रधानकम् ,--इति मु. पुस्तकपाठः।
न, तत्र चोदनागम्ये, -इति मु. पुस्तकपाठः। $ चेदस्तु सा तु लेाके, इति मु. पुस्तकमाठः ।
"विनानार्थे ऽवसन्देहेहरणं हार उच्यते । नाना-सन्देशहरमात् व्यवहार इति स्मृतः” इत्याद्युक्तो भाषोत्तरक्रियानिर्णयाख्या चतुष्पात् व्यवहारः। याचार काण्डं प्रायश्चित्तकाण्डव । शकते नन्विति । चोदनयागम्ये इति हेतुगर्भविशेषणं । “चोदनालक्षणोऽर्थी धम्मः” (मी०१,१,२) जैमिनिसूत्रात् चोदनागम्याधस्यैव धर्मत्वावगतेयवहारस्यापि तथात्वात् तदकथनादाचार्य्यस्य न्यूनत्वमिति पूर्वपक्षार्थः । उत्तरमाह अनुष्ठातुरिति । तथाच पारलौकिकफलकधर्मस्यात्र विवक्षितत्वात् व्यवहारस्य चैहिकफलकत्वात्तदकीर्तनेपि न न्यूनत्वमिति भावः। ऐहिकमपि फलं व्यवहारानुष्ठातुवादिनः प्रतिवादिनच न तु व्यवहारबरा इति बोध्यं ।
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११.,बा.का.)
पराशरमाधवः ।।
(१)कारी दिौतर्योदृष्टक फलकोयथा । लाभ-पूजा-स्थाति-माच-फला व्यवहतिस्तथा । बेतुलीभादिकं तदत् पराजे तुश्च दण्डनम् । तावेव स्वर्ग-नरको विहितप्रतिषिद्धजौ। (२)ननु, राजश्व सभ्यानां माक्षिण चान्यथावतो। प्रत्यवायायवातिः परलोकप्रयोजना ।। (३)"अदण्डान् दण्डयन राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयत् । अयशोमहदानाति नरकं वाऽपि गछति"। "सभा वा न प्रवेष्टव्या वक्रव्यं वा समञ्जसम् ।
• * ध्येक,-इति मु. पुस्तकपाठः । + मरकच्चैव, इति मु• म• पाठः। नरकं चापि,-इति मु.
पुस्तकपाठः। + सभा वा न प्रवेशव्यं-इति मु० म० पाठः ।
(२) कारीरी यागविशेषः । स चैहिकमात्रफलकः अवग्रहेण शुष्यतां शम्या
नां पृथ्या सचीवनस्यैव तत्फलत्वात् । अतएव यावत्यनुष्ठिते दरि र्भवति, तावतैव तत्समापनमनुशिष्यते। व्यवहारस्यैहिकमात्रफलकत्वमसिद्धमित्याशकते नन्विति । अत्र च, बुद्धिपर्वकान्यथाकरणएव राज्ञः सभ्यानाच प्रत्यवायः । तर्कवाक्यानुसारेण निर्णये कृते तु वन्तोऽन्यथात्वेपि व्यवहारदर्शिनां दोषोन भवतीति बाध्यं । अतएव गौतमेन, “न्यायाभ्युपगमे तोऽभ्युपायस्तेन संसह्य यथास्थानं गमयेत्”-इत्यभिधाय, "तस्मात् राजार्यावनि
न्दिता"-इत्युपसंदतम् । (३) अन्यथा कृतौ राज्ञः सभ्यानां साक्षिणाश्च प्रत्यवाये मानवीयं वाक्य
त्रयमुदाहरति 'बदल्यान्' इत्यादिना ।
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पराशरमाधवः ।
ग्रा०का.
अब्रुवन् विब्रुवन् (१) वापि नरोभवति किल्विषी"। “माक्ष्येऽनृतं वदन् पाशैर्वध्यते वारुणैर्नरः । विवश: शतमाजातीस्तस्मात्* साक्षी वदेदृतम्"(२) । (२)राजादेः प्रत्यवायोऽस्तु व्यवहारे किमागतम् ? । व्यवहारोन राजादेरर्थि-प्रत्यर्थिनास्तु सः । प्रत्यर्थिनोऽर्थिनो वाऽत्र प्रत्यवायोन हि स्मृतः । पराजय-निमित्तेन प्रायश्चित्तं च न स्मृतम् ।
कृणाद्यैर्नरकोकिर्या साऽप्याचार-निवन्धना(५) । (५)अस्तु वा नरकः शास्त्र-विरुद्ध-व्यवहारिणः । पर-लोक-प्रधानत्वमेवास्माभिर्निवार्यते ।
* प्रतवर्धाणि, इति मु. पुस्तकयाठः । + साक्ष्यं वदेदृतं-इति मु. म. पाठः ।
(१) विब्रुवन् विरुद्धं ब्रुवन् ।। (२) जातिर्जन्म । तथाच विवशः सन् शतजन्मानि यावत् वाण्णः पारे
बध्यते इत्यन्वयः। ऋतं सत्यं । (३) आप्रवां परिहरति 'राजादेः'-- इति ।
आचारनिबन्धना लोकव्यवहारमूला। तथाच नरकोक्तिनिन्दामात्रमिति भावः। ननु “ऋणानाञ्चानपक्रिया" इति मनुना उपपातकमध्ये पाठात् प्रत्यवायएव गम्यते । अपिच चतुष्पादात्मकव्यवहारे निर्णयस्य राजाधनुछेयत्वात् तदन्यथाकरणे तेषां प्रत्यवायः स्यादेव । तथा चोभयथापि यवहारस्य परलोकप्रयोजनकत्वमक्षतमित्याशयवानाह अस्त वेति । परलोकेति, तथाचायमाचार्यः परलोकप्रधानमेव धर्ममुपदिदेपा, व्यवहारस्तु न तादृश इति न तदकथनात् न्यूनत्वशङ्केति भावः ।
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१२०,०का.]
पराशरमाधवः ।
एतनोक-प्रधानायः पर-लोकोपसर्जनः ।। स धोव्यवहारः स्थादाचारस्तु विपर्ययात्*(१) । प्राधान्येऽप्यस्य लोकस्य स्यादेवाम्नाय-मूलता । गान्धाधुपवेदेषु तादृशेषु तदीक्षणात्(९) । (३)“जग्राह वाक्यम्टावेदात सामभ्योगीतिमेव च । यजुर्वदादभिनयान् रसानार्थणादपि" । किं बहत्याऽयमाचार्य: पर-लोकैक-दृष्टिमान् । व्यवहारन्तु नावोचत् किन्तु सूचितवानमुम्(७) । राज-धर्म-प्रसङ्गेन,(५) 'चितिं धर्मेण पालयेत् । इति ब्रुवन् राज-दृश्यं व्यवहारममचयत् । (६)माक्षादिष्टाप्ति-हेतुत्वादाचारः पूर्वमीर्यते । * विपर्याये, इति मु० पुस्तकपाठः । + पादम्मग्वेदात्,-मु० पुस्तकपाठः । + सामान्याथर्वणादपि,-इति मु• पुस्तकपाठः ।
5 पूर्वमिष्यते,—इति मु० पुस्तकपाठः । (१) एतल्लोकोपसर्जनः परलोकप्रधानोधर्म आचार इत्यर्थः । (२) तादृशेषु एतलोकप्रधानेधु । तदीक्षणात् अाम्रायमूलत्वदर्शनात् । (३) गान्धोपवेदस्यानायमूलत्वे तमधिकृत्य पठितं वाक्यमुदाहरति जग्रा
हेति । अभिनयान् “भवेदभिनथोऽवस्थानुकारः”-इत्युक्तलक्षणानवस्था
नुकारान्। रसान् पटङ्गारादीन् । एतच्चतुष्टयमेव खलु विषयों गान्धर्वस्य । (8) उपसंहरति किं बहूत्येति । अमुं व्यवहारं । (५) राजधर्मप्रसङ्गेन,-इतिच्छेदः । एतच्च 'सूचितवान्' इति पूवेशा__न्वितं । सूचनप्रकारमेवाह क्षितिमित्यादिना । (६) इदानीमाधारकाण्ड-प्रायश्चित्तकाल्योः पौवायर्यमुपबादयितुमार
साक्षादिति ।
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पराशरमाधवः ।
[अ०,या का ।
प्राचारस्यान्यथात्वे तु प्रायश्चित्त-गवेषणम् । दहाचारे षयोऽध्यायाः प्रायश्चित्ते नवोदिताः । *प्राचारतचतुवर्ण-ध माधारणापरौ(१) । शिष्टाचारान्हिके तत्र धी माधारणौ मतौ । षट्कर्म-तितिरक्षाद्याः वर्णासाधारणाः मता:(२) । आचारे प्रथमाध्याय एतेऽर्थाः परिकीर्तिताः । ऋष्यादिर्जीवनोपायोदितीयेऽध्यायईरीतः । चतुराश्रमधर्माश्च सूचिताः श्राश्रमाक्रितः । उको हतीये (आशौच-विस्तर-श्रा-संग्रहौ । अध्याय-त्रयगाः अर्थाः प्रोकाः श्राचार-काण्ड-गाः ।
तुर्य(४) प्रकीर्ण-पापस्य प्रायश्चित्तं प्रपश्चितम् । * अवतारश्चतुर्वर्ण धम्साधारणे-तरी,-इति मु० पुस्तकपाठः। + शिवाचारान्वितस्तत्र धर्मः साधारणः स्मृतः, इति मु० पुस्तकपाठः। + श्रादितः, इति मु० पुस्तकपाठः।
5 त एतेः प्रकीर्तिताः, इति मु. पुस्तकपाठः।। (१) साधारणच अपरश्च (असाधारण), साधारणापरौ। तथाच,
याचारकाण्डे चतुर्ण वर्णानां साधारणोऽसाधारणञ्चेति दिविध रव धर्म उक्त इत्यर्थः । वर्णानामसाधारणा वर्णासाधारणाः। तत्र, घटकर्माणि (सन्ध्याखानादीनि) ब्राह्मणस्यासाधारणोधर्मः, क्षितिरक्षा क्षत्रियस्य । एवं वैश्यशूरयोरपि शेयं । थाशौचं-इति अशुचिशब्दात् भावप्रत्ययान्तात् उभयपदरड्यासाधु । उत्तरपदमात्रवड्या तु अशौचमित्यपि । एवं रोत्या खाशौच्चं, यादिपदरड्या बाशुष्यमित्यपि शेयं। "यदनुतं तत् प्रकीर्णम्" इति मत्युक्तलक्षणं पापं प्रकीर्णम् । तच पतिपातकाद्यन्यतमत्वेन विशेषताऽनुक्तमिति बोध्यम् ।
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१५.,बा.का.
परापारमाधवः।
प्रसङ्गात् पु-भेदादि प्रोतञ्च परिवेदनम्(१) । प्रकीर्ण-शेषः, संस्कारः श्राहितामेश्च पञ्चमे । (२)मलावहे च सकीर्ण तथा चैवोपपातके । प्रायश्चित्तं षष्ठउ शद्धिश्चान्ने रमेऽपिच । अवशिष्ट-द्रव्य-शुद्धिः सप्तमाध्यायईरिता । प्रायश्चित्तं गोवधेचा मामान्येनारमे स्मृतम् । रोधनादिविशेषेण नवमे तदुदीरितम् । अगम्या-गमने प्रायश्चित्तं दशमईरितम् । अभोज्य-भोजनादौ तदेकादशउदीरितम् । द्वादशः परिशेषः स्यात् काण्डयोरुभयोस्तयोः । स्यादन्येषामनुकानामुपलक्षणमीच्यताम् । अनुपातकमुख्येषु? प्रायश्चित्तं कचित् कचित् ।
* सङ्कीर्णकरणेचोपपातके,-इति मु° पुस्तकपाठः ।
गोबधस्य,-इति मु. पुस्तकपाठः। 1 सचान्येषामिति मु. पुस्तकपाठः।
६ युक्तषु, इति स० सो पस्तकयोः पाठः। (१) परिवेदनं त्वेछे यकृत विवाहे अकृतामिहोत्रे च कनिष्ठस्य तदुभय
करणम्। तच्च “न्येष्ठे बनिर्विष्ठे कशीयान् निर्विशम् परिवेत्ता
भवति' इत्यादि स्मृतिधूक्तम् । (२) "कमिकीटवयोहत्यामद्यानुगतभोजनम् । फलैधः कुसमयमधैर्यच
मलावहम्" इत्युक्तलक्षणं पापं महावहशब्दार्थः। सधीय सहरीकरणम् । तदपि,-"खराश्वोश्वराशाखामजाविकवधस्तथा। सनरोकरणं ज्ञेयं मीनाहिमबिस्य च"-युक्तलक्षणम्! उपपातकच्च गोवधादिप्रभूततमभेदं मन्वाद्युक्तम् ।
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पराशरमाधवः ।
[११,या का
नोक, तथा रहस्यश्च प्रायश्चित्तञ्च वर्णितम् । नापि पणदि कछाणि* नोदितान्यत्र कानिचित् । नोकः कर्मविपाकश्च तत् सर्वमुपलक्षितम् । इत्थं नवभिरध्यायः प्रायश्चित्तं प्रपञ्चितम् । कलिं प्रति प्रवृत्तत्वात् प्रायश्चित्तं प्रपश्चितम् । कलौ हि पापवाहुल्यं दृश्यते स्मर्यतेऽपि च । नराः प्रायोऽल्पसामास्तेषामनुजिघृक्षया । समकोचयदाचारं प्रायश्चित्तं व्रतानि च । "तेषां निन्दा न कर्त्तया युगरूपाहि ते दिजाः" । इत्युक्रमादावन्ते च, प्रयुक्लषा कृपालुता । वेदैकदेशाध्ययनं कृष्या विप्रादि-जीवनम् । इत्यादिवचमाऽऽचारे सङ्कोचाभासते स्फुटम् । प्राजापत्यं गो-वधे स्थात्, ब्रह्म-घ्ने सेतु-दर्शनम् । इति मुख्यत्रतत्वोत: सङ्कोचोऽचापि गम्यते । स्मत्यन्नरानुसारेण विषयस्य व्यवस्थितिः । कल्पनीयेतिरेद् ब्रूहि सार्वज्यं मन्यसे कथम्?(१) !
* प्रायश्चित्तमिवारभ्य कृछाणीत्यन्तं मुद्रितातिरिक्त पुस्तकेषु नास्ति । +प्रायषित्तव्रतानि च,-इति भु० पुस्तकपाठः। + प्रायुक्तघा,-इति मु० पुस्तकेपाठः। ६ मन्यसेयकम् , इति मु• पुस्तकेपाठः ।
(१) गोबधे प्राजापन्यं ब्रह्मबधे सेतुदनिश्च न मुक्यव्रतं येन सोचासिध्येत्
किन्तु “यथा वयो यथा कालं यथा प्राणञ्च ब्राह्मणे। प्रायश्चित्तं
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१०,०का ]
पराशरमाधवः ।
यावत्यः स्मृतयस्तामां सर्वासामनुसारतः । साकल्याच्चेदस्मदादेस्तत्र शक्ति विद्यते(१) ।
खेन दृष्टास्तु यावत्यस्तासामित्यप्यक्तिमत् । क्वचित् कदाचिदन्यासां दर्शनादव्यवस्थिते:(२) । (३)अन्त्यिका मानुषी बुद्धिस्तावन्नव्यवतिष्ठते । अतएव निबन्धेषु दृश्यते नेकवाक्यता । हन्तवं खण्डने शास्त्रं भवेद्दत्त-जलाञ्जलि ! ।
* कल्पिका मानुषीबुद्धिः सा च न व्यवतिष्ठते,-इपि मु. पुस्तके
पाठः।
प्रवक्तव्यं ब्राह्मणैर्धर्मपाठकैः । तस्मात् कृप्रमथाप्य पादं वापि वि. धानतः। यात्वा बलाबलं कालं प्रायश्चित्तं प्रकल्पबेत्”-इत्येवमादिस्मृत्यन्तरदर्शनात् गोबधादौ त्रैमासिकादिव्रतविधायकम्त्यन्तरदनाच्च यथामथमशक्तादिविधयतया तयवस्थापनीयमित्याशक ते स्मृत्यन्तरेति । प्रष्टारमुपहसति सार्वज्ञामिति। सार्वज्ञ विना स्मृत्यन्तराणां सामस्त्येन ज्ञातुमशक्यत्वात् सर्वत्रस्मृत्यन्तरानुसारेण विषयव्यवस्थायाः कर्तुमपाक्यत्वादित्यभिप्रायः ।। यावत्यः स्मृतयः साकल्येन तासां सर्वासां दर्शनाविषयव्यवस्था, खेन यावत्यो दृशास्तासामनुसारादा । याद्ये याबत्य इति । तत्र यावत्यः
स्मृतयस्तासां सवासां दर्शने, अस्मदादेः शक्तिनास्तीत्यर्थः। (२) द्वितीये त्वाह खेनेति । न युक्तिमत् अयुक्तिमत् । तत्र हेतुः क्वचि
दिति । क्वचित् देशे कदाचित् काले अन्यासां पूर्वदृष्टाधिकानां स्मतीनामित्यर्थः । तया च पूर्व कियतीः स्मृतीदृष्ट्वा या विषयव्यवस्था
कल्पिता, उत्तरकालमन्यासां स्मृतीनां द ने तस्या विपर्यायः स्यात् । (३) मनुष्याणामल्पबुद्धित्वादपि यथायथं विषयव्यवस्था क्या नात्प्रेक्षितु.
मित्याह अल्पिकेति ।
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पराशरमाधवः ।
[१ब.था का।
न खण्डये-वारयेतु पण्डितम्मन्यता तव(१) । श्टणु निर्णयमत्र वं खतः प्रामाण्य-वादिनः । प्रतीतेऽर्थेऽणिलं शास्त्र प्रमाणं बाधया विना(२) । न पराशर-वाक्यस्य बाधः स्मृत्यन्तरे कचित् । ब्रतान्तरोपदेशश्च न बाधोऽस्यानिवारणात्(३) । प्रियङ्ग-कोद्रव-श्रीहि-गोधूमादीन्यनेकशः । साधनानि यथैकस्थास्तृप्तेष्टान्यबाधया। (७)यथा च स्वर्ग एकस्मिन् विश्वजिचाग्निहोत्रकम् । अमिष्टोमच दर्शाद्या हेतवोबहवः श्रुताः । यथा वा ब्रह्मलोकस्य ोकस्य प्राप्ति हेतवः । उपास्तयो विकल्यन्ते शाण्डिल्य-दहरादयः(५) ।
* स्मृताः,-इति स० से. पुस्तकयाः पाठः ।
(१) पूर्वपक्षी शरते हन्तेति । दत्तजलाञ्जलोति विषयव्यवस्थाया अभावे
परस्परविरोधेन सघामेव शास्त्राणामप्रामाण्यापत्तेरिति भावः ।
सिद्धान्ती समाधत्ते न खण्डये इति । (२) प्रामाण्यस्य खतस्त्वात् असतिबाधके प्रतीतेऽर्थे प्रामाण्यं निराबाधं
कारणान्तरापेक्षाविरहादित्यर्थः । स्मत्यन्तरेषु व्रतान्तरोपदेशान्न पराशरोक्तवतस्य बाधः, व्रतान्तरोपदेशस्य व्रतान्तरवाधकत्यासम्भवात् । स्मृत्यन्तरेवपि पराशरोतव्रतादे
निवारणाभावाच । (४) प्रिय प्रतीनां तृप्तिविशेषेषु हेतुत्वात् कथं तत्र विकल्प इत्याशङ्याह
यथा चेति । (५) दृष्टान्तान्तरमाह यथा वेति । शाण्डिल्योपास्तिः, “सव्वं खल्विदं ब्रह्म'
-इत्युपकम्य, “सक्रतुं कुर्वीत मनोमयः प्राण शरीरो भारूप
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(प.बाका.
पराशरमाधवः।
तथैवैकस्य पापस्य निवृत्ती बहवः स्मृताः । प्रतभेदा विकल्प्यन्तां श्रद्धाजायन्तु ते वृथा (१) । ननु क पञ्चगव्यादिः कुत्र वा मरणान्तिकम् ! । तयोः सम-विकल्पत्वं वदतस्तेऽति साहसम् ! (२) । क्व विश्वजित् क्वाग्रिहोत्रं खर्ग साधयतोस्तयो:विकल्पं वदतस्ते वा कुतानवाति माहसम् (२) । कम्माधिक्यात् फलाधिक्यमिाते न्याय समाश्रयात् । माइसं परिहर्त्तव्यमित्येतदुभयो: समम्(४) ।
व्रतभेदा विकल्पन्तां श्रद्धातः सन्तु ते तथा,--इति मो० स० पुस्तकयाः पाठः ।
इत्यादिना छान्दोप्यादौ विहिता । इयमेव शाण्डिल्य विद्येत्याख्यायते । दहरोपास्तिस्तु -"अथ यदिदमस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म"-इत्यादिना छान्दोग्यएवाभिहिता दहरविद्या चाख्यायते।
यादिशब्दात् वैश्वानरविद्यादयः ।। (१) तथा च गोबधादौ पराशरोक्तं प्राजापत्यादिकं स्मृत्यन्तरोक्तं प्राय
श्चित्तान्तरश्च इयमपि मुख्यमेव इत्यनयोर्विकल्परवेत्ययं खसिद्धान्तनिष्कर्षः। पूर्वपक्षी प्रवते नन्विति । अयमर्थः । क्वचिदेकेन मुनिना पञ्चगव्यादि __ लघुप्रायश्चित्तमुक्त, तत्रैव पापे अपरेण मुनिना प्राणान्तिकमुक्तं ।
तदनयोर्मुसलतुप्रायश्चित्तयाः समविकल्पत्वमसम्भवदुक्तिकमितिभावः । (३) सिद्धान्तीसमाधत्ते क्वविश्वजिदिति । तथाच विश्वजिदग्रिहोत्रयोरपि
लघगुरुकमणोः खर्गसाधकयोर्विकल्पो न स्यात् । स च त्वयापीष्यते
इति भावः । (8) पूर्वपक्षा विश्वजिदादौ विकल्पमुपपादयितुमाह कम्माधिक्यादिति ।
अयमभिसन्धिः । लघुगुरुप्रयत्नसाध्यानां विकल्पस्थले गुरूपायस्यानन
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पराशरमाधवः ।
[१०,
का.
न्यायाश्रये त्वस्मटुक-व्यवस्था दिव्यते कुतः ? । इति चेदव्यवस्थाका त्वयाऽतादेभि ते वच:(१) । देश-भेदात् काल-भेदात् पु-भेदादन्यथाऽन्यथा । पर्यवस्थति शास्त्रार्थ इति पूर्वमवादिषम् । अतोनास्थार्थवादांश विधि-वाक्येषु यद्यथा । प्रतीतं तत्तथाग्राह्यं बाधं वाचनिकं विना । स्मृति-व्याख्यादभिः सर्वचनानां व्यवस्थितिम् ।
* त्वमदुश्या व्यवस्था, इति मु. पुस्तके पाठः । + देषितं वचः,-इति मु. पुस्तके पाठः। 1 विपर्यस्यति,-इति सो० स० पुस्तकयाः पाठः। ६ बतायेऽस्यार्थ वादांशाः, इति मो० स० पुस्तकयोः पाठः ।
छानलक्षणमप्रामाण्यमापद्येत । कः खल्वनुन्मत्तो लघूपायसाध्यं फलभुत्पिपादयिषुर्गुरूपायमवलम्बेत । तस्मात् सत्यपि समफलत्वे गुरूयायात् किञ्चित् फलाधिक वाच्छ । तावतैव दयाः साम्याडिकल्पोपपत्तेः। इतरथा त्वेकस्यैव नियमतोऽनुष्ठानं स्यात् । फलाधिक्यकल्पने तु नैवं एकत्र क्लेशाधिक्यवत् फलस्याप्याधिक्यात् । अन्यत्र केशन्यूनत्वेऽप्यवान्तरफलाधिक्याभावात् । अतरवोक्तं । “यत्र स्यात् कृच्छ्रभूत्वं श्रेयसोऽपि मणीषिणः । भूयस्वं ब्रुवते तत्र कृच्छ्रात् श्रेया ह्यवाप्यते"इति । तथा, प्रधानफलस्य खर्गमात्रस्योभयत्राविशेषेऽपि उक्तरीत्या गुगप्रयत्नसाध्योपायस्य फलाधिक्यहेतुत्वकल्पनया विश्व जिदग्रिहोत्रयोविकल्पो मानुपपन्न इति पूर्वपक्षयितुरभिप्रायः। खपक्षेपि तदविशिसमित्याह सिद्धान्ती इत्येतदिति। ननु यदि न्यायाश्रयणं तवाप्यभिप्रेतं तर्हि स्मृत्यन्तरानुसारेण विषयव्यवस्थैवारूदुक्ता किमिति नाङ्गीक्रियते इत्याशयेन पूर्वपक्षी शङ्करते न्यायेति । सिद्धान्ती समाधत्त इति चेदिति । त्वयेति च्छेदः ।
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१२०,०का
पराशरमाधवः ।
ब्रुवाणै मन्दमतयो व्युत्पाद्यन्ते हि केवलम्(१) । अन्यथाऽन्त्यस्य पापस्य कृते दादश-वार्षिके । नस्यानिवृत्तिस्त्वत्-प्रोका व्यवस्था तादृशी यतः(१) । अथाऽल्यं महता नश्येनाल्पेनान्यत् , तदा वद । इदमल्पं महोदमिति ते किं नियायकम् । अनायास-महायासौ यद्यत्यत्व-महत्त्वयो:*हेतुर्महाव्रतास्तहि भवेयुः कृषकादयः ! (२) । सिंह-व्याघ्रादि-मूत्रादौ प्रयास-बहुलवतः । पञ्च-गव्यात् प्रशस्तत्वं बताङ्गत्वञ्च ते भवेत् ! । इति कर्त्तव्य-बाहुल्यं महत्वञ्चेत्, तदाऽल्पता । जिलान्यादि-प्रवेशस्य प्रसज्येत व्रतान्तरात्(४) ।
* हेतू महाव्रता,-इति मु० पुस्तके पाठः । + प्रयासे बडलः श्रुतः,-इति मु• पुस्तक पाठः। तह्ममग्रादि, इति मु. पुस्तके पाठः ।
(१) नन यदि स्मत्यन्तरानुसारेण स्मत्यन्तरवचनानां विषयव्यवस्था न प्रा
माणिकी, तहि कथं सर्वैरेव प्राचीननिवडभिस्तथाविधा व्यवस्थाकृतेत्याशक्य तेधामाशयं प्रकाशयति स्मृतीति । तथा चापाततो विरुद्धवचनदर्शनात् मन्दबुद्धया मामुद्ये रन् इति तत्प्रबोधाय तैतादृशी व्यवस्था कता, येन केनचिदनुष्ठितेनैव फलनिष्पत्तिसम्भवेन वस्तुक्षतेर
भावादिति भावः। (२) द्वादश वार्षिके कृते छल्पस्य पापस्य नित्तिर्न स्यात् । महापापनाश
एव तहेतुताया व्यवस्थितत्वादित्यर्थः । (३) तेषामायासाधिक्यादिति भावः। (8) अग्न्यादिप्रवेशस्य व्रतान्तरादल्यता प्रसज्यते व्रतान्तरापेक्षया तत्रेषि
कत्तव्यताया अल्पत्वादिति भावः ।
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२
पराशरमाधवः।
१०,या का।
प्रवर्त्तमानः पुरुषः श्रेयः प्राप्नोत्यसंभयम् । कलौं पराशरोकानां बतानामेव मुख्यता । तैरल्पैरपि तत्पापं निःशेषं वि-निवर्त्तते । एतदेव विवक्षित्वा प्रतियज्ञे (१)विशेषतः । पराशरेण यत् प्रोक्तं प्रायश्चित्तमितीदृशम् । मुन्यन्तर-प्रणीतानां स्वल्पानां महतामपि । प्रतानामुपयोगः स्यात् कलौ, (२)पूर्वोकनीतितः । मुनिन केन थत् प्रोक्तं तदन्योन निषेधति । प्रत्युतोदाहरेत् तस्मात् पूर्वोकं मवसम्मतम् । (२)हन्तै मति, मीमांसा निष्फला ते प्रसज्यते । शास्त्रान्तर-प्रणीतानां गुणानामप्यसहतेः । श्णु मीमांसकर्मन्य! मुनि-वाक्येषु किं बलात् । उत्पाद्यातिविरोधन्तु पाण्डित्यं व्यज्यतां तव ।
* तैरन्यैरपि,-इति स० सा• पुस्तकयाः पाठः । + पूर्वोतरीतितः,-इति मु० पुस्तके पाठः । * उतपाद्यापि विरोधन्ते पाण्डित्यं व्यज्यतां त्वया,--इति मु० पुस्तके पाठः। (१) प्रतिजज्ञे प्रतिज्ञातवान् । (२) पूर्वोक्तनीतितः पूर्वोक्तन्यायात् । महाव्रतानुष्ठाने सुखादिश्रेयःप्राप्ति
रिति पूर्वोक्तो न्यायः । समुच्चयेनोभयानुष्ठाने अर्थता व्रतस्य महत्वा दिति भावः । अथवा एवञ्चकस्य पापस्येत्यादिपूक्तिन्यायोऽत्र द्रश्व्यः । पूर्वपक्षी शवते इन्तेति । एवं सति पेन केनचित् व्रतेन यस्य कस्यचित् पापस्य क्षयेसति । मीमांसा निष्फलेत्यत्र हेतुरुत्तराद्धं । पर्वोत्तरमीमांसयोर्गुणपसंहारस्य सिद्धान्तितत्वात् अत्रच तदव्यवस्थापनात् मीमांसा व्यर्थेतिभावः ।
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१ अ.,श्रा का।
परापारमाधवः।
११वनान्तरोनिमात्रेण न विरोधः प्रसज्यते । ममुच्चये विकल्पे वा का हानिस्तत्र ते भवेत् । स्नानं दानं जपो होम इति नैमितिका यथा । उपरागे ममुच्चया स्तथा व्रत-ममुच्चयः (२) । (२)एकेन नाशिते पापे द्वितीयं चेत् निरर्थकम् । न, तपोरूपतस्तस्यः स्वर्ग-हेतुत्व-सम्भवात् । (४)चान्द्रायणादावस्येव तपस्वेन तदीरणात् । भिता-ब्रह्मकपालादौ स्यात् कथं नष्टपामनः । (५ एवं तो दृशे स्याने विकल्पोऽस्तु निजेच्छया ।
* व्रतान्तरोक्ति मात्रेयि,-इति स० सो० पुस्तकयोः पाठः । । खानमित्यारभ्य समुच्चय इत्यन्तं स० सो० पस्तकयानास्ति । । न तयोरुभयास्तम्, इति स० से० पुस्तकयाः पाठः ।
स्मृतिम्वेव तदीक्षणात् ,इति स० स० पुस्तकयोः पाठः ।
(१) मुन्यन्तरवाक्ये व्रतान्तराभिधानादेव विरोध इत्याशङ्याह, व्रतेति । (२) समुच्चये दृष्टान्तमाह स्नानेत्यादिना । उपरागेाग्रहणम् । (३) पूर्वपक्षी समुच्चयपक्षमाक्षिपति एकेनेति । व्रतेनेति शेषः । सिद्धान्ती
समाधत्ते नेति । तस्य व्रतम्य ; स्पष्ट मन्यत् । न तयोरुभयास्तस्येति पाठे, उभयातयामध्ये तस्य द्वितीयव्रतम्य खर्गहेतुत्वसम्भवात् न
निरर्थकत्वं तस्येत्यर्थः। (e) पूर्वपक्षीशङ्कते चान्द्रायणादाविति। चान्द्रायणादौ तपम्त्वस्य स्मरणात
चन्द्रलोकावत्यादि फलश्रवणात च तादृशास्थले द्वितीयस्य स्वर्ग हेतुत्व मस्त, भिक्षादी तयम्वानभिधानात् फलविवाश्रवणात् च कथं तस्य खर्ग हेतुचकल्पनमिति पूर्वपक्षार्थः । सिद्धान्ती समाधत्ते एवं तहीति । तथाच यत्र खादिहेतुत्वं शास्त्रा दवगम्यते, तत्र नानामुन्यक्तवतानां समुच्चयः एकेन पापनाशेऽप्यपरेषां वर्गहेतुबसम्भवात् । यत्र तु वर्गसाधनत्वं शास्त्रानावगम्यते तत्र
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पराशरमाधवः ।
चाका.।
न्यूनाधिकत्व-मन्देहे दत्तमेवोत्तरं पुरा । (१)मर्वथाऽपि त्वया* प्रोका निर्मूला बुद्धि-कल्पिनाम् । कामाकामादि-भेदेन नाङ्गीकुर्मा व्यवस्थितिम् । वचनेष्वेव कामादि-व्यवस्था. लभ्यते यदि । सुखेनाभ्युपगच्छामो वाक्येक-गरणवयम् । (२) कपिलो यदि सर्वज्ञः कणादोनेति का प्रमा" । इति न्यायः प्रसज्येत बुद्धिमात्र-व्यवस्थितौ । मीमांसकवमेतत् स्यादाक्यानुसरणेन यत्(२)व्यवस्थापनमन्यत्तु पाण्डित्य-ख्यापनं परम् । "इयं विद्धिरुदिता(४) प्रमाप्याकामतोद्विजम्" ।
* तथा,-इति मु० पुस्तके पाठः । नानावतानामिच्छाविकल्परवेति सिद्धान्त निष्कर्षः। ननु न्यूनाधिकानां व्रतानां कथमिच्छाविकल्पः "तुल्यबलविरोधे विकल्पः"-इति गौतमविरोधादित्याशङ्याह न्यूनाधिकवेति । दत्तमुत्तरमिति 'तस्मात् शास्त्रेण यस्टोक्ता प्रसंशा तन्महाव्रतम्'--इत्यादि ग्रन्थेनेत्यर्थः ।
उपसंहरति सर्वथापीति । निर्मूलत्वेहेतुः बुद्धिकल्पितामिति । (२) बुद्धिमात्रव्यवस्थायामेकेन क्वचित् विषयव्यवस्था बुड्या कल्पिता तदन्येम
च तदिपरीता, तत्र कस्था व्यवस्थायाः प्रामाण्यं स्यात् , हयाः प्रामाण्ये च संवाव्यवस्था, तस्मात् बुद्धिमात्राझवस्था म युक्ता पुरुषबुडेरप्रतिठानादित्याशयेन अात्मतत्त्वविवेके न्यायाचार्योक्तं न्यायमुदाहरति कपिल इति। "उभौ च यदि सर्वज्ञौ व्याख्याभेदस्तु किं कृतः" - इत्युत्तराई। परन्तु मुदितात्मविवेकग्रन्थे कपिलपदस्थाने जैमिनिपदं,
सर्वज्ञपदस्थाने वेदज्ञपदं, कणादपदस्थाने कपिलपदश्च दृश्यते। (३) व्यवस्थापनमितिच्छेदः। वाक्यानुसारेण यत् व्यवस्थापनं तदेव मीमा
सकत्वमित्यर्थः । (8) प्रमाप्य मारयित्वा ।
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१५०,या - का.]
पराशरमाधवः।
इत्यकाम-कृते पापे नाशो निःशेष उच्यते । न तु काम-कृते शुद्धेरकिञ्चित्करतोच्यते(१) । स्मृत्यन्तरेषु तच्छुद्ध:(२) सामान्येनाभिधानतः । विशेषादर्शनं यावत् तावत् सामान्य-दर्शनम् । (९)मानमेवान्यथा ते स्थात् सर्वज्ञत्वेऽधिकारिता। गुणोपसंहतिव* यथादर्शनमिष्यताम्(४) । अदृष्टानुपसंहारेण किञ्चित्करतैव ते । यथा च दृश्यते वाक्यं शक्ति-श्वास्य यावती । तावत् कार्य नढपेक्षा युका वैगुण्य-शङ्कया । प्रायश्चित्ते तथाऽऽचारे यानि स्मृत्यन्त राय हम्दृष्टवांस्तान्युदाहृत्य संहरिष्ये गुणांस्ततः । पिषयस्य व्यवस्थां च मन्द-व्युत्पत्ति-सिद्धये* गुणोपसंहति चैव, इति स० स० पुस्तकयाः पाठः । + अदृष्टानुपसंहारे न किञ्चित् करतावते,-इति मु० पुस्तके पाठः । । यत् यावत् दृश्यते वाक शक्तिश्चात्रास्य यावती,-इति स. सो.
पुस्तकयाः पाठः । (१) तथा चाकामकृतपापं निःशेषानश्यति, कामकृतन्त निःशेषं न नश्यति
अंशतन्तु नश्यत्येव, इत्येव इयं विशुद्धिरित्यादेतात्पथ्यं न तु काम कृतपापस्य तद्विशुद्ध्या सर्वथैवानाश इति । ब्रह्महा दादशवार्षिकं कुर्यादित्येवं सामान्यरूपेणेत्यर्थः । मानमेव,-इतिच्छेदः । अन्यथा सर्व विशेषदर्शनेन सामान्यस्य प्रामा
ण्य मित्यभ्युपगमे। (8) यथा दृश्यते तथा गुणानुससंकृत्यानुष्ठानं कर्तव्यं । यदृष्टाशक्यगुणाना
मनपसंहारे तु न दोषः । गुणोऽङ्गम् । गुणोपसंहारश्च पूर्वमीमांसायां द्वितीय-चतुर्थ-हितीये, शारीरके हतीय-तीय-हितीये चाधिकरणे विचारितस्तत्रैव सहयः।
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पराशरमाधवः।
[११०,आका।
प्रवक्ष्यामि, यथा पूर्वे निबन्धन-कृतस्तथा । ( यत् यस्मिन् विषये प्रोकं तत्र तस्य प्रशस्तताविवक्षिता, नेतरस्य निषेधोऽत्र विवक्ष्यते । (२)तद्विवेकाय कुर्वेऽहं व्याख्यां पाराशर-मृतेः ।
(टीकाकारोपक्रमणिका समाप्ता)
(२)प्रारिमित-प्रतिपत्तये श्रोतुर्बुद्धि-ममाधानाय (४) संबन्धाधिकारि-विषय-प्रयोजनरूपमनुबन्ध-चतुष्टयमादौ श्लोक-दयेनेोपनिबधाति,
अथाताहिम-शैला देवदारु-वनालये। व्यासमेकाग्रमासीनमपृच्छन्द्वषयः पुरा ॥१॥ मानुषाणां हितं धर्म वर्तमाने कलौ युगे।
शौचाचारं यथावच्च वद सत्यवती-सुत!॥२॥ * निबन्धनकृत स्ततः, - इति मु० पुस्तके पाठः। + प्रारिभितग्रन्थे बोट बुद्धिमनः समाधानाय, इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ सदाशिव-सुतं वन्दे विदारित-विपद्भयम् । ___ मुदे जगलयामोद-कारणं वारणाननम् । इत्ययं श्लोकः अथात इत्यादिलोकात् पूर्व मो० मू० पुस्तके वर्त्तते । (१) खसिद्धान्तमुपसंहरति यदिति । (२) तद्विवकाय कुत्र कस्य प्रशस्तत्वमित्येतदिवेकाय । (३) उपाहातागतं विचारं समाप्य ग्रन्थं व्याचिख्यासभूमिकामारचयति
प्रारिसितेति। अनुवध्यते इति व्युत्पत्त्या अनुबन्धपदं सम्बन्धादिचतुष्कपरं। प्रयोजन मन्तरेण न बोकः प्रवर्तते, एव विषयाऽपि प्रवृत्तौ प्रयोजकः । तदुभयाश्रितः सम्बन्धः। एवमधिकार्यभावे कस्य प्रवृत्तिः स्यात् । अतस्तचतुकं शास्त्रादौ वक्तव्यं । एतच मीमांसा-प्रथम-प्रथम-प्रथमसूत्रवार्तिके स्पएं।
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१.,या का।
पराशरमाधवः।
इति । अथशब्द प्रानन्तार्थः, अनन्तरमपृच्छन्-इत्यन्वेतुं योग्यत्वात् । (१)बारम्भार्थतायाम् , अामन्यते अच्छन्-इत्यनन्वयः स्यात् । प्रभार्थवेऽपि सएव दोषः । पृच्छाते अपृच्छन्-इति पुनरुतिश्च । कानगार्थतायां, कृत्स्नमपृच्छन्-इति सत्यप्यन्वये, मंबन्धोन सूचितः स्यात् । श्रानन्तार्थतायान्तु, तत् प्रतियोगिनः पूर्व-वृत्तस्य उत्तरकालीन-प्रश्नस्य च हेतु-हेतुमद्भावः सूचितोभवति(२) ।
नन, “हृदयस्यायेऽवद्यत्यथ जिहाया अथ वक्षमः" इत्यत्र सत्यप्यानन्तर्य हेतु-हेतुमद्भावोनास्ति-दति चेन् । नायं दोषः, तत्रापेक्षितस्यानुष्ठान-क्रम-मात्रस्याभिधानात्(२) । प्रकृते तु, (४)मामग्री-तत्कार्ययोर्य क्रम-विशेषः, सएव परिग्टह्यते, मुख्यत्वात्। बिलम्कव्यभिचारयोरभावेन हि* मुख्यत्वम् । न खलु सत्यां मामय्यामस्थाअभिनिर्वयों कार्यं बिलम्बते व्यभिचरति वा । एतच्च,-"अथातो
* हि,-इति मु. पुस्तके नास्ति । + अस्या अभिनिर्वत्यै,-इति मु. पुस्तके नास्ति।
-
-
(१) “मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकात्स्येष्वयो अथ" --इति कोयोक्तम्वथशब्दा
र्थेधु बारम्भाद्यर्थानामसम्भवं प्रचते प्रतिपादयति बारम्भार्थताया
मित्यादिमा। (२) बानन्तयं हि पूर्वीपररूपप्रतियोगिदयनिरूप्यं । तयाच पूर्वस्य
हेतुत्वं उत्तरस्य च हेतुमत्त्वं गम्यते, हेतोः पूर्ववर्तित्वनियमादित्यभिप्रायः। पशोरवदानवयं विहित एतच युगपत् कामशक्यमिति क्रमोऽवश्यम
पेक्षितः । तदपेक्षितक्रममा 'हृदयस्य' इत्यादिकया अन्योचते। (४) सामग्री कारणकलापः।
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पराशरमाधवः ।
[१०,बा का।
ब्रह्म-जिज्ञासा" (शा० १,१,१सू.) इत्यत्र विवरण-कारेण प्रपञ्चितम् । सामग्री र प्रश्नस्य, प्रष्टव्य-विषयं सामान्यज्ञानम्(१) । अत्यन्तमज्ञाते विशेषेण* ज्ञाते वा प्रश्नादर्शनात्। धर्म-विषयन्तु सामान्यज्ञाम-धर्मेण पापमपमुदति” “धर्म चरेत् -इत्यादिवेद-वाक्याध्ययनादुपजायते । (२)तस्मादध्ययनानन्तर्यमथशब्दार्थः । अथवा। 'वर्तमाने कलौ'-इति विशेषणात् युगान्तर-धर्मज्ञानानमार्यमस्तु(१) ।
मनु, ग्रन्थारम्भे मङ्गलाचरणस्य शिष्टाचार-प्राप्तत्वात् माङ्गल्यम्(५) अथ-शब्देन कुतोनाभिधीयते ? । (मृदङ्गादि-ध्वनिवदथ-शब्दश्रवण-मात्रेण मानल्या मिद्धेरिति ब्रूमः । अतएवोकम् ,
"कारखाथ-अब्दश्च दावेतौ ब्रह्मणोमुखाता । • तहिशेषेण, इति मु. पुस्तके पाठः । + धम्मंचर, इति मु• पुस्तके पाठः। t विशेषण-प्रयोगात्,-इति मो. स. पस्तकयोः पाठा। ६ मङ्गलम्,-इति सो० स० पुस्तकयोः पाठः। ॥ माङ्गल्य,-इति मो• स: पुस्तकयो नास्ति ।
पा ब्रह्मणः पुरा,-इति सद्यासंग्रहे पाठ। (१) सावधारणोऽयं निर्देशः । तेन प्रष्टव्यविषयसामान्यज्ञानं तविषयविशे
वज्ञानाभावश्च प्रश्नहेतुरिति लभ्यते । एतचानुपदमेव स्परम्। (२) यमाबेदाध्ययनात् धर्मविषयं सामान्यज्ञानं चायते, तस्माद्देदाध्यय
मानन्तर्यमयशब्दार्थ इत्यर्थः। (३) पशब्दार्थः, इत्यनुवष्यमाणेन संबन्धः। (1) मालमेव मानल्यं । साथै तद्धितः । (५) कुतोनाभिधीयते, इबनेगानभिधानहेतो, एडवात्तमेवाह सदा
दीति ।
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९ख०,था०का.]
पराशरमाधवः ।
कण्ठं भित्वा विनिर्यातौ तेन* माङ्गलिकाबुमो”। इति । एवन्तर्हि, ॐकारोऽत्र प्रयुज्यतामिति चेत् । न, तस्य अतिविषयवान्। । अतएवाचार्य: प्रपञ्च-सारेऽभिहितम् ।
"त्रस्य(तु वेदादित्वात् मर्च-मनना(१) प्रयुज्यते ह्यादौ”-इति । - ततः स्मृत्यादावथशब्दएव महर्षिभिः प्रयुज्यते । अधिकारि-पर्यालोचनेनापि? ॐकाराथशब्दयोरा-विषय-व्यवस्था मिध्यति।चैवर्णिकमात्राधिकारा हि श्रुतिः प्रसिद्धा(६)। ॐकारश्च तथाविधः(७), 'माविषों प्रणवं यजुर्लक्ष्मी स्त्री-शूद्रयोर्नेछ न्ति (५) इति श्रुतेः। अथ
* तस्मात् ,-इति मु० पुस्तके पाठः। + श्रुतिमात्रविषयत्वात्, इति मु• पुस्तके पाठः । + अस्य तु वेदादित्वं सर्वमनुष्याणामप्रयुज्यत्वात्, इति मो० स० पुलकयोः पाठः। .
अधिकारिप-लाचनया च,-इति मुझ पुस्तके पाठः । || स्त्रीशूद्रायां,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
-
(१) अस्य कारस्य । सत्प्रलावे कथनात्।। (२) मनुम्मनलः । स च वैदिक एवार्थात् ।। (२) चैवर्णिकं ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यास्त्रयोवाः । खार्थे तद्धितः । प्रसिडेत्य
नेन तत्रहत्वपेक्षा नास्तीति सूचनात् न इत्वकथनेन न्यूनतेतिबाध्यं । (8) तथाविधः त्रैवर्णिकमात्राधिकारः । (१) सावित्री गायत्रो। प्रसवः ॐकारः। यजः गानपादविच्छेदरहित
प्रमियपठितमलजातं। तथाच जैमिनिसूत्र । “शेष यजुःशब्दः" (२, १, २७ इति । ऋक् सामभिने मन्बजाते यजुःशब्द इति तदर्थः। लामीः श्रीवीज। बत्र यजुर्ग्रहणमधिकोपार्थे उपलक्षणं वा, "खोडौ नाधोयेताम्"-इति श्रुत्या वेदमात्राध्ययनरव स्त्रीशूद्रআলম্বিন্ধাবাবিনি ।
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पराशरमाधवः।
[१०,आका
शब्दस्य पौरुषेयग्रन्थानाञ्च सर्व-वर्ण-विषयत्वात्(१) मएव तेषु योग्यः । ___ अतः शब्दोहेत्वर्थः । यस्मादेक-शाखाध्यायिनोनाशेष-धर्म-ज्ञानं, यस्माञ्च युगान्तर-धर्मावगत्या न कलि-धर्मावगतिः, तस्मात्,इति हेतुईटव्यः ।
अशेष-धर्म-मूलभूतानां विप्रकीर्णानन्त-वेद-वाक्यानां योगिदृश्चैव ग्राह्यत्वात् तस्याश्च दृष्टोगावस्थायां *(२) सम्भवात् तदवस्था-- योग्यं देश-विशेषं पद-हयेन निर्दिशति,-'हिम-शैलाये देवदारवनालये' इति । तत्र, 'हिम-गैलाने'-इत्यनेन सर्व-प्राणि-दुर्गमत्वेन(३) विविक्रतामाह । तथाच, कैवल्योपनिषदि श्रूयते,
“विविक्र-देशे च मुखासनस्थः" इति । तुरेकायामपि श्रूयते,
“निःशब्दं देशमास्याय तत्रासनमुपाश्रितः । इति । 'देवदारु-वनालये-इत्यनेन मनोऽनुकूलतामाह। अतएव श्वेताश्वतराणं मन्त्रोपनिषदि श्रुतम्,
-
-
* युक्तावस्थायां,-इति मु० पुस्तके पाठः । + तत्रासनमथास्थितः,-इति मु. पुस्तके पाठः ।
(१) पौरुषेयग्रन्थानां सर्ववर्णविघयत्वञ्च, “चतुर्णामपि वर्णानां यानि प्रो
तानि श्रेयसे। धर्मशास्त्राणि राजेन्द्र ! टण तानि नृपोत्तम!"
इत्यादि भविष्यपुराणवचनादिभ्योमलमासतत्त्वादी व्यक्तम् । (२) “योगश्चित्तवृत्तिबोधः” (१, २सू) इति योगसूत्रम्। स्पायोऽक्ष
रार्थः । तात्पर्य्यार्थस्त्वग्रता ग्रन्थकतैव सूचयिष्यते । (३) विविक्ततां विजनतां ।
..
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- १०,०का.
पराशरमाधवः ।
"भमे एचौ* शर्कर-वकि-बालुकाविवर्जिते । वाऽथ जलाश्रयादिभिः(१) । मनोऽनुकूले न च चक्षुःपीड़ने
गुहा-निवाताश्रयणे, प्रयोजयेत्” । इति । चक्षुःपीड़नोमशकोपेतोदेशः । . ननु “यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् (२) (शा ० ४,१,७सू०) इत्यस्मिन्
अधिकरणे (शा ० ४,१,६१०) योगाभ्यासस्य दिग्देश-काल-नियमोवारितः(३) । (४)वाढ़म् । अदृष्ट-हेतु-बैध-नियमाभावेऽपि दृष्टचित्तकाय्यस्य हेतुर्वियमान निवार्यते ।
_ 'एकाग्रम्'-इत्यनेन पञ्चविधासु चित्त-भूमिषु(५) अतीन्द्रियवस्तु-दर्शन-योग्या चतुर्थी भूमिर्निर्दिश्यते । तथाहि, पतञ्जलिप्रेषकानां योग-सूत्राणां व्याख्याने ॥वैयासिक-भाष्ये भूमि-पञ्चक
* शर्करा, इति मु० पुस्तके पाठः ।। + शब्दजालाश्रयादितिः, इति मु० पुस्तके पाठः । । न योजयेत् -इति स० से० पुस्तकयाः पाठः । ६ अत्र, 'वध', इति मु० पुस्तके नास्ति । || वैयासक,-- इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) शर्कराः क्षुद्रपाषाणाः । जलाश्रयवर्जनं शीतनिकृत्यर्थ । . (२) यत्रैव दिशि देशे काले वा मनस एकाग्रता भवति, तत्रैव उपासीत,
इशाया एकाग्रतायाः सर्वत्राविशेषात् इति सूत्रार्थः। (३) तथाच कथं हिमशैलाये,-इत्यादिना योगोपयोगिदेशविशेषनिर्देश
इति व्याख्यातमिति पूर्वपक्षार्थः । (8) पूर्वपक्षमभ्युपगम्य परिहरति वामिति । (५) चित्तम्यभूमयोऽवस्थाविशेषाः ।
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पराशरमाधवः।
[१०,या का।
प्रदर्शितम् । “क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तमेकायं निरुद्धमिति चित्त-भमयः" (यो० १,१भा०)-इति । (१)तत्र, प्रतिक्षणं कर्म वायुना नानाविधेषु भाग्य-वस्तुषु व्यग्रतया प्रेर्यमाणं चित्तं क्षिप्तम्(२) । निद्रातन्द्रादि-युक्तं मूढम्(२) । *काचित्क-समाधि-युक(४), क्षिप्ताद्विशिष्टं विक्षिप्तम् । (५)यम-नियमाद्यष्टाङ्गाभ्यास-पाटवादेकस्मिन् विषये वृत्ति प्रवाहरूपेण प्रतिष्ठितमेकायम् । (१)प्रवृत्तिकं संस्कार-मेषं निरुद्धम् । तत्र, क्षिप्तमूढयोर्योगानुपयोगः प्रसिद्धः(७) । (८)"विक्षि
* कादाचित् क,-इति मु. पुस्तके पाठः ।
(१) उदाहृतं भाष्यांशं व्याख्यातुलारभते तति । (२) 'क्षिप प्रेरणे'-इति धातुपाठादितिभावः । (३) 'मुह वैचित्ये-इति धातु पाठादितिभावः। (e) विक्षिप्तं हि चित्तं कदाचित् समाधीयते, क्षिप्तन्तु न कदाचित् ,
अतएव विक्षिप्तस्य क्षिप्तादिशिएता। (५) “यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयाऽखावजानि"
(२, २८सू) इति योगसूत्रोक्तान्यठावङ्गानि। यमादय स्तव ज्ञेयाः । अत्र, समाधिः सविकल्पकोऽहं निर्विकल्प कस्यति वेदान्तसारादयः । योगाङ्ग समाधेर्लक्षणं योगसूत्राक्तन्त पश्चादच्यामः । रत्तिश्चित्तस्य विषयाकारः परिणामः । प्रवाहोऽविच्छेदः। सेयमेकानावस्था पर्व निर्दिछा चतुर्थीभूमिरिति मन्तव्यं । यद्यपि चित्तं त्रिगुणं परिणामखभावाश्च गुणानापरिणम्य क्षणमष्यवतिष्ठन्ते इत्यरतिक चित्तासम्भवः, तथापि निगडावस्थायां निरोधपरिणामातिरिक्त परिणामाभावात् निगडं चित्तमत्तिकमुच्यते ।
स्परञ्चतत् पातञ्जले टतीयपादे। (७) क्षिप्तमूदयाः सत्यपि परस्परापेक्षया रत्तिनिरोधे पारस्पयेणापि
निःश्रेयसहेतुत्वाभावात् प्रत्यन तदुपघातकत्वानतयोगिोपयोगः । (८) विक्षिप्ने चेतसीत्यादिकं योगभाष्यं (१.१सू) विक्षिप्तपाय तो विकलय्य
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१५.,या का
पराशरमाधवः ।
प्रेऽपि चेतमि, विक्षेपोपसर्जनीभूतः समाधिन योगपक्षे वर्त्तते"* । ' (१)विपक्षवर्गान्तर्गतत्वेन दहनान्तर्गत वीजवदकिञ्चित्करत्वात्। (२)"यस्वकाग्रे चेतसि सद्भूतमर्थं प्रद्योतयति, क्षिणोति च क्लेशान्, कर्मबन्धनानि लथयति, निरोधमभिमुखं करोति, म संप्रज्ञाता योगः,इत्याख्यायते”। तत्र संयमविशेषात् नानाविध योगेश्चर्यमाविर्भ
* विक्षेपोपसर्जनः समाधि न योगः, इति मु• पुस्तके पाठः ।
पठति विक्षिप्तेऽपीति । समाधिर्तिनिरोधः । 'न योगपक्षेवर्त्तते' -
इत्यत्र हेतुगर्भविशेषणं विक्षेपोपसर्जनीभूत इति।। (१) विक्षेपापसज्जनीभूसः,-इत्यनेनोजितं हेतुमाह विपक्षों ति ।
पुनरपि योगभाष्यं (१, १सू) पठति यत्वेकाग्रे इति । य इति समाधेः परामर्शः। भूतं सत्यं । बनेनारोपितार्थव्यवच्छेदः बारोपितस्यासत्यत्वात् । सत् शोभनम् । अनेन निद्रायत्तेर्व्यवच्छेदः। बिद्रावृत्तिहि खाबलम्बने सत्ये तमसि भवत्येकाना, किन्तु तदबलम्बनं तमोन शोभनं मोश हेतुत्वात् । द्योतनं तत्वज्ञानं, प्रशब्देन तस्य साक्षात् कारतामाह। शास्त्रानुमान-प्रभव-परीक्ष-तत्त्वज्ञानस्यापरोक्षमिथ्याज्ञाननिवर्तकभावात्, दिमोहादौ तथाऽदर्शनात्। तत्त्वज्ञानेन मिथ्याज्ञानरूपाविद्याविमाशे सुतरां तन्मूलानाममितादीनामपिनाश.-इत्याह क्षियोति च लोशान् इति। लोशा विद्यास्मितादयः । तथा च पातञ्जलसूत्रम् । “अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः केशाः” (१, सू)। इति । एषां विवरणं तत्रैवद्रष्टव्यं। काण्येव बन्धानानि लथयतिखका-दवसादयति । कर्मपदेन धमाधर्मयाः परिग्रहः कार्यकारगोपचारात्। निरोधममंप्रज्ञातं निर्बीजसमाधिं । न तत्र किञ्चित्संप्रज्ञायते इत्यसंप्रज्ञातः । तदानों चित्तस्य संस्कार शेषत्वात् तथात्वं । संप्रज्ञातेतु सवीजसमाधौ ध्येयं ध्यानञ्च ज्ञायते । स्पटमेतत्सव्वं पातनले समाधिपादे।
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पराशरमाधवः।
[१०,या का
वति(१) धारणा-ध्यानसमाधि-त्रयमेकविषयं संयमः, इत्युच्यते(२) । शब्दार्थ-प्रत्ययेष्वन्योन्य-विभक्षु यः संयमः, तेनाशेष-शब्दादि-माक्षात्कारे सति पक्ष्यादिभाषाज्ञायन्ते, इति पतञ्जलिनाक्रम् ) । (१) तत्र एकाग्रेचेतसि, संयमविशेषात् योगशास्त्रोक्तेषु तेषु तेषु विधयेषु
संयमात् नानाविधयोगैश्वर्यप्रादुर्भावोभवतीत्यर्थः। एतत् सर्वमपि पातञ्जले विभूतिपादे स्परम् । अत्र यथाक्रमं योगसूत्राणि । “देशबन्धश्चित्तस्य धारणा" (३,१सू)। यत्र देशे ध्ययं चिन्तनीयं तत्र देशविशेधे हृदयपुण्डरीकादौ चित्तस्य स्थापनं धारणेति सूत्रार्थः । “तत्र प्रत्ययकतानताध्यानम्” (३,२सू)। तस्मिन् देशे ध्येयगोचरप्रत्ययप्रवाहाध्यानमिति सूत्रार्थः। “तदेवार्थमात्रनिर्भासं खरूप शून्यमिवसमाधिः” (३,३सू०) ध्यानमेव ध्येयमानिभीसंसमाधिः। यदा तदेवध्यानं ध्येयाकारेण व साक्षिणिनिर्भासते नतु प्रत्ययाकारेण, तदाध्यानमेव समाधिरुच्यते इत्यर्थः। मात्रशब्द विवरणं खरूपश्रूष्ममिवेति । खं ध्यानं । तदानी ध्यानस्यापि सत्वात् इवशब्दः । (सोऽयं देशविशेषे समाधिर्योगाङ्गं ।) “एयभकत्रसंयमः" (३,४सू०)। धारणाध्यानसमाधित्रय मेकविधयश्चेत् संयम इत्युच्यते इति सूत्रार्थः। "शब्दार्थप्रत्ययानामितरतराध्यासात् संकरस्तत्प्रविभागसंयमात् सव्र्वभूतरुतज्ञानम्" (३, १७सू०) इति पातञ्जलसूत्रम् । शब्द-तदर्थतद्गोचरप्रत्ययानां वस्तुतः प्रविभक्तानामपि इतरत्रेतरस्याध्यासात् सबरोभवति, तत्प्रविभाग-विषयक-संयमात् साक्षात्कारपर्य्यन्तात् सर्वप्राणिनां प्राब्दज्ञानं योगिनः सम्पद्यते इति सूत्रार्थः। तत्र, गौरितिशब्दो गौरित्यर्थो गौरितिप्रत्यय इति सङ्करस्योदाहरम् । प्रविभागस्त्वमीयां श्वेतते इति श्वेत इति चैवमादिरीत्या प्राब्दभेदेपि श्वेतगुणरूपार्याभेदात् श्वेताकारप्रत्ययाभेदाच्च शब्दादर्थप्रत्ययाभिची। एवमेकस्मिमेव श्वेतगुणे, तदाकार-नाना-प्रत्ययोदयादर्थ-प्रत्यययोः परस्पर भेदः। तथा खखावस्थाभिः परिणम्यभाणाः शब्दार्थप्रत्यया न तुल्यकाला, नापि तुल्यदेशाः। शब्दोहाकाशे, प्रत्ययोबुद्धौ, अर्थस्तु श्वेतगुणादिः प्रासादादावित्यमीषां प्रविभागः । स्पष्ठमेतत् पातञ्जले विभूतिपादे ।
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१०,या का०]
पराशरमाधवः।
AA
(सेनैव न्यायेनानेकविध-वेद-शाखा-ज्ञानमभिप्रेत्य 'एकाग्रम्'इत्युक्तम् ।
एकाग्रतामामीनस्य मन्वान:* 'श्रामीनम्' इत्याह । तथा च व्यास-सूत्रम् । “श्रामीनः संभवात्" (शा०४,१०१पा०, सू०) इति । (२)शयानस्थाकस्मादेव निद्राभिभवात, उत्थितस्य देह-धाणोचितव्यापारात,(३) गच्छतोधावतोवा विक्षेप-वाहुल्यात, परिशेषेणामीनस्यैवकायता-सम्भवात् श्रामीनोयोगमभ्यस्यन्नुपासीतेत्यर्थः ।
अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां प्रश्नस्थावगत्युपायतामभिप्रेत्य, अपृच्छन्,इत्युतम् ।
"तविद्धि प्रणिपातेन परिप्रभेन मेवया" । इत्यन्वयः । “नापृष्टः कस्यचिद्व्यात्" इति व्यतिरेकः ।
'ऋषिः शब्दोऽतीन्द्रियार्थ-दर्शनमाचष्टे (७)। ज्ञास्यमान-धर्मामुष्ठानोत्तरकालिकषित्वम् । (५ यथा भाविन्या संज्ञया 'कटं कुरु'
* ऐकायपाङ्गतामासनस्य मत्वा,-इति म पुस्तके पाठः। (१) यथोक्तसंयमात् अनेकविधभाषाज्ञानवत् अनेकविधवेदशाखाज्ञानमपि
संभवतीत्यभिप्रायः। (२) व्याससूत्रं व्याचई शयानस्येति ।
तथाविध-व्यापार-व्याएतस्य मनसोन ध्येयगोचर-व्यापार-सम्भवः,
इति भावः। (४) ऋत्यिर्थत्वात् गत्यर्थानाच ज्ञानार्थत्वात् । तथाच शवोचकाभावात्
प्रसिद्धेश्च अतीन्द्रियार्थदर्शिनां ऋवित्वमिति भावः। तथाच, भाविनि भूतवदुपचारः इति भावः। तत्र दृष्टान्तो यथेति । संज्ञिनमन्तरेण संज्ञाया असम्भवात् उत्पत्तेत्तरकालमेव संज्ञाप्रत्तिः संज्ञया व्यवहारस्तु प्रागप्युत्पत्तेरिति यथेत्यर्थः ।
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पराशरमाधवः।
धाका.।
इति व्यवहारः, तबत्। अन्यथा, अतीन्द्रियार्थं पश्यतां तेषामभुत्मनया प्रोन मंगच्छेत । अथ वा, खयमवुभूत्सुनामपि मन्द-बुड्यनुयहार्थं प्राचार-शिक्षार्थं वा (१ प्रश्नोऽस्तु । . अपृच्छन्-इत्यनेनैवातीतकालत्वे सिद्धे(२) 'पुरा' शब्द प्रयुञ्जानः सर्वेष्वपि कल्पेवीदृशी धर्मशास्त्र-प्रवृत्तिरासीदिति सूचयति। तच विश्वासातिशयोत्पादने कारणम् । अन्यान् मुनीनुपेक्ष्य व्यासमेव पृच्छताम्हषीणाम्,-वैदिक-धर्मे वेदव्यास: प्रवीणः, इत्याशयः । . तदेवं चिकीर्षितस्य ग्रन्थस्यां मुनि-प्रश्नेन साक्षात् संबन्धः, पिच्छिषोत्यादन-दारेण अध्ययनेन संबन्धः, इति संबन्ध-इयमस्मिन् लोके प्रतिपादितम् । अधिकार्यादि-चयन्तु) दितीय-बोके प्रतिपाद्यते ॥ - ननु, "ब्राह्मणवृहस्पतिसवेन यजेत" "राजा राजसूयेन यजेन" वैग्योवैश्यस्तोमेन यजेत,"-इत्यधिकारि-विशेषोयथा श्रूयते, न तथा पराशरोकधर्माः ईदृशेरनुष्ठेयाः, इति किञ्चित् वचनमस्ति, तत् कथं निर्णयः, इत्यताह 'मानुषाणाम्' इति । अर्वाचीनानां
• धर्मशास्त्र, इति स० मा पुस्तकयोः पाठः । + ग्रन्थस्य,-इति स० स० पुस्तकयानास्ति ।
+ पराशरोक्तमिदमीशेरनुछेयम्, इति स० सो पुस्तकयाः पठा। (१) अस्मदृशान्तेन मन्दबुद्धयोपि धम्म प्रक्ष्यन्ति, ततस्तेभ्यः सन्तोधर्ममपदे
क्ष्यन्ति, ते च तदाचरणेन फलभाजाभवेयुरिति मन्दबयन याः ।
धर्मबभुत्सूनां तज्जिज्ञासायाः कर्त्तयत्वमाचारः।। (२) यएच्छन्-इति लोऽतीतकालरव विधानादितिभावः। (३) अधिकारि-विषय प्रयोजनरूपम् ।
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१५०,या का०]
पराशरमाधवः।
पश्वादीनामसामर्थात्() उत्तमानां देवादीनां धर्मानुष्ठाने प्रयोजमाभावाच मनुष्याएव परिशिष्यन्ते । विशेषानिर्णये तु, सर्वेषां मनुष्याणामधिकारोऽस्तु ।
ननु, नक्षत्रेच्यादी देवानामधिकारः श्रूयते,-"अनिव्वा अकामथत; अवादोदेवानां स्यामिति, स एतममये कृत्तिकाभ्यः पुरोडाशमष्टाकपालं निरवपत्"-दति । मेवम् । मनुष्य स्यैव कस्यचित् यजमानस्य भाविनों संज्ञामाश्रित्य प्रथमान्तेनानिशब्देन व्यवहारात्र) । अन्यथा युगपदमि-दय-सृष्टि-प्रसङ्गात्(२) । मनु, पत्र द्विगुण्य-दोषोनास्ति तवास्तु देवताऽधिकारः। तथाहि श्रूयते । "वृहस्पतिरकामयत, अम्मे देवादधीर गच्छेयं पुरोधामिति, म एतं चतुर्विंशतिरात्रमपश्यत्, तमाहरत् तेनायजत, ततोवै तौ देवाः अदधन अगच्छत् पुरोधाम्" इति। अन्॥ विश्वासम्। मे मयिा
++
* संहरिप्रसङ्गात्,-इति मु. पुस्तके पाठः। + देवगुण्य-इति मु. पुस्तके पाठः।
श्रद्धां देवानाम् ,-इति स० सो पुस्तकयाः पाठः। 5 तस्मै श्रद्देवा अदधत, इति मु• पुस्तके पाठः। ॥ श्रद्धाम,-इति स० सो पुस्तकयाः पाठः । पा मे मयि,-इति स• सो पुस्तकया नास्ति।
-
-
(१) मन्त्रपाठदव्यत्यागाद्यसामादित्यर्थः। (२) कश्चिन्मनुष्योनक्षत्रेयिं कृत्वा अमित्वं लब्धवान् । तस्य चामित्वलाभी
तरकालभाविन्या बमिसंघया पर्वमेव व्यवहारोऽपिवा अकामयत
इति, भाविनिभूतवदुपचार इति न्यायादिति भावः। । (२) खमुहिश्य वस्य त्यागासम्भवात् एकोऽमिस्त्यक्ता, अपरश्च त्यागीय
इत्यमिदयकल्पना।
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पराशरमाधवः।
[१,०का।
पुरोधाम्, पौरोहित्यम् । चतुर्विंशतिरात्रम्, एतनामक सत्रयागमित्यर्थः । इत्यादौ फलश्रवणात् कर्मानुष्ठाने कथं प्रयोजनाभावः,इति चेत् । मैवम् । अत्रापि भावि-संज्ञायाएवादरणीयत्वात् । अन्यथा, वृहस्पतेः कञ्चित् कालं विश्वसनीयत्व-पौरोहित्ययोग्भावप्रमङ्गात् । तच, श्रुत्यन्तरविरुद्धम् । “वृहस्पति देवानां पुरोहित श्रामीत्" इति श्रुत्या पौरोहित्य-पुरःसरःसरएव वृहस्पति-सद्भावः प्रकाश्यते। अथवा। खोपयोगाभावेऽपि मनुष्यान् प्रवर्त्तयितुं देवा कर्माण्यनुष्ठितवन्तः ।
__ "यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरोजनः" । इति न्यायात् । अस्तु वा खोपयोगोऽपि, जगन्निवाहेऽधिकृतान देवादीनां तद्धेतो: तपमश्चरणीयत्वात (९) । "वसन्ते ब्राह्मणोऽमिमादधोत, ग्रोभे राजन्यबादधीत शरदि वैश्य श्रादधीत" इति विहितस्थाधानस्य देवेष्वत्रैवर्णिकेध्वसम्भवः (२)-इति चेत् । न, रथकारव
* 'इत्यादौ' - इत्यादि इति चेत्'–इत्यन्तं स. मो० पुस्तकयो
नास्ति। + सम्भवः, इति स. सो० पुस्तकयोः पाठः । + देवेश्वपि त्रैवर्णि केष्विवासम्भवः, इति मु० पुस्तके पाठः ।
देवाहि जगनिर्वाहेधिकृताः धर्मम्य च तद्धेतुत्वं अता देवानां का. पयोगः। महाभागत्वाद्देवानां विनापि कर्म जगन्निीहः स्यादिति न शननीयं, लप्तकारणं विना कार्यात् पत्तेर्देवानामप्यभावात् , भावे वा तस्य कारणत्वमेव न भवेत् व्यभिचारात्। महाभागत्वस्यापि कर्म
साध्यत्वाच्च । (२) 'अत्रैवर्णिकेषु'-इति हेतु-गर्भ-विशेषणम्। बामणत्यादि-पुरस्का
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१५०,बा.का.
पराशरमाधवः।
दुपपत्ते:(१) । अथ मन्यसे,–'अस्ति रथकारस्य समन्त्रकाधान-विधायकं वचनम् ,-"भूणां त्वा देवानां ब्रतपते व्रतेनादधामीति रथकारस्य,"-इति श्रुतेः, न त्वेवं देवानां विधिरस्ति, इति । एवन्तईि निषादस्थपति-न्यायोऽस्तु । यथा निषादस्य प्रभोराधान-विध्यश्रवणेऽपि यागोऽभ्युपगतः, तथा देवानामभ्युपेयताम् । “एतया निषाद-स्थपतिं याजयेत्”-इत्यस्ति निषाद-विषयं वचनम् , इति चेत् । किं त्वया विस्मृतानि देव-विषयाणि पूर्वोदाहृत-वचनानि ? । (तेषामर्थवादत्वेपि मानान्तराविरोधात् अननुवादात्* खार्थेऽपि तात्पर्य किं नस्यात् २)।
अयोच्येत, स्मृतीनां धर्मशास्त्रत्वात् तासु धर्म-मीमांसा अनुसनव्या, तस्याञ्च न कस्याप्यर्थवादस्य वाच्यार्थ प्रामाण्यमभ्युपगतम्इति । तदेतद्वचनं स्मृति भवस्या मीमांसकंमन्यस्य चानायैव स्यात् । 'मुषिक-भिया स्व-ग्रहं दग्धम्',-इति न्यायावतारात् ।
* अत्र, 'अननुवादाच'-इति पाठी भवितुं युक्तः । + स्मृति-निवाहकम्मन्यस्य, -इति मु० पुस्तके पाठः ।
रेण वसन्तादिष्वाधान-विधानात् देवानाच्च ब्राह्मणत्वाद्यभावात् थाधाने तेषामधिकारोन सम्भवतीत्याशङ्कार्थः । तथाच, कथं देवानामाधान-साध्यामि-सम्पाद्य-यागेवधिकारः,इत्याशयः।। रथकारः,-"माहिष्येण करण्याञ्च रथकार उदाहृतः"-इत्युक्त-एवीर्ण-जातिविशेषः। तस्य यथा चैवर्णिकभिन्नस्याप्याघानेऽधिकारः
तथा देवानामपि स्याटित्यर्थः । (२) ननु तेषामर्थवादत्वात् खार्थे प्रामाण्णं नास्तीत्याशङ्ख्याह तेषामिति । (३) विराद्वानवादयोरेवार्थवादयोःखार्थे तात्पर्य्य भावाभ्युपगमादितिभावः। .
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पराशरमाधवः।
[१०,या का ।
कस्यचिदर्थवादस्य स्वार्थ प्रामाण्यं भविष्यति, इति भयेन अर्थवादेक-प्रमिद्धानां स्मार्तणां मन्वदीनां मीमांसा-मात्र*-कृताजैमिनेश्च सद्भावस्यैव परित्यकव्यत्वात्। अशेषेतिहासलोप-प्रसङ्गात्(१) । तम्मात् प्रमाणमेव भूतार्थवाद:(२) । तथाच मति, “तं मनुराधत्त", "तं पूषाऽऽधत्त", "तं त्वष्टाऽऽधत्त" "तं धाताऽऽधत्त",-दूत्यर्थवादवशादाधानमपि देवानां किं नस्यात्। ब्राह्मणद्यभावे तु + कामं वमन्तादि-काल-विशेष-नियमोमाभूत किमायातमाधानस्य ? । किञ्च, अन्तरेणापि प्राधानं लौकिकेऽनौ यागः क्वचिदुपलभ्यते । "अवकीर्णि-पशुश्च तहदाधानस्थाप्राप्तकालत्वात्” (मी० अ०१ पा० २ स०) इति जैमिनिसूत्रात् । “योब्रह्मचारी स्त्रियमुपेयात् म गर्दर्भ पशुमालभेत"-दत्यवकीर्णिपरः । यथा उपनयन-होमोलौकिकानौ, तथा असौ पः, इति सूत्रार्थः । एतावता प्रयासेन देवानां कर्माधिकारे माधिते किं तव फलिव्यति? तथा मीमांसायां किं विद्यते ?। अभिनिवेश: केवलं शिष्यते,
* मीमांसा सप्र (मीमांसाशास्त्र ?) इति स. मा. पुस्तकयोः पाठः । + सद्भावस्टैवं,-इति स० स० पुस्तकयोः पाठः। + अत्र, 'ब्राह्मणत्वाद्यभावे तु'-इति पाठी भवितुं युक्तः । 5 तव वा मीमांसायां,-इति स० मे. पुस्तकयाः पाठः ।
(१) तेघामर्थवादकगम्यत्वादितिभावः । (२) विरुद्धानुवादभिन्नोऽर्थवादोभूतार्थवादः। तथा चोक्तम् । “विरोधे
गुणवादः स्यादनुवादोऽवधारणे। भूतार्थवादस्तद्धानावर्थवादस्त्रिधा मतः"-ति।
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९ख०,या का०1]
पराशरमाधवः।
फलं तु जगनिर्वाहः, इति पूर्वमेवोकम् । अशेषाश्च पुराणादयः एवं मति अनुग्टहीताभवन्ति । मनुव्यवद्देवानां स्वर्गीय कर्माणि माभूवन्, जगनिर्वाहाय तु भविष्यन्ति। तपमैव तन्निवाहः, इति चेत् । न, दान-याग-होम-मान-ध्यानादि-व्यतिरिक स्य तपसोऽनुपलम्भात् । अतएव सत्य-सङ्कल्पोऽपि परमेश्वरः राम कृष्णाद्यवतारेषु लौकिक वैदिक-कर्म-नटनेनैव जगन्निरबहत्। देवाअपि तथा नटन्तु, इति चेत् । एवमपि नटनीय-कर्माधिकारोभवताऽभ्युपगम्यताम्। एवं तर्हि, 'मनुष्याणाम्' इति कथमुकम्, इति चेत् । पौरुषेय-ग्रन्थापेक्षया । इति वदामः । न खलु स्वयंप्रभातनिखिल वेदानां देवानां धर्म-ज्ञानाय पौरुषेय-ग्रन्यापेक्षा अस्ति । मनुष्याणान्तु अ-तथाविधत्वात् अत्यपेक्षा।
ननु, पशूनामपि धर्मे अधिकारः श्रूयते ;-"गावो वाएतत् सत्रमामताश्टङ्गाः मतीः ग्रङ्गानि नोजायन्ता, इति कामेन, तामा दम मासा निषमात्रामन् , अथ, गाण्यजायन्त, ताउदतिष्ठवरात स्म इति, कामिताः|| संवत्सरमाप्योदतिष्ठवरात् स्म" इति श्रुत्या तिरवां गवां मत्रानुष्ठाहत्वाभिधानात् । परात्मा इति, कामितार्थ सिद्धिं प्राप्ताः, इत्यर्थः । नायं दोषः। अस्थाः श्रुतेरर्थवादत्वात् ।
* अत्र, 'खान'-इति बधिक समो. पस्तकया। + वचनापेक्षया,-इति मु. पुस्तके पाठः।। खयं प्रमात,-इति स. सो. पुस्तकयोः पाठः।
अत्यन्तमपेक्षा,-इति मु• पुस्तके पाठः। || अथ यासां नाजायन्त, तार-इति स. मो. पुस्तकयाः पाठः ।
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8
पराशरमाधवः ।
[ १०,या का।
"यएवं विद्यात्, म संवत्सरमुपयन्ति"*-इति वृद्धिकामस्य सत्रं विधातुं प्रथमतः,-"गा-सत्रं वै मंवत्सरः” इति प्रशंसा कृता, तां सम्भावयितुं 'गावोवा'-इत्यादि पठितम्। न चैतस्थार्थवादस्य, "यदै किञ्च मनुरवदत् तद्भेषजम्" इत्यादिवत् स्वार्थेऽपि तात्पर्य वर्णयितुं शक्यम् । प्रत्यक्षेण श्रुत्यन्तरेण च विरुद्धन्वात्(१) । तिरश्चां हि मन्त्रोच्चारणे कानुष्ठाने च मामाभावः प्रत्यक्ष-सिद्धः । श्रुत्यन्तरेच,"अथेतरेषां पशूनां अशनाया-पिपासे वा अभिज्ञानी वदन्ति, न विज्ञातं पश्यन्ति, न विदुः श्वस्तनम्” इति पशूनां विवेकाभावं दर्शयति। अस्तु वा, अम्यार्थवादस्य स्वार्थे तात्पर्य्यम् , गो-शब्देन गवाभिमानि-देवतानां विवक्षितत्वात्। अतएव "अभिमानि-व्यपदेशस्तु" (शा० २ १०१पा० ५०) इति सूत्रे भगवान् वादरायण: सर्वेषां मृदादि-वस्तूनां श्रुतिमूलत्वेनाभिमानि-देवताः प्रतिपादयामास । सर्वथा, मनुष्यमात्राधिकारकं स्पतिशास्त्रम् । __ 'हितम्'-दूति, अनेन शब्देन प्रयोजनं निर्दिश्यते । अभिमनफल-साधनत्वं हि धर्मस्य हितत्वम्। तच्च फलं वेधा;-ऐहिकमामुभिकञ्च,(२)-इति। अष्टकादि-साध्यं(६) पुठ्यादिकमैहिकम् । श्रामुभिक
* स य एवं विद्वान् संवत्सर मुयन्ति,--इति स. से० पुस्तकयाः पाठः + न विज्ञातं,-ति स० से० पुस्तकयोः पाठः ।
(१) विरुद्धानुवादरूपस्यार्थवादस्य न खार्थ प्रामाण्यमिति पूर्वोक्तमत्र
स्मर्त्तव्यम्। (२) अमग्मिन्-परलोके भवमामुभिकं पारलौकिकमित्यर्थः । (२) "अएका रात्रिदेवता पुटिकम' (३ प्र०१, का०१, रसू०) इति
गोभिलसूत्रादरकायाः पुरिसाधनत्वं वाध्यं ।।
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१५०,पा.का.]
पराशरमाधवः।
वेधा,-अभ्युदयोनिःश्रेयसञ्च(१) । तत्राभ्युदयस्य साक्षात् साधन धर्मः + (२) । निश्रेयसस्य तु तत्त्व-ज्ञानोत्पादन-द्वारेण । तथा प स्मर्यते,
"धर्मात् सुखच्च ज्ञानञ्च ज्ञानान्मोतोऽधिगम्यते"। इति। अत्र केचिदाहु:-"नित्य-कर्मणां फलमेव नास्ति; प्रकरणे प्रत्यवायागीतेः केवलमनुष्ठीयते; तत्र, कुतोऽभ्युदय-हेतुत्वं नियमहेतुत्व,"-इति । अपरे । पुनराजः,-"प्रभावाझावोत्पत्तेरदर्शनात् (१)प्रकरणे प्रत्यवायोन युनिसहः, नापि, तब प्रमाणमस्ति। ननु, उपनयनाध्ययनादि-विहितानामकरणे प्रत्यवायः सायंते,
"श्रतऊर्द्ध पतन्येते यथाकालमसंस्कृताः । मावित्री-पतितावात्याभवण्यार्य-विगहिताः" । “योऽनधीत्य दिजावेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् ।
* साक्षात् साधनवं,-- रति मु० पुस्तके पाठः। । पुनरन्यथाङः, इति स० स० पुस्तकयोः पाठः।
अभ्युदयः खगादिः । निःशेवं श्रेयोनिःश्रेयसं मुक्तिः। तत्र हि सर्व श्रेयः समाप्यते, न किञ्चिदवशिष्यते । एतच्च विहितक्रियाजन्यमदृहं धम्मः,-इति न्यायादिमतावलम्बनेनाभिहितं । यत्रेदमुक्तं । “विहितक्रिययासाध्योधर्मः पुंसोगुणोमतः" इति । विहितकर्मणामेव धर्मत्वमिति मीमांसानये तु अपूर्वहारैव तस्याभ्युदयसाधनत्वं मन्तव्यं । तच्च मीमांसा-प्रथम
हितोयाधिकरणे शावरभाष्यादौ स्पटम् । (३) अभावस्य सर्वदा सर्वत्र सौलभ्येन सर्वदा सर्वत्र सर्वोत्पत्तिप्रस.
सात् । कार्यकारणयोः सारूप्यनियमाञ्चेति भावः। स्पमिदं श्यायशारीरकादौ प्रायः सर्वत्र ।
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पराशरमाधवः।
[१५.,पाया।
स जीवन्नेव शद्रलमा गच्छति माग्वयः" । "अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दितच समाचरन् ।
अनिग्रहाचेन्द्रियाणं नरः पतनमृच्छति"(१) । इति । मैवम्। एतानि वचनानि नित्य-काननुष्ठायिनः बालस्यमिमिन्नं पूर्व सञ्चितं दुरितं यत्, तत्-सद्भाव सूचयन्ति । एतच्च तैत्तिरीयोपनिषड्याख्याने भाष्य-कार-वार्निक काराभ्यां (१) प्रतिपादिनम्"। (२) थदि प्रकरणं प्रत्यवायस्योत्पादकं यदि वा सूचकम्,
भयथाऽपि नित्य-कर्मानुष्ठानेन प्रत्यवायस्य प्रागभाव-परिपालनं प्रध्वंसाभावोत्पादनञ्च सम्पद्यते । दुरित-प्रध्वंसित्वञ्च, त्रिसन्ध्यमनुहीयमानेषु, “सूर्यच" "आपः पुनन्नु" "अग्निश्च",-इति मन्त्रेषु(४) (१) पत्य लोकस्य प्रथमाई मानवीयं, द्वितीयाईन्तु याज्ञवल्कीयम्। मा
नवीयस्योत्तराई यथा,-"प्रसजश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः"इति । याज्ञवल्कीयस्य पूर्वाई यथा,-"विहितस्यानुष्ठानात् निन्दितस्य च सेवनात्" इति। सम्भावयामः-ओकदयमेव ग्रन्थकारणोद्धत लेखकप्रमादादिना तु पूर्वलोकस्योत्तराई उत्तरश्लोकस्य
पूर्वाईञ्च यादर्शपुस्तकेषु भमिति। (२) यत्र ग्रन्थे व्याख्येययन्यानुसारिभिः पदैर्ययोव्याख्यायते खपदार्थश्च
वर्ण्यते, तद्भाष्यम् । यत्र तु उक्तानुक्त-दुराल-चिन्ता क्रियते तदार्तिकम्। एवं मतदयमुपन्यस्य उभयमतेऽपि नित्यकर्मणां सफलखमाइ यदीति । चकरणं प्रत्यवायस्योत्पादकमिति पक्षे नित्यकर्मकरणात् प्रत्यवायोनोत्पद्यते अपि तु प्रत्यवायप्रागभावरवावतिष्ठते इति प्रत्यवायस्य प्रामभावपरिपालनं भवति । इदश्चानुत्पत्यमानस्यापि प्रागभावानीति वैशेषिकादिमतावलम्बनेनाभिहितम् । नित्यकर्मणोऽकरणं पर्वसचितस्य प्रत्यवायस्य सूचकमितिपक्षे तु नित्यकर्मकरणात् पूर्व
सचितः प्रत्यवायः प्रध्वंसते रति विवेकः। (8) एतन्मन्लत्रयं यथाक्रमं प्रातर्मध्या-सायाकालीमसन्ध्योपासनीयाच.
मने विनियुक्तम् ।
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५.पा का।
पराशरमाधवः।
विस्पटमवभासते । (१) "एवच्च मति, उपभोग्य-फल-रहिताना नित्य-कर्मण अभ्युदय-फल-हेतुत्वं दूरापेतम्" इति । अत्रोच्यते। अस्तु प्रत्यवाय-विरोधित्वम् । नैतावता फलाभाव:(२)। मन्त्रलिङ्गन श्रुति-स्पति-वाक्याभ्याञ्च तत्तत्-फलावगमात् । “मयि वर्वावलमोजोविंधत्त" इति मन्त्र लिङ्गम् । छान्दोग्य-वाक्यं च, श्राश्रम-त्रयस्य लोक-हेतुतां, चतुर्थाश्रमस्य मोक्ष-हेतुता(२) दर्शयति । "चयोधर्मस्कन्धाः, यज्ञोऽध्ययनं दानम्-इति, प्रथमस्तपएव, द्वितीयो ब्रह्माचार्याचार्यकुलवासी, हतीयोऽत्यन्तमात्मानमाचर्याकुलेऽवसादयन्,(४) सर्वएते पुण्य-लोका भवन्ति, ब्रह्म-संस्थोऽस्तत्वमेति" इति । एतस्य वाक्यस्य श्राश्रम-परत्वम्,-"परामर्श जैमिनिः” (शा.अ. ४पा.१८सू.) इत्यादिभिाम-सूत्रै प्रतिपादितम् । पति-वाक्य चैतत्,-"तद्यथा, आये फलाथें निर्मिते छायागन्धदत्यनद्यते, एवं धर्म चर्यमाणमा अनूद्यन्ते ।" (५) इति । (६) ददश्च वाक्य नित्यकर्म-विषयत्वेन वार्त्तिके विश्वरूपाचार्य उदाजहार ;
* फल,-इति स. मो० पुस्तकयानास्ति ।
+ अनुत्पद्यते, इति स० स० पुस्तकयोः पाठः । (१) 'यत्र केचिदाङ' इत्यादिनोपक्रान्तं पूर्वपक्षमुपसंहरति एवञ्चेति ।
मतदयेपि समानोऽयमाक्षेप इत्यनुसन्धेयम् । पत्र फलपदं उपभोग्यफलपरम् । चबारःखल्वाश्रमिणः ब्रह्मचारि-एहस्थ-वानप्रस्थ-भिक्षु-खरूपाः तेषां पर्वे त्रयः पुण्यलोकभागिनोभवन्ति, चतुर्थस्तु मोक्षमानोतीति बोध्यम्।
आचार्यकुले अत्यन्समात्मानमवसादयन् टतीयोधर्मखान्धो भवतीत्यर्थः। (५) पत्रानुपूर्वस्यवर्दवर्थः-उत्पत्तिः, इति मन्तव्यम् । (६) उदाहतस्पतिवाक्यस्य मित्यकर्मविषयत्वे प्रमाणं नास्तोत्याशयार,
इदश्च वाक्यमिति ।
CC
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पराशरमाधवः।
१०,या का।
(१)"श्राने फलार्थ-इत्यादि ह्यापस्तम्ब-स्मृतवचः ।
फलवत्वं समाचष्टे नित्यानामपि कर्मणाम्" । इति । तथा च मनुः,
"वेदोदितं खकं कर्म नित्यं कुर्यादतन्त्रितः ।
तद्धि कुर्वन् यथाशक्रि प्राप्नोति परमां गतिम्" । इति । कूर्मपुराणेऽपि,
यथाशक्ति चरेत्कर्म निन्दितानि विवर्जयेत् । विधूय माह-कलिलं लब्धा योगमनुत्तमम् ।
ग्रहस्थोमुच्यते बन्धात् नात्र कार्या विचारणा"। इति । ननु, अस्वेवमभ्युदय-हेतुत्वं, निःश्रेयम-हेतुत्वन्तु न सम्भवति, प्रमाणभावात् । प्रत्युत श्रुति-स्मतिभ्यां तन्निषिध्यते ।
"न कर्मणा न प्रजया धनेन"इति श्रुतिः ।
"ज्ञानादेव तु कैवल्यम्" । इति स्मृतिः । मेवम् । परमात्म-प्रकरणे निःश्रेयस-हेतु-वेदनेच्छासाधनत्वेन यज्ञादीनां विधानात्, “तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदषन्ति ; यजेन दानेन"-इति श्रुतेः। निषेधस्तु मातान्त्रिःश्रेयस-साधनत्वं गोचरयिष्यति । तस्मात्,-न मुनानां अग्न्याधामादि-कर्मापेक्षा अस्ति । वेदनोत्पत्ती मा विद्यते । एतच्च उभयम्,-"अतएव चानीन्धनाद्यनपेक्षा" (शा० ३१०४ पा०२ ५सू०) "मापेक्षा र यज्ञादिश्रुतेः” (शा० ३१०४ पा०२६ सू.)
(१) तदार्तिकं पठति आने इति ।
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१०,या का।]
पराशरमाधवः।
इत्याभ्यामधिकराभ्यां निर्णीतम् । तथा च, कर्मणां परम्परया मोक्षहेतुत्वं वायवीयसंहितायामभिहितम्,
"कातिशयमासाद्य पशो: *पाप-परिक्षय:(९) । एवं प्रक्षीण-पापस्य वहुभिर्जन्मभिः क्रमात् । भवेदिषय-वैराग्यं वैराग्याद्भाव-शोधनम्। भाव-शड्युपपन्नस्य शिव-ज्ञान-समन्वयः । ज्ञान-ध्यान-नियुक्तस्यां पुंसायोगः प्रवर्तते । योगेन तु परा भकिः प्रसादस्तदनन्तरम् ।
प्रमादान्मुच्यते जन्तुर्मुकः शिव-ममो भवेत्” । इति। ननु, “प्रत्यवाय-परिहाराय, पुण्य-लोक-प्राप्तये, ब्रह्म-वेदनाय च, प्रतिदिनं । नित्य-कर्मणस्त्रि-प्रयोगः प्राप्तः"(२) । तन्त्र, खादिरवत् सकृत् प्रयुकस्यैव वचन-संयोग-भेदेन फलभेदोपपत्तेः । "खादिरोयूपोभवति" इति क्रत्वर्थं वचनम् । “खादिरं वीर्य* पाश,-इति मु° पुस्तके पाठः । + ज्ञान-ध्यानाभियुक्तस्य,-इति स० सो पुस्तकयाः पाठः । + प्रतिपादितं,-इति स० स० तकयाः पाठः ।
$ खादिरं,-इति मु. पुस्तके नास्ति । (१) पशवाजीवाः । पापमधर्मः । पाशेति पाठे मल-कर्म माया-रोधशक्ति
लक्षणश्चतुर्विधः पाशवोडव्यः। एतच्च शैवदर्शने प्रसिद्धम् । योगः चित्तबारेणात्मश्वसंवद्ध इति पाशुपतदर्शनोक्लोवाध्यः। प्रसादः शैवदर्शनोक्तः शिवस्य प्रसन्नताविशेषः। योगप्रसादौ यथाक्रमं चित्तवृत्तिनिरोध-परवैराग्यापरनामधेयज्ञानप्रसादलक्षणो पातञ्जलाती वा द्रव्यो। प्रयोगाऽनुष्ठानम् । योगसियधिकरणसिद्धान्तवत् अत्रापि प्रयोगभेदादेव फलभेदोयुक्त इत्यभिमानः ।
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18
पराशरमाधवः।
१०,या का।
कामस्य यूपं कुर्वीत" इति वचनं पुरुषार्थम् । तदेतत् वचनइयम् एकस्यैव खादिरस्य प्रयोजन-वैविध्ये हेतुः । “एकस्य उभयन्वे संयोग-पृथक्त्वम्”-(मी• ४० ४ पा० ३१सू०) इति जैमिनिसूत्रात् । एवमत्रापि पूर्वोदाहत-वचन-त्रय-वलात् प्रयोजन-विथेऽपि मकदेव प्रयोगः । तच, "विहितत्वाचाश्रम-कर्मापि" (मा. ३१०४पा० ३२०)-इत्यस्मिन्नधिकरणे निर्णीतम्। न च, नित्यस्यापि फलवत्त्वे नित्य-काम्ययोर्भेदाभावः, इति शङ्कनीयम्, करणे फल-साम्येऽपि प्रकरणे प्रत्यवाय-तदभावाभ्यां नड्रेदात् । न खलु, श्रायुष्कामेष्टि-वृष्टिकामेश्याधकरणे * कश्चित् प्रत्यवायः श्रूयते । एषएव नित्य-न्यायोनैमित्तिकेववगन्तव्यः । "कन्ने जुहोति" "भिन्ने जुहोति" इत्यादि अनियत-भेदनादि-कार्यविशेषणेपेतं नैमित्तिकम्। 'नित्यवत् काम्यस्यापि विहितत्वेन (सद्धि-हेतुवात् मोत-साधनवम्'-दति चेत् । न, राग-प्राधान्यात्(२) । इद्धिस्तु उपसर्जनलेन राग-विषय-भोगं सम्पाद्योपक्षीयते । अतएव, गीतायां भगवता मुमुक्षोरजनस्य फलामकिनिषिद्धा (२)
* आयुष्काम शिकामेत्यादि पाठः मु• पुस्तके ।
(१) शुद्धिः पापक्षयः। (२) रागोऽत्र नेच्छामात्र, मुमुक्षाया अपि सथात्वात् । किन्तु विषय-गो
चराभिलाषः । “सुखानुशयी रागः” (९ पा० ७ सू.) इति योगसूत्रात् । "मुखाडागा" (६५० २ था० १० सू०) इति वैशेषिकसूचाच। रागस्तु बन्धहेतुरेव, न मोक्षहेतुः। "रागस्य बन्धनसमा
ज्ञानात्" इति गौतमसूत्रात् । (३) पलासक्तिनु रागरवेति बोध्यम् ।
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१५.,या का।
पराशरमाधवः।
"योगस्थः कुरु कर्माणि मङ्गं त्यका धनञ्जय!! . मियसियोः समोभत्वा, समलं योगउच्यते । कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्म फल-हेतुः------"। इत्यादिना। नित्य-कर्मणि तु बुद्धि-शुद्धिरेव प्रधानम् ; फलमुपसर्जनम्(१) । अतएव, भुज्यमानेनापि फलेन तदनित्यत्व-मातिशयत्वदोष-दर्शन-रूपोविवेकान प्रतिवध्यतेर) । तदुकं वार्तिककारेण,_ "नित्येषु शद्धेः प्राधान्यात् भोगोऽप्यप्रतिवन्धकः ।
भोगं भङ्गुरमीचन्ते बुद्धि-शानुरोधतः”। इति । नित्यं च कर्म विविधम्, संस्कारकं विविदिषा-अनकञ्च । विहितत्व-माव-वुड्या क्रियमाणं संस्कारकम् । तथा च मर्यते । "यस्यैते अष्टाचत्वारिंशत् संस्काराः(१) म ब्रह्मणः मायुज्यं मलोकतां गच्छति" इति। ईश्वरार्पण-वुद्या क्रियमाणं विविदिषा-अनकम् । तच, भगवतेरितम्,
* यस्यैते चत्वारिंशत्संखारा अछावात्मगुणाः ब्राह्मणः, इत्यादिपाठः मु. पुस्तके।
(२)
(९) फलपदमत्र पापक्षयातिरिक्तानुषङ्गिकफलपरं । तस्योपसर्जनत्वादेवा
नुषङ्गिकत्वं। अनित्यत्वञ्च फलस्य सत्त्वे सति कार्यत्वादनुमितम् । “तद्यथेह कर्मचितोलाकः क्षीयते, एवमेवामुत्र पुण्यचितोलोकः क्षीयते"- इति श्रुतिसिद्धच । सातिशयत्वं तारतम्यवत्वम् । परसम्पदुकोहि
होनसम्पदं पुरुवं दुःखाकरोति इति तस्य विवेकोपयोगः। . (३) पक्षाचत्वारिंशत्संस्कारानु गौतमादिभिरताः ।
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पराशरमाधवः।
[१०,या का।
“यत् करोषि यदनासि यजुहोषि ददामि यत् ।
यत् तपस्यमि कौन्तेय ! तत् कुरुष्व मदर्पणम्" । इति गीतायामिति । तत्र, संस्कारेण चित्तस्य वेदन-योग्यता-माचं सम्पद्यते,* विविदिषा तु प्रवृत्तिमुत्पाद्य अवश्यं वेदमं सम्पादयति । तस्मात्, मुमुक्षोरीश्वरार्पणं प्रशस्तम् । तदेवं हितशब्देन धर्मस्थाभिमतसाधनत्वाभिधानात् 'अभीष्ट-मिद्धिः, प्रयोजनम्'-इत्युक भवति(१) । ___ 'धर्म,-शब्देन विषयोनिर्दिश्यते। अभ्युदय-निःश्रेयसे साधनत्वेन धारयति, इति धर्मः। म च, लक्षण-प्रमाणाभ्यां चोदनासूत्रे(२) व्यवस्थापितः। ननु, “चोदनाऽवगम्यस्थ न स्मतिविषयत्वम्, सर्ववानन्य लभ्यस्यैव विषयत्वावगमात्। अथ, मन्यसे!-चोदनागम्योऽपि, अर्थवाद-परिहारेण, शाखान्तर-गत-विशेषोपसंहारेण च, अनुष्ठान-क्रम-मौकर्याय संग्टह्यते,' इति । तन्त्र, कन्य-सूत्रेषु()
..विविदिषा जनकम्'-रत्यारभ्य, 'सम्पद्यते'-इत्यन्तं मु० पुस्तके
नास्ति। (१) हितमित्यनेन शब्देन प्रयोजनं निर्दिश्यते'-इति यत् पूर्वमुपक्रान्त,
तस्यैवायमुपसंहारः संवत्तः। अतो न पौनरलयं । 'चोदना लक्षणोऽधिमः', (१५०१ या० १ सू०) इत्यस्मिन् मी. मांसासूत्रे इत्यर्थः । तत्रैतत् सिद्धम्,- श्रेयस्करत्वं लक्षणं, चोदना प्रमाणम्, इति । तच, तव भाष्यादौ विस्तरतोऽवगन्तव्थम् । कल्पसूत्रावि च मानाशाखागतलिङ्गादिकल्पितानि प्रत्यक्षवेदमूलकानि श्रौतधम्मानुष्ठामक्रमप्रतिपादकानि । तानि च, लाचायनबौधायमादिभिः प्रवीतानि, तत्तनामा प्रसिद्धानि, श्रौतसूत्रापरमामधेयानि वइनि।
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१०,था.का.
पराशरमाधवः।
तथा मंग्टहीतत्वात् । अतोन धर्मस्य विषयत्वम्"-इत्याशयार, 'शौचाचारम्'-इति। श्रयं भावः । द्विविधोधर्मः ; श्रोतः स्मार्तश्च । नत्र, *प्राधानादि-पूर्वकोऽधीत-प्रत्यर वेद-मूलोदर्श-पौर्णमासादिः श्रोतः, अनुमित-परोक्ष-याखा-मलः शौचाचमनादिः स्मार्तः। तप प्राधानादेः कल्प-सूत्रेषु मंग्रहेऽपि शौचादेरसंग्रहात् विषयत्वम्, इति। ___ ननु स्मृत्यन्तरेवपि शौचादिरुतः, इत्यताइ,-'वर्तमाने कली युगे'-इति । कलो युगे वनमाने सति, याजनाध्यापनादीनां जीवनाय असम्पूर्नेः, मानुषाणं जीवनाय, अभ्युदयाय, निःश्रेयसाय च, हितः, सकरोयोधर्मः, ब्राह्मण-कर्टकः कृयादिः, मोऽत्र प्राधान्येन प्रतिपाद्यते, इति अनन्य-लभ्यत्वात् विषयत्वम्,-दत्यर्थः । ___ 'यथावत्'-दतिपदेन काहयाभिधायिना सङ्कोचं निवारयति । नत्वन्यथा कथनम् निवार्यते, स्मर्तृणां भ्रान्ति-विप्रलम्भाचप्रमनः(१)। अतएव 'सत्यवती-सुत !'-इति सम्बोधनम्। यदा, योषिदपि मती। माता, मत्य-वादिनी, तदा किमु वक्रव्यं वेदाचार्य्यस्तत्-पुत्रः सत्यवादी,-इति । 'च'कारेण सु-पत्र समुचिनोति ।
* अग्न्याधानादि,-रति स० सो० पुस्तकयोः पाठः । + जीवनाभ्युदयाय, इति मु० पुस्तके पाठः । + कार्खामभिदधानः-इति स. मो० पुस्तकयाः पाठः । ६ सालणामभान्त्यविप्रलम्भाभ्यां तदप्रसक्त,-रति स० सो पुस्तकयो:
पाठः। ॥ योषिदपि सत्यवती,- इति मु. पुस्तके पाठः ।
(१) ममादिभिरेव मिथ्याकथनं सम्भवतीतिभावः। इदमत्रावधेयम् । स्मर्तृणां सर्वेषां मान्यप्रसक्तिः प्रमाणविशेषाभावादसङ्गनेव प्रति
8
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पराशरमाधः।
[१ब,या का।
अत्र, प्रोकानाम् * अधिकारि-प्रयोजन-विषयाणं परस्परसम्बधोविस्परः । तत्र, प्रयोजनाधिकारिणोरर्थमानार्थित्वम्। अधिकारिभिः प्रयोजनमर्थते । प्रयोजन-विषययोश्च जन्य-जनकभावः; जाते धर्षे तदनुष्ठानेनाभ्युदय-निःश्रेयस-सिद्धेः(१)। अधिकारि-विषययोवोपकार्योपकारकभावः; विषयः प्रयोजनमुत्पाद्य अधिकारिणं प्रत्युपकरोति । विषय-ग्रन्थयोश्च प्रतिपाद्य प्रतिपादकभावः । तदेवमनुवन्ध-चतुष्टयस्य सुलभत्वात् समाहित-मनस्कैः श्रोटभिरस्मिन् पये प्रवर्तनीयम्, इति लोक-दयस्य तात्पार्थः ॥ - नन, पराशर-सत्यवतारे व्याखं प्रति-प्रश्नाव्यधिकरणः, इत्याशय लोक-इयेन परिहरति,तत् श्रुत्वा ऋषि-वाक्यन्तु स-शिष्याऽग्न्यर्क-सन्निभः । प्रत्युवाच महातेजाः श्रुति-स्मृति-विशारदः ॥३॥ न चाहं सर्व-तत्व-ज्ञः कथं धम्म वदाम्यहम्। अस्मत्-पितैव प्रष्टव्यः-इति व्यासः सुतोऽब्रवीत् ॥४॥
- पाक्तानाम्, इति मु• पुस्तक पाठः । + समिहामार्कसनिभः-इति सु• मू० पुस्तके पाठः। । सुतोवदत्, इति सु० मू०, स. सो० पुस्तकेघु पाठः ।
भाति । प्रत्युत, मीमांसायाः प्रथमेऽध्याये मतियादे विरोधाधिकरणे भाष्यकारादिभिः स्मर्तृणामपि भान्तिः समर्थिता दृश्यते। अतएव, "विरोधे त्वनपेक्षं स्यादसति धनुमानम्" (मी० १५० श्पा. ३०) इति भगवतामिनः सूत्रम् , "श्रुति स्मृतिविरोधे तु अतिरेव गरीयसा" इत्यादि जावालादिवचनश्च संगच्छते इति । धर्मस्याभ्युदय हेतुत्वं साक्षात् , निःश्रेयसहेतुवन्त चित्तशुद्धिद्वारा वेदनोत्पादनेनेति मन्यम् ।
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१९.,या का
पराशरमाधवः।
५९
इति । सुमन्न-वैशम्पायन-जैमिनि-पैलैः चतुर्वेद-प्रवर्तकः; पुराणप्रवर्तक-सूत-महितः, शिव्यैः सह वर्तते,-इति मशिष्यः। यथा अग्निबालाभिरुपेतः, यथा सूर्योरश्मिभिः, एवमसौ खममान-विद्यः शिव्यैरुपेतः। अतएव महातेजस्वम् । तेजः-शब्देनात्र ब्रह्मा-वर्चम(१) विवचितम्, इतरेण तेजसा प्रयोजनाभावात् । तामेव विवक्षां "श्रुति-विभारदः' इत्यनेन स्पष्टयति। श्रुति-स्मृत्योः क्रमेणाम्यर्क-दृष्टान्तौ योजनीयौ। अग्निः सन्निकटमेव दहनपि, अनि रात्रौ चाविशेषण दहति; एवमधीयमान-प्रत्यक्ष श्रुतिषु कतिपयाएव धर्माः चायमानाभवन्ति । युतावस्थायामयुक्तावस्थायाञ्चाविशेषेण जायन्ते । अर्कोदिवैव भासयन्त्रपि, मन्त्रिकष्टं विप्रकृष्ठश्च अखिल भासयति। एवं युतावस्थायामेव स्मर्य्यमानापि, विप्रकीर्णनेक-भाखा-निष्ठ-धाः सर्वेऽपि स्मर्यन्ते। अथ वा, तपमा अत्यन्त परिशद्धोऽयम्,इत्यस्मिन्नर्थे, अग्नि-दृष्टान्तः । “अनिः शुचि-त्रत-तमः"|| इति श्रुतेः। वहु-विषयाभिव्यकि-क्षरावे, अर्क-दृष्टान्तः ॥
ननु, एवं मति, 'न चाहं मर्च-तत्त्व-ब-इति वचनं व्याहतम्, न, तस्य पिल-प्रशंसा-रूपार्थ-वादत्वात् । “अपभवोवान्ये गो
* श्रुतिस्मतिविशारदः,-इनि स० से. पुस्तकयाः पाठः । + जायमाना,-इति भु० पुस्तके पाठः । f युवावस्थायाश्च विशेषेण,-इति स० स० पुस्तकयोः पाठः ।
जायन्ते,-इति मु० पुस्तके पाठः। || शुचिर्बततमः, इति स• • पुस्तकयोः पाठः ।
(१) ब्रह्मवर्चसं वेदाध्ययनतदर्थ ज्ञानप्रकर्षचतं तेजः ।
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पराशरमाधवः।
[१०,या का।
अश्वेभ्यः" इति वचनं यथा गवाश्व-प्रसार्थ, न बजादीनां पशुत्वं निषेधति; प्रत्यक्ष-विरोधात, अग्नीषोमीयादि-पण विरोधाच, एक मिदं व्यास-वचनं न व्यासस्य सर्वज्ञत्वं निषेधति, किन्तु पितरं प्रशंसति। यदा,-गुरु-विषये विनयः कर्त्तव्यः, इत्याद्याचार-शिक्षामिदमुकम् । अथ वा,-'नचाइम्'-दति वदताव्यासस्यायमाशयः; -संप्रति कलि-धर्माः पृच्छान्ने, न तावदह खतः कलि-धर्म-तत्वं जानामि, अस्मत्-पितुरेव तत्र प्रावीण्यात् ; अतएव, “कलो पाराशरस्मृतिः" इति वक्ष्यते, यदि, पिट-प्रसादात् मम तदभिज्ञानम् , नई, मएव पिता प्रष्टव्यः; न हि, मूल-वकरि लभ्यमाने, प्रणाडिका(१) युज्यते, इति । __पालनात् 'पिता' । पालकत्वं च अत्र, कलि-धर्मोपदेशेन,इति प्रस्तावानुसारेण द्रष्टव्यम् । अनयैव विवक्षया जनक-तातादि शब्दानुपेक्ष्य पिट-शब्दं प्रयुक्त। 'एव'कारेण, अन्ये मनोरोव्याव
यन्ते । यद्यपि, मन्वादयः कलि-धर्माभिज्ञाः, तथापि, पराशरस्थास्मिन् विषये तपोविशेष-वलादमाधारण: कश्चिदतिशयोद्रष्टव्यः । पथा, काव-माध्यन्दिन काठक-कौथुम-नैत्तिरीयादि-शाखासु कण्वादीनामसाधारणत्वम् ,(२) तददत्रावगन्तव्यम् ।
* यत्र, 'तत्र'-इति अधिकं स मो० पुस्तकयोः । + मदभिज्ञानं,-इति मु० पुस्तके पाठः । + गुवादि, इति स० पुस्तके पाठः। 5 नव्यावर्यन्ते,-इति मु० पुस्तके पाठः । (१) प्रणाडिका-परम्परा। (२) वैशम्पायनोहि सी शाखामधीतवान्, कठः पुनरेका, स तत्र छत.
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१५०,या.का.
पराशरमाधवः।
'व्यासः सुतः' इत्युक्तरयमाशयः;- कलि-धर्म-सम्प्रदायोपेतस्थापि पराशर-सुतस्य यदा तद्धर्म-रहस्याभिधाने सङ्कोचः, तदा किमु वक्रव्यमन्येषाम्, इति । तदेवं व्यास-मुखेन पराशरे गौरवातिण्य-बुद्धिमुत्पादयितुं पराशर-स्मृत्यवतारेऽपि व्यासं प्रति प्रश्नोन व्यधिकरणः, इत्यवगन्तव्यम् ॥
यथाविधि-गुरूपसत्त्या विद्या-प्राप्तिः, इत्यभिप्रेत्य, उपसत्तिं दर्शयति,ततस्ते ऋषयः सव धर्म-तत्त्वार्थ-कांक्षिणः । ऋषि व्यासं पुरस्कृत्य गत्वा* वदरिकाश्रमम् ॥५॥ इति। सर्वच वस्तुनि सामान्येन ज्ञाते विशेषेणाज्ञाते ज्ञानाकाङ्क्षा भवति। धर्म-शब्दोऽत्र सामान्यमभिधने, तत्त्वार्थ-शब्दो विशेषम्। तत्र, सामान्यम्-अधीत-वेदन श्रुत-व्याकरणेन लक्षणप्रमाण-कुश लेन(९) पुरुषेण ज्ञायते । वेदोहि धर्म-सामान्यं निरूपयति;-“धोविश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा" इति। (२)शाखान्तराध्यायि
* गताः, इति स. मा. मु. मू० पुस्तकेषु । जग्मुः,-से० मू. पुस्तके पाठः।
वड-परिश्रमालब्धातिशयाऽन्येभ्योविशिष्यते । एतनिवन्धनैव कठादि संज्ञाविशेषाः शाखाविशेषाणाम्। तथा च जैमिनिसूत्रम् । “याख्याप्रवचनात्” (मी० १ अ०, १ पा० ३ सू.) इति । प्रकलं वचनं प्रव.
चनम् । तत्कृता कठादिसमाख्या वेदशाखानामिति सूत्राथः । (१) समानासमानजातीयेभ्यो व्यवच्छेदकम् यत् , तत् लक्षणम् । प्रमिति
साधनं प्रमाणम् । (२) ननु यस्यां शाखायामियं श्रुतिर्नास्ति तच्छाखाध्यायिनां कथं सामान्यतो
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पराशरमाधवः।
[९ख०,या का।
मस्तु व्याकरण-वखात् तदभिज्ञानम् । अभ्युदय-निःश्रेयसे धारथति, इति व्युत्पत्तेर्दर्शितत्वात्। (चौणदिक-प्रक्रियायामकुभलखेत् लक्षणेन जानाति । अर्थवे सति चोदना-गम्योधर्मः, इति लक्षणम्। तत्र, अर्थ-शब्देन श्येनाद्यभिचाराणा अमर्थानां निवृत्तिः । "ज्येनेनाभिचरन् यजेत" इति श्रुत्युकस्या येन-नामक-याग-फखस्य शत्रु-वधस्य "न हिंस्थात् माभूतानि" इति निषेध-विषयत्वेन अमर्थत्वात् तद्धेतोः श्येनस्थाप्यनर्थवम् ; ग्येनस्य खरूपतोनिषेधा विषयत्वात् विधेयत्वमप्यविरुद्धम्(२) । न च, निषेध-विषयत्वेनाग्रीषोमीय-वधस्थापि अर्थशब्देन व्यावयादव्याप्तिः, इति शनीयम्। तत्र, विशेष-विधिना सामान्य-निषेधस्य अपोहितत्वात्।। चोदना
* जानातु, इति स• सो पुस्तकयोः पाठः । + श्येनाभिचरणादीनाम्,-इति मु. पुसके पाठः ।
इति श्रुतेषतस्य,-इति मु• पुस्तके पाठः । ६ सर्वभूतानि, इति मु• पुलके पाठः । || भगोपितत्वात्, इति स० मो• पुस्तकयोः पाठः ।
धर्मज्ञानमित्याशवाह शाखान्तराध्यायिन इति । कर्तरि षष्ठीयम् । कर्ट त्वचाभिज्ञानक्रियापेक्षया इश्व्यम् । दर्शितायाव्युत्पत्तरोणादिकप्रक्रिगसाध्यत्वात् नत्राथुत्यनस्य सामान्येन धर्मज्ञाने उपायमाह बौखादिकति । तथा च ध्येनादेः खरूपताविधेयत्वं वास्तवमेव । फलहारा बनर्थवमौपचारिकमेवेति भावः । तदुक्तम् (मी० रो० वा. १७०१ पा० २सू०)। "येनादीनां विधेयत्वादिष्यस्यापि च साधनात् । उपचारादनर्थवं पलहारेण वर्ण्यते"-इति । सर्वमेतत् चोदनासूत्रवात्तिके विस्तरता विचारितम्।
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१५०,या का•]
पराशरमाधवः।
शब्देन प्रत्यक्षाऱ्यावृत्तिः। 'घटं कुर'-इति लौकिक-विधावतियाप्तिः(१)-इति चेत् । न, चोदना-शब्दस्य वेद-विषये प्रसिद्धलात्, पहजादाविव अवयवार्थस्य प्रवृत्त्यनिमित्तत्वात्(२)। उक-लक्षणाभिधानेनैव 'धर्षे चोदना प्रमाणम्'-दूत्यर्थादभिहितं भवति(२) । एवं खजणादिभिः सामान्येन जातेऽपि एषीणां तद्विशेष-ज्ञाने भवन्थेवाकाक्षा।
तत्र, विशेष-प्र-कुशात्रात् व्यासस्य पुरस्कारः()। कलिकल्मष-विमोचन-हेतुत्वात् अक्षय्य-फल-हेतुत्वाच वदरिकाश्रमनिवास:(१) । तदुकं कूर्म-पुराणे,
“वाश्रममासाद्य मुछत कलि कल्मषात् । तब नारायणोदेवानरेणास्ते सनातनः । अक्षयं तच दत्तं स्थाज्जयं वाऽपि तथाविधम् । महादेव-प्रियं तीर्थं पावनं तविशेषतः ।
नारयेच पिढन सधान् दत्त्वा श्राद्धं विशेषतः" । इति ॥ ५ ॥
(१) तस्यापि क्रियाप्रवर्तकवाक्यत्वेन चोदनात्वाविशेषादित्यभिमानः। (२) तथाच चोदनाशब्दः पञ्जाजादिशब्दवत् योगरूपः, इति न योगार्थमात्र
सत्र प्रवृत्तिनिमित्तं येन लौकिकविधावतिष्याप्तिः स्यात् । किन्तु प्रसिया वैदिकविधिवाक्यमात्रे तस्य प्रवृत्तिरितिभावः । "चोदनालक्षणोऽर्योधर्मः"-(मी० एच०,१पा०, २ सू०) इति सूत्र
प्रणयता जैमिनिनेतिशेषः । (8) पुरस्कारोऽग्रतः करणम् । (५) पराशरस्येति शेषः । पराशरं महम्धी तत्र गमनेन तस्य सनिवा
सत्व प्रतीतेः।
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पराशरमाधवः।
[१०,या का।
तपेोऽतिशयं दृष्ट्वा दृश्यन्तानृत्यन्ति गायन्ति च। अनेन देवैरपि अर्थनीयत्वम् आश्रमम्य प्रदर्शितम्। युक्त चैत्रत् , देव-जन्मनोऽप्युत्तमस्य(१) फलस्थात्र सम्पादयितुं शक्यत्वात्। अथवा, यक्षादयोमुमुक्षवः मन्तोऽत्रागत्य मोक्ष माधनत्वेन नृत्त-गीताभ्यां ईश्वरं भजन्ते। अतएव याजवल्क्येने दमुक्रम
“वीणा-वादन-तत्त्वज्ञः श्रुति-जाति-विशारदः ।
ताल ज्ञवाप्रयासेन मोक्ष-मार्ग निगच्छति (२) ॥ इति ॥
गुरूपमत्तावनुष्ठेयं प्रकार-विशेषं दर्शयति,तस्मिन्नृषि-सभा-मध्ये शिक्ति-पुचं पराशरम् । सुखासीनं महातेजाः मुनि-मुख्य-गणतम् ॥८॥ कृताञ्जलि-पुटाभूत्वा व्यासस्तु ऋषिभिः सह। । प्रदक्षिणाभिवादैश्च स्तुतिभिः समपूजयत् ॥ ६ ॥ * मोक्ष,-इति मु. पुस्तके नास्ति । । नृत्यगीताभ्यां,-इति स० स० पुस्तकयोः पाठः । । शक्ति-- इति मु० म० पुस्तके पाठः । ६ महात्मानं, - इति मु. मू० पुस्तके, महातेजोमुनिमुख्य, इति से.
म० पुस्तके पाठः। ॥ व्यासश्च ऋषयस्तथा,-इति मो० मू० पुस्तके पाठः ।
पर्यापूजयत्, इति सा० म० पुस्तके पाठः (१) मोक्षरूपम्येत्यर्थः ।
श्रुतिनाम खरावयवः शब्दविशेषः । जातयः घड़जाद्याः स्वरभेदाः सप्त शुद्दाः, सङ्कीर्णाश्चैकादश । मिलित्वा त्वष्टादश भवन्ति । तालः काम्नक्रियामानं गीतप्रमाणमिति यावत् ।
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१५०,या का
पराशरमाधवः।
इति । 'तस्मिन्',-इति आश्रमोकिः । वक्ष्य माण-धर्माणामशेषमुनि-सम्मतत्वं दर्शयितुम्, 'ऋषि-सभा'-इत्युक्तम् । षिष्वपि विशेषेण स्मृति-कारिणं गोच-प्रवर्तकानां(१) च, अत्रि-याज्ञवल्क्यादीनां सम्पत्ति विवक्षित्वा श्राइ, 'मुनि-मुख्य'-इति । न केवलं तपोबलेन पराशरस्य महिमा, किन्तु विशिष्ट-जन्मनापि, इत्याह, शक्ति-पुत्रम्,इति। अयञ्च महिमा, ‘पराशर'-शब्द-निर्वचन-पालोचनया विस्पटमवगम्यते । तच निर्वचनं महद्भिरुदाहृतम्,
"पराठताः शराः यस्मात् राक्षसानां बधार्थिनाम् । अतः पराशरोनाम ऋषिरुकोमनीषिभिः । परस्य कामदेवस्य शराः संमोहनादयः(१) । न विद्यन्ते यतस्तेन ऋषिरुक्तः पराशरः । परेषु पाप-चित्तेषु नादत्ते कोप-लक्षणम् । शरं, यस्मात् ततः प्रोक ऋषिरेष* पराशरः । परं मातुर्निजायायदुदरं तदयं यतः ।
चमुच्चार्य निर्भिद्य निरगात् स पराशरः” । इति । 'सुख'-शब्देनकाय्यं च विवक्षितम् ;-चित्तस्याशेष-विक्षेप
___ * ऋविरेव,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) गोत्रं वंशपरम्पराप्रसिद्दमादिपुरुषब्राह्मणवरूपम् । तच्च काश्य
पादि प्रसिद्धमेव । (२) सम्मोहनादयश्च, .."सम्मोहनोन्मादनौ च शशेषणस्तापनस्तथा। स्तम्भ
नश्चेतिकामस्य पञ्च वाणाः प्रकीर्तिताः"-इत्य ने नोक्ताः ।
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पराशरमाधवः ।
[११.या का।
परिहारेणैकाथ्य यथा भवति, तथोपविष्टमित्यर्थः । ऐकाय्य-प्रामीनमहातेजः-पदानि पूर्व व्याख्यातानि ॥
'अञ्चलि'-पदेन भक्त्यतिशयोद्योत्यते । परया भक्त्या गुरूपदिटार्थ-तत्त्वमाविर्भवति । तथाच, श्वेताश्वतर-शाखायां श्रूयते,
“यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरी ।
तस्यैते कथिता ह्याः प्रकाशन्ते महात्मनः" । इति । अन्तरेण गुरुभकिमुपदिष्टोऽप्यानिष्फलोभवति। तदपि कचित् श्रूयते,
"अध्यापिता ये गुरून् * माद्रियन्ते विप्रावाचा मनसा कर्मणा वा । यथैव ते न गुरुभिजनीया
तथैव तान् न भुनक्ति श्रुतं तत्" । इति । यथा गुरुमनाट्रियमाणाः शिय्या: न गुरुणा पालनीग:(१) तथा तत् श्रुतमपि तान् शिष्यान् ख-फल-दानेन न पालयति,इत्यर्थः । देववद्गुरोः पूजनीयत्वात् तस्मिन् प्रदक्षिणादयोयुज्यन्ते । नहि, आवाहनासन-स्वागतादयोऽप्युपचाराः प्राप्यन्ते, इति चेत्, प्राप्यन्तां नाम, प्रदक्षिणादीनामुपलक्षणत्वात् । अथवा,-दूरादागत्य
-
* गुरू,-इति स० स० पुस्तकयोः पाठः । + गुरोजिनीयाः, इति स० से. पुस्तकयोः पाठः ।
तत् श्रुतमधीतान्,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) 'भुजपालनाभ्यवहारयो'-इति धातुपाठादयम लभ्यते ।
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१५०,वा का.]
परापुरमाधवः।
पराशरमाधवः।
गुह-दर्शनं कुर्वतामु चिताः प्रदक्षिणादयएव,-इति तावन्नोऽत्र निर्दिश्यन्ते ॥
जोपसत्तेर्यथाविधित्वं द्योतयितुं, गुरोः परितोष-पूर्वकं कृपाविशेषमादर्शयति,
ततः * सन्तुष्ट-हृदयः। पराशर-महामुनिः।
आह सुखागतं ब्रूहीत्यासीनोमुनि-पुङ्गवः ॥१०॥ इति । गुरु-सन्तोषस्य श्रेयोहेतुत्वमन्वय-व्यतिरेकाभ्यां पुराणमारेऽभिहितम्,
"गुरावतुष्टेऽतुष्टाः स्युः सर्वे देवाः द्विजोत्तमाः!। तुष्टे तुष्टायतस्तस्मात् सर्व-देवमयोगुरुः । श्रेयोऽर्थी यदि; गुर्वाज्ञां मनसाऽपि न लवयेत् ।
गुर्वाज्ञा-पालकोयस्मात् ज्ञान-सम्पत्तिमश्नुते"। . इति। श्रादर-पूर्वकेण स्वागत-प्रश्न कृपाविशेषोदर्शितः। श्रादराा सु-शब्दस्य विरुति:(१)। अथवा,-सु-शब्देनकेन श्रागमने लौकिक सौख्यमुक्रम, द्वितीयेन यथाविध्युपसत्ति-लक्षणं शास्त्रीय सौष्ठवमुच्यते । ऋषिष्वागतेषु पराशरेणाभ्युत्थातव्यम् । इति शङ्का
* अथ,- इति स०, सेा०, मु० म० पस्तकेघु पाठः । + सन्तुए-मनसा,-इति मु० मू० पुस्तके पाठः । 1 बागमने,-इति मु० पुस्तके नास्ति । 5 पराशरेणाप्युत्यातव्यम् , इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) खागतशब्देपि सशब्दस्य प्रविश्त्वात् यस्य दिशक्तिरिति बोध्यम् ।
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पराशरमाधवः।
था.का.।
वारयति 'श्रामीनः' इति । तत्र हेतुत्वेन पराशरोमहामुनि-मुनिपुणव-शब्द-दयेन* विशिष्यते । महामुनि-मुनिपुङ्गव-शब्दो क्रमेण वयमा विद्यया च ज्येष्ठत्वमाहतुः । उभयविध-ज्य ष्ठयात् न अनेनाभ्युत्थातव्यम् ॥ आसीनेन यथा खागतं पृष्टम, एवमागतेनाप्यवस्थितस्य कुशलं प्रष्टव्यम् । अतः प्रथमं तत् पृष्ट्वा गुरूणां स्वकीय कुशलेऽभिहिते मति पश्चात् भुत्सितार्थं पृच्छति, इत्याह,कुशलं सम्यगित्युत्ता व्यासः पृच्छत्यनन्तरम् । रति । उक्ता, गुरु-मुखात् कुशलं श्रुत्वा च, इत्यध्याहत्य योजनीयम् ॥ बुभुत्मितार्थे प्रश्न-प्रकारं दर्शयति,
यदि जानासि भक्ति मे| स्नेहाहा भक्त-वत्सल ॥११॥ धर्मे कथय मे तात! अनुग्राह्योद्यहं तवा ।
* पराशरः शब्ददयेन,-इति स० स० पुस्तकयाः पाठः । + ततः प्रथमं तत्त्वविदा,-इति म० पुस्तके पाठः । । व्यासः सुखागतं ये च ऋषयस्तु समन्ततः । कुशलं सम्बगियुक्ता व्या
सेोऽएच्छत्ततः परम्, इति से० मू० पुस्तके पाठः । मु० मू० पुस्तके तु, पवार्डमेवमेव । उत्तराई तु,-कुशलं कुशले युक्ता व्यासः एच्छत्यतः परम्, इति विशेषः ।
इत्यारत्या,-इति स० से. पुस्तकयाः पाठः । || मे भक्ति-इति से० मू०, मु० पुस्तकयाः पाठः । पा ह्यनुग्राह्योप्यहं तव,-इति म० पुस्तके, अनुग्रायोजनस्तव,-इति
मो० मू० पुस्तके पाठः।
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१.
का.
पराशरमाधवः।
इति । प्रियः शिष्यः पुत्रोवा रहस्योपदेशमईति, नेतरः । मेोऽयमर्थः छन्दोगैर्मधु-विद्यायामानायते । “इदं वाव ज्येष्ठाय पुत्राय पिता ब्रह्म प्रब्रूयात् प्रणाय्याय(९) वाऽन्तेवामिने नान्यस्मै* कस्मैचन"इति । अतोऽत्र, व्यासस्य पुत्रत्वं शिष्यत्वं च अस्ति, इत्यभिप्रेत्य पन-दयोपन्यासः। यदि लिङ्गैर्मदीय मानसे भकि-विशेषोऽनुमीयते, तदा तव भक-वत्सलत्वात् शिय्य-बुद्ध्या मामनुग्रहाण, अननुमानेऽपि पुत्र-स्नेहात् अनुग्रा ह्योऽहम् । सर्वथाऽप्युपदेष्टव्यएव धर्मः ॥
ननु, सन्ति बहवोधमाः मन्वादिभिः प्रोकाः, तत्र कोधो भवता बुभुत्सितः ? इत्याशय, बुभुमितं परिशेषयितुं बुद्धान् धर्मानुपन्यस्यति,
श्रुतामे मानवाधीवाशिष्ठाः काश्यपास्तथा ॥ १२॥ गार्गेयागौतमीयाश्च तथा चोशनसाः श्रुताः । अविष्णोश्च संवत्तीत् दक्षादङ्गिरसस्तथा ॥ १३ ॥
* प्राणान्यायसेऽन्तेवासिने वाऽन्यम्मै,-इति मु० पुस्तके पाठः । + गार्गेय-गौतमीयाश्च,-इति मु० पुस्तके पाठः ।। + 'श्रुताः' इत्यत्र, स्मृताः-इति स० सो० पुस्तकयोः पाठः । इदं श्लो- . काईमेवान्यनान्यथा पठितम् । तथाहि,-गार्गेया गौतमाश्चैव तथा, चौशनसाः स्मृताः, इति मु० मू० पुस्तके, गार्गे य-गौतमाधमाः तथा
गोपालकस्य च, इति मो० म० पुस्तके पाठः । ६ बर्विष्णोच सांवतादाक्षा याङ्गिरसस्तथा,-इति म०म० पुस्तके,
बोर्विष्णश्च संवादक्षाङ्गिरस एव च,-इति मे• मू० पुस्तकेपाठः।
(१) प्रणाज्याय सम्मताय ।
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पराशरमाधवः।
[१ब०,या०का• ।
शातातपाच्च हारीतात् याज्ञवल्क्यात्तथैव च ।
आपस्तम्ब-कृता धर्माः शङ्खस्य लिखितस्य च ॥ १४ ॥ कात्यायन-कृताश्चैव तथा प्राचेतसान्मुनेः। । इति । 'मे श्रुताः' मया श्रुताः, इत्यर्थः । संबन्ध-सामान्य-वाचिन्याः षष्ट्याः कर्त-कृति-लक्षणे विशेषे पर्यवसानात्। अत्रे:'-इत्यादीनां पञ्चम्यन्तानां 'श्रुताः' इत्यनेनानुषकेन संबन्धः । श्रापस्तम्बेन कृताः प्रोक्ताः, दूति यावत् । शङ्खस्य लिखितस्य च संबन्धिनाधर्मा:(१) । ताभ्यां प्रोक्रत्वं तत्संबन्धित्वम् । प्रचेताएव प्राचेतसः । वायस-राक्षसादाविव खार्थे तद्धितः(१)। अस्तु वा, प्रचेतसः पुत्रः कश्चित् धर्मशास्त्रकारः।
ननु, मानवादयः(१) स्मार्त्त-धाः श्रुताश्चेत् , नाई मा नाम ते बुभुत्स्यन्तां श्रीतास्वग्रिहोत्रादयोवुभुत्सिव्यन्ने? इत्याशयाह
* शातातपाश्च हारीता याज्ञवल्काकृताश्च ये, - इति मु• मू० पुस्तके, शातातपस्य हरितः याज्ञवल्काकृतास्तथा, --इति सो० म० पुस्तके
पाठः। + प्राचेतसकृताच ये,-इति मु. म. पुस्तके पाठः। यापस्तम्ब,
इत्यादि, कात्यायन, इत्यादि सोकाईदयं विपर्यस्य पठितं मु० म. पुस्तके, मे० मू० पुस्तके च । * संवद्धसामान्यवाचिन्या षष्ठया,-इति मु• पुस्तके पाठः ।
5 वुभुत्स्यन्ते,—इति मु० पुस्तके पाठः । (१) श्रुताः,-इत्यनुधक्तनान्वयाइएव्यः । (२) वयः (पक्षी) एव, वायसः, रक्ष एव राक्षसः, इति खार्थे तद्धितः। (३) मनोरिमे मानवाः (प्रोक्तत्वं तत्सम्बन्धः) वे पादयोयेषां मार्तधम्मागां
ते तथोकाः।
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११०, था.का.]
पराशरमाधवः।
श्रुतायते भवत्-प्रोताः श्रुत्यामे* न विस्मृताः॥१५॥ अस्मिन् मन्वन्तरे धमाः कृत-चेतादिके युगे। इति। ये प्रत्यक्ष-श्रुतीनामा: अग्निहोत्रादयोधाः , एते मया श्रुताः। तदेतत् तवापि प्रसिद्धम् ,-दति द्योतनाहि -शब्दः। तत्र हेतुः; 'भवत्-प्रोकाः'-दति। व्यासः पराशरादधीतवान , इति पौराणिकाः। श्रुतानामपि विस्मृतिश्चेत्, पुनरपि स्मरणमपेक्ष्येतो,इत्याशक्य 'न विस्मृताः' इत्युक्तम् । प्रायेणाग्निहोत्रादीनां कली दुर्लभत्वमभिप्रेत्य ‘कृत-त्रेतादिके' इत्युकम् । श्रादि-शब्देन छापरं ग्टह्यते। 'अस्मिन् मन्वन्तरे'-इति निर्देशः प्रदर्शनार्थः । नतु, मन्वन्तराण्यतीतान्यनागतानि वा व्यवच्छिद्यन्ते । नयवच्छेदे प्रयोजनाभावात् । न हि, नानाविधेषु मन्वन्तरेषु धर्म भिद्यमानं क्वचिदुपलभामहे । अस्मिन् मन्वन्तरे कृतादिकेषु युगेषु प्रायेण सम्भावितानुष्ठानाः प्रत्यन-श्रुत्याः ये धमाः, तेऽपि मानवादि-स्मार्तधर्मवत् श्रुतत्वान्न वुभुत्मिताः ॥
इदानों परिशिष्टं वुभुत्सितं पृच्छति,सर्वे धमाः कृते जाताः सर्वे नष्टाः कलौ युगे॥१६॥ चातुर्वर्ण्य-समाचारं किञ्चित् साधारणं वद। इति । सर्च-शब्दोदेश-कालावस्थादि-भदेन धर्माणं वहुविधत्वमा चटे । एतच महाभारते श्रानुशासनिके पर्वणि उमा-महेश्वर-संवादे प्रपञ्चितम्,* श्रोतार्थास्ते,-इति स०, सा०, मु० मू० पुस्तके घु पाठः । श्रवणमपेक्ष्येत,--इति समीचीनः पाठः ।
10
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पराशरमाधवः।
[१०,या का।
"धर्माः वहुविधा: लोके श्रुति-भेद-मुखोद्भवाः(१) । देश-धर्माश्च दृश्यन्ते कुल-धर्मास्तथैव च । जाति-धर्माः वयो-धा: गण-धाश्च शोभने ! । शरीर-काल-धर्माश्च श्रापद्धास्तथैव च(२) ।
एतद्धर्मस्य नानात्वं क्रियते लोक-वामिभिः'। इति। ते च सर्च धर्माः प्राणिभिः कृत-युगे यथावदनुष्ठिताभवन्ति, युग-सामर्थ्येन धर्मस्य चतुष्पदोऽपि अपरिक्षयात्।। त्रेतादिषु क्रमेण क्षीयमाणाधर्माः कलि-युगावसाने सर्वात्मना विनष्टाभवन्ति । तदेतत् सर्वं पुराण-मारे विस्तरेण प्रदर्शितम्,
"कृते चतुष्यात् मकलोयाजोपाधि-विवर्जितः ।
* चतुर्विधाः,-इति स. सो० पुस्तकयाः पाठः । + अपरिक्षयः,-इति मु० पुस्तके पाठः।। + पुराणकारेण,-इति स० सो पुस्तकयाः पाठः । नियाजोपाधिवर्जितः, इति स० मो० पुस्तकयाः पाठः।
(१) मुखशब्दोऽत्र आद्यर्थः । अतिभेदमुखेभ्य उद्भवोयेषां ते तथोकाः। (२) देशधम्माः प्राच्यादिभिरनष्ठीयमानाहोलाकादयः । कुलधम्माः, “वा
शिष्ठाः पञ्चचड़ाः स्य"-इत्यादयः। जातिधम्माः ब्राह्मणादीनां याजनादयः। वयाधम्माः अवर्षस्योपनयनमित्येवमादयः । गुणधमाः अभिषिक्तस्य प्रजापालनमित्यादयः। यत्रेदमुक्तम्, “योगुगन प्रवर्तत गुणधर्मः स उच्यते । यथा महभिषिक्तम्य प्रजानां परिपालनम्" इति । शरीरमाः कृष्णकेशस्याधानं पलितशिर सावन-गमनमित्यादयः । कालधम्माः संक्रान्त्यादी दानादयः। बाप दम्माः आपदि सर्वेषामनन्तरारत्तिरित्यादयः ।
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पापा का
पराशरमाधवः।
.
वृषः(१) प्रतिष्ठितोधमनुष्येष्वभवत् * पुरा। . धर्मः पाद-विहीनस्तु त्रिभिरंशः प्रतिष्ठितःबेतायां, द्वापरऽर्द्धन व्यामिश्रोधर्मष्यते ।।
त्रि-पाद-हीनस्तिय्ये तु सत्ता-मात्रेण तिष्ठते" । इति । तिव्यः कलिः । तथा सहस्पतिरपि
"कृतेऽभूत् मकलोधर्मस्त्रेतायां चिपदः स्थितः । पादः प्रविष्टोऽधर्मस्य मत्सर-द्वेष-सम्भवः(२) । धर्माधी समा भूत्वा दिपादौ दापरे स्थिती।
तिष्येऽधर्मस्विभिः पादः ॥धर्मः पादेन मंस्थितः" । इति । तथा लैङ्ग-पुराणे कली धर्म-नाशं प्रस्तुत्य तद्धेतुन्वेन पुरुषदोषउपन्यस्तः,-.
"श्राद्ये कृते तु योधर्मः स त्रेतायां प्रवर्तते । दापरे व्याकुलीभृतः प्रणश्यति कलो युगे। तिथ्ये मायामसूयाञ्च वधञ्चैव तपखिनाम्
* मनुष्येव्ववसत्, इति स. सो० पुस्तकयोः पाठः। + द्वापरे त्वद्धं तथा धोऽवतिष्ठते, -- इति स० स० पुस्तकयाः पाठः । + सहस्पतिनापि,- इति मु० पुस्तके पाठः।
त्रिपदि,- इति मु. पुस्तके पाठः। ॥ तिष्ये धर्मः स्थितिः पादः,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) वृधः वृषरूपी। (२) मत्सरदेघसम्भवोऽधर्मस्य पादः धर्मस्य क्षीणपादस्थाने प्रविष्ट
इत्यर्थः ।
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पराशरमाधवः ।
[११०या०का।
साधयन्ति नरास्तत्र तममा व्याकुलेन्द्रियाः" । इति । विष्ण-पुराणेऽपि,
“वर्णाश्रमाचारवती प्रवृत्तिर्न कली नृणाम् * ।
न साम-यजुग्वर्ग-विनिष्पादन-हेतुका" । इति । आदित्य-पुराणेऽपि
“यस्तु कार्त्त-युगे धन कर्त्तव्यः कलौ युगे ।
पाप-प्रमकास्तु यतः कलौ ना-नरास्तथा" । इति । अतः कलौ प्राणिनां प्रयास-माध्ये धर्मे प्रवृत्त्यसम्भवात् सुकरोधोऽत्र वुभुत्सितः। स च द्विविधः चतुर्ण वर्णानां साधारणोऽमाधारणश्च । तत्र, माधारणोरहस्पतिना निरूपितः,--
"दया क्षमाऽनसूया च शौचानायास-मङ्गलम्(१) ।
अकार्पण्यास्पृहत्वे च सर्व-माधारणाइमे" । इति । तथा विष्णुनाऽपि,
"क्षमा सत्यं दमः शौचं दानमिन्त्रिय-संयमः । अहिंसा गुरु-शुश्रूषा तीर्थानुसरणं दया ।
* यगे,-इति स० स० पुस्तकयाः पाठः । + न सामऋग्यजवर्गविनिष्पादनहेतुकी,-इति स.सापुस्तकयाः पाठः। सर्वसाधारणोविधिः,-इति स० स० पुस्तकयाः पाठः।
(१) दयादिलक्षणानि गृहस्पतिनैव दर्शितानि । परन्त प्रसिद्धत्वात्तान्य
पेक्ष्य केवलमनायास-मङ्गलयोर्लक्षणमुच्यते । “पारीरं पोद्यते येन सशुभेनापि कर्मणा । अत्यन्तं तन्न कुर्वीत अनायासः स उच्यते । प्रशस्ताचरणं नित्यमप्रशस्तविवर्जनं । एतद्धि मङ्गलं प्रोक्तपिभिस्तत्वदर्शिभिः" इति ।
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एच.,या का
पराभरमाधवः ।
MONS
प्रात्म-पत्वमलेाभव (१) देवतानाच पूजनम् ।
अनभ्यसूया च तथा धर्मः सामान्यउच्यते"। असाधारणोऽपि वृहस्पतिना स्मर्य्यते--
"खाध्यायोऽध्यापनञ्चापि यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहश्चापि षद कर्माण्ययजन्मनः । इज्याऽध्ययन-दाने च प्रजानां परिपालनम् । शस्त्रास्त्र धारण(२) सेवा कर्माणि क्षत्रियस्य तु । खाध्यायोयजनं दानं पानां पालनं तथा । कुमीद-कृषि-वाणिज्यं(द) वैश्य-कर्माणि सप्त वै। शौचं ब्राह्मण-शुश्रूषा सत्यमक्रोधएवच ।
शद्र कर्म तथा मन्त्रोनमस्कारोऽस्य चोदितः"। इति । गोताखपि भगवाना
"ब्राह्मण-क्षत्रिय-विशां द्राणाञ्च परन्तप! । कर्माणि प्रविभकानि स्वभाव-प्रभवैर्गुणैः ।
• यात्मव्रतमलोभत्वं-इति स० सो पुस्तकयोः। यावत्वमलाभव,
इति मु० वि० स० पाठः। + देवब्राह्मणपूजनम्, इति मु० वि० स० पाठः। * यसाधारणाश्च वृहस्पतिना मर्य्यन्ते,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
शुभास्त्र, इति मु. पुस्तक पाठः।
(१) यात्मपत्वमात्मरक्षित्वम् । (२) येन एहीतेन परोहन्यते, तत् शस्त्रम् । येन च मुक्तोन, तदस्त्रम् । (२) कुसीदं रद्धिजीविका ।
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पराशरमाधवः।
[११०,या का।
शमोदमस्तपः शौचं शान्तिराजवमेव च । ज्ञान विज्ञानमास्तिक्यं ब्राह्यं कर्म खभावजम् । शौर्य तेजोतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् । दानमीश्वरभावश्च क्षाचं कर्म स्वभावजम् । कृषि-गो-रक्ष-वाणिज्यं वैश्यं की स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म हद्रस्यापि स्वभावजम्" । इति । एवं वैविध्ये मति साधारणोऽस्मिन् श्लोक पृच्छयते। 'किञ्चित्' -इति क्रिया-विशेषणम्। तथा मति, किमः सङ्कोचवाचित्वात् संक्षेपेणेत्यर्थः सम्पद्यते । (१) युक्तञ्चैतत् , असाधारण-धर्म-प्रश्ने "विस्तरात" इति वक्ष्यमाणत्वात्(२) इति ॥ अथ, असाधारणं धर्म पृच्छति,चतुणामपि वर्णानां कर्त्तव्यं धर्म-कोविदैः ॥ १७ ॥ ब्रूहि धर्म-स्वरूप-ज्ञ! सूक्ष्म स्थूलञ्च विस्तरात् । इति। धर्म-खरूपे वादि-विप्रतिपत्तेः तदीय-विवेकस्य दुःशक
* ब्रह्मकर्म,-इति स० सो० पुस्तकयोः, ह० गीतासु च पाठः । + वैश्यकर्म,-इति स. से. पुस्तकयोः, १० गीतास च पाठः। + कलौ,-इति मु. पुस्तके पाठः । 5 श्लोकोऽयं मु० मू० पुस्तके नास्ति ।
(१) छत्र लोके साधारणधर्मप्रश्न इत्येतदुपपादयति युक्तश्चैतदिति । (२) तथा च, साधारणधर्म्यस्य संक्षेपेण कथनं असाधारणस्य तु विस्तरेण,
- इति प्रशुराशयः।
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१५०,पाका•
पराशरमाधवः।
त्वात् तत्र प्रावीण्यं विवक्षित्वा 'धर्म-खरूप-ज्ञ!' इति मंत्रायते । (१)तार्किकास्तावत् आत्म-गुण धर्माधम्मो, इत्याहुः ।
"विहित-क्रियया माध्योधर्मः पुंमोगुणोमतः ।
प्रतिषिद्ध-क्रिया-माध्यः म गुणोऽधर्मउच्यते" । इति। मीमांसकास्तु, "चोदना-लक्षणोऽर्योधर्मः” (मी० १०१ पा. २०) इत्यस्त्रयन् । तच, भाट्टामन्यन्ते,
"ट्रव्य-क्रिया-गुणादीनां धर्मान्वं स्थापयिष्यते । तेषामन्द्रियकन्वेऽपि न ताद्रप्येण धर्माता । श्रेयः-साधनता ह्येषां नित्यं वेदात् प्रतीयते ।
ताद्रष्येण च धर्मत्वं तस्मान्नेन्द्रिय-गोचरः" । इति। प्राभाकरास्तु, कार्य-नियोगापूर्व-शब्दैरुच्यमानं धात्वर्थ-साध्य वर्गादि-फल-साधनमात्म-गुणं धर्ममाहुः। (२)दुर्बिवेच्यत्वञ्च महाभारते धृष्टद्युम्नेनाक्रम्
"अधीधर्मइति च व्यवसायोन शक्यते । कर्तुमस्मदिधैर्ब्रह्मन् ! अतोना व्यवसाम्यहम्” ।
* दुःशकत्वात् ,-इति स० से० पुस्तकयाः पाठः । + पुंसाधौगुणोमतः, इति मु° पुस्तके पाठः । t पंगुणोऽधर्म उच्यते,-इति म पस्तके पाठः। ६ दुर्विवेचत्वञ्च,-इति स० सो० पुस्तकयाः पाठः। || अत्र, द्रोणपर्वणि,-इत्यधिकं स० स० पुस्तकयोः । ना ततेोन,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) धर्मे वादिविप्रतिपत्तिं दर्शयति तार्किका इति । (२) धर्मविवेकस्य दुष्पकत्वमाइ रुविवेच्यत्वचेति ।
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पराशरमाधवः ।
[११०या०का ।
इति । ईदृशस्यापि धर्मस्य स्वरूपमव्याकुलोजानातीत्यस्ति तत्र प्रावीण्यम् । धर्म-स्वरूपञ्च विश्वामित्राह,
"यमार्याः क्रियमाणन्तु शंसन्यागमवेदिन: । सधीय विगईन् तमधर्म प्रचक्षते । ईदृशस्य हि धर्मस्य स्वरूपं व्याकुलोन तु ।
जानातीत्यस्ति तत्रापि प्रावीण्यं धर्म-शालिनाम्" । दाते । मनुरपि,
“विद्वद्भिः सेवितः मद्भिनित्यमद्वेष-रागिभिः ।
हृदयेनाभ्यनुज्ञातोयोधर्मस्तं निवेधित"(१) । इति । नन्वेवं धर्म-स्वरूपमनिरूपितमेव स्थात् || तथाहि, विश्वामित्रमनु-वाक्याभ्यां तावत् सामान्याकारः प्रतीयते, नतु द्रव्य-गुणादि
* शंसन्त्यागमवेदिभिः,-इति तिथितत्त्वे पठः । “आगमवेदिभिः क्रिय
माणमिति संवन्धः,"-इति व्याख्यातच तत्र । + विगईन्ति,--इति तिथितत्त्वे पाठः। + एतदनन्तरं 'इति'ब्दोमुद्रितपस्तके प्रामादिक इति लक्ष्यते । उत्तर
लोकस्यापि विश्वामित्रीयत्वं वक्तव्यं अन्यथा असतेः । विश्वामित्रवाक्ययोर्मध्ये च 'इति'शब्दो न सङ्गच्छते । 5 कोऽयं स० स० पुस्तकयानास्ति । || धर्मोऽनिरूपितएव स्यात्,-इति मु• पुस्तके पाठः ।
(१) विद्भिरित्यस्य वेदविद्भिरित्यर्थः । वेदविह्निः मेवितः, इत्यनेन वेद
प्रमाणकत्वमुक्तं । हृदयेनाभ्यनुज्ञातइत्यनेन श्रेयःसाधनत्वमुक्त। तत्र हि हृदयमभिमुखीभवति । तथा च, वेदप्रमाणकः श्रेय साधनोधर्म इत्युक्तं भवति ।
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१अ.,या का०]
पराशरमाधवः।
रूपाविशेषाकारः, वादिनस्त्वत्र विप्रतिपन्नाः,-दति भवतेवोकम् । एतदेवाभिप्रेत्य महाभारते राज-धर्मे स्मर्यते,
“न कल्माषोन कपिलान कृष्णोन च लोहितः ।
अणीयान् तुर-धारायाः, कोधर्म वकुमईनि" । इति। नैष दोषः । उक-वाक्ययोरधर्म-व्यारत्तस्याकार-विशेषस्य स्पटं प्रतीयमानत्वात् । वादि-विपतिपत्तेश्च समाधातुं शक्यत्वात्। स्वादिसाधनस्य शास्त्र कममधिगम्यस्यातिशयस्य धर्मत्वेन सर्व-सम्प्रतिपत्तेः । स चातिशयोदिविधः द्रव्यादि निष्ठः, श्रात्म-निष्ठश्च । तत्रात्म-निष्ठस्थातिशयस्य मानात् फल-साधनत्वात्, फल-निष्पत्ति-पर्यन्तं चिरकालमुपस्थानाच्च तदिवश्या प्रात्मगुण पूर्व-शब्द-वाच्योधर्मः,
-इति तार्किक-प्रभाकरावाहतुः । उनस्थापूर्वस्य फलोत्पत्ति-दशात्वमभिप्रेत्य तत्-साधनभृतोद्रव्याद्यतिशयो धर्मः, इत्याहुभाट्टाः । ब्रह्मवादिनामप्येतदविरुद्धम, “व्यवहारे भट्ट-नयः” (१)इत्यभ्युपगमात्। एवं धर्म-खरूपे निरूपिते मति, अव्याकुलत्वेन तदभिज्ञत्वं सम्भवति ।
चतुर्ण वर्णनां मध्ये धर्म-कोविदैरसाधारण-धर्माभिः कर्तव्य विस्तराबहि। स च कर्त्तव्योधर्माधिविधः, स्थूलः सूक्ष्मथ । मन्द
* भवति,-इति मु. पुस्तके पाठः ।
यद्यपि अद्वैतवादिनां नास्त्येव ब्रह्मातिरिक्त किञ्चित् , तथापि तेज मतेऽपि परमार्थदशायामेव तथान्वं । व्यवहारदशायान्त भाट्टमतं तैरनखियते, --इति भावः ।
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पराभरमाधवः।
[१०,श्रा का
मतिभिरपि सुखेन बुध्यमान: शौचाचमन-सन्ध्या-वन्दनादिः स्थूलधर्माः । शास्त्र-पारङ्गतैः पण्डितैरेव बोद्ध योग्यः ; इतरेषामधर्मत्वभ्रान्ति-विषयोद्रौपदी-विवाहादिः सूक्ष्मोधर्मः । तथा च महाभारते,द्रपदः एकस्याः योषितो वहु-पतित्वं लोक-वेद-विरुद्धं मन्वानः अधिचिक्षेपा(१) । तत्र, लोक-विरोधः स्फुटएव तिर्यक्ष्वपि, एकस्यां गवि वृषभ-दय-युद्ध-दर्शनात् । वेदेऽप्येवं श्रूयते । “एकस्य बह्यो जायाभवन्ति, नैकस्थावहवः स्युः पतयः” इति । “यदेकस्मिन् यूपे दे रशने परिव्ययति, तस्मादेकोढे जाये विन्दते, यनैकागुं| रथनां द्वयोर्यपयो: परिव्ययति तस्मान्नैका द्वौ पती विन्दते"इति च । तत्र, द्रुपद-भ्रान्ति-मिवृत्तये युधिष्ठिराह,
"लोक-वेद-विरुद्धोऽयं धर्माधर्मभृतां वर ! | |
सूक्ष्मोधामहाराज ! मास्य विद्म गतिं वयम्" । इति । धर्मवञ्च बहु-पतित्वस्य तत्रैव वहुधा प्रपञ्चितम् । एवं धर्मव्याधोपाख्याने,-विद्याऽभ्यासाद्गरीयमी मातापिट-शुश्रूषा, विनाऽप्यन्यास तच्छुश्रूषयैव तस्य ज्ञानोत्पत्तेः, इति प्रतिपाद्य सूक्ष्मत्वं धर्मस्य निगमितम्,
* कन्यायाः, इति स. मापुस्तकयोः पाठः । + याचचक्षे,-इति मु० पुस्तके पाठः । । स्युः, - हूति स. से. पुस्तकयानीस्ति । 5 यन्नैकां,-इति स० से. पुस्तकयाः पाठः । ॥ धर्मवतां वर, शति मु. पुस्तके पाठः। ..
(१) एकस्याद्रौपद्याः पञ्चभिः पाण्डवैर्विवाहमधिक्षिप्तदानित्यर्थः ।
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१ घ०,या का।
पराशरमाधवः।
"वहुधा दृश्यते धर्मः सूक्ष्मएव द्विजोत्तम !" इति । इत्थं स्थूल-सूक्ष्मयोः सद्भावात् युक्तस्तदुभय-विषयः प्रश्नः ॥ उन-प्रश्नस्य वक्ष्यमाणोत्तरस्य च असाङ्कायोत्तरमनतारयति,व्यास-वाक्यावसाने तु मुनि-मुख्यः पराशरः ॥१८॥ धर्मस्य निर्णयं प्राह सूक्ष्म स्थूलञ्च विस्तरात् । इति । 'मुनि-मुख्य-इति विशेषणेन सूक्ष्म-निर्णय-कौशलं दर्शितम्। ननु, “कस्यायं स्लोकः ?, न तावत् व्यासस्थ, प्रश्न-रूपत्वाभावात् , नापि पराशरस्य, उत्तर-रूपतायाः अभावात् । 'ननु, श्रत्यल्पमिदमुच्यते, श्राद्य-लोकेऽपि समानमिदं चोद्यम्' । एवन्ताई ईदृशेषु सर्वेषु परिहारोऽन्वेष्टव्यः” । उच्यते, पराशरएव भाविशिष्य-बुद्धि-समाधानाय स्वकीय-वृत्तान्त-ज्ञापकान् ईदृश-श्लोकान् निर्ममे, इति द्रष्टव्यम्। भारतादौ व्यास-वृत्तान्त-श्लोकानां व्यासेनैव निर्मितत्वेन सर्व-संप्रतिपत्ते:(१) ॥ वक्ष्यमाण-धर्म-रहस्य-ग्रहणाय अप्रमत्तत्वं विधत्ते,
(१) 'व्या चाऱ्याणामियं शैली,-यत् खाभिप्रायमपि परोपदेशमिव वर्ण
यन्ति' इति न्यायोऽत्र स्मर्त्तव्यः । अनयैव रीत्या, -- "काणपि जैमिनिः फलार्थत्वात्” (मी. ३ अ० १ पा० ४ सू०) इति जैमिनेः, "तदुपर्यापि वादरायणः सम्भवात्" (शा० १ अ° ३ पा० २६ सू०) इति वादरायणस्य च सूत्रमुपपद्यते । यदि तु पराशरोक्तोधर्मः केनचित् तच्छिष्येण पश्चादुपनिवदः, इति समाधीयते, तदा न काचिदस्तक्षतिः। पराशरोक्तधर्मप्रतिपादकतया तु ग्रन्थस्यास्य परा. परीयत्वस्याप्युपपत्तेरिति ध्येयः ।
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C
पराशरमाधवः।
[१०,या का।
नववा
शृणु पुत्र ! प्रवक्ष्यामि शृण्वन्तु मुनयस्तथा ॥ १६ ॥ इति । तत्र, मुनि-मम्बोधनेनैव पुत्रस्य सम्बोधने सिद्धेऽपि सम्पदाय-प्रवर्तकत्वेन विशेषतस्तत्-सम्बोधनम् ।। धर्म श्रद्धातिशयाय धर्मस्य प्रवाह-रूपेण अनादितां व स्मतिशास्त्रस्य कर्तृणं च सृष्टि-संहारौ संक्षिप्याह,कल्ये कल्पे क्षयोत्पत्ती* ब्रह्म-विष्णु-महेश्वराः । श्रुति-स्मृति-सदाचार-निर्णेतारश्च सर्वदा ॥२०॥ इति । कल्यते जगदम्मिन् काले,-इति सृष्ट्यादिमारभ्य प्रलयो. पक्रम-पर्यन्तोजगदविच्छिन्नः कालः कल्पः । स च हिविधः,महाकल्पोऽवान्तर-कल्पश्च । (१)मूल-प्रकृतेर्यः सर्गः, समारभ्य चतुमुखायु:-परिमितामहाकल्यः, चतुर्मुखस्य दिनमात्रमवान्तर-कल्पः । तदुक कूर्मपुराणे,
* क्षयात्यत्त्या,-इति मु. पुस्तके, क्षये वृत्ते,- इति से म• पुस्तके
पाठः। + सर्वथा'-इति मु० पुस्तके पाठः । चतुर्थचरगो, 'न क्षय्यन्ते कदाचन'
इति मे० म० पुस्तके पाठः। 'श्रुतिः स्मतिः सदाचारानितव्यास सर्वदा,-इति मु० मू० पुस्तके उत्तराईपाठः । + जगदवच्छिन्नः,-इति स० सो पुस्तकयाः पाठः।
(१) मलप्रवः समस्तजगदुपादानं कारणद्रव्यम् । तच्च साम्यावस्थोप
लक्षितं सत्त्वादिगुणत्रयम्। सत्त्व-रजस्तमसाच जगदुपादानतया दव्यत्वं बोध्यम् । तेषु नुणत्वव्यपदेशः पुरुषोपकरणत्यादिना भाक्तः, एतत् सर्व साख्यदने व्यक्तम् ।
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१०,पा० का।
परापारमाधवः ।
"ब्राह्ममेकमहः कन्यस्तावती रात्रिरुच्यते ।
चतुर्युग-सहस्रन्तत् कन्यमाहुर्मनीषिणः" | इति । सेोऽयमवान्तरः कल्यः । महाकल्पस्तु ब्राह्मण मानेन(१) शतमंवत्सर-परिमितः, इति पुराणदिषु प्रसिद्धम्। 'कल्पे कल्पे',इति वीमया दिविधानामपि कल्पानामसंख्यत्वं विवक्षितम् । तथा च लिङ्ग-पुराणे,
"एवं कल्पास्तु संख्याता:* ब्रह्मणोऽव्यक्त-जन्मनः ।
कोटि-कोटि-सहस्राणि कल्पानां मुनि-सत्तमाः !"। इति । तत्र, दयोदयोः कल्पयोर्मध्ये क्षयोभवति । स च क्षयश्चतुविधः ;-नित्यानैमित्तिकः प्राकृतिकश्रात्यन्तिकश्चेति । तदक्कं कूर्म
पुराणे,
"नित्यानमित्तिकश्चैव प्राकृतात्यन्तिकौ तथा । चतुर्धाऽयं पुराणेषु प्रोच्यते प्रतिसञ्चरः(२) । योऽयं संदृश्यते नित्यं लोके भूत-क्षयस्त्विह । नित्यः संकाय॑ते । नाम्ना मुनिभिः प्रतिमञ्चरः। ब्राह्मोनैमित्तिकोनाम कल्पान्ते योभविष्यति ।
* एवं कल्पास्त्वसंख्यालाः,-इति पाठी भवितुं युक्तः । + खत्र, नित्यः स कीर्त्यते,-इति पाठीभवितुं युक्तः ।
(१) ब्रह्मणोमानच,-"दैविकानां युगानान्त सहखं परिसंख्याया। बाघ
मेकमहर्जेयं तावती रात्रिरेव च"-इति मन्वाद्युक्तम् । (२, प्रतिसच्चरः प्रलयः ।
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पराशरमाधवः ।
११.,खा.का.।
(१)महदादि-विशेषान्तं यदा संयाति संक्षयम् । प्राकृतः प्रतिसाऽयं प्रोच्यते काल-चिन्तकैः ।
ज्ञानादात्यन्तिकः प्रोकोयोगिनः परमात्मनि'(२) । इति । तत्र, प्राकृतः प्रलयः स्कन्द-पुराणे सूत-संहितायामेवं निरूपितः,
"विशतैः षष्टिभिः कल्पैर्ब्रह्मणोवर्षमीरितम् । वर्षाणां यत् शतं तस्य तत्पराईमिहाच्यते । ब्रह्मणोऽन्ते मुनि-श्रेष्ठा: ! मायायां लीयते जगत् । तथा विष्णुश्च रुद्रश्च प्रकृती विलयं गती।
(१) प्राकृतप्रलयमाह महदादीति । महदादिविशेषान्तमिति महदह
सारपञ्चतन्मात्रैकादशेन्द्रियपञ्चमहाभूतानीत्यर्थः। तत्र महत्तत्त्वं प्रकृतेः प्रथमः परिणामः, तत् बद्धितत्त्वमित्यप्युच्यते । तत्रकादशेन्द्रियाणि पञ्चमहाभूतानि च,-इति घोड़शकोगणोविशेषइत्युच्यते। अहङ्कारः पञ्चतन्मात्राणि च इति धड़विशेषाः। तत्राहकारस्याविशेषस्य विशेषा एकादशेन्द्रियाणि,तन्मात्रलक्षणानाचाविशेषाणां विशेषाः पञ्चमहाभूतानीतिविवेकः। महत्तत्त्वन्त न विशेषोनाप्यविशेषः किन्त लिङ्गमात्रमित्याख्यायते । प्रकृतिश्चालिङ्गमित्युच्यते । एतत् सव्वं पातञ्जले सांख्ये च व्यक्तम् । अत्र महदादीनां सर्वेषां प्रकृती लयात् प्राकृतोऽयं प्रलयः । प्रतिसर्गः प्रलयः। ज्ञानात् सत्त्वपुरुषान्यता-साक्षात्कारात् योगिनायः परमात्मनि लयः सोऽयमात्यन्तिकः। न तस्य पुनरारत्तिरस्ति, “न स पुनरावर्तते" - इति श्रुतेः । प्रकृतिलीनस्य त्वस्ति पुनरारत्तिः ऋते विवेकख्यातेरिति सांख्ये पातञ्जले च व्यक्तम् । तस्मात् प्रकृतिलयस्य नास्त्यात्यन्तिकप्रलयत्वमिति वाध्यम् ।
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१५०, बाका.
पराशरमाधवः।
ब्रह्मणश्च तथा विष्णोस्तथा रुद्रस्य सुव्रताः ! • । मूर्तयो विविधास्तेषु कारणेषु लयं ययः । माया च प्रलये काले परस्मिन् परमेश्वरे ।
मत्य-वोध-सुखानन्ते ब्रह्म-रुद्रादि-मंज्ञिते"। इति । तथा कूर्मे ब्रह्म-विष्वादि-लयानन्तरं पञ्च-भूतादि-लयः पद्यते,
(१)संस्थितेष्वथ देवेषु ब्रह्म-विष्णु-पिनाकिषु । गुणैरशेषैः पृथिवी विलयं याति वारिषु । तदारि-तत्वं सगुणं ग्रसते हव्य वाहनः । तेजन्तु गुण-संयुक्त वायो संयाति संक्षयम् । श्राकाशे सगुणोवायुः प्रलयं याति विश्व-भृत् । भूतादी च तथाऽऽकाशोलीयते गुण-संयुतः । इन्द्रियाणि तु सर्वाणि तैजसे यान्ति संक्षयम् । वैकारिकस्तैजस भूतादिश्चेति सत्तमाः ! । त्रिविधोऽयमहङ्कारोमहति प्रलयं ब्रजेत् । महान्तमेभिः महितं प्रकृतिर्थसते विजाः!" ।
* सुव्रत ! इति मु० पुस्तके पाठः । + प्रलयानन्तरं,-इति स. सो. पुस्तकयाः पाठः। 1 पञ्चभूतादिप्रलयः, इति स० स० पुस्तकयाः पाठः ।
(१) संस्था मरणं प्रलय इति यावत् ।
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पराशरमाधवः।
१.,या का
इति । एवं विष्णु-पुराणदिषु प्राकृत-प्रलयोद्रष्टव्यः । एवमेव प्रलयमभिप्रेत्य भगवान् वादगयणः सूचयामास ;-"विपर्ययेण तु क्रमोऽतउपपद्यते च" (शा० २१०३पा० १४सू०) इति । अतोऽस्मात् सृष्टि-क्रमात् विपर्यायेण प्रलय-क्रमोऽभ्युपगन्तव्यः । सृष्टिकमस्य तत्रत्येषु पूर्व सूत्रेषु विचारितत्वात् 'अतः'भब्देन परामर्शः । उपपद्यते ह्ययं विपरीत-क्रमः, उपादान-कारण-भूतायां द्यवस्थितायां कार्य्यस्य घटस्थ विलीयमानत्वात्। यदि, सृष्टि-क्रमएव प्रलयेऽप्याट्रियेतो तयवस्थिते घटे मृविनाशः प्राप्नुयात्। न त्वे क्वचित् दृष्टम्। तस्मासुपपनोविपरीत-क्रमः । तथा मति, सृष्टी परमात्मादेरमद्देहान्तस्यौ क्रमस्य वक्ष्यमाणत्वात् प्रलये तदिपर्यायेण अस्मद्देहादिः परमात्मान्तः कमायकः । प्राकृत-प्रलये प्रत्यन्तःक्रमावतयः, -दति चेत् । वाढम्। उच्यते एवासौ,(९) परमात्मनः प्रकृतिवात्। तथा च, वडचोपनिषदि परमात्मनोजगत्-प्रशतित्वं श्रूयते,"आत्मा वाइदमेकएवाग्रासीन्नान्यत् किञ्चनमिषत, स ईक्षत; लोकान्नु एजा इति, म इमान् लोकानसृजत" इति।
* प्राकृतलयाद्रष्टव्यः, -इति मु० पुस्तके पाठः । +प्रलयस्याद्रियेत,-इति मु. पुस्तके पाठः। + परमात्मायेतद्देहान्तस्य, इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) यसौ प्रकृत्यन्तःक्रमः उच्चारवास्माभिरित्ययः । ननु परमात्मान्तः
क्रमरव पूर्वमुक्तः न प्रकृत्यन्तःक्रमः इत्याशयार परमात्मनइति । तथा च परमात्मनः प्रकृतित्वात् परमात्मान्तःकमएव प्रकृत्यन्तः नामइति भावः।
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१५.,या का.
पराशरमाधवः।
नन, 'श्वेताश्वतरोपनिषदि मायाया:(१) प्रकृतित्वं परमात्मनस्तनियन्तत्वं, श्रूयते,
___ "मायान्तु प्रकृति विद्यान्मायिनन्तु महेश्वरम्" । इति'। नायं दोषः । मायायाः परमात्म-शक्रित्वेन शक्तिमतोऽप्यात्मनः प्रकृतित्वावश्यम्भावात्। दहन-शक्ति-युक्त श्री दाहकत्व व्यवहारदर्शनात् । श्रात्म-शक्तित्वञ्च मायायास्तस्यामेवोपनिषदि श्रुतम्,
"ते ध्यान-योगानुगताअपश्यन्
देवात्म-शक्रि स्व-गुणैर्निगूढाम्"। इति । वादरायणश्च प्रथमाध्यायस्योपान्याधिकरणे(२) माया-विशिष्टस्य ब्रह्मण: प्रकृतित्वं निमित्तञ्च, इत्युभयविध कारणत्वमुपपादयामास । कुलालवत् चेतनत्वात् निमित्तत्वं, घटे मृदइव कार्ये । तस्यानुगमात्
* दाहक,-इति मु• पुस्तके पाठः। । खकाय,-इति स० सा• पुस्तकयाः पाठः ।
(१) माया तु त्रिगुणात्मिका सदसद्भ्यामनिवाच्या विशुद्ध-सत्व-प्रधाना
भावरूपा। यत्रेदमुक्तम्। “चिटानन्दमय-ब्रह्म-प्रतिविम्ब-समन्विता । तमोरजः-सत्त्व-गुणा प्रकृतिविविधा च सा । सत्व-शुद्यविशुद्धिभ्यां
मायाऽविद्ये च ते मते"-इति । (२) “प्रकृतिश्च प्रतिज्ञा-दृशान्तानुपरोधात्” (शा० ११० ४मा० २३ सू.)
इत्यस्मिन् अधिकरणे । प्रकृतिश्च उपादानकारणच ब्रह्माभ्युपगन्तव्यं निमित्त-कारणच्चाएक-विज्ञानेन सर्व-विज्ञान-प्रतिक्षायाः मद्घटादिदृष्टान्तस्य च अनपरोधोपपत्तेरिति सूत्रार्थः। कारणे हि विज्ञाते कार्य विज्ञातं भवति कारणातिरिक्तस्य वस्तुसतः कार्य्यस्याभावात् । विवर्त-वादाभ्युपगमेन कार्य्यस्य कारणानतिरेकात्। एतच तव वश्य म् ।
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पराशरमाधवः।
[ १०,बा०का।
प्रकृतित्वम् , अनुगम्यते* हि जगति माया-विशिष्टं ब्रह्म । तच, मच्चिदानन्दत्वं ब्रह्मणोलक्षणं विकारित्वन्तु मायायाः। तदुभयमपि जगत्यवेक्षामहे; 'घटोऽस्ति'-इति मट्रपत्वं, 'घटोभाति' इति चिद्रपन्वं, 'घटः प्रियः' इत्यानन्दरूपत्वम् । 'घट उत्पद्यते, विनश्यति च'इति विकारित्वम्। अयमेवार्थः उत्तर-तापनीये श्रूयते,-"मच्चिदानन्दरूपमिदं सर्वं सत् मदिति चितीत्थं सर्व प्रकाशते च " इत्यादि। तदेवमोपनिषदे मते ब्रह्मणमूल प्रकृतित्वात् स्मृति-पुराणयोश्च श्रुत्यनुमारित्वात् । ब्रह्मावशेषो| जगदिलयोऽच विवचितः इति मन्तव्यम् । वैशेषिकादि-मत-मिद्धस्तु लयोऽस्माभिनाच प्रपञ्चरते. तस्य पुरुष-बुद्धि-रूप-तर्क-भूलत्वेन बुद्धिमद्भिः खयमेवोहित शक्यत्वात् ।
अर्धा| श्रुत्यनुसारेणेत्पत्तिरभिधीयते । मन्ति हि सृष्टि-प्रतिपादिकाः बह्यः श्रुतयः । तत्र, "आत्मावाइदमेकएवाग्रामीत्"इत्यादि ववृचोपनिषदाक्यं पूर्वमुदाहृतम् । “मत्यं ज्ञानमनन्तं
* अवगम्यते,—इति मु• पुस्तके पाठः । इत्याद्यानन्दरूपत्वं-इति मु. पुस्तके पाठः। सद्धोदं सव्वं सदिति चिदिदं सर्व काशते काशने च, इति मु.
पुस्तके पाठः। 6 सत्यमकारित्वात् ,-इति मु. पस्तके पाठः । ॥ ब्रह्माद्यशेष,-इति मु• पुस्तके पाठः । पा इत्यवगन्तव्यम्-इति मु. पस्तके पाठः। ** वैशेधिकादिमतप्रसिद्धस्तु प्रलयामास्माभिः प्रपश्चाते,-इति स०
सो. पुस्तकयाः पाठः। # संप्रति, इति स. मो० पुस्तकयो पाठः ।
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१०,या का.
पराशरमाधवः।
ब्रह्म"-दत्यपक्रम्य, "तस्मादाएतस्मादात्मनाकाशः सम्भूतः"इत्यादिकं तैत्तिरीयक-वाक्यम्। 'मदेव साम्येदमग्रामीत्”-इत्युपक्रम्य, “तदेक्षत; बहु स्यां प्रजायेयेति, तत्तेजोऽसृजत"-दति छन्दोग-वाक्यम्।
"यथा सुदीप्तात् पावकादिम्फुलिङ्गाः सहस्रशः प्रभवन्ते मरूपाः । तथाऽक्षरादिविधा: सोम्य ! भावा*
प्रजायन्ते तत्र चैवापि यन्ति" ॥ इत्यथर्वी वाक्यम् । “तवेदं । तहव्याकृतमासीत् तन्नाम-रूपाभ्यामेव व्याक्रियत"-वाजसनेय-वाक्यम्। ननु, नैतेषु वाक्येषु सृष्टियवस्थापयितुं शक्यते, विप्रतिपत्तेर्बलत्वात् । अच, ब्रह्म-मद्-अक्षराऽव्याकृत-शब्दैवाच्यानि वस्तुनि कारणतया श्रूयन्ते । न च, एकस्य जगतोविलक्षणानि बहन्यपादानानि युकानि। नैष दोषः । श्रात्मादिभन्दैरेकस्यैव वस्तुनोऽभिधीयमानत्वात् । श्रात्म-ब्रह्म-शब्दयोस्तावदैकार्थ्यं स्पष्टम् । ब्रह्म वाक्यशेषे "तस्मादाएतस्मादात्मनाकाशः सम्भूतः" इत्युक्त्वात्। सद्-श्रात्म-शब्दयोश्चैकार्थत्वम् युक्तम् । आत्मशब्दस्य स्वरूप-वाचित्वात् , सत्तायाश्चौपनिषदः सर्व-खरूपत्वाभ्युपगमात्, अनुभूयते च सत्तायाः सर्व-खरूपत्वं, नर-विषाणादीनामपि
* तथाऽक्षरात् प्रभवन्ते हि भावाः-इति मु० पुस्तके पाठः । + अत्र 'वेद' इत्यधिकं वर्तते स. मो० पस्तकया। + तदेवं - इति मु. पुस्तके पाठः। $ युक्तानि, इति म° पुस्तके नास्ति ।
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पराशरमाधवः।
[१०,या का।
ज्ञान-जनकत्वाकारेण मत्-खरूपत्वात् । अक्षर-शब्दश्च,-'अश्रुतः'इति वा, 'न क्षरति' इति वा, परमात्मानमाचष्टे । अव्याकृतशब्दोऽपि, तस्मिन् योजयितुं शक्यते; 'वि स्पटम् श्रा समन्तात् कृतम्' -दति व्युत्पत्त्या, जगतः प्रतीति-योग्य-स्थूलत्व-दशा व्याकृतम् , 'न ध्याकृतम्'-दति, अव्याकृतशब्दः सूक्ष्मत्व-दशामाइ । एकस्यैव वस्तुनः स्थूल-सूक्ष्म-दशे जगद्-अक्षर-शब्दाभ्यामुच्यते । विवर्त्त-वादिभिरखण्डैकरसस्य ब्रह्मोजगद्र्पेण प्रतिभासाभ्युपगमात् (१)। तस्मात् अव्याकृतब्रह्मादीनां पञ्चानां शब्दानाम् (२) एकएवार्थः ।
मनु, क्वचित् शून्यस्य(२) जगत्-कारणत्वं श्रूयते ;-"असदाइदमय श्रामीत्, ततोवै सदजायत" इति। मैवम् । तत्र, मद्-असत्शब्दाभ्यां व्यारताव्याकृतयोरभिधानात्। श्रुत्यन्तरे, “कथममतः
* सूक्ष्मां दशामाह,-इति स. सो० पुस्तकयाः पाठः। + एकस्यैव च,-इति स० से० पुस्तकयाः पाठः ।
(१) विवर्तवादे व्यन्यस्यान्यरूपेण प्रतिभासमात्रं मायिकम् । न तु वस्तनो
ऽन्यथाभावः। यथा रन्जुरेव साकारेण प्रतीयते, न तु रज्ज्वाचन्यथात्वं भवति, एवं ब्रह्मैव जगदाकारेण प्रतीयते न तु ब्रह्मणोऽन्यथा. भावोभवति । तथा चोक्तम् । “स-तत्त्वतोऽन्यथा प्रथा विवर्त्तइत्युदीरितः" इति । तथाच, ब्रह्मणः स्थूलरूपत्वं प्रातिभासिकं सूक्ष्मरूप. वन्त तात्त्विमिति विवेकः । परिणामवादे तु स्थूलरूपत्वमनायासगम्यमिति तन्त्रोक्तम् । बारम्भवादस्तु वैशेषिकाद्यनुमतः पुरुषबुड्युत्
प्रेक्षामात्रमल-इति मूलप्रमाणाभावादुपेक्षित इति मन्तव्यम् । (२) अव्याकृत-ब्रह्म-सत्-बक्षर-यात्म-शब्दानामित्यर्थः । (३) शून्यमभावः।
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९ख०,श्रा का०]
पराशरमाधवः ।
मज्जायत*"-इति शून्यस्य कारणता-प्रतिषेधात् । ननु प्रतीयमान-जगदाकार-रहितं शन्यादपि विलक्षणं चेत् ब्रह्म, तर्हि, तत् कीदृशं बुद्धावारोपयितव्यम् ॥ इति चेत्। दूदानी प्रष्टुं यादृशमनूदितं, तादृशमेव तदिति बुद्धिं समाधत्व(१)। दृष्टान्नं चेत् पृच्छसि, न वयं वकुं शक्नुमः । तत्-समस्य वस्त्वन्तरस्थाभावात् । तथा च श्रुतिः ,
"न तस्य कार्ये करणञ्च विद्यते
___ न तत्-समचाभ्यधिकश्च दृश्यते” । इति। यदि, शिष्य-व्युत्पादनाय दृष्टान्ताभासेाऽपेक्षितः|| (२), तर्हि, अद्वैताकारे सुषुप्तिर्निदर्शनम्, पुरुषार्थ-स्वरूपत्वे चा विषयानन्दोनिदर्शनीयः । “आनन्दोब्रह्मेति व्यजानात्”–इति* * "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म"-इत्यादि श्रुतेः । अशेष-शङ्का निवृत्त्यपेक्षा चेत्, ब्रह्ममीमांसां पठ,-दत्यलमतिविस्तरेण ।
• सज्जायेत,-इति स० पुस्तके पाठः । + ननु, इति मु० पुस्तके नास्ति | + बुयादावारोपयितव्यम् ,--इति मु• पुस्तके पाठः । ६ तादृशशब्दं-इति मु. पुस्तके पाठः । || दृष्टान्ताभ्यासेाऽपेक्षितः,-इति मु• पुस्तके पाठः । पा 'च' इति मु. पुस्तके नास्ति । ** 'इति' शब्दः स. सो. पुस्तकयोनास्ति ।
(१) तथा च जगदाकाररहितं शून्यादपि विलक्षणं ब्रह्म, इत्येव वुद्धा
वारोपयितव्यमित्यर्थः । (२) दृष्टान्तवदाभासते,-इति दृष्टान्ताभासः, न तु परमार्थदृष्टान्त
इत्यर्थः ।
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पराशरमाधवः।
या सका।
यावन्तं कालमभिव्यक-जगदाकारोपेतं ब्रह्म पूर्वमासीत् , तावन्त मेव कालमनभिव्यकदशायामवस्थाय(१) पश्चादभिव्यक्ती प्रयतते । ननु, महाप्रलये, कालोवा तदियत्ता वा कथं घटते ? (२) । उच्यते। के प्रत्येतचोद्यम्?(१) न तावत् ब्रह्म-वादिनं प्रति, 'तन्मते वियदाद्यनन्तभेद-जगत्-प्रतीति - कल्पयन्यामायायाः कश्चिन्महाप्रलयः एतावत्काल-परिमितत्रासीत्,-इत्येवं विध-प्रतीति-मात्र-कल्पने कोभारः?(४) । (५)परमाणु-वादेऽप्यस्खेव नित्यः कालः। (५)प्रधान-वादे
* भेदभिन्नं जगत् प्रतीतं-इति स० मा पुस्तकयाः पाठः ।
(१) अनभिव्यक्तदशा महाप्रलवः। (२) कालस्य क्रियारूपत्वात् महाप्रलये च क्रियाया असम्भवादिति भावः।
तदियत्तापि क्षणादिलक्षणा कियासाध्यैव । प्रश्नायं 'क्रियैव काल'
इति मतानुसारेणेति वाध्यम् । (३) क्रियातिरिक्तः पदार्थान्तरं कालः, इति मतमाश्रित्य प्रथमं तावत्
वेदान्तमते परिहारमाह न तावदिति । (8) तथा च रतन्मते दृषिप्रलयौ हावेव माया-कल्पिताविति भावः ।
न्याय-वैशेषिकमते परिहारमाह परमाणुवादे इति । एतन्मते प्रलय
कालस्येयत्ताव्यवहारोवमेनोपपादनीयः, इत्याकरे व्यक्तम् । (६) सांख्यमते परिहारमाह प्रधानवादे इति । प्रधानं प्रकृतिः । पञ्च
विंशति तत्त्वानि तु प्रकृतिमहदहवारपञ्चतन्मात्र एकादशेन्धिय-पत्र महाभूत-पुरुषरूपाणि सांख्ये प्रसिद्धानि । एतन्मते, प्रलयेऽपि प्रधानस्य सदृशपरिणामप्रवाहसत्त्वात् नानुपपत्तिस्तदियत्ताया इति ध्येयम् । इदमत्रावधेयम् । सांख्यीये सिद्धान्ते न कासोनाम पदार्थोऽस्ति, किन्तु येण्याधिभिरेकस्य कालस्य भूतभविष्यदादिष्यवहारभेदं वैशेषि कादयामन्यन्ते, तरवायाधयाभूतादिव्यवहारं प्रयोजयन्तीति कृतमत्र कालेन, इति सांख्यतत्त्वकौमुद्यामभिहितम् । एतच्च कालमाधवोयग्रन्थे यन्यकृताप्युरीकृतम् ।
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अ ,आ०का !!
पराशरमाधवः।
पञ्च-विंशति-तत्वेभ्योवहितस्य कालतत्त्वस्याभावात् प्रधानमेव काल-शब्देन व्यवहियताम् । अतः प्रलय-कालावमाने परमेश्वरः सृष्टिं कामयते । तथाच, श्रुतयः,-"कामस्तदग्रे समवर्त्तताधि" "मेोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय"-इति, “तदक्षत बहु स्यां प्रजायेय इति” “म ईक्षां चक्रे"-इत्यादि। ननु,* कामानाम मनोवृत्ति-विशेषः, “कामः सङ्कल्पोविचिकित्मा-श्रद्धा-ऽश्रद्धा-धृतिरधृतिः श्री? रित्येतत् सब्ब मनएव,' इति श्रुतेः। मनश्च भौतिकम् , "अन्नमयं हि साम्य ! मनः" इति श्रुतेः । तथा मति, भूतोत्पत्तेः पर्वमविद्यमाने मनसि कुतः कामः ? । उच्यते । न तावत् मर्गसमये चेद्यमिदमुदेति, तन्मनसोभौतिकत्वाभावात् , नित्यायाः ईश्वरेच्छायाः मनोऽनपेक्षत्वाच । सिमृक्षावन्तु सपिहितत्वाकारेण नित्येच्छायामप्युपपद्यते। औपनिषदे मते तु जीवेच्छायाः भौतिक-मनः कार्यत्वेऽपि, ईश्वरेच्छाया: माया-परिणाम-रूपत्वात् न मनोऽपेक्षाऽस्ति। अन्तरेणापि देहेन्द्रियाण्यशेष-व्यवहार-शकिरचिन्या परमेश्वरस्य अतिम्वगम्यते,
"न तस्य कार्य करणञ्च विद्यते न तत्-ममश्चान्यधिकश्च दृश्यते । पराऽस्य शक्रिविविधैव श्रूयते खाभाविकी ज्ञान-बल-क्रिया च" ॥ इति ।
• "तथा च”-इत्यारभ्य, "मनु" इत्यन्तः पाठः स. सोपुस्तकयो
नास्ति।
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पराशरमाधवः।
धाका
"पाणि-पादोजवनोग्रहीता
पश्यत्यचनुः स टोत्यकर्णः" । इति च । एवञ्च मति, 'अमङ्गस्य कथमुत्पादकत्वम्, उत्पत्स्यमानानि वा वियदादीनि योग्य-सामग्रीमन्तरेण कथमुत्पोरन्"इत्यादीनि चोद्यान्यनवकाशानि । अनन्त-शक्त्यैव अशेष-चोद्यानां दत्तोत्तरत्वात् । तस्मात्, यथाश्रुति निःशङ्कः सृष्टिरभ्युपेतव्या । श्रुतिश्चैवमाह,-"तस्मादाएतस्मादात्मनः श्राकाशः सम्भूतः, श्राकाभादायुः, वायोरनिः, अनेरापः, अयः पृथिवी, पृथिव्यामोषधयः, श्रौषधिभ्याउन्नम्, अन्नात् पुरुषः" इति। तत्र, पुरुष-शब्देन शिरःपाण्यादि-युक्रोदेहोऽभिधीयते । स च देहोब्रह्मादिः स्तम्बान्नोबहुप्रकारः । तत्र, ब्रह्मदहस्य निरतिशय-पुण्य-पुन-फल-रूपत्वात् इतरमकल-देह-कारणत्वेनादित्वम् । तथाच श्रुति-स्मती, --
"हिरण्य-गर्भः समवर्तताग्रे मृतस्य जातः पतिरेकामीत्" । इति श्रुतिः । "ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव ।
विश्वस्य की भुवनस्य गोता" । इति च।
“म वै शरीरी प्रथमः स वै पुरुषउयते । श्रादि-की स भूतानां ब्रह्माऽये समवर्मत" ।
.
*श्रुतिः, इति सु. पुस्तके पाठः । । श्रुतिः, इति मु० पुस्तके मास्ति ।
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१.,याका
पराशरमाधवः ।
इति स्मृतिः । एतेन, विष्णु-महेश्वर देहयोरयादित्वं व्याख्यातम्। एकेनैव चेतनेन गुण-त्रय-व्यवस्थाये देह-त्रयस्य स्वीकृतत्वात् । तथा च, मैत्रेय-भाखायां श्रूयते । “तस्य प्रोकायास्तनवाब्रह्मा रुद्रोविष्णुरिति श्रथा योवै खलु वावाऽस्य राजमाशोऽमौ म योऽयं ब्रह्मा, यथाह खल्नु वावाऽस्य तामाऽशोऽसौ म योऽयं रुद्रः, यथाह खन्न वावाऽस्य मात्त्विकाशोऽसौ म योऽयं विष्णुः, स वाएष एकत्रिधा भृतः" इति। तथोत्तर-तापनीये, मायां प्रकृत्य श्रूयते । "मैषा चित्रा सुदृढ़ा वहंकुरा स्वयं गुण-भित्रांकुरेष्वपि गुणभिन्ना सर्वत्र ब्रह्म-विष्णु-शिव-रूपिणी चैतन्य-दीप्ता, तम्मादात्मनएव त्रैविध्यं सर्वत्र' इति । स्कन्द-पुराणेऽपि,
“एकएव शिवः साक्षात् सृष्टि-स्थित्यन्त-सिद्धये ।
ब्रह्म-विष्णु-शिवाख्याभिः कलनाभिर्विजृम्भते"। इति। तदेवं ब्रह्म-विष्णु-महेश्वराः तस्मिन् ॥ महाकल्पावसाने क्षीयन्ते, पुना स्तत्-कन्पादावुत्पद्यन्ते, दांत मिद्धम् ।
अक्षरार्थस्तु, क्षय-महिता उत्पत्तिः क्षयोत्पत्तिः* तयोर लक्षिता भवन्ति, इति । एवं तनदवान्तर-कल्पानामवमाने प्रारम्भे च
* विषा-महेश्वरयारप्यादिमत्त्वम् , - इति मु० पुस्तके पाठः । + ब्रह्मा विष्णरुद्र इति,-इति मु. पुस्तके पाठः । + अथयाह इति स० स० पुस्तकयोः पाठः। ६ अथाह,-इति स० मो• पुस्तकयोः पाठः । || खस्मिन् ,इति मु० पुस्तके पाठः । पास्तत्र महाकल्पादादित्यादि स० पुस्तके पा ** क्षयोत्पत्तिः इति मु० पुस्तके नास्ति ।
13
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पराशरमाधवः ।
मा.का० ।
अत्यादीनां निर्णतारः क्षयोत्पत्तिभ्यामुपलक्ष्यन्ते। तत्र, श्रुति-निर्णतारः,-वेद-विभाग-कारी व्यासः, तवेद-शाखा-सम्प्रदाय-प्रवर्तकाः कठ-कौथुमादयः, कल्प-सूत्र-काराः बोधायनाश्वलायनापस्तम्बादया, मीमांसा सच-ताजैमिन्यादयश्च । स्मृति-निर्णतारोमन्वादयः प्रसिहाः । तत्र, पैठीनसिः,
"तेषां मन्वगिरोव्यास-गौतमायुशनोयमाः । वशिष्ठ * दक्ष-संवर्त्त-शातातप-पराशराः । विष्ण्वापस्तम्ब-हारीताः शंखः कात्यायनामशः । प्रचेतानारदोयोगि(१) बोधायन-पितामहाः । सुमन्तुः कश्यपोवभुः पैटीनोव्याघएवच । सत्य-व्रतोभरबाजोगार्य: कार्पोजिनिस्तथा । जावालिर्जमदग्निश्च लोकाक्षि? ब्रह्म-सम्भवः ।
इति धर्म-प्रणेतारः पत्रिंशदृषयस्तथा" | ननु, किमियं परिसंख्या ? (२) । मैवम् । तथा मति, वत्म-मरीचि* वसिष्ठ,-इति मु० पुस्तके पाठः । + व्यासराव च,-इति स० मा पुस्तकायाः पाठः । । कार्णाजिनस्तथा,- इति मु° पुस्तके पाठः ।
$ लागाक्षि,-इति स० स० पुस्तकयाः पाठः । (१) योगी याज्ञवल्क्यः। अयञ्च, क्वचित् योगीश्वरः-इति, कचित् याच
वल्क्यः-इति, कचिच्च योगियाज्ञवल्क्यः, इति च निर्दिश्यते । याज्ञवल्फीयात् धर्मशास्त्रात् एथक् योगियाज्ञवल्क्यीयं धर्मशास्त्रमप्य
स्माभिरूपलब्धम् । (२) परिसंख्या परितः संख्यानम्। एतावन्तरव धर्मप्रगोतारोनत्वन्ये
इत्या किमेघा गणना इति प्रश्नार्थः । तथा चोक्तम् । “अन्यार्थ श्य
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११०,वा.का]
पराशरमाधवः ।
देवल-पारस्कर-पुलस्त्य पुलह-क्रतु ऋष्यश्टङ्ग-शङ्ख-लिखित छागलेयात्रेयादीनां धर्म-शास्त्र-प्रणेतृत्वं न स्यात्। श्राश्वमेधिके पर्वण्यपि तत्तन्मुनि-प्रोक-धर्मानुक्रमणात् धर्मशास्त्र-कनारोगम्यन्ते (१) । 'श्रुता मे मानवाधाः ' इत्युपक्रम्य एवं पद्यते,
"ौमा-महेश्वराश्चैव नन्दि-धमाश्च पावनाः । ब्रह्मणा कथिताश्चैव कौमाराश्च श्रुतामया । धूम्रायन-कृताधाः कण्वा| वैश्वानराअपि । भार्गवायाज्ञवल्क्याश्च मार्कण्डेयाश्च कौशिकाः । भरद्वाज-कृताये च वृहस्पति-कृताश्च ये। कुणेश्च कुणि-वाहोचा विश्वामित्र-कृताच ये। सुमन्तु जैमिनि-कृताः शाकुनेयास्तथैव च । पुलस्त्य-पुलहोगीताः पावकीया** स्तथैव च ।
अगस्त्य-गीतामौद्गल्याः शाण्डिल्याः सेलिभायना:। * पुलस्त्य-इति मु० पुस्तके नास्ति । + क्रतु, - इति मु० पुस्तके नास्ति। * विलिखित,-इति मु. पुस्तके पाठः। ६ उमामहेश्वराश्चैव,-इति स० से० पुस्तकयाः पाठः । || काव्या,-इति स. सो० पन्तकयाः पाठः। १ कुणिसाहेश्व,-इति स० सा० पन्तकयाः पाठः । * ५ पावणीया,--इति मु• घुस्त के पाठः । ++ अगस्त्य गीताः सोधन्याः शाण्डिल्याः शोलभाञ्जनाः, -इति स. सो. पुस्तकयाः पाठः ।
माण च यान्यार्थप्रतिधिका । परिसंख्या तु सा ज्ञेया यथा प्रोक्षित
भोजनम्" इति । (१) वत्सादय इति शेषः ।
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पराशरंमाधवः।
या०का।
वालखिल्य-कृताये च ये च सप्तर्षिभिः कृताः । वैयाघ्राव्यास-गीनाच विभण्डक* कृताच ये । तथा विदर-वाक्यानि गोरङ्गिरसस्तथा ।
वैशम्पायन-गीताश्च ये चान्ये एवमादयः" । इति । 'सदाचारः',-होलाकोदवृषभ-यज्ञाहीनवुकादिः (१) । तस्य निर्णतारस्तत्तत्-कुल-वृद्धाः । 'च'कारः उतानुक्त-समुच्चयार्थः । उनाः. -मन्वादयोब्रह्मादयश्च स्मृति-शास्त्रकारः । अनुकम्तु,-धर्मः । तम्यापि, पूर्व-कन्पान्ते क्षीणस्योत्तर-कल्पादौ सृरिर्भवति । तथा च, वाजसनेय-ब्राह्मणे सृष्टि-प्रकरणे, प्रजापतिर्मनुष्यादि-पिपीलिकान्तप्राणिनां चतुर्वर्णभिमानि-देवतानाश्च सृष्टिमानाय, अत्युग्रमपि क्षत्रियादिकं नियन्तु समर्थस्य धर्म त्य सृष्टिरानायते । “म नैव व्यभव नत् श्रेयोरूपमत्यमृजत धर्म तदेतत् क्षत्रस्य क्षत्रं यद्धर्मः तस्मात् परं नास्ति” इति । अस्थायमर्थः ;-म प्रजापति-मन्वादि-रूप-धारी अगत्-घटा परमेश्वरः प्रजा: सृष्ट्वाऽपि तन्नियामकाभावात् कृतकृयता-रूपं विभवं नैव प्राप्तवान, ततोविचार्य नियामकत्वेन श्रेष्ठं धर्ममतियवेनासृजत्, इति । अहो ! महदिदं धर्मस्य सामर्थं ; यत् क्षत्रियादिस्ग्रोमारणे समर्थोऽपि धर्माद्भीतः कर-प्रदानाद्यनुप• वितणहक, इति स. सो० पम्तकयोः पाठः । + समाचारो लोके वृषभयज्ञादि नैर्ऋतादि,-इति मु. पुस्तके पाठः। । अत्र, प्रजापति-मनुष्यादि,-इति पाठो भवितुं युक्तः । 5 धमाधीनः -- इति स० स० युस्तकयाः पाठः । (१) होलाका वसन्तोत्सवविशेषः प्राच्यैः क्रियते, उषभयज्ञः उदीच्या,
भाजीनवुकादयोदाक्षिणात्यैः। स्परमिदं मीमांसा-प्रथम-तीयाएमाधिकरणे भाष्यादौ।
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१०,ग्रा०का ]
पराशरमाधवः ।
१.१
योगिनं याचक विप्रादिक न मारयति । प्रत्युत, तस्मै धनं ददाति, भटाचातिशूगः धनुः-खड गादि-धारिणोलन-सख्याकाः एकेन निरायुधेन रुनेन। खामिना अधिक्षिष्यमाणा? स्तायमानाः सन्तोऽपि खामि-द्रोहादिभ्यति। ततेोधर्मादप्युत्कष्टं न किञ्चिन्नियामकमस्तीति । 'प्रलय-काले धर्मस्यापि मंहारे भाविसृष्टेर्धाधर्म-का-या श्रमम्भवः',(१) इति चेत् , न, पूर्व-कल्पानुष्ठान-सञ्चितस्य फल-वीजस्यापूर्वस्य संहारानङ्गीकारात्(२) । द्रव्य-गुण-क्रिया-रूपएव हि धर्मः मंहियते पुनरुत्पद्यते च सर्वदा(२) इति । अनेन, सृष्टि-संहार-प्रवाहस्यानादितामनन्तताच दर्शयति ॥
* ताड़यति, इति मु० पुस्तके पाठः । + खकीयनैकेन, - इति स० स० पुस्तकयाः पाठः ।
रुग्नेन, ---इति मु० पुस्तके नास्ति । 6 विक्षिप्यमाणा,—इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) धमाधी विना जगचियासम्भवात् सृोः धर्माधर्मकार्य्यत्वमिति
वाध्यम् । तथा चापूर्वरूपौ धमाधमी प्रलयेपि तिष्ठतः, इति न विचित्रसृछ्यनुपपत्तिरिति भावः। तदानों धमाधम्म याः सत्त्वञ्च कार्य्यदर्शनादनुमातव्यम्। द्रव्यं समादि, गुणः "अरुण या पिङ्गाच्या गवैकहायन्या सामं क्रीणाति"---इत्याद्युक्त धारुण्यादिलक्षणः, क्रिया अमिहोत्रादिका। धर्मत्वञ्चामीघां न खरूपतः किन्तु श्रेयःसाधनतारूपेणेति मीमांसाश्लोक
वार्त्तिकादौ व्यक्तम् । (४) यद्यपि प्रवाहस्थावस्तत्वात् प्रवाहिव्यक्तीनाञ्च सादित्वात् प्रवाहस्या
नादित्वासम्भवः, तथापि, प्रवाहिव्यक्तीनां मध्ये अन्यतमया व्यक्त्या विना अनादिकालस्यानवस्थानमेव कार्यानादित्वमिति सिद्धान्तः। एतच्च
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१.२
पराशरमाधवः।
[११०,मा.का.)
यदर्थ सृष्टि-महारौ संक्षिप्योकी, तत् प्रवाह-नित्यत्वमिदानीमाह,न कश्चिद्देद-कती च वेदं स्मृत्वा* चतुर्मुखः । तथैव धान् + स्मरति मनुः कल्पान्तरेऽन्तरे ॥२१॥
इति । स्मृति-निर्णहां मन्वादीनां स्मृति-कर्तृत्व-दर्शनात् तथैव श्रुति-निर्णेदृ णामपि वेद-कर्तृत्वमाशङ्का निराचष्टे 'न कश्चित्'-दति। न तावत् व्यासेावेद-का, तस्य विभाग-मात्र-कारित्वात् । नापि चतुर्मुखः, ईश्वरेण चतुर्भुखाय वेद-प्रदानात्। नापि जगदीश्वरः, तस्य मिद्ध-वेदाभिव्यञ्जकत्वात् । तर मत्स्य-पुराणे,
"अस्य वेदस्य? सर्वज्ञः कल्पादो परमेश्वरः । व्यञ्जकः केवलं विप्राः ! नैव की न संशयः । ब्रह्माणं मुनयः ! पूर्व सृष्ट्वा तस्मै महेश्वरः । दत्तवानखिलान् वेदान् विप्राः ! अात्मनि|| संस्थितान् ।
* वेदं श्रुत्वा, इति मु° पुस्तके, वेदं स्मती, - इति मु• मू० पुस्तके,
वेदकी, इति से मू० पुस्तके पाठः । + तदेव धर्म, --इति सेो मू० पुस्तके पाठः । + कल्पान्तरान्तरे, इति मु० म०, सो० मू० पुस्तकयाः पाठः । 6 धम्मच,-इति भु. पक्त के पाठः । ॥ विप्रयात्मनि,-इति स० पुस्तके पाठः।
सुस्थितान् , -- इति मु० पुस्तके पाठः ।
शारीरक टीकायां रत्नप्रभायामन्यत्र च व्यक्तम् । रघरव न्यायः प्रवाहस्थानन्तत्वेयि योजनीयः ।
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. १५०,चाका.
.. पराशरमाधवः ।
ब्रह्मणा चोदिताविष्णुास-रूपी द्विजोत्तमाः ।।
हिताय मर्च-भूतानां वेद-भेदान् करोति सः'। इति। कठादीनान्नु* तन्-कढत्वं दुरापास्तम्।। उपपत्तयस्तु वेदापौरुषेयत्वाधिकरणे(१) द्रष्टव्याः । ननु, 'शास्त्र-योनित्वाधिकरणे(१) ब्रह्मणः सर्वज्ञत्व-सर्वशक्तित्व-दार्थाय वेद-कढत्वं व्यासेन सत्रितम् । (२) ननु, तेनैव देवताधिकरणे(४) वेद-नित्यत्वमपि, "श्रतएव च नित्यत्वम्' (शा० ११०३पा०२८ सू०) इति सूत्रेण प्रदर्शितम् । (५)एवं ताई, विरोधः परिहर्त्तव्यः । उच्यते । वर्णानां पदार्थ-तत्-मंबन्धानां वाक्यानाचानित्यत्वं वैशेषिक-काणदादयोवर्णयन्नि(६), सान् प्रति
* इतरेषान्तु,-इति मु• पुस्तके पाठः । +दूरामेतम्, इति स० से. पुस्तकयोः पाठः ।
(१) "वेदांश्चैके सनिक पुरुघाख्याः" (मी० १५० १पा० २७ सू०) इत्य
स्मिनधिकरणे इत्यर्थः । (२) शारीरक-प्रथम-प्रथम-द्वितीयाधिकरण-प्रथमवर्णके। (३) सिद्धान्तयति नग्विति । (१) शारीरक-प्रथम-टतीयाटमाधिकरण। (५) पूर्वापरविरोधमुद्भावयति एवन्तोति ।
शब्दानित्यत्वञ्च वैशेविकदितीयाध्यायद्वितीयाडिक, न्याय-द्वितोगाध्याय-दितीयाङ्गिके च वर्णितम्। शब्दानामनित्यत्वे च तत्सम्बन्धस्य शब्दसमूहात्मकवाक्यस्य च सुतरामनित्यत्वम् , तदपि आत्मतत्त्वविधके न्यायकुसमाजली च स्परम् । पदार्थानां घटादीनामनित्यत्वच महत्र वर्णितम् । अत्र, वैशिधिककाणादादयः, इति पाठीलेखकप्रमादकत इति प्रतिभाति, कणादस्यैव वैशेषिकदर्शनकर्तत्वात् । किन्त
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१०४
पराशरमाधवः।
१०,आका।
मीमांसकाः प्रथम-पादे(१) कालाकाशादीनामिव वर्णानां नित्यत्वं वर्णयामासुः, “व्यवहारे भट्टनयः", इत्यभ्युपगमं* सूचयितुं देवताधिकरणे तदेव व्यावहारिक नित्यत्वं मृत्रितम् (२) । अतः कालिदामादिपन्थेविव(३) वेदेवाववोध-पूर्बिकायाः पद-विशेषावापाडापाभ्यां(४) प्रवत्तायाः वाक्य-रचनायाः अभावादपौरुषेयत्वं युतम् । ब्रह्म-विव
त्वं वियदादेवि वेदस्याप्यस्ति, इति मत्त्वा शास्त्र-योनिवाधिकरणे वेद-कर्तृत्वं ब्रह्मणेदर्शितम् । अतएव भट्टपादाः सत्यपि पुरुष-संवन्धे खातन्त्र निवारयामासुः,
___“यत्नतः प्रतिषेध्या नः पुरुषाणां स्वतन्त्रता" | इति । तस्मात्, "खतन्त्रः कती" (पा० ११० ४ पा० ५४ सू०) इत्यनेन लक्षणेन लक्षितः की न कोऽपि वेदस्थास्ति(५) ।
* इत्यभ्युपगति-इति मु० पुस्तके पाठः ।
सर्वत्र दर्शनात्तथैव रक्षितः, इति वाध्यम् । वैशेषिकोयः काणादः,
--- इति कथञ्चित् सङ्गमयितव्यम् । (१) मीमांसा-प्रथमाध्याय-प्रथमपादे। (२) व्यावहारिक वेदान्तमते, भट्टमते तु पारमार्थिकमेवेतिमन्तव्यम् । (३) कालिदासादिग्रन्थे यथा द्धिपूर्विकात्तिर्न तथा वेदे, इति
व्यतिरेके दृशान्तः। (8) यावापः पदान्तरानयनं उद्दापः पूर्वपदापनयः। पदपरित्तिरिति
फलितार्थः। (५) तथाच निःश्वासवदनायासेन वेदाः ब्रह्मणः सम्भूताः,-इति ब्रह्मणो
वेदकर्तुत्वव्यवहारः खातन्त्रालक्षमन्तु पारमार्थिक कर्तुत्वं नास्तीति सिद्धान्तार्थः।
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रया,या का•
पराशरमाधवः।।
१.५
'च'कारः तु-शब्दार्थ वर्तमानोवैलक्षण्यमाह ; सन्ति हि वहवश्वतुर्मुख-मनु-प्रभृतयः स्मृति-कारः, वेद-कता न कोऽपीति वैलनण्यम्। 'वेदं स्मृत्वा* इत्यत्र वाक्यों अनुषङ्ग-न्यायेन द्वितीयार्द्ध-गतं पदत्रयमन्तव्यम् । अनुषङ्ग-न्यायश,--(२)द्वितीयाध्याय-प्रथम-पाद वर्णितः। तथाहि,-ज्योतिष्टोम-प्रक्रियायाम् उपमदामुपहामेषु? चयोमन्त्राः श्रूयन्ते,–“यातेऽऽयाशया रजाशया हराया तनु चर्षिष्ठा गहरेष्ठा, उग्रं वचो अपावधीत् || त्वेषं वो अपावधीत् स्वाहा" इति । तत्र, 'प्रयाशया' 'रजाशया' 'हराशया' इति पद-भेदान्मन्तभेद:(२) । तत्र, प्रथम-मन्त्रस्य, तनूरित्यादि-वाक्य-शेषापेक्षाऽस्ति, चरम-मन्त्रः, 'यातेऽने'-दत्यमुंवाक्यादिम पेजते, मध्य-मन्त्रस्त्वाद्यतावपेक्षते । तचैवं मंशयः,-किमपेक्षितार्थ-परिपूरणाय लौकिक: कियानपि पद-मन्दीऽध्याहरणीयः, किं वा श्रूयमाणं पदजातम
* वेदं श्रुत्वा, इति मु पुस्तके पाठः । + अत्र 'पुरानाम'-इत्यधिकः पाठः मु० पुस्तके । 1 ज्योतियोमक्रियायाम,- इति मु० पुस्तके पाठः। ६ उपसदहामेधु,-इति स० सा० पुस्तकयाः पाठः। || इत्यमेव विसन्धिः पाठः सर्वत्र । एवं परत्र । ना मीमांसाभाष्ये तु 'यातेऽमेऽयाश्या तनुवर्षिष्ठा'--इत्यादि खाहान्तं
मन्त्रं लिखित्वा, पश्चात् , 'रजाशया' 'हराशया'-इति प्रतीक दयं लिखितम्।
(१) मीमांसायाः,-इत्यादि। (२) यातेऽऽयाण्या तनुर्घिष्ठा,-इत्यादिरेकोमन्त्रः, यातेऽने रजाशया
तनवर्धिष्ठा, इत्यादिईितीयः, यातेऽने रजापाया तनुवर्षिष्ठा,इत्यादिस्तृतीयः, इति विवेकः ।
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पराशरमाधवः।
बि०,या का ।
नुषचनीयम्? इति । वाक्यादे:(१) प्रथम-मन्त्रेणेव संबन्धात् वाक्यशेषस्य चरम-मन्त्रेणैव संबन्धात् लौकिकाध्याहारः, इति पूर्वः पक्षः । वैदिकाकाङ्गायाः सति सम्भवे वैदिक-शब्दैरेव पूरणीयत्वात् अन्यमन्त्र-संवन्धानामपि पदानां बुद्धिम्यत्वेनाध्याहार्येभ्यः पदेभ्यः प्रत्यामन्नत्वाच, अनुषङ्गाएव कर्त्तव्योनाध्याहारः, इति सिद्धान्तः । एवञ्च मति, प्रकृतेऽपि 'कल्पान्तरे धर्मान् स्मरति'-दति पदत्रयं पूर्वार्दूऽनुषचनीयम् । (२)चतुर्मुखम्तस्मिंस्तस्मिन् महाकल्पे परमेश्वरेण दत्तं वेदं स्मृत्वा, तत्र विप्रकीर्णन् वर्णाश्रम-धमान् मकलय्य स्मृति-ग्रन्थरूपेण उपनिवधाति। तथा च, पितामह-वचनानि तत्र तत्र निवन्धनकारैरुदाहियन्ते । चतुर्मुखस्य स्मृति-शास्त्र-कर्तृत्वं मनुनाऽप्युक्तम,
"इदं शास्त्रन्तु कृत्वाऽसौ मामेव स्वयमादितः ।
विधिवद्यायामाम मरीयादीनई मुनीन्" । इति। यथा चतुर्मुखः, तथैव च स्वायम्भुवोमनुः तस्मिन् तस्मिन्नवान्तर-कल्पे वेदोकधर्मान् ग्रनाति । मनु-ग्रहणेन, अत्रि-याज्ञवल्क्यविष्ण्वादयः उपलक्ष्यन्ते । तदेवं प्रतिमहाकल्प येन येन* चतुर्मुखेन, प्रत्यवान्तर कल्पञ्च तेस्तैमन्वादिभिः स्मृति-प्रणयनात्, धर्मादेः प्रवाहनित्यत्वं सिद्धम् । एतदेवाभिप्रेत्याश्वमेधिके पर्वणि पद्यते,
"युगेष्वावर्त्तमानेषु धोऽप्यावर्त्तते पुनः । धर्मेव्वावर्त्तमानेषु लोकोऽप्यावर्त्तते पुनः” ।
__* अत्र 'तेन तेन', इति पाठीभवितुं युक्तः । (१) वाक्यस्य य यादिभागम्तस्येत्यर्थः।
एतत् पदत्रयस्य पूर्वाई यनुघड़े कृते सति, या वाक्यार्थः सम्पद्यते, समार चतुर्मुख इत्यादिना।
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१अ.आ.का.1]
पराशरमाधवः ।
इति। युग-भेदेन धर्म-लक्षण्यमभ्युपेत्य, 'धर्मान्'-दति बहुवचन-निर्देशः ।।
तदेव वैलक्षण्यं प्रतिजानीते,अन्ये कृत-युगे धमास्त्रेतायां हापरे युगे*। अन्ये कलि-युगे तृणं युग-रूपानुसारतः ॥२२॥ इति। अत्र, अन्य-शब्दोन धर्मस्य स्वरूपान्यत्वमाचष्टे, किन्तु प्रकारान्यत्वम् । अन्यथा, धर्म-प्रमाण चोदनानामपि युग-भेदेन भेदापने:(१) । न हि, दयं चोदना कृतेऽध्येतव्या, इयन्तु चेतायाम्,इत्यादि व्यवस्थापकं किञ्चिदस्ति। प्रकारान्यत्वे त्वस्ति दृष्टान्तः । एकस्याप्यग्नि-होत्रस्य मायं-प्रातः-काल-भेदेन अनुष्ठान-प्रकार-भेदश्रवणात् । "छतं त्वा सत्येन परिषिञ्चामि" इति सायं परिषिञ्चति, सत्यं त्वर्नेन परिषिञ्चामीति प्रातः” इति । ननु, तत्रार्थवादेन मन्त्रः प्रकार-भेदेन उपपादितः ; “अग्निवा ऋतम्, अमावा
* परे,--इति मु० म० पुस्तके पाठः । ऽवरे, इति सो० मू० पुस्तके
पाठः । + धर्मप्रधान,-इति स. सो. पुस्तकयोः पाठः । + एकस्यामिहामस्य,-इति मु• पुस्तके पाठः । $ मन्त्रप्रकारभेद उपपादितः-इति स• सो पुस्तकयोः पाठः ।
(१) धम्मप्रमाण, इति हेतुगर्भविशेषणम् । चोदनागम्यार्थस्यैवधर्मत्वात्
धम्मस्य स्वरूपतोऽन्यत्वे चोदनाभेदस्यार्थसिद्धत्वादितिभावः ।
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१.८
पराशरमाधवः ।
धा.वा..
दित्यः सत्यम्, अग्निमेव तदादित्येन सायं परिषिञ्चति, अग्निनादित्यं प्रातः सह" इति । एवन्तईि, अत्रापि, 'युग-रूपानुसारतः'- इत्यनेन प्रकारभेदः उपपद्यते। युगानां स्वरूपमनुष्ठा-पुरुष-क्रि-तारतम्योपेतम्, तदनुसारेणानुष्ठान-वैषम्यं सम्भवति । “यथा शकुयात्, नथा कुर्यात्"-दूति नित्य-कर्मसु निर्णीतत्वात् । तथाहि, षष्ठाध्याये हतीय-पादे विचारितम् । “यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहुयात्"इति श्रूयते। तत्र, संशयःः किं सर्वाङ्गोपसंहारेणाधिकारः, उत, यदा यावन्ति भनोत्युपसंहर्तु, तदा तावद्भिरङ्गरूपेतं प्रधानं कुर्वन्नधिक्रियते? इति। माङ्गोपेतस्य प्रधानस्य फल-साधनत्वात् अङ्गवैकल्ये फलानुदयात् सोपसंहारः,-दति पूर्वः पक्षः। (१)अत्र हि जीवनमग्निहोत्रस्यैव निमित्ततया श्रूयते, नत्वङ्गानाम्, मति च निमित्ते नैमित्तिकमवश्यम्भावि, अन्यथा निमित्तत्वासम्भवात, ततो सक्याङ्ग-परित्यागेन प्रधानं कर्त्तव्यम, ताक्व शास्त्र-वशात् फलमिद्धिः, इति । वौधायनच* स्मरति,
"यथाकथञ्चिन्नित्यानि शक्त्यवस्थाऽनुरूपतः ।
येन केनापि कार्याणि, नैव नित्यानि लोपयेत् । इति । पुरुष-शनि-तारतम्य-कृतमनुष्ठान-वैषस्थमिति विवक्षया 'नृणाम'-इत्युक्तम् ॥
* बोधायनश्च, इति मु. पुस्तके पाठः । + शक्यवन्त्वनुरूपतः, इति स० स० पुस्तकयोः पाठः । शक्यबस्तुनि
रूपितः, इति तु तत्त्वकारधुतः । (१) सिद्धान्तमाह अत्र होति ।
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१अ.,या का।
पराशरमाधवः।
१०४
अथ, प्रतिज्ञातं वैलक्षायं षद्भिः लोकैरूपन्यम्यति । तत्र, चतुर्षु युगेषु प्राधान्येनानुष्ठातुं सुकरान् परम-पुरुषार्थ-हेतून धर्मान् विभजते,
तपः परं कृत-युगे चेतायां ज्ञानमच्यते । हापरे यज्ञमेवाहुः दानमेवा कलौ युगे ॥२३॥
इति । 'तपः' कच्छ-चान्द्रायणदि-रूपेण अशन-वर्जनम्। “तपोनानशनात् परम्" इति श्रुतेः। यद्यपि, दानस्थापि तपस्वं श्रूयते ;"एतत् खन्नु वाव तपइत्याहुः यः खं ददाति"-दति, तथापि, नात्र तद्विवक्षितम्, दानस्य पृथगुकत्वात् । ननु, व्यासेन तमोऽन्यथा स्मर्यते,
“नपः खधर्म-वर्तित्वं शौचं सङ्कर-वर्जनम्" । इति। नायं दोषः। कृच्छ्रादेरपि स्व-धर्म-विशेषत्वात् । “तप मन्ताप"-इत्यम्माद्धातोरुत्पन्नस्य तपःशब्दस्य देह-शोषणे उत्तिर्मुख्या। अतएव, स्कान्देऽभिहितम्,
"वेदोकेन प्रकारेण तथा चान्द्रायणादिभिः । शरीर-शोषणं यत्, तत् नपइत्युच्यते वुधः” ।
* ज्ञानमुत्तमम्, इति मे• मू. पुस्तके पाठः । + यज्ञमित्याजा, इति मु• पुस्तके, यज्ञमिन्यूचुः, इति मु• मू.
पुस्तके पाठः। दानमेकम्-इति मु० मू० पुस्तके पाठः ।
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११०
पराशरमाधवः ।
[१ब.,या.का.
इति । यत्तु तत्रैवोत्रम्,
"कोऽसौ मोक्षः, कथं, केन संभार प्रतिपन्नवान् ।
इत्यालोचनमर्थज्ञास्तपः शंसन्ति पण्डिताः” । इति । सोऽन्यएव तपः-शब्दः, "तप आलोचने" इत्यस्माद्धातास्तदुत्पत्तेः। तत् * तपोऽत्र ज्ञान-शब्देन संग्टहीतम् । 'पर' शब्दः प्राधान्येनानुष्ठेयतामाह। ताई, त्रेतादिषु तपोनाद्रियेत, ते च ज्ञान-यज्ञ-दानानि नाट्रियेरन्,-इति चेन्, न, इतर-व्यायत्ति-रूपायाः परिसंख्यायाः अत्राविवक्षितत्वात् । न खलु, इदानों कश्चिदनुछान-विधिः वकमुपक्रान्तः, येन विधि-विशेषः प्रोत(१) । भविष्यति तु “घट्-कर्माभिरतः” इत्यादिना तदुपक्रमः । युग-सामर्थ्य केवलमत्र निरूप्यते । यथा, 'वसन्ते पुष्प-प्राचुर्य ग्रामे सन्नाप-वाहुल्यम्' -इत्यादि ऋतु-मामर्थ्यम्, तथा कृतादि-सामर्थन तपत्रादिप्राचुर्य विवक्षितम् । अतएव, 'युगे युगे तु मामर्थम्' इति वक्ष्यति। मामर्थ-ज्ञान-प्रयोजनञ्चाभिधास्यते,
'तेषां निन्दा न कर्त्तव्या युग-रूपाहि ते विजाः'।
* तत्र.-इति मु. पुन्तके पाठः ।
(१) विधित्वस्याभावे तविशेषरूपायाः परिसंख्यायाः कुतः शङ्कति भावः ।
तथाहि,-अज्ञात-ज्ञापनं, प्रवृत्त्यङ्ग प्रमिति-जनकं, अभिधा-नामकपदार्थान्तर बोधकपद-टितं वा वाक्यं विधिः । स च त्रिविधः विधिनियमपरिसंख्याभेदात् । यत्रेदमुक्तम् । “विधिरत्यन्तमप्राप्तौ नियमः पाक्षिके सति । तत्र चान्यत्र च प्राप्तौ परिसंख्येति गीयते" .इति ।
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१५.,या का।
पराशरमाधवः।
इति । एतत्सामर्थं वृहस्पतिरपि दर्शयति,
“तपेोधर्मः कृत-युगे ज्ञानं त्रेता-युगे स्मृतम् ।
द्वापरे चाध्वरः प्रोक्रस्तिथ्ये (१) दानं दया दमः"। इति ॥
धर्मान् विभज्य तद्वत् प्रमाणानि विभज्यंतेकृते तु मानवाधास्त्रेतायां गौतमाः स्मृताः। हापरे शत-लिखिताः कलौ पाराशराः स्मृताः ॥२४॥ इति। (२)मानवादि-ग्रन्थोक-धर्माणां प्रचुर-प्रवृत्त्या ग्रन्थ-प्रामाण्यप्राचुर्य्यमर्थ-सिद्धम् ॥
धर्मवदधर्मास्यापि वकुमिष्टत्वात् (२) अधर्म-प्रापकं स्थान-विशेष हेयतया विभज्यते,त्यजेदेशं कृत-युगे चेतायां ग्राममुत्सृजेत् । हापरे कुलमेकन्तु कतारन्तु॥ कलौ यगे ॥ २५ ॥ * एतत् सामर्थ्य, इति स० मा पुस्तकयानास्ति । + विभजते,-इति स• सो० पुस्तकयाः पाठः। + मानवधिमः,-इत्येकवचनान्तपाठः मु० यू० पुस्तके एवं परत्र ।
पाराशरस्मतिः, इति सो०म० पुस्तके पाठः। ॥ कतारच, इति मु० मू० पुस्तके पाठः । (२) तिष्यः कलिः। (२) नन कृते तु मानवाधा इत्यादिना मानवादिधाणां कृतादिष
प्राचर्यमुक्तं तत्कथमयं प्रमाणविभागः इत्याशङ्याह मानवादीति । (३) धोयथा उपादेयतया वकुमियः, तथा अधाऽपि हेयतयेति
भावः।
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११२
पराशरमाधवः। [१०,या का । इति । पतितः प्राधान्येन यस्मिन्-एकेन राज्ञा परिपाल्यमाने ग्रामममूहात्मनि देशे निवसेत्, सर्दशः सोऽपि कृते सामर्थात् । अधमांपादकः । एवं ग्रामे योज्यम् । कुल-त्यागोनाम, पतितस्य कुले विवाह-भोजनाद्यप्रटनेः । कर्ट-त्यागः सम्भाषणादि-वर्जनम् ॥ त्याज्य-देशवत् निमित्तान्यपि त्याज्यानि विभजते,कृते सम्भाषणादेव: चेतायां स्पर्शनेन च । हापरे त्वन्नमादाय॥ कलौ पतति कर्मणा ॥२६॥
इति । कृतादिष्विव कलौ पतित-सम्भाषणादिना न स्वयं पतति, किन्नु वधादिना कर्मणा पतितेाभवति(१) ॥
महापुरुष-तिरस्कारादौ तदीय-शाप-परिपाक-हेतुं कालं विभजते,
* पतितः पुमान् यस्मिन् येन केन राज्ञा परिपालिते,-ति भु.
पुस्तके पाठः। + कृतसामर्थात्, इति मु० पुस्तके पाठः। f सम्भाषणात् पापं,-इति मु० मू० पुस्तके पाठः। ६ स्पर्शनात्तथा,-इति मो० मू. पुस्तके पाठः । चेतायाश्चैव दर्णनात् ,
-इति मु०० पुस्तके पाठः। || द्वापरे त्वर्थमादाय, इति तत्त्वकारधृतः पाठः ।
(१) कतारन्तु कलौ युगे, इत्यनेन कर्तुसंसर्गस्य निषिद्धत्वात तत्की
कलावपि पापी भवति, न तु पतितोभवति। पतनन्तु स्वयं कृतेन बधा दिकर्मणैवेति भावः।
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१२०,या का०] पराशरमाधवः । कृते तत्क्षणिकः* शापस्त्रेतायां दशभिर्दिनैः। दापरे चैक-मासेना कलौ संवत्सरेण तु ॥ २७॥ इति ॥
धर्मस्य तारतम्यापादकानि निमित्तानि विभजते,अभिगम्य कृते दानं चेतास्वाहय दीयते । दापरे याचमानाय सेवया दीयते कलौ ॥ २८॥ इति । यत्र प्रतिग्रहीता वर्त्तते, तत्र दाता स्वयं गत्वा गुरुमिव तमभिगम्य(१) कृते दानं करोति। चेतायां प्रतिग्रहीतारमाह्य तस्मै दीयते । 'नेतासु'-इति वहु-वचनं कृत-दापरादिषु जातावेकवचनमिति प्रदर्शनार्थम् (२) । द्वापरे स्वयमागत्य याचमानाय प्रतिग्रही। दीयते । कलौ न यात्रा-मात्रेण, किन्तु सेवया । वृहस्पतिरपि अमुं विभागमाह,
* तात्कालिकः,-इति सेा० स० पुस्तकयोः पाठः । कृते तु तत्क्षणा
छापः,--इति मु० म० पुस्तके पाठः।। + दापरे मासमात्रेण,-इति मु. म. पुस्तके पाठः। 1 संवत्सरेण तत्, इति सो० म० पुस्तके पाठः । 6 याचमानस्य,-इति से० म० पुस्तके पाठः।
(१) अभिगम्य विनयादिभिराराध्य । (२) कृतादीनां प्रत्येक बहूनामपि भेदस्याविवक्षितत्वादेकवचनम्। पवि
वक्षितभेदा व्यक्तिरेव हि जातिरित्याख्यायते। यत्रेदमुक्तम् । “अर्थकियाकारितया भिन्नाएव हि व्यक्तयः । ताएव व्यक्तयस्त्यक्तभेदाजातिरुदाहृता" इति। प्रकृत्यर्थतावच्छेदकवत्वसंबन्धेनैकत्वस्यादयः,इत्यपि वदन्ति ।
15
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पराशरमाधवः।
[ १०,का.का.
"कृते प्रदीयते गत्वा वेताखानीयते रहे ।
द्वापरे च प्रार्थयतः कलावनुगमान्विते" । इति ॥ निमित्त-कृतं तारतम्यं दर्शयति,--
अभिगम्योत्तमं दानमाहूयैव तु* मध्यमम् । अधमं याचमानाय सेवा-दानन्तु निष्कलम् ॥२६॥
दति । उत्तमत्वाद्यवान्तर-विशेष: पुराण-मारे फल-द्वारेणेपपादितः,
"गत्वा यत् दीयते दानं तदनन्त-फलं स्मृतम् । महस्र-गुणमालय याचितन्तु तदर्द्धकम् । अभिगम्य तु? यद्दानं यदा दानमयाचितम् ।
विद्यते सागरस्यान्तस्तस्यान्तानैव विद्यते"। इति ।
कलि-धमीणामस्मिन् ग्रन्थे प्राधान्येन वक्ष्यमाणत्वात् कलि-मामर्थं विशेषतः प्रपञ्चयति,
* माहतञ्चैव,-इति मु० मू० मो० मू पुस्तकयाः पाठः ।
अधर्म याच्यमानं स्यात् ,-इति मु० भ० पुस्तके, कनिष्ठं याचमानं
स्यात्, इति सेा० म० पुस्तके पाठः। + सेवया निष्फलं भवेत,-इति मो० मू० पुस्तके पाठः ।
अभिगभ्यन्त,-इति स. सो. पस्तकयाः पाठः। ।। दानेब्वयाचितम् ,-इति मु० पस्तके पाठः।
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ब,बा.का.)
पराशरमाधवः।
*जिताधौ धर्मेण सत्यञ्चैवाढतेन च । जिताश्चारैस्तु राजानः स्त्रीभिश्च पुरुषाः कलौ ॥३॥ सीदन्ति चामिहोत्राणि गुरु-पूजा प्रणश्यति । कुमार्यश्च प्रसूयन्ते तस्मिन् कलि-युगे सदा ॥ ॥ ३१ ॥ इति । अधर्मस्य जयोनाम, पाद-चयोपेतत्वम्(१) । एकेन पादेन वर्तमानत्वम् धर्मस्य पराजयः । तदाह वृहस्पतिः,
"तिथ्येऽधर्मस्त्रिभिः पादैर्धर्मः पादेन संस्थितः" ।। इति । सत्यानृतयोर्धर्माधर्म-रूपन्वेऽपि पृथगुपादानं धांधावुदाहत्य प्रदर्शनार्थम् । यावत् यावत् कलिविबर्द्धते, तावत्तावदधर्मेविबर्द्धते, इति विवक्षया चोराद्युदाहरण-बाहुल्यम्(२) । मदुकं विष्णुपुराणे,
"यदा यदा सतां हानिर्वेद-मार्गानुसारिणाम् । तदा तदा कलेब्वद्धिरनुमेया विचक्षणैः ।
• जित इत्यादि श्लोकात् पूर्वम्,-'कृते चास्थिगताः प्राणाः' इत्यादि
वक्ष्यमाणः लोकः पठाते मलपुस्तकदये । + जितः सत्यान्ट तेन च, इति मु. मू० पुस्तके पाठः । + चौरस्तु,-इति स० स० पुस्तकयोः, त्यस्त, इति मु• मू.
पुस्तके पाठः। 5 जिताः, इति मु०म०, सो० म० पुस्तकयाः पाठः । || अस्मिन् कलियुगे तथा,-इति से० मू० पुस्तके पाठः ।
(१) पादश्चतुर्थाशः। (२) तथाच, इदमपि उदाहरणप्रदर्शनार्थमेवेतिभावः ।
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पराशरमाधवः ।
[या०,०का.
म प्रीतिर्वेद-वादेषु पाषण्डेषु दया-रसः । तदा तदा कालेवद्धिरनुमेया द्विजोत्तमैः” ।
इति ॥
यदुकम्,'तपः परं कृत-युगे'-इत्यादि, तत्र, हेतुमाह,कृते त्वस्थि-गताः प्राणास्त्रेतायां मांसमाश्रिताः । बापरे रुधिरञ्चैव कलौ त्वन्नादिषु स्थिताः॥ ॥३२॥ इति । 'प्राण' शब्दोवायु-विशेष वृत्ति-पञ्चकोपेतं हृदयादि-स्थाननिवासिनमाचष्टे । प्राण-स्वरूपञ्च मैत्रेय-शाखायां विस्पष्टं श्रूयते । "प्रजापति एकोऽग्रेऽतिष्ठत्, म नारमतैकः, स श्रात्मानमभिध्यायन् वहीः प्रजाअसृजत, ताअश्मेवाप्रबुद्धाश्रप्राणा: स्याणुरिव मन्तिटमाना अपश्यत्, म नारमत, सोऽमन्यत; एतासां प्रतिवधिनायाभ्यन्तरं विशानि,-इति, स वायमिवात्मानं कृत्वाऽभ्यन्तरं प्राविशत्, र एकोनाशक्यत्, पञ्चधाऽऽत्मानं प्रविभज्योच्यते; यः प्राणोऽपान: समानउदानाव्यानः, इति, अथ योऽममूईमुकामयति एषवाव म प्राणः, अथ योऽयमवाञ्चं संक्रामति एषवाव सेोऽपानोऽथ योऽयं
* दया रतिः, इति स० स० पुस्तकयाः पाठः । । अयं श्लोकः, 'जिताधाह्यधर्मण'-इत्यादि श्लोकात् पूर्व पठाते
मू० पुस्तकदये। । मांससंहिताः,-इति मु• मू० पुस्तके पाठः । 5 बापरे गधिरं यावत्, इति मु० मू० पुस्तके, दापरे त्वग्गताः प्राणाः,
इति मो० म• पुस्तके पाठः। || कलावजादिध स्थिताः, इति मु. म. पुस्तके, कलौ रक्तगताः स्मृताः,
- इति मा. म. पस्तके याठः ।
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१२०,श्रा का
परापारमाधवः।
१९७
स्थविष्ठमन्न-धातुमपाने स्थापयति अणिष्ठञ्चाङ्गे ममं नयति एषवाव समानोऽथ योऽयं पीताशितमुगिरति निगरति एषवाव सउदानोऽथ ये नैताः शिरा* अनुव्याप्ताएषवाव स व्यानः, इति । अश्मेव पाषाणवदित्यर्थः । वाक्-चक्षुरादीनीन्द्रियाण्यपि प्राणाधीन-व्यापारत्वात् प्राण-शब्देन व्यवहियन्ते । अतएव छन्दोगाश्रामनन्ति ;"न वै वाचान चचूंषि न श्रोत्राणि न मनांसीत्याचक्षते प्राणइत्येवाचक्षते"-इति । तस्मात् -इन्द्रिय-वायु-समुदाय-रूपं लिङ्ग-शरीरं लोकान्तर-गमन-क्षम(१) प्राण-शब्देन विवक्षितम् । तच, अस्थि-मांसादि-मये स्थूल-शरीरे कर्म-रज्जुभिर्विवध्यते । तच्च वन्धनं तत्तयुगमामादस्थादिषु व्यवतिष्ठते । तथा च, कृच्छ्रचान्द्रायणादिषु अन्नाद्याहार-परित्यागात् । मांसाद्युपक्षयेऽप्यस्थ्यां सहसाऽनुपक्षयात् प्राणनामव्याकुलतेति कृत-युगे तपः सुकरम् । वेतादिषु मांसाधुपक्षयेण प्राणानां न्याकुलत्वात् तपोदुष्करम् ।
* सिरा, इति मु० पुस्तके पाठः । + कृच्छ्रचान्द्रयणाद्यर्थमाहारपरित्यागात्,-इति स. सो० पुस्तकयोः
पाठः।
(१) व्यापकस्यात्मनः लोकान्तरगमनादिलक्षणा क्रिया न सम्भवति,
तस्मात् लिङ्गपारीरलोकान्तरगमनादिनैव तस्य लोकान्तरगमनादिव्यपदेशः। उक्तञ्च, “पञ्चप्राणमनोबद्धिदशेन्द्रियसमन्वितम्। अपश्चीकृतभूतोत्थं सूत्माङ्गंभोगसाधनम्”-इति । शरीरं तावत् त्रिविधं लिङ्गशरीरापरप-यंमूक्ष्म शरीरमेकम् । स्थूलशरीरमपर परिदृश्यमानम्। अन्यच्च कारणशरीरमविद्यारूपमित्ये केषां दर्शनम्, अधिछानशरीरं स्थूलभूतानान्तरभेदसूक्ष्मभूतमयमित्यन्येषाम् । इहच प्रथमोक्तशरीरदयस्योपयोगइति मन्तव्यम् ।
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११०
परापारमाधवः।
ब०,था का।
यद्यपि, प्राणानां मांसाद्याश्रयेण ज्ञानादिषूपकार-विशेषोदुर्लभः, तथापि, तपसोऽसम्भवं वक्तुं तवर्णनम् १)। अतएव, कूर्मपूराणे, युगान्तराभिप्रायेण तपोऽन्तरं वर्णितम्,
"अहिंसा सत्य-वचनमानृशंस्यं दमोघृणा (१) ।
एतत्तपोविदुर्धारान शरीरस्य शेषणम्" । इति ॥ इदानीं युग-सामर्थ-वर्णनस्य प्रयोजनमाह,युगे युगे च ये धास्तत्र तत्र च* ये विजाः। तेषां निन्दा न कर्त्तव्या युग-रूपा हि ते विजाः ॥३३॥ इति । 'युग-रूपाः' युगानुरूपाः, काल-पर-तन्त्राः, इति यावत् । तरक्रमारण्य-पर्वणि,
"भूमिनद्योनगाश्चैते। सिद्धादेवर्षयस्तथा । कालं समनवर्तन्ते तथा भावायुगे युगे ।
* तेषु तेघु च, - इति सो० म० पुस्तके पाठः । + नगाः शैलाः, - इति स० स० पुस्तक्रयाः पाठः।
(१) यथा कृतयुगधर्मे तपसि प्राणानामस्थिगतत्वमुपयुज्यते, तथा त्रेतादि
युगधर्मेषु ज्ञानादिघ तेषां मांसादिगतत्वं नोपयुज्यते इत्याशवार्थः । ज्ञानादिष्वनपयोगेपि तपादीनामसम्भवे तदुपयोगोऽस्त्येवेतिनास
अतिरिति सिद्धान्तार्थः। (२) प्रान्तशंस्यमनेटुर्यम् , दमइन्द्रियनिग्रहः । घृणा दया ।
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११०,थाका
पराशरमाधवः।
कालं कालं समासाद्य नराणां नर-पुङ्गवाः ! ।
वल-वर्ण-प्रभावा हि* प्रभवन्युभवन्ति च” । इति ॥ नन्वेवं कलौ पापिनामनिन्द्यत्वात् कृत्स्नं धर्माधर्म-व्यवस्थापक-शास्त्र विप्लवेत । तथा हि;-'जितोधाह्यधर्मेण'-इति यरक्कम्, तत्र, “धर्म चर"-इति श्रूयमाणोविधिः पीडोत ;
"नास्ति सत्यात् परोधानानृतात् पातकं परम् ।
स्थितिहि मत्ये धर्मस्य तस्मात् मत्यं न लापयेत्” । इति राज-धर्मेक्रम, तच, अनृतस्यानिन्द्यत्वे वाध्येत ;
"अदण्ड्यान् दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् ।
अयशोमहदाप्नोति नरकञ्चैव गच्छति"। इति वचनं चोरस्यानिन्द्यत्वे वाध्येत ;
“स्त्रीभिर्भर्नुचः कार्य मेष धर्मः परः स्त्रियाः" । इति याज्ञवल्क्योकिः;
"भारं लवद या तु जाति-स्त्री-गुण-दर्पिता।
तां श्वभिः खादयेद्राजा संग्याने बहुसंम्थितः" । इति मनूनिः ; .
"परित्याज्या त्वया भाऱ्या भक्षुब्वेचन-लचिनी । तत्र दोषोन चास्तीति त्वं हि वेत्थ यथातथम् । सव-लक्षण-युक्तापि या तु भर्नुर्व्यतिक्रमम् ।
* वलवर्भप्रभावा हि, इति स. सो० पुस्तक याः पाठः । + भर्तवचः, इति स० मा० पुस्तकयाः पाठः । 1 संहितः, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१२०
पराशरमाधवः।
[११०,या का ।
करोति मा परित्याज्येत्येष धर्मः मनातनः" । इति ब्रह्मपुराणे महर्षोणामुक्तिः; तदिदमुक्ति-त्रयं स्त्री-जितस्य * अनिन्दायां वाधितं स्यात्; अच्छिद्र-काण्डे अग्निहोत्र-प्रायश्चिनं वहुधा श्रुतम् ; प्राश्वमेधिके पळणि चैवाप्यम्,
"होतव्यं विधिवद्राजन् ! जामिच्छन्ति ये गतिम् । श्रा-जन्म-मत्रमेतत् स्यादग्निहोत्रं युधिष्ठिर ! न त्याज्यं क्षणमप्येतद्ग्रहीतव्यं द्विजातिभिः । यदैतस्यां पृथियां हि किञ्चिदस्ति चराचरम् । तत् सर्वमग्रिहोत्रस्य कृते सृष्टं स्वयम्भुवा । नाववुध्यन्ति ये चैतनराम्तु तमसाऽऽताः ।
ते यान्ति नरकं घोरं रौरवं नाम विश्रुतम्" । इति; तदेतत्॥ श्रुति-दयमग्निहोत्रावसादस्थानिन्दायां बाध्येत;
"गुरोरनिष्टाचरणं गुरोरिष्ट-विवर्जनम् । गुरोश्च सेवाऽकरणं ज्ञानानुत्पत्ति-कारणम् । प्राचार्य-निन्दा-श्रवणं तहाधस्य च दर्शनम् (१) । विवादश्च तथा तेन ज्ञानानुत्पत्ति-कारणम्"।
* स्त्रीविजयस्य, - इति मु० पुस्तके पाठः। + अत्र, ग्रहीतव्यम् ,-इत्यशुद्धः पाठः सर्वेष्वेव पुस्तकेष ।
दिजादिभिः, इति मु° पुस्तके पाठः । 6 यतन्यं,-इति मु० पुस्तक पाठः। || तदेतत् ---इति मु० पुस्तके नास्ति ।
(१) बाधो बन्धनादि दुःखम् ।
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१., था. का।
पराशरमाधवः।
१२१
इति स्कान्द-पुराण-वचनम्, एतच्च गुरु-पूजा-प्रणाशस्य * अनिन्दायां बाध्येत;
"प्राप्ते तु दादर्णी वर्षे यः कन्यां न प्रयच्छति ।
मासि मामि रजस्त याः पिता पिवति शोणितम्" । पति यम-वचनम्,
"पितुर्महे तु या कन्या रजः पश्यत्य संस्कृता ।
भ्रूण-हत्या पितुस्सस्याः सा कन्या वृषली स्मृता" । इति वचनम्, तभयं कुमारी-प्रसवस्यानिन्दायां वाध्येत । ततः कथमनिन्दा ? इत्यत आह,-' युगे युगे तु सामर्थ्य शेषं मुनि-वि-भाषितम्।। पराशरेण चाप्युक्तं प्रायश्चित्तं विधीयते॥ ॥ ३४ ॥
इति । 'शेषम्' अवशिष्टं तत्तदयुग-मामर्थ्यं मुनिभिरन्यैर्विशेषेण भाषितम् । तथा चारण्य-पर्वणि पद्यते,
"कृतं नाम युगं श्रेष्ठं यत्र धर्मः सनातनः । कृतमेव न कर्त्तव्यं तस्मिन् काले युगोत्तमे ।
* गुरुशुश्रूषा प्रणापास्य, इति मु पुस्तके पाठः । + प्राप्ने हादपामे,-इति स० मा० पुस्तकयोः पाठः। । वचनम् ,इति मु• पुस्तके नास्ति । 5 युगसामर्थ्यविप्रेषु,-इति सेो मू० पुस्तके पाठः । !! मुनिभिभाषितम्, इति मु• मू० पुस्तके पाठः । * प्रधीयते,-इति मु. मू० पुस्तके पाठः ।
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१२२
पराशरमाधवः।
[९ख०,माका ।
न तत्र धाः सीदन्ति न जीर्यन्ते च वै प्रजाः । ततः कृतयुगं नाम कालेन गुणतां गतम् । कृते युगे चतुष्पादश्चातुर्वर्ण्यञ्च शाश्वतम् । एतत् कृतयुगं नाम त्रैगुण्य-परिवर्जितम् । पादेन यसतेऽधीरततां याति चाच्युतः । ज्ञान-प्रवृत्ताश्च नराः क्रिया-धर्म-परायणाः । ततोयज्ञाः प्रवर्नन्ते धर्माश्च विविधाः कियाः । स्व-धर्म-स्थाः क्रियावन्तो जनास्त्रेता-युगेऽभवन् । विष्णुः पीतत्वमायाति चतु वेदएवच । मत्यस्य भूरि विभ्रंशः सत्ये कशिदवस्थितः । मत्यात् प्रयवमानानां व्याधयोवहवोऽभवन् । कामाशापद्रवाश्चैव तथा दैवत-कारिताः । काम कामाः ह्यर्थ-कामायज्ञास्तन्वन्ति चापरे । एवं द्वापरमामाद्य प्रजाः क्षीयन्यधर्मतः । पादेनैकेन कौन्तेय! धर्मः कलि-युगे स्थितः । वेदाचाराः प्रशाम्यन्ते धायज्ञ-क्रियास्तथा ।
आधयोव्याधयस्तन्द्री-दोषाः क्रोधादयस्तथा(१)" । इति । तत्रैव
*इदं श्लोकाई मु. पुस्तके नास्ति । + सत्येनास्त्येव विभ्रंशसत्ये कश्चिदवस्थितः, इति मु. पुस्तके पाठः । (१) धाधिर्मानसी व्यथा । व्याधिः प्रसिद्धएव। तन्त्री निद्राप्रमीलयोरिति
कोषः।
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१.या०का.
. पराशरमाधवः ।
१२९
"ब्राहाणा: क्षत्रियावश्याः मंगिरन्ते * परम्परम् । रुद्र-तुल्याभविष्यन्ति तप:-मत्य-विवर्जिताः । स्वभावात् क्रूर-कर्माणशान्योन्यम् अविशङ्किताः ।
भवितारोनगः मर्चे मंप्राप्ने युग-मक्षये"। इत्यादि । ब्रह्म पुगणेऽपि,
"दीर्घ-कालं ब्रह्मा-चर्य धारण कमण्डलो: । गोचान्माद-मपिण्डात्तो विवाहेगो-वधस्तथा ।
नराश्व-मेधी मद्यञ्च काली वय द्विजातिभिः" । कपि,
"देवगच्च सुतोत्पनिर्दता कन्या न दौयने ।
न यज्ञे गो-वधः कार्य: कलौ न च कमण्डलः" । इति । पुगणेऽपि,
"ऊढ़ायाः पुनरुदाई जोष्ठांशं गो-वधन्तथा।
कलौ पञ्च न कुर्वीत भ्राट-जायां कमण्डल्लुम्" । इति । तथा, अन्येऽपि धर्मज्ञ-समय-प्रमाणकाः मन्ति,
"विधवायां प्रजोत्पत्तौ देवस्य नियोजनम् । वालिका-ऽक्षयोन्योश्च वरेणान्येन मरकृतिः । कन्यानामसवर्णनां विवाहश द्विजातिभिः ।
* संगिरन्तः,-इति मु. पुस्तके पाठः। + अभिकिन्ताः,-इति स० से० पुस्तकयाः पाठः । 1 सपिण्डान्वा,--इति ग्रन्थान्तरे पाठः । धनप्रमाणका:- ...इति सका. पुन्तकयाः पाठः ।
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५२४
पराशरमाधवः।
.,घा.का
(१)आततायि-दिजाय्याणां धर्म-युद्धेन हिंसनम् । दिजस्याध्वौ तु निर्याणं* शोधितस्यापि संग्रह(२) । सत्र-दीक्षा च सर्वेषां कमण्डलु-विधारणम्। महाप्रस्थान-गमनं गो-संज्ञप्तिश्च गो-मवे(२) । सौत्रामण्यामपि सुरा-ग्रहणस्य च संग्रह(४) । अग्निहोत्र-हवन्याश्च लेहोलीढ़ा-परिग्रह: (५) । वान-प्रस्थाश्रमस्यापि प्रवेशाविधि-चोदितः । वृत्त-खाध्याय-मापेक्षमघ-सङ्कोचनन्तथा(६)।
-
* दिजस्याध्वा तु ना-यातुः,-इति निर्णयसिन्धौ पाठः । + लीकालेह्या परिग्रहः, इति मु० पुस्तके पाठः ।
आततायिनच,-"अनिदोगरदश्चैव शास्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्र
दारापहारी च घड़ेते याततायिनः" इति स्म त्युक्ताः । (२) विजानां समुद्रयात्रा, समुद्रयात्रायां कृतायां प्रायश्चित्तशोधितस्यापि
संग्रहो व्यवहारः। (३) गोसंज्ञप्तिौबधः । गोसोयागविशेषः । (8) सराग्रहणं सुराग्रहः । (ग्रहः पात्रविशेषः)। तद्ग्रहणच, सुराग्रह
एहाति"-इत्यादिना सौत्रामन्यां विहितः। सरायणस्य तत्कर्तुः संग्रहः इति वाऽर्थः । अग्निहोत्रं इयते यया, सा घमिहोत्रहवनी वैकशातसुक् । तस्या अग्निहोत्रहवन्याहूतावशिरापाशनार्थ लेहनं लोकायाश्च तस्याः
परिग्रहः। (६) वृत्तममिहोत्रादि, खाध्यायोवेदाध्यायनम् । तत्सापेक्षमशौचहासः,
-"एकाहात्श्रुध्यते विप्रोयोमिवेदसमन्वितः"-इत्यादिना विहितः ।
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१५०,व्या का
पराशरमाधवः
१२५
प्रायश्चित्त-विधानश्च विप्राणां मरणान्तिकम् । संमर्ग-दोषः स्तेनाद्यैर्महापातक-निष्कृतिः (१) । वरातिथि-पिटभ्यश्च पहपाकरण-क्रिया(२) । दत्तौरसेतरेषान्तु पुत्रत्वेन परिग्रहः । सवर्णान्याङ्गना-दुष्टो* ममर्गः शोधितैरपि । अयोनी मंग्रहे रत्तो परित्यागोगुरु-स्त्रिया:(२) । अस्थि-मञ्चयनादूर्द्धमङ्ग-स्पर्शनमेव च(५) । शामित्रों चैव विप्राणां(५) माम-विक्रयणं तथा। षकानशनेनान-हरणं हीन-कर्मण: (६) ।
* सवर्णानां तथा दृयो,-इति मु० पुस्तके पाठः । + अयानी संग्रहोवित्ते,-इति मु• पुस्तके पाठः । सामित्र, इति स. सा. पुस्तकयोः पाठः।
(१) संसर्ग दोघतेयान्यमहापातकनिवतिः,-इति निर्णयसिन्धौ पठितं
व्याख्यातच; संसर्गटापत्तेयेतरमहापातकत्रये ब्रह्महत्या-सुरापानगुरुतल्पगमनरूपे ज्ञानकृते या निष्कृतिमरणरूपेति । उपाकरणमभिमन्त्रणपर्वकहननं तच्च ग्टह्योक्ते मधुयाख्यकर्मणि वरातिथये विचितम् । पिटभ्यश्चाएकादौ दिहितम् । अयोनौ शिध्यादौ । "चतमसु परित्याज्याः शिष्यगा"-इत्यादिना
तत्परित्यागोविहितः। (e) अस्थिसञ्चयनं मरणाच्चतुर्थाहादौ विहितम्। अइस्पर्णश्च तदुत्तरं
विहितः ।
शामित्रं यागे विहितम् शामितुः ऋत्विविशेषम्य कर्म । (8) चन्नाभावात् घडभतमनश्शतः “वभुक्षितस्त्राई स्थित्वा धान्यमबाहा
गाडरेत्"....इत्यादिना छान्नहरणं विहितम् ।
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१२६
पराशरमाधवः ।
[१च्य०,या का।
छद्रषु दास-गोपाल-कुलमित्रार्द्ध-सीरिणाम् । भोज्यानता, रहस्थस्य-तीर्थ-सेवाऽति दूरतः । शिष्यस्य गुरु-दारेषु गुरुवदृत्तिरीरिता*(१) । प्रापवृत्तिदिजाय्याणामश्वस्तनिकता तथा(१) । प्रजार्थन्तु विजाय्याणां प्रजाऽरणि-परिग्रह:(९) । ब्राह्मणानां प्रवासित्वं मुखाग्नि-धमन-किया(४) । वलात्कारादि-दुष्ट-स्त्री-संग्रहाविधि-चोदित:(५) । यतेस्तु सर्व-वर्णभ्यो भिक्षा-चर्या विधानतः ।
* गुरुववृत्तिशीलता,-इति निर्णयसिन्धौ पाठः । + यतेश्च सर्ववणेषु, इति निर्णयसिन्धौ पाठः ।
(९) नैष्ठिकब्रह्मचारिणोरारी परेते गुरुदारेषु गुरुववृत्तिर्मन्वादिभिः क
थिता। (२) यापदि सर्वतः प्रतिग्रहाऽनन्तरत्तिच ब्राह्मणानां विहिता । अश्व
तनिकता एकदिनमात्रनिर्वाहाचितधमत्वम् । श्वोभवं श्वलनं तदस्य पुरुषस्यास्ति,-इति मत्वर्थोयइकः । पश्चात् न समासः । अश्वस्तनि.
कत्वञ्च ब्राह्मणस्य "यश्वल्लनिकएव वा"-इति मन्वादिभिर्विहितम्। (३) जातकमहामे सन्ततिजीवनार्थमरणिपरियहः कस्याञ्चिच्छाखाया
मुक्तः । . (e) दारेवमिं निक्षिप्य सानिकानां प्रवासः कर्मप्रदीपादौ विहितः “निः
क्षिप्यामिं खदारेषु परिकल्प्य दिज तथा प्रवसेत् कार्यवान् विप्रः"इत्यादिना । तस्यैवात्र "ब्राह्मणानां प्रवासित्वम्"-इत्यनेन परामर्मः।
मुखामिधमनन, "मुखेनैके धमन्त्यामिम्"-इत्यनेन विहितम्। (५) बलात्कारादिदुरस्त्रीसंग्रहश्व, “वलात् प्रमथ्य भुक्ता चत्"-इत्यादि
ना विहितः।
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१५०,या का।
पराशरमाधवः ।
नवोदके दशाइञ्च दक्षिणा गुरु चोदिता(१) । ब्राह्मणादिषु शुद्रस्य पचनादि-क्रियापि च । भग्वग्नि-पतनाद्यैश्च वृद्धादि-मरणन्तथा(२) । गो-दप्ति-शिष्टे पयसि शिरीराचमन-क्रिया । पितापुत्र-विरोधेषु माक्षिणां दण्ड-कल्पनम् । यत्र-सायं-ग्रहत्वच* सूरिभिस्तत्त्व-तत-परैः (२) । एतानि लोक-गुप्त्यर्थ(५) कलेरादी महात्मभिः । निवर्तितानि कर्माणि व्यवस्था-पूर्वकं वुधैः ।
समयश्चापि(५) माधूनां प्रमाणं वेदवद्भवेत् । इति । (६)तदक्रमापस्तम्बे नापि,-"धर्मज्ञ-समयः प्रमाणं वेदाश्च"इति । एवमन्यदयुदाहार्यम् । यथा, मुनिभिस्तत्तत्-युग-सामर्थं विधि-निषेधाभ्यां विशेषेण भावितम्, तथा, विहितातिक्रम-निषिद्धाचरणयोः प्रायश्चित्तमपि चिरन्ननेन पराशरेणोक्तम् । पद्यन्ते हि वृद्ध पराशरस्य वचनानि,
• यतेः सायं एहस्थत्वं,-इति मु० पुस्तके पाठः । + तत्त्वर्षिभिः, इति निर्णयसिन्धौ पाठः । (१) नवोदके दशाहञ्च,-"दशाहेनैव शुध्येत भूमिष्ठञ्च नवोदकम्”
इत्यादिनोक्तम् । “गुरवे वरं दत्त्वा"-- इत्याद्युक्ता दक्षिणा । (२) एतच्च,-"रद्धः शौचस्मते लुप्तः प्रत्याख्यातभिक्रियः । यात्मानं
घातयेद्यस्तु”–इत्यादिना विहितम् । भगुमच्चदेशः । (२) “यवसायंगहोमुनिः" इत्यनेन विहितं यचसायंग्टहत्वम् । (0) गुप्तिः रक्षा। (५) समयः सम्बित् प्रतिज्ञा इति यावत् । (६) साधूनां समयस्य प्रमाणवमापस्तम्बेनाप्युक्तम् इत्यर्थः ।
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१२८
घराशरमाधवः ।
[ १०,या का।
"जराय-जाग्र-जाश्चैव जीवाः संवेद-जाश्च ये । अबध्याः सतएवैते बुधैः समनुवर्णितम् । निश्चयार्थं विबुद्धानां प्रायश्चित्तं विधीयते । अनस्थि-शतमेकन्तु* यदि प्राणैर्चियोजयेत् । उपाध्यैकाहमादध्यात् प्राणायामांस्तु षोड़शा । त्रि-स्नानमुदके कृत्वा तस्मात् पापात् प्रमुच्यते । अस्थिमवधेतु द्विगुणं प्रायश्चित्तं विधीयते । अनेन विधिना वाऽपि स्थावरेषु नसंशयः । कायेन पद्भ्यां इम्ताभ्यामपराधाद्विमुच्यते । चतुर्गुणं कर्म-कृते दिगुणं वाक-प्रदृषिते ।
कृत्वा तु मानसं पापं तथैवैक-गुणं स्मृतन्” । इति। 'च'कारो याज्ञवल्क्य-मन्वादि-समुच्चयार्थः । प्रसिद्धा हि तदीय-ग्रन्थेषु प्रायश्चित्ताध्यायाः । पराशर-ग्रहणन्तु कलि-युगाभिप्रायम् । सर्वेष्वेव कल्पेषु पराशर-स्मृतेः कलि-युग-धर्म-पक्ष-पातिवात् प्रायश्चिते स्वपि कलि-युग-विषयेषु पराशरः प्राधान्येनादरणीयः । अतः, पराशर-मन्वादि-प्रोत प्रायश्चित्तं तत्तत्-पाप-परिहाराय विद्वत्-परिषदा विधीयते । एतदुतं भवति,-नाना-मुनिभिस्तत्तद्-युग-सामर्थ्यस्य प्रायश्चित्तस्य प्रपञ्चित्वात् तभयं प-लोच्य
* यनस्थिमल्प मेकतु, इति मु० पुस्तके पाठः । + दादश, - इति स० स० पुस्तकयोः पाठः ।
अस्थिबन्धेष,-इति मु. पुस्तके पाठः । $ वाक्यदूषिते,-इति स० सो पुस्तकयाः पाठः ।
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१०,मा.का.
पराशरमाधवः ।
१२६
निन्दाऽनिन्दयोः* व्यवस्था कल्पनीया । यः पुरुषोयुग-सामर्थमनुसत्या विहितानुष्ठानं प्रतिषिद्ध-वर्जनं प्रमाद-कृत-पापस्य प्रायश्चितञ्च कत्तुं शकोऽपि न कुर्यात् , तद्विषयाणि,
“भ्रूण-हत्या पितुस्तस्य मा कन्या दृषली स्मना"। इत्यादि-निन्दा-वचनानि; अशक-विषयं तेषां निन्दा न कर्त्तव्या'इत्यादि वचनम् । अतएव शैवागमे पद्यते,
“अत्यन्त-रोग-युक्रेऽङ्ग राज-चौर-भयादिषु ।
गुर्जनि-देव-कृत्येषु नित्य-हानी न पाप-भाक्" । इति। तस्मात् न कोऽपि धर्माधर्म-शास्त्रस्य|विप्लव:-दति ॥
मनु, उन-प्रकारेण युग-मागर्थ्यस्याशेषस्थानेक-ग्रन्थ-परिचयमस्तरेण दुर्बोधत्वात् कथं मन्द-प्रज्ञानामकल्पायुषां युग-सामर्थ्यानुमारिणश्चातुर्वर्ण्य-समाचारस्य निर्णयः ? इत्यताह,
* निन्द्यानिन्दप्रयोः, इति स० से. पुस्तकयाः पाठः । + युगसामर्थ्यमनुस्मृत्य,-इति स• सो पुस्तकयाः पाठः ।
इत्यमेव सर्वत्र पाठः । ग्रन्थान्तरे तु "पितुस्तस्याः" इति पाठः । 5 सौरागमे, -इति स० से० पुस्तकयाः पाठः । ॥ धर्मशास्त्रस्य, - इति म० से० पुस्तकयाः पाठः ।
ET पूर्वप्रष्ठायाम्,-(१) 'नन्वेवं कलौ पापिनामनिन्दात्वात्'--इत्या
दिना सन्दर्भेण भूमिकायां यः पूर्वपक्ष उपक्रान्तः, तस्य सिद्धान्तमिदानीमाह रतदुक्तं भवतीत्यादिना ।
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पराशरमाधवः ।
.मा.का.
अहमद्यैव तत् सर्व* मनुसत्य ब्रवीमि वः । चातुर्वर्ण्य-समाचारं शृण्वन्तु मुनि-पुङ्गवाः! । ॥३५॥ इति । अनुस्मृत्यों सर्वस्य मंकलय्याभिधानात् मन्दानामप्येतत् सुग्ग-- हम् । 'अद्यैव'-इति काल-विलम्ब-निषेधात् अल्पायुषामप्यत्र ग्रन्थे निर्णयः सुलभः । चत्वारोवाचातुर्वर्ण्यम, तस्य समाचारोधर्मः । श्राचार-शब्दः शील-पर्यायः लौकिकं उत्तमाचष्टे(१) । समीचीनः शिष्टाभिमतत्राचारोयस्य धर्मस्य कारणत्वेन वर्त्तते, सोऽयं यजनयाजनादि-कर्म-लक्षणोधर्मः समाचारः । श्रतएव, प्राचार-धर्मयो हेतु-हेतुमद्र पेण भेदं वक्ष्यति; 'प्राचारोधर्म-पालकः' इति । श्रुतिय धर्माचारौ भेदेन व्यपदिशति ;-“यथाकारी यथाऽऽचारी तथा भवति" इति। श्रुत्यन्नरे च कर्म-वृत्तयोर्भदाबायते;"अथ, यदि ते कर्म-विचिकित्सा वा वृत्त-विचिकित्सा वा स्यात्" इति । यद्यपि,
'टणु पुत्र ! प्रवक्ष्यामि टण्वन्तु मुनि-पुङ्गवाः । इत्यप्रमत्तत्वं पूर्वमेव विहितम्, तथापि युग सामर्थ-प्रपञ्चनेन
* तहम्म,-इति स० से. मु० मू० पुस्तकेषु पाठः। तत्धम, इति
से मू० पुस्तके पाठः। + ऋषिपुङ्गवाः,-अति स० स० पुस्तकयोः पाठः ।
अनस्मृतस्य,-इति स० स० पुस्तकयाः पाठः।
(१) व चरित्रम् । लौकिकपदेन, “वह्मण्यता देवपिटभक्तता"-इत्यादि
हाराताधुशास्त्रीयशीलव्यवच्छेदः ।
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१५०,या.का.)
पराशरमाधवः।
९३६
व्यवहितत्वात् नदेव पुनः स्मार्यते । अथ वा, पूर्वानं युग-सामर्थश्रवण-विषयम्, ददन्तु धर्म-श्रवण-विषयम्,* इत्यपुनरुतिः ॥
वक्ष्यमाण-धर्म-जातस्यां परम-पुरुषार्थ-हेतुतां कैमुतिक-न्यायेन(१) अभिधातुं ग्रन्थ-पाठ-तदर्थ-ज्ञाने(२) प्रशंमति,पराशर-मनं पुण्यं पवित्रं पाप-नाशनम् । चिन्तितं ब्राह्मणार्थाय धर्म-संस्थापनाय च ॥३६॥
इति । पराशरण प्रक्रि ग्रन्थ-जातं 'पराशर-मतं', तच्च पाठ-मात्रए पुण्य-प्रदम् । पुण्यञ्च विविधम् , इष्ट-प्रापकमनिष्ट-निवर्त्तकञ्च । तदुभयं 'पवित्र-पापनाशन'-शब्दाभ्यां विवक्ष्यते । तदेव ग्रन्थ-जातं 'चिन्तितम्' अर्थताविचारितं मत् पूर्ववत् पुण्य-प्रदं भवति। अर्थविचारस्य प्रयोजनं वेधा,-खानुष्ठानं परोपदेशश्च । तदुभय 'ब्राह्मम'-इत्यादि-पद-दयेनोच्यते । ब्राह्मणम्यार्थाब्राह्मण्यनिमित्तं? खधर्मानुष्ठानमिति यावत् । 'धर्म-संस्थापनम्' परेषां धर्मोपदेशे
* इदन्तु श्रवणं धर्मविषयम्, इति मु० पुस्तके पाठः।
धर्मज्ञानस्य,-इति स० सो पुस्तकयाः पाठः । + पराशयं मतं,-इति सो० मू. पस्तके, पाराशरमतं,-इति मु.
मू० पुस्तके पाठः। 5 ब्राह्मणार्थोब्राह्मणनिमित्त, इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) कैमुतिकन्यायश्च,-"समवायश्च यत्रैषां तत्रान्ये बहवोमलाः। ननं
सर्व्व क्षयं यान्ति किमुतैकं नदीरजः” इति छन्दोगपरिशिष्वा
क्यादु यः। (२) द्वितीयादिवचनान्तं पदमिदम् ।
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परापारमाधवः ।
घा.का.।
नानुष्ठापनम् । यदा, ग्रन्थ-पाठ-तदर्थ-ज्ञानयोरपीदृशमहिमा, तदा किमु वक्तव्यम् ; अनुष्ठानं पुरुषार्थ-हेतुः.-इति(१)। युक्रञ्चैतत्, पराशरस्य पुलस्त्य-वशिष्ठ-प्रमाद-लब्ध-वरेण सर्व-शास्त्र-हृदयाभिजत्वात् । । तथा च, विष्णु-पुराणम्,
"वैरे महति मवाक्यात् गुरोरस्थाश्रिता क्षमा । त्वया, तस्मात् ममस्तानि भवान् शास्त्राणि वेत्स्यति । सन्ततेन समुच्छेदः क्रोधेनाऽपि यतः कृतः । त्वया, तस्मान्महाभाग ! ददाम्यन्यमहं वरम् । पुराण-संहिता-कती भवान् वत्स ! भविष्यति । देवता-पारमार्थञ्च यथाववेत्स्यते भवान् । प्रवृत्ने च निवृत्त च(२) कर्मण्यस्त-मला|| मतिः ।
मत्-प्रमादादसन्दिग्धा तव वत्म ! भविष्यति" । इत्याचार-काण्ड प्रथमाध्याये श्राचारावतारः समाप्तः ॥०॥
(॥ ग्रन्थानुक्रमणिका समाप्ता ॥) * अत्र, 'ब्राह्मणेत्यादिपदयारर्थः' इत्यधिकः पाठः स सो० पुस्तकयोः । + हृदयाभिज्ञत्वम्, इति मु० पुस्तके पाठः । । अत्र, 'इति'-इत्यधिकः पाठः मु. पुस्तके । स चासङ्गतः, परवचना. __नामपि विष्णुपुराणीयत्वेन मध्ये 'इति' प्राब्दस्यायुक्तत्वात् । ६ ममच्छेदः,-इति मु. पुस्तके पाठः।। || कर्मणि त्वमला,-इति म० सेा० पुस्तकयाः पाठः । (१) तदनेन कैमुतिकन्यायः प्रकृते समर्थितः, इति मन्तव्यम् । (२) कामनापूर्वकं क्रियमाणं काम्यं कर्म पूरीरप्रति हेतुत्वात् प्ररत्तं,
ब्रह्मज्ञानाभ्यासपूर्वक क्रियसाणं निष्काम कर्म संसारनित्तिसाधनत्वात् निवृत्तमुच्यते । तदुक्तं मनना । "इह चामुत्र वा काम्यं प्रदत्तं कर्म कोयते । निरकामं ज्ञानपळन्त निवृत्तमुपदिश्यते' इति ।
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१५.पा.का.1]
परापारमाधवः।
१३३
प्रथाचारोनिरूप्यते । यत् पृष्टम् -
'चातुर्वण्र्य-समाचारं किञ्चित् साधारणं वद' । इति, तरोत्तरमाइ,चतुर्णमपि वर्णानामाचारोधर्म-पालकः । प्राचार-भ्रष्ट-देहानां भवेधर्मः पराङ्मुखः ॥ ३७॥
इति । प्राचारस्थान्वय-व्यतिरेकाभ्यामहिकामुभिक-श्रेयोहेतुत्वम्, प्राचार-लक्षणञ्च, श्रामशासनिके पर्वण्यभिहितम्,
"आचारालभते ह्याय* राचारालभते श्रियम् । प्राचारात् कीर्तिमाप्नोति पुरुषः प्रेत्य(१) चेह च । दुराचारोहि पुरुषोनेहायुविन्दते महत् । ग्रसन्ति चास्य भूतानि तथा परिभवन्ति च । तस्मात् कुर्यादिहाचारं यदीच्छेद भूतिमात्मनः । अपि पाप-शरीरस्य प्राचारोहन्यलक्षणम् । आचार-लक्षणोधर्मः मन्तवाचार-लक्षणाः । माधूनाञ्च यथावत्तमेतदाचार-लक्षणम्” ।
* घायु,- इति मु० पुस्तके पाठः । + म सन्ति, इति स. पुस्तके पाठः। + यदिच्छेत्, इति मु० स० पुस्तकयोः पाठः ।
TV) प्रेव परलोके।
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पराशरमाधवः।
[१च.,या का।
इति । हारीतोऽपि स्मरति,
"माधवः क्षीण-दोषाः स्युः सच्छन्दः माधु-वाचकः ।
तेषामाचरणं यत्तु सदाचारः मउच्यते ॥ इति । मनुरप्याह
"तस्मिा देशे यत्राचारः पारम्पर्य्य-क्रमागतः ।
वर्णानां मान्तरालानां स सदाचारउच्यते"(१) । इति । मन्त: विष्टाः । तेषां स्वरूपमाह भगवान् बोधायनः । "शिष्टाः खल्लु विगत-मत्मराः निरहङ्काराः कुम्भी-धान्या:(२) अलोलुपाः दम्भ-दर्प-लोभ-मोह-क्रोध-विवर्जिताः" इति । श्रारण्यपर्वणि,
"अध्यन्तोऽनसूयन्तोनिरहङ्कार-मत्सराः । सृजवः शम-सम्पन्नाः शिष्टाचाराभवन्ति ते ।
* हताऽपि,-इति मु० पुस्तके पाठः । + यस्मिन् , - इति मु. पुस्तके पाठः। * मनुरप्याह- - इत्यादि, 'इति' इत्यन्तः पाठीमास्ति स. सो० पुस्त.
कया। $ बौधायनः, इति स० से. पुस्तकयाः पाठः । एवं सर्वत्र ।
(१) तस्मिन् देशे ब्रह्मावर्त्तदेशे। इदं हि पूर्वमुक्तम,-"सरखती-दृष.
इत्योर्दवनद्योर्यदन्तरम् । तं देव-निर्मितं देशं ब्रह्मावर्त प्रचक्षते"इति । पारम्पर्यक्रमागतो नत्विदानीन्तनः । अन्तरालाः सकीर्णः । 'वर्षनिवाहाचितधान्यादिधनः कुम्भीधान्यः, --- इति कुल्ल कभट्टः । 'कुम्भो उरिका, घाण्मासिकधान्यादिनिचयः कुम्भीधान्यका'-- इति मेधातिथिः।
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११०,या का।
पराशरमाधवः।
१३५
विद्य-वृद्धाः शुचयोरत्तवन्तोयशखिनः ।
गुरु-शुश्रूषवोदान्ताः शिष्टाचाराभवन्ति ते"। इति । अत्र, शिष्टानामभिमतोदया-दाक्षिण्य-विनयाद्यन्वितोवृत्तविशेषत्राचारः, इत्युकं भवति। म प्राचारः श्रौतं स्मार्तश्च धर्म पालयति । धर्म-विघातिनां नैपुण्य क्रोधादीनामभावात् । अमति त्वाचारे विरोधि-सद्भावात् धर्मएव न प्रवर्त्तते, कथञ्चित प्रत्तोऽपि परावर्त्तते। मोऽयं धर्म-पालकत्राचारचतुर्ण वर्णानां माधारणः । ननु, 'किञ्चित् माधारणं वद,' इति धर्मः पृष्टः प्रत्युत्तरवाचार-विषयम्, इति न सङ्गच्छते, इति चेत् । न, निमित्तनैमित्तिकयोराचार-धर्मयोरभेदस्य विवक्षितत्वात् ॥
इदानों ब्राह्मणस्यामाधारणं धर्म दर्शयति,
घट-कमर्माभिरतोनित्यं देवता-ऽतिथि पूजकः । हुत-शेषन्तु भुञ्जाना ब्राह्मणानावसीदति ॥३८॥
इति । यजन-याजनाध्ययनाध्यापन-दान-प्रतिग्रहाः षट् कर्माणि । तदाह मनुः,
"अध्यापनं चाध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहश्चापि षट् कर्माण्यग्र-जन्मनः" ।
* श्रौतं स्माधि,-इति स० सी० पुस्तकयो स्ति। + तत् कथञ्चित्, इति मु० युस्तके पाठः । मुनीयात्, इति मो० मू• पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः ।
एच.बा.का.।
इति । अत्राध्यापनं कुर्म-पुराणे प्रपञ्चितम् ,
"एवमाचार-सम्पन्नमात्मवन्तमदाम्भिकम् । वेदमध्यापयेद्धर्म-पुराणाङ्गामि नित्यमः । संवत्मरोषिते शिष्ये गुरु ममनिर्दिशन् । ग्रमते रष्कतं तस्य शिष्यस्य वसतोगुरुः । प्राचार्य-पत्रः शुश्रूषुजीनदोधार्मिकः चिः । प्राप्तः शक्रोऽर्थदः साधुः खोऽध्यायादश धर्मतः) । कृत-शश्च तथाऽद्रोही मेधावी एभ-कन्नरः ।
प्राप्तः प्रियोऽथ विधिवत् षड़ध्याप्याद्विजोत्नमः” । इति । विष्णुरप्याह,-"नापरीक्षितं याजयेत् नाध्यापयेत् नोपनयेत"इति । वशिष्टः,
विद्या हवे ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मां वधिस्तेऽहमस्मि । अमयकाथानृजवे शठाय
न मां ब्रूयावौर्यवती तथा स्याम्" ॥ इति । अध्यापने नियममाह यमः,
"मततं प्रातरुत्थाय दन्त-धावन-पूर्वकम् ।
खात्वा हुत्वा च शिष्येभ्यः कुर्यादध्यापनं मरः" । इति । मनरपि,
अध्येष्यमाणन्तु गुरुनित्यकालमतन्त्रितः ।
अधीष्व मो इति ब्रूयाद्विरामोऽस्विति वा रमेत् । (१) खः ज्ञातिः । तरते आचार्यपुत्रादयो दश अध्याप्याः ।
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११०,०का०]
पराशरमाधवः।
इति। अध्येव्यमाण: शिष्यः, तं प्रति वेदमुच्चारयिष्यन् प्रतिदिनमध्यापन-प्रारम्भे अतन्त्रितः,-"अधीच भोः" इति ब्रुवन्नारभेत, समाप्ता "विरामोऽस्तु"-दति बन्नुपरमेत ; ईश्वर-पौतयो । एतत् सर्वमभिप्रेत्य श्रुतिराह,-"अष्टवर्षे ब्राह्मणमुपनयोत तमध्यापयीत" इति ।
अत्र प्रभाकरोमन्यते,–'उपनयौत'-इति नयतेरात्मनेपदस्य श्राचार्य-करणे पाणिनिना मृत्रितत्वात्(१) उपनयनाध्यापनयोश्चाङ्गानिभावत्वेनैक-कर्टकत्वात् (२)आचार्यत्व-कामाऽध्यापनेऽधिकारौ। अतएव मनुना स्मयंते, -
"उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद्विजः ।
स-कल्यं म-रहस्यञ्च तमाचार्य प्रवक्षते" ॥ इति । एवं चाध्यापन-विधी सुस्थिते सत्यध्ययनस्य पृथग्बिधिर्न कल्पनीयोभविष्यति; विहितस्याध्यापनस्थाध्ययनमन्तरेणानुपपत्तेरध्ययनस्थार्थ-सिद्धत्वात्(३) । ननु, नाध्ययन-विधी कल्पना-दोषोऽस्ति,
* अध्येष्यमाणः शिष्यं प्रति,-इति मु० पुस्तके पाठः । नईश्वरप्रीतये,-इति नास्ति शा० पुस्तके ।
उपनयीत, इत्यादि,स्मर्यते,-इत्यन्तः पाठः स. सो पस्तकयार्भधः। (१) “सम्माननोत्सर्जनाचार्याकरण-ज्ञान-ति-विगणन-व्ययेषु नियः” (१५०
इपा० ३६ सू०) इति पाणिनिसूत्रम् । (२) "घवषं ब्राह्मणमपनीयत तमध्यापयोत" इति श्रुत्या तयोरेक
कर्ट कत्वमवगम्यते । तच्च तयोरङ्गाङ्गिभावमन्तरेण नोपपद्यते । बाणिभावस्य ह्यभावे इच्छया कश्चित् किञ्चित् कुर्यात् कश्चिञ्च किञ्चिदिति नैककर्टकत्वनियमः स्यात् । तथाचीपनयनमण अध्यापन
वाङ्गीति वक्ष्यमाणमनुवचनात् व्यक्तम् । (३) तथाच, बायत्त्या माणवकस्याध्ययनं लभ्यते, इति भावः ।
18
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पराशरमाधवः।
[१०,या का।
कृप्तस्यैव विधेः सत्त्वात् “खाध्यायोऽध्येतव्यः" इति श्रुतेः। मैवम्, अधिकार्यश्रवणेनास्थ विधेरनुष्ठापकत्वायोगात् । अयोच्येत,-विश्वजिन्यायेन रात्रिसत्र न्यायेन वाऽधिकारी परिकल्प्यता;-"विश्वजिता यजेत" इत्यत्र 'एतत्कामः'- इति (१)नियोज्य-विशेषणस्थाश्रवणादनुष्ठाना प्राप्ती स्वर्गस्य मारिष्यमाणत्वात्(२) मएव(२)तविशेषणत्वेन परिकल्पितः, एवमत्र वर्गकामोमाणवको(४) नियोज्योऽस्तु । रात्रिमत्रे,"प्रतितिष्ठन्ति हबै यएतारात्रीरुपयन्ति”* दूत्यर्थ-वाद-श्रुतायाः प्रति
* कल्पनादोषः स्यात्,-इति मु° पुस्तके पाठः । + तत्कामः, इति मु• पुस्तके पाठः । + मानबको,-इति स. से. पुस्तकयार्दन्त्यमध्यः पाठः । एवं परत्र ।
* प्रतितिष्ठन्तीह बा एते य एता राघोरपयन्ति, इति मु० पुस्तके पाठः । रापयन्ति, इत्यत्र रुपयजन्ति,-इत्यन्यत्र पाठः।
(१) नियुज्योऽधिकारी। कामनावानेव हि काम्ये अधिक्रियते इत्यतः तदि
शेषणीभूतायाः फलकामनायाः परिकल्पना यावश्यकी। (२) सर्वैरिष्यमाणत्वं फलान्तरमपरिकल्प्य खर्गस्य परिकल्पनायां विनि
गमकम् । तथाच जैमिनिसूत्रम् । “स खर्गः स्यात् सर्वान् प्रत्यविशिष्यत्वात्” (मी• 8अ श्या० १५ सू०) इति । स इति विधेय प्राधान्यविवक्षया पुंसा निर्देशः । खानियोन्यविशेषणं स्यात् सर्वान् पुरुषान् प्रति अविशेषात् । “सर्व हि पुरुषाः खर्गकामाः । कुतएतत् ? प्रीतिर्हि खर्गः। सर्वश्च प्रीतिं प्रार्थयते"-इति शावर
भाष्यम्। (२) यद्यपि 'कान्य कामान्वितेन च'-इत्यादि स्मरणात् वर्गकामनव
नियोन्यविशेषणं, तथापि वर्गकामनायानियोन्यविशेषणवे खोऽपि
सविशेषणतया भासते, इत्यभिप्रायेण 'सरव' इत्युक्तम् । (७) माणवकोऽनधीतवेदोवटुः । 'अन्चोमाणवको ज्ञेयः' इति मरणात् ।
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व ,धा का० ।
पराशरमाधवः ।
१३६
छायाः, अत्यन्तमश्रुतात्* खर्गतः प्रत्यासन्नतया, प्रतिष्ठाकामोऽधिकारी कल्पितः(१), एवमच, पयः-कुल्यादि-कामोऽधिकारी स्यात्,"यदृचोऽधीते पयसः कुल्याः अस्य पिढन् स्वधाअभिवहन्ति, यद्यषि घृतस्य कुल्याः,यत्मामानि सामएभ्यः पवते"-इत्यर्थवादात, इति । मैवम्, पयः-कुल्यादेब्रह्मयज्ञ-विधि-शेषत्वात्, माणवकस्याप्रबुद्धत्वेन खर्गकामत्वाऽसम्भवाञ्च(२)। कथञ्चित् सम्भवेऽप्यन्योन्याश्रयत्वं दुबारम् ; अधीते स्वाध्याये पश्चादध्ययन-विध्यवगमः, तदवगमे चाध्ययनम्,इति। तस्मात्, अध्ययनस्याध्यापन-प्रयुक्तत्वादध्यापनमेव विधीयते नाध्ययनम्(२), इति ।
तदेतद्गुरु-मतमन्ये वादिना न क्षमन्ते ; अनित्येनाध्यापनेन नित्य
* अत्यन्तमश्रुतत्वात्, इति स० सो पुस्तकयोः पाठः । + इत्यर्थबादस्तुतिरिति,-स. सो. पुस्तकयोः पाठः । # मन्यबादिना,-इति स० से० पुस्तकयोः पाठः।
(१) छत्र, “फलमात्रेयोनिर्देशादश्रुतौ ह्यनुमानं स्यात्" ( मी० 8 अ.
३ पा० १८ सू० ) इति जैमिनिसूत्रम् । रात्रिसत्रादौ अर्थवादनिर्दियमेव फलं स्यात्, फलस्यात्यन्तमश्रुतौ हि वर्गस्यानुमानमित्यात्रेय याचार्योमन्यते इति सूत्रार्थः । तथाच, न पयः कुल्यादेरध्ययनफलत्वकल्पनसम्भव इति रात्रिसत्रन्यायस्यानवकाशः। खर्गकामनाया असम्भावात् विश्वजिग्रायस्याप्य
(२)
नवकाताः।
(३) तथाच अध्यायनविधिनैवाध्ययनस्य लाभेन “खाध्यायोऽध्येतव्यः ".
इति श्रूयमाणवाक्यं विधित्वासम्भवानित्यानुवादरवेति गुरूणां सिद्वान्तः । एतच्च जैमिनीयन्यायमालाविस्तरे स्पष्ठम् ।
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परापूरमाधव:
१०,श्रा का
स्याध्ययनस्य प्रयोक्रुमशक्यत्वात्, अनित्यं चाध्यापमं जीवन कामस्य(१) तत्राधिकारात् । तदाह मनुः,
"षणान्नु(२) कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका ।
याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च प्रतिग्रहः" | इति। अध्ययनन्त नित्यम्, अकरणे प्रत्यवायस्य मनुना स्मृतत्वात् ;
"योऽनधीत्य दिजोवेदानन्यत्र* कुरुते श्रमम् ।
म जीवन्नेव शूद्रत्वमा गच्छति सान्वयः" ॥ इति । अतः स्व-विधि-प्रयुक्रमेवाध्ययनम् । न चान्योन्याश्रयः, अध्ययनात् प्रागेव सन्ध्या-वन्दनादाविव पित्रादि-मुखेन विध्यर्थावगमात्, पित्रादिभिर्नियमितत्वादेव माणवकस्य न अप्रबुद्धत्व-दोषोऽस्तिो । यद्यपि, तैत्तिरीय-शाखायाम,-"स्वाध्यायोऽध्येतव्यः” इति वाक्यस्य पञ्च-महायज्ञ-प्रकरणे पठितत्वाद् ब्रह्मयज्ञ-विधि-रूपता,तथाप्यशेषस्मतिषपनयन-पूर्वकस्थाध्ययनस्य प्रपञ्चामानत्वान्मूल-भूत-श्रुतिरनुमातव्या? । विवरणकारस्तु,-'अध्यापयोत' इत्यत्र णिजथस्य जीवनार्थत्वेन रागतः प्राप्तत्वात्, प्रकृतस्याध्ययनस्य विधेयतामभिप्रेत्य, “अष्टवर्षाब्राह्मण-उपगछत्माऽधीयोत"-इति वाक्यं विपरिणमथ्या उप
* वेदमन्यत्र,-इति ग्रन्थान्तरे पाठः ।। + पित्रादिनियमितत्वात् एवं माणब कस्य नाप्रबुद्धत्वे दोघोऽपि,-इति ० पुस्तके पाठः। 1 ब्रह्मयज्ञबिघिरयम्, इति म० पुस्तके पाठः।
श्रुतिरानुगन्तव्या,-इति स• सा० पुस्तकयोः पाठः । पाविपरीतान्योययादयामास,... इति स. सो० पुस्तकयोः पाठः। (१) जीवनं जीविका रत्तिरिति यावत् । (२) पखां यजनयाजनाध्ययनाध्यापनदानप्रतिग्रहरूपाणाम् ।
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१च्या, या का। पराशरमाधवः।
१४१ पादयामास(१) । सर्वथाप्यस्ति नित्यः स्वाध्यायाध्ययनस्य विधिः"स्वाध्यायोऽध्येतव्य" इत्येवमात्मकः श्रीतः । तथा स्मृतिरपि,
“तपोविशेषैर्विविधैर्ऋतैश्च विधि-चोदितैः ।
वेदः कृत्स्नोऽधिगन्तव्यः स-रहस्योदिजन्मना"(२) ।। इति । *अधिगतिरर्थ-विचार-पर्यन्तमध्ययनम् । तथा च कूर्मपुराणे, अध्ययन-तदर्थ-विचारयोरभावे प्रत्यवायः स्मर्यते,
"योऽन्यत्र कुरुते यत्नमनधीत्य श्रुतिं द्विजः । सवै मूढ़ोन सम्भाव्योवेदवाह्योदिजातिभिः ॥ वेदम्य पाठ-मात्रेण सन्तुष्टोवै भवेद्दिजः । पाठ-मात्रावसायी तु पङ्के गौरिव मीदति ॥ योऽधीत्य विधिववेदं वेदार्थं न विचारयेत् ।
समान्वयः द्र-समः पात्रतां न प्रपद्यते" ॥ इति । अध्ययनस्येतिकर्त्तव्यतामाइ याज्ञवल्क्यः,
“गुरुञ्चैवाप्युपासीत स्वाध्यायार्थं समाहितः । पाहतश्चाप्यधीयीत लब्धं चास्मै निवेदयेत् ॥
हितं चास्याचरेन्नित्यं मनोवाकाय-कर्मभिः" । * अधिगमि,-इति स० पुस्तके पाठः। (१) अध्यापयीत-इत्यत्र णिजोऽध्ययनप्रयोजकत्वं, तच्चाध्यापनपर्यवसितं।
अध्यापनस्य जीविकार्थत्वन्तु 'घरमान्तु कर्मणामस्य'-इति पूर्वोक्तमनुवचनात् व्यक्तम् । तथाच तस्य जीवनानुकूपव्यायारतया रागतः प्राप्तत्वात् न विधेयत्वं । किन्तु अप्राप्तस्याध्यनस्यैव । तथाच, 'अश्व ब्राह्मणमुपनयोत'- इत्यादिवाक्यं 'घश्वब्रिाह्मणउपगच्छत्' इत्या
दिविपरिणामेणोपपादनीयमिति विवरणकारस्याशयः । (२) रहस्यमपनिषत।
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१४२
परापूरमाधवः।
[१ब,धा का।
इति । विष्णु-पुराणेऽपि,
"उभे सन्ध्ये रविं भूप! तथैवानिं समाहितः । उपतिष्ठेत, तथा कुर्याइरोरप्यभिवादनम् ॥ स्थिते तिठेवजेत् याते नीचैरासीत चासने । शिथ्योगुरोर्नर-श्रेष्ठ ! प्रतिकूलं न मञ्चरेत् ॥ तेनैवोकः पठेद्वेदं नान्य-चित्तः पुरः-स्थितः । अनुज्ञातच भिक्षानमनीयात् गुरुणा ततः ॥ शौचाचारबता तत्र कार्य शुश्रूषणं गुरोः ।
व्रतानि(१) चरता ग्राह्योवेदश्च कृत-बुद्धिना" ॥ इति । कर्मेिऽपि,
"श्राहतोऽध्ययनं कुर्यादीक्षमाणे गुरोर्मुखम् ।
नित्यमुद्धत-पाणि: स्यात् साध्वाचारः सुसंयतः" ॥ इति । स्व-कुल-परम्पराऽऽगताया: शाखायाः पाठोऽध्ययनम् । तदाह वशिष्ठः,
“पारम्प-गतोयेषां वेदः स-परिहण:(२) ।
तच्छाखं कर्म कुर्चीत तच्छाखाऽध्ययनं तथा" । इति । स्व-शाखा-परित्याग एव निषेधति,
“यः स्व-शाखां परित्यज्य पारक्यमधिगच्छति ।
स शूद्रवहिः कार्यः सर्व-कर्मसु माधुभिः ॥ ___ * चासिते,- इति स. मा. पुस्तकयोः पाठः । (१) ब्रतानि तत्तद्देदभागाध्ययने विहितानि गोभिलाद्युक्तानि । (२) सपरिवंहणः अङ्गोपाङ्गतिहासादिसहितः ।
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९ख०,वाका०]
पराशरमाधवः ।
खीया शाखोज्झिता येन ब्रह्म तेनोझितं परम्।
ब्रह्मदेव म विशेयः मद्भिनित्यं विगर्हितः" ॥ इति । स्व-शाखाऽध्ययन-पूर्सकन्त्वन्य-शाखाऽध्ययनं तेनैवाङ्गीकृतम्,
__ "अधीत्य शाखामात्मीयां परशाखां ततः पठेत्"। इति । वेदवद्धर्म-शास्त्रमधीयीत । तदाह गृहस्पतिः,
"एवं दण्डादिकैर्युकं संस्कृत्य तनयं पिता । वेदमध्यापयेत् पश्चात् शास्त्रं मन्वादिके तथा ॥ ब्राह्मणोवेद-मूलः स्याच्छ्रुति-स्मृत्योः समः स्मृतः । सदाचारस्य च तथा ज्ञेयमेतत्तिकं सदा ॥ अधीत्यचतुरोवेदान् माङ्गोपाङ्ग-पद-क्रमान्(१) ।
स्मृति-हीनाः न शोभन्ने चन्द्र-हीनेव सर्वरी” ॥ इति । अत्र, अध्ययनेन पञ्चधा वेदाभ्यामः उपलचितः । तथाच दक्षः,
"बेद-खीकरणं पर्व विचारोऽभ्यसनं* जपः । ' तदानं चैव शिष्येभ्योवेदाभ्यासाहि पञ्चधा" ॥
* विचारोध्ययनं,- इति मु० पुस्तके पाठः । तपः-इति स. सो० पुस्तकयोः पाठः ।
(१) बङ्गानि,-"शिक्षाकल्पोव्याकरणं निरुक्तं ज्योतिघाचितिः। छन्दसा
विचितिश्चैव घडोगावेद इष्यते"-इत्युक्तानि। उपाङ्गानि पुष्पसूत्रादीनि । पदोग्रन्थविशेषः यत्र ऋचां पदानि पृथक् पश्यन्ते। क्रमोऽपि ग्रन्यविशेषः यत्र पूर्वपदं त्याला उत्तरपदमुपादीयते ।
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३४४
पराशरमाधवः ।
०,बाका.
इति । हारीतोऽपि,
“मन्त्रार्थ-ज्ञोजपन् जुहत्तथैवाध्यायन् दिजः ।
स्वर्ग-लोकमवाप्नोति नरकन्तु विपर्यये" ॥ इति । गुरु-मुखादेवाध्येतव्यं नतु लिखित-पाठः कर्नव्यः । तदाह नारदः,
"पुस्तक-प्रत्ययाधीतं नाधीतं गुरु-सन्निधौ।
भाजते न सभा-मध्ये जार-गर्भव स्त्रियाः" ॥ इति । अध्ययने वर्जनीयानाह मनुः,
"नाविस्पटमधीयीत न शूद्र-जन-सन्निधौ ।
न निशाऽन्ते परिश्रान्ता* ब्रह्माधीत्य पुन: स्वपेत्" । इति । नारदोऽपि,
"इस्त-हीनस्तु योऽधीते वर-वर्ण-विवर्जितः ।
ऋग्यजुः-सामभिद्दग्धोवियोनिमधिगच्छति" ॥ इति । व्यासोऽपि,- .
"अनध्यायेवधीतं यद्यच्च शूद्रस्य सन्निधौ । प्रतिग्रह-निमित्तं च नरकाय तदुच्यते” ।
॥ इत्यध्ययनाध्यापनयोः प्रकरणे ॥
--
--
* प्रतिश्रान्तो,- इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) वैदिकानां दिविधा अध्ययनप्रणाली वर्तते, हस्तखरकण्ठखरभेदात् ।
तदुभयविधखररहितमध्ययनमत्र निन्द्यते,--इति मन्तव्यम् ।
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१य०, आ०का० 川
प्रधानध्यायाः । तैच द्विविधा: ; नित्यानैमित्तिका । तत्र
नित्यानाह हारीतः, -
पराशर माधवः ।
" प्रतिपत्सु चतुर्हग्यामष्टम्यां पर्वणोर्द्वयोः । वोऽनध्यायेऽद्य शर्वय्यां नाधीयीत कदाचन" ॥
इति । नैमित्तिकानाह याज्ञवल्क्यः,
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"
"श्व- क्रोष्टु-गर्द्धभोलूक - साम-वाणार्त्त - निखने (१) । श्रमेध्य-शव-शूद्रान्त्य - श्मशान - पतितान्तिके ॥ देवात्मनि च विद्युत् स्तनित संघवे । भुक्वाऽऽर्द्रपाणिरम्भोन्तरर्द्धराचेऽतिमारुते ॥ पां वर्षे दिशां दाहे * मन्ध्या-नीहार-भीतिषु । धावत: पूर्ति - गन्धे च शिष्टे च गृहमागते || खराद्रयान- हस्त्यश्व-न-ना-वृक्षेरिण- राहणे (२) । सप्त-त्रिंशदनध्यायाने तांस्तात्कालिकान् विडुः” ॥
इति । अन्ये त्वनध्यायास्तत्र तत्र स्मर्य्यन्ते । तथाच नारदः"श्रयने विषुवे चैव शयने वाधने हरेः । श्रनध्यायस्तु कर्त्तव्योमन्वादिषु युगादिषु " ||
मांशु प्रवर्षेदिग्दाहे इति म० पुस्तके पाठः ।
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१४५
(१) सामनिखने ऋग्यजुघोरनध्यायोबोद्धव्यः । “सामध्वनावृग्यजुषी नाधीयीत कदाचन" इत्युक्तः ।
(२) ईरियां वालुकामयभूमिः ।
19
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१४६
पराशरमाधषः।
[१ब,या का।
इति । मन्वादयोमत्स्य-पुराणेऽभिहिताः,
"अश्वयुक्-एल-नवमी कार्तिके द्वादशी तथा । तृतीया चैत्र-मासस्य तथा भाद्र-पदस्य च ॥ फाल्गुनस्य त्वमावास्या पोषस्यैकादशी तथा । आषाढस्थापि दशमी माघमासस्य सप्तमी ॥ श्रावणस्याष्टमी कृष्णा प्राषाढस्यापि पूर्णिमा । कार्तिकी फाल्गुनी चैत्री ज्येष्ठी पञ्चदशी सिता।
मन्वन्तरादयश्चैते दत्त स्याक्षय-कारकाः॥" ॥ इति। युगादयोविष्णु-पुराणे वर्णिताः,T
"वैशाख-मासस्य च या**हृतीया नवम्यसौ कार्निक-एल-पचे। नभस्य मासस्य च कृष्णपक्ष
त्रयोदशी पञ्चदशी च माघे" ॥ । कूर्मपुराणे,
* ढतीयाचैवमाघस्य-इति स. मो० पुस्तकयो पाठः। • अयं पाठोग्रन्थानारेषु बहुषु दृष्यत्वादाहृतः। 'पुष्यस्यैकादशी तथा'
इतित्वादर्शपुस्तकेषु पाठः।। 1 तथा माघस्य सप्तमी,-इति ग्रन्थान्तरे पाठः। 5 तथाऽऽषाढस्य पूर्णिमा, इति ग्रन्थान्तरे पाठः। || मन्वन्तरादयस्वेतादत्तस्याक्षयकारिकाः, इति ग्रन्थान्तरता पाटा। ा वर्णिता,-इति नास्ति सः सेो. पुस्तकयोः। । ** सिता,-इति ग्रन्थान्तरीयः पाठः । # मिसपो-इति पाठो ग्रन्थान्तरता ।
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९ख०,बा.का.)
पराशरमाधवः ।
२४७
“उपाकर्मणि चोत्सर्गे(१) त्रिरात्रं क्षपणं स्मृतम् । अटकास त्वहोरात्रमृत्वन्नासुच रात्रिषु ।। मार्गशीर्ष तथा पाषे माघ-मासे तथैवच ।
तिसोऽटकाः ममाख्याताः कृष्ण पक्षे तु सूरिभिः" । इति । गौतमोऽपि,-"कार्तिकी-फाल्गुन्याषाढ़ी-पौर्णमासी तिस्रोऽष्टकाः चिरात्रम्",-इति। उक्र-पौर्णमासीरारभ्य चिरात्रम् । तथा तिस्रोऽटकाः सप्तम्यादयः, ताखपि त्रिरात्रमनध्ययनमित्यर्थः । पैठीनमिः,-"कृष्णे भवाः तिलोऽष्टकाः, मार्गशीर्ष-प्रभृतयः इत्येके"इति । श्रापस्तम्बस्तु, उपाकारभ्य मासं प्रदोषेऽनध्यायमाह,"श्रावण्यां पार्णमास्यामध्यायमुपाकृत्य मासं प्रदोषे नाधीयीत"इति । प्रदोष-शब्देनात्र पूर्व-रात्रिः विवक्षिता । त्रयोदश्यादिप्रदोषेष्वापे नाधीयीत । तथाच श्रादित्य पुराणम्,- "मेधा-कामस्त्रयोदश्यां सप्तम्याञ्च विशेषतः ।
चतुर्थाश्च प्रदोषेषु न स्मरेन च कीर्तयेत्” ॥ इति । चतुर्थादि-तिथि-विध्ये प्रजापतिः,
“षष्ठी च दादशी चैव अर्द्धरात्रोन-नाडिका । प्रदोषे नवधीयीत हतीया नव-नाडिका" ||
* पोर्णमासीति, -इति पाठः मु. पुस्तके। + अादित्य, इति नास्ति स० सो पुस्तकयोः ।
बहराग्योननाडिकाः, इति म० पुस्तके पाठः । (१) उपकामात्सा सह्याद्युक्तकमविशेधी अध्ययनारम्भसमात्योः
कर्तव्यो। परमेतो एहस्थादिभिरपि मन्त्राणामवामयाततार्थ प्रत्यब्दं कर्तव्यावित्यन्यत्र विस्तरः ।
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'परागारमाधवः।
[१०,या०का.
इति । याज्ञवल्क्योऽपि,
"यहं प्रेतेश्चनध्यायः शिष्यविंग्-गुरु-बन्धुषु । उपाकर्मणि चोत्मर्गे स्व-शाखे श्रोत्रिये तथा ॥ सन्ध्या-गर्जित-निर्घात-भू-कंपोल्का-निपातने(१) । समाप्य वेदं घु-निशमारण्यकमधीत्य च ॥ पञ्चदश्यां चतुर्दश्यामष्टम्यां राहु-सुतके । ऋतु-सन्धिषु भुत्वा च श्राद्धिकं प्रतिग्टह्य च ॥ पशु-मण्डूक-नकुल-श्वाहि-माजार-मूषिकैः ।।
कृतेऽन्तरे त्वहोरात्रं शक-पाते तथोच्छ्रये" ।। इति । मन गपि,
"चौररुपमुते ग्रामे सम्भमे वाऽग्नि-कारिते। श्राकालिकमनध्यायं विद्यात्मागुते() तथा" ॥
* ख-शाखाश्रोत्रिये मते,-इति म० पुस्तके पाठः । । भूषकः, इत्यादी पुस्तकेघु पाठः।
(१), निर्घातोल्के यथाक्रमम् ,-"यदान्तरीक्ष बलवान् मारतो मरुता
हतः । पतत्यधः स निर्घातो जायते वायसम्भवः" । "हच्छिखा च सूक्ष्माया रक्तनीलशिवाज्वला । पौरुषी च प्रमाणेन उल्कानानावि.
धास्मता" इत्युक्तलक्षणे । (२) "प्रकृतिविरुइमद्भुतमापदः प्राक् प्रबोधाय देवाः सृजन्ति" इति
वचनात्, "अतिलोभादसत्यादा नास्तिक्यादाऽप्यधर्मतः | नरापचारानियतमुपसर्गः प्रवर्तते । ततोऽपचाराब्रियतमपवर्जन्ति देवताः । ताः सृजन्त्यङ्गताम्तांस्तु दिव्य नाभसभूमिजान् । तरव त्रिविधालेाके उत्पाताः देवनिर्मिताः। विचरन्ति विनाशाय रूपैः सम्भावयन्ति
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१ अ,था का
परापारमाधवः ।
इति । कूर्म-पुगणे,
"श्लेष्मातकस्य छायायां शाल्मलेर्मधुकस्य च ।
कदाचिदपि नाध्येयं कोविदार-कपित्त्योः " । इति । उनानामप्यनध्यानामपवादमाह मनुः,- ...
"वेदोपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नित्यके ।
नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होम-मन्त्रेषु चैवहि" ॥ इति । वेदोपकरणान्यङ्गानि । नित्य-स्वाध्यायोब्रह्म-यज्ञ. । शौनकोऽपि,
"नित्ये जपे च काम्ये च क्रतो पारायणे ऽपि च ।
नानध्यायोऽस्ति वेदानां, ग्रहणे ग्राहणे स्मृतः” । इति । कूर्म-पुराणेऽपि,
"अनध्यायन्तु नाङ्गेषु नेतिहास पुराणयोः !
न धर्म-भात्त्रेश्चन्येषु पर्वण्येतानि वर्जयेत्” । इति ।
॥०॥ इत्यनध्यायप्रकरणं ॥०॥ पूर्वमध्ययनाध्यापने सेतिकर्त्तयते तिरूपिते, अथ यजन-याजने निरूपयामः ।
* नेत्यिके,-इत्यन्यत्र पाठः। + तथा, -- इति स० मे० पस्तकयोः पाठः। + इतिकर्तव्यल्वेन,-- इति म० पलके पाठः ।
च" ---इत्युक्तेश्च आपज्ज्ञानाय देवककाभूम्यादीनां स्वभाव प्रात्रे, उद्भत अति जयम्।
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१५.
पराशरमाधवः।
[९ख०,या का।
तत्र, यजनस्य सृष्टिं प्रयोजनं चाह भगवान्,
"सह-यज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाच प्रजा-पतिः । अनेन प्रसविध्यध्वमेष वाऽस्विष्ट-काम-धुक् ।। देवान् भावयतानेन ते देवाभावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवास्यथ ॥ दृष्टान् भोगान् हि वादेवादास्यन्ते यज्ञ-भाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायेभ्योयोभुते स्तेनएव सः" ॥ इति । तस्य च यजनस्य साविक-राजस-तामम-भेदेन वैविध्यं मएवाह.
"श्र-फलाकांक्षिभिर्यज्ञोविधि-दृष्टोयदूज्यते । यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय म मात्विकः ॥ अभिसमाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् । इज्यते भरत-श्रेष : तं यज्ञं विद्धि राजमम् ॥ विधि-हीनमसृष्टान्नं भन्न-हीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धा-विरहितं यज्ञं तामम परिचक्षते" ॥ इति । श्राश्वमेधिके पर्वणि द्विजादि-सृष्टे* यज्ञार्थत्व-प्रतिपादनेन यज्ञः प्रशस्थते,
"यजनार्थ विजाः सृष्टास्तारकादिवि देवताः । गावोयज्ञार्थमुत्पन्नादक्षिणार्थ तथैवच ॥
सुवर्ण रजतं चैव पात्री कुम्भार्थमेवच । * द्विजातिहट, इति स० मा० पुस्तकयोः पाठः ।
प्रसूयते,-इति स. सो. पा. पुस्तकेष पाठः। 1 पात्रं,- इति मु. पुस्तके पाठः।
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१०,०का.
पराशरमाधवः ।
दभार्थमथ यूपार्थं ब्रह्मा चक्रे वनस्पतिम् ॥
ग्राम्यारण्याश्व पशवो जायन्ते यज्ञकारणात्" । इति । हारीताऽपि, अन्नय-व्यतिरेकाभ्यां यज्ञ-महिमानं दर्शयति;
"यजेन लोकाविमलाविभान्ति, यशेन देवाः अमृतत्वमाप्नुवन् । यजेन पापर्वहुभिर्विमुकः,
प्राप्नोति लोकानमरस्य विष्णोः ।। नास्त्ययज्ञम्य लोकाचे नायज्ञोविन्दते शुभम् ।
अनिष्ट-यज्ञोऽपूतात्मा भ्रश्यति* छिन्न-पर्णवत्" ॥ इति। यज्ञ-विशेषास्वग्नि-होत्रादयः । तथाच श्रूयते,-"प्रजापतियज्ञानसृजतामि-होत्रं चामि-टोमञ्च पौर्णमानौं चोक्थ्यं चामावास्यां चातिरावं च"-इति । अग्नि-होचादीनां संकृतैरनिभिः माध्यत्वात्तत्-संस्कारकमाधानमादावनुष्ठेयम् । तत्र प्रजापतिः,
"सर्वयज्ञाधिकारी स्थादाहितामर्धिने मति । आदध्यानिर्धनोऽप्यनोन् नित्यं पापभयात्|| विजः” ॥
* नश्यति, इति स• मो० पुस्तकयोः पाठः । + मयते,-इति म• पुस्तके पाठ ।। सर्वसंस्थाधिकारः स्यादाहितामेर्धनेसति, इति म० पुस्तके पाठः । ॥ पापक्षयात्, इति स० से० पुस्तकयोः पाठः।।
११) "ग्राम्यारण्याश्चतुर्दश। गौरविरजोऽत्रोऽश्वतरोगर्दभोमनुष्याति
सात ग्राम्याः पशवः । महिष-वानर-ऋक्ष-सरीसृप-गरु-एषत-म्टगाश्चेति समारण्या पशवः" इति पैठिनसिवचनमत्र मर्तव्यम् ।
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पराशरमाधवः।
१५२
१०, बा,का। इति । प्रकरणे प्रत्यवायः कूर्म-पुराणे दर्शिनः,*
"नास्तिक्यादथवाऽऽलस्याद्योऽमीन्नाधातुमिच्छति । यजेत वा न यज्ञेम स याति नरकान् वहन् । तस्मात्मर्व-प्रयत्नेन ब्राह्मणोहि विशेषतः ।
आधायाग्रीन विद्धात्मा यजेत परमेश्वरम्" । इति। श्रुतिश्च, कालादि-विशिष्टमाधानं विधत्ते,–“वसन्ने ब्राह्मणोऽग्निमादधीत ; वमन्तोवै ब्राह्मणस्यर्तुः, स्खएवैनमृतावाधाय ब्रह्मवर्चसी भवति, ग्रोभे राजन्यश्रादधीत ; ग्रोमोवै राजन्यस्यतुः, स्वएवैनमृतावाधाय इन्द्रियवान् भवति, शरदि वैश्यवादधीत ; शरदै वैश्यन्यतः, खएवैनमृतावाधाय पशुमान् भवति", इति । श्राश्वमेधिकेऽपि,t
“वमन्ते ब्राह्मणस्य स्यादाधेयोऽमिनराधिप ! वसन्तोब्राह्मणः प्रोक्रोवेद-योनिः मउच्यते ॥ अग्न्याधान? तु येनाथ वमन्ते क्रियते नृप ! । तस्य श्रीब्रह्मरद्धिश्च ब्राह्माणस्य विवर्द्धते ॥ क्षत्रियस्यामिराधेयो यौमे श्रेष्ठः स वै॥ नृप! । येनाधानन्तु वै यौमे क्रियते तस्य वर्द्धते ॥ श्रीः प्रजाः पशवश्चैव वित्तश्चैव वलं यशः ।
* दतिः ,-इति नास्ति स. सो. पुस्तकयोः । + इन्द्रियावी,-इति मु. पुस्तके पाठः ।। अिाश्रमेधिकेपर्वणि,-इति म. पस्तके पाठः। F अन्धाधेयं, इति मु० पुस्तके पाठः । ॥ श्रेष्ठम्य वै,-इति स० सा• पुस्तकयोः पाठः ।
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रघा,श्या का
पराशरमाधवः।
१५३
भरत्-काले तु* वैश्यस्याप्याधानीयोहताशनः ॥ भरद्रात्र स्वयं वैश्योवैश्य-योनिः मउच्यते । शरद्याधानमेवं वै क्रियते येन पाण्डव ॥
तस्य श्री: वै प्रजाऽऽयुश्च पशवोऽर्थश्च व ते"। इति । श्राधान-पूर्वकाश्च यज्ञाः, दर्शादयः । तथाच वशिष्ठः,-"अवश्यं ब्राह्मणोऽमीनादधीत, दर्श-पूर्णमामाग्रयणेष्टि-चातुर्मास्यैः परमामैश्च? यजेत" इति। हारीतोऽपि,
“पाक-यज्ञान् यजेन्नित्यं इविर्यज्ञांस्तु नित्यशः ।
सौम्यांस्तु विधिपूर्वेण यदच्छेत् धर्ममव्ययम्॥” । इति। ते च गोतमेन" दर्शिताः,-"अष्टका पार्वण-श्राद्धं श्रावण्याग्रहायणी चैव्याश्वयुजीति सप्त पाक-यज्ञ-संस्थाः, अग्न्याधेयमग्निहोत्रं दर्श-पूर्णमामावाग्रयणं चातुर्मास्यं निरूढ़-पशु-वन्धः मौत्रामणीति सप्त इविर्यज्ञसंस्थाः, अनिष्टोमात्यग्निष्टोमउक्थ्यः षोड़शी वाजपेयोऽतिरात्रोप्तोर्यामः इति सप्त सेमि-संस्थाः” इति । अपरांस्तु महायज्ञ-क्रवन् देवलोदर्शितवान्,-"अश्वमेध-राजसूय-पौण्डरीक
* शरद्राथ, इति स० मो• पुस्तकयोः पाठः । + शरदात्रि,--इति मु° पुस्तके पाठः । | तस्यैव श्रीः प्रजायुश्च,-इति मु. पुस्तके पाठः । $ सोमांच,-इति स० स० पुस्तकयोः पाठः । || ब्रह्मचाव्ययम,-रति स० सो पुस्तकयोः पाठः । १. गौतमेन,- इति स० मो० पुस्तकयोः पाठः । एवं सर्वत्र।
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१५४
पराशरमाधकः।
[१०,या का०
गोमवादयोमहायज्ञाः-तवः" इति । एते सर्च यज्ञाः यथायोग नित्य-नैमित्तिक-काम्य भेदेन विविधाः;
“नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं कर्म पौरुषम्"। इति मदालसातः। तत्र, यज्ञानां नित्यत्वं बाथर्वणशाखायां श्रूयते,"मन्त्रेषु कर्माणि कवयोयान्यपश्यंस्तानि त्रेतायां वहधा सन्ततानि, तान्याचरथा नियतम्" इति । राजसनेयि? शाखायामपि,
___ "कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत समाः”। इति । “एतदै जरामर्यमग्निहोत्रं जरसा वा वास्मान्मुच्यते मृत्युना च"-इति च । विधि-वाक्येषु च जीवनाथुपवन्धस्तु नित्यत्व-लक्षकं । तथा|| "यावजीवममिहोत्रं-जुहुयात्" "यावज्जीवं दर्श-पौर्णमासाभ्यां यजेत”-इति । प्रकरणे प्रत्यवायश्च नित्यत्व-गमकः । तथाचार्वणे श्रूयते,-"यस्थाननिहोत्रमदर्श-पौर्णमासमनाग्रयणमांतथिवर्जितं बाहुतमवैश्वदेव* भविधिना इतमासप्तमांस्तस्य लोकान् हिनस्ति” इति । तथाच श्रुत्यन्तरम्,–“यस्य पिता पितामहोबा सामं न पिवेत्, स ब्रात्यः" इति । जीवन-कामना-व्यतिरिक्त-रह-दाहाधनियत-निमित्तमुपजीव्य प्रवत्तं नैमित्तिकम्। तथाच श्रुतिः,
* महायज्ञक्रतवः,---इति स०स० पुस्तकयोः पाठः ।
कुथुममाखायां,-इति स० स० शा पुस्तकेषु पाठः । + तान्याडरथ,-इति मु. पुस्तके पाठः । 5 राजसनेय,-इति मु० पुस्तके पाठः । पा अत्र, नित्यत्वलक्षकः, इति पाठो भवितुं युक्तः । ।। अत्र, यथा,-इति पाठो भवितुं युक्तः । * चाहतवैश्वदेव,- इति म० एस्तके पाठः ।
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५०,या का.
पराशरमाधवः ।
“यस्य ग्रहं दहत्यमये क्षामवते पुरोडाशमष्टाकपालं निपेत्"इति। कामनया प्रवृत्तं काम्यम्। तद्यथा “वाययं श्वेतमालभेत भृतिकामः, वायुर्वे चेपिष्ठा देवता"-इत्याद्याः काम्यपशवः ; “ऐन्द्राममेकादश-कपालं निर्वपेत् प्रजा-कामः' इत्याद्याः काम्येष्टयः"(१) तर, काम्यानां कामितार्थ-मिद्धिः फलम्। नित्य-नैमित्तिकयोस्तु यथाविध्यनुष्ठितयोरिन्द्र लोक-प्रापकत्वमाणे श्रूयते,
"काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता याच सुधूम्र-वर्णा । स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना। इति सप्त जिहाः ।। एतेषु यश्चरते धाजमानेषु यथाकालं चाहुतयोाददायन्। तं नयन्येता सूर्यास्य रसयायत्र देवानां पतिरेकोऽधिवामः ॥ एोहोति तमाहुतयः सुवर्चसः सूर्यस्य रश्मिभिर्यजमानं वहन्ति । प्रियाञ्च वाचमभिवदन्न्योर्चयन्य
एषवः पुण्यः सुकृतोब्रह्मलोकः" ॥ * चापि,-इति म० पुस्तके पाठः।
लेलीयमाना,-इति मु० पुस्तके पाठः । + देवानामतिरेकोऽधिवासः, इति स मो. शा. पुस्तकेघु पाठः । (१) इटिपश्वोर्भेदश्च,-"इपिस्तु चरणा यागः पशुस्तु पशु नास्मृतः । एत.'
छषः क्रतुः प्रोक्तो होमोन्यत् पूजनं स्मृतम्" इत्युक्तदिशायिसेयः ।
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१५६
परापारमाधवः ।
ग्रा.का.
इति। श्रानुशासनिकेऽपि,
"सु-द्वैर्यजमानैश्च ऋत्विम्भिश्च तथाविधैः । शुद्धैर्द्रव्योपकरणे १)र्यटव्यमिति निश्चयः ॥ तथा कृतेषु यज्ञेषु देवानां तोषणं भवेत् । तुष्टेषु देव-संघेषु यज्ञी यज-फलं लभेत् ।। देवाः सन्तोषितायझेलीकान् मम्बईन्यत । उभयोकियोर्देवि, भूतियज्ञैः प्रदृश्यते ॥ तस्माद्यज्ञादिवं यान्ति अमरैः सह मोदते । नास्ति यज-ममं दानं नास्ति यज्ञ-समाविधिः ॥
भव-धर्म-ममुद्देशोदेवि, यज्ञे समाहितः" । इति ।यदि कथञ्चिन्नित्य-कर्माणि नुप्येरन्, तदा तत्समाधानमाह प्रजापतिः,
"दर्शञ्च पूर्णमासञ्च लुप्वाऽथोभयमेव वा। एकस्मिन् कृच्छ्र-पादेन इयोरर्द्धन शोधनम् ॥ हविर्यज्ञेष्वशकस्य लुप्तमप्येकमादितः । प्राजापत्येन शुद्ध्येत पाक-मस्यासु चैव हि॥ मन्ध्योपासन-हानौ तु नित्य-स्नानं विलोप्य च*।
होम नैमित्तिक, येद् गायव्यय-सहस्र-कृत् ॥ * नित्यक्षानं तु लोप्य च, इति स० से० पुस्तकयाः, लाप्य वा,-- रति शा० पुस्तके पाठः । (१) शुद्धञ्च द्रव्यम,-श्रुत-शार्य-तपः-कन्या-शिष्य-याज्यान्वयागतभ । धनं
सप्तबिधं शुद्ध मुनिभिः समुदाहृतम्" - इत्युक्तलक्षणं खाभाविकम कृतसंस्कारादिकच्चागतुकम् ।
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१५०,या का
पराशरमाधवः
१५७
समाऽन्ने साम-यज्ञानां हानी चान्द्रायणञ्चरेत् । अकृत्वाऽन्यतमं यजं यज्ञानामधिकारतः ॥
उपवासेन शोत पाक-संस्थासु चैवहि"। इति । कात्यायनोऽपि,--
"पित्त-यज्ञात्यये चैव वैश्वदेवात्ययेऽपि च । अनिष्टा नव-यज्ञेन नवान्न-प्राशने तथा॥
भोजने पतितानस्य चरर्वैश्वानरोभवेत्" । दति। विहित-दक्षिणा-पर्याप्त-द्रव्याभावेऽपि* नित्यं न लापयेत्। नदाह बौधायनः,
“यस्य नित्यानि लुप्तानि तथैवागन्तुकानि(१) च । सु-पथ-स्थोऽपि न स्वर्ग स गच्छेत् पतिताहि मः॥ तस्मात् कन्दैः फलैर्मूलमधुनाऽथ रसेन वा।
नित्यं नित्यानि कुर्वीत नच नित्यानि लेापयेत्" ।। दति। ननु, सम्पूर्ण-द्रव्य-सम्पत्तावेव सोम-यागः कार्यः । तदाह मनः,
“यस्य त्रैवार्षिकं विनं पर्याप्तं मृत्य-स्त्तये ।
अधिकं वाऽपि विद्येत स मामं पातुमईति" ॥ इति। याज्ञवल्क्योऽपि,
"त्रैवार्षिकाधिकानोयः सहि सोमं पिवेद्विजः" ।
* द्रव्यालाभेपि, -- इति स. सो. शा. पुस्तकेघु पाठः ।
(३) एहदाहाद्यनियतनिमित्तमुपजीव्य विहितं यत् नैमित्तिक, तदेवात्रा
गन्तकतया निर्दिशमिति बोध्यम् ।
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१५८
[१०, ख० का ० ।
इति । त्रैवार्षिकानालाभे सोम यागादवाचीनादर्शादयएव कार्य्यः ।
एतदपि मरवाह,
पराशरमाधवः ।
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“प्राक्सौमिकीः क्रियाः कुर्य्याद्यस्यान्नं वार्षिकं भवेत्” । इति । अल्प- धनस्य यज्ञेोमनुना निषिध्यते, -
“ पुण्यान्यन्यानि कुर्वीत श्रद्दधानाजितेन्द्रियः । नत्वल्प- दक्षिणैर्यज्ञैर्यजेताथ कथञ्चन ॥ इन्द्रियाणि यशः स्वर्गमायुः कीर्त्तिं प्रजाः पठन् । हन्यल्प - दक्षिणोयज्ञस्तस्मात्राल्पधना यजेत्” ॥ इति । मत्स्य पुराणेपि
"अन्नहीनो* दहेद्राट्र मन्त्र - हीनस्तथर्त्विजः । श्रात्मानं दक्षिणा - हीनेोनास्ति यज्ञ - समोरिपुः " || इति । एवञ्च सत्येतानि वचनानि 'कन्देर्मूले:' इत्यादिवचनेन बिरु येरन्निति चेत् । मैवम्, एतेषां वचनानां काम्य-याग- विषयत्वात् । 'सम्पूर्णीनुष्ठान - प्रक्रौ सत्यामेव काम्यं कर्त्तव्यम् - इति षष्ठाध्याये (१) मीमांस्तिम्। तथाहि – “ऐन्द्राग्नमेकादश- कपालं निर्वपेत् प्रजाकामः" - इत्यच, किं यथाशक्ति प्रयोगेणाप्यधिकारः, उत सवागोपसंहारेण ?इति संशयः । नित्येषु यथाशक्ति प्रयोगस्य पूर्वधिकरणे नितन्वात् काम्येष्वपि तथा, - इति प्राप्ते ब्रूमः | नित्यानामसमर्थेनाप्यपरित्याज्यत्वात् तत्र यथाशक्ति प्रयोगः । अपरित्यव्यानि हि नित्यानि, जीवनादि-निमित्त-वशेन तत्प्रवृत्तेः । नैमित्तिकं
* कार्थहोना, - इति ग्रन्थान्तरष्टतः पाठः ।
(१) मीमांसा - षष्ठाध्याय ढतीयपाद- हिताधिकरणे ।
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१५०,था का
पराशरमाधवः
१५९
प्रत्यप्रवर्तकत्वे निमित्तत्वमेव हीयेत । कामना तु न निमित्तं ; येनावश्य मिष्टिं प्रवर्त्तयेत् । अतो न काम्यस्यापरित्याज्यत्वम्। तथा मति, फल-सिद्ध्यर्थमेव काम्यस्थानुष्ठेयत्वात्, फलस्य च कृत्स्नांगोपकृतप्रधानमन्तरेणानिष्पनः, यदा कृत्स्नांगानुष्ठान-शक्तिस्तदैव काम्यमनुष्ठेयम्, इति सिद्धान्तः ॥
॥॥इति यजन-प्रकरणम् ॥०॥ इत्थं यजनं निरूपितं, याजने तु विधिः श्रूयते,-"द्रव्यमर्जयन ब्राह्मणः प्रतिग्रहीयाडा अयेदध्यापयेद्दा" । नचायं नित्य-विधिः, अकरणे प्रत्यवायादि-नित्य-लक्षणाभावात् । अपि तु काम्य-विधिः, द्रव्यार्जन-कामस्य तत्राधिकारात्। तत्रापि, नापर्व-विधिः(१) जीवनोपायत्वेन याजनस्य प्राप्तत्वात् । तद्धेतुत्वञ्च मार्कण्डेय-पुराण दर्शितम,
"याजनाध्यापने पाढे तथा शङ्कः प्रतिग्रहः ।
एषा सम्यक् समाख्याता चितयों तस्य जीविका"। इति । नापि परिमया, नित्य-प्राप्तेरभावात्। तस्माता पक्षे प्राप्तस्वात्रियम-विधिरयम्। मचायं नियमः पुरुषार्थएव, नतु क्रत्वर्थः,
-
* पुत्र,-- इति स० से. शा. पुस्तकेछ । चित्र, 'त्रितयो'-इति पाठो भवितुं युक्तः।
1 तस्मात्,--इति नास्ति स० स० शा• पुस्तकेषु । (१) अपूर्वस्य पर्वमप्राप्तस्य विधिरपब्र्वविधिः अत्यन्साप्राप्तप्रापकोविधिरिति
यावत् । तत्रेदमुक्तम्, "विधिरत्यन्तमप्राप्ती नियमः पाक्षिके सति । मन चान्यत्र च प्राप्त परिसंख्येति गीयते" इति ।
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पराशरमाधवः।
[१०,या का।
द्रव्यार्जन-विधानस्य पुरुषार्थत्वेन लिमा-सूत्रे (१) विचारितत्वात् । तथाहि,-ट्रष्यप्राप्तिः, क्रत्वा वा पुरुषार्थी वा?-इति संशयः । तत्र पूर्वः पतः, क्रत्वर्थय, तथा मति* नियमस्थार्थवत्त्वात् । ब्राह्मणस्थ याजनादिना, क्षत्रियस्य जयादिना, वैश्यस्य कृष्यादिना, दति नियमः। सच पुरुषार्थ-पक्षेऽनर्थकः स्यात्, उपायान्तरेणार्जि स्थापि ट्रयस्य सुत्प्रतिघातादि-पुरुषार्थ-सम्पादकत्वात्। कतुस्तु नान्यथा सिद्ध्यति । अतस्तत्र नियमोऽर्थवान्, इति प्राप्ते ब्रूमः । द्रव्यं हि सम्पादितं मत् पुरुषं प्रीणयति । अतस्तस्य पुरुषार्थत्वं प्रत्यतं दृष्टम्। ऋचर्थता तु नियमान्यथाऽनुपपत्त्या कल्यते । कृप्तञ्च कल्यादलीयः । मति च पुरुषार्थवे, क्रतारपि भोजनादिवत् पुरुष-कार्य्यतया तदर्थताऽप्यर्थात् सम्पद्यते। नियमस्तु, पुरुषार्थेऽप्यर्जनविधी किञ्चिददृष्टं जनयिष्यति(२) । क्रत्वर्थववादिनाजीवनलोपेन
* तथापि, इति स. मो. शा. पुस्तकेषु पाठः। क्षित्रियस्य जयादिना, इति नास्ति सु० पुस्तके । टिव्यं,-इति मु० पुस्तके पाठः। F क्रत्वर्थ, इति यः पुस्तके पाठः ।
(१) “यस्मिन् प्रीतिः पुरुषस्य तस्य लिमाऽर्थलक्षणाऽविभकत्वात् ( मी.
२०१पा० २सू०)" इत्येतस्मिन् सूत्र भाष्यकारस्य दिनीयवर्णके,इति बोध्यम् । तथाच याजनादिमाऽर्जने किश्चिददृशं कल्प्यते, सनियमस्यार्थवत्त्वाय । इतरथा खल्वम्येनापि प्रकारेण द्रव्यार्जनसम्भवात् याजनादिनियमोवचनशतेनाप्यशक्यः कर्तुमिति बोध्यम् ।
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१५०, आकार |
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पराशर माधवः ।
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क्रेतुरपि न सिध्येत्(९) । तस्मात् पुरुषार्थीयाजनादिः - इति सिद्धम् । ऋत्विग्भिर्विना याजयिताऽन्योन केोऽप्यस्ति इति चेत् । नैवम्, श्राप
1
--
१९
"
स्तम्ब सूत्रे षोड़शानाम्टत्विज वरणमभिधाय याजयितुः सप्त-दशस्य पृथावरणाभिधानात् । " सदस्यं सप्त-दर्श कौषितकिनः समामनन्ति, स कर्मणामुपद्रष्टा भवति " - इति । अतएव वशिष्ठ * वंशोत्पन्नस्य सत्यव्य नामकस्य महर्षेः प्रश्न वाक्ये देव - भागस्य सृञ्जय - नाम कान् ब्राह्मणान् प्रति याजकत्वं तैत्तिरीयक- ब्राह्मणे श्रयते - "वाशिष्ठोह सत्य हव्यो देवभागं पप्रच्छत् सृज्ञ्जयान् बहु-याजिनायजे?” इति । तथा कौषितकि- ब्राह्मणे, चित्र-नामकं प्रति श्वेतकेतोयज कत्वमानातम्, – “चित्रोह वे गार्ग्यीयणियक्षमाणश्रारुणिक, सह पुत्रं श्वेतकेतुं प्रजिज्ञाय याजयति" इति । तस्माद्, ऋऋत्विग्भ्योऽन्यःसदस्योयाजयिता । ऋत्विजावा याजयितारः सन्तु सर्वथाऽभ्यस्ति. ब्राह्मणानां जीवन हेतुर्याजनम् । तचेतिकर्त्तव्यता- रूपेण कृष्णाजिन - वासमोरन्यतरेणोपवीतित्वं तैत्तिरीयके विधीयने, – “तस्माद्यज्ञोपवीत्येवाधीयीत बाजयेद्यजेत् वा यज्ञस्य प्रहृत्या अजिनं
* वसिष्ठ, — इति दन्त्यमध्यः पाठः मु० पुस्तके प्रायः सर्व्वत्र । | सात्यद्दव्य,—इति स० से० शा ० पुस्तकेषु पाठः । एवं परत्र ।
+ याजकत्वं इति नास्ति मु० पुस्तके |
5 बडवाजिनायायजा इति इति सु० पुस्तके पाठः । प्रतिग्टय याजयेति, इति पाठ: मु० पुस्तके
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(१) क्रत्वर्थमर्जितस्य द्रव्यस्य तदन्यत्र भोजनादौ विनियोगस्य कर्तुमम म्भवादिति भावः ।
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१६२
पराशरमाधवः।
या.का.
वामावा दक्षिणत उपवीय" इति । मन्त्रेषु ऋष्यादिषु ज्ञानञ्च* याजनांगत्वेन छन्दोग-ब्राह्मणे समाम्नायते,-"योह वा अविदितार्षेय-इन्दो दैवत-ब्राह्मणेन याजयति वा अध्यापयति वा, स्थाणु वर्च्छति गत्तं वा पद्यते प्र वामीयते पापीयान् भवति यातयामान्यस्य छन्दांसि भवन्ति, अथ यो मन्त्र मन्त्र विद्यात, सर्वमायुरेति श्रेयान् भवति यातयामान्यस्य च्छन्दांसि भवन्तिी, तस्मादेतानि मन्त्रे मन्त्र विद्यात्'-दति।
ननु क्वचित् याजनस्य क्वचित् प्रनिग्रहस्य च निन्दितत्वात् तद नुष्ठानवतः स्वाध्याय-गाययोर्जपत्राम्बायते,-"रिच्यतव वा एषब्रेव रिच्यते योयाजयति प्रति वा ग्टहाति, याजयित्वा प्रतिग्टह्य हाऽनअन् त्रिः स्वाध्यायं वेदमधीयीत, त्रिरात्रं वा सावित्रों गायत्रीमन्वातिरेचयति" इति । तथाऽन्यत्रापि,-"दुहाइ वा एष छन्दांसि योशाजयति, म येन यज्ञ-क्रतुना याजयेत्, सोऽरण्यं परेत्य शुचौ देशे स्वाधायमेवैनमधीयन्नामीत; तस्यानशनं दीक्षा, स्थानमुपसदः, श्रासनस्य सुत्या, वागजुहः, मन उपभृत्, तिर्धवा, प्राणोइविः, सामायुः, मवाएष यज्ञः प्राणइक्षिणोऽनन्त-दक्षिण: मद्धतरः"|| इति चेत् । नायं दोषः, श्रयाज्य* मन्त्रऋष्यादिज्ञानच, इति स. मा. शा. पुस्तक पाठः । + स्थाणं वा गच्छति, इति शा. स. पुस्तकयो। पाठः। । अथ, इत्यादि, भवन्ति, - इत्यन्तः पाठः स० से. शा. पुस्तकेनु नास्ति। 5 क्वचित याजनं निन्दित्वा, - इति पाठः स० शा. पस्तकयोः । || तस्यानशनम् ---इत्यादि, 'सम्द्धतरः' इत्यन्तः पाठोनास्ति स. सो० मा. पुस्तकेछु।
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१०,या का।
परापूरमाधवः।
१६३
याजन-विषयत्वात् । जीवितात्ययमापत्रस्य प्राण-रक्षार्थमयाज्ययाजनमपि मम्भाव्यते। तथा, वाजसनेय-ब्राह्मणम्,-"प्राणस्य वै सम्राट्यामायायाज्यं याजयति अप्रनिग्राह्यस्य वा प्रतिग्टहाति "इति । तत्र, प्रायश्चित्तं छन्दोगा: श्रामनन्ति,-"अयाज्य-याजने दक्षिणस्त्यत्वा माम चतुर्थ-काले भुनान:(१) तन्मन्त्रान् गायेत्” इति। तथा सुमन्तुरपि स्मरति,-"शुद्र-याजक: रुद्र-द्रव्य-परित्यागात पूतोभवति । अभिशस्त-पतित-पौनर्भव-भ्रूणह-पुंश्चल्य-शचि-वस्त्र-कार। तैलिक-चा क्रिक-ध्वजि-सुवर्ण-कार-वर्म-कार-पङ्कको वर्धकि-गणगणिक-मानिक-व्याध-निषाद-ग्जक-चरु-चर्म-काराः अभोज्यानाअप्रतिग्राहायाज्याच” । तथाच बशिष्ठः,-दक्षिणा-त्यागाच पूतोभवतीति विज्ञायते॥" इति। तथा बौधायनोऽपि,-"बहप्रतिग्राह्यम्य प्रतिम्रा अयाज्यं वा याजयित्वा नाद्यात, तस्य चान
* अप्रतिग्राह्य प्रतिट हाति, इति शा० स० पुस्तकयोः पाठः । + सर्वदव्यपरित्यागात्, इति मु० पुस्तके पाठः । । शस्त्रकार,-इति मु० पुस्तके पाठः ! 5 सुवर्णलेख्येक वाठक,-इति मु• पुस्तके पाठः । | वुराचर्मकारा, इति मु० पुस्तके पाठः । !! दक्षिणात् पापाच्च,-इति स सो० शा० पुस्तकेषु पाठः ।
(१) भोजनम्य कालत्रयमतिवाह्य चतुर्थकाले भुञ्जानः। पूर्वदिने उपोष्य
परदिने दिवा यभुक्का रात्री अचान इति यावत् । तथाचोक्तम् । "मुनिभिढिरपूनं प्रोक्तं विप्राणां मर्त्यवासिनां नित्यम्। अनि च तथा तमखिन्यां साईप्रहरयामान्तः"--इति ।
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पराशरमाधवः।
[११०,या का।
मशित्वा तरतसमन्दीयं जपेत्" इति। त्रियाज्य-याजक लक्षणं देवलेन दर्शितम्,
"यः हट्रान पतितांश्चापि याजयेदर्थ-कारणात्। याजितोवा पुनस्ताभ्यां ब्राह्मणोऽयाज्य-याजकः" ।। इति ।
॥॥ इति याजनप्रकरणम् ॥०॥
तदेवं याजनं निरूपितम्। श्रथ दान-प्रतिग्रही निरूप्येते । तत्र, दान-विषया श्रुतिः,-"दानमिति सर्वाणि भतानि प्रशंसन्ति, दानानातिदुष्करं तस्माद्दाने रमन्ते"--इति । तथा वाक्यान्तरमपि,-"दानं यज्ञानां वरूथं दक्षिणा लोके दातारं सर्व-भूतान्युपजीवन्ति, दानेनारातीरपानुदन्त, दानेन द्विषन्नोमित्राभवन्ति, दाने सर्व प्रतिष्ठितं तस्माद्दानं परमं वदन्ति," इति। आदित्य-पुराणेऽपि,
"न दानादधिकं किञ्चित् दृश्यते अवन-त्रये। दानेन प्राप्यते स्वर्गः शीर्दानेनैव लभ्यते ॥ दानेन शत्रून् जयति व्याधिदानेन नश्यति । दानेन लभ्यते विद्या दानेन युवती-जनः॥
धर्मार्थ-काम-मोक्षाणां साधनं परमं स्मृतम्" । इति । एवं श्रुति-स्मृतिभ्यां प्रशंसा-पूर्वको दान-विधिरुनीतः। याज्ञवकयास्तु साक्षादानं व्यधत्त,
* नास्यान्नमवान्नमशित्वा पतेत्, इति मु• पुस्तक पाठः । जात्र, 'तथा'--इत्यधिकः पाठः स. सो. शा० पुस्तकष । । याज्ञवलक्योऽपि,-इति स० स० प्रा० पुस्तकेच पाठः ।
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११०,
का।
पराशरमाधवः।
"दातव्यं प्रत्यहं पात्रे निमित्तेषु (१) विशेषतः । याचितेनापि दातव्यं श्रद्धा-पूर्वन्तु शक्रितः॥ गो-भू-तिल-हिरण्यादि पात्रे दातव्यमर्चितम् ।
नापाचे विदुषा किञ्चिदात्मनः श्रेयरच्छता" ॥ इति । तयोरन्यतरः स्वरूप-विधिरितरस्तु गुण-विधिः। मनुरपि,- "दानी धर्म निषेवेत नित्य-नमित्त-संज्ञकम् ।
परितुष्टेन भावेन पात्रमासाद्य शक्रितः ॥ इति । वति-पुराणे च वित्त-वैयोंकि-पुरःसरं दानं विहितम्,
“यस्य वित्तं न दानाय नोपभोगाय देहिनाम्। नापि की] न धर्माय तस्य वित्तं निरर्यकम् ॥ तस्थादित्तं समासाद्य दैवादा पौरुषादथ ।
दद्यात् सम्यग्-दिजातिभ्यः कीर्तनानि न कारयेत्” ॥ इति । विष्णुधर्मोत्तरे दानाभावे बाधमाह,
"मीदते द्विज-मुख्याय योऽर्थिने म प्रयच्छति । मामर्थे मति दुर्बुद्धिनरकायोपपद्यते" ॥ इति ।
निमित्तेतु,-ति मु• पुस्तके पाठः। + दातव्यमर्थिते,-इति मु. पुस्तके पाठः। "धर्चितमर्चिताय दद्यात्"
---इति वचनान्तरदर्शनादुभयमपि सङ्गच्छते। + दानधम्म,-इति स. भा० पुस्तकयोः पाठः। 5 अमियुराणेपि, इति मु° पुस्तके पाठः।। (१) पात्रम्,-"विद्यायुक्तोधर्मशीलः प्रशान्तः क्षान्तोदान्तः सत्यवादी
कृतज्ञः । वृत्तित्यानागोहितो गोशारण्यो दाता यज्वा ब्रामणः पात्रमाऊः"-बत्युक्तलक्षणम् । निमित्तं संक्रान्त्यादि।
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२६६
परापारमाधवः ।
१ अआका० ।
ब्रह्म-पुराणेऽपि,
"मदाचाराः कुलीनाश्च रूपवन्तः प्रियम्वदाः । बहु-श्रुताश्च धर्मजायाचमानाः परान् यहान् ।। दृश्यन्ते दुःखिनः मर्च प्राणिनः मर्वदा मुने ।
अदत्त-दाना: जायन्ते पर-भाग्योपजीविनः'' ॥ इति । व्यासेोऽपि,
"अक्षर-द्वयमभ्यस्तं नास्ति नास्तीति यत् पुरा ।
तदिदं देहि देहीति विपरीतमुपस्थितम्" ॥ इति । स्कान्देऽपि,
"देहीत्येवं ब्रुवन्नर्थों जनं बोधयतीव म: । यदिदं कष्टमर्थित्वं प्रागदान-फलं हि तत् ।। एकेन तिष्ठताऽधस्तादन्येनोपरि तिष्ठता। दाढ-याचकयोर्भदः कराभ्यामेव सूचितः ।। दीयमानन्तु योमाहात् गो-विप्राग्नि-सुरेषु च ।
निवारयति पापात्मा तिर्यगयोनि व्रजेत् तु मः" ॥ इति । शातातपोऽपि,
"मा ददखेति योब्रूयात् गव्यग्नौ ब्राह्मणेषु च ।
तिर्यग-योनि-शतं गत्वा चाण्डालेष्वपि जायते"॥ इति । दानस्य स्वरूपं तत्रेतिकर्त्तव्यताच* देवलादर्शयति,
"अर्थानामुदिते पात्रे श्रद्धया प्रतिपादनम् ।
___ * तथेतिकर्त्तव्यताच,-इति स० मा० शा० पुस्तकेषु पाठः ।
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५ अ०,श्रा० का
परापार माधवः ।
दानमित्यभिनिर्दिष्टं व्याख्यानं तस्य वक्ष्यते ॥ वे हेतुः षड़धिष्ठानं षड़ङ्गं षड्विपाक-युक् । चतुः-प्रकारं त्रि-विधं त्रि-नादं दानमुच्यते । नान्यत्वं वा बहुत्वं वा दानस्याभ्युदयावहम् । श्रद्धा भक्निश्च दानानां वृद्धि-श्रेयस्करे हि ते ॥ धर्मामर्थच कामञ्च ब्रीडा-हर्ष-भयानि च । अधिष्ठानानि दानानां पड़ेतानि प्रचक्षते ॥ पात्रेभ्यादीयते नित्यमनपेक्ष्य प्रयोजनम । केवलं धर्म-बुद्ध्या यत् धर्म-दानं तदुच्यते ॥ प्रयोजनमुपेक्ष्यैव प्रसङ्गात् यत्प्रदीयते । तदर्थ-दानमित्याहुरैहिकं फल-हेतुकम् ॥ स्त्री-पान-मृगयाऽक्षाणं प्रसङ्गाद् यत् प्रदीयते । अनहेषु च रागेण काम-दानं तदुच्यते । संसदि ब्रीड़या स्तुत्या चार्थिभ्योयत् प्रयाचितम्॥ प्रदीयते च यद्दानं बौड़ा-दानमिति स्मृतम् ॥ दृष्टा प्रियाणि श्रुत्वा वा हर्वाद् यद्यत् प्रयच्छति । हर्ष-दानमिति प्राहुर्दानं धर्म-विचिन्तका: ॥ आक्रोशनार्थं हिंसाना प्रतीकाराय यद्भवेत् ।
* डिक्षयकरे, इति स० मा पुस्तकयोः पल्ठः । + त्यागबुड्या,-इति स० स० पुस्तकयोः पाठः । + तहमचिन्तका,इति स० मो. शा. पुस्तकेषु पाठः । 5 आक्रोशानर्थहिंसाना-इति स. मो. पुस्तकयोः पाठः ।
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पराशरमाधवः ।
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दीयते वाऽपकर्तभ्या * भय-दानं तदुच्यते ॥ दाता प्रतिग्रहीता च श्रद्धा देयञ्च धर्म-युक् । देश - कालौ च दानामङ्गान्येतानि षविदुः ॥ -पाप-रोगो धर्मात्मा दिव्यसन: (९) चिः । अनिन्द्य-जीव-कभी च षड् भिदाता प्रशस्यते || त्रि शुक्तः शुक्ल-वृत्तिश्च घृणालुः संयतेन्द्रियः । विमुक्तो योनि-दोषेभ्यो ब्राह्मणः पात्रमुच्यते " || इति । क्ति इति, त्रिभिमतापित्राचार्यैः शिचितत्वेन डूः । “शौचं शुद्भिर्महाप्रीतिरर्थिनो दर्शने तथा । मत्- कृतिश्चानया च दाने श्रद्धेत्युदाहता ॥ श्राचाराबाधमक्रेशं स्व-यनेनार्जितं धनम् । स्वल्पं वा विपुलं वाऽपि देयमित्यभिधीयते ॥ यद्यत्र दुर्लभं द्रव्यं यस्मिन् कालेऽपि वा पुनः । दानार्हो देश-कालो तो स्यातां श्रेष्ठा नचान्यथा ॥ श्रवस्था - देश - कालानां पात्र दात्रोश्च सम्पदा ।
* पाककर्टभ्यो, – इति स० स० पुस्तकयोः पाठः ।
+ दित्सरख्याजतः, – इति मु० पस्तके पाठः ।
+ कृशवृत्तिश्च - इति स० स० शा ० पस्तकेषु पाठः ।
[१०, ख०का ।
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(१) व्यसनं कामजकेोपजदोषविशेषः । तदुक्तम् । “म्मृगयाऽक्षोदिवास्वप्नः परोवादःः स्त्रियोमदः । तौर्य्यत्रिकं रथाद्या च कामजदशकोगणः । पैशून्यं साहसं द्रोह ईष्याऽसूयाऽर्थदूषणम् । वाग्दण्डजच पारुष्यं क्रोधजेोऽपि गणोऽष्टकः " - इति ।
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११.,मामा.
पराशरमाधवः।
होनं वापि भवेच्छेष्ठं श्रेष्ठं वाऽप्यन्यथा भवेत् ॥ दुष्फलं निष्फलं होनं तुल्यं विपुलमक्षयम् । षविणक-युगुद्दिष्टं पड़ेतानि विपाकतः ॥ नास्तिक-स्तेन-हिंस्खेभ्यः जाराय पतिताय च । पिन-भ्रूण-हसभ्यां प्रदत्तं दुष्फलं भवेत् ॥ महदण्यफलं दानं श्रद्धया परिवर्जितम् । पर-बाधा-करं दानं कृतमयूनता प्रजेत् ॥ यथोकमपि यहानी चित्तेन कलुषेण तु । ननु संकल्प-दोषेण दानं तुल्य फलं भवेत् ॥ युकाङ्गः सकलेः षड्मिदीनं हाद्विपुलोदयम् । (अनुक्रोश-वशाहन्तं दानमक्षयता प्रजेत् ॥ ध्रुवमाजसिक काम्यं नैमित्तिकमिति क्रमात् । दैविको "दानमार्गोऽयं चतुर्द्धा वर्ण्यते बुधैः ।। (प्रपाऽऽराम-तड़ागादि सर्व-काम-फलं ध्रुवम्भी ।
* भूमहन्तभ्यः,-इति स पुस्तके पाठः । + स्फोतमप्यूनता, इति मु० पुस्तक पाठः ।
चेह-इति स. सो. पुस्तकयोः पाठः। 5 सभेत,-इति मु. पुस्तके पाठः । || मक्षय्यवां,-इति मु० पुस्तके पाठः । पा एवमासिक,-इति मु. पस्तके पाठः। ** दियच,-इति मु. पुस्तके पाठः । १ सर्वकामफलप्रदम्, इति मु. पुस्तके पाठः। (१) अनुकोशोदया। .. (२) प्रमा पानीयशाला | बाराम उपवनम् । तड़ागोजलाशयविणे ।
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१७०
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पराशर माधवः ।
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[१०, च्या०का० ।
तदाजस्त्रिकमित्याजर्दीयते यद्दिनेदिने । श्रपत्यविजयै * स्त्री - वालार्थं यदिष्यते । इच्छासंज्ञन्तु यद्दानं काम्यमित्यभिधीयते । कालापेक्षं क्रियापेचमर्थी पेचमिति स्मृतम् (१) ॥ त्रिधा नैमित्तिकं प्रोकं स-होमं होम वर्च्चितम् । नवोत्तमानि । चत्वारि मध्यमानि विधानतः ॥ श्रधमानि तु शेषाणि चिविधत्वमिदं विदुः । श्रन्न -विद्या-वधू - वस्त्र - गो-भू-रुक्माश्व हस्तिनाम् ॥ दानान्युत्तमदानानि उत्तम - द्रव्य-दानतः । विद्यादाच्छादनं वास: परिभोगौषधानि च ॥ दानानि मध्यमानीति मध्यम - द्रव्य - दानतः । उपानत् - प्रेव्य यानानि छत्र - पात्रासनानि च ॥ दीप काष्ठ - फलादीनि चरमं बहु- वार्षिकम् । बहुत्वादर्थ - जातानां मया शेषेषु नेव्यते ॥ अधीन्यवशिष्टानि सर्व्वदानान्यता विदुः । । दृष्टं दत्तमधीतं वा प्रणश्यत्यनुकीर्त्तनात् ॥ लाघाऽनुशोचनाभ्यां वा भग्न- तेलो ? विपद्यते ।
* अपत्यारिजयैश्वर्य्य, इति पाठः स० से० शा ० पुस्तकेषु । + तत्रोत्तमानि - इति स० सेो० पुस्तकयोः पाठः ।
| त्र, 'इति' - इत्याधिकः पाठः मु० पुस्तके |
5 भमतेजा, – इति मु० पुस्तके पाठः
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(१) कालापेक्षं यथा व्यावायादिनिमित्तकं दानम् । क्रियापेक्षं यथा श्राद्वादौ वन्द्यादिभ्योदानम् । अर्थापेक्षं यथा पुत्रजन्मादौ दानम्, " एकां गां दशगुर्दद्यात्” -- इत्याद्युक्तं वा ।
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१च, धाका.)
पराशरमाधवः ।
तस्मादात्मकृतं पुण्यं न स्था परिकीर्तयेत् ॥ इति । नित्य-नैमित्तिक-काम्य-विमलाख्याच चत्वारोदान-भेदाः पुराणसारे दर्शिताः । सात्त्विकादि-भेदान् भगवानाह,
"दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे । देशे च काले पाने च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥ यत्त प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्टं तद्रासमुदाहृतम्॥ अ-देश-काले यहानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असकतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ इति । नत्र फलविशेषोविष्णुधोत्तरे दर्शितः,
"तामसानां फलं मुझे तिर्यक् मानवः सदा। वर्ण-सङ्कर-भावेन(१) वार्द्धके यदि वा पुनः ।। वाल्ये बा दास-भावेन नात्र कार्या विचारणा । अतोऽन्यथा तु मानुयै राजसानां फलं भवेत् ॥
सात्त्विकानां फलं मुझे देवत्वे मात्र संशयः" । इति । तत्र दान-पात्रमाह याज्ञवल्क्यः,
"न विद्यया केवलया तपमा वाऽपि पात्रता ।
यत्र वृत्तमिमे चोभे तद्धि पात्रं प्रचक्षते ॥ इति । थमोऽपि,
"विद्या-युकोधर्म-गील प्रशान्तः * घसंस्कृतमविज्ञातं,-इति मु. पुस्तके पाठः । (१) विजातीययावर्णयोः संप्रयोगात् योजायते सायं वर्णमार।
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१७२
वशिष्ठः, -
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पराशर माधवः ।
चान्तोदान्मः सत्य-वादी कृत-शः ।
स्वाध्यायवान् धृतिमान् * गोधरयो -
दाता यज्वा ब्राह्मण: पात्रमाङः " ॥ इति ।
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थमोऽपि -
[१००, ख०का० ।
"किञ्चिदमयं पात्रं किञ्चित् पार्च तपोमयम् ।
पात्राणामपि तत्पात्रं शूद्रान्नं यस्य नोदरे " ॥ इति ।
बृहस्पतिः, -
" श्रागमिष्यति यत् पात्रं तत् पात्रं तारविष्यति” । इति । विष्णुधर्मोत्तरे,
"पतनात् त्रायते यस्मात् तस्मात् पात्रं प्रकीर्त्तितम्” । इति । स्कन्द पुराणे पात्र - विशेषोविद्दितः, -
“प्रथमन्तु गुरोर्द्दनं दद्याच्छ्रेष्ठमनुक्रमात् । ततोऽन्येषाञ्च विप्राणां दद्यात् पात्रानुसारतः ॥ गुरोरभावे तत्पुत्रं तद्भाय्यां तत् सुतं तथा । पौत्रं प्रपौत्र दौहित्रमन्यं वा तत् - कुलोद्भवम् ॥ तहानातिक्रमे दानं प्रत्युताधोगतिप्रदम्” । इति ।
"भ्रममब्राह्मणे दानं द्विगुणं ब्राह्मण - श्रुवे (९) ।
'धृतिमान्,' - इत्यत्र, स्मृतिमान्, - इति मु पुस्तके, 'स्वाध्यायवान्हति' माम्' – इत्यत्र, वृत्तिग्लानोगोहितो, इति जीमूतवाहनष्टतः पाठः । + तत्सुतान्, -- इति मु० पुस्तके पाठः ।
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(१) ब्राह्मणमात्मानं ब्रवीति नपुनर्ब्रह्मरतोयः सोऽयं ब्राह्मणमुवः । तथा चोक्तम् । “जन्मकर्म्मपरिभ्रष्ठो ब्राह्मेतिर्विवर्जितः । ब्रवीति ब्राह्मण
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१षा,थाका]
पराशरसाधवः।
प्राधीते थतमाहलमनन्तं वेद-पार-गे"॥ इति । प्राधीतः प्रारब्धाध्ययमइत्यर्थः । सम्बनः, -
"उत्पत्ति-प्रलयौ चैव भूतानामागतिं गतिम्। वेत्ति विद्यामविद्याञ्च स भवेवेद-पारगः"(१) ॥ इति ॥ "भूरे सम-गुणं दानं वैश्ये तद्-द्विगुणं स्मृतम् ।
क्षत्रिये त्रिगुणं प्राड. षड्गुणं ब्राह्मणे स्मृतम्" ॥ इति । शूद्रादीनां पाचल-प्रतिपादनमत्रदानादिविषयं "क्तावमितरेभ्यः" -इति गौतम-वचनात्। यामः,
"मातापित्रोच यहत्तं भाव-खस-सुतासु च। जायाऽऽत्मजेषु यद्दत्तं सोऽनिन्द्यः स्वर्ग-संक्रमः ॥ पितुः शत-गुणं दानं सहस्रं मातुरुच्यते।
अनन्तं दुहितुर्दामं सोयें दत्तमक्षयम्" ॥ इति । भविष्योत्तरे,
"न केवलं ब्राह्मणानां दानं सर्वच शस्यते ।
• संवतः, इति नास्ति मु• पुस्तके । + 'इति' शब्दोऽत्र नास्ति मु. पुस्तके। * बदानविषयं,-इति मु. पुस्तके पाठः।
अत्र 'इति' शब्दोऽधिकोऽस्ति मु० पुस्तको ।
चाई सक्षेयोब्राह्मणब्रुवः” इति। "गभाधानादिसंस्कारयुक्तश्च नियनव्रतः । नाध्यापयति नाधीते सज्ञेयोब्राह्मणब्रुवः” इत्युक्तलक्षणो का। (१) विद्या तत्त्वज्ञानम् । अविद्या मिथ्याज्ञानं कर्मकलापो वा, तथाले
चोपासनाया विद्यापदेन संग्रहामन्तव्यः ।
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शातातपोऽपि -
महाभारते -
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भगिनी - भागिनेयानां मातुलानां पितुःस्वसुः * । दरिद्राणाञ्च बन्धूनां दानं कोटि-गुणं भवेत्” ॥ इति ।
पराशरमाधवः ।
अपात्रमाह मनुः,
“मन्त्रिष्टमधीयानमतिक्रामति येोद्विजम ।
भोजने चैव दाने च दहत्यासप्तमं कुलम्” ॥ इति ।
शातातपोऽपि ॥ -
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"हृतखा हृत दाराश्च ये विप्राः देश - विप्लवे । श्रर्थार्थमभिगच्छन्ति तेभ्योदानं महाफलम् ॥ इति ।
[१०, ० का ० ।
" न वार्य्यपि प्रयच्छेत्तु वैडालव्रतिके द्विजे । न वक - व्रतिके पापे नावेद - विदि धर्म - वित् ॥ त्रिष्वप्येतेषु दतं हि विधिनाऽप्यर्जितं धनम् । दातुर्भवत्यनर्थाय परचादातुरेवच ॥
यः कारणं पुरस्कृत्य व्रत- चीं निषेवते । पापं व्रतेन संछाद्य वैड़ालं नाम तद्व्रतम् ॥ श्रधोदृष्टिर्नैकृतिकः स्वार्थ-मंधान-तत्परः ।
शठोमिथ्याविनीतच वक व्रत चरोदिजः " ॥ इति ।
मु० पुस्तके पाठः ।
$ वकवृत्तिकरोद्दिजः - इति मु० पुस्तके पाठः ।
|| नास्तीदं स० से० शा ० पुस्तकेषु ।
* पिटखसुः, – इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ पिटभ्राटदाराच — इस स० स० शा ० पुस्तकेषु पाठः ।
+ नचावपि इति स० स० पुस्तकयोः पाठः । नचाखपि - इति
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१०,आ.का.
पराशरमाधवः ।
"नष्टं देवलके दत्तमप्रतिष्ठञ्च वार्द्धषौ१) ।
यच्च बाणिज्यके दत्तं न च तत् प्रेत्य नो दह" ॥ इति । देवलकश्च स्कान्दे दर्शितः,
"देवार्चन-रतो विप्रोवित्तार्थो वत्सर-त्रयम् ।
स वै देवलकानाम इव्य-कव्येषु गर्हितः" ॥ इति । वृद्धमनुः,
"पात्र-भूतोऽपि यो विप्रः प्रतिग्टह्य प्रतिग्रहम् । असत्सु विनियंजीत तस्मै देयं न किश्चन ॥ सञ्चयं कुरुते यश्च प्रतिग्टह्य ममन्ततः ।
धर्मार्थं नोपयुक्त च* न २ तस्करमर्चयेत्" ॥ इति । विष्णुधर्मोत्तरे,--
"पर-स्थाने वृथा दानमशेषं परिकीर्तितम् ।
पारूढ़े पतिते । चैव अन्यथाप्नैर्धनैश्च । यत्(२) ॥ * नापयञ्जीत, ---इति मु० पुस्तके पाठः। + बारूपतिते,-इति मु० पुस्तके पाठः । * अन्यथासेधनेश्व,-इति स• सो पुस्तकयोः पाठः । (१) वा धौ द्विग्राहिणि । (२) परस्थाने परभमौ। भूखामिनोऽनज्ञयातु न दोषः। “नाननुज्ञात
भूमिहि यज्ञस्य फलमनुते"--इत्युक्तः। थारू पतिते इति अवकीर्णिनैष्ठिकब्रह्मचारिविषयम् । 'चारूगोनेटिक धम्म यस्त प्रच्यवरे पनः। प्रायश्चित्तं न पश्यामि येन शुद्धयेत् स यात्महा"-इति, "मारूपतितं विप्रं मण्डलाच विनिःस्मतम् । उद्दद्धं कृमिदयञ्च स्पष्टवा चान्द्रायणं चरेत्”- इति चैवमादिवचनस्तस्यात्यन्तं निन्दितत्वात् । "वहिस्तभयथापि स्मृतेराचाराच्च” ( ३अ०४या०४३सू० ) इति शारीरकसूत्रमप्यत्र स्मर्त्तव्यम्। अन्यथाप्तैरिति, अन्यथा शास्त्रीयोपायं विना प्राप्तैरजितरित्यर्थः । अन्यायाप्तैरिति तु युक्तः पाठः ।
*
++
-+
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पराशरमाधवः।
[१५०,था.का.
व्यर्थमब्राह्मणे दानं पतिते तस्करे तथा। गुरोश्चाप्रीति-जनके कृतघ्ने ग्राम-याजके ॥ वेद-विक्रयके व यस्य चोपपतिर्महे । स्त्रीभिर्जितेषु यद्दत्तं व्याल-ग्राहे तथैवच ॥ ब्रह्म-बन्धौ च यदत्तं यद्दत्तं सुषलीपतौ ।
परिचारेषु यद्दत्तं वृथादानानि षोड़श” ॥ इति । महाभारते,
"पङ्गन्धवधिराभूकाव्याधिनोपहताश्च ये।
भर्तुव्यास्ते महाराज, न तु देयः प्रतिग्रहः" ॥ इति । पात्रोपेक्षणमपात्र-दानञ्च मनुर्निषेधति,__अनईते यद्ददाति न ददाति यदहते ।
अहानहापरिज्ञानादानाद् धर्माच हीयते” ॥ इति । भविष्योत्तरे देव-स्वरूपं निरूपितम् ,
"यद्यदिष्टं विशिष्टश्च न्याय-प्राप्तञ्च यद्भवेत् ।
तनद् गुणवते देयमित्येतद्दान-लक्षणम्"॥ इति । अशेषस्य देवत्व-प्राप्तौ विशेषमाह याज्ञवल्क्यः ,
"स्व-कुटुम्बाविरोधेन देयं दार-सुतादृते ।
नान्वये(१) मति सर्वखं यचान्यस्मै प्रतिश्रुतम्" ॥ इति । वृहस्पतिरपि,
* छनईणे यद्ददाति नददाति यदहण, इति स मो• पुस्तकयोः पाठः ।
--
--
-
-
(१) अन्वयः सन्ततिः।
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१५.पा.का.
पराशरमाधवः।
"(१)कुटुम्ब-भक-वसनाद् देयं यदितिरिच्यते" । इति । शिव-धर्षे,__ "तस्मात्रिभागं वित्तस्य जीवनाय प्रकल्पयेत् ।
भाग-द्वयन्तु धर्मार्थमनित्यं जीवनं यतः" ॥ इति । कुटुम्बाविरोधेन देयमित्युनं, तस्थापवादमाह व्यासः,
“कुटुम्बं पीड़यित्वाऽपि ब्राह्मणाय महात्मने ।
दातव्यं भिक्षवे पात्रमात्मनोभूतिमिच्छता" ॥ इति । देय-विशेषेण फल-विशेषमाह मनुः,
"वारि-दस्तृप्तिमानोति सुखमक्षयमन्त्र-दः । तिल-प्रदः प्रजामिष्टां दीप-दश्चक्षुरुत्तमम् ॥ भूमि-दोभूमिमाप्नोति दीर्घमायुहिरण्य-दः । ग्रह-दोऽय्याणि वेश्मानि रूप्य-दोरूप* मुत्तमम्॥ वासोदश्चन्द्र-सालोक्यमश्व-सालोक्यमश्व-दः । अनडद्-दः श्रियं तुष्टी गो-दो बधस्य पिष्टपम् ॥ यान-शय्या-प्रदोभा-मैखर्यमभय-प्रदः । धान्य-दः शाश्वतं मौख्यं ब्रह्म-दो ब्रह्म शाश्वतम् ।। सर्वेषामेव दानानां ब्रह्म-दानं विशिष्यते” । इति ।
* रूप्य, इति मु. पुस्तके पाठः । + जुा-इति मु० पुस्तके पाठः।
पिठवम्, इति पाठान्तरम् । (२) कुटुम्बाशब्देनावश्यभरणीया भण्यन्ते। ते च, "माता पिता गुरुभीता
पजादीनाः समाश्रिताः । अभ्यागतोऽतिथिश्चैव पोष्यवर्ग उदाहतः" -इति मननोका। 23
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पराशरमाधयः।
[१,यामा।
भक्यिोचरे पाच-विशेण देव-विशेषोदर्शितः,
"तथा द्रव्य-विशेषांश्च दद्यात् पात्र-विशेषतः । धातीनामन्त्र-दानच गो-दानञ्च कुटुम्बिने । तथा प्रतिष्ठा-हीनानां क्षेच-दान विशिष्यते। सवर्ण याजकामाची विद्यां चैवोर्द्ध-रेतमाम् ॥
कन्यां वामपत्यानां ददतां गतिस्त्तमा" । इति । कान्द्रापि,
"श्रान्तस्य पानं पितस्य पानमन्त्र सुधारस्य नरोनरेन्द्र। दद्यादिमानेन सुराजमाभिः
संखयमान चिदिवं नयनि" ॥ अधिरा
"देवतानां गुरुणा मातापिनोसावध ।
पुर) देयं प्रयोग नापुण्यं चोदित कचित् ॥ इति। विष्णु-धोत्तरे,
“यस्योपयोगि पट्टयं देयं तस्यैव तहबेत्" । इति । दान-निमित्तान्याहातातपः,
• गोदान यज्वने तथा,-इति मु. पुस्तके पाठः । + याचवानाच,-इति मु० पुस्तक पाठः। चार्जितं,-रति मु• पुस्तके पाठ।
(१) प्रतिका पासपम्। (२) पुण्य न्यायार्जितम्।
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१५०, पाया।
पराशरमाधया।
"अयमादौ सदा देयं द्रष्यमिष्टं टहे तु यत् । षड़शौति-मुखे चैव विमोने चन्द्र-सूर्ययोः ।। संक्रान्ती यानि दत्तानि इव्य-कव्यानि दाढभिः ।
तानि नित्यं ददात्यर्कः पुनर्जन्यनिजन्मनि" । इति । रद्ध-वशिष्ठोऽयनादौन्दर्शयति,
"मृग-कर्कट-संक्रान्ती दे हदग-दक्षिणायने । विषुवे च तुला-मेषौ तयोर्मध्ये ततोऽपरा:( सब-वृश्चिक-कुचेषु सिंह चैव पदा रविः । एतद्विष्णु-पदं नाम विषुवादधिकं फलम् । कन्यायां मिथुने मौने धनुष्यपि रवेर्गतिः ।
षड़शौति-मुखाः प्रोकाः षड़शौति-गुणाः फसेः ॥ रति । विष्णु-धोतरे,
"वैशाखौ कार्तिको माघी पूर्णिमा तु महाफला । पौर्णमासौषु सासु मासः-महितासु च ।
दत्तानामिह दानानां फलं दम-गुणं भवेत् रति। मनुः,
"महस-गुणितं दामं भवेद्दत्तं युगाादेषु ।
कर्म श्राद्धादिकश्चैव तथा मन्वन्तरादिषु" ॥ इति । ... थाजवलक्यः,
(१) विषवे,-इति प्रथमाहिवचनान्तं पदम् । तयोरयन-विधुवयोर्मध्ये,
सतोऽयनविषुवतो, उपराः पन्याः संकान्तय इत्यर्थः । उत्तर शोकयोः स्परमेतत् ।
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पराशरमाधवः ।
पराशरमाधवः।
१.पाया।
पा.का.
"शतमिन्दु-क्षये दानं सहस्रस्तु दिन-क्षये।
विषुवे शत-माहस्र व्यतिपातेश्वनन्तकम्" ॥ इति । भारद्वाजः*
"व्यतिपाते वैधतौ। (१) दत्तमचय-कृद्भवेत्" इति । विष्णुः,
"दिन-क्षयो दिन-च्छिद्रं पुत्र-जन्मादि चापरम् । श्रादित्यादि-ग्रहाणाञ्च नक्षत्रैः सह सङ्गमः ॥ विजेयः पुण्य कालोऽयं ज्यातिविद्भिर्विचार्य च ।
तत्र दानादिकं कुर्यादात्मनः पुण्य-दृद्धये" ॥ इति । दिन-क्षय-लक्षणमुक्तं वशिष्ठेन,
"एकस्मिन् सावने त्वहि तिथीनां चितयं यदा।
तदा दिन-क्षयः प्रोक्तः शत-माहसिकं फलम्" ॥ दिन-छिद्रस्य लक्षणं ज्योतिशास्त्रेऽभिहितम्,
"तिथ्य-तिथि-योग-वेदादिः शशिपर्वणः । ।
* भरद्वाज,-इति मु० पुस्तके पाठः । + वैधते,--इति मु० पुस्तके पाठः।।
। दिनक्षये दिनच्छिद्रे पुत्रजन्मादिकेषु च । धादित्यादिग्रहाणाच नक्षत्रैः सह सङ्गमे,-इति मु० पुस्तके पाठः।
तिथ्यई तिथियोगदं छेदादोराशिपर्वणः, इति स. सो. शा. पुस्तकेषु पाठः।
(१) व्यतिपातवैधता सप्तविंशतियोगान्तर्गत योगविरोधी। "श्रवणाश्विध
निष्ठाद्रीनागदेवतमस्तके । यद्यमा रविवारेण व्यतिपातः स उच्यते"इत्युक्तो वा व्यतिपाताग्राहः।
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१५०,पाका
पराशरमाधवः ।
१२
सदृशौ दिवस-च्छिद्र-समाख्याः प्राह भार्गवः ॥ छेदादि-कालः कथितस्तिथि-कृत्ये घटौ-दयम् । नाग-वति-समोपेतो तच्छेदत्व-फलेयुतम् ॥ पलैः षोड़शभिः युक्तं नाडिका-द्वितयं युतौ ।
छेदादि-ममयः प्रोक्तो दानेऽनन्त-फल-प्रदः" ॥ दानस्य निषिद्ध-कालमाहतुः शङ्ख-लिखितौ,
"आहारं मैथुनं निद्रां सन्ध्या-कालेषु वर्जयेत् ।
कर्म चाध्यापनञ्चैव तथा दान-प्रतिग्रहो” ॥ इति । स्कन्द-पुराणे,--
"रात्री दानं न कर्त्तव्यं कदाचिदपि केनचित् । हरन्ति राक्षमा यस्मात्तस्मादातुर्भयावहम् । विशेषतोनिशीथे तु न शुभं कर्म धर्मणे ॥
अतोविवर्जयेत् प्राज्ञोदानादिषु महानिशाम्" । इति । तच प्रतिप्रसवमाह देवलः,
"राहु-दर्शन-संक्रान्ति-यात्राऽऽदौ प्रसवेषु च ।
दानं नैमित्तिकं ज्ञेयं रात्रावपि तदिव्यते" ॥ इति । अत्र संक्रान्ति-शब्दोमकर-कर्कट-विषयः, स्मृत्यन्तरे संक्रान्तिषु
* तिथिकृत्ये घटीदयम्,-इति नास्ति मु. पुस्तके । + क्षादिसङ्गमोपेतं,-इति मु० पुस्तके पाठः। + युगे,--इति मु० पुस्तके पाठः । 5 'इति' शब्दो मास्ति स. मा. पुस्तकयोः। पा विवाहात्ययद्धिघु,-इत्यन्यत्र पाठः । अत्ययोमरणं, सद्धिः पुत्र भन्मादिः, इति तत्रार्थः।
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१२
पराशरमाधवः।
[१य,बाबा
रात्रि-दानादि-निषेधं प्रक्रम्य "मुक्ता मकर-कर्कटौ"-इतिपर्युदामात्। मत्स्य-पुराणे दानस्य प्रथस्ता देशविशेषा निर्दिष्टाः,
"प्रयागादिषु तीर्थेषु पुण्येवायतनेषु च।
दत्वा चाचयमाप्नोति नदी पुण्य-वनेषु च” ॥ इति । तथा व्यासेनापि,
"गङ्गा-दारे प्रयागे च अविमुक्के च पुष्करे। मकरे चाट्टहासे च गङ्गा-मागर-सङ्गमे । कुरु-क्षेत्रे गया-तौर्थे तथाचामर-कण्ट्र के । एवमादिषु तीर्थेषु दत्तमक्षयतामियात्" ॥
॥०॥ इति दानप्रकरणम् ॥०॥ तदेवं सेतिकर्त्तव्यं दान-प्रकरणं निरूपितम् , अथ प्रतिग्टहानिरूप्यते । तत्र श्रौतोविधिः पूर्वमुदाहृतः ;-"द्रव्यमर्जयन् ब्राह्मणः प्रतिग्टहीयात्”, इति। तत्र, याजने श्रेयं चर्चा पूर्वमनुकान्ना, सेयं प्रतिग्रहेऽपि यथासम्भवमनुसन्धातव्या ।
ननु प्रतिग्रहो मनुना निन्दितः,___ "प्रतिग्रहः प्रत्यवरः स तु विप्रस्य गर्हितः" ॥ इति ।
मैवम्, अस्यानिन्दाया असत्-प्रतिग्रहा विषयत्वात्। तथोपरितने वचने स्पष्टीकृतम्,
* दत्त्वाचाक्षय्यमानोति, इति मु० पुस्तके पाठः । +नदी,इत्यत्र, तदा, इति स०सो० पुस्तकयाः पाठः।
तत्र याजने पर्वमनुकान्तोय,-इति भु• पुस्तके पाठ । ६ सन्धातव्यः, -इति मु. पुस्तके पाठः। T साधुप्रतिग्रह-इति मु. पुस्तके पाठः।
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५.पा-का-1]
पराशरमाधवः।
१०५
"प्रतियहो गहितः स्थात् मृदादप्यन्यजन्मनः । इति । यः प्रतिग्रहो नौचात् क्रियते, स गईित इत्यर्थः । सत्प्रतियहस्तु नेनैवाभ्यनुज्ञातः,
"नाध्यापनात् वाजनादाऽगहिताडा प्रतिग्रहात् ।
दोषो भवति विप्राणां ज्वलनार्क-समा हि ते"॥ इति । अगहितादिति छेदः । प्रगति-प्रतियहादप्यप्रतिग्रहः श्रेयान ? मथाच याजवल्क्यः,
"प्रतियह-समर्थोऽपि नादने यः प्रतियहम् ।
थे लोका दान-मौलाना म तानानावि पुष्कलान् ॥ इति । मनु थमः प्रतियहं प्रमति,
"प्रतियहाध्यापन-याजनानां प्रतियई श्रेष्ठतमं वदन्ति । प्रतिग्रहात्। एयति जय-होमै
याज्यन्तु पापं न पुनन्ति * वेदाः" इति । मनुस्तु नदिपर्ययमाह,
"जप-होमरपैत्येनो याजनाध्यापनैः कृतम् ।
* प्रतिग्रहस्त क्रियते शूद्रादप्यग्रजन्मनः,-इति स पुस्तके पाठः। + ज्वलनार्कसमोहिसः,-इति स. पुस्तके पाठः।
सत्यतिग्रस्तु तेनैवाभ्यनुज्ञातः,-विशुद्धाच पतियह इति,-रत्येसावन् पाठी मु. पुस्तके।
अहितादपि प्रतिग्रहादप्रतिग्रहएब श्रेयान,-इति मु. पुस्तके पाठः। ॥ 'इति' शब्दोनास्ति स• पुस्तके ।
पतियः, इति स• मो• पुस्तकयोः पाठः । ." पुनन्तु,-रति भु• पुलके पाठः ।
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१७
पराशरमाधवः ।
धाका.॥
प्रतिग्रह-निमित्तं तु त्यागेन तपसेवच" ॥ इति । नायं दोषः, द्विजातिभ्यः प्रतिग्रहः प्रशस्तः शूद्धात् प्रतियहो निन्दितः - इतिव्यवस्थायाः सुवचत्वात् । ननु मत्प्रतिग्रहेऽपि कियानपि प्रत्यवायः प्रतीयते, "प्रतिग्रहात् प्राध्यति"-इत्युतः । वाढ़, अस्त्येव वेद-पारगत्वादि-सामर्थ-रहितस्य प्रतिग्रहे प्रत्यवायःt ! एतदेवाभिप्रेत्या स्वान्दे वेद-पारगस्य प्रत्यवायो निवारितः,
"घड़ा-वेद-विविप्रो? यदि कुर्यात् प्रतिग्रहम् ॥
न स पापेन लिप्येत पद्म-पत्रमिवाम्भसा" ॥ इति । एषएव न्यायो याजनाध्यापनयोर्याजनीयः। अयाज्य याजनभूतकाध्यापन-दुष्प्रतिग्रहेष्वेनोबाहुल्यं, स्वस्मिन्नीषदधिकार-वैकल्येन|| प्रवनमानस्य खल्पः प्रत्यवायः, मुख्याधिकारिणे विहित-याजनादिप्रवृत्तौ न किञ्चिदयेनः, इति विवेकः । सदसत्-प्रतिग्रहौ विवेचयति व्यासः--
"दिजातिभ्योधनं लिप्मेत् प्रशस्तेभ्यो द्विजोत्तमः ।
अपिवा जाति-मात्रेभ्यो नतु शूद्रात् कथञ्चन" ॥ इति । सतामसम्भवे मत्यसतोपि प्रग्रतिग्रह चतुर्विंशतिमतेऽभ्यनुज्ञातः,
"मौदंश्चेत्। प्रतिग्रहीयाद् ब्राह्मणेभ्यस्ततो नृपात् ।
* प्रतियहे दोषः,-इति मु• पुस्तके पाठः । + दोषः, इति मु• पुस्तके पाठः। इत्यभिप्रेत्य, इति मु. पुस्तके पाठः।
वेदाश पारगोविप्रो, इति स. सो पुस्तकयोः पाठः । । वैकल्यमति, इति स. मो० पुस्तकयाः पाठः। बिदा च, इति मु• पुस्तके पाठः।
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१५०,या का
पराशरमाधवः।
१८५
ततस्तु वैश्य-शूद्रेभ्यः शङ्खास्य वचनं यथा" ॥ इति । शूद्र-प्रतियहे विशेषमाहाङ्गिराः,
“यत्तु राशौकतं धान्यं खले क्षेत्रे तथा भवेत् ।
शूद्रादपि ग्रहीतव्यमित्याङ्गिरस-भाषणम्" ॥ इति। तत्रैव विशेषान्तरमाह व्यासः,
"कुटुम्बार्थे तु मत-शूद्रात् प्रतिग्राह्यमयाचितम् । क्रत्वर्थमात्मने चैव न हि याचेत कहिचित्”॥ इति।
मनुरपि,
"न यज्ञार्थं । धनं शूद्रात् विप्रो भिनेत धर्मवित् ।
यजमानेोऽपि भित्क्षिवा चाण्डाल: प्रेत्य जायते" ॥ इति । असत्-प्रतिग्रहोचितोऽवस्था-विशेषः स्कन्द-पुराणे दर्शितः,
"दुर्भिक्षे दारुणे प्राप्ते कुटुम्बे सौदति क्षुधा।
श्रमतः प्रतिग्रहीयात् प्रतिग्रहमतन्त्रितः" ॥ इति। याज्ञवल्क्योऽपि,
"पापड़तः संप्रग्टन भुनानोवा यतस्ततः ।
न लिप्येतेनमा विप्रो ज्वलनार्क-सम-प्रभः” ॥ इति । मनरपि,
* इति क्षेत्रेथवा भवेत्, इति मु० पुस्तके पाठः । + यागार्थ,-इति मु० पुस्तके पाठः। +दिजो,--इति मु. पस्तके पाठः। 6 चण्डालः,-इति मु० पुस्तके पाठः। T भुञ्जानोपि,-इति स० सो पुस्तकयोः पाठः।
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पराशरमाधवः।
१८६
[१ अ,आका० । "वृद्धौ च मातापितरौ साध्वी भार्या सुतः शिवः । अध्यकार्य-शतं कृत्वा भर्त्तव्या मनुरवीत्॥ जीवितात्यपमापनो योऽन्नमति यतस्ततः ।
आकाशमिव पङ्केन न स पापेन लिप्यते" ॥ इति । गारुड-पुराणे प्रतिग्राह्यस्य द्रव्यस्येयत्ता दर्शिता,
“यावता पञ्च-यज्ञानां कर्तु निर्वहणं भवेत् ।
तावदेव हि ग्टह्नौयात्कुटुम्बस्थात्मनस्तथा ॥ इति । व्यासोऽपि,
"प्रतिग्रह-रुचिर्नस्थात् यात्रार्थन्त (१) ममाचरेत् । स्थित्यादधिकं ग्टहून् ब्राह्मणेयात्यधोगतिम् ॥ (२)त्ति-मकोचमनिच्छन्नेहेत धन विस्तरम्।
धन-लाभे प्रवृत्तस्तु ब्राह्मण्यादेव होयते" ।। इति । अनापदि राज-प्रतिग्रहं निन्दति याज्ञवल्क्यः ,
"न राज्ञः प्रतिग्टहीयात् लुःध्यस्योच्छास्त्र-वर्तिनः । प्रतिग्रहे सूनि-चकि-ध्वजि-वेश्या-नराधिपा:(३) । '
* करणं नियतं भवेत,-इति मु• पुस्तके पाठः । + तावद्ग्राह्य सदैव स्यात्, इति मु. पुस्तके पाठः । 1 प्रतिग्रहायारुचिः स्यात्, इति मु० पुस्तके पाठः । 5 यज्ञार्थन्तु,-इति स. मो० पुस्तकयोः पाठः ।
(१) यात्रा जीवनोपायः । (२) वृत्ति वनं। (३) सूनी प्राणिघातकः । चक्री तैलिकः । ध्वजी मद्यविक्रेता।
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९ख०,या का.1]
पराभरमाधवः ।
१७
'दुष्टा दशगुणं पूर्वात् पूर्बादेते यथोत्तरम्" । इति । संवतः,
"राज-प्रतिग्रहोघोरोमध्वास्वादो विषोपमः।
पुत्र-मांस वरं भोर्ल नतु राज-प्रतिग्रहम्" ॥ इति । स्कान्दे
"मर-देशे निरुदके ब्रह्म-रक्षस्लमागतः । राज-प्रतिप्रहात्पुष्टः पुनर्जन्म न विन्दति ॥ ब्राह्मण्यं यः परित्यज्य द्रव्य-लोभेन मोहितः । विषयामिष-लुवस्तु(१) कुर्याद्राज-प्रतियहम् ॥ रौरवे नरके घोरे तस्यैव पतनं ध्रुवम् । .. वृक्षा दवामिना दग्धाः प्ररोहन्ति धनागमे ॥
राज-प्रतिग्रहाहग्धा न प्ररोहन्ति कर्डिचित्"। इति । विष्णु-धोतरे,
"दम-सनि-ममश्चकौ दश-चक्रि-समध्विजौ। दश-ध्वजि-ममा वेश्या दश-वेश्या-ममोनृपः ॥ दश सूना-सहलाणि योवाइयति मौनिक:(२) ।
तेन तुल्यः स्मृतोराजा घोरस्तस्मात् प्रतिग्रहः" ॥ इति । अधार्मिक-राज-विषयेयं निन्दा। तथा च तत्रैव विशेषितम्,
* अष्टादशगुणं,--इति मु• पुस्त के पाठः । + नरकेरौरवेघोरे, इति मु. पुस्तके पाठः।
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(९) विषयरूपं यदामि क्षाभ्यवस्त, तत्र लुब्धः । (२) सूना प्राणिबधस्थानं । तत्र नियक्त पुरुष सौनिका।
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पराशरमाधवः।
११०,था.का.
"येषां न विषये विप्राः यज्ञैर्यज-पति हरिम् । यजन्ते भृभुजां तेषामेतत् सूनादितं फलम् । येषां पाषण्ड-मकौर्ण राष्ट्रं न ब्राह्मणोत्कटम् ॥ एते सूना-सहस्राणं दशानां भागिनोनपाः । येषां न यज्ञ-पुरुषः कारणं पुरुषोत्तमः ॥
ते तु पाप-समाचाराः सूना-पापोपभागिनः” । । अदुष्टात्तु राज्ञः प्रतिग्रहो न निन्दितः । श्रतएव छन्दोग-शाखायां प्राचीन-शालादीन्महामुनीन् राज-प्रतिग्रहे प्रवर्त्तयितुमश्वपति-नामकेन राज्ञा दोषाभाव उपन्यस्तः,
"न मे स्तेनोजन-पदे न कद- न मद्यपः ।
नानाहितानि नाविद्वान खैरौ स्वैरिणी (१) तथा" ॥ इति। याज्ञवल्क्य-वचनेपि राज-प्रतिग्रह-निन्दायां "लुब्धस्योच्छास्त्रवर्तिनः" इति विशेषणाददुष्ट-राज-प्रतिग्रहो न निन्दितः, इति गम्यते । तथा नारदोऽपि,
* भटतां,-इति मु. पुस्तके पाठः । । ब्राह्मणास्पदम्, इति मु• पुस्तके पाठः । + सूनापापाहितेस्मृताः, इति मु. पुस्तके पाठः ।
कुतः, इति स० मो० पुस्तकयाः पाटः । पा राजप्रतिग्रहनिन्दाविशेषिता,-इति मु• पुस्तके पाठः।
(१) कदर्यः, --- ''अात्मानं धर्मकृत्यञ्च पुत्रदारांच पीड़यन् । योलाभात्
सचिनात्यान् स कदर्य इति स्मृतः" इत्युक्तलक्षण । खैरी खच्छन्दव्यवहारी। खैरिणी,-"खैरिणी या पति हित्वा कामतोऽन्यं समाश्रयेत्" इत्युक्तलक्षणा।
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११०,या का०]
पराशरमाधवः।
१९
"श्रेयान् प्रतिग्रहो राज्ञां नान्येषां ब्राह्मणादृते । ब्राह्मणश्चैव राजा च दावयेतौ धृत-तौ ॥ नैतयोरन्तरं किञ्चित् प्रजा-धर्माभिरक्षणे । शुचौनामशुचौनाञ्च मनिवेशो। यथाम्भमाम् ।। समुद्रे समतां यान्ति तदद्राजा(९) धनागमः । यथाऽनौ मंस्थितञ्चैव शुद्धिमायाति काञ्चनम् ॥
एवं धनागमाः सर्वे द्धिमायान्ति राजनि" । इति । दुष्ट-प्रतिग्रहवत् सत्प्रतिग्रहस्यापि आपदिषयता कुतो न कल्यते, इति चेत् । न, ब्रह्माण्ड-पुराणे सत्प्रतिग्रहस्थानापद्यपि विदितत्वात्।
"अनापद्यपि धर्मेण याज्यतः शिष्यतस्तथा । ग्टलम् प्रतिग्रहं विप्रो न धर्मात् परिहीयते ॥ ग्टहीयाद् ब्राह्मणदेव नित्यमाचार-वर्तिनः ।
श्रद्धया विमलं दत्तं तथा धर्मान्न होयते” इति । केषु चिदस्तु-विशेषेषु अयाचितेषु न प्रतिग्रह-दोषः, इत्याह भरद्वाजः,
* प्रजाधमाभिरक्षणम्, इति मु० पुस्तके पाठः। + सन्निपातो,-इति मु. पुस्तके पाठः । * दुष्पतिग्रहवत्, इति स० से० प्रा० पुस्तकेषु पाठः । ६ अपि शब्दोनास्ति मु. पुस्तके। पा तन्न,-इति स. सो. पुस्तकयोः पाठः ।
(१) राज्ञामिति शैधिको घडी।
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पराशरमाधवः ।
[१०,या.का.।
"अयाचितापपन्नेषु नास्ति दोषः प्रतिग्रहे ।
अमृतं तद्विदु* वास्तस्मात्तन्नैव निर्णदेत्” ॥ इति । तत्र भजदाराभिप्रेतान् वस्तु-विशेषानिर्दिशति याज्ञवल्क्यः,
"कुमाः शाकं पयो मत्स्था गन्धाः पुष्पं दधि क्षितिः । मांसं शय्याऽऽसनं धानाः। प्रत्याख्येयं न वारि च ॥ अयाचिताहृतं ग्राह्यमपि दुष्कृत-कर्मणः ।
अन्यत्र कुलटा-पण्ड-पतितेभ्यस्तथा द्विषः" ॥ इति । मनुरपि,
"शथ्यां कुशान् ग्टहान् गन्धानपः पुष्यं मणिं दधि । मस्यान् धानाः पयोमांसं शाकं चैव न निर्णदेत् ॥ एधोदकं मूल-फलं अन्नमभ्युद्यतञ्च यत् ।
असतः प्रतिग्टहीयान्मधु चाभय-दक्षिणाम्" इति । प्रतिग्रहानधिकारिणं मएवाह,
"हिरण्यं भूमिम, गामन्नं वासस्तिलान् घृतम् ।
अविद्धान प्रतिग्टहानो भस्मीभवति काष्ठवत्" इति । याज्ञवल्क्योऽपि,
"विद्या-तपोभ्यां होनेन नतु ग्राह्यः प्रतिग्रहः ।।
ग्टहून् प्रदातारमधो नयत्यात्मानमेव च ॥ इति । विदुषस्तु न कोऽपि प्रतिग्रहोदोषावह इति वाजसनेयि-ब्राह्मणे
* तं विदु, इति मु० पुस्तके पाठः । + धान्यं,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१०, ख० का ० ।]
गायत्री - विद्यायां श्रूयते,– “यदि हवा अप्येवं विद्वान् द्विजः * प्रतिहाति है। गायत्र्या एकं पदं प्रतिसन्धाय दुर्गा स्त्रीन् लोकान् पूर्णान् प्रतिग्टह्णीयात् योऽस्या एतत्प्रथमं पद्मानुयादथ यावनौयन्त्रयौविद्याथ तावत् प्रतिग्टलीयात् योऽस्या एतद्वितीयं पदमाप्नुयादथ यावदिदं प्राणिस्तावत् प्रतिग्टलीयात् योऽस्या एतत् तृतीयं पदमाशुयादथास्था एतदेव तुरौयं दर्शितं पदं परजय तपति मैव केन जायं कुत एतावत् प्रग्टहौयात् ! - इति ।
॥ ० ॥ इति प्रतिग्रहप्रकरणम् ॥ ० ॥
पराशरमाधवः ।
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एवं निरूपितानामध्यापनादीनां प्रतिग्रहान्तानां शब्दान्तराधिकरण - न्यायेन (मौ० २ श्र० २पा० १०) क -भेदमभिप्रेत्य 'षट्कर्षाभिरतः ' - इत्युक्तम् । स च न्याय ईत्यं प्रवर्त्तते । यजति ददाति जुहोतीत्युदाहरणम् । तत्र संशयः, किं सर्व्व- धात्वर्थानुरका भावना ( १ ) उत प्रतिधात्वर्थं माना ? । तच भावना - वाचकस्याख्यातस्यैकत्वाद्भिन्नानामपि धात्वर्थानामुपसर्जनत्वेन प्रधान-भेदकत्वासम्भवाचैव भावनेति पूर्व्वपक्ष: । धात्वर्थानुरञ्जनमन्तरेण केवलाख्यातेन भावनाया अप्रतीतेः उत्पत्ति-शिष्ट धात्वर्थेनैकेनानरके श्राख्यातार्थे
★
* व्यपि किञ्च इति स०
सो॰ पुस्तकयेाः पाठः । + हैव, इति स० से० शा ० पुस्तकेष पाठः ।
† यथास्या इत्यारभ्य प्रग्गृहीयात्, - इत्यतः पाठोनास्ति • स०
पुस्तकेषु ।
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$ भिन्ना, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) भावना व्याख्यातार्थः । स च प्रयत्नो व्यापारो वा ।
१९१
सो०
१० प्रा०
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२८२
पराशरमाधवः।
[ब०,पा०,का।
धात्वर्थातराणामननुप्रवेशात् प्रतिधात्वर्थ भावना-भेदः, इति सिद्वान्तः। एवं चाध्यापनादिभिः षभिधात्वर्थः षोढ़ा भावना भिद्यते,इति भवन्त्येतानि षट् कर्माणि । तेषु 'अभिरतिः' श्रद्धा-पूर्वकमनुठानम् । अश्रद्धालुनाऽनुष्ठितमप्यफलं स्यात् । तदाह भगवान्,
"अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतश्च यत्।
श्रसदित्युच्यते पार्थ, न च तत् प्रेत्य नो दह" ॥ इति । 'नित्यम्'-दूत्युत्तरत्रान्वेति न पूर्वत्र, अध्यापनादौनां त्रयाणामनित्यत्त्वात् । देवता च अतिथिश्च देवतातिथी, तयोः प्रतिदिन पूजकोभवेत् । देवता-खरूपञ्च वाजसनेयि-ब्राह्मणे, शाकल्य-याज्ञवल्क्य-संवादे विचार्य निर्णीतम् । तत्र, शाकल्यः प्रष्टा, याज्ञवल्क्योवका, देवता-विस्तार-मझेपो स्वरूपञ्च प्रष्टयोऽर्थः । तत्र चैषा श्रुतिः । "अथ हैनं विदग्धः शाकल्यः पप्रच्छ ; कति देवता याज्ञवल्क्येति । स हैतयैव निविदा प्रतिपेदे ; यावन्तो बैश्वदेवस्य निविद्युच्यन्ते, जयश्च त्रौच शता त्रयश्च त्रीच सहस्रति। मिति होवाच; कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति, प्रयस्त्रिंशदिति । श्रमिति होवाच ; कत्येव देवा याज्ञवल्नक्येति, पड़िति। ओमिति होवाच ; कत्येव देवा याज्ञवल्क्येति, जय इति । ओमिति होवाच; कत्येव तु देवा याज्ञवल्कोति, दाविति। श्रोमिति होवाच ; कत्येव देवा याज्ञवल्क्येत्यध्यर्द्ध इति । ओमिति होवाच; कत्येव देवा याज्ञवल्कोत्येक इति। मिति होवाच ; कतमे ते त्रयश्च बीच मता त्रयश्च बीच सहस्रति । म
* विस्तारसंक्षेपौ च,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
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०, चा• का० ।]
१९३
होवाच ; महिमानएवैषामेते चयच विंशत्येव देवा इति । कतमे ते जयस्त्रिंशदित्यष्टावसव एकादशरुद्रा द्वादशादित्या स्तएक - चिंगदिन्द्रखेव प्रजापतिश्च चयत्रिंशा इति । कतमे ते वसव इति श्रग्निश्च पृथिवीच वायुश्चान्तरीचं चादित्यच चौख चन्द्रमाश्च नचचाणि चैते वसव एतेषु हीदं सर्व्वं वसु निहितमेते हीदं सर्व्वं वासयन्त तस्मादसव इति । कतमे ते रुद्रा द्वति, दश वै पुरुषे प्राणा श्रात्मैकादशस्ते यदाऽस्माच्छरीरादुत्क्रामन्धथरोदयन्ति । यस्माद्रोदयन्ति । तस्माद्रुद्रा इति । कतमादित्या इति द्वादश एव मासाः संवत्सरस्यैतश्रादित्यास्ते हीदं सर्व्वमाददानायन्ति तद्यदिदं सर्व्वमाददानायान्ति ॥ तस्मादादित्या इति । कतम इन्द्रः कतमः प्रजापतिरिति, स्तनयिनुरेवेन्द्रायशः प्रजापतिरिति । कतमस्तनयिनुरित्यनिरिति । कतमोयज्ञइति, पशव इति । कतमे षत्यग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरीचं चादित्यच है| खेते षड़ेते हौदं सर्व्वं षड़िति । कतमे ते भयो देवा इति इमे एव त्रयोलोका एषु हीमे सर्व्वे देवा इति । कतमो तो द्वौ देवावित्यन्नं चैव प्राणखेति । कतमोध्यर्द्ध इति योयं पवत इति
#
पराशर माधवः ।
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* यस्त्रिंशत्येव - इति स० सेो० पुस्तकयोः पाठः ।
"
+ ते यदस्माच्छरीरान्मर्त्यी उत्क्रामन्ति – इत्यादि पाठः मु० पुस्तके |
1 योदयन्ति - इति मु० पुस्तके पाठः ।
"
· दादशमासाः – इति स० सेा• पुस्तकयोः पाठः ।
|| तदुयदिदं सर्व्वमाददानायान्ति - इति नास्ति मु० पुस्तके |
ना तनय, - इति मु० पुस्तके पाठः । एव परत्र । ** घड़ियेते, – इति स० सो० पुस्तकाः पाठः । ++ ते इति नाति · पुस्तके |
•
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पराशरमाधवः।
[९ख०,या का.
यदाहु यदयमेक एव* पवते स कथमध्यर्द्ध इति। यदस्मिन्निदं सदमध्यात्तेनाध्यर्द्ध इति। कतम एकादेव इति, प्राण इति स ब्रह्मत्याचक्षते” इति । अस्याः श्रुतेरयमर्थः । उपासनाहाणां देवानां सङ्ख्यादि-विस्तारे पृष्टः माकल्येन याज्ञवल्क्योविजीषु-कथायां(१)प्रवृत्तत्वात् पर-बुद्धि-व्यामोहाय निविदा प्रत्युत्तरं प्रतिपेदे। निविच्छब्दो वैश्वदेव-नामके २) शस्त्र-विशेषेऽवस्थितानां मया-वाचिनां पदानां समुदायमाचष्टे, इति वैदिक-प्रसिद्धिः । ततो यावन्तो देवा वैश्वदेवस्य निविद्युच्यन्ते, तावन्त उपास्याः, इत्युक्तं भवति । तानि च पदानि, त्रयश्च त्रीचेत्यादीनि । शत-त्रयं शहस्र-त्रयं षट्कञ्च देवविस्तारः। कत्येवेत्येवकारेण तत्र तत्र देवान्तर-शङ्का व्युदस्यते । यएव देवाः पूर्वं विस्तताः, तएव संक्षेपेण कियन्त इति तत्र तत्र प्रश्नार्थः । कतीति मझ्या-प्रश्नः, कतमे त इति स्वरूप-विशेष-प्रश्नः । तत्र शतमहस्रमया ये देवा उका स्ते मा प्रधानभूता न भवन्ति, किन्तर्हि, प्राधान्येन इविर्भुजां त्रयस्त्रिंशद्देवानां योग-महिना स्वीकृतेच्छिक ** विग्रहाएव, ततो न तेषां स्वरूप-विशेषः पृथक् निरूपणीयः इति ।
* यदयमेकरह,-इति मु० पुस्तके पाठः । + संख्याविस्तारण कतीतिएको,-इति स० स० पुस्तकयोः पाठः।
स्थितानां,-इति म० पुस्तके पाठः । ६ त्रयश्च त्रिशदित्येवमादीनि,-इति म० पुस्तके पाठः । ॥ तत्रत्य, इति मु० पुस्तके पाठः। पा प्रतंसहससंख्या,-इति स. स. पस्तकयाः पाठः । ** स्वीकृत भौतिक, इति स• सो० शा० पुस्तकेष पाठः।
tो 'इति' शब्दो नास्ति म. सा. पन्तकयाः। (१) विजिगीष कथा जल्पः वितण्डास्त । तिसः किल कथा भवन्ति वादेश
जल्यो वितण्डा च । सर्वमिदं न्याये प्रथमदितीये स्पष्ठम । (२) अप्रगीतमन्त्र साध्या स्तुतिः शस्त्रम् ।
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१०, बी० का ० ।]
चयस्त्रिंशद्देवेषु श्रुतावस्वादयः पुराण- प्रसिद्धेभ्यो वस्वादिभ्यो ऽन्ये (१), तेषु शब्द-प्रवृत्तियौगिकी (९) । प्राणा वाचेन्द्रियाणि श्रात्माऽन्तःकरणम् । इन्द्रप्रजापति-शब्दौ लक्षणया स्तनयित्नु - यज्ञयोर्वर्त्तते, लचितलक्षण्या त्वशनि - पश्वोः (९) । श्रन्न -प्राणी भोग्य-भोक्कभिमानिनौ । (४) । श्रध्यर्द्धशब्दो रुन्या सङ्ख्यावाची, योगेन तु मम्मृद्धं वायुं वक्ति । वायुः सूत्रात्मा (५), "वायुर्वे गौतम, सूत्रम्" इति श्रुतेः । अन्ते प्राणशब्दः परमात्मवाचकः । तदेव स्पष्टयितुं स ब्रह्मेत्युक्तम् । तत्-शब्दः परोक्ष
पराशर माधवः ।
1
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* छान्नं प्राणो, – इति मु० पुस्तके पाठः । + भोक्तभिमानिनो, इति स० से० श(० पुस्तकेषु पाठः ।
(१) वखादीत्यादिशब्दात् बद्रादित्यपरिग्रहः । अन्यत्वञ्चात्रत्यवखादीनां, मादीनां तथात्वाभिधानात् स्पष्टम् । पुराणप्रसिद्धास्ववखादयानामाग्न्यादिरूपाः । तेषां खरूपमादित्यपुराणे प्रोक्तम्, “प्रसन्नवदनाः सौम्यावरदाः शक्तिपाणयः । पद्मासनस्थाद्विभुजावसवो टौप्रकीर्त्तिताः । करे त्रिशूलिनेावामे दक्षिणे चाक्षमालिनः । एकादशप्रवर्त्तव्या यद्रास्वतेन्दुमौलयः । पद्मासनस्थाद्विभुजाः पद्मगर्भङ्गकान्तयः । करादिस्कन्धपर्य्यन्तं नालपङ्कजधारिणः ॥ इन्द्राद्यादादशादित्यास्तेजेा मण्डलमध्यणाः ” - इति ।
(२) एतेषु हीदंसर्ग वसुनिहितं इत्यादि श्रुत्युक्त योगप्रयोज्येत्यर्थः । (३) प्रथममिन्द्र शब्दस्य तत्संबन्धिनस्तमधित्नौ मेवे लक्षणा, ततेा मेघलक्षितस्येन्द्रशब्दस्य मेधसंबन्धिन्यशनौलक्षणा इति लक्षितलक्षणेयम् । वस्तुतस्तु यत्र शक्यार्थस्य परस्परासंबन्धेनलक्षणा, तत्रैव लक्षित लक्षबोध्यते । प्रकृते चेन्द्रशब्दस्य तत्संबन्धिसंबन्धिनि शनौलक्षखेति लक्षितलक्षणा । एवं प्रजापतिशब्देपि द्रष्टव्यम् ।
(8) अन्नशब्दोभोग्याभिमानिनीं देवतामाचष्टे, प्रायशब्दख भोक्तभिमानिatमिति विवेकः । (५) सूत्रात्मा हिरण्यगर्भः
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पराशरमाधवः।
बाबा का।
वाची, अस्त-ब्रह्म-विचारं पुरुषं प्रति ब्रह्मण: हा त्वैक-समधिगम्यत्वात् परोक्षम्, इति । तत्र, प्राण-शब्द-वाच्यः परमात्मैवैकोमुख्यादेवः । तत्-खरूपञ्च श्वेताश्वतरा विस्पटमामनन्ति,
"एकोदेवः सर्व-भूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । काध्यक्षः सर्वभूताधिवासः
माक्षीचेता केवलोनिर्गुणश्च" ॥ इति । एतमेव देवं शास्त्र-कुशलास्तैःस्तैः शब्द-विशेधैर्बहुधा व्यवहरन्ति । तथा च मन्त्र-वर्ण:
"सुवर्ण विप्राः कवयोवचोभि
रेकं मन्तं बहुधा कल्पयन्ति” इति । नेच शब्द-विशेषा विस्सष्टमन्यस्मिन्मन्त्र श्रूयन्ते,
'इन्द्रमित्रं वरुणमनिमाहु रथोदिव्यः स सुपर्णगरुत्मान् । एक मविप्रावहुधावद
म्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः" इति । मनु, इन्द्र-मित्र-वरुणादयः शब्दा भिन्नदेव-वाचिनो नत्वेक देवमभिदधति, अन्यथा वारुणया! ऐन्द्रोमन्त्रः प्रयुज्येत । नायं दोषः, एकत्वेऽपि देवस्य मूक्ति-भेदेन मन्त्र-व्यवस्थोपपत्तेः ।
• वेत्ता,-इति स. मो• पुल्लकयोः पाठः । + मन्त्रः-इति मु• पुस्तके पाठः । 1 वरण्यागेषु,-इति मु• पुस्तके पाठः ।
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१०,या का•
पराशरमाधवः ।
यथा, शैवागमेषु शिवस्यैकत्वेऽपि प्रतिमा-भेदेन* दक्षिणामूर्ति-चिन्ता मणि-मृत्युञ्जयादयोमन्त्रामूर्ति विशेषेषु व्यवस्थिताः; यथा वा, वैष्णवागमेषु गोपाल-वामनादयोमन्त्राः, तथा वेदेऽपि । किं न स्यात् । ननु, द्रव्य-देवते यागस्य स्वरूपं, स्वरूप-भेदाच कर्म-भेदः प्रतिपादितः,-"तप्ते पयसि दयानयति मा वैश्वदेव्यामिक्षा, वाजिन्यो वाजिनम्" इत्यत्र ; यथाऽऽमिक्षा-वाजिनयोर्द्रव्ययोर्भेदस्तथा विशेषां देवानां वाजिभ्योदेवेभ्यो भेदोऽभ्युपगन्तव्यः, इति । वाढं, अभ्युपगम्यते ोकस्यैव वासवस्य देवस्य कर्मानुष्ठान-दशायामौपा-- धिकोभेदः । श्रतएव, वाजमनेयि-ब्राह्मणे दृष्टि-प्रकरणे कर्मानुष्ठाव? प्रसिद्धं देव-भेदमनूद्य तदपवादेन || वास्तवं देवकत्वमवधारितम्,"तद्यदिदमाहुरमुं यजेतामुं यतेत्येकं देवमेतस्यैव मा विसृष्टिरेष उ ह्येवा सर्वे देवाः, इति । नकस्माहेवात् फल-भेदोदुः सम्पादः,इति शङ्खनीयम्, उपास्ति-प्रकार-भेदेन तदुपपत्तेः । “तं यथा यथोपामते, तदेव भवति" इति श्रुतेः। यथैकोऽपि राजा छत्रचामरादि-सेवा-प्रकार-भेदेन फल-भेदे हेतुस्तद्वत् । ननु, देवः फलं ददातीत्येतन्मीमांसको न सहते । तथाहि नवमाध्याये विचारितम्,किं यागेनाराधिताया देवतायाः फलं, उतापूर्व-द्वारकं यागस्य
* प्रतिमाप्रासादभेदेन-इति म पुस्तके पाठः । + देवेपि,-इति स० मो० पुस्तकयाः पाठः । * 'इति' शब्दो नास्ति मु. पुस्तके। ६ कम्मानुठान,-इति मु. पुस्तके पाठः । ॥ तदनुवादेन,-इति स• मो० पुस्तकयाः पाठः । पा एषोव,-इति मु. पुस्तके पाठः।
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१६८
पराशरमाधवः ।
[१०,या का।
फल-साधनवमिति संशयः । तत्र * भङ्गरस्य यागस्य कालान्तरभावि-फलं प्रति साधनवायोगादवण्यं द्वार१) किञ्चित् कल्पनीयम् । देवता-प्रसादश्च श्रुति-युनिभ्यस्तद्वारं स्यात् । “हप्तएवैनमिन्द्रः प्रजया पभिस्तर्पयति"-दूति श्रुतिः। युकिरप्युच्यते,-क्रियया प्राप्नुमिष्टतमत्वात् । कर्म कारकं प्रधानं, तेन कर्मणा व्याप्तत्वात् सम्प्रदान ततोऽपि प्रधान, इन्द्रादि-देवताः १ च सम्प्रदानत्वेन प्रधान्यात् पूजामईन्ति, यागश्च पूजारूपत्वादति(जनमिव || देवताया अङ्ग स्थात्। तस्माद्राजादिवदेवः फलं ददातीति पूर्वः पक्षः । अत्रोच्यते। यागदेवतयोऽयमङ्गाङ्गिभाव उपन्यस्तः, स तु शब्दाकाङ्क्षानुसारेण विपर्येति। तथा हि, यजेतेत्याख्यातेन(२) भावनाऽभिधीयते । मा च, किं केन कथमिति भाव्य-करणेतिकर्तव्यता-लक्षणमंश-वयं क्रमेणाकाङ्क्षति। तत्र, यागस्य समान-पदोपनीतत्वेऽप्ययोग्यत्वान भाव्यता। वर्गस्य तु वाक्यादुपनातस्यापि पुरुषार्थत्वेन योग्यत्वात् भाव्यता स्थात् । तस्य च स्वर्गस्य माधनाकाङ्क्षायां याग: करण
* अत्र, इति स. सो० शा. पुस्तकेषु पाठः। + हारं स्यात्, इति मु. पुस्तके पाठः । + कत्तुंः क्रियया आप्तुमिछतमत्वात्, इति मु• पुस्तके पाठ. ।
स.सा. शा. पुस्तकेषु एकवचनान्तःपाठः । एवं परत्र । ॥ यागस्य पूजारूपत्वादतिधिभ्योभोजनमिव,-इति मु० पुस्तके पाठः । पा वाक्याद्युपनीतस्यापि,-इति मु. पुस्तके पाठः।
(१) दारं फलकालस्थायी व्यापारः । (२) भावना च भावयितुापारः प्रयत्नो वा ।
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१५०,या का०]
पराशरमाधवः।
वेनान्वेति । तच करणं माध्य-स्वरूपत्वात् स्व-निष्पादकं मिळू । द्रव्यदैवतमितिकर्त्तव्यत्वेन + ग्रहाति, इति । ततो यागोऽङ्गी, देवता च तदङ्गम्। एवञ्च मति, नातिथिवद्देवता यागेनाराध्यते । यातु श्रुतिः,-"हप्तएवैनम्" इति, मासौ स्वार्थे तात्पर्यवती, प्रत्यक्षादि-विरोधात् । न हि, काचिदिग्रह-वती देवता हविर्भुवा हप्ता फलं प्रयच्छतीति प्रत्यक्षेणेपलभ्यते, प्रत्युत तदभावः प्रत्यक्षेण योग्यानुपलब्धया वा(२) प्रमीयते । किं च, अश्वमेधे "गां दंष्ट्राभ्यां मण्डकान् दन्तः ॥” इत्याचवयवानां दंशादि-द्रव्याणं हविषां भोकत्वेन गो" मण्डकादय-स्तिर्यच्चोऽपि" देवता-विशेषाः श्रूयन्ते । न च तेषां फल-प्रदाढवी सम्भाव्यते। "श्रोषधीभ्यः स्वाहा, वनस्पतिभ्यः स्वाहा, मूलेभ्यः स्वाहा"-इत्यादावचेतनानामोषधिवनस्पति-तदवयवानां देवतात्वं श्रूयते । तत्र, कुतोहविर्भीकत्वं, कृत
* साध्यल्यत्वात्,-इति स० सो० पुस्तकयोः पाठः । + सिद्ध,-इति नाति भु० पुस्तके।।
द्रव्यं देवतामितिकर्तव्यत्वेन,-इति मु. पुस्तके पाठः । 5 'इति' शब्दो नास्ति मु. पुस्तके। ॥ सैगां दंशाभ्यां मण्डूकान जन्येभिः, इति मु० पुस्तके पाठः । पा सैगामण्डूकादय, इति मु. पुस्तके पाठः ।। ** 'यपि' शब्दो नास्ति स. मो. शा. पुस्तकेषु ।
tt फलदाटत्वं,-इति स. सो. पुस्तकयोः पाठः । (१) प्रत्यक्षानुलम्भवाधितेऽर्थे श्रुतेः प्रामाण्याभावादितिभावः । स्पमिद
मात्मतत्त्वविवेके। प्रत्यक्षेणेति न्यायमते। प्रत्यक्षेणैवाभावोसह्यते योग्यानुलब्धित्तु तत्र सहकारिमात्रमिति सत्सिद्धान्तात् । योग्यानलब्धोति मीमांसकमते। तन्मतेऽभाववाहिकाया अनपलब्बेः प्रमाणान्तरत्वात् ।
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पराशरमाधवः।
[१०,चा,का।
स्तरां दृप्तिः, कृतस्तमा फल-दानम् । तस्माद्विग्रहादिमतां देवाना*मभावान देवता-प्रसादो यागस्य फल-द्वारम। किन्तु, श्रूयमाणफलसाधनत्वान्यथानुपपनि-कल्प्यमपूर्व तवारम् । अभ्युपगतेवपि देवेवपूर्वस्यैव फल-दारत्वमवश्यं वक्रव्यं, मन्त्रार्थवादेतिहाम-पुरा. णेषु देवानामपि तपश्चरण-क्रवनुष्ठान-ब्रह्मास्त्रादि-मन्त्र-प्रयोगेभ्यः समीहित-सिद्ध्यनुकीर्तनात् । तस्मान्न देवः फल-प्रदः-इति सिद्धम्। (१)ौपनिषदास्वीश्वरस्य फल-दाढत्वं मन्यन्ते।तथाहि, नदीये शाले(२) हतीयाध्याये विचारितम्। किं धर्मः फलं ददाति, आहोस्विदीश्वरः,इति संशयः । तत्र, मीमांसकोक-न्यायेन धर्मः फल-प्रदः, इति पूर्व पक्षः । सिद्धान्तस्तु, किं धोऽन्यानधिष्ठितएव फल-प्रदः, किं वा, केनचिच्चेतनेनाधिष्ठितः ? नाद्यः, अचेतनस्य तारतम्यानभिज्ञस्य यथोचित-फल-दाढत्वायोगात् । द्वितीये तु, येनाधिष्ठितः, सएव फल-दाताऽस्तु ।। न चैवं धर्मस्य वैयर्थमिति शङ्खनीयं,वैषम्य-नैर्घण्यपरिहाराय धर्मापेक्षणात् । असति तु धर्मे, कांश्चिदुत्तमं सुखं, कांश्चिन्मध्यम, कांश्चिदधर्म, प्रापयन्नीश्वरः, कथं विषमा न भवेत् । कथं वा विविधं दुःखं प्रापयन्निघृणोन भवेत् । धर्माधर्मानुसारेण नत्-प्रापणे गुरु-पिट-राजादीनामिव न वैषम्य-नेणे प्रातः ।
* देवादीना,...इति मु० पुस्तके पाठः । । फलं ददातु,-इति मु० पुस्तके पाठः । + चित्रं,-इति स पुस्तके पाठः ।
(१) औपनिषदावेदान्तिनः । (२) शारीरके।
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०, चा० का० ।]
महि दुष्ट-त्रियां शिष्ट-परिपालनञ्च कुर्व्वता गुर्व्वादीनां वैषम्य-नैर्धृष्ये विद्येते (९) । यदु-गो' मण्डुकादीनां तिरखामोषधि-वनस्पत्यादीनाञ्च स्थावराणां फल- प्रदत्वमयुक्रम्, इति । तत् तथैवास्तु, ईश्वरस्य फलदावे कः प्रत्यूहः । यदपि " तएवेनमिन्द्रः प्रजया पशुभिस्तर्पयति”इति, तचापीन्द्र देवतायामवस्थितोऽन्तर्यामी फल- प्रदत्वेन विव चितः । “अन्तः - प्रविष्टः शास्ता जमानाम्” - इति श्रुतेः । तस्मादीवरस्य प्रसादएव फल-दारम् । न च जेमिनेय- वैयासिकयोर्मतयोः परस्परं विरोधः, विवक्षा - विशेषेण तत्समाधानात् । यथा, देवदत्तस्यैव पत्वेऽपि सम्यगभिज्वलनं विवक्षित्वा 'काष्ठानि पचन्ति' - इति व्यवहारः, तथा परमेश्वरस्यैव फल- प्रदत्वेऽपि तारतम्यापाद - निमित्ततया प्राधान्यं विवचित्वा धर्माः फलप्रदः, -इति व्यवहारः किं न स्यात् । तस्मादविरोधात् फल- प्रदोजगदीश्वरएकएव सर्व्वत्र पूजनीयो देव:, - इत्यलमतिप्रसङ्गेन ।
11 °
पराशरमाधवः ।
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॥ इति देवता - खरूप- निरूपण -प्रकरणम् ॥० ॥ अतिथेर्खचणं स्वयमेव वक्ष्यति । उभयोः पूजन-प्रकारमुपरितनझोके निरूपयामः । 'देवताऽतिथि - पूज कोनावमीदति' - इत्युक्रेर पूजायामवसीदति - इत्यवगम्यते । तथाच कूपुराणे -
* सैगा मण्डूकादीनां, – इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ ईश्वरप्रसाद एव – इति सु० पुस्तके पाठः ।
-
२०१
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(१) तथाचेाक्रम्। "लानने ताड़ने मातुनीका वयं यथाऽर्भके । तदेव महेशस्य नियन्तुर्गुयदेोषयोः " - इति ।
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२०२
पराशरमाधवः।
१०या०का।
"शेमोहादथवाऽऽलस्यादकृत्वा देवताऽर्शनम् । भुत, स याति नरकं सूकरेविह जायते॥ अकृत्वा देव-पूजाच महायज्ञान् द्विजोत्तमः ।
भुञ्जीत चेत्ममढात्मा तिर्यग्यो नि स गच्छति(१)" इति । मार्कण्डेयः,
"अतिथिर्यस्य भग्नाशे ग्रहात् प्रतिनिवर्तते । . स तस्य दुष्कृतं दत्त्वा पुण्यमादाय गच्छति" ।। देवलोऽपि,
"अतिथिर्टहमभ्येत्य यस्य प्रतिनिवर्त्तते ।
असत्कृतो निराशश्च स सद्योइन्ति तत्कुलम्" इति । पूजायान्तु न केवलमवसादाभाव:* किन्त्वभ्युदयोऽप्यस्ति । तथा च विष्णुधर्मोत्तरे,
"येऽर्चयन्ति सदा विष्णु गङ्ख-चक्र-गदा-धरम् ।
सर्च-पाप-विनिमुक्ता ब्रह्माणं प्रविशन्ति ते" इति । कूर्मपुराणे
"वेदाभ्यासाऽन्वहं शत्या महायज्ञ-क्रियास्तथा(२) । __* न केवलं पायाभावः, इति स० स० पुस्तकयाः पाठः । (९) 'स' पाब्दस्य दिरुपादानात् 'स महात्मा'-इति, ‘स तिय्यंग्यानि
गच्छति'-इति च वाक्यदयमत्र मन्तव्यम् । 'अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ'-इत्युक्तरध्यापनमेव महायज्ञान्तर्गतं वेदाभ्यासस्तु ततः एथक् । अथवा, वेदाभ्यासस्य महायज्ञान्तर्गतत्वेपि एथगपन्यासो गोरघन्यायात् । ततश्च महायज्ञपदं वेदाभ्यासेतर-महायज्ञपरमिति मिष्यते ।
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१५०,या का
पराशरमाधवः।
नाशयन्याशु पापानि देवानामर्थनं तथा" इति । मनुरपि
"अतिथिं पूजयेद्यस्तु श्रान्तं चादुष्टमागतम् ।
महषं गो-शतं तेन दत्तं स्वादिति मे मतिः” इति ॥ विष्णुरपि
"खाध्यायेनानिहोत्रेण यजेन तपसा तथा ।
नावाप्नोति ग्टही लोकान् यथा त्वतिथि-पूजनात्" इति। वैश्वदेवाधर्थमोदनं पाचयित्वा तेन होमे कृते मति योऽवशिष्ठश्रोदनः म 'हुत-शेषः' । तमेव भुञ्जीत, न तु ख-भोजनार्थ पाचयेत्। यदाह भगवान्,
"यज्ञ-शिष्टाशिनः सन्तोमुच्यन्ते सर्व-किल्विषैः ।
भुञ्जते ते त्वचं पापा ये पचन्यात्म-कारणात्" इति । 'हुत-शेषम्' इत्यत्र इत-शब्दो महाभारते व्याख्यातः,
"वैश्वदेवादयो होमाइतमित्युच्यते बुधैः" इति । तस्य शेषोडत-शेषः । स च हुत-शेष-शब्दो देवर्षि मनुष्यादिपूजोपयुकावशिष्ठमुपलक्षयति। तदाह मनुः,
"देवानपीन मनुष्यांश्च पितॄन् ग्टह्याश्च देवताः । पूजयित्वा ततः पश्चाद्ग्रहम्थः शेषमुग्भवेत् । अघं स केवलं भुते यः पचत्यात्म-कारणात् । यज्ञशिष्ठाशनं ह्येतत् सतामन्नं विधीयते"-दति।
* श्रान्तं वा दुवमानसम्, इति स. मा० शा० पुस्तकेषु पाठः ।
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२..
पराशरमाधवः।
[११.,माका
'ब्राह्मणेनावनोदति' इत्यत्र विचितस्य ब्राह्मणस्य लक्षणं महाभारते दर्शितम्,
"मत्यं दानं तपः शौचमानृशंस्यं दमोघृणा । दृश्यन्ते यत्र विप्रेन्द्र, म ब्राह्मण इति स्मृतः ।। जितेन्द्रियो धर्म-परः खाध्याय-निरतः एचिः । काम-क्रोधौ वशौ यस्य तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ यस्य चात्म-समोलोको धर्मजस्य मनस्विनः । खयं धर्मेण चरति तं देवा ब्राह्माणं विदुः ॥ योऽध्यापयेदधीते वा याजयेदा यजेत वा । दद्याद्वाऽपि यथाशक्ति तं देवा ब्राह्मणं विदः ॥ क्षमा दया च विज्ञानं सत्यं चैव दमः शमः ।
अध्यात्मनिरतिहीनो मेतडाहण-लक्षणम्" इति ॥ तथाच, अनाहिताग्रितायामपि उकलक्षण-लक्षितोब्राह्मणोनावमीदतीति वाक्यार्थः पर्यवमितो भवति । _ 'चतुर्णामपि वर्णानाम् ,-इति, 'षटकर्माभिरतः' इति वचनदयेन माधारणासाधारण-धी मंक्षिप्योपदर्शितौ। यद्यप्यध्यापनादिचयमेव विप्रस्थामाधारणं नाध्ययनादि-त्रयं तस्य वर्ण-चय-साधारणवात्, तथापि षट्कर्माभिरतत्वं पिप्रस्यैवेति न कोऽपि विरोधः ॥
• सर्वधर्मेण चरितं,- इति स. सो पुलकयोः पाठः। + अध्यात्मनिरतं ज्ञान, इति स. मो• पुस्तकयोः पाठः । 'तथाच'-इत्यादिः, 'भवति'-त्यन्तः पाठी मास्ति स. सो. पुस्तकयोः ।
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१०, ब०का ।]
अथाच साधारणाध्ययनादिप्रसङ्गेन बुद्धिस्यं साधारणमाकिं
वचिप्याह
पराशर माधवः ।
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सन्ध्या स्मानं जपोहोमो देवतानाम पूजनम् ॥३८॥ श्रातिथ्यं वैश्वदेवश्च षट् कर्माणि दिने दिने ||
२०५
-
इति । ‘सन्ध्याखानम्' – इत्यत्र यवागू- पाक-न्यायेन स्नानस्य प्राथम्यं व्याख्येयम् । स च न्यायः पञ्चमाध्याये प्रथमपादे प्रतिपादितः । 'यवाम्बाऽग्निहेाचं जुहोति ? यवागूं पचति' इति श्रूयते । तत्र संशयः; किमग्निहेाच-यवागूपाकयोरनियतः क्रमः, उत नियतः, यदा नियतः, तदा पाठेन नियम्यते उतार्थेन । तत्र विध्योरनुष्ठानमात्र- पर्यवसानात् क्रमस्य नियामकामाबात् श्रनियतः - दत्येकः पूर्व्वः पचः । पूर्व्वधिकरणेषु " श्रध्यगृहपतिं दीक्षयित्वा ब्रह्माणं दीक्षयति" - इत्यत्र पाठस्य नियामकत्वाभ्युपगमादत्रापि तत्सम्भवाद्यथा पाठक
**
# पाठक्रमस्य - इति मु० पुस्तके पाठः ।
"
तत्र, इति स
पुस्तकया, पाठः ।
+ सन्थाखानं जयेोहेोमः खाध्यायेादेवतार्चनम् । वैश्वदेवातिथेयच इति पादत्रये पाठ' मु० मू० पुस्तके |
+ प्राथम्यमाख्येयम्, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
8 मिहोत्रं जुहोति – इति मु० पुस्तके पाठ |
॥ तत्र, – इति नास्ति मु० पुस्तके |
१ तथापि, - इति स० सो पुस्तकयेाः पाठः ।
** नियामकत्वाभावात्, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
++ — इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः।
[१ययाला.
मनियमः ,-इत्यपरः पूर्वपक्षः । 'यवाग्वा'- इति हतीयाश्रुत्या(१) होम-माधनत्वावगमादसति च द्रव्ये होमानिष्पत्तेराद् यवागू-पाकः पूर्वभावी, इति सिद्धान्तः। एवमत्रापि स्नानस्य शुद्धि-हेतुत्वाछुद्धस्यैव सन्ध्या-बन्दनाधिकारित्वात् स्वानं पूर्वभावि, इति द्रष्टव्यम्(२) । तत्र, स्नानं तत्पूर्व-भाविनां ब्रह्ममुहीत्थान-हितचिन्तनादौनां सर्वेषामुपलक्षणम् । तत्र याज्ञवल्क्यः,
"ब्राह्म मुहर्ने उत्थाय चिन्तयेदात्मनोहितम् ।
धर्मार्थकामान् खे काले यथाशक्ति न हापयेत्" इति । मनुरपि,
"बाह्य मुहर्ने बुध्येत धर्मार्थाननुचिन्तयेत् । काय-क्लेशांश्च तन्मूलान् वेद-तत्त्वार्थमेव च"-इति ।
* यथापाठं क्रमनियमः,-इति पाठी भवितुं युक्तः । + पूर्व पक्षः, -इति मु० पुस्तके पाठः । + अतरवमत्रापि, इति मु० पुस्तके पाठः । तिच,-इति मु० पुस्तके पाठः।
(१) तथा चक्तिम् । “श्रुति द्वितीया क्षमता च लिङ्ग वाक्यं पदान्येव तु
संहतानि । सा प्रक्रिया या कथमित्यपेक्षा स्थानं क्रमायोगवलं समाख्या" इति । द्वितीयापदं कारकविभक्त्युपलक्षणं सर्वासामेव कारकविभक्तीनां प्रकृत्यान्वितखार्थबोधने न्यानपेक्षत्वस्य तुल्यत्यात्-इति वाचस्पतिमिश्राः। उदाहरणान्येषां मीमांसा-टतीये इश्व्यानि । तथा चार्यक्रमादनुष्ठानमितिभावः । क्रमश्च घडिबधः, "श्रुत्यर्थपठनस्थानमुख्यप्रावर्तिकाः क्रमाः" इत्युकः । उदाहरणानि चैषां मीमासापक्षमाध्याये अश्यानि।
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९ख०,खाका
पराशरमाधवः ।
२.
७
वेदतत्त्वार्थः एरमात्मा। तथा च कूर्मपुराणे*,
"ब्राह्म मुहर्त उत्थाय धर्ममर्थञ्च चिन्तयेत्।
काय-क्लोशं तदुद्भूतं ध्यायोत मनमेश्वरम्" इति । विष्णुपुराणेऽपि,
"बाह्य मुहर्ते उत्थाय मानसे मतिमानृप । विबुद्ध्य चिन्तयेद्धर्ममर्थं चास्याविरोधिनम् (१) ॥ अपौड़या तयोः काममुभयोरपि चिन्तयेत् । परित्यजेदर्थ-कामौ धर्म-पौड़ा-करौ नप ॥
धर्ममण्यसुखोदक लोक-विदिष्टमेव च”-ति । । सूर्योदयात् प्रागर्द्धप्रहरे द्वौ मुहती, तत्राद्यो प्रायोदितीयो रौद्रः । तत्र ब्राह्य चिन्तनौयार्थविशेषं दर्शयति विष्णः,
"उत्थायोत्थाय बोद्धव्यं किमद्य सुकृतं कृतम् । दत्तं वा दापितं वाऽपि वाक् सत्या चापि भाषिता ॥ उत्थायोत्थाय बोद्धव्यं महद्भयमुपस्थितम् ।
मरण-व्याधि-शोकानां किमद्य निपतिष्यति" इति । 'ध्यायीत मनसेश्वरम्' इति यदुकं, तत्र प्रकार-विशेषो बामनपुराणे,
* मनुरपि,-इत्यारभ्य कूर्मपुराणे इत्यन्ताग्रन्थः स० सो पुस्तकयार्मयः।
+ मयंचास्य विरोधिन,-इति मु. पुस्तके पाठः। मधमप्यविरोधि ___ नम्, इति स० पुस्तके ।
+ दत्तं वापि हुतं वापि,-इति मु० पुस्तके पाठः । (१) ब्राझो मुहर्त विबुध्य उत्याय धर्म यथोक्तलक्षणमर्थच मानसे
चिन्तयेदिति संबन्धः ।
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.
.
पराशरमाधवः।
[१०,पाका।
"ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुराम-कारौ भानुः भौ भूमि-सुतोबुधश्च । गुरुश्च शुक्र: सहजानुजेन
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्"-इत्यादि । ॥०॥ इति ब्राहये मुहर्ने प्रात्म-हित-चिन्तन-प्रकरणम् ॥ ॥ हित-चिन्तनानन्तरं श्रोत्रियादिकमवलोकयेत् न तु पापिष्ठादिकम् । तदाह कात्यायनः,
"श्रोत्रियं भगाङ्गां च अमिममिचितं तथा। प्रातरुत्थाय यः पश्येदापद्भ्यः म प्रमुच्यते ॥ पापिष्ठं दुर्भगं मद्यं नममुकत्त-नासिकम् ।
प्रातरुत्थाय यः पश्येत्तत्कलेरुपलक्षणम्" इति । नतोमूत्र-पुरीषे कुर्यात् । तदाहाङ्गिराः,
"उत्याय पश्चिमे राचे तत पाचम्य चोदकम । अन्तद्धाय वर्णभूमि शिरः प्रावृत्य वासमा । वाचं नियम्य यत्नेन निष्ठौवोच्छाम-वर्जितः॥ ।
कु-मूत्र-पुरोषे तु एचौ देशे समाहितः” इति । तत्र, हण-नियमान विंशिनष्टि,
* त्रिपुरान्तकोऽमिः - इति मु• पुस्तके पाठः । + पापिष्ठम्, इति स० से. पुस्तकयोः पाठः । मास्तीदं मु. पस्तके
बान्ध,-इति स. सो. पुस्तकयोः पाठः । || छीवनोश्वासवर्जितः, इति सु० पुस्तके पाठः ।
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११०,मा.का.
पराशरमाधवः।
२०६
"शिरः प्रावृत्य कुर्वीत भन्मत्र-विसर्जनम् ।
श्रयज्ञियैरनाफ़ैश्च तणैः सञ्छाद्य मेदिनीम्'-इति। नत्र, कालभेदेन दिनियममाह याज्ञवल्क्यः,
"दिवा-सन्ध्यासु कर्णस्थ-ब्रह्मसूत्र उदङमुखः ।
कुन्मित्र-पुरीषे तु रात्रौ चेद्दक्षिणामुखः" इति । कर्णश्च दक्षिणः,
"पवित्रं दक्षिले कर्णं कृत्वा विणमत्रमुत्सृजेत्"इति स्मृत्यन्तरे पवित्रस्य दक्षिण-कर्ण-स्थत्वाभिधानात् यज्ञोपवीतस्यापि तदेवे स्थानं न्यायम्। अङ्गिरास्तु विकल्पेन स्थानान्तरमाह,
"कृत्वा यज्ञोपवीतं तु पृष्ठतः कण्ठ-लम्बितम् ।
विणमचन्तु ग्टही कुर्यात् यदा कर्णे समाहितः” इति । तत्र, कर्णे निधानमेकवस्त्र-विषयम् । तथा च मायायनः,“योकवस्त्रोयज्ञोपवीतं कर्णे कृत्वा मूत्र-पुरोषोत्मगं कुर्यात्"-इति । ननु, उक्रोदिनियमो न व्यवतिष्ठते, अन्यैरन्यथा स्मरणात् । तत्र यमः
"प्रत्यङमुखस्तु पूर्वाहेऽपराहे प्रामुखस्तथा ।
उदङमुखस्तु मध्याहे निशायां दक्षिणामुखः" इति। अत्र केचिद्विकल्पमाश्रित्य व्यवस्थापन्ति । तद्य, मामान्य
* दक्षिणकर्णस्थानाभिधानात् ,-इति स. सो. पुस्तकयाः पाठः । + अन्यैरन्यथास्य,-इति स. मा. पुस्तकयोः पाठः । । प्रामुखस्थितः, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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२१.
पराशरमाधवः।
[११०,या का।
विशेष-शस्त्रयोर्विकल्पायोगात् । सामान्यशास्त्र हि याज्ञवल्क्य-वचनं दिवसे कृत्स्नेऽप्युदङमुखत्व-विधानात्* यम-वचनन्तु विशेषशास्त्रम् , उदङमुखत्वस्य मध्यान-विषयत्वेनात्र सङ्कोच-प्रतीतेः। माऽस्तु ताई विकल्पः, यम-वचनोका तु व्यवस्था भविष्यतीति चेत् । तदपि । न युक, प्राक्प्रत्यङ्मुखत्व-निराकरणायैव देवलेन सदैवेति विशेषितत्वात्।।
___"मदैवोदङ्मुखः प्रातः मायाले दक्षिणमुखः" इति । अत्र, प्रातः-माया-शब्दी दिवा-रात्रि-विषयौ । तथा च मनुः,
"मूत्रोचार-समुत्सर्ग दिवा कुर्य्यादुदङ्मुखः ।
दक्षिणाभिमुखो रात्रौ सन्ध्ययोश्च यथा दिवा"-इति । एवन्तईि यमकयोः प्राकप्रदउन्मुखत्वयोः का गतिः । सूर्याभिमुख्य-निषेध-परा यमेाकिरिति ब्रूमः । तदुकं महाभारते,
"प्रत्यादित्यं प्रत्यनले प्रतिगां च प्रतिद्विजम् ।
मेहनि ये च पथिषु ने भवन्ति गतायुषः" इति। पदपि देवलेोकम,
__ "विणमत्रमाचरेनित्यं सन्ध्यासु परिवर्जयेत्" इति ।
तविरुद्धतर-विषयम्। “न वेगं धारयेत् नोपरद्धः क्रियां कुर्यात्" इति स्मरणात् । यदपि मनुनाक्रम,* दिवसे कत्लेप्युदङ्मुख इति वचनात्, इति स० सो पुस्तकयाः पाठः। यमवचनोत, इति स. सो पुस्तकयाः पाठः। . एतदपि,-इति मु• पुस्तके पाठः । ६ निवारणायैव, इति स. स. पुस्तकयोः पाठः । || 'इति' शब्दोऽत्राधिकः भु• पुलके।
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१०,चा.का.]
पराशरमाधवः।
२११
"छायायामन्धकारे वा रात्रावहनि वा विजः ।
ययासुख-मुखः कुर्यात् प्राण-बाधा भयेषु च"- इति । तदपि नौहारान्धकारादि-जनित-दिङ्मोहन-विषयम्। देश-नियमो विष्णुपुराणेऽभिहितः,
"नेत्यामिषु विक्षेपमतीत्याभ्यधिकं भुवः।।
दूरादावसथान्मूत्रं पुरीषञ्च समाचरेत्”-इति ॥ आपस्तम्बोऽपि,-"दूरादावमथान्मत्र-पुरीषे कुर्याइक्षिणन्दिशमपरी वा" इति । मनुरपि,
"दूरादावमथान्मूत्रं दूरात् पादावसेचनम् ।
उच्छिष्टावनिषेकञ्च दूरादेव समाचरेत्” इति ॥ मएव वर्ध-देशानाह,
"न मूवं पथि कुर्वीत न भम्पनि न गो-अजे । न फाल-कटे न जले? न चित्यां न च पर्वते ।। न जीर्ण-देवायतो न वलीके कदाचन । न समन्वेषु गर्नषु || न गच्छन्नाप्यवस्थितः ॥ न नदी-तीरमासाद्य न च पर्वत-मस्तके ।
-
* वाध,-इति मु. पुस्तके पाठः। +च,-इति स• सो पुस्तकयोः पाठः । + पादावनेजनम्, इति म पुस्तके पाठः ।
हलको न न जले,-इति मु० पुस्तके पाठः । ॥ न चैत्येषु न गर्नेछु,-इति-मु• पुस्तके पाठः । पा न गच्छनाधिरोहितः, इति मु• पुस्तके पाठः ।
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२१२
पराशरमाधवः ।
[ १०,०का।
वाय्वग्नि-विमानादित्यमपः पश्यन् तथैव च* ॥
न कदाचन कुर्वीत विषमत्रस्य विसर्जनम्" इति ॥ चमोऽपि,
तुषाङ्गार-कपालानि देवताऽऽयतनानि च । राजमार्ग-मशानानि क्षेत्राणि च खलानि च ॥ उपरुद्धो न सेवेत छाया-वृक्षं चतुष्यथम् ।। उदकं चोदकांतश्च पन्थानश्च विसर्जयेत्॥
वर्जयेत् वृक्ष-मूलानि चैत्य-श्वभ-बिलानि च" इति ॥ हारीतः,
"अाहारन्तु रहः कुर्यात् विहारश्चैव सर्वदा ।
गुप्ताभ्यां लक्ष्म्युपेतः स्यात् प्रकाशे हीयते श्रिया” इति ॥ आपस्तम्बोऽपि,-"न च सोपानको|| मूत्र-पुरीषे कुर्यात्" इति। यमोऽपि,
"प्रत्यादित्यं न मेहेत न पश्येदात्मनः शकृत् ।
दृष्ट्वा सूर्यं निरीक्षेत गामग्निं ब्राह्मणं तथा" इति ॥ ततो लोष्टादिना परिसृष्ट-गुद-मेहनोटाहीतशिनचोतिष्ठित् । तथा च भरद्वाजः,*** तथैवगाः,-इति न पुस्तके पाठः । + चतुष्पथे,-इनि मु. युस्तके पाठः । । सर्वथा,-इति स. सो. पस्तकयाः पाठः। 5 लक्ष्मीयुक्तः स्यात्, इति मु• पुस्तके पाठः । || सोपानत् ,-इति मु० पुस्तके पाठः। पा परिमछमेहनो,-इति मु. पुस्तके पाठः । ** भारद्वाजः, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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९ख०,आ.का.
पराशरमाधवः।
"श्रथावकृष्य* विण्मूत्रं लोट-काष्ठ-तणादिना । उदस्तवासा(१) उत्तिष्ठेत् दृढ़ विधत-मेहनः" इति । ॥०॥ इति विएमूत्रात्मर्जाप्रकरणम् ॥०॥
अथ शौच-प्रकपणम् । तत्र याज्ञवल्क्यः ,
"ग्टहीत-शिश्नश्चोत्थाय निरभ्युद्धतै लैः ।
गन्ध-लेप-क्षय-करं शौचं कुर्यादतन्द्रितः” इति ॥ देवलोऽपि,
"श्रा शौचान्त्रोत्सृजेच्छिनं प्रस्रावाचारयोरपि ।
गुदं हस्तं च निर्मज्यान्मृदम्भोभि मुहुर्मुडः" इति ॥ दनोऽपि,
“तीर्थ शौचं न कुर्वोत कुर्वीतोद्धृत-वारिणा"-इति । अभ्युद्धरणामम्भवे विशेषमार विश्वामित्रः
"रनि(२)मात्राजलानीर्थी कुर्याछौचमनुते ।
पश्चात्तच्छोधयेत्तीर्थमन्यया ह्यइचिर्भवेत्" इति ॥ * यधाप्रकृष्य, -- इति मु० पुस्तके, व्यथापकृष्य,-इति स० पुस्तके पाठः। + विणमूत्र विसर्जन,-इति मु• पुस्तके पाठः।
अथ शौचविधिः, इति स० से. पुस्तकयोः पाठः । ६ बाह,-इति मु. पुस्तके पाठः । || विश्वामित्र इति नास्ति मु० पुस्तक । पा रत्निमात्राज्जलं त्यक्त्वा,-इति स. पुस्तके, रनिमात्र जलं त्यक्ता,इत्यन्यत्र पाठः। (९) उदस्तवासाः काटिदेशादुत्क्षिप्तवस्त्रः। (२) प्रकोठे विस्तृतकरे हस्तो, मुध्या तु बद्धया । स रनिः स्यात् , इत्यमरः ।
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पराशर माधवः ।
शौच-योग्यां मृत्तिकामाच यमः, -
तत्रैव विशेषमाह मरीचिः,—
“हरे मृत्तिकां विप्रः कूलात् सस्कितां तथा ” - इति ।
अतएव यमः, -
" विप्रे शुक्ला तु मच्छीचे रक्ता चत्रे विधीयते । हारिद्र वर्ण वैश्ये तु शूद्रे कृष्णां विनिर्दिशेत्” ॥ उक्त विशेषासम्भवे या काचिद्ग्राह्या । तदाह मनुः, - " यस्मिन्देशे त यतोयं याच यचैव मृत्तिका । सैव तत्र प्रशस्ता स्यात्तया * शौचं विधीयते" - इति ॥ विष्णुपुराणे वर्ज्य टद्विशेषादर्शिताः, -
" वल्मीक - मूषिकेतुखातां मृदमन्तर्जलां तथा । शौचावशिष्टां मेाच नादद्याक्षेप सम्भवाम् ॥
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अन्तः प्राप्यवपनाच्च हलत्खात न कर्दमात् " - इति । अन्तर्जला - मृत्तिका - प्रतिषेधस्तु वापी - कूपादि व्यतिरिक्त-विषयः ।
देवलोऽपि काचिन्निषिद्धामृदोदर्शयति
[१ का०, ख० का ० ।
" वापी - कूप - तड़ागेषु नाहरेद्वाह्यतामृदम् ।
श्राहरेज्जलमध्यात् तु परतामणि बन्धनात् " -- इति ॥
-
" श्रङ्गार-तुष- कीटास्थि-शर्करा- वालुकान्विताम् । वल्मीकेापरि तायान्तः कुड्या-फाल - श्मशानजाम् ॥ ग्रामवाह्यान्तरालस्यां बालुकां पांशुरूपिणीम् ।
* यथा, - इति मु० पुस्तके पाठः । + मोहोत्खातां न कर्दमां - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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९ख०,या.का.
पराशरमाधवः।
२२१
पाहतामन्यशौचार्थमाददीत न मृत्तिकाम्” इति ॥ हस्त-नियममाह देवलः,
“धर्मविक्षिणं इस्तमधःशौचे न योजयेत् ।
तथा च वामहस्तेन नाभेरूद्धं न शोधयेत्” इति ।। ब्रह्माण्डपुराणे दिनियमोऽभिहितः,
"उद्धृत्योदकमादाय मृतिका चैव वाग्यतः ।
उदङमुखो दिवा कुर्याद्रात्री द्दक्षिणामुखः" इति ॥ मृत्मयामाह शातातपः,
"एका लिङ्ग करे सव्ये तिसो ढे हस्तयोईयोः । मूत्र-शौचं समाख्यातं प्रकृति चिगुणं भवेत्” इति ॥
मनुरपि,
"एका लिङ्गे गुदे तिखस्तथैकत्र करे दश । उभयोः सप्त दातव्यामृदः शद्धिमभीमता ॥ एतच्छौचं ग्टहस्थस्य दिगुणं ब्रह्मचारिणः ।
वानप्रस्थस्य त्रिगुणं यतीनां तु चतुर्गणम्" इति । वौधायनोऽपि,
"पाश्चापाने मृदो योज्या वाम-पादे तथा करे ।
तिस स्तिस्रः क्रमाद्योज्याः सम्यक् औचं चिकीर्वता!"-इति वसिष्ठोऽपि,
* पुरीधे द्विगुणं भवेत् ,-इति मु० पुस्तके पाठः। + मुहिमवाप्नुयात् ,-इति स. सो. पुस्तकयोः पाठः । + चिकीर्षतः, इति मु. पस्तके पाठः ।
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२१६
पराशरमाधवः।
[११०,प्रा०का० ।
“पञ्चापाने दर्शकस्मिन्नुभयोः सप्त मृत्तिकाः ।
उभयोः पादयोः सप्त लिङ्गे वे परिकीर्तिते ॥ श्रादित्यपुराणे,*
एकस्मिन् विंशतिहस्ते इयोयाश्चतुर्दश"-इति । विंशत्यादिको ब्रह्मचारि-विषयं, "दिगुणं ब्रह्मचारिणः"इत्युक्रत्वात् । श्रादित्यपुराणे,
"स्त्रीद्रयोरर्द्धमानं प्रोक्तं शौचं मनीषिभिः । दिवाशौचस्य निश्यर्द्ध पथि पादं विधीयते ॥
प्रातः कुर्याद् यथाशकि शक्तः कुर्याद्यथोदितम्" इति ॥ बौधायनोऽपि,
"देशं कालं तथाऽऽत्मानं द्रव्यं द्रव्य-प्रयोजनम् ।
उपपत्तिमवस्थाच ज्ञात्वा शौचं प्रकल्पयेत्” इति ॥ सुद्धपराशरः,
“उपविष्टस्तु विषमूत्रं कर्तुर्यस्तु न विन्दति ।
स|| कुर्यादर्द्धशौचन्तु स्वस्य शौचस्य सर्वदा"-इति ।। श्रानुशामनिके शौचेतिकर्त्तव्यता दर्शिता,
"शौचं कुर्याच्छनै/रोबुद्धिपूर्वममङ्करम्।
* नास्त्येतत् म० पुस्तके। + हयाईया,-इति म० पुस्तके पाठः ।
विंशत्यधिकं.-इति मु० पुस्तके पाठः । 5 समाचरेत्,-इति मु० पुस्तके पाठः । || न,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१०, ख० का० । ]
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पराशरमाधवः ।
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विप्रुषश्च यथा न स्युर्यथा चोरुं न संस्पृशेत * ॥ बुद्धिपूर्वं प्रयत्नेन यथा नैनः स्पृशेत् द्विजाः " - इति ।
दक्षोऽपि -
“ षड़न्या नख-शृद्धौ तु देयाः शैौचेसुना मृदः । न शौचं वर्ष-धाराभिराचरेत्तु कदाचन" - इति ॥ मरीचिरपि -
".
"तिसृभिः शेोधयेत् पादौ शोध्यो गुल्फौ तथैव च । हस्त त्वामणिबन्धाचा लेप - गन्धापकर्षले !” – इति । यथा-विधि कृते - शौचे गन्धश्चेन्नापगच्छति, तदाह ? मनुः, - “यात्रापत्य मेध्यातो गन्धोलेपश्च तत् कृतः ।
तावन्मृद्वारि देयं स्यात् सर्व्वीस द्रव्य-शुद्धिषु" - इति । मनस्तुष्यभावे तु देवल श्राह -
" यावत्तु शुद्धिं मन्येत तावच्छौचं विधीयते । प्रमाणं शौच मयाथां ॥ न विप्रैरुपदिश्यते " - इति । पितामहोऽपि -
"न यावदुपनीयते" द्विजाः शूद्रास्तथाऽङ्गनाः ।
* न च स्पशेत्,— इति मु० पुस्तके पाठः । + हस्तौ दौ मणिवन्धाश्च - इति मु० पुस्तके पाठः । + लेपगन्धापकर्षणम्, - इति स० स० पुस्तकयेाः पाठः । 8 तत्र, — इति मु० पुस्तके पाठः ।
|| शौचसंख्याया, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
पान तावमुपनीयन्ते – इति स० से० प्रा० पुस्तकेषु पाठः ।
,
28
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पराशरमाधवः।
११.,या का।
गन्ध-लेप-क्षय-करं शौचमेषां विधीयते"-इति । अत्र स्त्री-शूद्र-ग्रहणम् अकृतोद्वाहाभिप्रायं, अनुपनीत-द्विजसाहचर्य्यात्(१) । मृत्परिमाणमाह शातातपः,
"पार्दामलकमात्रास्तु ग्रामा इन्दु-प्रते स्थिताः ।
तथैवाहुतयः मा: शौचे देयाश्च मृत्तिकाः" इति। यत्तु दक्षाङ्गिरोम्यां परिमाणान्तरमुकम्,
"अर्द्ध-प्रसूतिमात्रा तु प्रथमा मृत्तिका स्मता। द्वितीया च हतीया च तदर्द्धन प्रकीर्तिता ॥ प्रथमा प्रसूतिया द्वितीया तु तदर्घिका। हतीया मृत्तिका ज्ञेया त्रिभाग-कर-पूरणी"-इति । तत्र, सर्वत्र न्यूनपरिमाणेन गन्धाद्यक्षये मत्यधिकपरिमाणं द्रष्टव्यम्। सत्यपि गन्ध-क्षये शास्त्रोकमया पूरणीया यथाह दक्षः,
"न्यूनाधिक न कर्त्तव्यं शौच शुद्धिमभीमता। प्रायश्चित्तेन पूर्यत विहितातिक्रमे कृते" इति। एवमुकशौच-करणेऽपि यस्य भाव-द्धिर्नास्ति, न तस्य शाद्धिरित्याह व्याघपादः,
* शौचमेव-इति मु० पुस्तके पाठः । + विभागकरपूरणा, इति मु• पुस्तके, त्रिभाग करयूरणम्, इति
स. पस्त के पाठः । + शोचे,-इति मु० पुस्तके पाठः । 5 सिद्धि,-इति स• शा• पुस्तकयोः पाठः ।
(१) हिजामामुपनयनवत् विवाहस्य स्त्रीशूद्रयोः प्रधानसंखारवादित्याशयः ।
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११०,बा.का.]
पराशरमाधवः।
"शौचन्तु विविध प्रोकं वाह्यमाभ्यन्तरन्तथा । मृज्जलाभ्यां स्मृतं वाह्य भावद्धिस्तथाऽऽन्तरम् ।। गङ्गा-तोयेन कृत्स्नेन सुझारैश्च नगोपमैः ।
आ मृत्योश्चाचरन् शौचं भावरुष्टो न शुद्यति" इति । शौचस्य विविधस्यापि सर्वकर्माधिकार-हेतुत्वमन्वय-व्यतिरेकाभ्यां दबोदर्शयति,
"शौचे यत्नः सदा कार्य: शौच-मूलो द्विजः स्मृतः । शौचाचार-विहीनस्य समस्ता निष्फला क्रिया"-इति ।
॥०॥ इति शौचप्रकरणम् ॥ ॥
अथ गण्डूष-विधिः ।। तत्रापस्तम्बः,
"एवं शौच-विधिं कृत्वा पश्चागण्डूषमाचरेत् । मूत्रे रेतमि विट-मर्गे दन्त-धावन-कर्मणि ॥ भक्ष्याणं भवणे चैव क्रमाद्गण्डूषमाचरेत्। चतुरष्टदिषट प्रष्टगण्डः षोडशैस्तथा ॥ मुख-शुद्धिं । कुर्वीत ह्यन्यथा दोषमानुयात् । पुरस्ताद्देवताः सा दक्षिणे पितरस्तथा ॥ पश्चिमे मुनि-गन्धा वामे गण्डूषमाचरेत् । गण्डष-समये विप्र स्तर्जन्या वक्ता-तालनम् ।।
5 न गोमयः, इति मु० पुस्तके पाठः । * निष्फलाः कियाः, इति बहुवचनान्तः पाठः मु० पुस्त के ।
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पराशरमाधवः ।
[९ख०,या का।
दुर्चीत यदि मूढ़ात्मा रौरवं नरकं व्रजेत्” इति।'
अथाचमन विधिः। तत्र द्धपराशर,
"कृत्वाऽथ शौचं प्रक्षाल्य पादौ हस्तौ च मृजलैः । निवद्ध शिख-कच्छस्तु दिज आचमनं चरेत् ॥
कृत्वोपवीतं सव्यांसे वामनः-काय-सयत;" इति । याज्ञवल्क्योऽपि,
"अन्तर्जानु शुचौ देशे उपविष्ट उदङमुखः ।
प्राग्वा ब्राह्मेन तीर्थन द्विजानित्यमुपस्पृशेत्" इति। गौतमोऽपि,-"एचौ देश आसीनोदक्षिणबाई जान्वन्तराः कृत्वा यज्ञोपवीत्यामणिबन्धनात् पाणी प्रक्षाल्य वाग्य तो हृदयस्पृशः|| त्रिश्चतुर्वाऽप प्राचामेता पादौ चाभ्युक्षेत्** खानिचोपस्पृशेत् शीर्षण्यानि मूर्द्धनि च दद्यात्()" इति । तत्र त्रिचतुर्वेत्यैच्छिको विकल्पः । ब्रह्मतीर्थ तीर्थान्तरेभ्यो विविनकि याज्ञवलक्यः,* अथ गण्डविधिः,-इत्यारभ्य एतदन्तोग्रन्थः नास्ति मुदितातिरिक्त
पुस्तकेधु। + प्रबद्ध, इति मु• पुस्तके पठः । कक्षस्तु-इति स० मा० शा० पुस्तकेघु पाठः ।.
जान्वन्तरं,-इति मु० पुस्तके पाठः। || हृदये स्पशन्,-इति मु० पुस्तके पाठः । ॥ याचमेत्,-इति स० सा० शा• पुस्तकेघु पाठः । ** चाभ्युक्षयेत्, इति मु० पुस्तके पाठः । (१) शीर्षण्यानि शीर्षभवानि खानि इन्द्रियाणि नासिका चक्षुः श्रोत्राणि
उपस्पृशेत् , मूर्द्धनि च दद्यादप इति संबन्धः ।
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९ख०,था.का.
पराशरमाधवः।
२१
"कनिष्ठादेशिन्यङ्गुष्ठ-मूलान्यग्रं करस्य च । ।
प्रजापति-पिट-ब्रह्म-देव-तीर्थान्यनुक्रमात्()"-इति । एतदेव शङ्खलिखिताभ्यां स्पष्टीकृतम्,-"अङ्गुष्ठमूलस्योत्तरतः प्रागप्रायां रेखायां बाह्य तीर्थ, प्रदेशिन्यङ्गष्ठयोरन्तरा पियं, कनिष्ठिका-करतलयोरन्तरा प्राजापत्यं, पूर्वणाङ्गलि-पर्वणि दैवम्" इति । आचमनीयमुदकं विशिनष्टि शङ्कः,
"अद्भिः समुद्धृताभिस्त होनाभिः फेन-बुदुदैः ।
वहिना न च तप्ताभि रक्षाराभिरुपस्पृशेत्" इति । याज्ञवलक्यः,
"अद्भिस्तु प्रकृतिस्थाभि_नाभिः फेन-बुदैः । हत्-कण्ठ-तालुगाभिस्तु यथामा विजातयः ॥
शोरन् स्त्रीच शूद्राश्च सकृत् स्पृष्टाभिरन्तनः(२)" इति । मनुरपि,
"हगाभिः पूयते विप्रः कण्ठगाभिस्तु भूपतिः ।
वैश्योऽभिः प्राशिताभिस्तु शूद्रः स्पृष्टाभिरन्नतः" इति । प्रचेता अपि,__ "अनुष्णाभिरफेनाभिः पूताभिर्वस्त्र-चक्षुषा ।
हृङ्गताभिरशब्दाभिः त्रिश्चतुवाङ्गि (चमेत्" इति। __ * भूमिपः, इति मु. पुस्तके पाठः। (२) यादेशिनी तर्जनी। तथाच, कनिष्ठामूले प्राजापत्यं तीर्थं, तर्जनीमले
पिन्यं, अङ्गठमले ब्राह्म, करस्याग्रे दैवमितिविवेकः । (२) अन्ततः ओठप्रान्ते।
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२२२
तत्रापवादमाह यमः *,
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पराशर माधवः ।
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[१०, या ० का ० ।
"राजाववीचितेनापि शुद्धिरुका मनीषिणाम् ।
उदकेनातुराणाञ्च तथोष्णनोष्ण पापिनाम्" - इति ।
उदकस्य ग्रहण- प्रकारं परिमाणं चाह भरद्वाजः, - " श्रायतं सर्व्वतः हत्वा गोकर्ण कृनिमत्करम् । sri fear तोयं ग्टहीत्वा पाणिना द्विजः ॥ सुक्राङ्गुष्ठकनिष्ठेन शेषेणाचमनं चरेत् ।
माष मञ्जनमाचास्तु संग्टह्य चिः पिवेदपः " - इति । स च पाणि दक्षिणो द्रष्टव्य:, “त्रिः पिवेद्दचिणेनाप: ” – इति पुराणवचनात्। उदकपानानन्तर- भाविनीमितिकर्त्तव्यतामाह दक्षः,"मंदृत्याङ्गुष्ठमूलेन द्विः प्रमृज्याप्ततोमुखम् । संहताभि स्त्रिभिः पूर्व्वमास्यमेवमपस्पृशेत् ॥ अङ्गुष्ठेन प्रदेशिन्या घाणं स्पृष्ट्वा त्वनन्तरम् । श्रङ्गुष्ठामिकाभ्यान्तु चक्षुः - श्रोचे ततः परम् ॥ कनिष्ठाङ्गुष्ठयोनी भिं हृदयन्तु तलेन वै ।
सर्व्वीभिश्च शिरः पश्चात् बाहू चाग्रेण संस्पृशेत्” – इति । बृद्धभङ्क्षस्त्वन्यथा स्पर्शनमाह, -
“तर्जन्यङ्गुष्ठ - थांगेन स्पृशे नाशापुर-ढयम् ।
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* याज्ञवल्क्यः, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ संहृताङ्गुलिना, इति मु० पुस्तके पाठः ।
| संपत्याङ्गुष्ठमूलेन, इति मु० पुस्तके, संभूत्येति स० पुस्तके पाठः । $ संतातिभिः पूर्व्वकाम्यमुपस्पृशेत्
इति मु० पुस्तके पाठः ।
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११.पा.का.
पराशरमाधवः।
२२६
मध्यमाङ्गुष्ठ-योगेन स्पृशेनेत्र-इयं ततः॥ अङ्गष्ठ स्थानामिकया योगेन अवर्ण स्पृशेत् । कनिष्ठाङ्गुष्ठ-योगेन स्पृशेत् स्कन्ध-दयं ततः॥ नाभिं च हृदयं तद्वत् स्पृशेत् पाणि-तलेन तु।
संस्पृशेच ततः शीर्षमयमाचमने विधिः" इति । एवमन्येऽप्यन्यथा वर्णयन्ति । तत्र, यथाशाखं व्यवस्था द्रष्टव्या । आचमन-निमित्तान्याह मनुः,
"कृत्वा मूत्र पुरीषं वा पाण्याचान्त उपस्पृशेत् ।
पीत्वाऽपोध्येव्यमाणश्च वेदमग्निं च* मर्वदा" इति । कूर्मपुराणे,
"चण्डाल-क्षेच्छ-सम्भाणे स्त्री-शूट्रोचिष्ट-भाषणे । उच्छिष्टं पुरुषं स्पृष्ट्वा भोज्यं वाऽपि तथाविधम् ॥ आचामेदश्रुपाते वा लोहितस्य तथैव च । अमेवामथालम्भे स्पृष्ठाऽप्रयतमेव च ॥
स्त्रीणां यथाऽऽत्मनः स्पर्श नीलों वा परिधाय च” इति। स्त्रीशूद्रोच्छिष्टभाषणे, इत्येतरूपादिविषयम् । तथा च पद्मपुराणे,
"चाण्डालादीन् जपे होमे दृष्ट्वाऽऽचामेद्विजोत्तमः" इति। मनुरपि,
* वेदमनच,-इति स. सो. पुस्तकयोः पाठः । + दृष्ट्वा,-इति स पुल के पाठः । 1 तथात्मसंस्पर्श,-इलि मु. पुस्तके पाठः ।
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२२४
वृहस्पतिः *, -
-wood
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पराशरमाधवः ।
“सुवा चुत्वा च भुक्का च निष्ठीव्योक्वाऽनृतं वचः ।
रर्थ्या श्मशानं चाक्रम्य श्राचामेत् प्रयतोऽपि सन् " - दवि ।
मार्कण्डेयपुराणम् -
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“अधोवायु- समुत्सर्गे श्राक्रन्दे क्रोध - सम्भवे । मार्ज्जर-मूषिका! स्पर्शे प्रहासेऽमृत - भाषणे ॥ निमित्तेषु सर्व्वेषु कर्म कुर्व्वन्नुपस्पृशेत्” इति ।
[१०, ख०का ।
यमोऽपि -
"उत्ती दकमाचामेदवतीर्य्य तथैव च । एवं स्यात्तेजसा युक्रेो वरुणेन सुपूजितः” - इति । हारीतोऽपि - " नेात्तरेदनुपस्पृश्य जलम् ” – इति । वसिष्ठोऽपि -
"क्षुते निष्ठीवने सुप्ते परिधानेऽश्रुपातने ।
पञ्चस्त्रेतेषु चाचामे! च्छ्रोचं वा दक्षिणं स्पृशेत्” – इति । दक्षिणकर्ण-स्पर्शनमाचमनासम्भवे वेदितव्यम् । तथा च,
* नास्त्येतत् मु० पुस्तके |
+ मूषक, — इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ वाचामे, – इति स० से ० पुस्तकयोः पाठः । · वामि, इति मु० पुस्तके पाठः ।
" सम्यगाचम्य तोयेन क्रियां कुर्व्वीत वै शुचिः । देवतानाम्टषीणाञ्च पितॄणाञ्चैव यत्नतः ॥ कुर्वीतालम्भन चापि दक्षिणश्रवणस्य वा ।
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१०,घा०का•
पराशरमाधवः ।
२२५
यथाविभवतो ह्येतत् पूर्वाभावे ततः परम् ॥
न विद्यमाने पूर्व के उत्तर-प्राप्तिरिष्यते"-इति । दक्षिणकर्ण-प्रशंसा च, 'प्रभासादीनि तीर्थानि'-इत्यादिनावक्ष्यते । श्रथ वा, बौधायनाक द्रष्टव्यम्,-"नीवों विसृज्य परिधायोपस्पशेदाई-ढणं भूमि गोमयं वा संस्पृशेत्"-दति । षट्त्रिंशनाते द्विराचमन-निमित्तं दर्शितम्,
"होमे भोजन-काले च मन्ध्ययोरुभयोरपि ।
श्राचान्तः पुनराचामेज्जप-हामार्चनादिषु"-इति । याज्ञवलकोऽपि,
"स्नात्वा पीत्वा सुते सुप्ते भुक्त्वा रथ्योपसर्पणे* ।
श्राचान्तः पुनराचामेदामोविपरिधाय च”-दति । बौधायनोऽपि,
“भोजने हवने दाने उपहारे प्रतिग्रह।।
हविर्भक्षण-काले च तत् द्विराचमनं स्मृतम्"--इति । कूर्मपुराणेऽपि,- .
"प्रक्षाल्य पाणी पादौ च भुञ्जानो विरुपस्पृशेत् । शुचौ देशे समासीनो भुत्वा च द्विरुपस्पृशेत् ।। श्रोष्ठौ विलोमको स्पृष्ठा वासेविपरिधाय च । रेतेोमूत्र-पुरीषाणामुत्सर्गेऽयुक्त-भाषणे ॥
* रथ्याप्रसर्पणे,-इति म० पुस्तके पाठः । + उपहारप्रतिग्रहे,-इति मु० पुस्तके पाठः। | शुष्कभाषणे,-इति मु° पुस्तके पाठः ।
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२२६
पराशरमाधवः ।
[१०,धा०,का।
जुम्भित्वाऽध्ययनारम्भे* कासा श्वासागमे तथा । चत्वरं वा श्मशानं वा समागम्य द्विजोत्तमः ॥
सन्ध्ययोरुभयोस्तद्वदाचान्तोऽप्याचमेत्ततः" इति । अयुतभाषणं । निष्ठरभाषणम् । श्राचमनापवादमाह बौधायनः,--
"दन्तवद्दन्त-लग्नेषु दन्त-सक्तेषु धारणा।
अस्थितेषु च नाचामेतेषां संस्थानवकुचि:||" इति। दन्तलम-दन्तसक्योर्निहार्यानिहार्यरूपेण भेदः । अतएव देवलः,
"भोजने दन्त-लग्नानि नि त्याचमनं चरेत् । दन्त-लनमसंहायं लेपं मन्येत दन्तवत् ॥ न तत्र बहुश: कुर्याद्यनमुद्धरणे पुनः ।
भवेच्चांशौचमत्यर्थं दण-वेधाडणे कृते" - इति । अस्थितेषु ** तेषु म्यानच्युतेषु च निगीर्णवित्यर्थः । तत्र मनुः,
"दन्तवदन्तलग्नेषु जिहास्पर्श-कृते। न तु ।
परिशुतेषु च स्थानान्निगिरनेव तच्छुचिः” इति । एतच्च रसानुपलब्धी वेदितव्यम् । यथाऽऽह शङ्खः,-"दन्तवद्दन्त
* छीवित्वाऽध्ययनारम्भे,-इति म० पुस्तके पाठः । + काश,-इति स० मे. शापुस्तके घु पाठः । + शुष्कभाषणं,-इति म. पस्तके पाठः । 6 ग्रस्तेघ तेघ,-इति शा. पुस्तके पाठः । || सस्थानवच्छचिः, इति शा• पुस्तके पाठः । पा बहुलं,-इति म० पुस्तके पाठः । ** ग्रन्तेष.-इति शा० पुस्तके पाठः । t+ जिदास्पर्श कृते,-इति स० मा० शा० पुस्तकेय पाठः ।
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१०,मा• का०]
पराशरमाधवः ।
२२७
लग्नेषु रसवर्जनमन्यतो जिहाभिस्पर्शनात्" इति । फल-मूलादिषु विशेषमाह शातातपः,
"दन्तलग्ने फले मूले भुक्त-स्नेहावशिष्ठ के।
ताम्बूले चेतुदण्डे च नाच्छिष्टो भवति दिजः" इति। पत्रिंशन्मतेऽपि, t
"ताम्बले चैव सोमे च भुक्र-स्नेहावशिष्टके । दन्न-लग्नस्य संस्पर्श नाच्छिष्टस्तु भवेन्नरः ॥ त्वग्भिः पत्र मल-पुष्यै स्तृण-काष्ठमयै स्तथा।
सुगन्धिभिस्तथा द्रव्यै नीछिटो भवति दिजः' इति । एतच्च मुख-सौरभ्याद्यर्थोपभुक्तावशिष्ट-विषयं ताम्बूल-साहचर्यात्। 'दन्तलग्नस्य मंस्प' इति अनिहार्य्यस्य || दन्तलग्नस्थ जिया संस्पर्श,इत्यर्थः । याज्ञवल्क्योऽपि,___ "मुखजा विप्रपोमेध्या तथाऽचमन-विन्दवः ।
श्मश्रु चास्य-गतं दन्त-मतं त्यता ततः सचि"-इति। मुख-निःसृता विन्दवो यद्यङ्गे पतन्ति तदाऽऽचमनापादकाः** । तथा च गौतमः,-"मुख्या विग्रुप उच्छिष्टं न कुर्चन्ति । न चेदङ्ग * 'एतच्च'-- इत्यारभ्य, एतदन्तोग्रन्थः मुद्रितातिरिक्त पुस्तकेषु नास्ति । + घविंशतिमतेपि,-इति शा० पुस्तके पाठ। + 'इति' प्राब्दोऽत्राधिकः म पस्त के । ६ मुखसौरभाद्यर्थीयभुक्तविधयं,-इति स सेा० शा० पुस्तकेघु पाठः । ॥ हार्यम्य,-इति शा० पुस्तके पाठः।। | नियतं पतन्ति,-इति से० प्रा० पुस्तक याः पाठः । ** तदाचमनापवादकाः, ---इति मु० पुरत के पाठः । # नाच्छियं कुर्चन्ति, इति शा० पुस्तक पाठः ।
*
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++
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२२०
पराशरमाधवः ।
थाका० ।
निपतन्ति”-इति । आचमन-विन्दव स्वङ्ग स्पृष्टा अपि मेध्याः । तथा च मनुः,
"स्पृशन्ति विन्दवः पादौ य ाचामयतः परान् ।
भौमिकैस्ते समा ज्ञेया न तैरप्रयता भवेत्" इति । अत्र पाद-ग्रहणम् अवयवान्तरस्याप्युपलक्षणार्थम् । तथा च यमः,
"प्रयान्न्याचमतोयाश्च शरीरे विशुषो नृणाम् ।
उच्छिष्ट-दोषोनास्त्यत्र भूमि-तुल्यास्तु ताः स्मृताः" इति। श्मश्रु-विषये विशेषमाहापस्तम्बः,-"न श्मश्रुभिरुच्छिष्टो भवत्यन्तरास्ये मनिर्यावन हस्तेनोपस्पृशति" इति । आचमने वानाह भृगुः,
"विना यज्ञोपवीतेन तथा धौतेन वासमा । मुक्ता शिखां चाप्याचामेत् । कृतस्यैव पुनः क्रिया ।। मोष्णीषी बद्ध-पर्यः प्रौढ़पादश्च(९) यानगः ।
दुर्देश-प्रगतश्चैव । नाचामछुद्धिमाप्नुयात्" इति । बौधायनोऽपि,-"पादप्रक्षालनाच्छषेण नाचामेत, भूमौ श्रावयित्वा
* यस्याचामयतः, इति शा• पुस्तके पाठः । + प्रयान्त्याचमतोयम्य, इति म. पुस्तके पाठः । 1 बाप्याचामेत् , -इति मु° पुस्तके पाठः। 5 दुर्देशः प्रपदश्चैव,-इति शा० स० पुस्तकयोः पाठः ।
(१) प्रौपादः,-"आसनारूपादस्त जानुनावयास्तथा। कृतावस
थिकोयस्तु प्रौढ़पादः स उच्यते' इत्युक्तलक्षणः। जानुनोच्योः कृतावसक्थिकोवस्त्रादिनाकृतएष्ठजानुजङ्घाबन्धः ।
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१०या०का।
पराशरमावः ।
२२६
ऽऽचामेत् , न मबुद्धदाभिन सफेनाभि ।च्छिष्टाभिर्न क्षाराभि. न विवर्ण भि नोष्णाभि न कलुषाभि ने हसन्न जत्पन्न तिष्ट न प्रहो न प्रणतो न मुक्र-शिखो नाबद्धकच्छो न वहिर्जानु नवेष्टितशिराः न वद्धकक्षो न त्वरमाणो नायज्ञोपवीती न प्रसारितपादः, शब्दमकुचस्त्रिरपो हृदयङ्गमाः पिवेत्" इति । देवलोऽपि,
"सोपानको जलस्थोवा मुक्तकेशोऽपि वा|| नरः ।
उष्णीषी वाऽपि नाचामेद्वस्वेनावध्य बा शिरः” इति । आपस्तम्बोऽपि,-"न वर्ष-धाराभिराचामेत्"पाइति । यमोऽपि,
"अपः कर-नखैः स्पृष्टा य श्राचामति वै द्विजः ।
सुरां पिवति स व्यक्तं यमस्य वचनं यथा"-इति । ब्रह्माण्ड-पुराणेऽपि
"कण्ठं शिरोवा प्रारत्य रथ्याऽऽपण-गतोऽपि वा।
अकृत्वा पादयोः शौचमाचान्तोऽप्यचिर्भवेत्" इति। गौतमोऽपि,-"नाञ्जलिना पिवेत्रतिष्ठन् नोद्धृतोदकेनाचामेत्"इति । नतिष्ठन्निति स्थलविषयं, जले च तिष्ठन्त्रण्याचामेत् । तथा च विष्णुः,
* नोच्छियाभिनक्षाराभिः,-इति नाम्ति मुदितातिरिक्त पस्तकेछ । + नाणाभिः, ---इति मुहितातिरिक्तपुस्तकेषु न दृश्यते। " है न जल्पन् न तिष्ठन्, इति नास्ति मु. पुस्तके। 5 नाबद्ध केशा,-इति शा. पुस्तके पाठः । || थवा,-इति मु. पुस्तके पाठः।। पा न वर्घधाराखाचामेत्, इति शा• पुस्तके पाठः ।
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२३०
कौशिकोऽपि -
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पराशरमाधवः ।
“जान्वोरूर्द्ध जले तिष्ठन्नाचान्तः शुचितामियात् । अधस्ताच्छतकृत्वोऽपि समाचान्तो न शुह्यति” - दूति ।
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हारीत:
[१०, ख० का ० ।
""
“ अपवित्र करः कथित् ब्राह्मणोऽप उपस्पृशेत् * । अकृतं तस्य तत् सर्व्वं भवत्याचमनं तथा ॥ वामहस्ते स्थिते दर्भे दक्षिणेनाच मेद्यदि ।
रक्तं तु तद्भवेत्तोयं पीत्वा चान्द्रायणञ्चरेत्" - इति । मार्कण्डेयस्तु दक्षिण- हस्तस्य स पवित्रतां विधत्ते, -
" सपवित्रेण हस्तेन कुर्य्यादाचमनक्रियाम् ।
नोच्छिष्टं तत् पविचन्तु भुक्तोच्छिष्ठन्तु वर्जयेत्” - इति । गोभिलस्तु हस्तये स पविचत्वं प्रशंसति -
"उभयत्र ? स्थितैर्दर्भः समाचामति योदिजः । मोमपान - फलं तस्य भुक्का यज्ञफलं भवेत् " - इति । स्नानानन्तर- भाविन्याचमने दक्षो विशेषमाह -
"anarsseriaat विप्रः पादौ कृत्वा जले स्थले । उभयोरप्यसौ शुद्धस्ततः समभवेदिति” ।
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* ब्राह्मणोयदुपस्पृशेत्,—इति मु० पुस्तके, ब्राह्मणोय उपस्पशेत्,—इति
चान्यत्र पाठः ।
+ अपेयं तस्य तत्सव्र्व्वं, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ पवित्र, इति स० से० प्रा० पुस्तकेषु पाठः । 8 हस्तदय, - इति मु० पुस्तके पाठः !
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९ख०,आ.का.
पराशरमाधवः।
२३१
"आई-वामा जले कुत्तिर्पणाचमनं जपम् ।
शुष्कवामा स्थले कुर्यातर्पणाचमनं जपम्'-दति । स्थलविषये विशेषोदर्शितः स्मृत्यन्तरे,
"अलाभे ताम्र-पात्रस्य करकञ्च कमण्डलुम् । ग्टहीत्वा खयमाचामेत् नरोनाप्रयतो भवेत् ॥ करकालावुकाद्यैश्च ताम्र-पर्णपुटेन* च । खहस्ताचमनं कायं स्नेहलेपांश्च वर्जयेत् ।। करपात्रे च यत्तीयं यत्तोयं ताम्रभाजने।
सौवर्षे राजतेचैव नैवाशुद्धन्त तत् स्मृनम्' इति । एवमुक-लक्षणस्याचमनस्य प्रशंसामाह व्यापात्,
"एवं यो ब्राह्मणोनित्यमुपस्पर्शनमाचरेत् ।
ब्रह्मादि-स्तम्बपर्यन्तं जगत् स परितर्पयेत्” इति । वृद्धशङ्खोऽपि,
"त्रिः प्राश्नीयाद्यदम्भस्तु प्रीतास्तेनास्य देवताः । ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च भवन्तीत्यनुशुश्रुमः । गङ्गा च यमुना चैव प्रीयता परिमार्जनात् । पादाभ्यां प्रीयते विष्णु ब्रह्मा शिरमि कीर्तितः । नासत्यदस्रो प्रीयेते स्पृष्ट नासा-पुट-दये। स्पष्टे लोचन-युग्मे तु प्रीयेते शशि-भास्करौ ।
* चम्मपुटेन,-इति स० से. शा० पुस्तकेघु पाठः । + करकपात्रे च, इति मु० पुस्तके पाठः । । प्रीयते,-इति भा० पुस्म के पाठः ।
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पराशरमाधवः।
आका० ।
कर्ण-युग्भे तथा स्पृष्ट प्रीयते त्वनिला नलौ। स्कन्धयो: स्पर्शनादेव प्रीयन्ते सर्वदेवताः। . नाभि-संस्पर्शनानागाः प्रीयन्ते चास्य नित्यशः । संस्पृष्टे हृदये चास्य प्रीयन्ते सर्चदेवताः ।
मूर्द्ध-संस्पर्शनादस्य प्रीतस्तु पुरुषोभवेत्”-दति। आचमनाकरणे प्रत्यवायो दर्शितः पुराणमारे, *
“यः क्रियाः कुरुते मोहादनाचम्दैव नास्तिकः । भवन्ति हि स्था तस्य क्रियाः सा न मंशयः" इति ।
॥ ॥ इति आचमन-प्रकरणम् ॥०॥
अथ दन्तधावन-विधिः ॥ अत्रात्रिः,
“मुखे पर्युषिते नित्यं भवत्यप्रयतानरः।
तदा -काठं शुष्कं वा भक्षयेद्दन्तधावनम्" इति । व्यासेाऽपि,
"प्रक्षाल्य हस्तौ पादौ च मुखञ्च सुसमाहितः । दक्षिणं वाहुमुसृत्य कृत्वा जान्वन्तरा ततः ॥ तिनं कषायं कटुकं सुगन्धों कण्डकान्वितम् ।
क्षीरिणोवृक्ष-गुल्मादीन् भक्षयेद्दन्तवावनम्" इति। विष्णुः,
* पुराणसारे,-इति नास्ति मु० पुस्तके । । सगन्ध, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१.या०का.]
पराशरमाधवः ।
२१३
"कण्ट कि-क्षीर-वृतोत्थं दादशाङ्गल-सम्मितम् । कनिष्ठाङ्गुलिवत् म्यूलं पार्द्ध-कृत-कूर्चकम् ।। दन्त-धावनमुद्दिष्टं जिहोल्लेखनिका* तथा। सुसूक्ष्म सूक्ष्म-दन्तस्य सम-दन्तस्य मध्यमम् ॥ स्थूलं विषम-दन्तस्य त्रिविधं दन्त-धावनम् । द्वादशाङ्गुलिकं विप्रे काष्ठमाहुमणीषिणः ॥
क्षत्र-विट-छद्र-जातीनां नव-षट्-चतुरङ्गुलम्" इति । अङ्गिराः,
"श्राम-पुत्राग-विल्वानामपामार्ग-शिरीषयोः । भक्षयेत् प्रातरुत्थाय वाग्यतो दन्त-धावनम् ॥ वटाश्वत्थार्क-खदिर-करवीरांश्च वर्जयेत्। जात्यच्च विल्व-खदिर-मूलन्तु ककुभस्य च ॥ अरिमेदं प्रियङ्गच्च कण्टकिन्यस्तथैव च । प्रक्षाल्य भक्षयेत् पूर्व प्रवाल्यैव च सत्यजेत् ॥ उदभुखः प्रामुखो वा कषायं तितकं तथा ।
प्रातर्भूत्वा च यतवाग्मक्षयेद्दन्त-धावनम्" इति । कात्यायनो दन्त-धावनस्य काष्ठाभिमन्त्रण-मन्त्रं दर्शयति,
"आयुर्वलं यशोवर्चः प्रजाः पशु-वसनि च । ब्रह्म प्रज्ञाञ्च मेधाञ्च त्वं नोधेहि वनस्पते"-इति।
* जिन्होलेखनिकां-इति मु° पुस्त के पाठः । + इति, शब्दोऽत्राधिको मु० पुस्तके ।
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२३४
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पराशर माधवः ।
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वाना होना:, - " नाङ्गुलिभिर्दन्तान् प्रक्षालयेत् * ।
दक्षिणाभिमुखो नद्यां नीलं धव-कदम्बकम् ।
[१०, ० का ० ।
तिन्दुकेद वन्धूक- मोचामरर्ज-वल्वजम् ॥ तिन्दुकेङ्गुद-वन्धूक
कापमं दन्तकाष्ठ विष्णोरपि हरेच्छ्रियम् ।
न भक्षयेत पालाशं कार्पासं शाकमेवच ।
एतानि भक्षयेद्यस्तु क्षीण-पुः स जायते " - इति । व तिथीनाह विष्णुः, -
" प्रतिपद्दर्शषष्ठीषु चतुर्द्दश्यष्टमीषु च ।
नवम्यां भानुवारे च दन्तकाष्ठं विवर्जयेत्" - इति । यमो ऽपि -
"चतुर्दष्टमी दर्श: पूर्णिमा संक्रमाः । एषु स्त्री- तेल- मांसानि दन्तकाष्ठच वर्जयेत् । श्राद्धे जन्मदिने चैव विवाहेऽजीर्ण-दोषतः । व्रते चैवोपवासे च वर्जयेद्दन्त - धावनम् " - इति ॥ व्यामोऽपि -
" श्राद्धे यज्ञे च नियमान्नाद्यात्। प्रोषितभर्तृका । श्राद्धे कर्त्तुं निषेधोऽयं न तु भोक्नुः कदाचन ।
+ माकर्तु - इति मु० पुस्तके पाठः
"
* वचनानामनुष्टुप् छन्दसोयनिवद्धत्वात् यत्र च तलक्षणाभावात् कियन्त्य'क्षराणि पतितान्यनुमीयन्ते । परमादर्शपुस्तकेषु सर्व्वेवेवमेव दर्शनादित्यमेव रक्षितम् ।
+ नियमानतत्, मु० पुस्तके पाठः ।
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१०,पा.का.)
पराशरमाधवः।
२२५
अलाभे दन्त-काष्ठानां निषिद्धायां तथा निशौ ।
अपां द्वादश-गण्डू विदध्यादन्त-धावनम्" इति । वृद्धयाज्ञवल्क्यः -
"दृष्टका-लोष्ट-पाषाणे रितराङ्गुलिभिस्तथा । मुक्त्वा चानामिकाऽङ्गाष्ठौ वर्जयेद्दन्त-धावनम्” इति ।
इति दन्त-धावन-प्रकरणम्॥
अथ मान-जप होमादे दर्भ-पाणिना कर्त्तव्यत्वादादौ
दर्भ-विधिरुच्यते ॥ तत्र हारीतः
"अच्छिन्नागान् सपत्रांश्च? समूलान् कोमलान् भान् । पिट-देवर्षि-पूजार्थ || ममादध्यात् कुशान् द्विजः । कुश-हस्तेन यजप्नं पानञ्चैव कुशैः सह ।
कुश-इस्तस्तु यो भुत तस्य संख्या न विद्यते” इति । पुराणान्तरेऽपि,
“कुश-पूतं भवेत् स्वानं कुशेनेपिस्पृशेत् द्विजः ।
कुशेन चोद्धतं तोयं सोमपानेन मम्मितम्” इति । गोभिलोऽपि,* निषिद्धे च--इति मु० पुस्तके पाठः । + याज्ञवल्क्यः-इति मु० पुस्तके पाठः ।
जप,-इति मु. पुस्तके नास्ति । 5 पवित्रांच,-इति मु० पुस्तके पाठः। ॥ पिटदेव जपार्थन्तु,-इति स० से शा० पुस्तकेषु पाठः । ना कुशहस्तेन, इत्यारभ्य कुशेनेोपस्पशेत् दिजः, इत्येतदन्तोग्रन्थः मुनि
तातिरिक्त पुस्तकेषु न दृश्यते ।
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पराशरमाधवः ।
या०का ।
"कुश-मूले स्थितो ब्रह्मा कुश-मध्ये जनार्दनः ।।
कुशाग्रे शङ्करं विद्यात् त्रयो देवाव्यवस्थिताः” इति । कौशिकः,
"एचौ देशे शुचिर्भूत्वा स्थित्वा पूत्तरामुखः ।
ॐकारेणेव मन्त्रेण कुशाः स्पृश्याद्विजोत्तमैः” इति । उत्पाटन-मन्त्रस्तु,
"विरिश्चिना महोत्पन्न, परमेष्ठि-निसर्गजः ।
नुद पापानि सर्वाणि दर्भ, स्वस्तिकरो मम"-इति । वर्ण-भेदेन विनियोग-भेदमाह कात्यायनः,
"हरिता यज्ञिया दर्भाः पीतकाः पाकयज्ञिया:(१) ।
समलाः पिवदैवत्याः कल्माषा वैश्वदेविकाः” इति । कुशाभावे शङ्ख,
"कुशाभावे विजश्रेष्ठः काशः कुर्चीत यनतः ।
तर्पणादीनि कर्माणि काशाः कुश-समाः स्मृताः" इति । यमोऽपि,
* विन्द्यात्,-इति म. पुस्तके पाठः। + निसर्गतः, इति शा. पुस्तके पाठः । 1 विनियोगमाइ,-इति शा० पुस्तके पाठः। ६ तत्त्वतः, इति शा० स० पुस्तकयाः पाठः। (१) पाकयज्ञियाः पाकयज्ञे विनियोगाहाः। पाकयज्ञश्च,-"पाकयज्ञा इत्याचक्षत एकाग्नौ यज्ञान् ( 8.६.२)"-इति लायायनीये श्रौतसूत्रे परिभाषितः। “त्रयः पाकयज्ञाः, हुता यमौ हूयमाना अनमो प्रहुता ब्राह्मणमाजने ब्रह्मणि हुताः, (१.१.२-३)"-इति आश्वलायनीये एह्यसूत्रे उक्तम्। "पाकयज्ञाः अल्पयज्ञाः प्रशस्तयज्ञा वा"-इति तत्तौ गार्ग्यनारायणः । पाकयज्ञः पाकाङ्गकयज्ञो घोत्सर्गरटहप्रतिष्ठा होमादिः, इति रघुनन्दनः ।
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१५०,आका०]
परापूरमाधवः।
२३७
"कुशाः काशा यवा वास्तथा ब्रीच्यएवच ।
वल्वजा: पुण्डरीकाश्च सप्तधा वहिरुच्यते" इति । वानाह हारीत:
"चितौ दर्भाः पथि दर्भाः ये दी यज्ञ-भमिषु । स्तरणासन-पिण्डेषु षट् कुशान् परिवर्जयेत् ॥ ब्रह्मयज्ञेषु ये दी ये दर्भाः पिढतर्पणे । हता मूत्र-पूरीषाभ्यां तेषां त्यागोविधीयते ॥ अपूतागाईता दी ये संच्छिन्नाः नखैस्तथा ।
कथितानग्निदग्धांश्च कुशान् यत्नेन वर्जयेत्” इति । कुशोत्पाटने काल-नियममाह हारीतः,
"मासे नभस्यमावास्या तस्यां दर्भ-चयोमतः । . श्रयातयामास्ते दी नियोज्याः स्युः पुन: पुन:'(१)-इति ॥
दर्भाः कृष्णाजिनं मन्त्राब्राह्मणाश्च विशेषतः । * पुण्डरीकानि,-इति शा. पुस्तके पाठः । + गर्तेषु,-इति मु. पुस्तके पाठः । * ब्रह्मयज्ञे च,-इति मु० पुस्तके पाठः। 5 येचच्छिन्नाः, इति शा. पुस्तके पाठः । || नखः स्मृताः, इति स० स० शा० पुस्तकेधु पाठः। पा दर्भाच्यामतः, इति मु० पुस्तके पाठः। ** नास्तीदं मुद्रितातिरिक्तपम्तकेषु । + ब्राह्मणा हविरमयः,-इति अन्यत्र पाठः।
(१) यातयामत्वञ्च,-"जीर्णञ्च परिभुक्तच्च यातायाममिदं दयम्" इत्युक्तलक्षणं, तद्वैपरीत्यमयातयामत्वम् ।
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२३०
पराशरमाधवः।
[१०,या का०।
प्रयातयान्येतानि नियोज्यानि पुनः पुनः" इति । पवित्र-धारणे फलमाह मार्कण्डेयः,
"कुश-पाणिः सदा तिष्ठेत् ब्राह्मणो दंभ-वर्जितः ।
म नित्यं हन्ति पापानि बल-राशिमिवानलः"-दति । शातातपः,
"जपे होमे च दाने च स्वाध्याये पिन-तर्पणे ।
अशन्यं तु करं कुर्यात् सुवर्ण-रजतैः कुश:"--दाते । पवित्र-प्रकारमाह कात्यायनः,
"अनन्तर्गर्भिणं साग्रं कुशं द्विदलमेवच ।
प्रादेशमानं विज्ञेयं पवित्रं यत्र कुत्रचित्" इति । मार्कण्डेयः -
"चतुर्भिः दर्भ-पूचीले ब्राह्मणस्य पवित्रकम् । एकैक-न्यूनमुद्दिष्टं वर्ण वर्षे यथाक्रमम् ॥ त्रिभिः दर्भः शान्ति-कर्म पञ्चभिः पौटिकन्तथा ।
चतुर्भिश्चाभिचारांच? कुर्वन् कुर्यात् पवित्रकम् (१)—दति । अत्रिः ,* नियोज्याः स्युः- इति शा. पम्तके पाठः । + अन्यूनं तु,-इति मु० पुस्तके पाठः । t मार्कण्डयाऽपि,-इति म० पुस्तके पाठः। ६ चतुर्भिश्चाभिचाराख्यं, इति म० पुस्तके पाठः । (१) शान्तिर्धर्मद्वारा ऐहिकानियहेतुदुरितनित्तिः, तदर्थ यत् कर्म विहितं तत् शान्तिकर्म युच्यते । पुरिर्धनाद्युपचयः, तत्फलकं कर्म पौरिकम्। व्यभिचारः पूात्रुमारणादिः । स चाभिचारः प्रकृते श्येनादिरूपतया पर्यवसितः।
-
-
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पराशरमाधया।
३९
"ब्रह्मा-जपे चैव ब्रह्मागन्धि विधीयते । भोजने व लं प्रोक* एवं धर्चा न हीचते-ति।
इति दर्भ-प्रकरणम् ॥ तदेवं 'सन्ध्या खानम्'-दत्यस्मिन् वचने खान-शब्दोपसचि तानि वाह-महात्यानादीनि कुभ-विध्यन्तानि कर्माणि निरपिसानि; अथेदानी मूल वचनोखानं प्रपञ्चरते। तब कूर्मपुराणम,
"प्रक्षाल्य दन्त-काष्ठं वै भक्षयित्वा यथाविधि ।
पाचम्य प्रथतो नित्यं प्रातःखानं समाचरेत्" इति । यासः
"उषःकालेतु संप्राप्ने कसा चावश्यकं वुधः ।
नायाबदीषु शुद्धासु शौचं कृत्वा यथाविधि" इति। दक्षोऽपि,
"अखाला नाचरेत् कर्म जप-होमादि किञ्चन || । लाला-खेद-समाकीर्णः शयनादुत्थितः पुमान् ॥ अत्यन्त-मलिनः कायोनव-च्छिद्र-समन्वितः । सवत्येव दिवा रात्रौ ॥ प्रातःसामं विशोधनम् ॥ प्रातःखानं प्रशंसन्ति दृशदृष्ट-फलं हि तत् ।
सर्वमहति शुद्धात्मा प्रातःस्त्रायी अपादिकम्" इति । • वर्तुलः प्रोक्तः, इति शा. पुस्तके पाठः । + विधीयते,-इति म० पुस्तके पाठः। + प्रक्रम्यते, इति मु० पुस्तके पाठः । 5 नास्त्येतत् ,-म• पुस्तके। ॥ किश्च यत्, इति मु. पुस्तके पाठः । ा दिवारानं,-इति मुं० पुस्तके पाठः ।
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२००
[१ का०, या ० का ०
व्याम:, - "ऋषीणामृषिता नित्यं प्रातःस्नानान्न संशयः । अलक्ष्मीः काल-कर्णी (१) दुःस्वप्नं दुर्विचिन्तनम्" | प्रातः स्नानेन पापानि पूयन्ते नात्र संशयः " - इति । दतोऽपि -
पराशर माधवः ।
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"अज्ञानाद्यदि वा मोहा द्रात्रौ दुश्चरितं कृतम् । प्रातः स्नानेन तत् सर्व्वं शोधयन्ति द्विजातयः " - इति । स्नान - प्रकारः चतुर्विंशात मते विहितः, -
"स्नानमन्दैवतैर्मन्त्रै वारुणैश्च मृदा सह । कुर्य्याहृतिभिर्वाऽथ यत् किञ्चेदम्टचाऽपिवा । (९ ) - इति ।
*
दुर्विचिन्तितम् इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ यत्किञ्चेदम्टचापि च, - इनि मु० पुस्तके पाठः ।
(१) अलमलमा अग्रजा । कालकर्णी चतुःषष्टियोगिन्यन्तर्गताऽष्टत्रिंशत्संख्यका योगिनी ।
(२) अव्दैवतमन्त्राः ऋग्वेदे दशममण्डले नवमनुक्ले नव पठिताः, तत्र प्रथमे त्रयोमन्त्रा कामिमारुते व्यपस्पर्श विनियुक्तया प्रसिद्धाः । तत्र, 'यापाठा' - इत्यादिः प्रथमेोमन्त्रः, 'यावः शिवतमोरस : ' - इत्यादिर्दितीयः, 'तस्मा अर' - इत्यादिस्तृतीयः । एतएव वाजसनेयसंहितायां एकादशाध्याये पठिताः । एवं सामवेदसंहितायामुत्तराग्रन्थे नवमप्रपाठकस्य द्वितीयार्द्ध तत्रयात्मकमेव दशमं सूक्तं पठितम् । वारुणमन्त्राच, 'तत्त्वायामि ब्रह्मणा वन्द्यमानः' - इति पञ्च, 'त्वं नोऽमे वरुणस्य विद्वान्' - इति हे, 'इमं मे बरुणश्रुधि' – इति चेयो ऋचः हेमाद्रिणा लिखिताः । तत्र तत्त्वायामीत्याद्याः पञ्च ऋचः, ऋग्वेदे प्रथममण्डले पञ्चदशचात्मके चतुव्विंपूतिसूक्ते एकादशाद्याः । ' त्वं नोऽमे वरुणास्य विद्वान्' - इति दे ऋचौ ऋगवेदे चतुर्थ मण्डले विंशतिऋगात्मक प्रथमसक्के चतुर्थीपञ्चम्यो । 'इमं मे वरुणधि' - इति च ऋग्वेदे प्रथममण्डले पञ्चविंशतिसूक्तस्योनविंशतितमी ऋक् । व्याहृतयेाभृराद्याः प्रसिद्धाः । ' यत्किञ्चेदं' - इति च ऋग्वेदे सप्तममण्डले एकोननवतितमे वक्त पञ्चमी ऋक् ।
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९ख०,मा.का.
पराशरमाधवः ।
२४१
कात्यायनोऽपि,
"यथाऽहनि तथा प्रातः नित्यं स्नायादनातुरः ।
दन्तान प्रक्षाल्य नद्यादौ ग्टहे चेत् तदमन्त्रवत्"- इति । प्रमन्त्रवदिति मन्त्र-संदेपोभिप्रेतः, यतः सएव श्राह,
“अल्पत्वाद्धोम-कालस्य वहुत्वात् स्नान-कर्मणः ।
प्रात: मंक्षेपतः स्नानं होम-लोपो विगर्हितः” इति । काल-नियममाह जावालिः,
“मततं प्रातरुत्थाय दन्त-धावन-पूर्वकम् ।
पाचरेदुषसि स्नानं तर्पयेद्देव-मानुषान्" इति । चतुर्विंशति-मतेऽपि,
"उषस्युषसि यत् स्नानं सन्ध्यायामुदितेऽपिवा ।
प्राजापत्येन तत्तुल्यं मर्च-पाप-प्रणाशनम्" इति । उदिते इत्युदयाभिमुखे, इत्यर्थः । उदयम्याप्युपरि स्नानं चेत् सन्ध्याऽप्युल्कृष्येत, १)स्नान-पूर्वकत्वात् सन्ध्यायाः; सन्ध्योत्कर्षश्च योगियाज्ञवल्कोन : निषिद्धः,
___ “मन्ध्या सन्ध्यामुपासीत नास्तगे नोहते रवी"-इति । यथोकं स्नानं कुर्वत्रघमर्षण(२) कुर्यात्। तदाह शौनकः,* सायादतन्त्रितः, इति म पुस्तके पाठः । + प्रातर्न तनुयात् स्वानं,-इति अन्यत्र पाठः । + याज्ञवल्कान,-इति म पन्तके पाठः।। (१) विहितकालादुत्तरकाले करणमुत्कर्षः । (२) "ऋतच"-इत्यादि ऋक्वयं अघमर्षणतया प्रसिद्धम् । तच्च ऋग्वेदे दशममण्डले चात्मकं नवत्यधिकशततमं सूक्तम् । एतदेव सूक्तं नैत्तिरीयारण्यके दशमप्रपाठके प्रथमानुवाके पठितम ।
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२१२
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[१०, ख०का ।
“खात्वाऽऽचान्तोवारि-मध्ये चिः पठेदेघ-मर्षणम्" - इति ।
भरद्वाजोऽपि -
पराशर माधवः ।
ब्रह्माण्डपुराणे खानाङ्ग-तर्पणं विहितम्, -
" नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं खानमुच्यते । तर्पणन्तु भवेत्तस्य अङ्गत्वेन प्रकीर्त्तितम् " - इति । मोऽfo -
" द्वौ हस्तौ युग्मतः कृत्वा पूरयेदुदकाञ्जलिम् । गोश्टङ्गमात्रमुद्धृत्य जल-मध्ये जलं क्षिपेत्” - इति । काष्णाजिनि:, -
“नाभिमात्रे जले स्थित्वा चिन्तयन्त्रर्द्धमानस:" - इति । तर्पयेदितिशेषः । नृसिंहपुराणे,
"पितृन् पितृ-गणान् + देवानङ्गिः सन्तर्पयेन्ततः । देवान् देवगणापि मुनीन्मुनि - गणानपि ” | ॥ चतुव्विंशतिमते, -
" खानादनन्तरं तावत् तर्पयेत् पितृ देवताः ।
उत्तीर्य पीड़येदस्त्रं सन्ध्या - क ततः परम् ( १ ) – इति ।
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--
" वस्त्रोदकमपेक्षते ये मृतादासकर्मिणः ? |
*
व्यवस्थितम् - इति अन्यत्र पाठः ।
+ ऋषिगणान, इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ पितॄन् पिगांखापि नित्यं सन्तर्पयेत्ततः -- इत्यर्द्धमधिकं स० मो०
प्रा० पुस्तकेषु ।
९ दासकर्म्मयः, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
(९) अनेम खानातयं खानप्रयोग एवान्तर्भूतम, इत्युक्तं भवति ।
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१०या०का
पराशरमाधवः ।
२४३
तस्मात् मर्च-प्रयत्नेन जलं भूमौ निपातयेत्” इति । वस्त्र-निष्पीड़न-मन्त्रस्तु,
“ये के चास्मन-कुले जाता श्रपत्रागोत्रिणामृताः । ते ग्रहन्तु * मया दत्तं वस्त्र-निष्योड़नादकम्”-ति ।
॥ ॥ इति स्नानप्रकरणम् ॥ • ॥
स्वानानन्तरं वास: परिदध्यात् । तथा च मत्स्य पुराणे,--
“एवं स्नात्वा तत: पश्चादाचम्य च विधानतः । ।
उत्थाय वामसी एक्ने शुद्धे तु पग्धिाय च " इति। कर्म कुर्यादितिशेषः । योगियाज्ञवल्करः,
"स्नात्वैवं वाससी धौते || अच्छिन्ने परिधाय च ।
प्रक्ष्याल्योरू मृदा चाङ्गिः हस्तौ प्रक्षालयेत्ततः "- इति । अत्र विशेषमाह व्यामः,
"नोत्तरीयमधः कुर्यात्रोपाधस्थमम्बरम् ।
नान्तवामा विना जातु निवसेदसनं बुधः" इति । पत्र मार्कण्डेयपुगणे,
* टप्यन्तु,-इति मा० शा० पुस्तकयोः पाठः । + वामनपुराण, इति मु• पुस्तके पाठः । + यथाविधि,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
परिधायवा,--इति स० मा० शा. पुस्तकेच पाठः । ॥ शुक्ल,-इति मु० पुस्तके पाठः । १॥ प्रक्षालयेदिति, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः।
मा.का.।
"प्रवज्यानच स्वातो गात्राण्यम्बर-पाणिभिः।
न च निधूनयात्वेशान् वासश्चैव न पीड़येत्'-दति । अत्र कारणमाह गोभिला
"पिवन्ति शिरसोदेवाः पिवन्ति पितरामुखात् । मध्यतः सर्व-गन्धर्वा अधस्तात् सर्व-जन्तवः ।।
तस्मात् स्नातो नावमृज्यात् स्नान-माया न पाणिना"-इति। यासोऽपि,
"तिस्रः काव्योऽर्द्ध-काटी-च यावन्यङ्गरूहानि वै ।
सवन्ति मर्ड-तीर्थाणि तस्मान्न परिमार्जयेत्” इति। बावालिः,
"खानं कृत्वाऽऽद्र-वासास्तु विषमूत्रं कुरुते यदि ।
प्राणायाम-वयं कृत्वा पुनः स्वानेन ड्यति"-दति। वस्त्र विषये विशेषमाह भगः,
"ब्राह्मणस्य मितं वस्त्रं नृपतेरतमल्यणम् ||(१) ।
पीतं वैश्यस्य सद्रस्य नीलं मलवदिष्यते”-दति। प्रजापतिरपि,
• भरः, इति मे• गा• पुस्तकयाः पाठः ।
निर्धनेत्, इति से० स० शा• पुस्तकेषु पाठः । । देवलः,-इति मु• पुस्तके पाठः ।
बस्ति , इति स० से. शा. पुस्तकेषु पाठः। || रकमबरम्, इति शा• पुरु के पाठः ।
(१) उन्त्वयं उत्कटम् । रक्तविशेषणमिदम्।
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११.पा.का.
पराशरमाधवः।
२४५
"ौमं वामः प्रसंशन्ति तर्पणे सदान्तथा ।
काषायं धातु-रक्तं वा * मोल्वणं तच कहिचित्" इति । देवलोऽपि,
"खयं धौतेन कर्त्तव्या क्रिया धर्मा विपश्चिता ।
न तु सेवक-धौतेन नाहंतन न? कुत्रचित्" इति । भारतेनेति समस्तं पदम् । आइत-लक्षणमाह पुलस्त्यः,
"ईष द्वौतं नवं श्वेतं सदृशं यन्न धारितम् ॥ ।
पाहतं तद्विजानीयात् मर्च-कर्मस पावनम्" इति। बौधायनोऽपि,
"कर्त्तव्यमुत्तरं वामः पत्रखतेषु कर्मसु ।
स्वाध्याय-होम-दानेषु भक्काचमनयोस्तथा"-दति । एतत्, मई-कोपलक्षणाथै, अननर.यस्य कर्ममात्र-निषेधात् । तथा च गुणोक्कम्,
"विकच्छोऽनुमरीयश्च ननशावस्त्रएवच । श्रौतं स्मात्त तथा कर्म न नग्न श्चिन्तयेदपि ॥ नग्रोमलिन-वस्त्रः स्थानमश्चाई-पटः स्मृतः।
* कापायधातुवस्त्रं च,-इति मु. पुस्तके, कापायधातुरक वा,-इति शा. पुस्तके पाठः ।
+ नास्तीदं मु० पुस्तके। + रजकधौतेन, - इति से० भा• पुस्तकयाः पाठः। ६ नाहतेन च,-इति शा० पुस्तके पाठः । || धावितं,-इति शा• पुस्तके पाठः। पा साध्यायोत्सर्गदानेषु, ति सो शा० पुस्तकयोः पाठः । .. न ममश्चिन्तयेदिति,-इति मु. पुस्तके पाठः ।
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२४६
पराशरमाधवः।
१०या०, का।
नमस्तु दग्ध-वस्त्र : स्थानग्नः स्थत-पटस्तथा"-इति । विष्णपुगणेऽपि,
"होम-देवार्चनाद्यासु क्रियासु पठने तथा।
नैक-वस्त्रः प्रवर्त्तत दिजेानाचमने जपे" इति । गोभिलोऽपि,
"एकवस्त्रो न भुञ्जीत न कुर्याद्देवताऽर्चनम्”–दति । अत्रानुकल्पमाह योगियाज्ञवल्करः,
"अलाभे धौतवस्त्रस्य शाण-क्षौमाविकानि च ।
कुतुपं योग-पट्टञ्च *(१) विवामास्तु न वे भवेत्" इति । कुतुपं योग-पढें च, धारयेदिनिशेषः ।
॥०॥ इति व स्त्र-धारण-प्रकरणम् ॥०॥
अथ, अर्द्धपुण्ड-विधिः । ब्रह्माण्डपुराणे दर्शितः,
“पर्वताग्रे नदी-तारे धम्म-क्षेत्रे विशेषतः । सिन्ध-तीरे च वल्मो के तुलमी-मल-मृत्तिकाम् ॥ मृद एतास्तु संग्राह्या: वर्जयेत्वन्यत्तिकाम् । श्यामं शान्ति-करं प्रोनं रक वश्य-करं भवेत ॥
* कुनयं योगपादञ्च,-इति मो• • पुस्तकयाः पाठः । एवं परत्र पंक्ती।
+ त्रिपण्ड विधि, ---इति शा• पुम्त के पाठः । + तुलसोमूतमाश्रिते,-इति सा० प्रा० पुस्तकयोः पाठः । ६ सम्पाद्याः, इति स० से. शा• पुस्त केघ पाठः । (१) कुतुपा नेपालकम्बलः । योगपट्टम ‘यागपाटा'-इति प्रसिइम ।
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०, या० का० ।]
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पराशरमाधवः ।
श्री- करं पीतमित्या वैष्णवं श्वेतमुच्यते ।
अङ्गुष्ठः पुष्टि-दः प्रोको मध्यमाऽऽयुष्करी भवेत् ॥ अनामिकान-दा नित्यं मुक्ति-दा च प्रदेशिनी । एतैरङ्गुलि-भेदैस्तु कारयेत्र नखैः स्पृशत् ॥ वर्त्ति - दीपाकृतिं वाऽपि वेणु - पचाकृतिं तथा । पद्मस्य मुकुलाकारं तथैव कुमुदस्य च ॥ मत्स्य - कूतिं वाऽपि शङ्खाकारमतः परम् ॥ दशाङ्गुल- प्रमाणन्तु उत्तमोत्तममुच्यते । नवाजुनं मध्यमं स्यादष्टाङ्गुलमतः परम् ॥ सप्त-षट् पञ्चभिः पुण्ड्रं मध्यमं त्रिविधं स्मृतम् । चतुस्त्रियङ्गुलेः पुण्ड्र कनिष्ठं चिविधं भवेत् ॥ ललाटे केशवं विद्यान्नारायणमथोदरे । माधवं हृदि विन्यस्य गोविन्दं स्कन्ध-मूलके । ॥ उदरे दक्षिणे पार्श्वे विष्णुरित्यभिधीयते । तत्पार्श्वे बाहु-मध्ये मधु-हृदनमनुस्मरेत् ॥ चि-विक्रमं कण्ठ-देशे वाम-कुक्षौ तु वामनम् । श्रधरं बाहुके वामे हृषीकेशन्तु कर्णके + द्वादशैतानि नामानि वासुदेवेति नूर्द्धनि || पृष्ठे तु पद्मनाभन्तु ककुद्दामोदरं स्मरेत् ।
||
*
मुक्तिदान, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ क कूपके, - इति सेा० शा ० पुस्तकयेाः पाठः |
1. कण्ठवं, - इति सेा० शा ० पुस्तकयेाः पाठः ।
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२०७
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२४९
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पराशरमाधवः ।
पुजा - काले व होमे च सायं प्रातः * समाहितः । नामान्युच्चार्य्य विधिना धारयेदूर्द्धपुण्ड्रकम् ” - इति । सत्यव्रतोऽपि -
तत्र शङ्ख ं
*
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[१०, आका० ।
“मन्त्राक्रोधाग्येन्नित्यं ऊईपुण्ड्र विना तु तत् । यत्कर्म कार्यनित्य तत्सर्वं निष्फलं भवेत् " - इति
"ऊर्द्धपुण्ड्र मृदा शुभ्रं ललाटे यस्य दृश्यते । स चाण्डालेोऽपि शुद्धात्मा ! पूज्यएव न संशयः” इति ।
+
॥ ॥ इति ऊईपुण्ड्र-प्रकरणम् ॥०॥
प्रातःस्नान-प्रमङ्गेन स्नानान्तरात्युच्यन्ते ।
" स्नानन्तु द्विविधं प्रोकं गौल - मुख्य-प्रभेदतः ।
तयोस्तु वारुणं मुख्यं तत्पुनः षड्विधं भवेत् " - इति । तत्र, मुख्य स्नानस्य षट् प्रकारता श्रशेयपुराणे दर्शिता, - "नित्यं नैमित्तिकं काम्यं क्रियाऽङ्गं मलकर्षणम् । क्रिया - स्नानं तथा षष्ठं घोड़ा स्नानं प्रकीर्त्तितम् " ॥ एतेषां लक्षणमाह शङ्खः, -
“अस्नातश्च पुमान्नाही जपानिहवनादिषु । प्रातःस्नानं तदर्थन्तु नित्य स्नानं प्रकीर्त्तितम् ॥
सायं काले, -- इति स० प्रा० पुस्तकयेाः पाठः ।
+ ‘मन्त्रोक्त' – इत्यारभ्य, 'इति' इत्यन्तोग्रन्थः नास्ति मु० पुस्तके |
4 चाण्डालापि विशुद्धात्मा - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१५०,श्रा का०]
पराशरमाधवः ।
२४६
चाण्डाल-शव-यूपांश्च (१) स्पृष्ट्वाऽस्नातां रजस्खलाल । स्नानाईस्तु यदाप्नोति स्नानं नैमित्तिकं हि तत् ॥ पुण्य-स्नानादिकं यत्तु दैवज्ञ-विधि-चोदितम् । तद्धि काम्यं समुद्दिष्टं नाकामस्तत्? प्रयोजयेत्॥ जनुकामः पवित्राणि(२) अर्चियन देवताः पिन्। स्नान समाचरेद् यस्तु॥ क्रियाऽङ्ग तत्प्रकीर्तितम ॥ मलापकर्षणं नामा स्नानमभ्यङ्ग-पूर्वकम्(३) । मलापकर्षणार्थाय प्रवृत्तिस्तस्य कीर्तिता। सरःसु देवखातेषु तीर्थेषु च नदीषु च ।
क्रिया-नानं समुद्धिष्टं स्वानं तत्र मता क्रिया" इति। यद्यपि, मध्याह-स्नानम्य नेदानीमवसर स्तथापि प्रातःस्नानवत्तस्य नित्यत्वात् प्रसङ्गेनाभिधीयते । तस्य नित्यत्वञ्च व्याघ्रपादेनोक्रम,
* चाण्डालपूवपूजादि,-इति से शा० पुस्तकयाः पाठः । + पुष्यखानादिक,-इति स० सो० पू० पुस्तकेषु पाठः । | विधिनोदितं,-इति शा. पुस्तके पाठः । 5 सकामस्तत्,-इति मु. पुस्तके पाठः । || समाचरेन्नित्यं,-इति शा० पुस्तके पाठः। कामयायकर्षणं स्वानं,-इति म० पुस्तके पाठः ।
(१) यज्ञिययूपस्पर्शापि निघिद्धः। स च वहिः कर्मण ऊर्द्धमेव मन्तव्यः ।
गोभिलेन त्वत्र हामादिकं विहितम ( गो 2-३५०३का० ३४
३८ सूत्रम्) (२) पवित्राणि मन्त्रान्। (३) अभ्यङ्गश्च,-"मूर्झि दत्तं यदा तैलं भवेत् सर्वाङ्गसङ्गतम् । खोनाभि. स्तर्पयेद्दाह अभ्यङ्गः स उदाहृतः" इत्यायुर्वेदात लक्षणः ।
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२५.
पराभरमाधवः।
[१च.,या का।
"प्रातः स्नायी भवेन्नित्यं मध्य-वायी भवेदिति(१)"। कूर्मपुराणे,
"ततो मध्याह-समये सानार्थं मृदमाहरेत् । पुष्पाक्षतान्(२) कुश-तिलान् गोमयं शुद्धमेवच । नदीषु देवखातेषु तड़ागेषु सरःसु च ॥ सानं समाचरेन्नित्यं गर्भ-प्रश्रवणेषु च(३) । परकीय-निपानेषु(४) न नायाई कदाचन ॥
पञ्च पिण्डान् समुद्धृत्य सायादाऽसम्भवे पुनः" इति । तत्राधिकार्य्यनधिकारिणो व्या विभजते,
"स्वानं मध्यन्दिने कुर्यात् सुजीर्णेऽन्ने निरामयः ।
* तटाकेषु,-इति मु• पुस्तके पाठः। तित्राधिकार्यानधिकारिणी विभजते, - म० पुस्तके पाठः ।
छत्र नित्यपदं काकाक्षिगोलकन्यायात पूर्वेण प्रातःसायीत्यनेन परेण च मध्यस्नायीत्यनेनान्वेति । मध्यसायी मध्याह्नवायी। तथा च नित्यपदसंबन्धान्नित्यत्वं सिद्धम् । तदुक्तम् । “नित्यं सदा यावदायन कदाचिदतिक्रमेत् । उपेत्यातिकमे दोषश्रुतेरत्यागदर्शनात् । फलाश्रुते. वाप्पया च तनित्यमिति कीर्तितम्" इति। अक्षतायवाः । “अक्षताम्त यवाः प्रोक्ताः"-इति स्मरणात् । यवा
नामासादनच तर्पणामिति बोध्यम् । एवं तिनानामपि । (३) गीत, "धनुः सहसाण्ययौ च गतिर्यासां न विद्यते । न ता नदी
शब्दवहा गास्ते परिकीर्तिताः"-इत्युक्तलक्षणाः । परकीयत्वं परखामिकत्वं तेन परखानिते निपाने उत्मात्यरं न पिण्डोद्धारः, इत्येके निबन्धारः। परकीयत्वं परकृतत्वं तेनात्मात् परमपि पिण्डोद्धार, इत्यपरे।
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११०,था.का.
पराशरमाधवः।
२५१
न भुक्त्वाऽलङ्कृतोरोगी* नाज्ञातेऽम्भसि नाकुलः" इति । श्राश्रम-भेदेन स्नान-व्यवस्थामाह दक्षः,
"प्रातमध्याहृयोः स्नानं वानप्रस्थ-गृहस्थयोः ।
यतेस्त्रिसवनं प्रोकी सकृत्त ब्रह्मचारिण:"--इति । अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां स्नानस्य समन्त्रतामाह व्यासः,
“मन्त्र-पूतं जले स्नानं प्राहुः स्नान-फल-प्रदम् ।
न वृथा वारि-मनानां यादमामिव तत्-फलम्" ॥ योगियाज्ञवल्क्यः,
"मस्य-कच्छपामण्डकास्तोये मनादिवानिशम्।
वसन्ति चैव ते स्नानान्नाप्नुवन्ति फलं कचित्” इति । समन्त्रत्वं द्विजाति-विषयम् । यदाह विष्णुः,
"ब्रह्म-क्षत्र-विशां चैव मन्त्रवत् स्नानमिय्यते ।
तुष्णीमेव हि हद्रस्य स्त्रीणाञ्च कुरु-नन्दन" इति। 'स्नानाथ मृदमाहरेदित्'-दूति यदुनं, तत्र विशेषमाह शातातपः,
"चि-देशात्तु मंग्राह्या शर्करारमादि-वर्जिता । रता गौरा तथा श्वेता मृत्तिका त्रिविधा स्मृता ।। मृत्तिकाऽऽखूत्कराने पाद् विलाच वरिक्षयो.।
* योगी,-इति मु. पुस्तके पाठः । + त्रिसवनस्वानं,-इति मु० पुस्तके पाठः । । कूर्मक,-इति मु° पुस्तके पाठः । $ शुचौ देशे तु,-इति मु० पुस्तके पाठः । || जलाच्च,-इति मे० पुस्तके पाठः ।
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२५२
पराशरमाधवः।
[९ख०,वा का।
कृत-शौचाऽवशिष्टा च* न ग्राह्याः सप्त मृत्तिकाः । मृत्तिकां गोमयं वाऽपि न निशायां समाहरेत्।
न गोमूत्र-पुरीषे तु ग्रहीयाधुद्धिमान्नरः" इति । योगियाज्ञवल्कोऽपि,
"गत्वोदकान्तं विविधत् स्थापयेत्तत् पृथक् चितौ। विधा कृत्वा मृदन्तान्तु गोमयं तद्विचक्षणः ।। अधमोत्तम-मध्यानामङ्गानां क्षालनन्तु तैः ।
भागः पृथक् पृथक् कुर्यात् क्षालने मृदसङ्करम् "-इति । शौनकोऽपि,
"प्रयतो मृदमादाय दूर्वाऽपामार्ग-गोमयम्।
एकदेशे पृथक् कुर्यात् • • • • "-इति। वशिष्ठः,
"देकया शिरः क्षाल्यं द्वाभ्यां नाभेस्तथोपरि। अधश्च तिमृभिः कार्य षभिः पादौ तथैव च । प्रक्षाल्य सर्व-कायन्नु दिराचम्य यथाविधि" इति । काय-प्रक्षालनानन्तरभावि-कर्त्तव्यमाह शौनकः,-"गायच्या आदित्योदेवता ख्याताऽतो देवाण-इति मृदमभिमन्त्रयेत्,-ततो
* कृतशोचावशेषाञ्च,-इति मो० शा० पुस्तकयोः पाठः ।
कुर्यातालनेम्मदसवारः,--इति मु० पुस्तके पाठः । + अधश्चतभिः कार्य,-इति मु० पुस्तके पाठः।
कृत्यमाइ,-इति मु. पुस्तके पाठः। || गायन्या आदित्या अवहिख्याता ततोदेवा-इति सो० शा. पस्तकयोः
पाठः।
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१५०या०का०]
पराशरमाधवः।
# ૨
यत इन्द्र स्वस्तिदा विशस्पतिविरक्षोविमृध इन्गं सुमेजरितरिति मृदं संग्टह्य प्रतिमन्त्रं प्रतिदिशं क्षिपेत् पूर्वादि-क्रमेण(१) ततः सम्माजनं कुर्यात् मृदा पूर्वन्तु मन्त्रवत्" । 'अश्वक्रान्ते' इत्यादयो मृग्रहण-मन्त्रा यजुर्वेद-प्रसिद्धाः(२) ।
"पुनश्च गोमयेनैवमग्रमग्रमीरिति ब्रुवन्(३) । अनमग्रं चरन्तीनामौषधीनां वनेवने॥ तासाम्मषभ-पत्नीनां सुरभीणं शरीरतः । उत्पन्नं लोक-सौख्या) पवित्रं* काय-शोधनम् ॥ त्वं मे रोगांश्च शोकांश्च पापञ्च हर गोमय” इति ।
* पावनं,- इति स० से० प्रा० पुस्तकेघु पाठः ।
यतादेवा इति मन्त्रः ऋग्वेदे (१।२२।१६।) एवं सामवेदे उत्तरार्चिके (१२।५।६।) यत इन्द्र इति ऋग्वेदे (६९।१३।) सामवेदे छन्दस्याचिके (३।३।४।२।) उत्तरार्चिके (५।२।१५।१।) तैत्तिरीयारण्यके (१०।१।) खस्तिदा विशस्पतिः इति ऋग्वेदे (१०।१५२।२।) तैत्तिरीयारण्यके (१०। ५५1) अथर्ववेदे (८ । ५।२२) परं तत्र विशाम्पतिरिति पाठः । विरक्षो विम्ध इति सामवेदे उत्तरार्चिके (६।३।७।१) इन्गं मुमे जरितः, - इत्यादिकामन्त्रोनास्माभिरुपलब्धः । इदं सुमेनरः,इत्यादिकामन्त्रः अथर्ववेदे (१४।२।) दृश्यते । अनुमीयते चात्रा
दर्शपुस्तकेषु लेखकप्रमादात् पाठोऽन्यथा जातः।। (२) तैत्तिरीयारण्यके दशमप्रपाठकस्य प्रथमानुवाके । (३) अत्र, "पुनश्च गोमयेनैवमग्रममिति ब्रुवन्”-इत्येव पाठी मम
प्रतिभाति । सरव अग्रमग्रमिति मन्त्रः पश्चात् पठितः। यथोक्तपाठे त्वनुयुप छन्दसेभिङ्गापत्तिः । परमस्मदवलोकितेषु सर्वेषु पुस्तके तथैव दृयत्वात् तथैव रक्षितः ।
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२५४
पराशरमाधवः।
१५०,थाकार ।
“काण्डात् काण्डादिति दाभ्यां (१) अङ्गमङ्गमुपस्पृशेत्" इति । दूर्वादयेन, इति शेषः। ___ “अपापमपकिल्विषमपकृत्य मपारप' अपामार्ग, त्वमस्माकं दुष्टं भयं नुद स्वाइत्यपामार्गेणाङ्गमङ्गमुपस्पृशेत् । अथ हिरण्य ग्रङ्गमापो देवीरपस्तवन्तरित्यप उपस्थाप, सुमित्रियान इत्यपः स्पृष्टा दुर्मित्रियान इति वहिः क्षिपेत् । ततः, इन्द्रः शुद्ध इत्यूचा चापः प्रविश्य । मनसा जपेत्र)। __ "तत्र गायेत सामानि अपि वा व्याहतीर्जपेत् ।
शिवेन मे(२) जपित्वेदमाप इत्यप प्राप्तवेत्" इति । वशिष्ठः,
* मपातवः, इति मु• पुस्तके पाठः । इन्द्रः शुद्ध इत्यूचश्वाप प्रविश्य, इति मु• पुस्तके पाठः । काण्डात् काण्डादिति हौ मन्त्री तैत्तिरीयारण्यके दशमप्रपाठके प्रधमानुवाके पठितौ। तत्र काण्डात् काण्डादिति प्रथमोमण्यः । याशतेन प्रतनोषोति द्वितीयोमन्त्रः ।। हिरण्यटामिति तैत्तिरीयारण्यके (१०१।) यापादेवीरपस्तवन्तः,इत्यादिको मन्त्रो नामाभिरपलब्धः । ऋग्वेदे (१।२३।१८) अथर्ववेदे च (१।४।३।) अपादेवीरूपइये, इत्यादिको मन्त्रोदृश्यते । एवं ऋग्वेदे (१।।।) बापानदेवीरुपयन्ति, इत्यादिमन्त्रोदृश्यते । पत्राप्यादर्शपुस्तकेषु लेखकप्रसादः सम्भाव्यते। समित्रियान इति दुर्मित्रियान इति चैतौ मन्त्री तैत्तिरीयारण्यकस्य दशमप्रयाठकस्य प्रथमानुवाके पठितौ। इन्द्रः शुद्ध इति मन्लोपि नोपलब्धः । परन्त सामवेदे उत्तराधिके (शराहार।) इन्द्र शुद्धोन, इत्यादिको मन्लो
दृश्यते । सम्भावयामा पत्रापि लेखकप्रमाद रव प्रभवति । (३) शिवेन मे, इति तैत्तिरीयारण्यक (१०1७1)
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१च. या का.
पराशरमाधवः।
२५
"ये ते शतमिति दाभ्यां तीर्थान्यावाहयेदुधः : कुरुक्षेत्रं गयां गङ्गां प्रभाष नैमिषं जपेत्" इति ।
"प्रपद्ये वरणं देवमम्भसा पतिमीश्वरम् । याचितं देहि मे नीर्थ सर्व-पापापनुत्तये॥ तीर्थमावाहयिष्यामि माघौघ-निसदनम् । मान्निध्यमस्मिंश्चित्तोये क्रियता मदनुग्रहात्॥ स्ट्रान प्रपद्ये वरदान मानमुषदस्तथा । अपः पुण्याः पवित्राश्च । प्रपद्ये वरणं तथा ।
शमयस्त्वाशु मे पापं रक्षन्तु च सदैव माम्" इति । वशिष्ठः,
"आपोहिछेदमापच द्रुपदादिव इत्यपि। तथा हिरण्यवर्णाभिः पावमामीभिरन्ततः(१) ।। ततोऽर्कमीक्ष्य चोदारं निमज्यान्तर्जले वुधः ।
* तथा,-इति मु• पुस्तके पाठः । + सधौघनिसूदनम्,-इत्यादि, 'थपः पुण्याः पवित्राच' इत्यन्तं मास्ति स• से शा० पुस्तकेषु ।
(१) धापहिष्ठा,-इति ऋग्वेदे (१०।६।१३) वाजसनेयिसंहितायां (१९।५।
११) सामवेदे उत्तराचिके (हा२।१०।१।) अथर्ववेदे (१।५।१।) इदमाप इति ऋग्वेदे (१।२।२२।) एवं (
१६) पदादिव इति अथर्ववेदे (६।११५।३।) हिरण्यवर्ण इति तैत्तिरीयसंहितायां (५।६। १४) अथर्ववेदे (१।३३।९।) पावमान्योमन्लाः सामवेदे छन्दस्यार्धिके पावमानकारदे बहवः पठिताः । अन्यचापि बहुच ।
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२५६
पराशरमाधवः।
[१०, का।
प्राणायामांश्च कुर्चीत गायत्रीचार्घ-मर्षणम्" इति । विष्णुरपि,-"ततोऽभु निमग्न स्त्रिरघ-मर्षणं जपेत्, तद्विष्णोः परमं पदमिति वा, द्रुपदा मावित्रों वा, युंजते मन हत्यनुवाकं वा, पुरुष सूत्रं वा(२), सात-वाई-वासा देवर्षि-पिट-तर्पणमम्भस्थ एव कुर्यात्'-दति । मेधातिथिरपि,
"ततोऽम्भमि निमनस्तु त्रिः पठेदघ-मर्षणम् ।
प्रदद्यान मुर्द्धनि तथा महाव्याहृतिभिर्जलम्" इति । वसिष्ठः,
"स्नात्वा संग्टह्य वामो न्यदुरू मंशोधये न्मदा । अपवित्रीकृतौ तौ तु* कौपीनासाव-वारिणा ॥ योऽनेन विधिना स्नाति यत्र तत्राम्भमि । इिजः ।
म तीर्थ-फलमाप्नोति तीर्थ तु द्विगुणं फलम् !" इति। तत्रान कल्पमाह योगियाज्ञवल्क्यः,
* व्यपवित्रीकृते ते तु,-इति स० से. शा. पुस्तकेषु पाठः । + कुत्राम्म सि, इति मु० पुस्तके पाठः । + भवेत्,- इति मु° पुस्तके पाठः ।
(१) तदियणोरिति ऋग्वेद (१।२२।२०।) सामवेदे उत्तरार्चिके (८।२।५।४।)
अथर्ववेद (७१२६।७1) यञ्जते मनः इत्यनवाकश्च तैत्तिरीयारण्य कम्य चतुर्थप्रपाठकस्य दितीयः। एवं वाजसनेविसंहितायां पञ्चमम्य पञ्चमः । तथा तैत्तिरीयसंहितायाः प्रथम-दितीय-त्रयोदशः । पुरुषसूक्तञ्च ऋग्वेदे दाम-नवतितमम्य प्रथमं सूक्तम् । वाजसनेयिसहितायां एकत्रिंशतः प्रथमोऽनुवाकः। तेत्तिरीयारण्य काम्य टतीवस्य हादशो ऽनुवाकः। एवं अथर्ववेदम्य उनविंशति-ययः ।
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१०, ख० का ० 1]
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तत्र मनुः,
पराशर माधवः ।
" यएष विस्तृतः * प्रोक्तः स्नानस्य विधिरुत्तमः । श्रमामर्थ्यान्न कुर्य्याच्चेत् तत्रायं विधिरुच्यते । खानमन्तर्जले चैव मार्च्छनाचमने तथा || जलाभिमन्त्रणञ्चैव तीर्थस्य परिकल्पनम् । श्रघमर्षण- सुक्रेन चिरावृतेन नित्यशः ॥ स्नानाचरणमित्येतदुपदिष्टं महात्मभिः” - इति । ॥ ॥ इति माध्याहिक - ज्ञानम् ॥ ॥
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श्रथ नैमित्तिक स्नानम् ।
"दिवाकीर्त्तिमुदक्याञ्च पतितं सूतिकां तथा । शवं तत् स्पृष्टिनश्चैव स्पृष्ट्रा खानेन शुद्यति ॥ दिवाकीर्त्तिश्चाण्डालः । श्रङ्गिराः, -
२५७
"शव-स्पृशमथोदयां स्रुतिकां पतितं तथा ।
स्पृष्ट्वा स्नानेन शुद्धः स्यात् सचैलेन न संशयः” – इति । गौतमोऽपि - " पतित - चाण्डाल - स्रुतिका दक्या-शवस्पृक्-तत्स्पृष्टि-स्पर्शने । सचैल उदकोपस्पर्शनात् शयेत्” - इति । पतितादि
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* विस्तरः - इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ दिवाकीर्त्य, इति सेो० पुस्तके, दिवाकृत्य, - इति शा. पुस्तके पाठः । एवं परत्र |
† शवतत्स्पृष्यपस्पर्शने, – इति प्रा० स० पुस्तकयोः पाठः ।
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પૂર
पराशरमाधव:।
पा.का.।
स्पष्टिनं समारभ्य हृतीयस्य सचेलं स्वानं, चतुर्थस्य तु उदकोपस्पर्शनाच्छुद्धिः । तथा च मरीचिः,
“उपस्पृशेचतुर्थस्तु तदूई प्रोक्षणं स्मृतम्" इति । यत्तु सम्बर्जेन इयोरेव स्नानमुक्तम्,__ "तत्-स्पृष्टिनं स्पशेयस्तु स्नानं तस्य विधीयते ।
अर्द्धमाचमनं प्रोकं द्रव्याणं प्रोक्षणं तथा" इति। तदबुद्धि-पूर्व-स्पर्शन-विषयम् । तथा च संग्रहकारः,
"अवुद्धि-पूर्वक-स्पर्श द्वयोः स्वानं विधीयते ।
चयाणां बुद्धि-पूर्वं तु तत् स्पृष्टि-न्याय-कल्पना" इति। कूर्मपुराणम्,
"चाण्डाल-मृतिक-शवः संस्पृष्टं संस्पृशेद् यदि । प्रमादात्तत श्राचम्य जपं कुर्यात् समाहितः ।। तत्-स्पृष्टि-स्पृष्टिनं स्पृष्ठा बुद्धिपूई । द्विजोत्तमः ।
पाचमेत विशुद्ध्यर्थ । प्राह देवः पितामहः" । याज्ञवल्क्योऽपि,
"उदक्या सूतिभिः स्नायात संस्पृशः तैरुपस्पृशेत्।।
अलिङ्गानि(१) जपेच्चैव गायत्री मनमा सकृत्"-दात। एतद्दण्डाद्यन्तरित-स्पर्श-विषयम, अन्यथा इयोः स्नानमित्यनेन * यथा,-इति मु० पुस्तके पाठः । + संस्पटातु,-इति शा• पुस्तके पाठः।
याचमेतदिशुद्ध्यर्थ,-इति शा. पस्त के पाठः । 5 उदक्याऽशुचिभिः, --- इति मु• पुस्तके पाठः । (१) व्यलिङ्गानि 'यापोहिष्ठा' इत्यादीनि ।
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१५.,या का.]
पराशरमाधवः।
२५४
विरोधः प्रमज्येत । वस्त्रान्तरित-स्पर्शने तु दण्डान्तरित-न्याय-प्राप्ता वाह* प्रचेताः,
"वस्त्रान्तरित-संस्पर्शः साक्षात् स्पीऽभिधीयते।
साक्षात् स्पर्श तु यत् प्रोकं तदस्त्रान्तरितेऽपि च" इति । चतुविंशतिमते स्वानस्य निमित्तान्तरमुक्रम,
"बौद्धान् पाशुपतान् जैनान् लोकायतिक-कापिलान् । विकर्मस्थान् दिजान स्पृष्ट्वा सचेलोजलमाविशेत् ॥
कापालिकांस्तु अस्पृश्य प्राणायामोऽधिको मतः" इति । चाण्डालादि-स्पर्श-निमित्त-नाने । विशेषमाइ विष्णुः,
"स्वानाही योनिमित्तेन कृत्वा तोयावगाहनम् ।
आचम्य प्रयतः पश्चात् स्नान विधिवदाचरेत्" इति। योगियाज्ञवल्करोऽपि,
"वष्णीमेवावगाहेत यदा स्थादचिन्नरः ।
आचम्य प्रयतः पश्चात् स्वानं विधिवदाचरेत्" इति । गायोऽपि,
"कुनैमित्तिकं स्नानं शीताद्भिः काम्यमेवच । नित्यं यादृच्छिकं चैव यथारुचि समाचरेत्" इति ।
॥०॥इति नैमित्तिक-स्वान-प्रकरणम्॥०॥
* यत्र वस्त्रान्तरितस्पर्शनं तत्र न दण्डान्तरितन्यायः । तथा च,-इति मु पुस्तके पाठः। ििनमित्तमतस्त्राने-इति शा. पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः ।
[१०,या.,का।
अथ काम्य-नानम्। तत्र पुलस्त्यः,
"पथ्ये च जन्म-नक्षत्रे व्यातीपाते च वैधतौ । अमावास्यां(') नदी-नानं पुनात्यासप्तमं कुलम् ।। चैत्र-कृष्ण-चतुर्दश्यां यः स्नायाच्छिव-सन्निधौ। न प्रेतत्वमवाप्नोति गङ्गायाञ्च विशेषतः ॥ शिवलिङ्ग-समीपेतु थत्तोयं पुरतः स्थितम् ।
शिव-गङ्गति विज्ञेयं तत्र स्नात्वा दिवं व्रजेत्"-दति । यमोऽपि,
"कार्तिक्यां पुस्करे स्नातः सर्ब-पापैः प्रमुच्यते । माध्यां स्नातः प्रयागे तु मुच्यते सर्व-किल्विषैः ॥ जेष्ठे मामि सिते पक्षे दशम्या इस्त-मंयुते ।
दशजन्माघहा गङ्गा तेन पाप-हरा स्मता"-इति । विष्णुः,
"सूर्यग्रहण-तुल्या तु शुक्ला माघस्य सप्तमौ । अरुणोदय-वेलायां तस्यां स्नानं महाफलम्।। पुनर्वसु बुधोपेता चैत्रे मासि सिताऽरमौ । स्रोतःसु विधिवत् स्नात्वा वाजपेय-फलं लभेत्" इति ।
* न स प्रेतत्वमाप्नोति,-इति मु. पुस्तके पाठः ।
शिवतीर्थमितिख्यातं,-इति मु० पुस्तके पाठः । * हादश्यां,-इति मु० पुस्तके पाठः।
(१) अमावासीशब्दस्य रूपमिदम् ।
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१०,या का।
पराशरमाधवः।
श्रादि पुराणे,
"कार्तिकं सकलं मासं नित्यस्नायौ जितेन्द्रियः । जपन् इविष्य-भुक् क्लान्तः । सर्व-पापैः प्रमुच्यते ॥ तुला-मकर-मेषेषु प्रातः स्नायी सदा भवेत् ।
इविव्यं ब्रह्मचर्यञ्च महापातक-नाशनम्" इति । मत्स्यपुराणे,
"प्राषाढ़ादि चतुर्मास प्रातःस्नायौ भवेन्नरः । विप्रेभ्यो भोजनं दत्त्वा कार्निक्यां गो-प्रदो भवेत् ॥
स वैष्णव-पदं याति विष्णु-व्रतमिदं स्मृतम्" इति । मार्कण्डेयोऽपि,
“सर्व-कालं तिलैः स्नानं पुण्यं व्यामोऽववोन्मुनिः । तुष्यत्यामलकैर्विष्णु रेकादश्यां विशेषतः ॥ श्रीकामः सर्वदा स्वानं कुबौतामलकैनरः ।
मप्तमौं नवमौञ्चैव पर्व-कालञ्च |(१) वर्जयेत्” इति ॥ विष्णुः,
• यादित्य,-इति मु• पुस्तके पाठः । स्निातः,-इति स. मो. शा० पुस्तकेघु पाठः। 1 सप्रदो,-इति मु० पुस्तके पाठः। $ मार्कण्डेयपुराणे,-इति मु० पुस्तके पाठः । || पञ्चपर्वसु,-इति मु• पुम्त के पाठः ।
(१) पाणि च,-"चतुर्दश्ययमी चैव अमावस्या थपूर्णिमा । पाण्येतानि
राजेन्द्र र विसंक्रान्तिरेवच"-इत्युक्तलक्षणानि ।
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२१२
पराशरमाधवः।
[१०,०,का।
"कालाच तरुणा वृद्धा नर-नारी नपुंसकाः । खात्वा माघे भे तौर्थे प्राप्नुवन्तौमितं फलम् ॥ माघे मास्युषसि स्नात्वा विष्णु-लोकं स गच्छति"--इति ॥
॥०॥ इति काम्य-स्नानम् ॥ ॥
अथ मलापकर्षण-खानम्। तत्र वामनपुराणम,
"नाभ्यङ्गमर्के न च भूमिपुत्रे तौरं च शुक्रे च कुजे च मांसम् । बुधे च योषित्परिवर्जनौया
शेषेषु मर्केषु सदैव कुर्यात्”-दति । ज्योतिःशास्त्रे,
“मन्तापः कान्ति* रल्यायुधनं निर्धनता तथा । अनारोग्यं सर्व कामाः अभ्यङ्गागास्करादिषु"-इति ।
मनुरपि,
"पक्षादौ च रवी षष्ट्यां रिकायाञ्च तथा तियौ ।
तेलेनाभ्यज्यमानस्तु धनायुभ्या विहीयते"-इति गोऽपि,
"पञ्चदश्यां चतुर्दश्यामष्टम्यां रवि-संक्रमे । द्वादश्यां सप्तमौ-षट्योः तैल-स्प विवर्जयेत्” इति ।
* सन्तापशान्ति, इति मु• पुस्तके पाठः।
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१०या०,का०।
पराशरमाधवः।
२६३
बौधायनोऽपि, *
"अष्टम्याच चतुर्दश्यां नवम्याच विशेषतः ।
शिरोऽभ्यङ्ग वर्जयेत्तु पर्व-सन्धौ तथैवच" इति । ग!ऽपि,
"नच कुर्यात् तृतीयायां चयोदश्यान्तिथी तथा ।
शाश्वतौं इतिमन्विच्छन् दशम्यामपि पण्डितः” इति । एवं माखपि तिथिष्वभ्यङ्गस्य निषेधे प्राप्ते तैल-विशेषेणाभ्यमुजानाति प्रचेताः,
"मार्षपं गन्ध-तैलञ्च यत्तैलं पुष्य-वामितम् । ___ अन्य-द्रय-युतं तैलं न दुश्थति कदाचन"-इति । यमोऽपि,
“घृतञ्च मार्षपं तैलं यत्तैलं पुष्प-वामितं । न दोषः पक्व-तैलेषु स्नानाभ्यङ्गेषु नित्यशः" इति ।
॥०॥ इत्यभ्यङ्ग-स्नानम् ॥०॥ क्रियाऽङ्ग-स्नानन्त नित्य-सानवदनुष्ठेयम् ।
"प्रातः शक्ल-तिलैः स्नात्वा मध्याचे पूजयेत् सुधौः” । इत्यादिकं क्रियाऽङ्ग-स्नानं द्रष्टव्यम्। तस्य क्रियाऽङ्गत्वं पुराणे स्पष्टीकृतम्,
"धर्म-क्रियां कर्तुमनाः पूर्व स्नानं समाचरेत् । क्रियाऽहं तत्ममुद्दिष्टं स्नानं वेदमा ईिजैः" इति ।
* यमोपि,-इति मु. पुम्त के पाठः। । देवमये, -- इति मु० पुस्तके पाठः ।
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२६४
पराशरमाधवः ।
[ १०,या०,का।
अथ क्रिया-स्नानम्। तत्र शङ्खः,
"क्रिया-स्वानं प्रवक्ष्यामि यथावद्विधि-पूर्वकम् । मृद्भिरद्भिश्च कर्त्तव्यं शौचमादौ यथाविधि ॥ जले निममस्तून्मज्य* चोपस्पृश्य यथाविधि । तीर्थस्थावाहनं कुर्यात् तत्प्रवक्ष्याम्यतः परम् । प्रपद्ये वरुणं देवमम्भमा पतिमीश्वरम् ॥ याचितं देहि मे तीथें मर्च-पापापनुत्तये । तीर्थमावाहयिष्यामि माघ-विनिमुदनम् ॥
सानिध्यमस्मिंश्चित्तोये क्रियता मदनुग्रहात्" इति । षट्स्खपि खाने षु मुख्यानुकल्पाभ्यां जल-विशेषो विष्णुपुराणे निरूपितः,
"नदी-नद-तड़ागेषु देवखात-विलेषु च । नित्य-क्रियाऽर्थ खायौत गिरि-प्रस्रवणेषु च ॥
कूपे वोद्धत-तोयेन स्वानं कुबौत वा भुवि" इति । मार्कण्डेयोऽपि,
"पुराणानां नरेन्द्राणामृषीणच महात्मनाम् । खानं कूप-तड़ागेषु देवतानां समाचरेत् । भूमिष्ठमुद्धृतात्पुण्यं ततः प्रस्रवणोदकम् ॥
* निममस्निर्मज्य, इति मु० पुस्तके पाठः। + चोपविश्य,-इति स. मो. शा. पुस्तकेषु पाठः । + पतिमूर्जितम,-इति प्रा० पुस्तके पाठः ।
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१२०,आका
पराशरमाधवः।
२६५
ततोऽपि मारसं पण्यं तस्मान्नादेयमुच्यते ।
तीर्थ-तोयं ततः पुण्य ततोगाङ्गन्तु सर्वतः" इति । मरीचिः,
"भृमिष्ठमुद्भुतं वाऽपि गौतमुष्णमथापि वा।
गाङ्ग पयः पुनात्याश पापमामरणान्तिकम्” इति । निषिद्ध-जलमाह व्यासः,
"अनुत्सृष्टेषु न स्नायात्तथैवासंस्तुतेषु च ।
श्रात्मौयेम्वपि न स्वायात्तथैवाल्पजलेवपि"-दुति । व्यासाऽपि,
"नद्यां यच्च परिभ्रष्टं नद्यायच । विनिःसृतम् ।
गतं प्रत्यागतं यच्च तत्तोयं परिवर्जयेत्" इति ॥ शातातपाऽपि,
"अन्यैरपि कृते कूपे सरोवाप्यादिके तथा ।
तत्र स्नात्वा च पीत्वा च प्रायश्चित्तं समाचरेत्" इति ॥ प्रतिप्रसवमाह मनुः,
"अलाभे देव-खातानां सरसां सरितां तथा ।
उद्धृत्य चतुरः पिण्डान् पारक्ये स्नानमाचरेत्'-दति ॥ उष्णोदकं निषेधयति शङ्खः,
* तथैवासंस्कृतेषु च,-इति स० प्रा० पस्तकयाः पाठः। + पुण्डरीकोऽपि,-इति मु• पुस्तके पाठः। + नद्यां यच्च,-इति मु• पुस्तके पाठः । 6 उष्णोदकसानं,--इति म० पुस्त के पाठः ।
34.
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२६६
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याज्ञवल्क्यः, -
पराशर माधवः ।
"खातस्य वहि- तप्तेन तथैव पर- वारिणा । शरीर शुद्धिविशेया न तु खान - फलं लभेत् " - इति ॥
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“टथा तूष्णोदक स्नानं वृथा जप्यमवैदिकम् ।
वृथा वोचिये दानं वृथा भुक्रमसाचिकम्" - इति । यत्तूष्णोदकस्तान' विधानम्, -
"आप एव सदा पूता स्तासां वह्निर्विशोधकः । ततः सर्व्वेषु कालेषु उष्णाम्भः पावनं स्मृतम् - इति । षट्त्रिंशन्मतेऽपि +
--
[१०, ० का ० ।
“आपः स्वभावतामेध्याः किं पुनर्वहि संयुताः । तेन सन्तः प्रशंसन्ति लानमुष्णेन वारिणा " - इति । तदातुर - खान- विषयम ! । तथाच यमः,
"आदित्य - किरणे: पूतं पुनः पूतञ्च वहिना।
श्राम्नातमातुर लाने प्रशस्तं स्यात् श्टतोदकम् ? ” - इति । यदा तु नद्याद्यसम्भवस्तदा श्रनातुरस्याप्युष्णोदक - स्नानमनिषिद्ध
मित्याह यमः, -
" नित्यं नैमित्तिकचैव क्रियांगं || मल-कर्षणम् ।
तीर्थाभावे तु कर्त्तव्यमुष्णोदक - परोदकैः " - इति ।
#
स्नान, – इति नास्ति शा ० से ० पुस्तकयोः ।
--
+ घड़विंशन्मतेऽपि - इति शा० पुस्तके पाठः ।
+ तदातुरविषयम्, - इति स० शा ० पुस्तकयोः पाठः ।
$ न शुभोदकम् - इति शा ० पुस्तके पाठः । ॥ क्रियायां - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१५०,या का
पराशरमाधवः।
यदपि उद्धमनुनाकम्,
"मृते जन्मनि संक्रान्ती श्राद्धे जन्मदिने तथा । अस्पृश्य-स्पर्शने चैव न सायादुष्ण-वारिणा ॥ संक्रान्त्यां भानु-वारे च सप्तस्यां राहु-दर्शने। आरोग्य-पुत्र-मित्रार्थी न खायादुष्ण-वारिणा ॥ पौर्णमास्यां तथा दयः खायादुष्ण-वारिण।
स गोहत्या-कृतं पापं प्राप्नोतीह न संशयः" इति। तबोकेषु मरणादिषु नाष्णोदकैः स्वायात, अपि तु परकीयैसद्धृतोदकै वैत्युतमिति न विरोधः । उष्णोदक-स्त्राने विशेषमाह व्यामः,
"भीताखन निषियोष्णा मन्त्र-संभार-भृताः ।
गेहेऽपि मस्यते स्वानं नदी-फल-समं विदुः" इति । गौणन्तु खानमुत्तरच खयमेव वक्ष्यति ॥
॥०॥ इति क्रिया-स्वानम् ॥०॥
अथ सन्ध्याविधिः। तत्र सन्ध्या-खरूपं दक्षो दर्शयति,
"अहोरात्रस्य यः मन्धिः सूर्य-नक्षत्र-वर्जितः । मा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्व-दर्शिभिः" इति ।
* जन्मतिथौ,-इति मु० पुस्तके पाठः। + तादकैति न विरोध इत्युक्तम्, इति मु. पुस्तके पाठः । तडीनमफलं वहि-इति शा• पुस्तके पाठः।
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२६०
पराशरमाधवः।
१.या का।
यद्यगि काल-वाचकत्वेनात्र सन्ध्या-शब्दः प्रतीयते, तथापि तस्मिन् काले उपास्या देवता सन्ध्या-शब्देनोपलक्ष्यते । तथा देवतया उपलक्षणमुपलक्ष्य मूल-वचने कर्म-परत्वेन सन्ध्या-शब्दः प्रयुक्तः । अथवा,-सन्धौ भवा क्रिया सन्ध्या । अतएव व्यासः,
"उपास्ते सन्धि-वेलायां निशाया दिवस्य च ।
तामेव सन्ध्यां तस्मात् प्रवदन्ति मनीषिणः” इति। तां क्रियां विदधाति योगियाज्ञवल्क्यः,
“मन्धी सन्ध्यामुपासीत नास्तगे नाइते रवौ" इति । मा च सन्ध्या त्रिविधा । तदुक्रमत्रिणा,
__"सन्धया-त्रयन्त कर्त्तव्यं दिजेनात्मविदा सदा"-इति। तत्र, काल-भेदेन देवताया नामादि-भेदमाह ! व्यासः,
"गायत्री नाम पूर्वा सावित्री मध्यमे दिने । सरखती च मायाले मैव सन्धया विधाः स्मृता ।। प्रतिग्रहादत्रदोषात् पातकादुपपातकात् । गायत्री प्रोच्यते तस्मादायन्तं त्रायते यतः ॥ सवित-द्योतनात् मैव || सावित्री परिकीर्तिता ।
जगतः प्रसावित्री वा वायूपत्वात् सरखती" इति । वर्ण-भेदः स्मृत्यन्तरेऽभिषितः,
* तथा च देवताया उपलक्षणमुपलक्ष्य, इति शा० स० पुस्तकयोः पाठः। तस्मात्तत्,-इति शा० पुस्तके पाठः । नामभेदमाह,-इति म० पुस्तके पाठः। 5 विघु,-इति शा० सेपुस्तकयोः पाठः । || चैव-इति म० पस्तके पाठः।
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१अ.,या०,का।]
पराशरमाधवः ।
२६६
"गायत्री तु भवेद्रका सावित्री लवर्मिका। सरस्वती तथा कृष्णा उपास्या वर्म-भेदतः ॥ गायत्री ब्रह्मरूपा तु सावित्री रुद्ररूपिणी ।
सरखती विष्णुरूपा उपास्था रूप-भेदतः""-इति । उपासनमभिध्यानम् । अतएव तैत्तिरीय ब्राह्मणम्,-"उद्यन्तमस्त यन्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन् ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमनुते ऽसावादित्यो ब्रह्मेति ब्रह्मव सन् ब्रह्माप्येति यएवं वेद" इति । श्रयमर्थः, वक्ष्यमाण-प्रकारेण प्राणायामादिकं कर्म कुर्वन् यथोक्तनाम-रूपोपेती सन्ध्या-शब्द-वाच्यमादित्यं ब्रह्मेति ध्यायनैहिकमामुभिकञ्च सकलं भद्रमनुते । यएवमुक्त-ध्यानेन शुद्धान्तःकरणो ब्रह्म साक्षात् कुरुते, स पूर्वमपि ब्रह्मैव मन्त्रज्ञानाज्जीवत्वं प्राप्नोति यथोक्त-ज्ञानेन तदज्ञानापगमे ब्रह्मैव प्राप्नोति, इति । व्यासोऽपि एतदेवाभिप्रेत्याह,
"न भिन्नां प्रतिपद्येत गायत्रों ब्रह्मणा सह ।
सोऽहमस्मीत्युपासीत विधिना येन केन चित्" इति । तत्र, प्रातःसन्ध्यायाः काल-परिमाणमाह दक्षः,
"रायन्त-याम-नाड़ी द्वे सन्ध्यादिः काल उच्यते। दर्शनाद्रवि-रेखाया स्तदन्तो मुनिभिः स्मृतः” इति ।
* 'गायत्रीब्रह्मरूपातु,'–इत्यादिः 'रूपभेदतः' इत्यन्तोग्रन्थः मुद्रितातिरिक्तपुस्तकेषु नास्ति । + यथोक्तनामाभिध्येय रूपोपहितं, ---इति म० पुस्तके पाठः ।
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२७.
पराभरमाधवः।
घा०,का.॥
श्रा-सङ्गवं प्रातः सन्ध्याया गौणः कालः, श्रा-प्रदोषावसानं च सायंसन्ध्यायास्तदाह वृहन्मनुः,___ "न प्रातर्न प्रदोषश्च सन्ध्या-कालोऽतिपत्यते ।
मुख्य-कल्पोऽनुकल्पश्च सर्वस्मिन् कर्मणि स्मृतः" इति । कूर्मपुराणे सन्ध्योपास्ति-प्रकारो दर्शितः,
"प्राकूलेषु तनः स्थित्वा दर्भेषु च समाहितः ।
प्राणायाम-त्रयं कृत्वा ध्यायेत्। सन्ध्यामिति श्रुतिः" इति। याज्ञवल्क्योऽपि,- "प्राणानायम्य संप्रेक्ष्य युचेनाब्दैवतेन तु" इति । ब्रहस्पतिः,
"बद्धाऽऽसनं नियम्यासुन् स्मृत्वाऽऽचार्यादिकं तथा ।
मनिमीलित-दृमौनी प्राणायाम समभ्यसेत्” इति । प्रणायाम-लक्षणं मनुराह,
"मव्यापति सप्रणवां गायत्रीं शिरमा सह ।
त्रिः पठेदायत-प्राणः प्राणायामः स उच्यते"-इति । याज्ञवल्क्यः,
"गायत्रों शिरसा मार्दू जपेड्याहृति-पूर्विकाम् ।
दश-प्रणव-संयुकां विरयं प्राण-संयमः" इति । योगियाज्ञवल्कयोऽपि,* प्रागग्रेषु ततः स्थित्वा दर्भेषु सुसमाहितः, इति मु• पुस्तके पाठः। ध्यायन्,-इतिहा. पस्त के पाठः। प्रतिप्रणवसंयुक्तां,-इति मु० पुस्तके पाठः ।। ६ याज्ञवल्क्योऽपि,-इति स. मो. शा. पुस्तकेषु पाठः ।
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१षा,धा का.
पराशरमाधवः।
२७१
"भूर्भुवः खमहर्जनः तपः सत्यं तथैवच । प्रत्योङ्कार-समायुक्त स्तथा तत्सवितुः परम । ॐ आपोज्योतिरित्येतच्छिरः पश्चात् प्रयोजयेत् ॥ त्रिरावर्त्तन-योगात्तु प्राणायामः प्रकीर्तितः" इति ॥ सच प्राणायामः पूरक-कुम्भक-रेचक-भेदेन विविधोज्ञेयः । तथा च योगियाज्ञवल्क्यः,
"पूरकः कुम्भको रेच्या प्राणायामस्त्रिलक्षणः । नासिकाउशिष्ट उच्छामाभातः पूरक उच्यते ।
कुम्भको निश्चलः श्वासोरेच्यमानस्तु रेचकः" इति । मार्जनमाह व्यासः ।
"आपोहिष्ठेत्युचैः कुर्यान्मार्जनन्तु कुशोदकैः । प्रणवेन तु संयुकं क्षिपेदारि पदेपदे|| ॥ वपुष्यही विपेदूईमधो यस्य क्षयाय च । रजस्तमोमोहमयान् जाग्रत्-वन-सुषुप्ति-जान् ।
वाङ्-मनः-काय-जान् दोषान् नवैतान नवभिर्दहेत्" इति । शातातपः,
"सुगन्ते मार्जनं कुर्यात् पादान्ने वा समाहितः ।
* समायुक्त, इति शा० पुस्तके पाठः । + सशब्दितः,-इति मु० पुस्तके पाठः । 1 रेचकः, इति शा० पुस्तके पाठः ।
आपोहिछेत्यचा,-इति मु• पुस्तके पाठः । ॥ पदेषु च,-इति शा० पुस्तके पाठः । पा ऋगन्तवाथपादान्ते मार्जनं सुसमाहितः, इति मु. पुस्तके पाठः।
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२७२
पराशरमाधवः।
[ १०,या का ।
अर्द्धचीन्तेऽथवा कु-च्छिष्टानां मतमीदृशम्" इति । हारीतोऽपि,-"मार्जनार्चन-वलिकर्म-भेजनानि दैव-तीर्थन कुर्यात्"। तच मार्जनं न धारा-च्युतौ कार्य्यम् । तथा ब्रह्मा, -
"धाराच्युतेन तोयेन सन्ध्योपास्ति विगहिता ।
पितरो न प्रशंसन्ति न प्रशंसन्ति देवताः" इति ॥ कथं तर्हि मार्जनमिति, तत्राह स एव,
"नद्या तीर्थे तटे वाऽपि भाजने मृण्मयेऽपिवा । श्रादुम्बरेऽथ सौवर्णे राजते दारु-सम्भवे ।
कृत्वा तु वाम-हस्ते वा सन्ध्योपास्तिं समाचरेत्" इति । कृत्वा उदकमिति शेषः । मृण्मयादि पात्र-सद्भावे तु वामहस्तस्य प्रतिषेधः ।
“वामहस्ते जलं कृत्वा ये तु सन्ध्यामुपासते।
मा सन्ध्या वृषली जेया असुरास्तेषु तर्पिताः”। इति स्मरणात् । मृण्मयाद्यभावे तु, 'कृत्वा तु वामहस्ते वा'इत्यनेनैव विधानात् । एवमुक्तविधिना माजयित्वा सूर्यश्चेत्यपः पिवेत्। तदाह बौधायनः,-"अथातः सन्धयापासन-विधिं व्याख्यास्यामः, तीर्थं गत्वा प्रयतोऽभिषिक्तः प्रचालित-पाणि-पादो विधिनाऽऽचम्यामिश्च मा मन्युश्चेति मायमपः पीला मर्यश्च मामन्यश्चेति
* तथाच,-इति स० शा० पुस्तकयोः पाठः ।
सन्ध्यां,-इति मु० पुस्तके पाठः । + वामहस्तः प्रतिषिद्धः, इति मु० पुस्तके पाठः ।
अमरास्तेस्तु, इति मु• पुस्तके पाठः ।
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११. श्रा०,का.
पराशरमाधवः।
२७३
प्रातः मावित्रेण वसुमत्या*(१) अवलिङ्गाभिर्गरुणीभिः हिरण्यवर्माभिः पावमानीभियातिभिरन्यैश्च पवित्रैरात्मानं प्रोक्ष्य प्रयतो भवति" -इति । भारद्वाज: -
"मायमग्निश्च मेत्युक्त्वा प्रातः सूर्योत्यपः पिवेत् ।
पापः पुनन्तु मध्याले ततश्चाचमनश्चरेत्” इति । कात्यायनोऽपि,
"शिरसा मार्जनं कुर्यात् कुशैः सेोदक-विन्दुभिः । प्रणवो भूर्भुवः स्वश्च गायत्री च हतीयिका।
अव-दैवत्यं व्यूचं चैव चतुर्थमिति माजनम्” इति । माजनानन्तरं प्रजापतिः,
"जल-पूर्ण तथा इस्तं नामिकाऽग्रे समर्पयेत् ।
पतञ्चेति पठित्वा तु तज्जलन्तु वितौ क्षिपेत्" इति। ततः सूर्यायायं दद्यात् । तथाच व्यासः,
* सरभिमत्या,-इति मु• पुस्तके पाठः । भिरद्वाजः, इति स. शा. पुस्तकयोः पाठः । जयवर्देवतम्रचं चंव,-इति मु. पुस्तके पाठः।
(१) वसुशब्दोपेता मन्त्रा ऋग्वेदे पठिताः । यचा (१।६, ११५८१ ॥,
५।२४।२॥, 188२॥, १०७४।१।१०।१२२।१॥) सामवेदे उत्तराचिके प्येका पठिता (१।१।२२।२)। एवमाथदणे (१०६॥ १२॥२॥४१॥ १६ ) तैत्तिरीयसंहितायां (२।३.३।३॥ १।६।३॥) काठके (३८११३६॥) वाजसनेयिसंहितायां (१।२।२-३॥, २।१६।१॥, ६।३।। ९॥ ११॥५८१०, ११६०।१०, ११४६५।१॥ १४॥२५॥९॥, ११५॥१॥ २३ २१॥, २४।२७।१॥)
35
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२
पराशरमाधवः ।
[१चा,मा.का.
"करन्यां तोयमादाय गायव्या चाभिमन्त्रितम् ।
श्रादित्याभिमुखस्तिष्ठन् त्रिरूर्द्धमथ चोक्षिपेत्” इति । हारीतोऽपि,-"मावित्याभिमन्त्रितम् उदकं पुष्प-मिश्रमालिना क्षिपेत्" इति । अर्य-दाने मन्त्रान्तरमुकं विष्णुना,
"कराभ्यामञ्जलिं कृत्वा जल-पूर्ण समाहितः ।
उदुत्यमिति मन्त्रेण तत्तोयं प्रक्षिपेड्डवि." इति । ततः प्रदक्षिणां कृत्वा उदकं स्पृशेत् । तदुकं वराह पुराणे,
"मायं मन्त्रवदाचम्य प्रोक्ष्य सूर्य्यस्य चाचलिम्।
दत्वा प्रदक्षिणं कृत्वा जलं स्पृष्ट्वा विशयति" इति । श्रुतिरपि,-"यत् प्रदक्षिणं प्रक्रमन्ति तेन पामानमवधुन्वन्ति ॥"-दति। कूर्मपुराणम्,
"अथोपतिष्ठेदादित्यमुदयन्तं समाहितः ।
मन्त्रैस्तु विविधैः मौरीः अग्यजुः-माम-सम्भवैः" इति। उपस्थानन्तु ख-शाखोक-मन्त्रः कार्यम् ।
__ "उपस्थानं स्वकर्मन्त्रैरादित्यस्य तु कारयेत्” । इति वशिष्ठ स्मरणात् । कूर्मपुराणे उपस्थानन्तु सरित्यादिना ।
• तत्तोयं च क्षिती क्षिपेत्, इति मु. पुस्तके पाठः ।। + ततः प्रदक्षिणं कृत्वा उदकच्च स्पशेदिति,-इति झोकाईरूपेण लिखिसमस्ति मु० पुस्तके।
वराह,-इति नास्ति शा० स० पुस्तकयोः। 5 सायंसन्ध्यामुपासीत प्रोच्य सूर्याय चाञ्जलिम्, इति म० पुस्तके पाठः। ॥ धन्वन्ति,-इति म पुस्तके पाठः।। । खपाठेत्यादिना, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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११.,या का•
पराशरमाधवः।
२७५
प्रपञ्चितम् । प्राक्कुलेषु, इत्यारभ्यादित्योपस्थान-पर्यन्तं प्रातः सन्यायां यदुपवर्मितं, तदितरयोरुभयोरपि सन्ध्ययोः समानम् । तत्र, मध्याहसन्ध्यायां विशेषो नारायणेनाभिहितः,
"आपः पुनन्तु मन्त्रेण आपोहिष्ठेति मार्जनम् । प्रतिष्य चाञ्जलिं सम्यगुदुत्यं चित्रमित्यपि । तच्चक्षुर्देव इति च इंसः शविषदित्यपि॥ एतत् जपेदूई-बाहुः सूयें पश्यन् समाहितः।।
गायच्या तु यथाशनि उपस्थाय दिवाकरम्" इति । काल-विशेषस्तु शङ्खन दर्शितः
"प्रातःसन्ध्यां मनक्षत्रां मध्यमां खान-कर्मणि।
मादित्यां पश्चिमा सन्ध्यामुपासीत यथाविधि" इति। खानकर्मणीति माध्यामिक-सानानन्तरमित्यर्थः । माध्याहिकसन्ध्यायां गौण-कालमाह दक्षः,
"अध्यर्द्धयामादासायं सन्ध्या माध्याहिकीप्यते"-इति । सन्ध्या-चये तारतम्येन देश-विशेषमाह व्यामः,
"ग्टहे त्वेक-गुणा मन्ध्या गोष्ठे दशगुणा स्मृता ।
शतमाहसिका नद्यामनन्ता विष्णुमनिधी"-दति ॥ महाभारते,
“वहिःसन्ध्या दशगुणा गर्न-प्रश्रवणेषु च ।
ख्याता तीर्थ शतगुणा माहस्रा जाहवी-तटे" इति ॥ भातातपोऽपि,
* दशगुणा,-इति मु. पुस्तके पाठः।
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पराशर माधवः ।
एव सन्ध्यात्रयं कर्त्तव्यमित्यादात्रि:, -
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"तं गन्ध दिवामैथुनमेवच ।
पुनाति वृषलस्यानं सन्ध्या वहिरुपासिता " इति ॥ वहि: मन्ध्यायामुपामितायां यदा विहरणाद्यङ्ग लोपस्तदा गृह
[१ का०, या०, का• ।
“सन्ध्यात्रयन्तु कर्त्तव्यं द्विजेनात्मविदा मदा |
उभे सन्ध्ये तु कर्त्तव्ये ब्राह्मणैश्च गृहेष्वपि " - दूति ।
यद्यपि, प्रशस्तत्वादहिरेव सन्ध्यात्रयं कर्त्तव्यत्वेन प्राप्तं, तथापि श्रौतत्वेन विहरणस्य प्रावल्यात् तदनुरोधेन मायं प्रातः-समध्ये ग्टहेऽभ्यनुज्ञायेते । सायं सन्ध्यायामुपयाने मन्त्र - विशेषमाच नारायणः - "वारुणीभिस्तथादित्यमुपस्थाय प्रदक्षिणम् ।
कर्व्वन् दिशोनमस्कुर्य्याद्दीगीशांश्च पृथक पृथक्" इति । वारुण्यश्च - 'इमं मेवरुण' - इत्याद्याः । यद्यपि, वारुणीभि वरुणस्योपस्थानं लिङ्गबलात् प्राप्तं, तथापि श्रुतेः प्राबल्यात् तथा लिङ्गं वाधिला आदित्योपस्थाने एव विनियुज्यन्ते । एतच्च तृतीयाध्याये विचारितम (१) ।
तथा हि, "ऐन्द्रा गार्हपत्यमुपतिष्ठेत " - इति श्रूयते । इन्द्रो देवतात्वेन यस्यास्मृति मन्त्रलिङ्गात् प्रकाश्यते, मेयन्मृगेन्द्री; 'कदाचन स्तरीरमिनेन्द्र सञ्चमि - इत्यादिका । तत्र, लिङ्गादिन्द्रोपम्याने मन्त्रस्य विनियोगः प्रतीयते, 'गाईपत्यम्' - इति द्वितीयाश्रुत्वा तु गाई - पत्योपस्थाने । तत्र संशयः, किमुभयं समुचित्योपस्थेयं, उनकएव ।
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(१) पूर्व्वमीमांसायाः, – इति शेषः । एतच्च तत्र तृतीय-तृतीय- सप्तममधि
करणम् ।
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११०,या का
पराशरमाधवः ।
२०७
तत्रापि किं यः कश्चिदैच्छिकः, किं वेन्द्रएव, उतगाईपत्यएव,इति । तत्र, श्रुति-लिङ्गयोः सम-वल-प्रमाणत्वात् विरोधानुपलम्भाच्च समुच्चयः,-दतोकः पक्षः। एकोपस्थाने मन्त्रस्य निराकात्वात् नैराकाङ्क्ष्य-लक्षण--विरोधादन्यतर-नियामकादर्शनाचैच्छिकः, इति द्वितीयः पतः । श्रुतेः शब्दात्मिकाया: अर्थ-सामानुसारित्वात् सामर्थ्यस्य चोपजीव्यत्वेन प्रावल्यादिन्द्रएकोपस्थेयः, इति हतीयः पक्षः । मन्त्रगतोहीन्द्रशब्दोरख्या शक्रमभिधत्ते, 'ददि परमैश्वर्य'-इत्यस्माद् धातोरुत्पन्नत्वात् खकार्य-विषयपरमैश्वर्थोपेतं गाईपत्यमभिधत्ते, 'गुणादाप्यभिधानं स्यात्' इति न्यायेनोभय-साधारणत्वेन लिङ्गस्य मन्देहापादकत्वम् । अथेच्येत ;-रूढ़िोगमपहरति' इति न्यायेन शीघवुड्युत्पादिकायाः रूढ़ेः प्रावल्याच्छक्रएवोपस्थेयः, इति । एवं तहि, लिङ्गादपि शीघ्र-वुड्युत्पादकत्वेन अतिरेवात्र विनियोजिका(१) । तथा ह्याचार्ये रुक्तम्,
"मन्त्रार्थ मन्त्रतो बुवा पश्चाच्छति निरूप्य च । मन्त्राकाङ्गा-बलेनेन्द्र-शेषत्व-श्रुतिकम्पनम् ॥ श्रत्या प्रत्यक्षया पूर्व गाईपत्याङ्गतां गते ।
+ तत्शक्तिं च,-इति मु० पुस्तके पाठः । (१) एतच्च, "श्रति-लिङ्ग-वाक्य-प्रकरण-स्थान-समाख्यानां समवाये पार
दौर्बल्यमर्थविप्रकर्षात् (मी० ३.० ३पा० १४सू०,"--इति जैमिनि सूत्रात् सिद्धम् । श्रत्यादयश्च, “श्रुति दितीया क्षमता च लिङ्ग वाक्यं पदान्येव तु संहतानि । सा प्रक्रिया या कथमित्य पेक्षा स्थानं क्रमा योगबलं समाख्या"---इत्युक्तलक्षणाः। तत्र च, द्वितीयापदं कारकविभक्त्युपलक्षणम्, इति वाचस्पतिमिश्राः ।
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पराशर माधवः ।
*
सर्व्वमायुरुपाययुः, -- इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ श्वानभिजायते - इति मु० पुस्तके पाठः | | ये, - इति शा ० पुस्तके प ।
तिराकाङ्क्षीकृते मन्त्रे निर्मला श्रति- कल्पना ॥
तेन शीघ्र प्रवृत्तित्वाच्छ्रुत्या लिङ्गस्य बाधनम्" । तस्माङ्गार्हपत्य एवोपस्थेयः - इति सिद्धम | सन्ध्यां प्रशंसति यमः, -
" सन्ध्यामुपासते ये तु सततं मंशितव्रताः । विधूत पापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकं सनातनम् ॥ यदहा कुरुते पापं कर्मणा मनमा गिरा । आसीनः पश्चिमां सन्ध्यां प्राणायामैस्तु दन्ति तत् ॥ यद्राच्या कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा । पूर्व्वसन्ध्यामुपासीनः प्राणायामैर्यपोहति ॥ ऋषयो दीर्घ सन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः * ! प्रज्ञां यश कीर्त्तिञ्च ब्रह्मवर्चसमेवच " - इति । करणे प्रत्यवायोदर्शितोदक्षेण, -
"सन्ध्यादीनो ऽचिर्नित्यमन: सर्व्व- कस । यदन्यत् कुरुते कर्म्म न तस्य फलभाग्भवेत” – इति । गोभिलोऽपि -
"सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता । जीवमानोभवेच्छूद्रो मृतः वा चचेोपजायते ।" - इति । विष्णुपुराणेऽपि -
“उपतिष्ठन्ति वै । सन्ध्यां ये न पूव्वा न पश्चिमाम् ।
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[१०, च्या०का• ।
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१०, आ० का ० ।]
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कूर्मपुराणेऽपि
पराशर माधवः ।
ब्रजन्ति ते दुरात्मानस्तामिस्रं नरकं नृप" - इति ॥
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"योऽन्यत्र कुरुते यनं धर्म-कार्ये द्विजोत्तमः । विहाय सन्ध्या-प्रणतिं स याति नरकायुतम् ” – इति । एतत्सर्व्वमनार्त्त - विषयम् । तथाच याज्ञवल्क्यः,
“श्रनार्त्तश्चोत्सृजेद्यस्तु सविप्रः शूद्र- सम्मितः । प्रायचित्ती भवेचैव लेोके भवति निन्दितः " - दूति । अचिरपि -
"नोपतिष्ठन्ति ये सन्ध्यां स्वस्थाऽवस्यास्तु वै द्विजाः । हिंसन्ति वै सदा पापा भगवन्तं दिवाकरम्” इति । विष्णुपुराणेऽपि -
" सर्व्वकालमुपस्थानं सन्ध्यायाः पार्थिवेष्यते ।
अन्यत्र सुतकाशौच - विभ्रमातुर - भीतितः” इति । सूतकादौ सत्यपि सामर्थ्ये सन्ध्योपासनं न कार्य्यमित्याह मरीचिः, - "मृतके कर्मणां त्यागः सन्ध्यादीनां विधोयते " - इति । यदपि पुनस्तेनोक्तम्, -
f
२७८
" सन्ध्यामिष्टिच होमञ्च यावज्जीवं समाचरेत् ।
न त्यज्येत् तके वाऽपि त्यजन्गन्छ त्यधोगतिम् " - इति । तन्मानसिक-सन्ध्याऽभिप्रायम् । यतस्तेनैवोक्रम्, -
" सूत के मृतके चैव सन्ध्याकर्म न तु त्यज्येत् । । मनसेोच्चारयेन्मन्त्रान् प्राणायाममृते दिजः ॥
* सन्ध्यामिटिं चयं होमं, इति म० पुस्तके पाठः । न सन्त्यजेत, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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तत्र मनु:.-—
पराशर माधवः ।
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एतद्विदित्वा यः सन्ध्यामुपास्ते संशितव्रतः । दीर्घमायुः स विन्देत सर्व्वपापैः प्रमुच्यते " - इति ।
|| || इति सन्ध्याविधिः || ||
अथ सन्ध्याङ्ग-जप-विधिः ।
[१०, आ०, का० ।
"श्राचम्य प्रयतो नित्यमुभे सन्ध्ये समाहितः । शुचौ देशे जपन् जप्यमुपासीत यथाविधि " - इति ।
..
कथमित्यपेक्षिते आह शङ्खः - " कुशय्यां समामीन: कुशोत्तराय वा कुश - पवित्र - पाणि: सूर्याभिमुखोवाऽचमालामादाय देवतां ध्यायन् जपं कुर्य्यात्” – इति ।
व्यासोऽपि -
" प्रणव- व्याहृति-युतां गायत्रीञ्च जपेत्ततः " - इति । योगियाज्ञवल्क्यस्तु श्रन्तेऽपि प्रणव- योगार्थमाह -
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"ॐ कारं पूर्व्वमुच्चार्य भूर्भुवः स्वस्तथैवच ।
गायत्री प्रणवं चान्ते जपएवमुदाहृतः " - इति । बौधायनोऽपि - " उभयतः प्रणवां सव्याहृतिकां जपेत्" - इति । नृसिंहपुराणे जप-यज्ञस्य भेदोऽभिहितः,
"त्रिविधोजपयज्ञः स्यात्तस्य भेद निबोधत । वाचिकच उपांशुश्च मानम स्त्रिविधः स्मृतः ॥ त्रयाणां जप यज्ञानां श्रेयः स्यादुत्तरोत्तरः" इति । वाचिकोपांशुत्वयोर्णक्षणं पुराणेऽभिहितम्, - “यदुच्च-नीच स्वरितैः शब्दः स्पष्ट पदाचरैः ।
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१५०,या का.1]
पराशरमाधवः।
मन्त्रमुच्चारयेद्वाचा वाचिकोऽयं जपः स्मृतः ॥ शनैरुचारयेन्मन्त्रमीषदोष्ठौ प्रचालयन् ।
अपरैरश्रुतः किञ्चित् स उपांजपः स्मृतः" इति । विश्वामित्रेण मानसस्य लक्षणमुक्तम्,
"ध्यायेद् यदक्षर-श्रेणीं वर्णवर्ण पदात्पदम् ।
शब्दार्थ-चिन्तनं भूयः कथ्यते मानाजपः" इति । चयाणां तारतम्यञ्च तेनैवोकम,
"उत्तम मानसं जयमुपांशं मध्यमं मतम् । अधर्म वाचिकं प्राहुः सर्वमन्त्रेषु वै द्विजाः । वाचिकस्यैकमेकं स्यादुपांशुः शतमुच्यते ॥
साहस्रोमानसः प्रोकोमन्वत्रि-मुगु-नारदैः” इति । जप-नियममाह शौनकः,
"कृत्वोत्तानौ करौ प्रात: सायश्चाधोमुखौ तथा । मध्ये स्तम्ब कराभ्यान्न* जपएवमुदाहृतः ॥ मन:-सन्तोषणं शौचं मानं मन्त्रार्थ-चिन्तनम् ।
अव्यग्रत्वमनिवेदोजप-संपत्ति-हेतवः"-दात । मनुरपि,
"पूर्वी सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमाऽर्क-दर्शनात् ।
पश्चिमान्तु ममामीनः सम्यग्टन-विभावनात्" इति । मध्याह्न जपम्य नियमः वायपराणे दर्शितः,
• स्कन्दकराभ्यान्त,-इति स मा० शा० पुस्तकेषु, तिर्थक्कराभ्यान्त,
इत्यन्यत्रपाठः।
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२८९
पराशरमाधवः।
घाका ।
"तथा मध्याह-सन्ध्यायामासीनः प्रामुखोजपेत्' इति । वयानाह यासः,
"न संक्रामन् न च हसन न पार्श्वमवलोकयन्। मायामितो* न जल्पश्च न प्राकृतशिरास्तथा । न पदा पादमाक्रम्य न चैवहि तथा करौ ।
न चासमाहित-मना नच संश्रावयन् जपेत्" इति । बौधायनोऽपि,
"नाभेरधः संस्पर्शनं कर्म-संयुक्तोवर्जयेत्” इति । व्यासोऽपि,
"जपकाले न भाषेत बत-होमादिकेषु च । एतेष्वेवावमास्तु यद्यागच्छेत् द्विजोत्तमः ।
अभिवाद्य ततोविप्रं योग-क्षेमञ्च कीर्तयेत्” इति । योगियाज्ञवल्क्योऽपि,
"यदि वाग्यम-लोपः स्थाजपादिषु कदाचन ।
व्याहरेद्वैष्णवं मन्त्रं स्मरेदा विष्णुमव्ययम्" इति। संवाऽपि,
"लोक-वातीऽऽदिकं श्रुत्वा दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा प्रभाषितम् ।
मयां विना च यज्जन तत्मा निष्फलं भवेत्” इति । प्रभाषितं बहुभाषितं पुरुषमिति । गौतमोऽपि,* नचाश्रितो,-इति शा० युस्तके पाठः । नास्तोदं मु० पुस्तके। जयं,-इति शा० मु. पुस्तकयाः पाठः । 8 प्रभाषितमिति, इति शा० पुस्तके पाठः ।
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१०,वा का।
पराशरमाधवः।
"गच्छतस्तिष्ठतोवाऽपि खेच्छया कर्म कुलतः । अाचेची विना संख्या तत्म निष्फलं भवेत् ।। क्रोधं लोभं तथा निद्रां निष्ठीवन-विजृम्भणम् । दर्श नञ्च श्व-नोचानां वर्जयेन्जप-कर्मणि ॥
आचामेसम्भवे चैषां स्मरेविष्णुं सुरार्थितम् । ज्योतींषि च प्रशंसेदा कुर्य्यादा प्राण-संयमम्॥
ज्वलनं गाश्च विप्रांश्च यतीन्वाऽपि विशुद्धये"-इति। देश-नियमस्तु याज्ञवल्क्येनोक्तः,
"अग्न्यागारे जलान्ते वा जपेद्देवालयेऽपि वा ।
पुण्यतीर्थे गवां गोष्ठे द्विज-क्षेत्रेऽथवा ग्टहे" इति। भङ्खोऽपि,
"टहे त्वेकगुणं जयं नद्यादौ द्विगुणं स्मृतम् । गवां गोष्ठे दशगुणमन्यागारे मताधिकम् ॥ मिद्ध-क्षेत्रेषु तीर्थषु देवतायाथ सन्निधौ ।
सहस्र-शत-कोटीनामनन्तं विष्णु-सन्निधौ” इति । कूर्मपुराणेऽपि,
"गुह्यका राक्षसाः सिद्धाहरन्ति प्रसभं यतः ।
एकान्ते तु मे देणे तस्माज्नप्यं सदाचरेत्” इति । जप-संख्यामाह योगियाज्ञवल्क्या,
"ब्रह्मचार्याहितानिश्च शतमष्टोत्तरं जपेत् ।
* क्रोधं मान्य क्षतं निद्रां,--इति मु० पुस्तके पाठः। + दर्शनं श्वादिनीचाना, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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२८8
पराशरमाधवः ।
[१०,०का।
वानप्रस्थायतिश्चैव महसादधिकं जपेत्”-इति । स्मत्यन्तरे,
"दर्श श्राद्धे प्रदोषे च गायत्री दश-संख्यया ।
अष्टाविंशत्यनध्याये सुदिने तु यथाक्रमम्" इति । यमोऽपि,
"सहस्र-परमां देवीं शत-मध्यां दशावराम् । गायत्रीन्तु जपेन्नित्यं सर्व-पाप-प्रणाशनीम्" इति। आपस्तम्बोऽपि,-"दर्भेष्वासीनो दर्भान् धारयमाण: मोदकेन पाणिना प्रामुखः सावित्री सहस्रकृत्व श्रावन्येच्छतकृत्वोऽपरिमितकृत्वावा"-इति ।
॥०॥ इति जप-विधिः ॥०॥ जपाङ्गतामक्षमालामाह । हारीतः,
"शङ्ख-रूप्यमयी माला काञ्चनीभिरथोत्पलैः । पद्माक्षकैश्च रुद्राक्षे विद्रुमैर्मणि-मौक्तिकैः ॥ नथाचेंद्राक्षकाला तथैवाङ्गलि-पर्वभिः ।
पुत्रजीवमयी माला शस्ता वै जप-कर्मणि" इति । गौतमोऽपि,
"अङ्गल्या जप-संख्यानमेकमेकमुदाहृतम् ।
रेखायाऽष्टगुणं पुचजीवैर्दशगुणाधिकम् । * समयन्तरे, --इत्यादिः, इति,-इत्यन्तोग्रयो नास्ति मुद्रितातिरिक्त
पुस्तकेषु । +जपाङ्गभूतां मालामाह,-इति मु० पुस्तके पाठः । 1 यमाक्षकैश्च, इति स• शा० पुस्तकयोः पाठः ।
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९ख०,या का।
पराशरमाधवः।
२
॥
शतं स्याच्छ खमणिभिः प्रवालैश्च सहस्रकम् । स्फटिकैर्दशसाहस्रं मौकिकर्लक्षमुच्यते । पद्माक्षेर्दशलक्षन्तु सौवर्णैः कोटिरुच्यते ॥
कुशग्रन्थ्या च रुद्राक्षेरनन्तफलमुच्यते"-इति । अथाक्षमाला-मणि-संख्यामाह प्रजापतिः,
"अष्टोत्तरशतं कु-चतुःपञ्चाशिका तथा। सप्तविंशतिको वाऽथ ततानवाधिका हिता ॥ अष्टोत्तर-शता माला उत्तमा मा प्रकीर्त्तिता। चतुःपञ्चाशिका या तु मध्यमा मा प्रकीर्तिता ॥
अधमा प्रोच्यते नित्यं सप्तविंशति-संख्यया" इति। गौतमोऽपि,
"अङ्गुठं मोक्षदं विद्यात्तर्जनी शत्रु-नाशिनी । मध्यमा धन-कामायानामिका(१) पौष्टिकी तथा ॥ कनिष्ठा रक्षणी प्रोका जपकर्मणि शोभना । अङ्गुष्ठेन जपं जप्यमन्यैरङ्गुलिभिः सह ॥
अङ्गठेन विना जप्यं कृतं तदफलं भवेत्” इति । गायत्री-जपं प्रशंसति व्यासः,
"दशकृत्वः प्रजप्ता पाश्यहाद्यच्च कृतं लघु । तत् पापं प्रणुदत्याशु नात्र कार्या विचारणा । शत-जप्ता तु सा देवी पापौघ-शमनी स्मृता ।
सहस्रजप्ता मा देवी उपपातक-नाशिनी । (१) धन कामाय,-इति छेदः ।
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२६
यमो ऽपि -
[१०, ख० का० ।
लव- जाप्येन च तथा महापातक नाशिनी ॥ कोटि- जाप्येन राजेन्द्र यदिच्छति तदाप्नुयात् " - इति ।
मनुरपि,
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पराशरमाधवः ।
" गायत्र्यान परं जप्यं गायच्यान परं तपः ।
गायत्र्यान परं ध्यानं गायत्र्यान परं जतम् ” - इति ।
तत्र, कूर्मपुराणे,—
"योsaitaseन्यहन्येतां त्रीणि वर्षाण्यतन्त्रितः । म ब्रह्म परमप्येति वायुभृतश्च मूर्त्तिमान् " - इति । गोतमोऽपि -
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" अनेन विधिना नित्यं जपं कुर्य्यात् प्रयत्नतः । प्रसन्नोविपुलान् भोगान् भुकिं* मुक्तिञ्च विन्दति " - इति । ॥ ० ॥ इति सन्ध्या - जपयोः प्रकरणम् ॥ ० ॥ अथ होम - विधिः ।
दोsपि,
"अथागम्य गृहं विप्रः समाचम्य यथाविधि । प्रज्वल्य वहिं विधिबज्जुहुयाज्जातवेदसम्” – इति ।
" सन्ध्या - कमवसाने तु स्वयं होमोविधीयते । स्वयं होमे फलं यत्स्यात्तदन्येन न लभ्यते ॥ होमे यत् फलमुद्धिष्टं जुतः स्वयमेव तु ।
* परां, -- इति शा० पुस्तके पाठः ।
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१०या०का।
परापूरमाधवः।
हयमानं तदन्येन फलमु. प्रपद्यते । ऋत्विक पुत्रीगुरुभीता भागिनेयोऽथ विट्पतिः ।
एतैरपि हुतं यत्स्यात्तद्धतं स्वयमेव हि"-दति । विट्पति जर्जामाता । स्वयं होमएव मुख्यः, तदभावे ऋत्विगादि-होमः । तत्र विशेषः कूर्मपुराणे दर्शितः,
"ऋत्विक पुत्रोऽथवा पत्नी शिव्योवाऽपि सहोदरः ।
प्राप्यानुज्ञां विशेषेण जुहुयादा यथाविधि"-दति । होह-तारतम्यं दर्शयति श्रुतिः, -
"अन्यैः शत-हुताद्धोमादेकः शिष्य- हुतोवरः । शिव्यैः शत-इताडोमादेकः पुत्र-इतोवरः ।
पुत्रैः शत-हुताद्धामाकाह्यात्महतोवरः”-दति ॥ कात्विगादि-होमेऽपि यजमान-सन्निधानेन भवितव्यम्। तदुक कात्यायनेन,
"श्रसमक्षन्तु दम्पत्योहातव्यं नविगादिना । 'इयोरप्यसमक्षन्तु भवेद्भुतमनर्थकम्" इति । उभयोः सन्निधानं मुख्यं, तदभावे त्वेकतर-सन्निधानेनापि होतुं शक्यम् । तथा च मएवाह,t
"निक्षिप्याग्निं खदारेषु परिकल्यविजं तथा । प्रवसेत् कार्यवान् विप्रो रथैव न चिरं वसेत्" इति ।
* श्रुतिः, इति नास्ति मु० पुस्तके । + नास्तीदमई मुहितातिरिक्त पुस्तकेषु ।
+ 'उभयोः' इत्यारभ्य, 'सरवाह'-इत्यंतस्य स्थाने, प्रवासे विशेषमाइ स्मृतिः, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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२००
पराशरमाधवः।
चि०,श्रा का।
होमकालः कात्यायनेन दर्शितः,
"यावत् सम्यक् विभाव्यन्ते नभम्वृक्षाणि सर्वतः ।
लोहितत्वञ्च नापैति तावत् मायन्नु हयते"-दति । आपस्तम्बोऽपि,-"ममुद्रोवा एष यदहोरात्र:, तस्यैते गाधतीर्थ यसन्धी, तम्मात् सन्धौ होतव्यम्-इति कात्यायन-ब्राह्मणं भवति, नक्षत्रं दृष्ट्वा प्रदोषे निशायां वा मायम्”-दति । समुद्रत्वेन निरूपितस्याहोरात्रस्य सन्धिद्वयों सुप्रवेशं तीर्थ, तस्मात् सन्धिहामकालः, इति मुख्यः कल्पः। नक्षत्र-दर्शनादयस्त्रयः काला: मायं होमेऽनुकल्पाः । एकनक्षत्रोदयो नक्षत्रदर्शनं, सर्वनक्षत्रोदयः प्रदोषः, निद्रावेला निशा। प्रात:मकालोऽपि चतुर्विधस्तेनैवदर्शितः,-"उषस्थुषोदयं समयाधुषिते प्रातः" इति। मनुस्तु प्रथम-द्वितीयावेकी कृत्य काल-यमाह,
"उदितेऽनुदिते चैव समयाध्युषिते तथा ।
सर्वथा वर्त्तते यज्ञ दतीयं वैदिकी श्रुतिः” इति । एतेषां लक्षणमाह व्यासः,
"रात्रे: षोड़शमे भागे ग्रह-नक्षत्र-भूषिते । कालं त्वनुदितं प्राहु ईमिं कुर्याद्विचक्षणः ॥ तथा प्रभात-समये नष्टे नक्षत्र-मण्डले । रविर्यावन्न-दृश्येत समयाधुषितस्तु मः ॥ रेखामात्रस्तु दृश्येत रश्मिभिस्तु समन्चितः ।
उदितं तं विजानीयात् तत्र होम प्रकल्पयेत्" इति । * सन्धित्रयं,-इति मु० पुस्तके पाठः । + कालेवन दिते प्रातः, इति म० पुस्तके पाठः ।
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११०या०,का
पराशरमाधव:
. २८९
आश्वलायनस्तु अनुकल्पान्तरमाह,-"पासवान्तं प्रातः"इति । हाम-कालः, इत्यनुवर्तते । अथवा, सर्वएवेते काल-विशेषा यथाशाखं मुख्यतयैव व्यवतिष्टन्ते उदितानुदित-हामवत् । यदा तु कथञ्चिनाख्यकालातिक्रमः, तदा' गोभिलेोतं द्रष्टव्यम् ;- "अथ यदि ग्टह्येनौ सायंप्रात:मयोदर्शपौर्णमासयोा हव्यं होतारं वा नाधिगच्छेत् कथं कुर्यादिति, आ मायमाहुतेः प्रातराहुतिन्नीत्येत्याप्रातराहुतेः सायमाहुतिराऽमावास्यायाः पौर्णमासी नात्येत्यापौर्णमास्यमावास्या" इति । बौधायनोऽपि,
"श्रा सायंकर्मण: प्रातराप्रातः माय-कर्मणः ।
आहुतिनातिपद्येत पाळणं पार्चणान्तरात्” इति। अापनस्तु पक्ष-हामं कुर्यात्। तथाच मरीचिः,
"शरीरापद्भवेद् यत्र भयादाऽऽर्तिः प्रजायते ।
तथाऽन्यास्वपि चापत्म पक्ष-होमाविधीयते"-इति । पक्षहोमिनः तत्-पक्ष-मध्ये श्रापन्निरत्तौ तदा प्रभृति पुनहामः कर्त्तव्यः । तदाह मरीचिः,
“पक्षहामानथो कृत्वा गत्वा तम्मात् निवर्जितः ।
हामं पुन: प्रकुर्य्यानु नचासौ दोषभाग्भवेत्” इति । एवं होमानुष्ठितावपि सीमोल्लङ्घने कृते पुनराधानं कर्त्तव्यम् । तदाह कात्यायनः,
"विहायाग्निं सभार्यश्चेत् मीमामुनय गच्छति ।
* यथाकथञ्चिन्मुख्यकालातिकमः तथा,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
37.
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२६०
पराशरमाधवः।
[११०या०,का।
होम-कालात्यये तस्य* पुनराधानमिष्यते"-दति। होमकालानत्यये तु नास्ति पुनराधानं, तदाह शौनकः,
"प्रोषिते तु यदा पत्नी यदि ग्रामान्तरं व्रजेत् ।
हाम-काले यदि प्राप्ता न मा दोषेण युज्यते"-दति । होमद्रव्यमाह सएव,
"कृतमादन-सत्वादि तण्डुलादि कृताकृतम् । व्रीह्यादि चाकृतं प्रोतमिति हव्यं त्रिधा बुधैः ॥ इविय्येषु यवामुख्यास्तदनु वीक्ष्यः स्मृताः । अभावे व्रीहि-यवयोर्दधा वा पयमाऽपिवा ॥ तदभावे यवाग्वा वा जुहयादुदकेन वा। यथोक-वस्त्वसंप्राप्तौ ग्राह्यं तदनुकारि यत् ॥ यवानामिव गोधमा व्रीहिणामिव भालयः । श्राज्यं हव्यमनादेशे जहोतिपु(२) विधीयते ॥
मन्त्रस्य देवतायास्तु प्रजापतिरिति स्थितिः" इति । पाहुति-परिमाणमाह रद्ध-सहस्पतिः,
* होमकालादतीतम्य, - इति म० पुस्तके पाठः । + होमेकाले तु संप्राप्त न सा,-इति मु० पुस्तके पाठः । सहस्पतिः, इति स० स० शाम् पुस्तकेघु पाठः ।
(१) यद्यपि धातुखरूपे पाप अनुशिष्यते, तथापि प्रयोगानुसारात धात्व
ऽपि तस्य साधुत्वं मन्तव्यम्। “ईक्षतेन शब्दम् । प्रा० अ०१पा. ५सू०)"-इत्यादिवत् ।
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१२०,या का
पराशरमाधवः।
२६१
"प्रस्थ-धान्यं चतुःषष्ठिराहुतेः परिकीर्तितम् ।
तिलानान्तु तदद्धं स्यात् तदर्दू स्याघृतस्य तु"-दूति ॥ बौधायनोऽपि,
“बीदीनां वा यवानां वा शतमाहुतिरिय्यते” इति । होम-प्रकारः स्व-रह्योक-विधिना द्रष्टव्यः। तदुकं ग्टह्यपरिशिष्टे,
"ख-ग्रह्योकेन विधिना हामं कुर्याद्यथाविधि"-दूति । विष्णुरपि*,
"बहु-रुष्कन्धने चामौ सुममिद्धे हुताशने । विधूमे लेलिहाने च होतव्यं कर्म-सिद्धये ॥ योऽनर्चिषि जुहोत्यग्नौ व्यङ्गारे चैव मानवः ।
मन्दाग्निरामयावी च दरिद्रश्चोपजायते” इति । एतच्च ज्ञात्वैवानुष्ठेयमन्यथा दोष-श्रवणात् । तदाहाङ्गिराः,
"स्वाभिप्राय-कृतं कर्म यत्किञ्चित् ज्ञान-वर्जितम् ।
क्रीड़ा-कर्मेवा वालानां तत्म निष्प्रयोजनम्"-इति । चतुर्विंशतिमते,
"इतं ज्ञानं क्रिया-हीनं हतास्त्वज्ञानतः क्रियाः ।
अपश्यनन्धकादग्धः पश्यन्नपिच पङ्गुकः”-दूति । श्रौत-स्मार्त्तयोरपि व्यवस्थामाह याज्ञवल्क्यः,
"कर्म स्मानं विवाहानौ कुर्वीत प्रत्यहं रही।
* नास्तीदं-मु० पुस्तके। + क्रीडाकर्मच,-इति स. सो० प्रा० पुस्तके पाठः । । हतास्वज्ञानिनः,-इति शा० पुस्तके पाठः ।
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प्राशरमाधवः ।
[११०,
का० ।
दाय-कालाइते वाऽपि श्रौतं वैतानिकाग्निषु"-इति । वैतानिका गाईपत्यादयः। यस्य पुनः श्रौत-स्मानाग्नि-द्वयं तस्यानुष्ठान-प्रकारमाह* भरद्वाजः,
"होम वैतानिकं कृत्वा स्मात्तं कुर्यादिचक्षणः ।
स्मृतीनां वेद-मूलत्वात्, स्मात्तं केचित् पुरा विदुः" इति । शातातपोऽपि,___"श्रौतं यत् तत् । स्वयं कुर्यादन्योऽपि स्मार्त्तमाचरेत् ।
अशक्तौ श्रौतमप्यन्यः कुादाचारमन्ततः" इति । उक्तस्यामेनित्यतामाह गर्गः,
"कृतादारोनैव तिछेत् क्षणमप्यनिना विना । तिष्ठेत चेद्विजोत्रात्यस्तथाच पतितोभवेत् ॥ यथा स्नानं यथा भार्या वेदस्याध्यायनं यथा ।
तथैवोपासन(१) दृष्यं न तिष्ठेत्तदयोगतः||"-दति । सत्यामपि वैदिकानुष्ठान-शक्तौ न स्मार्त्तमात्रेण परितुष्येत । तदाह सएक,
"योवैदिकमनादृत्य कर्म स्मार्त्ततिहासिकम् ।
* तस्यानुष्ठानव्यवस्थामाह,-इति मु. पुस्तके पाठः । + श्रौतं यत्स्यात, इति प्रा० पुस्तके पाठः ।
भाग्यस्तथाच,-इति मु० पुस्तके पाठः। 5 तथा,-इति शा० पुस्तके पाठः। || तदियोगतः, इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) खानं समावर्तनापरनामधेयमालवनम् । औपासनं स्मानिः ।
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१ का०, व्या०, का० । ]
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पराशर माधवः
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२९३
मोहात् समाचरेद्विप्रो न म पुण्येन युज्यते ।
प्रधानं वैदिकं कर्म्म गुण-भूतं तथेतरत् । गुण-निष्ठ: प्रधानन्तु हित्वा गच्छत्यधोगतिम् " - इति ।
अशक्तं प्रति व्यासः श्रत्र, -
“श्रीतं कर्त्तुं न चेच्छक्रः कर्म स्मात्तं समाचरेत् । तत्राप्यशक्तः करणे मदाचारं लभेदुधः” – इति । होमं प्रशंसत्यङ्गिराः,—
“योदद्यात् काञ्चनं मेरुं पृथिवीञ्च समागराम् । तत् सायं प्रात- होमस्य * तुल्यं भवति वा नवा” – इति । होम न्त भस्म धार्य्यम् । तदाह वृहस्पतिः, - "नभमानाचान्ते धार्य्यमेवाग्निहोत्रभिः । अनाहिता ब्रह्माख्यमौपासन - समुद्भवम्” । 'हुत्वा चैव तु भस्मना " - इत्यादि स्मृत्यन्तरञ्च । + ॥ ० ॥ इति होम-प्रकरणम् ॥ ० ॥
66
तदेवं, 'सन्ध्या स्नानं जपहोम:' - इत्यस्मिन्मूल- वचने होमां तानि कर्माणि निरूपितानि । तान्येतान्यष्टधा विभक्तस्य दिनस्य प्रथम - भागे समापनीयानि । यद्यपि, मध्याह्न - स्नानादीनि निरूपितानि, तथापि तेषां प्रातः स्नानादि - प्रसङ्गेन निरूपितानामाद्य-भागे
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* सायं प्रातर्हेौमस्य -- इति शा ० पुस्तके पाठः ।
+ होमान्ते - इत्यादि स्मृत्यन्तरच - इत्यंते । ग्रन्थः मुद्रितातिरिक्तपुस्तकेषु न दृश्यते ।
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२६४
पराशरमाधवः।
[१०,०,का० ।
न कर्तव्यता । दिवसस्याटधा विभागं तत्र कर्त्तव्य-विशेषञ्च दर्शयति,
“दिवसस्याद्यभागे तु कृत्यं तस्योपदिश्यते । द्वितीये च हतीये च चतुर्थे पञ्चमे तथा । षष्ठे च सप्तमे चैव अष्टमे च पृथक् पृथक् ।
विभागेष्वेषु यत् कर्म तत् प्रवक्ष्याम्यशेषत:'इत्यादिना ।
अथ, मूलवचनानुमारेण देवता-पूजनं कर्त्तव्यम् ।। तच्च पूजन प्रात:मानन्तरम्, इति केचित् । तथा च मरीचिः,
__ "विधाय देवता-पूजां प्रात:मादनन्तरम्” इति । ब्रह्मयज्ञ-जपानन्तरम्, इत्यन्ये । तथाच हारीतः,
___ "कुर्बीत देवता-पूजां जपयज्ञादनन्तरम्' इति । कूर्मपुराणेऽपि,
"निष्पीय स्नान-वस्त्रं वै समाचम्य च वाग्यतः ।
खैमन्तरर्चयेद्देवान् पत्रैः पुष्यैस्तथाऽम्बुभिः" इति । ततः जपयज्ञानन्तरं देवपूजां निरूपयिष्यामः । प्रातामानन्तर-भावीनि ब्रह्मयज्ञान्तानि मल-वचनानुकान्यप्याहिक-क्रम-प्राप्तवात्तान्युच्यन्ते । होमानन्तर-कृत्यमाह दक्षः,
“देव-कार्यं ततः कृत्वा गुरु-मङ्गल-वीक्षणम्" इति। मङ्गलमादर्शादि । तदुक्तं मत्स्यपुराणे,
* प्रातःखानादिप्रसङ्गनाभिहितत्वात्,- इति मु० पुस्तके पाठः । + देवतानाच पूजनं वक्तव्यं, इति मु० पुस्तके पाठः। । तत्रचार्य,-इति शा० पुस्तके पाठः।
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१०,डा०का।
पराशरमाधव ।
२६५
“रोचनं * चन्दनं हेम मृदङ्गं दर्पणं मणिम् ।
गुरुमग्निश्च सूर्यञ्च प्रातः पश्येत् सदा वुधः'- इति । विष्णुपुराणेऽपि,
"वाचान्तश्च ततः कुर्यात् पुमान् केश-प्रसाधनम् ।
आदर्शाञ्जन-माङ्गल्य-दूर्वाद्यालम्भनानि च"-इति । ब्रह्मपुराणे,
___ "स्वात्मानन्तु। घृते पश्येद्यदीच्छेचिर-जीवितम्'-दति । नारदोऽपि,
"लोकेऽस्मिन्मङ्गन्लान्यष्टौ ब्राह्मणो गौहताशनः । हिरण्यं सर्पिरादित्य पापोराजा तथाऽटमः । एतानि मततं पश्येत् नमस्येदर्चयेच्च यः ॥ प्रदक्षिणञ्च कुर्वीत तथा ह्यायुन हीयते"-दति।
मनुरपि,
“अनिचित् कपिला मत्री राजा भिक्षुर्महोदधिः ।
दृष्टमात्राः पुनन्येते तस्मात् पश्येत नित्यशः” इति । वामनपुराणेऽपि,
"होमञ्च कृत्वाऽऽलभनं भानां ततो वहिनिर्गमनं प्रशस्तम्। दूर्वाञ्च सर्पिर्दधि सेदकुम्भ
धेनु सवत्सां सषभं सुवर्मम्। * रोचनां,-इति स० शा पुस्तकयाः पाठः। खिमात्मान, इति मु० पस्तके पाठः । | तथा,-इति मुद्रितपुस्तके पाठः ।
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२६६
परापारमाधवः।
[१अ०,आ०,का
मृगोमयं* स्वस्तिकमक्षतांश्च तैली मधु ब्राह्मण-कन्यकाञ्च। शेतानि पुष्पानि तथा शमी च हुताशनं चन्दनमर्क-विम्बम् । अश्वत्थ वृक्षञ्च समालभेत
ततश्च कुर्यान्निज-जाति-धर्मम्,”-इति । भरद्वाजोऽपि,
“कण्डूय पृष्ठतोगान्तु कृत्वा चाश्वत्थ-वन्दनम् ।
उपगम्य गुरून् सर्वान् विप्रांश्चैवाभिवादयेत्” इति । ब्राह्मण-समवाये प्रथमं कस्याभिवादनमित्याकाङ्क्षायामाइ मनः,
"लौकिकं वैदिकं वाऽपि तथाऽऽध्यात्मिकमेव वा।
श्राददीत यतोज्ञानं तं पब्वमभिवादयेत्” इति । अभिवादन-काले खं नाम कीर्तयेदित्याह सएव,
"अभिवादात् परं विप्रोज्यायांसमभिवादयन् । असौनामाऽहमस्मोति खं नाम परिकीर्तयेत् । भोशब्द कीर्तयेदन्ते स्व-ख-नाम्नाऽभिवादनम्?" इति ।
* यद्दोमयं,-इति शा० पुस्तके पाठः । + विनं,-इति शा० पुस्तके पाठः । + एष्ठगां गान्तु,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
खखनाम्नोऽभिवादयेत्, इति म० पुस्तके पाठः । खस्य नामोऽभिवादने,-इति महितमनुसंहितायां पाठः।
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१५०,था का।
पराशरमाधवः।
अभिवादात् परमिति, अभिवादये, दूति शब्दमुच्चार्या पश्चादेसत्रामाऽहं भोः, इति शब्दमुच्चारयेदित्यर्थः । अभिवादन-प्रकारमाहापस्तम्बः,-"दक्षिणं बाई श्रोत्र-ममं प्रमार्य* ब्राह्मणोऽभिवादयेत्, उरः-ममं राजन्यो मध्य-समं वैश्यः, नीचेः शुद्रः प्राञ्जलिः" इति। एक-इस्तेनाभिवादनं निषेधति विष्णुः,
"जन्म-प्रभृति यत्किञ्चिच्चेतमा धर्ममाचरेत् ।
सर्व तनिष्फलं याति ह्येक-इस्ताभिवादनात्" इति । एतच प्रत्युत्थाय कर्त्तव्यम् । तदाहापस्तम्बः,
"ऊर्द्ध प्राणाझुल्कामन्ति यूनः स्थविरागते ।
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान् प्रतिपद्यते"-दति । अभिवादितेन वक्रव्यामाशिषमाह मनुः,
"आयुष्मान् भव ौम्येति वाच्यो विनोऽभिवादने ।
अकारश्चास्य नानोऽन्ते वाच्यः पूर्वाचरः सुतः" इति। पूर्वमक्षरं यथासौ पूर्वाक्षरः । पूर्वमक्षरश्च नामस्व-यञ्जनं, स्वराणां स्वर-पर्वकत्वासम्भवात् । ततश्चाभिवादक-नाम-गतो व्यञ्जननिष्ठाऽन्तिम-स्वरः प्लावनीयः। अकारेणान्तिम-खरमाचमुपलक्ष्यते, अशेष-नाबामकारान्तवासम्भवात् । तथाच मत्येवं प्रयोगो भवति; आयुमान् भव सौम्य देवदत्ता३, इति । यस्तु प्रत्यभिवादन-प्रकार न जानाति, म नाभिवाद्य इत्याह मएव,
"योन वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्। * प्रस्ती, इति शा. पुस्तके पाठः। + अभिवाद्येन वक्तव्यमाह,-इति मु० पस्तके पाठः ।
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२६०
पराशरमाधवः।
[१च्याच्या का।
नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव मः" इति । यस्तु जाननपि न प्रत्यभिवादनं करोति, तस्यदोषो भविष्यत्युराणे दर्शितः,
"अभिवादे कृते यस्तु न करोत्यभिवादनम् ।
आशिषं वा कुरुश्रेष्ठ स याति नरकान् बहन्" इति । यमोऽपि,
"अभिवादे तु यः पूर्वमाशिषं न प्रयच्छति । यदुष्कृतं भवेदस्य तस्माद्भागं प्रपद्यते ॥ तस्मात् पूर्वाभिभाषी* स्याचण्डालस्यापि धर्मवित् । सुरां पिवेति वक्रव्यमेवं धर्मान हीयते ॥ स्वस्तीति ब्राह्मणे ब्रूयादायुमानिति राजनि। .
धनवानिति वैश्ये तु हने वारोग्यमेवा” इति ॥ मनुरपि,
"ब्राह्मणं कुशलं पृच्छत् क्षत्रवन्धुमनामयम् । वैश्यं क्षेमं समागम्य हदमारोग्यमेवच ॥ पर-पत्नी तु या स्त्री स्थादसम्बधा च यो नितः ।
तां ब्रूयाद्भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति चौ"-दति ॥ ज्यायांसमभिवादयेदित्युक्तं, तत्र कियता कालेन ज्यायस्त्वमित्यपेक्षिते
* पूर्वाभिवादी,-इति शा• पुस्तके पाठः ।
+ स्वस्तीति ब्राह्मणं ब्र यादायुष्मानिति भूमिपः। वईतामिति वैश्यस्त शूदन्तु स्वागतं वद,-इति म० पुस्तके पाठः ।
भगिनीति वा, इति शा० पुस्तके पाठः ।
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१५,धा का
पराभरमाधवः ।
२९
आह आपस्तम्बः,-"त्रि-वर्ष-पूर्वः श्रोत्रियोऽभिवादनमर्हति" इति।
मनुपि,
“दशाब्दाख्यं पौर-सख्यं पञ्चाब्दाख्यं कलामृताम् ।
श्यब्दपूर्व* श्रोत्रियाणामन्पेनापि स्व-योनिषु” इति। समान-पुर-वामिना दशभिः वर्षेः पूर्वः सखा भवति, ततोऽधिकोज्यायान्, कलामतां विद्यावतां पञ्चाब्द-पूर्वः सखा, श्रोत्रियणां वेदाध्यायिना अब्द-पूर्वः सखा भवति, ततोऽधिकाज्यायान्, खयोनिषु भात्रादिषु सर्वेषु स्वल्पेनापि वयमा पूर्वः सखा भवति, ततोऽधिकाज्यायानित्यर्थः।
ननु, एते मान्याः, इत्य॒त्विगादीनां याज्ञवल्कोन पूज्यवाभिधानायवीयमामपि तेषामभिवादनं प्राप्तमिति चेत् । तन्त्र, प्रत्युत्थान-सम्भाषणाभ्यां मान्यत्व-सिद्धेः। श्रतएव तेषामभिवाद्यत्वमाह गौतमः,-"ऋत्विक्-श्वर-पिटव्य-मातुलादीनां तु यवीयसां प्रत्यत्थानाभिवादनम्" इति । अभिवादनम् अभिभाषणम् । तथा बौधायनः,-"ऋविक्-श्वर-पिटव्य-मातुलानां तु यवीयसां प्रत्युत्थानाभिभाषणम्" इति । एतच ब्राह्मण-विषयम् । तथा च शातातपः,
"अभिवाद्यो नमस्कार्य: शिरमा वन्द्यएवच । ब्राह्मणः क्षत्रियाद्यैस्तु श्रीकामैः मादरं सदा ।। नाभिवाद्यास्तु विप्रेण क्षत्रियाद्याः कथञ्चन ।
* बन्दपूर्व, इति स. शा. पुस्तकयोः पाठः ।
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३००
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पराशर माधवः ।
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१का०, बा०का |
ज्ञान- क - गुणोपेता यद्यप्येते बहुश्रुताः ॥
श्रभिवाद्य द्विजः शठद्रं सचेलं खानमाचरेत् ।
ब्राह्मणानां शतं सम्यगभिवाद्य विशुध्यति इति ।
GAR
विष्णुरपि -
"मभासु चैव सर्व्वीस यज्ञे राज-गृहेषु च । नमस्कारं प्रकुर्वीत ब्राह्मणान्नाभिवादयेत्" - इति । गुवादेरुपसंग्रहणमाह * गौतम:, - " गुरोः पादोपसंग्रहणं प्रातः”इति । गुरुरचाचार्थः । यतः स एवाह, "मातृ-पितृ-तद्वन्धूनां पूजातानां विद्या गुरूर्णा तद्गुरूणाञ्च - इति । उपसंग्रहण - लचप मनुराह,
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" व्यत्यस्त - पाणिना कार्य्यमुपसंग्रहणं गुरोः ।
सव्येन सव्यः स्पृष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिण: " - इति । गुरोः सव्य-दक्षिणौ पादौ स्वकीय- सव्य-दक्षिणाभ्यां पाणिभ्यां स्पृष्टव्यैौ । बौधायनोऽपि - " श्रोत्रे संस्पृश्य मनः समाधायाधस्ताज्जान्बोरापयामित्युपसंग्रहणम्" । कुर्य्यादिति शेषः । एतच गुरु- पत्नीनामपि कार्य्यम् । तथा च मनुः,
।
"गुरुवत् प्रतिपूज्याः स्युः सवर्णा गुरु- योषितः । श्रमवलस्तु सम्पूज्याः प्रत्युत्थानाभिभाषणैः ॥
भाग्राह्या वर्षाऽन्यहन्यपि ।
विप्रोध तूपसंग्राह्या ज्ञाति सम्बन्धि योषितः” इति ।
* गुवादौ तु पर्व्वमुपसंग्रहणमाह - इति मु० पुस्तके पाठः । + मदुगुरूणाञ्चाभिवादयेत् इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१०, ख० का ० ।]
एवमविशेषेणोपसंग्रहणे प्राप्ते कचिदपवादमाह सएव, " गुरु- पत्नी तु युवतिनाभिवाद्येह पादयोः । पूर्व-विंशतिवर्षेण गुण-दोषौ विजानता । अभ्यञ्जनं स्वापनञ्च गात्रोत्सादनमेव च * । गुरु-पत्न्या न कार्य्याणि केशानाञ्च प्रसाधनम् ” - इति ।
किन्त तत्र कर्त्तव्यमित्यपेचिते मएवाह, -
पराशर माधवः ।
तथाऽन्यत्र सएवार, -
“कामन्तु गुरुपत्नीनां युवतीनां युवा भुवि । विधिवदन्दनं कुर्य्यादमावहमिति ब्रुवन् ।
विप्रोष्य पाद - ग्रहणमन्वरञ्चाभिवादनम् ।
--
गुरु दारेषु कुर्वीत मतां धर्ममनुस्मरन् " - इति । श्रभिवादने वर्ज्यनाह आपस्तम्बः - " न सेापानद्वेष्टितशिरा श्रनवहित पाणिवाऽभिवादयीत " - इति ।
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शङ्खगेऽपि — "नादकुम्भ-हस्तोऽभिवादयेत् न भैच्यं चरन्न पुष्पात्रहस्तो+नाचिर्न जपन्न देव-पिट - कार्य्यं कुर्व्वन् न शयानः " - इति । आपस्तम्बेोऽपि - " तथा विषम- गताय गुरवे नाभिवाद्यं तथाऽप्रयसायाप्रयतश्च न प्रत्यभिवादयेत् ? प्रतिवयसः स्त्रियः " - दूति ।
"समित् पुष्प कुशाष्याम्बुदन्वाञ्चत - पाणिकः ।
पुस्तके पाठः ।
* गात्रोद्दाहनमेवच, - इति शा० + हित, इति मु० पुस्तके पाठः । + न पुष्प हस्तो, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
ऽ न. प्रत्यभिवदेत्, – इति मु० पुस्तके पाठः ।
२०१
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पराशरमाधवः।
[१५०, था.का.
अपं होमञ्च कुर्वाणो नाभिवाद्यस्तथा द्विजः" इति । पाखण्डं पतितं प्रात्यं महापातकिनं शठम् । नास्तिकच कृतघ्नञ्च नाभिवाद्यात्। कथञ्चन ।। धावन्तञ्च प्रमत्तच्च मूत्रोच्चारकृतं तथा । भुञ्जानमातुरं नाई नाभिवाद्यात् द्विजोत्तमः ॥ वमन्त। जुम्भमाणञ्च कुव॑तं दन्त-धावनम् । अभ्या-शिरसञ्चैव स्नास्यन्तं माभिवादयेत् ॥ स्वक-पाणिकमविज्ञातमश रिपमातुरम् ।
योगिनञ्च तपः-मकं कनिष्ठं नाभिवादयेत्" । शातातपोऽपि,
"उदक्यां मृतिका नारी भर्तृनी गर्भ-घातिनीम् ।
अभिवाद्य विजोमोहात् त्रिरात्रेण तु शु यति"-दति । गुरोः पादोपसंग्रहणमित्युक्तं, तत्र कीदृशो गुरुरित्याशङ्काया माह मनुः,
"निषेकादीनि कर्माणि यः करोति यथाविधि ।
सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते" ॥ याज्ञवल्क्योऽपि,
* 'इति' शब्दोऽत्राधिक इति प्रतिभाति, किन्तु सर्वेष्वेव पुस्तकेषु दृष्टवाइक्षितः। । नाभिवादेत्, इति शा० पुस्तके पाठः। एवं परत्र । । उन्मत्तं,-इति शा• पुस्तके पाठः । ६ अहोरात्रेण शुध्यति,-इति मु. पुके पाठः ।
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१८०, ब्या०का• । ]
"स गुरु: क्रियां कृत्वा वेदमस्मै प्रयच्छति ” – इति । अध्यापनं विप्र विषयं निषेकादि - कर्त्तः पूर्व-साधारणम् । पिटव्यतिरिक्रामामौपचारिकं गुरुत्वमाह मनुः, -
“अल्पं वा बहु वा यस्य श्रुतस्योपकरोति यः । तमपीह गुरुं विद्यात् श्रुतापक्रियया तथा" - इति । हारीतोऽपि -
श्रतएवाह सएव, -
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व्यासेोऽपि -
पराशर माधवः ।
"उपध्यायः पिता ज्येष्ठो भ्राता चैव महीपतिः । मातुलः श्वशुरस्त्राता मातामह - पितामहौ ॥ वर्ष - ज्येष्ठः पिढव्यश्च पुंखेते गुरवः स्मृताः । माता मातामही गुर्वी पितुर्मातुः सहोदराः ।
श्वश्रूः पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरवः स्त्रियाम् ”” – इति । श्रत्र, पितृ-माट-ग्रहणं तददेतेऽपि मान्याः, - इत्येतदर्थम् ।
"अनुवर्त्तनमेतेषां मनेोवाक्कायकर्मभिः " - इति ।
मनुरपि, -
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" मातामहा मातुलश्च पिल्व्यः श्वशुरो गुरुः । पूर्वजः स्नातकञ्श्चर्लिङ्मान्यास्ते गुरुवत्सदा ॥ मातृ- स्वसा मातुलानी व श्रधात्री पिट-खसा ।
पितामही । पितृव्य स्त्री गुरु स्त्री मातृवचरेत्” – इति ।
#
गुरुवत् स्त्रियः, - इति मु० पुस्तके पाठः । + मातामही, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
३०३
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३०४
यत्तु,—
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*
प्राशरमाधवः ।
" पितुर्भगिन्यां मातुश्च ज्यायस्याञ्च स्वमपि । मातृवदृत्तिमातिष्ठेमाता ताभ्यो गरीयसी । उपाध्यायान् दशाचार्य्यं श्राचाखीणां शतं पिता । सहस्रन्तु पितुर्माता गौरवेणातिरिच्यते”–इति ।
योर्लक्षणमाह मनुः,
"डो गुरू पुरुषस्येह पिता माता च धर्कतः । पिता गुरुतरस्तद्वन्माता गुरुतरा तथा । तयोरपि पिता श्रेयान् वीज प्राधान्य- दर्शनात् । श्रभावे वीजिनोमाता तदभावे तु पूर्वजः " ।
इति पुराण वचनम् । तन्निषेकादि समस्त संस्कार पूर्वकाध्यापक पितृविषयम् । अन्यथा, मातैव गरीयसीति वचनं विरुध्येत । तस्यागरीयस्वमुपपादयति व्यासः, -
“भासान् दशोदरस्थं या धृत्वा पूलैः समाकुला ।
ततोऽपि विविधैखैः प्रयेत विमूर्च्छिता ।
#
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प्राणैरपि प्रियान् पुत्रान् मन्यते सुत-वत्सला । कस्तस्यानिष्कृतिं कर्त्तुं शक्रो वर्ष - शतैरपि" – इति । "उपाध्यायान् दशाचार्य:" इति यदुकं तत्रोपाध्यायाचार्य -
---
०, या०का० ।
" एकदेशन्तु वेदस्य वेदाङ्गान्यथवा पुनः । योऽध्यापयति वृत्त्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते ॥ उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद्विजः ।
वेदना, - इति म० पुस्तके पाठः ।
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१.या०,का।]
परापारमाधव'
३०५
३०५
सकल्प मरहस्यश्च तमाचार्य प्रचलते"-इति ॥ प्राचार्योऽपि पित्मात्राद्यपेक्षया गरीयानेव : तदाह सएव,
"उत्पादक-ब्रह्मदात्रोरीयान् ब्रह्मदः पिता ।
ब्रह्म-जन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम्" इति ॥ यस्तु वालोऽपि उद्धमध्यापयति, सेोऽपि तस्य गरीयानिति मएवाह,
"बालोऽपि विप्रोवृद्धस्य पिता भवति मन्त्रदः । अध्यापयामास पिढन् शिवरागिरसः कविः ।। पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिग्टह्य तान् । ते तमर्थमपृच्छन्त देवानागत-मन्यवः ॥ देवाश्चैतान् समेत्योचुाय्यं वः शिरुतवान् । अज्ञोभवति वै वालः पिता भवति मन्त्रदः ।। अझं हि वालमित्याहुः पितेत्येव च मन्त्रदम् । न हायनैर्न पलितैर्न वृत्तेन न वन्धुभिः ॥
ऋषयश्चक्रिरे धर्म योऽनचानः स नोमहान्'-ति । तया च विष्णः,-"वाले समान-वयमि अध्यापके गुरुवर्तित यम"इति। ज्येष्ठ-भातर्यपि गरुवर्तितव्यमित्यभिहितं पुराणमारे,
"ज्येष्ठोमाता पित-समा मृते पितरि भूसुगः । कनिष्ठास्तं नमस्येरन् मा छन्दानुवर्जिनः ।
तमेव चोपजीवेरन् यथैव पितरन्त था"-इति । ममरपि,"पिवत् पालयेत् पुत्रान् ज्येष्ठोधाता यवीयमः ।
* वित्तेम,-इति मु• पुस्तक पाठः ।
38
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परापारमाधवः ।
१२०, यात्रा ।
पुत्रवञ्चापि वर्तेरन् यथैव पितरं तथा"--इति । परम-गुरावपि तथेत्या सएव,
"गुरोर्गगै मन्निहिते गुरुवदृत्तिमाचरेत"-इति । श्राचार्यानुज्ञामन्तरेण मातुलादीन् अममारत्तो नाभिवादयेदित्याह मएव,--
"नचानिसृष्टागुरुणा स्वान् गुरूनभिवादयेत्”-दति । ___ ममावृत्तस्य तु नानु ज्ञाऽपेक्षा । तदाहापस्तम्वः,-"ममावलेन सर्चे गुरव उपमंग्राह्या: प्रोच्य च समागमे* प्राचार्य-प्राचार्यमन्निपाते प्राचार्य्यमुपसंग्टह्याचार्यमुपजिघृतेत्'-दति। अभिवादन प्रमति मएव,
"अभिवादन-शोलम्य नित्यं वृद्धोपसेविनः । चत्वारि तम्य वर्द्धन्ते ह्यायः प्रजा यशोवलम्" इति ॥
॥ ॥ इत्यभिवादन-प्रकरणम् ॥०॥
अथ द्वितीयभाग-कृत्यमुच्यते।।
तत्र दक्षः,
___ "द्वितीये च तथा भागे वेदाभ्यामा विधीयते"-दति । कृर्मपगणम्,
* समागते,-इति शा० स० पुस्तक याः पाठः। + व्यय दितीयभागकृत्यमुच्यते,—इत्यतः पृथ्वं, वेदाभ्यासकालनिर्णयःत्यधिक म० पुस्तके।
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१०, या०, का।
पराशरमाधवः ।
"वेदाभ्यामं ततः कुर्यात् प्रयत्नाच्छकिता दिजः । जपेदध्यापयेच्छिम्यान धारयेदै विचारयेत् ॥
अवेक्षेत च शास्त्राणि धमादीनि* द्विजोत्तम"-दूति । वेदाभ्यामं प्रशंसति मनः,
“वेदमेव ममभ्यम्येत् तपस्तावा द्विजोत्तमः । वेदाभ्यासाहि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते ।
कृषि-देव-मनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्" इति । व्यासपि,
"नान्योज्ञापयते धम्म वेदादेव म निर्वभो ।
तस्मात् मर्च-प्रयत्नेन धर्मार्थ वेदमाश्रयेत्” इति । याज्ञवल्क्योऽपि,
"यज्ञानां तपमाञ्चैव भानाञ्चैव कर्मणाम् ।
वेदएव विजातीनां नियम-करः परः" । तथा, वेद-विहीनस्य सर्व-क्रिया-वैफल्यं मनुर्दर्शयति,
"यथा षण्डोऽफलः स्त्रीषु यथा गौर्गवि चाफला ।
यथा चाज्ञेफलं दानं तथा विप्रोऽनृचोऽफलः" इति । अमिन्नेव भागे कृत्यान्तरमाह गर्गः,
"ममित्-पष्य-कुशादीनां स कालः समुदाहृतः" इति ।
* धमादोंव,-हित मु. पुस्तके पाठः ।
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३००
पराशरमाधवः।
[१०, पा.,का।
अथ तृतीय-भाग-कर्त्तव्यम*। तत्र दक्षः,
"हतीयेच तथा भागे पाव्य--वर्थ-साधनम्" इति। कूर्मपुराणम् -
"उपेयादीश्वरश्चाथ योग-क्षेमार्थ-सिद्धये ।
माधयेदिविधानान् कुटुम्बार्थं ततोद्विजः" इति । पोव्य-धर्गश्च दक्षेण दर्शितः,
"माता पिता गुरुर्भार्या प्रजा दीन: समाश्रितः ।
अभ्यागतोऽतिथिश्चाग्निः पोष्यवर्ग उदाहृतः” इति । एतच धन-साधनं यथावृत्ति कार्यम् । तथाऽऽह मनः
"यात्रा-मात्र प्रसिद्दार्थ स्वैः कर्मभिरगर्हितः ।
अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धन-सञ्चयम्” इति । अगहितानि कर्माणि अध्यापनादीनि । तानि च निरूपितानि । नन, ब्राह्मणस्यैवेतानि कर्माणि न क्षत्रिय-विशोः । तदाह मनुः,
"वयोधा निवर्नेरन् ब्राह्मणात् क्षत्रियम् प्रति । अध्यापनं याजनञ्च हतीयश्च प्रतिग्रहः ॥
वैश्यं प्रति तथैवेते निवर्त्तरनिति स्थितिः" इति । अतो म तयोरध्यापनादिरजनोपायः । वाद, अतएवोपायान्तरं तेनेवौकम्,
"शस्त्रास्त्रभृत्वं क्षत्रस्य वणिक-पशु-कृषिर्विशः" इति । वणिक् वाणिज्य, पश: पा-पालनम् । याज्ञवल्क्योऽपि,* अस्मात् पृवं, 'यजनप्रकरणम्' -- इत्यधिकः पाठः मु० पुस्तके ।
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१५०,घा०,का।
पराशरमाधवः ।
"प्रधानं क्षत्रिये कर्म प्रजानां परिपालनम् ।
कुसीद-कृषि-वाणिज्यं पाएपाल्यं विशः स्मतम्" इति । उपायान्तराण्याइ मनुः,
"मप्त वित्तागमाधादायोलाभः क्रयोजयः ।
प्रयोगः कर्मयोगश्च मत्-प्रतिग्रह एवच"-इति। दायोऽन्वयागतं धनं, लाभोनिधि-दर्शनम्। दाय-लाभ-क्रयान्वयागताश्चतुणी, जयः क्षत्रियस्यैव । प्रयोगो वृद्ध्यार्थं धन-प्रदानम्, कर्मयोगः कृषि-वाणिज्यम् । प्रयोग-कर्मयोगौ वैश्यस्यैव । सत्प्रतियही विप्रस्यैव। कूर्मपुराणेऽपि,
"द्विविधस्तु रही ज्ञेयः माधकश्चाप्यसाधकः । अध्यापनं याजनञ्च पूर्वस्याहुः प्रतिग्रहम् । शिलाञ्छनाप्युपादद्याद् ग्टहस्यः साधकः स्मृतः । असाधकस्तु यः प्रोक्ता ग्रहस्थाश्रम-संस्थितः ॥ शिलांच्छे तस्य कथिते वे वृत्ती परमर्षिभिः । अमृतेनापि जीवेत मृतेन प्रसतेन वा ॥
अयाचितं स्यादमृतं मृतं भैतन्तु याचितम्" इति । मनुरपि,
"तामृताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा। सत्यान्ताभ्यामपिवा न श्व-वृत्त्या कथच्चन ।। ऋतमुञ्छशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम् । मृतन्त याचितं प्रोकं प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् । सत्यान्तन्तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीव्यते ॥
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पराशर माधवः ।
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[१०, का०, आ०, का० ।
सेवा व वृत्तिर्विख्याता तस्मात्तां परिवर्जयेत्" - इति । पतित- परित्यक्तककणोपादानमुञ्छ:, शाल्यादेर्निपतित-परित्यकवल्वरी - ग्रहणं शिलम् । याज्ञवल्क्योऽपि -
"कूल - कुम्भी - धान्यो वा त्र्यहिकोऽश्वस्तनोऽपिवा । जीवेदाऽपि शिलोम्छेन श्रेयानेषां परः परः" इति ॥
कुशलं कोष्ठकं ; तद्भरित-धान्य- पञ्चेता कुशूल-धान्यः, त्र्यहपर्याप्त धान्य- सचेता त्याहिक:, न श्वस्तन- चिन्ताऽप्यस्तीत्यश्व स्तनः सद्यः सम्पादक इत्यर्थः । एतेषां श्रश्वस्तनान्तानां वृत्तयोमनुनेोक्ताः वेदितव्याः । तथाऽऽ,
" षट्कर्मकाभवत्येषां त्रिभिरन्यः प्रवर्त्तते ।
द्वाभ्यामेकश्चतुर्थस्तु ब्रह्म - सत्रेण जीव्यते " - इति ।
श्रयमर्थ: ; - एकः कुशूल - धान्य याजनादि षट्-कर्मी भवेत्, अन्य द्वितीयः कुम्भीधान्यो याजनाध्यापनप्रतिग्रहेर्वर्त्तित, एकतृतीयस्याहिकः प्रतिग्रहेतराभ्यां चतुर्थस्त्वश्वस्तनेोत्रह्मस चेणाध्यापनेन
जीव्यते, — इत्यर्थः ।
द्रवृत्तिस्तुशनमा दर्शिता, -
66
“शुहस्य द्विज- शुश्रूषा सर्व शिल्पानि वाऽपिच । विक्रयः सवस्तूनां शूद्रकर्मेत्युदाहृतम्” इति । याज्ञवल्क्योऽपि -
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"शूद्रस्य द्विज-शुश्रूषा तयाऽजीवन् वणिग्भवेत् । शिन्यैव विविधेजीवेद् द्विजाति- हितमाचरन् " इति । श्रजीवन्निति छेदः । हारीतोऽपि - “ शहद्रस्य धर्मे द्विजाति-शुश्रूषाSपवर्जनं कलत्रादि-पोषणं कर्षणं पशु-पालनं भारोद्वहन- पण्य
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१अ.या०,का.
परापारमाधवः ।
व्यवहार-चित्रकर्म-नृत्य-गीत-वेणु-वीण-मृदङ्ग-वादनानि" इति । अथ चतुर्थ भागे कर्त्तव्यमुच्यते । तत्र दक्षः,
"चतुर्थे तु तथा भागे स्नानार्थं मृदमाहरेत्" इति । मध्याहू-स्नान-विधिस्तु प्रसङ्गात् पूर्वमेव निरूपितः ।
अथ ब्रह्मयन्न-विधिः ।
तस्य स्वरूपं तैत्तिरीय-ब्राह्मणे दर्शितम्,–“यत् स्वाध्यायमधीथीतकामप्यूचं यजुः साम वा तत् ब्रह्मयज्ञः मन्तिष्ठते"-दति । लिङ्गपुराणेऽपि,
"स्व-शाखाऽध्ययनं विन ब्रह्मयज्ञ इति स्मृतः" इति । तस्य कालमाह बृहस्पतिः,
“स चावाक् तर्पणात् कार्य: पश्चादा प्रातराहुतेः ।
वैश्वदेवावसाने वा नान्यदा तु निमित्ततः'-दति । अत्र, वैश्वदेव-शब्देन मनुष्ययज्ञान्तं कर्म विवक्ष्यते ।यतः कूर्मपुराणेऽभिहितम्,
"यदि स्थातर्पणादाक् ब्रह्मयज्ञः कृतोन हि।
कृत्वा मनुष्य-यजन्तु ततः स्वाध्यायमाचरेत्" इति । अतिश्च दिग्देश-कालानाह,-"ब्रह्मयज्ञेन यक्ष्यमाण: प्राच्या दिशि ग्रामादच्छदिर्दर्श उदीच्यां प्रागुदीच्यां वोदितत्रादित्ये"इति । अच्छदिर्दर्श इत्यनेन शब्देन देश-विशेषोलक्षितः । छदिहाच्छादनं तृण-कटादि, यत्र न दृश्यते तत्रेत्यर्थः । उदिते श्रादित्ये,
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३१२
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पराशर माधवः ।
-
-इत्यनेन सूर्योदयात् प्राचीनं कालं निषेधयति, न हृदयानन्तयें विधीयते, तस्य होम - कालत्वात् । मनुरपि देशादीतिकर्त्तव्यतामाह, - “श्रपां समीपे नियतो नैत्यिकं विधिमास्थितः । सावित्रीमभ्यधीयीत गत्वाऽरण्यं समाहितः” - इति ।
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उपवीतादीतिकर्त्तव्यतां श्रुतिराध, - " दक्षिणत उपत्रीयोपविश्य हस्ताववनिज्य चिराचामेत् द्विःपरिमृज्य सकृदुपस्पृश्य शिरश्चक्षुषी नासिके श्रोत्रे हृदयमालभ्य " - इति । “दर्भाणां महदुपस्तीयोपस्थं कृत्वा प्रागासीनः स्वाध्यायमधीयीत " - इति च । “दक्षिणेत्तरौ पाणी पादौ कृत्वा पवित्रावोमिति प्रतिपद्यते " - दूति च । “त्रीनेव प्रायुक्त भूर्भुवः स्वर्” इति च । " श्रथ सावित्रीं गायत्रीं चिरन्नाह पच्छोऽर्द्धर्च्चशोनवानम्” – इति च । “ग्रामे मनमा स्वाध्यायमधीयीत दिवा नक्रञ्च ” – दूति च । “हस्ताशौच श्रज्ञेय उतारयेवल उत वाचीदतिष्ठन्नुत व्रजन्नुतासीन उत शयानोऽधीयीतैव स्वाध्यायम्” - इति च । “मध्यन्दिने प्रवलमधीयीत " - दूति च । " नमो ब्रह्मणे - इति परिधानीयां चिरन्नाहाप उपस्पृश्य गृहानेति ततो यत्किञ्चिद्ददाति मा दक्षिणा" - इति च । दक्षिणतः प्रदक्षिणं कृत्वेत्यर्थः । तथाच योगियाज्ञवल्क्यः,
१०, ०. का० ।
शौनकस्त्वितिकर्त्तव्यान्तरमाह,—
"प्रदक्षिणं समावृत्य नमस्कृत्योपविश्य च ।
दर्भेषु दर्भ-पाणिभ्यां मंहताभ्यां कृताञ्जलिः ॥
स्वाध्यायन्तु यथाशक्ति ब्रह्मयज्ञार्थमाचरेत् " - इति ।
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" प्राणायामैर्दग्ध - दोष: शुक्लाम्बरधरः शुचिः ।
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१०, आ०का ० ।]
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पराशर माधवः ।
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यथाविध्यपश्राचम्य श्रारोहेद्दर्भ - संस्तरम् ॥ पवित्र पाणिः कृत्वा तु उपस्थं दक्षिणेत्तरम्" - दूति । उदाहृत श्रुतौ सदुपस्पृश्येत्यस्यानन्तरं सव्यं पाणिं पादौ प्रोक्षेदित्यध्याहर्त्तव्यम्, उत्तरस्मिन् फल- वाक्ये तथाऽनुक्रमणात् । “यत् चिराचामेत् - इति, तेन ऋचः प्रीणाति, यद् द्विः परिम्सृजति तेन यजूंषि, यत् सकृदुपस्पृशति तेन सामानि यत् सव्यं पाणिं पादौ प्रोक्षति यच्चिरश्चक्षुषी नासिके श्रोत्रे हृदयमालभते तेनाथवाङ्गिरसेो ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथा नाराशंसीः प्रीणाति" - इति ।
दर्भाणामित्यादिश्रुत्यर्थ: शौनकेन दर्शितः, -" प्राग्वोदग्वा ग्रामान्निष्क्रम्या श्रलुत्य शुचौ देशे यज्ञोपवीत्याचम्याक्लिन्नवासा दर्भाणां महदुपस्तीर्य्य प्राकूलानान्तेषु प्रामुख उपविभ्योपस्यं कृत्वा दक्षिणोत्तरी पाणी पादौ मन्धाय पवित्रवन्तौ द्यावापृथिव्योः सन्धिमीक्षमाणः संमील्य वा यथायुक्तमात्मानं मन्येत तथायुक्तो - ऽधीयीत स्वाध्यायं मनसाधीयीत, उत वा दिवा न वा तिष्टन् व्रजन्नासीनः शयाना वा" । मर्व्वथा स्वाध्यायमधीयतैव नत्वङ्गाशक्त्या प्रधानं परित्याज्यमित्यर्थः । ब्रह्मयज्ञे जप्यं श्राश्वमेधिके दर्शितम्, -
"वेदमादौ ममारभ्य तथोपर्युपरि क्रमात् । यदधीतान्वहं शक्त्या तत् स्वाध्यायः प्रचक्षते ॥ ऋचं वाऽथ यजुर्वाऽपि मामाथर्वमथापि वा । इतिहास-पुराणानि यथाशक्ति न हापयेत्” इति ।
३१३
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याज्ञवल्क्योऽपि -
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पराशर माधवः ।
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[१०, काका० ।
" वेदाधपुराणानि सेतिहामानि शक्तितः ।
जपयज्ञ - प्रसिद्यर्थं विद्यामाध्यात्मिकीं जपेत्” इति । ग्रहणणध्ययनवत् ब्रह्मयज्ञाध्ययनस्थानध्याय-दिनेषु परित्याग - प्राप्तौ
मनुराह,—
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"वेदोपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नैत्यिके । नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होम - मन्त्रेषु चैव हि ॥ नैत्यिके नास्त्यनध्यायो ब्रह्म-मत्रं हि तत् स्मृतम् । ब्रह्माजति जतं पुण्य-मनध्याय - वषट्कृतम्” - इति । ब्रह्मवैवाजति द्रव्यन्तेन हुतम् । श्रधीयते - इत्यद्यध्यायो याज्यादिमन्त्र - समूह:, तेन * वषट्कारेण च महितं जतम् । यतोनास्त्यनध्यायः, अतएव श्रुतिरनध्याय - विशेषाननूच तेषु जपं प्रशशंस - " यएवं विद्वामेघे वर्षति विद्योतमाने स्तनयत्यवस्फूर्ज्जति पवमाने वायावमावास्यायां स्वाध्यायमधीते तपएव तत् तप्यते तपोहि स्वाध्यायः " - इति ।
"
तेष्वनध्यायेष्वल्पमेव पठनीयम् । तदाच्चापस्तम्बः - " अथ यदि वातोवायात् स्तनयेद्वा विद्योतते वा तथाऽवस्फूर्जेदे काम्टतमेकं वा यजुरेकं वा सामाभिव्याहरेत् " - इति । श्रात्म- देशयेोरशुचित्वे ब्रह्मयज्ञोवर्द्धनीयः । तथाच श्रुतिः - " तस्य वा एतस्य यज्ञस्य दावनध्यायौ पदात्माऽश्ऽचिर्यद्देश : " - इति । ब्रह्मयज्ञं प्रशंमति श्रुतिः, -" उत्तमं नाकमधिरोहति उत्तमः समानानां भवति यावन्तं ह वामां वित्तस्य पूर्णां ददत् स्वर्ग - लोकं जयति तावन्तं लोकं जयति * तेन ज्हतेन, - इति शा० स० पुस्तकयेाः पाठः ।
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१०,बाका.
पराशरमाधवः ।
३१५
भूयांमं चाक्षय्य चाप पुनर्मत्यु जयति ब्रह्मण: मायुज्यं गच्छति"इति । याज्ञवल्क्योऽपि,
"यं यं ऋतुमधीयीत तस्य तस्याप्नुयात् फलम्" इति । वित्त-पूर्ण-पृथिवी-दानस्य फलमश्नुते-दति ।
॥०॥ इति ब्रह्मयज्ञ-प्रकरणम् ॥०॥
. अथ तर्पण-विधिः। तच वशिष्ठः,
"कृक्-सामाव-वेदोकान् जप्य-मन्त्रान् यजूंषि च ।
जवा चैवं ततः कुर्याद्देवर्षि-पिट-तर्पणम्” इति । सहस्पतिरपि,
"ब्रह्मयज्ञ-प्रमियर्थ विद्याचाध्यात्मिकी जपेत् ।
जवाऽथ प्रणवं वाऽपि ततस्तर्पणमाचरेत्" इति । विष्णुपुराणऽपि,
"शुचि-वस्त्र-धरः स्नातो देवर्षि-पिट-तर्पणम् । तेषामेव हि तीर्थन कुर्चीत सुसमाहितः ॥ त्रिरपः प्रीणनार्थाय देवानामपवर्जयेत्। अथर्षीणं यथान्यायं मकृञ्चापि प्रजापतेः ॥ पिणं प्रीणनार्थाय त्रिरपः पृथिवीपते"-इति।
* जपित्वैवं,-इति मु० पुस्तके पाठः । + चापि इति मु° पुस्तके पाठः । | दिरपः,-इति सो शा० पुस्तकयाः पाठः ।
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३१६
व्यासः,
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आग्नेयपुराणेऽपि -
पराशर माधवः ।
“एकैकमञ्जलिं देवा द्वौ द्वौ तु शनकादयः * ।
अर्हन्ति पितरस्त्रींस्त्रीन् स्त्रियश्चैकैकमज्ञ्जलिम् ” - इति ।
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[१ का०, ० का ० ।
“प्रागग्रेषु सुरांस्तर्पेन्मनुय्यांश्चैव मध्यतः ।
पितॄंस्तु दक्षिणाग्रेषु चैक - द्वि-चि- जलाञ्जलीन” – इति । श्रत्र, श्रञ्जलि - मङ्ख्या यथाशाखं व्यवतिष्ठते । यत्र शाखायां न मयानियमः श्रुतः, तत्र विकल्पः । तत्रैव ब्रह्मत्रत्र - विन्यास - विशेषोदर्शितः, -
" सव्येन देव - कार्य्याणि वामेन पितृ तर्पणम् ।
निवीतेन मनुष्यानां तर्पणं विधीयते " - इति । सव्येनापवीतेन, वामेन प्राचीनावीतेन, - इत्यर्थः । तथाच शङ्ख-लिखितौ – “उमाभ्यामपि हस्ताभ्यां प्राङ्मुखो यज्ञोपवीती प्रागयेः कुशैर्देवता-तर्पणं देव तीर्थेन कुर्य्यात् " - इति । विष्णुरपि -
·
---
“ ततः कृत्वा निवीतन्तु यज्ञसूत्रमतन्त्रितः । प्राजापत्येन तीर्थेन मनुय्यांस्तर्पयेत् पृथक् ” – इति । बौधायनः, – “अथ दक्षिणतः प्राचीनावीती पितृन् स्वधानमस्तर्प
66
यामि" - इत्यादि । यत्तु -
-
* निकादिषु, – इ िशा ० पुस्तके पाठः । + व्यवन्ति – इति मु० पुस्तके पाठः ।
" उभाभ्यामपि हस्ताभ्यामुदकं यः प्रयच्छति । स मूढोनरकं याति कालसूत्रमवाक्शिराः”—
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१९०,षा का
पराशरमाधवः।
३१७
इति। व्याघ्रपाद-वचनं,तच्छाद्धादि-विषयम्। श्रतएव कामजिनिः,
"आद्धे विवाह-काले च पाणिनैकेन दीयते ।
तर्पणे उभयेनैव विधिरेष पुरातनः" इति। एतच तर्पणं स्थलस्थेन नोदके कर्त्तव्यम् । तथाच गोभिलः,
"नोदकेषु न पात्रेषु न क्रुद्धो नेकपाणिना ।
नोपतिष्ठति तनोयं यन्त्र भूमौ प्रदीयते” इति । प्रतः स्थलस्थोभूमावेव तर्पणं कुर्वीत, न जलादाविति। तथाच विष्णुः,
"स्थले स्थित्वा जले यस्तु प्रथछेदुदकं नरः । .
नोपतिष्ठति तदारि पितृणां तन्निरर्थकम्" इति । अत्र विशेषमाह हारीतः,
"वमित्वा वसनं शुष्क स्थले विस्तीर्ण-वर्हिषि । विधिज्ञस्तर्पणं कुर्यान्न पात्रेषु कदाचन ॥ पाचाहा जलमादाय शुभे पात्रान्तरे क्षिपेत् । जल-पर्णेऽथवा गर्ने म स्थले तु विवर्हिषि । केश-भस्म-तुषाङ्गार-कण्टकास्थि-समाकुलम्॥
भवेन्महीतलं यस्मादहिषाऽऽस्तरणं ततः” इति । यत्तु कार्णाजिनिनोक्रम्,
"देवतानां पिणाच जले दद्याज्जलाञ्चलिम्" इति । तदशचि-स्थल-विषयम् । तदाह विष्णुः,
यत्राचि स्थलं वा स्यादुदके देवता-पिढन्। तर्पयेत्तु यथाकामममु सर्वं प्रतिष्ठितम्" इति ।
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३१८
पाच - विशेषमाह पितामह:, -
मरीचिः, -
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पराशर माधवः ।
स्मृत्यन्तरे च
" हेम - रूप्यमयं पात्रं ताम्र - कांस्य-ममुद्भवम् ।
पितॄणां तर्पणे पात्रं मृण्मयन्तु परित्यजेत् " - इति ॥
*
"मौवर्खेन च पात्रेण ताम्र-रूप्यमयेन च * ।
औडुम्बरेण विल्वेन पितॄणां दत्तमचयम्” – इति । रिक्त इस्तेन न कुर्य्यादित्याह सएव, -
1
" विना रूप्य - सुवर्णेन विना ताम्र तिलैस्तथा । विना मन्त्रैश्च दर्भैश्च पितॄणां नोपतिष्ठते” – इति ।
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"खट्ट - मौकिक-हस्तेन कर्त्तव्यं पितृ तर्पणम् । मणि-काञ्चन-दबी न हन्येन ? कदाचन" - इति ॥
न चात्र समुच्चयोनापि सम - विकल्प दत्यभिप्रेत्य मरीचिराध - “तिलानामप्यभावे तु सुवर्ण - रजतान्वितम् । तदभावे निषिचेत्तु दर्भैर्मन्त्रेण वा पुनः " - इति ॥ तिल-ग्रहणे तु विशेषमाह योगियाज्ञवल्क्यः, -
“यद्यद्धृतं निषिञ्चतु तिलान् संमिश्रयेज्जले । श्रतोऽन्यथा तु सव्येन तिला ग्राह्या विचक्षणैः " - इति ।
ताम्रकांस्यमयेन वा, — इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ घट्केन, - इति शा० पुस्तके पाठः ।
[१०, ख०का५ ।
| ताम्रमयैस्तथा, — इति मु० पुस्तके पाठः । शुष्केण, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१०या०का०॥
पराशरमाधवः।
३१६
एतदलोमक-प्रदेशाभिप्रायम् । तथाच देवलः,
"रोम-संस्थान् तिलान् कृत्वा यस् तर्पयते पिढन्।
पितरस्तर्पितास्तेन रुधिरेण मलेन च" इति। वर्ण-भेदेन तिलानां विनियोग-विशेषं दर्शयति सएव,
"एक्लैस्तु तर्पयेद्देवान् मनुव्यान् शवलैस्तिलैः ।
पिढन् सन्तर्पयेत् कृष्ण स्तर्पयेत् सर्वथा विज"-इति । कूर्मपुराणेऽपि, देवर्षि-पिट-तर्पणे विशेषोदर्शितः, -
"देवान् ब्रह्मञ्षांश्चैव तर्पयेदक्षतोदकैः । पिन भक्त्या तिलैः कृष्णः स्व-सूत्रोक-विधानतः" इति । तिथ्यादि-विशेषेण तिल-तर्पणं निषेधयति,
"सप्तम्यां रविवारे च रहे जन्मदिने तथा ।
मृत्य-पुत्र-कलत्रार्थी न कुर्यात्तिल-तर्पणम्" इति। पुराणेऽपि,
"पक्षयोरुभयो राजन् सप्तम्यां निशि सन्ध्ययोः ।
वित्त-पुत्र-कलत्रार्थी तिलान् पञ्चसु वर्जयेत्" इति । बौधायनोऽपि,
"न जीवत्-पिटकः कृषौस्तिलेस्तर्पणमाचरेत् । सप्तम्यां रविवारे च जन्मदिवसेषु च ॥ रहे निषिद्धं सतिलं तर्पणं तबहिर्भवेत्। विवाहे चोपनयने चौलै मति यथाक्रमम् ।।
* ग्रहे,-इति मो० स० शा० पुस्तकेघ पाठः । एवं परत्र ।
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३२.
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पराशरमाधवः ।
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वर्षमद्धं तदर्द्धञ्च वर्ज्जयेत् तिल - तर्पणम् । तिथि - तीर्थ - विशेषेषु कार्य्यं प्रेतेषु सर्व्वदा " - इति ।
तर्पणीयान् दर्शयति सत्यव्रतः, -
कार्षि-तर्पणमुक्रम्, -
[१०, ख० का० ।
"कृत्वोपवीती देवेभ्योनिवती च भवेत्ततः ।
मनुष्यांस्तर्पयेद्भक्त्या ब्रह्म- पुचानृषींस्तथा । अपसव्यं ततः कृत्वा सव्यं जान्वाच्च भृतले ॥ दर्भपाणिस्तु विधिना प्रेतान् सन्तर्पयेत्ततः " ॥ योगियाज्ञवल्क्यः, -
"ब्रह्माणं तर्पयेत् पूर्वं विष्णुं रुद्रं प्रजापतिम् । वेदान् छन्दांसि देवांश्च ऋषींश्चैव तपोधनान् ॥ श्राचाय्यश्चैव गन्धर्व्वानाचार्य - तनयांस्तथा । संवत्सरं सावयवं देवीरप्रसस्तथा ॥ तथा देवान् नगान्नागान् सागरान् पर्व्वतानपि । सरितोऽथ मनुष्यांश्च यक्षान् रक्षांसि चैव हि ॥ पिशाचांश्च सुपलींश्च भूतान्यथ पशूंस्तथा । वनस्पतीनेोषधींश्च भूतग्रामांश्वतुर्विधान् ॥
सव्यं जानु ततोऽन्नाच्य पाणिभ्यां दक्षिणामुखः । तस्तिर्पयेन्मः सर्व्वान् पिढगणांस्तथा ॥ मातामहांश्च सततं श्रद्धया तर्पयेत् द्विज" - इति ।
शौनकोऽपि — “अग्निर्विष्णुः प्रजापतिः" इत्यादि । यजुः शाखिनान्तु
.
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" श्रथ काण्ड - ऋषीनेतानुदकाञ्जलिभिः शुचिः ।
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११०,०का
पराशरमाधवः ।
३२१
अव्यग्रः' तर्पयेन्नित्यं मन्त्रेणैवाट-नामभिः ॥ पिट-तर्पणं प्रकृत्य पैठीनमिः,
“अपसव्यं ततः कृत्वा स्थित्वा च पिढदिमखः ।
पिढन दिव्यानदिव्यांश्च पिन-तीर्थेन तर्पयेत्” इति । दिव्याः वसु-रुद्रादित्या: अदिव्याः पित्रादयः । योगियाज्ञवल्क्यः,
“वस्न रुद्रान् तथाऽऽदित्यान् नमस्कार-समन्वितान्" इति । तर्पयेदिति शेषः । वस्वादीनां नामानि पैठीनसिना दर्शितानि,
"ध्रुवोधर्मश्च सोमश्च श्रापश्चैवानिलोनलः । प्रत्यूषश्च प्रभातश्च वसवोऽष्टौ प्रकीर्तिताः । अजैकपादहिब्रनो विरूपाक्षोऽथ रैवतः ॥ इरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकश्च सुरेश्वरः । सावित्रश्च जयन्तश्च पिनाकी चापराजितः । एते रुद्राः समाख्याता एकादश सुरोत्तमाः । इन्द्रोधाता भगः पूषा मित्रोऽथ वरुणोऽर्यमा । अहि? विवस्वान् त्वष्टा च सविता विष्णरेवच । एते वै द्वादशादित्या देवानां प्रवरामताः ॥
एतेच दिव्याः पितरः पूज्याः सर्व प्रयत्नतः" । ततः ख-पित्रादीस्तर्पयेत् । तत्र प्रकारमाह पैठीनमिः,
* व्यत्रस्तः, इति शा. पुस्तके पाठः । + बसुरुद्रादयः,-इति म० पुस्तके पाठ । + यमच,-इति म. पस्तके पाठः। चर्चि,-इति म. पम्तके पाठः ।
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परापारमाधवः ।
१०.मा.का.।
"स्व नाम-गोत्र-ग्रहणं परुषं परुषं प्रति ।
तिलोदकामलों स्त्री स्त्रीनरुच्चैर्विनिक्षिपेत्" । योगियाज्ञवल्क्योऽपि,
"सवणेभ्योजलं देयं नामवर्शभ्यएवच ।
गोत्र-नाम-स्वधाका स्तर्पयेदजपर्चश:"-दनि । नाम-ग्रहणेऽपि विशेषमाह अश्वलायन:',
"शान्तं ब्राह्मणम्योकं वम्मान्तं क्षत्रियस्य च । गुप्तान्तं चेव वैग्यस्य दामान्तं जन्मनः ।। चतुर्णामपि वर्णानां पितृणां पिट-गोत्रतः ।
पिट-गोत्रं कुमारीणां ऊढ़ानां भर्ट-गोत्रतः” इति । पिट-तर्पणे क्रममाह मत्यव्रतः,
"पितृभ्यः प्रत्यहं दद्यात्ततामादभ्य एवच ।
ततो मातामहानाञ्च पिटव्यम्य सुतस्य च"-इति । विष्णुपुगणेऽपि,
"दद्यात् पैत्रेण तीर्थन कामानन्यान् ग्ट गुम्व मे । मात्रे प्रमात्रे तन्मात्रे गुरुपत्न्यै तथा नृप ।
गुरवे मातुलादीनां स्निग्ध-मित्राय भृभुज" --दति । हारीतोऽपि,-"पित्रादीन् मात्रादीन् मातामहादीन पिटव्यांस्तत्पनीठचार्टस्तत्पत्नीः मातुलादीम्तत्पनीः गीचा-पाध्यायादीन् सुहृत्-सम्वन्धि-बान्धवान् द्रव्यान्नदाट पोषकारिणतत्पनीश्च तर्प
* सवर्णाभ्योऽञ्जलिर्दे यः, इति मु० यस्तके पाठः । । बोधायनः, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१०,श्रा०का.1]
पराशरमाधवः।
येत्” इति । जीवपिटक-तर्पणे विशेषमाह योगियावल्क्यः,
"कव्यवाडनलः सोमो यमश्चैवार्यमा तथा । अग्निस्वात्ताः सेामपाय तथा वहिषदोऽपि च । यदि स्याज्जीवपिट कस्तान विद्याच्च तथा पिढन् । यभ्योवाऽपि पिता दद्यात्तेभ्योवाऽपि प्रदीयते ।
एतांश्चैव प्रमीतांश्च प्रमीत-पिट को द्विजः” इति । तर्पयेदितिशेषः । अवसानाञ्जलिमाह कात्यायनः,
"पिलवंग्या माढवंश्या ये चान्ये पितरोजनाः ।
मत्तस्तुदकमईन्ति ये तांस्तांस्तर्पयाम्यहम्" । इत्यवसानाञ्जलिरिति । श्रादित्यपुराणेऽपि,
“यत्र क्वचन संस्थानां क्षुत्तष्णोपहतात्मनाम्। तेषां हि दत्तमक्षय्यमिदमस्तु तिलोदकम् ॥ ये मे कुले लप्तपिण्डाः पुत्र-पौत्र-विवर्जिताः ।
तेषान्तु दत्तमक्षय्यमिदमस्तु तिलोदकम्” इति । मत्स्यपुराणेऽपि,
"येऽबान्धवा बान्धवा वा येन्यजन्मनि बान्धवाः ।
ते तिमखिलां यान्त ये वा मनोऽम्बवाञ्छिता:"-इति । विस्तरेण कर्तुमममर्थम्य मंक्षेपेण तर्पण नुक विपराएं,
"श्रा-ब्रह्म-स्तम्व-पर्यन्तं जगनृप्यात्वति त्रुवन् ।
क्षिपेत् पयोऽञ्जलीस्त्रोंस्तु कुर्यात् मंक्षेपतर्पणम्" इति। यम-तर्पणन्तु वृद्धमननोक्रम्, -
"प्रेतात्मव-चतुर्दश्यां कार्य्यन्तु यम-तर्पणम ।
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पराशरमाधवः।
[१बा,या का• ।
कृष्णाङ्गार-चतुर्दश्यामपि कार्य सदैव वा ॥ यमाय धर्म-गजाय मृत्यवे चान्तकाय च । वैवस्वताय कालाय सर्व-भूत-क्षयाय च ॥ श्राडुम्बराय दधाय नीलाय परमेष्ठिने ।
वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय ते नमः" इति । नियमस्तु स्कन्दपुराणे निरूपितः,
"दक्षिणाभिमुखोभृत्वा तिलैः मव्यं समाहितः ।
देवतीर्थन देवत्वात्तिले प्रेताधिपाय च"-दूति । एवं कुर्वतः फलमाह यमः,
“यत्र वचन नद्यां हि स्नात्वा कृषाचतुर्दशीम् ।
सन्तर्प्य धर्मराजानं मुच्यते म-किल्विषैः” इति । माघ-क्लाष्टम्यां भीमतर्पणं कुर्य्यानदाह व्यासः,
"लाटम्यान्तु माघस्य दद्यानीमाय यो जलम् । सम्बत्मरकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति ॥ वैयाघ्रपद्य-गोत्राय साङ्कृति-प्रवराय च । गङ्गापुत्वाय भीमाय प्रदास्येऽहं तिलादकम् ।
अपुत्वाय ददाम्येतत् सलिलं भीमवर्मणे" इति ॥ तर्पण-प्रशंसा पुगणमारे दर्शिता,
"एवं यः सर्वभूतानि तर्पयेदन्वहं द्विजः ।
म गच्छेत् परमं स्थानं. तेजोमूर्तिमनामयम्" इति । • 'अपुत्राय'-इत्यानन्तरं, 'गङ्गापुत्राय'-इत्यई दृश्यते मुदितातिरिक्त पुस्तकेषु ।
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१५०,या०का
पराशरमाधवः ।
प्रकरणे प्रत्यवायः पुराणे दर्शितः
"देवताश्च पिढेश्चैव मुनीन् व यो न तर्पयेत् ।
देवादीनामणी भूत्वा नरकं स वजत्यधः” इति । थाज्ञवल्क्योऽपि,
"नास्तिक्यभावाद्यस्तांस्तु न तर्पयति वै पिन्।
पिवन्ति देह-निस्रावं पितरोऽस्य जलार्थिनः" इति। हारीतोऽपि,
"देवाश्च पितरश्चैव काहन्ति सतिलाञ्जलिम् ।
अदत्ते तु निरामास्ते प्रतियान्ति यथागतम्" इति । कात्यायनोऽपि,
"छायां यथेच्छेच्छरदातपाः पयः पिपाशुः क्षुधितोऽलमन्त्रम् । बालाजनित्री जननी च बालं
योषित् पुमांसं पुरुषश्च योषाम् ॥ तथा सानि भूतानि स्थावगणि चराणि च । विप्रादुदकमिच्छन्ति मा प्युदक-काङ्गिणः ।। तस्मात् मदेव कर्त्तव्यमकुर्वन्महतैनमा ।
युज्यते ब्राह्मणः कुर्वन् विश्वमेतद्विभर्ति हि" इति । अत्र पित-गाथा,
"अपि नः स कुले भूयाद्योनोदद्याज्जलाञ्जलिम् । नदीषु बहुतोयासु शीतलासु विशेषतः” इति । * सरिताजलम्,--इति शां पुस्तके पाठः ।
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३२६
परापारमाधवः ।
१०या०का ।
तर्पणानन्तरं वस्त्र-निष्पीडनं कर्तवम् । तदाह योगियाज्ञवल्क्यः,
“यावदेवानृषींश्चैव पितॄश्चापि न तर्पयेत् । तावन पीडयेदस्त्रं योहि स्नातोभवेदिजः ।। निष्पीडयति यो विप्रः स्नान-वस्त्रमतर्प्य च ।
निरासाः पितरोयान्ति शापं दत्वा सुदारुणम्”–दति । निष्पीडनन्तु स्थले कार्यम् । तदुकं स्मृत्यन्तरे,
"वस्त्र निष्पीडितं तोयं श्राद्धे चोच्छिष्टभोजिनाम् ।।
भागधेयं श्रुतिः प्राह तस्मानिष्पीडयेत् स्थले''-दति । विष्णुपुराणे,
"प्राचम्य च ततेोदद्यात् सृाय मलिलाञ्जलिम् । नमाविवस्वते ब्रह्मन् भावते विष्णु तेजसे। जगत्-मवित्रे शुचये सवित्रे कर्मदायिने"-दति ।
॥०॥ इति तर्पण-प्रकरणम् ॥०॥
अथ देवार्चनम्। इत्थं मूलवचनानुक्कानि तर्पणतानि कर्माणि निरूपितानि । अथ, मूलवचनानं काम-प्राप्तं देवतार्चनं निरूप्यते । तत्र, नृसिंह
पुराणम्,
* स्नानवस्त्रमतर्पणम् ,-इति शा० स० पस्तकयोः पाठः । + श्राद्धेचाच्छिएभोजनम्, इति मु. पस्तके पाठः । f विष्णुपुराणे, इत्यारभ्य, एतदन्ताग्रन्थः नास्ति मुद्रितातिरिक्तपुस्तकेषु ।
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१का०, च्या० का 门
श्रमेयपुराणे,
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पराशर माधवः ।
"जल देवान् नमस्कृत्य ततोगच्छेद्गृहं बुधः । पौरुषेण तु सुक्रेन ततो विष्णुं समर्चयेत्” इति ।
कूपुराणेऽपि -
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"मन्त्रैष्णव- रौद्रैस्तु सावित्रैः शाक्तिकैस्तथा* |
विष्णु प्रजापतिं वाऽपि शिवं वा भास्करन्तथा ॥ तलिङ्गैरर्चयेन्मन्त्रैः सर्व्वदेवान् समाहितः " - इति ।
"ब्रह्माणं शङ्करं सूर्यं तथैव मधुस्मृदनम् । श्रन्यचाभिमतान् देवान् भक्त्या चाक्रोधनोऽत्वरः ॥ स्वैर्मन्त्रैरर्चयेन्नित्यं पत्रैः पुष्यैस्तथाऽम्बुभिः " - इति ।
स्मृत्यन्तरे
" श्रादित्यमम्बिक विष्णु' गणनाथं महेश्वरम्" - इत्यादि । । यद्यपि, पूर्वं मूलवचन - व्याख्याने पूजनीयोदेव | एकएव इति महता प्रबन्धेन प्रपञ्चितं तथापि दर्शन - भेदमाश्रित्य विष्णु-शङ्करादिमेदोपन्यासो ? न विरुह्यते । दर्शनमेद पुराणमारे वर्णितः, - "शैवञ्च वैष्णवं शाकं मौरं वैनायकन्तथा ।
स्कान्दञ्च भक्तिमार्गस्य दर्शनानि षडेव हि " - इति ॥
तत्र, वैष्णवदर्शनानुसारी पूजाक्रम श्राश्वमेधिके निरूपितः, -
३२७
*
शाम्भवैस्तथा, - इति म० पुस्तके पाठः ।
+ स्मृत्यन्तरे - इत्यादिरेतदन्तो ग्रन्थः मुद्रितातिरिक्त पुस्तकेषु न दृश्यते ।
+ पूजनीयेा महादेव, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
6 विष्णुशङ्करादिभेदो, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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.
स
पराभरमाधवः।
[१०,छा का।
"श्टणु पाण्डव तत्म-मर्चन-क्रममात्मनः । स्थण्डि ले पद्मकं कृत्वा चाष्टपत्रं सकर्णिकम् ॥ अष्टाक्षर-विधानेन अथवा दादशाक्षरैः । वैदिकैरथवा मन्त्रै मम सकेन वा पनः ॥ स्थापितं मां ततस्तस्मिन्नर्चयोत विचक्षण: ॥ पुरुषञ्च ततः सत्यमच्युतञ्च युधिष्ठिर । अनिरुद्धच्च मां प्राहुबैखानमविदोजनाः ॥ अन्ये त्वेवं विजानन्ति मां गजन् पाश्चरात्रिकाः । वासुदेवञ्च राजेन्द्र सङ्कर्षणमथापि वा ॥ प्रद्युम्नच्चानिरुद्धञ्च चतुर्मति प्रचक्षते । एताश्चान्याश्च राजेन्द्र संज्ञा-भेदेन मूर्तयः ॥
विड्यनर्थान्तरा एव मामेवं चार्चयेदुधः” इति । भाग्नेयेऽपि,
"अर्चनं सम्प्रवक्ष्यामि विष्णोरमित-तेजसः । यत्कृत्वा मुनयः सर्वं परं निर्वाणमाप्नुयुः ॥ अपवनौ हृदये सूर्य स्थण्डिले प्रतिमासु च । षटस्खेतेषु हरेः सम्यगर्चनं मुनिभिः स्मृतम् ॥ अनौ क्रियावतां देवो रखो । देवो मनीषिणाम् । प्रतिमास्वल्पबुद्धीनां योगिनां हृदये हरिः ॥
* अन्येप्येवं,-इहि मु० पुस्तके पाठः । + विनाध्यात्मपरानेव,- इति मु. पुस्तके राठः । | दिवि,-इति शां पुस्तके पाठः ।
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१०,आका
परापारमाधवः ।
तस्य सर्वगतत्वाच्च स्थण्डिले भावितात्मनाम् । ऋग्वेदे पौरुषं स्मृतमर्चितं गुह्यमुत्तमम् । भानुभस्य सूकस्य त्रैष्टुभं तस्य देवता ॥ पुरुषोयोजगद्दीजस्मृपिनारायणः स्मृतः । प्रथमां विन्यसेवामे द्वितीयां दक्षिणे करे ॥ हतीयां वामपादे तु चतुर्थी दक्षिणे न्यसेत् । पञ्चमं वामजानौ तु षष्ठों वै दक्षिणे न्यसेत् ॥ मतमों वामकश्यान्नु अष्टमी दाक्षणे तथा । नवमी नाभिमध्ये तु दशमी हृदये तथा ॥ एकादशी कण्ठमध्ये द्वादशों वामबाहुके । त्रयोदशों दक्षिणे तु तथाऽऽन्ये तु चतुर्दशीम्॥ अतणेः पञ्चदशीञ्चैव विन्यसेन्मूहि षोडशीम् । यथा देहे तथा देवे न्यासं कृत्वा विधानतः ॥ न्यासेन तु भवेत् मोऽपि स्वयमेव जनार्दनः । एवं न्यामविधिं कृत्वा पश्चाद्यागं समाचरेत् ।। पूर्वयाऽऽवाहयेद्देवमामनन्त द्वितीयया । पाद्यं हतीयया चैव चतुर्थाऽयं प्रदापयेत् ॥ पञ्चम्याऽऽचमनं दद्यात् पश्या स्नानं ममाचरेत् । सप्तम्या तु ततोवासाह्यष्टम्या चोपवीतकम् ॥ नवया गन्धलेपन्तु दशम्या पुष्पकन्तथा । एकादण्या तथा धूपं द्वाद्दण्या दीपमेवच ॥ नैवेद्यन्तु त्रयोदश्या नमस्कारे चतुर्दशी।
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पराशरमाधवः।
१०,या का।
प्रदक्षिले पञ्चदशी व्यजने* षोड़शी तथा ॥ स्नाने वस्त्रे च नैवेद्य दद्यादाचमनं तथा। हुत्वा षोडशभिर्मन्त्रैः षोड़शान्नस्य चाहतीः॥ पुनः षोड़शभिर्मान्तैर्दद्यात् पुष्पाणि षोड़श । तच्च म जपेद्यः पौरुषं सूक्तमुत्तमम् ॥ अचिरात् सिद्धिमाप्नोति होवमेव समाचरन् । ध्येयः सदा सवित-मण्डल-मध्य-वर्ती नारायणः सरमिजामन-मन्निविष्टः । केयरवान् कनक? कुण्डलवान् किरीटी
हारी हिरण्मय-वपुर्धत-शङ्ख-त्रकः” इति । बौधायनोऽपि,-" अथातो महापुरुषस्याहरहः परिचा || विधि व्याख्यास्यामः । स्नात्वा एचिः शुचौ देशे गोमयेनापलिप्य प्रतिकृतिं कृत्वा फल, पुष्पैर्यथालाभमर्चयेत्। मह पुष्योदकेन महापुरुषमावाहयेत्। ॐः पुरुषमावाहयामि, ॐभुवः पुरुषमावाहयामि, सुवः पुरुषमावाहयामि ॐ भूर्भुवःसुवः महापुरुषमावाहयामीत्यावाह्य, पायातु** भगवान् महापुरुष इत्येतेन स्वाग
* शयने,-इति मु° पुस्तके पाठः । 1 घण्मासात्,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
समच्चे येत्, इति मु. पन्तके पाठः । $ मकर,-इति मु० पुस्तके पाठः । ॥ परिचर्चा,-इति शा० स० पुस्तकयाः पाठः। पा व्यक्षत,-इति मु० पुस्तके पाठः । ** पुरखमाबाहयामीत्याबाहयेत् ,-इति स० मा० शा• पुस्तकेषु पाठः।
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१०,०का • ।
पराशरमाधवः ।
३३१
तेनाभिनन्दति; खागतमधुना भगवतो महापुरुषस्य, भगवते महापुरुषायैतदामन* मुपालप्तमत्रास्थतां भगवन् महापुरुषेति, कूच्चे ददाति भगवतोऽयं कूदर्भमयस्त्रि वृद्धरितसुवर्मस्तं जुषस्वेत्यत्राधस्थानानि कल्पयत्यग्रतः शङ्खाय कल्पयामि, परतश्चक्राय कल्पयामि, दक्षिणतो गदायै कल्पयामि, वामतो वनमालायै कल्पयामि, पश्चिमतः श्रीवत्साय कल्पयामि, गरुत्मते कन्पयामि, उत्तरतः श्रियैकल्पयामि, सरस्वत्यै कल्पयामि, पश्यै कल्पयामि, तुल्यै कल्पयामि, अथ साविया पात्रमभिभव्य प्रक्षाल्य परिषिच्याप पानीय मह पवित्रेणादित्यं दर्शयेदोमिति स्नानं, त्रीणि पदा विचक्रमति पाद्यं दद्यात्, प्रणवेनायमथ व्याहृतिभिर्निमाल्यं व्यपाहोत्तरतोविव्वक्सेनाय नम इत्यथैनं नापयत्यापोहिष्ठामयोभुवः, इति तिसृभिः, ब्रह्मयज्ञानं वामदेव्यची यजुः पवित्रणेत्येताभिः षभिः स्नापयित्वाऽथाद्भिस्तर्पयति; केशवं नारायणं माधवं गोविन्द्र विष्णु मधुसूदनं त्रिविक्रम वामनं श्रीधरं हृषीकेशं पद्मनाम दामोदरं तर्पयित्वाऽथैतानि वस्त्रयज्ञोपवीताचमनीयान्युदकेन व्याहृतिभि दत्वा, व्याहृतिभिः प्रदक्षिणमुदकं परिषिच्येदं विष्णुर्विवक्रमइति गन्ध दद्यात् , तद्विष्णोः परमं पदमिति पुष्पं, दूरावतीत्यक्षतान्, सावित्र्या धूपमुद्दीप्यस्वेति दीप, देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोवाहुभ्यां पुष्णोहस्ताभ्यां भगवते महापुरुषाय जुष्टं चरुं निवेदयामीति नैवेद्य
* स्वागतमधुना भगवतो महापुरुस्यैतदासन,-इति मु० पम्तके पाठः । + केशवं नारायणमित्यादि दामोदरान्तं तर्ययित्वाथैतानि,इति मु.
पुस्तके पाठः।
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३३२
पराशरमाधवः ।
[१०,या का।
मथ केशवादिनामभिादश पुष्यानि दद्यात्। शङ्खाय नमः, चक्राय नमः, गदायै नमः, वनमालायै नमः, श्रीवत्माय नमः, गरुत्मते नमः, श्रिये नमः, सरस्वत्यै नमः, पुश्यै नमः, तुष्यै नमः,-इत्यवशिष्टेर्गन्धमाल्यै ब्राह्मणानलङ्कृत्य अथैनं ऋग्यजुःसामभिः । स्तुवन् ध्रुवसतं जपित्वा पुरुषसतं वाऽन्यांश्च वैष्णवान्मन्त्रानित्येके । ॐभूर्भुवः सुवरोम् भगवते महापुरुषाय चरु मुद्दासयामीति चरुमुद्दास्याद्वासनकाले ॐभूः पुरुषमुद्दासयामि, ॐ भुवः पुरुषमुद्दामयामि, सुवः पुरुषमुद्दामयामि, भूर्भुवःसुवः महापुरुषमुद्दामयामीत्युदास्य प्रयातु भगवान् महापुरुषोऽनेन हविषा हप्तोहरिः पुनरागमनाय पुनः सन्दर्शनाय चेति । प्रतिमास्थानेनेष्वपखनावाहन-विसर्जन-वन्ज । सर्व समानं महत्वस्त्ययनमित्याचक्षते, महत्वस्त्ययनमित्याह भगवान् बौधायनः" इति । कूर्मपुराणेऽपि,
"न विषवाराधनात् पुण्यं विद्यते कर्म वैदिकम् । तस्मादिनादी मध्यान्हे नित्यमाराधयेद्धरिम् । तद्विष्णोरिति मन्त्रेण सून पुरुषेण च ।
नैताभ्यां सदृशोमन्त्रो वेदेषूनश्चतुर्चपि" इति । एवं वैष्णधदर्शनानुमारि-पूजा ज्ञातव्या ।
"अथवा देवमाशानं भगवन्तं मनातनम्।
* गन्धयुष्यै,-इति मु. पुस्तके पाठः । + ऋग्यजुःसामाथर्वभिः, इति मु० पुस्तके पाठ। प्रतिमादिस्थानेष्वस्वमावावाहनविसर्जनवर्ज,-इति मु.पुस्तके पाठः । तस्मादनादिमध्यान्तं,-इति शा० पुस्तके पाठः ।
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११०,था का०]
पराशरमाधवः ।
३३३
आराधयेत् महादेवं भाव-पूतो महेश्वरम् । मन्त्रेण रुद्र-गायत्या प्रणवणाथवा पनः ॥ ईशानेनाथवा रौस्त्रयम्बकेन समाहितः । पुष्यैः पत्ररथाद्भिवा चन्दनाद्यैर्महेश्वरम्। नथॉनमः शिवायेति मन्त्रेणानेन वा यजेत् ॥ नमस्कान्महादेवस्मृतं सत्यमितीश्वरम् । निवेदयीत चात्मानं यो ब्रह्माणमितीश्वरम् ॥ प्रदक्षिणं दिजः कुर्यात् पञ्च ब्रह्मणि वा जपेत् ।
ध्यायीत देवमीशानं व्योम-मध्य-गतं शिवम्" इति । बौधायनोऽपि,-"अथातो महादेवस्थाहरहः परिचा-विधि व्याख्यास्यामः । स्नात्वा शुचौ देशे गोमयेनोपलिष्य प्रतिकृति कृत्वाऽक्षत-पुष्पैर्यथालाभमर्चयेत्। सह पुष्योदकेन महादेवमावाहयेत् ।
भूमहादेवमावाहयामि, ॐभूवो महादेवमावाहयामि, ॐसुवः महादेवमावाहयामि, भूर्भुवःसुवः महादेवमावाहयामीत्यावाह्य, आयातु भगवन्महादेव इत्यथ स्वागतेनाभिनन्दति; स्वागतमधुना भगवते महादेवाय एतदासनमुपकुप्तमत्रास्यतां भगवन् महादेव इत्यत्र कूच ददाति भगवतोऽयं कुदर्भमयस्त्रिवृद्धरितसुवर्णस्तं जुषखेत्यत्र स्थानानि कल्पयत्यग्रता विष्णवे कल्पयामि ब्राह्मले कल्पयामि, दक्षिणतः स्कन्दाय कल्पयामि विनायकाय कल्पयामि, पश्चिमतः शूलाय कल्पयामि महाकालाय कल्पयामि, उत्तरतः उमायै कल्पयामि नन्दिकेश्वराय कल्पयामीति कल्पयित्वाऽथ माविच्या पात्रमभिमन्य प्रक्षाल्य त्रिरपः पवित्रमपत्रानीय सह पवित्रणादित्य
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पराशरमाधवः।
धा.का.1
दर्शयेदो मिति स्नानं, पठितिरुण पाद्यं दद्यात्, प्रणवेनार्थमथ व्याहृतिभिनिभाल्यं व्यपोह्योत्तरतश्चण्डेशाय नम इत्यथैनं स्नापयित्वा
आपोहिष्ठामयोभुवहति तिसृभिहिरण्यवर्णाः शुचयः पावकाहति चतमृभिः पवमानः सुवर्जन इत्यनुवाकेन स्नापयित्वा अभिस्तर्पयति महादेव । तर्पयामि शवं देवं तर्पयामि ईशानं देवं तर्पयामि पशुपतिं देवं तर्पयामि रुद्रं देवं तर्पयामि उग्रं देवं तर्पयामि भीमं देवं तर्पयामि महान्तं देवं तर्पयामि इति तर्पयित्वाऽथैतानि वस्त्रयज्ञोपवीताचमनीयान्युदकेन ध्याहृतभिर्दला, व्याहृतिभिः प्रदक्षिणमुदकं परिषिच्य, नमस्ते रुद्र मन्यवहति गन्धं दद्यात् , सहस्त्राणि सहस्रशइति पथ्यं दद्यात् , ईशानं त्वा भुवनानामधिश्रियमित्यक्षतान् दद्यात् , माविया धूपमुद्दीप्यखेति दीपं देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनावाहुभ्यां पुष्णोहस्ताभ्यां भगवते महादेवाय जुष्टं चरं निवेदथामीति नैवेद्यं, अथाष्टभिर्नामधेयरष्टौ पथ्याणि दद्यात् ; भवाय देवाय नमः शर्वाय देवाय नमः ईशानाय देवाय नमः पशुपतये देवाय नमः रुद्राय देवाय नमः उग्राय देवाय नमः भीमाय देवाय नमः महते देवाय नमः विष्णवे नमः ब्राह्मणे नमः स्कन्दाय नमः विनायकाय नमः शलाय नमः महाकालाय नमः उमायै नमः नन्दिकेश्वराय नमःइति चरुशेषेणारभिर्नामधेयरष्टाहुतीर्जुहोति भवाय देवाय स्वाहेत्यादिभिर्हत्वाऽवशिष्टैर्गन्धमाल्यैाह्मणानलंकृत्याथैनं ग्यज:सामभिः स्तुवन्ति, सहस्राणि सहस्रश इत्यन वाकं जपि
* चण्डाय, इति शा० पुस्तके पाठः । । भवं देवं,-इति मु० प के पाठः ।
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१ला ,या का।
पराशरमाधवः ।
त्वाऽन्यांश्च गैद्रान् मन्त्रान्यथाशकि जपित्वा, ॐभूर्भुवःसुवरोमिति महादेवाय चरुमुद्रास्वोदासनकाले* ॐभूः नहादेवमुद्दामयामीति प्रतिमन्त्र रुद्रमुद्दास्य ।
प्रयातु भगवानीश: सर्व-लोक-नमस्कृतः ।
अनेन हविषा हप्तः पुनरागमनाय च ॥ पुनः सन्दर्शनाय वेति । प्रतिमा स्थानेष्वपस्वग्नावाइन-विस-- जन-वज सब्बै समानं, महत् स्वस्त्ययनमित्याचक्षतइत्याह भगवान् बौधायनः" इति । शिवार्चनं प्रशंसति नन्दिकेश्वरः,
"यः प्रदद्याद् गवां लक्षं दोगधीणां वेद- पारगे । एकाहमर्चयेल्लिङ्गं तस्य पुण्यं ततोऽधिकम् । सकृत् पूजयते यस्तु भगवन्तममापतिम् ।
अस्यास्वमेधादधिकं फलं भवति भूसराः" इति । निर्माल्य गन्धोऽपि धार्यः । “देवानभ्यर्च गन्धेन"-इत्यादि स्मति विधानात्।। देवार्चनाकरणे दोषः कूर्मपुराणेऽभिहितः,
“योमोहादथवाऽऽलस्यादकृत्वा देवताऽर्जनम् । भुत स याति नरकं सूकरेष्वपि जायते"-इति ।
॥०॥ इति देवता-पूजा-प्रकरणम् ॥०॥ * भूर्भुवः स्वरोम् भगवते महादेवमुद्दासयामीत्यादिभिः रुद्रमुद्दासनकाले,
-इति स० प्रा० पस्तकयाः पाठः । प्रतिमन्त्रमिति नास्ति स० शा० स० पुस्तकेषु ।। 1 चेति,-इति शा. पस्त के पाठः । $ प्रतिमादि,-इति मु० पुस्तके पाठः । || निर्माल्यगन्धोऽपि,-इत्यादिः एतदन्तीग्रन्तो नास्ति मुद्रितातिरिक्ती
पुस्तकेषु।
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३३६
पराशरमाधवः।
चाका.।
अथ मुरु-पूजा-प्रकरणम् । ___ एवं मूलवचनोक-देवता-पूजनं निरूपितम् । ‘देवतानाञ्च'-दति चकारेण गुरु समुचिनोति । गुरोरपि देवतावत् पूजनीयत्वात् । श्रतएव श्रुतिः,
“यस्य देवे परा भनिर्यथा देवे तथा गरौ ।
तस्यैते कथितार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः" इति । शैवपुराणे,
“योगुरुः स शिवः प्रोको यः शिवः स च शङ्करः । शिव-विद्या-गुरूणाञ्च भेदोनास्ति कथञ्चन ॥ शिवे मन्त्रे गुरौ यस्य भावना सदृशी भवेत् । भोगोमोक्षश्च मिद्धिश्च शीघं तस्य भवेद्बुवम्॥ वस्त्राभरणमाल्यानि शयनान्यासनानि च । प्रियाणि चात्मनोयानि तानि देयानि वै गुरोः ॥
तोषयेत्तं प्रयत्नेन मनसा कर्मणा गिरा" इति । मनुरपि,
"दमं लोकं मान-भत्या पिट-भक्त्यातु मध्यमम् । गुरु-शुश्रूषया चैव ब्रह्म-लोकं मम श्रुते ॥ म तस्यादृताधी यस्यैते त्रय आदृताः। अनादृताश्च यस्यैते सास्तस्याफलाः क्रियाः ॥ यावत् त्रयस्ते जीवेयुस्तावन्नान्यं समाचरेत् । तेष्वेव नित्यं शुश्रूषां कुर्यात् प्रिय-हिते रतः" इति ।
॥०॥ इति गुरुपूजा-प्रकरणम् |० ।
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१अ०,आका
पराशरमाधवः।
३३७
अथ वैश्वदेव-प्रकरणम् । पञ्चमभाग-कृत्यमाह दक्षः,
"पञ्चमे च तथा भागे संविभागो यथाऽहतः । पिट-देव मनुष्याणां कीटानां चोपदिश्यते”–दति । यद्यपि, 'आतिथ्यं वैश्वदेवञ्च'-इत्यातिथ्यस्य पूर्वभावित्वं मूलवचनानं, तथापि वैश्वदेवस्य देवपूजाऽनन्तरभावित्वं नृसिंहपुराणेऽभिहितम्,
"पौरुषेण च सकेन ततोविष्णुं समर्जयेत् ।
वैश्वदेवं ततः कुर्याद्वलिकर्म तथैव च”-दति ॥ तत्र, 'ततः'-दति* पञ्चमी-श्रुत्या क्रमः प्रतीयते, मूलवचने तु पाठमात्रेण । पाठातत्-सन्निधिरूपाच्छ्रुतिर्वलीयमी, इति श्रुतिलिङ्ग-सूत्रे (मी० ३३० ३पा० १४सू ० ) व्यवस्थापितम् । तस्मावैश्वदेवं प्रथमं कर्त्तव्यम् । एवञ्च सति, वेदपाठोऽप्यनुग्टहीतोभवति;- "देवयज्ञः पिटयज्ञोभूतयज्ञो मनुष्ययज्ञो ब्रह्मयज्ञः"इति । स्मालीच पाठाईदिकः पाठोवलीयानिति विरोधाधिकरण (मी० १७० ३पा० २१०) न्यायेनावगम्यते । तस्मादपि वैश्वदेवस्य प्राथम्यम् । तत्र, वैश्वदेवं विधत्ते व्यामः,
"वैश्वदेवं प्रकुर्वीत स्व-शाखा-विहितं ततः । संस्कृतान्नैहि विविधैर्हविष्यव्यञ्जनान्वितैः । ॥
* ततस्ततइति, इति मु० पुस्तके पाठः । + पाठान्तरनिरूपिका तिर्वलीयसीति,-इति मु० पुस्तके पाठः। 1 हविर्व्यिञ्जनान्वितः,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
43
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३३८
परापारमाधवः ।
धा०,का०।
तैरेवान्नैर्वलिं दद्याच्छषमालाव्य वारिणा।
कृत्वाऽपमव्यं ग्वधया सर्वदक्षिणतो* हरेत्”-दति । ततोदेवार्चनानन्तरमित्यर्थः। नागयणोऽपि,
"मभायंस्तु चि: स्नातो विधिनाऽऽचम्य वाग्यतः ।
प्रविश्य सुमिद्धेनौ वैश्वदेवं ममाचरेत्”-दति । कृर्मपगणेऽपि,
"मालाग्नौ लौकिके वाऽथ जले भूभ्यामथापि वा। वैश्वदेवस्तु कर्तव्यो देवयज्ञः स वै स्मृतः ।। यदि स्थानो किके पाकः ततोऽन्नं तत्र यते।।
शालागौ तु पचेदन्नं । विधिरेष सनातनः' इति । अङ्गिराः,. "शालाग्नौ वा पचेदन्नं लौकिके वाऽपि नित्यशः ।
यम्मिन्ननौ पचेदन्नं तस्मिन् होमो विधीयते"-इति । शालात पोऽपि,
“लौकिके वैदिके वाऽपि हतोत्सृष्टे जले क्षितौ ।
वैश्वदेवस्तु कर्त्तव्यः पञ्चसुनाऽपनु त्तये"-दति । सुनाः पञ्च दर्शयति यमः,
“पञ्च सूना ग्टहम्यस्य वर्तन्तेऽहरहः मदा । कण्डनी पेषणी चुन्नी जलकुम्भ उपस्करः । * सव्वं दक्षिणतो,---इति मु. पस्तके पाठः।
हावयेत्, इति शा० स० पन्तकयाः पाठः। | शालामौ तत्र वै दत्तं,--इति शा० स० पुस्तकयोः पाठः । इ खगिइनी,-इति मु० पम्त के पाठः । एवं परत्रा
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१का०, प्र०का० । ]
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पराशर माधवः ।
*
एतानि वारयन् विप्रो वध्यते वै मुहुर्मुहः । एतासां पावनार्थाय पञ्च यज्ञाः प्रकीर्त्तिताः" इति । सुना हिंसा - स्थानानि । कण्ड़नी मुषलोलूखलादिः । पेषणी दृशदुपलादिः । चुली पाक -स्थानम् । जलकुम्भः उदकस्थानम् । उपस्करः शूर्पादिः । श्रवस्कर:, इति पाठे, मार्जन्यादिर्द्रष्टयः । एताः सुनाः स्वस्वकार्थं प्रापयन् पापेन युज्यते, - इत्यर्थः । तच्च काल- येऽपि कर्त्तव्यमित्याह कात्यायनः, -
" सायं प्रातर्वैश्वदेवः कर्त्तव्योवलिकर्म च ।
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अनमताऽपि सततमन्यथा किल्विषी भवेत् " - इति । होम - प्रकार माहाश्वलायन:, - “अथ मायं प्रातः सिद्धस्य हविष्यस्य जुहुयादग्निहोत्र - देवताभ्यः सेामाय वनस्पतये श्रग्नीषोमाभ्यामिन्द्रानिभ्यां द्यावापृथिवीभ्यां धन्वन्तरये इन्द्राय विश्वेभ्यो देवेभ्यो ब्रह्मणे स्वाहा”— इति । इविष्यस्येति हवियोग्य स्येत्यर्थः । श्रग्निहोत्र - देवताभ्यः सूर्य्याद्मप्रजापतिभ्य इत्यर्थः । श्रापस्तम्बोऽपि "औपासने पचने वा षङ्गिराद्यैः प्रतिमन्त्रं हस्तेन जुहुयादुभयतः परिषेचनं यथा पुरस्तात्" इति । श्राद्यैरनुवाकादावुतैरग्नये स्वाहा इत्यादिभिः स्विष्टकृदन्तैः । उभयतः कमीदावन्ते चेत्यर्थः । कात्यायनेोऽपि -- “वैश्वदेवादन्वात्पर्युच्य स्वाहाकारैर्जुहुयात् ; ब्रह्मणे प्रजापतये ग्गृह्येभ्यः" काश्यपायानुमतये " - इति । श्रत्र यथास्वशाखं व्यवस्था । हातव्यान - संस्कार माह, व्यासः, -
३३६
गृहेभ्यः, इति मु० पस्तके पाठः ।
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परापारमाधवः ।
था.का.
"जयात मर्पिषाऽभ्यक तेल-क्षार-विवर्जितम् ।
दध्यकं पयसा तं वा तदभावेऽम्बुनाऽपि वा"-दूति ॥ द्रव्यानुकन्पश्चतुर्विंशतिमते दर्शितः, -
"अलाभे येन केनापि फलशाकोदकादिभिः । पयोदधिघृतैः कुर्याद्वैश्वदेवं स्रवेण तु ।
हस्तेनानादिभिः कुर्यादभिरचलिना जले" - इति । यदद्यते तेनैव होतव्यम् । तदुक्तं ग्टह्यपरिशिष्टे,
"माकं वा यदि वा पत्रं मूलं वा यदि वा फलम्।
सङ्कल्पयेद्यदाहारस्तेनैव जुहुयादपि”- इति । क्षार-लवण-परान्न-मंसृष्टेन हविष्येन* हामोऽमा न कार्य:, किन्तषणं भस्माग्न्यायतनानुत्तरतोऽपाह्य तस्मिन् हातव्यम् । तदाहापस्तम्बः,“न क्षार-लवण-होमाविद्यते, तथा परान्न-संसृष्टस्य इविष्यस्या होमः, उदीचीनमुष्णं भस्मापोह्य तम्मिन् जुहुयानद्धृतमहुतं चानो भवति" इति । परिशिष्टेऽपि,
"उत्तानेन तु हस्तेन ह्यङ्गुष्ठाग्रेण पीड़ितम्।
संहताङ्गुलिपाणिस्तु वाग्य तो जुहुयाद्धविः" इति । अननिकस्य वैश्वदेवे विशेषमाह वृद्धवशिष्टः,
"अननिकस्तु योविप्रः सेाऽन्नं व्याहृतिभिः खयम् । हुवा शाकल-मन्तश्च शिष्टं काक-वलिं हरेत्" इति ।
* संसृछेनाहविष्येण,- इति स० सो० शा० पुस्तकेषु पाठः । + संसृयस्याहविष्यस्य,-इति स० सो० शा० पुस्तकेषु पाठः ।
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१ब,या का०]
पराशरमाधवः ।
देवकृतस्यैनम इत्याद्याः शाकलमन्त्राः । विष्णरपि,
"अन्नं व्याहृतिभिर्डत्वा हुवा मन्तैश्च शाकलैः ।
प्रजापतेईविडत्वा पूजयेदतिथिं ततः" इति । भृतयज्ञः कूर्मपुराणे दर्शितः,
"देवेभ्यस्तु हुतादनाच्छषामृत-वलिं हरेत् ।
भूतयज्ञः मवै प्रोको भूतिदः सर्चदेहिनाम्" इति । हारीतोऽपि,-"वास्तुपाल-भूतेभ्यो वलिहरणं भूतयज्ञः” इति । कात्यायनोऽपि,
"उद्धृत्य हविषाऽऽषिय हविष्येण घृतादिना ।
स्व-शाखा-विधिना हवा तच्छेषेण वलिं हरेत्" इति । गौण-कर्चनाहात्रिः,
"पुत्रोधाताऽथवा ऋत्विक् शिष्यः श्वर-मातुलाः ।
पत्नी-श्रीचिय-याज्याश्च दृष्टास्तु वलिकर्मणि" इति । रहे कञन्तराभावे प्रवसता स्वयमेव कर्त्तव्यमित्याह बौधायनः,
"प्रवास गच्छतोयस्य ग्टहे का न विद्यते ।
पञ्चानां महतामेषां स यजैः सह गच्छति"-दूति । वलि-हरण-प्रकारमाह शौनकः,-"अथ वलिहरणमताभ्यश्चैव देवताभ्योऽय ओषधिवनस्पतिभ्यो ग्रहाय ग्रहदेवताभ्यो वास्तुदेवताभ्य इन्द्रायेन्द्रपुरुषेभ्योयमाय यमपुरुषेभ्यो वरुणाय वरुणपुरुषेभ्यः सोमाय सोमपुरुषेभ्यः, इति प्रतिदिशं, ब्रह्मणे ब्रह्मपुरुषेभ्यः, इति मध्ये, विश्वेभ्यो देवेभ्यः सर्वेभ्योभूतेभ्यो दिवागरिभ्यः, इति दिवा, ननं चारिभ्यः, इति ननं, रक्षोभ्यः, इति उत्तरतः, स्वधा पिढभ्यः,
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३४२
परापारमाधवः।
(१०,आका० ।
इति प्राचीनावीती शेषं दक्षिणा* निनयेत्” इति। आपस्तम्बोऽपि,-"अपरेणाग्निं सन्तमाटमाभ्यामुदगपवर्गमुदधान-मंनिधौ नवमेन मध्येऽगारस्य दशमैकादशभ्यां प्रागापवर्गमुत्तरपूर्वदेशेऽगारस्योत्तरैश्चतुर्भिः शय्यादेशे कामलिङ्गेन देहल्यामन्तरिक्षलिङ्गेनोत्तरेणापिधान्यामुत्तरेब्रह्ममर्दन दक्षिणतः पिटलिङ्गेन प्राचीनावीती अवाचीनपाणि: कुर्यात् , रौद्र उत्तरतो यथा देवताभ्यस्तयोनाना परिषेचनं तयोधर्मभेदान्त्रकमेवोत्तरेण वैहायसम्" इति । मार्कण्डेयोऽपि,
"एवं ग्टहवलिं कृत्वा रहे ग्रहपतिः शुचिः ।
पाप्यायनाय भूतानां कुर्यात्सर्गमादगत्'-इति । कूर्मपुराणे च,
"श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च पतितेभ्यस्तथैव च ।
दद्याद्भूमौ वहिश्चान्नं पतिभ्याऽथ दिजोत्तमः" इति । मनुरपि,
"शनाञ्च पतितानाञ्च स्वपचा पापरोगिणाम् ।
वायमानां कृमीनाञ्च शनर्निर्वपेङ्गवि"-इति । अन्नमिति शेषः । अन्नोत्मर्गमन्त्री विष्णुपुराणे दर्शितः,
"देवामनुय्याः पशवावयांस सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसङ्घाः । प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ताये चान्नमिच्छति मया प्रदत्तम् ।
* दक्षिणायां,--इति मु० पुस्तके पाठः । + मुत्तरे ब्रह्मसदने,-इति शा० स० पुस्तकयाः पाठः ।
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१अाका]
पराशरमाधवः ।
३४३
पिपीलिकाः कीटपतङ्गकाद्याबुभुक्षिताः कर्मनिवन्धवद्धाः । प्रयान्त ते बप्तिमिदं मयाऽन्नं तेभ्यो विस्मृष्टं सुखिनोभवन्तु । येषां न माता न पिता न वन्धु,नैवानमिद्धिर्न तथाऽन्नमस्ति । तत् दप्तयेऽनं भुवि दत्तमेतत् प्रयान्तु हप्तिं मुदिता भवन्तु । भृतानि सर्वाणि तथाऽनमेतत् अञ्च विष्णुन ततोऽन्यदस्ति । तस्मादिदं भूतहिताय भूतमन्नं प्रयच्छामि भवाय तेषाम् । चतुर्दशे लोकगणो यएष तत्र स्थिताये किल भूतसङ्घाः । प्यर्थमन्नं हि मया विसृष्टं
तेषामिदं ते मुदिता भवन्तु । इत्युच्चार्य नरोदद्यादन्नं श्रद्धा-समन्वितः ।
भुवि भूतोपकाराय ग्टही सर्वाश्रयोयतः" इति । पिढयज्ञः श्रुत्या दर्शितः,-"यत् पिढभ्यः स्वधाकरोत्यप्यपस्तत्पित्यज्ञः सन्तिष्ठते"-इति । कात्यायनोऽपि,
"अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पित्यज्ञस्तु तर्पणम् । होमोदैवोवलि तो नयज्ञोऽतिथि-पूजनम् ॥
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३४४
पराशरमाधवः ।
[१०,या का।
श्राद्धं वा पित्यज्ञः स्थात् पित्रोवलिरथापि वा" - इति । अत्र, यथास्वशाख व्यवस्था । श्राद्धं चात्र नित्यश्राद्धम् । तथा कूर्भपुगणम्,
"एकन्तु भोजयदिनं पिनुद्दिश्य सप्तमः ।
नित्यश्राद्धं तदुद्दिष्टं पित्यज्ञोगति-प्रदः"-दति । मार्कण्डेयोऽपि,
"कुर्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्यनादकेन वा ।
पिन द्दिश्य विप्रास्तु भोजयेदिप्रमेव वा" इति । नित्यश्राद्ध-प्रकारो मत्स्यपुराणे दर्शितः,
"नित्यं तावत् प्रवक्ष्यामि अावाहन-वर्जितम् ।
अदैवं तद्विजानीयात् पावणं तद्धि कीर्तितम्" इति । प्रचेताः,
"नावाहनागौकरणं न पिण्डं न विम नम्”–दति । व्यासोऽपि,
“नित्य श्राद्धेऽर्यगन्धायै ढिजानभ्यर्च्य शक्तितः । सर्वान् पित्गणान् सम्यक सहैवोद्दिश्य भोजयेत् ॥ श्रावाइन-वधाकार-पिण्डागौकरणादिकम् । ब्रह्मचर्यादि-नियमो विश्वेदेवास्तथैव च ॥ नित्यश्राद्धे त्यजेदेतान् भोज्यमन्त्र प्रकल्पयेत् । दत्वा तु दक्षिणां शत्या नमस्कारैविसर्जयेत् ॥
एकमप्याशयेन्नित्यं षणामप्यन्वहं ग्टही"-इति । कात्यायनः तत्रानुकल्पमार -
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१०,वाका
पराशरमाधवः ।
"एकमप्याशयेन्नित्यं पित्यज्ञार्थ-मिद्धये । प्रदेवं, नास्ति चेदन्योभोका भोज्यमथापि वा ॥ अभ्युद्धृत्य यथाशक्ति किञ्चिदन्नं यथाविधि । पिटभ्यद्दमित्युक्त्वा स्वधाकारमुदाहरेत्""-इति । उद्धृतमन्नं ब्राह्मणाय दद्यात। तदुकं कुर्मपुराणे,
"उद्धृत्य वा यथाकि किचिदन्नं ममाहितः । बेद-तत्त्वार्थ-विदुषे दिजायेवोपपादयेत्" इति । "दद्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्यनोदकेन वा।
पयोमूलफलैबीऽपि पिढभ्यः प्रीतिमावहन् । तएते देवयज्ञ-भूतयज्ञ-पित्यज्ञास्त्रयोऽपि वैश्वदेव-शब्देनोयन्ते । यत्र विश्वेदेवाइज्यन्ते तवैश्वदेविकं कर्म । देवयज्ञे च, विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहेति पठितत्वात् तत्रैतनाम मुख्यम् । येषान्तु शाखायां भृतयजेऽप्ययं मन्त्रोऽन्ति, तेषां तत्राथेतन्मुख्यम् । पिठ्यज्ञे तु कृत्रिन्यायेन तन्नाम-प्रवृत्तिः । अथवा, मूलवचने, 'वैश्वदेवच' इति च कारेण पित्यज्ञादिकमनुक्रं समुचीयते ।
यद्यपि, “मायं प्रात: मिद्धस्य इविष्यस्य मुद्रयात्" इति वचनेन वैश्वदेवस्यान्त्र-मस्कारता प्रतीयते, तथापि पुरुषार्थत्वमेवाभ्युपेयम् । “तानेतानहरहः कुर्वीत" इति वाक्यशेषे तदवगमात् । नोभयार्थत्वं शनीयं, परस्पर-विरोधात्। अत्र-संस्कारत्वे हनम्य प्राधान्यं वैश्वदेवस्य गुणता, पुरुषार्थन्वे तु तदिपर्यायः । तथा १ • तचास्मै ब्राह्मणायेति दत्त्वा भुञ्जोत वाग्यतः, इत्यईमधिकं मु पलके। + अयं लोकोमुद्रितातिरिक्तपुस्तकेषु न दृश्यते ।
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३४६
[१८०, आ०का० ।
युगपत् प्राधान्यं गुणत्वं च विरुयेयाताम् । तस्त्वन्न
सति, एकस्यैव संस्कारव, मा भूत् पुरुषार्थत्वमिति चेत् । तन्न, "महायज्ञेश्च यज्ञेश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः " - इति मनुना पुरुषार्थत्व- स्मरणात् । यत्तु -- " सिद्धस्य हविष्यस्य जुहुयात्" — इत्युदाहृतं, तदन्यथाप्युपपद्यते । तच, जुहुयादित्युत्पत्तिविधिः । सिद्धस्य हविष्यस्येति विनियोगविधिः । तानेतानहरहः कुर्व्वीतेत्यधिकारः । किञ्च श्रन्न संस्कार- पक्षे प्रतिपाकमावृत्तिः प्रसज्येत, " प्रतिप्रधानं गुणावृत्तिः " - इति न्यायात् । तस्मात्, पुरुषार्थत्वमेवन्याय्यम् । अतएव ग्टह्मपरिशिष्टेऽभिचितम् -
>
पराशरमाधवः ।
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“प्रोषितोऽप्यात्म-संस्कारं कुर्य्यादेवाविचारयन्” – इति ।
-
गोभिलोऽपि – “यद्येकस्मिन् काले व्रीहि-यवौ पच्येयातां ; अन्यतरस्य हुत्वा कृतं मन्येत, यद्येकस्मिन् काले पुनः पुनरनं पच्येत ;
देव वलिं कुर्वीत, यद्येकस्मिन् काले बजधाऽन्नं पच्यते ; गृहपतिमहानसादेवैतं वल्डिं कुर्वीत " - इति । श्रयमर्थः । नानाद्रव्यकान्नपाके पुनः पुनरन्नपाकेऽपि बहूनामविभक्तानां भ्रात्रादीनां पृथक पृथक् पाकेऽपि, एकस्मादेव द्रव्यात् सहदेव गृहपति पाकादेव हातव्यमिति । ॥ ० ॥ इति वैश्वदेवप्रकरणम् ॥ ० ॥
अथातिथ्यापरनामकेा मनुष्ययज्ञोनिरूप्यते ।
श्रातिथ्यस्य मनुव्ययज्ञत्वं कात्यायनेनेाक्रम्,—
5g
" श्रध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पियज्ञस्तु तर्पणम् । होम|देवो वलिर्भूता नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्" - इति ।
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११.पाका)
परापारमाधवः।
श्रुतिरपि,-"यहाह्मणेभ्योऽनं ददाति तन्मनुष्ययशः मन्तिष्ठते"इति । बौधायनाऽपि,-"अहरहः ब्राह्मणेभ्योऽनं दद्यान्मूल-फलशाकानि वेत्यथैनं मनुव्यय समाप्नोति” । कालीजिनिरपि,
"भिक्षां वा पुस्कलं वाऽपि इंतकारमथापि वा ।
असम्भवे तथा दद्यादुदपात्रमथापि वा"-इति । कूर्मपुराणेऽपि,
"इतकारमथाग्रं वा भिक्षा वा शक्रितो द्विजः ।
दद्यादतिथये नित्यं वुद्ध्येत परमेश्वरम्" इति । भिक्षादि-लक्षणं मनुराह,
"ग्राममात्रं भवेभिक्षा अग्रं ग्राम-चतुष्टयम्।
अग्रं चतुर्गणीकृत्य इन्तकारो विधीयते” इति। अतिथि-निरीक्षणाय ग्रहांगणे कंचित्काल न्तिष्ठेदित्युक मार्कण्डेयपुराणे,
"प्राचम्य च ततः कुर्यात् प्राज्ञोदारावलोकनम् ।
मुहर्तस्थाष्टम भागमुदीक्ष्योयतिथिर्भवेत्” इति । বিআইঘি,
"ततो गोदोहमा वा कालन्निष्ठेद् ग्रहाङ्गणे । अतिथि-ग्रहणाीय तदूर्द्धं वा यथेच्छया"-इति ।
॥ ॥ इति मनुष्ययज्ञः ॥०॥
* सदा,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
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३४
पराशरमाधवः।
[१०, या का।
तदेवं, 'मन्ध्या स्नानम्'-दत्यम्मिन् मूलवचने खानादीन्यातिथ्याনালি অতু কবি লিবিনালি ।
न चात्र सप्तत्व-प्रतिभानात् घटत्वं विरुद्धमिति महनीयं, सन्मार्ग-न्यायेनोद्देश्य-गतायाः सयाया अविवक्षितत्वात् । यानि कर्माणि उद्देश्यगतानि, तानि दिनेदिने कर्त्तव्यानीति तेषां नित्यत्वविधानात् । सन्मार्ग-न्यायश्च हतीयाध्याये प्रतिपादितः,____ ज्योतिटोमे, “दशापवित्रेण ग्रह मंमार्टि" इति श्रूयते । तच संशयः, किमेकस्य सन्मार्गः किंवा सर्वेषामिति । तदर्थ चिन्ता; किमत्रोद्देश्य-गता माझ्या विवक्षिता उताविवक्षितेति । यथा “पाना यजेन"-इत्यच एकवचन-श्रुति-वलापादेय-पशु-गता सङ्ख्या विवक्षिता, तथैव ग्रहमित्येकवचन-श्रुति-वलादुद्देश्य-गताऽपि सङ्ख्या विवक्षिता भवितुमर्हति । तस्मादेकस्यैव ग्रहस्य सन्मार्ग प्राप्ने त्रूमः । पशोरनेनैव वचनेन याग-सम्बन्धावगमात् यागं प्रति पशोर्गुणीभूतत्वाद्यावद्गुणं प्रधानावृत्त्यभावात् कियता पानेत्यवच्छेदकाकाझायां तदवच्छेदकन्वेनैकत्व-सया' सम्बद्ध्यते, इत्युपादेय-गतायाः सङ्ख्यायाः विवक्षितत्वं युतम् । ग्रहाणात वाक्यान्तरेण याग-मम्बन्धावगमात् ममार्गवाक्ये द्वितीया श्रुत्या मार्ग प्रति ग्रहस्य प्राधान्यावगमात् प्रतिप्रधानं गुणस्य समागम्यावर्त्तनीयत्वात् कियन्तो ग्रहाः समाजानीया इत्याकाङ्गाया अनुदयादुद्देश्य-ग्रह-गता मया न
* कियता पशुनेति परिच्छेदकाकाक्षायां तत्परिच्छेदकत्येनेकत्वसंख्या, - रसि मु० पुस्तके पाठः ।
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१०,वाका•
पराशरमाधवः ।
३४
विवक्षिता। तस्मात्, मचे ग्रहाः संमार्जनीयाः । प्रकृतेऽप्युद्देश्यसन्ध्यादि-गता षट्वसंख्या न विवक्षिता।
अर्थाच्येत, अस्यां पराशरस्मृती वाक्यान्तरेण सन्ध्यादीनां निरूव्यभावादनेनैव वाक्येन नित्यत्व-विशिष्टानां तेषां उत्पादनादुपादेयगतत्वेन पश्वेकत्ववदिविवक्षितत्वमेव सङ्ख्याया युक्तमिति । एवं ताई, सन्ध्यामहितं म्नानं मन्ध्यास्ना नमिति समासे सत्यङ्गेन स्नानेन महिताया अङ्गीतायाः सन्ध्याया एकत्वेन परिंगणनाबाच षटमंख्या विरुध्यते,-इति गमयितव्यम् । ___ सन्ध्यादीनां नित्यत्वं चामिहोत्रादिवद्यावज्जीव-कर्तव्यतयाऽवगम्यते। जीवनवदधिकारित्वञ्च, दिने दिने दूति वीमयाऽवगम्यते । यथा “वसन्ते वसन्ते ज्योतिषा यजेत"-दूत्यत्र वीप्सया तदवगमस्त इत् ॥
श्रातिथ्यं वैश्वदेवं चेत्युतम्। तत्र, कीदृशोऽतिथिरित्याकाङ्क्षायामाह
इष्टी वा यदि वा द्वेष्या मूर्खः पण्डित एव वा। संप्रेतो वैश्वदेवांते सेोऽतिथिः स्वर्ग-संक्रमः॥४०॥
इष्टः मख्यादिः । तस्य च भोजनीयत्वं याज्ञवल्कोनोकम्,__ "भोजयेशागतान् काले मखि-सम्बन्धि-वान्धवान्" इति । देश्यस्य भोजनीयत्वं मनुना निन्दितम्,
"काममभ्ययेन्मित्रं नाभिरूपमपि त्वरिम् । द्विषता हि इविभुक भवति प्रेत्य निष्फलम्" इति ।
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३५०
परापारमाधवः ।
१५०या०का ।
एवं सत्यरि-मित्र-विवको यथा क्रियते, तथैवानियावापि तत् प्रमको तन्निराकरणाच, 'दृष्टो वा यदि वा देव्यः'-दूत्युकम् । मुर्खस्य भोजनीयत्वं स्मृत्यन्तरे निषिद्धम ;
"नटशौचे व्रतभ्रष्टे विप्रे वेद-विवर्जिते ।
दीयमानं रुदत्यन्नं किं मया दुष्कृतं कृतम्" इति । पण्डितम्य भोजनीयत्वं मनना दर्शितम्,
"श्रोत्रियायैव दयानि हव्यकव्यानि दालभिः ।
अत्तिमाय विप्राय तस्मै दनं महाफलम्" इति। एवं मति, श्राद्धादाविव वैश्वदेवान्तेऽपि पण्डित-मूर्ख-विवेक प्रसको तन्निराकरणायो, मूर्खः पण्डित एववा, इति। वैश्वदेवान्तशब्देन देवयज्ञ-भूतयज्ञादीनामुपरि घटिका-पादमात्र-परिमितः कालो विवक्षितः। तथा च मार्कण्डेयपुराण-वचनमुदाहृतम् ; 'मुहतस्याटमं भागम्'-दति । अतएव, तस्मिन् काले समागमनमेवातिथि-लक्षणं, नेतरविद्यादि । संक्रम्यतेऽनेनेति संक्रमः, स्वर्गस्य संक्रमः खर्ग संक्रमः, वर्ग-प्राप्ति-हेतुरिति यावत् । तथाचाश्वमेधिके,
"क्षतपिपासाश्रमातीय देशकालागताय च ।
सत्तत्यानं प्रदातव्यं यज्ञस्य फलमिच्छति'*-इति ॥ तमेवातिथिं विशिनष्टि,
दूराध्वोपगतं श्रान्तं वैश्वदेव उपस्थितम् । अतिथिं तं विजानीयान्नातिथिः पूर्वमागतः ॥४१॥
* दुराचोपगतं,--इति शा. पुस्तके पाठः । + पत्र, फलमिच्छता,-इति पाठी भवितुं यक्तः ।
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१५०,या का०]
पराशरमाधवः।
२५१
दूराध्योपगतं ग्रामान्तरादागतम् । श्रान्तं क्षुत्-तृष्णा-परिपीडितम् । अतएव व्यासः,
"श्रादुरादाश्रमं प्राप्तः* क्षत-तृष्णा-श्रम-कर्षितः ।
यः, पूज्यतेऽतिथि: सम्यगपूर्वक्रतुरेव मः" इति । नातिथिः पूर्वमागत इति, तस्मिन्नेव दिनेऽतिथिोंत्तरेद्युरित्यर्थः । तथा च मनुः,
____ "एकरात्रं हि निवसन्नतिथि ब्राह्मणः स्मृतः" इति । वैश्वदेव उपस्थितम्, इति दिवमाभिप्रायम् । सायन्तु वैश्वदेव-काले कालान्तरे वा प्राप्तोऽतिथिरेव । तथा च मनुः,
"अप्रणोद्योऽतिथिः सायं सूर्योटो ग्टहमेधिनाम् ।
काले प्राप्तस्वकाले वा नास्थानश्नन् रहे वसेत्" इति । सूर्योट इति अस्तंगच्छता सूर्येण देशान्तर-गमनाशनिमुत्पाद्य टई प्रापित इत्यर्थः । याज्ञवल्क्योऽपि,
___"प्रणेद्योऽतिथिः मायमपि वागभणेदकैः” इति । प्रचेता अपि,
“यः सायं वैश्वदेवान्ते सायं वा ग्रहमागतः ।
देववत् पूजनीयोऽसौ सूर्योट: मोऽतिथिः स्मतः" इति ॥ दूराध्वपद-व्यावर्त्यमाह,
* अतिदूरागतः श्रान्तः, इति मु° पुस्तके पाठः । + यः पूज्यश्चातिथिः, इति मु° पुस्तके पाठः । । सम्यगयूपः क्रतुरेव,-इति मु° पुस्तके पाठः ।
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३५२
पराशरमाधवः ।
[१व्याच्या का
नैकग्रामीणमतिथिं न गृहीत कदाचन ।
अनित्यमागता यस्मात्तस्मादतिथिरुच्यते ॥४२॥ न विद्यते तिथिर्यस्थासावतिथिः। तथा च यमः,
"तिथिपर्वात्मवाः सर्वं त्यका येन महात्मना ।
मोऽतिथिः सर्वभूतानां शेषानभ्यागतान् विदुः" इति । मन्वादि-युगादि-प्रभृतिषु तिथि-विशेषेषु द्रव्य-लाभमुद्दिश्य येऽभ्यागच्छन्ति, तेऽभ्यागताः। तादृशं तिथि-विशेषमनपेक्ष्य यदा कदाचित् क्षुत्तष्णादि-पीड़या वा समागतोऽतिथिः । एवञ्च सत्येकयामीण: प्रतिनियतेषु तिथिविशेषेषु समागच्छतीति नामावतिथिः । यस्तु ग्रामान्तरादकम्मादसङ्केतितो वुभुक्षुः मन्त्रागच्छति, सोऽनित्यमागतः, मएवातिथित्वेन संग्टह्यते, नेतरः । तथा च विष्णुपुराणम्,
"अज्ञात-कुल-नामानमन्यतः समुपागतम् । पूजयेदतिथिं सम्यक् नैक-ग्राम-निवासिनम् ।।
अकिञ्चनमसंवन्धमन्य-देशादुपागतम्" इति । मार्कण्डेयोऽपि,
"न मित्रमतिथिं कुर्यात्रैक-ग्राम-निवासिनम् । अज्ञात-कुल-नामानं तत्काले समुपस्थितम् ।। वुभुत्तुमागतं श्रान्नं याचमानमकिञ्चनम् ।
* सदागच्छतीति,-इति मु पुस्तके पाठः । + समुपस्थितम्-इति मु• पुस्तके राठः ।
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११०,थाका•
पराशरमाधवः।
इ५
ब्राह्मणं प्रारतिथि म पूज्यः* शकितावुधैः” इति । मनुरपि,
"नैकग्रामीणमतिथिं विप्रं साङ्गतिकं तथा ।
उपस्थितं ग्टहे विद्याद्भाऱ्या यत्रामयोऽपिवा"-इति । एकग्रामवासी अतिथि-धर्मेणगतोऽप्यतिथिर्न भवति । तथा, माङ्गतिकः सङ्गतेन चरः; सङ्गतपूर्चादृष्टपूर्वः, इति यावत् । नापि, यत्र क्कचन देश अतिथि-धर्मेणागतोऽतिथिः। किन्त, यस्मिन् स्वकीये परकीये वा देशे भार्याऽमयो भवन्ति, तत्रैवोपस्थितोऽतिथिर्भवति ॥ अतिथेः स्वरूपं निरूप्य तस्मिन्नागते मति यत्कर्त्तव्यं तदाह,
अतिथिं तत्र सम्प्रामं पूजयेत् स्वागतादिना । अासन-प्रदानेन पाद-प्रक्षालनेन च ॥४३॥ श्रद्धया चान्नदानेन प्रियप्रश्नोत्तरेण च । गच्छंतश्चानुयानेन। प्रीतिमुत्पादयेत् गृही॥४४॥ निगद-व्याख्यातमेतच्छ्रोकदयम् । तदेतत् ब्राह्मण-विषयम् , “यहाह्मणेभ्योऽन्नं ददाति"-दति, "अइरहः ब्राह्मणेभ्योऽन्नं ददाति" -इति श्रुति-स्मृतिभ्यामुदाहतत्वात् ।। क्षत्रियादयस्तु न ब्राह्मण-रहे अतिथि-मत्कारमहंति, किन्तु भोजनमात्रम्। तथा च मनः,
* संपूज्यः, इति शा० पुस्तके पाठः । + गच्छतश्चानयानेन,-इति शा० स० पुस्तकयोः पाठः। + श्रुतिस्मृत्योरुदाहतत्वात् , इति शा० पुस्तके पाठः ।
45
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पराशरमाधवः ।
..सा.का.।
"ब्राह्मणस्य त्वनतिथि हे राजन्य उच्यते । वैश्य-शूद्रौ सवा* चैव ज्ञातयो गुरुरेव च ॥ यदि त्वतिथि-धर्मेण क्षत्रियो ग्रहमाव्रजेत् । भुक्रवत्सु च विप्रेषु कामं तमपि भोजयेत् ॥ वैश्य-शूद्रावपि प्राप्ता कुटुम्बेऽतिथि-धर्मिणौ। भोजयेत् सह भत्यस्तावानृशंस्यं प्रकल्पयेत् ॥ इतरानपि सख्यादीन सम्प्रीत्या ग्टहमागतान् ।
मत्कृत्यानं यथाशक्रि भोजयेत् मह भार्ययाय-इति ॥ श्रासनादि-दाने विशेषमाह मएव,
"श्रामनावमथे शय्यामनुव्रज्यामुपामनम् ।
उत्तमेषूतमं कुर्याद्धीने हीनं ममे ममम"-इति ।। अतिथि-सत्काराकरणे प्रत्यवायमाद,
अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रति निवर्तते। पितरस्तस्य नाश्नन्ति दश वर्षाणि पञ्च च ॥४५॥ काष्ठ-भार-सहस्रन पृत-कुम्भ-शतेन च। अतिथिर्यस्य भनाशस्तस्य होमा निरर्थकः ॥४६॥ अहमम्य ग्रहे भोक्ष्ये,-दत्याशया ममागतोऽतिथिर्यदि भाजनमप्राप्य तद्ग्टहान्निवर्त्तत, तदा टहिणा क्रियमाणं पैटकं निष्फलं स्यात् । तथा, वैदिकोऽपि विहितद्रव्याद्यङ्ग-मम्पन्नोऽपि निष्फलोभवेत्। तथा च मनुः,
* तथा,-ति शा० पुस्तके पाठः ।
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१०,या का।]
पराशरमाधवः।
३५५
"शिलाञ्छौ चरतोनित्यं पञ्चानीनपि जुहतः ।
मच सुकृतमादने ब्राह्मणोऽनर्चितोवसन्'-दति । श्राश्वमेधिकेऽपि,
"माङ्गोपाङ्गांस्तथा वेदान् पठतीह दिने दिने । न चातिथिं पूजयति स्था स पठति दिजः ॥ पाक्यज्ञैर्महायज्ञैः मामसंस्थाभिरेवच । ये यजन्ति न चान्ति रहेम्वतिथिमागतम् ॥ तेषां यशोऽभिकामानां दत्तमिष्टञ्च यद्भवेत् ।
वृथा भवति तत्मर्चमाशया इतया इतम्" इति । अत्र, सुक्कतहान्यभिधानं दुष्कृतप्राप्तेरप्युपलक्षणम्। तथा च विष्णुः,
"अतिथिर्यस्य भनाशो ग्टहस्थस्य तु गच्छति ।।
तस्मात् सुकृतमादाय दुष्कृतन्तु प्रयच्छति" इति । श्राश्वमेधिकेऽपि,
"वैश्वदेवान्तिके प्राप्तमतिथिं योन पूजयेत् । स चाण्डालत्वमाप्नोति सद्यएव न संशयः ॥ निवासयति यो विषं देशकालागतं ग्रहात् ।
पतितस्तत्क्षणादेव जायते नात्र संशयः" इति ।। अतिथि-मत्कारं प्रशंमति,
सुक्षेत्र वापयेहीजं सुपाचे निक्षिपेड्चनम् ।
सुधेचे च सुपात्रे च झुप्तं तत् न बिनश्यति ॥४॥ यथा सुक्षेत्रोप्नवीजं न विनश्यति* किन्तु महते फलाय कल्पते, * न जीयंति, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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३५६
पराशरमाधवः।
[११०,या का।
तथा सुपात्रेऽतियौ दत्तमन्नादिकमक्षयफलमित्यर्थः । तदाह मनुः,
"नैव स्वयं तदनीयादतिथिं यन्न भोजयेत् ।
धन्यं यशस्यमायुष्यं वयं चातिथि-पूजनम्"-दति ।। प्राश्वमेधिकेऽपि,
“पादाभ्यङ्गाम्बुदानस्तु योऽतिथिं पूजयेन्नरः ।
पूजितस्तेन राजेन्द्र, भवामीह न संशयः” इति । शातातपोऽपि,
"स्वाध्यायेनामिहोत्रेण यज्ञेन तपमा तथा ।
नावाप्नोति ग्टही लोकान् यथा त्वतिथि-पूजनात्"-इति॥ अातिथ्यकर्तुनियममाह,न पृच्छेहोत्र-चरणे न स्वाध्यायं श्रुतं तथा । हृदये कल्पयेदेबं । सर्ब-देवमया हि सः॥४८॥ इति।
श्राद्धे ह्यादावेव ब्राह्मण: परिक्षणीयः, इति मनुना दर्शितम्,___ "दूरादेव परीक्षेत ब्राह्मणं वेद-पारगम् ।
तीर्थं तद्धव्य-कव्यानां प्रदाने मेोऽतिथिः स्मृतः” इति । यमेनापि,
"पूर्वमेव परीक्षेत ब्राह्मणान् वेद पार-गान् । शरीर-प्रभाविशद्धान् चरित-व्रतान्” इति ।
* दत्तमन्नादिकं महाफलप्रदमित्यर्थः,-इति मु. पुस्तके पाठः ।
हृदयं कल्पयेत्तस्मिन् ,--इति मु० मू० पुस्तके पाठः । सर्वदेवसमा,-इति शा. पुस्तके पाठः ।
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१५०,या का
पराशरमाधवः ।
अतः श्राद्ध-न्यायेनातिथ्येऽपि कर्मणि गोत्रादि-परीक्षा प्राप्ती तत् निवार्यते। गोत्रं वंश-प्रवर्तक-महर्षि-सम्बन्धः । चरणमाचारः । शाखा-विशेषः स्वाध्यायः । श्रुतं व्याकरण-मीमांसादि । एतद्देश-नामा दीनामुपलक्षणम्। श्रतएव यमः,
“न पृच्छेगोत्र-चरणे देशं नाम कुलं श्रुतम् ।
अध्वनोऽप्यागतं विप्रं भोजनार्थमुपस्थितम्'-दति । न केवलं गोत्र-प्रनादि-वर्जन, किन्तईि देवता-बुद्धिपि कर्त्तव्या। सदुकं शातातपेन,
"चित्ते विभावयेत्तस्मिन् व्यासः खयमुपागतः"*-इति । विष्णुपुराणेऽपि,
"खाध्याय-गोत्र-चरणमटष्ट्वा च तथा कुलम् ।
हिरण्यगर्भ-बुद्ध्या तं मन्येताभ्यागतं ग्टही"-इति । देवता-बुद्धि-विषयत्वे हेतुः सर्व-देवमयत्वम्। तच्च पुराणमारे दर्भितम्,
"धाता प्रजापतिः शक्रोवहिर्वसुगणोयमः ।
प्रविश्यातिथिमेते वै भुञ्जतेऽनं द्विजोत्तम"-इति । गोत्रादि-प्रो फलाभावो बौधायनेन दर्शितः,
"देशं नाम कुलं विद्यां स्पष्वा योऽनं प्रयच्छति । न म तत्फलमानोति दवा खगें न गच्छति" इति ।
* व्यासं खयमुपस्थितम् ,-इति मु० पुस्तके पाठः । + प्रविश्यातिथिमेवैते,-इति मु. पुस्तके पाठः।
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परापारमाधवः।
[१०,आका।
यथाऽऽतिथ्यकती गोवादीन् न पृच्छत, तथाऽतिथिरपि न ब्रूयात् । तदाह मनः,--
"न भोजनार्थ खे विप्रः कुल-गोत्रे निवेदयेत् ।
भोजनार्थं हि ते शंसन वान्ताशोत्युच्यते बुधैः"--इति ।। अतिथि-दृष्टान्नेन भिक्षुकथोर्यति-ब्रह्मचारिणोः पूज्यतामाह,
अपूर्वः सुब्रती विप्रो हपूर्वश्चातिथिस्तथा । वेदाभ्यासरतानित्यं चयः पूज्या दिने दिने ॥४६॥ सुष्ठु व्रतं सुव्रतं मोक्षहेतुतिधर्मः, मोऽस्यास्तीति सुव्रती यतिः । वेदाभ्यास-रतोब्रह्मचारी, तदर्थत्वात् तस्याश्रमस्य । तावुभौ प्रतिदिनमपूर्वावतिथिवत् पूज्यावित्यर्थः ।तथा च याज्ञवल्क्यः,
"मत्रत्य भिक्षवे भिक्षा दातव्या सुव्रताय च"-दूति । नृसिंहपुराणेऽपि*,
"भिक्षाच्च भिक्षवे दद्याविधिवद्ब्रह्मचारिणे । यत्पुण्यफलमाप्नोति गां दत्वा विधिवद्गुरोः ॥
तत्पुण्यफलमाप्नोति भिवां दत्त्वा विजाग्यही" - इति । यमः,
“मत्कृत्य भिक्षवे भितां यः प्रयच्छति मानवः ।
गो-प्रदान-समं पुण्यं तस्याह भगवान् यमः" इति । ब्रह्मचारिणं स्वस्तीति वाचयित्वा तद्धस्ते जलं प्रदाय भिक्षा-प्रदानं
* मनुरपि, इति मु० पुस्तके पाठः । + वनचारिणे,-इवि शा० स० पुस्तकयोः पाठः ।
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१य,या का
पराशरमाधवः।
१५८
कार्यम् । तदाह गौतमः,-"स्वस्तिवाच्य भिक्षादानम पूर्वम्" इति॥
पति-ब्रह्मचारिणौ यदि वैश्वदेवान्ते समागच्छतस्तदाऽस्त्वेवा, यदा तु वैश्वदेवात् पूर्वमागच्छतस्तदा कथमित्याह,
वैश्वदेवे तु संप्राप्ते भिक्षुके गृहमागते।
उद्धृत्य वैश्वदेवार्थं भिक्षुकन्तु। विसर्जयेत् ॥५०॥ संप्राप्ने प्रसके अननुष्ठिते मतोति यावत् । तथा च नृसिंहपुराणे,__ ते वैश्वदेवे तु भिक्षुके ग्रहमागते"-इति ।
भिक्षुकन्तु विसर्जयेत् , याववैश्वदेवाशुपयुक्रमन्नं, तावत् पृथक कृत्वाऽवशिष्टादन्नाभिक्षां दखा भिक्षुकं विसर्जयेत् ॥ अकरणे प्रत्यवायमाह,
यतिश्च ब्रह्मचारी च पक्वान्न-स्वामिनाबुभौ। तयारन्नमदत्वा तु भुक्का चान्द्रायणचरेत् ॥५१॥
चान्द्रायणस्य लक्षणं वक्ष्यामः प्रायश्चित्त-प्रकरणे । प्रायश्चित्तविधानात् प्रत्यवायोऽवम्यते। तयोः पक्कान-खामिवादनादाने प्रत्यवायउपपन्नः । अतएव पुगणेऽपि,
"अहत्वाऽग्रीनसन्तर्प्य तपखिनमुपस्थितम् ।
* खस्तीतिवाच्य, इति मु० पुस्तके पाठः । । समागतौ तदात्वेवं,-इति मु० पुल्स के पाठः । + भिक्षां दत्त्वा,-इति शा पुस्तके पाठः । $ प्रायश्चित्तप्रकरण, इति नास्ति मुद्रितातिरिकपुस्तकेषु ।
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३६.
पराशरमाधवः।
[१०,श्रा का
अशित्वा तु परे लोके खानि मांसानि खादयेत्” इति ॥ बहुषु भिक्षुकेषु भागतेष्वशकेन किं कर्त्तव्यमित्याशङ्ख्याह, - दद्याच भिक्षा-त्रितयं परिवाइब्रह्मचारिणाम् ।
इच्छया च ततादद्यादिभवे* सत्यवारितम् ॥५२॥ निगद-व्याख्यातमेतत् । यथाविभवं भिक्षा-दानं कूर्मपुराणे दर्शितम्,
"भिक्षां वै भिक्षवे दद्यात् विधिवब्रह्मचारिणे ।
दद्यादन्नं यथाशक्ति ह्यर्थियोलोभवर्जितः" इति ॥ यनि-भिक्षा-प्रदाने नियममाह,यति-हस्ते जलं दद्याद्भक्षं दद्यात् पुनर्जलम्।
तद्भक्षं मेरुणा तुल्यं तज्जलं सागरोपमम् ॥ ५३ ॥ स्पष्टमेतत् । तच्च भै सति विभवे बहुलं दातव्यम्। तरक्तं ब्रह्मपुराणे,
“य: पात्र-पूरणीं भिक्षां यतिभ्यः मंप्रयच्छति ।
विमुक्तः मर्चपापेभ्यो नासौ दुर्गतिमाप्नुयात्"-दति ॥ यथा भिक्षुकस्य समागतस्यातिथ्यमवश्यं कर्त्तव्यं, तद्वदेश्वोपेतस्यापि स्वग्टहे समागतस्यातिथ्यमभ्युदय-कामिना कर्त्तव्यमित्याह,
यस्य छचं हयश्चैव कुञ्जरारोहमृद्धिमत् । ऐन्द्रं स्थानमुपासीत तस्मात्तन्न विचारयेत् ॥ ५४॥ * तताविहान् विभवे,-इति मु० पुस्तके पाठः । + श्लोकोऽयं मुद्रितमूलपुस्तके मास्ति। । भिक्षाप्रदाने,-इति सः सेाशा. पुस्तकेषु पाठः।
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१०, व्या० का० । ]
यस्य छत्र - हयौ विद्येते, तस्यातिथ्यं कुर्व्वन् ऐन्द्रं पदमवाप्नुयात् । एतस्माद्वचनात् पूर्वोत्तर-वचनयोरातिथ्य विषयलात् तत्-प्रकरणान्तःपातित्वेनास्मिन् वचनेऽनुक्तमपि श्रातिथ्यं कुर्व्वन्निति पद-द्वयं, सन्दंशन्यायेनात्र लभ्यते। कुञ्जरस्यारोहा यस्मिन्नन्द्रे पदे, तत्कुञ्जरारोहम् । ऋद्धिरम्मृतपानाप्सरः सेवादिरम्मिन्नस्तीत्यृद्धिमत् । छत्रादिमान् चत्रियादिरतिथिजीतिकुलाचारैर्यद्यपि हीनः, तथापि तत्पूजायाः स्वर्गप्राप्ति हेतुत्वात् तमतिथिं, होनल - बुद्ध्या पूज्योऽयं न वा, - इति न विचारयेत् न सन्दिह्यात् किन्वीश्वर - बुद्ध्या तं पूजयेत् ।
यद्यपि, भिक्षुकवन्नायमस्मिन् जन्मनि तपस्वी, तथाप्यतीते जन्मन्यनेन तपोऽनुष्ठितम्, अन्यथेदृशस्यैश्वर्यस्य प्राप्त्यसंभवात् । श्रतएव विश्वतिमत ईश्वरांशत्वं भगवता दर्शितम्, -
" यद्यदु विभृतिमत्त्वं श्रीमदूर्च्छितमेव वा । तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजेश- सम्भवम्” - इति ॥ तस्माद्युक्तमैश्वर्य्येापेतस्यातिथ्यम् ॥
यदुकं वैश्वदेवात् पूर्व्वमपि यति ब्रह्मचारिभ्यां भिक्षा दातव्येति, तत्रोपपत्तिमाह
वैश्वदेव-कृतं पापं शक्तोभिक्षुर्व्यपेोहितुम् । न हि भिक्षु कृतान् दोषान् वैश्वदेवाव्यपोहति ॥५५॥ वैश्वदेवस्य पश्चात् करणेन प्रसक्रोयो दोषः, स भिक्षा-दानेन निवर्त्तते । भिक्षा - परिहारेण तु यो दोष:, नाम्रौ पूर्व्वकृतेनापि वैश्वदेवेन निवर्त्तते । श्रच भितुशब्दो विद्यार्थ्यादीनामुपल तकः । तथा च तेषां भिक्षुकन्वं व्यासेनेाक्रम्, -
46
पराशर माधवः ।
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२६९
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१६२
पराशरमाधवः।
[१०,घा०का।
“यतिश्च ब्रह्मचारी च विद्यार्थी गुरू-पोषकः ।
अध्वगः क्षीण-वृत्तिश्च षड़ेते भिक्षकाः स्मृताः" इति। पुराणेऽपि,
"व्याधितस्यार्थ-हीनस्य कुटुम्बात् प्रच्युतस्य च ।
अध्वानं प्रतिपन्नस्य भिक्षाचा विधीयते” इति । वैश्वदेवकृतमित्युत्वा* बुद्धिस्थत्वाद्वैश्वदेवस्याकरणे प्रत्यवायमाह,
अकृत्वा वैश्वदेवन्तु भुजते ये दिजाधमाः। सर्वे ते निष्फलाञयाः पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥५६॥
निष्फला-यथोक-फल रहिताः। न केवलमिट-प्राण्यभावः किन्त्वनिष्ट-प्राप्तिरपि दर्शिता;-'पतन्ति नरकेऽशुचौ'-इति ॥ वैश्वदेव-दृष्टान्तेनातिथ्याकरणेऽपि प्रत्यवायमाह,
वैश्वदेव-विहीनाये आतिथ्येन वहिष्कृताः। सर्वे ते नरकं यान्ति काकयानि व्रजन्ति च ॥५॥
नरको रौरवादिः, तमनुभृय पश्चात् काकयोनि बजन्ति । अतिथित्वेन स्तुवनन्यानपि भोजनीयानाहा,पापा वा यदि चण्डाला विप्रघ्नः पितृघातकः । वैश्वदेवे तु संप्राप्तः सेोऽतिथिः स्वर्ग-संक्रमः ॥१८॥
वैश्वदेवं कर्त्तव्यमित्युक्त्वा,-इति मु० पुस्तके पाठः । + अतिथित्वेन प्राप्तस्य पापिष्ठस्यापि भोजनीयतामाह,-- इति मु० पस्तके पाठः।
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९ख०,चाका
पराशरमाधवः।
३६३
पापो गोवधाद्युपपातको । एतेषां भोजनीयत्वमेव, नतु अशेषातिथ्य-मत्काराईत्वम् । तदेतदेवाभिप्रेत्याश्वमेधिके वर्णितम्,
"चण्डालोवा श्वपाकोवा काले यः कश्चिदागतः ।
अनेन पजनीयश्च परत्र हितमिच्छता"-इति । विष्णुधर्मोत्तरे,
"चण्डालोवाऽथ वा पापः शत्रुवा पिघातकः ।
देशकालाभ्युपगतो भरणीयोमतोमम"-इति । उनान् पञ्च महायज्ञान् प्रशंमति हारीतः,
"देवानृषीन् पिहूंश्चैव भूतानि ब्राह्मणांस्तथा ।
तर्पयन् विधिना विप्रो ब्रह्मभूयाय कल्पते"-इति। पुराणेऽपि,
“यत्फलं सोमयागेन प्राप्नोति धनवान् दिजः ।
सम्यक् पञ्चमहायजै दरिद्रस्तदवाप्नुयात्" इति । प्रकरणे प्रत्यवायमाह व्यासः,
“पञ्चयज्ञांस्तु योमोहान्न करोति ग्रहाश्रमी।
तस्य नायं न च परोलोको भवति धर्मतः” इति ॥ पञ्चयज्ञानन्तरं भोजनमभिप्रेत्य तदनुवादेन तत्र वर्जनीयामाइ,
योवेष्टितशिराभुते यामुळे दक्षिणामुखः। वाम-पाद-करः स्थित्वा तदै रक्षांसि भुञ्जते ॥५६॥
* पापावा यदि चण्डाला,-इति मु° पुस्तके पाठः ।
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२६४
पराशरमाधवः।
[ १०,या का।
भोजन-विधिश्च मनुना दर्शितः,
"भुक्तवत्सु व विप्रेषु खेषु मृत्युषु चैव हि ।
भुजीयातां ततः पश्चादवशिष्टन्तु दम्पती" इति। विष्णुपुराणे,
"ततः सुवासिनी-दुःखि-गर्भिणी-वृद्ध-वालकान् । भोजयेत् संस्कृतान्नेन प्रथमन्तु परं ग्टही ॥ अभुक्तवत्सु चैतेषु भुञ्जन भुते सुदुष्कृतम् ।
मृतश्च गत्वा नरकं मभुगजायते नृप" इति। मार्कण्डेयपुराणे,
"पूजयित्वाऽतिथीनिखान्* ज्ञातीन् बन्धूंस्तथाऽर्थिनः । विकलान् वाल-वृद्धांश्च भोजयेदातुरांस्ततः ।
वाञ्छेत् क्षत्तृटपरीतात्मा यच्चान्नं रस-संयुतम्" इति। भोजनेतिकर्तव्यतामाह बौधायनः,
"उपलिने समे स्थाने शुचौ स्वना-समन्विते । चतुरखं त्रिकोणं वा वर्नुलं वाऽर्द्धचन्द्रकम् ॥
कर्तव्यमानुपूफ्ण ब्राह्मणादिषु मण्डलम्" इति । शङ्खोऽपि,
"आदित्यावसवोरुद्रा ब्रह्मा चैव पितामहः ।
* पूजयित्वातिथीन् विप्रान्,-इति मु. पुस्तके पाठः । + क्षणामलान्विते,-इति स० शा० पुस्तकयोः पाठः । तत्र, न मला
वितं धमलान्वितं, लक्षणच तदमलान्वितश्चेति तत्तथा, तस्मिन्नित्वर्थोवाध्यः ।
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१०, था.का.
पराशरमाधवः।
मण्डलान्युपजीवन्ति तस्मात् कुर्योत मण्डलम्" इति । कूर्मपुराणेऽपि,
"उपलिप्ते शुचौ देशे पादौ प्रक्षाल्य वै करौ ।
श्राचम्याननोऽक्रोधः पञ्चाी भोजनक्षरेत्” इति । व्यामोऽपि,
“पञ्चाभोजनं कुर्यात् प्रामुखोमौनमाम्थितः ।
हस्तौ पादौ तथैवास्यमेषु पञ्चाता मता" इति । प्राश्वमेधिकेऽपि,
"पार्द्रपादस्तु भुचीयात् प्राङ्मुखश्वासने एचौ ।
पादाभ्यां धरण स्पृष्ट्वा पादेनैकेन वा पुनः" इति । तच भोजनं उद्धपात्रे कर्त्तव्यम् । तदुक्तं कूर्मपुराणे,
"प्रशस्त-शुद्ध-पात्रेषु भुञ्जीताकुत्सिते विजः"-इति । प्रशस्तानि च पात्राणि पैठीनमिना दर्शितानि,
"सौवर्षे राजते ताने यमपत्रपलाशयोः । भोजनेभोजने चैव त्रिरात्र-फलमश्नुते ॥ एकएव तु योभुत विमले कांस्य-भाजने ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते श्रायुः प्रज्ञा यशोवलम्” इति । तत्र, यमपत्र-पलाशपत्र-भोजनं? रहि-व्यतिरिक्त-विषयम्,
• भुनीताक्रोधनोदिजः, इति मु० पुस्तके पाठः ।
सौवर्णे राजते पात्रे तामे पद्मपलाशयाः, इति मु. पुस्तके पाठः। भोजनामोजने चैव,-इति स० शा• पुस्तकयोः पाठः । है पद्मपत्रपलाशपत्रभोजनं,-इति मु° पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः।
[११०,आ का।
"पलाश-यम-पत्रेषु* ग्टही भुक्कैन्दवं चरेत्।
ब्रह्मचारि-यतीनाञ्च चान्द्रायण-फलं भवेत्” इति व्यास-स्मरणात् । कांस्य-पात्रन्तु ग्रहम्कविषयो, यत्यादीनान्तु निषेधात् । तदाह प्रचेताः,
"ताम्बूलाभ्यञ्जनं चैव कांस्यपात्रे च भोजनम् ।
यतिश्च ब्रह्मचारी च विधवा च विवर्जयेत्” इति। तच पात्र भूमौ स्थापनीयम् । यदुक्तं कूर्मपुराणे,
“पञ्चाद्री भोजनं कुर्याद्भमौ पात्र निधाय तु ।
उपवासेन तत्तुल्यं मनुराह प्रजापतिः” इति । तच स्थापनं प्राणाहुति-पर्यन्तं, पश्चानु यन्त्रिकामारोप्य भोकव्यम् । तदाह व्यासः,
"न्यस्य पात्रं तु भुञ्जीत? पञ्च ग्रासान् महामुने । शेषमुद्धृत्य भोक्तव्यं श्रूयतामच कारणम् ॥ विपुषां पाद-संस्पर्श: पाद-चैल-रजस्तथा ।
सुखेन भुत विप्रो हि पिचर्यन्तु न लुप्यते" ॥ पैटक-भोजने भूमि-पात्र-प्रतिष्ठापनं न लोपनीयमित्यर्थः । उकपात्र-निहितमन्नं नमस्कुर्यात्। तदुनं ब्रह्मपुराणे,
"अन्नं दृष्ट्वा प्रणम्यादौ प्राञ्जलिः कथयेत्ततः ।
* पलाशपद्मपत्रेषु,-इति मु० पुस्तके पाठः। + एहस्थविधयं.-इति मु. पुस्तके पाठः । + छत्र, यत्यादीनां तनिषेधात्,-इति पाठः समीचीनः प्रतिभाति । 5 न्यस्तपात्रं न भुञ्जीत,-इति शा० पुस्तके पाठः।
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१६०, ख०का० ।]
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पराशर माधवः ।
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अस्माकं नित्यमस्वेतदिति भक्त्याऽथ वन्दयेत्" ॥
वन्दनानन्तर - कृत्यमाह गोभिलः, -" श्रथातः प्राणाहुति - कल्पोव्याहृतिभिर्गायत्र्याऽभिमन्य ऋतं त्वा सत्येन परिषिञ्चामीति सायं, सत्यं वर्त्तेन परिषिञ्चामीति प्रातः,
अन्तश्चरसि भूतेषु गुहायां विश्वतोमुखः ।
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार आपोज्योतीरोऽमृतम् ॥
त्वं ब्रह्मा त्वं प्रजापतिः ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोमम्मृतोपस्तरणमसीत्यपः पीत्वा दशहोतारं मनमानुद्धृत्यैतद्वदन् पञ्च ग्रामान् ग्टहीयात् प्राणाय स्वाहेति गार्हपत्यमेव तेन जुहोति । अपानाय स्वाहेत्यन्वाहार्य्यपचनमेव तेन जुहोति । व्यानाय स्वाहेत्याहवनीयमेव तेन जुहोति । उदानाय स्वाहेति सत्यमेव तेन जुहोति । समानाय स्वाहेत्यावसथ्यमेव तेन जुहोति । एते पञ्च मन्त्राः प्रणवाद्याः कर्त्तव्याः । तथाच शौनकः, -
६६०
"स्वाहाऽन्ताः प्रणवाद्याश्च नाम्ना मन्त्रास्तु वायवः । जिज्ञयैव ग्रसेदन्नं दशनैस्तु न संस्पृशेत्” - इति । जिल्हा - ग्रसने विशेष श्राश्वमेधिके दर्शितः, -
" यथा रसं न जानाति जिहा प्राणाहुतौ नृप I तथा समाहितः कुर्य्यात् प्राणाहुतिमतन्द्रितः" इति । प्राणाहुतिष्वङ्गुलि- नियममाह शौनकः, -
* यत्र, दर्श होतारं, – इति पाठः समीचीनः प्रतिभाति ।
+
मनसानुद्धृत्य त्वरन्, - इति शा० पुस्तके पाठः । + तेनान्नेन, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशर माधवः ।
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" तर्जनी - मध्यमा - ऽङ्गुष्ठ - लग्ना प्राणाहुतिर्भवेत् । मध्यमा ऽनामिका - ऽङ्गुतैरपाने जुहुयात्ततः ॥ कनिष्ठा - ऽनामिका - ऽङ्गुष्ठै यीने तु जुहुयाद्धविः" | तर्जनीन्तु वहिः कृत्वा उदाने जुड़यात्ततः ॥ समाने सर्व्वहस्तेन समुदायाजतिर्भवेत्” - इति । परिषेचनानन्तरभावि- विशेषोभविष्यपुराणे दर्शितः, -
“भोजनात् किञ्चिदन्नां धर्मराजाय वै वलिम् । दत्वाऽथ चित्रगुप्ताय प्रेतेभ्यश्वेदमुच्चरेत् ॥ यत्र वचन संस्थानां चुत्तृष्णोपहतात्मनाम् । प्रेतानां तृप्तयेऽक्षय्यमिदमस्तु यथासुखम् ” -- इति । कूर्म्मपुराणेऽपि
[१०, व्या०का० )
“महाव्याहृतिस्त्वनं परिधायोदकेन तु । श्रमृतोपस्तरणमत्यापोशानक्रियां चरेत्” इति ।
*
जुहुयात्ततः, -इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ मध्यमानामिका शून्यैः, -- इति मु० पुस्तके पाठः ।
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बौधायनस्तु, सर्वमेतत् संग्टह्याह, - " सर्वाविश्यका वसानेषु प्रज्ञालित-पाणि-पादोऽप श्राचम्य राचौ संवृते देशे प्राङ्मुख उपरिश्य उद्धृतमाह्रियमाणं भूर्भुवः स्वरोमित्युपस्थाय वाचं यच्छेदन्यत् समानं महाव्याहृतिभिः प्रदक्षिणमन्नमुदकं परिषिच्य सव्येन पाणिनाऽविमुञ्चन्नमृतोपस्तरणमसीत्यपः पीत्वा पञ्चानेन प्राणाहुतर्जुहाति श्रद्धायां प्राणे निविष्टोऽमृतं जुहोमि शिवामा विशाप्रदादाय प्राणाय स्वाहा,
-
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११०,०का० ।
परविरमाधवः।
३६६
अपाने व्यानउदाने ममाने निविष्ट इत्यादिना, यथालिङ्ग मनुषङ्गः। एवं पञ्चान्नेन, वृष्णीं भूयोवर्त्तयेत् प्रजापतिं मनसा ध्यायेत्. अथाप्युदाहरन्ति,
श्रामीनः प्रामुखोऽनीयात् वाग्यतोऽनमकुत्मयन् ।
अस्कन्दयंस्तनमनाच* भुक्ता.नं समुपस्पृशेत् ।। सर्वभक्ष्यापूप-कन्द-मूल-फल-मांसानां दन्तैनीवर्जयेत् । नातिसुहितः अमृतापिधानमसीत्युपरिटादपः पीत्वाऽऽचान्तो हृदयदेशमभिष्टति; प्राणानां ग्रन्थिरसि रुद्रोमाविशान्तकस्तेनान्नेनाप्यायस्वेति । पुनराचम्य दक्षिणपादाङ्गुष्ठे पाणिं निश्रावयति,
"अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो अङ्गुष्ठश्च समाश्रितः ।
ईश: सर्वस्य जगतः प्रभुः प्रीणाति विश्वभुक"- इति । हुतानानुमन्त्रणमूर्द्धहस्तः समाचरेत्, श्रद्धायां प्राणे निविण्यामृत५ हुतं प्राणमन्त्रेनाप्यायस्व, श्रद्धायामपाने, श्रद्धायां व्याने, श्रद्धायामुदाने, श्रद्धायां समाने, निविश्येत्यादिर्यथालिङ्ग मनुषङ्गः । ब्रह्मणि मात्माऽमृतत्वायत्यात्मानं योजयेत् सर्व-क्रतु-याजिनामामयाजी विशिष्यते"-इति । विष्णुपुराणे,
"अग्नीयात् तन्मनाभूत्वा पूर्वन्तु मधुरं रसम् । लवणाम्लो तथा मध्ये कटु-तिकादिकांस्ततः ॥
* याकन्धयंस्तन्मनाच, इति सु० पुस्तके पाठः । + श्रदायामपाने निविण्यामत' हुतमपानमन्नेनाप्यायख श्रद्धायां व्याने निविश्यामतगं हुतं व्यानमन्नेनाप्यायख श्रद्धायामदाने निविश्यामतगं
तमुदानमन्नेनाप्यायख श्रद्धायां समाने निविश्याम्सतगुं हुतं समानमनेनाप्यायखेति यथालिङ्गमनुषङ्गः, - इति मु० पुस्तके पाठ :
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पराशर माधवः ।
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प्राद्रवं पुरुषोऽश्रीयान्मध्ये च कठिनाशनः * । अन्ते पुनर्द्रवाशी तु वलारोग्ये न मुञ्चति" - इति ॥
वृद्धमनुः,—
भोजने कवल - मयामाहापस्तम्बः,
“अष्टौ ग्रामामुनेर्भक्ष्याः षोड़शारण्यवामिनः । द्वात्रिंशत्तु गृहस्यस्य मितं ब्रह्मचारिणः” – इति । श्रश्वमेधिकेऽपि,—
[१०, व्या०, का० ।
"वक्त्र- प्रमाण-पिण्डांस ग्रसेदेकैकशः पुनः । वक्त्राधिकन्तु यत् पिण्डमात्मोच्छिष्टं तदुच्यते ॥ पिण्डावशिष्टमन्नञ्च वक्त्र- निःसृतमेवच ।
भोज्यं तद्विजानीयात् भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् । मदा चात्यशनं नाद्यात् नातिहीनं च कर्हिचित् । यथाऽनेन व्यथा न स्यात् तथा भुञ्जीत नित्यशः " - इति ।
"पीलाsपेनम श्रीयात् पाच दत्तमगर्हितम् ।
भायी मृतक दासेभ्य उच्छिष्टं शेषयेत् द्विजः " - इति । उच्छिष्ट - शेषणन्तु घृतादि व्यतिरिक्त-विषयम् । तदाह पुलस्त्यः,— " भोजनन्तु न निःशेषं कुर्य्यात् प्राज्ञः कथञ्चन ।
श्रन्यच दधिकाज्यं फलं क्ष्मीरं च मध्वपः” – इति ।
एतच्च भोजनं सायं प्रातश्च कर्तव्यम् । तदुकं मनुना -
* कठिनाशनम् - इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ पीत्वापाशानमश्रीयात्, - इति शा० पुस्तके पाठः ।
1 ततः, — इति स० शा ० पुस्तकयोः पाठः ।
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१५०,०का.
परापरमाधवः।
३१
"सायं प्रातर्विजातीनामशनं श्रुति-चोदितम् ।
नान्तरा भोजनं कुर्यादग्निहोत्र-ममो विधिः" इति । गौतमः,-"सायं प्रातस्त्वन्नमभिपूजितमनिन्दन् भुनीत" इति । उदाहृत-वचन-समूहेन प्रसिद्धं माङ्ग-भोजनं मूलवचने,“यो भुते"इत्यनूद्य वेष्टिन-शिरस्वादिकं प्रत्यवायाभिधानेन निषेधयति । एतच्च वान्तराणामप्युपलक्षणम् । तानि च ब्रह्मपुराणो दर्शितानि,
“यस्तु पाणि-तले भुले यस्तु फुकार-संयुतम् । प्रसृताङ्गुलिभिर्यचौ तस्य गोमांसवच्च तत् । नाजोले भोजनं कुर्यात् कदन्नानि वुभुतितः ॥ हस्त्यश्वरथयानाष्ट्रमास्थितो नैव भक्षयेत् । श्मशानाभ्यन्तरस्थो वा देवालय-गतोऽथवा || शयनम्यो न भुञ्जीत न पाणिस्थं न चामने । नावासा नाशिरा नचायज्ञोपवीतवान् ॥ न प्रसारित-पादस्तु पादारोपित-पाणिमान् । ख-बाहु-सव्य-संस्थश्च न च पर्यङ्कमास्थितः ॥ न वेष्टित-शिराश्चापि नोत्सङ्ग-कृत-भाजनः । नैकवस्त्रोदृषन्मध्ये नोपानत्-कृत-पादकः।। न चीपरिसंस्थश्च चर्म-वेष्टित-पार्श्ववान् ।
* फत्कारवायुना,-इति मु० पुस्तके पाठः । + यच्च, - इति पा स० पुस्तकयोः पाठः । + कु-नातिबुभुक्षितः,-इति मु० पुस्तके पाठः । 8 नोत्सङ्गकृतभोजनः,-इति मु° पुस्तके पाठः । पानापानकः सपादुका,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
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३७२
पराशरमाधवः।
[१००का ।
ग्राम-शेषं न चानीयात् पीत-शेष पिवेन च । शाक-मूल-फलेषणां दन्तच्छेदैन भक्षयेत् ॥ बहनां भुञ्जतां मध्ये न चानीयात्त्वराऽन्नितः ।
वृथा न विसृजेदन्नं नोच्छिष्टं कुत्रचिवजेत् ॥ एहस्पतिः,
"न स्पृशेदामहस्तेन भुञानाऽन्न कदाचन ।
न पादौ न शिरोवस्तिं न पदा भाजनं स्पृशेत्" इति । उशना:
"नादत्वा मिष्टा मनीयाइहनां चैव पश्यताम् ।
नानीयुर्ववश्चैव तथाऽनेकस्य पश्यतः" इति । श्रादित्यपुराणे,
"नाच्छिष्टं ग्राहयेदाज्यं जग्धशिष्टं च मन्यजेत् ।
रद्र-भुक्तावशिष्टन्तु नाद्याभाण्ड-स्थितं त्वपि” इति । कूर्मपुराणे,
"नाईराने न मध्याह्ने नाजीणे नावस्त्रक । न भिन्न-भाजने चाद्यात्|न भूम्यां न च पाणिषु ॥ नोच्छिटो घृतमादद्यान्न मूद्धानं स्पृशन्नपि । न ब्रह्म कीर्तयित्वाऽपि न निःशेषं न भार्यया ॥
* अत्र, नाच्छियः कुत्रचिवजेत्, इति पाठी भवितुं युक्तः। + मष्ट,---इति मु° पुस्तके पाठः ।
नोच्छिछो,--इति शा. पुस्तके पाठः । 5 जग्धशियं न,-इति स. शा. पस्तकयोः पाठः । || चैव,-इति शा. पुस्तके पाठः ।
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१का० का ० का ० ।]
याज्ञवल्क्योऽपि -
यत्तु,
३७३
नान्यागारे न वाऽऽकाशे* न च देवालयादिषु" - इति ।
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पराशर माधवः ।
श्रतएवादित्यपुराणम्, -
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"न भाय-दर्शनेऽश्रीयान्नैकवासा न संस्थितः " - इति ।
"ब्राह्मणा सह येोऽश्रीयादच्चिरं वा कदाचन । न तस्य दोषमिच्छन्ति नित्यमेव मनीषिणः । उच्छिष्टमितरस्त्रीणां योऽश्नीयाद् ब्राह्मणः क्वचित् ॥ प्रायश्चित्ती स विज्ञेयः संकीर्णे मूढचेतनः " - इति । न तत्सर्व्वथा दोषाभाव - प्रतिपादन -परं, कदाचनेति वचनात् ।
"ब्राह्मणा भार्यया साईं कचिद्भुञ्जीत चाध्वनि ।
श्रसवर्ण- स्त्रिया सार्द्धं भुक्का पतति तत्क्षणात्” इति । मनुरपि -
" न पिवेन्न च भुञ्जीत द्विजः सव्येन पाणिना । नैकहस्तेन च जलं श्टद्रेणावर्जितं पिवेत् ॥ पिवतो यत् पतेत्तोयं भाजने मुख- निःसृतम् । भोज्यं तद्भवेदन्नं भुक्ता भुञ्जीत किल्विषम् ॥ पीतावशेषितं तेायं ब्राह्मणः पुनरापिवेत् ? |
* नागारे च नवाकाशे, इति शा० पुस्तके पाठः । + अधोवर्णस्त्रिया, - इति मु० पुस्तके पाठः । + मनुरपि इति मु० पुस्तके पाठः ।
· छात्र, ब्राह्मणो न पुनः पिवेत्, - इति पाठो भवितुं युक्तः । 'वितायत्' – इत्यारभ्य, 'पुनरापिवेत्' - इत्यन्तोयन्यः मुद्रितातिरिक्तपुस्तकेषु न दृश्यते ।
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परापारमाधवः।
११० या का।
पिवेद्यदि हि तन्मोहात् द्विजश्चान्द्रायणं चरेत्" इति ।
अत्रिः ,
“तायं पाणि-नख-स्पृष्टं- ब्राह्मणो न पिवेत् क्वचित् ।
सुरापानेन तत्तुल्यमित्येवं मनुरब्रवीत्" इति । शातातपः,
"उद्धृत्य वाम-हस्तेन यत्तोयं पिवति द्विजः ।
सुरापानेन तत्तुल्यं मनुराह प्रजापतिः" इति । श्राश्वमेधिकेऽपि,
"पानीयानि पिवेद्येन तत्पात्रं द्विजसत्तमः ।
अनुच्छिष्टं भवेत्तावद्यावडू मौ न निक्षिपेत्”-दति । शङ्खः,-"नानियुक्तोऽत्र्यासनस्थः प्रथममनीयानाधिकं दद्यान्न प्रतिग्रहीयात्" इति । शातातपोऽपि,
"अय्यामनेोपविष्टस्तु योभुने प्रथम विजः ।
- बहूनां पश्यतां प्राज्ञः पङ्क्त्या इरति किल्विषम्" इति । गोभिलः,
“एक पतयपविष्टानां विप्राणां मह भोजने । योकोऽपि त्यजेत् पात्रं नाश्नीयुरितरे पुनः ॥ मोहात्तु भने यस्तत्र समान्तपनमाचरेत् । भुञ्जानेषु तु विप्रेषु यस्तु पात्रं परित्यजेत् ।। भोजने विघ्न-की सौ ब्रह्महाऽपि तथोच्यते".-इति ।
* पाणिनखाग्रेण,-इति शा० पुस्तके पाठः । + प्यनु,-इति शा० पुस्तके पाठः ।
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१०,०का
पराशरमाधवः।
३७५
वाग्यमनं प्रक्रम्य पुराणे,
"नास्यता वरुणः शति जुहतोऽगिः श्रियं हरेत् ।
भुनतो मृत्युरायुष्यं तस्मान्मौनं त्रिषु स्मृतम्" इति । यत्त्वत्रिणकम्,
"मौनव्रतं महाक; इंकारेणापि नश्यति ।
तथा मति महान् दोषः तस्मात्तु नियतश्चरेत्"-दति । तदेतत् काष्ठ-मौनाभिप्रायेण । एतच्च पञ्चाग्रासादाविषयम् । तथा च वृद्धमनुः,
"अनिन्दन भक्षयेनित्यं वाग्य तेाऽन्नमकुत्मयन् ।
पञ्च ग्रासान्महामौनं प्राणाद्याप्यायनं महत्" इति । श्राश्वमेधिकेऽपि,
"मौनी वाऽप्यथवाऽमौनी प्रहृष्टः संयतेन्द्रियः ।
भुञ्जीत विधिवधिो न चाच्छिष्टानि चर्चयेत्' इति । भातातपोऽपि,
"हस्त-दत्तानि चान्नानि प्रत्यक्ष-लवणन्तथा ।
मृत्तिका-भक्षणञ्चैव गोमांसाशनवत् स्मृतम्" इति । पैठीनमिः,
"लवणं व्यञ्जनं चैव घतं तेल तथैव च । लेह्यं पेयञ्च विविधं हस्त-दत्तं न भक्षयेत् ।। दया देयं घृतानन्तु समस्त-व्यञ्चनानि च ।
उदकं यच्च पक्वान्नं योदा दातुमिच्छति । * नोच्छिशानि न चालयेत्,-इति मु° पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः।
[१०,या का।
स भ्रूणहा सुरापश्च स्तेयी च* गुरुतल्पग:"-इति । श्राश्वमेधिके,
"उदक्यामपि चण्डालं श्वानं कुक्कुटमेवच ।। भुञ्जानो यदि पग्येनु तदन्नन्तु परित्यजेत् ॥ केश-कीटावपन्नञ्च मुख-मारुत-वीजितम् ।
अन्नं तद्रातमं विद्यात्तस्मात्तत् परिवर्जयेत्”-दति । कात्यायन:,
"चण्डालपतितदिक्या-वाक्यं श्रुत्वा द्विजोत्तमः।
मुञ्जीत ग्रासमात्रन्तु दिनमेकमभोजनम्" इति । गौतमोऽपि,
"काहलाभ्रामणग्रावणश्चक्रस्योलूखलस्य च ।
एतेषां निनदं यावत्नावत्कालमभोजनम्" इति । बहस्पतिरपि,
"प्येकपङ्क्तया नाश्रीयाद्राह्मणैः स्वजनैरपि । कोहि जानाति किं कस्य प्रच्छन्नं पातकं भवेत् ॥ एकपङ्क्त्युपविष्टानां दुष्कृतं यदुरात्मनाम्।
सर्वेषां तत्समं तावद्यावत् पटिर्न भिद्यते" इति । पति-भेद-प्रकारमपि मएवाह,
"अमिना भस्मना चैव स्तम्भेन सलिलेन च । द्वारेण-चैव मार्गेण पतिभेदो बुधैः स्मृतः" इति ।
* सस्तेनो,-इति स. शा. पुस्तकयाः पाठः । | केश कोटेापपन्नञ्च, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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११०,याका०]
पराशरमाधवः ।
३७७
यमोऽपि,
"उदकञ्च तण भस्म द्वारं पन्थास्तथैवच ।
एभिरन्तरितं कृत्वा पतिदोषो न विद्यते"-इति। तदेवं मूलवचनोक-वेष्टितशिरस्त्वादि-वर्जनोपलक्षिता नियमविशेषा दर्शिताः । दक्षिणामुखत्व-निषेधो नित्य-भोजन-विषयः। काम्ये तदिधानात् । तथाच मनु:
"आयुष्यं प्रामुखो भुत यशस्य दक्षिणामुखः ।
श्रियं प्रत्यङ्मुखो भुते ऋतं भुते उदङ्मुखः” इति । गोभिलोऽपि दक्षिणामुखत्वं निषेधयति,
"प्रामुखावस्थिता विप्रो प्रतीच्या वा यथासुखम् ।
उत्तरं पिट कार्ये तु दक्षिणान्तु विवर्जयेत्" इति । 'वाम-पाद-करः' वामपादे करोयस्थासौ वामपादकरः । यो वामपादकरो भुझे, यश्च स्थितो भुत, तैः सर्वैर्यमुकं तद्रक्षांसि मुञ्जते, न स्वयं प्राणाग्निहोत्रादि-फलं प्राप्नातीत्यर्थः। भुकस्यो राक्षम-गामित्वं कूर्मपुराणेऽपि दर्शितम,
“योभुत वेटिनशिरा यश्व भुते विदिङ्मुखः ।
सोपानत्कश्च यो भुते मर्च विद्यात्तदासुरम्" इति । अभिप्रेतस्य भोजन-विधेरूदीच्याङ्गानि उच्छिष्टोदक-दानादीनि ! कर्त्तव्यानि । तत्र देवलः,
* विसर्जयेत्,-इति मु. पुस्तके पाठः। । उक्त, इति मु• पुस्तके पाठः। । उच्छिष्ठोदकदानादीनि,-इति नास्ति स० सो० प्रा० पुस्तकेषु ।
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३०८
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व्यासः,
पराशरमाधवः ।
-
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"भुक्वोच्छिष्टं समादाय सर्व्वस्मात् किञ्चिदाचमन् । उच्छिष्टभागधेयेभ्यः सोदकं निर्वपेद्धवि" - इति ।
तत्र, मन्त्रः,
" रौरवेऽपुण्य - निलये पद्मार्बुद-निवासिनाम् । प्राणिनां सर्व्वभूतानामचय्यमुपतिष्ठताम् ” - इति । गद्यव्यामोऽपि - " ततस्तृप्तः सन्नमृतापिधानममीत्यपः पीत्वा तस्माद्देशान्मनागपस्सृत्य विधिवदाचामेत् " - इति । स चाचमनप्रकारा देवलेन दर्शितः, -
[१०, व्या०का० ।
"भुक्वाऽऽचामेद्यथोक्रेन विधानेन समाहितः । शोधयेन्मुख हस्तौ च मृदद्भिर्घर्षणैरपि " - दति । तच्च घर्षणं तर्ज्जन्या न कर्त्तव्यम् । तदाह गौतमः, - " गण्डूषस्याथ समये तर्ज्जन्या वक्रशोधनम् । कुर्वीत यदि मूढात्मा रौरवे नरके पतेत् । " - इति ।
"हस्तं प्रक्षाल्य गण्डूषं यः पिवेदविचक्षणः । देवांश्च पितृचैव ह्यात्मानञ्चैव पातयेत्” इति । " तस्मिन नाचमनं कुर्य्यात् यत्र भाण्डेऽथ भुक्तवान् । यद्युत्तिष्ठत्यनाचान्तोक्तवानासनात्ततः ॥
स्नानं सद्यः प्रकुर्वीत मोऽन्यथाऽप्रयता भवेत्” इति ।
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* प्राणिनां सर्वभूतानां क्षय्यमुपतिष्ठतु, – इति मु० पुस्तके पाठः । + शैरवं नरकं व्रजेत् इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ 'इति' शब्दोऽत्राधिकः प्रतिभाति ।
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१०,आका०]
पराशरमाधवः।
३७६
कूर्मपुराणेऽपि,
"अमृतापिधानममीत्यपः पिवेत् * * * । प्राचान्तः पुनराचमेदायं गौरिति मन्त्रतः । द्रुपदां वा विराटत्त्य सर्व-पाप-प्रणाशिनीम् । प्राणानां ग्रन्थिरमीत्यालभेत् हृदयं ततः ।। प्राचम्याङ्गुष्ठमानीय पादाङ्गुष्ठे तु दक्षिणे । निश्रावयेद्धस्त-जल मूई-हस्तः समाहितः ।। हुतानुमन्त्रणं कुर्यात् श्रद्धायामिति मन्त्रतः । अष्टाक्षरेण ह्यात्मानं योजयेद्ब्रह्मणीति हि । सर्वेषामेवमङ्गानामात्म-यागः परः स्मृतः ॥
योऽनेन विधिना कुर्यात् स याति ब्रह्मणः पदम्" इति । अत्रिः
"आचान्तोऽप्यचिस्तावद्यावत् पात्रमनुसृतम् । उद्धृतेऽप्यचिस्तावद्यावन्नो लिप्यते मही। भूमावपि हि लिप्तायां तावत् स्थादशचिः पुमान् ॥
श्रासनादुत्थितस्तस्माद्यावन स्पृशते महीम्" इति। शानातपोऽपि,
"आचम्य पात्रमुत्सृज्य किङ्गिदाईण पाणिना। मुख्यान् प्राणान् ममालभ्य नाभिं पाणि-तलेन च ॥ भुक्ता नैव प्रतिष्ठेत न चाप्याट्टैण पाणिना।
पाणिं मटि समाधाय स्पृष्ट्वा चाग्निं समाहितः ॥ * नोन्मृज्यते,-इति शा० पुस्तके पाठः ।
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३८०
पराशरमाधवः।
१०,श्रा०का ।
ज्ञातिश्रेष्ठ्य समाप्रति प्रयोग-कुशलोनरः" इति । विष्णुपुराणेऽपि,
"स्वस्थः प्रशान्त-चित्तस्तु कृतासन-परिग्रहः । अभीष्ट-देवतानाञ्च कुर्वीत स्मरणं नरः ॥ अनिराप्यययेद्धानुं पार्थिव पवने रितः । दत्तावकाशो नभसा जरयेदस्तु मे सुखम् । अन्नं वलाय मे भुमेरपामन्यनिलस्य च ॥ भवत्त्वेतत् परिणतं* ममास्वव्याहतं सुखम् । प्राणापानसमानानामुदानव्यानयोस्तथा ॥ अन्नं पुष्टिकरचास्तु ममास्वव्याहृतं सुखम् ।
অগৰিৰমিভৰান भुकं मयाऽनं जरयत्वशेषम् । सुखं ममैतां परिणाम-सम्भव यच्छत्वरोगं मम चास्तु देहे ॥ विष्णुः समस्तेन्द्रिय-देह-देही प्रधानभूतो भगवान् यथैकः । सत्येन तेनान्नमशेषमन्नम्
आरोग्यदं स्यात् परिणाममेतु । विष्णर्यथा तथैवान्नं परिणामश्च वै तथा ।
* परिणतो,-इति शा० पुस्तके पाठः। + सुखच्च मे तत्,-इति स. प. पुस्तकयाः पाठः । । विधारात्मा तथैवान्नं परिणामस्तथैवच,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१अ०,०का ।
पराशरमाधवः ।
___ ३५
सत्येन तेन मे भुकं जीयंत्वनामदन्तथा । इत्युच्चार्य स्व-हस्तेन परिमृज्य तथोदरम् ॥
अनायास-प्रदायोनि कुर्यात् काण्यतन्द्रितः"-दति। मार्कण्डेयोऽपि,
"भूयोऽप्याचम्य कर्त्तव्यं ततस्ताम्बूल-भक्षणम्" इति । तत्र वशिष्ठः,
"सुपूगं च सुपर्णञ्च सुचूर्णेन समन्वितम् । अदत्वा दिज देवेभ्यः ताम्बूलं वर्जयेदुधः। एक-पूगं सुखारोग्यं द्विपूर्ण निष्फलम्भवेत् ॥ अतिश्रेष्ठं त्रि-पूगञ्च ह्यधिकं नैव दुष्यति । पर्म-मूले भवेड्याधिः पर्णग्रे पाप-सम्भवः ॥ चर्म-पल हरेदायुः शिरा बुद्धि-विनाशिनी । तस्मादग्रञ्च मूलञ्च शिराव? विशेषतः ॥
जोर्म-पर्ण]] वर्जयित्वा ताम्बून्वं खादयेदुधः" । यदिदं भोजनं निरूपितं, तहण-काले प्रतिषिद्धम् । तदाह मनुः,--
"चन्द्र-सूर्य-ग्रहे नाद्यादद्यात् स्नात्वा विमुक्तयोः। अमुकयोरस्त-गयोर्दृष्ट्रा स्नात्वा परेऽहनि"- इति।
* मलूक्त,-इति मु० पुस्तके पाठः।। + सुसंयुतम्,-इति मु° पुस्तके पाठः। + हरत्यायुः, इति मु° पुस्तके पाठः ।
शिरश्चैव,--इति स. शा. पस्तकयाः पाठः। || चूर्णपणं,-इति मु० पुस्तके पाठः । पा रथदृष्ट्वा,- इति मु° पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः।
या०का.।
ग्रहे ग्रहण-काले, स्पर्शमारभ्य मोक्षण-पर्यन्तो ग्रह-कालः । तस्मिन् काले न भुञ्जीत, किन्तु राहणा चन्द्र-सूर्ययोः मुकयोः सततः पश्चात् स्नात्वा मुञ्जीत। यदा तु ग्रस्तास्तमयस्तदा परेद्युः विमुक्तौ तौ दृष्टा भुञ्जीत । न केवलं ग्रहण-काले भोजनाभावः, किन्तु ग्रहणात् प्रागपि । तदाह व्यासः,
"नाद्यात् सूर्य-ग्रहात् पर्वमलि मायं शशि-ग्रहात् । ग्रह-काले च नाश्रीयात् स्नात्वाऽनीयाच मुक्कयोः । मुक्ने शशिनि भुञ्जीत यदि न स्यान्महानिशा ।
अमुक्तयोरस्तगयोरथ दृष्टा परेऽहनि”-दति । पूर्व-काले भोजन-निषेधे विशेषमाह वृद्धवशिष्ठः,
"ग्रहणन्तु भवेदिन्दोः प्रथमादधि यामतः । भुञ्जीतावर्त्तनात् पूर्व पश्चिमे प्रहरादधः ॥ रवेस्त्वावर्ननादूर्द्धमागेव निशीथतः ।
चतुर्थे प्रहरे चेत् स्यात् चतुर्थ-प्रहरादधः" इति । रात्रो प्रथमात् यामादधि अर्द्र ग्रहणं चेत्, आवर्तनान्मध्याहात् पूर्व भुञ्जीत ; रात्रि-पश्चिम-यामे चेत्, रात्रि-प्रथम-यामादाक् भुञ्जीत ; अश्चतुर्थ-प्रहरे रवि-ग्रहश्चेत्, रात्रः चतुर्थ-प्रहरादधी भुञ्जीतेत्यर्थः । निशीथो मध्यरात्रिः । मध्याहादूर्द्व रवि-ग्रहणं चेत, मध्य-रात्रादागेव भुञ्जीतेत्यर्थः । शशि-ग्रहणे याम-त्रयेण व्यवधानमपेतितं, सूर्य-ग्रहे तु याम-चतुष्टयेनेति तात्पर्य्यार्थः। तथाच वृद्ध गौतमः,
"सूर्य-ग्रहे तु नाश्नीयात् पूर्व याम-चतुरायम् ।
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१०,या०का० ।
पराशरमाधवः ।
चन्द्र-ग्रहे तु यामांस्त्रीन् वाल-उद्धातुरैविना"-इति । वालवृद्धातुर-विषये मत्स्यपुराणे,
"अपराहे न मध्याले मध्याह्ने चेन्न मङ्गवे ।
मङ्गवे ग्रहणं चेत्स्यान पूर्व भोजनञ्चरेत्" इति । समर्थस्य तु भोजने प्रायश्चित्तमुक्तं कात्यायनेन ,
"चन्द्र-सुर्य-ग्रहे भुक्का प्राजापत्येन शुद्ध्यति । तस्मिन्नेव दिने भुत्वा त्रिरात्रेणैव शुद्ध्यति" इति । शशि-ग्रहणे याम-त्रयस्यापवादमाह वृद्धवशिष्ठः,
"ग्रस्तोदये विधोः पूर्वं नाहीजनमाचरेत्” इति। ग्रस्तास्तमये विशेषमाह भृगुः,
"ग्रस्तावेवास्तमानन्तु रवीन्दू प्राभुता यदि ।
तयोः परेधुरुदये स्नात्वाऽभ्यवहरेन्नरः"--इति । वृद्धगाऽपि,
“मन्ध्या-काले यदा राहुसते शशि-भास्को।
तदनैव भुञ्जीत राचावपि कदाचन"-इति । विष्णुधर्माचरेऽपि,
"आहोरात्रं न भोक्रव्यं चन्द्र-सूर्य-ग्रहायदा ।
मुनिं दृष्ट्वा तु भोकव्यं स्नानं कृत्वा ततः परम्" इति । ननु, मेघाद्यन्तद्धाने चानुषं दर्शनं न सम्भवति इति चेत् ।, दर्शनशब्देन शास्त्र-विज्ञानस्य विवक्षितत्वात् । तदाह रद्धगौतमः,
* याज्ञवल्क्येन,-इति मु० पुस्तके पाठः । + छत्र, इति चेन्न, - इति पाठी भवितुं युक्तः ।
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पराशर माधवः ।
“चन्द्र-सूर्य्य-ग्रहे नाद्यात् तस्मिन्नहनि पूर्व्वतः । राहोर्विमुक्तिं विज्ञाय स्नात्वा कुर्वीत भोजनम्" इति । एवं तर्हि, परेद्युरुदयात् प्रागपि शास्त्र-विज्ञान-सन्भवाद् ग्रस्तास्तमयेऽपि तथैव भोजनं प्रसज्येत । तन्त्र,
" तयोः परेद्युरुदये स्नात्वाऽभ्यवहरेन्नरः " । अहोरात्रं न भोक्तव्यम्
- इति
वचन-द्वयेन * तदप्रसक्तेः । यत्तु स्कन्दपुराणे,
***""
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" यदा चन्द्र ग्रहस्तात, निशीथात् परतेाभवेत् । भोक्तव्यं तात पूर्व्वीले नापराले कथञ्चन ॥ पूव्वें निशीथात् ग्रहणं यदा चन्द्रस्य वै भवेत् ।
पुत्री तु नापवसेत् । तदाह नारदः
[१०,०का० ।
तदा दिवा न कर्त्तव्यं भोजनं शिखि वाहन " - इति ।
तदिदं याम - चयाभिप्रायकं, "चन्द्र ग्रहे तु यामांस्त्रीन् " - इति विशेषस्य वृद्धगौतमेनाभिधानात् । पाप-क्षय-कामोग्रहण - दिनमुपवमेत् । तदाह दक्षः,
"श्रयने विषुवे चैव चन्द्र-सूर्य ग्रहे तथा । श्रहाराचेोषितः खात्वा सर्व्वपापैः प्रमुच्यते " - दूति ।
"संक्रान्त्यामुपवासञ्च कृष्णैकादशि-वासरे ।
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चन्द्र-सूर्य ग्रहे चैव न कुर्य्यात् पुत्रवान् गृही" - इति । ग्रस्तास्तमये तु पुत्रिणेोऽयुपवासएव, “अहोरात्रं न भोक्तव्यम्”
तन्न, तयेाः परेद्युरुदयेभ्यवहरे दहोरात्रं न भोक्तव्यमिति वचनदयेन, - इति स० शा ० पुस्तकयेाः पाठः ।
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रखा,आ.का.
पराशरमाधवः ।
इति भोजन-प्रतिषेधात्। कचित्त ग्रहण-विशेषे स्नानादिकं न कर्त्तव्यम् । तदुक पत्रिंशन्मते,
"सूर्य-ग्रहो यदा राचौ दिवा चन्द्र-ग्रहस्तथा ।
तत्र स्वानं न कुर्वीत दद्यादानं न च कचित्" इति। एतच भु-भाग-विशेष-व्यवस्थितानां ग्राम-मोक्ष-दर्शन-योग्यवाभावे द्रष्टव्यम् ।
॥०॥ इति भोजन-प्रकरणम्॥०॥ इत्थं निरूपितेन भोजनान्तेन कर्त्तव्यजातेनाहः पञ्चम-भागमतिवारयेत् । एतेन भाग-पञ्चक-कृत्याभिधानेनावशिष्ट-दिवसकर्तव्यजातमुपलक्षणीयम् । तच कर्त्तव्यजातं दक्षेण दर्शितम्,
"भुक्त्वा तु सुखमास्थाय तदनं परिणामयेत् * । इतिहास-पुराणाद्यैः षष्ठ-सप्तमको नयेत् । अष्टमे लोक-यात्रा तु वहिःसन्ध्यान्ततः पुनः" इति ।
"दिवा खापं न कुर्वीत स्त्रियश्चैव परित्यजेत् । श्रायु:क्षीणा दिवा निद्रा दिवा स्त्री पुण्य-नाशिनी। इतिहास-पुराणानि धर्म-शास्त्राणि चाभ्यसेत् ॥
वृथा विवाद-वाक्यानि परिवादश्च वर्जयेत्” इति । विष्णुपुराणेऽपि,
"अनायास-प्रदायोनि कुर्यात् काण्यतन्द्रितः ।
* परिणामयन्, इति मु. पुस्तके पाठः ।
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याज्ञवल्क्योऽपि -
पराशरमाधवः ।
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सच्छास्त्रादि- विनादेन मन्मार्गदविरोधिना * ॥
दिनं नयेत्ततः सन्ध्यामुपतिष्ठेत् समाहितः " - इति ।
[१०, च्या०का० ।
“श्रहः-शेषं समासीत शिष्टैरिटैश्च बन्धुभिः ।
उपास्य पश्चिमां सन्ध्यां त्वाऽग्रस्तानुपास्य च । भृत्यैः परिवता भुक्का नातितप्तोऽथ संविशेत्” इति ॥ उपास्य चेति चकारेण वैश्वदेवादिकं समुच्चिनोति । सायंसन्ध्याहोमो निरूपितौ । वैश्वदेवादौ कश्चिद्विशेषो विष्णुपुराणे दर्शितः, - "पुनः पाकमुपादाय साथमप्यवनीपते ।
वैश्वदेव - निमित्तं वै पत्न्या सार्द्धं वलिं हरेत् ॥ तत्रापि वपचादिभ्य तथैवान्नं विवर्जयेत् । श्रतिथिं चागतं तत्र स्वशक्त्या पूजयेदुधः ॥ दिवाऽतिथौ तु विमुखे गते यत्पातकं नृप । तदेवाष्टगुणं पुंसां स्वीटे विमुखे गते ॥ तस्मात् स्व-शक्त्या राजेन्द्र, सूर्योटमतिथिं नरः । पूजयेत्, पूजिते तस्मिन् पूजिताः सर्व्व- देवताः ! कृत-पादादिशौचश्च भुक्का मायं ततो गृही ॥ गच्छेच्चय्यामस्फुटितां । ततोदारुमयीं नृप" - इति । ॥ ॥ इत्यचः शेषादि - कृत्यम् ॥०॥
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*
नासच्छास्त्रविने।देन सन्मार्गीर्थविरोधिना, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ तथैवान्नविसर्जनं, - इति शा० पुस्तके पाठः ।
+ गच्छेच्छय्यामत्रुटितां,— इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१०, श्र० का ० ।]
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गार्ग्योऽपि
पराशर माधवः ।
शयन - प्रकार माह * हारीतः, -" सुप्रचाजित-चरण-तलो रक्षां कृत्वा उदक- पूर्ण - घटादि- मङ्गल्योपेत श्रात्माभिरुचितामनुपहतां - वामां पठन् । शय्यामधिष्ठाय रात्रि जपित्वा विष्णुं नमस्कृत्य 'मापसर्प भद्रन्ते ' इति लोकं जपित्वा दृष्ट-देवता स्मरणं कृत्वा समाधिमास्थायान्यांश्चैव वैदिकान् मन्त्रान् सावित्रीञ्च जपित्वा मङ्गल्यं श्रुतं शङ्खञ्च टण्वन् दक्षिणा शिराः खपेत्" - इति । दक्षिणाभिरा:दूति प्रदर्शनार्थम् । तथाच विष्णुपुराणम्, --
"प्राच्यां दिशि शिरः शस्तं याम्यायामथवा नृप । सदैव स्वपतः पुंसेोविपरीतन्तु रोगदम् " - इति ।
पुराणेऽपि -
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दक्षिणाशिराः ।
" स्वगेहे प्राक्शिराः शेते व प्रत्यक्शिराः प्रवासे च न कदाचिदक्शिराः " - इति ।
काथाहः शेषादिकृत्यं । तत्र शयनप्रकार माह,
"राविकं जपेत् स्मृत्वा सव्वींश्च सुखशायिनः ।
नमस्कृत्वाऽव्ययं विष्णु समाधिस्थः खपेन्निभि” – इति । सुखशायिनेोऽपि गालवेन दर्शिताः, -
"अगस्तिमाधवश्चैव मुचुकुन्दो || महामुनिः ।
३८७
कयोः पाठः ।
+ सून्वा प्राणानिति पठन्, - इति शा० पुस्तके पाठः ।
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- इति स० शा ० पुस्त
+ विष्णुपुराणेऽपि - इति मु० पुस्तके पाठः ।
· गोभिलेन, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
|| अगस्त्यो माधवश्चैव मुचिकुन्दो - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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३८.
पराशरमाधवः ।
[११०,या का
कपिलो गुजिरास्तीकः * पञ्चैते सुखशायिनः"-दति । अयने वर्जनीयानाह मार्कण्डेयः,
"हन्यालये श्मशाने च एकवृक्षे चतुष्पथे । महादेव-रहे वाऽपि मान-वैश्मनि न स्वपेत् ॥ न यक्ष नागायतने स्कन्दस्यायतने तथा । कूल-च्छायासु च तथा शर्करा-लोट-पांशषु ॥ न स्वपेच्च तथा गत विना दीक्षां कथञ्चन । धान्य-गो-विप्र-देवानां गुरुणाञ्च तथोपरि ॥ न चापि भनशयने नाचौ नाशचिः खयम् । नावासा न नमश्च नोत्तरा-स्थित-मस्तकः ॥
नाकाशे सर्वशून्ये च न च चैत्यद्रुमे तथा"-इति । विष्णरपि,-"नावासाः स्वपेन्न-पलाश-भयने न पञ्च-दारु-कृते न-मन-शयने न विद्युदग्धे नामिष्टे न बालमध्ये न चारिमध्ये न धान्ये न गुरु-हुताशन-सुराणामुपरि ? नाच्छिष्टे न दिवि"-दूति । विष्णुपुराणेऽपि,
"नाविशाला न वै भग्नां नासमा मलिना न च ।
न च जन्तुमयों शय्यामधितिछेदनास्तृताम्" इति ॥ उशनाः,-"न तैलाभ्यक-शिराः स्वपेन्नादीक्षितः कृष्णचर्मणि" इति।
* मुनिरास्तिक्यः, इति मु० पुस्तके पाठः । । तटाकान्त-इति मु० पुस्तके पाठः । | नाईवासाननश्चैव,-इति शा० पुस्तके पाठः । 5 न गो-हुताशन-गुरूणामुपरि, इति मु० पुस्तके पाठः।
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२५०,पाका.]
पराशरमाधवः।
३९
दक्षः,
"प्रदोष-पश्चिमी थामौ वेदाभ्यास-रतानयेत् ।
यामदयं शयानस्तु ब्रह्मभूयाय कल्पते"-इति । ‘सन्ध्यास्नानम्'-इत्यारभ्य, 'योवेष्टितशिराः' इत्यन्तेन ग्रन्थमन्दर्भण श्रुत्युपलक्षणाभ्यामाहिकं मंक्षिप्य निरूपितम् । एतस्य करणे श्रेयः प्रकरणे तु प्रत्यवायः। तदुकं कूर्मपुराणे,
"इत्थं तदखिलं प्रोतमहन्यहनि वै मया । ब्राह्मणानां कृत्यजातमपवर्ग-फल-प्रदम् ॥ नास्तिक्यादथबाऽऽलस्याब्राह्मणो न करोति थः । स याति नरकान घोरान् काकयोनौ प्रजायते ॥ नान्योविमुक्तये पन्था मुत्वाऽऽप्रम-विधि स्वकम्।
तस्मात् कर्माणि कुर्वीत तुपये परमेष्ठिनः" इति॥ इत्थच, 'स्वकर्माभिरतः'-दत्यनेन ब्राह्मणस्य माधारणधर्मानिरूप्य • तत्राध्यनादि-साधारण-धर्म-प्रसङ्गागतमाहिकं परिसमाप्येदानी प्रकृतानेव क्रम-प्राप्तानभिषिक्तस्य क्षत्रियस्य माधारणधर्मानाह,
अवता छनधीयानाः यत्र भैक्ष्यचरा विजाः । तं ग्रामं दण्डयेद्राजा चौर-भक्त-प्रदो हिसः॥६॥ क्षचिया हि प्रजारक्षन्। शस्त्रपाणिः प्रदण्डवान् । निर्जित्य पर-सैन्यानि क्षिति धर्मेण पालयेत् ॥६॥ * साधारणधर्मे।निरूपितः, इति मु० पुस्तके पाठः । । रञ्जन्,-इति मु° पुस्तके पाठः ।
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३८०
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[१०, आ०का •
पुष्पमाचं विचिनुयान्मूलच्छेदं न कारयेत् । मालाकार इव रामे न यथाऽङ्गार-कारकः ॥ ६२ ॥ इति ॥
याज्ञवल्क्यः,
पराशर माधवः ।
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द्विविधो हि राजधर्म, दुष्ट शिक्षा शिष्ट परिपालनञ्च । तत्राद्येन लोकेन दुष्ठ शिक्षा प्रतिपाद्यते । व्रतशब्देनाच ब्रह्मचारि-कर्तृकं मध्वादि - वर्जनमभिप्रेतम् । तथा च याज्ञवल्क्यः, “ व्रतमपीडयन् " - इत्युक्ता विवचितं तद्व्रतं स्पष्टीचकार -
" मधु-मांसाञ्जनेोच्छिष्ट एक स्त्री प्राणिहिंसनम् । भास्करालोकनाचील - परिवादांश्च वर्जयेत्” इति । यदा, स्व- गृह्य प्रसिद्धानि प्राजापत्यादीनि चत्वार्थच व्रतशब्दाभिधेयानि । तदुभयविध-व्रत-रहिताः स्वाध्यायमप्यनधीयाना ब्रह्मचारिणो यत्र प्रामे भैन्यमाचरन्ति तं ग्रामं दण्डयेत् । यतः, स ग्राम चौर-मदृशेम्यो भक्रमन्नं प्रयच्छति । श्रनेन वचनेन विहितमननुतिष्ठतां प्रतिषिद्धमनुतिष्ठतां सर्वेषां राज्ञा दण्डनीयवमुपलक्ष्यते । अतएव नारदः, -
wwwing
“यो यो वर्णोऽवहीयेत यश्चोद्रेकमनुव्रजेत् ।
तं तं दृष्ट्वा खतामागीत् प्रच्युतं स्थापयेत्पथि ” इति ॥
" अशास्त्रोक्त्रेषु चान्येषु पापयुक्तेषु कर्मसु । प्रसमीच्यात्मना राजा दण्डं दण्डयेषु पातयेत् ॥
कुलानि जाती: श्रेणीश्च गणान् जानपदानपि । स्वधमी चकितान राजा विनीय स्थापयेत्पथि " - इति ।
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१५०,या का०]
पराशरमाधवः।
मनरपि,
"पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः ।
नादण्ड्योनाम राज्ञोऽस्ति यस्त्वधर्मेण तिष्ठति"-इति । याज्ञवल्क्योऽपि,
"अपि भ्राता सुतोभार्या श्वशारोमातुलेोऽपि वा ।
नादण्डको नाम राज्ञोऽस्ति धर्मादिचलितः स्वकात्" इति । दण्डा-दण्डनं प्रशंसति याज्ञवल्क्यः,
“यो दण्ड्यान् दण्डयेद्राजा सम्यग्बध्यांश्च घातयेत् । दृष्टं स्यात् क्रतुभिस्तेन समाप्न-वर-दक्षिणैः" इति । अदण्डा-दण्डनं निषेधयति मनुः,
"श्रदण्डमान् दण्डयन् राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् ।
अयशोमहदाप्नोति नरकञ्चैव गच्छति" इति । दण्डश्च विविधः, शारीरोऽर्थ-दण्डश्च *। यथाऽऽह नारदः,
"शारीरश्चार्थ-दण्डश्च । दण्डश्च विविधः स्मृतः । शारीरस्ताडनादिस्तु मरणान्तः प्रकीर्तितः ।।
काकिन्यादिस्त्वर्थ-दण्डः । सर्वस्वान्तस्तथैवच"-दति । राजोदण्डयितत्त्वं महता प्रबन्धेन सम्भावयति मनुः,
"अराजके हि लोकेऽस्मिन् मताविद्रुते भयात् । रक्षार्थमस्य मर्वस्य राजानमसृजत्प्रभुः॥
* शारीर आर्थिकश्चेपि,-इति मु• पुस्तके पाठः । + शारीर आर्थिकञ्चेति,-इति मु० पुस्तके पाठः । + कणादिस्वर्थदण्डस्तु,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः।
धाका
इन्द्रानिलयमार्काणाममेश्च वरुणस्य च । चन्द्र-वित्तेशयोश्चैव मात्रानिहत्य शाश्वतीः ।। यस्मादेषां सुरेन्द्राणां मात्राभ्यानिर्मितानृपः। तस्मादभिभवतोष सर्वभूतानि तेजसा | तपत्यादित्यवच्चैव चचूंषि च मनांसि च । न चैनं भुवि शक्नोति कश्चिदप्यभिवीक्षितुम् * ॥ सोऽनिर्भवति वायुश्च सोऽर्कः सोमः स धर्मराट । म कुवेरः स वरुणः स महेन्द्रः प्रभावतः ॥ वालोऽपि नावमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः । महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति ॥ एकमेव दहत्यनिर्मरं दुरुपमर्पिणम् । कुलन्दहति राजाग्निः स-पर-द्रव्य-मञ्चयम्॥ कायं मोऽवेक्ष्य शक्तिञ्च देश-कालौ च तत्त्वतः । कुरुते धर्म-सिद्ध्यर्थं विश्वरूपं पुन: पुनः ।। यस्य प्रसाद पद्माऽऽस्ते विजयश्च पराक्रमे । मृत्युश्च वसति क्रोधे सर्वतेजोमयो हि सः॥ यस्तु तं दृष्टि सम्मोहात् म विनश्यत्यसंशयम्। तस्य ह्या विनाशाय राजा प्रकुरुते मनः ॥ तस्माद्धर्ममभीष्टेषु सत्यं पश्येनराधिपः ।
* यः कश्चिदभिवीक्षितुम्, इति मु० पुस्तके पाठः। । देशं कालञ्च,-इति मु• पुस्तके पाठः । । तस्माद्धोऽयमिघु,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१०, चा०का० ।]
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महाभारते -
पराशर माधवः ।
श्रनिष्टञ्चाप्यनिष्टेषु तद्ध न विचालयेत् ॥ तस्यार्थे सर्वभूतानां गोप्तारं धर्ममात्मनः । ब्रह्म-तेजोमयं दण्डमसृजत् पूर्वमीश्वरः ॥
तं राजा प्रणयेद्दण्डं * चिवर्गेणाभिवर्द्धते " - इति ।
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*
प्रणयन् धम्मं, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ यत्र – इति मु० पुस्तके पाठः ।
-
50
" परोक्षादेवताः सर्वा राजा प्रत्यक्ष-देवता । प्रसादश्च प्रकोप प्रत्यनो यस्य । दृश्यते ॥
+
राजा माता पिता चैव राजा कुलवतां कुलम् | राजा सत्यञ्च धर्मश्च राजा हितकरो नृणाम्॥ कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा काल-कारणम् । इति ते संशयोमाभूद्राजा कालस्य कारणम् ।
राज- मूल महाराज, धर्म्मोलोकस्य रक्ष्यते ॥
प्रजा राज-भयादेव न खादन्ति परस्परम् " - इति ।
ननु, 'दण्डयेद्राजा ' - इति भूपालस्यापि दण्डयितत्वमुक्तम्. तत्कथं क्षत्रियस्यासाधारण - धर्म: ? मैवं, राजशब्दस्य चत्रिय-विषयनावेयधिकरणे निर्णीतत्वात् । तथाहि
द्वितीयाध्याये श्रवेष्ट्यधिकरणे श्रूयते, -- “ श्राग्नेयमष्टाकपालं निर्वपति हिरण्यं दक्षिणा" - इत्यादिना राजकर्तृके राजसूये श्रवेष्टिनामकेटिं प्रकृत्य, “यदि ब्राह्मणोयजेत वार्हस्पत्यं मध्ये विधायाहुतिं हवा तमभिघारयेत्, यदि राजन्यऐन्द्रं, यदि वैश्यो वैश्वदेवम् " - इति ।
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३८३
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३६४
परापारमाधवः।
[११०,आका।
तत्र संशयः; किं ब्राह्मणादीनामवेष्टौ प्राप्तानां वर्णनां राजसूये अधिकारः, उत क्षत्रियस्यैव ? इति । तदर्थं च, किं राजशब्दः त्रयाणामपि वर्णनां वाचकः, किं वा क्षत्रियस्यैव ? इति। ततोऽपि पुनर्विचारयितव्यम् ; किं राजशब्दो राज्य-योग-निमित्तः, क्षत्रियत्वनिमित्तो वा ? इति। तत्र, राजशब्दो राज्य-योग-निमित्तएव, पार्यप्रसिद्धः सर्वलोक-प्रसिद्धृत्वादविगानाच्च । न तु क्षत्रियत्व-निमित्तः, अनार्य-प्रसिद्धेरार्य-प्रमिय पेक्षया दुर्वलत्वात् । द्रविड़ेषु विगानात् । तदन्येष्वप्रसिद्धेश्च । तत्र स्थात् राज्य-योगात् राजानस्त्रयोऽपि भवन्ति । राज्यपदन्तु, रूल्या जनपद- रक्षणे वर्तते ; न राज-योगमपेक्षते।
ननु, 'कर्मणि'-इत्यधिकृत्य, “पत्यंशपुरोहितादिभ्योयक्”इति वचनात् राजशब्दस्य तत्र पठादाचाराच स्मृतेर्वलीयस्वात् राज-योगएव राज्यपद-प्रति-निमित्तमिति चेत् । लोक-प्रयोगस्यैव शब्दार्थावधारणे प्रमाणत्वात् स्मृतेरपि मएव मूलं नान्यत्। प्रयोगाच्च राज्यशब्दस्यैव स्वातन्य तनिमित्तत्वं च राजशब्दस्यावगम्यते। ततस्तदनुमारेण, स्मरणं शब्दापशब्द-विभाग-मात्र-परं व्याख्येयम् । अतस्त्रयाणामपि राजपदाभिधेयत्वेन राजसूये प्राप्तानां निमित्तार्यानि श्रवणनि । 'यदि' शब्दोऽपि, राजशब्दस्य राज्ययोग-निमित्तत्वे प्रमाणम्। अन्यथा, प्रायभावात् 'यदि' शब्दोऽनुपपन्नः स्यात्। वैदिकश्च निर्देश: स्मृतेरपि वलीयान्। तस्मात्, निमित्तार्थानि श्रवणानि, इति प्राप्ते ब्रूमः।
न तावद्वैदिक-निर्देशादत्र निर्णयः शक्यने, अन्यथाऽपि तत्* अत्र, तस्मात्,-इति पाठी भवितुं युक्तः ।
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परापारमाधवः ।
११०,या का०]
३६५ सद्भावात्। 'राजानमभिषेचयेत्'-दति ह्यभिषेक-विधौ प्रागेव राज्य-योगाद्राजशब्दस्य क्षत्रियमात्रएव प्रयकः । तेन, रूढमेव राजपदं निर्णयते । 'यदि' शब्दस्तु, निपातत्वाद् यथाकथञ्चिदपि नियमे न दुव्यति, इति । स्मरणाश्च स्वतन्त्रमेव राजपदम्। नच तस्य निर्मलत्वं, द्रविड़-प्रयोगस्यैव मूलस्य सम्भवात्। अतोन यथार्थत्वे स्मरणस्य प्रमाणमस्तीति तेनैवाभियुक्त-प्रणीतेनाचारस्य सम्भवात् गौणभ्रान्यादि-प्रयोग-प्रसूतस्य वाधात् राज-योगेन राज्यशब्दः, स्वतन्त्रस्तु राजशब्दः क्षत्रिय-वचन इति ब्राह्मणादेरबेष्टौ प्राप्यभावात् प्रापकानि वचनानि, इति । एवमत्रापि राजशब्दः क्षत्रिय-परः । ननु, जन-रञ्जनाद्राजवं महाभारतेऽभिहितम,
"रञ्जनात् खलु राजत्वं प्रजानां पालनादपि" इति। वाढू, सम्भवत्येवं क्षत्रियस्यापि रञ्जकत्वं, 'क्षत्रियोहि'-दत्यनेन द्वितीयोकेन शिष्ट-पालनरूपो धाविधीयते॥ राज-धर्मोषु प्रजारक्षणस्या प्राधान्येन विवक्षितत्वात् प्रथमं प्रजारक्षण मित्युक्तम् । अतएव याज्ञवल्क्यः ,
“प्रधानः क्षत्रिये धर्म;** प्रजानां परिपालनम्" इति । * राजशब्दः, इति पाठो भतितुं युक्तः । + नयने,-इति पाठो भवितुं यक्तः। । अतो नायथार्थत्वे,-इति पाठो भवितुं युक्तः ।।
5 'तथाहिं'-इत्यारभ्य, 'क्षत्रियपरः'- इत्यन्तोग्रन्थः मुद्रितातिरिक्तपुस्तकेषु न दृश्यते। || धानिरूप्यते,-इति मु. पुस्तके पाठः । पा प्रजारञ्जनस्य,-इति मु० पुस्तके पाठः । एवं परत्र । ** प्रधानं क्षत्रियेकर्मा,-इति स. शा. पुस्तकयाः पाठः ।
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पराशरमाधवः||
धा.का.।
मनुरपि तदेवादौ प्रदर्शयति,
"प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेवच ।
विषयेवप्रसक्रिञ्च क्षत्रियस्य समादिशत्" इति। शान्तिपर्वष्यपि,
"नृपाणं परमोधर्मः प्रजानां परिपालनम्। निर्दिष्ट-फल-भोक्रा हि राजा धर्मेण युज्यते ॥ वर्णानामाश्रमाणाञ्च राजा भवति पालकः ।
खे खे धर्मे नियुञ्जानः प्रजाः स्वाः पालयेत मदा ॥ पालनेनैव भूतानां कृतकृत्यो महीपतिः । सम्यक् पालयिता भागं धर्मस्थानाति पुष्कलम् ।। यजते यदधीते च यददाति यदर्चति । राजा षड्भाग-भाक् तस्य प्रजा धर्मण पालयन् । सर्वाश्चैव प्रजा नित्यं राजा धर्मेण पालयेत् । उत्थानेन प्रसादेन पूजयेचापि धार्मिकान्॥ राज्ञा हि पूजितोधर्मस्ततः सर्वत्र पूज्यते ।
यद् यदाचरते राजा तत् प्रजानाञ्च रोचते"-इति । मार्कण्डेयपुराले,
"वत्म, राज्याभिषिकेन प्रजारञ्जनमादितः ॥ कर्तव्यमविरोधेन खधर्मस्य महीभता । पालनेनैव भूतानां कृतकृत्योमहीपतिः॥
सम्यक् पालपिता भागं धर्मवाप्नोति पुष्कलम्" इति । ब्रह्माण्डपुराणे,
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१५०,या का
पराशरमाधवः ।
२९७
"यदका कुरुते धर्म प्रजाधर्मेण पालयन् ।
दश-वर्ष-सहस्राणि तस्य भुढे महत्फलम्" इति । मनुरपि,
"मवतोधर्म-षड्भागो राज्ञोभवति रक्षतः । अधर्मादपि षड्भागो भवत्येव बरक्षतः ॥ रक्षन् धर्मेण भूतानि राजा वथ्यांच घातयन्। यजतेऽहरहर्यज्ञैः सहस्त्र-शत-दक्षिणैः ॥ योऽरतवलिमादत्ते करं शुल्कञ्च पार्थिवः ।
प्रीति भोगं च दण्डञ्च स सद्योनरकं ब्रजेत्" ॥ रक्षणीयाश्च प्रजाभयमापन्नाः, भयञ्च तासां वेधा सम्पद्यते ; चोरव्याघ्रादिभ्यः पर-मैरेभ्योवा। अतस्तदुभय-निवारणाय, 'प्रदण्डवान्' -दति, 'परमैन्यानि निर्जित्य'-इति चोकम् । एतच निवारणं क्षत्रियस्यैव कुतोऽसाधारणमित्याशय तहेतुत्वेन शस्त्रपाणित्वं वर्णितम् । तच क्षत्रियस्यैव । तथाच मनुः,
“शस्त्रास्त्रमत्त्वं क्षत्रस्य वणिक्-पशु-कृषिर्विशः ।
आजीवनाथं धर्मस्तु दानमध्ययनं जगुः" इति । श्रानुशामनिकेऽपि क्षत्रियं प्रकृत्य पद्यते,
"उत्साहः शस्त्रपाणित्वं तस्य धर्माः सनातनः" ।
* 'इति' पूब्दो नास्ति मु. पुस्तके । + 'मनुरपि'-इति नास्ति मु° पुस्तके । । नास्तीदमई मु० पुस्तके ।
शस्त्रजीवित्वं,-इति शा. पुस्तके पाठः ।
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CE
[१०, या का० ।
शस्त्रपाणिवेन च युद्धोपकरणानि सर्व्वाण्युपलच्यन्ते । तानि च
शान्तिपर्व्वणि दर्शितानि, -
विष्णुः, -
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पराशर माधवः ।
" यष्टयस्तोमाराः खगाः निशिताश्च परश्वधा: ।
फलकान्यथ वर्माणि परिकल्प्यान्यनेकशः " ॥
'प्रदण्डवान्' - दूत्यनेन चौरादि - शिक्षा विवचिता । यद्यप्येषा पूर्व्ववचन एवोका, तथापि तत्र प्राधान्येन प्रतिपादिता, श्रत्र तु प्रजारक्षण-साधनत्वेनेति न पौनरुक्त्यम् । दण्ड-प्रकारमाह मनुः, -
“अनुबन्धं परीक्ष्याथ देश - कालौ च तत्त्वतः । सापराधमथालोच्य दण्डं दण्डयेषु पातयेत्" |
बृहस्पतिरपि -
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" श्राग:व्वपि तथाऽन्येषु ज्ञात्वा जातिं धनं वयः । दण्डन्तु प्रणयेद्राजा सामन्त- ब्राह्मणैः सह” – इति ।
तथा कात्यायनः, -
" वा विम्बधः स्वकश्चैव चतुर्द्धा कल्पितेादमः | पुरुपे दोष-विभवं ज्ञात्वा संपरिकल्पयेत् ॥ गुरुन् पुरोहितान् विप्रान् वाग्दण्डेनैव दण्डयेत् । विवादिनेानरांश्चान्यान् दोषिणोऽर्थेन दण्डयेत् ॥ महापराध - युक्रांच बध - दण्डेन दण्डयेत्” ।
"मित्रादिषु प्रयुञ्जीत वाग्दण्डं धिक् तपखिनाम् । यथोक्तं तस्य तत्कुर्य्यरनुकं साधु- कल्पितम् ॥ अधार्मिकं त्रिभिन्यायैर्निगृह्णीयात् प्रयत्नतः ।
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१का०, ख० का ० }
मनुः, -
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पराशर माधवः ।
निरोधनेन बन्धेन विविधेन वधेन च इति ।
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“दश स्थानानि दण्डस्य मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् । त्रिषु वर्णेषु तानि स्युरक्षता ब्राह्मणो ब्रजेत् ॥ उपस्थमुदरं जिहा हस्तौ पादौ च पञ्चमम् । चक्षुनासे च कर्णे च धनं देहस्तथैव च ॥
प्राणान्तिकोदण्डेो ब्राह्मणस्य विधीयते ।
पुरुषाणां कुलीनानां नारीणाञ्च विशेषतः " - इति । बृहस्पतिरपि -
" जगत् सर्व्वमिदं हन्यात् ब्राह्मणस्य न तत्समम् । तस्मात्तस्य बधं राजा मनसाऽपि न चिन्तयेत् ॥ श्रवध्यान् ब्राह्मणानाडः मर्व्वपापेष्ववस्थितान् । यद्यद्विप्रेषु कुशलं तत्तद्राजा समाचरेत् ॥ राष्ट्रादेनं वहिः कुर्य्यात् समग्रधनमक्षतम् ” - इति । यमेोऽपि -
**
तदा, - इति शा० पुस्तके पाठः ।
" एवं धर्म-प्रवृत्तस्य राज्ञेोदण्डधरस्य च । यशोऽस्मिन् प्रथते लोके स्वर्गे वासस्तथाऽचयः ” - इति ।
पर - सैन्य - निर्जयस्तु शान्तिपर्व्वणि दर्शितः, -
“चैत्रे वा मार्गशीर्षे वा सेनायोगः प्रशस्यते । पक्वशस्या हि पृथिवी भवत्यम्बुमती तथा * ॥ नैवातिशीतानात्युष्णः कालेोभवति भारत ।
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३६६
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४००
पराशरमाधवः।
[१५०,प्रा०का।
तम्मात्तदा योजयीत परेषां व्यसनेषु वा ॥ एते हि योगाः सेनायाः प्रशस्ताः पर-वाधने । जलवांरुणवान्मार्गः समोगम्यः प्रशस्यते ॥ चारैः सुविदिताभ्यामः कुशलैर्वनगोचरैः । सप्तर्षीन पृष्ठतः कृत्वा युद्ध्येयुरचलाइव ॥ यतोवायुर्यतः सूर्यो यतः शक्रस्त ताजयः । अकर्दमामन्दकामम-दामलोष्टकाम् ।। अश्वभूमि प्रशंसन्ति ये युद्धकुशलाजनाः । ममा निरुदका चैव रथमिः प्रशस्यते ।। नोचद्रुमा महाकक्षा मोदका इस्तियोधिनाम् । बहुदा महारक्षा वेणु-वेत्र-तिरस्कृता ॥ पदातीनां क्षमा भूमिः सर्वतोनवनानि च । पदाति-बहुला सेना दृढ़ा भवति भारत ॥ तथाऽश्व-वहुला सेना सुदिनेषु प्रशस्यते । पदाति-नाग-बहुला प्रारकाले प्रशस्यते ॥
गुणानेतान् प्रमङ्याय युद्धं शत्रुषु योजयेत्”- इति। मनुरपि,
"यदा तु यानमातिष्ठेदरि-राष्ट्र प्रति प्रभुः । तदाऽनेन विधानेन यायादरि-पुरं शनैः ।। मार्गशीर्ष शुभे मासे यायाद्यावां महीपतिः ।
* सुविदितेोऽभ्यास,इति मु० पुस्तके पाठः । + प्रधावति च,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
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११०,मा.का.]
पराशरमाधवः।
१०१
फाल्गुनं वाऽथ चैत्र वा मासौ प्रति यथावलम् ॥ अन्येष्वप्यतु-कालेषु यदा पश्येद्धवं जयम्। तदा यायादिग्टहीक व्यसने चोत्थिते रिपो:(१) ॥ कृत्वा विधानं मूले तु यात्रिकच यथाविधि। उपो ग्टह्यास्पदश्चैव चारान् सम्यविधाय १९ ॥ संशोध्य त्रिविध मार्ग पविधञ्च खकं वलम् ।
माम्परायिक-कल्येन यायादरि-पुरं शनैः" इति। बलस्य षविधता-उशनसा दर्शिता,-"मूल-वलं श्रेणी-वलं मित्रवलं मतक-वलं शत्रु-कलमाटविक-वलं च" इति। युद्धार्थ मैन्यमनाह-रचनामाइ मनुः,
"दण्डव्यूहेन तन्मार्ग यायात्तु भकटेन वा । वराह-मकराभ्यां वा सूच्या वा गरुड़ेन वा ॥
* फाल्गुने वाथ चैत्रे वा मासे प्रति यथावलम्, इति मु. पुस्तके पाठः। + उरु,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) व्यसनानि च कामज-क्रोधज भेदेन द्विविधानि । अत्र, काभजानि
दश, क्रोधजान्यशाविति मिलित्वा अष्टादश। तदुर मननैव । "कामजेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः। वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजे खात्मनैव हि ॥ मगयाऽक्षो दिवाखनः परिवादः स्त्रियोमदः। तौर्यत्रिकं स्थाथा च कामजोदशकोगणः ॥ पैशुन्यं साहसं द्रोह ईOऽसूयाऽर्थदूषणम् । वागदण्डजच मारण्यं क्रोधजोऽपि
गणोऽयकः" इति। (२) मूले खकीयदुर्गराष्ट्ररूपे। विधानं तद्रक्षार्थ सैन्यैकदेशस्थापनम्।
यास्पदं शत्रुराष्ट्रस्थस्य येनावस्थानमस्य भवति तादृशं पटमण्डपादि। (३) जागलानूपाटविकरूपविषयभेदेन मार्गस्य त्रैविध्यम् ।
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४०२
परापूरमाधवः।
[११०,या,का।
यतश्व भयमाशङ्कत्ततो विस्तारयेदलम् । पोन चैव व्यूहेन निविशेत तथा खयम् ।। सेनापतीन् वलाध्यक्षान् सर्वदिक्षु निवेशयेत् । यतश्च भयमाशङ्केत्तां प्राची कल्पयेद्दिशम् ।। गुल्मांश्च स्थापयेदाप्तान् कृतसंज्ञान समन्ततः । स्थाने युद्धे च कुशलानभीरूनविकारिण: ॥ मंहतान् योधयेदल्यान* कामं विस्तारयेदहन। सूच्या वज्रेन चैवैतान् व्यूहेन व्यूह्य योधयेत् ॥ स्यन्दनाश्वैः समे युद्ध्येदनूपे नौ-दिपैस्तथा । वृक्षगुल्माहते चापैरसिचायुधैः स्थले ॥ कुरुक्षेत्रांश्च मस्यांश्च पाञ्चालाञ्छरसेनजान् । दीर्घान् लघूश्चैव नरानग्रानीकेषु योजयेत् ॥ प्रहर्षयेद्दलं व्यूह्य तांश्च सम्यक् परीक्षयेत्। चेष्टाश्चैव विजानीयादरीन् योधयतामपि ॥ उपरुद्ध्यारिमामीत राष्ट्रञ्चास्योपपीड़येत् । दूषयेच्चास्य सततं यवमान्नोदकेन्धनम् ॥ भिन्द्याच्चैव तटाकानि प्रकार-परिखास्तथा । समवस्कन्दयेचैनं रात्रौ वित्रासयेदपि ॥ उपजाप्यानुपजपेडुध्यैच्चैव हि तत्कतम्।
* संहतान् विभजेदश्वान्,-इति मु० पुस्तके पाठः । + योधयेत्, इति पाठान्तरम्।
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१५०,या का
पराशरमाधवः।
४०३
युक्त च देवे(९) युद्धोत जयप्रेमुरपेतभीः । साना दानेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक् ॥ विजेतुं प्रयतेतारीन् न युद्धेन कदाचन । अनित्योविजयो यस्मात् दृश्यते युध्यमानयाः ॥ पराजयश्च संग्रामे तस्माद्युद्धं विवर्जयेत् । चयाणामप्युपायानां पूर्वोकानामसम्भवे । तथा युद्ध्येत संयत्तो विजयेत रिपुं यथा ॥ जित्वा संपूजयेद्देवान् ब्राह्मणश्चैव धार्मिकान् । प्रदद्यात् परिहारांश्च ख्यापयेदभयानि च ॥ सर्वेषान्तु विदित्वेषां समासेन चिकीर्षितम् । स्थापयेत् तत्र तदंश्यं कुर्य्याच समयक्रियाम् ॥
प्रमाणानि च कुति तेषां धर्मान् यथोदितान"-दति । उक-प्रकारेण परसैन्यानि निर्जित्य, जितामेतां पूर्वाञ्च खकीयां भुवं राज-धर्मेण पालयेत्। तदेव धर्मेण पालनं, 'पुष्पमात्र'-इति हतीय-लोकेन विशदीक्रियते । यथा, मालाकार पारामे यदा यदा यत् यत्पुष्यं विकसति तदा तदा तद्विचिनोति न तु पुष्पलतामुन्मूलयति, तथा प्रजाभ्यः करमाददाना राजा ययोदयं षष्ठं भाग * युद्धोत सममम्पच्या,-इति मु• पुस्तके पाठः । +परिहारार्थ,-इति मु. पस्तके पाठः ।
+ राजा धर्मेण,-इति पाठी भवितुं युक्तः। (१) पूर्वकालीनपुरषदेहनिष्पन्नं सुकृतं दुष्कृतञ्च फलोन्मुखीभूतं सत्
सुदैवं दुर्दैवञ्चेत्युच्यते । तदुक्तम् । “तत्र देवमभिव्यक्तं पौरुषं पौर्व. देहिकम्" इति ।
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808
पराशरमाधवः।
रिचयाका
रहीयात् । अंगार-कारकम्तु वृक्षमुन्मन्य मात्मना दहति, न तु तथा प्रजाः पीड़येत्। एतच्च शान्तिपर्वणि दर्शितम,
"मधुदोहं दुहेद्राष्ट्र भ्रमरान प्रवासयेत् । नचेक्षवत् पीड़येत* स्तनांश्चैव विकुट्टयेत् ॥ जलौकावत् पिवेद्राष्ट्रं मृदुनैव नराधिपः । व्याघ्रीवदुद्धरेता पुत्र न दंशेन च पीड़येत् ॥ यथा च लेखकः पर्णमाखुः पादत्वचं यथा । अतीक्षणेनाप्युपायेन वर्द्धमानं प्रदापयेत् ॥ ततोभ्यस्ततोभूयः क्रमाद्धिं समाचरेत्" इति ।
मनरपि,
"क्रयविक्रयमध्वानं भकञ्च सपरिव्ययम् । योगं क्षेमञ्च संप्रेक्ष्य वणिजो दापयेत् करान् । यथा फलेन युज्येत राजा का च कर्मणाम् । तथाऽवेक्ष्य नृपोराष्ट्रे कल्पयेत् मतनं करान॥ यथाऽल्याल्पमदन्या वा-कोवत्सषट्पदाः ।
तथाऽल्याल्योग्रहीतव्यो राष्ट्राद्राज्ञाऽऽब्दिकः करः" इति। मार्कण्डेयोऽपि,
"मामानष्टौ यथा सूर्य्यस्तोयं हरति रश्मिभिः । सूक्ष्मेणैवाभ्युपायेन तथा शुल्कादिकं नृपः" इति।
* नेक्षवत् पोड़येल्लोक,-इति शा. पुस्तके पाठः ।
नलूकावत्,-इति मु° पुस्तके पाठः । व्याघ्रीवदाहरेत,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
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१७ या का।
पराशरमाधवः ।
४.५
एतच करादानं मालाकार-दृष्टान्तेन प्रतिपादितमितरेषामपि सर्वेषां राज-धर्माणामुपलक्षणम्। ते च धर्माः याज्ञवल्कोन दर्शिताः,
"महात्माः स्थललक्षः कृतज्ञो वृद्ध-सेवकः । विनीतः मत्वसम्पन्नः कुलीनः सत्यवाक् शुचिः ॥ प्रदीर्घसूत्रः स्मृतिमानक्षुधो ऽपरुषस्तथा । धार्मिकोऽव्यसनश्चैव प्राज्ञः सूरोरहस्यवित् ॥ स्व-रन्ध्र-गोप्ताऽऽन्वीक्षिकयां दण्डनीत्यां तथैवच ।
विनीतस्वथ वातायां चय्याश्चैव नराधिपः" इति । यएतेऽन्तरङ्गा राजधाः , एतएव राजगुणाः, इत्यप्युच्यन्ते । श्रतएव, “षट्त्रिंशद्गुणोपेतो राजा",- इत्यस्य सूत्रस्य व्याख्यानावसरे, महात्माहादयः उशनमा पठिताः। वहिरङ्गापि राजधा याचवल्क्येन दर्शिताः,
"सुमन्त्रिण: प्रकुति प्राज्ञान्मौलान् स्थिरान शचीन्।
तै: माटुं चिन्तयेद्राज्यं विप्रेणाथ ततः स्वयम्" इति । मनुरपि,
"मौलाञ्छास्त्र विदः शूगन् लञ्चलक्षान् कुलोहतान् । मचिवान् सप्त चाटौ वा प्रकुर्चीत परीक्षितान् ॥
तः मार्द्ध चिन्तयेनित्यं मामादोन मन्धि-विग्रहान । * स्मृतिमानक्षुद्रो,-इति मु० पुस्तके पाठः। + यरतेऽन्तरङ्गाराजगुणा इत्युच्यन्ते तरते राजधाः , इति मु. पुस्तके पाठः।
सामान्यं सन्धिविग्रहम्, इति पाठान्तरम्।
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पराशरमाधवः।
का.का.।
स्थानं समुदयं गुप्तिं लब्ध-प्रशमनानि च ॥ तेषां खं स्वमभिप्रायमुपलभ्य पृथक् पृथक् । समस्तानाञ्च कार्येषु विदध्याद्धितमात्मनः । सर्वेषान्तु विशिष्टेन ब्राह्मणेन विपश्चिता । मन्त्रयेत परमं मन्त्रं राजा सामान्य-संयुतम् ॥ नित्यं तस्मिन् समाश्वस्तः सर्वकार्याणि निःक्षिपेत् ।
तेन साई विनिश्चित्य ततः कर्म समारभेत्" इति । पारभणीयञ्च कर्म, देश-विशेषे दुर्ग-सम्पादनम् । तच्च याज्ञवल्क्येन दर्शितम्,
"रम्यं यशस्यमाजीव्यं जाङ्गलं देशमावसेत् ।
तत्र दुर्गानि कुर्बोत जनकोशात्मगुप्तये"-इति ॥ दुर्गभेदामनुना दर्शिताः,
"धन्वर्ग महीदुर्गमदुर्ग वार्तमेव वा । नृदुर्ग गिरिदुर्गञ्च समात्य वसेत् पुरम् ॥
सर्वेण तु प्रयत्नेन गिरिदुर्ग समाश्रयेत्” इति । दुर्ग-संविधान-प्रकारः शान्तिपर्वणि दर्शितः,
* घाडगुण्यसंयुतम्, इति पाठान्तरम्। + प्रशम्यमाजीव्यम्, इति मु° पुस्तके पाठः ।
(१) तिष्ठत्यनेनेति स्थानं दण्डकोषपुरराष्ट्रात्मकं चतुर्विधम्। समुदय
न्त्युत्पद्यंते अर्था अस्मादिति समुदयोधान्यहिरण्याद्युत्पत्तिस्थानम्। यात्मगता राष्ट्रगता च रक्षा गुप्तिः । लब्धस्य प्रशमनं सत्यात्रे प्रतिपादनादिकम्।
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२०, व्या०का० 1]
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पराशरमाधवः ।
याज्ञवल्क्योऽपि
" दृढ- प्राकारपरिखं हस्त्यश्व रथ- मङ्कुलम् । उस्विननागरञ्च चत्वरापण शोभितम् ॥
प्रसिद्ध-व्यवहारञ्च प्रशान्तमकुतोभयम् ।
रा प्राज्ञ - सम्पूर्ण तत्पुरं स्वयमाविशेत्” -- इति ।
मनुरपि,
" तस्यादायुध - सम्पन्नं धन-धान्येन वाहनैः । ब्राह्मणेः शिल्पिभिर्यन्त्रैर्य व सेनेादकेन्धनैः ॥ तस्य मध्ये तु पीतं कारयेद्ग्टहमात्मनः । गुप्त सर्व्वर्त्तकं शुद्धं जल-वृक्ष - समन्वितम् ” – इति । दुर्ग - संविधानमुक्का यागादि धर्मानपि सएवाच -
" तदध्यास्योदद्भार्यं सवर्णों जक्षणान्विताम् । कुले महति सम्भूतां हृद्यां रूप समन्विताम् ॥ पुरोहितञ्च कुर्वीत वृणया देव चर्त्विजम् । तेऽस्य ग्टह्यानि कर्माणि कुर्युर्वैतानिकानि च ॥ यजेत राजा क्रतुभिर्विविधैराप्तदचिणैः । यज्ञार्थं चैव विप्रेभ्यो दद्याद्भोगान् धनानि च ॥ सांवत्सरिकमाप्तैश्च राष्ट्रादाहारयेदलिम् । स्याच्चाम्नाय परोल के वर्त्तत पिटवन्नषु" - इति ।
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*
रूपगुणान्विताम्, – इति पाठान्तरम् । + धम्मार्थं, - इति पाठान्तरम् ।
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४०७
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४०
पराशरमाधवः।
[१०,याका.
"पुरोहितच्च कुर्वीत दैवजमपिचाधिकम् । दण्डनीत्याञ्च कुशलमीङ्गिरसे तथा ॥ श्रौत-म्मान-क्रिया-हेतोईणयादेव चर्विजः । यज्ञांश्चैव प्रकुर्वीत विधिवद्भरि-दक्षिणान् ॥ भोगांश्च दद्याद्विशेभ्यो वस्खनि विविधानि च । म-दान-मान-सत्कारैवासयेत् श्रोत्रियान् सदा"-इति ।
मनुरपि,
"म्रियमाणोऽप्याददीत न राजा श्रोत्रियात् करम् । न च क्षुधाऽस्य संमीदेत् श्रोत्रियो विषये वसन् ॥ यस्य राज्ञस्तु विषये श्रोत्रियः सीदति क्षुधा। तस्यापि तत् क्षुधा राष्ट्रमचिरादेव मीदति ॥ श्रुत-इत्ते विदित्वाऽस्य रत्तिं धयों प्रकल्पयेत् ।
संरक्षेत् सर्वतश्चैनं पिता पुत्रभिवौरसम्" इति। भानुभासनिकेऽपि,
"शाला-प्रपा-तड़ागानि देवताऽऽयतनानि च । ब्राह्मणावसथश्चैव कर्त्तव्यं नृपसत्तमः ॥ ब्राह्मणा नावमन्तव्याः भस्म-छन्नाइवाग्नयः । कुलमुत्पाटयेयुस्ते क्रोधाविष्टा द्विजातयः || दुष्टानां शासनं धर्मः शिष्टानां परिपालनम्।
कर्त्तव्यं भूमिपालेन नित्यं कार्येषु चार्जवम्" इति । शान्तिपर्वण्यपि,
"वालातुरेषु भूतेषु परित्राणं कुरुदह ।
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१०,या का
पराशरमाधवः।
808
भरणागतेषु कारुण्यं कुर्यात्तत्र समाहितः ॥ भरणं सर्वभूतानां रक्षणञ्चापि सर्वशः । यष्टव्यं क्रतुभिनित्यं दातव्यञ्चाप्यपीडया॥ प्रजानां रक्षणं काय न कार्य कर्म सहितम्। आश्रमेषु यथाकालं गेलं भोजन-भाजनम् ॥ खयन्नूपहरेद्राजा मत्सत्य विधिपूर्वकम् । श्रात्मानं सर्वकार्याणि तापसे राज्यमेवच ॥ निवेदयेत् प्रयत्नेन तिष्ठेत् प्रतश्च नित्यशः । विक्रमेण महीं लञ्चा प्रजाधर्मेण पालयन् ॥ प्राइवे निधनं कुर्याद्राजा धर्म-परायणः ।
पाहवे च महों लञ्चा श्रोत्रियायोपपादयेत्" इति। मनुः,
"मोहाद्राजा स्वराष्ट्र यः कर्षयत्यनवेक्षया । सोऽचिराङ्गण्यते राज्यानीविताच मवान्धवः ॥ शरीर-कर्षणात् प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा।
तथा राज्ञामपि प्राणा: हीयन्ते राष्ट्र-कर्षणात्" इति। दिन-चा तु मनुना दर्शिता,
"उत्थाय पश्चिमे यामे कृतशौच: समाहितः ।
हुत्वाऽग्निं ब्राह्मणांश्चार्य प्रविशेष सभा शुभाम्" इति। स्मत्यन्तरेऽपि,
* ततः, इति मु पुत्तके पाठः ।
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११.
पराशरमाधवः।
[११,माका.
"प्रातरुत्थाय नृपतिः कुर्यादन्तस्य धावनम् । खान-शाला ममागत्य स्नात्वा पूतेन वारिणा ॥ अधैं दत्वा तु देवाय भास्कराय समाहितः । ततोऽलङ्कृत-गानः सन् वक्रमालोक्य मन्त्रवित् ॥
घृत-पात्रं तु विप्राय दद्यात् सकनकं मपः" इति । याज्ञवल्क्योऽपि,
"ऋत्विकपुरोहिताचाराशीभिरभिनन्दितः । दृष्टा ज्योतिर्विदोवैद्यान् दद्यागाः काधनं महीम् ।
नैवेशिकानि च तथा श्रोत्रियाणां ग्टहाणि च" इति । नैवेशिकानि विवाहोपयोगीनि कन्याऽलङ्कारादीनि । दानानन्तरं छत्यं मनुराह,
"तत्र स्थितः प्रजाः सर्वाः प्रतिनन्ध विसर्जयेत् । विसृज्य च प्रजाः सर्वाः मन्त्रयेत् सह मन्त्रिभिः ॥ गिरिपृष्ठं समारुह्य प्रामादं वा रहोगतः । अरण्ये निःशलाके वा मन्त्रयेताविभावितः ॥ मध्यन्दिनेऽर्द्धरात्रे वा विश्रान्तो विगतक्तमः । चिन्तयेत् धर्मकामार्थान् मार्द्ध तेरेकएवच ॥ कन्यानां सम्प्रदानञ्च कुमाराणाच रक्षणम् । दूतस्य प्रेषणञ्चैव कार्यशेषं तथैवच ॥
अन्तःपुर-प्रजानाञ्च प्रणिधीनाञ्च चेरितम् । * मन्त्रवत्, इति मु० पुस्तके पाठः । +तपात्रे, इति शा. पुस्तके पाठः ।
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१५.,बाका.10
पराशरमाधवः।
०११
छत्स्नं चाष्टविधं कर्म पञ्चवर्गच तत्त्वतः ।। अनुरागापरामौ च प्रचार मण्डलस्य । अरेरनन्तरं मित्रमुदासीनं तयोः परम् ।। तान् सर्वानभिसन्दध्यात् सामादिभिरुपक्रमैः । व्यस्तैश्चैव समस्तैश्च पौरुषेण नयेन च ॥ मन्धिं च विग्रहं चैव थानमासनमेव च । वैधीभावं संचयं च षड्गुणांश्चिन्तयेत्मदा ॥ प्रासनञ्चैव थानञ्च सन्धि विग्रहमेवच । कायें वीक्ष्य प्रयुञ्जीत वैधं संश्रयमेवच ।। उपेतारमुयेयञ्च मापार्याश्च कृत्स्नमः ।
एतत्त्रयं ममाश्रित्य प्रयतेतार्थसिद्धये" । अष्टविधत्वन्तु कर्मण उशनसा प्रदर्शितम्,
"प्रादाने च विसर्ग च तथा प्रेषनिषेधयोः । पञ्चमे चार्थवचने व्यवहारस्य चेक्षणे ।। दण्डड्योः समायुक्तस्तेनारगतिकोनृपः”। इद्धिः प्रायश्चित्तम् । पञ्चवर्गस्तु, कापटिक-दाम्भिक-सहपति-वैदेहक-तापस-व्यञ्जनाश्चराः। कर्मणामारम्भोपायः,पुरुष-द्रव्य-संपत् विनिपात-प्रतीकारः, कार्यसिद्धिरिति वा पञ्चवर्गः ।
"एवं सर्वमिदं राजा सह समन्त्रा मन्त्रिभिः। व्यायाम्यासुत्य मध्यान्हे भोलुमन्तःपुरं व्रजेत् ॥
तवात्मम्भूतैः काल रहार्ये: परिचारकैः । __ • श्रुद्धिरित्यारभ्य, पञ्चवर्गः, -इत्यन्तो ग्रन्थोनास्ति मु० पुस्तके।
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०१२
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पराशर माधवः ।
* यथाकालं, - इति पाठान्तरम् ।
+ त्वन्यत् - इति पाठान्तरम् ।
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सुपरीचितमन्वाद्यमद्यान्मन्त्रैर्व्विषापहः ॥ विषन्नैरगदैश्वास्य सर्व्वद्रव्याणि योजयेत् ।
विषघ्नानि च रत्नानि नियतेाधारयेत्सदा ॥ परीक्षिताः स्त्रियश्चैनं व्यजनोदकधूपनैः । बेषाभरणसंयुक्ताः संस्पृशेयुः समाहिताः ॥ एवं प्रयत्नं कुर्वीत यान - शय्यासनाशने । खाने प्रसाधने चैव सर्व्वालङ्कारकेषु च ॥ शुक्रवाम् विरेचैव स्त्रीभिरन्तःपुरे सह । विहृत्य च यथाकामं* पुनः कार्य्याणि चिन्तयेत् ॥ अलङ्कृतश्च संपश्येदायुधीयं पुनर्जनम् । वाहनानि च सर्व्वणि शस्त्राण्याभरणानि च ॥ सन्ध्याञ्चीपास्य शृणुयादन्तर्वेश्मनि शस्त्रभृत् । रहस्याख्यायिनां चैव प्रणिधीनाञ्च चेष्टितम् ॥ गत्वा कक्षाऽन्तरं सम्यक् समनुज्ञाप्य तं जनम् । प्रविशेद्भोजनार्थन्तु स्त्री-वृतेाऽन्तःपुरं पुनः ॥ तत्र भुक्का पुनः किञ्चित्तूर्य्यघोषैः प्रहर्षितः । संविशेश्च्च यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः ॥ एतद्विधानमातिष्टेदरोगः पृथिवीपतिः । अस्वस्थः सर्व्वमेवैतत् भृत्येषु विनिवेशयेत्” - इति । धर्मान्तरमाइ मनुः, -
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[१ब०, चा०का० ।
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१५०,या का।
पराशरमाधवः।
8१३
"मङ्खामेव्वनिवर्तित्वं प्रजानाञ्चैव पालनम्। शुश्रूषा ब्राह्मणानाञ्च राज्ञः श्रेयस्करं परम्॥ अलब्धश्चैव लिप्मेत लब्धं रक्षेच यत्नतः । रक्षित वर्द्धयेचैव वृद्धं पात्रेषु निःक्षिपेत्॥ श्रमाययैव वर्तेत न कथञ्चन मायया ।
बुद्ध्येतारि-प्रयुतान्तु मायां नित्यं सुसंवतः" इति। शान्तिपर्वष्यपि,
"व्यसनानि च सर्वाणि नृपतिः परिवर्जयेत् ।
लोक-संग्रहणार्थाय कृतकव्यसनी भवेत्" इति। तानि व्यसनानि मनुना दर्शितानि,
"दश काम-समुत्थानि तथाऽष्टौ क्रोधजानि च । मृगयाऽक्षो दिवास्वप्नः परीवादः स्त्रियोमदः॥ तौर्यविकं वृथाऽढाब्या कामजोदशकोगणः। पैन्यं माहसं द्रोह ईयाऽस्याऽर्थ-दूषणम् ॥ वाग्दण्डजच्च पारुष्यं क्रोधोऽपि गणोऽरकः । कामजेषु प्रशको हि व्यसनेषु महीपतिः ॥ वियुज्यतेऽर्थ-धर्माभ्यां क्रोधजे खात्मनैव तु । दयोरप्येतयोर्मूलं यं सर्वे कवयोविदुः ॥ तं यत्नेन त्यजेल्लाभं त्याज्यौ ह्येतौ गणावुभौ । पानमक्षाः स्त्रियश्चैव मृगया च ययाक्रमम् ॥ एतत्कष्टतमं विद्याचतुष्क कामजे गणे। दण्डस्य पातनश्चैव वाक्पारुण्यार्थदूषणे ॥
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४१४
परापारमाधवः।
था.का.॥
क्रोधजेऽपि गणे विद्यात् कष्टमेतत्त्रिकं सदा। ध्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते ॥
ध्यसन्यधो हि ब्रजति खात्यव्यसनी म्टतः" इति । मार्कण्डेयोऽपि,
"व्यसनानि परित्यज्य सप्त मूलहराणि च(१) । श्रात्मा रिपुभ्यः संरक्ष्योवहिर्मन्त्र-विनिर्गमात् ॥ स्थान- द्धि-क्षय-ज्ञान-पाड्गुण्य-विजितात्मना। भवितव्यं नरेन्द्रेण न कामवमवर्तिना ॥ प्रागात्मा मन्त्रिणश्चैव ततोमत्यामहीमता। चेयाश्चानन्तरं पौराविरुद्ध्येत ततोऽरिभिः । यस्वेतानविनिर्जित्य वैरिणोविजिगीषते ।
सोऽजितात्माऽजितामात्यः शत्रुवर्गेण वाध्यते” इति। तदेवमुक-धर्मकलापेन संयुको राजा प्रजाः पालयेत् । तदुक्तं मनुना,
"एवं मर्च विधायेदमितिकर्तव्यमात्मनः ।
युकश्चैवाप्रमत्तश्च परिरक्षेदिमाः प्रजाः" इति । प्रजा-रक्षणे राज्ञः श्रेयोविशेष ऐहिक प्रामुभिकञ्च शान्तिपर्वणिदर्शितः,* प्रजासु समवर्तिना,-इति मु० पुस्तके पाठः। (१) कामजेघ पानादि चतुम्कं क्रोधजेघु दण्डपातनादित्रिकं च कछतमत्वेनोक्तम् । तान्येवात्र 'सप्त' प्राब्देन निर्दिश्यन्ते । तान्येव च कटतमत्वात् मलहराणीत्युच्यन्ते।
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१५०,वा का
पराशरमाधवः।
"स्त्रियश्च पुरुषामार्ग मालद्वार-भूषिता । निर्भयाः प्रतिपद्यन्ते यदा रक्षति भूमिपः ॥ धर्ममेव प्रपद्यन्ते न हिंसन्ति परस्परम् । अनुयुद्ध्यन्ति चान्योन्यं यदा रक्षति भूमिपः ॥ यजन्ते च महायजैस्त्रयोवर्णः पृथग्विधैः । घुकावाधीयते वेदान् यदा रक्षति भूमिपः ॥ पदा राजाऽऽयुधं श्रेष्ठमादाय वहति प्रजाः ।
महता वलयोगेन तदा लोकान् ममश्रुते"-इति । रामायणेऽपि,
“यः क्षत्तियः वधर्मेण पृथिवीमनुशास्ति वै ।
स लोके लभते वीर्य यशः प्रत्य च सहतिम्" इति । अपाखने दोषः शान्तिपर्वणि दर्शितः,
"यानं वस्त्रायलङ्कारान् रत्नानि विविधानि च । हरेयुः सहसा पापाः, यदि राजा न पालयेत् ॥ पतेबहुविधं शस्त्रं न कृषिर्न वणिकपथः । मजेद्धर्मस्वयी न स्यात् यदि राजा न पालयेत्” इति ।
॥०॥ इति राज-धर्म-प्रकरणम् ॥०॥
*पत्र, अनुराध्यन्ति, इति पाठो भवितुं यतः।
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४१६
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पराशर माधवः ।
क्रम प्राप्तान् वैश्यस्यासाधारण - धर्मनार, -
अथ वैश्य धर्म्म-प्रकरणम् ।
मनुरपि -
लाभक तथा रत्नं गवां च परिपालनम् । कृषि - कर्म्मच वाणिज्यं वैश्य - वृत्तिरुदाहृता ॥६३॥
वैश्य धर्मत्वमाह याज्ञवल्क्यः, -
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लाभार्थं कर्म्म, लाभकर्म्म; कुसीदाद्युपजीवनमित्यर्थः । रत्नं मणिमुक्तादि । तेन च तत्परीक्षण - क्रय-विक्रया उपलक्ष्यन्ते । गवां पालनं दकप्रदान - वन्धन-मोचन - दोहनादि । कृषिक, भूमिकर्षण - वीज वापनादि । वाणिज्यं क्रयिक- धान्यादि क्रय-विक्रया । कुमीदादीनां
-
[१०, च्या०का●|
" कुसीद - कृषि - वाणिज्यं पाशुपाल्यं विशः स्मृतम्” - दूति ।
" पशूनां रचणं दानमिज्याध्ययनमेवच । वणिक्पथं कुसीदञ्च वैश्यस्य कृषिमेवच " - इति ।
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समादिशदिति शेषः । वराहपुराणेऽपि -
"स्वाध्यायं यजनं दानं कुमीद - पशुपालनम् । गोरक्षां कृषिवाणिज्यं कुर्य्यादृभ्यो यथाविधि ” — इति । पशुपालनं अजाश्वादि- पालनं, गोशब्दस्य पृथगुपात्तत्वात् । श्रानुशामनिके विक्रेय-द्रव्याण्यपि निदर्शितानि -
61
" तिल - च-रमाश्चैव विक्रयाः पशुवाजिनः ।
वणिक्पथमुपासीने वैश्येर्वग्य - पथि स्थितैः " - इति ।
शान्तिपर्वणि जावाल्युपाख्यान - प्रमङ्गेन वैग्यधर्मास्तुलाधारेणोदिताः, -
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११.या०का]
पराशरमाधवः।
११७
लाभकर्मादीनि वाणिज्यान्तानि, तानि सर्वाणि वैश्यवृत्तिः वैश्यस्य जीवनहेतुः, इत्यर्थः । तदुक्तं मार्कण्डेये,
"दानमध्ययनं यज्ञोवैश्यस्यापि त्रिधैव सः ।
वाणिज्यं पारापाल्यञ्च कृषिश्चैवास्य जीविका" इति । अर्घ-विज्ञानादयो वैश्यधर्मत्वेन द्रष्टव्याः । अतएव मनुना वैश्यधर्मेषु पठिता:
"वैश्यस्तु कृत-संस्कारः कृत्वा दार-परिग्रहम् । वार्तायां नित्ययुक्तः स्यात् पशूनाञ्चैव रक्षणे॥ प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्टा परिददे पशून्। न च वैश्यस्य कामः स्यान रक्षेयं पभूनिति ॥ वैश्य चेच्छति नान्येन रक्षितव्याः कथञ्चन । मणि-मुका-प्रवालानां लौहानां तान्तवस्य च ॥ गन्धानाच रसानाञ्च विद्यादर्घवलावलम् । वीजानामुप्तिविच स्थात् क्षेत्र-दोष-गुणस्य च ॥ मान-योगांश्च जानीयात्तुला-योगांश सर्वतः । मारामारञ्च भाण्डानां देशानाञ्च गुणगुणम् ।। लाभालाभच्च पण्यानां पशूनाञ्च विवर्द्धनम् । भृत्यानाञ्च मतिं विद्याभाषाश्च विविधानृणाम् । द्रव्याणं स्थान-योगांश्च क्रय विक्रयमेवच ॥ धर्मेण च द्रव्य-वृद्धावातिष्ठानमुत्तमम् ।
दद्याच्च सर्वभूतानामन्नमेव प्रयत्नतः” इति । कृषि-वाणिज्य-गोरक्षाः वा शब्देनोच्यन्ते, मानयोगा प्रचलि
53
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F
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परामाधवः ।
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[१०, ख० का० ।
प्रम्यादि - माध्याः । मूलवचने 'लाभक' - इत्यत्र, 'लौहकर्म' - इति के चित् पठन्ति । लौहस्य सुवर्णरजतादेरर्धपरिज्ञान- क्रयादिकं तत्कर्मेति व्याख्येयम् । लौहानाञ्चेति मनुपठितत्वात् । यथेोकधर्मानुष्ठाने फलमाश्वमेधिके वर्णितम्, -
"वधिच मुञ्चन् वै देव-ब्राह्मण - पूजकः ।
म वणिक् स्वर्गमाप्नोति पूज्यमानोऽप्सरोगणैः " - इति । वैपरीत्ये दोष: शान्तिपर्व्वणि दर्शितः, -
“यः करेति जनान् साधून् वलिकर्मणि वचनम् । स याति नरकं घोरं धनं तस्यापि हीयते " - दति । ॥०॥ इति वैश्यधर्म-प्रकरणम्॥०॥
क्रम-प्राप्ताश्वद्रस्याम्चाधारण-धर्मानाह,
शूद्रस्य द्विज शुश्रूषा परमोधर्म्मउच्यते । अन्यथा कुरुते किञ्चित्तद्भवेत्तस्य निष्फलम् ॥ ६४ ॥
अत्र, दिज-शब्दो ब्राह्मण- परः, तत्-शुश्रूषायाः परमत्वं नि:श्रेयसहेतुत्वात् । तदाच मनुः, -
"विप्राणां वेदविदुषां ग्टहस्थानां यशस्विनाम् । शुश्रूषेव तु शूद्रस्य धर्मे नैश्रेयसः परः ॥
चित्कृष्ट शुश्रूषुर्मृदुः शान्तोऽनकृतः । ब्राह्मणोप्राश्रयेोनित्यमुत्कष्टां जातिमश्रुते " - इति ।
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विष्णुपुराणेऽपि
* रजतादेरर्धपरीक्षा ज्ञानक्रयादिकं, इति मु० पुस्तके पाठः
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१०, ख० का• । ]
To
श्रानुशासनिकेऽपि -
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पराशर माधवः ।
“द्विज- शुश्रुषयेवैष पाकयज्ञाधिकारकन् ।
निजान् जयति वै लोकान् शूद्रोधम्यतरः स्मृतः” इति ।
शान्तिपर्व्वण्यपि -
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"रागदेषश्च मोच पारुष्यञ्च नृशंसता । शाद्यक्ष दीर्घवेरत्वमतिमानमनार्जवम् ॥ श्रमतश्चातिवादश्च पैशुन्यमतिलोमताः । निकृतिश्चाप्यविज्ञानं जनने शुद्रमाविशत् ॥ दृष्ट्वा पितामहः शूद्रमभिभूतन्तु तामसेः । द्विज-शुश्रूषणं धर्मं शूद्राणाञ्च प्रयुक्तवान् ॥ नश्यन्ति तामसा भावाः शूद्रस्य द्विजभक्तितः । द्विज-शुश्रूषया शूद्रः परं श्रेयोऽधिगच्छति " - इति ।
परम्, -इति विशेषणादन्येऽपि केचन धर्माः सन्तीति गम्यते । ते च देवलेन दर्शिताः, -- “ शुद्रधर्मास्त्रिवर्ण-शुश्रूषा कलत्रादि-पोषण कर्षण - पशुपालन- भारोव हन- पण्यव्यवहार चित्रक - नृत्य गीत - वेणुवीला - मुरज-म्मृदङ्ग-वादनानि " - इति । विष्णुपुराणेऽपि - "दानञ्च दद्याच्छूद्रोऽपि पाकयज्ञैर्यजेत च।
पित्र्यादिकञ्च वै सर्व्वं शूद्रः कुर्वीत तेन वा" - इति । याज्ञवल्क्योऽपि -
"भायारतः शुचिर्भृत्य भक्ती श्राद्ध-क्रिया परः ।
नमस्कारेण मन्त्रेण पञ्च यज्ञान्न हापयेत्” - इति ।
४१
"स्वाहाकार - नमस्कार मन्त्रं शूद्रे विधायते ।
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४२०
परापारमाधवः।
[१घया०का।
ताभ्यां शूद्रः पाकयज्ञैर्यजेत ब्राह्मणान्* स्वयम् ॥ सञ्चयांश्च न कुर्वीत जातु शूद्रः कथञ्चन । मेवया हि धनं लब्धा वशे कुर्य्याहरीयमः ।।
राज्ञा दानमनज्ञातः कामं कुर्वीत धार्मिकः" इति। पानशासनिकेऽपि,
"अहिंसकः शुभाचारोदेवता-दिज-पूजकः ।
शूद्रोधर्म-फलैरिटैः स्वधर्मेणैव युज्यते” इति। म केवलं विप्र-शुश्रूषा निश्रेयमार्था, अपि तु वृत्त्याऽपि । अत एव प्रकल्यमाना वृत्तिर्मनुना दर्शिता,
"प्रकल्या तस्य वै रत्तिः खकुटुम्बाद्यथाहतः । भक्तिच्चावेक्ष्य दाक्ष्यञ्च । भत्यानाञ्च परिग्रहम् ॥ उच्छिएमन्न दातव्यं जीर्णानि वसनानि च ।
पलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णश्चैव परिच्छदाः" इति । शान्तिपर्वण्यपि,
"यश्च कश्चिट्विजातीनां शूद्रः शुश्रूषुराव्रजेत् । प्रकल्या तस्य तैराहुत्तिधर्मविदोजनाः ॥ छत्र-वेटन-पुञ्जानि उपानयजनानि च।
यातयामानि देयानि शूद्राय परिचारिणे” इति । अन्यथा दिज-श्रूषामन्तरेण यदि किञ्चित् पाकयज्ञादिकं कुर्यात्, तत्म निष्फलं भवेत्। तदुक्तं मनुना,
* ब्रह्मवान्,-इति शा० पुस्तके पाठः। + भक्तिञ्च,-इति मु० पुस्तके राठः ।
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१८०या० का ० 11
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पराशर माधवः ।
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" विप्र - सेवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म कथ्यते । यदतोऽन्यद्धि कुरुते तद्भवेत्तस्य निष्फलम्” इति ।
तस्मात् द्विज-शुश्रूषैव तस्य परमोधर्मः, क्षत्रिय - वैश्य-शुश्रूषा तु केवल-वृत्त्यर्थत्वादपरमोधर्मः । अतएव मनुना, विप्र-पूश्रूषाया उभ यार्थत्वमितर- शुश्रूषायाः केवल-वृत्त्यर्धवञ्च दर्शितम्, - "शूद्रस्तु वृत्तिमाकाङ्क्षन् क्षत्रमाराधयेद्यदि । धनिनं वाऽप्युपाराध्य वैrयं शूद्रो जिजीविषेत् ॥ स्वर्गार्थमुभयार्थं वै विप्रानराधयेत् तु सः * ।
४२१
जात - ब्राह्मण-शब्दः स्यात् सा ह्यस्य कृतकृत्यता !" - इति ॥ यदा दिज-शुश्रूषया जीवितुं न शक्नोति तदा किं कुयीदित्यतश्राह -
लवणं मधु तैलञ्च दधि तकं घृतं पयः । न दुष्येच्छूद्रजातीनां कुर्य्यात्सर्व्वेषु विक्रयम् ॥६५॥ शुश्रूषया जीवितुमशकेोजीवनाथ लवणादिषु सर्व्वेषु विक्रयं कुर्य्यात् । ननु, लवणादीनि विक्रयमाणानि विक्रेतुर्देषमावहन्ति । तदाह याज्ञवल्क्यः, -
"फलोपलक्षौम सेोमनुष्यापूपवीरुधः । तिलोदनरमतारान् दधि चीरं घृतं जलम् ॥
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* ब्राह्मणानेव राधयेत्, - इति शा० स० पुस्तकयेाः पाठः |
+ जातब्राह्मणशब्दस्य नास्य कृतकृत्यता, इति मु० पुस्तके पाठः । | यदि शुश्रूषया जीवितुं न शक्नोति, जीवनाय लवणादिविक्रयं कुर्य्यात्, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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११२
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मृच:
पराशर माधवः ।
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वसा - रस- प्रधूच्छिष्ट - मधु - लाक्षा" सवर्हिषः ।
1- पुष्प - कुतप - केश - तक्र - विष- क्षितीः ॥
॥
कौशेय - नील- लवण - मांसेकशफ-सीसकान् ।
शाका
विधि-पिण्याक-पशु-गन्धांस्तथैव च ॥
वैश्य - वृत्त्याऽपि जीवन्नो विक्रीणीत कदाचन ।
लाक्षा - लवण - मांसानि वर्जनीयानि विक्रये ॥
पयोदधि च मद्यं च हीनवर्ण-कराणि च” – इति ।
हीनवर्णः शूद्रः । मैवम् श्रस्य ब्राह्मण - विषयत्वात् । श्रतएव मनुः, - “सद्य: । पतति मांसेन लाक्षया लवणेन च ।
[१ ० का ० का ०
त्र्यहेण शूद्रोभवति ब्राह्मणः चीर-विक्रयात्?”– इति । शूद्रस्तु लवणादीनि विक्रीणन्नपि न दुष्येत् ॥ । 'विक्रीणन्' - इति पदं वक्ष्यमाण-श्लोकादनुषज्य योजनीयम् । याज्ञवल्क्योऽपि शुश्रूषया जीवितुमशक्रस्य शूद्रस्य वाणिज्यादिकमाह -
"शूद्रस्य द्विज-शुश्रूषा तथाऽजीवन् वणिग्भवेत् । शिल्पैव विविधैर्जीवेत् द्विजाति- हितमाचरन्” इति । यैः कर्मभिर्दिजातयः शुश्रूष्यन्ते, तैरित्यर्थः । मनुरपि -
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* शस्त्रासवमधू धूच्छिष्टमधुलाक्षाः इति मु० पुस्तके पाठः । + पयोदधिच - इत्यादि, शूद्रः, — इत्यन्तं नास्ति मुद्रितातिरिक्तघुम्त केषु ।
↓ सम्यक्, – इति मु० पुस्तके पाठः ।
· क्षीरविक्रयी, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
|| शूद्रस्तु लवणादीनि विक्रीणन्न हि दुष्यति, - इति लोकार्द्धतयेव लिखितमस्ति मु० पुस्तके ।
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१०, ख०का० ।]
१०,
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पराशर माधवः 1
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"अशक्नुवंस्तु शुश्रूषां शूद्रः कर्त्तुं द्विजन्मनाम् । पुचदारात्ययं प्राप्तोजीवेत्कारुक - कर्मभिः ॥ यैः कर्मभिः सुचरितैः शुश्रूयन्ते द्विजातयः । तानि कारुककर्माणि शिल्पानि विविधानि च " - ति ॥ शूद्रस्यापि वचनाच —
१२३
विक्रीणन् मद्य-मांसानि भक्षस्य च भक्षणम् । कुर्वन्नगम्यागमनं शूद्रः पतति तत्क्षणात् ॥ ६६ ॥ कपीला क्षीर- पानेन ब्राह्मणी- गमनेन च । वेदाक्षर-विचारेण शूद्रः पतति तत्क्षणात् * ॥६७॥ मद्यं च बहुविधं ; ताल-पानस - द्राक्ष- माधूक- खार्जूरादिकम् । श्रभच्यं गो-मांसादि । श्रगम्या भगिन्यादयः । । स्पष्टमन्यत् ।
॥ ० ॥ इति शूद्र-ध-प्रकरणम् ॥ ० ॥ प्रख्याता हि पराशर - स्मृतिरिक्ष स्मृत्यागमख्यापनं धर्मावर्ण चतुष्टयी बहुमता साधारणाख्याभिधा । श्रद्यस्त्वाहिक शिष्ट- नाम-विहितः षट्कर्म-पूतोऽपरः पूर्वाध्याय - निरूपितं तदखिलं व्याख्यत् सुधामाधवः ॥ इति श्रीराजाधिराज - परमेश्वर वैदिकमार्गप्रवर्त्तक- श्रीवीर-बुक्कभृपाल-साम्राज्य-धरन्धरस्य माधवामात्यस्य कृतौ पराशर - स्मृतिव्याख्यायां प्रथमोऽध्यायः ॥ ० ॥
* शूद्रस्वाण्डालतामियात्, – इति स० शा ० पुस्तकयोः पाठः । † ब्राह्मण्यादयः, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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अथ द्वितीयोऽध्यायः ।
वागीशाद्याः सुमनसः सवर्थानामुपक्रमे ।
यं नत्वा कृतकृत्याः स्युः तं नमामि गजाननम् ॥ प्रथमेऽध्याये व्यासेन पृष्टयोर्वर्ण चतुष्टय - साधारणासाधारण-धर्मयोर्मध्ये साधारण-धर्म संचिप्यासाधारण - धर्मः प्रपञ्चितः श्रथेदानों संक्षिप्तः साधारण - धर्मे द्वितीयेऽध्याये प्रपञ्चरते ।
श्रथवा, पूर्वाध्याय श्रामुभिक - धर्म - प्राधान्येन प्रवृत्तः श्रयन्तु ऐहिक - जीवन - हेतु-धर्मा* प्रात्यन्येन प्रवर्त्तते । तत्रादावध्याय-प्रतिपाद्यमर्थं प्रतिजानीते, -
श्रतः परं गृहस्थस्य कर्म्मीचारं + कलौ युगे । धर्मं साधारणं शक्त्या चातुर्वण्याश्रमागतम् ॥१॥ तं प्रवक्ष्याम्यहं पूर्व्वं पराशर - वचेायथा ।
श्रतः परं चातुर्व्वर्त्य - साधारण धर्म-संक्षेपेणारुत्तरस्मिन् काले । सएव विस्तर- कथनस्योचितेाऽवसरः । बहु-ग्रन्थ- पाठ - शक्रि - रक्षितान् मन्द-प्रज्ञान् प्रति मंक्षेपेणाभिहिते सति समर्थनामुत्तमप्रज्ञानां बुद्धिस्यत्वात्तान् प्रति विस्तरेण कथयितुमुचितत्वात् । श्रतएवाडराचार्य्य:, -
* 'धर्म्म' पदं नास्ति मु० पुस्तके |
+ धर्म्मा चार, -- इति स० से० शा ० पुस्तकेषु पाठः ।
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२०, या०,का.
पराशरमाधवः ।
“संक्षेप-विस्तराभ्यां हि मन्दोत्तमधियां नृणाम् ।
वस्तूच्यमानमप्यन्तःकरणं तेन हप्यते"-इति । यदा, अतःपरं श्रामुभिक-प्रधान-धर्म-कथनादनन्तरम् । “षट्माभिरतः" "सन्ध्या स्नानम्" इत्यादिना ह्यामुभिक-फले धर्मेऽभिहिते मत्यैहिक-फलस्य कृयादि-धर्मस्य बुद्धिग्थत्वात् तदभिधानस्य युकोऽवसरः।
वक्ष्यमाणस्य कृष्यादि-धर्मस्य ब्रह्मचारि-वनग्य-यतिध्वसम्भवमभिप्रेत्य तद्योग्यमाश्रमिणं दर्शयति,–'रहस्यस्य'-दति। कृत-त्रेता-दापरेषु वैश्यस्यैव कृय्यादावधिकारोन तु ग्टहस्थमात्रस्य विप्रादेरता विशिनष्टि,-'कलो युगे'-दति । कर्मशब्दोलोके व्यापारमात्र प्रयुज्यते, प्राचारशब्दश्च धर्मरूपे शास्त्रीये वापारे। कय्यादेस्तु युगान्तरेषु कर्मत्वं, कलावाचारत्वमित्युभयरूपत्वमस्ति । तथैवाश्रमान्तरेषु कर्मत्वं गाईस्थ्ये त्वाचारत्वमित्युभयरूपता । तद्विवक्षया कर्माचारम्' इत्युक्तम् । कलौ ग्रहस्थस्य याजनादीनां दुर्लभत्वाज्जीवन-हेतुतया कृयादि-विधानादाचारत्वमुपपन्नम्। ___ कय्यादेः साधारण-धर्मवमुपपादयति,-'चातुर्वर्णाश्रमागतम्' -इति । चतुर्वर्णएव चातुवर्ण्यम् । तत्र सर्वत्रैव प्रसिद्धः श्राश्रमोगाईस्थारूपः। मन्ति हि शूद्रस्यापि विवाह-पञ्चमहायज्ञादयो ग्गृहस्थ-धाः। एतत् ममस्माभिः उत्तरत्राश्रम-निरूपणे विस्पटमभिधास्यते । तस्मिन्नाश्रमे विधानात साधारण्यम् । पराशरशब्देनात्रातीतकल्पोत्पत्रोविवक्षितः । एतदेवाभिव्ययितुं 'पूर्वम्' इत्युक्तम् । पूर्वकन्य-सिद्धं पराशर-वाक्यं कलि-धर्म कय्यादौ यथा वृत्तं, तथैवाई
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४२६
पराशरमाधवः।
[२०,या का।
मंप्रवक्ष्यामि। अतः, सम्प्रदायागतत्वात् कथ्यादेराचारतायां न विवादः कर्तव्यः, इत्याशयः । 'गुरुतरविषये विनयः कर्नयः' इति शिष्टाचारं शिक्षयितुं शक्त्या सम्प्रवक्ष्यामि' इत्युक्तं, न तु कस्मिंश्चिद्धर्मे वस्थाशक्ति द्योतयितुम्। कलि-धर्म-प्रवीणस्य पराशरस्य तत्राशय सम्भवात्॥ प्रतिज्ञातं धम्मै दर्शयति,
षट्कर्म-सहिताविप्रः कृषिकर्म च कारयेत् ॥२॥
षटकर्माणि पाकानि ; यजनादीनि, सन्ध्याऽऽदीनि च । तैः महिताविप्रः शाश्रूषकः भूट्रैः कृषि कारयेत्। न च याजनादीनां जीवन-हेतुत्वात् किमनया कृय्येति वाच्यं, कलौ जीवन-पर्याप्ततया याजनादीनां दुर्लभत्वात् । यत्तु मनुनाकम्,
"वैश्य-वृत्त्या तु जीवंस्तु ब्राह्मण: क्षत्रियोऽपि वा। हिंसा-भयात् पराधीनां कृषि यत्नेन वर्जयेत् ॥ कृषि माध्विति मन्यन्ते मा वृत्तिः मदिगहिता ।
भूमि भूमिशयांश्चैव हन्ति काष्ठमयोमुखम्”- इति । तत् खयताभिप्रायम् । अन्यथा, मनाः स्व-वचन-विरोधात्। खेनैव कृषिरभ्युपगता;
"उभाभ्यामप्यजीवंस्तु कथं स्यादिति चेद्भवेत् ।
कृषिगोरक्षमाम्याय जीवेद्वैश्यस्य जीविकाम्" इति । मनु,कूर्मपुराणे स्वयं कृता कृषिरभ्युपगता,
• जीवहिंसापदामेषां,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
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२५०,०का ।
पराशरमाधवः।
"वयं वा कर्षणं कुर्यादाणिज्यं वा कुसीदकम् ।
कया• पापीयमी वृत्तिः कुमोदन्तां विवर्जयेत्" इति । नत्र, अस्य वचनस्य कुमीद निन्दा-परत्वात्। अतएव नारदः,
"आपत्स्वपिच कष्टासु ब्राह्मणस्य न वाईषम्”-दति । मनु, सहस्पतिः स्वयकर्तृकां कृषिमङ्गीचकार,
"कुसीद-कृषि-वाणिज्यं प्रकुर्वीतास्वयंकृतम् ।
आपत्काले स्वयं कुर्वन्नैनसा युज्यते दिजः” इति । वाढं, कारयितुमप्यशक्तस्य तत्कर्तृत्वम्, 'आपत्काले'-इति विशेषितत्वात्। ननु, कारयितत्वमप्यापदिषयमेव. कृषेश्य-धर्मत्वादिप्रस्थ याजनादीनामेव मुख्य-जीवन-हेतुत्वात् । एवं तापत्तारतम्येन व्यवस्थाऽस्तु । अल्पापदि कारयित्वम यन्तापदि कर्तत्वम्, इति । अथवा, युग-भेदेन व्यवस्थाप्यतां ; युगान्तरेषु कारयित्वमापद्धर्मः, कलौ मुख्यधर्मः, प्राधान्येनोपक्रम्य प्रतिपादनात् । तत्र, कृषौ हालिकस्य वलीवर्द्ध-संख्या-नियममाह हारीतः,
"अष्टागवं धर्म्यहलं षड्गवं जीवितार्थिनाम् ।
चतुर्गवं नृशंसानां दिगवं ब्रह्मघातिनाम्" इति। तत्रान्तौ पक्षौ हयौ । तरावपि क्रमेण मुख्यानुकल्पौ द्रष्टव्या ।। कृषौ वान् वलीवद्धानाह,क्षुधितं वृषितं श्रान्त वलीवई न योजयेत् । होनाङ्गं व्याधितं लोवं वषं विप्रोन वाहयेत् ॥३॥ इति ।
* तेन,-इति मु० पुस्तके पाठः। तिवाद्यौ पक्षावक्षमतया हेयो,-इति मु• पुस्तके पाठः ।
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४२८
पराशरमाधवः।
[श्या०का.।
क्षुधादयस्तत्तलिरवगन्तव्याः। हीनाङ्गः पाद-विकलः। क्लीवः पुंस्व-रहितः ॥ कोदृशस्तहि वलीवर्द्धः कृषौ योज्यदत्यताह,स्थिराङ्ग नीरुज तृप्तं सुनदं षण्डवर्जितम्। वाहयेद्दिवसस्याई पश्चात् स्नानं समाचरेत्॥४॥ इति। + स्थिराङ्गः पादादि-वैकल्य-रहितः। नीरजाव्याधि-रहितः। हप्तः सुन्तष्णाभ्यामपीडितः। सुनाहिंसकोदृप्तः श्रम-रहितः, इति यावत् । षण्डेति भाव-प्रधानानिर्देशः । षण्डत्व-वर्जितः पुंस्त्वोपेतः शक्तः,-दति यावत् । दिवसस्थाई याम-दयम् । 'पश्चात् स्नानं समाचरेत्'-दति, वलीवद्धान् स्नापयेदित्यर्थः। तथा च हारीतः, --नापयित्वाऽनडुहोऽलङ्कृत्य ब्राह्मणान् भोजयेत्" इति। वाइने विशेषः श्राश्वमेधिके दर्शितः,
"वाइये कृतेनैव शाखया वा सपत्रया । न दण्डेन न यध्या वा न पाशेन च वा पुनः ॥ न जुत्तष्णाश्रमश्रान्तं वाइयेदिकलेन्द्रियम् । सुटतेषु च भुञ्जीयात् पिवेत् पीतेषु चोदकम् ॥ अहः पूर्व दियामं वा धुर्याणां वाहनं स्मृतम् । विश्राम्येन्मध्यमे भागे भागे चान्ये यथासुखम् ॥ यत्र वा त्वरया नित्यं संश्रयोयत्र वाऽध्वनि। वाहयेत्तत्र धू-स्तु म स पापेन लिप्यते ॥ अन्यथा वाहयन् राजन, नियतं याति रौरवम् ।
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२०, व्या० का ० ।]
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पराशर माधवः ।
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४२६
रुधिरं वाहयेत् तेषां यस्तु मोहान्नराधमः ।
भूल - हत्या- समं पापं तस्य स्यात् पाण्डुनन्दन " - इति ॥ बलीवर्द्ध - स्वापनानन्तरं कर्त्तव्यमाह -
जप्यं देवार्चनं होमं स्वाध्यायश्चैवमभ्यसेत् । एक-दि- त्रि- चतुर्व्विप्रान् भोजयेत् स्नातकान् द्विजः ॥ ५ ॥
यथा, वलीवर्द्ध-श्रान्ति-कृत - दोषापनयनाय खापनं, एवं प्रापघात - दोषापनयनाय यथाशक्ति जप्यादीनामन्यतममनुतिष्ठेत् । एक द्वौ चतुविप्रान् स्नातकान् यथाशक्ति भोजयेत् । स्नातका नवविधभिक्षुकाः । तदाच मनुः, -
" सान्तानिकं यक्ष्यमाणमध्वगं सर्ववेदसम् ।
गुर्व्वर्थं पितृमात्रर्थं स्वाध्यायार्थ्यापतापिनम् ” - इति ।
सान्तानिकं सन्तानाय विवाहोपयुक्त द्रव्यार्थिनम् । सर्व्ववेदसः सर्व्वस्व - दक्षिणं यागं कृत्वा निस्वत्वमापन्नेोद्रव्यार्थी, तमित्यर्थः । पितृमात्रर्थं पितृ-मात्र-शुश्रूषाऽर्थिनम् । स्वाध्यायार्थी स्वाध्याय प्रवचन- निहाय द्रव्यार्थी, उपतापी रोगी, खाध्यायार्थि - महितः उपतापी स्वाध्यायार्य्युपतापी, तमिति मध्यम - पद - लोपी समासः । तावुभावित्यर्थः ॥
कृषौ फलितस्य धान्यस्य विनियोगमाह, -
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स्वयङ्कष्टे तथा क्षेत्रे धान्यैश्च खयमर्जितैः । निर्व्वपेत् पञ्चयज्ञांश्च ऋतु - दीक्षाच्च कारयेत् ॥ ६ ॥ इति ।
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पराशरमाधवः ।
रिपच्या का।
यानि वयदृष्टे क्षेत्रे फलितानि धान्यानि, यानि वाऽन्यः कर्षिते क्षेत्रे स्वयमर्जितानि धान्यानि, तैः सर्वैः स्मानीन् पञ्चमहायज्ञान् श्रौताममिष्टोमादि-क्रतु-दीक्षाञ्च कुर्यात्। कारयेदिति खार्थिकोणिच् । अथवा, स्वयञ्च महायज्ञान् कुर्वीत, थियतुभ्योधान्यं दत्वा तैः क्रतु-दीक्षाच कारयेत् । कूर्मपुराणेऽप्येष विनियोगो दर्शितः,
"लब्धलाभः पितॄन् देवान् ब्राह्मणश्चापि पूजयेत्।
ते हप्ताः तस्य तद्दोषं शमयन्ति न संशयः" इति ॥ कृषीवलस्य तिलादि-धान्य-सम्पन्नस्य धन-लाभेन प्रसास्तिला. दिविक्रयस्तं निवारयति,
तिलारसान विक्रेयाविक्रयाधान्य-तत्समाः। वित्रस्यैवंविधा वृत्तिस्तृण-काष्ठादि-विक्रयः ॥७॥ इति ।
रसाः दधि-मधु-घृतादयः। यदि धान्यान्तर-रहितस्य तिलविक्रयमन्तरेण जीवनं वा धोवा न सिद्ध्येत, तदा तिलाधान्यान्तरैविनिमातव्याः, इत्यभिप्रेत्य विक्रेयाधान्य-तत्ममाः' इत्युकम् । यावद्भिः प्रस्थैस्तिलादत्तास्तावद्भिरेव धान्यान्तरमुपादेयं नाधिकमित्यर्थः। तदुकं नारदेन,
"अशको जीवनस्यार्थ• यज्ञहेतोस्तथैवच । यद्यवश्यन्तु विक्रयास्तिला धान्येन तत्समा:"--इति।
* भेषजस्यार्थे,-इति स० शा. पुस्तकयोः पाठः ।
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२०,या का० ।
पराशरमाधवः।
याज्ञवल्क्योऽपि,
“धर्मार्थ विक्रय नेयास्तिलाधान्येन तत्ममाः" इति । तिलन्यायोरसेऽपि योजनीयः। अतएव मनः,
"रमारमैर्निमातव्या न त्वेव लवणं रसैः ।
कृतानचाकृतान्नेन तिलाधान्येन तत्समाः" इति। आपस्तम्बाऽपि,-"अन्येन चान्नस्य मनुष्यानाञ्च मनुष्यैः रसानाच रसैः गन्धानाच गन्धैविद्यया च विद्यानाम्” इति । रस-विनिमये विशेषमाह वशिष्ठः,-"रसारमैः समतोहीनतावा निमातव्याः"इति । अन्न-विनिमये विशेषमाह गौतमः,-"समेनासमेन तु पक्कस्य" -इति। ननु तिल-विक्रयोऽभ्युपगतोमनुना,
"काममुत्पाद्य कृष्यान्तु खयमेव कृषीवलः । विक्रीणीत तिलान् शुद्धान् धर्मार्थमचिर-स्थितान्" इति।
अच केचिदाहुः,-'तदेतद्विनियमाभिप्रायम्'-दति। अपरे तु मन्यन्ते, ऋणापकरणाद्यापद्धार्थ तिल-विक्रयोन विरुद्धः । अयमेव पक्षोयुकः, वसिष्ठ-वचन-संवादनात् । “कामं वा स्वयं कथ्योत्पाद्य तिलान् विकोणीरन"-इति । विनिमयाभिप्राये तु वचनान्तरेण मह पौनरव्यमपरिहार्य स्वात्। यतोमनुनैव वचनान्तरेण 'तिला धान्येन तसमा:'-इति विनियमोदर्शितः। यत्वन्यस्मिन्वचने अात्तिलविक्रय-निषेधः प्रतिभाति । तथाहि मनुयमाभ्यामुपदर्शितम्,
"भोजनाभ्यञ्जनाद् दानाद् यदन्यत् कुरुते तिलैः ।
* छतावश्च तानेन, इति शा० पुस्तके पाठः।
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४३२
[२०, ख०का० ।
कृमिर्भूत्वा स विष्ठायां पितृभिः सह मज्जति
- इति ।
नायं दोषः ।
श्रावश्यक-धर्म-व्यतिरिक्त-विषयत्वात् । योऽयं तिलानां धान्य- समत्वेन विनियमः, यश्च तृणादि-विक्रयः, सेयमेवंविधा विप्रस्य जीवनार्थ वृत्तिः । तथा च नारदः, -
" ब्राह्मणस्य तु विक्रेयं शुष्क- दारु-तृणादिकम् " - इति ॥ इदानीं कृषावानुषङ्गिकस्य पाभनः प्रतीकारं वकुं प्रथमतस्तं पाभानं दर्शयतिब्राह्मणश्चेत् कृषिं कुर्य्यान्महादोषमवाप्नुयात् ॥ इति ॥
कृषी हिंमायावनीयत्वात् सावधानस्यापि कृषीवलस्य दोषोSनुषज्यते दूति । अत्र, हिंसायां पापमिति मनुवचनं पूर्वमेवोदाहृतम् ॥ कस्य दोषस्य महत्त्वं विशदयति -
पराशर माधवः ।
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संवत्सरेण यत्पापं मत्स्यघाती समाप्नुयात् ॥ ८ ॥ श्रयामुखेन काष्ठेन तदेकाहेन लाङ्गली । इति ।
लोह-महितेन लाङ्गल-मुखेन प्राणिनां चित्रवधोभवतीति मस्यवधात् पापाधिक्यमुक्तम् ॥
उक्तरीत्या कर्षकमात्रम्य पाप-प्रसको तद्द्वारयितुं विशिनष्टि -
पाशके मत्स्यघाती च व्याधः शाकुनिकस्तथा ॥ ९ ॥ श्रदाता पंकश्चैव सर्वे ते समभागिनः । इति ।
* मिर्भवति विष्ठायां कर्म्मणा तेम पापछत्, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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२०, ख० का ० ।]
वागुरां प्रसार्य मृगादि-ग्राही पाशकः । व्याभोमृगवधाजीवः । शाकुनिकः पक्षिघाती । श्रदाता खले राशिमूलमुपागतेभ्यो ऽप्रदाता । तेषां सर्वेषां प्रत्यवायः समानः । ततश्च दृष्टान्तत्वेन पाशकादय वर्णन्ते । यथा पाशकादीनां पापं महत्, एवमेवादातुः कर्षकस्येत्यर्थः ॥
यदर्थं कृषीवलस्य पाभा" दार्शतः, तमिदानीं पाप - परिहार
पराशर माधवः ।
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प्रकारमाह, -
वृक्षांछित्त्वा महीं भित्त्वा हत्वा च कृमि-कीटकान् ॥ १०॥ कर्षकः खलयज्ञेन सर्व्वपापैः प्रमुच्यते । इति ।
खलयज्ञाकरणे प्रत्यवायमाह, -
छेदन - भेदन- हननैर्यावन्ति पापानि निष्पद्यन्ते, तेषां सर्वेषां खले धान्यदानं प्रतीकारः । तथा च हारीतः, -
"भ्रमिं भित्वोषधीहित्वा हत्वा कीट-पिपीलिकाः । पुनन्ति खलयज्ञेन कर्षकानाच संशयः ॥ यूपोऽयं निहितोमध्ये | मेधिनीम हि कर्षकः । तस्मादतन्त्रितोदद्यात्तत्र धान्यार्थदक्षिणाम् " - इति ॥
४ ३३
* प्रत्यवाया, -- इति मु० पुस्तके पाठः ।
| मेध्ये इति मु० पुस्तके पाठः ।
55
योन
दद्याद्दिजातिभ्योराशिमूलमुपागतः ॥ ११ ॥
स चौरः स च पापिष्ठो ब्रह्मघ्नन्तं विनिर्दिशत् । इति । कर्षकस्यायं खलयज्ञोनित्यः काम्यश्च - इति वचन - द्वय - वलादव
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पराशरमाधवः ।
[२०या० का०
गम्यते। प्रकरणे प्रत्यवायात् नित्यत्वं, छेदनादि-पाप- निवर्तकत्वात काम्यत्वञ्च । खलयज्ञस्य नित्यत्वं गैरपुराणे दर्शितम्,
"श्रदत्त्वा कर्षकोदेवि, यस्तु धान्यं प्रवेशयेत् । तस्य तृष्णाऽभिभूतस्य देवि, पापं ब्रवीम्यहम् ॥ दिव्यं वर्ष-सहस्रन्तु दुरात्मा कृषिकारकः । मरुदेशे भवेदृक्षः म पुप्प-फल-वर्जितः ॥ तस्यान्ते मानुषोभृत्वा कदाचित्काल-पर्यायात् ।
दरिद्रोव्याधितोमूर्खः कुल-हीनश्च जायते"-इति ।। दातव्यस्य धान्यस्य परिमाणमाह,
राजे दत्वा तु पड्भागं देवानाञ्चैकविंशकम्॥१२॥ विप्राणां विंशकं भागं सर्वपापैः प्रमुच्यते ।
घटसु भागेबकोभागः षड्भागः, एकविंशति-संख्यकेषु भागेष्वन्य तमोभागएकविंशकः। तद्वत् त्रिंशकेषु भागेय्वन्यतमोभागस्त्रिंशः,इति ज्ञेयम् । देववत् पिटभ्योऽपि देयः । तदनं कूर्मपुराणे,___"देवेभ्यश्च पिटभ्यश्च दद्यामागं तु विंशकम् ।
त्रिंशद्भागन्तु विप्राणां कृषि कुर्वत्र दोषभाक!"- दति। विप्रस्य से तिकर्त्तव्यकृषिमुक्त्वा वर्णान्तराणामपि तामाह,
* त्रिपाटागं ब्राह्मणानां कृषि कुर्वन्नदोषभाक्, इति मु. पुस्तके पाठः । + नास्त्ययमशः मु. पुस्तके। + दुष्यति,- इति मु० पुस्तके पाठः ।
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२०या०का०]
पराशरमाधवः।
४३५
त्तियोऽपि कृषि कृत्वा देवान् विप्रांश्व पूजयेत् ॥१३॥ वैश्यः शूद्रस्तथा कुर्यात् कृषि-वाणिज्य-शिल्पकम्। इति
वाणिज्य-शिल्पयोरपि कलौ वर्ण-चतुष्टय-साधारण्यं दर्शयितुं 'वाणिज्य-शिल्पकम्'-दत्युक्तम् । यद्यपि वैश्यस्य कृषिः पूर्वाध्याये विहिता, तथाप्यत्रेतिकर्त्तव्यता-विधानाय पुनरूपन्यासः । तथा कुर्यात्'--इत्यतिदेशेन ब्राह्मणस्य कृषौ विहितेतिकर्त्तव्यता साऽप्यत्र विहिता भवति, इति ।।
यदि शूद्रस्थापि कथ्यादिकमभ्युपगम्येत, तर्हि तेनैव जीवन-मिद्धेः कलौ द्विज-शुश्रूषा परित्याज्येत्याशझ्याह,विकर्म कुर्वते शूद्राः हिजशुश्रूषयोन्झिताः ॥ १४ ॥ भवन्त्यल्पायुषस्ते वै निरयं यान्त्यसंशयम् । इति ।
लाभाधिकोन विशिष्ट-जीवन-हेतुत्वात् कय्यादिकं विकर्मेत्युच्यते । दिजशुश्रूषया तु जीर्ण-वस्त्रादिकमेव लभ्यते इति न लाभाधिक्यम् । अतोऽधिक-लिप्मया कृप्यादिकमेव कुर्वन्तोयदि द्विज-शुश्रूषां परित्यजेयुस्तदा तेषामैहिकमामुभिकञ्च होयते॥
इत्थं वर्ण-चतुष्टय-साधारणं जीवन-हेतुं धर्म प्रतिपाद्य निगमयति,
चतुर्णामपि वाणामेष धर्मः सनातनः॥ १५॥
अतीतेवपि कलियुगेषु विप्रादीनां कृष्यादिकमस्तीति सूचयितुं 'सनातनः' इत्युतम् ।
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४३६
[२००या०का० ।
यद्यपि स्मृत्यन्तरविवात्रापि वर्ण - धर्मानन्तरमाश्रम धर्मावकमुचिता:, तथापि व्यासेनापृष्ठत्वादाचार्येणोपेक्षिताः । श्रस्माभिस्तु श्रोत - हितार्थाय ते वर्षन्ते । न च पूर्वाध्यायएव कुतोन वर्णितादति मन्तव्यम्, तत्र प्रसङ्गाभावात् । अत्र तु 'चातुर्वश्री श्रमागतम्'इत्याश्रम - शब्देन तेषां बुद्धिस्यत्वादस्ति प्रसङ्गः ।
ते चाश्रमाश्चतुर्विधाः । तदुक्तं स्कान्दे"ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः । एते क्रमेण विप्राणां चत्वारः पृथगाश्रमा: ” - इति । मनुरपि -
पराशर माधवः ।
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"ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोयतिस्तथा ।
"
एते गृहस्थ- प्रभवाश्चत्वारः पृथगाश्रमा: ” इति । ग्गृहस्थप्रभवाः गृहस्थोपजीविनइत्यर्थः । तत्रोपनयनेन संस्कृतोब्रह्मचारी, "ब्रह्मचर्य्यमागामुप मा नयख " - इति मन्त्रवर्णीत् । ब्रह्माचर्य्यमुद्दिश्यागां मामुपनयस्व इत्यर्थः । उपनयनञ्च गर्भीधानादिषु पठितत्वात् ब्राह्म्यसंस्कारः । तदाह हारीतः, – “ द्विविधोहि संस्काराभवति ब्राह्यो देवश्च, गर्भाधानादिम्मा ब्राह्म्यः पाकयज्ञहविर्यज्ञाः सौम्याश्च देवोत्रायेण संस्कृतऋषीणां समानतां सायुज्यं गच्छति, देवेनेोत्तरेण संस्कृतोदवानां समानतां सायुज्यं गच्छति” - दूति ।
गर्भाधानादयोगौतमेनानुक्रान्ता:, - "गर्भधान - पुंसवनानवलोभन - सीमन्तोन्नयन - जातकर्म - नामकरणान्नप्राशन- चौलोपनयनं चत्वा
* ब्रह्मसंस्कारः, — इति मु० पुस्तके पाठः । एवं परत्र ।
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२०, धा०,का.)
पराशरमाधवः।
४३७
रि वेद-व्रतानि स्नानं सहधर्मचारिणी-संयोगः गलानां यज्ञानामनुठानं अटका पार्वणश्राद्धं श्रावण्याग्रहायणी चैत्याश्वयुजी चेति सप्त पाकयज्ञ-संन्याश्रन्याधेयोऽग्निहोत्रं दर्शपूर्णमामाग्रयण-चातुर्मास्यानि निरुढ़पशुबन्धाः मौत्रामणोति सप्त हविर्यज्ञ-संस्थाअग्निष्टोमोऽत्यग्निटोमउक्थः षोड़शी वाजपेयोऽतिरात्राप्तो•मति सप्त सम-संस्थाइत्येते चत्वारिंशत् संस्काराः” इति ।
तत्र, गर्भाधानादयश्चूड़ान्ताः संस्काराः वीज-गर्भ-जनित-दोषनिवृत्याः । अतएव याज्ञवल्क्यः चूड़ान्तान् संस्कारान् निरूप्याह,
"एवमेन: शमं याति वीज-गर्भ-समुद्भवम्” इति । अतोब्रह्मचर्याश्रमात् प्राक् ते वर्ण्यन्ते। तत्र, दिजानां गर्माधानादयः समन्त्रका:* कार्याः । तदाह याज्ञवल्क्यः,
"ब्रह्म-क्षत्रिय-विट् शूद्रावर्णस्वाद्यास्त्रयोविजाः ।
निषेकादि-श्मशानान्तास्तेषां वै मन्त्रतः क्रियाः" इति। गर्भाधानादीनां काल-विशेषमाह सएव,
"गर्भाधानमृतौ पुंसः सवनं स्पन्दनान् पुरा । षष्ठेऽरमे वा सीमन्तोमास्येते जातकर्म च ।। अइन्येकादशे नाम चतुर्थे मामि निष्क्रमः ।
षष्ठेऽन्नप्राशनं मामि चूड़ा कार्या यथाकुलम्" इति। रंजोदर्शन-दिवसमारभ्य षोडश दिवसाऋतुः । तदाह मनुः,
"ऋतुः स्वाभाविकः स्त्रीणं रात्रयः षोड़श स्मृताः।
* संस्काराः,-इति मु° पुस्तके पाठः ।
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४३७
पराशरमाधवः।
चा०का.।
चतुर्भिरित मा.महोभिः सदिगतिः ॥ तामामाद्याश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या। त्रयोदशी च शेषाः स्युः प्रशस्तादश रात्रयः ।। युग्मासु पुत्राजायन्ते स्त्रियोऽयुग्यासु रात्रिषु ।
तस्माद्युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदातवे स्त्रियम्” इति । रजोदर्शनमारभ्य चत्वार्यहानि सद्विगहितानि । युग्मासु समास, संविशेत् गच्छेत् ।
एवमृतौ गर्भाधानं कृत्वा गर्भ-चलनात् पुरा घुमवनं कार्यम् । तचलनं द्वितीये वा ढतीये वा भवति । तदाह वैजवापः,-"मामि द्वितीये वा पुरा स्पन्दते”-इति । पारस्करोऽपि,-"मामि द्वितीये वा हतीये वा यदहः पुंमा नक्षत्रेण चन्द्रमा युक्तः स्यात्" इति। पुं नक्षत्राणि च हस्तादीनि ज्योतिःशास्त्रे प्रसिद्धानि। अनवलोभनमाश्वलायन-ग्रह्यपरिशिष्टेऽवगन्तव्यम् । __ सीमन्तोन्नयनस्य याज्ञवल्क्योक्त-कलादन्येऽपि कालामुनिभिः दर्शिताः। तत्र लोकाक्षिः,-"हतीये गर्भमासे सीमन्तोन्नयन कार्यम्” इति । आपस्तम्वोऽपि,-"प्रथमे गर्भ चतुर्थे मामि"इति। वैजवापोऽपि,-"अथ, सीमन्तोनयनं चतुर्थे पञ्चमे षष्ठे वाऽपि" इति। माझ्यायनग्टह्येऽपि,- “सप्तमे मासि प्रथमे गर्ने सीमन्तोन्नयनम्”-दति। शङ्खोऽपि,-"गर्भ-स्पन्दनमारभ्य सीमन्तोन्नयनं यावदा न प्रसवः” इति। विशेषाश्रवणत् सर्वेऽप्येते विकल्प्यन्ते । एतच मीसन्तोन्नयनं क्षेत्र-संस्कारत्वात् मकदेव कर्त्तव्यं न प्रतिगर्भम् । तथा च हारीतः,
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२०,या का० । पराभरमाधवः।
४३६ "मकृत् संस्कृत-मस्कारा मीमन्तेन दिजस्त्रियः"-इति । देवलोऽपि,
“मकृत् संस्कृता या नारी सर्वगर्भषु संस्कृता"-दति । गर्भ-संस्कार-पने तु प्रतिगर्भमावर्त्तनीयम् । तथा च विष्णुः,
"सीमन्तोन्नयनं कर्म न स्त्री-संस्कारय्यते ।
केचिद्गर्भस्य संस्काराग) गर्भ प्रयुञ्जते"-इति । अनयोः पक्षयोर्वथाटा व्यवस्था। अकृत-सीमन्तायाः प्रसवे सत्यव्रताह
"स्त्री यद्यकृत-सीमन्ता प्रसूयेत कथञ्चन ।
ग्टहीत-पुत्रा विधिवत्पुनः संस्कारमईति" इति। जातकर्मणः कालोयाज्ञवल्क्येन दर्शितः,-"मास्येते जातकर्म च" इति । एते भागते जातहति यावत् । विष्णुरपि,___ "जातकर्म ततः कुर्यात् पुत्रे जाते यथोदितम्" इति।
ख-ग्टह्ये,-इति शेषः । तच स्नानानन्तरं कार्यम्। तथा च संवतः,
"जाते पुत्रे पितुः स्नानं सचेलन्तु विधीयते” इति । जातकर्म च नाभि-वर्द्धनात् प्रागेव कार्यम् । तदाह हारीतः,
"प्राङ्नाभिवर्द्धनात् पुंमोजातकर्म विधीयते ।
मन्त्रवत् प्राशनञ्चास्य हिरण्य-मधु-मर्पिषाम्" इति । वर्द्धनं छेदनम् । न चाशौच-शंकया कर्मानधिकारदति वाच्चं माभि-छेदात् प्रागशौचाभावात्। तदाह जैमिनिः,
"यावत्र छिद्यते नालं तावनाप्नोति सूतकम्।
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88.
विष्णुधर्मोत्तरे,—
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"
[२०, या• का० ।
छिन्ने नाले ततः पश्चात् स्रुतकन्तु विधीयते " - इति ।
पराशर माधवः ।
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"च्छिन्न-नायां कर्त्तव्यं श्राद्धं वै पुत्र जन्मनि ।
शौचोपर मे कार्य्यमथवा नियतात्मभिः” इति ।
तच्च श्राद्धं हेम्ना कार्य्यम् । तदाह व्यासः, -
" द्रव्याभावे द्विजाभावे प्रवासे पुत्र जन्मनि । हेम्ना श्राद्धं प्रकुर्वीत यस्य भार्य्या रजखला " - इति । श्रादित्यपुराणे पक्वान्न निषेधोदर्शितः, -
" जात - श्राद्धे न दद्यात्तु पक्कानं ब्राह्मणेष्वपि । यस्माच्चान्द्रायणदत् शुद्धिस्तेषां भवति नान्यथा " - इति ।
तस्मिन् दिने यथाशक्ति दानं कर्त्तव्यम् । तदुक्तम् श्रादित्यपुराणे,—
-
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"देवाच पितरश्चैव पुत्रे जाते द्विजन्मनाम् । श्रायान्ति तस्मात्तदचः पुण्यं पूज्यञ्च सर्वदा ॥ तत्र दद्यात् सुवर्णन्तु भूमिं गां तुरगं रथम् " - इति । ङ्गोऽपि - " सर्वेषां सकुल्यानां द्विपद* चतुष्पद-धान्य- हिरयादि दद्यात् " - इति । एतच्चाशौच मध्येऽपि कार्यम् ।
“आशौचे तु समुत्पन्ने पुत्र-जन्म यदा भवेत् । कर्त्तुस्तात्कालिकी शुद्धिः पूर्वाशौचेन शुड्यति” – इति । नामकरणस्य याज्ञवल्क्यो - कालादन्येऽपि कालामनुना दर्शिताः, - " नामधेयं दशम्यान्तु द्वादश्यां वाऽस्य कारयेत् । पुण्ये तिथौ मुहर्त्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते " - इति ।
द्विपद, -- इति नास्ति मु० पस्तके
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एच०, ख०का० 1]
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पराशरमाधवः ।
कारयेदिति स्वार्थिकोणिच् ।
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" ततस्तु नाम कुर्वीत पितैव दशमेऽहनि "
इति विष्णुपुराण - वचनात् । यद्वा पितुरभावे अयोग्यत्वे वाऽन्येन कारयेत् । तदाह शङ्खः, -- “ कुलदेवता - नक्षत्राभिसंबन्धं पिता कुर्य्यादन्योवा कुल-वृद्धः” - इति । भविव्यत्पुराणे, -
" नामधेयं दशम्यां च केचिदिच्छन्ति पार्थिव ।
*
द्वादश्यामथवा रात्रौ मासे पूर्णे तथाऽपरे ॥ अष्टादशेऽहनि तथा वदन्त्यन्ये मनीषिणः " - इति ।
૩૨૨
ग्टह्यपरिशिष्टेऽपि - "जननाद्दशराचे व्युष्टे संवत्सरे वा नामकरएम्” – इति । तच, स्व- गृह्यानुसारेण व्यवस्था । नामधेय स्वरूपञ्च
वर्ण-भेदेन दर्शयति मनुः, -
"माङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात् चचियस्य वलान्वितम् । वैश्यस्य धन-संयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥ शवद्वाह्मणस्य स्याद्राज्ञोरचा समन्वितम् । वैश्यस्य पुष्टि-संयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्य-संयुतम् ॥ स्त्रीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोरमम् । मङ्गल्यं दीर्घ वर्णन्तमाशीवादाभिधानवत्" - इति । माङ्गल्यादीनि पूर्व-पदानि शर्मादीन्युत्तरपदानि । तथा च,
. नामान्येवंविधानि सम्पद्यन्ते; श्रीशर्मा, विक्रमपालः, माणिक्य श्रेष्ठी, चीनदासः - इत्यादि । स्त्रीणान्तु श्रीदामीत्यादि । सुखोद्यं सुखेन वदितुं
*
सूरयः, – इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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४०२
पराशरमाधवः।
[रघा,धा०का।
शक्यमित्यर्थः । अत्र विशेषमा वैजवापः,-"पिता नाम करोत्येकाक्षरं यक्षरं यक्षरं चतुरक्षरमपरिमितं वा घोषवदाद्यन्तरन्तस्थं दीर्घाभिनिष्ठानान्तम्" इति । अयमर्थः,-घोषवन्ति यान्यक्षराणि वर्गबतीय-चतुर्थानि, तान्यादौ कार्याणि । अन्तस्थायरलवामध्ये कर्त्तव्याः। अभिनिष्ठानोविसर्जनीयः । तथाच, भद्रपालोजातवेदाइत्यादि नाम भवति। यथोक-नाम-करणस्य फलमाहतुः शङ्खलिखितौ,-"एवं कृते नाम्नि शुचि तत्कुलं भवति"-इति ॥
श्रथ निष्क्रमणम् । तत्र मनु:,
"चतुर्थे मामि कर्त्तव्यं शिशोर्निष्कमणं ग्रहात्" इति । प्रत्र कर्नयमाह यमः,
"ततस्तृतीये कर्त्तव्यं मासि सूर्य्यस्य दर्शनम् ।
चतुर्थे मासि कर्त्तव्यं शिशोश्चन्द्रस्य दर्शनम्" इति। लोकाधिरपि,-"तीयेऽर्धमासे दर्शनमादित्यस्य"-इति । पुराणेऽपि,
"बादशेऽहनि राजेन्द्र, शिशोनिक्रमणं ग्टहात् ।
चतुर्थ मामि कर्त्तव्यं तथाऽन्येषाच्च सम्मतम्" इति । अत्रापि यथाशाखं व्यवस्था।
अथान्नप्राशनम्।
तत्र यम:
* तथाचन्द्रस्य, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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२०,या का।
पराशरमाधवः।
888
"ततोऽन-प्राशनं मासि षष्ठे कार्य ययाविधि।
अष्टमे वाऽपि कर्त्तव्यं यथेष्ट मङ्गलं कुले"-इति । शवोऽपि,-"संवत्सरेऽन्न-प्राशनमर्द्ध-संवत्सरदत्येके”। लोकाक्षिः,“षष्ठे मास्यन्न-प्राशनं जातेषु दन्तेषु वा"-इति । तत्र विशेषमाइ मार्कण्डेयः,
"देवता-पुरतस्तस्य धाश्यत्सङ्गा-गतस्य च । अलङ्कृतस्य दातव्यमन्नं पात्रे च काञ्चने । मध्वाज्यकनकोपेतं प्राशयेत् पायसं म तम् ।
कृत-प्राशमयोत्माद्धात्री वालं समुत्सृजेत्" इति । प्राशनानन्तरं जीविका-परीक्षा मार्कण्डेयेन दर्शिता,
"अग्रतोऽथ प्रविन्यस्य शिल्पभाण्डानि सर्वशः । शस्त्राणि चैव वस्त्रानि ततः पश्येत लक्षणम् । प्रथमं यत् स्पृशेदालस्ततोभाण्ड* स्वयं तथा । जीविका तस्य वालस्य तेनैव तु भविष्यति" इति ।
अथ चूड़ाकरणम्। तत्र यमः,
"ततः संवत्सरे पूणे चूड़ा-कर्म विधीयते ।
दितीये वा हतीये वा कर्त्तव्यं श्रुति-दर्शनात् ।" इति । वैजवापः,-"हतीयेवर्षे चूड़ा-करणम्” इति । शङ्खोऽपि,"तीय वर्षे चूड़ा-करणं पञ्चमे वा"-इति । लोकातिरपि,
* वाळं,- इति मु° पुस्तके पाठः।
श्रुनिचोदनात्,:- इति मु० पुस्तके पाठः।
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888
परापारमाधवः।
[२०,या का
"तृतीयस्य वर्षस्य भूयिष्ठे गते चूड़ा-करणम्" इति । शौनकाऽपि ,-"टतीये वर्षे चौलं यथाकुलधर्म वा"-इति। तत्र, ऋषिभेदेन चूड़ा-नियममाइ लोकाक्षिः,-"दक्षिणतः कमुजा वसिष्ठानाम्, उभयतोऽत्रिकाम्यपानां, मुण्डाम्हगवः, पञ्च-चूड़ाअङ्गिरमः, मण्डलार्द्ध-शिखिनोऽन्ये, यथाकुलधर्म वा” इति। कमुजा केश-पतिः । अत्र, यथाशाख व्यवस्था । ___ अत्र, यथोनाः चूड़ा-करणान्ताअनुपनीत-विषयाः, अतस्तत्प्रसङ्गादन्येऽपि केचनानुपनीत-धर्माः कथ्यन्ते। तत्र, गौतमः,"प्रागुपनयनात् कामचार-कामवाद-कामभक्षाः"- इति। कामचारच्छागतिः। कामवादोऽश्लीलादि-भाषणम् । कामभक्षः पर्युषिनादिभक्षणम् । विष्णुपुराणेऽपि,
"भक्ष्याभत्वे तथा पेये वाच्यावाच्ये तथाऽनते।
अस्मिन् काले न दोषः स्यात् स यावन्नोपनीयते" - इति । एतच्चाभक्ष्य-भक्षणं महापातक-हेतु-व्यतिरिक्त-विषयम् ।। अतएव स्मृत्यन्तरम्,
"स्यात्काम-चार-भक्ष्योतिर्महतः पातकादृते” इति । यथा भक्ष्याभक्ष्यादि-नियमोनास्ति, एवमाचमनादि कर्त्तव्यान्तरमपि नास्ति । तदाह वसिष्ठः,
"न ह्यस्य । विद्यते कर्म किचिदामौञ्जिबन्धनात् ।
वृत्त्या शूद्र-रामस्तावद्यावद्वेदी न जायते”- इति । * आश्वलायनापि,--इति मु० पस्तके पाठः। + महापातक हेतुद्रव्यव्यतिरिक्तविषयम्,-इति मु० पस्तके पाठः। + नत्वस्य,-इति स० से० प्रा० पुस्तक पाठः।
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२०,०का०]
पराशरमाधवः।
88
गौतमोऽपि,-"ययोपपादित-मूत्र-पुरीषोभवति, न तस्याचमनकल्पोविद्यते न ब्रह्माभिव्याहरेदन्यत्र स्खधा-निनयनात्()" इति । अक्षराभ्यामस्तु कर्त्तव्यः । तदाह मार्कण्डेयः,
"प्राप्ते तु पञ्चमे वर्षे ह्यप्रसुप्ते जनाईने । षष्ठी प्रतिपदं चैव वर्जयित्वा तथाऽष्टमीम् ॥ रितां पञ्चदशीव सौरि-भौम-दिनन्तथा * । एवं सुनिश्चित काले विद्यारम्मं तु कारयेत् ।। पूजयित्वा हरिं लक्ष्मी देवीञ्चैव सरस्वतीम् । ख-विद्या-सूत्र-कारांश्च खां विद्याञ्च विशेषतः ॥ एतेषामेव देवानां नाना तु जुहुयात् घृतम् । दक्षिणाभिर्दिजेन्द्राणां कर्त्तव्यचापि पूजनम् ॥ प्रामुखोगुरुरामीनावरुणाभिमुखं शिशम् । अध्यापयेत्नु प्रथमं दिजातिभिः सुपूजितः ।। ततः प्रमत्यनध्यायान् वर्जनीयान् विवर्जयेत् ।
अष्टमी द्वितयश्चैव पक्षान्ते च दिन-त्रयम्" इति । ॥०॥ इति गर्भाधानादि-चूड़ान्त-संस्कार-प्रकरणम् ॥०॥ * सौरिभानदिने तथा,-इति मु० पुस्तके पाठः । । ख विद्यासूतवक्तारं, इति मु० पस्तके पाठः। + स पूजितः, इति भा० पुस्तके पाठः। (१) "खधा वै पिटणामन्नम्,” इति श्रुतेः खधाशेब्देनात्र तत्संबन्धात् श्राइमुच्यते। तथा च, खधा श्राद्धं निनीयते सम्पाद्यते येन मन्त्र जातेन तत्तथा । अथ वा, खधा पिटणामनं, तत् निनीयते प्राप्यते (अर्थात् पिटणामेव) येन मन्त्रजातेन तत्तथा । तथा च श्राडसम्पादकवैदिकमन्त्रा अनपनीतेनापि पठनीयाइति फलितोऽर्थः ।
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880
पराशरमाधकः।
रथया०का।
अथोपनयनम्।
तत्र मनुः,
"गीटमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् । गर्भादेकादशे राजोगीत् तु द्वादशे विशः ।। ब्रह्मवर्चस-कामस्य कार्य विप्रस्य पञ्चमे । राजोवलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्यार्थिऽनोरमे ॥ श्रा षोड़शाबाह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते । श्रा द्वाविंशात् क्षत्रवन्धोरा चतुर्विशतेर्विशः ॥ अतऊौं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः । सावित्री-पतितानात्याभवन्यायं-विगईिताः ॥ नैतेरपूतैर्विधिवदापद्यपि हि कहिंचित् ।
ब्रायान् यौनांश्च संवन्धानाचरेत् ब्राह्मणः सह"- इति । प्रापस्तम्बोऽपि,-"सप्तमे ब्रह्मवर्चस-काममष्टमायुःकाम नवमें तेजस्कामं दशमेऽन्नाद्यकाममेकादशदन्द्रियकामं द्वादशे पशुकामम्"इति । एतच्च वर्ण-त्रयस्य साधारणम् । वर्ण-व्यवस्थया काल-नियममाह मएव,-"वसन्ते ब्राह्मणमुपनयीत ग्रीभे राजन्यं शरदि वैश्यम्"इति। वर्णानुपूर्येणोपनयनस्येतिकर्त्तव्यतामाह मनः,
"कार्ण-रौरव-वास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिणः ।
वमीरबानुपूर्येण शाणक्षौमाविकानि च" इति । कार्णादीनि चर्माणि उत्तरीयाणि । तथा च शङ्ख,-"कृष्ण-रुरुवस्ताजिनान्युत्तरीयाणि" इति । वशिष्ठोऽपि,-"कृष्णाजिनमुत्तरीयं
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२०,या का.]
पराशरमाधवः।
88.
ब्राह्मणस्य वौरवं राजन्यस्य गव्यं वस्ताजिनं क वैश्यस्य” इति । तथा पारस्करः,- “ऐणयमजिनमुत्तरीयं ब्राह्मणस्य वौरवं राजन्यस्थाजं गव्यं वा वैश्यस्य सर्वेषां वा गव्यम्” इति । भाणादीन्यधरीगणि" । अत्रापस्तम्बः,-"वासः शाणक्षौमाजिनानि, काषायं चैके वस्त्रमुपदिशन्ति शुक्लकापासवस्वं ब्राह्मणस्य माञ्जिष्ठं राजन्यस्य हारिद्रं वैश्यस्य"-इति । मेखलामाह मनुः,
"मौनी विवृत्ममा मन्त्रण कार्या विप्रस्य मेखला ।
क्षत्रियस्य च मौर्वी ज्या वैश्यस्य भणतान्तवी" इति । चित् त्रिगुणा । यमोऽपि,
"विप्रस्य मेखला मौनी ज्या मौवीं क्षत्रियस्य तु । माणसूत्री तु वैश्यस्य मेखलाधर्मतः स्मृताः॥ एतामामप्यभावे तु कुशाग्मान्तकवल्वजैः । मेखला विकृता कार्या ग्रन्थिनैकेन वा त्रिभिः" इति ।
मनुरपि,
"मुजाभावे तु कर्तव्या कुशाग्मान्तकवल्वजैः ।
विवृता ग्रन्थिनैकेन त्रिभिः पञ्चभिरेव वा” इति । दण्डमाइमनुः, -
"ब्राह्मणोवैल्व-पालाशी क्षत्रियोवाट-खादिरौ। पैलवौदुम्बरौ वैश्योदण्डानहन्ति धर्मतः" इति ।
* शाणादीन्युत्तरीयाणि,-इति मु० पुस्तके पाठः। + “पीतं कौशेयं वैश्यस्य,"-इति। पीतं हारिद्रं,-इति स० शा. पुस्तकयोः पाठः।
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४४८
अनुकल्पमाह यमः, -
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पराशर माधवः ।
माह मनुः,--
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" एतेषामप्यभावे तु सर्वेषां सर्व- यज्ञियाः " - इति ।
मनुर्दण्डपरिमाणमाह -
"केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्डः कार्य्यः प्रमाणतः । ललाट- सम्मितोराज्ञः स्यात्तु नासान्तिकोविशः” इति । गौतमेाऽपि – “मूई - ललाट - नासाग्र - प्रमाणा: " - इति । दण्ड- लक्षण -
माह मनुः,
[२ब्ब०, च्या० का ० ।
"वस्ते तु सर्वे स्युरब्रणाः
सौम्यदर्शनाः ।
अनुद्वेग-कराणां सत्वचोनाग्नि दूषिताः " - इति । गौतमोऽपि – “अपीड़िता पवक्त्राः सवत्का : " - इति । यज्ञोपवीत
"कार्पा समुपवीतं स्याद्विप्रस्योर्द्धदृतं त्रिवृत् । शणसूत्रमयं राज्ञोवैश्यस्याविक सूत्रकम् " - इति ।
पैठीनसिरपि', कार्पासमुपवीतं ब्राह्मणस्य क्षौमेयं * राजन्यस्याविकं वैश्यस्य " - इति । उक्तेोपवीता लाभे यथासम्भवं गो-वालादिकं ग्राह्यम् । तदाह देवलः,—
"कापी - चौम - गोवाल - शण- वल्क- तृणादिकम् । सदा संभवतः कार्य्यमुपवीतं दिजातिभिः” इति ।
व्यश्टङ्गः, -" अपि वा वाससो यज्ञोपवीतार्थं कुर्यात् तदभावे त्रिवृता सूत्रेण” – इति । तच्च नव-तन्तुकं कार्य्यम् । तदाह देवलः -
* कौशेयं, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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+ वाससी यज्ञोपवीत धारणं, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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२०, ० का ० ।]
कात्यायनः,
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पराशर माधवः ।
"यज्ञोपवीतं कुर्वीत त्रेण भव- तन्तुकम् " - इति ।
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“त्रिदृर्द्धतं कार्यं तन्तु चथमधोवृतम्” इति ।
-
।
ऊर्द्धवृतम्य लक्षणमाह मंग्रहकारः *,
―
" करेण दक्षिणेनेार्द्धं गतेन त्रिगुणीकृतम् ।
वलितं मानवै: सूत्रं शास्त्रऊर्द्धवृतं स्मृतम्” इति ।
ऊर्द्ध गतेन दक्षिणेन करेण यदलितं तदूर्द्धतमित्यर्थः । यज्ञो
पवीत - प्रयोगमाह देवल:, -
“ग्रामान्निष्क्रम्य सङ्ख्यायां षपवत्यङ्गुलीषु तत् । तात्रत्त्रिगुणितं सूत्रं प्रक्षाल्याब्लिङ्गकैस्त्रिभिः ॥ देवागारेऽथवा गोठे नद्यां वाऽन्यत्र वा शुचौ । सावित्र्या चितं कुर्य्यान्नव चन्तु तद्भवेत् ॥ विश्वाश्वत्यादि यज्ञीय - वृक्षस्यान्यतमस्य तु । वीयात्तत्र जीवन्तु पितृभ्योनमद्दत्यथ ॥ वामं नावेदितव्यं स्यात् पितॄणां हृप्तिदं हि तत् । चिः पीडयेत्" करतलं देवानां तृप्तिदं हि तत् ॥ सध्ये मृदं ग्टहीत्वाऽस्मिन् स्थापयेद्भूरिति ब्रुवन् ।
* ग्रन्थकारः, – इति स० शा ० पुस्तकयोः पाठः । + मानवे, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
1 ग्रामान्निर्गत्य संख्यायाः, - इति मु० पुस्तके पाठः । $ वन्धीयात्तत् सजीवंतु, - इति शा० पुस्तके पाठः ।
↓ स्त्रिस्ताडयेत्, -इति प्रा० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधव:।
श्षा,पाया।
पत्रं पुष्य फलं वाऽपि व्याहतीभिश्च निःक्षिपेत् ॥ अभिमन्व्याथ भरनिश्चेति त्रिस्त्वयं त्रिभिः ।
हरिब्रह्मश्वरेभ्यश्च प्रणम्यावदधारिति” इति । अवधारण-मन्त्रस्तु, 'यज्ञोपवीतम्' इत्यादि। ग्रन्थि-नियममार कात्यायनः,
"चिवृतं चोपवीतं स्यात्तस्यैकोग्रन्थिरियते” इति । यज्ञोपवीत-परिमाणमाह मएव,
"पृष्ठवंशे च नाभ्याञ्च तं यदिन्दते कटिम् ।
नद्धार्यमुपवीतं स्थानातिलम्ब तचोछितम्" इति । देवलोऽपि,
____ "स्तनादूर्द्धमधोनाभेर्न कर्त्तव्यं कदाचन”-इति । . उपवीत-मयामाह म्हगः,
"उपवीतं वटोरेक दे तथेतरयोः सरते।
एकमेव यतीनां स्थात् इति शास्त्रस्य निर्णयः” इति । एतच नित्याभिप्रायम्, कामनया बहना श्रवणात् । तदाह देवलः,"यहनि चायु:-कामस्य"-इति । एतदुपवीतं सदा धार्यम् । तदार भगः, -
"मदोपवीतिना भाव्यं सदा वद्धशिखेन च । विशिखाव्यपवीतच यत् करोति न तत् कृतम् ॥ मन्त्रपूतं स्थितं काये यस्य यज्ञोपवीतकम् ।
* व्याहतीः प्रति विक्षिपेत्, इति स. शा. पुस्तकयोः पाठः। 1 व्युपवीतीच,-इति मु° पुस्तके पाठः ।
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श्च ० चा का०]
पराशरमाधवः।
___५१
नोद्धरेच ततः प्राज्ञोयदीच्छेच्छेयामनः ।।
मकृच्चोद्धरणात्तस्य प्रायश्चित्ती भवेद्दिजः" इति । उपवीते विशेषमाह देवलः,
"सूत्रं मलोमकं चेत्स्यात्ततः कृत्वा विलोमकम् । माविया दशकृत्वोऽद्भिः मन्त्रिताभिस्तदुक्षिपेत् ॥
विच्छिन्नं वाऽप्यधोयातं भुक्त्वा निर्मितमुत्सृजेत्” इति। यज्ञोपवीतादीनां त्रोटनादौ प्रतिपत्तिमाह मनुः,
"मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम् ।
अमु प्रास्य विनष्टानि ग्टहीतान्यानि मन्त्रवत्" इति। दण्ड-धारणानन्तरमादित्योपस्थानं कार्य्यम् । तथाह मनुः,
"प्रतिरोपितं दण्डमुपस्थाय च भास्करम् ।
प्रदक्षिणं परीत्याग्निं चरे क्षं यथाविधि"-दति । दण्डग्रहणान्तेतिकर्त्तव्यता-युक्तमुपनयनं प्राप्य गायत्री-महावाक्यार्थभूतं भास्करमुपस्याय मोऽहमित्येवं ज्ञात्वा अमिंग परिचर्य भेक्ष्यं चरेदित्यर्थः। अमि-परिचर्या मनुना दर्शिता,___ "दूरादाहृत्य समिधः मनिदध्यादिहायसि ।
सायं प्रातच जुडयात् ताभिरग्रिमतन्द्रितः" इति । विहायसि अन्तरिचे स्थापयेत्र तु भूमावित्यर्थः । ममिदाहरणे विशेषमाह वैजवापः,-"पुराऽस्तमयात् प्रागुदीची दिशं गत्वा अहिं
* सकृच्चाधारणात्तस्य-इति मु० पुस्तके पाठः। सकृत्सोद्धरणात्तस्य,इति शा. पुस्तके पाठः।
। यज्ञागि,-इति शा. पुस्तके पाठः ।
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ર
[२०, आ०का० ।
-
सरण्यात् समिधमाहरेत्; शुष्काब्रह्मवर्चस-कामश्राद्री स्वनाद्यकामउभयोरुभय- काम : " - इति । समिलचणमाह कात्यायनः, - "नाङ्गुष्ठादधिका कार्य्यी समित् स्थूलतया क्वचित् । न वियुक्ता त्वचा चैव न सकोटा न पाटिता * ॥ प्रादेशान्नाधिका न्यूना तथा न स्याद्विशाखिका । नासपती नातियामा हामेषु तु विजानता ॥ विशीणी विदला हवा वक्रा ससुषिरा कृशा । दीर्घा स्थूला गुणैर्दुष्टा' कर्म- सिद्धि-विनाशिका ”—इति । समिन्नियमउक्रोवायुपुराणे,—
" पालाश्यः समिधः कार्य्यीः खादिर्य्यः तदलाभतः । शमीरोहितकाश्वत्थास्तदभावेऽर्कवेतमौ " - इति । अग्निकार्य्यीकरणे प्रत्यवायमाह हारीतः, -
“पुरा जग्राह वै मृत्युर्हिसयन् ब्रह्मचारिणम् । अग्निस्तं मोचयामास तस्मात् परिचरेच्च तम्” - इति । भिक्षा-ची-प्रकारमाह याज्ञवल्क्यः, -
-
पराशर माधवः ।
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"ब्राह्मणेषु चरेद्वेक्ष्यम निन्द्येष्वात्म-वृत्तये । श्रादिमध्यावसानेषु भवच्छन्दोपलचिता ॥ ब्राह्मण - चत्रिय- विशां भैक्ष्य च ब्राह्मणेष्विति स्वस्वजातीयोपलक्षणम् । श्रतएव व्यासः, - “ब्राह्मण-क्षत्रिय-विशश्चरेयुर्भेक्ष्यमन्नहम्।
+ न तापिता – इति मु० पुस्तके पाठः । दीघा स्थूलगुणैर्दुष्टा, -- इति मु० पुस्तके पाठः ।
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यथाक्रमम्" - इति ।
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रच,था.का.)
पराशरमाधवः।
४५६
सजातीय-ग्रहेष्वेव सार्ववर्णिकमेव वा"-दति । सार्ववर्णिकत्वमापद्विषयम् । अतएव भविष्यत्पुराणे दर्शितम्,
"चातुर्वर्ण्यञ्चरेबॅच्यमलाभे कुरुनन्दन"-इति। श्रापद्यपि न शूद्रात् पक्कं ग्टहीयात् । तदाहाङ्गिराः,
"श्राममेवाददीतान्या दत्तावेकरात्रिकम् । श्रामं पूयति मंस्कारे धर्म्यन्तेभ्यः प्रतीछितम् ॥
तस्मादामं ग्रहीतव्यं शूद्रादप्यंगिरोऽब्रवीत्" इति । अनापदि स्वजातीयेवपि प्रशस्तेष्वेव भैक्ष्यमाचरेत् । तदाह मनुः,
"वेदय रहीनानां प्रसताना ख-कर्मसु । ब्रह्मचाऱ्याहरबॅक्ष्यं ग्टहेभ्यः प्रयतेोऽन्वहम्"-दति ।
आदिमध्यावमानेविति, अयमर्थः । भिक्षा-प्रवर्तना-वाको वर्णक्रमेण? अादिमध्यावसाने भवच्छब्दः प्रयोज्यः । तथा च मनुः,
"भवत्पूर्व चरेझैच्यमुपनीता॥ द्विजोत्तमः ।
भवन्मध्यन्तु राजन्योवैश्यस्तु भवदुत्तरम्'-दूति । उतषु कचिदपवादमाह मएव,
“गुरोः कुले न भिक्षेत न ज्ञातिकुल-बन्धुषु । अलाभे वन्यगेहानां पूर्वं पूर्व परित्यजेत् ॥ सर्वं वाऽपि चरेडामं पूर्वाकानामसम्भवे ।
* याममेवाददीतास्मा,-इति मु० पुस्तके पाठः । + प्रपञ्चितम्, इति मु० पुस्तके पाठः । + प्रशस्ताना,-शा० पुस्तके पाठः । $ क्रमेण,-इति मु० पुस्तके पाठः । || मुपवीती,इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः।
श्चि०,पाका ।
नियम्य प्रयतोवाचमभिशस्तांस्तु वर्जयेत्” इति ।
"मातरं वा स्वसारं वा मातुर्वा भगिनी निजाम् ।
भित भिक्षां प्रथमं या चैनं न विमानयेत्” इति । तदुपनयनाङ्ग-भिक्षा-विषयम् । तच भक्ष्यं भोजन-पाप्माहर्त्तव्यम्, अन्यथा दोष-श्रवणात् । तदाह यमः,
"आहारमात्रादधिकं न कपिलक्षमाहरेत् ।
युज्यते स्तेय-दोषेण कामतोऽधिकमाहरन्" इति । तच भक्ष्यं गुर्वनुज्ञा-पुरसरं भोक्तव्यम् । तदाहतुर्मनु-यमौ,
"समाहत्याथ तदैत्यं वावदर्थमयायया। ..
निवेद्य गुरवेऽश्रीयादाचम्य प्रामुखः शुचिः" इति । गर्वसविधौ तदादिभ्यो निवेदयेत् । तदाह गौतमः,--
"निवेद्य गुरवेऽनुजां ततोभुचीत मनिधौ ।
गुरोरमावे तबा--पुत्र-मब्रह्मचारिणाम्" इति । गुर्वनुज्ञातं भै मत्कृत्य भुञ्जीत । तदाह याज्ञवल्क्यः -
"तामिका-भुनीत वागयतोगुर्वनचया ॥
आपोशन-किया-पूर्व सत्कृत्यानमकुन्मयन्'-दति । मत्कारश्च हारीतेन दर्शितः,-"भैक्ष्यमवेक्षितं पर्यनीकृतमादित्यदर्शितं गुरवे निवेदितमनुज्ञातममृत-सम्मित प्राडः, यदनाति ब्रह्मपारी ब्रह्म-सिद्धिमवाप्नोति” । गौतमोऽपि,-"मायं प्रातरभिपूजित
मनिन्दन् भुनीत"-इति । एकान्न-निषेधमाह मनुः - ____ * आपोशानक्रियापर्व, इति भा• पुस्तके पाठः।
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श्व.,पा.का.
पराशरमाधवः।
8५५
"भक्ष्येण वर्तयेन्नित्यं नैकाबादी भवेझवेडुती। भैष्येण प्रतिनोवृत्तिरुपवास-ममा स्मता ॥. प्रतवद्देव-दैवत्ये पिये कर्मण्यथर्षिवत् ।
काममभ्यर्थितोऽश्रीयात् तमस्य न लुप्यते” इति। प्रकरणे प्रत्यवायमाह मएव,
"अकृत्वा भक्ष्यचरणमममिध्य च पावकम् ।
अनातरः सप्तराचमवकीर्णि-व्रतञ्चरेत्" इति । अपनीतस्य नियममाह यमः,
"दण्डं कमण्डलु वेदं मौनों च रसनां तथा ।
धारयेद्दवाचर्यच भिक्षानाशी गुरौ वमन्” इति । वेदोदर्भमुष्टिः, गुरौ गुरु-रहे इत्यर्थः । यमः,___ "मेखलामजिनं दण्डं उपवीतं च नित्यशः ।
कौपीनं कटि-सूचच ब्रह्मचारी च धारयेत्" इति । मनुः,
"अग्रीधनं भक्ष्यचर्यामधःशय्यां गुरोहितम्।
श्रा समावर्तनात् कुर्यात् कृतोपनयनोविजः" इति । सुमन्तुरपि,
"बहाचर्य नपोमैक्ष्यं सन्ध्ययोरग्नि-कर्म च ।
खाध्यायोगुरु-वृत्तिश्च चरेयुब्रह्मचारिणः" इति। गुरु-नि-प्रकारमाह व्यासः,
"जघन्यवायी पूर्व स्यादुत्थायी गुरु-वेश्मनि । या शिष्येण कर्त्तव्यं यच्च दानेन वा पुनः ॥
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84
विश्वामिचः, -
वर्ज्यनाह याज्ञवल्क्यः,
थमः,
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पराशरमाधवः ।
कृतमित्येतत् ਕ कृत्वा तिष्ठन्तु पार्श्वतः ।
किङ्करः सर्वकारी च सर्वकर्मसु कोविदः ॥
भुवति नाश्रीयादपीतवति नो पिवेत् ।
न तिष्ठति तथाऽऽसीत नासुप्ते प्रसुपेत् तथा" - इति ।
मनुरपि,
" तद्भार्थी - पुत्रयोश्चैव वृद्धानां धर्मशालिनाम् * । शुश्रूषा सर्वदा कार्य्यी प्राणामादिभिरेव च " - इति ।
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[२०, ख० का ० ।
“मधुमांसाञ्जनेोच्छिष्ट - शुक्र- स्त्री - प्राणिहिंसनम् । भास्करालेोकना झील - परिवादांश्च वर्जयेत्" - इति ।
"वर्जयेन्मधुमांसञ्च गन्धं माल्यं रसान् स्त्रियः । शुक्तानि चैव सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम् ॥ श्रभ्यङ्गमं जनञ्चाक्षणोरुपानच्छत्र-धारणम् । कामं क्रोधञ्च लोभञ्च नर्त्तनं गीतवादनम् ॥ द्यूतञ्च जनवादं च परिवादं तथाऽनृतम् । स्त्रीणाञ्च प्रेचणालम्भमुपघातं परस्य च ॥
एकः शयीत सर्वत्र न रेतः स्कन्दयेत् क्वचित् ” - इति ।
* धर्म्मशीलिनाम्, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
“खट्वाऽऽसनं च शयनं वर्जयेद्दन्त-धावनम् ।
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२०, या०,का.1]
गराशरमाधवः ।
8५७
स्वपेदेकः कुशेष्वेव न रेतः स्कन्दयेत् कचित्" इति । कूर्मपुराणे,
"नादर्शश्चैवमीक्षेत नाचरेद्दन्त-धावनम् ।
गुरूछिएं भेषजार्थं प्रयचीत न कामतः” इति । आपस्तम्बेोऽपि,-"पितुर्येष्ठस्य च भ्रातुरुच्छिष्ट भोकव्यम्" इति । गुरुपुत्रस्याप्युच्छिदं न भोक्रव्यम् । तदाह मनुः,
"उत्सादनञ्च गात्राणां स्नापनाच्छिष्टभोजने । न कुर्याइरु-पुत्रस्य पादयोश्चावनेजनम् ॥ अभ्यञ्जनं खापनञ्च गात्रोत्सादनमेवच ।
गुरुपत्न्यान कार्याणि केशानाञ्च प्रसाधनम्" इति । ब्रह्मचर्य-कालावधिमाह याज्ञवल्क्यः,
"प्रतिवेदं ब्रह्मचर्य द्वादशाब्दानि पञ्च वा।
ग्रहणान्तिकमित्येके केशान्तं चैव षोडशे"-इति । केशान्तं गोदानाख्यं कर्म । तच्च षोडशे वर्षे कार्य्यम् । तदाह मनुः,
"केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते ।
राजन्यबन्धोर्टाविंशे वैश्यस्य यधिके ततः" इति । यमः,
"वसेट्टादश वर्षानि चतुर्विंशतिमेव वा ।
षट्त्रिंशतं वा वर्षाणि प्रतिवेदं व्रतञ्चरेत्”- इति । .एतत् त्रिवेद-ग्रहणाभिप्रायम् । अतएव मनुः,
“पत्रिंशदादिकं चयं गुरौ त्रैवेदिकं ब्रतम् ।
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8५८
पराशरमाधवः।
रिच,पा०का।
तद िकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा"-इति । एवमुकल्लक्षणोब्रह्मचारी विविधः, उपकुर्वाणकोनैष्ठिकश्च । उपकुर्वाणकस्योक्ताः धर्माः, नैष्ठिकस्योच्यन्ते । तबाह याज्ञवल्क्यः,
"नैष्ठिकोब्रह्मचारी तु वसेदाचार्य-सन्निधौ ।
तदभावेऽस्य तनये पन्यां वैश्वानरेऽपिवा"-दति । मनुरपि,
“यदि त्वात्यन्तिकावासोरोचेनास्य गुरोः कुले । युक्तः परिचरेदेनमा शरीर-विमोक्षणात्॥ आचार्य तु खस्नु प्रेते गुरुपुत्रे गुणान्विते । गुरुदारे मपिण्डे वा गुरुवहत्तिमाचरेत् ॥ एषु त्वविद्यमानेषु स्थानासनविहारवान्।
प्रयुञानाऽनि-शुश्रूषां साधयेद्देहमात्मनः" इति ॥ एतच्च महत्त-ब्राह्मण-गुर्वादि-विषयम्, अन्यथा दोषः । तदुक्तं तेनैव,
"नाब्राह्मणे गुरौ शिष्योवासमात्यन्तिकं वसेत् ।
ब्राह्मणे चाननूचाने काझन् गतिमनुत्तमाम्" इति॥ वसिष्ठोऽपि,-"ब्रह्मचर्य चरेदाशरीर-विमोक्षणात्। प्राचार्य च प्रेतेऽमिं परिचरेत् मयतवाक् चतुर्थषष्ठाष्टमकालगोजी भैक्ष्यं गुर्वधीनोजटिलः शिखाजटोवा गुरुं गच्छन्तमनुगच्छेदासीनं चानुतिछेत् शयानश्चेदामीत आहताध्यायी सर्व-लब्ध-निवेदी खट्टा-शयनदन्नप्रक्षालनाञ्जनाभ्यञ्जनवर्जनानग्लीलस्त्रीरहस्यभ्युपेयादयः” इति । * तदडिकं वा पादं वा,-इति मु० पुस्तके पाठः ।
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मनुरपि, -
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२, व्या०का० । ]
अनि विनायी स्यादित्यर्थः । श्रग्नि-परिचय हारीत शङ्खलिखित- यमैर्निरूपिता, - " यज्ञियाः समिधश्राहृत्य सम्मार्जनोपलेपनोद्धमनसमूहनममिन्धन पर्य्यग्निकरणपरिक्रमणे । पस्थान हामस्तोत्रम - स्कारादिभिरग्निं परिचरेन्नाग्निमधितिष्ठेन पद्भ्यां कर्षेन मुखेनेोपधमेन्नापश्चानिञ्च युगपद्धारयेन्ना जीर्णभुक्तोनेोच्छिष्टोवाऽभ्यादध्यात् । विविधे ई विर्विशेषे राझे ये रहरहरभिं समिधेदामन्त्य गच्छेदागत्य निवेदयेत् तन्मनाः शरीरोपरमान्ते ब्रह्मणः सायुज्यं गच्छति " - इति । एवं कुर्वतः फलमाह याज्ञवल्क्यः, -
" श्रनेन विधिना देहं सादयन् विजितेन्द्रियः । ब्रह्मलोकमवाप्नोति न चेहाजायते पुनः " - दूति ।
-
पराशर माधवः ।
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“श्रा समाप्तेः शरीरस्य यस्तु शुश्रूषते गुरुम् ।
ननु
स गच्छत्यञ्जसा विप्रोब्रह्मणः सद्म शाश्वतम् " - इति । नैष्ठिक ब्रह्मचर्य्यङ्गीकारे गार्हस्थ्यं निर्व्विषयं स्यात् । तन्न, गार्हस्थ्यस्य रागि- विषयत्वात् । तदाह जावालिः, -"यदि गृहमेव कामयेत्तदा यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहुयात् " - इति । श्रच केचित्, मैटिक ब्रह्मचर्यं कुञ्जादिविषयं मन्वानागाईस्यस्य तदितरविषयता
माजः । उदाहरन्ति च तत्र विष्णुवचनम्, -
પૂર્વ
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"कुज- वामन - जात्यन्ध-क्लीव - पङ्गवार्त्तरे रागिणाम् । व्रतच भवेतेषां यावज्जीवमसंशयम्” इति ।
तन्न, नैष्ठिक - ब्रह्मचर्य्यस्य कुलादिश्चेव नियतत्वे समर्थं प्रत्यच्छकलमुच्यमानं विरुध्येत । ऐच्छिकत्वञ्च वसिष्ठेन दर्शितम्, चत्वार
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8€°
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[२ का०पा० का ० ।
श्राश्रमाः ब्रह्मचारि-गृहस्थ- वानप्रस्थ-परिव्राजका:, तेषां वेदमधीत्य वेद वेदान वा चीर्ण - ब्रह्मचर्ये । यमिच्छेत्तमावसेत्” इति । भवि - यत्पुराणेऽपि -
पराशरमाधवः ।
शत्र याज्ञवल्क्यः,
" गार्हस्थ्यमिच्छन् भूपाल, कुर्य्याहार - परिग्रहम् । ब्रह्मचर्येण वा कालं नयेत् सङ्कल्प - पूर्वकम् ।
---
वैखानसेावाऽपि भवेत् परिव्राड़थवेच्छया " - इति । तस्मात्, रागि- विषयत्वेनैव गार्हस्थं व्यवस्थापनीयम् इति ।
इति ब्रह्मचारि-प्रकरणम् ।
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अथ ग्रहस्थाश्रमं निरूपयितुं तदधिकार* खानमादौ निरूप्यते । ।
" गुरवे तु वरं दत्त्वा स्वायीत तदनुज्ञया । वेदं व्रतानि वा पारं नीत्वा
तत्र, दातव्योवरोमनुना दर्शितः, -
भयमेव वा " - इति ।
"न पूर्व गुरवे किञ्चिदुपकुर्वीत धर्मवित् । स्नास्यंस्तु गुरुणाऽऽज्ञप्तः शक्त्या गुर्वर्थमाहरेत् ॥ क्षेत्रं हिरण्यं गामश्वं छत्रोपानहमासनम् ।
* तदधिकारहेतुः - इति पाठी भवितुं युक्तः । + तदधिकारहेतुं खातकमादौ निरूप्यते इति मु० पुस्तकेपाठः ।
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२०, प्र०का० ।]
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पराशर माधवः ।
हारीत - स्मृतिरपि -
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धान्यं वासांसि शाकं वा गुरवे प्रीतिमाहरेत्" - इति । श्रयञ्च वरोगुरु- प्रीत्यर्थेन तु विद्या - निष्क्रयार्थः । वेद-विद्याऽर्हस्य मूल्यस्यासम्भवात् । तथा च च्छन्दोग - श्रुतिः, -" यद्यप्यस्मा मामद्भिः परिग्टहीतां धनस्य पूर्णां दद्यात्तदेव ततेोभूयः " - इति । तापनीयश्रुतिरपि,
"सप्तदीपवती भूमिर्दक्षिणार्थं न कल्पते । " - इति ।
१६१
“एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् ।
पृथिव्यां नास्ति तद्द्रव्यं यद्दत्वाऽस्यानृणी भवेत् ” - इति । वेदं व्रतानि वेत्यनेन स्नातक- वैविध्यं दर्शितम् । तत्र, वेदमात्रपरिसमापक एकः, व्रतमात्र परिसमापक द्वितीयः, उभय-परिसमापकस्तृतीयः । व्रतशब्देनात्र गृह्य - प्रसिद्धान्युपनयनव्रत-सावित्रीव्रतवेदव्रतानि विवक्षितानि । स्नातक-वैविध्यं हारीतेनेाक्रम्, - " त्रयः स्नातकाभवन्ति; विद्यास्नातकोत - स्नातको विद्या - व्रत - स्नातकः"इति । वेदं पारं नीत्वेत्यवार्थावगतिरपि विवक्षिता । श्रतएव कूर्मपुराणे,—
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"वेदं वेदौ तथा वेदान् वेदान् वा चतुरोद्विजः । श्रधीत्य चाधिगम्यार्थं ततः स्नायाद्विजेात्तम" - इति । स्नान - प्रकारच प्रसिद्धः । स्नातक - धर्मः कूर्मपुराणे दर्शिताः* धान्धं शाकच्च वासांसि गुरवे प्रीतिमावहेत्, - इति पू० मु० मनुसं हितायां पाठः ॥
----
+ न कल्पिता, – इति मु० पुस्तकेपाठः ।
† वेदाङ्गत्रतारण्यकत्रतानि, - इति मु० पुस्तकेपाठः ।
—
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पराशरमाधवः।
[श्य,बा.का.
"यज्ञोपवीत-द्वितयं मोदकञ्च कमण्डलुम् । छत्रं चोष्णीषममलं पादुके चाप्युपानहौ । रौको च कुण्डले वेदं कृत्त-केश-नखः शुचिः । खाध्याये नित्ययुक्तः स्थाबहिर्माल्यञ्च धारयेत् ॥ शुक्लाम्बरधरोनित्यं सुगन्धः प्रियदर्शनः । न जीर्ण-मलवद्वासाभवेत्तु विभवे मति ॥ न रक्तमुल्वणं चास्य तं वासन कन्थिकाम्" इति ।
इति स्नातक-प्रकरणम्।
अथ विवाहः। तत्र मनुः,
"गुरुणाऽनुमतः स्नात्वा समारत्तोयथाविधि।
उदहेत विजोभायों सवर्ण लक्षणन्विताम्" इति । याज्ञवल्क्योऽपि,
"श्रविप्नुत-ब्रह्मच-लक्षण्या स्त्रियमुदहेत् । अनन्यपूर्विकां कान्तामसपिण्डां यवीयसीम् ।
अरोगिणीं मालमतीससमानार्षगोत्रजाम्”-इति। लक्षण्यां वाह्याभ्यन्तर-लक्षण-युताम् । वाह्यानि लक्षणानि मनुना दर्शितानि,
"अव्यङ्गाङ्गों सौम्यनान्नों हंस-वारण-गामिनीम् ।
तनु-लोम-केश-दशनां मृदंगीमुद्वहेत् स्त्रियम्" इति । वामाह म एव,
"नोदहेत् कपिलां कन्यां नाधिकाङ्गों न रोगिणीम् ।
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रच०,या का•]
पराशरमाधवः।
४६३
नालोमिका नातिलामा न वाचाला न पिङ्गलाम् ॥ न-वृक्ष-नदी-नानी नान्य-पर्वत-नामिकाम् ।
न पक्ष्यहि-प्रेय्य-नाम्नों न च भीषणनामिकाम्" इति । कपिला रक्त-तण्डुल-वर्णा । पिङ्गला अनिवर्ण । अन्त्येति मेच्छनाम्नी । विष्णुपुराणेऽपि,
"न श्मश्रु-व्यञ्चनवतों न चैव पुरुषाकृतिम्। न घर्घर-खरां क्षामां तथा काक-वरां न च । नानिवंधेक्षण तदृत्तानों नोदहेदुधः। यस्याश्च रोमशे जंघे गल्फो यस्यास्तथोन्नतौ । गण्डयोः कूपको यस्याइसन्यास्ताच नोदहेत् । नातिरुक्षच्छविं पाण्डुकरजामरुणेक्षणाम् । अ-पीन-हस्त-पादाञ्च न च तामुदहेदुधः । न वामनां नातिदीर्थी नोदहेत् मङ्गतध्रुवम् ।
न वातिच्छिद्र-दशनां न कठालमुखों नरः” इति । आन्तराणि तु लक्षणान्याश्वलायन-ग्टह्ये विहितानि,-"दुर्विज्ञेयानि लक्षणान्यष्टौ पिण्डान् कृत्वा, ऋतमगे प्रथमं यज्ञश्ते सत्यं प्रतिष्ठितं यदियं कुमार्यभिजाता तदियमिह प्रतिपद्यतां यत्सत्यं तदृश्यतामिति पिण्डानभिमन्व्य कुमारी यादेषामेकं रहाणेति क्षेत्राचेदुभयतः शस्याग्रहीयादन्नवत्यस्याः प्रजा भविष्यतीति विद्याद् गोष्ठात् पशुमती वेदिपुरीषाद्ब्रह्मवर्चविन्यविदासिनोहदात् सर्वस
* 'यस्याश्च' इत्यादि 'तामुद्दईदुधः' इत्यतत् लोकइयं मु० पुस्तके न दृश्यते।
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पराशरमाधवः।
रघ०,या का।
म्पन्ना देवनात् कितवी चतुष्पथाद्विप्रवाजिनीरिणादधन्या श्मशानात्पतिघ्नी"* इति। विप्रवाजिनी विविध प्रकर्षेण व्रजतीति विप्रवाजिनी स्वैरिणी इत्यर्थः । अनन्यपूर्विकामिति दानेनोपभोगेन वा पुरुषान्तराग्रहीताम् । अनेन पुनर्भूावर्त्यते । अतएव काश्यपः,
"मप्त पौनर्भवाः कन्यावर्जनीयाः कुलाधमाः । वाचा दत्ता दनादत्ता कृत-कौतुक-मङ्गला । उदक-स्पर्शिता या च या च पाणिग्टहीतिका । अग्निं परिगता या च पुनर्भू-प्रसवा च या ।
इत्येताः काश्यपेनोक्तादहन्ति कुलमग्निवत्” इति । बौधायनः,-“वाग्दत्ता मनोदत्ताऽग्निं परिगता सप्तमं पदन्नीता भुक्ता ग्टहीतगी प्रसूता चेति सप्तविधा पुनर्भूः, तां ग्टहीत्वा न प्रजां न धर्म विन्देत्" इति । नारदोऽपि,
"कन्यवाक्षतयोनियर्या पाणि-ग्रहण-पूर्विका ।
पुनर्भू-प्रतिमा ज्ञेया पुन: संस्कार कर्मणि"-इति ।। * 'अान्तराणि' इत्यारभ्य 'इत्यर्थः' इत्यन्तयन्यस्थाने मुद्रित पुस्तके अन्यथा पाठो दृश्यते । स यथा,-"आन्तराणि लक्षणानि आश्वलायनग्यो दर्शितानि दुज्ञेयानि तानि वेदितव्यानि । पूर्वस्यां रात्रौ गोष्ठ-वेदिकाकितवस्थान-देरिण-क्षेत्र-चतुष्पथ-प्रमशानेभ्योम्मत्तिकां ग्रहोत्वा अौ पिण्डान् कृत्वा ऋतमग्रे प्रथमं जज्ञे ऋते सत्यं प्रतिष्ठितं यदियं कुमार्याभि जाता तदियमिह प्रतिपद्यतां यत् सत्यं तदृश्यतामिति पिण्डानभिमन्त्य कुमारों ब्रूयादेषामेकं रहाणेति । तत्रानुक्रमेण प्रथमे पिण्डे ग्रहीते धान्यवती भवति, द्वितीये पशुमती, टतीयेऽग्निहोत्रघरा, चतुर्थे विवेकिनी चतुरा सर्वजनाचनपरा भवति, पञ्चमे रोगिणी, घछे बन्ध्या, सप्तमे व्यभिचारिणी, अयमे बिधवा भवेदिति ।" सम्भाबयामः आश्वलायनमूत्रस्य तात्पर्य्यमेव तत्र संग्रहीतमिति ।
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श्या,पाका•
पराशरमाधवः।
याज्ञवल्क्योऽपि,
"असता च क्षता चैव पुनर्भः संस्कृता पुनः" इति । कान्तां कमनीयां उद्घोढुमनोनयनानन्दकारिणीम् । अतएव आपस्तम्बः,-"यस्यां मनश्चक्षुषोनिवन्धस्तस्यामृद्धिः" इति ।
श्रमपिण्डामिति । समानएकः पिण्डोयस्याः मा मपिण्डा, न मपिण्डा अपिण्डा, ताम् । मपिण्डता च सप्तम-पुरुष-पर्यवसायिनी। तत्रैकः पिण्डदाता, चयः पिण्डभाजः पिट-पितामह-प्रपिताहाः, त्रयोलेपभाजः वृद्धप्रपितामहादयः । तथा च मत्स्यपुराणे,
"लेपभाजचतुर्थाद्याः पित्राद्याः पिण्डभागिनः ।
पिण्डदः सप्तमस्तेषां मापिण्ड्यं साप्तपौरुषम्”–दति । मार्कण्डेयोऽपि,
"पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः । पिण्डसंवन्धिना ते विज्ञेयाः पुरुषास्त्रयः । लेपर्मबन्धिनश्चान्ये पितामह-प्रपितामहात्प्रमत्युकास्त्रयस्तेषां यजमानस्तु सप्तमः ।
इत्येष मुनिभिः प्रोक्र. मंबन्धः माप्तपौरुषः" इति। एतदकं भवति, मप्तानां पुरुषाणामेक-पिण्ड-क्रियाऽनुप्रवेश: मापिण्य-हेतुः । तयाच, देवदत्तस्य खकीयैः पित्रादिभिः षड्भिः सह मापिण्डाम्, तथा पुत्रादिभिः षड्भिः मह सापिण्डाम्, इति । नन्वे मति भाट-पिटव्यादिभिः सह स्थापिण्डा न स्यात्, परिगणितेष्वनन्तभीवात् । मैवम्। उद्दिश्य-देवतेकोन क्रियैक्यस्यात्र विवक्षितत्वात् । * देवदत्तक्वेन,-इति मु. पुस्तके पाठः ।
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34ද්දි
[२०, ख०का० ।
देवदत्त - कर्टक - क्रियायां ये देवतात्वेनानुप्रविशन्ति तेषां मध्ये यः कोऽपि भ्रातृ-पितृव्य कर्तक - क्रियायामप्यनुप्रविशतीत्यस्ति तैः सह सापिण्ड्यम् । एवं भार्याणामपि भर्ट-कर्तृक-पिण्ड़दान- क्रियायां सहकत्वात् सपिण्डयमिति । तदिदं निर्वीष्यमा पिण्ड्यम् ।
पराशर माधवः ।
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अपरे पुनरन्यथा * मापिण्डामाङः । तथाहि । समानएकः पिण्डोदेहावयवेोयेषां ते सपिण्डाः । तत्र, पुत्रस्य साक्षात् पिटदेहावयवान्वयेन पिचा सह सापिण्ड्यम् । तथा, पितामहादिभिरपि पिट-द्वारेण तच्छरीरावयवान्वयात् । साक्षान्मात शरीरावयवान्नयेन मात्रा, मातामहादिभिभिरपि मातृदारेण तच्छरीरावयवा - नयात् । तथा, पितृव्य- पितृव्वखादिभिरपि पितामह - देहावयवान्वयात् । तथा, मातृस्वस्ट - मातुलादिभिः सह मातामह - देहान्वयात् । पत्न्या सह एकशरीरारम्भकतया पत्युः एवं भ्रातृ-भार्थ्यालामध्येकशरीरारम्भकः स्व-स्व- पतिभिः सहैकशरीरारम्भकत्वेन । एवं तत्र तत्र साक्षात् परंपरया वा एक- शरीरावयवान्वयेन सपिएडा योजनीयम् ।
उकं द्विविधं सपिण्डां यस्यानास्ति सेयममपिण्डा, तामुदहेत् । नन्वेवं सति न काप्युदाहः सम्भवेत् सर्वच मापिण्डास्य कथञ्चिद्येोजयितुं शक्यत्वात् विधाट - शरीरानुवृत्तेर्दुः परिहरत्वात्, “बहुस्यां प्रजायेय" - इति श्रुतेः । नैष दोषः, श्रविशेषेण प्राप्तस्य सापिण्डास्य सप्तसु पञ्चमुच पुरुषेषु सङ्कुचितत्वेन तदूई मापिएडा - निटचेः । तथा च मौलमा - " सपिण्ड - निवृत्ति सप्तमे पञ्चमे वा" - इति । गाशबल्क्योऽपि,
*
पुनरवयव, — इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ भाटशरीरदारेण - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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२०, प०का० 1]
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पराशरमाधवः ।
*
“पञ्चमात् सप्तमादूर्द्धं मातृतः पित्तस्तथा” – इति । मातृ-पते पञ्चमात् पितृ-पते सप्तमात् पुरुषादूई, सापिण्य निवर्त्तते, — इत्यध्याहृत्य योजनीयम् ।
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" सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्त्तते" - इति मनु-स्मरणात् । एतदुकं भवति । पितृ-पते कूटस्थमारभ्य तत् पुत्रादि-गणनायां सप्तमादूर्द्धं वर- वध्वार्विवाहान दुष्यति । मातृ-पले च कूटस्थमारभ्य तत्पुचादि-परिगणनाय वर वध्वोर्माता चेत् पञ्चमी मवति, तदा तयेोः सापि निटते विवाहोन दोषायेति । यन्तु विष्णुपुराणवचनम्, -
"पच मातृपक्षात तु पित्रपक्षात तु सप्तमीम् ।
गृहस्थउदच्हेत् कन्यां न्याय्येन विधिना नृप " - इति
तत्र, सप्तमीं पञ्चमीमतीत्येत्यध्याहार्यम् । श्रन्यथा, पञ्चमात् सप्तमा दूर्द्धम्, - इति वचन - विरोधात् ।
"पञ्चमे सप्तमे चैव येषां वैवाहिकी क्रिया ।
*
क्रिया - पराश्रपि हि ते सर्वतः शूद्रतां गताः” इति मरीचिवचन- विरोधाच्च । यद्यपि पैठीनसिना कल्पइयमुक्तम्. - "पञ्च मातृतः परिहरेत् सप्त पिटतस्त्रीन्मातृतः पञ्च पिटतेावा" - इति । तत्र, द्वितीयः कल्पोऽसमानजातीय विषयः । यतः शङ्खग्राह, — “यद्येकजातावहवः पृथक् क्षेत्राः पृथग्जनाः ।
एकपिण्डाः पृथक्शौचाः पिण्डस्वावर्त्तते चिषु" - इति । श्रयमर्थः । येषामेकः पिता मातराभिन्नजातीयास्ते मातृभेदा
तरते, - इति मु० पस्तके पाठः ।
०६७
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४६०
पराशरमाधवः।
[२०,या का।
दममानजातीयाः, तथापि, पिवैक्यादस्तिमापिण्डाम, तच्च त्रिषु पुरुषेध्वनीतेषु निवर्तते, इति । नन्वेवं मति पिल-पक्षेऽपि त्रिभिः पुरुषैः सापिण्डनिवृत्तेः ‘पञ्च पिरतावा'-इति वचन विरुद्ध्येत । एवन्तर्हि 'चीन्माटतः पञ्च पिढतोवा'-इति पैठीनभिवचनं मजातीवेव निषेधपरम् , अनुकल्पोवाऽस्तु । 'मावतः पितृतस्तथा'-दूत्यत्र पिशब्देन वीजिनोऽपि सङ्ग्रहः। तथा च गौतमः,-"ऊर्द्ध सप्तमात् पिट बन्धुभ्योवीजिनश्च मालबन्धुभ्यः पञ्चमात्" इति। योहि नियोगोत् पुत्रमुत्पादयति, म वीजी। पिटमाबान्धवाः स्मृत्यन्तरे दर्शिताः,
"पितुः पिट-वसुः पुत्राः पितुमाह-वसुः सुताः । पितुर्मातुल-पुत्राश्च विज्ञेयाः पिट-बान्धवाः ।। मातुः पिट-वसुः पुत्रामातुर्माव-वसुः सुताः ।
मातुमातुल-पुत्राश्च विज्ञेयामाव-बान्धवाः” इति । नन्वमपिण्डामिति न वतयं, वक्ष्यमाणेन 'असमानार्षगोत्रजाम्'इत्यनेनैव मपिण्डायाविवाह-निषेध-सिद्धः । सत्यं, तथापि या मातुरमपिण्डा भवति, सेवादाह-कर्मणि प्रशस्तेति वक्रव्यम् । तथा च मनुः,
"असपिण्डा च या मातुरमगोत्रा च ग पितुः ।
* अवानिषेधपरम,-इति मु• पुस्तके पाठः । + सपिण्डायां विवाहनिषेधसिद्धेः,-रति मु० पुस्तके पाठः।
+ या पितुरसगोत्रा तथापि या मातुरसपिण्डा,-इति मु० पुस्तके पाठः। ६ वक्त,-इति श० स० पुस्तकयाः पाठः ।
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२०, व्या०का० ।]
मा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने” – इति । या मातुरपिण्डा सगोचा च या पितुरसगोत्रा, चकारादमपिण्डा च, मा मैथुने मिथुन - माध्ये दारकर्मणि द्विजातीनां प्रशस्ता परिणेयेत्यर्थः । नन्वत्र मातृग्रहणमनर्थकं, पिट - गोच-मापिण्डा- निषेधेनैव मात्र - गोत्र - सापिण्डा - निषेध - सिद्धेः । पृथक् पिण्ड - गोत्रयोरभावात्,
पराशरमाधवः ।
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१६८
" एकत्वं सा गता भर्त्तुः पिण्डे गोत्रे च स्रुतके। tantra नारी विवाहात् सप्तमे पदे - इति वचनात् । भैवम् । गान्धर्व्वादि - विवाहेषु कन्या- प्रदानाभावेन पिटगोत्र-मापिण्ड्ययोरनिवृत्तेः । तथाच मार्कण्डेयपुराणम्, -
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"ब्राह्यादिषु विवाहेषु या तूढ़ा कन्यका भवेत् । भर्त्तृ-गोत्रेण कर्त्तव्या तस्याः पिण्डोदक - क्रिया || गान्धवाद-विवादेषु पिट - गोत्रेण धर्मवित्" - इति ।
एतेन मातुल- सुता-विवाह विषय विवादोऽपि परास्तः । तथा हि, तन्निषेध-वचनानि गान्धर्वादि - विवाहोढ़ा - जा-विषयाणि, तत्र मापिण्ड्य-निवृत्तेरभात् । तदनुग्राहक - श्रुति स्मृति - सदाचारात् । न ब्रायादि - विवाहोढ़ा जा - विषयाणि तत्र सापिएडा-निवृत्तेः । तानि च निषेध-वचनानि । तत्र शातातपः, -
" मातुलस्य सुतामूट्टा मातृ-गोत्रां तथैवच । समान- प्रवराञ्चैव द्विजश्चान्द्रायणञ्चरेत् " - इति ।
-
पैठीनमिरपि, – “पिट - मातृ-स्वट - दुहित रोमातुल - सुताश्च धर्मतस्ताभगिन्यस्तावर्जयेदिति विज्ञायते” । सुमन्तुरपि, – “पिट - पत्न्यः सर्व्वमा
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पराशरमाधवः।
रघया का।
तरस्तातरोमातुलास्तद्भगिन्योमानखसार स्तदुहितरश्च भगिन्यस्तदपत्यानि भागिनेयानि, अन्यथा सकरकारिण्यः" इति। व्यामः,
"मातुः मपिण्डा यत्नेन वर्जनीया द्विजातिभिः" इति। नवविशेषेण प्रवृत्तानामेषां वचनानां कथं विशेष विषयता? विशेष-वचन-वलादिति ब्रूमः । तथा च मनुः,
"पेहव्वस्त्रेयी भगिनी स्वस्त्रीयां मातुरेवच । मातुश्च भातुराप्तस्य गत्वा चान्द्रायणञ्चरेत् ॥ एतास्तिस्रस्तु भार्थे नोपयच्छेत बुद्धिमान्”-दति । भगिनीपदं पैटट्वस्त्रेय्यादि-विशेषणम् । प्राप्तस्येति मातुर्धानविशेषणम्। तत्र, सुतामित्यध्याहारः। श्राप्तस्य मनिकृष्टस्य म पिण्डस्य गान्धर्वादि-विवाहोढ़ायाः मातुधातुरित्यर्थः । पैतृष्वज्ञेयीमित्यत्राप्यनिवृत्त-मापिण्ड्या गन्धवादिनोढ़ा पिट-खमा विवचिता । तथा च मति, तदुहितुर्भगिनीति विशेषणं मार्थकम् । ब्राझ्यादि विवाहेषु मापिण्य-निसर्भगिनीपदं नान्वीयात् । अयमेव न्यायोमानध्वस्त्रीयायामपि योजनीयः। तस्माद्भगिन्याप्तपदोपेत-मनुवचनवलादविशेषे निषेधाविशेष-विषयएवोपहियते । ननु, ब्राह्मादिविवाहविषये मातुल-सुतायादव माट-खस-सुतायापि विवाहः प्राप्नुयात् । तन्न, शिष्ट-गाईत्वेन तत्र निषेध-स्मृति-कल्पनात्। शिष्टगईितस्यानुपादेयत्वं याज्ञवाक्य वाह,-. * स्तभूगिन्योमाटखसार,इति, नास्ति मु० पुस्तके। + अयमेव न्यायामातुविषये, मातुलमुतापरिणय उदीयशिरगर्हितः, तथापि दाक्षिणात्यशिरीराचरितविषये मातुल तायामिव माटखटमुताया अपि विवाहः प्राप्नुयात्, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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२६०, शा०का ० ]
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"
पराशरमाधवः ।
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"स्वयं लोकविद्विष्टं धर्ममप्याचारेन तु" - इति । यद्यपि मातुलसुता - परिणयनमुदीच्य-शिष्ट-शर्हितम्, तथापि दक्षिणात्य शिष्टैराचरितत्वेन नाविगीतेोऽयमुदीच्या नामाचारः । न च दक्षिणात्यानां राग- मूलत्वं शङ्कनीयं विधि-निषेध- परीचिकेरेव तद्विवाह करणात् । मातृ-वसुः मुता - विवाहस्तु श्रविगीतेन शिष्टाचारेण गर्हितः । मातुल - सुताविवाहस्यानुग्राहका* श्रुतिः । तत्र मन्द्रवर्णः । “श्रायाहीन्द्र पथिभिरीलितेभिर्यज्ञमिमं नोभागधेयं जुषस्व । तृप्तां जहुर्मातुलस्येव योषा भागस्ते पैतृष्वसेयी वपाम्” – इति ।
श्रयमर्थः । हे इन्द्र, पथिभिरीलितेभिः स्तुतैः सह नोऽस्माकमिमं यज्ञमायाहि । श्रागत्य च श्रस्माभिर्दीयमानं भागधेयं जुषख, तृप्तामाज्यादिना संस्कृतां वपान्त्वामुद्दिश्य अङ: त्यक्तवन्तः । तत्र दृष्टान्तइयम्। यथा, मातुलस्य योषा दुहिता भागिनेयस्य भाग: भजनीया, भागिनेयेन परिणेतुं योग्या, यथा च पैतृष्वसेयी पोचय भागः । तथाऽयं ते तव भागोवपाऽऽख्य:, - इति । वाजसनेयकेऽपि । " तस्माद्दा समानादेव पुरुषादत्ता चाद्यश्च जायते, उत तृतीये सङ्गच्छावहे चतुर्थे मङ्गच्छाव है" - इति । समानादेकम्मात् पुरुषादन्ता भोक्ता श्रद्य भोग्यः दावप्युत्पद्येते । तौ च मिथः मङ्कल्पयतः, कूटस्यमारभ्य तृतीये चतुर्थे वा पुरुषे मङ्गच्छाव है विवावहै इत्यर्थः । यद्ययमर्थवादः, तथापि मानान्तरविरोधाभावात् स्वार्थे प्रमा
एम। विरोधि-वचनानां मातृ-मपिण्डाविषयत्वम्य वर्णितत्वात् । * विवाहस्यानुग्राहिका, - इति पाठोभवितुं युक्तः ।
+ दौहित्रस्य – इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ मासपिण्डाविषयत्वस्य च - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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[२०, आका• ।
तस्मादविरुद्धार्थवादेानूदितत्वादुपरिधारण्वद्विधिः कल्पयितुं शक्यते ।
तथा हि, प्रेतानि । श्रूयते । " श्रधस्तात् समिधं धारयन्ननुवेदुपरि हि देवेभ्येोधारयति” – इति । तत्र, पेटकस्य हविषोऽधस्तात् समन्त्रकं समिद्धारणं विधाय, तद्वाक्य- शेषे समिधो विरुपरिधारणं देवे कर्मणि यत् श्रुतं, तत् किमर्थवादः, उत विधीयते ? इति संशयः । तत्राधोधारण - विधि-स्तावकत्वेन तदेकवाक्यता - लाभादर्थवादति पूर्वपक्ष: । प्रसिद्धं हार्थमनूद्य तेन स्तुतिर्युक्ता, उपरि धारणन्तु न क्वापि प्रसिद्धम्, श्रतस्तावकत्वायोगाद्वाक्यभेदमभ्युपगम्यायपूर्वर्थत्वाद्विधिः कल्पितः ।
एवं तृतीये पुरुषे सङ्गच्छाव है, - इत्यादावपि पूर्वीर्थचेन, मातुलसुतां विवहेत् इति विधिः कल्प्यते । तस्माच्छास्त्रानुग्टहीताऽयं विवाहः । स्मृतयस्तु ब्राह्यादिषु सादिण्य - निराकरणेन मातुल-सुताविवाह प्रापकतया दर्शिताः । शिष्टाचारश्च दाक्षिणात्यानामविगीत उदाहृतः ।
wwww
पराशरमाधवः ।
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केचित्तु श्रासुरादिष्वपि देश - विशेषेण मातुल-सुता-विवाहाधर्म्यः, -इति मन्यन्ते । उदाहरन्ति च वचनानि । तत्र वौधायनः, - " पञ्चधा विप्रतिपत्तिर्दक्षिणतः ; अनुपनीतेन भार्यया च सहभोजनं पर्युषित-भोजनं मातुलरहित- पितृष्वसृदुहित-परिणयनमिति, तथेोत्तरतः ; ऊर्ण-विक्रयः सीधुपानमुभयतोदद्भिर्व्यवहारः श्रायुधीयकं समुद्रयानमिति, इतरइतरस्मिन् कुर्वन् दुष्यति, इतरइतरस्मिन् तद्देश-प्रमाण्यात्” इति । इतरोदाक्षिणात्यदूतरस्मिन्
● समिधाहरणं, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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२५०,श्रा०का०]
पराशरमाधवः।
४७३
उत्तरदेशे मातुल-संवन्धं कुर्वन् व्यति, न स्व-देशे। तथेतरउदीयहतरम्मिन् दक्षिणदेशे सीधु-पानादिकं कुर्वन् दुय्यति, न स्व-देशे । कुतः ? देश प्रामाण्यात् देश-निवन्धनवादाचारस्येत्यर्थः । तथा च देवलः,
“यस्मिन् देशे य श्राचारोन्याय-दृश्स्तु कल्पितः । म तस्मिन्नेव कर्तव्योन तु देशान्तरे स्मृतः ॥ यस्मिन् देशे पुरे ग्रामे त्रैविद्ये नगरेऽपिवा ।
योयत्र विहिताधर्मस्तं धर्म न विचालयेत्” इति । ननु, शिष्टाचार-प्रामाण्ये स्व-हिट-विवाहेाऽपि प्रसज्येत, प्रजापतेराचरणात् । तथा च श्रुतिः । “प्रजापतिः स्वां दुहितरमभ्यगात्।" -इति। मैवम् । “न देव चरितञ्चरत-इति न्यायात् । श्रतएव बौधायनः,
"अनुष्ठितन्तु यद्देवैर्मुनिभिर्यदनुष्ठितम् ।
नानुष्ठेयं मनुष्यैस्तदुक्तं कर्म समाचरेत्'--इति । तदेवं बाह्यादि-विवाह-व्यवस्थया देशंभेद-विषय-व्यवस्था च मातुल सुता-विवाहः 'न मपिण्डाम्'--इत्यादिशास्त्वादेव मिद्धः (१) । * निवन्धनत्वादा चार प्रामाण्यस्येत्यर्थः, इति स० शायुस्तक योः पाठः । + देशाचारः स्मृताभ्योः , इति मु. पस्त के पाठः । दुहितरमभ्यध्यायातू,--इति मु० पुस्तके पाठः ।
(१) अत्र तावदेवं महता प्रवन्धेन दाक्षिणात्यानां मातुलकन्या-परिणया
चारस्य शास्त्रीयत्वं प्रामाण्यश्च समर्थितम् । जैमिनीयन्यायमालायान्त खयमेव तादृशाचारस्य स्मृतिविरुद्धत्वमप्रामाण्यञ्च व्यवस्थापितम ।
तथा च न्यायमालायां प्रथमाध्यायस्य टतीयपादे पञ्चमाधिकरण । - 60
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[२०, चा०का●|
यवीयसीं वयसा काय - परिमाणेन च न्यूनाम् । तत्र, वयोन्यून
तायादयन्तामाह मनुः, -
बृहस्पतिरपि -
पराशर माधवः ।
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"दहेत् कन्यां द्यां द्वादशवार्षिकीम् ।
यष्टवर्षेऽष्टवर्षा वा धर्मे सीदति सत्वरः " - इति ।
"चिंशदशाब्दां तु भार्य्य विन्देत नग्निकाम् । एकविंशतिवर्षेवा सप्तवर्षमवाप्नुयात् ” – इति ।
-
विष्णुपुराणेऽपि
"वर्षे रेकगुणां भार्य्यमुदहेत् चिगुणः स्वयम् " - दति । श्ररोगिणीं श्रचिकित्य - राजयक्ष्मादि-रोग-रहिताम् । भ्रातृमती ज्येष्ठः कनिष्ठोवाभ्राता यस्याः सा भ्रातृमती । श्रनेन पुत्रिका - शङ्का व्युदस्यते । श्रतएव मनु:,—
"यथास्तु न भवेद्गाता न विज्ञायेत वा पिता ।
मोपयच्छेत तां प्राज्ञः पुत्रिका - धर्म - शङ्कया " - इति । यस्याः पिता पुत्रिका - करणाभिप्रायवान् न वा, - इति न
“यामातुलविवाहादौ शिष्टाचारः स मा न वा । इतराचारवन्मात्व'ममात्वं स्मार्त्तवाधनात् । स्मृतिमूलेोहि सर्व्वत्र शिष्ठाचारस्ततोऽत्र च । खनुमेया स्मृतिः स्मृत्या वाध्या प्रत्यक्षया तु सा " - इति । उक्तञ्च। “याचारात्तु स्मृतिं ज्ञात्वा स्मृतेस्तु श्रुति कल्पनम् । तेन हान्तरितं तेषां प्रामाण्यं विप्रकृष्यते " - इति । तदत्र खोक्तविरोधादुष्परिहरः । न्यायमालायां संग्रह प्रवृत्तोग्रन्थकारः मातुलकन्या परिणयाचा रस्याप्रामाण्यं मीमांसकाचार्य्यस्य वार्त्तिककारस्यानुमतमेव संजग्राह, यत्र तु दृशाचारस्य स्मृतिसिद्धतया प्रामाण्यमेव स्वस्यानु मतं व्यवस्थापयामास, -- इति कथचित् समाधानमा स्थेयं धीमद्भिः ।
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२०, प०, का० ।]
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पराशर माधवः ।
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विज्ञायते, तां नोपयच्छेत् । यत्र तु नैषा शङ्का, तामभ्रात्कामप्युपयच्छेदित्यभिप्राय: । 'न विज्ञायेत वा पिता' इत्यु: वरेण सह संप्रतिपत्तिं विनाऽपि पितुः सङ्कल्पमात्रेण कन्या पुत्रिका भवतीति द्रष्टव्यम् । तथाच गौतमः । " अभिसन्धिमात्रात् पुचिकेत्येकेषां तत् संशयात् नेोपयच्छेदभ्रातृकाम्” – इति । मनुरपि -
" श्रपुत्रोऽनेन विधिना सुतां कुर्वीत पुत्रिकाम् ।
यदपत्यं भवेदस्यां तन्मम स्यात् स्वधाकरम् ” - दूति । वरेण मह संप्रतिपत्ति- करणे* तु पुत्रिका - करणं स्पष्टमेव विज्ञायते । सा च सम्प्रतिपत्तिर्वसिष्ठेन दर्शिता, -
"कां प्रदास्यामि तुभ्यं कन्यामलङ्कृताम् ।
8
योजायते पुत्रः स मे पुत्रोभवेदिति" - इति ।
'स नौ पुत्रोभवेदिति' - इति क्वचित्पाठ: । श्रस्याच पुचिकायागान्धवादाविव स्वपिचादिभिः सह न सापिण्ड्य-सगोत्रत्व - निवृत्तिः । श्रतएव लौगानि:, -
" मातामहस्य गोत्रेण मातुः पिण्डोदकक्रियाम् । कुर्वीत पुत्रिकापुत्र एवमाह प्रजापतिः " -- इति । तदेवमभिहितां पुत्रिकां शङ्कमानः पुत्रार्थी भ्रातृमतीमेवादहेत् । 'असमानार्षगोत्रजाम्' ऋषेरिदमा प्रवरं गोत्र-प्रवर्त्तकस्य सुनेयवर्त्तक - मुनिगणइत्यर्थः । तद्यथा, गोत्र प्रवर्त्तकस्य भरद्वाजस्य व्यावर्त्तका गिरावृहस्पती । श्रतएवाङ्गिरम-वाईस्पत्य-भरद्वाज गोत्री
* संप्रतिपत्तौ – इति म० प्रा० से ० पुस्तकेषु पाठः ।
,
+ मास्त्ययमंशः मुद्रितातिरिक्त पुस्तकेषु ।
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पराशरमाधवः ।
[२. खाका ।
ऽहमिति प्रयुञ्जते । एवमन्यदप्युदाहार्यम्। गोत्रन्तु वंशपरम्परा प्रसिद्धम् । यस्यावद्धावरेण सह प्रवरैक्यं गोत्रेयं वा नास्ति, मा वधूर्विवाइमर्हति, कचिह्नोत्र भेदेऽपि प्रवक्यमस्ति । तद्यथा, याज्ञवल्क्य-बाधूल-मौनकानां भित्र गोत्राणां भार्गव-वीतहव्य-मावेतमेति प्रवरस्यैक्यात्। अतस्तत्र विवाह-प्रमको तयवच्छेदाय, असमानार्षजाम्, -इत्युक्तम् । क्वचित् प्रवर-भेदेऽपि गोक्यम् । तद्यथा, आङ्गिरमांवरीषयौवनाश्व-मान्धाचंवरीषयौवनाश्वेत्यत्राङ्गिरस-मान्धान-प्रवर-भेदेऽपि यौवनाश्वगोचमेकम् । अतस्तत्र विवाहोमादित्यममानगोत्रग्रहणम् । गोच-प्रवर्तकाश्च प्राधान्येनाष्टौ मुनयः, ते चागस्त्याटमाः सप्तर्षयः । तथा च बौधायन:
"यमदनिर्भरद्वाजाविश्वामित्रोऽत्रि-गौतमौ । वशिष्ठकश्यपागस्त्यामुनयोगोत्रकारिणः ।
एतेषां यान्यपत्यानि तानि गोत्राणि मन्यते” इति । एतेषाच गोत्राणामवान्तरभेदाः सहस्र-सङ्ख्याकास्तेषां गणास्त्वे कान-पञ्चाशत् । तथा च बौधायन:,
"गोत्राणाञ्च सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च ।
जनपञ्चाशदेतेषां प्रवराषिदर्शनात्" इति । प्रवर-गोत्रयोः समानत्वासमानत्वे बौधायन-कात्यायन-विश्वामित्र-गर्गादि-प्रणीतेषु प्रवरग्रन्थेषु प्रसिद्धः । न चात्र मिलित * माभूदित्यसमानार्षगोत्रजामित्युक्तम्, इति मु. पुस्तके पाठः। + विश्वामित्रोयमदमिभरद्वाजोऽथ गौतमः, इति स.सा. पुस्तकयोः पाठः।
रहीत, इति मु• पुस्तके पाठः।
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९ख०,या का०1]
पराशरमाधवः ।
योगौत्र-प्रवरोः पर्युदास-निमित्तत्वं शङ्कनी, प्रत्येकं दोषाभिधानात् । तदाह बौधायनः,-"मगोत्रां चेदमत्योपयच्छेन्मानवदेनां विभयात्" इति । शातातपोऽपि,
"परिणीय मगोत्रान्तु समान-प्रवरां तथा ।
कृत्वा तस्याः समुत्मगै तप्तकच्छ* विशोधनम्" इति । आपस्तम्बः,
"समान-गोत्र-प्रवरां कन्यामूदोपगम्य च ।
तस्यामुत्पाद्य मन्तानं । ब्रह्माण्यादेव हीयते" इति । इत्थं कन्या लक्षणं परीक्ष्य कुलमपि परीक्षणीयम् । अतएव मनुः,
"महान्यपि समृद्धवानि गोऽजाविधनधान्यतः । स्त्रीसंबन्धे दशेमानि कुलानि परिवर्जयेत् ॥ हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दोरोमगार्शसम् ।
क्षय्यामयाव्यपस्मारिश्वित्रिकुष्ठिकुलानि च"-दति । हीन क्रियं यागादि-किया-रहितम्। निष्पुरुष स्त्रीमावशेषम् । निश्छन्दोऽध्ययन-वर्जितम्। यमोऽपि,
"चतुर्दश कुलानीमान्यविवाह्यानि निर्दिशेत् । अनायं ब्राह्मणानाम्हविजाञ्चैव वर्जयेत्॥ अत्युच्चमतिहस्वञ्च प्रतिवर्णञ्च वर्जयेत् । हीनाङ्गमतिरिकाङ्गमामयावि-कुलानि च ॥
* यतिकृच्छ्र,--इति मु० पुस्तके पाठः। + चण्डालं,-इति स० से शा० पुस्तकेषु पाठः । दशैतानि,-इति शा० स० पुस्तकयोः पाठः ।
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पराभरमाधवः।
धाका
श्वित्रिकुटिकुलादीनां कुर्यादिपरिवर्जनम् । मदा कामिकुलं वयं रोमशानाञ्च यत्कुलम् ॥
अपस्मारि-कुलं यच यच्च पाण्ड-कुलं भवेत्" इति । अनार्षयं अविज्ञात-प्रवरम् । एतच हीन क्रियादि-वर्जनं तथाविधापत्य-परिहारार्थम् । "कुलानुरूपाः प्रजाः सम्भवन्नि"-इति हारीतवचनात् । पुराणेऽपि,
"मातुलान् भजते पुत्रः कन्यका भजते पिढन् ।
यथाशीला भवेन्माता तथाशीलोभवेत् सुतः" इति । मनुरपि,
"पितुर्वा भजते शीलं मातुर्वाभयमेववा।
न कथञ्चन दुर्थोनिः प्रकृति खां विमुञ्चति"-इति । इति हेय-कुलमुकम् । उपादेयन्तु याज्ञवल्क्याह,- "दशपुरुषविख्यातात् श्रोत्रिया महाकुलात" इति।
माटतः पिटतः पञ्च पञ्च पुरुषाविख्यातायस्मिन् कुले. तद्दशपुरुषविख्यातं, तस्मात् महाकुलात् पुत्र-शस्यादि-समृद्वात्कन्यामुदहेदित्यर्थः । मनुरपि,
"उत्तमरुत्तमैनित्यं मंबन्धानाचरेत् मह ।
मिनीषुः कुलमुत्कर्षमधमानधमांत्यजेत्" इति । अवोत्तमान् मएवाह,
"विशुद्धाः कर्मभिश्चैव श्रुति-स्मति-निदर्शितैः ।
• तथाशोला भवेत् सता,-इति म० पुस्तके पाठः ।
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२.,या का।
पराशरमाधवः ।
898
अविनुत-ब्रह्मचयामहाकुल-समन्विताः ॥ महाकुल्लैश्च मंबन्धामहत्त्वेन व्यवस्थिताः । सन्तुष्टाः सजनहिताः माधवः समदर्शिनः ॥ लोभरागद्वेषामर्षमानमोहादि-वर्जिताः ।
अक्रोधनाः सप्रमादराः कार्याः संबन्धिनः सदा" इति। अधमानाह मएव,
"ये सनाः पिशुनाः क्लीवाः ये च नास्तिक-वृत्तयः । विकर्मणा च जीवन्तो विकृताकृतयस्तथा ॥ प्रवद्ध-वैराः शूरैर्य राजकिल्लिषिणस्तथा । ब्रह्मस्वादननित्याच कदाच विगईिताः ॥ अप्रजायेषु वंशेषु स्त्रीप्रजाप्रसवस्तथा ।
पतिमाश्च सुवासिन्यः तांश्च यत्नेन वर्जयेत्" इति । कन्या-दाने वर-नियमोगौतमेन दर्भितः,-"विद्याऽऽचार-वधु-लक्षणभील-सम्पबाय दद्यात्"-इति । यमोऽपि,
"कुलश्च शीलञ्च वपुर्वयश्वविद्याश्च वित्तच्च मानाथतां च । एतान् गुणाम् सप्त परीक्ष्य देया
कन्या बुधः शेषमचिन्तनीयम्" इति । थावरक्या,
"एतैरेव गुणैर्युतः सवर्णः श्रोत्रियोवरः ।
* वपर्यशच, इति मु• पुस्तके पाठः।
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पराशरमाधवः।
[२अ च्या का।
यत्नात् परीक्षितः पुंस्त्वे युवा धीमान् जनप्रियः" इति । एतैः कन्यकायामुक्तलक्षणैः । पुंस्त्वपरीक्षोपायस्तु नारदेन दर्शितः,
"थस्याप्सु प्लवते वीर्य हादि मूत्रञ्च फेनिलम् । पुमान् स्यालक्षणैरेतैर्विपरीतस्तु षण्डकः ॥ चतुर्दशविधः शास्त्रे षण्डादृष्टोमनीषिभिः। चिकित्स्यश्चाचिकित्स्यश्च तेषामुको विधिः क्रमात् ॥ निसर्गपण्डोवधश्च पवषण्डस्तथैवच । अभिशापागुरोः रोगाढेरकोधात् तथैवच ॥
•षण्डश्च सेव्यश्च वातरेता मुखेभगः । प्राक्षिप्तोमोघवीजश्च शालीनोऽन्यापतिस्तथा"-दति । निषर्गषण्डः स्वभावतोलिङ्ग-वृषण-हीनः । वधः छिन्न-मुकः । पञ्चदश दिनानि त्रियमासेव्यमानः सन् मनोग-क्षमः पक्षषण्डः । गुरु भाप-षण्डादयस्त्रयः स्पष्टाः । ईय॑या पुंस्वमुत्सद्यते यस्य, म ाषण्डः। स्त्युपचार-विशेषेण पुंस्त्व-शक्तिर्यस्य स सेव्यषण्डः । वातोपहत-रेतको वातरेताः। यस्य मुखएव पुंस्त्व-शकिन योनौ, म मुखे भगः। रेतोनिरोधात् षण्डीभूताक्षिप्तषण्डः । गर्भाधानासमर्थवाजः मोघवीजः । अप्रगल्भतया क्षोभादा नष्ट-पुंस्वः शालीनः । यस्य भाा-व्यतिरेकेणान्यासु पुरुषभावः, सोऽन्यापतिः-इति । एतच परीक्ष्य ज्ञेयम्। अत्र कारणमाह मएव,• “अपत्यार्थ स्त्रियः सृष्टाः स्त्री क्षेत्र वीजिनोनराः ।
क्षेत्र वीजवते देवं नावीजी क्षेत्रमईति" इति । * पुंस्वमुत्पद्यते यस्य, इति मु° पुस्तके पाठः ।
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२ अ० आ०का० ]
पराशर माधवः
षण्डवदन्यानपि वर्जनीयान्नरानाह कात्यायनः, - "दूरस्थानामविद्यानां मोक्षमार्गानुसारिणाम् ।
शूराणां निर्द्धनानाञ्च न देया कन्यका बुधैः” इति ।
बौधायनोऽपि -
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कीदृशाय तर्हि देया, इत्यत आह मनुः,“उत्कृष्टायाभिरूपाय वराय सदृशाय च । अप्राप्तामपि तां तस्मै कन्यां दद्याद्विचक्षणः” - इति ॥
-
यत्त. यमेनोक्तम्, -
अप्राप्तामपीति अप्राप्त विवाह समय बालिकामपीत्यर्थः ।
“जन्मतो गर्भाधानाद्वा पञ्चमाब्दात् परं शुभम् । कुमारीणां तथा दानं मेखला वन्धनन्तथा* ॥” - इति ।
-
“दद्याद्गुणवते कन्यां नग्निकां ब्रह्मचारिणे ।
अपि वा गुणहीनाय नोपरुन्ध्याद् रजखलाम् ॥” - इति ।
“काममामरणातिष्ठेद्गृहे कन्यर्त्तुमत्यपि । नत्वेवैनां प्रयच्छेत गुणहोनाय कर्हिचित् ॥” - इति ।
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तद्गुणवति सम्भवति गुणहोनाय कन्यां न दद्यादित्येवंपरम् न तु सर्वथा गुणहीन निषेध परम् । न चेत्. 'अपि वा गुणहीनाय' - इति बौधायनोक्तानुकल्पोनिर्विषयः स्यात् । 'ऋतुमत्यपि तिष्टेत्' इति वचन, उक्तरीत्या न स्वार्थे तात्पर्य्यवत् । यतः, 'नोपरुन्ध्याद्ररजखलाम्' - इत्येनेन विरुद्धयते । अतएव वसिष्ठोऽपि -
“प्रयच्छेन्नग्निकां कन्यां ऋतुकालभयात् पिता ।
ऋतुमत्या हि तिष्ठन्त्या दोषः पितरभृच्छति” - इति ।
* श्लोकोऽयं नास्ति मु० पुस्तके |
४८१
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४२
पराशरमाधवः संवत्तॊऽपि,
“कामकाले तु संप्राप्ते सोमोभुङ्क्त तु कन्याकाम् । रजःकाले तु गन्धर्वा वह्निस्तु कुचदर्शने।
तस्मादुद्वाहयेत् कन्यां यावन्नर्तुमती भवेत्” - इति कन्याशब्देन लज्जाऽऽद्यभिज्ञान रहितवयोयुक्ता विवक्षिता। तथा च पुराणम् ,
“यावन्न लज्जिताऽङ्गानि कन्या पुरुष-सन्निधौ ।
योन्यादीनि न गूहेत तावद्भवति कन्यका" । संग्रहकारोऽपि,
“यावद्वालं न गृह्णाति यावत् क्रीडति पांशुभिः ।
यावदोषं न जानाति तावद्भवति कन्यका" । वयोविशेषेण दातुः फलविशेषमाह मरीचिः,
गौरी ददन्नाकपृष्टं वैकुण्ठं रोहिणीं ददत् ।
कन्यां ददद्ब्रह्मलोकं रौरवन्तु रजखलाम्” - इति । गौर्यादिशब्दार्थो यमेन दर्शितः,
"अष्टबर्षा भवेद् गौरी नववर्षा तु रोहिणी। दशमे कन्यका प्रोक्ता अत अध्वं रजखला" ॥
संवत्तोऽपि,
“अष्टवर्षा भवेद्गौरी नवमै लग्निका भवेत् !
दशमै कन्यका प्रोक्ता द्वादशे वृषली स्मृता' - इति । *"संवत्तोऽपि दत्यादिः, 'इति' इत्यन्तः ग्रन्थाक्कचिन्न दृश्यते । संग्रहकारोपि इत्यादि कन्यका इत्यन्तं नास्ति मुतितिरिकपुस्तकेषु ।
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पराशरमाधवः
४८३
मुख्यानुकल्पभेदेन दातृ-विशेषानाह नारदः,
“पिता दद्यात् स्वयं कन्या भ्राता वाऽनुमतः* पितुः। मातामहो मातुलश्च सकुल्यो वान्धवस्तथा ॥ माता त्वमावे सर्वेषां प्रकृतौ यदि वर्तते। तस्यामप्रकृतिस्थायां कन्यां दद्य : स्वजातयः ।।
यदा तु नैव कश्चित् स्यात् कन्या राजानमाव्रजेत्" इति । याज्ञवल्क्योऽपि,
पिता पितामहो भ्राता सकुल्यो जननी तथा। कन्याप्रदः पूर्वनाशे प्रकृतिस्थः परः परः। अप्रयच्छन् समाप्नोति भ्रणहत्यामृतावृतौ ॥
गम्यं त्वभावे दातृणां कन्या कुर्यात् स्वयंवरम्”- इति । गम्यं गमनाह सावण्यादिगुणयुक्त मित्यर्थः। तथाच नारदः,
“सवर्णमनुरुपञ्च कुलशील-बल श्रुतैः ।
सह धर्म चरेत् तेन पुत्रांचोत्पादयेत्ततः"- इति । सवर्णं वरं प्राप्य,- इत्यध्याहृत्य योजनीयम् । तच्चासति रजो. दर्शने द्रष्टव्यम् । दृष्टे तु रजसि सत्खपि पित्रादिषु कञ्चित्कालं पितुः शासन परीक्ष्य तदुपेक्षणेन स्वयमेव वरं वर येत्। तदाह बौधायनः, -
"त्रीणि वर्षाण्यतुमती काङ्क्षेत पितृशासनम् । ततश्चतुर्थे वर्षे तु विन्देत सदृशं पतिम् । अविद्यमाने सदृशे गुणहोनमपि श्रयेत्"- इति ।
* वाऽनुमताः, - इति स० सो० शा० पुस्तकेषु पाठः । । सजातयः, - इति पाठान्तरम् ।
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858
मनुरपि, -
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पराशर माधवः
त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्य्य तुमती सती। ऊद्धर्वं तु कालादेतस्माद् विन्देत सदृशं पतिम् । अदीयमाना भर्तारमधिगच्छेद्यदि स्वयम् । नैनः किञ्चिदवाप्नोति न च यं साऽधिगच्छति" - इति ।
सायं भर्तारमधिगच्छति, सोऽपि नैनोऽधिगच्छतीत्यर्थः । यत्तु विष्णुनोक्तम् -
ऋतुत्रयमुपास्यैव कन्या कुर्यात् स्वयंवरम्” इति ।
•
तद्गुणवद्वरलाभे सति द्रष्टव्यम् । ननु ऋतुमत्या कन्याशब्दः कथं प्रयुक्तः यतो यमेन 'दशवर्षा भवेत् कन्या' - इत्युक्तम् । न च दशमे वर्षे ऋतुः सम्भवति । नायं दोषः । गौय्र्यादिशब्दवत् कन्याशब्दस्यापि यमेन परिभाषितत्वात् । सा च परिभाषा, फलकथनादावुप युक्ता । तच पूर्वमेवोदाहृतं कन्यां ददद्र ब्रह्मलोकम् - इति । लोक-प्रसिद्धस्तु कन्याशब्दो विवाह रहित स्त्रीमात्रमाचष्टे । एवञ्च सति शास्त्रेषु वहवः कन्याशब्दा अनुगृहीता भवन्ति । तथाचानुशसनिकेऽष्टावक्रोपाख्याने वृद्ध स्त्रियां प्रयुक्तः -
,
•
“कौमारं ब्रह्मचय्य मै* कन्यैवास्मिन् न संशयः - इति ।
शल्यपर्वण्यपि वृद्धस्त्रियां नारदेन प्रयुक्तः, -
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“असंस्कृतायाः कन्यायाः कुतो लोकास्तवानघ " - इति ।
* ब्रह्मचर्य वा
www.w
ऊमा महेश्वरसंवादेऽपि -
“ऋतुस्नाता तु या शुद्धा सा कन्येत्यभिधीयते " - इति ।
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इवि मु० पुस्तके |
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पराशरमाधवः
४८५
ननु, "असंस्कृतायाः"-इति वचने विवाह-रहिताया उत्तमलोकामावउक्तः, सोऽनुपपन्नः, विवाह-रहितानामपि ब्रह्मवाहिनीनामुपनयनाध्यायनादिभिः उत्तम लोक-सम्भवात्। अतएव हारीतेनोक्तम्,"द्विविधाः स्त्रियो ब्रह्मवादिन्यः सद्योवध्वश्च, तत्र वह्मवादिनीनामुपनयनमग्नीन्धनं वेदाध्ययन* स्वगृहे भिक्षाचा " - इति । वधूनां तूपस्थिते विवाहे कथञ्चिदुपनयनमात्रं कृत्वा विवाहः कार्यः, इति । मैवम् । तस्य कल्पान्तर-विषयत्वात् । तथाच यमः -
पुरा कल्पे कुमारीणां मौओबन्धनमिष्यते। अध्यापनं च वेदानां सावित्री वचनं तथा ॥ पिता पितृव्यो भ्राता वा नैनामध्यापयेत परः। स्वगृहे चैव कन्याया भक्ष चय्या विधीयते। वर्जयेदजिनं चीरं जटा-धारणमेव च” - इति ।
"अष्टवर्षा भवेद्गगौरो' - इत्यादिना विवाह-काल उक्तः। अथ विवाहभेदा उच्यन्ते। तत्र मनुः,
"चतुर्णामपि वर्णानां प्रेत्य चेह हिताहितान् । अष्टाविमान् समासेन स्त्री-विवाहान्निवोधत । ब्राह्मोदैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यः तथाऽऽसुरः। गान्धर्वोराक्षसश्चैव पैशाचश्वाष्टमोमतः" - इति ।
एषां क्रमेण लक्षणमाह स एव,
आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतशोलवते स्वयम् । आहूय दानं कन्याया ब्राह्मोधर्मः प्रकीर्तितः ॥
* वेदाध्ययन् ,- इति नास्ति स० पुस्तके ।
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४५६
पराशरमाधवः यज्ञ तु वितते सम्यगृत्विजे कर्मकुर्वते । अला.त्य सुतादानं दैवो धर्मः प्रचक्षते ॥ एकं गोमिथुनं देवो वरादादाय धर्मतः। कन्याप्रदानं विधिवदार्योधर्मः स उच्यते ॥ सहोमौ चरतां धर्ममिति वाचाऽनुभाष्य तु । कन्याप्रदानमभ्यय॑ प्राजापत्यो निधिःस्मृतः ॥ ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्वा कन्यायै च स्वशक्तितः । कन्या-प्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते ॥ इच्छयान्योन्य-संयोगः कन्यायाश्च वरस्य च । गान्धर्वः स च विज्ञ यो मैथुन्यः काम-सम्भवः ॥ हृत्वा छित्वा च मित्वा च क्रोशन्ती रुदती वलात् ।। प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते । सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहोयत्रीयमच्छति ।
स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचः कथितोऽष्टमः' - इति । नारदीऽपि,
"ब्राह्मस्तु प्रथमस्तेषां प्राजापत्यस्तथा । परः। आर्षश्चैवाथ देवश्च सान्धर्वश्चासुरस्तथा ।। राक्षसोऽनन्तरस्तस्मात् पैशाचश्चाष्टमी मतः" - इति ।
* कन्यायाश्च, - इति स० शा० पुस्तकयोः । पाठा । iगृहात् ,- इति मु० पुस्तके पाठा । # वता, - इति स० शा० पुस्तकयोः पाठा । । पैशाचाचाष्टमोधमः, - इति शा० पुस्तके पाठः ।
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परराशरमाधवः
४५७
वर्णानुपू]णविवाह-नियममाह मनुः,
“षडानुपूाविप्रस्य क्षत्रस्य चतुरोऽवरान् । विट्यूद्रयोस्तु तानेव विद्याद्धान्नराक्षसान्"- इति ।
आदितः षड्विवाहा विप्रस्य धाः, आसुरादयश्चत्वारः पैशाचान्ताः क्षत्रियाणां धाः , राक्षसवर्ज न एव वैश्य-शूद्रयोरपि। एतेषां ब्राह्मादीनां मध्ये प्रशस्तानाह सएव,
"चतुरोव्राह्मणस्याद्यान् प्रशस्तान कवयो विदुः। राक्षसं क्षत्रियस्यैकमासुरं वैश्य-शूद्रयोः" - इति ॥
स्मृत्यन्तरेपि,
“चत्वारो ब्राह्मणस्याद्याः शस्ता गान्धर्व-राक्षसौ। राज्ञस्तथाऽऽसुरोवेश्ये यूद्रेचान्त्यस्तु गर्हितः"- इति ।
गहितो न कस्यापि प्रशस्त इत्यर्थः। अन्यविवाहालामे ब्राह्माणादीनां पैशाचमप्यनुजानाति संवतः,
“सर्वोपायैरसाध्या स्यात् सुकन्या पुरुषस्य या। चौयेणापि विवाहेन सा विवह्या रहः स्थिता"- इति ।
ब्राहादीनां फलमाह मनुः, -
“दशपूर्वान् परान् वंश्यानात्मानं चैकविंशकम् । वाही-पुत्रः सुकृतकृन्मोचयत्येनरः पितॄन् । दैवोदा-जः सुतश्चैव सप्तसप्त परावरान् । आर्षोढ़ा-जः सुतः स्त्रोंस्त्रीन् षट् षट् कायोढ़-जः सुतः ॥
* क्षत्रियादीनां, - इति मुः पुस्तके पाठः ।
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४८८
पराशरमाधवः व्राह्मादिषु विवाहेषुचतुर्वेवानुपूर्वशः। वह्मवर्चखिनः पुत्रा जायन्ते शिष्ट-संमताः॥ रूप सत्व-गुणोपेता धनवन्तो यशखिनः । पर्याप्त मोगा धर्मिष्ठाजीवन्ति च शतं समाः इतरेषु च शिष्टेषु नृशंसानृतवादिनः । जायन्ते दुर्विवाहे तु ब्रह्म-धर्म-द्विषः सुताः"- इति ।
प्रशस्तेष्वपि चतुर्पु विवाहेषु पूर्वः पूर्वः प्रशस्ततरः। तत्र बौधायनः,“तेषाञचत्वारः पूर्वे ब्राह्मणस्य, तेष्वपि पूर्वः पूर्वः श्रेयान् , इतरेषामुत्तरोत्तरः पापीयान्" - इति। नन्वासुरवदार्षोऽपि पापीयान् , क्रयप्राप्तत्वाविशेषात्। अतएव काश्यपः,___"क्रयक्रोता तु या नारी न सा पत्न्यभिधीयते। न स देवेन सापिण्ड्य दासी तां काथ्यपोऽब्रवीत्" - इति
मनुरपि आर्षस्य क्रयक्रोतत्वादधर्मत्वमभिप्रेत्याह, -
"पञ्चानान्तु वयोधाः द्वावधयौँ स्मृताविह । पैशाचश्चासुरश्चैव न कर्त्तव्यौ कथञ्चन?"- इति ।
ब्राह्मादीनामासुरान्तानां मध्ये व्रह्म-दैव-प्रजापत्याः त्रयोधाः क्रयाभावात्। आर्षासुरौ द्वावधम्यौ, क्रय-क्रीतत्वात्। तयोरप्यासुरः पैशाचवदापद्यपि न कर्त्तव्यः । तन्न। पञ्चाना मिति वचनस्य
* इतरे ष्ववशिष्टेषु, - इति स० शा० पुस्तकयोः पाठः । । दुर्विवाहेषु, - इति स० शा० पुस्तकयोः पाठः । । न सा दैवे च पित्र्ये च,- इति मु• पुस्तके पाठः । में कदाचन, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
४८९
मतान्तरोपन्यास परत्वात्। कुत एतत्। यतः स्वयमेवोत्तरत्र गोमियुनस्य श्रुक्लत्वं मतान्तरत्वेनान्द्य निषेधति, -
"आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुमृषैिव तत्।
अल्पोवाऽपि महान् वापि विक्रयस्तावदेव सः”- इति। गोमिथुन शुल्कम्,- इति यत् केचिदाहुस्तन्मृषैव, न हि तस्य शुल् कत्वं सम्भवति, तल्लक्षणाभावात्। अनियत परिमाणत्वं हि शुल्क-लक्षणं, क्रये तद्दर्शनात्। क्रयसाधनं हि मूल्यं देश-कालाद्यपेक्षया अल्पं वा महद्वा भवति। प्रकृते तु परिमाणं नियतं, यतः आर्ष स्तावतैव गोमिथुनेनैव सम्पद्यते न त्वन्यथा। अतः क्रय क्रीत. स्वाभावाद्धय॑ एवार्षः। अतएव देवलः,
"पूर्वे विवाहाश्चत्वारो धास्तोय-प्रदानिकाः।
अशुल्का ब्राह्मणाश्चि तारयन्ति कुलद्वयम्”- इति । न च, गन्धर्वादि-विवाहेषु सप्तपदाभिक्रमणाद्याभावात् पतित्वमार्यात्वाभावः, --- इति शनीयम् । स्वीकारात् प्राक्तदभावेऽपि पश्चात्तत्सद्भावात् । तदाह देवलः,
“गान्धर्वादि विवाहेषु पुनर्वैवाहिको विधिः ।
कर्तव्यश्च त्रिभिर्वर्णैः समर्थेनाग्निसक्षिकम्" - इति । गृह्यपरिशिष्टेऽपि.
"गान्धर्वांसुरपैशाचा विवाहा राक्षसश्च यः*। पूर्व परिक्रमश्चैषा । पश्चाद्धोभो विधीयते' - इति ।
* राक्षसाश्च ये,- इति स० मा० पुस्तकयोः पाठः । । पश्रिमस्तेषां,- इति मु० पुस्तके पाठः ।
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४९०
पराशरमाधवः होमाकरणे तु ना भार्यात्वम् । अतएव वशिष्ठबौधायनौ,
"वलादपहृता कन्या मन्त्रर्य दिन संस्कृता।।
अन्यस्मै विधिवद्देया यथा कन्या तथैव सा" - इति । तस्माद् गन्धर्वादिष्वपि सप्तपद्यमिक्रमणसम्भवादस्ति भार्यात्वम् । ब्राह्मयादिषु विवाहेषु यद्गदानमुक्तं तत्सकृदेव । तथा च याज्ञवल्क्यः ,
"सकृत् प्रदीयते कन्या हरंस्तां चौरदण्डमा"- इति । मुनुरपि,
"सकृदंशो निपतति सकृत् कन्या प्रदीयते।
सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् '- इति । एतच्चादुष्टवराभिप्रायम् । यदाह नारदः,
"दत्वा कान्ताय यः कन्यां वराय न ददाति ताम् ।
अदुष्टश्चेद् वरो राज्ञा स दण्ड्यस्तत्र चौरवत्”- इति । किमयमुत्सर्गः ? नैत्याह याज्ञवल्क्यः ,
“दत्तामपि हरेत् पूर्वाच्छयांश्चेदर आव्रजेत्"- इति । एतद्वाग्दानाभिप्रायम् । यस्मै वाचा दता, ततोऽन्यश्चेत् प्रशस्ततरो लभ्यते, ततस्तस्मै देया, न तु दुष्टाय पूर्वस्मै। तथा च गौतमः,- "प्रतिश्रुत्याप्यधर्मसंयुक्ताय न दद्यात्"- इति। वरदोषास्तु कात्यायनेनोक्ताः,
“उन्मत्ताः पतितः कुष्ठी तथा षण्डः सगोत्रजः। चक्षुः श्रोत्र-विहीनश्च तथाऽपस्मार दूषितः ॥ वर-दोषास्तथैवेते कन्या-दोषाः प्रकीर्तिताः" - इति ।
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पराशरमाधवः
४९१
यस्तु अढ़ायाः पुनरुद्भगवाहो यम-शातातपाभ्यां दर्शितः, -
“वरश्चेत्कुल-शोलाभ्यां न युज्येत कथञ्चन । न मन्त्राः कारणं तत्र नच कन्याऽनृतं भवेतू* ॥ समाच्छिद्य तु तां कन्यां वलादक्षतयोनिकाम् । पुनर्गुणवते दद्यादिति शातातपोऽब्रवीत्" - इति । "हीनस्य कुल शीलाम्यां हरन कन्यां न दोषभाक् । न मन्त्राः कारणं तत्र न च कन्याऽनृतं भवेत्”– इति ।
कात्यायनोऽपि.
“स तु यद्यन्यजातीयः पतितः क्लोवएव वा। विकर्मस्थः सगोत्रो वा दासो दीर्घामयऽपि वा । ऊढ़ापि देया सान्यस्मै स-प्रावरण-भूषणा" - इति ।
मनुरपि,
"नव्टे मृते प्रव्रजिते क्लोवे च पतिते तथा ।। पञ्चस्वापत्सु नारोणां पतिरन्यो विधीयते" - इति ।
सोऽयं पुनरुद्धाहो युगान्तरविषय। तथा चादिपुराणम् -
"दत्तायाः पुनरुद्वाह ज्येष्ठांशं गोवधं तथा।
कलौ पञ्च न कुर्वीत भ्रातृजायां । कमण्डलुम्"- इति । यस्तु कन्यादोषमनभिज्ञाय प्रयच्छति, स राज्ञा दण्ड यतव्य :, नारदः
"अनास्याय ददद्दोषं दण्ड्य उत्तमसाहसम्'- इति ।
* नास्तीदमद्ध मु० पुस्तके। । इपि वा,-... मु० पुस्तके पाठः ।
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४९२
पराशरमाधवः कन्यादोषास्तु नारदेन दर्शिताः,
“दीर्घ-कुत्सित-रोगात व्यङ्गा संस्पृष्ट मैथुना।
दृष्टान्यगताभावा च कन्या दोषाः प्रकीर्तिताः"- इति । न केवलं दोषमनारन्याय ददतो दण्डः, अपि तु सापि परित्याज्येत्याह मनुः,
“विधिवत् परिगृह्यापि त्यजेत् कन्यां विहिताम् । व्याधितां विप्रदुष्टां वा छाना चोपपादिताम्"- इति ।
नारदोऽपि,
"नादुष्टां दूंषयेत् कन्यां नादुष्टं दूषयेद्वरम् ।
दोषे सति न दोषः स्यादन्योन्यं त्यजतोद्धयोः"- इति । एतत् सतपद्यमिक्रमणादग्वेिदितव्यम्। तत्रैव भार्यात्वस्योत्पत्त।
अतएव मनुः,
"पाणिग्रहण मन्त्रैस्तु नियतं दार लक्षणम् । तेषां निष्ठा तु विक्षेया विद्वद्भिः सप्तमे पदे" - इति ।
यमोऽपि,
"नोदकेन न वा वाचा कन्यायाः पतिरिष्यते।
पाणिग्रहण-संस्कारात् पतित्वं सप्तमे पदे"- इति । पाणिग्रहण-संस्कारात् पूर्वं परिणेतुर्मरणेऽपि न कन्यात्व होयते। तथा च वशिष्ठः,
"अद्भभिर्वाचा च दत्तायां म्रियते वा वरो यदि । न च मन्त्रोपनीता स्यात् कुमारी पितुरेव सा” - इति ।
* अयचोद्धाहोयुगान्तरविषयः,- इत्यधिकः पाठ ... पुस्तके दृश्यते।
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पराशरमाधवः
४९३
वरणानन्तरं देशन्तरगमने विशेषमाह कात्यायनः,
“वरयित्वा तु यः कश्चित् प्रणश्येत् पुरुषो यदा।
तदा समांस्त्रीनतीत्य कन्यान्यं वरयेद्वरम्”- इति । नारदोऽपि,
"प्रतिगृह्य तु यः कन्यां वरोदेशान्तरं व्रजेत्।
संवत्सरमतिक्रम्य कन्यान्यं वरयेदरम्”- इति । शुल्कं दत्वा यदि वरो म्रियते, तदा किंकर्तव्यमित्यत आह नारदः,
"कन्यायां दत्तशुल्कायां म्रियते यदि शुल्कदः ।
देवराय प्रदातव्या यदि कन्यानुमन्यते”- इति । देशान्तरगमने तु विशेषः कात्यायनेनोक्तः,
“प्रदाय शुल्कं गच्छेद् यः कन्यायाः स्त्रीधन तथा ।
धार्या सा वर्षमेकन्तु देयान्यस्मै विधानतः" - इति । एवञ्च वाग्दानादारभ्य सप्तमपद्यभिक्रमणात् प्राग्दोष द्र्शने भरणादौ वा कन्यामन्यस्मै दद्यादित्युक्तं भवति। अतएव कात्यायनः,
"अनेकेभ्यो हि दचायामनूढ़ायान्तु तत्र वै । परागमश्च सर्वेषां लभेत तदिमान्तु ताम् ।
अथागच्छेत वोढ़ायां दत्तं पूर्ववरो हरेत्”- इति । अनूढ़ायां यस्मै पूर्व प्रतिश्रुता स एव कन्यां लभते। अन्येनोढ़ा यान्तु स्वदत्त शुल्कमात्र हरेत् , न कन्यामित्यर्थः। 'लक्षण्यां स्त्रियमुद्हेत्' - इति यदुक्तं, तत्रोद्वहनीया कन्या द्विविधा , सवर्णा चासवर्णा च, तयोराद्या प्रशस्ता। तदाह मनुः,
“सवर्णाग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि । कामतस्तु प्रवृत्तानामिमाः स्युः क्रमशोऽवराः” इति ।
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४९४
पराशरमाधवः
अग्रे स्नातकस्य प्रथमविवाहे. दारकर्माणि आग्नदोत्रादौ धर्मे:* सवर्णा, बरेण समानो वर्णोब्राह्मणादिर्यस्याः, सा; यथा ब्राह्मणस्य ब्राह्मणी क्षत्रियस्य क्षत्रिया वैश्यस्य वैश्या, प्रशस्ता। धर्मार्थमादौ सवर्णामूढा पश्चादिरंसवश्चेत्तदा तेषामवराः हीनवर्णाः इमाः क्षत्रियाद्याः क्रमेण भार्याः स्मृताः। तथा च याज्ञवल्क्यः,
“तिस्रो वर्णानुपूर्वेण द्वे तथैका यथाक्रमम् । ब्राह्मण-क्षत्रिय-विशां भार्या स्वा शूद्रजन्मन"-इति।
मनुरपि,
“शूद्भव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशस्मृते।
ते च स्वा चैव राज्ञः स्युस्ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः" - इति । नारोदोऽपि,
"ब्राह्मणस्यानुलोम्येन स्त्रियोऽन्यास्तिस्र एव तु । शूद्रायाः प्रातिलोम्येन तथान्ये पतयस्त्रयः । द भार्ये क्षत्रियस्यान्ये वैश्यस्यैका प्रकीर्तिता।
वैश्याया द्वौ पती ज्ञयावेकोऽन्यः क्षत्रिया-पतिः”- इति । वसिष्ठ-पारस्करावपि,-तिस्रो ब्राह्मणस्य वर्णानुपूर्येण द्वे राजन्यस्यैका बैश्यस्य सर्वेषां वाशूद्राण मेके मन्त्रवर्जम्” – इति। पैठीनसिः,- “अलाभे कन्यायाः स्नातकवत्र चरेदपि वा क्षत्रियायां पुत्रमुत्पादयीत शूद्रायां वैत्येके"-इति । विष्णुरपि,
"द्विजस्य भार्या शूद्रा तु धर्मार्थं न भवेत् कचित्। रत्यर्थमेव सा तस्य रागान्धस्य प्रकीर्तिता" - इति ।
* धर्म,- इति नास्ति मु० पुस्तके ।
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पराशरमाधवः
४९५ एवं तावदेतेषां मतेन द्विजानामापदि शूद्रा-संग्रहण रतिमात्र फलमपि दोषमांद्यादनुज्ञातम् । इदानीमपरेषां मतेन ब्राह्मण क्षत्रिययोः तावच्छूद्रा वर्जनमेव युक्ततरं नोद्वाहः - इत्युच्यते। तत्र मनुः
“न ब्राह्मण-क्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः । कस्मिंश्छिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्यापदिश्यते॥ होनजाति स्त्रियं मोहादुदहन्ती द्विजातयः। कुलान्येव नयन्त्याशु ससन्तानानि शूद्रवत् । शूद्रावेदी पतत्यत्र स्तथ्य-तनयस्य च । शौनकस्य सतोत्पत्त्या तदपत्यतया भृगोः ॥ शूद्रां शयनमारोप्य ब्राह्मणो यात्यधोगतिम् । जनयित्वा सुतं तस्यां ब्राह्मण्यादेव हीयते॥ वृषली फेन-पोतस्य निश्वासोपहतस्य च । तस्याञ्चैव प्रसृतस्य निष्कृतिन विधीयते।"-इति ।
आश्वमेधिकेपि,
“शूद्रा-योनौ पतद्वीजं हाहाशब्दं द्विजन्मनः । कृत्वा पुरीषगर्तेषु पतितोऽस्मीति दुःखितः । मामधःपातयन्नेष पापात्मा काममोहितः। अधोगतिं व्रजेत् क्षिप्रमिति शप्त्वा पतेत् तु तत्*- इति ।
ननु, 'ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः'- इति मनुना शूद्रा-विवाहो विप्रस्याभ्यनुज्ञातः। पुनश्च तेनैव 'न व्राह्यण-क्षत्रिययोः' - इति स निषिद्धः। अतो व्याहतः, - इति चेन्मैवम् । मतभेदेन युगभेदेन वा व्यवस्थोपरत्तैः। अतएव याज्ञवल्क्येन मतभेदः
* पतेत् ध्रुषम् ,- इति मु० पुस्तके पाठः ।
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४९६
पराशरमाधवः
स्पष्टीकृतः,
“यदुच्यते द्विजातीनां शूद्राद दारोपसंग्रहः । न तन्मम मतं यस्मात् तत्रायं जायते स्वयम् ॥”- इति ।
आनुशासनिकेपि,
“अपत्यजन्म शूद्रायां न प्रशंसन्ति साधवः । रत्यर्थमपि शूद्रा स्यान्नेत्याहुरपरे जनाः" - इति ।
युगभेदेन व्यबस्था च स्मृत्यन्तरे स्पष्टीकृता, - “असवर्णासु कन्यासु विवाहश्च द्विजातिभि:-- इत्यादिम नुक्रम्य -
“कलौ युगेत्विमान् धर्मान् वज्यानाहर्मनीषिणः” -- इत्युपसंहारातू* | विवाह-विधिस्तु मनुनामि हितः,
"पाणिग्रहण-संस्कारः सवर्णासूपदिश्यते। असवर्णास्वयं ज्ञयो विधिरुद्वाहकर्मणि । शरः क्षत्रियया ग्राह्यः प्रतोदो वैश्यकन्यया।
वासोदशा शूद्रया तु वर्गोत्कृष्टस्य वेदने”- इति । शङ्खलिखितावपि,– “इषु गृह्णाति राजन्या प्रतोदं वैश्या दशान्तरं शूद्रा, ब्राह्यणस्तु सवर्णायाः पाणिं गृह्णीयात्। पैठोनसिः,
“साङ्ग ष्ठं व्राह्यगः पाणिं गृह्णीयात् क्षत्रियः शरम् । वैश्यानाश्च प्रतोदन्तु शूद्रावस्त्रदशामिति ***-- इति ।
* सा च व्यवस्था दृष्टोपपत्तिमलिका असवर्णाशौचविधानात,
इत्याधिकः पाठः मु० पुस्तके। ** साङ्गष्ट ब्राह्मण्याः पाणिं गृह्णीयात् क्षत्रियायाः शरं प्रोतदं वैश्यायाः
शूदायाव स्वदशमिति, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
४९७
परिक्रमो ब्राह्मणस्योक्तोराजन्यवैश्ययोराचार्य्यपरिक्रमः - इति ।
कृती द्वाहस्योपगम-नियममाह मनुः, -
“ऋतुकालाभिगामी स्यात् स्व- दारनिरतः सदा ।
पर्व्ववजं ब्रजेच्चैनां तद्वतोरतिकाम्यया ”
-
इति ।
――
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रजोदर्शन प्रभृति षोड़शाहोरात्रात्मकः कालो गर्भग्रहण समर्थऋतुः । तस्मिन्नृतावपत्यार्थी सदा स्त्रियमुपगच्छेत् । तच्चाभिगमनं स्वदा रेष्वेव । ऋतावपि पर्वतिथिं वर्जयेत् । अनृतावपि तथास्त्रिया प्राथितो विनाऽप्यपत्योद्दं शन्तामभिगच्छेत् ।
।
यथानिद्दिष्टमृतुं याज्ञ
वल्कयो दर्शयति,
“षोड़शत्तनिशाः स्त्रीणां तस्मिन् युग्भासु संविशेत् । ब्रह्मचाय्यैव पर्वाण्याद्याश्चतस्रश्च वर्जयेत्”
इति ।
―
तस्मिन्नृतौ पर्वाण्याद्याश्चतस्रो रात्रीर्वर्जयित्वा युग्मासु समासु षष्ठी प्रभृतिषु गच्छेत् पुत्रार्थम् । अयुग्मासु स्त्री- जन्म - भयादगमनं, न तु प्रतिषेधात् । युग्मास्वपि रात्रिष्वेवोपगमनं, नाहनि, दिवा कामस्य निषिद्धत्वात् । तथाचाथर्वणी श्रुतिः । प्राणंवा एते प्रस्कन्दयन्ति ये दिवा रत्या संयुज्यन्ते ब्रह्मचर्य्यमेव तद यद्रात्रौ रत्या संयुज्यन्ते”इति शङ्खलिखितावपि, "नात्त वे दिवा मैथुनं ब्रजेत्" - इति । “ऋतुकालाभिगामी स्यात्” - इत्यत्र नियम-द्वयं वेदितव्यम् ऋतौ गच्छेदेव न तु वर्जयेत् — इत्येको नियमः, ऋतावेव गच्छेन्नानृतौइत्यपरः । अतएव देवलः,
;
“स्वयं दारानृतुस्नातान् स्वस्थश्चेन्नोपगच्छति । भ्रूणहत्यामवाप्नोति गर्भं प्राप्तं विनाशयेत्” - इति ।
f अयमय्यंज्ञः पैठिनसिवचनस्यैवाच इत्यनुमीयते ।
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पराशरमाधवः
४९८ बौधायनोऽपि, -
"त्रीणि वर्षाण्यतुमती यो भाया नोपगच्छति । स तुल्यं भ्र णहत्याया दोषमृच्छत्यसंशयम् । ऋतौ नोपैति यो भा-मनृतौ यश्च गच्छति ।
तुल्यमाहुस्तयोः पापमयोनौ यश्च सिञ्चति” - इति । पर्ववर्जमित्यनेन निषिद्ध-तिथि-नक्षत्रान्युपलक्ष्यन्ते। निषिद्धपर्व त्वमावास्या पौर्णमासी च तत्र स्त्रीगमनं श्रुत्या निषिद्धम् । -नामावास्यायाञ्च पौर्नमास्याच स्त्रियमुपेयाद् यद्य पेयानिरिन्द्रियः स्यात्” - इति। अन्याश्च निषिद्ध-तिथयोऽष्टम्यादयः । तत्र मनुः, -
अमावास्याऽष्टमी चैव पौर्णमासी चतुर्दशी।
ब्रह्मचारी भवेन्नित्यमप्यतौ स्नातको द्विजः" - इति । अमावास्यादयो यास्तिथयः, तासु स्त्रीसङ्गत्यागेनेत्यध्याहत्य योजनीयम् । ऋतुकालेऽपि दिनषट्कं वय॑मिति स एवाह, -
तासामाद्याश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या।
त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दश रात्रयः' - इति । निषिद्धनक्षत्र याज्ञवल्क्यो दर्शयति, -
एवं गच्छस्त्रियं क्षामा मघां मूलञ्च वर्जयेत्” – इति। क्षामा लघ्वाहारादिना कृशामित्यर्थः। अतएव वृहस्यतिरपि स्त्रीपुंसोराहार-विशेषं सनिमित्तमाह, -
"स्त्रियाः शुक्रऽधिक स्त्री स्यात् पुमान् पुंसोऽधिके भवेत् । तस्मात् शुक्रविवृद्धयर्थ स्निग्धं हृद्यञ्च भक्षयेत् । लघ्वाहारा स्त्रियं कुर्य्यादेवं सञ्जनयेत् सुतम्” – इति ।
स्निग्धमन्नञ्च भक्षयेत् , - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
४९९
मनुरपि, -
"पुमान् पुंसोऽधिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रियाः। समे पुमान् पुस्त्रियोर्वा क्षीणेऽल्पे च विपर्याय:"- इति ।
अपुमानिति छेदः। संक्रान्तिश्च पवपर्वान्तःपातित्वाद्वजनीया। तदुक्त विष्णुपुराणे, -
"चतुर्दश्यष्टमीचैव अमावास्या च पूर्णिमा । पर्वाण्येतानि राजेन्द्र, रविसंक्रान्तिरेव च ॥ तेल-स्त्री-मासं योगी च पर्वष्वेतेषु वै पुमान् । विण्मूत्रभोजनं नाम प्रयाति नरकं नृप" - इति।
देशाश्च वास्तत्रैव दर्शिताः,
"चैत्य-चत्वर-सौधेषु नचैव च चतुष्पथे। नैव श्मशानोपवनसलिलेषु महीपते । गच्छेद्वयवायं मतिमान्मूत्रोच्चार-प्रपोडितः' - इति ।
स्वदारनिरतः, इत्यनेन मनसाऽपि परदारगमन निषिद्धतया विवक्षितम् । एतदपि तत्र व दर्शितम् , -
“परदारान्न गच्छन्तु मनसाऽपि कथञ्चन । पर-दार-रतिः पुंसामुभयत्रापि भीतिदा ॥ इति मत्वा स्वदारेषु ऋतुमत्सु व्रजेद्वधः” - इति ।
क्षोणत्वे च, - इति मुः पुस्तके पाठः ।
स्त्रिी तेक मांस संयोगी, - इत्यन्यत्र पाठः ॥
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५००
पराशरमाधवः अन्यदपि वज्ज्यं तत्रैव दर्शितम्, -
“न स्नातां तु स्त्रियं गच्छन्नातुरां न रजखलाम् । नानिष्टां न प्रकुपितां नाप्रशस्तां न रोगिणीम् ॥ नादक्षिणां नान्यकामां नाकामं नान्ययोषितम् । क्षुत्क्षामां नातिमुक्तां वा स्वयं चैतैर्गुणैर्युतः ॥
स्नातः स्रग्गन्धधृक् प्रीतो व्यावायं पुरुषो ब्रजेत्” – इति । तदव्रतः, - इत्यनेन श्रौतं वरं स्मारयति। तथा च श्रुतिः । “स स्त्रीषंसादमुपासोददस्य ब्रह्महत्यायै तृतीयं प्रतिगृहीतेति, ताअबुवन् वरं वृणावहा* ऋत्वियात् प्रजां विन्दामहै काममाविजनितेः सम्भवामह तस्मादृत्वियाः स्त्रियः प्रजां विन्दन्ते काममाविजनितेः सम्भवन्ति वरे । वृतं ह्यासां तृतीयं ब्रह्महत्यायै प्रत्यगृहृत् सा मलवद्ग वासाभवत्" - इति। अयमर्थः। इन्द्रः किल विश्वरूपनाम्नः पुरोहितस्य वधात् वह्माहत्यामुपागतामञ्जलिना स्वीकृत्य संवत्सरं धृत्वा लोकापवादागोतस्तां त्रधा विमज्य प्रथमभागं पृथिव्यै द्वितीयमागं वनष्पतिभ्यो वरपूर्वकं दत्वा तृतीयभागमादाय स्त्रोसमूहमुपागमत् ताश्च वरमयाचन्त, ऋतुकाल. रामनात् प्रजां लभेमहि आप्रसवमनृतावपि यथेच्छ सम्भवामेति वर लब्ध्वा तृतीयमागं प्रत्यगृह्णन् । स च भागो रजोरूपेण परिणतः, ततः प्रभृति मासि मासि योषिन्मलवद्वासा सम्पन्नेति । याज्ञवल्क्योऽपि, -
यथाकामो भवेद्वाऽपि स्त्रीणां वरमनुस्मरन् । स्वद्वार निरतश्चैव स्त्रियो रक्ष्यायतः स्मृतः" - इति ।
* वृणीमहा, - इति मु० पुस्तके पाठः । पाचे, - इति मु, पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
५०१
वृहस्पतिरपि, -
"ऋतुकालाभिगमनं पुसा काय्यं प्रयत्नतः।
सदैव वा पर्ववज्ज स्त्रीणामभिमतं हि तत्” - इति । ऋतुकालानिगमनमित्यत्र केचिदेवमाचक्षते, अजात-पुत्रस्यैवैष नियमो न तु जात-पुत्रस्य, - इति । उपषादयन्ति च । तत्र कूर्मपुराणे, -
"ऋतुकालामिणामी स्याद यावत् पुत्रोऽमिजायते” – इति । ऋणापाकरणार्थ हि पुत्रोत्पादनम् । तथा च श्रुतिः। जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिऋणवान् जावते वह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्य एष वा अनृणो यः पुत्री यज्वा ब्रह्मचारिवासी" - इति। मन्त्रवर्णोऽपि, - .
"ऋणमस्मिन् सन्नयति धमृतत्वञ्च गच्छति । पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेजोवतो मुखम्” - इति ।
तदेतहणापाकरणमेकपुत्रोत्पोदनेन सम्पद्यते, तावतापि पुत्रित्व. सिद्धः। तथाच मनुः, -
ज्येष्ठेन जातमात्रेण पुत्री भवति मानवः । पितृगामनृणश्चैव स तस्मात् सर्वमर्हति ॥ यस्मिन्नृणं सन्नयति येन चानन्त्यमश्रुते । स एव धर्मजः पुत्रः कामजानितरान विदुः" - इति ॥
ननु, वहपुत्रत्वमपि कचित् श्रुयते, – “इमां त्वमिन्त्रमीदः सुपुत्रां सुभगां कृणु। दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशंकृधि” - इति । "क्रोडन्तौ पुत्र:” – इति। “रयिं च पुत्राश्चादात्” - इति च ।
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१०२
पराशरमाधवः सत्यम । नायं विधिः, किन्तु वह्वपत्य प्रशंसा। तस्मादजात. पुत्रस्यैवायं ऋतुगमन-नियमः, इति ।
तदपरे न क्षमन्ते। यद्यपि पुत्रित्वमानृण्यं चैकेनैव पुत्रेण सम्पद्यते. तथाप्यस्ति वहुपुत्रत्वविधिः। “एतमु एवाहमभ्यगाशिर्ष तस्मान्मम त्वमेकोऽसीति ह कौषीतकिः पुत्रमुवाच, रश्मोंस्त्वं पर्यावर्तयादहवोवे ते भविष्यन्ति” - इति छन्दोगैराम्नानात् । तस्य चायमर्थः। कौषीतकिर्नाम मुनिः स्वयमादित्यमण्डलमेवोपासीनउद्गानं कृत्वा तत् फलत्वेन पुत्रमेकं प्रयिलभ्य तमुवाच, अहमेतमेकमेवादित्यं ध्यायन् गानमकार्ष, तस्माद्दोषान्मम त्वमेक एव पुत्रोऽसि एकपत्रत्वं च न प्रशस्तम्, अतस्त्वं बहुपुत्रतायै रश्मीन् बद्धनुपास्तिवेलायामावत येति। महामारतेऽपि, -
“अपत्यन्तु मनैवैकं कुले महति भारत। अपुत्रञ्चैकपुत्रत्वमित्याहुर्घर्मवादिनः ॥ चक्ष रेकञ्च पुत्रश्च अस्ति नास्तीति भारत । चक्ष नाशे तनोनशिः पुत्रनाशे कुलक्षयः । अनित्यताञ्च मानां मत्वा शोचामि पुत्रक । सन्तानस्याविनाशन्तु कामये भद्रमस्तु ते” - इति ।
ननु, ज्येष्टेनैव पुत्रेणानृण्य-सिद निरर्थकं पुत्रान्तरोत्पादनम् । तन्न, सर्वेषां पुत्राणामानृण्य-हेतुत्वात् । न हि पुत्र-जननमात्रेण पितुरानृण्यं, किन्तर्हि, सम्यगनुशिष्टेन पुत्रण शास्त्रीयेषु कर्मखनुष्ठितेषु पश्चादानृण्यं सम्यद्यते। अतएव वाजसनेयिब्राह्मणे पुत्रानुशासनविधिः समाम्नातः। “तस्मात् पुत्रमनुशिष्टं लोक्यमाहु स्तस्मादेनमनुशासति यदनेन किश्चिदक्ष्णया कृतं भवति तस्मादेनमेनसः सर्वस्मात् पुत्रो मोचयति तस्मात् पुत्रो नाम पुत्र नैवास्मिलोके प्रतितिष्ठति” - इति ।
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पराशरमाधवः
५०३ अस्यायमः। अस्ति किञ्चित् संप्रतिपत्तिनामकं कर्म । यदा पितुर्मरणावसरो भवति, तदा पुत्रमाहूय वेदाध्ययने यज्ञ लौकिकव्यापारे च यद्यत्कर्तव्यजातं तस्य सर्वस्य पुत्र सम्प्रदान कर्तव्यम्। सेयं सम्प्रतिपत्तिः। तस्यां च सम्प्रतिपत्तौ यस्मादनुशिष्ट एव पुत्रोऽधिकारी, तस्मादनुशिष्ट पुत्र परलोकहितमाहुः शास्त्रज्ञाः । अतएव पुत्रानुशासनं कुर्युः पितरः। स चानुशिष्टः पुत्रो यत्किञ्चित् सपित्रा शास्त्रीय कर्म अक्ष्ण्या वक्रत्वेन शास्त्र वैपरीत्येन कृतं भवति, तस्मात् सर्वस्मात् पापादेनं स्वपितरं स्वयं शास्त्रीयं कर्म सम्यगनुतिष्ठन्मोच यति। तस्मात् पुन्नाम्नो नरकात् त्रायते, -इति व्युत्पत्या पुत्रो नाम । स च पिता स्वयं मृतः पुत्रशरीरेणैवास्मिन् लोके यथाशास्त्र कर्म कुर्वन्ननुतिष्ठति, - इति ।
एवं सति बद्धनां मध्ये यथावदनुशासनं प्रज्ञा-मांद्यादि-प्रतिबन्धवाहुल्यत् कस्यचिदेव सम्पद्यते । अनुशिष्टष्वपि वहषु यथावदनुष्ठानं कस्यचिदेव । अतो ज्येष्ठः कनिष्ठो वा यस्तदशः, स एवानृण्यहेतुः। अतएव पुराणेऽभिहितम् , -
“एष्टव्या वहवः पुत्राः यद्य केऽपि गयां व्रजेत् -- इति । "दशास्यां पुत्रानाधेहि” – इत्यादिमन्त्राश्चैवं सति वहुपुत्रत्त्वविधिमुपोद्वलयन्ति। यत्तु, कामजानितरानित्युदाहृतं, तदननुशिष्टविषयम् । तस्मात्. जात-पुत्रोऽप्यतावुपेयादेव। बहूनां पत्नीनामृतु-योगपद्ये क्रममाह देवलः, -
"योगपद्य तु तीर्थानां विप्रादिक्रमशाव्रजेत्।
रक्षणार्थमपुत्रां वा ग्रहणक्रमशोऽपि वा” – इति। तीर्थमृतुः। तद्योगपद्ये सत्यस्वर्णासु वर्णक्रमेण, सवर्णासु विवाह क्रमेण गच्छेत्। यदा तु काचिदपुत्रा, पुत्रवत्य इतराः, तदा अपुत्रां
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५०४
पराशरमाधवः
अग्रतो गच्छेत्। ऋतावपि जातिभेदेनोपगमन काल-सोचमाह
देवलः, -
"ब्राह्मण्यां ददशाहं स्याद दोक्तमृतुधारणम् । दशाष्टौ षट् च शेषाणां विधीयन्तेनुपूर्वशः” - इति ।
पञ्चम-दिवसमारभ्य द्वारशाहादिसंख्याऽवगन्तव्या । चतुर्थे तु दिवसे गमनं वैकल्पिकं, विहित प्रतिषिद्धत्वात्। तथाच हारीतोविदधाति, – “चतुर्थेऽहनि स्नातायां युग्मासु वा गर्भाधानम्” - इति। व्यासो निषेधति, -
“चतुर्थे सा न गम्याऽह्नि गताल्पायुः प्रसूयते" - इति । व्यवस्थित विकल्पश्चायमुदितानुदितहोमवत् । रजसो निबृतौ चतुर्या विधिः. तदनुवृत्तौ प्रतिषेधः । तथा च मनुः, -
"रजस्युपरते साध्वी स्नानेन स्त्री रजखला" - इति।
साध्वो गर्भाधानादि-विहित कर्मयोग्येत्यर्थः । दिन-विशेषेणोपगमने फल-विशेषोऽभिहितो लिङ्गपुराणे, -
"चतुर्थे सा न गम्याऽह्रि गताल्पायुः प्रसूयते। विद्या हीन व्रतभ्रष्टं पतितं पारदारिकम् ॥ दारिद्रयाणव-भग्नञ्च तनयं सा प्रसूयते। कन्यार्थिनैव गन्तव्या पञ्चभ्यां विधिवत् पुनः ॥ षष्ठयां गम्या महाभाग, सत्पुत्र*-जननी भवेत् । सप्तभ्यां चैव कन्या/ गच्छत् सैव प्रसूयते।
* सुपुत्र, - इति मु० पुस्तके पाठः |
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पराशर माधवः
अष्टभ्यां सर्व-सम्पन्नं तनयं सम्प्रसूयते ।
नवभ्यां दारिकार्थं स्याद्वदशम्यां पण्डितं तथा । एकादश्य तथा नारीं जनयत्येव पूर्ववत् ॥ द्वादश्यां धर्मतत्त्वज्ञ श्रौतस्मार्त्त - प्रवत्त कम् । त्रयोदश्यां तथा नारों वर्ण- सङ्कर- कारिणीम् । जनयत्यङ्गना, तस्मान्न गच्छत् सर्वयत्नतः ॥ चतुर्दश्यां यदा गच्छेत् सुपुत्र - जननी भवेत् । पञ्चदश्याञ्च धर्मज्ञां षोड़श्यां ज्ञानपारगम् ॥”
"पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा । पूज्याः भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमोप्सुभिः ॥ यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । यतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ॥
धर्मज्ञ - इषि मु० पुस्तके पाठः ।
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ऋतु कालानभिगमने यो दोषोऽभिहितः, तस्यापवादमाह व्यासः, "व्याधितो बन्धनस्थो वा प्रवासेष्वथ पर्वसु । ऋतुकालेऽपि नारीणां भ्रूणहत्या प्रमुध्यते ॥ वृद्धां वन्ध्यामवृत्तञ्च मृतापत्यामपुष्पिताम् । कन्याञ्च बहुपुत्रञ्च वर्जयन्मुच्यते भयात् ॥”
इति ।
भ्रूण हत्या भ्रण हननम् । उक्तरीत्या यस्यां बृद्धत्वादि-दोष रहितायामृतु कालोपगमनमवश्यंभावि यस्याञ्च वृद्धादौ नावश्यंभावि, सा सर्वापि सम्यक् पालनीया । तथा च मनुः,
५०५
इति ।
OR
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५०६
पराशरमाधवः
शोचन्ति जामयो यत्र (१) विनश्यत्याशु तत्कुलम् । न शोचन्ति तु यत्रता वर्धते तद्धि सर्वदा ॥ जामयोयानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः । तानि कृत्या-हतानीव विनश्यन्ति समन्ततः ॥ तस्मादेताः सदाभ्या भूषणाच्छादनादिभिः | भूतिकामैर्नर नित्यं सत्कारेषतसवेषु च । सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्ती भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्र वम् ॥” - इति । पूज्यत्वञ्चाबृत्ता-व्यतिरिक्तासु द्रष्टव्यम् । अबृत्तायास्तु प्राणधारणमात्र-मोजनम् । तथा च याज्ञवल्क्यः , -
"हताधिकारां मलिनां पिण्डमात्रोपजीविनीम् ।
परिभूतामधः शय्यां वासयेद्वयभिचारिणीम्” – इति । यथा विन्ना साध्वी भर्तव्या, तथैवाधिविन्नाऽपि (२)। तदाह स एव,
“अधिविन्नाऽपि मर्तव्या, महदेनोऽन्यथा भवेत्” - इति । अधिवेदनं मार्यान्तर परिग्रहः । अधिवेदन-निमित्तान्यपि स एवाह,
"सुरापी व्याधिता धूर्ता वन्ध्याऽन्यप्रियम्बदा। स्त्री- प्रसूश्चाधिवेत्तव्या पुरुष द्वषिणी तथा” – इति ।
(१) जामयोभ्रातृभार्या इति के चेत् । भगिन्य इति केचित् वस्तुतस्तु “जामि
तषसकुलस्त्रियोः' - इत्यमरोक्त प्रह्याम् । * भूषणाच्छादनाशनैः, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
सिस्कारेणोत्सवेन च, - इति स० पुस्तके पाठः । (२) एकस्यां स्त्रियां विद्यमानायाम परस्त्रो परिग्रहे कृते पूर्वा स्त्री
अधिषिन्नेत्युच्यते।
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सुरापी मद्यपीत्यर्थः ।
त्याग एव ।
धानात् (१) ।
पराशर माधवः
५०७
सुरापाने तु नाधिवेदेनमात्रम अपि तु
" तथा महति पातके” इति त्यागहेतुत्वेनाभि
-
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" पतत्यद्ध शरीरस्य यस्य भार्य्या सुरां पिवेन्” - इति वचनाच्च ।
अतएव मनुः,
“मद्यपाऽसाधु- वृत्ता च प्रतिकूला च या भवेत् ।
व्याधिता चाधिवेत्तव्या हिंस्रार्थघ्नी च सर्वदा"
व्याधिना दीर्घरोगिणी । ब्रह्मपुराणेऽपि -
1
इति ।
"धर्म्म-विघ्न- करीं माय्र्यामसतोञ्चातिरोगिणीम् । त्यजेद्धर्म्मस्य रक्षार्थं, तथैवात्रियवादिनीम् न त्यजेदधिविन्देत न तु भोगं परित्यजेत् " २) - इति ।
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―
(१) रामद्ययौं दस्तु " पानसं द्राक्ष माधूकं खाजूरें वालमै रूपम । avati risati मैरेयं नारिकेलजम । समानानि विजानीयात् मानेकादशैव तु । द्वादशन्तु सुरामय' सर्व्वेषामधमं स्मृतम्”– इत्युक्त दिशाऽवसेयः । खरा तु पैष्ठ्ये व मुख्या । "मुरा तु पैष्टीमुरूयोक्ता न तस्यास्त्वितरे समे" - इतिस्मरणात । torturera श्रयाणामेव द्विजातीनां महापातकम् । “सुरावै मलमन्नानां पाप्मा च मलमुच्चते । तस्मादुब्राह्मणराजन्यौवैश्यश्च न सुरां पिवेत्" - इति घचनात् । गौड़ीratoपि सुरात्वं गौणं, तत्पानमपि ब्राह्मणस्य महापातकमेव । "गोड़ी पैष्टी व माध्यो विज्ञेया त्रिविधा सुरा । यथैवैका तथा सर्व्वा न पावच्या द्विजोत्तमै: " इति स्मरणात् ।
(२) अप्रियवादिनी न त्यजेत् किन्तु अधिन्देव, न पुनरप्रियवादिन्याभोगं
त्यजेदित्यर्थः ।
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५०८
पराशरमाधवः अधिवेदन काल विशेषो मनुना दर्शितः, -
"वन्ध्याऽष्टमेऽधिवेद्याऽब्दे दशमे तु मृतरजा। एकादशे स्त्री-जननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी” - इति ।
हितायां विशेषमाह सएव, -
"या रोगिणी स्यात्त हिता सम्पन्ना चैव शीलतः । साऽनुज्ञाप्याधिवेत्तव्या नावमान्या तु कहिचित्" - इति ।
अधिवेदन द्विविधं, धर्मार्थ कामार्थच। तत्र, पुत्रोत्पत्त्यादिधर्मार्थे पूर्वोक्तानि मद्यपत्यादीनि निमित्तानि ; कामार्थे तु न ताभ्यवेक्षणीयानि, किन्तु पूर्वोढ़ा तोषणीया। तथाच स्मृत्यन्तरे, -
“एकामुत्क्रम्य कामार्थमन्यां लब्धं य इच्छति।
समर्थस्तोषयित्वाऽर्थे: पूर्वोदामपरां वहेत्” - इति । यद्यसौ स्वयं न तोषयेत् , तदा तत्तोषगाय राजा द्रव्यं दापयेत् । तदाह याज्ञवल्क्यः , -
"आज्ञा-सम्पादिनों दक्षां वीरसं प्रियवादिनीम् । त्यजन् दाप्यस्तृतीयांशमद्रव्योभरणं स्त्रियाः” - इति ।
सधनस्य तृतीयांश-दानं निर्धनस्याशनाच्छादनादिना पोषणमिति । या तूक्त-द्रव्यापरितोषणात् प्रकारान्तरेण वा निर्गच्छेत् तां प्रत्याह मनुः, -
“अधिविन्ना तु या नारी निर्गच्छेद् द्वेषिता गृहात् । सा सद्यः सन्निरोद्धव्या त्याज्या वा कुल-सन्निधी”- इति ।
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५०९
पराशरमाधवः त्यागोनाम तदीय-जनक-कुल-प्रेषणम्। “पूज्या भूषयितव्याश्च”इति यदुक्तं, तत्र बहुपत्नीकस्य पूजाक्रममाह मनुः, --
“यदि स्वाश्चावराश्चैव विन्देरन् योषितो द्विजाः । तासां वर्ण क्रमेण स्याज्जैष्ठ्यपूजा च वेश्मनि ॥ भत्तः शरीर-शुश्रूषां धर्मकार्यञ्च नैत्यकम् । स्वा स्वव कुर्यात् शर्वेषां नान्यजातिः कथञ्चन”– इति ।
बरोष पत्नीषु सहधर्मचारिणी निर्धारयति याज्ञवल्क्यः, -
“सत्यामन्यां सवर्णायां धर्मकायं न कारयेत् । सवर्णासु बिधौ धम्म ज्येष्ठया न विनेतरा” -- इति ।
सवर्णयैव सह धर्माचरेत् नासवर्णया। अलाभे तु सवर्णाया इतरयाऽपि सह धर्मचरेदित्यल्लभ्यते। न चैव सति, शूद्रयाऽपि सह धर्माचरणं प्रसज्येतेति वाच्यं, वसिष्ठ वचनेन तन्निषेधात् ; “कृष्णवणां या रमणायैव सा न धम्माय” - इति। सवर्णाऽनेकत्वे तु धर्मानुष्ठाने ज्येष्ठया विना मध्यमा कनिष्ठा च न योक्तव्ये, किन्तु ज्येष्ठया कनीयस्यो विनियोक्तव्याः। तथाच बौधायनः,“एकैकामेव सन्नाा देकैकां गार्हपत्यमीक्षयेत् एकेकामाज्यमवेक्षयेत्” - इत्यादि। कात्यायनः, -
"नैकयाऽपि विना कार्यमाधानं भार्यया द्विजैः। अकृतं तद्विजानीयात् सर्वानान्वारभन्ति यत्" - इति ।
यद्यस्मात् सर्वानारमन्ते तस्मादेकया कृतमप्यकृतमेव । केचिदत्र 'ज्येष्ठया न विनेतरराः' - इति वचनमन्यथा व्याचक्षते ; ज्येष्ठेव सहधर्मचारिणो नेतराः, - इति। उदाहरन्ति च तत्र
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५१०
पराशरमाधवः विष्णुवचनम् .
“अग्निहोत्रादि-यज्ञषु न द्वितीया सहाचरेत् ।
अन्यथा निष्फलं तस्य खिष्टः क्रतुशतैरपि' - इति । एतद्वचारव्यानं वौधयन-कात्यायन-वचन-विरोधान्नादरणीयम् । विष्णुवचनन्त्वसवर्ण-द्वितीया-विगयम् , सत्स्वग्निषु या परिणीता तद्विषयं वा। नष्टेष्वग्निषु पुनराधाने तस्या अपि कत्त त्वादग्निहात्रादिषु सहाधिकारः । तत्रैव विशेषमाह कात्यायनः, -
“अग्निहोत्रादिशुश्रूषां वहुभार्यः सवर्णया । कारयेत्तद्वहुत्वे च ज्येष्ठया गाहिता न चेत् । तथावीर-सुवामासामाज्ञासम्पादिनी च या। दक्षा प्रियम्वदा शुद्रा तामत्र विनियोजयेत् ॥ दिन क्रमेण वा कर्म यथा ज्येष्ठमशक्तितः।
विभज्य सह वा कुर्याद् यथाज्ञानमशक्तितः" - इति। यदि ज्येष्ठा न गर्हिता, तदा तया कारयेत् । गहिता चेत्, कनिष्उया वोरसुवा कारयेत्। वीरसुवोपिवयचेत्, तासामपि मध्ये आज्ञा. सम्पादनादि-गुण युक्तां विनियोजयेत् । प्रतिदिनमेका कतमशक्ता चेत्, तदादिन-क्रमेण यथाज्येष्ठ कारयेत्। एकस्मिन्नपि दिने यद्य का कृत्स्नं कर्तुमशक्ता, तदा सर्वास्तत् कर्म यथाज्ञानं विभज्य कुर्युः। यत्त, कात्यायनेनैवोक्तम् , -
“प्रथमा धर्मपत्नी स्याद् द्वितीया रतिवद्धिनी।
दृष्टमेव फलं तत्र नादृष्टमुपपद्यते" - इति । तद्विष्णु-वचनेन समानार्थम् ।
इत्थं सविशेषो विवाहोनिरूपितः। .
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पराशरमाधवः
५११ अथ सवर्णासवर्णा-विवाह-प्रसङ्गन वुयार ढानामनुलोमप्रतिलोमजातीनां व्यवहारोपयोगिसंज्ञा-प्रतिपत्यर्थ जाति-भेदो निरूप्यते । तत्र याज्ञवल्क्यः ,
“सवर्णेभ्यः सवर्णासु जायन्ते हि सजातयः।
अनिन्द्यषु विवाहेषु पुत्त्राः सन्तानवर्द्धनाः" - इति । सजातयो मातापितृ-समान जातीयाः। मनुरपि, -
“सर्ववर्णेषु तुल्यासु पत्नीष्वक्षत-योनिषु ।
आनुलोम्येन सम्भूता जात्या ज्ञयास्तएव ते” - इति ॥ ब्राह्मण-दम्पतीभ्यामुत्पन्नो जात्या ब्राह्मणो भवेत्। एव क्षत्रियादिष्वपि । देवलोऽपि, -
"ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जातः संस्कृतो ब्राह्मणो भवेत्।
एवं क्षत्रिय-विट्-शुद्रा ज्ञयाः स्वेभ्यः स्वयोनिजाः" - इति । असवर्णास्वनुलोमजानाह मनुः, -
"स्त्रोष्वनन्तर-जातासु द्विजैरुत्पादितान सुतान् ।
सदृशानेव तानाडर्मातृदोषविगहितान्” -- इति । ऊढ़ायां क्षत्रियायां ब्राह्मणादुपपन्नो ब्राह्मण-सदृशो न तु मुख्य व्राह्यणः होनजातीय मातृ-संवन्धात्। एवमन्यत्रापि । ते चानुलोम-जामुर्दावसिक्तादिजातिभेदेन षडिधाः। ते च याज्ञवल्क्येन दशिताः,
"विप्रान् भूभवसिक्तो हि क्षतियायां विशःस्त्रियाम् ।
अम्बष्ठः शूद्रयां निषादो जांतः पारशवोऽपिवा। • वैश्याशूद्रयोस्तुराजन्यान्माहिष्योग्रौसुतौस्मृतौ । वैश्यात्तुकरणः शूद्रयां विन्नास्वेषविधिःस्मृतः” – इति।
* व्वत्र, 'नारदोऽपि' - इत्यधिकः पाठः मु० पुस्तके ।
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५१२
पराभरमाधवः तत्र ब्राह्मणाज्जातास्त्रयः क्षस्त्रिातद्वौ, वैश्यादेकः। तदुक्त मनुना,
“विप्रस्य त्रिषु वर्णेषु नृपतेर्वर्णयोर्द्वयोः। वैश्यस्य वर्णएकस्मिन् षड़ेतेऽपशदाःस्मृताः' - इति ।
मुख्य-पितृ-जात्यभावात् अपशदाः। ननु, मूविसक्तत्वादीनि न जात्यन्तराणि, अनुलोमजानां मातृजातीयत्वात् । तदाह विष्णुः,– “समान वर्णासुपुत्राः समान-वर्णाभवन्ति, अनुलोमजास्त मातृसवर्णाः* प्रतिलोमजास्त्वार्य-विगहिताः" - इति । शङ्खोऽपि, -
"क्षत्रियायां ब्राह्मणेनोत्पन्नः क्षत्रिय एव भवति, क्षत्रिया
द्वैश्यायां वैश्यएव भवति, वैश्येन शूद्रयां शूद्रएव भवति” । नैषदोषः । अनयोर्वचनयोर्मातृजात्युदित धर्म प्राप्त्यर्थत्वात । अन्यथा, वीजोत्कर्षवेयर्थ्यांपत्तेः। यथा क्षेत्रापकर्ष उत्कृष्ट-जातिनिवारकः एवं वीजोत्कर्षो पनिकृष्ट-जाति कुतो न निवारयेत् । तस्मात् , जात्यन्तराण्येव मूर्द्धावसिक्तत्वादीनि । ननु, देवलेनानु. लोम-जातयोऽन्यथा वर्णिताः।
"ब्राह्मणात् क्षत्रियायान्तु सवर्णोनाम जायते। क्षत्रियाच्चैव वैश्यायां जातऽम्वष्ठ इति स्मृतः"- इति ।
नायं दो । एकस्यामेव जतौ मूर्द्धावसिक्त-सवर्ण-संज्ञयोविकल्पेन प्रवृत्तत्वात्। एवमम्बष्ठादिष्वपि । न चेकत्र संज्ञाविकल्प दृष्टान्ताभावः शङनोयः, एकत्र निषाद-पारशव सज्ञा-विकल्पस्य मनु-देवल
* व्यनुलोमास मातृषु मातृर्णाः, - इति स० पुस्तके पाठः ।
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११३
पराशरमाधवः याज्ञवल्क्येरुदाहृतत्वात्। प्रतिलोमजास्तु मनुना दर्शिताः.
"क्षत्रियाद्विप्र-कन्यायां सूतो भवति जातितः। वैश्यान्मागधवैदेही राजविप्राङ्गना-सुतौ। शूद्रादायोगवः क्षत्ता चण्डालश्चाधमो नृणाम् । वैश्य राजन्य-विप्रासु जायन्ते वर्णसङ्कराः ॥ आयोगवश्च क्षत्ता च चण्डालश्चाधमो नृणाम् । प्रातिलोम्येन जायन्ते शूद्रादपशदास्त्रयः । वैश्यान्मागधवैदेही क्षत्रियात् सूत एव च । प्रतीपमेते जायन्ते परेऽप्यशदास्त्रयः” - इति ।*
देवलोऽपि, -
“शूद्रादायोगवः क्षत्ता चण्डालः प्रतिलोमजाः । वैश्यायां क्षत्रियाञ्च ब्राह्मण्याञ्च यथाक्रमम् ॥ . तथैव मागधो वैश्याज्जातो वैदेहकस्तथा। ब्राह्मण्यां क्षत्रियाज्जातः सूतो जात्या न कर्मणा” – इति ।
याज्ञवल्क्योऽपि, -
"ब्राह्मण्यां क्षत्रियात् सूतोवेश्याद् वेदेहकस्तथा। शूद्राजातस्तु चण्डालः सर्व-धर्म-वहिष्कृतः ॥ क्षत्रिया मागधं वैश्यात् शूद्रात् क्षतारमेवच ।
शूद्रादायोगवं वैश्या जनयामास वैसुतम्” - इति । वर्णानामनुलोमजानां प्रतिलोमजानाञ्च परस्पर-साइय्यैणोत्पन्नाः श्वपाकपुल्कस। कुक्कुटादयो जातिविशेषास्त्वनेकविधाः ते च
* श्लोकोऽयं मुद्रित पुस्तके नास्ति । i पुक्कश इत्वन्यन्त्र पाठः।
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५१४
पराशरमाधवः तवृत्तयश्च पुराणसारे प्रपञ्चिताः। तेषु च जाति विशेषेषूत्तमाधम-भावं विविनक्ति देवलः, -
“तेषां सवर्णजाः श्रेष्ठास्तेभ्योऽन्वगनुलोमजाः ।
अन्तरालावहिर्वर्णाः पतिताः प्रतिलोमजाः" - इति । विजातोयान्मिथुनादुत्पन्ना अन्तरालाः। ते च द्विविधाः, अनु लोमजाः, प्रतिलोमजाश्च। तत्रानुलोमजाः सवर्णजेभ्यो हीना - अपि न वर्णवाह्याः, मातृसमानवर्णत्वात्। प्रतिलोमजास्तु वर्णवाह्मत्वात् पतिता अधमाः। याज्ञवल्क्योऽपि, -
"असत्सन्तस्तु विज्ञयाः प्रतिलोमानुलोमजा" - इति। क्वछिदधमजातेरय्युत्तमजाति-प्राप्तिर्भवति। तदाह स एव, -
“जात्युत्कर्षो युगे ज्ञयः सप्तमे पञ्चमेऽपिवा” – इति। कूटस्थ-स्त्रीपुंस-युगमारभ्य परिगणनायां पञ्चमे षष्ठे सप्तमे वाऽनुलोमेन युग्मे जातिस्त्कृष्यते। तद्यथा। पुमान् विप्रः, वधूः शूद्रा, तयोर्युग्मं कूटस्थ, तस्मादुत्पन्ना निषादी साऽपि विप्रेणोढ़ा तयोर्युग्मं द्वितीयं, एवं तदुत्पन्नायां वघ्वां विप्रेणोढ़ायां तृतीयादियुग्म-परम्परा भवति, तत्र सप्तमे युग्मे जातमपत्यं ब्राह्मण्योपेतं भवति। एवं वैश्या-विप्र-युगलं कूटस्थं युग्म, तस्मादुत्पन्नाऽम्वष्ठा, तस्याश्च विप्रस्य च युग्मं द्वितीयं, इवं तदुत्पन्नायां विप्रेणोढ़ायां षष्ठं यद् युग्मं, तस्मादुत्पन्नस्य व्राह्मण्यं भवति। तथा क्षत्रियाविप्रयोर्युग्मं कूटस्य, तदुत्पन्ना मूर्द्धावसिक्ता, तस्याश्च विप्रस्य च युग्मं द्वितीयं, तत्परम्मरायां पञ्चमाद्युग्मादुत्पन्नस्य ब्राह्मण्यं भवति । एतदुक्त भवति। पञ्चमे षष्ठे सप्तमे वेति
तिदुत्पन्नाश्थ, - इति स० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः ।
या०,
का।
यावन्तं कालमभिव्यक्त-जगदाकारोपेतं ब्रह्म पूर्वमासीत् , तावन्त मेव कालमनभिव्यकदशायामवस्थाय(१) पश्चादभिव्यको प्रयतते । ननु, महाप्रलये, कालोवा तदियत्ता वा कथं घटते ? (२) । उच्यते। के प्रत्येतचोद्यम्?(१) न तावत् ब्रह्म-वादिनं प्रति, 'तन्मते वियदाद्यनन्तभेद-जगत्-प्रतीति * कल्पयन्यामायायाः कश्चिन्महाप्रलयः एतावत्काल-परिमितामीत्,-इत्येवं विध-प्रतीति-मात्र-कल्पने कोभारः ?(४) । (५)परमाणु-वादेऽप्यस्लेव नित्यः कालः । (६)प्रधान-वादे
__ * भेदभिन्नं जगत् प्रतीतं-इति स० सो पुस्तकयाः पाठः ।
(१) अनभिव्यक्तदशा महाप्रलवः।। (२) कालस्य क्रियारूपत्वात् महाप्रलये च क्रियाया असम्भवादिति भावः।
तदियत्तापि क्षणादिलक्षणा क्रियासाध्यैव । प्रश्नायं 'क्रियैव काल:'इति मतानसारेणेति धोध्यम् । क्रियातिरिक्तः पदार्थान्तरं कालः, - इति मतमाश्रित्य प्रथमं तावत्
वेदान्तमते परिहारमाह न तावदिति। (8) तथा च एतन्मते हरिप्रलयौ दावेव माया-कल्पिताविति भावः । (५) न्याय-वैशेषिकमते परिहारमाह परमाणवादे इति । एतन्मते प्रलय
कालस्येयत्ताव्यवहारोवंसेनोपयादनीयः,-इत्या करे व्यक्तम् । (६) सांख्यमते परिहारमाह प्रधानवादे इति । प्रधानं प्रकृतिः। पञ्च
विंशति तत्त्वानि तु प्रकृतिमहदहवारपञ्चतन्मात्र एकादशेन्त्रिय-पञ्च महाभूत-पुरुघरूपाणि सांख्ये प्रसिद्धानि । एतन्मते, प्रलयेऽपि प्रधानस्य सदृशपरिणामप्रवाहसत्त्वात् नानुपपत्तिस्तदियत्ताया इति ध्येयम् । इदमत्रावधेयम् । सांख्यीये सिद्दान्ते न कालोनाम पदार्थाऽम्ति, किन्तु येस्पाधिभिरेकस्य कालस्य भतभविष्यदादिव्यवहारभेदं वैशेषि कादयोमन्यन्ते, तरवोपाधयाभूतादिव्यवहारं प्रयोजयन्तीति कृतमत्र कालेन, इति सांख्यतत्त्वकौमुद्यामभिहितम् । एतच कालमाधवोयग्रन्थे ग्रन्थकताप्युरीकृतम्।
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व्य ,आ० का
।
पर शिरमाधवः।
पन-विंशति-तचेभ्योवहिनूतम्य कालत त्वस्याभावात् प्रधानमेव काल-शब्देन व्यवहियताम् । अतः प्रलय-कालावसाने परमेश्वरः सृष्टिं कामयते । तथाच, श्रुतयः,-"कामस्तदग्रे समवर्त्तताधि" "मेऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय"-दूति, “तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेय इति” “म ईतां चक्रे"-इत्यादि। ननु, कामानाम मनोवृत्ति-विशेषः, “कामः सङ्कल्पोविचिकित्मा-श्रद्धा-ऽश्रद्धा-धृतिरधृतिः श्री@ीरित्येतत् सब मनएव,' इति श्रुतेः। मनश्च भौतिकम् , "अन्नमयं हि साम्य ! मनः" इति श्रुतेः । तथा मति, भूतोत्पत्तेः पर्वमविद्यमाने मनमि कुतः कामः ? । उच्यते । न तावत् सर्गसमये चोद्यमिदमुदेति, तन्मनोभौतिकवाभावात् , नित्यायाः दैश्वरेछाया: मनोऽनपेक्षत्वाच्च । सिमृक्षात्वन्तु सर्गोपहितत्वाकारेण नित्येच्छायामप्युपपद्यते । औपनिषदे मते तु जीवेच्छायाः भौतिक-मनः कार्यात्वेऽपि, ईश्वरेच्छायाः माया-परिणाम-रूपत्वात् न मनोऽपेक्षाऽस्ति । अन्तरेणापि देहेन्द्रियाण्यशेष-व्यवहार-शकिरचिन्त्या परमेश्वरस्य अतिध्वगम्यते,
"न तस्य काय करणञ्च विद्यते न तत्-ममश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते । पराऽस्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान-बल-क्रिया च" ॥ इति ।
• "तथा च"-इत्यारभ्य, "मनु"-इत्यन्नः पाठः स० सा• पुस्तकयो नास्ति ।
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पराशरमाधवः
५१५
व्यवस्थित-विकल्पः। कूटस्थयोर्दम्यत्योः समनन्तरकान्तरद्वयन्तर-जाति-योगे पण्चमादयोऽवगन्तव्याः, - इति। तथाच सति, शुद्रा-वैश्ययोर्वैश्याक्षत्रिययोश्च समनन्तरत्वात् पञ्चमे, शूद्रा-क्षत्रिययोः षष्ठे, जातिरुत्कृष्यते। क्वचिदुत्तम-जातेरप्यघमजाति-प्राप्तिर्भवति। तदाह सएव, -
"व्यत्यये कर्मणां साम्यं पूर्ववच्चाधरोत्तरम्” – इति।
विप्रादीनांचतुर्णा वर्णानां मुख्यवृत्तितया विहिताति याजन - पालन-पशुपाल्य-द्विजशुश्रूषाऽऽदीनि यानि कर्माणि, तेषामापदि व्यत्यये विपर्यासे सति, यदि निबृत्तायामप्यापदि तामधम-बृत्तिं न परित्यजेत् ; तथा पुत्रपौत्रादयोऽपि तां न परित्यजेयुः, तदानीं पूर्ववत् पञ्चम-षष्ठ-सप्तमेषु युग्मेषु जातमपत्यं तद्वृत्त्युचितजाति-साम्यं प्रतिपद्यते, - इति। तद्यथा। ब्राह्मणः शूद्र-बृत्या जीवन यदि पुत्रमुत्पादयति, सोऽपि तथैव, - इत्येवं परम्परायां सप्तमादुत्पन्नस्य शूद्रत्वं भवति। एवं क्षत्रियः शूद्र-बृत्र्या जोक्न् षष्ठे युग्मे शुद्र' जनयति। वैश्वस्तु पञ्चमे युग्मे, - इति द्रष्टव्यम्। पूर्ववदित्यादेरयमर्थः। अधरोत्तरमिति भावप्रधानो निद्देशः। यथा वर्ण-साडयें प्रातिलोम्यमधम, आनुलोम्यमुत्तमं, तथा वृत्ति-सांकर्येऽपि। तद्यथा। क्षत्रियस्यापद्यपि याजनादिब्राह्मण-वृत्त्युपजीवनमधमम् । “न तु कदाचिज्ज्यायसीम्" - इति वसिष्टेन निषिद्धत्वात् । पाशुपाल्यादि-वैश्य-वृत्त्युपजीवनमुत्तमम् । “अजोवन्तः स्वधर्मेणानन्तरां पापीयसों वृत्तिमातिष्ठेरन्” - इति वसिष्ठेनापदि विधानादिति। पूर्ववच्चाधरोत्तरमित्यस्यापराव्यारव्या। त्रिविधोहि सङ्कुरः वर्ण-सहरः सङ्कीर्ण-सरो वर्णसहीण-सङ्करश्चेति। तद्यथा। उत्तमाधम-वर्णयोर्दाम्पत्यं वर्णः-सबरः। तज्जन्ययोमाहिष्य-करिण्योर्दाम्पत्य-संकीर्ण-सहरः। वर्ण-सोर्णयोर्दाम्पत्यं
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५१६
पराशरमाधवः वर्ण-सकोण-सङ्करः। तत्र “विप्रान्मूविसिक्तः, - इत्यानुलोम्येन वर्ण सवरजा दर्शिताः। ब्राह्मण्यां क्षत्रियात् सूतः” - इति प्रातिलोम्येन वर्ण-सरजादर्शिताः । ___“माहिष्येण करण्यान्तु रथकारः प्रजायते”। इति सङ्कीर्ण-सरजा दर्शिताः। इदानोमधरोत्तरमित्यनेन वर्णसङ्कीर्ण. सहरजाः प्रदर्यन्ते। अपरे प्रतिलोमजाः। उत्तरे अनुलोमजाः । तद्यथा। मूर्द्धावसिक्तायां सहोर्णायामुत्तमायां क्षत्रिय वैश्य शूद्ररधर्मरुत्तत्पादिताः अधरे, निषांद्यां सकीर्णायां अधमायां व्राह्यण-क्षत्रिय. वैश्य रुत्तमैवर्णरुत्पादिताउत्तरे, अधरे चोत्तरे च अधरोत्तरम् । पूर्वववदिति पदेन 'असत् सन्तश्च विज्ञयाः' - इति वचनार्थोऽति दिश्यते। यथापूर्ववर्णैरुत्पादिता* वर्ण-सरजाः सहोर्णसारजाश्च प्रतिलोमजा असन्तः अनुलोमजाश्च सन्तः, तथा वर्ण-सकोण. सकरजा अपि अनुलोमजाः सन्त प्रतिलोमजास्त्वसन्तः, - इति द्रष्टव्यम् । उक्तत्रैविध्ये वर्णसङ्करं वर्ण-सोर्ण-सहरं वाऽऽश्रित्योत्पाद्यमानाः वर्णाभासाः षष्टिर्भवन्ति, संकीर्ण-
समाश्रित्योत्. षद्यमाना जात्याभासा अनन्ताः। तदुक्तं स्मृत्यन्तरे, -
"प्रातिलोम्यानुम्येन वणस्तज्जैश्च वर्णतः।
षष्टिर्वाऽन्ये प्रजायन्ते तत्प्रसूतेस्त्वनन्तता” – इति । प्रतिलोमानुलोमाभ्यां वर्णैरुत्पादिता द्वादश । षड़नुलोमवर्णजाः, सूत. वैदेह चण्डाल-मागध-क्षत्रायोगवाः प्रतिलोम-वर्णजाः, इत्थं द्वादशभिः वर्गः संवन्धादुत्पादिता अष्टचत्वारिंशत्। एवं षष्टिसंख्ययोपलक्षिताः अन्य वर्णाभासा जायन्ते। तद्यथा, मूर्द्धावसिक्ताम्वष्ठ-निषाद. माहिष्योग्रकरणाः यडनुलोमवर्णजाः। सूत-वैदेह चण्डाल-मागध
* यथाव्ण, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
५१० क्षत्तायोगवाः प्रतिलोमवर्णजाः। इत्थं द्वादश। तत्र मूर्द्धावसिक्तेनानुलोमेन क्षत्रिया-वैश्या-शूद्रासूत्पादितास्त्रयः, प्रातिलोन्मेन ब्राह्मण्यामेकः ; अम्बष्ठस्यानुलोम्मेन दौ, प्रातिलोम्येन द्वौः निषादस्यानुलोम्येनैकः प्रतिलोम्येन त्रयः; माहिष्यस्यानुलोम्येन द्वौ, प्रातिलौम्येन द्वौ , उग्रस्यानुलोम्येनैकः, प्रातिलोम्येन त्रय ; करणस्यानुलोम्येनैकः, प्रातिलोम्येन त्रयः, - इति पूर्वषट्कोत्पादिताश्चतुर्विशतिः। एवं सूतादीनां षणां वर्णानामेकैकस्य चतृसृषु वर्णेष्वेकैकः,-इति, तेऽपि चतुर्विंशतिः। एव मिलित्वा षष्टिः सम्पद्यते। तेभ्यः संख्याकेभ्यः उत्पादितैः अपत्यैराभासानां संख्याया आनन्त्यं भवति। समाप्ता प्रासङ्गिकी जाती-भेद-कथा। विवाहानन्तर-भाविनः प्राकृताः पञ्चमहायज्ञादयः सोमसंस्थाऽन्ताः संस्कारा आह्निक-वचने षट्कर्मवचने च निरूपिताः, - इति नात्र पुनरुच्यन्ते ।
अथावशिष्टाः गृहस्थधा निरुप्यन्ते । तत्रोपाकर्म-विधिमाह याज्ञवल्क्यः, -
“अध्यायानामुपाकर्म श्रावण्यां श्रवणेन वा। हस्तेनौषधिभावे वा पञ्चभ्यां श्रावणस्य तु" - इति ।
'अधोयन्ते' - इत्यध्याया वेदाः। तेषामुपाकर्म प्रारम्भः श्रावणमासस्य पौर्णमास्या, अन्यस्यां वा श्रवण-नक्षत्रयुक्तायां तिथौ, हस्त नक्षत्र-युक्तायां श्रावणमासस्य पञ्चभ्यां वा कर्त्तव्यः । यदा तु श्रावणमासे ओषधयो न प्रादुर्भवन्ति, तदा भाद्रपदे मासे प्रोक्त-तिथिषु कुर्यात्। तदाह वसिष्ठः। “अथातः स्वाध्यायोपाकर्म श्रावण्यां पौर्णमास्यां प्रौष्ठपद्यां वा” -- इति। मनुरपि, -
"श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां वाऽप्युपाकृत्य यथाविधि । युक्तश्छन्दांस्यधीयोत मासान् विप्रोऽर्द्ध पञ्चमान्” - इति ।
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५१८
पराशरमाधवः
अर्द्ध पञ्चमं येषां ते तथा सार्द्धान् चतुरी मासानित्यर्थः । यदा पुनः श्रावण्यां पौष्ठपद्यां वा शुक्रास्तमयादि - प्रतिवन्धः, तदानीमाषाढ्यां कर्त्तव्यम् । तदुक्तं कूर्मपुराणे, -
“ श्रावणस्य तु मासस्य पौर्णमास्यां द्विजोत्तमाः । आषाढ्यां पौष्ठपद्यां वा वेदोपाकरणं स्मृतम्”
-
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इति ।
वौधायनोऽपि । “श्रावणपौर्णमास्यामाषाढ्यां वोपाकृत्य तैष्यां माध्या वोऽसृजेत्” इति । तेषु त्रिष्वपि मासेषु पूर्णिमा श्रवण-हस्ताः शाखा-भेदेन व्यवस्थिताः । तदाह गोभिलः,
"पर्व्वण्योदय के कुर्युः श्रावण्यां तैतिरीयकाः ।
वह्न. चाः श्रवणे कुर्य्यग्रह- संक्रान्ति वर्जिते" - इति ।
-
अत्र, औदयिके, - इति पर्व्वादिषु सर्व्वत्र संवद्धयते । पर्वणि औदयिकत्वे विशेषमाह सएव,
" श्रावणी पौर्णमासी तु सङ्गवात्परतोयदि । तदा त्वौदयिको ग्राह्या नान्यथौदयिकी भवेत्”
-
इति ।
श्रवणस्य त्वौदयिकत्वमन्वय-व्यातिरेकाभ्यां व्यासेन दर्शितम्, " श्रवणेन तु यत्कर्म्म ह्य त्तराषाढ़-संयुते । संवत्सर - कृतोऽध्यायस्तत्क्षणादेव नश्यति । धनिष्ठा संयुते कुर्याच्छावणं कर्म्म यद्भवेत् । तत् कर्म्म सफलं ज्ञ ेयमुपाकरण- संज्ञितम्" इति ।
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-
Cody
श्रवणे यत् कर्म विहितं तदुत्तराषाढ़-संयुते न कुर्य्यात्, यदि कुर्य्यात् तदा नश्यतीति योजनीयम् । ग्रह-संक्रान्ति वज्जिते,इति यदुक्तं, तत्र विशेषमाह गार्ग्यः, -
“अद्धरात्रादधस्ताच्चेत् संक्रान्तिर्ग्रहण ं तथा । उपाकर्म न कुर्वीत परतन्त्र दोषकृत् ॥
-
-
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पा
पराशरमाधवः यत्राद्धरात्रादर्वाकचेद्रग्रहः संक्रम एव वा।
नोपाकर्म तदा कुर्यात् श्रावण्यां श्रवर्णऽपि च ॥"- इति । कर्कटे मासे नोपाकर्म कर्त्तव्यं । तथा च स्नृत्यन्तरे, -
"वेदोपाकरणे प्राप्ते कुलोरे संस्थिते रवौ ।
उपाकर्म न कर्त्तव्यं कर्तव्य सिंह-संयुते ॥” - इति । तदेतद्देशान्तर विषयम्। तथा च स्मृत्यन्तरम्,
"नर्मदोत्तरभागे तु कर्तव्यं सिंह-संयुते।
कर्कटे संस्थिते भानावुपाकुर्यात् तु दक्षिणे* ॥” ननु उपाकरणं ब्रह्मचारि-धर्मः, “उपाकृत्याधीयोत” - इति तस्य ग्रहणाध्यायनाङ्गत्व-प्रतीतेः। ग्रहणाध्ययनञ्च ब्रह्मचारिण एव, “वेदमधीत्य स्नायात्” - इति स्नानात् प्राचीनत्वावगमात्। अतः, कथमिदं गृहस्थधर्मत्वेनोच्यते। नायं दोषः। गृहस्थस्यापि ग्रहणाध्ययनेऽधिकार-सम्भवात्। अतएव “अधीयीत" - इत्यनुः वृत्तौ ब्रह्मचारिकल्पेन, यथान्यायमितरे जायोपेता इयेके" - इति । ___अस्यार्थः। येन नियमविशेषेण युक्तो ब्रह्मचारी अधोते, तेनैव नियमेन समावृत्तोऽप्यधीयीत। समावृत्तादितरे ब्रह्मचारिणस्तु यथान्याय स्वविध्युक्त-प्रकारेणाधीयीरन्। तथा, जायोपेतो गृहस्थोऽपि ब्रह्मचारिवन्नियमोपेतोधीयोतेति। न च समावृत्त गृहस्थयोग्रहणाध्ययनाधिकारे “वेदमधीत्य स्नायात्” – इति विरुद्धय तैति शानीयम् । तस्य वचनत्य विद्यास्नातक-विषयत्वात्। अतएव,- “वेदं ब्रतानि वा पारं नीत्वा ह्य भयमेव वा” - इति ।
* वदेवत्, - इत्यादि दक्षिणे, - इत्यन्तं नास्ति मु० पुस्तो।
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५२०
पराशरमाधवः पक्षद्वयोपन्यासो दर्शितः। उपाकरणस्य गृहस्थधर्मत्वाभ्युपगमे मनु-याज्ञवल्क्य-स्मृत्योहस्थ-धर्म-प्रकरण-पाठोऽप्यनुगृहीतो भवति। उपाकरणस्येतिकर्तव्यता कार्णाजिनिना दर्शिता, -
“उपाकर्मणि चोतसर्गे यथाकालं समेत्य च ।
ऋषोन् दर्भमयान् कृत्वा पूजयेत् तर्पयेत्तंतः", - इति । बौधायनोऽपि, -
“गौतमादीनृषीन सप्त कृत्वा दर्भमयान् पुनः । पूजवित्वा यथाशक्ति तर्प येद् वंशमुद्धरन्” - इति ।
अथोत्सर्जनम् ।
-
तत्र याज्ञवल्क्यः , -
“पौषमासस्य रोहिण्यामष्टकायामयापि वा। जलान्ते छन्दसां कुर्यादुत्सर्ग विधिवद्वहिः ॥" - इति।
मनुरपि, -
"पुष्ये तु चन्दसां कुर्याद्वहिरुत्सर्जनं द्विजः।
माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वाह प्रथमेाहनि” – इति । यदा श्रावण्यामुपाकर्म, तदा पुष्यमासस्य शक्लप्रतिपदि पूर्वाह, यदि पौष्ठपद्यामुपाकर्म, तदा माघस्येति व्यवस्थितोऽयं विकल्पः । उत्सृष्टस्यापि पुनरध्ययनं प्रागुपाकरणात् काल-विशेषे विदधाति
मनुः,
"अतः परन्तु छन्दांसि शुक्लषु नियतः पठेत् । अङ्गानि च रहस्यञ्च* कृष्णपक्षेषु वै पठेत्” – इति ।
* वेदाङ्गानि रहस्यं च, - इति मु० पुस्तके पाठः।
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पराशरमाधवः
५२१
कूर्मपुराणेऽपि,-- ___ "छन्दांस्यूद्धमतोऽभ्यस्येतू शक्लपक्षेषु वै द्विजः।
वेदाङ्गानि पुराणानि कृष्णपक्षषु मानवः*" - इति ॥ यदि भावि-विघ्न भयात् सहसाऽध्येतव्यमिति बुद्धिः, तदा संवत्सरान्ते प्रागुपाकरणात्मृजेत। “यत् स्वाध्यायमधीतेऽब्दम् i" - इति श्रुतेः। उपाकरणोत्सर्जने प्रशंसांत कात्यायनः, -
"प्रत्यब्दं यदुपाकर्म सोत्सर्ग विधिवद् द्विजैः। क्रियते छन्दसां तेन पुनराप्यायनं भवेत्। अयातयामैश्छन्दोभिर्यत् कर्म क्रियते द्विजैः।
क्रौडमानैरपि सदा तत्तेषां सिद्धि-कारकम्” - इति । अन्येऽपि धर्माः कूर्मपुराणे दर्शिताः, -
"नाधाम्मिकैर्वृ ते ग्रामे न व्याधि वहुले भृशम् । न शूद्र-राज्ये निवसेन्न पाषण्डि-जनते। हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यं पूर्वपश्चिमयोः शुभम् । मुक्त्वा समुद्रयोर्देशं नान्यत्र निवसेत् द्विजः । कृष्णो वा यत्र चरति मृगो नित्य स्वभावतः । पुण्यश्च षिश्रुता नद्यस्तत्र वा निवसेद्विजः। परस्त्रियं न भाषेत नायाज्यं याजयेद्वधः । न देवायतनं गच्छत् कदाचिच्चाप्रदक्षिणम् । न वीजयेद्वा वस्त्रण समवायञ्च वर्जयेत्। नैकोध्वानं प्रपद्यत नाधाम्मिक-जनैः सह । न निन्द्य द्योगिनः सिद्धान् व्रतिनोवा यतोंस्तथा" - इति ।
* वैद्विजः, - इति मु० पुस्तके पाठः । i मधीयीत, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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५२२
पराशरमाधवः मनुरपि, -
“देवतानां गुरोराज्ञः स्नातकाचार्यायो स्तया। नाक्रामेत् कामतश्छायां वभ्र णो दीक्षितस्य च । क्षक्षियञ्चैव सर्वञ्च व्राह्मणञ्च वहुश्रुतम् । नावमन्येत वै भूष्णुः कृशानपि कदाचन । आमृत्योः श्रियमन्विच्छन्नैनां मन्येत दुर्लभाम् । सत्यं बूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमाप्रियम् । प्रियञ्च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः। नातिकल्यं नातिसायं नातिमध्यं गते रवौ । नाज्ञातन समं गच्छन्नैको न वृषलेः सह । होनाङ्गानतिरिक्ताङ्गान् विद्याहीनान वयोऽधिकान् । रूप-द्रविण-हीनांश्च* जाति होनांश्च नाक्षिपेत् । वैरिणं नोपसेवेत सहायञ्चैव वैरिणः । अधाम्मिकं तस्करञ्च परस्यैव तु यौषितम्” – इति ।
मार्कप्डेयोऽपि, -
“असदालापमनृतं वाक्पारुष्यं विवर्जयेत् । असच्छास्त्रमसद्वादमसत्सेवाञ्च पुत्रक । न म्लेच्छ-भाषां शिक्षत न पश्येदात्मनः शकृत् । नाधितिष्टेच्छकृन्मूत्र केश भस्म कपालिकाः । तुषाजारास्थिशीर्षाणि रज्जू-वस्त्रादिकानि च । वर्जयेन्मार्जनी रेणुं नापेयञ्च पिवेद्विजः ।
* रूपद्रविणसम्पन्नान, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
५२३
सामान्येन च धर्म संक्षिप्याह मनुः, -
“येनांस्य पितरो याताः येन याताः पितामहाः। तेन यायात सतां मागं तेन गच्छन्न रिष्यति । यत् कर्म कुर्वतोऽप्यस्य परितोषोऽन्तरात्मनः । तत् प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतन्तु वर्जयेत्” -- इति । इत्य ब्रह्मचारि-गृहस्थाश्रम धम्मी निरूपितौ।
___ अथ वानप्रस्थाश्रमौ निरूप्यते। ननु, केचिद्गार्हस्थ्य-व्यतिरिक्तमाश्रमान्तरं नेच्छन्ति, उदाहरन्ति च तत्र गौतमस्मृतिम्। “एकाश्रम्यन्त्वाचार्याः प्रत्यक्ष-विधानादगार्हस्थ्यस्येति आचार्यास्तु गार्हस्थ्यमेक एवाश्रमो नान्यः कश्चिदस्तोति मन्यन्ते ; हेतु चाचक्षते, गार्हस्थस्य प्रत्यक्ष-श्रुतिष विधानादितरस्य तदभावात् , - इति। तथाहि। वद चाः, 'अग्निमीले',- इत्यारभ्य मन्त्र-व्राह्मणात्मके कृत्स्नेऽपि वेदे होतृकर्तव्यमेवामनन्ति । यजुर्वेदिनश्च, 'इषे त्वा' - इत्यादिना अध्वर्यु-कर्त्तव्यम् । सामगा अपि, 'अग्न आयाहि - इत्यादिनोद्गीतृ कर्त्तव्यम् । होत्रादयश्च गृहस्था एव। तथाचाधीयमानेषु प्रत्यक्ष-वेदेषु गृहस्थ-कर्त्तव्याभिधानेन तदाश्रमविधिः परिकल्प्यते, न त्वेवमितराश्रम विधि-कल्पकं किञ्चित् पश्यामः । अतएव, “याजोवमग्निहोत्र जुहोति” - इति श्रुतिः कृत्स्नं पुरुषायुषं गृहिकर्मस्वेव विनियुङक्ते। श्रुत्यन्तरञ्च "एतद्वै जरा-मयं सत्र यदग्निहोत्र, जरया वा ह्य वास्मान्मुच्यते मृत्युना वा” - इति । न चैवं सति कथं ब्रह्मचर्याश्रमाङ्गीकारः, - इति शडनीयम् ।
* दुष्यति, - इति मु० पुस्तके पाठः । । विधि कम्चित्, - इति स० सी० पुस्तकयो पाठः ।
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५२४
पराशरमाधवः नैष्ठिकस्य पक्ष-कोटि निःक्षिप्तत्वादुपकृष्णकस्य प्रतिपत्तृत्वेनआश्रमित्वाभावात्। यदा, कम्मित्वेनाभिमतयो ब्रह्मचारि-वनस्थयो. रीडशो गतिः तदा, कैव कथा कृत्स्न-कर्म-त्यागिनो यतेः। तस्माद्, गार्हस्थ्यमेक एवाश्रमः, - इत्याचार्याणां पक्षः।
अत्रोच्यते। अस्ति हि चतुर्णा आश्रमाणां प्रत्यक्ष-श्रुतिविधानम्। तथाच, जावाला आमनन्ति । "ब्रह्मचर्य समाप्य गृही भवेत्, गृहाद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत्” - इति । आचार्य्यास्तु, रागिणमभिप्रेत्य तस्योद्ध रेतःसु नैष्ठिक-वह्मचर्यादिषु विष्वाश्रमेष्वनधिकार मन्यमानाः, गाह्य स्थ्यमेव वर्णयामासुः। यत्तु कृतस्नेऽपि वेदे गृहस्थ-धर्मस्यैवाम्नानमित्युक्तम् । तदयुक्तम् । वानप्रस्थस्यापि सदारस्याग्निहोत्रादि-सम्भवात् । नैष्ठिक ब्रह्मचारि-धर्मस्तु छन्दोगै पठ्यते । “ब्रह्मचार्याचार्यकुल-वासी तृतीयोऽत्यन्तमात्मानमाचार्यकुलेऽवसादयन्” - इति। उपकुर्वाणक-धर्माः सर्वशाखासूपनयन-प्रकरणेषु प्रसिद्धाः। यति-धम्मरिचोपनिषद्भागे। अतो यावज्जीवादि-श्रुतेः कामि-विषयत्वेनाश्रमान्तराणि न तया प्रलपितुं शक्यन्ते। साधिताश्चोत्तरमीमांसायां चत्वार आश्रमाः । तस्मात् , क्रमप्राप्तो वानप्रस्थाश्रमः प्रस्तूयते। तत्र, याज्ञवल्क्यस्तं विधत्ते, -
“सुत-विन्यस्त पत्नीकस्तया वाऽनुगतो वनम् ।
वानप्रस्थो ब्रह्मचारी साग्निः सोपासनो व्रजेत्” - इति । वानप्रस्थो वुभूषुः स्वस्य ब्रह्म वयं-नियमेन पत्न्या अनपयोगात्ता रक्षणीयत्वेन पुत्रेषु निःक्षिप्य वनं व्रजेत्। यदा साऽपि नियता सती पति-शुश्रूषां कामयते, तदा तया सह वनं ब्रजेत्। तस्मिन् पक्ष
। प्रतिषिद्वत्वेन, - इति स० सो० पुस्तकयो पाठः ।
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पराशरमाधवः
५२५ वैतानिक-गृह्याभ्यामग्निभ्यां सह गच्छेत् । सुत निक्षेप-पक्षे त्वात्मनि अग्नीन् समारोप्य प्रब्रजेत्। तदाह छागलेयः, -
_“अपत्नीकः समारोप्य व्राह्मणः प्रव्रजेद गृहातू” - इति । तादृशोऽरण्यं गत्वा वैरवानस-सूत्रोक्त-मार्गेणाग्निमादध्यात् । तदाह वसिष्ठः। “वानप्रस्थो जटिलरचीराजिनवासान फाल-कृष्टमधितिष्टे । दकृष्ट-मूल-फलं सञ्चिन्वीतोद्ध रेताः क्षपाशयो दद्यादेव नप्रतिगृहोयात् ऊद्ध पञ्चभ्यो मासेभ्यः श्रावणकेनाग्नि मादध्यादाहिताग्निवृक्षमूलिको दद्याद् देवर्षिपितृमनुष्येभ्यः स गच्छेत् स्वर्गमानन्त्यम्” - इति। श्रावणकं तपस्वि-धर्म-प्रतिपादक वैरवानस-सूत्रम्। अकृष्टमूलमाहारत्वेन बुवन् ग्राम्यहार-परित्यागं सूचयति । अतएव मनुः, -
“सन्त्यज्य ग्राम्यमाहारं सर्वञ्चैव परिच्छदम् ।
पुत्रषु भार्या निक्षिप्य वनं गच्छेत् सहैव वा” - इति । गृहस्थस्य वनप्रवेशावसरमाह यमः, -
"द्वितीयमायुषो भागमुषित्वा तु गृहे द्विजः। तृतीयमायुषो भागं गृहमेधी वने वसेत् ॥ उत्पाद्य धर्मतः पुत्रानिष्टा यज्ञश्च शक्तितः।
दृष्टोऽपत्यस्य चापत्यं ब्राह्मणोऽरण्यमाविशेत्” - इति ॥ अत्र, ब्राह्मण-गृहणं त्रैवर्णिको लक्षणार्थ, 'उषित्वा तु गृहे द्विजः, - इत्युपक्रमानुसारात्। मनुरपि, -
"गृहस्थस्तु यदा पश्येद्वलीपलितमात्मनः । अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्” - इति।
i मधिगच्छे, - इति मु० पुस्तके पाठः । श्रिावणमासेऽमि, - इति मु० पुस्तके पाठः।
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५२६
पराशरमाधवः
शङ्ख लिखितावपि, – “पुत्रानुत्पाद्य संस्कृत्य वेदमध्याप्य बृत्ति विधाय दारैः संयोज्य गुणवति पुत्रे कुटुम्वमावेश्य कृतःप्रस्थानलिङ्गोवृत्ति-विशेषाननुक्रमेत् , क्रमशो यायावराणां गृत्तिमुपास्य वनमाश्रयेदुत्तरायणे पूर्वपक्षे” – इति । एतच्चाश्रम-समुच्चय-पक्ष द्रष्टव्यम् । असमुच्चयपक्षे त्वकृत-गार्हस्त्योऽपि वानप्रस्थेधि. क्रियते। तदाह वसिष्ठः, - “चत्वार आश्रमा ब्रह्मचारि-गृहस्थवानप्रस्थ परिव्राजकाः। तेषां वेदमधीत्य वेदं विदित्वा चीर्ण-ब्रह्मचर्यो यमिच्छेत् तमावसेतू”-इति । आपस्तम्वोऽपि,-"चत्वार आश्रमागार्हस्थ्यं आचार्यकुलं मौनं वानप्रस्थम्”- इत्युपक्रम्य, “यत्कामयेत, तदारभेत”-इत्युपसंहरति । वन-प्रतिष्ठस्य कर्त्तव्यमाह याज्ञवल्क्यः ,
“अ-फाल-कृष्टेनानोश्च पितृन् देवतिथीनपि ।
भृत्यांश्च तर्पयेच्छश्वज्जटा-लोम-मृदात्मवान* - इति । अ-काल-कृष्टं शाक-मूल-नोवारादि। तथाच मनुः, -
"मुन्यन्नविविधैमैध्यैः शाक-मूल-फलेन वा।
एतैरेव महायज्ञान् निर्वपेदिधि-पूर्वकम्” -- इति । नच, ब्रह्मचारि-विधुरयोरनग्निकयोर्वनस्थयोः कथमग्नीनां तर्पणमिति वाच्यं, वैरवानस-शास्त्रोक्तस्याग्नेः सद्भावात्। नचाफालकृष्टनोवारादिना पुरोडाश करणे 'व्रीहिभिर्यजेत' - इति श्रुतिर्वाध्येतेति शनीयम् । ब्रोहीणामप्यफालकृष्टानां सम्भवात्। तस्मादकृष्टपच्यैर्वोह्यादिभिर्वैतानिकं कर्म कुर्य्यात्। तथा च मनुः -
"वैतानिकञ्च जहूयादग्निहोत्र यथाविधि । दर्शमस्कन्दयन् पर्वं पौर्णमास्यां प्रयोगतः । ऋक्षष्ट्याग्रहावणं चैव चातुर्मास्यानि चाहरेत् । उत्तरायण च* क्रमशोदक्षस्यायनमेवच ॥
* तुलायनन्द, -इति स० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
५२७
वासन्तैः शारदैर्मेध्यैर्मुन्यन्नैः खयमाहृतः। पुरोडाशं चरुञ्चैव निर्व पेद्विधि-पूर्वकम्” - इति ॥
मेध्यैर्यज्ञाहर्मुन्यन्नरकृष्ट पच्यरित्तर्थः । संग्राह्यद्रव्यस्येयत्तामाह याज्ञवल्क्यः , -
"अहो मासस्य षण्णां वा तथा संवत्सरस्य वा। अर्थस्य सञ्चयं कुर्यात् कृतमाश्वयुजे त्यजेत्” - इति ॥
एकदिन-साध्यत्य कर्मणो यावत् पर्याप्तं, तावतोऽर्थस्य सञ्चयं कुर्यात् । एवमेक-मा स-संवत्सर-पक्षेऽपि योजनीयम्। तत्र यदि किञ्चित् सञ्चितमवशिष्येत्, तत् सर्वमाश्वयुज्यां त्यजेत् । यदाह विष्णुः। "मास-निचयः, संवत्सर-निचयो वा, संवत्सरनिचयात् पूर्व निचयमाश्वयुज्यां जह्यात्" - इति। संत्यज्य ततो नूतनं सचिनुयात्। मनुरपि, -
"त्यजेदाश्वयुजे मासे मन्यन्नं पूर्व-सञ्चितम् । जोर्णानि* चैव वासांसि शाक-मूल-फलानि च । सद्यः प्रक्षालितोवा स्यान्मास-सञ्चयिकोऽपि वा। षण्मास-निचयोवाऽपि समा-निचयएववा" - इति ।।
तत्र वर्त्यांनाह सएव, -
"वजयेन्मधु-मांसानि भौमानि कवकाणि च । भूतृणं सिग्रकं चैव श्लेष्मातक फलानि च । न फाल-कृष्टमश्नीयादुत्कृष्टमपि केनचित् । न ग्रामजातान्याणि पुष्पानि च फलानि च - इति॥
* चोर्णानि, - इवि मु. पुस्तके पाठः ।
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५२८
पराशरमाधवः
कवकानि चत्रकानि। तपोनियममाह याज्ञवल्क्यः , -
“दान्तस्त्रिषवण स्नायी निवृत्तश्च प्रतिग्रहात् । स्वाध्यायवान् दान-शोलः सर्व-सव्व हितैरतः ॥ दन्तोलखलिकः काल-पक्काशी वाऽवम-कुटकः । श्रौतस्मात्तं फल-स्नेहैः कर्म कुर्यात् क्रियास्तथा । चन्द्रायनैर्नयत् कालं कृच्छ वा वर्तयेत् सदा। पक्ष गते चाप्यश्नीयान्मासे वाऽहनि वा गते॥ स्वपेद्भ मौ शुची रात्रौ दिवस प्रपदैन येत् । स्थानासनविहारैर्वा योगाभ्यासेन वा तथा ॥ ग्रीष्मे पञ्चाग्नि मध्यस्थो वर्षासु स्थाण्डिलेशयः ।
अद्र वासास्तु हेमन्ते शक्त्या वाऽपि तपश्चरेत्” - इति। दन्ताएवोलूखलं निस्तुषोकरण साधनं, तद् यस्यास्ति स दन्तोलू. खलिकः । वाह्योलखलादि-साधन-निरपेक्षइत्यर्थः । काल-पक्वं-बदरेअद-पनस-फलादि। अश्मनाकुटनमवहननं यस्य, सोऽश्मकुटकः । फल स्नेहोलिकुच-मधूकादि-मध्यतर-कल-जन्मानि तैलानि । क्रिया भोजनाभ्यजनादयः। विष्णुरपि । “वायु-पुष्टाशी फलाशी मूलाशी शाकाशो पर्णाशी वायु-पक्वान्नयोर्वा सकृदश्नीयात्” - इति । कूर्मपुरोऽपि, -
"एकपादेन तिष्ठेत मरीचीन्वा पिवेत् सदा। पञ्चाग्नि-धूमपो वा स्यादुष्मपः सोमऽथवा ॥ पयः पिवेत् शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे च गोमयम् । शीर्ण-पर्णाशनो वा स्यात् कृच्छा वर्तयेत् सदा ॥ अथर्वशिरसोऽध्येता वेदान्ताभ्यास-तत्परः। यमान सेवेत सततं नियमांश्चाप्यतांद्रितः । जितेन्द्रियो जित-क्रोधस्तत्त्वज्ञान-विचिन्तकः । ब्रह्मचारी भवन्नित्यं न पत्नों प्रतिसंश्रयेत् ।
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पराशरमाधवः
५२९ यस्तु पत्न्या समं गत्वा मैथुनं कामतश्चरेत् । तद तं तस्य लुप्येत प्रायश्चित्तीयते द्विजः। नक्त बान्नं समश्नीयाद् दिवा वाऽ हृत्य शक्तितः । चतुर्थकालिको वा स्यात् स्यादा चाष्टमकालिकः ॥ चान्द्रायण-विधानैर्वा शुक्के कृष्णे च वत्तयेत् । पक्षे पक्षे समश्वीयाद्यवागू क्वथितां सकृत् ॥ पुष्पमूल-फलैर्वाऽपि केवलैवर्तयेत् सदा। स्वाभाविकैः स्वयं शोर्वेखानस-मते स्थितः” - इति ।
अग्नि-परिचायामक्षम प्रत्याह याज्ञवल्क्यः, -
*अग्नीनप्यात्मसात् कृत्वा बृक्षावासो मिताशनः । वानप्रस्थो गृहेष्वेव यात्रार्थ भेक्ष्यमाचरेत् ॥
ग्रामादाहृत्य वै ग्रासानष्टौ भुञ्जीत वाग्यतः" - इति । मनुरपि, -
"अग्नीनात्मनि वैतानात् समारोप्य यथाविधि । अनग्निरनिकेतः स्यान्मूनिर्मूलफलाशनः ॥ अप्रयत्नः सुखार्थेषु ब्रह्मचारी धराशयः। गृहमेधिषु चान्येषु दिजेषु वनवासिषु । ग्रामादाहृत्य वाश्नीयादष्टौ ग्रासान् वने वसन् । प्रतिगृह्य पुटेनैव पाणिना शकलेन वा ॥ एताश्चान्याश्च सेवेत दोक्षाविप्रो वने वसन् । आसां महर्षि-वय्यर्याणां त्यक्त्वाऽन्यतमया तनुम् ।
वोत शोक-मयो विप्रो ब्रह्मलोके महीयते" - इति । ननु, अष्ट-प्रास-विधाने, “षोड़शारण्यवासिनः” इति वचन विरुद्धयेत। तन्न, शक्ताशक्त-विषयत्वेन व्यवस्थोपपत्तेः । सर्वानुष्ठानासमर्थ
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५३०
प्रत्याह याज्ञवल्क्यः,
कूर्म्मपुराणेऽपि -
" वायुभक्षः प्रागुदीचों गच्छेदावम-संक्षयात्
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महाप्रस्थानिकं वाऽसौ कुर्य्यादनशनन्तु वा । अग्निप्रवेशमन्यद्वा ब्रह्मार्पण-विधौ स्थितः ॥
यस्तु सम्यगिममाश्रमं शिवं संश्रयत्यशिव-पुञ्ज-नाशनम् । ताप हन्तृपदमैश्वरं परं
याति यत्र जगतोऽस्य संस्थितिः”
इत्थं वानप्रस्थाश्रमो निरूपितः ।
तत्र मनुः,
पराशर माधवः
अथ चतुर्थाश्रमो निरूप्यते ।
-
याज्ञवल्क्योऽपि,
-
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" वनेषु तु विहृत्यैवं तृतीयं भागमायुषः । चतुर्थमायुषोमागं त्यक्त्वा सङ्गान् परिव्रजेत्” - इति ॥
वना गृहाद्वा कृत्वेष्टि सर्ववेदसदक्षिणाम् । प्राजापत्यां तदन्ते तानग्नीनारोप्य चात्मनि ॥ अधीतवेदो जपकृत् पुत्रवानन्नदोऽग्निमान् । शक्त्या च यज्ञकृन्मोक्षे मनः कुर्य्यात्तु नान्यथा”
•
इति ।
इति ।
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आश्रम-चतुष्टय-समुच्चयमभिप्रेत्य, वनान्मोक्ष मनः कुर्य्यादित्युक्तम् । आश्रम-त्रय-समुच्चयामिप्रामेण गृहाद्वेति पक्षान्तरोपन्यासः । ननु, अत्रापि चतुष्टय समुच्चय एवाभिप्रेयतां पारिब्राज्यानन्तरं वानप्रस्थस्यानुष्ठातं शक्यत्वात् । मैवम्। ब्रह्मचर्य्यादीनां चतुर्णामाश्रमाणां
• इति
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पराशर साधवः
५३१
आरोहस्य प्रतिनियतत्वात् । तथा च जावला आश्रमा णामारोहमामः नन्ति । “ब्रह्मचय्यं समाप्य गृहो भवेत्, गृहो भूत्वा वनो भवेत्, वनो भूत्वा प्रव्रजेत् *" न त्वेवमवरोहः क्वचिदप्या मनातः । प्रत्युतावरोहं दक्षो निषेधति,
इति ।
" त्रयाणामानुलोम्यं स्यात् प्रातिलोम्यं न विद्यते । प्रातिलोम्येन यो याति न तस्मात् पापकृत्तमः यो गृहाश्रममास्थाय ब्रह्मचारी भवेत् पुनः । न यतिर्न वनस्थश्च स सर्वाश्रम वज्जितः” इति ॥
-
-
-
यदि गृही कथञ्चित् प्रत्यवरुह्य ब्रह्मचारी भवेत्, तदाऽसौ सर्वाश्रमवहिस्कृतः । आरूढ़ - पतितत्वात् । अतो न वनस्थादिभिराश्रमवासिभिः शब्दैरभिलाप्यो भवति । अयञ्चावरोहाभाव उत्तर
मीमांसायां तृतीयाध्याये वर्णितः ।
-
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वनाद् गृहाद्वेत्यत्र ब्रह्मचर्य्याद् वा, इत्यपि द्रष्टव्यम् । यदा जन्मान्तरानुष्ठितः सुकृति परिपाक - वलात् वाल्य एव वैराग्यमुपजायते, तदानीोमकृतोद्वाहो ब्रह्मचय्यदिव प्रब्रजेत् । तथा च जावाल श्रुतिः । "यदि वेतरथा ब्रह्मचय्र्यादेव प्रव्रजेद्र गृहाद्वा वनाद्वा * - इति । पूर्वमविरक्त वालं प्रत्याश्रम-चतुष्टय समुच्चयमायुर्विभागेनोपन्यस्य, विरक्तमुद्दिश्य यदि वेति पक्षान्तरोपन्यासः । इतरथेति वाल्य एवावरात - वैराग्य इत्यर्थः । अकृतोद्वाहस्य संन्यासो नृसिंहपुराणे दर्शितः,
"यस्यैतानि सुगुप्तानि जिह्वोपस्थोदरं शिरः सन्यसेदकृतोद्वाहो ब्राह्मणो ब्रह्मचर्य्यवान्नू”
-
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इति ॥
* गृहाद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत्, - इति मु० पुस्तके पाठः । स - इति स० पुस्तके पाठः ।
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५३२
पराशरमाधवः अङ्गिराअप्याह, -
"संसारमेव,* निःसारं दृष्टा सार-दिदृक्षया। प्रव्रजत्यकृतोदाहः परं वैराग्यमाश्रितः । प्रव्रजेद् ब्रह्मचर्येण प्रब्रजेच्च गृहादपि ।
वनाद्वा प्रव्रजेद्विद्वानातुरो वाऽथ दुःखितः” - इति । दुःखितो व्याधितश्चौरव्याघ्राद्य पद्रतः। आतुरो मुमूर्षुः। तत्र महाभारतम्,
“उत्पन्ने सङ्गटे घोरे चौरव्याघ्रादि-साइट। भय-भीतस्य संन्यासमणिरामुनिरब्रवीत् । आतुराणाञ्च संन्यासे न विधिर्नेव च क्रिया।
पैषमात्र समुच्चार्य संन्यासं तत्र पूरयेत्” - इति ॥ ननु, ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रज्याऽङ्गीकारे मनु-वचनानि विरुद्धचरन् ,
"ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्ष निवेशयेत् । अनपाकृत्य मोक्षन्त सेवमानो व्रजत्यधः ॥ अधीत्य विधिवढे दान पुत्रानुत्याच धर्मतः । इष्दा च शक्तिती यज्ञमनो मोक्ष निवेशयेत्। अनधीत्य गुरोर्वेदाननुत्पाद्य तथात्मजान् ।
अनिष्ता चैव यज्ञश्च मोक्षमिच्छन् व्रजत्यधः ॥” - इति । ऋगत्रयं श्रुत्या दर्शितम् । “जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभित्रणवान् जायते, ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्यः, एष वा अनृर्णीयः पुत्री यज्वा बह्मचारी वासि” - इति। यदा स्वर्गप्रापका पितृयाणमार्गोऽप्यणापाकरणमन्तरेण न सम्भवति, तदा कैव कथा मोक्षमार्गे। अतएव मन्त्रवर्णः, -
“अनृणा अथोस्मिन्ननृणाः परस्मिन् तृतीये लोके अनृणास्याम ।
संसारमेव, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
ये देवयाना उत पितृयाणाः
सर्वान् पथो अनृणा अक्षियेम" -- इति ॥ व्राह्मणमपि “सर्वान् लोकान् अनृणोऽनुसञ्चरति” - इति । मैवम् । अविरक्तविषयत्वादेतेषां वचनानाम् । अतएव विरक्तस्य प्रव्रज्यायां कालविलम्ब निषेधयति जावालश्रुतिः। “यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रब्रजेतू” - इति । ननु, उक्तरीत्या ब्रह्मचर्यादिषु आश्रमेषु यथावद्धर्मानुष्ठायिनां तदाश्रमात् प्रव्रजेदिति प्रतीयते। तथा सति, स्नातक-विधुरादीनामना श्रमिणामाश्रमिणाञ्च केषाचित् केनचित् प्रतिबन्धेन विदितधर्मानुष्ठायिनां सत्यपि वैराग्ये सन्न्यासो न प्राप्नुयात्। मैवम् । तेषां प्रत्यक्ष-श्रुत्यैव तविधानात्। “अन्य पुनरव्रती वा व्रती वा स्नातकोतू-सन्नाग्निरनग्निको वा यदहरेव विरजेत तदहरेव प्रब्रजेतू" - इति। यमोऽपि, -
"पुनरक्रियाभावे मृतभार्यः परिव्रजेत् ।
वनस्थो धूतपापो वा परं पन्थानमाश्रयेत् ॥” -- इति ॥ स्नातक-विधुरादीनामन्तरालवत्तिनामाश्रम-निरपौ जपोपवास-तीर्थयात्रादिकर्ममिश्चित्तशुद्धि-सम्भवेन मोक्षाश्रमेऽधिकारोऽस्तीति तृतीयाध्याये मीमांसितम् । धर्म-लोपेऽप्यनुतापवतस्तत्-प्रायश्चित्तत्वेन संन्यासः सम्भवति। तथा च स्मृत्यन्तरम्, -
“ये च सन्तानजादोषा ये च स्युः कर्म-सम्भवाः।
संन्यासस्तान् दहेत् सींस्तुषाग्निरिव काञ्चनम् ॥-इति ॥ मनुरपि, -
"मृत्तोयैः शुद्धयते शोध्यं नदो वेगेन शुद्धयति । रजसा स्त्री मनोदुष्टा संन्यासेन द्विजोत्तमः" ॥ - इति ॥
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५३४
पराशरमाधवः अत्र केचित् , ब्राह्मणस्यैव संन्यासाधिकारी न क्षत्रिय-वैश्ययोः, - इत्याहुः । उदाहरन्ति च श्रुति-स्मृती। तत्र वाजसनेयकब्राह्मणम् । “एतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रषणायाश्च वित्तषणायाश्च लोकेषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यञ्चरन्ति" -- इति। मनुरप्युपक्रमोपसंहारयोर्ब्राह्मणशब्दं प्रयुङ्क्ते, -
"आत्मन्यग्नीन् समारोप्य ब्राह्मणः प्रब जेद् गृहात्” । इत्युपक्रमः।
__ “एष वोऽभिदितो धर्मो ब्राह्मणस्य चतुर्विधः” । इत्युपसंहारः। नारदोऽपि, -
“प्रथमादाश्रमाद् वापि विरक्तो भव-सागरात् । ब्राह्मणो मोक्षमन्विच्छंस्त्यक्त्वा सङ्गान् परिब्रजेत् ॥”- इति ।
योगियाज्ञवल्क्योऽपि, -
"चत्वारो ब्राह्मणस्योक्ता आश्रमाः श्रुति चोदिताः।
क्षत्रियस्य त्रयः प्रोक्ता द्वावेको वैश्य-यूद्रयोः ॥" - इति । वामनपुराणेऽपि, -
"चत्वार आश्रमाश्चैते ब्राह्मणस्य प्रकीर्तिताः । गार्हस्थ्यं ब्रह्मचर्यच वानप्रस्थं त्रयोऽऽश्रमाः॥ क्षत्रियस्यापि कथिता य आचारा द्विजस्य हि। ब्रह्मचर्यञ्च गार्हस्थ्यमाश्रम-द्वितयं विशः । गार्हस्थमुचितन्त्वेकं शूद्रस्य क्षणदाचर ॥" - इति ॥
ननु, शूद्रस्याश्रम एव नास्ति,
"चत्वार अश्रमास्तात. तेषु शूद्रस्तु नार्हति” - इति ॥
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पराशर माधवः
५३५
निषेधात् । ततः कथं तस्य गार्हस्थ्याङ्गीकारः ।
उच्यते ।
अन्यथा,
समन्त्रक एव विवाहो निषिध्यते, न त्वमन्त्रकः । विवाह प्रकरणोदाहृतानि शूद्रविषयाणि वचनानि पञ्च महायज्ञादि- शुद्राधिकारवचनानि विरुध्येरन् । तस्मादस्ति
गृहस्थधर्मेषु
शूद्रस्य गार्हस्थ्यम् । सन्यासस्तूक्त - रीत्या विप्रस्यैव । अतएव स्मृत्यन्तरे, कषाय दण्डादि लिङ्ग धारणं क्षत्रिय- वैश्ययोनिपिद्धम्, -
“मुखजानामयं धर्मी यद्विष्णो लिङ्गधारणम् ।
बाहुजाती रुजातानां नायं धर्मों विधीयते "
-
अपुरे पनः, संन्यासं त्रैवर्णिकाधिकार मिच्छन्ति । अधीत वेदस्य द्विजातिमात्रस्य समुच्चय-विकल्पाभ्यामाश्रम-चतुष्टयस्य बहुस्मृतिषु विधानात् । अतएव याज्ञवल्क्येन संन्यास-प्रकरणे द्विजशब्दः प्रयुक्तः,
*
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“सन्निरुदयं न्द्रियग्रामं राग-द्वेषौ प्रहाय च । भयं हृत्वा च भूतानाममृती भवति द्विजः"
कूर्मपुराणेऽपि द्विज-ग्रहणं कृतम्,
स्मृत्यन्तरन्तु शृङ्गग्राहिकतयैव वर्ण त्रयस्य संन्यासं विदधाति -
" ऋण - त्रयमपाकृत्य निर्ममो निरहंकृतिः ।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वाऽथ वैश्यो वा प्रब्रजेद्र गृहात् ” - इति ॥
ra, 'awarfa '
Varade
इति ॥
“अग्नीनात्मनि संस्थाप्य द्विजः प्रव्रजितो मवेत् ।
योगाभ्यासरतः शान्तो ब्रह्मविद्यापरायणः”
इति ॥
- इति पाठो भवितु ं युक्तः ।
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इति ॥
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५३६
पराशरमाधवः यानि पूर्वोदाहत-वचनानि, तानि क्षत्रिय-वैश्ययोः काषायदण्डनिषेध पराणि। तथाच, मुखजानामिति वचनमुदाहृतम् । वौधायनोऽपि, -
"ब्राह्मणानामयं धर्मों यद्विष्णोलिङ्ग-धारणम् । राजन्य-वैश्ययोर्नेति तत्रात्रेय-मुनेर्वचः” – इति॥
परिवाड् वुभूषः सर्वस्वदक्षिणां प्राजापत्यामिष्टि निर्व पत्। तदाह मनुः, -
"प्राजापत्यां निरूप्येष्टि सर्ववेदसदक्षिणाम् । आत्मन्यग्नोन समारोप्य ब्राह्मणः प्रब्रजेद् गृहातू" -- इति ॥
यद्वा। आग्नेयोमिष्टि कृया॑त् । तदुक्त श्रुत्या। “अथैके प्रजापत्यामिष्टि कुर्वन्ति, तथा न कुर्यात् आग्नेयोमेव कुर्यादग्निहिं प्राणः प्राणमेवैतया करोति” – इति। कूर्मपुराणऽपि,
“प्रजापत्यां निरूप्येष्टिमाग्नेयोमथवा पुनः ।
अन्तः पक्वकषायोऽसौ ब्रह्माश्रममुपाश्रयेत्” - इति ॥ प्राजापत्येष्टिराहिताग्निविषया, 'अग्नीन् समारोप्य' - इत्यग्निवहुत्वाभिधानात्। आग्नेयो त्वनाहिताग्निविषया, तद्वाक्यशेषे 'अग्निमाजिघ्रत्, - इत्येकाग्न्यभिधानात् । सा चेष्टिः श्राद्धादिपुरःसरं प्रकत्तेव्या। तथाच नृसिंहपुराणम् , -
"एवं वनाश्रमे तिष्ठन तपसादग्धकिल्विषः । चतुर्थमाश्रमं गच्छेत् सन्न्यस्य विधिना द्विजः ॥
* कूर्मपुराणेऽपि,- इत्यारभ्य, एतदन्तो अन्योनान्ति मु० पुस्तके ।
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पराशरमाधवः
५३७
दिव्यपितृभ्यो देवेभ्यः स्वपितृभ्योऽपि यत्नतः। दत्वा श्राद्धमृषिभ्यश्च मनुष्येभ्यस्तथाऽऽत्मने। इष्टिं वैश्वानरों कृत्वा प्राजापत्यामथापि वा।
अग्निं स्वात्मनि संस्थाप्य मन्त्रवत् प्रब्रजेत् पुनः”- इति । श्राद्धानि चाष्टौ दैवादीनि। तथाचाह बौधायनः, -
“दैवमाष तथादिव्यं पित्र्यं मातृक-मानुषे।
भौतिकं चात्मनश्चान्ते अष्टौ श्राद्धानि निर्व पेत्"-इति। उक्त श्राद्धादौ योग्यता, कृच्छः सम्पादनीया। तदाह कात्यायनः,
"कृच्छांस्तु चतुरः कृत्वा पावनार्थमनाश्रमी ।
आश्रमी चेत्ततः कृच्छ ितेनासौ योग्यतां ब्रजेत्” - इति॥ श्राद्धानन्तरमाविनीमिष्टेः प्राचीनाभितिकर्तव्यतामाह वौधायनः,
“कृत्वा श्रादानि सर्वाणि पित्रादिभ्योऽष्टक पृथक् । वापयित्वा च केशादीन्मार्ज येत् मातृका इमाः । त्रीन् दण्डानन लोस्थलान वैणवान्मूद्ध सम्मितान् । एकादश-नव-द्वि-त्रि-चतुः-सप्तान्यपर्वकान् ॥ सत्वकानब्रणान् सोम्यान् समसन्नत-पर्वकान् । वेष्टितान् कृष्ण-गोवाल-रज्वा तु चतुरङ्ग लान् ॥ एकोवा तादृशो दण्डो गोवाल-सहितो भवेत्। कुश-कासि सूत्रा क्षौम-सूत्ररथापि वा। कुशलग्रंथितं शिक्यं पद्माकारसमन्वितम् । षट्पादं पञ्चपादं वा मुष्टि-द्वय विदारितम्॥
* देवपितृभ्यो,-इवि स० पुस्तके, देयं पितृभ्यो,-इति मु० पुस्तके पाठः । । चैत्तप्रकृच्छ्,- इति स० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
विकेशं सित* मस्पष्टमुभयद्वादशान लम् । द्विगुणं त्रिगुणं वाऽपि सर्वतोऽष्टाङ्ग लन्तु वा । प्रादेशमात्र वा सूत्र कापसिः ततमव्रणम् । चण्डालाद्यहतं । चैतत् स्मृत जलपवित्रकम् । गृहीतं मन्त्रवत्तद्वत्सशिक्यञ्च कमण्डलम् । दारव वैणवं वापि मृदलावुमयन्तु वा ॥ पात्र शिलामयं ताम्रपर्णादिमयमेव वा। चतुरस्र वर्तुलं वाऽप्यासनं दारवं शुभम् । कौपीनाच्छादनं वासः कन्यां शोतनिवारणोम् । पादुके चापि शौचार्थ दशमात्रा उदाहृताः। छत्र पवित्र सूत्र' च त्रिविष्टन्धं तथाऽजिनम् । पक्षाणि चाक्षसूत्रञ्च मृत्खनित्री कृपाणिका f। योगपट्ट वहिसि इत्येता एकविंशतिः । तासां पच्चाधिका नित्या दश वा सर्वशोपि बा ॥ गृहोत्वमा अथागत्य देवागारेऽग्निवेश्मनि । ग्रामान्ते ग्रामसीमान्ते यद्वा शचिमनोहरे। आज्यं पयोदधीत्येतत्विवृद्वा जलमेव वा॥ ॐ भरित्यादिना प्राश्य रात्रि चोपवसेत्ततः। एतावतैव विधिना भिक्ष : स्यादापदि द्विजः । अथादित्यस्यास्तमयात् पूर्वमग्नीन् विहृत्यौ सः । आज्यञ्च गार्हपत्ये तु संस्कृत्यतेन च स चा । * वीत, - इवि मु. पुस्तके पाठः । i चण्डाकायकृतं, - इति मु. पुस्तके पाठः । 1 कपालिकाः, - इति मु० पुस्तके पाठः । में पञ्चादिका, - इति मु० पुस्तके पाठः । विहूत्य, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पर शरमाधवः
पूर्णमाहवनीये तु जुहुयात् प्रणवेन तत्। *वहन्वाधानमेतत् स्यादग्निहोत्र हुते ततः । स्थित्वा तु गार्हपत्यस्य दर्भानुत्तरतोत्र तु। पात्राणि सादयित्वाऽथ ब्रह्मायतन एव तु । स्तीर्णेषु दर्भेष्वासीत त्वजिनान्तरितेषु वा। जागृयाद्रात्रिमतान्तु यावद् ब्राह्मो मुहुर्तकः । एतामवस्थां सम्प्राम्प मृतोऽप्यानन्त्यमश्रुते॥ अग्रिहोत्र सकाले च हुत्वा प्रातस्तन ततः । इष्टि वैश्वानरों कुर्यात् प्राजापत्यामथापिवा" - इति ।
आज्यादि-प्राशनानन्तरमग्नि-विहरणात् पूर्व सावित्री प्रवेशं कुर्यात् । तदुक्तं वौधायनधम। ॐ मः सावित्री प्रविशामि तत्सवितुर्वरेण्यं ॐ भूवः सावित्रों प्रविशामि भर्गो देवस्य धीमहि, ॐ सुवः सावित्री प्रविशामि धियोयोनः प्रचोदयादिति अर्द्धर्चशः समस्तया वा - इति । इष्ठिा परिसमाप्याग्नीश्चात्मनि समारोप्य प्रेषमुच्चारयेन् । तदाह कात्यायनः, -
“आत्मन्यग्नीन् समारोप्य वेदिमध्ये स्थितो हरिम् ।
ध्यात्वा हृदि त्वनुज्ञातो गुरुणा प्रेषमीरयेत्” – इति। अथ प्रैषमुच्चार्याभयदानं कुर्यात्। तदुक्त कापिलमते, -
"विधिवत् प्रेषमुच्चार्य त्रिरुपांश त्रिरुच्चकैः । अभयं सर्वभूतेभ्यो मम स्वाहेत्यपो भुवि । निर्णीय दण्ड-शिक्यादि गृहीत्वाऽथ वहिब्रजेत्” - इति ।
* एतत् एवं ब्रह्मा'- इत्यधिकः पाठः मु० पुस्तके । 1 इविष्टि, - इति मु. पुस्तके पाठः ।
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५४०
पराशरमाधवः
दण्डादीनां मन्त्रानाह वौधःयतः, -
“सखा मेत्यादिना दण्ड गृहीयाद गुरुणाऽपितम् । येन देवाः पवित्रणेत्युक्त्वा जलपवित्रकम् ।। यदस्य पारे रजसः शुक्रमित्यपि शिक्यकम् । व्याहृतीभिस्तथा पात्रमथ कौपीनमित्यचा। युवा सुवासा इत्येवं तच्छंयोरुपवीतकम्। एतद् गृहीत्वा निष्कम्य स्वग्रामं वान्धवांस्त्यजेत् ॥
निःस्पृहोऽन्यत्र गत्वैव ब्रतैः स्वैवर्तयेत् सदा" - इति । एतच्च जलपवित्रादिकं चतुर्विधेषु भिक्षुष प्रथम-द्वितीय-विषयम् । चातुविध्यन्तु भिक्ष णां हारीत आह, -
"चतुर्विधा भिक्षवस्तु प्रोक्ताः सामान्यलिमिनः ॥ तेषां पृथक् पृथक् ज्ञानं वृत्तिभेदात् कृतं च तत् । कूटीचरो* वहूदको हंसश्चैव तृतीयकः ॥
चतुर्थः परमोहंसो यो यः पश्चात् स उत्तमः"। - इति । पितामहो पि, -
"चतुविधा भिक्षवस्तु प्ररव्याता ब्रह्मणो मुखात् । कूटोचरो बहूदको हंसश्चैव तृतीयकः ।
चतुर्थः परहंसश्च संज्ञाभेदैः प्रकीर्तिताः” -इति । तत्राधिकार विशेषः पुराणे दर्शितः, -
"विरक्तिदिविधा प्रोक्ता तीव्रा तीब्रतरेति च । सत्यामेव तु तोब्रायां न्यसेद् योगी कूठिचरः। शक्तो वहुदके तीव्रतरायां हंस-संज्ञिते॥ मुमुक्ष : परमे हंसे साक्षाद्विज्ञान-साधने" - इति ।
* कुटीचक, - इति मु० पुस्तके पाठः। एवं परत्र सर्वत्र
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५१
पराशरमाधवः तत्र कुटीचरस्य वृत्तिविशेषमाह प्रजापतिः। “कुटीचरो नाम स्वगृहे वर्तमानः शुचिरकलुषः अहिताग्निषु मिक्षां भुजानोऽपगतकाम-क्रोधलोम-मोहोऽहहारवजित आत्माऽनुग्रहं कुरुते”। वृद्धपराशरऽपि । "कूटीचरो नाम पुत्त्रादिभिः कुटी कारयित्वा काम-क्रोध-लोभ-मोहमद-मात्सर्यादीन् हित्वा विधिवत् सन्न्यासंकृत्वा त्रिदण्ड-जलपवित्र-काषायवस्त्र-धारिणः शौचाचमन जपस्वाध्याय-ब्रह्मचर्यध्यान । तत्पराः पुत्रादेरेव मिक्षाकालेऽन्नयाच्चामात्रमुपभुञ्जाना स्तस्यां कुटयां नित्यं वसन्तआत्मानं मोक्षयन्ति" - इति । स्कन्दपुराणेऽपि, -
“कुटीचरस्तु सन्न्यस्य से खे सद्मनि नित्यशः। मिक्षामादाय भुञ्जीत स्ववन्धूनां गृहेऽथवा ।
शिखी यज्ञोपविती स्यात् त्रिदण्डी सकमण्डलुः" - इति । कुटीचरस्याशक्त-विषयत्वाद्युक्तो गृहवासादिः । तदुक्तं वौधायनेन, -
"कूटोचराः परिव्रज्य खे खे वेश्मनि नित्यशः।
मिक्षां वन्धुभ्य आदाय भुञ्जते शक्ति-संक्षयात्” - इति । बहूदकस्य वृत्ति-विशेषमाह स्कन्दः, -
"बहूदकस्तु सन्न्यस्य बन्धु-पुत्रादिवर्जितः। सप्तागारं चरेद् मैक्षमेकान्नञ्च परित्यजेत् ॥ गोवाल-रज्जु-संबन्धं त्रिदण्डं शिक्यमुद्ध तम् । जलपात्र पवित्रच रवनित्रञ्च कृपाणिकाम् ॥ शिखां यज्ञोपवीतञ्च देवताराधनञ्चरेत् ।” – इति ।
* स्त्रानशौचाचमन, - इति मु० पुस्तके पाठः । । ब्रह्मवर्याध्ययन, - इति मु. पुस्तके पाठः।
पुत्रादेव, - इति मु० पुस्तके पाठ। में युञ्जाना, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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५४२
पराशर माधवः
वृद्धपराशरोऽपि । “तत्र वहूदको नाम त्रिदण्ड- कमण्डलु - पवित्र*पात्र - काषायवस्त्रधारिणो वेदान्तार्थाववोधकाः साधुवृत्तेषु ब्राह्मणमहेषु भैक्षचर्यां चरन्त आत्मानं पितामहोऽपि -
मोक्षयन्ति" - इति ।
"वहूदकः स विज्ञ ेयः सर्व-सङ्ग - विवर्जितः । बन्धुवर्गे न भिक्षेत स्वभूमौ नैव संवसेत् ॥ निश्चलः स्थाणुभूतश्च सदा मोक्ष-परायणः । न कुट्यां नोदके सङ्ग कुर्याद् वस्त्रे च चेतसा ॥ नागरे नासने नान्ने नास्तरे नात्रिदण्डके । स्वमात्रायां न कुर्याद्रि वै रागं दण्डादिके यतिः
33
हंस- वृत्तिः स्कन्दपुराणे दर्शिता,
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विष्णूरपि,
-
"हंसः कमण्डलुं शिक्यं भिक्षापात्र' तथैव च । कम्थां कौपीन माच्छाद्यमङ्गवस्त्र वहिःपटम् ॥ एकन्तु वैणवं दण्डं धारयेन्नित्यमादरात् । देवतानामभेदेन कुर्याद्र्ध्यानं समर्चयेत्” ॥
Sw
पितामहपि,
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-
-
"यज्ञोपवीतं दण्डञ्च वस्त्र जन्तु निवारणम् ।
तावन् परिग्रहः प्रोक्तो नान्यो हंस- परिग्रहः ॥” इति ॥
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• इति ॥
'हंसस्तृतीयो विज्ञ ेयो भिक्षु मक्षि-परायणः । नित्यं त्रिषवणस्रायी त्वाद्र वासा भवेत् सदा ॥
* पद्मपवित्र – इति मु० पुस्तके पाठः ।
॥ -
- इति ॥
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पराशरमाधवः
५४३ चान्द्रायणेन वर्तेत यति-धर्मानुशासनात्।
वृक्षमूले वसेन्नित्यं गुहायां वा सरित्-तटे ॥” – इति ॥ बौधायनोऽपि, -
"हंसाः कमण्डलु शिक्यं दण्डपात्राणि विभ्रतः । ग्राम-तीर्थंकरात्राश्च नगरे पञ्चरात्रकाः । त्रि-षडात्रोपवासाश्च पक्ष-मासोपवसिनः ।
कृच्छ्र-सान्तपनाद्यश्च यज्ञः कृशवपुर्धराः।" - इति । परमहंस-वृत्तिः स्कन्दपुराणे दर्शिता, -
"कौपीनाच्छादनं वस्त्र कन्यां शीत-निवारिणीम् । अक्षमालाउच गृह्णोयात् वैणवं दण्डमव्रणम् । माधूकर मथैकान्नं पर हंसः समाचरेत् । परहसस्त्रिदण्डञ्च रज्जं गोवाल-निर्मिताम् । शिखां यज्ञोपवीतञ्च नित्यं कर्म परित्यजेत्” । - इति ॥
अत्र केचिच्छद्धा-जाड्य न सन्ध्यावन्दन-गायत्रो शिखा-यज्ञोपवीत. त्यागमसहमानाः यथावर्णितं पारमहस्यं विद्विषन्ति। उदाहरन्ति व कानिचिद् वचनानि। तत्र हारीतः, -
“चत्वार आश्रमा ह्य ते सन्ध्यावन्दन-वजिताः। ब्राह्मण्यादेव होवन्ते यद्यप्युप्रतपोधनाः ॥" - इति। बौधायनोऽपि, -
“अनागतान्तु ये पूर्वामनतीतान्तु पश्चिमाम् । सन्ध्यां नोपासते विप्राः कथन्ते ब्राह्मणाः स्मृताः।" - इति।।
* नधूकर, - इति स० पुस्तके पाठः ।
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५४४
पराशरमाधवः स्मृत्यन्तरेऽपि, -
“सायं प्रातः सदा सन्ध्यां ये वित्रा नो उपासते।
काम तान् धार्मिको राजा यूद्र-कर्मसु योजयेत् || - इति ।। मनुरपि, -
"सावित्री-पतिता व्रात्या भवन्त्यार्य-विगहिताः ।” - इति ।। अत्रिरपि, -
"यज्ञोपवीतं सर्वेषां द्विजानां मुक्ति-साधनम् ।
परित्यजन्ति ये मोहान्नरा निरयगामिनः ॥” - इति ।। पापुराणे, - ____ "शिखा-यन्त्रोपवीतेन त्यक्तेनासौ कथं द्विजः ।" - इति ॥ मैवं । एतेषां वचनानां परमहंस-व्यतिरिक्त-विषत्वेनाप्युपपत्तेः । पारमहंस्यन्तु बहुषु प्रत्यक्षश्रुतिष्पलभ्यमानं केन प्रदष्टुं शक्यम् । तथा च जावालश्रुतिः। तत्र परमहंसा नाम संवर्तकारुणिक श्वेतकेतदुर्वास निदाघजड़भरतदत्तात्रेयरैवतकप्रभृतयो व्यक्तलिङ्गा अव्यक्ताचारा अनुन्मचा उन्मत्तवदाचरन्ति" - इति। तेषाञ्च शिखादित्याग आत्मज्ञानादिधाश्च तत्रैव श्रुताः। “दण्डं कमण्डलं शिक्यं षात्र जलपवित्रकम् , शिखां यज्ञोपवीतं चेत्येतत् सर्व भूः स्वाहेत्यप्सु परित्यज्यात्मानमन्विच्छन् यथारूपधरी निन्द्री निष्परिग्रहः तत्वब्रह्ममार्गे सम्मक सम्पन्नः शुद्धमानसः प्राणसन्धारणार्थ यथोक्तकाले विमुक्तो भैक्षमाचरन् करपात्रेण* लामालाभयोः समो भूत्वा, शून्यागार-देवगृह-तृगकूट-वल्मीक वृक्षमूलकुलालशालाऽग्निहोत्र-नदीपुलिन-गिरिकहर-कन्दर कोटर - निर्झर
* उदपारण, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
५४५
स्थण्डिलेष्वनिकोतवानप्रयत्नो निर्ममः शक्लध्यानपरायणोऽध्यात्मनिष्ठोऽशुद्धकर्म-निर्मूलन-परः संन्यासेन देहत्याग करोति स परमहंसो नाम" - इति ।
तस्यामेव च श्रुतौ जनक-याज्ञवल्क्य-संवाद-रूपेण यज्ञोपवीतत्यागमाक्षिप्य समाहितम्। “पृच्छामि त्वां याज्ञवल्क्य नायज्ञोपवीती कथं ब्राह्मण इति । स होवाच याज्ञवल्क्यः इदमेवास्य यज्ञोपवीतं यः आत्मेति" - इति । आरुणिश्रुतावपि पारमहंस्यं प्रपञ्चितम् । "आरुणिः प्रजापतेर्लोकं जगाम तं गत्वोवाच केन भगवन् कण्यिशेषतो विसृजानीति। ते होवाच प्रजापतिः तव पुत्रान् भ्रातृन् वन्ध्वादीन् शिखायज्ञोपवीते यागं सूत्र स्वाध्यायञ्च भूलॊकं भूवलोकं स्वर्लोकं महोलोकं जनलोकं तपोलोकं सत्यलोकं चातल-वितल. सुतल तलातल-महातल-रसातल-पातालं ब्रह्माण्डच विसर्जयेत्। दण्डमाच्छादनं कौपीनं परिगृहेत्, शेषं विसृजेत्। ब्रह्मचारी गृहस्थो वानप्रस्थो वा लौकिकाग्नीनुदराग्नौ समारोपयेत्। गायत्री च शरीराग्नौ * समारोपयेत्। उपवीतं भूमौ वाप्सू वा विसृजेत् ।। दण्डान् लोकाग्नीन् विसृजेदिति होवाच। अत ऊद्धममन्त्रवदाचरेदूद्धगमनं विसृजेत्रित्रसन्ध्यादौ स्नानमाचरेत्। सर्वेषु देवेष्वाचरणमावर्तयेदुपनिषदमावर्त्तयेत्” -- इति। मैत्रावरुणश्रुतवपि । “इन्द्रस्य वजोऽसीति त्रीन्वैणवान् दण्डान् दक्षिणपाणी धारयेदेकं वा, यद्य कं तदा सशिखं वपनं कृत्वा विसृज्य यज्ञोपवीतम्” - इति । पिप्पलाद शाखायामपि, -
“सशिवं वपनं कृत्वा वहिःसूत्र त्यजेद्वधः। यदक्षरं परं ब्रह्म तत्सूत्रमिति धारयेत् ॥
* स्वभावाचानौ, - इति मु० पुस्तके पाठः । i कुटोचको ब्रज्ञचारो कुटुम्वं विसृजेत् विप्रत्वं विसृजेत् पात्र विसृजेत्, -
इत्यधिकः पाठः मु० पुस्तके ।
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५४६
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व्यासस्मृतावपि -
पराशर माधवः
सूचनात् सूत्रमित्याहः सूत्र' नाम परंपदम् । तत्सूत्र' विहितं येन स विप्रो वेदपारगः ॥ येन सर्व्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव । तत्सूत्र धारयेद्योगी योगवित्तत्त्वदर्शिवान् ॥ वहिः सूत्र' त्यजेद्विद्वान् योगसूत्र' समास्थितः । ब्रह्मभावमिदं सूत्रं धारयेद्यः स चेतनः ॥ धारणादस्य सूत्रस्य नोच्छिष्टो नाशुचिर्भवेत् । सूत्रमन्तर्गतं येषां ज्ञानयज्ञोपवीतिनाम् ॥ ते वै सूत्रविदो लोके ते च यज्ञोपवीतिनः । ज्ञान शिखाज्ञाननिष्ठाज्ञानयज्ञोपवीतिनः ॥ ज्ञानमेव परं तेषां पवित्र ज्ञानमुच्यते । अग्नेरिव शिखा नान्या यस्य ज्ञानमयो शिखा ॥ सशिखीत्युच्यते विद्वान्नेतरः केशधारणैः । कर्मण्यधिकृता ये तु वैदिके ब्राह्मणादयः । एमिर्धार्य्यमिदं सूत्र क्रियाङ्ग' तद्धि वै स्मृतम् । शिखा ज्ञानमयी यस्य उपवीतं च तन्मयम् ॥ ब्राह्मण्यं सकलं तस्य इति ब्रह्मविदो विदुः ।
इदं यज्ञोपवीतन्तु परमं यत्परायणम् ॥
विद्वान् यज्ञोपवीती स्यात् यज्ञास्तं यज्वनं विदुः" - इति ।
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"यज्ञोपवीतं कर्म्माङ्ग' वदन्त्यु तमबुद्धयः । उपकुर्व्वाणकात् पूर्वं यतो लोके न दृश्यते ॥ यावत् कर्माणि कुरुते तावदेवास्य धारणम् । तस्मादस्य परित्यागः क्रियते कर्म्मभिः सह ॥
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पराशरमाधवः
५४७
अग्निहोत्र-विनाशे तु जुहादीनि यथा त्यजेत् ॥ यथा च मेखलादीनि गृहस्थाश्रम-वाञ्छया। पत्नी योक्त्र यथेष्टयन्ते सोमान्ते च यथा ग्रहान् ॥ तद्वद्यज्ञोपवीतस्य त्यागमिच्छन्ति योगिनः" -- इति ।
विश्वामित्रोऽपि, – “अथापरं परिव्राजकलिङ्ग सर्वतः परिमोक्षमेके सत्यानृते सुखदुःखे वेदानिमं लोकममुं च परित्यज्यात्मानमन्विच्छेत् शिखा-यज्ञोपवीत कमण्डलु-कपालानां त्यागी"-इति। बौधायनोऽपि । “अतऊद्ध यज्ञोपवीतं मन्त्रमाच्छादनं यष्टयः शिक्यं जलपवित्र कमण्डलं पात्रमित्येतानि वर्जयित्वा वैणवं दण्डमादत्ते सखामगोपाय" -- इति । स्मृत्यन्तरे)पि, -
“यदा तु विदितं तत् स्यात् * परब्रह्म सनातनम् ।
तदैकदण्डं संगृहा उपवीतं शिखां त्यजेत्” - इति । अत्र केचिदाह्रः। उपवीत-त्यागवचनानि पुरातन यज्ञोपवीतविषयाणि। तथा च स्मृतिः। “नखानि निकृत्य पुराणं वस्त्रं यज्ञोपवीतं कमण्डलु त्यक्त्वा नवानि गृहोत्वा ग्रामं प्रविशेत्” - इति। यदाऽऽचमनाङ्ग यज्ञोपवीतं न स्यात् तदा ब्राह्मणादेव होयते। तस्मादस्ति परमहंसस्यापि यज्ञोपवीतम् ,- इति ।
तदयुक्तम्, उदाहतस्मृतेर्बहृदकादि विषयत्वात् । “न यज्ञोपवीतं नाच्छादनञ्चरति परमहंसः”- इति श्रुतेः। “अयज्ञोपवीती शौचनिष्ठः काममेकं वैगवं दण्डमादधीत” - इति श्रुत्यन्तराच्च । न च ब्राह्योपवीतमन्तरेणाचमनाद्यसम्भवः, कौषीतकिब्राह्मणे प्रश्नोत्तराभ्यां तदुपपादनात्। “किमस्य यज्ञोपवीतं का शिखा
* तत्त्वात्, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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५४७
पराशरमाधवः कथञ्चास्योपस्पर्शनम्” - इति प्रश्नः। “इदमेवास्य यज्ञोपवीतं यदात्मध्यानं विद्या शिखा” - इत्याच त्तरम् । व्राह्मण्यन्तु विज्ञानमय शिखायज्ञोपवीतिन एव पुष्कलम् , - इति पिप्यलादश्रुता. वुदाहृतम् । - केचिन्तु परमहंसस्यापि त्रिदण्डमिच्छन्ति, उदाहरन्ति च वचनानि। तत्र दक्षः, सर्वेषामाश्रमिणां क्रमेण लक्षणमभिदधानः "त्रिदण्डनयतिश्चैव” – इति यतेर्लक्षणमभिधाय, त्रिदण्डरहितस्य यतित्वं निषेधति, -
“यस्यैतल्लक्षणं नास्ति प्रायश्चित्ती न चाश्रमो” -- इति । हारीत-दत्तात्रय-पितामहाः कुटीचरादीन् चतुरोऽप्युपन्यस्य सर्वेषां त्रिदण्डमेव विदधते, -
“वृत्तिभेदेन भिन्नाश्च नैव लिङ्गन ते द्विजाः। लिङ्गन्तु वैणवं तेषां त्रिदण्डं सपवित्रकम्” - इति ।
अविरपि, -
"शिखिनस्तु श्रुताः केचित् केचिन्मुण्डाश्च भिक्षुकाः ।
चतुर्दा भिक्ष काः प्रोक्ताः सर्वे चैव त्रिदण्डिनः" - इति । एकदण्ड-वचनानि तु त्रिदण्डालाम-विषयाणि । तदाह मेधातिथिः, -
“यावन्न स्युस्त्रिदण्डास्तु तावदेकेन पर्यटेतू” – इति । हारीतोऽपि, -
"नष्टे जलपवित्र वा त्रिदण्डे वा प्रमादतः । एकन्तु वैणवं दण्डं पालाशं वैल्वमेव वा। गृहोत्वा विवरेत्तावद्यावल्लम्येत् त्रिदण्डकम्” -- इति ।
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पराशर माधवः
५४९
अत्रोच्यते । परमहंसस्यैकदण्ड- निराकरणे वह्नागम-विरोधः स्यात् उदाहृताश्च परमहंसस्यैक - दण्ड प्रतिपादकाः श्रुति स्मृतयः । * एवं सति मेधातिथि- हारीताभ्यां यदेकदण्डस्यानुकल्पत्वमुक्तं, तद्वदकादि विषयं भविष्यति । परमहंसस्य तु नैकदण्डोऽनुकल्पः । यतो व्यास आह,
-
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-
“त्रिदण्डस्य परित्याग एकदण्डस्य धारणम् ।
एकस्मिन् दृश्यते वाक्ये तस्मादस्य प्रधानता” ॥
-
इति ॥
यत्त, "सर्वे चैव त्रिदण्डिनः” - इति, तद्वाग्दण्डादिविषयं न तु यष्टि-त्रयामित्रायम् । तथा च मनुः, -
“वाग्दण्डोऽथ मनोदण्डः कर्मदण्डस्त्रथैव च । यस्यैते नियता बुद्धौ त्रिदण्डीति स उच्यते ॥ त्रिदण्डमेतत् निःक्षिप्य सर्वभूतेषु मानवः । कामक्रोधौ तु संयम्य ततः सिद्धिं निगच्छति ॥" दक्षोऽपि,
" वाग्दण्डोऽथ मनोदण्डः कर्मदण्डस्तथैव च । यस्यैते नियता दण्डा स्त्रिदण्डीति स उच्यते ॥”
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एतेषां च त्रयाणां दण्डानां स्वरूपं स एवाह,
यदपि पितामहेनोक्तं,
f
“वाग्दण्डो मौनता प्रोक्ता कर्मदण्डस्त्वनीहता । मानसस्य तु दण्डस्य प्राणायामी विधीयते ॥”
-
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इति ॥
इति ॥
इति ॥
परः परमहंसस्तु तुर्याख्यः श्रुतिरव्रवीत् । यमैश्च नियमैर्युक्तो विष्णुरूपी त्रिदण्डभृत् ” - इति ॥
"
* प्रतिपदिका, – इवि पाठो भवितु' पुक्तः ।
वग्दण्डो मौनमाविष्ठेत् कर्मदण्डे त्यनोहताम्. - इति स० शा० पुस्तकेषु पाठः ।
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५५०
पराशरमाधवः तदप्युक्तरीत्या वाग्दण्डाद्यभिप्रायम् । यदपि, - ___“लिङ्गन्तु वैणवं तेषां त्रिदण्डं सपवित्रकम् " - इति यष्टि-त्रयाभिधानं, तदपि वहूदक-विषयत्वेनोपपन्नम्। योहि वहूदक एव सन् ग्रामैकरात्रादिकां* हंसवृत्तिमाचरति, स वृत्तितो हंसो भवति । वेदान्त-श्रवणादिकां परमहंसवृत्तिं चेदाश्रयति, तदा वृत्तितः परमहसो भवति। तेषां हसादीनां त्रिदण्डमेव लिङ्गम् । अननवाभिप्रायेण, - ___"वृत्तिमैदेन भिन्नाश्च नैव लिने न ते द्विजाः' - इति । अन्यथा मुख्ययोहसयोरेकदण्ड-विधायकान्युदाहृतानि वचनानि निविषयाणि स्युः। तस्मादेक एव दण्डः परमहंसस्य। ननु. परमहसोपनिषदि एकदण्डोऽप्यमुख्येनैव श्रूयते। “कौपीनं दण्डमाच्छादनञ्च स्वशरीरोपभोगार्थाय च लोकस्योपकारार्थाय च परिग्रहेत् , तच्च । न मुख्योऽस्ति, को मुख्य इति चेदयं मुख्यो न दण्डं न शिक्यं नाच्छादनं चरति परमहसः' - इति। वाढम् । नास्त्येव विद्वत्-परमहंसस्य वाह्ययष्टयुपयोगः। अतएव वाक्यशेषे ज्ञानमेव तस्य दण्डः, - इत्युक्तम् ,
"ज्ञानदण्डोधृतो येन एकदण्डी स उच्यते” - इति । यष्टि-धारणन्तु विविदिषोः परमहसस्य। न च विद्-विविदिषुभेदेन पारमहस्य-द्वविध्ये मानामावः शनीयः। वाजमर्न यिव्राह्मणे तदुपलम्भात्। “एतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकेषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्य चरन्ति" - इति विद्वत्संन्यासे प्रमाणम। एतमेव विदित्वा मुनिर्भवत्येतमेव
* ग्रामैकरात्रिकां, - इति मु० पुस्तके पाठः । विस्य, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
प्रवाजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्रजन्ति” - इनि चान्यस्मिन् । एतद्वाक्ये विद्वद्विविदिषुसंन्यासी उभावपि विस्पष्टमवगम्येते। “एतत् सर्व भूः स्वाहेत्यप्सु परित्यज्यात्मानमन्विच्छेत्” - इति जावालवाक्ये त्रिदण्डादि-परित्यागात्मकं विविदिषु-पारमहंस्यमाम्नातम् । श्रुति। "न्यास इति ब्रह्म ब्रह्म हि परः परो हि ब्रह्म तानि वा एतान्यः पराणि तपांसि न्यास एवात्यरेचयत्” - इत्यग्निहोत्रयज्ञ-दानादितपो-निन्दापुःसरं पारमहंस्यं विधाय तस्य परमहंसस्य विविदिषोरात्मविद्याधिकारं दर्शयति, “ओमित्येतमात्मानं युञ्जीत' - इति । तस्माद् द्वविध्य-सद्भावाद् दण्डादिनिवारणमशेष-कर्मशून्य-विद्वद्पारमहंस विषयम् । विदुषः कर्त्तव्य-शून्यतां भगवानाह, -
“यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्यन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते” – इति ।
दक्षोऽपि, -
"नाध्येतव्यं न वक्तव्यं न श्रोतव्यं कदाचन। एतैः सर्वैः सुनिष्पन्नो यतिर्भवति नान्यदा" - इति ।
स्मृत्यन्तरेऽपि, -
“ज्ञानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः।
नैवास्ति किञ्चित् कर्त्तव्यमस्ति चेन्न स सर्ववित्' - इति। वह चब्राह्मणेऽपि । “एतद्ध स्म वै तद्विद्वांस आहुः कौषेयाः किमर्थावयमध्येष्यामहे किमर्था वयं यक्ष्यामहे' - इति । विविदिषोस्तु श्रवण-मननादि-कर्त्तव्यसद्भावात् तदुपकारित्वेन दण्डधारणादिनियम उपपद्यते। ननु-ज्ञान-रहितस्यापि दण्डप्रतिषेध आम्रायते,
"काष्ठदण्डो धृतो येन सर्वाशी ज्ञान-वर्जितः । स याति नरकान् घोरान् महारौरव-संज्ञितान्" ॥
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५५२
पराशरमाधवः नायं दोषः। विद्यां विविदिषाञ्च विना जीवनार्थमेव केवलमेकदण्डं यो धत्ते तद्विषयत्वात् प्रतिषेधस्य । अतएव सर्वाशीति विशेषितम् । स्मृत्तावपि, -
“एकदण्डं समाश्रित्य जीवन्ति वहवो नराः।
नरके रौरवे घोरे कर्म-त्यागात् पतन्ति ते" - इति । युक्तश्च नरक-पातः, सत्यपि व्राह्मदण्ड़े पाप-निवर्त्तकानामान्तरदन्डानामभावात्। पाप-निवर्तकत्वञ्च कालिकापुरणे दर्शितम् , -
"वैणवा ये स्मृता दन्डा लिङ्गमात्र-प्रवोधकाः। लिङ्गव्यक्तौ हि धार्यास्ते न पुनर्धर्म-हेतवः । कायजा ये बुधैनित्यं नृणां पाप-विभोक्षणात् ।
जितेन्द्रियै जितक्रोधै र्धा- वै तत्त्वदर्शिभिः" - इति । ये कायजास्त्रयोदन्डास्ते पाप-विभोक्षणाय धार्याः – इत्यन्वयः । नन्वेकदन्ड-त्रिदन्डयोविकल्पः कचित् स्मय॑ते । तत्र, विष्णुवौधायनौ, -
“एकदण्डी भवेद्वाऽपि त्रिदण्डो वा मुनिर्भवेत्” – इति । व्यासः, -
"त्रिदण्डमेकदण्ड वा व्रतमास्याय तत्त्ववित् ।
पर्फाटेत् पृथिवी नित्यं वर्षाकाले स्थिरीभवेत्” - इति । शौनकोऽपि । “अथ कषायवासाः सख मा गोपायेति त्रिदण्ड मेकदण्ड वा गृहाति" - इति। आश्वमेधिके भगवद्गवचनम् , -
"एकदण्डो त्रिदण्डी वा शिखो मुन्डित एव वा । काषायमात्रसारोऽपि यतिः पूज्यो युधिष्ठिर” – इति।
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तत्र वौधायनः,
पराशर माधवः
५५३
वादम । उक्तरीत्या तयोर्व्यवस्था द्रष्टव्या । तत्र, कूटीचर- वहदकयोस्त्रिदन्ड, हंस- परमहंसयोरेकदन्डः । तथा सति तत्र तत्रो - दाहृतानि वचनानि उपपद्यन्ते ।
तदेवं चतुर्विधः संन्यासी निरुपितः ।
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मनुरपि,
www
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"उषःकाले समुत्थाय शौचं कृत्वा यथाविधि । दन्तान् विमृज्य चाचम्य पर्ववज्र्ज यथाविधि । स्नात्वा चाचम्य विधिवत्तिष्ठन्नासीन एव वा ॥ विभ्रज्जल पवित्रं वाऽप्यक्षसूत्र करद्वये । तद्वत् पवित्रेगोवालैः कृते दुष्कृतनाशने । उदये विधिवत् सन्ध्यामुपास्य त्रिकजप्यवान् । मित्रस्य चर्षणीत्याद्य रुपस्थाय परि त्रिभिः * ।
पूर्व्ववत् तर्पयित्वाऽथ जपेत् सम्यक् समाहितः” - इति ।
अथ तद्धर्मा निरूप्यन्ते ।
" एकएव चरेन्नित्यं सिद्धयर्थं मसहायकः ।
सिद्धिमेकस्य संपश्यन् न जहाति न हीयते" - इति ॥
एकस्यासहायस्य विचरतो रागद्वेषादि प्रतिवन्धाभावात् ज्ञानलक्षणां सिद्धिं निश्चिन्वन् तां सिद्धिं न जहाति तस्यां सिद्धावप्रत्यूहेन
* पवित्रिभिः - इति पाठात्तरम् ।
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५५४
पराशरमाधवः प्रवत्तते, प्रवृत्तश्च तस्याः सिद्धर्न हीयते किन्तु पारं गच्छति। यदा तु द्वितीय-तृतीय-पुरुष-सहायवान् विचरेत्तदा रागद्वेषसम्भवादुक्तसिद्धीयते। अतएव दक्षः, -
"एकोभिक्ष यथोक्तस्तु द्वावेव मिथुनं स्मृतम् । त्रयोग्रामः समाख्याताऊद्धन्तु नगरायते॥ नगरन्तु न कर्त्तव्यं ग्रामोऽपि मिथुन तथा। एतत्रयं प्रकुर्वाणः स्वधर्मात् च्यवते यतिः ॥ राजवार्ता हि तेषाञ्च भिक्षा-वार्ता परस्परम् ।
स्नेह-पैशुन्य-मात्सर्य सन्निकर्षान्न संशयः" ॥ यदा तु श्रवणादि-सम्पत्त्यभावादात्मज्ञान-सिद्धौ स्वयमशक्तः स्यात्, तदा तत्र शक्त न द्वितीयेन सह विचरेत्। यथा श्रुतिः। “वर्षासु ध्रु वशोलोऽष्टौ मासानेकाकी यतिश्चरेत् द्वौ वा चरेत्”। चरेता. मित्तः । एकाकी विचरेत् सर्वभूतेभ्यो हितमाचरेत्। तदाह याज्ञवल्क्यः , - ___ सर्वभूत-हितः शान्तः विनण्डी सकमण्डलुः ।
एकारामः परिव्रज्य भिक्षार्थं ग्राममाविशेत्” – इति । हिताचरणं नाम हिंसाऽननुष्ठानमात्रं न पुनरुपकारेषु प्रवृत्तिः । "हिंसाऽनुग्रयोरनारम्भः" -- इति गोतमस्मरणात् । अतएवाहिंसादीनाहात्रिः, -
"अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यापरिग्रहो। भावशुद्धिहरेभक्तिः सन्तोषः शौचमार्जवम् ॥ आस्यिक्यं ब्रह्मसंस्पर्शः स्वाध्यायः समदर्शनम् । अनौद्धत्यमदीनत्वं प्रसादः स्थैर्य-मार्दवे। सस्नहो गुरुशुश्रूषा श्रद्धा क्षान्तिर्दमः शमः । उपेक्षा धैर्य-माधुर्ये तितिक्षा करुणा तथा।
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पराशरमाधवः
५५५
हास्तपोबान-विज्ञाने योगो लघ्वशनं धृतिः । स्नानं सुरार्चनं ध्यानं प्राणायामो वलिः स्तुतिः । भिक्षाटनं जपः सन्ध्या त्यागः कर्मफलस्य च । एष स्वधर्मो विख्यातो यतीनां नियतात्मनाम् ।" - इति ।
प्रव्रज्यां कृत्वापि गुरोः समोपे ब्रह्मज्ञानपर्यन्तं निवसेत् । तदुक्तं लिङ्गपुराणे, -
"आश्रमत्रयमुक्तस्य* प्राप्तस्य परमाश्रमम् । ततः संवत्सरस्यान्ते प्राप्य ज्ञानमनुत्तमम् । अनुज्ञाप्य गुरुश्चैव चरेद्धि पृथिवीमिमाम्। त्यक्तसङ्गो जितक्रोधो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः ॥ पिधाय बुद्धया द्वाराणि ध्यानेनैकमना भवेत्।" - इति ।
मत्स्य
पुराणेऽपि, - "गुरोरपि हिते युक्तः स तु संवत्सरं वसेत् । नियमेष्वप्रमत्रस्तु यमेषु च सदा भवेत् ॥ प्राप्य चान्ते ततश्चैव ज्ञानयोगमनुत्तमम् । अविरोधेन धर्मस्य चरेत पृथिवी यतिः ॥"- इति ।
संवत्सरमित्युपलक्षणं, यावज्ज्ञानं तावन्निवसेत्। गृहसमोप-वासस्य ज्ञानार्थत्वात्। पृथिवी-विचरणे विशेषमाह कण्वः, -
"एकरात्र वसेत् ग्रामै नगरे पञ्चरात्रकम् । वर्षाभ्योऽन्यत्र वर्षासु मांसांश्च चतुरो वसेत् ॥”- इति ॥
* अनमत्रयमुर्सृज्य, - इति मु० पुस्तके पाठः।
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१५६
पराशरमाधवः
मत्स्य पुराणेऽपि, -
"अष्टौ मासान् विहारः स्याद्यतीनां संयतात्मनाम् । एकत्र चतुरो मासान् वार्षिकान् निवसेत् पुनः ॥ अविमुक्ते प्रविष्टानां विहारस्तु न विद्यते ।
न दोषो भविता तत्र दृष्टं शास्त्र पुरातनम् ।" - इति । चातुर्मास्य-निवासे प्रयोजनमाह मेधातिथिः, -
"संरक्षणार्थ जन्तूनां वसुधातलचारिणाम् । आषाढ़ादोश्च चतुर आ मासान् कार्तिकाद् यतिः॥
धर्मात्ये जलसम्पन्ने ग्रामान्ते निवसेच्छुचिः।" -- इति। अन्यानपि हेयोपादेयांश्च धर्मान् संगृह्याह स एव, -
“श्रद्धया परयोपेतः परमात्म-परायणः । स्थूलसूक्ष्मशरीरेभ्यो मुच्यते दशषट्कवित् । त्रिदण्डं कुण्डिकां कन्यां मैक्ष-भाजनमासनम् । कौपीनाच्छादनं वासः षड़ेतानि परिग्रहेत् ॥ स्थावरं जङ्गमं वीजं तैजसं विषयायुधम् | षड़ेतानि न गृह्णीयाद् यति मंत्रपुरीषवत् ॥ रसायनं क्रियावाद ज्योतिष क्रयविक्रयम् । विविधानि च शिल्पानि वर्जयेत् परदारवत् ।। भिक्षाटनं जपं स्नानं ध्यानं शौचं सुरार्चनम् । कर्त्तव्याणि षड़ेतानि सर्वथा नृप ! दण्डवत् ॥ नटादि-प्रेक्षणं । तं प्रमदां सुहृदं तथा। भक्ष्यं भोज्यमुदक्यां च षण्न पश्येत् कदाचन । स्कन्धावारे खले सार्थे पुरे ग्रामे वसद्गृहे ॥
* विषमायुधम्, - इति स० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
१५७
न वसेत यतिः षटसु स्थानेष्वेतेषु कहिंचित् । राग द्वेषं मदं मायां दम्भ मोह परात्मसु ॥ षड़ेतानि यतिनित्यं मनसापि न चिन्तयेत् । मञ्चकं शुक्लवस्त्रञ्च स्त्रीकथां लौल्यमेव च ॥ दिवास्वापञ्च यानञ्च यतीनां पतनानि षट् । संयोगंच वियोगगंच वियोगस्य च साधनम् ॥ जोवेश्वरप्रधानानां स्वरूपाणि विचिन्तयेत्। आसनं पात्र-लोपश्च सञ्चयाः शिष्य-सङ्गहः ॥ दिवास्वापो वृथाजल्पो यतेबन्ध-कराणि षट् । एकहात्परतो ग्रामे पञ्चाहात् परतः पुरे । वर्षाभ्योऽन्यत्र तत्-स्थान*मासनं तदुदाहृतम् । उक्तानां यति-पात्राणामेकस्यापि न सङ्ग हः ॥ भिक्षोभैक्षभुजश्चापि पात्र-लोपः स उच्यते । गृहीतस्य त्रिदण्डादेद्वितीयस्य परिग्रहः ॥ कालान्तरोपभोगार्थ सञ्चयः परिकीर्तितः। शुश्रूषा-लाभ-पूजार्थ यशोऽथं वा परिग्रहः ॥ शिष्याणां न तु कारुण्यात् सस्नेहः शिष्यसंग्रहः । विद्या दिवा प्रकाशत्वादविद्या रात्रिरुच्यते ॥ विद्याभ्यासे प्रमादो यः स दिवास्वाप उच्यते। आध्यात्मिकी कथां मुक्त्वा शैक्षचर्या सुरस्तुतिम् ॥ अनुग्रहप्रदप्रश्नो वृथाजल्पः स उच्यते । अजिह्वः षण्डकः पङ्ग रन्धो वधिर एव च ॥ मुग्धश्च मुच्यते भिक्ष ः षड्भिरेतैर्न संशयः। इदं मृष्टमिदं नेति योऽश्नन्नपि न सज्जति ॥
* तद्वास, - इति स० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
हितं सत्यं मितं वक्ति तमजित प्रचक्षते । सद्योजातां यथा नारी तथा षोड़शबार्षिकीम् ॥ शतवर्षाञ्च यो दृष्टा निर्विकारः स षण्डकः । मिक्षार्थमठनं यस्य विण्मूत्रकरणाय च । योजनान्न परं याति सर्वथा पङ्ग रेव सः। तिष्उतो ब्रजतो वापि यस्य चक्षुर्न दूरगम् ॥ चतुर्युगद्वयं त्क्त्वा परिव्राट् सोऽन्ध उच्यते । हिताहितं मनोरामं वचः शोकावह यतिः * श्रुत्वा यो न शृणोतोव वधिरः स प्रकीर्तितः । सान्निध्ये विषयाणां यः समर्थोऽविकलेन्द्रियः । ॥ सुप्तवद्गवर्त्तते नित्यं स भिक्षुर्मुग्ध उच्यते॥" - इति ।
भिक्षाटनविधिमाह मनुः, -
“एककालं चरेद्भक्ष न प्रसज्येत विस्तरे। भैक्षप्रसक्तोहि यतिविषयेष्वपि सज्जते॥ विधूमे सन्न्मुषले व्यङ्गारे भुक्तवजिते । वृत्ते सराव-संपाते भिक्षां नित्य यतिश्वरेत् । अलाभे न विषादी स्याल्लामे चैव न हर्षयेत् ।
प्राणयात्रिकमात्रः स्यान्मात्रा-सङ्गाद्विनिर्गतः" ॥ - इति । मोयन्ते, - इति मात्रा विषयास्तेषां सङ्गाद्विनिर्गतो यतस्ततीन हर्ष. विषादौ काय्यौ। यमोऽपि, -
"स्नात्वा शुचिः शुचौ देशे कृतजय्यः समाहितः। मिक्षार्थी प्रविशेद्गग्रामं राग-द्वेष-विवज्जितः॥
* फोकावहन्तु यत् , - इति मु. पुस्तके पाठः । i विजितेन्द्रियः, - इति मु० पुस्तके पाठः।
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५५९
पराशरमाधवः चरेन्माधूकर भैक्षयतिम्लेंच्छ-कुलादपि । एकान्नं न तु मुजीत वृहस्पति-समोयतिः ॥ मेध्यं भैक्ष चरेन्नित्यं सायाह वाग्यतः शुचिः । एकवासा विशुद्धात्मा मन्दगामी युगान्तहक् ॥ यथालब्धं तथाऽश्नीयादाज्यसंस्कार-वज्जितम् । भक्षमाधूकरं नाम सर्व-पातक-नाशनम्” - इति ।
वौधायनोऽपि, -
“विधूमे सन्न-मुसले व्यङ्खारे भुक्तवजिते । कालेऽपराह्न भूयिष्ठे भिक्षाटनमथाचरेत् ॥ ऊद्ध जान्वोरधोनामः परिधायैकमग्वरम् । द्वितीयमान्तरं वासः पात्री दण्डी च वाग्यतः ॥ सव्ये चादाय पात्रन्तु त्रिदण्डं दक्षिणे करे । उपतिष्ठेत सूर्य्यन्तु ध्यात्वा चैकत्वमात्मना । उक्त्वा विराजनं मन्त्रमाकृष्णेन प्रदक्षिणम् । कृत्वा पुनर्जपित्वा च ये ते पन्थान इत्यपि॥ योऽसौ विष्णवाख्य आदित्ये पुरुषोऽन्तर्ह दि स्थितः। सोऽहं नारायणो देव इति ध्यात्वा प्रणम्य तम् ॥ भिक्षापात्रादि-शुद्धयर्थमवमुच्याप्युपानही । ततो ग्रामं व्रजेन्मन्दं युगमात्रावलोककः॥ घ्यायन् हरिञ्च तच्चित्ते इदं च समुदीरयेत् । विष्णुस्तियंगधोद्ध मे वैकुण्ठो विदिशन्दिशम् ॥ पातु मां सर्वतो रामो धन्वी चक्रो च केशवः । अभिगम्य गृहाद्भिक्षां भवत्-पूर्व प्रवोदयेत् ॥ गो-दोहमात्र तिष्ठेच्च वाग्यतोऽधोमुखस्ततः। दृष्टा भिक्षां दृष्टिपूतां दातुश्च कर-संस्थिताम् ॥
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५६०
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पराशर माधवः
त्रिदण्डं दक्षिणे त्व ततः सन्धाय बाहुना । उत्पाटयेच्च कवचं दक्षिणेन करेण सः ।
पात्र वामकरे क्षिप्त्वा श्लेषयेद्रदक्षिणेन तु । प्राणायात्रिकमात्रन्तु भिक्षेत विगतस्पृहः”
भौक्षस्य पञ्चविधत्वमाहोशनाः,
भिक्षान्नं प्रशंसति यमः,
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―
-
" माधूकरमसन्तप्तं प्राक् प्रणीतमयाचितम् । तात्कालिकोपपन्नञ्च भैक्ष' पञ्चविधं स्मृतम् ॥ मनः- सङ्कल्प-रहितान् गृहांस्त्रीन् सप्त पञ्चकान् । मधुवदाहरणं यत्तु माधूकर मिति स्मृतम् ॥ शयनोत्थापनात् प्राग्यत् प्रार्थितं भक्तिसंयुतैः । तत् प्राक् प्रणीतमित्याह भगवानुशना मुनिः ॥ मिक्षाऽटन-समुद्योगात् प्राक् केनापि निमन्त्रितम् । अयाचितं हि तद्भक्ष भोक्तव्यं मनुरब्रवीत् ॥ उपस्थाने च यत्प्रोक्त ं भिक्षार्थं ब्राह्मणेन ह । तात्कालिकामित्ति ख्यातं तदत्तव्यं मुमुक्षुणा ॥ सिद्धमन्नं भक्तजनैरानीतं यन्मठं प्रति । उपपन्नं तदित्याहुर्मुनयो मोक्षकाङ्क्षिणः”
इति
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इति ।
"यश्चरेत् सर्ववर्णेषु क्षमभ्यवहारतः । न स किञ्चिदुपाश्नीयादाप, मैक्षमिति स्थितिः ॥ अविन्दु यः कुशाग्रेण मासि मासि त्रयं पिवेत् । न्यायतो यस्तु मिक्षाशी पूर्ध्वो कत्तु विशिष्यते । तप्तकाञ्चनवर्णेन गवां मूत्रेण यावकम् ॥ पिवेत् द्वादशवर्षाणि न तद्भक्षसमं भवेत् । शाकभक्षाः पयोभक्षा येऽन्ये यावकभक्षकाः ॥
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पराशरमाधवः
५६१ सर्वे भैक्षभुजस्तस्य कलां नाहन्ति षोडशीम् । न मैक्षपरपाकान्नं न च मैक्ष प्रतिग्रहः ॥
सोम-पान-समं भेक्ष तस्मद्भ क्षेण वर्तयेत्” - इति । अत्र, सर्ववर्णेष्वित्यापद्विषयम् । अतएव वौधायनोऽपि, -
"ब्राह्मण-क्षत्रिय-विशां मेध्यानामन्नमाहरेत् । असम्भवे तु पूर्वस्याप्याददीतोत्तरोत्तरम् ॥ सर्वेषामप्यभावे तु भक्षद्वयमनश्नता।
भोक्ष शूद्रादपि ग्राहा रक्ष्याः प्राणा विजानता" - इति । नच मिक्षां लन्धुमुल्कापाताद्य त्पात-कथनं ग्रहदौस्थ्यादि-कथनमन्यं वा कञ्चिदुपाधि सम्पादयेत् । तदाह वौधायनः, -
“न चोत्पात-निमित्ताभ्यां न नक्षत्राङ्ग-विद्यया । नानुशासनवादाभ्यां भिक्षां लिप्सेत कहिंचित्” – इति।
वय॑मन्नमाहात्रिः, -
हितं मितं सदाऽश्नीयाद्यत् सुखेनैव जोय॑ति । धातुः प्रकुप्यते येन तदन्नं वर्जयेद्यतिः। उदक्या-चोदितं चान्नं द्विजान्नं शूद्र-चोदितम् ॥ प्राण्यङ्ग चापि सक्लुप्त* तदन्नं वर्जयेद्यतिः । पित्रर्थ कल्पितं पूर्वमन्नं देवादि-कारणात् ॥
वर्जयेत्तादृशीं मिक्षां परवाधाकरी तथा” - इति । परवाधा-प्रसक्तिमेवाभिप्रेत्य मनुराह, -
“न तापसैाह्मणैर्वा वयोभिरथवा श्वभिः । आकीर्ण भिक्षुकैाऽन्येरगारमुपसंव्रजेतू” - इति ।
* प्राण्यङ्ग वाससे क्रूप्तं,- इति मु० पुस्तके पाठः ।
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५६२
पराशरमाधवः
यस्तु भिक्षां दातु' शक्तोऽपि नास्तिक्यान्न प्रयच्छति, तद्गृह वर्जये दित्याह वौधायनः, -
भिक्षा न दद्य: पञ्चाह' सप्ताह वा कदाचन । यस्मिन् गृहे जना मोात्त्यजेच्चण्डाल-वेश्मवत्' - इति । .
अनिन्द्य-गृहस्य वजने वाघमाह सएव, -
“साधु चापतितं विप्रं यो यतिः परिवर्जयेत् ।
स तस्य सुकृतं दत्वा दुष्कृतं प्रतिपद्यते" --- इति । यस्तु दरिद्रः श्रद्धालुतया स्वयमुपोष्यापि मिक्षां प्रयच्छति, तस्य मिक्षा न ग्राह्या। तदुक्त स्मृत्यन्तरे, -
"आत्मानं पीडयित्वाऽपि भिक्षां यः संप्रयच्छति ॥
सा मिक्षा हिंसिता ज्ञया नादद्यात्तादृश यतिः" - इति । मिक्षार्थ वहुषु गृहेष पर्यटितुमलसं प्रत्याह वौधायनः, -
"एकत्र लोभाद्र यो भिक्षुः पात्रपूरणमिच्छति ।
दाता स्वर्गमवाप्नोति भोक्ता भूजीत किल्विषम्"- इति । यतिपात्र विविनक्ति मनुः, -
"अतैजसानि पात्राणि तस्य स्युनिर्बणानि च । तेषामद्भिः स्मृतं शौचं चमसानामिवाध्वरे ॥ अलाबु दारुपात्र वा मृन्मयं वैणवन्तथा। एतानि यति पात्राणि मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्" - इति ।
यमोऽपि, -
"हिरण्मयानि प्रात्राणि कृष्णायसमयानि च । यतीनां तान्यपात्राणि वज्जयेत्तानि भिक्षुकः” ।
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पराशरमाधवः
५६३
वोधयनोऽपि, -
"स्वयमाहृतपर्णेषु स्वयं शीणेषु वा पुनः। भूजीत न वटाश्वत्थकर जानान्तु पर्णके । कुम्भी-तिन्दुकयोऽपि कोविदारार्कयोस्तथा । आपद्यपि न कांस्ये तु मलाशी कांस्यभोजनः ॥
सौवर्णे राजते ताम्रमये वा त्रपु-सोसयोः" - इति । भोजन नियममाह स एव। “भिक्षाचर्यादुपावृत्तो हस्तौ पादौ च प्रक्षाल्याचम्यादित्यस्याग्रे निवेदयन्नुदुत्यं चित्रमिति ब्रह्मयज्ञानमिति च उद्वयं तमसस्परोति च जपित्वा मुज्जीत - इति । नृसिंहपुराणेऽपि,
"ततो निवर्त्य तत्पात्र संस्थाप्याचम्य संयमी। चतुरङ्ग लेष प्रक्षाल्य ग्रासमात्र समाहितः ॥ सर्वव्यञ्जन-संयुक्त पृथक पात्रे निवेदयेत्। सूर्यादिदेवभूतेभ्यो दत्त्वाऽन्नं प्रोक्ष्य वारिणा॥ भुजोत पर्णपुटके पात्र वा वाग्यतो यतिः । भुक्त्वा पात्र यतिनित्य क्षालयेन्मन्त्रपूर्वकम् ॥ न दुष्येत्तस्य तत्पात्र यज्ञेषु चमसा इव । अथाचम्य निरुद्धासु रुपतिष्ठेत मास्करम् ॥ जप-ध्यान-विशेषेण दिनशेषं नये धः । कृतसन्ध्यस्ततो रात्रिं नयेद्देव-गृहादिषु ॥ हृतपुण्डरीकनिलये ध्यात्वाऽऽत्मानमकल्मषम् । यतिधर्मरतः शान्तः सर्वभूतसमो वशो॥
प्राप्नोति परमं स्थानं यत्प्राप्य न निवर्तते" - इति। कुर्मपुराणेऽपि, -
"आदित्ये दर्शयित्वाऽन्न मुजीत प्राङ्मुखो यतिः । हुत्वा प्राणाहुतीः पञ्च प्रासानष्टौ समाहितः ।
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५६४
पराशरमाधवः
आचम्य देवं ब्रह्माणं ध्यायीत परमेश्वरम् । प्राग्रात्रेऽपररात्रे च मध्यरात्र तथैवच ॥ सन्ध्यास्वहि विशेषेण चिन्तयेन्नित्यमीश्वरम्” - इति ।
अथान्येयतिधर्माः। तत्राहात्रिः, -
“अतः परं प्रक्ष्यामि आचारो यो यतः स्मृतः । अभ्युत्थान-प्रियालापैर्गुरुवत्प्रतिपूजनम् ॥ यतीनां ब्रतवृद्धानां स्वधर्ममनुवर्तिनाम् ।
विष्णुरूपेण वै कुन्निमस्कारं विधानतः" - इति । मनुरपि, -
"कृत्त-केश-नख-श्मश्रुः पात्री दण्डी कुसुम्भवान् । विचरेन्नियतो नित्यं* सर्वभूतान्यपीड़यन् ॥ कपाल वृक्षमूलानि कुचेलमसहायता। समता चैव सस्मिन्नैतन्मुक्तस्य लक्षणम् ॥ नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम् । कालमेव प्रतीक्षेत निर्देशं भृतको यथा ॥ दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिवेत् । सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत् ॥ अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन। न चेमन्देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित् ॥ क्रुध्यन्तं न प्रतिक्रद्धय दाक्रष्टः कुशलं वदेत्। सप्तद्वारावकीर्णा च न वाचमनृतां वदेत् ॥
* विचरेञ्च यतिनित्यं, - इति,मु. पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः
५६५
अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामयः । आत्मनैव सहायेन सुखार्थो विचरेदिह ॥ संरक्षणार्थं भूतानां रात्रावहनि वा सदा । शरीरस्यात्यये चैव समीक्ष्य वसुधां चरेत् ॥ अल्पान्नाभ्यवहारेण रहः स्थानासनेव च। हियमानानि विषयैरिन्द्रियाणि निवर्तयेत् ॥ इन्द्रियाणां निरोधेन राग द्वेष-क्षयेण च । अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते"- इति ॥
दक्षोऽपि, -
"नाध्येतव्यं न वक्तव्यं न श्रोतव्यं कथञ्चन । एतैः सर्वैः सुनिष्पन्नो यतिर्भवति नेतरः” - इति ।
वृहस्पतिरपि, -
"न किञ्चिद्भेषजादन्यदद्यादा दन्तधावनात् । विना भोजनकालन्तु भक्षयेदात्मवान् यतिः ।। नैवाददीत पाथेयं यतिः किञ्चिदनापदि । पक्क्वमापत्सु गृहोयाद्यावदह्रोपभुज्यते ॥ न तीर्थवासी नित्यं स्यान्नोपवासपरो यतिः ।
न चाध्ययनशोलः स्यान्न व्याख्यानपरोभवेत्”- इति । नाध्येतव्यमित्येतत् कर्मकाण्ड-विषयं, अन्यथा “उपनिषदमावर्तयेत्” - इति श्रुतिर्वाध्येत। न श्रोतव्यमित्येतद्ब्रह्ममीमांसा-व्यतिरिक्त. विषयम् , “श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितष्यः” - इति तन्मीमांसायां
* यज्यते, - इति मु० पुस्तके पाठः।
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५६६
पराशरमाधवः विहितत्वात्। उपपन्नश्च तीर्थोपवासाध्ययन-व्याख्यान तात्पर्यनिषेधः, निवृत्तिधर्म-प्रधानत्वात् कैवल्याश्रमस्य । यतः स एवाह,
यस्मिन वाचः प्रविष्टाः स्युः कूपे प्राप्ताः शिला इव । न वक्तारं पुनर्यान्ति स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥ यस्मिन् कामाः प्रविशन्ति विषयेभ्योपसंहृताः। विषया न पुनर्यान्ति स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥ यस्मिन् कोधः शमं याति विफलः सम्यगुश्तितः । आकाशेऽसिर्यथा क्षिप्तः स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥ यस्मिन् शान्तिः शमः शौचं सत्यं सन्तोष आर्जत्रम् । आकिञ्चन्यमदम्भश्च स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥ वृथा प्रलापो यो न स्यान्न लोकाराधने रतः । नान्यविद्याभियुक्तश्च स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥ अतीतान्न स्मरेद्भोगांस्तथैवानागतानपि । प्राप्तांश्च नामिनन्देत स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥ अन्धवन्मूकवत् पङ्ग-वधिर-क्लोववञ्च यः। आस्ते ब्रजति यो नित्यं स कैवल्याश्रमे वसेत् ॥
उक्तधर्मोपेतं यति प्रशंसति दक्षः, --
“सञ्चितं यद् गहस्थस्य पापमामरणान्तिकम् । निर्दहिष्यति तत् सर्व मेकरात्रोषितो यतिः । संन्यस्यन्तं द्विजं दृष्दा स्थानाञ्चलति भास्करः ॥ एष मे मण्डलं मित्वा परं स्थानं प्रयास्यति” ।
तदेवं यतिधर्मा निरु पिताः।
* नास्त्य यं श्लोकः मु० पुस्तके ।
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पराशरमाधवः
५६७
उक्तानां ब्रह्मचर्यादीनां संन्यासान्तानां चतुर्णामाश्रमाणां प्रत्येकमवान्तरभेदाश्चतुविधाः। तदुक्तं महाभारते, -
"ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः।
चत्वार आश्रमाः प्रोक्ताः एकैकस्य चतुर्विधाः” - इति । तत्र चातुर्विध्यं कात्यायन-स्मृतेव्याचक्षते । ब्रह्मचारि-गृहस्थवानप्रस्थ-परिव्राजकाश्चत्वार आश्रमाः षोड़श-भेदाभवन्ति। तत्र ब्रह्मचारिणश्चतुर्विधा भवन्ति, गायत्रो ब्राह्मः प्राजापत्यो वृहन्निति । उपनयनादूर्द्ध त्रिरात्रमक्षारलवणाशी गायत्रीमधीते, स गायत्रः । अष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि वेदब्रह्मचर्य चरेत, प्रतिदं द्वादश द्वादश वा, यावद्ग्रहणान्तं वा वेदस्य, स ब्राह्मः। स्वदारनिरतः ऋतुकालगामी सदापरदार वजितः स प्राजापत्यः । आ प्रायणाद्गुरोरपरित्यागी स नैष्ठिको वृहन्निति। गृहस्था अपि चतुविधा भवन्ति, वार्ताकवृत्तयः शालोनवृत्तयो यायावरा घोरसंन्यासिकाश्रेति। तत्र वार्ताकवृत्तयः, कृषि-गोरक्ष-वाणिज्यमगहितमुपयुञ्जानाः शतसंवत्सराभिः क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। शालीनवृत्त्यो यजन्तो न याजयन्तोधोयाना नाध्यापयन्तो ददतो न प्रतिगृह्णन्तः शतसंवत्सरामिः क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रर्थयन्ते। यायावरा यजन्तो याजयन्तोऽ. धोयाना अध्याययन्तो ददतः प्रतिगृह्णन्तः शतसंवत्सारभिः क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। घोरसंन्यासिका उद्ध त-परिपूताभिरद्भिः कायं कुर्वन्तः प्रतिदिवसमास्तृतोऽधवृत्तिमुपयुञ्जानां शतसंवत्सरामिः क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। वानप्रस्था अपि चतुर्विधाभवन्ति, वैखानसा औदुम्वरा वालखिल्याः फेनपाश्चेति। तत्र, वैखानसा अकृष्टपच्यौषधि-वनस्पतिमिग्रामवहिष्कृतामिरग्निपरचरपं कृल्या पञ्चयज्ञक्रिया निवर्तयन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। औदुम्वरा
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५६८
पराशरमाधवः
वदर*नोवार-श्यामाकैरग्निपरिचरणं कृत्वा पञ्चयज्ञक्रियां निवर्तयन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते । वालखिल्या जटायराश्चीर-चर्म-वल्कलपरिवृताः कार्तिक्यां पौर्णमास्यां पुष्पफल । मुत्सृजन्तः शेषानष्टौ मासान् वृत्त्युपार्जनं कृत्वाऽग्निपरिचरणं कृत्वा पञ्चमहायज्ञक्रियां निवर्तयन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। फेनपा जोर्ण-पर्ण-फल-भोजिनोयत्र तत्र वा वसन्तः। परिब्राजकाअपि चतुर्विधा मवन्ति, कुटोचरावहूदकाः हंसाः परमहसाश्चेति । कुटीचराः स्वपुत्र-गृहेषु भैक्षचय्यां चरन्त आत्मान प्रार्थयन्ते। वहूदकास्त्रिदण्ड-कमण्डलु-जलपवित्र-पादुकाऽ ऽसनशिखा-यज्ञोपवोतकाषायवेषधारिणः साधुवृत्तेषु ब्राह्मणकुलेषु मैक्ष चरन्त आत्माल प्रार्थयन्ते। हंसा एकदण्डधराः शिखा । यज्ञोपवीत-धारिणः कमण्डलुहस्ता ग्रामैकरात्रवासिनो नगरे तोर्थेषों पञ्चरात्रं एकरात्र द्विरात्री कृच्छचान्द्रायणादि चरन्त आत्मान प्रार्थयन्ते। परमहंसा नाम एकदण्डधराः मुण्डाः । कन्थाकौपीन-वाससो व्यक्तलिङ्गा अनुन्मत्ता उन्मन्तवदाचरन्तस्त्रिदण्डकमण्डलु-शिक्यपद्मजलपवित्रपादुकाऽऽसन-शिखा-यज्ञोपवीतत्यागिनः शून्यागार-देवगृह-वासिनो न तेषां धर्मो ना धर्मो वा, न सत्य नापि चानृतं सर्वसमा: समलोष्टाश्मकाञ्चनाः, यथोपपन्न चातुर्वर्णे मैक्षचञ्चिरन्त आत्मानं मोक्षयन्ते।
“तेषामुपशमो धर्मोनियमो वनवासिनाम् ।। दानमेक गृहस्थानां शुश्रूषा ब्रह्मचारिणाम्”- इति ।
* पदर, - इति नास्ति स. शा० पुस्तकयोः । । पूवफल, - इति मु० पुस्तके पाठः। । शिखावर्ज,- इति स० शा० पुस्तकयोः पाठ। # तीर्थेष्टौ च, - इति मु० पुस्तके पाठः । में एकरात्र द्विरात्र',-- इति नास्ति स० शा० सो० पुस्तकेषु । ाँ मुण्डाः, - इति नास्ति मु० पुस्तके।
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पराशरमाधवः
युक्तञ्च परिव्राजकानामात्म-मोक्षणम्, तत्त्वज्ञान-पर्य्यवसायित्वात् पारिव्राज्यस्य । एतदेवाभिप्रेत्य एवं निर्ववनं स्मृत्यन्तरे दर्शितम्, - “परिवोध त् परिच्छेदात् परिपूर्णावलोकानात् । परपूर्ण फलत्वाच्च परिव्राजक उच्यते ।
परितो व्रजते नित्यं पर वा व्रजते पुनः । हित्वा चैवापर जन्म परिव्राजक उच्यते” - इति ।
-
तदेवमध्यायादौ मूलवचने, “ चातुर्व्वर्याश्रमागतम्” -- इत्याश्रमशब्देन बुद्धिस्था आश्रमचतुष्टय-धर्माः परिसमापिताः, इति ।
द्वितीये त्वध्याये स्फुटमभिहितो जीवन कृते रुपायः कृष्यादिः पुनरथ समस्ताश्रमगताः । गरीयांसो धर्माः किमपि विवृताः स्वाश्रमपदा तमेव व्याकार्षोन्महितधिषणोम धव-विभुः * ॥
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इति श्रीमहाराजाधिराज परमेश्वर वैदिक मार्गप्रवर्तक- श्रोवोर वुक्कभूपाल साम्राज्य घुरन्धरस्य माधवामात्यस्य कृतौ पराशरस्मृतिव्याख्यायां माधवीयायां द्वितीयोऽध्यायः ॥
अथ तृतीयोऽध्यायः ।
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ॐ नमः शिवाय ॥
प्रथम- द्वितीयाध्यायाभ्यां चातुर्व्वग्यं श्रमाः साक्षात्प्रतिपदिताः, आश्रमधर्नाश्चि सूचिताः । तेषु च धर्मेषु शुद्धस्यैवाधिकारः,
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* नस्त्ययं श्लाकोवङ्गोय पुस्तकेषु । कवचत्तु पुस्तके तृतीयाध्यायस्यादौ sorris sad |
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५७०
पराशर माधवः
" शुचिता कर्म्म कर्त्तव्यम्” इति श्रुतेः । सा च शुद्धिर्यद्यपि पुरुषस्य स्वाभाविकी तथापि केनचिदागन्तुकेनाशौचाख्येन दोषरूपेण पुरुषगतातिशयेन कञ्चित्कालं प्रतिबध्यते । तच्चाशौचं कालेयत्तास्नानाद्यपनोद्य', अतस्तृतीयेऽध्याये तत्प्रतिपिपाददिषुरादी प्रतिबन्धापगमेनोत्तम्भितां शुद्धि प्रतिजानीते,
अतः शुद्धिं प्रवक्ष्यामि जनने मरणे तथा । इति ।
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यतो जननमरणयोर्धम्र्म्माधिकार परिपन्थिन्यशुद्धिः प्रोप्तोति अतस्तनिवर्त्तको पाय-प्रतिपादनेन शुद्धिं प्रवक्ष्यामि । जनन-मरणयोश्च अशुद्धि प्रापकत्वं मनुना दर्शितम,
प्रतिज्ञातां शुद्धिं वर्णानुक्रमेण दर्शयति, -
" दन्तजातेऽनुजाते च कृतच'ले च संस्थिते । अशुद्धा वान्धवाः सर्व्वे सूतके च तथोच्यते”
--
देवलोऽपि -
दिनत्रयेण शुद्धयन्ति ब्राह्मणाः प्रेत्सू के ॥ १ ॥ क्षत्रियो द्व दशाहेन वैश्यः पञ्चदशाहकैः ।
श्रद्रः शुद्धयति मासेन पराशर - वचो यथा ॥ २ ॥
----
ननु दिनत्रयेण शुद्धयन्ति ब्राह्मणाः, - इत्येतद्बहु-स्मृति- विरुद्धम् ।
तथाच दक्षः,
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इति ॥
"शुद्धयेद्विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः ।
वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति” - इति ।
"दशाहं ब्रह्मणानान्तु क्षत्रियाणां त्रिपञ्चकम् । विंशद्रात्र तु वैश्यानां शूद्राणां मासमेव हि” - इति ॥
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पराशरमाधवः
५७१
वसिष्ठोऽपि, -
"ब्राह्मणो दशरात्रेण पञ्चदशरात्रण क्षत्रियः ।
वेश्यो विंशतिरात्रण शूद्रो मासेन शुद्धयति” – इति । नैषदोषः। विप्रेषु व्यहाशौचस्य समानोदक-विषयत्वात्। तथाच मनुः -- “यहात्त दकदायिनः" - इति । दशाहाशौच-प्रतिपदकानि दक्षादि-वचनानि सपिण्ड-विषयाणि,
“दशाहं शावमाशौचं सपिण्डेषु विधीयते” - इति मनुस्मरणात्। कूर्मपुराणेऽपि, -
“दशाहं शावमाशौचं सपिण्डेषु विपश्चितः” – इति । वृहस्पतिरपि, -
“दशाहेन सपिण्डास्तु शुद्धयन्ति प्रेतसुके।
विरात्रेण सकुल्यास्तु स्नात्वा शुद्धयन्ति गोत्रजाः” इति । ननु, क्षत्रियो द्वादशाहेन, - इत्येतदप्यनेकस्मृतिविरुद्धम्। तत्र, वसिष्ठदेवलाभ्यां क्षत्रियस्य पञ्चदशाहाशौचमुक्त', तद्वचनं चोदाहतम्। शातातपस्त्वेकादशाहमाह, -
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पराशरमाधवे
अत्र ५७२ पृष्ठातः ५७६ पृष्टया न्यूनत्वेऽपि न पाठन्यूनता
आशङ्कनीयेति पाठकैरवधातव्यम् ।
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३१०,मा.का.
पराशरमाधवः।
५७७
"एकादशाहाद्राजन्योवैश्योद्दादशभिस्तथा ।
शूट्रोविंशतिरात्रेण शुद्दयते मृतस्तके"- इति । उद्धपराशरोऽपि,
"क्षत्रियस्तु दशाहेन स्वकर्मनिरतः शुचिः । तथैव द्वादशाइन वैश्यः शुद्धिमवाप्नुयात्" इति ॥ अत्रोच्यते । विद्यातपमोस्तारतम्येन विरोधः समाधेयः । यावद्यावविद्यातपसी विबर्द्धते, तावत् तावदाशोचं मंकुच्यते । श्रतएव याज्ञवल्क्योन्यायवर्तिनः शूदम्याप्यर्द्धमाशौचमाह,
"क्षत्रस्य द्वादशाहानि विशः पञ्चदशैव तु । त्रिंशदिनानि शूद्रस्य तदर्दू न्यायवर्तिनः" इति । देवलोऽप्येतदेवाभिप्रेत्य विप्रादीनामाशौच-तारतम्यमाह,
"चत्वार्यधीतवेदानामहान्याशौचमिप्यते । वेदाग्नि-युक्त-विप्रस्य व्यहमाशौचमिष्यते ॥ एताभ्यां श्रुत-युतस्य दिनमेकं विधीयते । एतैः माकं कर्म-युक्तः भद्यः शुचिरसंशयः ॥ एतैर्युक्तस्य राजस्तु द्वादशैकादशादश । वैश्यस्यैवं पञ्चदशद्वादशैकादश क्रमात् ॥
अर्द्धमासन्तु शुश्रूषोः शूद्रस्थाशौचमिष्यते"-इति । यत्त, क्षत्रियादेस्त्रिपञ्चकादिकं तेनैवोकं ; तदिद्यातपोरहितविषयम्,
"प्राकृतानां तु वर्णनामाशौचं संप्रकीर्तितम्" इति वाक्यशेषात्।
73
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५७८
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पराशर माधवः ।
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[३०, व्या०का० ।
दक्षोऽपि दश पक्षानुपन्यस्य, गुणोत्कर्षापकर्षाभ्यां व्यवस्था
माह, -
“मद्यः शौचं तथैकाहं यहश्चतुरहस्तया । षड्-दश-द्वादशाहञ्च पतोमा मस्तथैव च ॥ मरणान्तं तथा चान्यत् पक्षाश्च दश स्रुतके । उपन्यास- क्रमेणैत्र वदाम्यहमशषतः ॥ ग्रन्थार्थतोविजानाति वेदमङ्ग - समन्वितम् । मकल्पं मरहस्यं च क्रियावांश्चेन स्रुतकम् ॥ राजविंग्दीचितानाञ्च वाले देशान्तरे तथा । afnai afari चैव मद्यः शौचं विधीयते ॥ एकाहाच्छुध्यते विप्रोयोऽग्नि-वेद-समन्वितः । होने हीनतरे वाऽपि त्र्यहश्चतुरहस्तथा ॥ तथा हीनतम चैव षडहः परिकीर्त्तितः 1 ये दशाहादयः प्रोक्तावणीनान्ते यथाक्रमम् ॥
अन्नात्वा चाप्यत्वा च श्रदत्वाऽश्रंस्तथा द्विजः ।
एवंविधस्य विप्रस्य सर्व्वदा स्रुतकं भवेत्” - इति ।
अत्र, ' चत्वार्यधीतवेदानाम् ' - इत्यादिनोक्रोऽघ - संकोचोयुगान्तर
विषयः ।
"स्वाध्याय - वृत्त मापेक्षमघ-मंकोचनं तथा"
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इत्यनुक्रम्य,
" कलौ युगे विमान धमीन वनाजनीषिणः” इति
स्मृत्यन्तरेऽभिधानात् ।
-
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३व, था.का.
परापारमाधवः ।
५७६
“दशाइएव विप्रस्य मपिण्डमरण मति ।
कल्पान्तराणि कुर्वाण: कलौ व्यामोइकिल्विषी" - इति हारीत-वचनाच । उकरीत्या क्षत्रियाद्वैग्ये पि वचनान्तर-विरोधः परिहर्त्तव्यः । एवञ्च मति, विप्रस्य ममानोदकेषु बिराचं मपिण्डेषु दशरात्रम् । क्षत्रियादीनां द्वादशाहादि यहालवचनोनं, तदेव स्थितम् । यद्यपि क्षत्रिय-वैश्ययोः पञ्चदशाइ-विंशतिगत्र-वचनानुसारेण द्वादशाह-पञ्चदशाहाशौच-वचनं गुणवदघ-संकोच-परमिवाभाति, देवलश्च गुणवद्विषयत्वेनेवोदाजहार, तथापि शिष्टाचाराबहुस्मृत्यनुग्रहाच्च क्षत्रिय-वैश्ययोमलवचनोतएव मुख्यः कल्पः । अतएव मनु-कूर्मदवाः,
"शुयेदिप्रोदशाईन द्वादशाहेन भूमिपः ।
वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रोमामेन माड्यति'' इति । मार्कण्डेयोऽपि,
"दशाहं ब्राह्मणस्तिष्ठेद्दानहोमादि-वर्जितः । क्षत्रियोद्वादशाहन्त वैश्योमासार्द्धमेवच ॥ ।
शूद्रस्तु माममामीत निज-कर्म-विवर्जितः” इति । वृहस्पतिरपि,
"क्षत्रियोहादशाहेन ड्यते मृतस्तके।
वेभ्यः पञ्चदशाहेन शूद्रोमासेन शयति" इति । विष्णरपि । “ब्राह्मणस्य सपिण्डानां जनन-मरणयोर्दशाहमाशौचं द्वादशाहं राजन्यस्य पञ्चदशाहं वैश्यस्य मामः शूद्रस्य" इति । पञ्चदशाइ-विंशतिरात्र-वचनं तु यावज्जीवाशौच-वाक्यमिव निन्दा
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५८०
पराशरमाधवः।
[३५०या०का ।
परत्वेन युगान्तर-विषयत्वेन वा* व्याख्येयम्। 'पराशरावचोयथा'इत्यनेन स्वमतत्वं दर्शयन् मतान्तरेष्वप्यघ-संकोच-विकास-पराणि वचनानि मन्तीति सूचयति। तानि चाम्माभिर्व्यवस्थापितानि । उकस्याशौचस्थ कर्माधिकार- परिपन्थित्वात् मन्ध्याधुपासनस्यापि नित्तिप्राप्तावपवादमाह,
उपासने तु विप्राणामङ्ग-शुद्धिश्च जायते॥२॥ इति ।
उपासनं मन्ध्यावन्दनानिहोत्राद्यनुष्ठानं, तस्मिन् प्रमते तात्कालिको शरीर-शुद्धिर्भवति । तदाह गोभिलः,
"अग्निहोत्रादि-होमा) शुद्धिस्तात्कालिको स्मृता ।
पञ्चयजान्न कुर्वीत ह्यशङ्कः पुनरेव मः" इति । यावत्कालेनाग्निहोत्रं निष्पद्यते, तावदेव शुद्धिर्न परि । पुलस्त्योऽपि,
"सन्ध्यामिष्टिं चर्चा होमं यावजीवं ममाचरेत् । न त्यजेत् मृतके वाऽपि त्यजन् गच्छत्यधोदिजः ॥ मृतके मृतके चैव सन्ध्याकर्म न मन्यजेत् ।
मनमोच्चारयेन्मन्त्रान् प्राणायाममृते द्विजः” इति । अञ्जलि-प्रक्षेपे तु वाचिकोच्चारणमभिप्रेत्य पैठीनसिराह। “सूतके मावियाऽञ्जलिं प्रक्षिप्य प्रदक्षिणं कृत्वा सूर्य ध्यायनमस्कयात्" । मनसोचारणस्य मार्जनादि-मन्त्रेष्वपि मिद्धत्वादचलो विशेष-विधानं वाचिकाभिप्रायम् । यत्तु मनुनोतम्,
* युगान्तरविवयत्वेन बा, इति मुद्रिवातिरिक्तपुस्तकेषु न दृश्यते । + समाचरेत् इति सो० पुस्तके पाठः ।
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३५०, या का०]
पराशरमाधवः।
५८१
"उभयत्र दशाहानि कुलस्यान्नं न भुज्यते ।
दानं प्रतिग्रहोहोमः स्वाध्यायश्च निवर्तते".-इति । तत् स्मान-वैश्वदेवादि-विषयम् । तदाह जातकर्णः,
“पञ्चयज्ञ-विधानञ्च न कुर्यान्मृत्युजनमनाः" इति । यत्तु जावालेनोक्रम्,
"सन्ध्यां पञ्च महायज्ञानेत्यिक स्मतिकर्म च।
तन्मध्ये हाययेदेव अशौचान्ते तु तक्रिया" इति । तहाचिक-मन्ध्याऽभिप्रायम् । स्मार्त्त-कर्म-वर्जनं स्वयं कर्टकविषयं, अन्येन तु कारयेदेव । नदाह वृहस्पतिः,
"मृतके मृतके चैव शतौ श्राद्ध-भोजने ।
प्रवासादि-निमित्तेषु हावयेन तु हापयेत्” । जावकणेऽपि,
"मृतके तु समुत्पन्ने स्मात्त कर्म कथं भवेत् । पिण्डयनं चलं होमममगोत्रेण कारयेत्” इति । मूल-वचने विप्र-ग्रहणं क्षत्रियादीनामुपलक्षणम् । विविधञ्चाचित्वं कानधिकार-लक्षणमस्पृश्यत्व-लक्षणञ्च । तवाङ्गद्धिरित्यनेनैकस्य निरतिस्ता, चकारेणापरस्यापि । यथाऽशौचे तात्कालिकी विविधाऽद्धिस्तथा जननेऽपि तत्प्राप्तौ विशेषमाह,ब्राह्मणानां प्रस्तौ तु देहस्पर्शाविधीयते। इति ।
जनने सपिण्डानां सार्वकालिकोऽङ्गस्पर्शः, न तु शाववत्तात्कालिकः । अतएवापस्तम्बः,
* धोममन्यगोत्रेण, इति मु• पुस्तके पाठः ।
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परापारमाधवः ।
था०का।
"मृतके सतिका-वज संस्पर्शन निषिध्यते ।
मंस्पर्श सुतिकायास्तु स्नानमेव विधीयते” इति ॥ कूर्मेऽपि,--
"सूतके तु मपिण्डानां संस्पर्शानव दुष्यति"- इति । पैठीनसिरपि,
"जनौ मपिण्डा: शुचयोमातापित्रोस्तु मृतकम् ।
मृतकं मातुरेव म्यादुपस्पृश्य पिता शुचिः" इति । जनने मातापिट-व्यतिरिका: मद्ये मपिण्डाः स्पृश्याः, मातापिचोस्तु नास्ति स्पृश्यत्वम् । तत्रापि पिता स्नानेन स्पृश्योभवति, दशाहमस्पृश्यत्वं मातुरेव । तथा च वसिष्ठः,
"नाशौचं विद्यते पुंसः ममर्गञ्चेन्न गच्छति ।
रजस्तत्राशचि ज्ञेयं तच्च पुंसि न विद्यते"-इति । मंवाऽपि,
"जाते पुत्रे पितुः स्नानं सचेलन्तु विधीयते ।
माता शुद्ध्येद्दशाहेन स्नानात्तु स्पर्शनं पितुः" इति । मरणे वर्णानुक्रमेण शुद्धिर्दर्शिता। दूदानी जननेऽपि वर्णकमेण शझिं दर्शयति,
जातौ विनोदशाहेन हादशाहेन भूमिपः॥३॥ वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रोमासेन शुद्ध्यति । इति।
जातौ जनने । स्पष्टमन्यत् । दयञ्च गुद्धिः कम्माधिकार-विषया। समनन्तरातोरोन वचनेन स्पर्श-विषयायाः शुद्धेस्तत्वात् । जन्म-दिवसे तु नास्यासद्धिदानादि-विषये । श्रतएव मनु:,
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३०, व्या०का० ।]
" जाते कुमारे तदहः कामं कुर्यात् प्रतिग्रहम् । हिरण्य-धान्य- गो-वामस्तिलानां गुड मर्पिषाम् " - इति । शंखलिखितौ । “कुमार- प्रसत्रे प्राङ्गाभिच्छेदनात् * गुड़-तिल-हिरण्यवस्त्र - प्रावरण- गो-धान्यानां प्रतिग्रहेष्वदोषः, तदहरित्येके" । वृद्ध
पराशर माधवः ।
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याज्ञवल्क्यः,--
" कुमार - जन्म - दिवसे विप्रैः कार्यः प्रतिग्रहः । हिरण्य-भू- गवाश्वाज - वासः - शय्याऽऽसनादिषु ॥ तत्र सर्व्वं प्रतिग्राहां कृतान्नन्त न भक्षयेत् । भक्षयित्वा तु तन्मोहाद् द्विजश्चान्द्रायणञ्चरेत्” इति । बौधायनोऽपि -
"गुड़तैल - हिरण्यानाङ्गोधान्यानाञ्च वाससाम् । तस्मिन्नहनि दानञ्च कार्यं विप्रैः प्रतिग्रहः । ॥
प्राङ्गाभि-च्छेदनाद् ग्राह्यातानीत्यपरे जगुः " - इति ।
यास्तु जन्मदाख्याः सूतिकाग्टहाभिमानिन्योदेवता: +, तासां पूजायां प्रथम - षष्ठ- दशम-दिवसेष्व एद्धिर्नास्ति । तथा च व्यासः, -
"सुतिकाssवाम-निलयाजन्मदानाम देवताः ।
तासां याग-निमित्तन्तु शुद्धिर्जन्मनि कीर्त्तिता ॥ प्रथमे दिवमे षष्ठे दशमे चैव सर्व्वदा ।
त्रिवेतेषु न कुर्वीत मृतकं पुत्र जन्मनि " - इति ।
* नाभ्यामच्छिन्नायां, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
+ विप्रैः कार्यः प्रतिग्रहः, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
1 सूतिकाभिमानिन्योदेवताः, -- इति पाठोवङ्गीय पुस्तकेषु प्रायः ।
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५८३
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५८४
मार्कण्डेयोऽपि -
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यवङ्गिरसोक्तम्, -
पराशर माधवः ।
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" रचणीया तथा षष्ठी निशा तत्र विशेषतः । रात्रौ जागरणं कुर्य्या जन्मदानां तथा वलिम् ॥
पुरुषाः शस्त्र-हस्ताश्च नृत्य-गीतैश्च योषितः । रात्रौ जागरणं कुर्युर्दशम्यां चैव स्रुतके " - इति ॥
[३५०, बा०का० ।
"नाशौचं स्रुतके प्रोतं सपिण्डानां क्रियावताम्” इति ।
तत्पूर्वोका होचादि विषयत्वेन वा समनन्तरोक जन्मदानां वलिविषयत्वेन वा नेतव्यम् । श्रन्यथा 'जातौ विप्रोदशाहेन ' - इत्येतद्वचनं निर्विषयं स्यात् । उक्रस्य प्रेताशौचस्य जाताशौचस्य च कचित् संकोचमाह -
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Amps
1
एकाहाच्छुह्यते विप्रोयोऽग्नि-वेद - समन्वितः ॥ ४ ॥ त्र्यहात् केवलवेदस्तु द्विहीनेादशभिर्दिनैः । इति । श्रचाग्निशब्देनाहवनीयादयोग्टह्यन्ते । तैश्च तत्-माध्यादर्शपूर्णमासादय उपलक्ष्यन्ते । दिहीनोद्वाभ्यामग्नि-वेदाभ्यां हीनः । श्रयमाशौच - संकोचः स्वाध्याय - दुधमोवडतर - सपिण्डस्य संकुचितत्ते प्रतिग्रहादौ द्रष्टव्यः, न तु सर्व्वसु । तथाच गौतमः । "ब्राह्मणम्य स्वाध्यायानिवृत्त्यर्थम् " - इति । श्रयमर्थः । ब्राह्मणस्य संपूर्ण शौचे स्वीक्रियमाणे स्वाध्यायोनिवर्त्तेत तन्माभूदिति । स्वाध्यायानिवृत्ति - ग्रहणं प्रतिग्रहस्याप्युपलक्षणार्थम् । श्रन्यथा, श्रश्वस्तनिकादीनां संकुचितवृत्तीनां संपूर्णाशौचे स्वीक्रियमाणे जीवनमेव न स्यात् । एवञ्च सत्येकाच विधानमश्वस्तनिक-विषयं, त्र्यहविधानं
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३०, ब०का० ।)
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पराशर माधवः ।
चाहिक विषयं श्रसंकुचित वृत्तेस्तु दशाइम्, - इति व्यवस्था । एव
मुकरीत्या -
विशेषणम् । यत्तु,—
“सद्यः शौचं तथैकाहं त्र्यहश्चतुरहस्तथा ।
घड़दशद्वादशाहानि पचोमासस्तथैवच” – इति
दचोकाः पचाव्यवस्थापनीया: । वृत्ति-संकोचेनाशौच संकोचमाह
संग्रहकारः, -
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“शिलोछायाचितैर्जीवन् सद्यः शये द्विजोत्तमः” इति । ननु, विद्विषयत्वेनैवायमाशौच संकोचः सर्व्वकर्मासु किन्नेष्यते, 'योऽग्नि-वेद-समन्वितः' - इति विशेषण - सामर्थ्यात् । तन्त्र, "दशाहं शावमाशौचं सपिण्डेषु विधीयते"इत्यविशेषेण दशाहाशौच-विधानात् । न च सामान्य - प्राप्तस्य curerature विद्विषये वाधः - इति शङ्कनीयं वाधस्यानुपपतिहेतुकत्वाद्यावत्यवाधितेऽनुपपत्तिर्न शाम्यति तावदाधनीयं श्रच चाध्ययन - प्रतिग्रहादिमात्र एव दशाहाशौच-वाधेने का हा शौच - विधानस्य चरितार्थत्वान्न मर्व्वत्र दशाहाशौच-वाधः । श्रग्नि-वेद-समन्वितलमश्वस्तनिकस्यैका हाशौच-विधि - स्तुत्यर्थं न स्वेकाच्हाशौचविध्यधिकारि
* सर्व्वकर्मस – इति नास्ति मु० पुस्तके | + छात्र,
1 इति विशेषेण, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
-----
74
“उभयत्र दशाहानि कुलस्यान्नं न भुज्यते । दानं प्रतिग्रहोहोमः स्वाध्यायश्च निवर्त्तते - इति
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'वाचार्य्यरीत्यापि ' – इव्यधिकमति मु० पुखके ।
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परापारमाधवः ।
धा.का.।
मनुना प्रतिग्रहादि-निषेधनं कृतम्, तदअंकुचितपत्ति-विषयम् । यदा, उनापवाद-प्रतिप्रसवाभिप्रायेण वा नेयम् । यदि वृत्तिमंकोचासकोचावेवाशौच-संकोचामंकोचयोः कारणं, तीत्यन्तासंकुचितवृत्तनिर्गुणस्यामरणमाशौचं प्राप्नोतीत्याशंक्याशौचावधिं दर्शयति,
जन्म-कर्म-परिभ्रष्टः सन्थ्योपासन-वर्जितः। नामधारक-विग्रस्तु दशाह सूतकी भवेत्॥६॥ इति।
जन्म-कर्म-परिभ्रष्टः गर्भाधानादि-संस्कार-रहितः, सन्ध्योपासनवर्जितः सन्ध्योपासनादि-नित्य-नैमित्तिक-कर्माण्यकुर्वाणः । अतएवामौ नामधारक-विप्रोभवति । तस्यापि दशाइमेवाशौचम् । नामधारक-विप्र-खरूपं दर्शयति व्यासः,
"ब्रह्म-वीज-समुत्पन्नोमन्त्र-संस्कार-वर्जितः । जातिमात्रोपजीवी च स भवेन्नाम-धारकः । गर्भाधानादिभिर्युकम्तथोपनयनेन च ।
न कर्मवित् न वाऽधीते स भवेन्नाम-धारकः” इति । ननु, संस्कार-रहितस्य नामधारक-विप्रस्य मरणान्तिकमाशौचं कूर्मपुराणेऽभिहितम्,
"क्रिया-हीनस्य मूर्खस्य महारोगिणएवच ।
यथटोचरणस्याहर्मरणान्तमशौचकम्" इति ॥ दक्षोऽपि,
• 'यहा'-इत्यादि, 'नेयम्'-इत्यन्तं नास्ति वङ्गीयपुस्तके , सो•
मा. पुस्तके च।
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३५.,वा का।
पराशरमाधवः ।
"व्याधितस्य कदर्यस्य ऋण-ग्रस्तस्य सर्वदा । क्रिया-हीनस्य मूर्खस्य स्त्री-जितस्य विशेषतः ॥ व्यसनामक-चित्तस्य पराधीनस्य नित्यशः । श्राद्ध-कर्म-विहीनस्य भस्मान्तं सूतकं भवेत् ।।
नामृतकं कदाचिस्यादयावज्जीवन्तु सूतकम्" इति । तत् कथं दशाहाशौचमिति । उच्यते । निन्दार्थवादत्वादेतेषां वचनानां न यावनीवाशौच-विधि-परत्वम् । अन्यथा,
नामधारकविप्रस्तु दशाहं सूतको भवेत्”इत्येतद्वचन विरुध्येत । चतुर्णामपिवर्णानामाशौचमभिधायाधनोत्तमवर्णन होनवासूत्पन्नानामुत्तमवर्ग-मंबन्धिनि जनने मरणे चाशौचमाइ,--
एकपिण्डास्तु दायादाः पृथग्दार-निकेतनाः। जन्मन्यपि विपत्तौ च तेषां तत्वतकं भवेत्॥७॥ इति।
एकः पिण्डउत्तमवर्ण-देहः उत्पादकायेषान्ते तथा। पृथग्दारानिकेतना: हीनवर्णाः स्त्रियः निकेतनानि उत्पत्ति-स्थानानि येषान्ते तथा। दायादाः पुत्राः । तेषामुत्तमवर्ण-संबन्धिनि जनने मरणे च मति, तत्मतकमुत्तमवर्म-संबन्ध्याशौचं भवेत्। तथा च मनुः,
"मपूत्तम-वर्णनामाशौचं कर्युरादृताः ।
तवर्ण-विधि-दृष्टेन वाशौचन्तु ख-योनिषु"-इति ॥ अयमर्थः। सर्च होनवर्णउत्तमवर्णनां संबन्धिनि जनने मरणे वा उत्तमवर्ण-विधि-दृशेन दशरात्रादिकाशौचं कुर्यः, खयोनिषु जातेषु मृतेषु च स्वाशौचं कुर्युः । कौम्मेऽपि,
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FE
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पराशरमधिवः ।
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[३७०, पा०काण
"शूद्र - विट् चत्रियाणान्तु ब्राह्मणे संस्थिते सति ।
दशराचेण शुद्धिः स्यादित्याह कमलोद्भवः " - इति ॥ देवलोऽपि -
" सर्ववर्णेषु दायादाये खुर्विप्रस्य वान्धवाः । तेषां दशाहमाशौचं विप्राशौ से विधीयते " - इति ॥ एतच शौचमविभक्त विषयम् । तथाचापस्तम्वः, -
"क्षत्र- विट्शूद्र जातीनां यदि स्तोमृत- सूतके । तेषान्तु पैढकाशौचं विभक्तानान्त्यपेतकम् " - इति ॥ पेटकं मातृजातीयमित्यर्थः । श्रधमवर्ण-संबन्धिनि जननादौ उत्तमवर्षस्य यदाशौचं तदकं कूपुराणे,
" षड्राचं स्यात् त्रिरात्रं स्यादेकराचं क्रमेण तु | वैश्य-क्षत्रिय-विप्राणां शूद्रेब्वाशौचमिय्यते"-इति ।
विष्णुरपि । “ब्राह्मणस्य क्षत्रिय - विट्शूदेषु सपिण्डेषु षड्राचचित्रिकरात्र, क्षत्रियस्य विट्शूद्रेषु षड्रात्र- त्रिरात्राभ्यां वैश्यस्य शूद्रेषु षडाचेण
इति । वृहस्पतिस्तु प्रकारान्तरेणाशौचमाह -
-
“दशाहाच्कुध्यते विप्रोजन्म - हान्योः स्वयोनिषु ।
सप्त- पञ्च चिराचैस्तु क्षेत्र - विट्शूद्र - योनिषु ” - इति ॥
श्रत्र, वडात्र सप्तरात्रादिपचयोर्विकल्पः, स्नेहादिना वा व्यवस्था । उस्य भिन्नजातीय विषयस्याशौचस्य सजातीयेब्बिव साप्तपुरुषत्व प्राप्तौ तदवधिमाह -
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तावत्तत् तकं गोचे चतुर्थ - पुरुषेण तु । इति ।
तत् सुतकं मिश्रजातीय-सन्तति-विषयोतमाशौचं तावत्, यावत्
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३५०,या का
पराशरमाधवः।
५८८
त्रिपुरुषं, चतुर्थपुरुषेण तु निवर्त्तते, तत्र सापिण्डानिरत्तेः ।
"मपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्त्तते ।
मजीतायेषु वर्णेषु चतुर्थे भिन्नजातिषु"-इति वृद्धपराशर-वचनात् । शातातपोऽपि,
"यद्येकजातावहतः पृथक्क्षेत्राः पृथग्धनाः ।
एकपिण्डाः पृथक्शौचाः पिण्डस्त्वावर्तते त्रिषु"-इति । मजातीयेषु पञ्चमादिवाशौच-तारतम्यं वनं मापिण्य-निवृत्तिमाहदायाविच्छेदमाप्नोति पञ्चमोवाऽऽत्म-वंशजः॥८॥इति।
दायशब्देन पिण्डोलक्ष्यते। तस्मादिच्छेदमाप्नोति आत्मवंशजः पञ्चमः । वाशब्दात् षष्ठ-सप्तमौ वा। तत्र मापिण्ड्यं निवर्तते, इति। तदनं गौतमेन । "पिण्ड-निवृत्तिः पञ्चमे मप्तमे वा"-इति । वाशब्दात् षष्ठे॥ यदर्थ सापिण्ड्य-नित्तिरभिहिता, तदिदानीमाइ,
चतुर्थे दशराचं स्यात् षनिशाः पुंसि पञ्चमे। षष्ठे चतुरहाच्छुद्धिः सप्तमे तु दिनत्रयात् ॥६॥ इति ।
पिनपने कूटस्थमारभ्य गणनायां चतुर्थे दशरात्रमाशौचं, पञ्चमे षडात्रं, षष्ठे चतरात्रं, सप्तमे बिरामिति १ ननु, मापिण्डास्य सप्तपुरुषपर्यन्तत्वात् सपिण्डेषु चाविशेषेण दशाहाशौचविधानादाशौचस्य सङ्कोच-विधानमनुपपन्नम्। मापिण्ड्यस्य सप्तपुरुष-पर्यन्तत्वं मास्यपुराणेऽभिहितम्,
"लेपभाजश्चतुर्थाद्याः पित्राद्याः पिण्डभागिनः ।
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५६.
पराशरमाधवः ।
धा.का.
सप्तमः पिण्डदश्चैषां मापिण्ड्य माप्त पुरुषम्" इति ॥ मनुरपि,
"मपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते ।
समानोदक-भावस्तु जन्म-नानोरवेदने"-इति ॥ सत्यं, तथापि पञ्चमादिषु मापिण्ड्यनिवृत्तेर्विकल्पेन स्मृतत्वात् तदनुरोधेनाशौच-सङ्कोच-विधानं विकल्पेन युज्यते । उदाहतश्च गौतम-वचनं, "पिण्ड-निवत्तिः पञ्चमे मतमे वा"-इति । पैठीनसिरपि “चीनतीत्य मात्तः, पञ्चातीत्य पिटतः” इति ।। __ नन्वेवं तईि पक्षमादीनां ममानोदकत्वेन, 'यहात्तुदकदायिनः' - इति त्रिरात्रमाशौचं प्राप्नुयात् । अतः षडात्रादि-विधानमनुपपन्त्रमिति । सत्यं पञ्चमादिषु त्रिरात्राशौचं प्राप्नोति, तथापि विशेषविधानादपोद्यते । मामान्यशास्त्रम्य विशेषशास्त्र-विषयेतरविषयत्वस्य युक्रत्वात् ॥ उनस्य प्रेताशौचस्य क्वचिदपवादमाह,
भृग्वग्नि-मरणे चैव देशान्तर-मृते तथा। वाले प्रेते च सन्यस्ते सद्यः शौचविधीयते॥१०॥
भृगुः प्रपातः, अग्निः प्रमिद्धः । भवग्नि-मरणं प्रमादादिना विना दुर्मरणमात्रोपलक्षणम्, प्रायश्चित्तानुरोधात् । तन्निमित्ते मरणे मति तत्संबन्धिनां सर्वेषां मपिण्डानां सद्यः शौचं न तु दशाहाशौचमिति। तथा च याज्ञवल्क्यः ,
"इतानां नृप-गो-विगैरन्वक्षं चात्मघातिनाम्" इति। नपोऽभिषिक: क्षत्रियः । गोशब्दः टङ्गि-दंश्यादीनां सर्वेषामुप* अच, यद्यपि,-इति भवितुं युक्तम् ।
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३च, श्रा०का.]
परापारमाधवः।
५६१
लचकः । विप्रग्रहणं चण्डालाधुपलवकम् । एतैपादिभिईतानां विधिमन्तरेणात्मत्यागकारिणां ये मंबन्धिनः मपिण्डाः, तेषामन्यवं यावच्छव-दर्शनमाशौचं, न तु दशाहपयंन्तमित्यर्थः। दुर्भूतानामुदकदानादिकमपि नास्ति । तथाच मनुः,
"चण्डालादुदकात् मादब्राह्मणाद्वैद्युतादपि । दंदिभ्यश्च पशभ्यश्च मरणं पापकर्मणाम् ॥ उदकं पिण्डदानच प्रेतेभ्येयत् प्रदीयते । नोपतिष्ठति तत् सर्वमन्तरिक्ष विनश्यति ॥ नाशोचं नोदकं नाश्रु न दाहाद्यन्तकर्म च ।
ब्रह्म-दण्ड-हतानाञ्च न कुर्यात् कट-धारणम्" --इति ॥ ब्रह्मदण्डोब्राह्मणशापः,अभिचारोवा । कटशब्देन शव-वहनोपयोगि-कटादिकमभिधीयते । आपस्तम्बोऽपि,
"व्यापादयेद् य श्रात्मानं स्वयमग्न्युदकादिभिः ।
विहितं तस्य नाशौचं नापि कार्योदकक्रिया" इति ॥ एतच द्धिपूर्वक मरण-विषयम्। अतएव गौतमः । “गो-ब्राह्मणहतानामन्वक्षं राजक्रोधाचाश्वयुद्धे प्रायोऽनाशनशस्त्राग्निविषोदकोइन्धनप्रपतनैश्चेच्छताम्" इति। प्रायोमहाप्रस्थानम्, अनाशनमनशनम्, प्रपतनं भृगुपतनम् । एतैर्बुद्धिपूर्वकं इतानां मपिण्डस्यान्वक्षमाशौचमित्यर्थः । अतश्चैतदुक्तं भवति। मादिना चण्डालादिना वा विग्रहं कुर्वन् यस्तैर्हतः, तस्यैवायं पिण्डदानादि-निषेधः । एवं दुष्टदंयादीन् ग्रहीतुमाभिमुख्येन गच्छतोमरणेऽयमाशौचादिनिषेधः । एवं राज्ञः प्रातिकूल्यमाचरतोमरणे। एवं वाहुभ्यां नदी-तरणेऽपि ।
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५६२
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पराशरमाधवः ।
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[ ३०, चा०का० ।
एवं सर्वत्रानुसन्धेयम् । श्रतएव ब्रह्मपुराणम्, - "ङ्गि - दंष्ट्रि - नखि व्याल- विष-वहि- महाजलैः । सुदूरात् परिहर्त्तव्यः कुर्वन् क्रीड़ां मृतस्तु यः ॥ नागानां विप्रियं कुर्वन् दग्धश्चाप्यथ विद्युता । निग्टहीताश्च ये राजा चोरदोषेण कुचचित् ॥ परदारान् चरन्तश्च रोषात्तत्पतिभिर्हताः । असमानैश्च सङ्कीर्णैश्चण्डालाद्यैश्च विग्रहम् ॥ कृत्वा तैर्निहतास्तद्वचण्डालादीन् समाश्रिताः । क्रोधात् प्रायं विषं वकिं शस्त्रमुद्दन्धनं जलम् ॥ गिरि-वृक्ष-प्रपातञ्च ये कुर्वन्ति नराधमाः । महापातकिनोये च पतितास्ते प्रकीर्त्तिताः ॥
पतितानां न दाहः स्यान्नांत्येष्टिनास्थि- मञ्चयः ।
न वाऽश्रुपातः पिण्डोऽस्य कार्यं श्राद्धादिकं कचित् " - इति ॥ नन्वयं चण्डालादि- हतानामग्नि-संस्कार- निषेधोनाहिताग्निविषयः । श्राहिताग्निविषयत्वे, “श्राहिताग्निमग्निभिर्यज्ञपाचैश्च दहेत्" - इति श्रुतिविहितानियज्ञपात्रादि प्रतिपत्ति-लोप प्रसङ्गादिति । मैवं स्मृत्यन्तरे चण्डालादिहताहिताग्निसंबन्धिनामनीनां यज्ञपात्राणां च प्रतिपत्त्यन्तर- विधानात् ;
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“वैतानं प्रक्षिपेदप्सु श्रावसथ्यञ्चतुष्पथे । पात्राणि तु दनौ यजमाने वृथामृते । श्रात्मनस्त्यागिनां नास्ति पतितानां तथा क्रिया ॥
तेषामपि तथा गङ्गा-तोये संस्थापनं हितम् ” - इति ।
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३ का०, प्रा०का० 1]
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पराशर माधवः ।
-
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तस्मात् सर्वेषां दुर्मृतानामविशेषेण दाहादि निषेधः । श्रयमाशौच श्राद्धादि निषेधो यावत् संवत्सरम् । पूर्णे तु संवत्सरे प्रेतस्य श्राद्धादि - संप्रदान- योग्यता - सिध्यर्थं नारायणवलिं कृत्वा सर्वमौईदैहिकं कार्यमेव । तदुक्तं षट्चिंशन्मते,
"गो-ब्राह्मण - हतानाञ्च पतितानां तथैवच ।
ऊर्द्ध संवत्सरात् कार्यं सर्वमेवोर्द्धदेहिकम्" - इति ॥ नारायणवलेच प्रेतया पादकत्वं व्यासेनोक्तम्, -
" नारायणं समुद्दिश्य शिवं वा यत् प्रदीयते । तस्य शुद्धिकरं कर्म तद्भवेन्नैतदन्यथा " - इति ॥
f
५८३
सर्प- इते त्वयं विशेष: ; संवत्सरपर्यन्तं पञ्चम्यां नागपूजां कृत्वा संवत्सरानन्तरं नारायणवलिं कृत्वा मौवर्णं नागं दद्यात्, प्रत्यक्षञ्च गाम् । तदुक्तं भविष्योत्तरपुराणे, -
"सुवर्णकारनिष्पन्नं नागं कृत्वा तथैव गाम् ।
"
व्यासाय दत्त्वा विधिवत् पितुरानृण्यमाप्नुयात् ” - इति ॥ प्रमाद - मरणे त्वाशौचमस्त्येव । तथाचाङ्गिराः, -
“यदि कश्चित् प्रमादेन म्रियतेऽग्न्युदकादिभिः । विहितं तस्य चाशौचं कार्य चैवोदक-क्रिया " इति ॥ ब्रह्मपुराणेऽपि
" प्रमादादथ निःशंकमकस्मात् विधि-चोदितः ।
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तस्याशौचं विधातव्यं कर्त्तव्या चोदकक्रिया - इति मु० पुस्तके पाठः ।
* 22
75
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Y६४
पराशरमाधवः।
[३खयाका ।
श्टङ्गि-दंष्टि नखि-व्याल-विप्र * विद्युजलामिभिः ॥ चण्डालैरथवा चौरैनिहतोयत्र कुत्रचित् ।
तस्य दाहादिकं कार्यं यस्मान्न पतितस्तु मः" इति ॥ विधितोमवग्नि-मरणे तु विशेषः । तथा च शातातपः,
"वृद्धः शौच-क्रिया-लुप्तः प्रत्याख्यात-भिषक्रियः ।। आत्मानं घातयेद्यस्तु भावग्न्यनशनादिभिः । तत्र त्रिरात्रमाशौचं द्वितीये त्वस्थि-मञ्चयः ॥ तृतीये उदकं कृत्वा चतुर्थ श्राद्धमाचरेत्" इति । अस्ति च भग्वनि-विधिः । तथाचादित्यपुराणे,
"दुश्चिकित्यै महारोगैः पीड़ितस्तु पुमान् यदि । प्रविशेज्ज्वलनन्दीप्तं कुर्यादनशनं तथा ॥ अगाधतोयराशिं वा गोः पतनमेव वा । गच्छेन्महापथं वाऽपि तुषारगिरिमादरात् ॥ प्रयागवटशाखायां देह त्यागङ्करोति वा । उत्तमानाप्नुयात् लोकानात्मघाती भवेत् कचित् ॥ वाराणस्यां मृतोयस्तु प्रत्याख्यात-भिषक्रियः । काष्ठ-पाषाण-मध्यम्योजावी-जल-मध्यगः ॥ अविमुक्तोन्मुखम्थस्य कर्ण-मूल-गतोहरः । प्रणवन्नारकं ब्रूते नान्यथा कुत्रचित् क्वचित्" ॥
ब्रह्मागर्भः,
* विध, इति मु • पुस्तके पाठः ।
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३१०,या का
पराशरमाधवः।
“योऽनुष्ठातुं न शक्नोति मोहाड्याध्युपपीडितः ।
सोऽग्नि-वारि-महायात्रां कुर्वन्नामुत्र दृष्यति"-इति ॥ देशान्तरमृतदति, अमपिण्डे देशान्तरमृते सद्यः शौचमित्यर्थः । तदाह मनु:
"बाले देशान्तरम्थे च पृथपिण्डे च मंस्थिते ।
सवासाजलमानुत्य मद्यएव विशुध्यति"-दति ॥ देशान्तरस्थत्वेन च मपिण्डो विशिष्यते । देशान्तर-लक्षणं वृद्धमनुनोत्रम्,
"महानद्यन्तरं यत्र गिरिवी व्यवधायकः ।
वाचोयत्र विभिद्यन्ते तद्देशान्तरमुच्यते"-दति ॥ हस्पतिनाऽपि,
"देशान्तरं वदन्थेके षष्टियोजनमायतम् ।
चत्वारिंशद्वदन्येके अन्ये त्रिंशत्तथैव च" इति । योजन-लक्षणन्त स्मत्यन्तरेऽभिहितम्,
"तिर्यग्यवोदराण्डौ पूर्वावा बोहयस्त्रयः । प्रमाणमङ्गलस्योकं वितस्तिद्वादशाङ्गुलम् ॥ वितस्तेर्डिगुणोऽरनिस्तस्मात् किष्कुस्ततोधनुः ।
धनु:सहस्र हे क्रोशचतुःक्रोशन्तु योजनम्”-दति ॥ बालोऽत्राकृतनामा, तस्मिन् मृते मति तत्मपिण्डानां मरणनिमित्ते सद्यः शौचमित्यर्थः ।
* ब्रोहयस्सथा,-इति मु• पुस्तके पाठः ।
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પૂર્વ
परापारमाधवः।
३५०,या का ।
तथा च शङ्खः । “प्राड्नाम-करणात्सद्यः शुद्धिः" इति । कात्यायनोऽपि,
"अनिवृत्ने दशाहे तु पञ्चत्वं यदि गच्छति ॥ मद्यएव विद्धिः स्यात् न प्रेतं नोदकक्रिया"-इति । मातापिटसहोदर-व्यतिरिक्त-विषयमेतत् । तथा च व्याघ्रः,
"बाले मृते मपिण्डानां सद्यः शौचं विधीयते ।
दशाहेनैव दम्पत्योः मोदराणां तथैवच"-इति ॥ जातमते मृतजाते वा मपिण्डानां सद्यः शौचम् । जन्मदिवसे विमरणे मात्रादीनां दशाहेनैव एशिः, दिवमान्तरमरणे तु शेषाहोभिर्विद्धिः । तथा च व्याघ्रः,--
"अन्तर्दशाहे जातस्य शिशोनिक्रमणं यदा।
सूतकेनैव शुद्धिः स्थापित्रोः शातातपोऽब्रवीत्" इति । स्मृत्यन्तरमपि। “अन्तर्दशाहोपरतस्य यत् पित्रादीनां मरणाशौचं तत् सूतकाहोभिः"-दति । गच्छतीति शेषः । जनन-निमित्तत्वाशौचं सर्वेषामस्त्येव । तथा च हारीतः । “जातमते मृतजाते वा मपिण्डानां दशाहः" इति। वृहस्पतिरपि,
“दशाहाभ्यन्तरे बाले प्रमीते तस्य वान्धवैः ।
शावाशौचं न कर्त्तव्यं सत्याशौचं समाचरेत्”-दति ॥ एतच्च नाभिच्छेदादूद्धं वेदितव्यम् । तथा च जैमिनिः,
"यावन्न विद्यते नालं तावन्नाप्नोति मृतकम् ।
छिन्ने नाले ततः पश्चात् मृतकन्त विधीयते"-इति । नाभिच्छेदात् प्राग्वृहन्मनुराह,
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३०, ध्या०का० ॥
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यन्तु वृहत्प्रचेतोवचनम्,—
पराशर माधवः ।
" जीवन जातोयदि ततोमृतः सूतकएव तु ।
मृतकं सकलं मातुः पित्रादीनां त्रिरात्रकम् ” इति ।
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५८७
"मुहतं जीवितोबालः पञ्चत्वं यदि गच्छति ।
मातुः शौचं दशाहेन सद्यः शौचास्तु गोत्रिणः " - इति ॥ तदग्निहाचाद्यनुष्ठानार्थं मद्यः शौच प्रतिपादनपरम् । तथाच शङ्खः । “अग्निहोत्राद्यनुष्ठानार्थं स्रात्वोपस्पर्शनात्तत्कालं शौचम्” इति । संन्यस्ते मृते मति तत्सपिण्डानां मद्यः शौचम् । तथाच वामनपुराणम्, - "बाले प्रब्रजिते चैव देशान्तर - मृते तथा ॥
सद्यः शौचं समाख्यातं विद्युत्पात मृते तथा" - इति । स्मृत्यन्तरमपि,--
" सर्व मङ्ग - निवृत्तस्य ध्यानयोग - रतस्य च ।
न तस्य दहनं कार्य्यं नाशाचं नोदक - क्रिया" ति ॥
पूर्व मम पिण्डस्य देशान्तर -गतम्य मरणश्रवणे तत्-मपिण्डानां सद्यः शौचमभिधायाधुना देशान्तर - गतस्य सपिण्डस्य संवत्सरादूर्ध्वं मरण-श्रवणेऽपि तत्-सपिण्डानां सद्यः शौचं विदधाति -
देशान्तर - स्मृतः कश्चित् सगाचः श्रयते यदि ॥ १० ॥ न चिरात्र महोराचं सद्यः स्नात्वा शुचिर्भवेत्*॥ इति ।
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मगोत्रः मपिण्डः । तस्य देशान्तरगतस्य मंवत्सरादूर्द्धं मरण-श्रवणे तत्-मपिण्डानां न त्रिरात्रमहारात्रं वाऽशौचं किन्तु सद्यः शौचम् |
* सद्यः खानेन शुध्यति - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः ।
३०,धा का।
दशाहादूर्द्धमा त्रिपक्षात् त्रिरात्रं, षण्मासादाक् पक्षिणी अर्वाक संवत्सरादेकाहमित्यर्थः । तथाच देवलः,
"श्रा त्रिपक्षात् त्रिरात्रं स्यात् षण्मामात् पक्षिणो ततः ।
परमेकारमावर्षादूई स्नातोविशुध्यति" इति ॥ विष्णुरपि,
"अवाक् त्रिपक्षात् त्रिनिशं षण्मामाच दिवानिशम् ।
अहः संवत्मरादाग देशान्तर-मृतेष्वपि"-इति ॥ अत्र दिवाशब्देनाईयमुच्यते । “षण्मामात् पक्षिणी"-इति वचनान्तरात् । याज्ञवल्क्योऽपि,
"प्रोषिते कालशेषः स्यात् पूर्णे दत्त्वोदकं शुचिः" इति ।
प्रेषिते देशान्तरस्थे सपिण्डे मृते श्राशौचमध्ये श्रुते मति तत्कालशेषेणैव शुद्धिः, पूर्ण संवत्सरे व्यतीते तन्मरणश्रवणे स्वाबोदकं दत्त्वा शुचिर्भवतीत्यर्थः । तथाच मनुः,____संवत्मरे व्यतीते तु स्पृष्दैवापोविशुध्यति"-इति ।
यत्तु गौतमेनोकम,-"श्रुत्वा चोचं दशम्याः पचिणी"-दति । तत् त्रिपक्षादूर्ध्वमाक् षण्मासाद्वेदितव्यम् । “षण्मामात् पक्षिणी"इति देवलस्मरणात् । यत् पुनर्वसिष्ठवचनम्-“देशान्तरस्ये मृते अचं दशाहात् श्रुत्वा एकरात्रम्”–दति । यच्च गद्यविष्णुवचनम्,"व्यतीते त्वाशौचे संवत्मरस्यान्तस्वेकरात्रेण अतः परं स्नानेन"इति । तदूर्ध्वं षण्मासादाक् संवत्सराद्वेदितव्यम् । “परमेकाइमावर्षात्”-इति स्मरणात् । यदपि शङ्खवचनम्,
"अतीते दशरात्रे तु त्रिरात्रमशचिर्भवेत्"-दति।
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३१०,याका
परापारमाधवः।
यूह
तत् त्रिपक्षादाग द्रष्टव्यम् । “अवाक् त्रिपक्षात्त्रिनिशम्'दति विष्णम्मरणात् । अत्र मूलवचनो सद्यःशौचविधानं ज्ञातिमात्रविषयं, पित्रादि-विषये तु विशेषः । तथाच पैठीनसिः,
"पितरौ चेन्मृती स्यातां दूरस्थाऽपि हि पुत्रकः ।
श्रुत्वा तद्दिनमारभ्य दशाहं मृतकी भवेत्"-दति ॥ दक्षोऽपि,
“महागुरु-निपाते तु श्रावस्त्रोपवामिना ।
अतीतेऽब्देऽपि कर्तवं प्रेतकार्य यथाविधि"-दूति ॥ मंवत्मगदूर्ध्वमप्याशौचोदकदानादिकं कायें, न पुन: स्नानमात्राछद्धिरित्यर्थः। पिट-पत्न्यां माट-व्यतिरिकायां विशेषोदक्षण दर्शितः,
"पिल-पत्न्यामतीतायां मारवज द्विजोत्तमः ।
संवत्सरे व्यतीतेऽपि त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्”- इति । ददं चातिक्रान्ताशौचमुपनौतोपरम-विषयम् । तथाच व्याघ्रपादः,
"तुल्यं वयमि सर्वेषामतिक्रान्ते तथैव च ।
उपनौते तु विषमं तस्मिन्नेवातिकालजम्" इति ॥ अयमर्थः । षण्मामादिरूपे वयसि यदाशौचं : “आदन्तजन्मनः सद्यः"--इत्यादिवचन-विहितं, तत्सर्वेषां ब्राह्मणादीनां तुल्यमविशिष्टम् । अतिक्रान्ते दशाहादि के विरात्राद्यागौचं यत्, तत् मर्वेषां समानम् । उपनाते तु मते दश-दादश-एञ्चदश-त्रिंशदिनानीत्येवं विषममाशोत्तं ब्राह्मणादीनाम् । अतिकालजमतिक्रान्ताशौचं तस्मिन्नेवोपनीतोपरमएव, नानुपनौतोपरमे,-दति । जनने त्वतिक्रान्ताशौचं नास्ति । तदाह देवलः,
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६००
पराशरमाधवः ।
[३५०, पाका ।
“नाशद्धिः प्रभवाशौचे व्यतीतेषु दिनेम्वपि"-इति । मनुरपि,
"निर्दशं ज्ञाति-मरणं श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च ।
मवामाजलमाप्नुत्य शुद्धोभवति मानवः" इति ॥ अत्र पुत्र-ग्रहणात् निर्देशेऽपि पितुः स्नानेन शुद्धिः, मपिण्डानान्त्वतिक्रान्ताशौचं नास्तीत्यर्थः । अन्तर्दशाहे तु शेषाहोभिर्विशद्धिः । तथाच शङ्ख,
“देशान्तरगतं श्रुत्वा कल्याणं मरणं तथा ।
यच्छेषं दशरात्रस्य तावदेवाशुचिर्भवेत्” इति । विविधोहि देशान्तर-मृतः ; कृतसंस्कारोऽकृतमस्कारश्च । तत्र कृतसंस्कारस्य मरण-श्रवणे मंवत्सरादागर्ल्ड वाऽशौचं वचन-दयेन व्यवस्थापितम्। अकृतसंस्कारस्य मरण-श्रवणे त्वाशौचग्रहण-पिण्डदानादेः कालविशेषोविवियते । अकृतसंस्कारोऽपि विविधः, मरणदिवम-ज्ञानाज्ञानभेदात् । यस्य हि मरण-दिवसेविज्ञातः, तस्य प्रत्याब्दिकादि-श्राद्धं तदिवस-एव कर्तव्यं, श्राशौचग्रहण-पिण्डोदकदानवनिषिद्ध-नक्षत्रादिकं पालोच्य तत्रानुष्ठेयम्, शिष्टाचारस्य तथा प्रवृत्तत्वात् । यस्य तु दिवसेन विज्ञातः, तं प्रत्ोतदुच्यते, देशान्तरगतो विप्रः प्रयासात् कालकारितात् ॥११॥ देह-नाशमनुप्राप्तस्तिथिन ज्ञायते यदि।। कृष्णाष्टमी त्वमावस्या कृष्णा चैकादशी च या ॥१२॥
* कालचोदितात्, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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३०,पा.का.)
पराशरमाधवः ।
उदकं पिण्डदानञ्च तच श्राद्धच्च कारयेत् ।
तीर्थ यात्राऽऽदिना केनचिनिमित्तेन देशान्तर-गतस्य विप्रस्य चिरकाल-बहुदेशपर्यटनादि-सम्पादितादायाम-बाहुल्याद्यत्र क्वापि देहनाशोभवति, अतएव तन्मरण-तिथिर्न ज्ञायते मरण-वाती च यदा कदाचित् श्रुता भवति, तत्र तदीयाशौच-स्वीकारस्तिलोदकपिण्डदानोपक्रमादिकञ्चेत्येतदुभयं कृष्णाष्टम्यादिषु तिसृषु तिथिबिच्छया कस्याचित्तियो कर्त्तव्यम्। तस्यामेव तिथावाब्दिकश्राद्धश्च कर्त्तव्यम् । ___ यद्यप्यस्मिन् वचने आशौच-खीकारः साक्षानोपात्तः, तथापि पूर्वोत्तर-वचनयोराशौच-विषयत्वेन तत्प्रकरणत्वादाशौच-खीकारमन्तरेण तिलोदक-पिण्डदानासम्भवाचाशौच-खीकारोऽप्यत्र विवक्षितः,इति गम्यते । उदकादि-बहुकर्त्तव्योपन्यामेन श्राद्धप्रकरणस्य कृतनस्थाप्यत्र सङ्घहोविवक्षितः । मंग्टहीतच तत्प्रकरणमुपरिटादस्माभिः प्रपञ्चयिष्यते।
पूर्वमकतनानोवालस्य मरणे मपिण्डानां मद्यः शुद्धिरभिहिता, ददानी कृतनानोऽप्यजात-दन्तस्य वालस्य मरणे सह संस्कारेणाशौचं निषेधति,
अजातदन्ताये वालाये च गर्भादिनिःसताः ॥१३॥ न तेषामग्मि-संस्कारो नाशाचं नोदकक्रिया। प्रजातदन्ताअनुत्पन्नदन्ताः कृतनामानोये बालामृताः, ये च गर्भा* एतद्दचनदयं मूलवचनमेवेति व्याख्यायाः पूर्वापरप-लोचनया
प्रतीयते । मुदित पुस्तके तु मूलवचनतया न मुदितमेतत् । । गभादिनिःसृताः, इति सेो. ना. पुस्तके पाठः ।
75
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पराशरमाधवः।
[३५०,या का।
दिनिस्ता* पतिताः, तेषां तत्मपिण्डैनामि-संस्कारादिकं कर्त्तव्यमित्यर्थः । तथाच ब्रह्मपुराणम्,
"स्त्रीणन्तु पतितोगर्भः सद्योयातोम्टतोऽथवा । प्रजातदन्तोमासैवी मृतः षभिर्गतस्तथा । वस्त्राद्यैर्भूषितं कृत्वा न्युप्तव्यस्तु स काष्ठवत् ।
खनित्वा तु शनभूमि मद्यः शौचं विधीयते” इति ॥ स्त्रीणं योगर्भः पतितः, यश्च जननक्षणएव मृतः, यश्च षण्मासात् प्राङ्मृतः, यश्च षण्मासादूर्द्धमप्यजातदन्तः मन् मृतः, स काष्ठवमिं खनित्वा निक्षेप्तव्यः । मात्रादिव्यतिरिक्तैः मपिण्डैनीशौचादिक कर्त्तव्यमित्यर्थः । विष्णुरपि । “अजातदन्ते वाले प्रेते सद्यएव नामि संस्कारोनोदकक्रिया"-इति ।
पूर्वत्र गर्भ-पाते सपिण्डानां वधूनां. सद्यः शुद्धिमभिधायाधुना मातुस्तनिमित्तमाशौचमस्तीत्यार,
यदि गर्भाविपद्येत सवते वाऽपि योषितः ॥१४॥ यावन्मासं स्थितोगी दिनन्तावत्तु सूतकम्।
यदि गर्भस्य खाव-पातौ स्यातां, तदा यावत्सु मासेषु गर्भ: स्थितस्तन्मास-सङ्ख्या-सम-दिनं योषितामातुः मृतकं सत्यागौचमित्यर्थः। तथा च याज्ञवलक्या,
"गर्भस्रावे मास-तुल्याः निशाः शुद्धेस्तु कारणम्" इति। माम-तुल्या-निशाः, इति चतुर्थमासप्रमत्यामप्तमावेदितव्यम् । अवाक् तु यथावण विरात्रादयः । तथा च मरीचिः,* विनिःसृताः, इति सा. ना. पुस्तके पाठः ।
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३च्च श्र०का० ।]
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पराशर माधवः ।
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६०६
"गर्भ - स्रुत्यां
यथामासमचिरे वृत्तमे त्र्यहम् ।
राजन्ये तु चतूरात्रं वैश्ये पञ्चाहमेव तु ॥ टान तु शूद्रस्य शुद्धिरेषा प्रकीर्त्तिता" इति । श्रचिरे मामत्रये गर्भस्त्रावे उत्तमे ब्राह्मणे त्र्यहम् । गौतमोऽपि । "गर्भमाम - समा रात्रिः संसने गर्भस्य त्र्यहं वा " - इति । गर्भमासममरात्रि त्र्यहयोर्व्यवस्थितो विकल्पः । मामत्रयं यावत् त्र्य ततः परं मास समारात्रयदति । श्रादिपुराणे -
अत्र
" षण्मासाभ्यन्तरं यावद्गर्भ - स्त्रावाभवेद्यदि ।
तदा मास्तासां दिवसः शुद्धिरिष्यते " - इति ॥ एतच्च स्त्रावनिमित्ताशौचं मातुरेव । पात निमित्तन्तु पित्रादीनामप्यस्ति । तथा च मरीचिः, -
"स्रावे मातुस्त्रिरात्रं स्यात् सपिण्डाशौच - वर्जनम् ।
पाते मातुर्यथामामं सपिण्डानां दिनत्रयम्" - इति ॥ वमिष्टोऽपि । “उनदिवर्षे प्रेते गर्भपतने वा सपिण्डानां त्रिराचं " इति । स्वावे पितुर्विशेषमाह वृद्धवसिष्ठ: । "गर्भस्रावे मासतुन्यारात्रयः स्त्रीणां स्नानमात्रमेव पुरुष" इति ।
ननु, स्त्राव - पातयोरप्राप्त - प्रसवकालत्वाविशेषादनयोः को विशेष -
इत्यत श्राछ,
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श्री चतुर्थीद्भवेत् स्वावः पातः पञ्चम-षष्ठयोः ॥ १५ ॥ अतऊई प्रसूतिः स्यादशाहं नूतकं भवेत् । - इति ॥
चतुर्थ मामाभ्यन्तरे गर्भनाशः स्वावः । पञ्चमषष्ठयोर्गर्भनाशः पातः ।
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६०४
पराशरमाधवः।
घा०का.
नत्र माममङ्ख्यया विहितमाशौचं मातुर्भवेत्। अतऊर्द्ध सप्तममाम प्रति गर्भनिर्गमः प्रसवः । तत्र मातुः प्रसवनिमित्तमाशौचं दशा भवेदित्यर्थः । यत्तु चतुर्विंशतिमते उक्रम्,
"अधस्तानवमान्मामाच्छुद्धिः स्यात् प्रसवे कथम् ?
मृते जीवति वा तस्मिन् अहाभिमास-मङ्ख्यया"-इति ॥ अस्थायमर्थः । नवमामासादाक् सप्तममासादारभ्य प्रसवे मति तन्निमित्तमाशौचं मृतिकाव्यतिरिक्रममपिण्डानां मासमङ्ख्याकैरहोभिर्विधीयतदति। सतिका-विषयत्वे, दशाइविधि-विरोधः प्रमज्येत । नन्वेवं तईि, जातौ विनोदशा हेन, दुति मर्वमपिण्डानां जनननिमित्तदशाहाशौच-विधायक-वचनं विरुध्येत । तन्त्र, तस्य नवम-दशम-मामप्रमव-विषयत्वेनोपपत्तेः । अथ वा, एकविषयत्वेऽपि विकस्पेन व्यवस्थाऽस्तु ।
वालस्यामि-संस्कारे मत्याशौचं दर्शयति, दन्तजातेऽनुजाते च कृतचूडे च संस्थिते ॥१६॥ अग्नि-संस्करणे तेषां चिराचमशुचिर्भवेत् । इति ॥
जातादन्तायस्यामौ दन्नजातः । तदनु पश्चान्जातोऽनुजातः, अनुत्पन्नदन्तदति यावत्। कृतं चूडाख्यं कर्म यम्यामौ कृतचूडः। तत्र जातदन्तस्याकृतचडस्यानुजातस्य च मत्यग्नि-संस्कारे हतीयवर्षकतन्डे च मंस्थिते तेषां मपिण्डस्त्रिरात्रमचिर्भवेदित्यर्थः । तत्राकृतचूडस्य जातदन्तम्य दाहपने विगत्राशौचमङ्गिरसेक्रिम,
* तेषां मपिण्डानां त्रिरात्रमशुद्धिर्भवेदित्यर्थः, इति मु. पुस्तक पाठः।
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छायाका०]
पराशरमाधवः।
"यद्ययकृत चडोवै जातदन्तस्तु मंस्थितः ।
दायित्वा तथाप्येनमाशौचं यहमाचरेत्" - इति ॥ पुगणेऽपि,
"अनतीतदिवर्षस्तु प्रेतोयत्रापि दह्यते ।
अशौचं वान्धवानान्तु त्रिरात्रतत्र विद्यते"-इति ॥ यत्त विष्णुवचनं, "दन्तजाते त्वकृतचूडे त्वहोराण"-दति तम् खननपने वेदितव्यम् । प्रजातदन्तस्य कृतचूडस्य दहने चिराचा शौचं षट्त्रिंशमतेऽभिहितम्,
"जद्यष्यजातदन्तः स्यात् कृतचूतस्तु मंस्थितः ।
तथापि दाइयेदेनं यच्चाशौचमाचरेत्" इति ॥ यत्तु यमेनोकाम,*
"प्रजात-दन्ते तनये शिशौ गर्भच्युते तथा ।
मपिण्डानान्तु सर्वेषां अहोरात्रमशौचकम्” इति । तदकतचूडविषयम् । नयनुजातस्य कृतद्धत्वं कथं, तस्य हतीये विहितत्वादिति चेत्, न,
"चूडाकर्म विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः ।
प्रथमेऽब्दे वतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनात्" इति मनुना विकल्पेन स्मतत्वात् । मिसंस्करणे, इत्येतदिकल्पेनाभिधानं जातदन्तानुजातयोरेव न त्रिवर्षकृतचूडे, तवाग्निसंस्कारस्य नियतत्वात् । दूतरचाग्रिसंस्कार-विकल्पोमनुना दर्शितः,
“नात्रिवर्षस्य कर्त्तव्या वान्धवैरुदकक्रिया । * मनुनोलम्, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः।
[३५०,या०का।
जातदन्तस्य वा कुर्यानाम्नि वाऽपि कृते मति"-दति ॥ उदकक्रियेति श्रमिसंस्कारोपलक्षणार्थम् ।
वयोऽवस्थाविशेषेणाशौचविशेषं दर्शयति, आ दन्तजन्मनः सद्य आ चड़ान्नैशिकी स्मृता* ॥१७॥ चिराधमा व्रतादेशाद् दशाराचमतः परम्। इति ॥ ___ दन्तजननात् प्रागतीतस्य वालस्य संबन्धिनां मपिण्डानां सद्यः शौचम् । दन्तजननादूचं प्राक् चूडाकरणादतीतस्य संबन्धिनां नैशिकी, निश्शायां भवा, अहोरात्रमशुद्धिः। प्रतादेशउपनयनम्। ततोऽवाक् चूडायाश्चोर्ध्वमतीतस्य संबन्धिनां त्रिरात्रमशद्धिः। ततः परं दशरात्रमित्यर्थः । तथा च संग्रहकारः,
"नामोदन्तोद्भवाचाडादुपनीतेरधः क्रमात् ।
मद्यःशौचमहत्यहो नियताग्न्युदकः परः” इति ॥ शङ्खोऽपि,
"अजातदन्ते तनये सद्यः शौचं विधीयते । अहोरात्रात्तथा शद्धिवाले वकृतचडके ।। तथैवानुपनीते तु यहाच्छयन्ति वान्धवाः” इति । यत्तु काश्यपवचनं, “वालानामजातदन्तानां विरात्रेण शुद्धिः"इति । तन्मातापिटविषयम् । अतएव मनुः,
"निरस्य तु पुमान् शुक्रमुपस्पृश्य विशुध्यति । वैजिकादपि संबन्धादनिरंध्यादघं अहम्" इति ॥
* क्रिया, इति मु० पुस्तके पाठः ।
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३०, च्या०का० । ]
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पराशर माधवः ।
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वैजिकसंबन्धो जन्यजनकभावः । यत्तु स्मृत्यन्तरम्,
“प्राङ्नामकरणात्सद्य एकाहोद न्तजन्मनः " - इति । तहने * वेदितव्यम् । खनने तु मद्यः शुद्धिः । " श्रजातदन्ते वाले प्रेते सद्यएव नास्त्यग्नि संस्कारोनोदकक्रिया " - इति विष्णुस्मरणात् । तु वशिष्ठवचनं, "उनदिवर्षे प्रेते गर्भपतने वा सपिण्डानां चिराचम्” – इति । तनातदन्तस्याग्निसंस्कारे द्रष्टव्यम् । ततश्चैवं व्यवस्था । नामकरणात् प्राक् सद्यः शौचं नियतं, तदूर्ध्वं प्राक् दन्तजननादग्निसंस्कारक्रियायामेकाहः श्रन्यथा सद्यः शुद्धिः, तस्याप्यजातदन्तस्य चूडाकरणे चिराचं, दन्तजननादूर्ध्वमवाक् चूडाकरणादेकाहं खनने, श्रग्निसंस्कारे तु त्र्यहः, ऊर्ध्वं चूडायाः प्रागुपनयनात् त्र्यहः, उपनयनादूर्द्ध ब्राह्मणादीनां दशाहादिकमिति । इयं व्यवस्था पुमपत्यमरणे द्रष्टव्या । व्यपत्ये तु विशेषोवृद्धमनुना दर्शितः, - “प्रौढायान्तु कन्यायां सद्यः शौचं विधीयते ।
"
हस्त्वदत्तकन्यासु दत्तासु च त्र्यहं तथा" - इति ॥
* तदखनने, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
६०७
श्रप्रौढायां प्रकृतचूडायामित्यर्थः
“श्रचूडायान्तु कन्यायां सद्यः शौचं विधीयते " - दत्यापस्तम्ब - स्मरणात् । अदत्तकन्यासु वाचाऽदत्तासु श्रहोरात्रं, दत्तासु वाग्दत्तासु व्यहम् । तथाच मरीचिः । “चूडाकरणे सद्यः शौचं प्राग्वाग्दानादेकाच्ह: दत्तानां प्राक् परिणयनात् त्र्यहम् " - इति । ब्रह्मपुराणेऽपि -
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पराशरमाधवः ।
३चा,पा०का।
"श्रा जन्मनस्तु चौड़ान्तं कन्या यदि विपद्यते। सद्यः शौचं भवेत्तत्र सर्ववर्णेषु नित्यशः ॥ ततोवाग्दानपर्यन्तं यावदेकाइमेव हि । ततः परं प्रद्धायां त्रिरात्रमिति निश्चयः ॥ वाकप्रदाने कृते तत्र ज्ञेयश्चोभयतस्त्रयहम् । पितुर्वरस्य च ततोदत्तानां भर्तुरेव हि।
खजात्यामशौचं स्यान्मृतके जातके तथा" -इति ॥ पुलस्त्योऽपि,
"मद्यस्त्वप्रौढ़कन्यायां प्रौढायां वासराच्छुचिः ।
प्रदत्तायां त्रिरात्रेण दत्तायां पक्षिणी भवेत्”-दति || प्रदत्तायां प्रक्रान्तदानायां वाचा दत्तायामिति यावत् । वाग्दानानन्तरं मृतायां त्रिरात्रम् । मनुरप्याह,
"स्त्रीणामसंस्कृतानान्तु अहाच्छुध्यन्ति वान्धवाः ।
यथोक्रेनैव कल्पेन प्राध्यन्ति तु मनाभयः" इति ॥ वान्धवाः पतिमपिण्डाः। सनामयः पिलमपिण्डाः। यथोक्रेन कल्पेन त्रिरात्रेण । अतएव मरीचिः,
"अवारिपूर्व प्रत्ता तु या नैव प्रतिपादिता ।
असंस्कृता तु मा जेया त्रिरात्रमुभयोः स्मृतम्"-दति ॥ उभयोरपिटपक्षयोः। तचूडायां यत् सद्यः भौचविधानं कतचडायां यदेकाहविधान, तन्मातापिटव्यतिरितविषयम् ।
"प्रत्ताऽप्रत्तासु योषित्सु संस्कृताऽसंस्कृतासु च । मातापित्रोस्त्रिरात्र स्थादितरेषां यथाविधि"-इति ॥
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३१०,या का]
पराशरमाधवः।
"प्रजातदन्तासु पित्रोरेकाइम्” इति शङ्ख कार्णाजिनिभ्यां विशेषस्मरणात् । अदत्तासु त्रिरात्रविधानं जातदन्तविषयम् । प्रजातदन्ताखेकाइविधानात् । संस्कृतासु पित्रोस्त्रिरात्रं तद्ग्टहमरणे वेदितव्यम् । तथा च विष्णुः । “संस्कृतासु स्त्रीषु नाशौचं पिट पक्षे तत्प्रसवमरणे चेत् पिबग्टहे स्यातां तदैकरात्र त्रिरात्रं च"-इति । तत्र प्रसवे मरणे च बन्धवर्गस्यैकरात्रं पिोस्त्रिरात्रमिति व्यवस्था । ब्रह्मपुराणेऽपि,
"दत्ता नारी पितुर्गेहे सूयेताथ वियेत च ।
तबन्धुवर्गस्वेकेन चिस्तजनकस्त्रिभिः" इति ॥ पित्रोरुपरमे संस्कृतानां स्त्री त्रिरात्रम्। तथाच वृद्धमनुः,
"पित्रोरुपरमे स्त्रीणामूढानान्तु कथं भवेत् ।
विरात्रेणेव द्धिः स्थादित्याह भगवान् यमः" इति ॥ पित्रोर्मातापित्रोरुपरमे विवाहसंस्कारसंस्कृतानां दुहितां त्रिराण द्धिरिति। दौहित्र-भगिनीसुतयोरसंस्कृतयोः पक्षिण्याशौचं संस्कृतयोस्त्रिरात्रम् । तथा च वृद्धमनुः,
"मंस्थिते पक्षिणों रात्रि दौहित्रे भगिनीसुते ।
संस्कृते तु त्रिरात्रं स्यादिति ध व्यवस्थितः" इति ॥ दौहित्रे भगिनीसुते वाऽनुपनीते मृते मति पक्षिणीमागामिवर्तमानाइर्दययुकां रात्रि मातामहादिः क्षपयेत्, उपनीते तु तस्मिन् हते मति मातामहादीनां त्रिरात्रमाशौचं भवेदित्यर्थः । मातामहादीनां मरणे दौहित्रादीनां त्रिरात्रमाशौचम् । तथा च वृहस्पतिः,
"व्यहं मातामहाचार्यश्रोत्रियेवशुचिर्भवेत्" इति ।
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पराशरमाधवः।
[इष.,वाका ।
त्राचार्योऽवासपिण्डः मन्नुपनयनादिकली। श्रोत्रियस्लेकशाखाध्यायी, मैत्री प्रातिवेश्यत्वादिनोपसम्पन्नः । एतेषु मातामहादिषु मृतेषु त्रिरात्रमिति । विष्णुरपि । “श्राचार्ये मातामहे च व्यतीते त्रिरात्रेण" इति। मनुरपि,
"श्रोत्रिये उपसम्पन्ने त्रिरात्रमशचिर्भवेत्" इति । एतत्त्रिरात्राशौचं परकर्टकदहनादौ वेदितव्यम् । .. "गुरोः प्रेतस्य शिष्यस्तु पित्मेधं समाचरन् ।
प्रेताहारैः समन्तत्र दशरात्रेण शड्यति"-इति खकर्टकदाहादौ मनुना विशेषस्मरणात्। मानवस्रादिषु चिरात्रमाशौचम् । तदाह प्रचेताः,
"मानवसमातुलयोः श्वश्रूश्वशरयोर्गुरोः ।
मृते चर्विजि याज्ये च त्रिरात्रेण विशड्यति" इति । गुरुराचार्यः । ऋत्विकुलपरम्पराऽऽयातः। याज्योऽपि तथाविधः। यत्तु याज्ञवल्क्यवचनम्,
“गुर्वन्तेवास्यनचानमातुलश्रोत्रियेषु च” इति । यत्तु विष्णुवचनम्,-"प्राचार्यपत्नीपुत्रोपाध्यायमातुलवारश्वश्रूश्वशर्यसहाध्यायिशिय्येवतीतेवेकरात्रेण” इति। तत्र गुरुरूपाध्यायः, अन्तेवासी अन्योपनीतशिष्यः । खोपनीते तु, "शिव्यसतीर्थमब्रह्मचारिषु त्रिरात्रमहोरात्रमेकाहः" इति बौधायनेन त्रिरात्रविधानात् । मातुल: अनुपकारी विदेशस्थोवा । श्रोत्रियोऽनुपसम्पन्नः । श्वश्रूश्वरावप्यनुपकारिणौ विदेशस्यौ वा । एकस्मिन् गुरुकुलेऽल्पकालं महाध्यायी। एतेम्बेकरात्रमिति व्यवस्था। यत्नु मनुनोत्रम्,
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३८०, आ०का० ।]
" मातुले पक्षिणीं रात्रिं शिष्यर्लिग्बान्धवेषु च - इति । तस्यायमर्थः । स्वल्पोपकारके मातुले । शिष्योऽन्योपनीतसाङ्गवेदाध्यायी । ऋत्विक श्राधानप्रभृतियावज्जीवमार्लिज्यकारी । बान्धवाः माढपिटबान्धवाः । एतेषु पक्षिष्याशौचमिति । अनौरस पुत्रादिषु त्रिरात्रमा शौचम् । तदाह विष्णुः, -
I
“अनौरसेषु पुत्रेषु जातेषु च मृतेषु च ।
परपूर्वी भार्यासु तासु मृतासु च - इति ॥
त्रिरात्रमित्यनुवर्त्तते । हारीतोऽपि -
पराशर माधवः ।
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६११
" परपूर्व्वा भार्यासु पुत्रेषु कृतकेषु च ।
मातामहे त्रिरात्रं स्यादेकान्हन्तु सपिण्डतः " - इति ॥ शङ्खोऽपि -
“अनौरसेषु पुत्रेषु भार्यास्वन्यगतासु च ।
परपूर्व्वासु च स्वासु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते " - इति । अनौरमाः क्षेत्रजादयः । परपूर्वाः पुनर्भुवः । अन्यगताः खैरिण्यः । एतेष्वनौरमादिषु यत्प्रतियोगिकं भार्यात्वं पुत्रत्वञ्च तस्यैवेदं चिरात्रमाशौचमित्यर्थः । यत्त्वेकादविधानम्, -
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“अनौरसेषु पुत्रेषु भार्यास्वन्यगतासु च - इति ।
तदमनिधिविषयम् । सन्निधावपि पितृसपिण्डानामेकारएव । तथाच मरीचिः,
"एकाहस्तु सपिण्डानां त्रिरात्रं यत्र वै पितुः" इति । यत्तु प्रजापतिनोक्रम्, -
"अन्याश्रितेषु दारेषु परपत्नीसुतेषु च ।
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६१२
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पराशर माधवः ।
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[ ३०, पा०का० ।
गोत्रिणः स्नानशुद्धाः स्युस्त्रिरात्रेणैव तत्पिता" - इति ॥
नानादेव शुद्धिरिति यत्, तत्समानोदकविषयं श्रसन्निधिविषयं वा । एकस्यां मातरि पितृदयोत्पादितयोर्भ्रात्रोरन्यतरस्मिन्मृतेऽन्यतरस्य त्रिरात्रमाशौचं भवति । तथा च मरीचिः
“माया favant भ्रातरावन्यगोत्रकौ । 1
एकाहं स्रुतकं तत्र त्रिरात्रं मृतके तयोः ” इति ॥ श्रसपिण्डयोनिसंबन्धिमरणे पक्षिण्या शौचम् । तदाह गौतमः, -
"पक्षिणीमसपिण्डे योनिसम्बन्धे महाध्यायिनि वा " -- इति । श्रयमर्थः । श्रसपिण्डः स्ववेश्मनि मृतः । योनिसंबन्धा मातृव्वस्त्रीयपितृष्वस्त्रीयादयः । महाध्यायी गुरुकुले सह कृत्नवेदाध्यायी । चकारादुर्वङ्गणादयोऽपि संग्टह्यन्ते । तेषु पक्षिणों तत्संबन्धप्रतियोगी चपयेदिति । तथा च वृहन्मनुः
" मातुले घरे मित्रे गुरौ गुब्वंगणासु च ।
शौचं पक्षिणीं राचिं मृता मातामही यदि ॥
श्वशुरयोर्भगिन्याञ्च मातुलान्याञ्च मातुले । पित्रोः स्वरि तद्वच्च पक्षिणीं चपयेन्निशाम् " - इति ॥
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यत्तु विष्णुमोक्रम् । “अमपिण्डे स्ववेश्मनि मृते एकराचम् " - इति ।
--
तदप्रधान ग्टहमरणे वेदितव्यम् । यदप्यङ्गिरसोक्तम्, -
"गृहे यस्य मृतः कश्चिदसपिण्डः कथञ्चन । तस्याप्यशौचं विज्ञेयं त्रिरात्रं नात्र संशयः " इति ॥ तदसपिण्डश्रोत्रियविषयम् । यत्तु वृहन्मनुनैवोक्रम्,— “भगिन्यां संस्थितायान्तु भ्रातर्यपि च संस्थित।
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३५०,या का.
पराशरमाधवः।
६१३
मित्रे जामातरि प्रेते दौहित्रे भगिनीसुते ॥
ग्याल के तत्मते चैव सद्यः स्नानेन शुध्यति" इति । तत्र भगिन्यादौ सद्यःशयभिधानं देशान्तरमरणविषयम् । जामावश्यालकसुतयोः मन्निधावेव सद्यःद्धिरिति। निवामराजन्यइनि मृतेऽहराशौचं, रात्रौ चेद्रात्रिमात्रमिति । अतएव मनुः,
"प्रेते राजनि मज्योतिर्यस्य स्याविषये स्थितः" इति । ज्योतिषा मोरेण नाक्षत्रेण वा मह वर्त्तते यदाशौचं,तत् मज्योतिः । अहनि द्यावत्सूर्यदर्शनं, रात्रौ चेद्यावन्नक्षत्रदर्शनमित्यर्थः। ग्राममध्ये शवे स्थिते ग्रामस्य तावदाशौचम् । तदाह सद्धमनुः,... “ग्राममध्यगतोयावच्छवस्तिष्ठति कस्यचित् ।
ग्रामस्य तावदाशौचं निर्गते शुचितामियात्'-दूति॥ ग्रामेश्वरादावपि मज्योतिराशौचम् । तदाह मएव,
"ग्रामेश्वरे कुलपतौ श्रोत्रिये च तपस्विनि।
भिव्ये पञ्चत्वमापन्ने शुद्धिनक्षत्रदर्शनात्”-दति ॥ कुलपतिः समूहपतिः। श्रोत्रियोदेशान्तरस्थः । उक्तस्याशौचस्यामिहोत्रिब्रह्मचारिणोरपवादमाह,ब्रह्मचारी रहे येषां हूयते च हुताशनः ॥१८॥ सम्पर्क न च कुर्वन्ति न तेषां स्वतकं भवेत् । इति ॥
ब्रह्मचारी उपकुर्वाणकोनैष्ठिकश्च, येषाङ्गहे हुताशना इयते अमिहोत्रमनुष्ठीयते, तेषामग्रिहोत्रानुष्ठानकाले नास्त्याशौचं ; यदि ते मृतकिभिः सह संसगै न कुर्युः । तदुकं कूर्मे,
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६१8
पराशरमाधवः ।
[३५०,वा का।
"नैष्ठिकानां वनस्थानां यतीनां ब्रह्मचारिणाम् ।
नाशौचं कीर्तितं मभिः पतिते च तथा मृते"-इति ॥ देवलोऽपि;
"नैष्ठिकानां वनस्थानां यतीनां ब्रह्मचारिणाम् ।
नाशौचं सूतके प्रोकं शावे वापि तथैव च”-दति ॥ वृहस्पतिरपि,
"खाध्यायः क्रियते यत्र होमश्चोभयकालिकः।
मायंप्रातर्वैश्वदेवं न तेषां मृतकं भवेत्" इति ॥ संसर्गस्यास्पश्यत्वकर्मानधिकारलक्षणाशौचापादकत्वमन्वयव्यतिरेकाभ्यामुपपादयतिसम्पर्काइष्यते विप्रो जनने मरणे तथा॥१६॥ सम्पर्काच्च निवृत्तस्य न प्रेतं नैव सूतकम्। इति ॥ स्पष्टार्थमेतत् ॥ किञ्च, शिल्पिनः कारुका वैद्या दासीदासाश्च नापिताः॥२० राजानः क्षोचियाश्चैव सद्यःशौचाः प्रकीर्तिताः॥ सव्रतः सचपूतश्च आहितामिश्च योदिजः ॥२१॥ राजश्च सूतकं नास्ति यस्य चेच्छति पार्थिवः॥ उद्यता निधने दाने अात्ती विप्रो निमन्त्रितः ॥२२॥ तदैव ऋषिभिदृष्टं यथा कालेन शुध्यति। इति ॥
शिल्पिनश्चित्रकाराद्याः । कारकाः सूपकारप्रभृतयः। वैद्याश्चिकित्सकाः। होत्रियाः सद्यः प्रक्षालिकाः । तेन चान्द्रायणादिनियमेन
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३व, चाका.
पराशरमाधवः।
६९५
सह वर्तते इति मनतः । मत्रपूतो गवामयनाधिकृतः। एते खखकर्मणि सद्यःशौचाः । राज्ञः, राजसंबन्धिनो मान्यस्य, यस्य च पुरोहितस्यानन्यसाध्यमन्त्राभिचारादिकर्मसिध्यर्थमाशौचाभावमिच्छति, तयोरपि तत्तत्कर्मणि सूतकं नास्ति । निधनशब्देन तत्माधनभूतः सङ्घामोलक्ष्यते। तत्रान्नादिदाने चोद्यतः कृतोपक्रमः, पार्नः प्रापदं प्राप्नः, श्राद्धादौ निमन्त्रितोविप्रश्च तदैव मद्यएव शुध्यतीति ऋषिभिदृष्टम्।यथा कालेन द्वादभरात्रादिना, तथेत्यर्थः । तथा चादिपुराणे,
"शिल्पिनचित्रकाराचाः कर्म यत्माधयन्यलम् । तत्कर्म नान्यो जानाति तस्माच्छुद्धवाः खकर्मणि ॥ सूपकारेण यत्कर्म करणीयं नरेविह। तदन्यो नैव जानाति तस्माच्छुद्धः स सपछत् ॥ चिकित्मकोयत्कुरुते तदन्येन न शक्यते । तस्माचिकित्मकः स्प” शुद्धो भवति नित्यशः ॥ दास्योदासाश्च यत्किञ्चित् कुर्वन्यपि च लीलया। तदन्यो न क्षमः कत्तुं तस्मात्ते एचयः सदा ॥ राजा करोति यत्कर्म खप्रेऽप्यन्यस्य तत् कथम् । एवं मति नृपः शुद्धः संस्पर्श मृतस्तके ॥ यत्कर्म राजमृत्यानां इस्त्यश्वगमनादिकम् ।
तनास्ति यस्मादन्यस्य तस्मात्ते शुचयः स्मता:"-दति ॥ विष्णरपि। “अशौचं न राज्ञा राजकर्मणि न वतिनां व्रते न मत्रिणां मत्रे न कारूणां कारुकर्मणि न राजाज्ञाकारिणां तदिछायाम्"-दति । प्रचेतापि,
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पराशरमाधवः।
३ख,या का ।
"कारवः शिल्पिनो वैद्याः दासी दासास्तथैव च ।
राजानो राजभृत्याश्च मद्य शौचाः प्रकीर्तिताः” इति ॥ बद्धपराशरोऽपि,
"राज्ञां तु सूतकं नास्ति वतिनां न च मत्रिणाम् । दीक्षितानाञ्च सर्वेषां यस्य चेच्छति पार्थिवः ॥
तपोदानप्रवृत्तेषु नाशौचं स्मृतमृतके"-इति । स्मृत्यन्तरमपि,
"नित्यमन्त्रप्रदस्थापि कृच्छ्रचान्द्रायणादिषु । प्रवृत्ते कृच्छ्रहोमादौ ब्राह्मणादिषु भोजने ॥ ग्टहीतनियमस्थापि न स्यादन्यस्य कस्यचित् । निमन्त्रितेषु विप्रेषु प्रारचे श्राद्धकर्मणि ।। निमन्त्रितस्य विप्रस्य स्वाध्यायनिरतस्य च । देहे पिवषु तिष्ठत्म नाशौचं विद्यते क्वचित् ॥
प्रायश्चित्तप्ररत्तानां दार ब्रह्मविदां तथा" इति । मनुरपि,
"न राज्ञामघदोषोऽस्ति अतिनां न च मत्रिणाम् । ऐन्द्र स्थानमुपासोना ब्रह्मभृता हि ते सदा॥ राज्ञोमाहात्मिके स्थाने मद्यःशौचं विधीयते ।
प्रजानां परिरक्षार्थमासनं तत्र कारणम्" इति ॥ याज्ञवल्क्योऽपि,
"ऋत्विजां दीक्षितानाच्च यज्ञीयं कर्म कुर्वताम् । मत्रि-प्रति-ब्रह्मचारि-दान-ब्रह्मविदां तथा ॥
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३०, ख० का ० 1)
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पैठीनसिरपि -
पराशरमाधवः ।
दाने विवाहे यज्ञे च संग्रामे देशविश्वे ।
श्रापद्यपि च कष्टायां सद्यः शौचं विधीयते " - इति ॥
पुराणे, -
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हारीतोऽपि -
“ग्रामस्थश्च राजन्यो वैश्यो मध्ये गवां स्थितः ।
त्रीच ब्राह्मणो नित्यं ब्रह्मचारी च वै शुचिः " - दूति ॥
“विवाहय दुर्गेषु यात्रायां तीर्थकणि ।
न तंत्र तकं तद्वत् कर्म यज्ञादि कारयेत्" - इति ॥ ब्रह्मपुराणोऽपि -
"श्रथ देवप्रतिष्ठायां गणयागादिकर्मणि ।
श्राद्धादौ पिढयज्ञे च कन्यादाने च नो भवेत्” – इति ॥ अङ्गिराश्रपि -
"जनने मरणे चैव चिव्वाशौचं न विद्यते ।
यज्ञे विवाहकाले च देवयागे तथैव च " - इति ॥
श्रत्र
श्रत्र विवाहादौ सद्यः शौचमुपक्रान्त विवाहादिविषयम् । नृपादीनामसाधारणकृत्यव्यतिरिक्तविषयेष्वाशौचमत्येव । तथाच ब्राह्म
६१७
" राज्यनाशस्तु येन स्यादिना राज्ञा स्वमण्डले । प्रयास्यतश्च संग्रामे होमे प्रास्थानिके सति ॥ मन्त्रादितर्पणैर्व्वाऽपि प्रजानां शान्तिकर्मणि । गोमङ्गलादौ वैश्यानां ऋषिकालात्ययेष्वपि ॥ शौचं न भवेल्लोके सर्व्वत्रान्यत्र विद्यते" इति ।
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पराशरमाधवः ।
[३५०,धाका
किञ्च, प्रसवे गृहमेधी तु न कुर्यात् सङ्करं यदि ॥२३॥ दशाहाच्छुध्यते माता त्ववगाह्य पिता शुचिः। इति॥
प्रसवे जनने सहमेधी ग्रहस्थः पिता सूतिकया सह यदि संसर्ग न कुर्यात्, तदा स्नानेन शुद्धोभवति, माता तु दशाहेन उद्धा भवतीत्यर्थः।
नन्वेवं तईि पितुः कर्मानधिकारलक्षणमप्याशौचं न स्यादित्यताइ,
सर्वेषां शावमाशौचं मातापिचोस्तु सुतकम् ॥२४॥ सुतकं मातुरेव स्यात् उपस्पृश्य पिता शुचिः। इति ॥
यथा मपिण्डानां कर्मानधिकारलक्षणमाशौचं सम्यूग, तहत्यितुरपि। मातापित्रोस्तु सूतकमस्पृश्यत्वलक्षणमाशौचं, तत्रापि दशा हमस्यश्यत्वं मातुरेव पितुम्नु नानपर्यन्तमेवेत्यर्थः । तथा च पैठीनसिः,
"जनौ मपिण्डाः शुचयो मातापित्रोस्तु मृतकम् । मृतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता शुचिः" इति ॥ अयमर्थः । जनने मातापिटव्यतिरिक्ताः सर्वे सपिण्डाः स्पृश्याः, मातापित्रोस्तु नास्ति स्पृश्यत्वं, तत्रापि पिता सानेन स्पश्योभवति, दशाहन्त्वस्पृश्यत्वं मातुरेड । तथा च वसिष्ठः,
"नाशो विद्यते पुंसः संसर्ग चेन्न गच्छति । ग्जचाचाशुचि जेयं तच्च पुंमि न विद्यत"--दति ॥ सम्बताऽपि,
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प.पा.का.
पराशरमाधवः।
"माते पुत्र पितुः स्वानं मचेलन्त विधीयते।
माता शयेद्दशाहेन नानात्तु स्पर्शनं पितुः" इति ॥ वृहस्पतिरपि,
"शावाशौचं तु सर्वेषां मृतकं मातुरेव च।।
स्वानं प्रकुर्यात पिता ज्ञातयो न सचेलिनः" इति ॥ गोतमोऽपि,
"मातापित्रीस्तु सूतकमुपस्पृश्य पिता शुचिः" इति । आदिपुराणेऽपि,
"सूतकी* तु मुखं दृष्टा जातस्य जनकस्ततः । कृत्वा सचेलं स्नानन्तु शुद्धो भवति तत्क्षणात्” इति ॥ मृतिकया मह संसर्गकरणे तनिमित्तमस्पश्यत्वं दशाहमस्तीत्या, यदि पत्न्यां प्रस्तायां सम्यक कुरुते विजः ॥२५॥ सूतकन्तु भवेत्तस्य यदि विप्रः षडङ्गवित् । इति ॥
सूतिकया पत्न्या सह पति: संसर्ग यदि कुर्यात्तदा विद्याकर्मयुक्तस्य विप्रन्याप्यस्पश्यत्वलक्षणं सूतकं भवेत्, किमुतान्यस्येत्यर्थः । तथा च सुमन्तुः। “मातुरेव सूतकं तां स्पृशतश्च नेतरेषाम्” इति । मृतिका स्पातोजनकस्यास्पृश्यत्वलक्षणं मृतकं भवति, नान्येषामित्यर्थः । ___ ननु जनननिमित्तमेवास्पृश्यत्वं भर्तुः स्नानानन्तरमपि किं न स्थादत श्राइ,सम्पर्काज्जायते दोषो नान्यो दोषोऽस्ति वै हिजे ॥२६॥
* सूतके इति, मु. पुस्तके पाठः ।
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पराशरमाधवः। [३२०, या का० । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सम्पर्क वर्जयेदुधः । इति ॥ खानानन्तरं भर्तुः संसर्गनिमित्तकएव दोषोऽस्पृश्यत्वापादको जायते, न जनननिमित्तको दोषोऽस्ति, तस्मादिद्वान् मम्पर्क मह भयनामनभोजनादिकं वर्जयेदित्यर्थः । तथा च रहस्पतिः,
“यस्तैः सहासपिण्डोऽपि प्रकुर्याच्छयनाशनम् ।
बान्धवो वा परोवापि स दशाहेन प्राध्यति" इति ॥ विष्णुरपि । “ब्राह्मणादीनामाशौचे यः सकृदेवान्नमनीयात्तस्य तावदाशौचं यावत्तेषामाशौचव्यपगमः" इति। अविरपि,
"मम्पर्काज्जायते दोषः पारको मृतजन्मनि ।
तवर्जनापितुरपि सद्यःशौचं विधीयते” इति ॥ प्रारधे यज्ञादौ कर्तुः एहिरका, इदानी कल्पितद्रव्यस्थापि सद्धिरस्तीत्याइ,
विवाहोत्सवयज्ञेषु त्वन्तरा मृतस्तके ॥२७॥ पूर्वसङ्कल्पितं द्रव्यं दीयमानं न दुष्यति । इति ॥ अत्र विवाहग्रहणं पूर्वप्रवृत्तचौड़ापनयनादिसंस्कारकोपलक्षपार्थम् । उत्सवोदेवतोत्सवः, तेन च देवप्रतिष्ठादिकमुपलक्ष्यते। यज्ञो ज्योतिष्टोमादिः । तेषु प्रारब्धेषु अन्तरा मध्ये यदि मृतस्तके मरणजनने स्याता, तदा पूर्वसङ्कल्पितं द्रव्यं देवतायै ब्राह्मणेभ्यो दीयमानं न दुष्यतीत्यर्थः। तथाच क्रतुः,___ “पूर्वसङ्कल्पितं द्रव्यं दीयमानं न दुष्यति" इति। पक्के तु विशेषः स्मत्यन्तरे दर्शितः,
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३५०,चाका
पराशरमाधवः।
इ२१
"विवाहोत्सवयज्ञादिष्वन्तरा मृतस्तके ।
घटतमन्नं* परैयं दाढन् भोक्तश्च न स्पृशेत्”-दति ॥ कृतान्नमसूतकिभिर्देयं, सुतकी तु दाहन भोकच न स्पशेदित्यर्थः । यत्तु स्मृत्यन्तरम्,
"द्रव्याणि स्वामिसंबन्धादघानि त्वाचीनि च ।
खामिशुध्यैव शुध्यन्ति वारिणा प्रोक्षितान्यपि"-इति ॥ तदसङ्कल्पितद्रव्यविषयम् । कानिचिदसङ्कल्पितान्यपि द्रव्याणि मवदा शुद्धानि । तथा च मरीचिः,
"लवणे मधुमांसे च पुष्पमूलफलेषु च । शाककाष्ठटणेवा दधिमर्पिःपयासु च ॥ तेलौषध्यजिने चैव पक्कापक्के स्वयं ग्रहः ।
पण्णेषु चैव सर्वेषु नाशौचं मृतसूतके" इति ॥ अनेकाशौचनिमित्तमन्निपाते प्रतिनिमित्तं नैमित्तिकारत्तौ तां निवारयति,
अन्तरा तु दशाहस्य पुनमरणजन्मनी ॥२८॥ तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तत्स्यादनिर्दशम् । इति ॥
यदा दशाहाशौचकालमध्ये तत्तुल्यस्य ततोऽल्पस्य वाऽऽशौचस्य निमित्त जननमरणे स्थातां, तदा पूर्वप्रवृत्तं तदाशौचं यावदनिर्दशमनिर्गतदशाहं स्यात् विप्रस्तावदेवाशुचिर्भवति न पुनर्मध्योत्पन्नमरणादिनिमित्तकदशाहाद्याशौचवानित्यर्थः । तथा च मनुः,
* शेषमन्नं,-इति पाठान्तरम्।
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पराशरमाधवः।
खा,पाका |
"अन्तर्दशाहे स्थाताश्चेत् पुनर्मरणजन्मनी।
तावस्यादशचिविप्रो यावत्तस्यादनिर्देशम्" इति ॥ याज्ञवल्क्योऽपि,
"अन्तरा जन्ममरणे शेषाहोभिर्विशुध्यति" इति । विष्णुरपि। “जननाशौचमध्ये यद्यपरं जननं स्यात्तत्र पूर्वाशौचव्यपगमे शूद्धिः मरणाशौचमध्ये ज्ञातिमरणेऽप्येवम्" इति। अपिभब्दाजननेऽपि मरणाशौचकालेनैव प्रद्धिरित्यर्थः । यदा जनननिमित्तदशाहाशौचमध्ये मरणमापतति, तदा मरणादारभ्य दशाई कार्यम् । तथा चाङ्गिराः,
"मृतके मृतकं चेत्स्यान्मतके स्वथ मृतकम् ।
तत्राधिकृत्य मृतकं शौचं कुर्यान मृतकम्" इति || पत्रिंशन्मतेऽपि,
"शावाशौचे समुत्पन्ने सूतकन्तु यदा भवेत् ।
भावेन शुध्यते सतिन मुतिः भावोधनी"-इति ॥ चतुर्विंशतिमतेऽपि,
"मृतजातकयोोगे या द्धिः मा तु कथ्यते ।
मृतेन शुमते जातं न मृतं जातकेन तु"-दति । अल्पाशौचमध्ये दीर्घकालाशौचप्राप्तौ न पूर्वेण शद्धिः। तदुकमुशनमा,
"खल्याशौचस्य मध्ये तु दीर्घाशौचं भवेदि ।
न पूर्वेण विशुद्धिः स्यात् स्वकालेनैव शुध्यति" इति ॥ यमेनापि,
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३५०,चाका.
पराशरमाधवः।
"अघष्टद्धिमदाशौचं पश्चिमेन समापयेत् । यथा चिरात्रे प्रक्रान्ते दशाई प्रविशेद्यदि ॥
आशौचं पुनरागच्छेत् तत्ममाप्य विशुध्यति" इति । प्रथमप्रवत्ताशौचकालापेक्षया दीर्घकालानुवर्त्तनेन विरद्धाघवदाशौचं यदि मध्ये समुत्पद्यते, तदा पश्चिमेन खकालेनैव समापयेदित्यर्थः । शङ्खोऽपि,
"समानाशौचसम्पाते प्रथमेन समापयेत्।
असमानं द्वितीयेन धर्मराजवचोयथा"-इति ॥ असमानं दीर्घकालाशौचमित्यर्थः । हारीतोऽपि,
"शावान्तः शावायाते पूर्बाशौचेन शुष्यति । गुरुणा लघु शुध्येत्तु लघुना नैव तद्गुरु ॥
अघानां योगपद्ये तु ज्ञेया शुद्धिगरीयमा"। गुरुलघुत्वे तु समानजातीययोः कालापेक्षया, विजातीययोः खरूपेणैव । तदुक्तं तेनैव,
'मरणोत्पत्तियोगे तु गरीयोमरणं भवेत्” इति । कचित्कालापेक्षया लघ्वाशौचमध्यवर्तिनो गोशौचस्य पूर्णशौचकालेनापगमोऽस्ति । तदाह देबलः,
“परतः परतोऽद्धिरघबद्धौ विधीयते ।
स्थाओत्पञ्चतमादहः पूर्बणैवात्र शिष्यते"-इति॥ वर्तमानाशौचमध्यवर्तिनि जननादौ यदाऽघवृद्धिर्दीर्घकालमाशौचं, तदा परतः प्राप्तं जननादिकमारभ्याशुद्धिविधीयते । तद्यदि पूर्वप्रडत्तमाशौचं पञ्चमदिनात्परतोऽप्यनुवर्तते, तदा पूणेव पूर्वा
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१२४
पराशरमाधवः ।
[३००,या का।
शौचकालेनैव दशाहाशौचस्यापि शुद्धिर्विशिष्यते विधीयते । एतदुक्तं भवति । अन्तरा पतितस्याशौचस्य दीर्घकालत्वेऽपि यदि पूर्वप्रवृत्तमाशौचमुत्तराशौचकालादर्डाधिककालं स्थात्, तदा पूर्वप्रवृत्ताशौचकालेनैवोत्तरस्यापि शुद्धिर्भवति। तद्यथा। गर्भपात निमित्तषडहाशौचमध्ये यदि दशाहाशौचमापतेत्, तदा षडहाशौचशेषेणैव दशाहाशौचस्यापि निरत्तिरिति । एवमन्यत्रापि अाधिककालाशौचशेषेणैवाधिककालाशौचस्यापि निवत्तिरवगन्तव्या। ___ अन्तरा पतितस्याशौचस्य शेषेण शद्धिरित्यत्र विशेषो गौतमेनोतः । “रात्रिशेषे द्वाभ्यां प्रभाते तिसृभिः" इति । रानिशब्देनाहोरात्र लक्ष्यते । रात्रिः शेषोयस्याशौचस्य, तस्मिन्विद्यमाने यदाऽशौचान्तरमापतेत्, तदा पूशिौचकालानन्तरं द्वाभ्यां रात्रिभ्यां शुद्धिः। प्रभाते तस्यारात्रेश्चरमे यामे पुरा सूर्योदयादाशौचमन्त्रिपाते तिसभीरात्रिभिः शद्धिर्न तु पूर्वाशौचकालशेघेणेति । तथा शङ्खलिखिताभ्यामपि। “अथ चेदन्त रा प्रमीयेत जायेत वा शिष्टरेव दिवस: राध्येदहःशेषे द्वाभ्यां प्रभाते तिसृभिः" इति ।
भातातपेनापि। ___ “राविशेषे यहाच्छुद्धिर्यामशेषे अहाच्छुचिः" इति ।
बौधायनेनापि । “अथ यदि दशरात्रसन्निपाते यदाद्यं दशरात्रसमाशौचमानवमादिवसात्" इति। अस्यार्थः। यावत्रवमदिवसपरिसमाप्तिस्तावत् न पूर्वाशौचकालशेषेणोत्तराशौचस्य निवृत्तिरिति। नवमशब्देनोपान्यदिवसउपलक्ष्यते । ततश्च क्षत्रियादीनामप्यन्यदिवसाशौचसन्निपाते विरात्रं प्रभाते त्रिरात्रमित्यवगन्तव्यम् ।
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३ख०,धा का०]
पराशरमाधवः ।
६२५
देवलेनापि,
"पुनः पाते दशहात्याक् पूर्वेण सह गच्छति । दशमेऽकि पतेद्यस्य ाहतः स विध्यति॥
प्रभाते तु त्रिरात्रेण दशरात्रेवयं विधिः” इति। दशाहात्यागित्यत्र दशाहशब्दोऽन्यदिवसोपलक्षकः । दशरात्रेषित्येतदपि द्वादशरात्राद्युपलक्षणम् । समानाशौचयोः सन्निपाते पूर्वशेषेण एद्धिरित्यस्य क्वचिदपवादः शङ्खन दर्शितः,
"मातर्यग्रे प्रमीतायामशडौ घियते पिता।
पितुः शेषेण शुद्धिः स्यान्मातुः कुर्यात्तु पक्षिणीम्" इति ॥ मातरि पूब्ब हतायां यदि तनिमित्ताशौचमध्ये पिता नियेत, तदा न पूर्वाशौचशेषेण शुद्धिः, किं तु पित्राशौचकालेनैव शद्धिः। तथा, पूब्ब पितरि मते तन्निमित्ताशौचमध्ये मातरि प्रमीतायामपि न पित्राशौचकाल-शेषेण शुद्धिः, किं तु पित्राशौचं समाप्य पविणे कुर्यादित्यर्थः।
उक्तस्य दशाहाद्याशौचस्य विषयान्तरेऽप्यपवादमाह,ब्राह्मणार्थे विपन्नानां बन्दीगोग्रहणे तथा ॥२६॥
आहवेषु विपन्नानामेकरात्रमशौचकम् । इति॥ ब्राह्मणप्राणरक्षणार्थं हतानां, वन्दीग्रहणे गोग्रहे च मति तद्विमोचना) हतानां, बाहवेवाभिमुख्येन हतानां, ये मपिण्डाम्तेषामेकरात्रमेवाशौचं न दशरात्रादिकमित्यर्थः । यच सद्यःशौचमित्यनुउत्तौ मनुनोत्रम्,
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६२६
पराशरमाधवः।
०,घा०का।
चावषयम्।
"डिम्भावहतानाच विद्यता पार्थिवेन च। गोब्राह्मणस्य चैवार्थ यस्य चेच्छति भूमिपः" इति ॥ तदमनिधिविषयम्। रणहतमपिण्डानामेकाहाशौचविधिशेषतया नवभिः श्लोकराहवे हतं प्रशंसति। तत्र प्रथमं परिव्राजकदृष्टान्तेनादित्यमण्डलभेदित्वं दर्शयन्नाद्ब्रह्मलोकप्राप्तिं दर्शयति,
हाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ ॥३०॥ परिब्राड्योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखोहतः । इति ॥
योगाभ्यासेनेश्वरमुपासीनः परिबाजकोऽचिरादिमार्गेण ब्रह्मलोकं गच्छन् मार्गमध्ये वाय्यादित्यचन्द्राणां मण्डलानि क्रमेण भित्त्वा तत्र तेभ्य उत्तरतोत्तराधिकेभ्यः छिद्रेभ्यो निर्गत्य क्रमेण विद्युदादिलोकान् सञ्चरन् ब्रह्मलोकं प्राप्तोति । छिद्रनिर्गमणं वाजसनेयिब्राह्मणे श्रुतम् । "म वायुमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते यथा रथचक्रस्य खं तेन स ऊर्ध्वमाक्रमते स श्रादित्यमागच्छति तस्मै स तत्र विजिहीते यथा उदुम्बरस्य खं तेन स अर्ध्वमाक्रमते म चन्द्रमसमागच्छति तम्मै म तत्र विजिही ते यथा दुन्दुभे खं तेन स ऊर्ध्वमाक्रमते"इति ।
तत्र चिरकालं महता प्रयासेन योगमभ्यस्थता परिव्राजकेन तह समानगतित्वं रणहतस्यायुकं तस्मादल्पकालप्रयासत्वादित्याशय, कालाल्पत्वेऽपि धैर्यानिशयेन प्रयाममाम्यं सूचयितुमभिमुखइत्युकम् । तमेव सूचितमय विशदीकरोति.
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श्च०, व्या०का० ॥]
यच यच हतः शूरः शत्रुभिः परिवेष्टितः ॥३१॥ अक्षयान् लभते लोकान् यदि क्लीबं न भाषते । इति ॥
1
लोके शस्त्रधारिणमेकमपि दृष्ट्वा महती प्राणभीतिजीयते । युद्धकाले तु प्रतिसैन्यगताः सर्वेऽपि शचवः शस्त्रधारिणोमारणोद्यता एनं परिवेष्टयन्ति । तदानीमुत्पद्यमानायाभीतेरियत्तैव नास्ति, तादृशों भीतिं सोडा प्रतिभटाभिमुख्यं गच्छतः शूरस्य धैर्यं योगिधैर्यदप्यधिकम् । नहि योगिनो यमनियमादिषु क्वचित्प्राणभीतिः सम्भाविता । ततो यथा जागरले बहुषु वत्मरेषु अनुभवनीयस्य भोगस्य मुहर्त्तमात्रवर्त्तिनि स्वप्ने साकल्यं दृश्यते, तथा चिरकालभावियोगसाम्यं रणे धैर्यवतः किं न स्यात् । धैर्यतिशयेन साम्यमत्र विवचितमिति दर्शयितुं, यदि क्लीबं न भाषते - इत्युक्रम्। क्लीबं नपुंसकत्वं विकलता, तत्सूचकं भीत्याविष्कारकवाक्यं यदि न भाषेत, तदानीं योगसाम्यादस्यान् ब्रह्मलोकावान्तरविशेषान् मालोक्यादीन् लभते ।
परिब्राजकदृष्टान्ते सूर्यमण्डलभेदित्वं सम्भावयति,
पराशर माधवः ।
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६२७
संन्यस्तं ब्राह्मणं दृष्ट्वा स्थानाच्चलति भास्करः ॥ ३२ ॥ एष में मण्डलं भित्त्वा परं स्थानं प्रयास्यति । इति ॥
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यद्यपि मण्डलस्याचेतनर मिसमूहरूपत्वात्तद्भेदेऽपि नास्ति काचिदादित्यस्य वेदना, तथापि पूर्व्वमत्यन्तनीचपदे वर्त्तमानस्येदानीमुच्चपदप्राप्तिश्चित्तक्लेश हेतुर्भवति । श्रतएव, भित्त्वा परं स्थानं प्रयास्यतीत्युक्तम् । एतदेवाभिप्रेत्य व्यासश्राह -
“क्रियावद्भिर्हि कौन्तेय, देवलोकः समावृतः । न चैतदिष्टं देवानां मयैरुपरि वर्त्तनम् " - इति ।
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६२०
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[३थ०, आ०का० ।
मुमुत्तुपरिव्राजकदर्शनमात्रेण * निष्पन्नस्य भास्कर चलनस्थोप
न्यासाद्योगिनो यथोक्तफलं दृढीकृतं भवति ।
रणे चाभिमुखोद्वति दाष्टन्तिकेऽभिहितं तच हतत्वं धैर्यातिशयस्योपलक्षणं, असत्यपि स्वबधे परत्राणप्रवृत्तस्य धीरस्य यथोक्तफलसद्भावादित्याद
पराशर माधवः ।
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यस्तु भनेषु सैन्येषु विद्रवत्सु समन्ततः ॥ ३३ ॥ परिचातुं यदा गच्छेत् स च क्रतुफलं लभेत् । इति ॥
*
क्रतुरत्राश्वमेधः । ब्रह्मलोकप्राप्तिफलत्वात् । श्रश्वमेधस्य च तत्फलत्वं वाजसनेयिशाखायां भुज्युन्ब्राह्मणे, “क्व न्वश्वमेधयाजिनो गच्छन्ति " - इत्यादिप्रश्नप्रतिवचनयोर्विस्पष्टमवगम्यते ।
यः परित्राणार्थं प्रवृत्तस्तस्य प्रवृत्तिमात्रेण ऋतुफलमुकं, प्रवृत्तस्य गावच्छेदे सति इतत्वाभावेऽपि फलातिशयोऽस्तीत्याह -
यस्य छेदक्षतं गाचं शरमुहरयष्टिभिः ॥ ३४ ॥ देवकन्यास्तु तं वीरं हरन्ति रमयन्ति च । इति ॥ गात्रं शरीरं, छेदक्षतं हस्तपादाद्यवयवच्छेदेनोपद्रुतम् । परित्राणाय प्रवृत्तस्य गावच्छेदे यत्फलं ततोऽप्यतिशयं मरणे दर्शयति
देवाङ्गनासहस्वाणि शूरमायोधने हतम् ॥ ३५ ॥ त्वरमाणाः प्रधावन्ति मम भत्ती ममेति च । इति ॥ यद्यपि यज्ञादिकं युद्धमरणं चोभयमप्येकविधस्य फलस्य समान
मुमुक्षोः परिव्राजकदर्शनमात्रेण, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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३१०,या०का०]
पराशरमाधवः।
६२६
साधनं, तथापि युद्धमरणस्यात्यल्पकालमाध्यत्वेन वैकल्यासम्भवादुत्तमसाधनत्वमित्याह,
यं यज्ञसङ्घस्तपसा च विप्राः स्वर्गेषिण वाऽत्र यथैव यान्ति। क्षणेन यान्त्येव हि तब वीराः
प्राणान् सुयुद्धेन परित्यजन्तः॥३६ ॥ इति । विप्रशब्देन निष्कामा विवक्षिताः। तथाच स्वर्गेषिणो देति विकल्प उपपद्यते। अत्र पुण्यलोकेषु यं लोकविशेषं यथैव येन प्रकारविशेषेण देवकन्यावरणादिना युक्ताः सन्तोयान्ति । तत्र तेषु पुण्यलोकेषु तमेव लोकविशेषन्तेनैव प्रकारेण युद्धहतावीराश्च यान्ति । क्षणेनेत्युक्तं कालाल्पत्वमेतेवतिशयः ।
ननु कालस्याल्यत्वेऽपि प्राणभीतेर्दुष्परिहरत्वात्पूातं युद्धधैर्य दुर्लभमित्याशय विचारवतः पुरुषस्य तत् सुलभमित्यभिप्रेत्य तं विचारं दर्शयति,जितेन लभ्यते लक्ष्मीमतेनापि सुराङ्गणा। क्षणध्वंसिनि कायेऽस्मिन् का चिन्ता मरणेरणे॥३७॥इति
जितेनेति कर्तरि निष्ठा । ततो जयेन लक्ष्मीलाभः, भरणेन सुराङ्गनालाभः । यदि कायजीवनलोभालक्ष्मीदेवांगनालाभौ न पर्यालोच्येते, तथापि लाभपरित्यागमा तस्य केबलमविशिष्यते । कायस्तु सर्वथा न चिरं जीवति, तस्य कर्मप्रापितायुष्यवशवर्तित्वेन क्षणप्रध्वंसिस्वभावत्वात् ।
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पराशरमाधवः।
[३५०,या का।
अत्यन्त निषिद्धमपि रुधिरपानं यत्र निरतिशयसुकृतत्वेन परिणमते, तत्र पुण्यलोकप्राप्तौ कोविस्मयदत्याह,
ललाटदेशे रुधिरं स्त्रवञ्च यस्याहवे तु प्रविशेष वक्तम्। तत् सोमपानेन किलास्य तुल्यं
संग्रामयज्ञे विधिवच दृष्टम् ॥३८॥ इति । संग्रामयज्ञप्रतिपादके नीतिशास्त्रादौ पुरोभागे प्रहारो वीरलक्षणत्वेनोपवर्णितइति विवक्षितत्वात् विधिवदृष्टमित्युक्तम् ।
तदेवं नवभिः श्लोकैराशौचबिधिस्तावकन्वेन युद्धमरणस्य प्रशंसा कृता । यस्माद्रणहतोऽत्यन्तपुण्यात्मा, तस्मात्तन्मृतौ परिव्राजकमरणबाधिकाशौचाभाव उपपद्यते । अथवा । तएते नवश्लोकाः प्रकरपादुकृष्टा राजधर्मेषु स्थापनीयाः, युद्धस्य क्षत्रियधर्मत्वात् । यथा दर्शपूर्णमासप्रकरणे श्रूयमाणो रजस्खलाव्रतकलापः प्रकरणादुल्सय्य क्रत्वर्थपरिहारेण पुरुषार्थतयोपवर्णितस्तद्वत् ।
धार्थमनाथब्राह्मणशववहनादौ प्रशंसापूर्बकं सद्यःशौचं विदधाति,
अनाथं ब्राह्मणं प्रेतं ये वहन्ति दिजातयः। पदे पदे यज्ञफलमानुपालभन्ति ते ॥३६ ॥ न तेषामशुभं किञ्चित् पापं वा शुभकर्मणम्। जलावगाहनात्तेषां सद्यःशौचं विधीयते॥४॥इति । अनाथं बन्धुरहितममपिण्डं ब्राह्मणमदृष्टार्थ ये विजातयोवहन्ति
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३१०,थाका।।
पराशरमाधवः ।
स्पृशन्ति दहन्ति च, ते पदे पदे यज्ञफलानि क्रमेण प्रामुवन्ति, तथा तेषामशभादिकमपि नास्ति, तेषां खानादेव मद्यः द्धिर्विधीयते इत्यर्थः । तथा च वृद्धपराशरः,
"प्रेतस्पर्शनसंस्कारे ब्राह्मणो नैव दुथति। वोढा वैवामिदाता च सद्यः स्नात्वा विशुध्यति" इति॥ यत्तु हारीतेनोकम् । "प्रेतस्पृशोग्रामं न प्रविशेयुरानक्षत्रदर्शनाद्रात्रौ चेदादित्यस्य” इति । यच देबलेनोकम् - ___ अहि चेदहनं कुर्यात् अर्द्धमस्तमयाद्रवेः ।
स्नात्वा सई विशेविप्रो रात्रौ चेदुदयाद्रवेः” इति । तत् स्नेहादिना करणीयनिहरणे वेदितव्यम् ।
किं तु प्राणायामोऽपि कर्त्तव्यदत्याह,असगोत्रमबन्धुञ्च प्रेतीभूतं विजोत्तमम्। वहित्वा च दहित्वा च प्राणायामेन शुद्ध्यति॥४१॥ इति॥
असगोत्रममपिण्डमवन्धुं बन्धुरहितं प्रेतं ब्राह्मणं ये वहन्ति दहन्ति, तेषां प्राणायामेन शुद्धिरित्यर्थः । न केबलं खानप्राणायामो, अग्निस्पोऽपि कर्त्तव्यः । तदुक्रमङ्गिरसा,
"यः कश्चिनिहरेत् प्रेतमसपिण्डं कथञ्चन ।
सात्वा मचेलं स्पष्टाऽग्निं तस्मिन्नेवाहि वै शुचिः" इति॥ स्नेहादिना प्रेतनिहरणं कूवतोऽसपिण्डस्याशौचमस्ति । तथाच मनुः,
"श्रमपिण्डं विजं प्रेतं विप्रोनिहत्य बन्धुवत् । विश्राध्यति त्रिरात्रेण मातुराप्तांश्च बान्धवान् ॥
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पराशरमाधवः।
चाका..
यद्यन्नमत्ति तेषां यः स दशाहेन. शुध्यति ।
अनदन्नन्नमहैव न च तस्मिन्टहे वसेत्" इति ॥ यस्तु प्रेतनिहरणं कृत्वा तद्हे वमति न च तदन्नमनाति तस्य त्रिरात्रमाशौचं, यस्तु तगहे वसन् तदन्नमनाति तस्य दशरात्रं, यः पुनः प्रेतं निहत्य तगहवास तदत्रच परित्यजति तस्यैकाहमित्यर्थः । एतत्मवर्णविषयम् । असवर्णशवनिहारे तज्जातीयमाशौचं कार्यम् । तदाह गौतमः। “अपरश्चेवर्णः पूर्ववर्णमुपस्पृशेत्यावाऽपरं तच्छवोतमाशौचं" इति। उपस्पर्शनं निहरणम् । ब्राह्मणस्य शूद्रशवनिहारे मासमाशौचम्, शूद्रस्य ब्राह्मणशवनिर्हारे दशामाशौचं भवतीत्यर्थः । यस्त्वर्थलोभादसवर्णशवनिर्हरणं करोति तस्य दिगुणमाशौचं भवतीति । तथाच व्याघ्रः,
"अवरश्चेद्वरं वर्ण वरोवाऽप्यवरं यदि। वहेच्छवं तदाशौचं रत्त्यर्थे द्विगुणं भवेत्" इति ॥ असवर्णप्रेतनिहरे तदुक्तमाशौचं, तत्र वेतनाश्रयणे दिराणमाशौचं भवतीत्यर्थः। यत्तु विष्णुपुराणे,
“योऽसवर्ण तु मूल्येन नीत्वा चैव वहेन्नरः ।
आशौचं तु भवेत्तस्य प्रेतजातिममं सदा"-दति ॥ तदापदि द्रष्टव्यम्। अर्थलोभात्मवर्णशववहनादौ खजात्युकमाशौचं कार्यम् । तथाच कूर्म,
"यदि निहरति प्रेतं प्रलोभाकान्तमानसः । दशाहेन द्विजः शुध्येवादशा हेन भूमिपः ॥ अर्द्धमासेन वैश्यस्तु शूद्रोमासेन प्राध्यति" इति।।
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३०, चा०का० ।]
यस्तु सपिण्डएव प्रेतं निर्हरति न तस्याशौचाधिकां, प्रेतनिर्हर
स्य विहितत्वात् । तदाह देवता, -
पराशर माधवः ।
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"विहितं तु सपिण्डानां प्रेतनिर्हरणादिकम् ।
तेषां करोति यः कश्चित् तस्याधिक्यं न विद्यते " - इति ॥ श्राधिकयमाशौचाधिक्यमित्यर्थः । समानोदकप्रेतनिर्हरणे दशाहम् ।
तदाह मएव, -
"यः समानोदकं प्रेतं वदेदाऽथ दहेत वा । तस्याशौचं दशाहं तु धर्म्मज्ञामुनयो विदुः " - इति ॥ ब्रह्मचारिणः प्रेतवहन करणे व्रतलोपः । तदाह देवलः -
"ब्रह्मचारी न कुर्वीत शवदाहादिकाः क्रियाः । यदि कुर्याचरेत्कृच्छ्रं पुनः संस्कारमेव च " - इति ॥ पिचादिश्ववहने तु न दोषः । तथाच मनुदेवलौ, -
" श्राचार्यं स्वमुपाध्यायं पितरं मातरं गुरुम् । निर्हृत्य तु व्रती प्रेतान् न व्रतेन वियुज्यते " - इति ॥ वसिष्ठोऽपि । “ब्रह्मचारिणः शवकर्माणा व्रतनिवृत्तिरन्यत्र माता
पित्रोर्गुरोर्वी" - इति । याज्ञवलक्योऽपि -
“श्राचार्यपिचुपाध्यायं नित्याऽपि व्रती व्रती ।
स तदन्नञ्च नाश्रीयान्न च तैः सह संवसेत्” इति ॥
* प्रेतवाहादिकाः, इति मु० ।
+ शकटान्नच्च - इति सो० बि० ।
80
६३३
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६३०
[३०, खा०का० ।
ant ब्रह्मचारी विप्रादीनां निर्हरणादिकं कृत्वा यद्यानौचिभिः यह वामं तदन्नञ्च परित्यजति तदा व्रती व्रतचर्यन्न वियुज्यते इत्यर्थः । ब्रह्मपुराणेऽपि, -
।
“श्राचार्यं वाऽयुपाध्यायं गुरुं वा पितरं तथा । मातरं वा स्वयं दध्वा व्रतस्यस्तत्र भोजनम् ॥ aar पतति वै तस्मात् प्रेतान्नं न तु भक्षयेत् । अन्यत्र भोजनं कुर्यान्न च तैः सह संवसेत् ॥ एकाहमशुचिर्भूत्वा द्वितीयेऽहनि शुध्यति इति । ब्राह्मणववहनादौ शूद्रं न नियोजयेत् । तदाह मनुः, - "न विप्रं स्वेषु तिष्ठत् स्मृतं शूद्रेण चारयेत् ।
अस्वर्ग्य ह्याहुतिः मा स्याच्छूद्रसंस्पर्शदूषिता " - इति ॥ अत्र स्वेषु तिष्ठत्खित्यविवक्षितं, अस्वर्ग्यत्वदोषश्रवणात् । विष्णुरपि। "मृतं द्विजं न शूद्रेण निर्धारयेन्न शूद्रं द्विजेन" - इति । मोऽपि -
पराशर माधवः ।
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"
"न शूद्रो यजमानं वै प्रेतभूतं ममुदहेत् । यस्यानयति शूद्रोऽग्निं तृणं काष्ठं हवींषि च ॥ प्रेतत्वं हि मदा तस्य म चाधर्मेण लिप्यते” इति । ब्राह्मणादिशवनिहारे दिनियमोदर्शितोमनुना - "दक्षिणेन मृतं शूद्रं पुरद्वारेण निर्हरेत् ।
नील
पश्चिमोत्तरपूर्वस्तु यथायोगं द्विजन्मनः " - इति ॥
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-
हारीतोऽपि । “न ग्रामाभिमुखं प्रेतं हरेयुः ” - इति । अनुगमनाशौचमार,—
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३०,या का०]
पराशरमांधवः।
पर
अनुगम्येच्छया प्रेतं ज्ञातिमज्ञातिमेव वा। स्नात्वा सचेलं स्पृष्ट्वाऽग्निं एतं प्राश्य विशुध्यति। इति॥
ज्ञाति मपिण्डव्यतिरितं बन्धु, मपिण्डानुगमनस्य विहितत्वात् । अज्ञानिमबन्धु वा समानोत्कृष्टजातिप्रेतं कामनयाऽनुगम्य सचेलं स्नात्वाऽग्निं स्पृष्ट्वा वृतभुक गुध्यति इत्यर्थः । तथाच याज्ञवल्क्यः,
"अनुगम्याम्भसि स्नात्वा स्पृष्ट्वाऽग्निं तभुक् चिः" इति ॥ कूर्मेऽपि,
"प्रेतीभूतं द्विजं विप्रो योऽनुगच्छेत कामतः । स्नात्वा सचेलं स्पृष्ट्वाऽग्निं तं प्राश्य विशुध्यति"-इति ।। अत्र च विशेषः कश्यपेनोकः,
"अनुगम्य शवं बुध्या नात्वा स्पृष्ठा हुताशनम् ।
मर्पिः प्राश्य पुनः स्नात्वा प्राणायामैर्विशुध्यति"-इति ॥ न च तप्राशनस्य भोजनकार्य बिधानाभोजननिवृत्तिरिति वाच्यम् । तम्य प्रायश्चित्तत्वेन विधानात् । प्राणायामैरिति बहुवचनस्य कपिचलन्यायेन त्रित्वे पर्यवमानात्, त्रिभिः प्राणायामैः शुध्यति,इत्यर्थः ।
निकृष्टजात्यनुगमनाशौचमाह,क्षत्रियं मृतमज्ञानाद् ब्राह्मणेयोऽनुगच्छति । एकाहमशुचिर्भूत्वा पञ्चगव्येन शुध्यति ॥ शवञ्च वैश्यमज्ञानाद्वाह्मणायाऽनुगच्छति । कृत्वाऽऽगाचं दिरावञ्च प्राणायामान् पडाचरेत् ॥
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६३६
[३०, व्या०का० ।
प्रेतीभूतन्तु यः शूद्रं ब्राह्मण ज्ञानदुर्व्वलः । अनुगच्छेन्न्रीयमानं चिराचमशुचिर्भवेत् ॥ चिरात्रे तु ततः पूर्णे नदीं गत्वा समुद्रगाम् । प्राणायामशतं कृत्वा घृतं प्राश्य विशुध्यति । इति ॥
पराशर माधवः ।
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यो ब्राह्मणः श्रज्ञानान्नमौर्य्यात् तत्रियं प्रेतमनुगच्छति स एकाह माशौचं कृत्वा पञ्चगव्येन शुध्यति । ब्राह्मणोवैश्यश्वानुगमनं कृत्वा द्विरात्राणौचानन्तरं षभिः प्राणायामः शुध्यति । शूद्रशवानुगमनं कृत्वा चिराचमाशौचं समाप्य महानद्यां स्नात्वा शतं प्राणायामान् कृत्वा घृतप्राशनेन शुध्यति । उपक्रमोपसंहारपर्यालोचनया चत्रियादिशवानुगमनेऽपि सलखाना झिस्पर्शष्टतप्राशनान्यनुसन्धेयानि । एवञ्च मति चचियस्य वैश्य वानुगमने एकाचं शूद्रभवानुगमने यहं वैश्यस्य शूद्रभवानुगमने एकाहमाशौचमित्यूहनीयम् । तथाच कू
" एकाहात् चत्रिये शुद्धिर्वैश्ये स्वात्मा हेन तु ।
शुद्रे दिनचयं प्रोक्तं प्राणायामशतं पुनः " - दूति ॥ द्विजानां शूद्रभवानुगमननिषेधे कदा तैः शूद्रा अनुमर्त्तव्या
दूत्यतश्राच,
विनिर्वर्त्य यदा शूद्रा उदकान्तमुपस्थिताः । द्विजैस्तदाऽनुगन्तव्या एष धर्मः सनातनः । इति ॥
उदकशब्देनोदकक्रियोच्यते । तस्या अन्तः समाप्तिः । तां निर्वर्त्य अशौचं परिसमाप्य यदा स्थिताः, तदा द्विजैरगन्तुतव्याः अनु मर्त्तव्याः, -इति ।
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इप या का
पराशरमाधवः।
एवं, ब्राह्मणस्यातुरक्षत्रियवैश्यानुसरणं क्षत्रियस्थाण्यातुरवैश्यानुमरणमाशौचानन्तरमेवेत्यूहनीयम्। श्राशौचमध्ये श्रातुरव्यचने त्वाशौचमस्ति । तत्र ब्राह्मणमरणविषयातुरव्यञ्जने पारस्करः,
"अस्थिमञ्चयनादागरुदित्वा स्नानमाचरेत् ।
अन्तर्दशाहे विप्रस्य अर्द्धमाचमनं स्मृतम्-इति ॥ विप्रस्य मृतस्य दशाहाभ्यन्तरेऽस्थिसञ्चयनादागब्राह्मण: क्षत्रियादिवाऽऽतुरयञ्चनं कृत्वा खानमाचरेत्। ततऊर्द्धमाचमनमाचरेदिति । चत्रियमरणविषयातुरव्यचने क्षत्रियादीनां, वैश्यमरणविषयातुरव्यचने वैश्यशूद्रयोश्च प्रागम्थिमञ्चयनात् सचेलं स्वानं, ततऊर्द्ध खानमात्रमेव। तत्सर्वं ब्रह्मपुराणेऽभिहितम्,
"मृतस्य यावदस्थीनि ब्राह्मणस्याहतानि तु । तावद्योऽबान्धवस्तत्र रौति तदान्धवैः सह ।। तस्य सानाद्भवेच्छुद्धिस्ततस्त्वाचमनं स्मृतम् । सचेलं स्नानमन्येषां अकृते त्वस्थिसञ्चय॥
कृते तु केवलं स्वानं क्षत्रविटशूद्रजन्मनाम्” इति । ब्राह्मणस्य क्षत्रियवैश्यमरणविषयातुरव्यञ्जने अस्थिमञ्चयनादागेकाहमाशौचं सचेलं स्नानञ्च, ततऊद्ध सचेलं स्नानमात्रम् । तथाच ब्रह्मपुराणम्,
"अस्थिमञ्चयने विप्रो रौति चेत् क्षत्रवैश्ययोः । तदा खात: सचेलस्तु द्वितीयेऽहनि शुध्यति ।।
ते तु सञ्चये विप्रः स्वानेनैव शुचिर्भवेत्" इति । क्षत्रियस्य वैश्यमरणविषयातुरव्यञ्जने विशेषाश्रवणेऽपि ब्राह्मणस्य
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परापारमाधवः ।
[३७०,या०का० ।
ममनन्तरक्षत्रियमरणविषयातुरव्यञ्जने यदाशौचं विवक्षितं तदेवात्रेति न्यायतोऽत्रावगम्यते । शूद्रमरणविषयातुरव्यञ्जनेऽस्थिमञ्चयनात् प्राक ब्राह्मणस्य त्रिरात्रमाशौचं, क्षत्रियवैग्ययोढिरात्रं, ततऊई द्विजातीनामेकरात्रमेव । शूद्रस्पर्श विनाऽऽतुरव्यञ्जनेऽस्थिमञ्चयनादागे करात्रमाशौचं, ततऊर्दू सज्योतिराशौचमिति। तथाच पारस्करः,
"अस्थिमञ्चयनादाग्यदि विप्रोऽश्रु पातयेत् । मृते शूटे ग्रहं गत्वा त्रिरात्रेण विशाध्यति ॥ अस्थिमञ्चयनादूचं मासं यावद्विजातयः । अहोरात्रेण राध्यन्ति वाममः क्षालनेन च ॥ सजातेर्दिव सेनैव यहात् क्षत्रियवैश्ययोः। स्पर्श विनाऽनुगमने शूट्रोनकेन शुध्यति" इति ॥
त्राश्रुपात अातुरव्यञ्जनमात्रोपलक्षणार्थः। सजातेः शूट्रस्थास्थिसञ्चयनादाक् स्पर्श विनाऽनुगमने आतुरव्यञ्जने दिवसेनाहोरात्रेण एद्धिः, ततऊ नकेन रात्रौ चंद्राच्याऽहनि चेदहा शुद्धिरिति। एवञ्च शवनिर्हरणानुगमनमहातुरव्यञ्जनादिनिमित्तमाशौचममपिण्डानां, मपिण्डानान्तु विहितत्वात् नास्ति। तथाच हारीतः,
"विहितं हि मपिण्डस्य प्रेतनिहरणादिकम् ।
दोषः स्यात्त्वमपिण्डस्य तथानाथक्रियां विना"-इति ॥ प्रेतनिहरणादिकमित्यत्रादिशब्देन दाहोदकदानादिकमुच्यते । अनुगमादिविािज्ञवल्क्येन दर्शितः,
"श्रा श्मशानादनुव्रज्य इतरो ज्ञातिभिर्मतः । यममृतं तथा गाथां जपनिलांकिकामिना ।।
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इच,पाका०]]
पराशरमाधवः।
मद्यःशौचाउपेतश्चेदाहितामियथार्थवत्" इति। ऊनदिवर्षादितरः सम्पर्णद्विवर्षातोज्ञातिभिः भपिण्डैः श्मशानभूमिं यावदनुगन्तव्यः। तथा, यमसूतं परेयुवांसमिति षोडश तथा यमदैवत्यां गाथाश्च जपनिीकिकाग्निना स दग्धव्यः । उपेतउपनीतश्चेन्मतः, तदा श्राहिताग्निसंस्कारप्रकारेणार्थवत् प्रयोजनवद्यथा भवति तथा दग्धव्यः । अयमभिप्रायः। येषां भृशोधनप्रोक्षणादीनामाहिताग्निविहितसंस्काराणां करणमर्थवत्, द्वारकार्यरूपं प्रयोजनमस्ति, तान्यनुष्ठेयानि। यानि तु लुप्तार्थानि पात्रप्रयोजनादीनि तान्यननुष्ठेयानि । यथा कृष्णलेब्वतिदेशप्राप्तेववघातप्रोक्षणादिषु द्वारलोपादवघातादीनामननुष्ठानं प्रोक्षणादीनान्त्वनुष्ठानमिति । अब लौकिकानिग्रहणं जातारणेरभावे, तत्सद्भावे तु तस्मिन्मथितोऽमियाह्यः न तु लौकिकामिः तस्याग्निमम्पाद्यकार्यमात्रार्थत्वेनोत्पत्तेः । लौकिका निश्चण्डालाम्यादिव्यतिरिक्रोग्राह्यः, तेषां निषिद्धवात् । तथाच देवलः,
"चण्डालागिरमेध्यामिः मृतका निश्च कर्डिचित्। पतितामिश्चितानिश्च न शिष्टग्रहणोचिताः" इति ॥ त्राहिताग्निस्तु श्रौतामिना दग्धव्यः, अनाहितामियामिना, इतरो खौकिकेन । तदाह वृद्धयाज्ञवल्क्यः,
"आहितामिर्यथान्यायं दग्धव्यस्त्रि भिरग्निभिः ।
अनाहितामिरेकेन लौकिकेनेतरोजनः" इति ॥ एकेन ग्टह्याग्निना दाहश्च स्वपनाद्यनन्तरं कर्त्तव्यः । तथाच
कात्यायन:
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पराशरमाधवः।
धा.का.
"दुर्वलं नापयित्वा च शुद्धचेलाभिसंरतम्। दक्षिणामिरमम्भूमौ वहिमत्यां निवेशयेत् ॥
तेनाभ्यक्रमालुत्य सवस्त्रञ्चोपवीतिनम् । चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं सुमनोभिर्विषयेत् ॥ हिरण्यशकलान्यस्य शिवा छिद्रेषु सप्तसु । मुखे वस्त्रं निधायैनं निहरेयः सुतादयः ।। श्रामपात्रेऽन्नमादाय प्रेतमग्निपुरःसरम् । एकोऽनुगच्छन् तस्यार्द्धम पथ्युत्सृजेद्भुवि ॥ अर्द्धमादहनं प्राप्तमासीनोदक्षिणामुखः ।
मव्यञ्जावाव्य शनकैः सतिलं पिण्डदानवत्" इति ॥ पिण्डदानविधिना श्रादहनं श्मशानपर्यन्तमानीतमन्नं प्रतिपेदित्यर्थः। दाहानन्तरं चितिमनवेक्षमाणाज्ञातयो जलसमीपं गत्वा नावोदकं मकृत् चिवा दद्युः। तथाच कात्यायनः,--
“अथानवेक्षमेत्यापः सर्वएव शवस्पशः । स्नात्वा सचेलमाचम्य दारस्योदकं स्थले । गोत्रनामपदान्ते च तर्पयामीत्यनन्तरम् ।
दक्षिणाग्रान् कुशान् कृत्वा मतिलन्तु पृथक् मकृत्” इति ।। पैठीनसिरपि । “प्रेतं मनमा ध्यायन् दक्षिणाभिमुखस्त्रीनुदकाञ्जलीबिनयेत्” इति । एतच्चायुग्मतिथिषु कार्य, “प्रथमदतीयपञ्चमसप्तमनवमेषदकक्रिया" इति गौतमस्मरणात्। प्रेतोपकारविशेषापेक्षया तु यावन्याशौचदिनानि तावदकदानावत्तिः कार्या। तथाच प्रचेताः,
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श्था,चाका
पराशरमाधवः ।
"दिने दिनेऽजलीन् पूर्णान् प्रदद्यात् प्रेतकारणात् ।
तावद्धिश्च कर्त्तव्या यावत्पिण्डः समाप्यते"-इति । यावद्दशमः पिण्डः ममाप्य ने, तावदलिद्धिः कार्येत्यर्थः । अत्रापरोविशेषस्तेनैवोका,
“नदीकूलं ततो गत्वा शौचं कृत्वा यथार्थवत् । वस्त्रं संशोधयेदादौ ततः स्नानं समाचरेत् ॥ सचेलस्तु ततः स्नात्वा शुचिः प्रयतमानमः । पाषाणं तत श्रादाय विप्रे दद्यात् दशाअलीन्॥ द्वादश चचिये दद्याद्वैश्ये पञ्चदश स्मृताः । त्रिंशच्छूट्राय दातव्यास्ततः सम्प्रविशेड्रहम् ॥
ततः स्नानं पुनः कार्य ग्रहशौचञ्च कारयेत्”-इति॥ प्राज्ञातिभिरपि क्वचित् उदकदानं कर्त्तव्यम् । तदाह याज्ञ
"एवं मातामहाचार्यप्रेतानामुदकक्रिया। कामोदकं मखिप्रत्तास्वतीयश्वरविजाम्" इति ॥ प्रत्ता परिणीता दुहिटभगिन्यादिः । वसीयोभागिनेयः । अत्र प्रेताना मातामहादीनां मपिण्डवदुदकदानं नित्यं कार्य, मख्यादीनां तु कामतः न नित्यतया, अकरणे प्रत्यवायाभावादिति ।
उदकदानानन्तरं पिण्डदानमपि कर्त्तव्यम् । तथाच विष्णः। "प्रेतस्थोदकनिर्वपणं कृत्वा एकञ्च पिण्डं कुशेषु दद्युः” इति। पिण्डोदकदानञ्च यावदाशौचं कार्यम्।तदाहमएवा यावदाशौचं तावत्येतस्योदकं पिण्डच्च दधुः” इति । वर्णनुक्रमेण पिण्डस यानियमः पारस्करेणोकः
81
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पराशरमाधवः।
[३च,धाका
"ब्राह्मणे दश पिण्डाः स्यः क्षत्रिये द्वादश स्मताः ।
वैश्ये पञ्चदश प्रोता: शूटे त्रिंशत्प्रकीर्तिताः" इति ॥ अशौचहासे यावदाशौचमिति विष्णवचनात् पिण्डसङ्कोचप्राप्ती शातातपः,
"प्राशौचस्य च हासेऽपि पिण्डान दद्यात् दशैव तु" इति । विरात्राशौचपक्षे दशपिण्डदानप्रकारः पारस्करेण दर्शितः,
"प्रथमे दिवसे देयास्त्रयः पिण्डाः समाहितः । द्वितीये चतुरो दद्यादस्थिसञ्चयनं तथा ॥
त्रीस्तु दद्यात् हतीये हि वस्त्रादीन् क्षालयेत् तथा"-इति॥ उदकदानवत्पिण्डदानं न सर्वेः कर्त्तव्यमपि तु पुत्रेणैव, तदभावे सन्निहितेन मपिण्डेन, तदभावे मालमपिण्डादिना । तदाह गौतमः । "पुत्राभावे मपिण्डाःमामपिण्डाः शिव्याश्च दद्युः तदभावे ऋत्विगाचाया" इति । पुत्रेष्वपि ज्येष्ठएव पिण्डं दद्यात् । तथाच मरीचिः,
"मर्वैरनुमतिं कृत्वा ज्येष्ठेनैव तु यत्कृतम् ।
द्रव्येण वाऽविभकेन सर्वैरेव कृतं भवेत्” इति ॥ यदा पुत्रास निधानादिनाऽन्यः पिण्डदानं करोति, तदा दशाहमध्ये पुत्रमानिध्येऽपि मएव दशाई पिण्डं दद्यात् । तदुकं ग्रापरिशिष्टे,
"असगोत्रः सगोत्रो वा यदि स्त्री यदि वा पुमान् । प्रथमेऽहनि यः कुर्यात् म दशाएं समापयेत्” इति ॥ यथा दशा पिण्डदाने कर्टनियमः, तथा द्रव्यनियमोऽपि । तदाह शुनःपुच्छः
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३५०,मा.का.
पराशरमाधवः।
"शालिना शकुभिवाऽपि शाकैवाऽप्यथ निर्बपेत् ।
प्रथमेऽहनि यद्दव्यं तदेव स्थाद्दशाहिकम्” इति ॥ यदा तु दशाइमध्ये दर्शपातस्तदा दर्शएवोत्तरं तन्त्र पिण्डोदकदानरूपं समापयेत् । तदाह सुष्यटन:
"श्राशौचमन्तरा दर्शा यदि स्यात्मर्ववर्णिनः ।
समाप्निं प्रेततन्त्रस्य कुर्युरित्याह गौतमः" इति ॥ भविष्यपुराणेऽपि,
"प्रवृत्ताशौचतन्त्रस्तु यदि दशैं प्रपद्यते ।।
समाप्य चोदकं पिण्डं खानमा समाचरेत्" इति॥ पैठीनमिरपि,
"श्राद्येन्दावेव कर्त्तव्या प्रेतपिण्डोदकक्रिया। दिरैन्दवे तु कुर्वाणे पुनः शावं ममश्रुते"-इति ॥ मातापितविषये तु विशेषो गालवेनोकः,
"पित्रोराशौचमध्ये तु यदि दर्शः समापतेत् ।
तावदेवोत्तरं तन्वं पर्यवस्येत् यहात् परम्" इति ॥ पिचोराशौचमध्ये तु त्रिराचात्परं यदि दर्श: समापतेत्, तदैवोत्तरं तन्त्रं दर्श समापयेत्, नाग्दिर्शपाते। यत्त श्लोकगौतमेनोक्रम्,
"अन्तर्दशाहे दर्श तु तत्र सर्व समापयेत् ।।
पित्रोस्तु यावदाशौचं दद्यात् पिण्डान् जलाञ्जलीन्”-इति॥ तत् चिरात्रादर्वाग्दीपाते वेदितव्यं, अहात्परमिति गालवेन विशेषितत्वात् । पिण्डोदकदानानन्तरं बान्धवैरातुराश्वासनं कार्यम् ।
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६४४
पराशरमाधवः।
था.का.
तथाच याज्ञवल्क्यः,
"कृतोदकान्समुत्तीमात्मृदुशाइलमंस्थितान्।
सातानपवदेयस्तानितिहासः पुरातनैः" इति । इतिहासम्तु तेनैव दर्शितः,
"मानुष्ये कदलीस्तम्भे निःसारे मारमार्गणम् । करोति य: स मम्मढ़ो जलबुदसन्निभे । पञ्चधा संमतः कायो यदि पञ्चत्वमागतः ॥ कर्मभिः खशरीरोत्यैस्तत्र का परिदेवना । गन्त्री वसुमती नाशमुदधिदैवतानि च ॥
फेनप्रख्यः कथं नाम मर्त्यलोको न यास्यति" इति । कात्यायनोऽपि,
"एवं कृतोडकान् सम्यक् सर्वान् शाहलमंस्थितान्। प्राप्लुतान् पुनराधान्तान्वदेयुस्तेऽनुयायिनः । मा शोकं कुरुतानित्य पर्चस्मिन प्राणधर्मिणि ॥
धर्म कुरुत यत्नेन यो वः सह करिष्यति"-दति। शो के दोषोऽपि याज्ञवल्क्येन दर्शितः,
"नेमात्र बान्धवैर्मुतं प्रेतोभुङले यतोऽवशः ।
अतो न रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याः प्रयत्नतः"-दति आतुगश्वामनानन्तरकृत्यं याज्ञल्कोनोक्रम्,
"इति मच्चिन्य गच्छेयुर्टहं बालपुरःसराः । विदश्य निम्बपत्राणि नियतादारवेश्मनः ॥ प्राचम्याग्न्यादि सलिलं गोमयं गौरसर्षपान ।
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३०, धा०का० ।]
प्रविशेयः समालभ्य लम्वाऽश्मनि पदं शनैः " - इति ॥ श्रचापरोविशेषः शङ्खन दर्शितः । “दूर्वा प्रबालमग्निं वृषभं चालभ्य ग्टहद्वारे प्रेताय पिण्डं दत्त्वा पश्चात् प्रविशेयुः " - इति । श्रशौचिनियमा मनुना दर्शिताः, -
तदाह सम्बर्त्तः,
पराशर माधवः
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“श्रचारलवणाम्नाः स्युर्निमज्जेयुश्च तेऽम्बरम् ।
मांसाशनञ्च नाश्रीयुः शयीरंच पृथक् चितौ ” - इति ॥ मार्कण्डेयेनापि -
“क्रीतलभ्धाशनाचैव भवेयुः सुसमाहिताः ।
न चैव मांसमश्रीयुर्ब्रजेयुर्म च योषितम् " - इति ॥ गौतमेनापि । “अधः शय्यासना ब्रह्मचारिणः सर्वे समासीन्मांस न भक्षयेयुराप्रदानात् प्रथमदतीयसतमनवमेषूदककर्म नवमे वासस त्यागः श्रन्ये त्वन्यानाम्” इति । प्रदानं प्रेतैकोद्दिष्टश्राद्धं वाससां त्यागस्तु प्रचालनार्थं रजकार्पण, श्रन्यं दशममहः, तत्रान्यानामत्यन्तपरित्याज्यानां वासां त्याग इत्यर्थः । प्रथमेऽहनि प्रेतमुद्दिश्य जलं चीरं चाकाशे शिक्यादौ पात्रद्वये स्थापनीयम् । तदाह याज्ञवल्क्यः,"जलमेकाहमाकाशे स्थाप्यं चीरञ्च मृणमये" इति । प्रथमतृतीयमतमनवमदिवसानामन्यतमस्मिन्नस्थिसञ्चयनं कार्यम् ।
"प्रथमेऽद्वितीये वा सप्तमे नवमे तथा ।
यिनं कार्यं दिने तगोत्रजैः सह " - इति ॥
* पच्चमेऽथवा, - इति मु० ।
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पराशरमाधवः।
[३१०,पाका।
चतुर्थे दिवसेऽस्थिमञ्चयनमाह विष्ण: । “चतुर्थे दिवसेऽस्थिसञ्चयनं कुर्युः तेषां गङ्गाम्भमि प्रक्षेपः" इति। अस्थिसच्चयने तिथिवारनक्षत्रनिषेधोयमेनोकः,
"भौमार्कमन्दवारेषु तिथियुग्मेषु वर्जयेत् । वर्जयेदेकपादृक्षे दिपादृहेऽस्थिमञ्चयम् ।।
प्रदावजन्मनक्षत्रे त्रिपादृक्षे विशेषतः” इति । वृद्धमनुः
“वस्वन्ताद्धादितः पञ्चनक्षत्रेषु त्रिजन्मसु । विधिपादृक्षयोश्चैव नन्दायां च विशेषतः ॥ अजचरणादिद्वितीये ह्यापाड़ादयमेव च । पुथ्ये च इस्तनक्षत्रे फल्गुनीद्वयमेव च ॥ भानुभौमार्किगुषु अयुग्मतिथिसन्ध्ययोः । चतुर्दश्यां त्रयोदश्यां नैधने च विवर्जयेत् ॥
अस्थिमध्यनं कार्य कुलक्षयकरं भवेत्”-इति । वापनी दशमेऽहनि कार्यम् । तदाह देबलः,
"दशमेऽहनि सम्प्राप्ते स्वानं ग्रामादहिर्भवेत् ।
तत्र त्याव्यानि वामांसि केशश्मश्रुनखानि च" इति ॥ स्मात्यन्तरे तु एकादशाहादागनियमेन वापन कार्यमित्युक्तम्,
"द्वितीयेऽहनि कर्त्तव्यं क्षुरकर्म प्रयत्नतः ।
• वृद्धमनुः, इत्यारभ्य रतदन्तोग्रन्थोनास्ति मुद्रितातिरिक्तपुस्तकेषु । विपनं,-इति मु. । एवं परत्र ।
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श्ष.,या का।
पराशरमाधवः।
६80
हतीये पश्मे वाऽपि सप्तमे वाऽऽप्रदानतः"-दति ॥ प्रदानमेकादशादिकं श्राद्धम्। अवाप्रदानतः इति वचनात् अनियमोऽवगम्यते । बौधायनेनापि,
"अस्लुप्तकोशीयः पूर्वं मोऽत्र केशान् प्रवापयेत् । द्वितीयोकि तीयेऽहि पञ्चमे सप्तमेऽपि वा॥
यावच्छ्राद्धं प्रदीयत तावदित्यपरं मतम्" इति । वापनञ्च पुत्राणां कनिष्ठभ्राणा। तथा चापसम्बः । “अनुभाविनाञ्च परिवापनम्" इति। अनु पश्चाद्भवन्ति जायसे इति पुत्राः कनिष्ठनातरश्च । अथवा। अनुभाविन इति पुत्राएव निर्दिश्यन्ते,
"गङ्गायां भास्करक्षेत्रे मातापित्रीगुरोर्मतौ ।
प्राधानकाले सोमे च वपनं मनसु स्मृतम् ॥" इत्यत्र मातापित्रोदृतौ इति विशेषेणोपादानात् । एवं नियतः मन् माऽपि स्वाशौचान्ते पिण्डोदकदानं ममापयेत् । तदेकोद्दिष्टन्तु श्राद्धमेकादशेऽकि कुर्यात् । तथाच मरीचिः,
"प्राशौचान्ते ततः सम्यक् पिण्डदानं समाप्यते ।
ततः श्राद्धं प्रदातव्यं सर्ववर्षेष्वयं विधिः" इति ॥ तत पाशौचानन्तरमेकादशेऽहि ब्राह्मण एकोद्दिष्टश्राद्धं कुर्यात् । एकोदिष्टमेकादशेऽहनि कुर्यादित्ययं विधिः सर्ववर्षेषु चत्रियादिषु ममानइत्यर्थः।
नन्याशौचममायनन्तरमेवैकोद्दिष्टविधिः सर्वेष्वपि वर्षेषु किं न स्यात् । एकादशेऽडि अधिककालामौचिनां क्षत्रियादीनां शुद्धाभावात् । "इचिना कर्म कर्त्तव्यम्"-दति शुद्धेः काङ्गत्वेन
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पराशरमाधवः ।
[३१०,बा०का ।
विधानात् । "प्रथाशौचापगमे"-इति माधारणेनोपकम्यैको दिष्टस्य विष्णुना विहितत्वाच ।
"श्राद्यश्राद्धमशद्धोऽपि कुर्यादेकादशेऽहनि ।
कर्तुम्तात्कालिकी वद्धिरशुद्धः पुनरेव म:"-दति प्रवचनेनाशौचमध्ये एकादशेऽहि एकोद्दिष्टविधानान्मेवमिति चेत् । न । मातर्यग्रे प्रमीतायं तदाशौचमध्ये यदि पिता म्रियेत, ततो मातुरेकोद्दिष्टश्राद्धमेकादशेऽहि प्रशद्धोऽपि कुर्यादिति विषयान्तरसम्भवात् । यत्तु,
"एकादशेऽहि यच्छ्राद्धं तत्मामान्यमुदाहृतम् ।
चतुर्णामपि वर्णनां मृतकन्तु पृथक् पृथक्" इति पैठीनसिवचनं, नयायमर्थः । श्राशौचानन्तरदिने यच्छ्राद्धं विहितं, तचतुर्णमपि वर्णनां माधारणं न ब्राह्मणस्यैवेति। कथं तयकादशाहशब्दम्योपपत्तिरिति चेत् । न । खक्षणया तम्याशौचानन्तरदिनपरत्वेनोपपत्तेः।
अत्रोचते । एकादशाहकालविशिष्टमेकोद्दिष्टश्राद्धं चतुर्ण वर्षानां विधीयते । “न विधौ परः शब्दार्थ." इति न्यायेनैकादशाहशब्दस्य लक्षणयाऽऽशौचानन्तरदिनपरत्वानुपपत्तेः । मति मुख्य वृत्त्यन्तरकल्पनाया अन्याय्य त्वाञ्च, एकादशाइएव क्षत्रियादिभिरप्येको द्दिष्टश्राद्धं कर्त्तव्यम् । नन्वेकादशेऽहि क्षत्रियादीनां शुद्ध्यभावाच्छ्राद्धेऽधिकारो नास्ति इत्युक्रमिति चेत् । न । कर्तुतात्कालिकी द्धिरिति वचनात्तात्कालिक्या: शुद्धेः सत्त्वात् । यत्त शङ्खवचनस्याशौचमध्ये प्राशीचन्तरप्राप्तावेकोदिष्टमेकादशेऽहि प्रशद्धोऽपि कुर्यादिति विषय
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३०, ख०का० ॥]
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पराशर माधवः ।
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विशेषे तात्पर्यमुक्तम् । तन्न । तत्रापि शुद्धभावादित्यस्य चोद्यम्य समानत्वात् । मामान्येन प्रवृत्तस्य शङ्खवचनस्य विना कारणं विशेषपरत्वेन मङ्कोचायोगाच्च । यत्तू, अथाशौचापगमदूति सामान्येनोपक्रम्य विष्णुनै कोद्दिष्टविधानादा शौचानन्तरमेव मर्वेरेकोद्दिष्टं कर्त्तव्यमिति । तन्न । विष्णुवचनस्य दशाहाशौ चित्राह्मण विषयत्वेनोपपत्तेः । तम्मादेकादशाहएव क्षत्रियादिभिरप्येकोद्दिष्टं कर्त्तव्यमिति सुष्ठुक्रम्।
अथ संगृहीतश्रावनिर्णयः प्रपञ्चाते ।
६४६
प्रतोद्देशेन श्रद्धया द्रव्यत्यागः श्राद्धम् । तदुकं ब्रह्मपुराणे“देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत् । पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम्” इति ॥ तच पार्श्वणैको दिष्टभेदेन द्विविधम् । पुरुषत्रयमुद्दिश्य यत् कियते, तत् पार्श्वणम् । एकपुरुषोद्देशेन यत् क्रियते, तदेकोद्दिष्टम् । एवं द्विविधमपि श्राद्धं नित्यनैमित्तिककाम्यभेदेन त्रिधा भिद्यते । तत्र जीवनोपाधौ चोदितं नित्यम् । यथा श्रमावस्यादौ चोदितं श्राद्धम् । श्रनियतनिमित्तकं नैमित्तकम् । यथोपरागादौ । कामनो
पाधिकं काम्यम् । यथा तिथिनक्षत्रादिषु । वक्त विश्वामित्रेण
द्वादशविधत्वमुक्तम्, -
“नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धं मपिण्डनम् । पार्व्वणं चेति विज्ञेयं गोष्ठ्यां शुद्ध्यर्थमष्टमम् ॥
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कमी नवमं प्रोकं दैविकं दशमं स्मृतम् । यात्रास्कादशं प्रोकं पुचये द्वादशं मतम् " - इति ॥ तनित्यनैमित्तिककाम्यावान्तरभेदविवक्षयैव न तु ततः पार्थक्य
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पराशरमाधवः।
[श्चा,पाया।
विवषया । तथाहि । तच नित्यमित्यहरहा बाडमुचते । नैमिसिकमित्येकोदिष्टम् । तराह पारस्करः
"अहन्यहनि यच्छाई तबित्यमिति कीर्त्तितम् । वैश्वदेवविहीनन्नु अथकावुदकेन तु ॥ एकोदिन यताद्धं तम्बैमित्तिकमुच्यते ।
तदप्यदैवं कर्त्तव्यमयुग्मानाशयेद् विजान्"-दति ॥ काम्यमित्यभिमतामियर्थम् । हिश्राद्धमिति पुत्रजन्मविवाहादौ कियमाणम्। मपिण्डनं मपिण्डीकरणम् । पार्वणमिति प्रति पर्व क्रियमाणम् । गोष्ठ्यामिति गोष्ठ्या क्रियमाणं श्राद्धम् । तदार वृद्धवसिष्ठः,
"अभिप्रेतार्थसिद्दार्थ काम्यं पार्वणवत् सतम् । पुत्रजन्मविवाहादौ दृद्धिश्राद्ध मुदाहतम् । नवा नीतापात्रश्च पिण्डश्च परिकीर्यते ॥ पिटपात्रेषु पिण्डेषु मपिण्डीकरणन्तु तत् । प्रति पर्व भवेद्यस्मात् प्रोच्यते पार्वणन्तु तत् ॥ गोष्ठ्यां यस्क्रियते श्राद्धं गोष्ठीश्राद्धं तदद्यते । बहनां विदुषां प्राप्तौ सुखार्थ पिटतप्तये"-दति ॥ शुद्ध्यर्थमिति शुद्धये क्रियमाणम् । तदाह प्रचेताः,
"क्रियते शुद्धये यत्तु ब्राह्मणानान्त भोजनम् । शुद्यार्थमिति तत् प्रोनं श्राद्धं पार्वणवत् मतम्" ||
* सदा,-इति मु
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३१.,चाका
पराशरमाधवः।
___
काजमिति यागादौ क्रियमाणम्। दैविकमिति देवानुद्दिश्य ब्रियमाणम् । यात्राश्राद्धमिति प्रवेशनिर्गमयोः क्रियमाणम् । तराह पारस्करः,
"निषेककाले मोमे व मीमन्तोन्नयने तथा। जयं घुमवने श्राद्धं कर्माङ्गं द्धिवकृतम् ॥ देवानुद्दिश्य क्रियते यत्तविकमुच्यते । तन्नित्यश्राद्धवत्वात् द्वादश्यादिषु यत्नतः ॥ गच्छन् देशान्तरं यद्धि श्राद्धं कुर्यात्नु मर्पिषा ।
तद्यात्रार्थमिति प्रोकं प्रवेशे च न संशयः” इति ॥ पत्र काङ्गमिति वचनमकरणे कर्मवैगण्यज्ञापनार्थम् । मर्पिषा मर्पि:प्रधानके नेत्यर्थः । अवर्थ केवलेन हरसम्भवात् ।
अथ देशकथनम। श्राद्धश्च दक्षिणाप्रवणे गोमयाधुपलिप्ते देशे कार्यम् । तथास विष्णुधर्मोत्तरे,
"दक्षिणाप्रवणे देश तीर्थादौ वा रहेऽपि वा।
भूसंस्कागदिसंयुके श्राडं कुर्यात्प्रयत्नतः” इति ॥ तीर्थ देवर्षिमेवितं कुलम् । श्रादिशब्दन पुण्याश्रमादि ग्टह्यत । भूमंस्कारो गोमयादिनोपलेपः । श्रादिशब्देनाशुद्धिद्रव्यापमारणम् । याजवल्क्योऽपि,
- अत्र,-इत्यारभ्य एतदन्तोग्रन्थोनास्ति सो. ना. पु० । + जलम्, इति मु.।
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६५२
पराशरमाधवः ।
३५०,या का ।
"परिश्रिते* शुचौ देशे दक्षिणाप्रवणे तथा" इति । परिश्रिते परितः प्रच्छादिते, शुचौ गोमयादिनापलिप्ते दक्षिणाप्रवणे दक्षिणोपनते देशे, श्राद्धं कुर्यादित्यर्थः । स्वतोदक्षिणाप्रवणत्वासम्भवे देशस्य यत्नतोदक्षिणप्रवणत्वं कार्यम् । तथाच मनुः,
“शुचिं देशं विविकन्तु गोमयेनोपलेपयेत् ।
दक्षिणप्रवणश्चैव प्रयत्नेनोपपादयेत्” इति ॥ क्रिमिकोटाधुपहतं देशं श्राद्धे विवर्जयेत् । तदाह यमः,
"हं क्रिमिहतं क्लिन्न सङ्कीर्णनिष्टगन्धिकम् ।
देशत्वनिष्टशब्दच वर्जयेच्छाद्धकर्मणि"-दति ॥ लिन मपदम्। सङ्कीर्णमन्यैः सङ्कीर्मम् । मार्कण्डेयोऽपि,
"वा जन्तुमयी रूक्षा तितिः मुष्टा तथाऽग्निना ।
अनिदुरशब्दोग्रा दुर्गन्धिः श्राद्धकर्मणि" इति ॥ कत्रिमादिदेशेष्वपि श्राद्धं न कार्यम् । तदाह शङ्खः,
“गोगजाश्वाजष्टेषु कृत्रिमायां तथा भुवि ।
न कुर्याछामेतेषु पारक्याशुचिभूमिषु”-दति ॥ कृत्रिमायां वेदिकादौ । पारक्यासु परपरिग्टहीतासु । ताश्च सहगोष्ठारामादयः । न पुनस्तीर्थादिस्थानानि । तथाचादिपुराणम्,
"अटवी पर्वताः पुण्या नदीतीराणि यानि च । सवाण्यस्वामिकान्याहुन हि तेषु परिग्रहः ॥ वनानि गिरयो नद्यस्तीर्थान्यायतनानि च ।
देवखातश्च गश्च न स्वामी तेषु विद्यते" इति ॥ * पनिक्षिते, इति सो० ना० । एवं परत्र ।
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श्वथा का।।
पशपरमाधवः।
तीर्थक्षेत्रविशेषेषु कृतं श्राद्धमतिशयफलप्रदं भवति । तदार देवला,
"श्राद्धम्य पूजितो देशो गया गङ्गा मरस्वती । कुरुक्षेत्र प्रयागश्च नैमिषं पुष्कराणि च ॥ नदीतटेषु तीर्थषु शैलेषु पुलिनेषु च। .
विविक्रव्येव तुष्यन्ति दत्तेनेह पितामहाः"-दति ॥ व्यामोऽपि,
"पुष्करेष्वक्षयं श्राद्धं जपहोमतपामि च ।
महादधौ प्रयागे च काश्याच कुरुजाङ्गले"-दति ॥ शङ्खोऽपि,
"गङ्गायमुनयोस्तीरे पयोध्यमरकण्टके । नर्मदाबाहुदातीरे भगतुङ्गहिमालये ॥ गङ्गाद्वारे प्रयागे च नैमिषे पुष्करे तथा ।
मन्त्रिहत्यां गयायाञ्च दत्तमक्षयतां व्रजेत्" इति ॥ ब्रह्माण्डपुराणोऽपि,
“नदीममुद्रतीरे वा इदे गोठेऽथ पर्वते । ममुद्रगानदीतीरे सिन्धुमागरमङ्गमे ॥ नद्योवा मङ्गमे शस्तं शालग्रामशिलान्तिके । पुष्करे वा कुरुक्षेत्रे प्रयागे नैमिषेऽपि वा । शालग्रामे च गोकले गयायाश्च विशेषतः ।
क्षेत्रेश्वेतेषु यः श्राद्धं पिटभक्रिममन्वितः ।। • पयोष्णामरकण्टके,इति मु. ।
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६५०
[३५०, धा०का० ।
करोति विधिना मार्चः कृतकृत्यो विधीयते " - इति ॥
वृहस्पतिरपि -
पराशर माधवः ।
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" कांचन्ति पितरः पुचान्नरकापातभीरवः ।
गयां यास्यति यः कश्चित् सोऽस्मान् मन्तारयिष्यति ॥ करिष्यति वृषोत्सर्गमिष्टापूर्त्तं तथैव च । पालयिष्यति वृद्धले श्राद्धं दास्यति चान्वहम् ॥ गयायां धर्मपृष्ठे च सदसि ब्रह्मणस्तथा । गयाशी वटे चैव पितॄणां दत्तमक्षयम्” इति ॥
विष्णुरपि, -
"गयाशी वटे चैव तीर्थे वामरकण्टके इति । यत्र वचन नर्मदातीरे यमुनातीरे गङ्गायां विशेषतो गङ्गादारे प्रयागे गङ्गासागरसङ्गमे कुशावर्त्ते बिल्वके नीलपर्व्वते कुजाये मृगतुङ्गे केदारे महालये ललिकायां सुगन्धायां शाकम्भर्यं फल्गुतीर्थं महागङ्गायां तंदुलिकाश्रमे कुमारधारायां प्रभासे यच क्वचन सरस्वत्यां विशेषतो नैमिषारणले वाराणस्यामगस्त्याश्रमे कलाश्रमे कौशिक्यां शरयूतीरे शोणस्य ज्योतीरथ्यायाश्च सङ्गमे श्रीपर्व्वते कालोदके उत्तरमानसे वड़वायां सप्तर्थे विष्णुपदे स्वर्गमार्गप्रदेशे गोदाव गोमत्यां वेत्रवत्यां विपाशायां वितस्तायां शततीरे चन्द्रभगायामैरावत्यां सिन्धोस्तीरे दक्षिणे पञ्चनदे श्रौज से चैवमादिष्वथान्येषु तीर्थेषु सरिदरासु सङ्गमेषु प्रभवेषु पुस्लिनेषु प्रस्त्रवणेषु पर्व्वतनिकुश्चेषु वनेषूपवनेषु च गोमयेनोपलिप्तेषु ग्टहेषु च इति । श्रचापि पितृगाथा भवन्ति -
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३०, था०का० 17
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पराशरमाधवः ।
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कुलेऽस्माकं स जन्तुः स्याद्यो नो दद्याज्जलाञ्जलिम् । नदीषु बहुतोयासु शीतलास विशेषतः ॥
अपि जायेत सोऽस्माकं कुले कश्चिन्नरोत्तमः । गयाशी वटे श्राद्धं यो नो दद्यात्समाहितः ॥ एष्टव्या वहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत् । यजेत वाश्रमेधेन नीलं वा वृषमुत्सृजेत् " - इति ॥ गया|र्ष प्रमाणञ्चादिपुराणेऽभिहितम्, -
"पञ्चक्रोशं गया क्षेत्रं क्रोशमात्रं गया शिरः ।
महानद्याः पश्चिमेन यावद्गृध्रेश्वरो गिरिः ॥ उत्तरे ब्रह्मयूपस्य यावद्दचिणमानमम् । एतद्रयाशिरा नाम त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् " - इति ॥
श्राद्धकालास्त्वमावास्याऽष्टकादयः । तदाह याज्ञबल्क्यः," श्रमावास्याऽष्टका वृद्धिः कृष्णपक्षोऽयनद्वयम् । द्रव्यं ब्राह्मणसम्पत्तिर्विषुवत्सूर्यसङ्गमः ॥ व्यतीपातो गजच्छाया ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः ।
श्राद्धं प्रति रुचिश्चैव श्राद्धकालाः प्रकीर्त्तिताः” – इति ॥ यस्मिन्दिने चन्द्रमा न दृश्यते सा श्रमावास्या । तत्र श्राद्धं नित्यम् । तथाच लौगाक्षः, -
“श्राङ्कुर्यादवश्यन्तु प्रमीतपिटको द्विजः ।
इन्दुक्षये मासि मामि वृद्धौ प्रत्यब्दमेवच " - इति ॥ श्रष्टकाश्चतस्रः मार्गशीर्षादिचतुष्टयापरपक्षाष्टम्यः । " हेमन्तशिशिरयोश्चतुर्णामपरपक्षाणामष्टमोटका " - दति शौनकस्मरणात्। तत्रापि
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१५८
पराशरमाधवः।
[३च.पा.का.।
श्राद्धं नित्यम् । तदाह पितामहः,
"श्रमावास्थाव्यतीपातपौर्ममास्यष्टकासु च ।
विद्वान् श्राद्धमकुर्वाण: प्रायश्चित्तीयते तु मः".-इति ॥ सृद्धिः पुत्रजन्मादिः, तेन तदिशिष्टः कालो लक्ष्यते । कृष्णपक्षोऽपरपक्षः । अयनइयं दक्षिणायनमुत्तरायणञ्च । द्रव्यं कमरमांसादि, ब्राह्मण: श्रुताध्ययनसम्पन्नः, तयोः सम्पत्तिलाभो यस्मिन् काले स तथोकः। विषुवन्मेषतुलासंक्रान्ती। सूर्यसंक्रमः सूर्यस्य राशेराश्यन्तरप्राप्तिः। सूर्यमंक्रमशब्देनैवायनविषुवतोपादाने मिद्धे पृथगुपादानं फलातिशयज्ञापनार्थम्। व्यतीपातोयोगविशेषः, महायतीपातो वा।
"सिंहस्थौ गुरुभौमौ चेन्मेषस्थे च रवौ हि वा। द्वादशी इस्तसंयुका व्यतीपातो महान्हि मः ॥ श्रवणाश्विधनिष्ठाद्रीनागदैवतमस्तकैः । यद्यमा रविवारेण व्यतीपातः स उच्यते"-दति
द्धमनुवचनात् । नागदेवतमन्नेषानक्षत्रं, मस्तकं मृगशिरः । यद्यमा अमावास्या रविवारेण श्रवणादीनामन्यतमेन नक्षत्रेण यता, म व्यतीपात इत्यर्थः । गजच्छायालक्षणं स्मृत्यन्तरे दर्शितम्,
“यदेन्दुः पिढदैवत्ये हंसश्चैव करे स्थितः ।
याम्या तिथिर्भवेत्मा हि गजच्छाया प्रकीर्तिता"-दति ॥ पिटदैवतां मधानक्षत्रं, इंसः सूर्यः, करो इस्तनक्षत्र, याम्या तिथिस्त्रयोदशी । पुराणेऽपि,
"हंसे हस्तम्थिते या तु मघायका त्रयोदशी ।
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३०,पाका०]
पराशरमाधवः ।
तिथिवखती नाम मा छाया कुञ्जरस्य तु"-इति॥ ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोरिति ग्रहणमुपराग: । प्रचापि कालविशेषः श्राद्धाङ्गत्वेन स्वीकार्यः । तदाह रद्धवसिष्ठः,
"त्रिदशा: स्पर्शसमये हप्यन्ति पितरस्तथा ।
मनुष्या मध्यकाले तु मोक्षकाले तु राक्षसाः" इति ॥ श्राद्धं प्रतिरुचिरिति यदा श्राद्धं प्रतीच्छा तदैव कर्त्तव्यमिति । चकारेणान्येऽपि श्राद्धकालाः संग्टह्यन्ते । अतएव यमः,
"आषायामथ कार्तिक्या माध्यां चीन पञ्च वा विजान ।
तर्पयेत्पित्पूर्वन्तु तदस्याक्षयमुच्यते” इति ॥ देवलोऽपि,
"तीया रोहिणीयुका वैशाखस्य सिता तु या। मघाभिः महिता कृष्णा नभस्ये तु त्रयोदशी । तथा शतभिषग्युका कार्तिके नवमी तथा। इन्दुक्षयगजछायावैधतेषु युगादिषु ॥
एते कालाः समुद्दिष्टाः पिहणां प्रीतिवर्द्धनाः" इति। यगादयोऽपि श्राद्धकालाः । ते च मत्स्यपुराणे दर्शिताः,
"वैशाखस्य हतीया तु नवमौ कार्तिकस्य तु । माघे पञ्चदशी चैव नभस्ये च त्रयोदशी ॥
युगादयः स्मता ह्येता दत्तस्यावयकारकाः" इति । विष्णुपुराणेऽपि,
"वैशाखमासस्य च या हतीया नवम्यमौ कार्तिकाएलपचे।
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इन
पराशरमाधवः।
[३१०,वाका.।
नभस्यमासस्य च कृष्णपणे त्रयोदशी पञ्चदशी च माघे ॥ पानीयमप्यत्र तिलैर्विमिश्र दद्यात् पिलभ्यः प्रयतो मनुष्यः । श्राद्धं कृतं तेन ममामहस्त्रं
रहस्यमेतत् पितरो वदनि"-दति ॥ मन्वादयोऽपि श्राद्धकालाः । तदुकं मत्स्यपुराणे,
"अश्वयुकाएक्लनवमी कार्त्तिके द्वादशौ मिना । तृतीया चैव माघस्य सिता भाद्रपदस्य च ॥ फाल्गुनस्य त्वमावास्था पौषस्यैकादशी सिता । भाषाढस्यापि दशमी माघमासस्य सप्तमी। श्रावणस्याष्टमी कृष्णा तथाऽऽषाढ़ी च पूर्णिमा । कार्तिको फाल्गुनी चैत्री ज्येष्ठी पञ्चदशी मिता ॥
मन्वन्तरादयश्चैते दत्तस्याक्षयकारकाः" इति । জলিালি িাাালা। নাহু খাৰৰক:
"वर्ग ह्यपत्यमोजश्च शौर्य क्षेत्र बलं तथा। पुत्रप्रेक्ष्यच सौभाग्यं समृद्धिं मुख्यता शुभाम् । प्रत्तचक्रताश्चैव वाणिज्यपमतीनपि । अरोगित्वं यशोवीतशोकत्वं परमाङ्गतिम् ॥ धनं वेदान् भिषक्मिद्धिं कुष्यङ्गाप्रप्यजाविकम् । अश्वानायुश्च विधिवद्यः श्राद्धं संप्रयच्छति॥ कृत्तिकादिभरण्यन्तं म कामानानुयादिमाम्" इति ।
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पा,पाका
पराशरमाधवः।
मार्कण्डेयोऽपि,
"कृत्तिकासु पिहनर्थ स्वर्गमाप्नोति मानवः । अपत्यकामो रोहिण्यां मौम्यै तेजखितां लभेत् ॥ बायां शौर्यमानोति क्षेत्रादि तु पुनर्वसौ । पुटिं पुष्ये पिढनय॑न्नम्मेषासु वरान् सुतान् ॥ मधासु खजनश्रेष्ठ्य मौभाग्यं फल्गुनीषु च। प्रदानशीलो भवति सापत्यश्चोत्तरास च ॥ प्राप्नोति श्रेष्ठतां मत्यु हस्ते श्राद्धप्रदो नरः । रूपवन्ति च चित्रासु तथापत्यान्यवाप्नुयात् ॥ वाणिज्यलाभदाः खात्यो विशाखाः पुचकामदाः । कुर्वताश्चानुराधाच दधुश्चक्रप्रवर्त्तनम् ॥ अष्ठाखाधिपत्यच्च मूले चारोग्यमुत्तमम् । आषाढ़ास यशःप्राप्तिरत्तरासु विशोकता ॥ श्रवणे च शुभालोकान धनिष्ठासु धनं महत् । वेदवेताऽभिजिति तु भिवक्मिाद्धश्च वारुणे॥ प्रजाविकं प्रौष्ठपदे विन्देझायों तथोत्तरे। रेवतीषु तथा रौप्यमश्विनीषु तुरङ्गमान्॥ श्राद्धं कुर्वस्तथाऽऽप्नोति भरणीवाथरुत्तमम् ।
तस्मात्काम्यानि कुर्वीत ऋक्षवेतेषु तत्त्ववित्" इति । मौम्यं मोमदैवत्यं गशीर्षमित्यर्थः । चक्रप्रवर्त्तनं सर्वाचाज्ञायाः प्रतिघाताभावेन प्रवर्तनम् । अभिजित् अभिजिमंज्ञक नक्षत्रम् । * वाणिज्यपक्षदा खाती विशाखा पुत्रकामदा, इति मु. ।
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१६.
पराशरमाधवः।
[श्च०,या का।
श्रुतिः । “उपरिष्टादाषाढ़ानामधस्तात् श्रोणायाः" इति । तत्तु वेधनिरूपणम् । भिषमिद्धिरौषधफलावाप्तिः । वारुणं शतभिषज्नक्षत्रम् । कुष्यं त्रपुमोमादिकम् । विष्णुरपि। "खगं कृत्तिकाखपत्यं रोहिणीषु ब्रह्मवर्चसं मौम्ये कर्मणां मिद्धिः रौद्रे भुवं पुनर्वसौ पुष्टिं पुष्ये श्रियं मार्ये सर्वान् कामान् पिये मौभाग्यं फल्गुनीषु धनमार्यो ज्ञातिश्रेष्य हस्ते रूपवतः सुतास्वाष्ट्रे वाणिज्यवृद्धिं स्वातौ कनकं विशाखासु मित्राणि मैत्रे शाके राज्यं कृषि मूले समुद्रयानमिद्धिं मार्यो मान् कामान् वैश्वदेवे श्रेष्ठयमभिजिति मान् कामाञ्छवणे बलं वासवे श्रारोग्यं वारुणे कुप्यद्रव्यमाजे सहमहिर्बुध्नेर गा: पौष्णे तुरङ्गममश्विने जीवितं याम्ये"-इति ।
श्रादित्यादिवाराश्च काम्यश्राद्धकालाः । तदाह विष्णुः । “मततमादित्येऽहि श्राद्धं कुर्वन्नारोग्यमाप्नोति सौभाग्यं चान्द्रे समरविजयं कौजे मान कामान बौधे विद्यामभीष्टां वे धनं शौके जीवितं शनैश्चरे"। कूर्मपुराणेऽपि,
“श्रादित्यवारे त्वारोग्यं चन्द्र सौभाग्यमेव च । कुजे सर्वत्र विजयं सर्वान् कामान् बुधम्य तु ॥ विद्या विशिष्टाञ्च गुरौ धनं वै भार्गवे पुनः ।
शनैश्चरे भवेदायुरारोग्यञ्च सुदुर्लभम्” इति ॥ विष्णुधर्मोत्तरे,
"श्रतः काम्यानि वक्ष्यामि श्राद्धानि तव पार्थिव । * अभिजित्,-इत्यारभ्य एतदन्तीग्रयो नास्ति मुप्रितातिरिक्त पुस्तकेष । । माध्ये, इति मु.।
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३च०,वाका
परापारमाधवः ।
पारोग्यमथ मौभाग्यं समरे विजयं तथा ॥ सर्वकामांस्तथा विद्यां धनं जीवितमेवच ।
आदित्यादिदिनेम्वेवं श्राद्धं कुर्वन् सदा नरः ॥
क्र मेणेतान्यवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा"-इति ॥ प्रतिपदादितिथयोऽपि काम्यश्राद्धकालाः । तदाह मनुः,
"कुर्वन् प्रतिपदि श्राद्धं सुरूपान्विन्दते सुतान् । कन्यकान्तु द्वितीयायां हतीयायान्तु वन्दिनः ।। पशून् क्षुद्रांश्चतुर्थान्तु पञ्चम्यां शोभनान् सुतान् । षष्ठ्यां द्यूती कृषिञ्चैव सप्तम्यां लभते नरः॥ अष्टम्यामपि बाणिज्यं लभते श्राद्धदः सदा । स्थानवम्यामेकखुरं दशम्यां द्विखुरं बहु॥ एकादश्यां तथा रूप्यं ब्रह्मवर्चखिनः सुतान् । द्वादश्यां जातरूपन्तु रजतं रूप्यमेवच ॥ जातिश्रेष्ठ्यं त्रयोदश्यां चतुई ग्यान्तु सुप्रजाः । प्रीयन्ते पितरश्चास्य ये शस्त्रेण रणे इताः ॥
श्राद्धदः पञ्चदश्यान्तु सर्वान् कामान् समश्रुते” इति। याज्ञवल्क्योऽपि,
"कन्यां कन्यावेदिनश्च पशून क्षुद्रान सुतानपि।।
द्यूतं कृषिञ्च वाणिज्यं तथैकद्विशफानपि ॥ * सम्पदः, इति मु.। | वृतं,-इति सोः ना० पु० । एवं परत्र । | पशून् वै सत्सुतानपि,-इति मु. । विशफैकशफास्त था,-इति मु. ।
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दद्दर
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पराशरमाधवः ।
*
ब्रह्मवर्चखिनः पुत्रान् स्वर्णरूप्ये कुप्यके ।
|
युवानस्तत्र, -- इति मु० ।
+ प्रजायते, - इति सु० ।
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ज्ञातिश्रेष्ठ्यं सर्वकामानाप्नोति श्राद्धदः सदा || प्रतिपत्प्रभृति येां वर्जयित्वा चतुर्दशीम् ।
शास्त्रेण तु हता ये वै तेभ्यस्तच प्रदीयते" - इति ॥ कन्यावेदिनो जामातरः । एतानि फलानि कृष्णपचप्रतिपत्प्रभृतिष्वमावास्यापर्यन्तासु तिथिषु श्राद्धदः क्रमेण प्राप्नोति । श्रतएव कात्यायनः । " स्त्रियः प्रतिरूपाः प्रतिपदि द्वितीयायां तृतीयायां चतुर्थ्यां क्षुद्रपशवः पुत्राः पञ्चम्यां द्यूतं षष्ठ्यां कृषिः सप्तम्यां वाणिज्यमष्टम्यामेकशफं नवम्यां दशम्याङ्गावः परिचारका एकादश्यां द्वादयां धनधान्यरूप्यं ज्ञातिश्रेष्ठ्यं हिरण्यानि त्रयोदश्यां पुत्रास्तत्र* म्रियन्ते शस्त्र हतास तुभ्याममावास्यायां सर्व्वम्" - इति । श्रयक्ष कृष्णपक्षप्रतिपदादितिथिषु श्राद्धविधि: सब्बैम्बेवापरपक्षेषु, न भाद्रपदापरपचएव । श्रतएव शौनकः । “प्रोष्ठपद्या श्रपरपचे मासि मासि चैवम् " - इति । श्रापस्तम्बोऽपि । “सबै ब्बे वापर पक्षस्याहः सु क्रियमाणे पितृन् प्रीणाति कर्त्तुस्तु कालनियमात्फलविशेषः प्रथमेऽहनि क्रियमाणे स्त्रीप्रायमपत्यं जायते द्वितीये स्तेनास्तृतीये ब्रह्मवर्च स्विनः चतुर्थे पशुमान् पञ्चमे पुमांसो बहुपत्यो न चापत्यः प्रमीषष्ठेद्विशलोऽचलश्च सप्तमे कर्षे राह्निः श्रष्टमे पुष्टिः नवमे एकखुरा: दशमे व्यवहारे राद्धिः एकादशे कृष्णायसं त्रपु सीसं दादशे पशुमान् त्रयोदशे बहुपुत्रो बहुमित्रो दर्शनीयापत्यो
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[श्च०, जा०का० ।
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श्खा,चाका
पराशरमाधवः।
युवमारिणस्तु भवति चतुर्दशे श्रायुधे राद्धिः पञ्चदशे पुष्टिः"-- इति । भाद्रपदापरपक्षविषये मार्कण्डेयः,
"कन्यागते भवितरि दिनानि दश पञ्च च। पापोनैव विधिना तत्र श्राद्धं विधीयते ॥ प्रतिपद्धनलाभाय द्वितीया हि प्रजाप्रदा । वरार्थिनां हतीया च चतुर्थी शत्रुनाशनी ॥ श्रियं प्राप्नोति पञ्चम्यं षध्यां पूज्यो भवेन्नरः । गणाधिपत्यं सप्तम्यामध्यम्या बुद्धिमुत्तमाम् ॥ स्त्रियो नवम्यां प्राप्नोति दशम्यां पूर्वकामताम् । वेदांस्तथाऽऽप्रयासानेकादश्यां कियापरः॥ द्वादश्यां हेमलाभश्च प्राप्नोति पिटपूजकः । प्रजा मेधां पशं पुष्टिं स्वातन्त्र्य वृद्धिमुत्तमाम ॥ दीर्घमायुरथेश्वर्यं कुर्वाणस्तु त्रयोदशीम् । वानोति न मन्देहः श्राद्धं श्रद्धापरो नरः ।। युवानः पितरो यम्य मृताः शस्त्रेण वै इताः । तेन कार्यश्चतुर्दश्यां तेषाम्म्रद्धिमभीमता॥ श्राद्धं कुर्वनमावास्थामन्नेन पुरुषः शुचिः। सर्वान् कामानवाप्नोति स्वर्गवासं समश्नुते” इति ॥ नभस्य कृष्णपक्षप्रतिपत्प्रतिदशपञ्चदिनानि कृत्स्नोऽपरपक्षः मवितरि कन्यागते मति महालय इति प्रोकः । तत्र पार्वणेनैव विधिना श्राद्धं कुर्यात् । तदाह वृद्धमनुः,
"नभस्यस्थापरः पक्षो यत्र कन्यां बजेद्रविः ।
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पराशरमाधवः ।
[इवा,पाया।
म महालयसंशः स्याङ्गजायाऽऽयस्तथा" इति ॥ यत्नु शाय्यायनिनोकम् -
"नभस्यस्यापरे पक्षे तिथिषोडशकन्तु यत्।
कन्यास्थार्यान्वितं चेत् स्यात् म कालः श्राद्धकर्मण:"दति ॥ तत्तिथिद्धावधिकदिवसेऽपि श्राद्धं कुर्यान्न तु पञ्चदशदिनेम्वेवेत्यनेनाभिप्रायेण । अथवा। अश्वयुजः शतप्रतिपदा मह नभस्यापरपक्षस्य षोड़शदिनात्मकत्वं, तस्या अपि क्षीणचन्द्रत्वाविशेषेणापरपक्षानुप्रवेशसम्भवात् । तदाह देवलः,
"अहषोड़शकं यत्तु शुक्लप्रतिपदा सह।
चन्द्रक्षयाविशेषेण माऽपि दात्मिका स्मता"-इति ॥ नन्वेतस्मिन्पक्ष, दिनानि दश पञ्च चेति वचनस्य का गतिः ? उच्यते । द्वादशसु कपालेश्वष्टाकपालवत् षोडशसु दिवसेषु पञ्चदशदिनवचनमवयत्यानुवादो भविष्यति। अथवा। पञ्चदशदिवस
* कात्यायनेनोक्तम्, इति मु० । (१) अस्ति जातेछिः "वैश्वानरं द्वादशकपालं निर्बपेत् पुत्रे जाते"
इत्यनेन विहिता । तत्रेदमाम्रायते । “यदशाकपालेाभवति गायत्रावैनं ब्रह्मवर्चसेन पुनाति, यन्नवकपालस्विरतवास्मिस्तेजोदधाति, यद्दशकपालोविराजेवास्मिन्नन्नाद्यं दधाति, यदेकादशकपालस्त्रिशुभैवामिनिन्द्रियं दधाति, यद्दादशकपालो भवति जगत्यैवास्मिन् पशून् दधाति, यस्मिन् जातरतामिथिं निर्बपति पूतएव स तेजखाबादइन्द्रियावी पशुमान् भवति"-इति । तत्र वाक्यभेदभयादछाकपालादेबिध्यन्तराणि न सन्ति, किन्तु द्वादशकपालान्तवर्तिनामधा. कपालादीनामवयुत्यानुवादेन तत्र तत्र फलवादकीर्तनहारेण प्रकृतादादपकपाला वैश्वानरेटिरेवैवं स्तयते इति मीमांसाप्रथमाध्याय. चतुर्थपादगतकादशाधिकरणे सिद्धान्तितम् । तहदत्राप्यवगन्तव्यमिति भावः।
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o, याoकाo ]
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पराशर माधवः ।
षोड़श दिवस विध्योर्बीहियववद्विकल्पोऽस्तु । नभस्यापरपचस्य कन्यास्थाकी वितत्वेन प्रशस्ततरतोच्यते, तदभावेऽपि तस्य प्रशस्तत्वात् । तदाह जावालि:, -
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"अगतेऽपि रवौ कन्यां श्राद्धं कुर्व्वीत सर्व्वथा ।
श्राषाढ्याः पञ्चमः पक्षः प्रशस्तः पितृकर्मसु ॥
पुत्रानायुस्तथाऽऽरोग्यमैश्वर्यमतुलं तथा । प्राप्नोति पञ्चमे दत्त्वा श्राद्धं कामांस्तथाऽपरान" - इति ॥
बृहन्मनुरपि -
" श्राषाढ़ीमवधिं कृत्वा पञ्चमं पचमाश्रिताः । काङ्क्षन्ति पितरः क्लिष्टा श्रन्नमप्यन्वहं जलम् ॥ तस्मात्तत्रैव दातव्यं दत्तमन्यत्र निष्फलम् | आषाढीमवधिं कृत्वा यः पक्षः पञ्चमो भवेत् ॥ तत्र श्राद्धं प्रकुर्वीत कन्यास्योऽकी भवेन्न वा " - इति ॥ अस्य पक्षस्य रवेः कन्यागतत्वेन प्रशस्ततरत्वञ्चादिपुराणे दर्शितम्, - "पक्षान्तरेऽपि कन्याम्ये रवौ श्राद्धं प्रशस्यते । कन्यागते पञ्चमे तु विशेषेणैव कारयेत्” इति ॥
शोकगौतमोऽपि -
81
" कन्यागते सवितरि यान्यहानि तु षोड़श । क्रतुभिस्तानि तुल्यानि सम्पूर्ण वरदक्षिणैः" - इति ॥
शाय्यायनिरपि -
“ पुण्यः कन्यागतः सूर्यः पुण्यः पचश्च पञ्चमः । कन्यास्थाकीन्वितः पचः सोऽत्यन्तं पुण्यउच्यते " - इति ॥
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पराशरमाधवः।
[श्चा ,पाका.
श्रादिमधावसानेषु यत्र कपन कन्यान्वितन्वेन कृत्स्नः पक्षः पूज्यरत्यर्थः । अतएव कार्णाजिनिः,
"प्रादौ मध्येऽवमाने वा यत्र कन्यां प्रजेद्रविः ।
स पक्षः सकलः पूज्यः श्राद्धषोड़शकं प्रति" इति ॥ प्रतिपदादिदर्शान्तं श्राद्ध कर्तुमसमर्थक्षेत्, पञ्चम्यादिदर्शान्तमष्टम्यादिदर्शान्तं वा यथाशक्ति श्राद्धं कुर्यात् । तदाह गौतमः । “अपरपक्षे श्राद्धं पिलभ्योदद्यात् पञ्चम्यादिदर्शान्तमष्टम्यादि दशम्यादि सर्व मिन् वा"-इति । ब्रह्माण्डपुराणेऽपि,
"नभस्यसष्णपक्षे तु श्राद्धं कुर्यादिने दिने ।
विभागहीनपक्ष वा विभागं वर्द्धमेव वा"-दति ॥ अत्र प्रतिपदादिदर्शान्तमित्यस्मिन्पक्षे नन्दाऽऽदिकं न वय॑म् । तदाह कार्णाजिनिः,
"नभस्य स्थापरे पते श्राद्धं कुर्यादिने दिने । नैव नन्दाऽऽदि वज्यं स्यान्नैव वा चतुर्दशी"-इति ॥
नम्वेतत्
__ "प्रतिपत्प्रतिबेकां वर्जयित्वा चतुर्दगीम्" इति याज्ञवल्क्यवचनेन विरुध्येत इति चेत् । न । तस्य वचनस्य पञ्चम्यादिपक्षविषयत्वेनोपपत्तेः । अन्यथा, कार्णाजिमिवचनस्थानर्थक्यं प्रमज्येत। अतएव कात्यायनः । “अपरपक्षे श्राद्धं कुर्वीत अर्द्धव चतुर्था यदहः सम्पद्यते सप्तम्या ऊर्द्धं यदहः मम्पद्यते सते चतुर्दशी, भाकेनाप्यपरपदं नातिकामेत्" इति। मनुरपि,
"कृष्णपक्षे दशम्यादौ वर्णयित्वा चतुर्दशीम् । श्राद्धे प्रास्तास्तिथयो यर्थता न तथेतराः" इति ॥
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३षा,धाका
पराशरमाधवः।
नवायसामर्थ्य पञ्चमपक्षस्य पञ्चमीमारभ्यानमारपक्षपञ्चमीपर्यनासु तिथिवनिषिद्धायामेकस्यातिथौ यथासम्भवं ग्टही श्राद्धं कुर्यात् । तदाह यमः,
"हंसे वर्षासु कन्यास्ये शाकेनापि ग्टहे वसन् ।
पञ्चम्योरन्तरे दद्यात् उभयोरपि पक्षयोः” इति ॥ अमत्यादिना पञ्चमपले श्राद्धाकरणे यावत् कन्याराशौ मर्यसिष्ठति यावाद्धं दद्यात्, तचाप्यकरणे यावद् वृश्चिकदर्शनमिति । नदाइ सुमन्ः
"कन्यारागौ महाराज, यावतिष्ठेदिभावसुः ।
तस्मात्कालागवेहेयं दृश्चिकं यावदागतम्" इति ॥ पुराणेऽपि,
"कन्यागते सवितरि पितरो यानि वै सुतान् । शून्या प्रेतपुरी मा यावदृश्चिकदर्शनम् ॥ ततो वृश्चिकसंप्राप्तौ निराशाः पितरो गताः । पुनः खभवनं यान्ति शायं दत्त्वा सुदारुणम् ॥ सूर्ये कन्यागते श्राद्धं यो न कुर्याङ्गहाश्रमो। धनं पुत्राः कुतस्तस्य पिढनिश्वासपीड़नात् ॥ वृश्चिके ममतिकान्ते पितरो दैवतैः सह । निश्वस्थ प्रतिगच्छनि शापं दत्त्वा सुदारुणम्” इति ॥ श्रादिपुराणेऽपि,
"प्राबद्धृतौ यमः प्रेतान पिहुंचाथ यमालयाम् । विसर्जयित्वा मानुष्ये कृत्वा शून्यं वकं पुरम् ॥
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दहन
पराशरमाधवः ।
चा०का।
चुधाता: कीर्तयन्तश्च दुष्कृततश्च स्वयं कृतम् । काङ्क्षन्तः पुत्रपौत्त्रेभ्यः पायस मधुसंयुतम् । तस्मात्तांस्तत्र विधिना तर्पयेत्यायसेन तु । मध्वाज्यतिलमिश्रेण तथा शीतेन चाम्भसा ।। ग्राममात्र परग्रहादन्नं यः प्राप्नुयानरः । भिक्षामाचेण यः प्राणान् मन्धारयति वा स्वयम् ॥ यो वा संवर्द्धते देहं प्रत्यक्ष वात्मविक्रयात् ।
श्राद्धन्तेनापि कर्त्तव्यं तैस्तै व्यैः सुमश्चितैः" इति ॥ यमालयाद्विसर्जयित्वा स्वकं पुरं शून्यं कृत्वा मनुष्यलोके पिहनवामयतीत्यध्याहृत्य योजना। पायस काङ्गतः पितरस्तिष्ठन्तीत्यध्याहारः । तत्र वयानाह गार्य:,
"नन्दायां भार्गवदिने त्रयोदश्यां त्रिजन्मनि ।
एषु श्राद्धं न कुर्वीत ग्टही पुत्रधनक्षयात्” इति । वृद्धगार्योऽपि,
"प्राजापत्ये तु पौषणे च पित्र्य भार्गवे तथा ।
यस्तु श्राद्धं प्रकुति तस्य पुत्रो विनश्यति"-इति ॥ प्राजापत्यं रोहिणी, पौष्णं रेवती, पियौं मघा। अङ्गिरा अपि,
"त्रयोदश्यां कृष्णपक्षे यः श्राद्धं कुरुते नरः । पञ्चत्वं तस्य जानीयात् ज्येष्ठ पुत्रस्य निश्चितम् ।।
मघास कुवतः श्राद्धं ज्येष्ठः पुत्रो विनश्यति" इति । पत्र मघात्रयोदश्यां श्राद्धनिषेधः केवलपिटवर्गविषयः । ननु केवलपित्वाद्देशेन श्राद्धप्राप्तौ सत्यां तनिषेधो यकः,
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३च.,या का
पराशरमाधवः ।
"पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा ध्रुवम् ।
अविशेषेण कर्त्तव्यं विशेषानरकं व्रजेत्” इति धौम्यवचनेन केवलैकवाद्देशश्राद्धनिषेधात्याप्तिरेव नास्ति, तो नेवं व्यवस्था विवक्ष्यते इति। मैवं, मत्यामपि धौम्यस्मृती व्यामोहादेव प्राप्तस्यैकवर्गश्राद्धस्य निषेधात् । यथा रागप्राप्तस्य कलञ्चलक्षणस्य, "न कलचं भक्षयेत्”-दति निषेधस्तद्वत् । श्रतएव कार्णाजिनिः,
"श्राद्धन्द नैकवर्गस्य त्रयोदश्यामुपक्रमेत् ।
अहप्तस्तत्र यस्य स्युः प्रजां हिंमन्ति तत्र ते” इति ॥ स्मत्यन्तरमपि,
"इच्छेत् त्रयोदशीश्राद्धं पुत्रवान् यः सुतायुषोः ।
एकस्यैव तु नो दद्यात्यार्वणन्तु समाचरेत्” इति ॥ यः पुत्रवान सतायुषोरभिद्धिमिच्छेत्, म एकस्यैकवर्गस्यैव श्राद्धं नो दद्यात्, अपि तु मातामहवर्गाद्देशेनापि पावणं ममाचरेदित्यर्थः । तस्मादेकवर्णोद्देशेनैव मघात्रयोदश्यां श्राद्धनिषेधो न तु श्राद्धस्यैव, तत्र श्राद्धस्य प्रशस्तत्त्वात् । तथाच शङ्खः,
"प्रोष्ठपद्यामतीतायां माघायुकां त्रयोदशीम् । प्राप्य श्राद्धन्तु कर्त्तव्यं मधुना पायसेन च ॥ प्रजामिष्टां यशः खर्ग प्रारोग्यञ्च धनं तथा ।
नणां श्राद्धे मदा प्रीताः प्रयच्छन्ति पितामहाः" इति ॥ महाभारतेऽपि,
"ज्ञातीनान्तत्तरेच्छ्रेष्ठः कुर्वन् श्राडं त्रयोदशीम् । नावश्यन्तु युवानोऽस्य प्रमीयन्ने नरा रहे"-दति॥
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पराशरमाधवः ।
[३५०,चाका
अत्र मघात्रयोदश्यां श्राद्धे पिण्डनिर्वपणं न कुर्यात्, तस्यां युगादित्वेन पिण्डनिर्वपणनिषेधात् । तथाच पुलस्त्या,
"अयनद्वितये श्राद्धं विषुवद्वितये तथा।
युगादिषु च सर्वासु पिण्डनिर्वपणादृते"--इति ॥ कर्तव्यमित्यध्याहारः। मघाऽन्वितत्वेनापि पिण्डनिर्वपणं नास्ति । तथाचादिपुराणे,
"संक्रान्तावुपवासेन पारणेन च भारत ।
मघायां पिण्डदानेन ज्येष्ठः पुत्रो विनश्यति"-दति ॥ चतुर्दश्यां श्राद्धनिषेधोऽग्यशास्त्रहतविषयः । अपमृत्युहतानान्तु चतई श्यामपि श्राद्धं कार्यम् । तदाह मरीचि,
"विषशास्त्रश्वापदाहितिर्यगब्राह्मणघातिनाम् ।
चतुईयां क्रिया कार्या अन्येषाम्स विगर्हिता" इति । प्रचेता अपि,
"वृक्षारोहणलौशादिविद्युज्जलविषादिभिः ।
नखिदंनिविपनानामेषां शस्ता चतुर्दशी"-इति ।। याज्ञवल्क्योऽपि,
"शस्त्रेण तु इता ये वै तेभ्यस्तत्र प्रदीयते"-इति ॥ अत्र चतईग्या शस्त्रादिहतानामेवेति नियम्यते, न पुनश्चतुईण्यामेवेति। एवञ्च मति, दिनान्तरेऽपि पितामहादिवप्तिमिद्यर्थ महालयश्राद्धं कार्यम् । चतुर्दश्यां महालयश्राद्धस्यैकोदिष्टत्त्वेन विहितत्वात् तेनात्र पितामहादिबनेरभावात् । तस्य चैकोद्दिष्टरूपत्वं सुमन्तुराइ,
"समत्वमागतस्यापि पितुः शस्त्रहतस्य तु ।
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३०, च्या०का० । ]
एकोद्दिष्टं सुतैः कार्यं चतुर्दश्यां महालये " - इति ॥ समवमागतस्य सपिण्डीकृतस्य शस्त्रस्तस्य पितुञ्चतुर्द्दश्यां महालये सुतैरेकोद्दिष्टश्राद्धं कार्यमित्यर्थः । यस्य पितामहोऽपि शस्त्रादिना हतः, तेन द्वयोरपि चतुर्द्दश्यामेकोद्दिष्टश्राद्धं कार्यम् । तथाच स्मृत्यन्तरम् । “एकस्मिन्दयोर्वै को द्विष्टविधिः" - इति । श्रयमर्थः । एकस्मिन्पितरि शस्त्रादिना हते, द्वयोर्व्वी पितृपितामहयोः शस्त्रादिना erataयां पुत्रेण तयोः प्रत्येकमेकोद्दिष्टश्राद्धं कार्यमिति । यस्य पिढपितामहप्रपितामहास्त्रयोऽपि शस्त्रस्ताः तेन चतुर्दश्यां पार्श्व लेनैव विधिना श्राद्धं कार्यम् । एकस्मिन्दयोर्वैकोद्दिष्ट विधिरिति विशेघोपादानात् । द्रदश्च चण्डिकारापरार्कयोर्मतम् । त्रिष्वपि पित्रादिषु शस्त्रतेषु चयाणामपि पृथक पृथगेकोद्दिष्टमेव कार्यमिति देवस्वाभिमतम् । अत्र त्रयाणां प्रस्तरतत्वे पार्वणश्राद्धस्य साचाद्विधायकवचनाभावादेकस्मिन्दयोर्वेत्यस्योपलचणार्थवेनाप्युपपत्तेरे कोहि एत्रयमेव कार्यमिति देवखाभिमतं युक्तमिति प्रतिभाति । शस्त्रादितानां दिनान्तरे पार्व्वणविधिनैव श्राद्धं कार्यम् । श्रतएव प्रजापतिः, - "संक्रान्तावुपरागे च वर्षोत्सवमहालये ।
1
निर्व्वपेद्दत्सपिण्डां स्त्रीनिति प्राह प्रजापतिः " - दूति ॥
areभगिन्यादीनां महालयश्राद्धमेकोद्दिष्टविधानेन कार्यम् ।
तथाच सुमन्तुः,
पराशर माधवः ।
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"सपिण्डीकरणादूर्द्ध्वं यत्र यत्र प्रदीयते ।
भ्राचे भगिन्यै पुत्राय खामिने मातुलाय च ॥ मित्राय गुरवे श्राद्धमेकोद्दिष्टं न पार्व्वणम्" - इति ।
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६०१
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पराशरमाधवः।
[प,धा का।
आपस्तम्बोऽपि,
"अपुत्रा ये मृताः केचित् स्त्रियश्च पुरुषाश्च ये।
तेषामपि च देयं स्यादेको द्दिष्टं न पार्वणम्" इति । स्त्रियो भगिन्यादयः, पुरुषा भ्रात्रादयः । कात्यायनोऽपि,___ “मम्बन्धिवान्धवादीनामेकोदिष्टन्तु सर्वदा"-दति ।
यानि पुनरकोद्दिष्टनिषेधकानि वाक्यानि, यथा मपिण्डीकरणं प्रकृत्य जाढको,
"अतऊर्धा न कर्नव्यमेकोद्दिष्टं कदाचन । मपिण्डीकरणानञ्च तत्प्रोक्रमिति मुद्गलः । प्रेतत्वञ्चैव निस्तीर्मः प्राप्तः पिलगणन्तु मः ।। च्यवते पिरलोकात्तु पृथपिण्डे नियोजितः । मपिण्डीकरणादूचं पृथक्त्वं नोपपद्यते ॥
पृथक्त्वे तु कृते पश्चात्युनः कार्या मपिण्डता" इति । काजिनिरपि,
"ततजई न कर्त्तव्यमेकोद्दिष्टं कदाचन ।
मपिण्डीकरणान्तच प्रेतस्यैतदमङ्गलम्" इति । यमोऽपि,
"यः सपिण्डीकृतं प्रेतं पृथपिण्डे नियोजयेत् ।
विधिनस्तेन भवति पिलहा चोपजायते"-इति ॥ पुराणेऽपि,
"प्रदानं यत्र यत्रैषां मपिण्डीकरणात्परम् । तत्र पार्वणवच्छ्राद्धमेकोद्दिष्टं त्यजेदुधः"-दति ॥
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३१०,षाका
परापारमाधवः।
६०३
तानि मायपि प्रतिपदोनैकोद्दिष्यविध्यभावे द्रष्टव्यानि । एतछार्द्ध मृतकादिना मुख्यकालातिक्रमे त्वाशौचापगमानन्तरकालएव कार्यम्। तथाच सृष्यारङ्गः,
"देये पितॄणां श्राद्धे तु श्राशौचं जायते तदा।
श्राशौचे तु व्यतिकान्ते तेभ्यः श्राद्धं प्रदीयते"-इति ॥ यत्त्वत्रिवचनम्,
"तदहश्चेत्प्रदुष्येत केनचित्सूतकादिना ।
सूतकानन्तरं कुर्यात् पुनस्तदहरेव वा"-इति ॥ मृतकानन्तरकाले वा अनन्तरे वा मासि तत्पने तत्तियो वेति पक्षदयमुपन्यस्तं, तत्राद्ये पक्षे विरोधएव नास्ति, पुनस्तदहरेव वेत्ययं पक्षः मृतकव्यतिरिक्रनिमित्तान्तरेण विघ्ने समुत्पन्ने प्रतिमासं क्षयाहे विहितकोद्दिष्टमासिकश्राद्धविषयति ऋथाटङ्गवचनाविरोधाय व्यवस्थाप्यते । अतएव देवलः,
"एकोद्दिष्टे तु संप्राप्ते यदि विघ्नः प्रजायते ।
अन्यस्मिंस्तत्तिथौ तस्मिन् श्राद्धं कुर्यात्प्रयत्नतः" इति ॥ अन्यस्मिन्ननन्तरे मासि तत्तिथौ स्मृततिथौ, यस्मिन् एक्त कृष्णों वा मृतस्तम्मिन्पक्षे श्राद्धं विघ्नवशात्कुर्यादित्यर्थः। शौचनिमितकविघ्ने तु मामिकश्राद्धमपि मृतकानन्तरमेव ऋष्याटङ्गवचनवलादनुष्ठेयम् । देवस्वामिनाऽप्येवमेव विषयव्यवस्था कृता। एतत् सृष्यष्टङ्गवचनं मृतकाशौचविषयम् । निमित्तान्तरतस्तदरर्विघाने,
"एकोद्दिष्टे तु संप्राप्ते यदि विघ्नः प्रजायते"इत्यादि स्मृत्यन्तरवचनमिति । यत्तु व्यासेनोकम्,
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पराशरमाधवः।
३०,चाका० ।
"श्राद्धविघ्ने ममुत्पन्ने अन्तरा मृतस्तके ।
अमावास्यां प्रकुर्चीत शुद्धावेके मनीषिणः"-इति ॥ अन्तरा प्रयोगमध्ये पाकोपक्रमात् प्राक् हतके मृतके वा जाते अमावास्थाममावास्यायां शुद्धौ शुद्ध्यनन्तरं वा श्राद्धं प्रकुर्वीतेति। एतदनुमासिकमांवत्सरिकश्राद्धविषयम् । अतएवोतं षड्विंशमतेन,
"मासिकेऽब्दे तु संप्राप्ने अन्तरा मृतस्तके ।
वदन्ति शुद्धौ तत्कार्यं दर्श वाऽपि विचक्षणाः" इति ॥ दर्शग्रहण शुक्लकृषोकादश्योरुपलक्षणार्थम् । अतएव मरीचिः,
"श्राद्धविघ्ने समुत्पन्ने अविज्ञाते मृतेऽहनि ।
एकादश्यान्तु कर्त्तव्यं कृष्णपक्षे विशेषतः” इति ॥ कृष्णपक्षे या एकादशी तस्यां विशेषतः कर्तव्यमिति योजना। पिन कार्य कृष्णपक्षस्यैव विशेषतो ग्राह्यत्वात् । कृष्णैकादशीतोऽपि अमावास्याया मुख्यत्वं पिटकायें दण्डापूपन्यायसिद्धम्। एतदक भवति। श्राशौचसमनन्तरकालो मुख्यकालमनिकृष्टत्वाच्छ्रेष्ठतमः । दर्शकालस्तु मुख्यकालप्रत्यासत्त्यभावात् ततो जघन्यदति । अतएव ऋष्यश्रङ्गः
"शुचौभूतेन दातव्यं या तिथिः प्रतिपद्यते ।
मा तिथिस्तस्य कर्त्तव्या न चान्या वै कदाचन"-इति ॥ शुचिना तावच्छ्राद्धं कर्त्तव्यं, तत्राशौचवशान्मुख्यकाले शुद्ध्यभावे प्राद्यानन्तरं या तिथिः प्रतिपद्यते लभ्यते, मा तिथिस्तस्य कर्मणोऽङ्गत्वेन स्वीकर्त्तव्या। आशौचाद्यनुपाते तु मुख्यकालो नालम्यादिनाऽतिक्रमणीयः । तदाह मएक
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३चयाका
परापारमाधवः।
"तिथिच्छेदो न कर्त्तव्यो विनाऽऽशौचं यदृच्छया।
पिण्डं श्राद्धञ्च दातव्यं विच्छिनिं नैव कारयेत्” इति ॥ चकारेणानौकरणं समुच्चिनोति । श्राद्धशब्देनात्र ब्राह्मणतर्पणमात्र विवक्षितं, पिण्डदानस्य पृथगुपात्तत्वात्। विच्छित्तिं नैव कारयेदिति ब्राह्मणं कर्त्तमममर्थश्चेत्पिण्डप्रदानमात्रमपि कुर्यात्, सर्वथा पित्रर्चनस्य विच्छेदं न कुर्यादित्यर्थः । अतएव निगमः। "अाहिताः पित्रर्चनं पिण्डैरेव ब्राह्मणानपि वा भोजयेत्”-इति। अत्र व्यवस्थितोविकल्यः । मति मामर्थ्य ब्राह्मणतर्पण पिण्डप्रदानञ्च कुर्यात्, तत्रामामर्थ्य पिण्डप्रदानमात्रमिति । यत्त पीतेन श्राद्धविन्ने समुत्पन्ने अमावास्यादिष्वामश्राद्धं विहितम्,
"श्राद्धविघ्ने द्विजातीनामामाई प्रकीर्तितम् ।
अमावास्यादिनियतं मासमाम्बत्सरादृते"-दति ॥ मासं मासिकं, माम्वत्सरं सांवत्सरिकम् । नभायारजोदर्शनकृतविनविषयम् । तथाऽऽहोशनाः,
"अपत्नीकः प्रवासी च यस्य भाया रजस्वला। . सिद्धान्नं न प्रकुर्वीत आमन्तस्य विधीयते” इति ॥ कात्यायनोऽपि,
"प्रापद्यनग्नौ तीर्थे च प्रवासे पुत्रजन्मनि ।
आमश्राद्धं प्रकुर्वीत यस्य भार्या रजस्वला"--इति ॥ व्याघ्रपादोऽपि,
"आर्तवे देशकालानां विप्लव समुपस्थिते । श्रामश्राद्धं द्विजैः कार्य शूद्रः कुर्यात्मदेव हि" इति ॥
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परापूरमाधवः ।
।३०,धा.का.।
___ न च कात्यायनव्याघ्रपादवचनपालोचनया मासिकप्रत्याब्दिकयोरप्यामश्राद्धं प्राप्नोतीति मन्तव्यम् । माममाम्बत्मरादृते,-दति विशेषवचने नामश्राद्धस्य तयतिरिकविषयत्वागमात् । अतएव मरीचिः
"अननिकः प्रवासी च यम्य भाया रजस्खला।
श्रामश्राद्धं द्विजः कुर्यान तत्कुर्यान्मृतेऽहनि"--दति ॥ तदामश्राद्धं मृतेऽहनि न कुर्यात्, किन्तु पक्वान्नेनैव कुर्यादित्यर्थः । लोगाधिरपि,
"पुष्यवत्वपि दारेषु विदेशस्योऽप्यननिकः ।
अन्नेनैवाब्दिकं कुर्यात् हेम्बा वाऽऽमेन वा क्वचित्" इति ॥ यनु स्मत्यन्तरे भार्यायां रजस्खलायां मृतेऽहनि श्राद्धनिषेधः,
"मृतेऽहनि तु संप्राप्ते यस्य भार्या रजस्वला ।
श्राद्धं तदा न कर्त्तव्यं कर्त्तव्यं पञ्चमेऽहनि"-दति ॥ तस्यायं विषयः । अपुत्रायाः पत्न्याएव पत्युमताहश्राद्धेऽधिकाराद्यदा खयमेव रजस्वला स्यात्तदा मृतेऽहनि श्राद्धं न कर्नव्यं, किन्त पञ्चमेऽहनीति । तथाच श्लोकगौतमः,
"अपुत्रा तु यदा भाया संप्राप्ते भर्तराब्दिके । रजस्वला भवेत्मा तु कुर्यात् तत्पञ्च मेऽहनि"-इति ॥ प्रभामखण्डेऽपि,
"शुद्धा मा तु चतुर्थेऽगि स्नानान्नारी रजस्वला।
देवे कर्मणि पिव्ये च पञ्चमेऽहनि शुध्यति" इति ॥ अन्ये तु,
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३१०,था.का.)
पराशरमाधवः ।
"श्राद्धीयेऽहनि संप्राप्ने यस्य भार्या रजखला।
श्राद्धं तत्र न कर्त्तव्यं कर्त्तव्यं पञ्चमेऽहनि”-इति नोकगौतमवचनमन्यथा पठित्वा, श्राद्धादौ कर्मणि भार्यया महैवाधिकारश्रवणात्तस्यां रजोदर्शनदूषितायामधिकारनिवृत्तेर्मुख्यकालमतिक्रम्य पञ्चमेऽहनि श्राद्धं कर्त्तव्यमिति मन्यन्ते। __ नम्वस्मिन्पाठेमावास्यादिश्राद्धस्यापि पञ्चमेऽहन्यत्कर्षः प्राप्तोति ? मैवं, श्राद्धविघ्ने विजातीनामिति हारीतवचनेनामावास्यादिव्यामस्यान्नकार्य मोमकार्य पूतीकवदिहितत्वात् । श्राद्धीयेऽहनीत्यस्य वचनस्य मृताहव्यतिरिक्रविषयत्वेन मार्थकत्वमस्विति चेत् । भवेदेतदेवं, यदि विषयान्तरं वतुं शक्यत । न त्वेतदस्ति, मृताहविषयत्वन्त मृतेऽहनि तु संप्राप्ने इति स्मत्यन्तरवचनादेवावगम्यते । तस्मादेकभार्येण मृताहश्राद्धं रजोदर्शनरूपविघ्नोपरमकालएव कर्त्तव्यं, भायातरयकेन त्वधिकारानपगमान्मूख्यएव काले कर्त्तव्यमिति । यदत्र युकं तबाह्यम्। श्राद्धे भोजनीयबाह्मणपरीक्षा कर्तव्या। तत्र श्राद्धं प्रकृत्य यमः,
"पूर्वमेव परीक्षेत ब्राह्मणान् वेदपारगान् । शरोरप्रभवैविशुद्धांश्चरितव्रतान् ॥ दूरादेव परीक्षेत ब्राह्मणान्वेदपारगान्।
दृष्टान्वा यदि वाऽनिष्टांस्तत्कालेनैवमानयेत्”-दति ॥ पूर्वमिति निमन्त्रणात् पूर्वमित्यर्थः। शरीरप्रभवादोषाः कुष्ठापस्मारादयः। दूरादिति प्रपितामहादारभ्य भोजनीयब्राह्मणपर्यन्तम् । तथाच छागलेयः,
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परापारमाधवः।
(३०,घा०का।
३च
"उकलक्षणमम्पन्न विद्याशीलगुणान्वितैः ।
पुरुषत्रयविख्यातः सर्व श्राद्धं प्रकल्पयेत्” इति ॥ म पावणे कोद्दिष्टात्मकम् । अतएव मनुनाऽपि पितुः श्रोत्रियत्वेन पुत्रस्य श्रेष्ठ्यमुक्तम्,
"अश्रोत्रियः पिता यस्य पुत्रः स्याद्वेदपारगः । अश्रोत्रियो वा पुत्रः स्यात् पिता स्यावेदपारगः ॥
ज्यायांसमनयोविद्याद्यस्य स्थाच्छ्रोत्रियः पिता"-इति ॥ श्राद्धे भोजनीयाब्राह्मणा याज्ञवल्क्येन दर्शिताः,
"अय्या: सर्वेषु वेदेषु श्रोत्रियोब्रह्मविद्युवा । वेदार्थवित् ज्येष्ठमामा त्रिमधुस्त्रिसुपर्णकः ॥ कर्मनिष्ठास्तपोनिष्ठाः पञ्चाग्निब्रह्मचारिणः । पिटमा पराश्चैव ब्राह्मणाः श्राद्धसम्पदः' इति ॥ ऋग्वेदादिसर्ववेदेवय्या वर्णिताध्ययनक्रमाः। श्रोत्रियाः श्रुताध्ययनमम्पन्नाः । ब्रह्मवित् ब्रह्मज्ञानवान् । युवा मध्यमवयस्कः । युवत्वञ्च सर्वविशेषणम् । वेदार्थविद्धर्मज्ञानवान्। ज्येष्ठ सामेति सामविशेषस्ततं च । तद्वताचरणेन यस्तदधीते, म ज्येष्ठमामा। त्रिमधुः ऋग्वेदेकदेशः तद्वतच्च । तद्वताचरणेन तदध्यायी त्रिमधुः । त्रिसुपर्ममृग्यजुषयोरेकदेशस्तद्वतच । तदाचरणेन यत्तदधीते म त्रिसुपर्मकः । ब्राह्मणा न क्षत्रियादयः । उकलक्षणा एते ब्राह्मणाः श्राद्धस्याक्षयफलमम्पादकाइत्यर्थः । वृहस्पतिरपि,
"यद्येकं भोजयेच्छाडे छन्दोगं तत्र भोजयेत् । ऋचो यजूषि मामानि त्रितयं तत्र विद्यते ॥
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३१०,०का।
परापारमाधवः।
अटेत पृथिवों मवी मोलवनकाननाम् । यदि लभ्येत पित्रथै माम्नामवरचिन्तकः ॥ ऋचा तु प्यति पिता यजुषा तु पितामहः । पितु: पितामहाः माना छन्दोगोऽभ्यधिकस्ततः" इति ।। शातातपोऽपि,
"भोजयेद्यस्वथळणं दैवे पित्ये च कर्मणि ।
अनन्तमक्षयञ्चैव फलं तस्येति वै अतिः" इति ॥ यमोऽपि,
"वेदविद्याव्रतस्माता: श्रोतिया वेदपारगाः । स्वधर्मनिरताः शान्ता: क्रियावन्तस्तपखिनः ॥
तेभ्यो हव्यञ्च कव्यञ्च प्रमन्त्रेभ्यः प्रदीयते"-दति। मनुरपि,
"श्रोत्रियायैव देयानि हव्यकव्यानि दाभिः । अहत्तमाय विप्राय तस्मै दत्तं महाफलम् ॥ एककमपि विधांम देवे पिव्ये च भोजयेत् ।
पुष्कलं फलमानोति नामन्त्रज्ञान बहनपि"-इति ॥ वमिष्ठोऽपि । “यतीन ग्टहम्यान माधून वा”- इति । भोजयेदिति शेषः । ब्रह्माण्डपुराणेऽपि,
"शिखिभ्यो धातुरकेभ्यः बिदण्डिभ्यश्च दापयेत्” इति। शिखिनो ब्रह्मचारिणः । धातुरकाः धातुरतवस्त्रधारिणो वानप्रस्थाः । त्रिदण्डिनो वाक्कायमनोदण्डै रुपेताः यतयः । अत्र परः परः श्रेष्ठः । ततएव नारदः,
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६८०
परापारमाधवः।
..या०का.1
“यो वै यतीननादृत्य भोजयेदितरान् द्विजान् ।
विजानन वसतो ग्रामे कव्यं तद्याति राक्षमान्" इति ॥ ब्रह्माण्डपुराणेऽपि,
"अलाभे ध्यानिभिषणं भोजयेद्ब्रह्मचारिणम् ।
तदलाभेऽप्यदासीनं ग्टहस्थमपि भोजयेत्”-दति ॥ उदासीनो ह्यसम्बन्धः । अतएवापस्तम्बः । “ब्राह्मणान् भोजयेदहाविदो योनिगोत्रमन्त्रान्तेवास्यसम्बन्धान"-दति। योनिमम्बन्धा मातुलादयः । गोत्रसम्बन्धाः मपिण्डाः । मन्त्रसम्बन्धा वेदाध्यापकादयः । अन्तेवासिसंवन्धा: शिल्पशास्त्रोपाध्यायाः । एवंविधसम्बन्धव्यतिरिकान् ब्राह्यणान् ग्रहस्थादीन भोजयेदित्यर्थः । श्राद्धे श्रोत्रियादीनां पतिपावनत्वेनापि पात्र विशेषतां मएवाह,
"अपात्योपहता पतिः पाव्यते यैर्विजोत्तमैः । तान्निवोधत कार्नेग्न दिजाय्यान्पतिपावनान्॥ अग्र्याः सर्वेषु वेदेषु सर्वप्रवचनेषु च । श्रोत्रियान्वयजाश्चैव विजेयाः पतिपावनाः ।। त्रिणचिकेत: पञ्चाग्निः त्रिसुपर्णः षडङ्गवित् । ब्रह्मदेयात्ममन्तानश्छन्दोगोज्येष्ठमामगः ॥ वेदार्यवित्प्रवक्ता च ब्रह्मचारी महसदः ।
शतायश्चैव विजेया ब्राह्मणा: पतिपावनाः" इति ॥ ब्रह्मदेयात्मसन्तानः ब्राह्मविवाहोढ़ापुत्रः । सहस्रदः गवां सुवर्षस्य वा। यमोऽपि,
“य मोमपा विरजमो धर्माज्ञा: शान्तबुद्धयः ।
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३०,या का
पराशरमाधवः ।
बचच त्रिसौपर्म: त्रिमधुर्वाऽथ यो भवेत् ॥ त्रिनाचिकेता विरजाश्छन्दोगो ज्येष्ठसामगः । अथर्वशिरसोऽध्येता सर्वे ते पतिपावनाः ।। शिशुरप्यग्निहोत्री च न्यायविञ्च षडङ्गवित् । मन्त्रब्राह्मणविचैव यश्च स्याद्धर्मपाठकः ।। ब्राह्मदेयासुतश्चैव भावशुद्धः सहस्रदः । चान्द्रायणव्रतचरः सत्यवादी पुराणवित् ॥ निष्णातः सर्वविद्यासु शान्तो विगतकल्मषः । गुरुवेदाग्निपूजासु प्रसको जानतत्परः ।। विमुकः सर्वदा धीरो ब्रह्मभूतो द्विजोत्तमः । अनमित्रो न चामित्रो मैत्र श्रात्मविदेवच ॥ स्वातको जप्यनिरतः सदा पुष्पाल प्रियः । ऋजुर्मदुः क्षमी दान्तः शान्तः सत्यव्रतः इचिः वेदज्ञः सर्वशास्त्रज्ञः उपवासपरायणः । ग्रहस्थो ब्रह्मचारी च चतुर्वेद विदेवच ।।
वेदविद्यावतस्नाताः ब्राह्मणाः पतिपावनाः" इति । पैठीन मिरपि । “अथात: पतिपावना भवन्ति बिनाचिकेतस्त्रिमस्तिसुपर्मश्चीर्णव्रतश्छन्दोगोज्येष्ठसामगो ब्रह्मदेयासुमन्तानः सहसदो वेदाध्यायी चतुर्वेदषडङ्ग वित् अथर्वशिरसोऽध्यायी पञ्चाग्निवैदजापी चेति, तेषामेकैकः पुनाति पति नियुको मूर्धनि सहस्ररण्युपहताम्" इति । शङ्खोऽपि,
"ब्रह्मादेयानुसन्तानो ब्रह्मदेयाप्रदायकः ।
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पराशरमाधवः।
धा.का.।
ब्रह्मदेयापतिश्चैव ब्राह्मणा: पङ्गिपावनाः ।। यजुषां पारगो यश्च मानां यश्चापि पारगः । अथर्वशिरसोऽध्येता ब्राह्मणाः पतिपावनाः ।। नित्यं योगपरो विद्वान समलोटाग्मकाञ्चनः ।
ध्यानशीलो यतिर्विद्वान् ब्राह्मणः पतिपावनः" इति ॥ वोधायनोऽपि । “त्रिमधुस्विनाचिकेतस्त्रिसुपM: पञ्चानिः षडङ्गवित्तिशीर्षकोऽध्येता मामगा इति पतिपावनाः" इति। हारीतोऽपि । "स्थितिरविच्छिन्नवेदवेदिताऽयोनिसकरित्वमार्षयत्वञ्चेति कुलगुणाः, वेदाङ्गानि धोऽध्यात्मविज्ञानं स्मृतिश्चेति षविधं श्रुतं, ब्राह्मण्यता देवपित्भकता ममता मौम्यताऽपरोपतापिताऽनसूयता अनुद्धतता
पारुष्यं मित्रता प्रियवादित्वं कृतज्ञता शरण्यता प्रशान्तिश्चेति चयोदविधं शीलम्,
क्षमा दमोदया दानमहिमा गुरुपूजनम् ।
शीलं स्नानं जपोहोमस्तपः स्वाध्यायएवच ।। मत्यवचनं मन्तोषो दृढव्रतत्वमुपव्रतत्वमिति षोडश गुणाः वृत्तं, तस्मात् कुलीनाः श्रुतशीलवन्तो उत्तस्याः सत्यवादिनोऽव्यङ्गाः पालेयाः। द्वादशोभयतः श्रोत्रियस्त्रिनाचिकेतस्त्रिसुपर्णस्त्रिमधुस्त्रिशीर्षको ज्येष्ठसामगः पञ्चाग्निः पडङ्गविद्रजाप्यूद्धरेताः ऋतुकालगामी तत्त्वविच्चेति पतिपावना भवन्ति" । स्थितिरविच्छिन्नसन्तानता। अविच्छिनवेदवेदितेत्यत्र इविरासादनार्थदेशविशेषवाची वेदिशब्दो हविःसाध्य यागं लक्षयति । आर्षेयत्वं प्रवरवर्त्तिऋषिज्ञानत्वम् । धौधर्मशास्त्र, विज्ञानं वैशेषिकादिशास्त्र विज्ञानम् । स्मृतिर्वेदशास्त्राविस्मरणम् ।
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३०, ख०का० 1]
उपव्रतत्वं दशम्यादावेकभकता । अचानुकल्पो याज्ञवल्कयेन दर्शितः, -
“स्वस्त्रीयऋत्विक्जामात्याज्यश्वशुरमातुलाः ।
चिनाचिकेतदौहित्रभिव्यमम्बन्धिबान्धवाः” इति ॥
पराशर माधवः ।
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६८३
श्रतएव मनुः, -
“अनुकल्पस्त्वयं ज्ञेयः सदा सद्भिरनुष्ठितः । मातामहं मातुलञ्च स्वस्त्रीयं श्वशुरं गुरुम् ॥ दौहित्रं विपतिं बन्धुम्टत्विग्याज्यौ च भोजयेत्" इति ॥ विट्पतिजीमाता श्रतिथिवी । तदुक्तं देवखामिना । विट्पतिरतिथिरित्यन्ये वदन्तीति । श्रापस्तम्बोऽपि । “गुणवदलाभे मोदऽपि भोजयितव्यः एतेनान्तेवासिनो व्याख्याताः” - इति । बोधायनोऽपि । " तदभावे रहस्य विदृचोयजूंषि मामानीति श्राद्धस्य महिमा तम्मादेवंविधं सपिण्डमप्याशयेत्” - इति । विष्णुपुराणेऽपि -
“पिटव्यगुरुदौहित्रानृत्विक्स्खस्त्रीयमातुलान् । पूजयेद्धव्यकव्येन वृद्धानतिथिवान्धवान् " - इति ॥
श्रत्र ऋत्विक्पटव्यमोदर्यमपिण्डा वैश्वदेवस्थाने नियोक्तव्याः न
पित्रादिस्याने । तथा चात्रि:, -
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" पिता पितामहो भ्राता पुत्री वाऽथ सपिण्डकः । न परस्परमयी:(९) स्युर्न श्राद्धे ऋत्विजस्तथा ॥ ऋत्विकपुत्रादयो होते सकुल्या ब्राह्मणा द्विजाः । वैश्वदेवे नियोऋव्या यद्येते गुणवत्तराः " - इति ॥ शिष्यस्यापि वैश्वदेवस्थानएव निवेश: । सोदर्ये विहितस्यार्थस्य,
(१) मधुपकीपर नामधेयोग्टह्योक्ता ई विशे षोऽर्घ्यमित्यच्यते ।
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(४
पराशरमाधवः ।
[३१०,पाका
'एतेनान्तेवासिनो व्याख्याता:'-इत्यापस्तम्बेन शिव्येऽतिदेशात् । यत्तु मनुना कल्पान्तरमुक्तम्,
"कामं श्राद्धेऽर्थयन्मित्रं नाभिरूपमपि त्वरिम् । द्विषता हि हविर्भुकं भवति प्रेत्य निष्फलम्" इति । तन्त्र साक्षादनुकल्याभिप्रायेण, किं त्वनुकल्पानुकल्पाभिप्रायेण । न श्राद्धे भोजयेन्मित्रमिति खेनैव निषिद्धस्य मित्रस्य काममर्चयेदिति सानुशयमेवाभ्यनुज्ञानात् । वमिष्ठोऽप्यनुकल्पानुकल्पमाह,
"श्रानशंस्यं परो धर्मा याचते यत् प्रदीयते ।
अयाचतः मीदमानान् सर्व्वापानिमन्त्रयेत्” इति । पानशस्यमुत्कष्टो धर्मः, तेनायाचतः अयाचनशीलान्, अतएव मीदमानान् निर्गुणानपि सगुणानामनुकल्यानामभावे सापायैर्यथा ते निमन्त्रणमङ्गीकुर्वन्ति, तादृशैरुपायेनिमन्त्रयेदिति । अयाचनशीलानामभावे याचमानाय निर्मुशाय प्रदीयते इति । एतदप्यनुकल्पोभवतीत्यर्थः। सम्भवति मुख्यकल्ये नानुकल्पोऽनुष्ठेयः। तथाऽऽह मनुः,
"प्रभुः प्रथमकल्पस्य योऽनुकल्पेन वर्तते।
न साम्परायिकं तस्य दुर्मते विद्यते फलम्" इति ॥ माम्परायिकमुत्तरकालिकं खादिकं फलमिति । भविष्यत्पुराणेऽपि,
"ब्राह्मणातिक्रमोनास्ति मूर्ख वेदविवर्जिते ।
ज्वलन्तमग्निमुत्सृज्य न हि भस्मनि इयते"-इति । वेदविवर्जिते, दूति निर्गुणमात्रोपलक्षणार्थम् । अतएवोक नक
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इखाका]
पराशरमाधवः।
६५
"व्यतिक्रान्तेन दोषोऽस्ति निर्गुणान् प्रति कहिचित् । यस्य त्वेकन्ट हे मूर्खदूरस्थश्च गुणान्वितः ।।
गणान्विताय दातव्यं नास्ति मूर्ख व्यतिक्रमः” इति ॥ यत्तु पुराणान्तरेऽभिहितम्,
“यस्वामनमतिक्रम्य ब्राह्मणं पतितादृते । दूरस्थं भोजयेन्मढ़ोगुणाढ्यं नरकं ब्रजेत् ॥ तस्मात् संपूजयेदेनं गणं तस्य न चिन्तयेत् । केवलं चिन्तयेज्जातिं न गुणविततां खग ॥ मनिकृष्टं द्विजं यस्तु युतजातिं प्रियंवदम् । मूर्ख वा पण्डितं वाऽपि वृत्तहीनमथापिवा ।
नातिक्रमेनरोविद्वान् दारिद्याभिहतं तथा"-इति ।। तद्दौहित्रजामात्रादिविषयम् । अतएव मनुः,___ "व्रतस्थमपि दौहित्रं श्राद्धे यत्नेन भोजयेत्” इति ॥
व्रतस्थं केवलवतस्थमध्ययनादिरहितमित्यर्थः । गुणवत्मन्निकटा. तिक्रमे तु प्रत्यवायोऽस्ति । तथाच पुराणम्,
"सप्त पूर्वान् सप्त परान् पुरुषानात्मना सह । अतिक्रम्य दिजवरान् नरके पातयेत् खग ॥ तस्मानातिकमेद्विज्ञो ब्राह्मणान् प्रातिवेशिकान् । संबन्धिनस्तथा मान दौहित्रं विटपतिन्तथा ॥ भागिनेयं विशेषेण तथा बन्धु खगाधिप । नातिकमेन्नरश्चैतानमूर्खानपि गोपते ॥ अतिक्रम्य महारौद्रं रौरवं नरकं व्रजेत्” इति ॥
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पराशरमाधवः।
[३०,या का।
अपिरेवकारार्थः। अमूर्खानेवातिक्रम्य नरकं व्रजेत्, न मूखीनित्यभिप्रायः। श्राद्धे वर्जनीया ब्राह्मणा याज्ञवल्क्येन दर्शिताः,
"रोगी हीनातिरिकाङ्गः काण: पौनर्भवस्तथा । अवकोणी कुण्डगोलौ(१). कुनखी ग्यावदन्तकः ॥ मृतकाध्यापकः क्लीव:(२) कन्यादूयभिशप्तकः । मित्रध्रुक पिशुनः मोमविक्रयी परिविन्दकः ॥ मातापिटगुरुत्यागी कुण्डाशी वृषलात्मजः ।
परपूर्वीपतिः स्तेनः कर्मदुष्टश्च निन्दितः" इति ॥ रोगी उन्मादादिरोगवान् । उन्मादादिरोगाश्च देवलेन वर्णिताः। "उन्मादस्वग्दोषोराजयक्ष्मा श्वासोमधुमेहोभगन्दरोऽश्मरीत्यष्टौ पापरोगाः" इति । हीनं न्यूनमधिकमतिरिक्तमङ्गं यस्थामौ होनातिरिकाङ्गः। एकेनाप्यक्ष्णा यो न पश्यति, असौ काण: । तेन च वधिरसूकमूर्खादयो लक्ष्यन्ते । बिरूढ़ा पुनर्भूस्तस्यां जातः पौनर्भवः । अवकीर्णो क्षतव्रतः । कुनखी दुष्टनखः । श्यावदन्तः स्वाभाविककृष्णदन्तः। वेतनं ग्टहीत्वा योऽध्यापयति, म भूतकाध्यापकः । असता सता वा दोषेण कन्यां दूषयिता(३) कन्यादूषी। महापातकाभिशप्तकः । परिविन्दकः परिवेत्ता। कुण्डस्यान्न योऽनाति म कुण्डाशी।
(२) कुण्डगोलो,"-परस्त्रियां जातौ हौ सतौ कुण्डगोलको। पत्यौ जी____वति कुण्डः स्यान्मृते भर्तरि गोलकः' इत्युक्तलक्षणौ। (२) स्लीवः, “न मूत्रं फेनिलं यस्य विष्ठा चाप्न निमज्जति । मे चोन्माद
शुकाभ्यां होनं लीवः स उच्यते"-इत्युक्तलक्षणः । (३) दूषयिता,-इति टणन्तं पदम्। पतएव कन्यामिति कर्मणि द्वितीया।
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३१०,चाका.]
पराशरमाधवः।
६८७
कुण्डशब्दोगोलकस्याप्युपलक्षकः। विहितकर्मपरित्यागी वृषलस्तत्मुतोवृषलात्मजः । परपूर्वापतिः पुनर्भूपतिः । अदत्तादायी स्तेनः । कर्मदयाः शास्त्र विरुद्धाचारोपेताः। एते श्राद्धे निन्दिता वाइत्यर्थः । मनुरपि,
"ये स्तेनपतितक्लीवा ये च नास्तिकटत्तयः । तान् हव्यकव्ययो विप्राननीन् मनुव्रवीत् ॥ जटिलं चानधीयानं दुर्वालं कितवन्तथा । याजयन्ति च ये पूर्वान् तांश्च श्राद्धे न भोजयेत् ॥ चिकित्सकान् देवलकान् मांसविक्रयिणस्तथा । यक्ष्मी च पशुपालश्च परिवेत्ता निराकृतिः ॥ ब्रह्मविट परिवित्तिश्च गणाभ्यन्तरएवच । कुशीलवोऽवकीर्णे च वृषलीपतिरेवच ॥ पौनर्भवश्व काणश्च यस्य चोपपतिर्महे । भूतकाध्यापकोयश्च भूतकाध्यापितस्तथा ॥ शूद्र शिव्योगुरुश्चैव वाग्दुष्टः कुण्डगोलको । अकारणपरित्यका मातापित्रोर्गुरोस्तथा ॥ ब्राह्मोनैश्च संबन्धः मयोगं पतितर्गताः । अगारदाही गरदः कुण्डाशी मोमविक्रयी ॥ समुद्रयायी वन्दी च तैलिकः कूटकारकः ।
पित्रा विवदमानश्च केकरो मद्यपस्तथा ॥ केकरः तिर्यगदृष्टिः।
पापरोग्यभिशप्तश्च दाम्भिकोरम विक्रयी ।
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६८८
पराशरमाधवः।
[३१०,या का।
धनुःशराणां का च यश्चाग्रेदिधिषपतिः ॥ मित्रध्रुक् मृतवृत्तिश्च पुत्राचार्य्यस्तथैवच । भ्रामरी गण्डमाली च विश्यथो पिशुनस्तथा ॥ उन्मनोऽन्धश्च वाः स्युर्वेदनिन्दकएवच । हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति । पक्षिणां पोषको यश्च युद्धाचार्यस्तथैवच । स्रोतमां भेदकश्चैव तेषाञ्चावरणे रतः ।। ग्रहसम्बेशको दूतो वृक्षरोपकएवच । श्वक्रीडी श्येनजीवी च कन्यादूषकएवच ॥ हिंस्रो सषलपुत्रश्च गणानाञ्चैव याजकः । प्राचारहीनः क्लीवश्च नित्यं याचनकस्तथा ॥ कृषिजीवी शिल्पिजीवी सद्भिर्निन्दितएवच ।
औरभ्रिको माहिषिकः परपूर्वापतिस्तथा ॥ प्रेतनियातकश्चैव वर्जनीयाः प्रयत्नतः । एतान्विहिताचारानपालेयानराधमान् ॥
विजातिप्रवरो विद्वानुभयत्रापि वर्जयेत्” इति । स्तेनोऽत्र ब्रह्मस्वव्यतिरिक्तद्रव्यापहारी विवक्षितः। तट्रव्यापहारिणः पतितशब्देनोपात्तवात्(१) । पारलौकिकफलदं कर्म नास्तीति मन्यमाना नास्तिकास्तेभ्यो उत्तिर्जीविका येषान्ते नास्तिकवृत्तयः । जटिलोब्रह्मचारी । अनधीयानः, दूति जटिल विशेषणम् । अतश्चानधीयानो ब्रह्मचारी प्रतिषिध्यते । न तु ब्रह्मचारिमानं, तस्य श्राद्धे, 'पञ्चाग्नि(१) पाति त्यहेतुमहापातकमध्ये ब्रह्मखापहारस्य परिगणनादिति भावः।
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३०, व्या०का० ।]
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मन्तव्यम् । यतः,
पराशर माधवः ।
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ब्रह्मचारिण:' - दूति पाचत्वविधानात् । न चाध्ययनरहितस्य ब्रह्मचारिणोऽश्रोत्रियत्वेन श्राद्धे प्रसक्त्यभावात् प्रतिषेधोऽनुपपन्नइति
६
"व्रतस्थमपि दौहित्रं श्राद्धे यत्नेन भोजयेत्”
इत्यत्र दौहित्रग्रहणमविवचितमिति भ्रान्त्या श्रध्ययनरहितोऽपि ब्रह्मचारी श्राद्धे भोजनीयतया प्रसक्रः प्रतिषिध्यतइति । दुर्वाल: खल्वाट: कपिलकेशो वा । तदुकं मंग्रहकारेण -
A
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" खल्वाटक दुवाल : कपिलचण्डएव च " - इति ॥ कितवो द्यूतासक्तः । पुरयाजकाः गणयाजकाः । श्रत्र, श्राद्धे इति विशेषोपादानाहुवलादीनां श्राद्धएव वर्ज्यत्वं न देवेत्यवगम्यते । अन्यथा, प्रकरणादेवोभयत्र निषेधावगमाद्विशेषोपादानमनर्थकं स्यात् । श्रतएव गौतमः । " हविःषु च दुर्वालादीन् श्राद्ध एवैके ” – इति । हविः षु च देवेऽपि एवं पित्र्यवत्परीक्ष्य दुवीलादीन्वर्जयेत् । एके मन्वादयः श्राद्धएव न भोजयेत्, देवे तु भोजयेदित्याहुरित्यभिप्रायः । चिकित्सकाः जीवनार्थमदृष्टार्थश्च भेषजकारिण: । " तस्माद्ब्राह्मणेन भेषजं न कार्यं श्रपूतेो ह्येषोऽमेध्यो यो भिषक् " - इति विशेषेणैव निन्दार्थवाददर्शनात् । धनार्थं संवत्पुरत्रयं देवार्चको - देवलः । तदुक्तं देवलेन,
"देवार्थनपरो नित्यं वित्तार्थी वत्सरत्रयम् ।
देवलको नाम हव्यकव्येषु गर्हितः ॥
श्रपाङ्क्तेयः स विज्ञेयः सर्व्वकर्मसु सर्वदा " - इति ।
श्रापद्यपि मांसविक्रयिण: । श्रनापदि विपणजीवित्वेनैव निषेधे
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पराशरमाधवः।
[३००का।
मिद्धे मांसविक्रयिणति पुनर्विशेषोपादानस्य वैयर्थ्यात् । अनापदि वाणिज्येन जीवन्तो विपणजीविनः, न वापद्यपि । तर, ___ "क्षात्रेण कर्मणा जीवेदिशा वाऽप्यापदि दिजः"
इति वाणिज्यस्थापकल्पतया विहितत्वात् । विहितत्यागकारणं विना श्रौतस्मातामिपरित्यका परित्यकामिः । अल्पवया धनं खीकृत्याधिकZड्या धनप्रयोजको वाधुषिकः । तथाच स्मृतिः,
"मम धनमुद्धृत्य महाघ यः प्रयच्छति । सवै वाधुषिको नाम ब्रह्मवादिषु गर्हितः" इति ॥ यक्ष्मी क्षयरोगी। अनापदि पशुपालः । अविवाहिते ज्येष्ठे अनाहिताग्रौ वा मति यः कनीयान् कृतदारपरिग्रह श्राहितामिर्ग भवेत्, म परिवेत्ता तज्ज्येष्ठस्तु परिवित्तिः। तथाच मनुः,
"दारामिहोत्रमयोगं कुरुते योऽग्रजे स्थिते।
परिवेत्ता म विजयः परिवित्तिस्तु पूर्वजः" इति ॥ अग्रजः मोदी विवक्षितः। तथाच गर्गः,
"मोदर्य तिष्ठति ज्येष्ठे न कुर्याद्दारसंग्रहम् ।
श्रावसथ्यं तथाऽऽधानं पतितस्वन्यथा भवेत्” इति ॥ श्रावसथ्यमावसथ्याधानं, प्राधानं गाईपत्याद्याधानम्(१) । अमोदर्य तु न दोषः। तथाच शातातपः,--
"पिटव्यपुत्रामापत्न्यान् परनारीसुतांस्तथा।
दारामिहोत्रसंयोगे न दोषः परिवेदने" इति ॥ (१) पावसथ्योग्रामिः स्मातापिरिति यावत् । गाईपत्यादयस्त श्रोता.
भयः । धादिग्रहणात् दक्षिणाग्न्याश्वनीयाग्न्योहणम् ।
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३१०,०का०]
पराशरमाधवः।
६९१
परनारीसुताः क्षेत्रजा भ्रातरः । यमोऽपि,
"पिलव्यपुत्रान्सापत्न्यान् परपुत्रांस्तथैवच ।
दाराग्रिहोत्रधर्मेषु नाधर्मः परिवेदने” इति ॥ परपुत्रा दत्तकोतादयः भ्रातरः। सोदर्यविषयेऽपि क्वचिद्दोषोमास्ति । तथाच शातातपः,
"क्लीवे देशान्तरम्थे च पतिते भिक्षुकेऽपि वा।
योगशास्त्राभियुक्त च न दोषः परिवेदने"-दति ॥ योगशास्त्राभियुक्तो विरतः । कात्यायनोऽपि,
"देशान्तरस्थक्लीवेकषणानसहोदरान् । वेश्यातिसकपतितशतुल्यातिरोगिणः(१) । जडमूकान्धवधिरकुजवामनखोडकान् । अतिवृद्धवानभायांश्च कृषिमतान् नृपस्य च(२) ।। धनवृद्धिप्रसकांच कामतोऽकारिणस्तथा ।
कुहकान्मत्तचोरांश्च(२) परिविन्दन् न दुथति" इति । खोडो भनपाददयः । श्रमाया नैष्ठिकब्रह्मचारिणः । कामतोऽकारिणः स्वेच्छयैव विवाहान्निटत्ताः। देशान्तरगतादिषु कालप्रती
(१) एकरघणरकाण्डः पण्डविशेष इति रत्नाकरः । शूद्रतुल्याच,
"गोरक्षकान् वाणिजिकान् तथा कारकुशीलवान् । प्रेष्यान् वा
दुधिकांश्चैव विप्रान् शूद्रवदाचरेत्" इति मनूक्तलक्षणाः। (२) न्नृपस्य चेति चकारेण सक्तानित्यनुकृष्यते । (३) कुलटोन्मत्तचौरांच, इत्यन्यत्र पाठः। तत्याठे तु, परकुलं पर
गोत्रमटति गच्छति प्राप्नोति यो दत्तकः स कुलट इत्यर्थोबाध्यः ।
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पराशरमाधवः।
३१०,या का।
क्षामन्तरेण परिवेदने दोषोऽस्ति । तथाच वसिष्ठः । “अष्टौ दश द्वादशवर्षाणि ज्येष्ठं भातरमनिर्विष्टमप्रतीक्षमाणः प्रायश्चित्ती भवति" इति । अनिर्विटमकृतविवाहम् । अत्रेयं व्यवस्था । अदुछार्थमार्थ वा बादशवर्षप्रतीक्षणं देशान्तरगतज्येष्ठ विषय(१), अष्टौ दति पक्षद्वयं कार्यान्तरार्थ देशान्तरगतविषयम् । तथा मतिः,
"बादशैव तु वर्षाणि ज्यायान् धर्मार्थयोर्गतः ।
न्याय्यः प्रतीक्षितुं भ्राता श्रूयमाणः पुनः पुनः” इति ॥ क्लीवादयस्तु न प्रतीक्षणीयाः । तथाच स्मतिः,
"उन्मत्तः किल्विषी कुष्ठी पतितः क्लीवएववा ।
राजयक्ष्मामयावी च न नाय्यः स्यात्प्रतीक्षितुम्" इति॥ विरनवेश्यातिमकादिषु तु चिरकालानुवृत्त्या विवाहसम्भावनानिवृत्तावधिवेदनं न दोषाय, तत्र कालावधेरश्रतत्वात्। श्राधानविषयेऽपि ज्येष्ठानुमत्याऽधिवेदने न दोषः । तथाच उद्धवसिष्ठः,
"अग्रजश्च यदाऽननिरादध्यादनुजः कथम् ।
अग्रजानुमतः कुर्यादग्निहोत्रं यथाविधि" इति ॥ प्राधानाधिकारिणि ज्येष्ठेऽनाहितामावपि कनिष्ठस्तदनुमत्याऽऽधानं कुर्यादित्यभिप्रायः । अयं न्यायः पित्रादिषु द्रष्टव्यः । तथाचोशनाः,
"पिता पितामहो यस्य अग्रजो वाऽथ कस्यचित् ।
तपोऽग्निहोत्रमन्त्रेषु न दोषः परिवेदने"-दति ॥ यस्य कस्यचित् पिता पितामहो वाऽग्रजो वाऽऽहिताग्निर्न भवति,
(२) यशार्थमर्थार्थं वा देशान्तरगतेत्यन्वयः ।
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इष,या का
पराशरमाधवः।
६९३
तस्य तदनुमत्याऽऽधानकरणेऽपि न दोष इत्यर्थः । एवमेव कन्यापरिवेदनेऽपि दोषतदपवादौ द्रष्टव्यो। अधीतविस्मृतवेदो निराकृतिः । तथाच देवलः,
"अधीत्य विस्मते वेदे भवेविप्रो निराकृतिः" इति । नानाजातीया अनियमहत्तयो गणास्तेषां मध्यवर्ती गणाभ्यन्तरः। कुशौलवो गायकादिः। उषलीपतिस्तु रजखलायाः कन्यायाः पतिः । तदुकं देवलेन,
"वन्ध्या तु वृषली ज्ञेया वृषली च मृतप्रजा। अपरा वृषली जेया कुमारी या रजखला ॥ यस्खेनामुदहेत् कन्यां ब्राह्मणो शानदुर्बलः ।
प्रश्राद्धेयमपातयं तं विद्यादृषलीपतिम्" इति ॥ यस्य ग्टहे उपपतिर्जारः सदा संवसेत्, मोऽपि वर्मः । तदुकं देवलेन,
“परदाराभिगो मोहात् पुरुषो जार उच्यते ।
स एवोपपति यो यः सदा संवसेनहे"-दति ॥ वाग्दुष्टो निष्ठुरवाक् । पतितैर्महापातकिसंसर्गिभिः सह बाङ्गैर्यानैश्च सम्बन्धैर्विद्यायोनिमम्बन्धैर्यः संयोगं गतः, मोऽत्र विवक्षितः। न तु साक्षात् संसर्गो, तस्य पतितशब्देनैवोपात्तत्वात् । केकरोऽर्धदृष्टिः । अदिधिष्वाः पतिरयेदिधिषपतिः। ज्येष्ठायामनूढायामूढा कनिष्ठा या, साऽयेदिधिषः । तदुकं देवलेन,
"ज्येष्ठायां यद्यनढायां कन्यायाम ह्यतेऽनुजा। , मा चादिधिपूर्जया पूर्वा तु दिधिषमता"-इति ॥
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पराशरमाधवः।
[३व्य,या०का।
पुत्राचार्योऽक्षरपाठकः। भ्रामरी वृत्त्यर्थमेव भ्रमरवदर्थार्जकः । ग्रहसम्बेशको वर्धकिवृत्त्या वर्तमानः। उरभा अवयः। तएव वृत्त्यर्थं पालनीया यस्यासावौरभकः। महिव्यः पाल्यायस्यासौ माहिषकः । अथवा, व्यभिचारिणीपुत्रः । तदाह देवलः,
“महिषीत्युच्यते भार्या मा चैव व्यभिचारिणी।
तस्यां यो जायते गर्भः स वै माहिषकः स्मृतः" इति ॥ एतान् पूर्वानानुभयत्र दैवे पित्ये च वर्जयेदित्यर्थः । यमोऽपि,
"काणाः कुञाश्च षंढाच कृतघ्ना गुरुतल्पगाः । ब्रह्मनाश्च सुरापाश्च स्तेना गोनाश्चिकित्मकाः ॥ राष्ट्रकामास्तथोन्मत्ताः पशुविक्रयिणश्च ये। मानकूटास्तुलाकूटा: शिल्पिनो ग्रामयाजकाः ॥ राजमृत्यान्धवधिरा मूर्खखल्वाटपङ्गवः । वृषलीफेनपीताश्च(१) श्रेणियाजकयाजकाः ॥ कालोपजीविनश्चैव ब्रह्मविक्रयिणस्तथा । दण्डपूजाच* ये विप्राः ग्रामकृत्यपराश्च ये॥ श्रागारदाहिनश्चैव गरदा वनदाइकाः । कुण्डाशिनो देवलकाः परदाराभिमर्शकाः ॥ श्यावदन्ताः कुनखिनः शिल्पिनः कुष्ठिनश्च ये। वणिजो मधुहतारो हत्यश्वदमका विजाः ॥
* दण्डभूजाच,-इति मु० ।
(१) दृघलीफेनपीताः शूद्रापतयः ।
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३०,या का०]
पराशरमाधवः।
६५
कन्यानां दूषकाश्चैव ब्राह्मणानाञ्च दुषकाः । सूचकाः प्रेथ्यकाश्चैव कितवाश्च कुशीलवाः ॥ समयानाच भेत्तारः प्रदाने ये च* वाधकाः । अजाविका माहिषकाः सर्वविक्रयिणश्च ये।। धनु:कनी द्यूतवृत्तिमित्रध्रुक् शस्त्रविक्रयी। पाण्डुरोगा गण्डमाली यक्ष्मी च भ्रामरी तथा । पिशुनः कूटसाक्षी च दीर्घरोगी वृथाऽऽश्रमी। प्रव्रज्योपनिवृत्तश्च वृथा प्रबजितश्च यः ।। यश्च प्रबजिताज्जातः प्रव्रज्याऽवमितश्च यः । तावुभौ ब्रह्मचण्डालावाह वैवखतो यमः ॥ राज्ञः प्रेय्यकरोयश्च ग्रामस्य नगरस्य वा। समुद्रयायी वान्ताशी केशविक्रयिणश्च ये । अवकीर्यो च वीरनः(१) गरुनः पिटदूषकः । गोविकयी च दुवाल: घूगानां चैव याजकः ॥ मद्यपश्च कदर्यश्च(२) सह पित्रा विवादकत् ।
* एव,-इति सेो० ना० । + कूटयाजी,-इति से ना ।
(१) वीरनः अमिपरित्यागो । “वीरहा वाएष देवानां योऽनिमुद्दास
यते"-इति श्रुतेः। (२) “कदर्यः, “यात्मानं धर्मकृत्यञ्च पुत्रदारांश्च पीड़यन् । योनाभाव
सचिनोत्यर्थान् स कदर्याइति स्मृतः”... इत्युक्तलक्षणः ।
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६६६
पराशरमाधवः ।
[३मधाका ।
दाम्भिको वर्धकीभनी त्यतात्मा दारदूषकः ॥ मद्भिश्च निन्दिताचारः स्वकर्मपरिवर्जकः । परिवित्तिः परिवेत्ता भूताचार्यो निराकृति:(१) ।। शूद्राचार्य: सुताचार्यः शूद्राशिव्यस्तु नास्तिकः । दुव्वस्त्रदारकाचार्या मानकृत्तैलिकस्तथा ॥ चोरा वार्धषिका दुष्टाः परखानाञ्च दूषकाः । चतुराश्रमवाह्याश्च सर्वे ते पतिदूषकाः ।। इत्येते लक्षणयुकांस्तांद्विजान नियोजयेत्” इति । विद्यादिगुणयोगेऽप्येतेषां वर्जनीयत्वं ब्रह्माण्डपुराणेऽभिहितम्,
"श्राद्धाईगुणयोगेऽपि नेते जातु कथञ्चन । निमन्त्रणीयाः श्राद्धेषु सम्यक् फलमभीमता"-इति॥ एवं ब्राह्मणान्प्रागेव सम्यक् परीक्ष्य पूर्वेद्युत्रिमन्त्रयीत । तथाच हारीतः। “यत्नेनैवम्बिधान श्राद्धमाचरिष्यन् पूर्वेधुनिमन्त्रयेत्”-इति। असम्भवे परेधुनिमन्त्रयीत । तथाच कूर्म,
"श्वो भविष्यति मे श्राद्धं पूर्वारभिपूजयेत् ।
असम्भवे परेर्युवा यथोक्रलक्षणैर्युतान्" इति ।। देवलोऽपि,
"श्व: काऽस्मीति निश्चित्य दाता विप्रानिमन्त्रयेत्। __* मत्याचार्यो,-इति मु.। (१) निराकृतिः,-"यस्वाधायाग्निमालस्याद्देवादीभिरिएवान् । निरा.
कर्ताऽमरादीनां स विज्ञेयोनिराकृतिः"-. इत्युक्तलक्षणः । अधीतविस्मृत वेदेो वा (६६३ ए.)।
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स्था,पाका०]
पराशरमाधवः ।
निरामिषं सकलका सर्वमुक्तजने रहे।
असम्भवे परेद्या ब्राह्मणांस्तानिमन्त्रयेत्” इति । अत्र विशेषो मनुना दर्शितः,
"पूर्व्वारपरेधुर्खा श्राद्धकर्मण्युपस्थिते ।
निमन्त्रयीत व्यवरान् सम्यम्विप्रान् यथोदितान्" इति ॥ वराहपुराणे,
"वस्त्र शौचादि कर्त्तव्यं श्वः कोऽस्मीति जानता। स्थानोपलेपनं भूमि वा विप्रानिमन्त्रयेत् ॥
दन्तकाष्ठच्च विसृजेत् ब्रह्मचारी चिर्भवेत्” इति ॥ श्राद्धभूमि परिग्टह्य गोमयादिना तत्स्थानोपलेपनं कृत्वा विधान रात्रौ निमन्त्रयेदित्यर्थः(९) । तथाच ब्रह्माण्डपुराणम्,
"पूर्वेऽहि रात्रौ विप्राय्यान् कृतमायन्तनाशनान् ।
गत्वा निमन्त्रयविपियुद्देशसमन्वितः” इति ॥ निमन्त्रणप्रकारः प्रचेतसा दर्शितः,
"कतापसव्यः पूर्वंद्युः पिढन् पूर्व निमन्त्रयेत् । भवद्भिः पिटकार्यनः सम्पाद्यञ्च प्रसीदत ॥
सव्येन वैश्वदेवार्थं प्रणिपत्य निमन्त्रयेत् (२)"- इति । अत्र प्रणतिपूर्वकं निमन्त्रणं शूद्रविषयम् । तथाच पुराणम्,
"दक्षिणं चरणं विप्रः सव्यं वै क्षत्रियस्तथा ।
(१) तथाच, भूमि, इत्यनन्तरं परिण्ट ह्य इत्यध्याहारहति भावः। (२) कृतापसव्यः प्राचीनावीती । पिटन उद्दिश्येति शेषः । सव्येन उपवीतिमा। 88
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पराशरमाधवः ।
[३१०,या का।
पादावादाय वैश्योरौ शूद्रः प्रणतिपूर्वकम्" इति। दक्षिणचरणस्पी जानुप्रदेशे कर्त्तव्यः । तथाच मत्स्यः,____ “दक्षिणं जानुमालभ्य त्वं मयाऽत्र निमन्त्रितः" इति ।
पूञ्च निमन्त्रयेदित्यत्र(१) पूर्वपदस्य वैश्वदेवार्थ निमन्त्रयेदिति व्यवहितेनान्वयः। अतएव वृहस्पतिः,
"उपवीती ततो भूत्वा देवताऽथै द्विजोत्तमान् ।
अपसव्येन पिये च स्वयं शिष्योऽथवा सुतः(२)" इति॥ पाणश्राद्धे ब्राह्मणमङ्ख्यामाह पेठीनमिः । “बाह्मणान् सप्त पञ्च द्वौ वा श्रोत्रियानामन्त्रयेत्”-इति॥ ___ यदा पञ्च ब्राह्मणाः, तदा देवे दो पित्ये त्रय इति विभागः । "दौ दैवे पिटकार्ये त्रीन्” इति मनुस्मरणात्। तस्मादयुग्मसङ्ख्यया समविभागार्थ पित्र्ये त्रय इति युक्रम् । यत्तु शौनकेन पित्येऽपि युग्मविधानं कृतं, “एकैकस्य द्वौ द्वौ”-इति, तद्धिश्राद्धविषयम्। पित्रादिस्थानेषु मति सामर्थ्य एकैकस्य चीस्त्री विप्रान भोजयेत् । तथाच शौनकः । “एकैकमेकैकस्य त्रीस्त्रीवा" इति। अत्यन्तविभवे सत्येकैकस्य पञ्च सप्त वा ब्राह्मणान् भोजयेत् । तथाच गौतमः । "नवावरान् भोजयेदयुजो वा यथोत्साहम्" इति ॥
अस्यार्थः। यथोत्माहं यथाविभवं पित्रादिम्थानेषु प्रत्येकमयुजः पञ्च सप्त वा ब्राह्मणान् भोजयेदिति । वचनस्य कथं पञ्चसु सप्तसु वा ब्रा ह्मणेषु पर्यवसानम् ?
(१) पितन् पूर्व निमन्त्र येदिति प्रचेतावचने इत्यर्थः । (२) निमन्त्र येदिति पोषः।
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३च,पाका.
पराशरमाधवः ।
"सामर्थेऽपि नवभ्योऽवाग्मोजयीत मति दिजान् ।
नोचं कर्त्तव्यमित्याहुः केचित्तद्दोषदर्शिन:(१)"इति ब्रह्माण्डपुराणवचनादिति ब्रूमः । शौनकगौतमाभ्यामुतोऽयं श्राद्धविस्तरो मनुना नादृतः,
"छौ देवे पिहकार्ये चीन् एकैकमुभयत्र वा। भोजयेत्सुसमृद्धाऽपि न प्रसज्येत विस्तरे॥ मकियां देशकालौ च शौचं ब्राह्मणसम्पदम् ।
पञ्चैतान्विस्तरो हन्ति तस्मान्ने हेत विस्तरम्" ॥ इत्य कारणमेव विस्तरप्रतिषेधात् । अतएव इस्पतिरपि,
"एकैकमथवा द्वौ चीन देवे पित्ये च भोजयेत् ।
मस्नियाकालपाचादि न सम्पद्येत विस्तरे"-इति ॥ वसिष्ठोऽपि,
“दा देवे पिहकार्य त्रीनेकैकमुभयत्र वा।
भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि विस्तरन्तु विवर्जयेत्'-दति ॥ श्रतएव याज्ञवल्क्येनापि सङ्कोचएव पक्षो विहितः,
"दौ देवे प्रायः पियउत वैकैकमेववा ।
मातामहानामप्येवं तन्त्र वा वैश्वदेविकम्” इति ॥ एकैकमुभयत्र वेति ब्राह्मणाघसम्भवे वेदितव्यम्। यत्तु शङ्खनोक्कम्,
"भोजयेदथवाऽप्येकं ब्राह्मणं पतिपावनम्” इति । तदप्यलाभविषयम् । यदात्वेकएव भोका तदेवमाह वसिष्ठः,(१) तद्दोषदर्शिनः ब्राह्मणवाइल्यदोषदर्शिनः । स च दोधोऽनु पदमेव
वच्यते।
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पराशरमाधवः।
[३०,चा०का।
"धोकं भोजयेच्छाढे दैवं तत्र कथं भवेत् । अन्नं पात्रे समुद्भुत्य सर्वस्य प्रकृतस्य तु ॥ देवतायतने कृत्वा यथाविधि प्रवर्तयेत् ।
प्रास्येदनौ तदनन्तु दद्यादा ब्रह्मचारिणे"-इति ।। निमन्त्रणे नियमान्तरमाह मस्यः,
"पठनिमय नियमान् श्रावयेत् पैटकान् बुधः । अक्रोधनः शौचपरैः सततं ब्रह्मचारिभिः॥
भवितव्यं भवद्भिश्च मया च श्राद्धकारिणा"-इति । निमन्त्रितैर्यत्कर्त्तव्यं तदाहात्रिः,
"ते तन्नयेत्यविघ्नेन गतेयं रजनी यदि ।
यथाश्रुतं प्रतीक्षेरन् श्राद्धकालमतन्द्रिताः" इति॥ ते निमन्त्रिता विप्रास्तं श्राद्धकारमविघ्नपूर्वकं तथाऽस्वित्युक्त्वा यथाश्रुतं विहितं नियमजातं, श्राद्धकालं श्राद्धे भुकं यावत् जीर्यति तावदनुतिष्ठेरन्नित्यर्थः । तथाच प्रचेताः,
___ “आऽशनपरिणामानु ब्रह्मचर्य दयोः स्मृतम्" इति । यमोऽपि,
"आमन्त्रितास्तु ये विप्रा श्राद्धकालउपस्थिते । वसेयुर्नियताहारा ब्रह्मचर्यपरायणाः॥ अहिंसा सत्यमक्रोधो दूरे चागमनक्रिया।
प्रभारोहहनश्चेति श्राद्धस्योपामनाविधिः" इति ॥ तथाऽस्त्वित्यङ्गीकारः मति मामर्थे अनिन्दितामन्त्रणविषयः । तथाच कात्यायनः । “अनिन्द्यनामन्त्रिते नातिकामेत्" । केन न
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३५०, या का० ।
पराशरमाधवः ।
पर
प्रत्याख्यान कर्तव्यमिति । यस्त्वामन्त्रणमङ्गीकृत्य सत्यपि सामर्थ्य पश्चानिवारयति तस्य दोषोऽस्ति । तथाच मनुः,
"केतितस्तु* यथान्यायं इव्यकव्ये द्विजोत्तमः ।
कथञ्चिदप्यतिकामन पापः शूकरतां व्रजेत्" इति ॥ केतिता निमन्त्रितः । यमोऽपि,
"आमन्त्रितश्च यो विप्रो भोनुमन्यत्र गच्छति ।
नरकाणां शतं गत्वा चण्डालेवभिजायते"-दति ।। निमन्त्रितब्राह्मणपरित्यागे प्रत्यवायोऽस्ति । तथाच नारायणः,
"निकेतनं कारयित्वा निवारयति दुर्मतिः। ब्रह्महत्यामवाप्नोति भूट्योनौ च जायते” इति ॥ यस्वामन्त्रिता विप्रचाहतोऽपि श्राद्धकालातिक्रमं करोति तस्य प्रत्यवाय श्रादिपुराणेऽभिहितः,
"आमन्त्रितश्चिरं नैव कुर्याद्विप्रः कदाचन। देवतानां पितृणाञ्च दातुरन्नस्य चैव हि ॥
चिरकारी भवेद्रोही पच्यते नरकामिना" इति । दाभोनोर्ब्रह्मचर्यनियमातिकमे प्रत्यवायस्तु तत्र तत्रोकः । तत्र रद्धमनुः,
"ऋतुकाली नियको वा नैव गच्छेत् स्त्रियं वचित्। तत्र गच्छन् समानोति हनिष्टफलमेव तु"-इति ॥
* केनित,-इति पाठः सेो ना० । एवं परत्र ।। + ऋतुकालं प्राप्येति शेषः। ऋतुकाले,-इति समीचीनः पाठः ।
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००२
पराशरमाधवः ।
[३षा,था.का।
गौतमः । “मद्यः श्राद्धी शूद्रातल्पगतस्तत्पुरीषे मासं नयेत पिढन्" इति। श्राद्धी श्राद्धका मद्यस्तत्क्षणमारभ्येत्यर्थः । मनुः,
"आमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे षल्या मह मोदते ।
दातुर्यदुष्कृतं किञ्चित् तत्मा प्रतिपद्यते"-दति ॥ यमः,
"आमन्त्रितस्तु यः श्राद्धे अध्वानं प्रतिपद्यते ।
भवन्ति पितरस्तस्य तन्मांसं पांरभोजनाः" इति ॥ श्राद्धदिनकृत्यं प्रचेतमा दर्शितम्,
"श्राद्धभुक् प्रातरुत्थाय प्रकुर्याइन्तधावनम् ।
श्राद्धकती तु कुर्वीत न दन्तधावनं बुध" इति ॥ देवलोऽपि,
"तथैव यन्त्रितो दाता प्रातः स्नात्वा महाम्बरः । प्रारभेत नवैः पात्रैरबारम्भ खवान्धवैः ॥ तिलानवकिरेत्तत्र सर्वतो बन्धयेदजान्। असुरापहतं सर्व तिलैः ध्यत्यजेन च ॥ ततोऽन्नं बहुसंस्कार नैकभाजनभावत् ।
चोष्पयेपसमृद्धश्च यथाशकि प्रकल्पयेत्” इति ॥ पत्र द्रव्याणि प्रचेताबाह,
"कृष्णमाषास्तिलाश्चैव श्रेष्ठाः स्युर्यवशालयः । महायवा श्रीहियवास्तथैवच मधूलिकाः ।।
कृष्णाः श्वेताश्च लोहाच ग्राह्याः स्युः श्राद्धकर्मणि" इति। यवाः मितशूका: शालयः कलमाद्याः। महायवा ब्रीहियवाश्च
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श्मा
का
पराशरमाधवः।
यवविशेषाः। मधुलिका धान्यविशेषः। कृष्णा: स्थलजाः कृष्णवर्णनीहयः। लोहा रक्तशालयः । मार्कण्डेयोऽपि,
“यवत्रीहिमगोधमाः तिलमुगाः समर्षपाः। प्रियङ्गवः कोविदारः निष्पावा (१)श्चात्र शोभनाः" इति। अत्र गोधूमानामावश्यकत्वमत्रिणोत्रम्,
"अगोधूमञ्च यच्छ्राद्धं कृतमप्यकृतं भवेत्”-इति॥ वायुपुराणेऽपि,
"विल्वामलकमृद्दीकापनसाम्रातदाडिमम्। चव्यम्पालेवताचोटखजूराणं फलानि च(९) । कशेरुकोविदारथ तालकन्दस्तथा विसम् । कालेयं कालशाकञ्च सुनिषक सुवर्चला ।। कट्फलं किशिनी(२) द्राक्षा लकुचं मोचमेवच । कवन्धूग्रीवकं चारु तिन्दकं मधुमाइयम् ॥ वैकङ्कतं नालिकरं श्टगाटकपरूषकम् । पिप्पली मरिचञ्चैव पटोलं वृहतीफलम् ॥
निष्याता,-इति ना। + सुनिष्पन्नं,-इति पाठान्तरम् ।
(१) निष्याधः शिम्बीसदृशोदक्षिणापथे प्रसिद्धइति कल्पतरुः । (२) पालेवतः काश्मीरके उ इति प्रसिद्धइति श्राइचिन्तामणिः। प्रा
चीनामलकइति प्रकाशकारः । (३) किग्निी अनरसा द्राक्षेति लल्मीधरः। हलायुधेन तु किदिनी
जलजम्बूरिति व्याख्यातम् ।
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७.9
पराशरमाधवः।
श्यामाका ।
सुगन्धिमत्स्यमांमञ्च कलाया: सर्वएवच । एवमादीनि वान्यानि स्वादूनि मधुराणि च ॥
नागरचात्र वै देयं दीर्घमूलकमेवच" इति। मृद्धीका द्राक्षा। अाम्रातकः कपोतनः । चव्यञ्चाविका । अक्षोट: शैलोद्भवः । कशेरु भद्रमुस्ता । कालेयकं दारुहरिद्रा। सुनिषक वितुन्नशाकम्। कटफलं श्रीपर्णिका । लकुचो लिकुचः । मोचं कदलीफलं । कर्कधर्वदरी। तिन्दुकः मितिमारकः । टङ्गाटकं अलजन्त्रिकण्टकम् । वृहतीफलं निदिग्धिकाफलम् । दीर्घमूलकन्तुण्डिकेरीफलम् । विल्वामलकादीनि प्रसिद्धानि । पालेवतपरूषकादीन्यप्रसिद्धानि। शङ्खोऽपि,
"आम्रान् पालेवतानिन्मृढीकां चयदाडिमम् । विदार्याश्च भचुण्डांश्च श्राद्धकालेऽपि दापयेत्। द्राक्षाम्मधुयुतां दद्यात् शकून शर्करया सह ॥
दद्याच्छ्राद्धे प्रयत्नेन टङ्गाटककशेलुकान्” इति । श्रादित्यपुराणेऽपि,
"मधूक रामठञ्चैव कर्पूरं मरिचं गुडम् ।
श्राद्धकर्मणि शस्तानि मैन्धवं त्रपुषं तथा"-इति ॥ अत्र विशेषो मार्कण्डेयेन दर्शितः,
"गोधूमैरिक्षुभिर्मुरैः क्षीणकैश्चणकरपि । श्राद्धेषु दत्तैः प्रीयन्ते मासमेकं पितामहाः ॥ विदार्याश्च भचूडैश्च बिस: रङ्गाटकैस्तथा। केचुकैश्च तथा कन्दैः कर्कन्धुवदरैरपि ॥ पालेवतैरातुकैश्चाप्यातोटः पनसैस्तथा।
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३खा,पाका
पराशरमाधवः ।
७०५
काकोल्यः चीरकाकोल्यः तथा पिण्डालकः भैः । लाजाभिश्च मलाभिश्च वपुषारचिटैिः। सर्षपाराजशाकाभ्यामिङ्गदैराजजम्बुभिः॥ प्रियालामलकैर्मुख्यैः पङ्गभिश्च तिलम्बकैः । वेत्राङ्कुरैस्तालकन्दैश्चक्रिकाचीरिकावः ॥ मात्रैः समोचेलकुचैस्तथा वै वीजपूरकैः। मुनातकैः पद्मपलैर्भक्ष्यभोज्यः सुसंस्कृतैः । रागपाडवचोव्यैश्च त्रिजातकसमन्वितैः ।
दत्तैस्तु मासं प्रीयन्ते श्राद्धेषु पितरो नृणाम्”-इति॥ विदारी कृष्णवर्णभूकुमाण्डफलम्। केचुकः कचूराख्यशाकम् । कन्दः शूरणः। उवातुः खादुकर्कटी। चिर्भिस्तिककर्कटी। सर्षपेति दीर्घः छान्दमः । राजशाकं कृष्णमर्षपः। इङ्गदः तापमतरुः। प्रियालाराजादनम्। चक्रिका चिचा। चीरिका फलाध्यक्षम् । रागपाडवाः पानविशेषाः । विजातकं लवङ्गलागन्धपत्राणि । मस्यपुराणेऽपि,
"अन्नन्तु सदधित्तीरं गोतं मकराऽन्वितम् ।
मासं प्रीणाति सर्वान् वै पिहनित्याह केशवः"-दूति ॥ मनुरपि,
"तिलैोहियवैमारनिर्मलफलेन वा। दत्तेन मासं प्रीयन्ते विधिवत्पितरो नृणाम् ॥ द्वौ मासौ मस्यमांसेन चीन्मामान् हारिणेन तु । आरभेणाथ चतुरः शाकुनेनेह पञ्च वै॥
89
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पराशरमाधवः।
धा०का.1
षण्मामांश्छागमांसेन पार्षतेनेह मत (१) । अष्टावेणस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु ॥ दश मामांस्तु हृप्यन्ति वगहमहिषामिषैः । शशकूर्मयोस्तु मांसेन मामानेकादशैव तु॥ संवत्सरन्तु गव्येन पयमा पायसेन वा। वाणसस्य मांसेन हप्तिादशवार्षिकी । कालशाकं महाशल्कं खड्ग लोहामिषं मधु ।
श्रानन्यायैव कल्पन्ते मुन्यन्नानि च सर्वश:"--इति ॥ वाटणमो रक्तवर्णवृद्धच्छागलः । तदुकं विष्णुधर्मोत्तरे,
"त्रिपिवन्विन्द्रियचीण(२) यूथस्याग्रसरं तथा ।
रकवर्णन्तु राजेन्द्र, छागं वाटणम विदुः” इति ॥ पतिविशेषो वा,
"कृष्णग्रीवो रक्तशिराः श्वेतपक्षो विहङ्गमः।
म वार्षीणमः प्रोक्तः इत्येषा वैदिकी श्रुतिः” इति निगमवचनात् । कालशाकमुत्तरदेश प्रगिद्धम् । महागल्को मन्थविशेषः । खड्गः खड्गमगः । लोहो लोहितवर्णच्छाग: । मुन्यन्नानि नीवागद्यन्नानि। श्राद्धे कोद्रवादिधान्यानि वर्जयेत् । तथाच व्यामः,
"अश्राद्धेयानि धान्यानि कोद्रवा: पुलकास्तथा :
हिङ्गद्रव्येषु शाकेषु कालानलभास्तथा"-इति॥ (१) पातादयो म्टगजातिविशेषाः।
(२) जलपानकाले यस्यास्यं नासिकायं च जले निमज्नति, सोऽयं त्रिपिव इत्युच्यते । त्रिभिनासिकायमुखैः पिवतीति व्युत्पत्तेः ।
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३१०,या का० ।
पराशरमाधवः।
७.
७
कोद्रवाः कोरदूषकाः। पुलकाः पुलाकाः छान्दमोऽत्र इखः । संस्कारकद्रव्येषु हिङ्गद्रव्यमश्राद्धेयम् । कालः कृष्णर्जुकः। अनलचित्रकः । शुभा शुभाख्यः शाकविशेषः। एतानि शाकान्यश्राद्धथानि । ननु,
_ "मधूदं रामठञ्चैव कर्पूरं मरिचं गुड़म्" इति
श्रादिपुराणे हिङ्गुद्रव्यस्य श्राद्धेयत्वमुक्त, तत्कथं तस्याश्राद्धेयत्वमुच्यते, इति। सत्यं, "अतिरात्रे षोडशिनं ग्रहाति नातिराचे घोडशिनं ग्टहाति" इति वस्त्रापि विधिप्रतिषेधदर्शनादिकल्पोऽस्तु । एवमेवान्यत्रापि। भारदाजोऽपि । “मुगाढकीमाषवर्ज विदलानि दद्यात्"-दति । मुगः कृष्णेतरः, आढकी तुवरी, माषो राजमाष:, एतैर्चिना विदलानि दद्यादित्यर्थः। माषग्रहणं कुलत्यादीनामुपलक्षणार्थम् । अतएव चतुर्विंशतिमतम्,
"कोद्रवानाजमाणंश्च कुलत्थान्वरकांस्तथा । निष्पास्तु विशेषेण पञ्चैतांस्तु विर्जयेत् ॥
यावसालानपि तथा वर्जयन्ति विपश्चित:"-इति । वरका: वनमुगाः । अन्यत्प्रसिद्धम् । अत्र निष्यावनिषेधः कृष्ण . निष्यावविषयः,
"कृष्णधान्यानि सर्वाणि वर्जयेत् श्राद्धकर्मणि"-दति स्मरणात् । “निष्यावाश्चात्र शोभनाः" इति मार्कण्डेयपुगणं कृष्णोतरनिष्पावविषयाया व्यवस्थापितं भवति ! मरीचिरणि,
"कुलत्थाचणका: श्राद्धे न देयाश्चैव कोद्रवाः । कटुकानि न साणि विरसानि तथैवच" इति
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पराशरमाधवः ।
..या०का।
विष्णु पुराणेऽपि,
"श्राद्धे न देया पालझ्या तथा निष्पावकोद्रवाः ।
मसूरक्षारवास्तूककुलत्थशणशियवः” इति ॥ पालझ्या मुकुन्दः, ममरो मङ्गल्यकः, क्षारो यवक्षारादिः। विष्णुरपि । “भुटण शियुसर्षपसुरमार्जककुभाण्डालावुवातीकुपालङ्यातण्डुलीयककुसुम्भमहिषीचीरादि वर्जयेत्” इति । भूस्तृणो भृवणः छान्दमत्वात् सुडभावः । सर्षपोऽत्र राजमर्षपः । “कुसुम्भं राजमर्षपम्” इति स्मृत्यन्तरे विशेषितत्वात् । सुरमा निर्गुण्डा । अर्जकः श्वेतार्जकः । उशना अपि,
"नालिकामणच्छचाककुसुम्भानम्बविड़भवान् । कुम्भीकम्बकवृन्ताककोविदारांश्च वर्जयेत् ॥ वर्जयेहुचनं श्राद्धे काश्चिकं पिण्डमूलकम् ।
करनं येऽपि चान्ये वै रमगन्धोत्कटास्तथा"-इति॥ नालिका दीर्घनालाग्रगताऽल्पपलवा । छत्राकं मिलिन्धुः । कुम्भी श्रीपर्मिका। कम्बुकं वृत्ताला। स्टचनो हरिद्रतवर्षः पलाण्डुविशेषः। काञ्चिकं पारनालकम् । करनश्चिरविल्वफलम् । पुराणेऽपि,
"वांशङ्करीरं सुरसं सर्जकं भूलणानि च । अवेदोकाश्च निर्यामा लवणान्यौषराणि च ॥
श्राद्धकर्माणि वयानि याश्च नार्या रजस्खलाः” इति ॥ वांशङ्करीरं वंशाङ्करः । सर्जकः पीतमारकः । अवेदोका वेदे निषिद्धा निर्यासाः व्रश्चनप्रभवादयः । औषराणि लवणनि कृतलव
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श्च०, पाका ।
पराशरमाधवः ।
णनि । रजखला: दिनत्रयादूर्द्धमनिवृत्तरजमः । भरद्वाजोऽपि,
"नको तन्तु यत्तीयं पल्वलाम्बु तथैवच । खन्याम्बु कुमाण्डफलं वज्रकन्दश्च पिप्पली ॥ तण्डूलीयकशाकञ्च माहिषश्च पयोदधि । शिम्बिकानि करीराणि कोविदारगवेधुकम् ॥ कुलत्यभणजम्बीरकरम्भाणि तथैवच । अन्नादन्यद्रकपुष्यं भिगुः क्षारं तथैवच ॥ नीरमान्यपि सर्वाणि भक्ष्यभोज्यानि यानि च । एतानि नैव देयानि सर्वस्मिन् श्राद्धकर्मणि ॥ श्राविक मार्गमौष्ट्रच सर्वमैकशफञ्च यत्।
माहिषचामरश्चैव पयो वयं विजानता"-इति॥ प्राविकमवीनां पयः। मार्ग मृगीणां पयः। औष्ट्रमुद्रीनां पयः । ऐकशर्फ वडवापयः । माहिषं महिषीपयः । चामरं चमरीपयः । ब्रह्माण्ड पुराणेऽपि,
"दिःखिन्न परिदग्धञ्च तथैवाग्रावलेहितम् । शर्कराकीटपाषाणैः केर्यच्चाप्युपतम् ॥ पिण्याकं मथितञ्चैव तथातिलवणञ्च यत् । दधि शाकं तथा भक्ष्यमुष्णञ्चोषविवर्जितम् ॥ वर्जयेच्च तथा चान्यान् सर्वानभिमतानपि । सिद्धाः कृताच ये भक्षाः प्रत्यक्षलवणीकृताः ॥ वाग्भावदुष्टाश्च तथा दुष्टैचोपहतास्तथा। वासमा चोपधूतानि वानि श्राद्धकर्माणि"-इति ॥
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पराशरमाधवः।
थाका० ।
दिखिन्नं दिःपक्वम् (२) । परिदग्धमविदग्धम् । अग्रावलेहितं पूर्वमेवान्येनास्वादितम् । मथितं विलोलितं निर्जलं दधि । सिद्धा भक्षा श्रामलकादयः, प्रत्यक्षलवणेन मिश्रिताः । शङ्खोऽपि.
"कृष्णाजाजी विडच्चैव मीतपाकों तथैवच । वर्जयेन्नवणं सर्व तथा जम्बूफलानि च ॥
अवक्षुतावरुदितं तथा श्राद्धेषु वर्जयेत्”-दति । कृष्णाजाजी कृष्णजीरकः। विडम्बिडालाख्यम्। लवणं कृतलवणम् । श्राद्धे कुष्माण्डादिनिषिद्धद्रव्योपादाने प्रत्यवायोऽस्ति । तथाच स्मृत्यन्तरम्,
"कुश्माण्डं महिषीक्षीरं आढक्योरानमःपाः । चणकाराजमाषाश्च प्रन्ति श्राद्धममंशयः । पिण्डाल कञ्च शुण्ठी च करमदीश्च नालिकाम् ।
कु'माण्डं बहवीजानि श्राद्धे दत्वा प्रयात्यधः" इति ॥ करमर्दः सुषेणः। बहुवीजानि वीजपूरादीनि । नित्यभोजने प्रतिषिद्धमपि श्राद्धे न देयम् । अतएवोक्तं षड्विंशन्मते,
"क्षीरादि महिषीवयं अभक्ष्यं यच्च कीर्तितम्" इति । नित्यभोजने वानि शाकानि पैठीन मिनोकानि । “न्तिाकनालिकापौतकुसुभारमन्तकाश्चेति भाकानामभक्ष्याच"-इति । पौतं पौतिका । वृन्ताकनिषेधस्तु श्वेतवृन्ताकविषयः। अतएव देवलः,
(१) दिपकं च तदेव, यत् सूपकारशास्त्रापेक्षितपाकनिष्पत्यनन्तरं शेत्यादिनिवृत्तये पुनः पाकानारयुक्तम्। न त्वर्द्धपाकानन्तरं तत्शास्त्रोक्तसम्भारणरूपपाकान्तरसिद्ध व्यञ्जनादि । अतीतार्थनिष्ठानिर्देशात् ।
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श्व ,पाका०]
पराशरमाधवः।
___११
"कण्डूरं श्वेतचन्ताकं कुम्भाण्डञ्च विवर्जयेत्” इति। कण्डराण्यारषायणी, तस्याः फलं कण्ड रम् । कुम्भबुधवद लं वृत्तालावुसदृशं कुम्भाण्डम् । भविष्य पुराणेऽपि,
"लानं ग्रञ्जनञ्चैव पलाण्डुकवकानि च।
वृन्ताकनालिकालावु जानीयाज्जातिदूषितम्” इति ॥ लशुनं श्वेतकन्दः पलाण्डुविशेषः,
"लशुनं दीर्घपत्रश्च पिच्छगन्धो महौषधम् । परण्यश्च पलाण्डुश्च लतार्कश्च परारिका ।। ग्टननं पवनेष्टश्च पलाण्डोर्दश जातयः” इति सुश्रुतेनोकत्वात् । कवकं छत्राकम् । हारीतोऽपि । “न वटप्लहोडम्बरदधित्थनीपमातुलङ्गानि वा भक्षयेत्” इति । मनुरपि,
"लोहितान् वृक्षनिर्यासान् ब्रश्चनप्रभवांस्तथा।
शेतुं गव्यञ्च पीयूषं प्रयत्नेन विवर्जयेत्”-इति॥ लोहिता वृक्षनिर्यासा लाक्षादयः । लोहितग्रहणात् निर्यासत्वेऽपि पाटलश्वेतवाहिङ्गुकर्परादेरप्रतिषेधः। शेलुः श्लेष्मातकः । पीयूषोऽभिनवम्पयः। ब्रह्मपुराणे,
"तात्फेनं तान्मण्डं पीयूषमथ चागोः । न गुडं मरिचाकन्तु तथा पर्युषितं दधि ॥ दीर्ण तक्रमपेयञ्च नष्टवादु च फेनवत्” इति । तादुद्धत्य तत्फेनमात्रं न पेयम्। तादुद्धत्य मण्डं तदग्रञ्च न पेयम् । पार्द्रगोः प्रसवप्रमृत्यनिहत्तरजस्कायागोः पीयूषं न पेयम्। गुडं मरिचोपगतं पर्युषितं दधि च, दोर्ण स्फुटितं तकं
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१२
पराशरमाधवः।
[श्च०, का।
दीर्घकालस्थित्या नष्टखादु च फेनवञ्च न पेयम् । याज्ञवल्क्योऽपि,
"मन्धिन्यनिर्दशाऽवत्सगोः पयः परिवर्जयेत् ।
औष्टमैकमकं स्त्रैणमारण्यकमथाविकम्" इति ॥ या वृषेण सन्धीयते मा मन्धिनी, अनिशा अनिर्गतदशरात्रा, अवत्मा वत्मरहिता। एतासां गवां पयः परिवर्जयेत् । श्रारण्यकपयो. निषेधश्चारण्यकमहिषीव्यतिरिक्रविषयः । तदाह मनुः,
"अनिईशाया गोः क्षीरमौष्ट्रमैकमफं तथा। श्राविकं सन्धिनीतीरं विवत्मायाश्च गोः पयः ॥
भारण्यानाञ्च सर्वेषां मृगाणां महिषीविना" इति । वमिष्ठोऽपि । “गोमहिय्यकानामनिर्दशाहानां पयो न पेयम्”इति । गौतमोऽपि । “स्थन्दिनीयमसमन्धिनीनाञ्च” इति । क्षीरं न पेयमिति शेषः । स्थन्दिनी स्वतएव स्ववत्पयःस्तनी। यमसूर्यमलप्रमः। बोधायनोऽपि। "क्षीरमपेयं विवत्माया अन्यवत्माया"-इति । आपस्तम्बोऽपि,
"क्षत्रियश्चैव वृत्तस्यो वैश्यः शूद्रोऽथवा पुनः ।
या पिवेत्कापिलं वीरं न ततोऽन्योऽस्त्यपुण्यकृत्" इति ॥ जात्या विशुद्धमपि केशकीटादिसंसर्गदुष्टमात्रं संवर्जयेत् । तथाच देवलः,
"विशुद्धमपि चाहारं मक्षिकाकृमिजन्तुभिः।।
केशरोमनखैचाऽपि दूषितं परिवर्जयेत्” इति ॥ अत्र मक्षिकाकृमिजन्तको मृताः विवक्षिताः। एतैः केशरोमादिभिश्च दूषितं मति सम्भवे वर्जयेत्, असम्भवे तु केशादिकमुद्धत्य
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३०, ख०का० । ]
सम्प्रोक्ष्य हिरण्यस्पर्श वा भुञ्जीत । तथाच सुमन्तुः । " केशकीटचुत चोपहतं श्रभिराघ्रातं लेहितं वा श्रदधि पर्युषितं पुनः सि चण्डालाद्यवेक्षितं श्रभोज्यं अन्यत्र हिरण्योदकैः स्पष्ट्वा " - इति । चुतत्रचः चतवाग्जातो ध्वनिः । श्रपद्यपि श्रादिभिरवलीढं न भुञ्जीत । तथाच देवलः, -
"अवली श्रमार्जारध्वांतकुक्कुटमूषकः ।
भोजने नोपभुञ्जीत तदमेध्यं हि सर्व्वतः " - इति ॥
भविष्यपुराणेऽपि -
पराशर माधवः ।
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७१३
“सुरालशनसंस्पृष्टं पीयूषादिसमन्वितम् ।
संसर्गाद्दृष्यते तद्धि शूद्रोच्छिष्टवदाचरेत्” इति ॥ अत्रादिशब्देन कचाकादिदुष्टद्रव्यं परिग्टह्यते । स्मृत्यन्तरे व
न्तरमुक्तम्, -
"नापणीयं समश्रीयान्न द्विपक्कं न पर्युषितम् । घृतं वा यदि वा तैलं विप्रो नाद्यात् नखच्युतम् । यमस्तदाऽचि प्राह तुल्यं गोमांसभक्षणैः ॥ हस्तदत्ताश्च ये स्नेहा लवणव्यञ्जनानि च । दातारन्त्रोपतिष्ठन्ति भोक्ता भुञ्जीत किल्बिषम् ॥ एकेन पाणिना दत्तं शूद्रादत्तं न भक्षयेत्” इति । श्रापणस्थानप्रतिषेधोऽचापूपादिव्यतिरिक्तविषयः । तदाह शङ्खः,"अपूपाः सक्तवोधानास्तकं दधि घृतं मधु 1 एतत् पष्येषु भोक्तव्यं भाण्डले हि न चेद्भवेत् " - इति ॥ पर्युषितनिषेधोऽपि वटकादिव्यतिरिकविषयः । तदाह यमः,
90
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पराशरमाधवः।
श्रा०का।
"अपूपाश्च करम्भाश्च धानावटकसनवः । शाकं मांसमपकञ्च* सूपं कमरमेवच ।। यवागू: पायमञ्चैव यच्चान्यत्स्नेहसंयुतम् । सर्व पर्युषितं भोज्यं शुक्र चेत्परिवर्जयेत्”-दति ॥ देवलोऽपि,
"भोज्यं प्राहुराहारं शुक्र पर्युषितञ्च यत् ।
अपूपा यवगोधमविकारा वटकादयः" इति ॥ वटका माषादि पिष्टमया प्रसिद्धाः। पुनरपूपग्रहणं ब्रीह्यादिपिष्ट विकारोपादानार्थम् । कृमरं घटतिलचूर्णमंयुतमोदनम् । अन्यदोदनादिकं स्नेहसंयुतं तेन दना वाऽभिधारितम् । एतत्मचं पर्युषितमाशक भोज्यम् । एकस्वरूपं वृहस्पतिनोक्रम्,_ "अत्यवं शुक्रमाख्यातं निन्दितं ब्रह्मवादिभिः" इति॥
अननमीषदखं वा यवस्तु कालान्तरेण वा द्रव्यान्तरसंसर्गण वाऽत्यवं भवति तछुक, न तु स्वभावतोऽत्यचम्। यदमिपक्कं मद्राचन्तरितं, तत्पर्युषितम् । शुक्रप्रतिषेधो दध्यादिव्यतिरिकविषयः । तदाह :
"दधि भक्ष्यच शुक्नेषु सर्वश्च दधिसम्भवम् ।
जीवपक्की भक्ष्यं स्यात् मर्पियुकमिति स्थितिः" इति ॥ अननिकउमा सजी, तेन पक्कं शुक्र पर्युषितचापदि प्रचाचितं भोव्यम् । तदाह यमः,* मांसं मसूरन, इति मु । 1 तुवीसपक, इति सो० ना । | तुवीस, - इति सो० ना ।
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३५०,या का
पराशरमाधवः।
७१५
"शुक्रानि हि द्विजोऽन्नानि न भुञ्जीत कदाचन । प्रक्षालितानि निर्दोषाण्यापद्धोऽथवा भवेत् ।। मसूरभाषसंयुकं तथा पर्युषितञ्च यत् ।
तत्तु प्रक्षालितं कृत्वा भुञ्चीत ह्यभिधारितम्" इति । अाश्रयदुष्टमपि न भुञ्जीत । तथाच याज्ञवल्क्यः,
"कदर्यबद्धचोराणां क्लीवरङ्गावतारिणाम् । वैणाभिशस्तबाधुष्यगणिकागणदीक्षिणाम् ॥ चिकित्सकातुरक्रुद्धपुंश्चलीमत्तविद्विषाम् । कुरोग्रपतितव्रात्यदांभिकोच्छिष्टभोजिनाम् ॥ अवीरास्त्रीवर्णकारस्त्रीजितग्रामयाजिनाम् । शस्त्रविक्रयिकमारतन्तवायश्ववृत्तिनाम् ॥ नशंसराजरजककृतघ्नबधजीविनाम् । चेलधावसुराजीवमहोपपतिवेश्मनाम् ॥ एषामन्नं न भोक्तव्यं सोमविक्रयिणस्तथा"-इति। कालधकः । तथाच स्मृत्यन्तरम्,
“श्रात्मानं धर्मकृत्यञ्च पुत्रदारांश्च पीड़येत् ।
लोभाद्यः पितरौ भृत्यान् म कदर्य इति स्मतः" इति ॥ बद्धः ललितः । रङ्गावतारी नटः । वैणो वीणावादनोपजीवी। दीची दीक्षासंस्कारवान् । तस्य चाभोज्यानत्वमनीषोमीयपशवपाहोमपर्यन्तम् । “संस्थितेऽनीषोमीये यजमानस्य रहे नाशितव्यम्" इति श्रुतेः । श्रातुरः पापरोगग्रस्तः । क्रुद्धो दृढ़तरान्तरकोपः। मत्तो धनादिना गर्वितः। क्रूरो निष्कृपः । उग्रः परदुः
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१६
पराशरमाधवः।
[३०,धा का।
खकारी। रजको वस्त्ररागकारी। चेलधावो वस्त्र प्रचालकः । एषां कदादिमोमविक्रयिपर्यन्तानां त्रैवर्णिकानामन्नं न भोक्रव्यमित्यर्थः । यमोऽपि,
"चक्रोपजीवी गान्धवः कितवस्तस्करस्तथा। ध्वजो दारोपजीवी च शूट्राध्यापकयाजको ।
कुलालचित्रकर्मा च वाधुषो चर्मविक्रयो -इति । चक्रोपजीवी शकटोपजीवी । गान्धर्वा गायकः । ध्वजी मद्यविक्रयी । इतरे प्रमिद्धवाः । एते अभोज्याना इत्यर्थः । आपस्तम्बोऽपि,
"दावेवाश्रमिणौ भोज्यौ ब्रह्मचारी ग्टही तथा।
मुनेरन्नमभोज्य स्थात् सर्वेषां लिङ्गिनां तथा"-इति॥ मुनिशब्देन यतिवानप्रस्थौ ग्रहोते । लिङ्गिनः पाशुपतादयः । अङ्गिरात्रपि,
"षण्मासान यो हिजो भुत शूद्रस्यान्नं विहितम् ।
स तु जीवन भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चाभिजायते" - इति । यत्तु सुमन्तुनोत्रम्,
"गोरमञ्चैव मश्च तैलं पिण्याकमेवच ।
अपूपान् भक्षयच्छूद्राद्यच्चान्यत्ययमा कृतम्”-दति ॥ यच्च विष्णुपुराणेऽभिहितम्,
मम्प्रोक्ष्य विप्रो ग्रहीयाच्छ्ट्रानं ग्रहमागतम्” इति । तदापदिषयम् । अतएव याज्ञवल्क्यः,
"अदत्तान्याग्रहीनस्व नानमद्यादनापदि"-दति । अग्निहीनः शुद्रः । मासेम्वपि यद्वज्यं तदाह मनुः,
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३१०,या का
परापूरमाधवः ।
"क्रव्यादान शकुनीन्मोंस्तथा ग्रामनिवामिनः । अनिर्दिष्टांश्वेकशफारिटिभश्चैव वर्जयेत् ॥ कलम्बिकं नवं हम चक्राई ग्रामकुक्कुटम् । मारसं रजवालच्च दात्यूहं शुकमारिके ॥ प्रतुदान जालपादांश्च कोयष्टिनखविष्किरान्। निमज्जतश्च मत्स्यादान् शौनं वलरमेवच ।। वकञ्चैव वस्लाकाञ्च काकोलं खञ्जरीटकान् ।
मत्स्यादान् विवराहांश्च मत्स्यानेव च मशः” इति ॥ क्रव्यादाः शकुनयो ग्रघ्रादयः । ग्रामनिवामिनः शकुनयः पाराबतादयः । अनिर्दिष्टा अपरिज्ञातजातिविशेषा मृगपक्षिण: । एकशफा अश्वादयः। टिट्टिभः निष्ठुरशब्दभाषी पक्षिविशेषः । कलम्बिकश्चटकः । लवो जलकुकुटः। चक्राक्षश्चक्रवाकः । सारसः पुष्करातः । रज्जुवालकोरज्जवन्युच्छकः । दात्यूहः कालकण्टकः । प्रतुदः श्येनः । जालपादाः जालाकारपादाः । कोष्टिः पक्षिविशेषः । नखविकिराकोरादयः । निमज्जन्तोमस्यादा निमज्ज्य माम्यभक्षका: पक्षिविशेषाः । शौनं शुनोद्भवमामम् । वानरं शकमांमम् । काकोलो गिरिकाकः । खच्चरीट: खननः । मल्यादा अनिमज्जन्तो मत्स्यादा विवक्षिताः । विचराहाग्राम्यशूकराः । अत्र मत्स्यनिषेधो राजीवसिंहतुण्डकादिव्यतिरिक्तविषयः । अतएवोकन्तेनैव,
* बक्षकुट्टका,-इति मु०। + शूनायां भवं मांसम्, इति मु० ।
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७१०
पराशरमाधवः।
[श्च०,धा०का।
"राजीवाः सिंहतुण्डाश्च सशस्काश्चैव सर्वशः" इति। राजीवाः पद्मवर्णः मत्स्याः। सिंहतुण्डाः सिंहमुखाः । शरकैः शक्याकारावयवैः पृष्ठभागगतैः सह वत्तन्ते इति मशल्काः। एते सर्वशः श्राद्धे नित्यभोजने च भक्ष्या इत्यर्थः । देवलोऽपि,
"उतूककुररथ्येनग्टधकुक्कुटवायमाः । चकोरः कोकिलो रज्जुदालकश्चाषमझुकौ ॥ पारावतकपोतौ च न भक्ष्याः पक्षिणः स्मृताः । अभक्ष्याः पाजातीनां गोखरोष्ट्राश्वकुञ्जराः॥ सिंहव्याघ्रईशरभाः सीजगरकास्तथा । श्राखुमूषकमार्जारनकुलग्रामशूकराः ॥ श्वस्टगालबकद्वीपिगोलाङ्गलकमर्कटाः" इति । कुररः उत्क्रोशः । मद्गुर्जलकाकः । द्वीपिशब्दो व्याघ्र विशेषपरः । गोलाङ्गलो वानरविशेषः । मर्कटग्रहणं सर्वेषां पञ्चनखानामुपलक्षणार्थम्। अतएव मनुः । “मान्यञ्चनखांस्तथा"-इति । न भक्षयेदिति योजना। अत्र पञ्चनखानां भक्ष्यत्वनिषेधो गोधादिपञ्चकव्यतिरिक्तविषयः । तथाच देवलः,
"पञ्च पश्चनखा भक्ष्या धर्मतः परिकीर्तिताः । __ गोधा कूर्मः शश: श्वाविट शल्यकश्चेति ते स्मताः" इति ॥
धर्मत इति हिंसामकृत्वा क्रयादिप्राप्ता भच्या इत्यर्थः । न चायमपूर्वविधिः, रागप्राप्नत्वात्तद्भवणस्य । नापि नियमः, पक्षप्राण्यभावात्। अतो गोधादिपञ्चनखपञ्चकव्यतिरिना न भक्ष्या इति परिमयैव परिशिष्यते । एवञ्च पति विशेषनिषेधवलात्तन्मांसभक्षणे प्रत्यवायो
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श्चा,पाका.
पराशरमाधवः।
नेतरत्रेत्यवगम्यते । अतएवोकं मनुना,
"न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रत्तिरेषा भूतानां निरत्तिस्तु महाफला"-इति ॥ यत्तु तेनैवोक्तम्,
"नाकृत्वा प्राणिनां हिंमां मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधः स्वय॑स्तस्मान्मासं विवर्जयेत् ॥ समुत्पत्तिश्च मांसस्य बधबन्धौ च देहिनाम् ।
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्" इति ॥ यञ्च याज्ञवल्क्येनापि,
“वसेत्स नरके घोरे दिनानि पशुलोमभिः ।
मंमितानि दुराचारो यो इन्यविधिना पशून"-इति॥ तविषिद्धप्राणिहिंसापूर्वकमांसभक्षणविषयं, न तु क्रयादिप्राप्तमांसभक्षणविषयं, प्राणिवधनिन्दापूर्वकमेव मांसनिषेधस्मरणात् । यच्च मनुनैवोकम्,
"फलमूलाशनर्धन्यवानाच भोजनैः ।
न तत्फलमवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात्” इति ॥ तत्र मांसवर्जनस्य महाफलमाधनत्वं प्रोक्षितादिव्यतिरिक्रविषयम् । अतएवोकन्तेनैव
"प्रोक्षितं भवयेन्मांसं ब्राह्मणस्य च काम्यया।
यथाविधि नियुकश्च प्राणानामेव चात्यये"-इति ॥ प्रोवितमिथिएं मांस, ब्राह्मणस्य काम्यया ब्राह्मणकामनया च,'
* वाहाणाकामनायां च,-इति सो० ना० ।
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१२०
पराशरमाधवः ।
[३०,था०का।
यथाविधि नियुकः श्राद्धे निमन्त्रितश्च, प्राणात्यये दुनिमित्ते व्याधिनिमित्ते वा, मांस भक्षयेदित्यलं प्रमत्यनुप्रमत्या । निमन्त्रितेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो यद्देयं तदाह कात्यायनः,
"तैलमुर्त्तनं स्नानं दन्तधावनमेवच ।
कृत्तरोमनखेभ्यस्तु दद्यात्नेभ्योऽपरेऽहनि"-इति ॥ स्नानं स्नानाधनम्। दन्तधावनं दन्तधावनमाधनं काष्ठादि, दद्यादित्यर्थः । एतत्तैलादिदानमनिषिद्ध तिथिविषयम् । निषिद्धतिथिषु तिलतैलप्रतिनिधित्वेनामलकोदकं दद्यात् । तथाच मार्कण्डेयः,
"अहः षटम मुहूर्त्तषु गतेषु च यतान्* द्विजान। प्रत्येकं प्रेषयेत् प्रेव्यान् प्रदायामलकोदकम्"-दति ॥ अामलकोदकदानमण्यमावास्याव्यतिरिक्रविश्यम् । “धाचीफन्त - रमावास्थायां न स्नायात्" इति स्मृत्यन्तरे निषेधात् । तैलादिदाने विशेषो देवलेन दर्शिनः,
तेलमुर्त्तनं स्नानं स्मानीयञ्च पृथग्विधम् ! ___ पात्रोदुम्बरेदद्या दैवदेविकपूर्वकम्” इति ।। औदुम्बर्ग ताम्रपात्रम् । यत्तु प्रचेतमोक्रम्,
"श्राद्धभुग्यो नखामचंदनं न तु कारयेत्”-दति । तनिषिद्धतिथिविषयम् । श्राद्धदेश प्रकल्यानि द्रव्याणि पुराणऽभिहितानि,
"उपमूलं मननान् कुशास्तत्रोपकल्पयेत् । ।
यवां स्तिलान वीहीः काम्यमापः शुद्ध्यै ममाहृताः ।। * गतेवध च तान्,-इति मु० ।
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३१०,पाका०]
पराशरमाधवः।
७२१
पार्मराजतताम्राणि पात्राणि स्यात्ममिन्मधु ।
पुष्यधूपसुगन्धादि क्षौमसूत्रञ्च मेक्षणम्" इति ॥ तिला जर्तिला ग्राह्यास्तदसम्भवे ग्राम्याः। जलिलक्षणमुक्तं सत्यव्रतेन,
"जर्तिलास्तु तिलाः प्रोक्ता कृष्णवर्णा वनेभवाः" इति। तेषां प्रशस्तत्वमापस्तम्ब शाह,
"अटव्यां ये समुत्पन्ना अकृष्टफलितास्तथा ।
ते वै श्राद्धे पवित्रास्तु तिलास्ते न तिलास्तिलाः'"-इति ॥ निमन्त्रितत्राहाणानामुपवेशनार्थमासनं सषी। तत्र विशेषो मनुनोकः । “कुतपञ्चाशने दद्यात्" इति। कुतपो नेपालदेशप्रभवमेषादिरोमनिर्मितकम्बलः। तदुक्तं स्मृत्यन्तरे,
"मध्याहः खड्गपात्रञ्च तथा नेपाल कम्बलः । रूप्यं दर्भास्तिला गावो दौहित्रश्चाष्टमः स्मृतः ॥ पापं कुत्मितमित्याहुस्तस्य सन्तापकारणम् ।
अष्टावेते यतस्तस्मात् कुतपा इति विश्रुताः” इति ॥ कांस्यपार्मराजतताम्रपात्राणि भोजनार्थमर्चार्थ चोपकल्यानि । अत्र भोजनार्थं पलाप्रपत्रपात्राण्येवोपकल्यानि न त्वन्यपर्णपात्राणि । तथाचात्रिः,
"न मृण्मयानि कुर्वीत भोजने देवपित्र्ययोः । पालाशेभ्यो विना न स्युः पर्णपात्राणि भोजने"-इति ॥
* ते वै श्राद्धेषु देयाः स्युस्तिलास्ते जर्तिलाः स्मृताः, इति मु० ।
91
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७३२
परापूरमाधवः।
[३५०,थाका।
अार्थ त्वन्यपर्णपात्राण्यनिषिद्धानि । अतएव वैजावापः,
"खादिरौडुम्बराण्यय॑पात्राणि श्राद्धकर्मणि । .
अप्यम्मम्मृण्मयानि स्थरपि पर्णपुटास्त या"-इति ॥ अत्रोपकल्पनीयं पुष्यं ब्रह्माण्डपुराणे दर्शितम्,
“शुक्लाः समनमः श्रेष्ठास्तथा पद्मोत्पलानि च ।
गन्धरूपोपपन्नानि यानि चान्यानि कृत्स्नगः" इति ॥ मार्कण्डेयपुराणेऽपि*,
"जात्यश्च सवा दातव्या मलिकाः श्वेतयथिकाः ।
जलोद्भवानि माणि कुसमानि च चम्पकम्” इति॥ यत्वङ्गिरमोक्तम् । “न जातीकुसुमानि न कदलीपत्रम्”–दति। क्रतुरपि,
"असुराणां कुले जाता जाती पूर्वपरिग्रहे।
तस्या दर्शनमात्रेण निराशाः पितरो गताः" इति ॥ अत्र जातीकुसुमनिषेधो वैकल्पिकः। अत्र वानि कुसुमानि मत्स्येनोकानि,
“पद्मविल्वार्कवस्तरपारिभद्राटरूषकाः ।
न देथाः पिट कार्येषु पयश्चैवाविकं तथा"-इति ॥ पारिभद्रो मन्दारः, पाटरूषो वामकः । शङ्खोऽपि,
* नास्त्येतत् मु० पुस्तके। + तेनैवोक्तानि,-इति मु.। । रूष्करः, इति सो• ना ।
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३६०, ख०का० । ]
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पराशर माधवः ।
**
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“उग्रगन्धीन्यगन्धीनि चैत्यवृचोद्भवानि च(१) पुष्पाणि वर्जनीयानि रक्तवर्णानि यानि च" इति ॥
अत्र रक्तवर्णनिषेधो जलोद्भवव्यतिरिक्तविषयः । श्रतएवोक्तन्तेनैव - " जलोद्भवानि देयानि रक्तान्यपि विशेषतः " - दूति । विष्णुरपि । “वर्जयेदुग्रगन्धीनि * कण्टकिजातानि रक्तानि पुष्पाणि च, मितानि सुगन्धीनि कण्टकिजातान्यपि दद्यात् " - इति । धूपद्रव्यमपि विष्णुधर्मोत्तरे दर्शितम्, -
" धूपो गुग्गुलको देयस्तथा चन्दनमारजः । श्रगरुश्च सकर्पूरस्तुरुष्कस्त्वक् तथैवच" - इति ॥
७२३
----
तुरुष्कः मल्लकीवृक्षः, त्वक् लवङ्गम् । मरीचिरपि - "चन्दनागरुणी चोभे तमालोषीरपद्मकम् ” – इति । वर्जनीयधूपद्रव्यं विष्णुराह । "जीवजञ्च सर्वं न धूपार्थम् " - इति । ( जीवजं कस्तूर्यादि ) "चन्दन कुमकर्पूरागरुपद्मकान्यनुलेपनार्थे”इति ।
दीपार्थने द्रव्यमाह मरीचिः, -
“ष्टतादा तिलतैलादा नान्यद्रव्यात्तु दीपकम् " - इति । अत्र चान्यद्रव्यनिषेधो वसामेदोरूपद्रव्यविषयो (९) न पुन: कौसु - म्भादितैलविषयः । श्रतएव -
वर्जयेदुग्रगन्धीन्यगन्धीनि इति मु० ।
(१) चैत्यवृक्षः पूज्यत्वेन ख्यातोवृक्षः । (२) हृन्मेदस्तु वपा वसा, — इत्यमरः ।
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७२४
पराशरमाधवः।
श्व०,या का।
"तेन दीपो दातव्यस्त्वथवाऽन्यौषधीरमैः ।
वसामेदोद्भवं दीपं प्रयत्नेन विवर्जयेत्" इति ॥ तौमसूत्रोपकल्पनं वस्त्रालाभविषयं, मति सम्भवे खौमं वस्त्रमुपकल्पनीयम् । अतएव स्मृत्यन्तरम्,
"कौशेयं दौमकामं दुकूलमहतं तथा ।
आद्वेष्वेतानि यो दद्यात्कामानानोति पुष्कलान्" इति ॥ कौशेयं कृमिकोशोत्थतन्तुजम् । चौममतसौत्वसम्भवतन्तुसम्भवम् । दुकूलमिति सूक्ष्मवस्त्रम् । अहतम्,
“ईषद्धौतं नवं श्वेतं सदनं यत्र धारितम् ।
अहतं तद्विजानीयात् सर्वकर्मसु पावनम्” इति() ॥ एवं दर्भादिमेक्षणान्तं द्रव्यमुपकल्य खात्या शुक्लं वासः परिदथात् । तथाच स्मतिः,
__ "स्नात्वाऽधिकारी भवति देवे पिये च कर्मणि" इति।
"श्राद्धकृच्छुलवामाः स्यात्" इति । खानानन्तरं यत्कर्त्तव्यं तदाह यमः,
"ततः खात्वा निवृत्तेभ्यः प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः ।
पाद्यमाचमनीयश्च सम्प्रयच्छेद्यथाक्रमम्” इति ॥ कृताञ्जलिः स्वागतमित्युका अध्यकृतोपहतियथ पादप्रक्षाखनार्थमाचमनीयञ्चोदकं क्रमेण प्रयच्छेदित्यर्थः । तदनन्तरं ग्टहागणे मण्डलद्दयं कार्यम्। तथाच मस्यः,
(१) कौशेयं कमीत्याद्यारभ्य एतदन्तीग्रन्थो मास्ति मुहितातिरिक्त
पुस्तकेष।
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३५०,याका
पराशरमाधवः।
७२५
"भवनस्याग्रतोभूमौ(३)
गोमयेनानुलिप्तायां गोमूत्रेण तु मण्डले" इति। गोमयसहितेन गोमत्रेण मण्डले कार्य इति शेषः । अत्र विशेषमाह शम्भुः ,
___ "उदकलवमुदीच्य स्थाद्दक्षिणं दक्षिणाप्तवम्” इति ।
उदीच्यं वैश्वदेविक मण्डलमुदक्प्रवणं, दक्षिणं पित्यं मण्डलं दक्षिणप्रवणं कुर्यात्। तत्र मण्डलकरणप्रभृत्याश्राद्धपरिसमाप्तेर्वैश्वदेविकं कर्म प्रदक्षिणं यज्ञोपवीतिना कार्य पित्यमपसव्यं प्राचीनावौतिना(२) कार्यम् । तथाच मनुः,
"प्राचौनावौतिना सम्यगपसव्यमतन्त्रिणा।
पिश्यमानिधनात्कार्यं विधिवदर्भपाणिना"-इति ॥ अत्रैव विशेषान्तरमाह कात्यायनः,
"दक्षिणं पातयेत् जानु देवान्परिचरन् सदा ।
पातयेदितरनानु पिढन्परिचरन् सदा"-दुति॥ शातातपोऽपि,
"उदमुखस्तु देवानां पितृणां दक्षिणामुखः” इति। बोधायनोऽपि,* उदङ्मुखमुदीच्यं-इति सो० शा० । (१) सर्वम्वेवादापुस्तकेषु श्लोकस्यास्य द्वितीयपादो न दृश्यते । (२) यज्ञोपवीतिप्राचीनावीतिनौ, "उपवीतं यज्ञसूत्रं प्राइते दक्षिणे
करे प्राचीनावीतमन्यस्मिन्"-इत्यनेनोन्यौ । अपसव्यं पिटतीथ, "तजन्यङ्गठयोरन्तरा अपसव्यमवसलधि तेन पिटभ्यो दद्यात्”
इत्युक्त।
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पराशरमाधवः।
वि०,या का।
“प्रदक्षिणन्तु देवानां पितॄणामप्रदक्षिणम् ।
देवानामृजवो दर्भाः पितॄणां द्विगुणाः स्मृताः" इति॥ मण्डलकरणानन्तरकर्त्तव्यमाह शम्भुः,
"उत्तरेऽक्षतसंयुतान्पूर्वाग्रान् विन्यसेत् कुशान्।
दक्षिणे दक्षिणाग्रांस्तु सतिलान्चिन्यमेदुधः" इति ॥ मत्स्यपुराणेऽपि,
"अक्षताभिः सपुष्याभिस्तदभ्यर्यापसव्यवत् ।
विप्राणां चालयेत्पादानभिनन्द्य पुनः पुनः” इति ॥ अपसव्यवत् पूर्वमुदीच्यमण्डलं पश्चाद्दक्षिणमण्डलमभ्ययंत्यर्थः । दैवपूर्वकं विप्राणां पादप्रक्षालनं कुर्यात् । अतएव ब्रह्मनिरुक्तम्,
“पाद्यञ्चैव तथैवाध्य दैवमादौ प्रयोजयेत् । ... शनोदेवौति मन्त्रेण पाद्यश्चैव प्रदापयेत्” इति॥ पाद्यादिदानं नामगोत्रोच्चारणपूर्वकं कर्त्तव्यम् । तदुक्तं मस्य
पुराणे,
“नामगोत्रं पितृणन्तु प्रापकं हव्यकव्ययोः" इति । पादप्रक्षालनानन्तरं यत् कर्त्तव्यं तदाह सुमन्तुः,
"दर्भपाणिदिराचम्य लघुवामा जिनेन्द्रियः । परिश्रिते शुचौ देशे गोमयेनोपन्नेपिते ॥ दक्षिणाप्रवणे सम्यगाचान्तान् प्रयतान् शुचौन्।
भासनेषु सदर्भेषु विविकेषूपवेशयेत्” इति ॥ विविक्तेषु परस्परमसंस्पृष्टेष्वित्यर्थः । मनुरपि,
"भासनेषु त कृप्तेषु वर्षिभत्सु पृथक् पृथक् ।
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३५०,पा.का.
पराशरमाधवः।
७२०
उपस्पृष्टोदकान् सम्यग्विांस्तानुपवेशयेत्” इति ॥ उपवेशनप्रकारो यमेन दर्शितः । “श्रासनं संस्पशन् सव्येन पाणिना दक्षिणेन ब्राह्मणमुपसंग्टह्य समाध्यमिति चोक्कोपवेशयेत्”-इति । धर्मेऽपि,
“जान्वालभ्य ततो देवानुपवेश्य ततः पिहन् ।
समस्ताभिर्व्याहृतिभिरामनेषूपवेशयेत्”-इति ॥ श्रादिपुराणेऽपि",
“विप्रौ तु प्रामुखौ तेभ्यो दौ तु पूर्व निवेशयेत्। शानोदेवौतिमन्त्रेण पाद्यं चैव प्रदापयेत्।। .
उत्तराभिमुखान्वितांस्त्रोन् पिटभ्यश्च सर्वदा"-इति ॥ याज्ञवल्क्योऽपि,
"दौ दैवे प्राक् त्रयः पियउदगेकैकमेव वा।
मातामहानामप्येवं तन्त्र वा वैश्वदेविकम्” इति ॥ मातामहानामप्येवमिति संख्यादिनियमयोरतिदेशः। वैश्वदैविकं कर्म श्राद्धद्दयार्थमावृत्त्याऽनुष्ठेयं तन्त्रेण वेत्यभिप्रेत्य तन्त्रं वा वैश्वदैविकमित्युतम् । श्रतएव मरीचिः,
"तथा मातामहश्राद्धं वैश्वदेवसमन्वितम्।
कुर्वीत भक्तिसम्पन्नस्तन्त्रं वा वैश्वदैविकम्” इति ।। अत्र द्वयोरपि श्राद्धयोर्वैश्वदैविककर्मण: तन्त्रावृत्तिविधानादेक
* धादित्यपुराणेऽपि,-इति मु । + नास्तीदमई मुद्रितातिरिक्त पुस्तकेषु।
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७२८
पराशरमाधवः ।
[३१०,या का।
प्रयोगविधिप्रयोज्यत्वं भिन्नप्रयोगविधिप्रयोज्यत्वञ्च प्राप्तम् । ततश्चैकाधिकारपूर्वसाधनत्वं भिन्नाधिकारपूर्वसाधनत्वञ्चावगम्यते । उपविष्टब्राह्मणनियमाः स्मृत्यन्तरे दर्शिताः,
"पवित्रपाणयः सर्वे ते च मौनव्रतान्विताः ।
उच्छिष्टोच्छिष्टसंस्पर्श वर्जयन्तः परस्परम्” इति ॥ मौनित्वञ्च ब्रह्मोद्यकथाव्यतिरिक्तविषयम् । अतएव यमः,
"ब्रह्मोद्याश्च कथाः कुर्युः पितृणामेतदौमितम्" इति। उपविष्टेष्वपि ब्राह्मणेषु यतिब्रह्मचारौ वा यद्यागच्छति, तदा सोऽपि श्राद्धे भोजयितव्यः । तदाह यमः,
"भिक्षुको ब्रह्मचारी वा भोजनार्थमुपस्थितः।
उपविष्टेम्वनुप्राप्तः कामन्तमपि भोजयेत्”-इति ॥ छागलेयोऽपि,
"पूजयेत् श्राद्धकालेऽपि यतिं च ब्रह्मचारिणम् ।
विप्रानुद्धरते पापात् पिटमादगणानपि” इति ॥ मनुरपि,
"ब्राह्मणं भिक्षुकं वाऽपि भोजनार्थमुपस्थितम् ।
ब्राह्मणैरभ्यनुज्ञातः शक्तिः प्रतिपूजयेत्” इति । ब्राह्मणोपवेशनानन्तरं कृत्यं पुराणेऽभिहितम्,
"श्राद्धभूमौ गयां ध्यावा ध्यात्वा देवं गदाधरम् । ताभ्याञ्चैव नमस्कृत्य ततः श्राद्धं प्रवर्तयेत्”-इति॥
* ततश्चैकाधिकारात् पूर्वसाधकत्वं भिन्नाधिकारात् पूर्वसाधकत्वञ्चायगम्यते,-इति सोपा । •धिकारापूर्वसाधनत्वमिति त्वस्माकं प्रतिभाति।
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३५०,पा०का०
पराशरमाधवः।
७२९
श्राद्धं करिष्यत्येवमुपविष्टान् ब्राह्मणान् पृच्छदित्यर्थः। अतएवोक्तं तत्रैव,
"उभौ हस्तौ ममौ कृत्वा जानुभ्यामन्तरे स्थितौ।
सप्रश्रयश्चोपविष्टान् सर्वान् पृच्छत् द्विजोत्तमान्” इति ॥ कुरुष्वेति तैः अनुज्ञातो देवताभ्यः पिलभ्यश्चेति मन्त्रं त्रिः पठेत्। तदुक्तं ब्रह्माण्डपुराणे,
“देवताभ्यः पित्तभ्यश्च महायोगिभ्यएवच । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः ॥
श्राद्येऽवसाने श्राद्धस्य त्रिरावृत्तं जपेत्मदा" इति। अनन्तरं सर्वतस्तिलान्विकिरेत्। तदुक्तं निगमे । “अपहता इति तिलान्विकिरेत्” इति। तिलानिकौर्य दर्भासनं दद्यात् । तदुकं पुराणे,
"कुरुष्वेति स तैरुको दद्याद्दर्भासनं ततः” इति। दर्भासनदानञ्च ब्राह्मणहस्ते उदकदानपूर्वकं कार्यम् । अतएव याज्ञवल्क्या ,--
"पाणिप्रक्षालनं दत्त्वा विष्टरार्थान् कुशानपि” इति ॥ विष्टरार्थानासनार्थान् कुभानामनेषु दत्त्वेत्यर्थः। तदुकं पुराणे,
"आसने चामनं दद्यादामे वा दक्षिणेऽपि वा” इति। वामे वा दक्षिणेऽपि वेत्ययं विकल्पः पिचर्थदेवार्थब्राह्मणमनदानविषयतया व्यवस्थितो द्रष्टव्यः । अतएवोक्तं तत्रैव,
_ "पिटकर्मणि वामे वै दैवे कर्मणि दक्षिणे" इति। देवे कर्मण्यासनदाने विशेषः काठकऽभिहितः । “देवानां भयवा
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७३०
पराशरमाधवः।
[श्च०,धा का
दर्भाः" इति। श्रासनं दत्त्वा पुनर्निमन्त्रयौत। तदाह संग्रहकारः। "ततः पुनरपी दत्त्वा निमन्त्रयेत् । दैवे क्षणः क्रियता, ततः प्रोम् तथेति विप्रो ब्रूयात् । प्राप्नोत् भवानिति कर्ता पुनर्ब्रयात्, प्राप्तवानिति विप्रः पुनर्च्यात्” इति। निमन्त्रणच निरङ्गुष्ठं हस्तं ग्टहीत्वा कर्त्तव्यम् । तदुकं पुराणे,____ “निरङ्गुष्ठं ग्टहीत्वा तु विश्वान् देवान् समातयेत्” इति ।
अङ्गुष्ठव्यतिरिक्त हस्तं शहौवा निमन्य विश्वान् देवान् समाइयेदित्यर्थः। आवाहनेतिकर्तव्यतामाह यमः,- ..
"यवहस्तस्ततो देवान् विज्ञायावाहनं प्रति । आवाहयेदनुज्ञातो विश्वेदेवास इत्यूचा ॥ विश्वेदेवाः स्टणुतेति मन्त्रं जवा ततोऽक्षतान् ।
श्रोषधयेति(१) मन्त्रेण विकिरेतु प्रदक्षिणम्” इति ॥ प्रदक्षिणं दक्षिणपादादिमस्तकान्तमक्षताविकिरेत् भारोपयेदित्यर्थः । विश्वेदेवास्तु दश वृहस्पतिना दर्शिताः,
"क्रतुर्दक्षो वसुः सत्यः कालः कामस्तथैवच । धुनिश्च रोचनश्चैव * तथा चैव पुरूरवाः ॥ आर्द्रवाच । दशैते तु विश्वेदेवाः प्रकीर्तिताः” इति ॥
* धुरी विलोचनश्चैव, - इति मु०। धुरिश्च लोचनश्चैव, इत्यन्यत्र पाठः। + माद्रवाच, इत्यन्यत्र पाठः ।
(१) पोषधयेति, इत्यत्र विसर्गलोपे सन्धिरापः। घोषधय इति,इति कचित् पाठः।
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३१०,या०का |
पराशरमाधवः।
७६१
तेषां मध्ये पुरूरवावसंज्ञका विश्वेदेवा अत्रावाह्याः, पार्वणश्राद्धत्वात् । अतएव शङ्खः,
"इष्टिश्राद्धे क्रतुर्दचः मकौत्त्यौं वैश्वदैविके । नान्दोमुखे सत्यवसू काम्ये च धुनिरोचनौ ॥ पुरूरवाईवौ चैव पार्वणे समुदाहतौ ।।
नैमित्तिके कालकामावेव सर्वत्र कौतयेत्” इति ॥ इष्टिश्राद्धं कर्माङ्गश्राद्धम् । तच्च पारस्करेण दर्शितम्,
“निषेककाले सोमे च सौमन्तोषयने तथा ।
ज्ञेयं पुंसवने श्राद्ध कर्माकं वृद्धिवत्कृतम् (१)"--इति ॥ वृद्धिवदित्यनेन वृद्धिश्राद्धान्न काङ्गश्राद्धमन्यदिति ज्ञायते । नान्दोमुखं वृद्धिश्राद्धम् । तत्स्वरूपं वृद्धवसिष्ठ पाह,___ "पुत्रजन्मविवाहादौ वृद्धिश्राद्धमुदाहतम"-इति ।
त्रादिशब्देनाबप्राशनचूड़ाकरणदिसंस्कारा ग्रान्ते न तु गर्भाधानपुंसवनसीमन्तोन्नयनानि, तत्र क्रियमाणस्य काङ्गश्राद्धत्वात्(२) । काम्यं फलकामनोपाधिकम् ३) । पार्वणममावास्थाश्राद्धम(५)। नैमिसिकं सपिण्डौकरणम् । ननु,
-
(१) निषेककालोगर्भाधानकालः। सोमः सोमयागः । सौमन्तोनयन
पुंसवने गर्भावस्थाकतव्यसंखारविशेषौ। (२) एकमेव वृद्धिलाई तत्र तत्र तत्तहिश्वदेवानां लाभार्थं कम्माङ्गत्वेन
डिभाइत्वेन च परिभाषितमित्यनुसन्धेयम्।। (३) “कामाय तु हितं काम्यमभिप्रेतार्थसिद्धये" इति पुराणेष
स्मयते। (8) "अमावास्यां यत् क्रियते तत् पार्वणमुराहतम्"-इति स्मरणा
मिति भावः।
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पराशरमाधवः।
[श्षा,पाका
"एकोदिष्टन् यत् श्राद्धं तबैमित्तिकमुच्यते"इति नैमित्तिकशब्द एकोद्दिष्टे रूढत्वात्कथं मपिण्डौकरणे प्रयुज्यते इति। सत्यं, तथापि तदप्यदैवं कर्त्तव्यम्'-दत्येकोहिष्टस्य देवहीनत्वेन कामकालसंज्ञकानां विश्वेषां देवानामन्वयानुपपरे एकोहिष्टय सपिण्डौकरणं नैमित्तिकशब्देन लक्षणयोच्यते । विश्वा देवानावाद्यार्थ पात्रामादनादि कुर्यात् । तथाच याज्ञवल्क्यः,
“यवैरवपकौर्याथ भाजने मपविपके ।
प्रबो देव्या पयः विधा यवोऽसौति यवांस्तथा” इति ॥ मत्स्यपुराणेऽपि,
“विश्वान् देवान् यवैः पुष्पैरभ्यामनपूर्वकम् ।
पूरयेत्पात्रयुग्मन्तु स्थाप्य दर्भपवित्रके"-इति ॥ प्रचेता अपि,
“एकैकस्य तु विप्रस्य अर्थं पाचे विनिक्षिपेत् ।
यवोऽसौति यवान् को (१) गन्धपुष्यैः सुपूजितम्" इति ॥ अर्घ्यपाचाणि मौवर्णराजतादौनि। तदाह कात्यायनः । “सौवर्णराजतौदुम्बरखड्गमणिमयानां पाषाणामन्यतमेषु, यानि वा विद्यन्ते, पत्रपुटकेषु वा"-इति । थामि वा तेजमानि कांस्यादौनि, तेषु वेत्यर्थः । राजतं पाचं पिव्ये विनियुज्यते, न दैवे । तदाह राजतं पात्रमधिसत्य,
(१) कोवा विक्षिप्य । “कृ विक्षेपे” इति स्मरणात् ।
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३१०,या का
पराशरमाधवः।
"शिवनेत्रोद्भव(१) यस्मादतस्तत् पित्वालभम् ।
अमङ्गलं तत् यत्नेन देवकार्येषु वर्जितम्” इति ॥ अर्घ्यपवित्रकं प्रतिपात्रं भेदेन कार्यम् । तदुक्तं चतुर्विशतिमते,___ "डे वे शलाके देवानां पात्रे कृत्वा पयः चिपेत्” । पवित्रकरणेतिकर्त्तव्यतामाह याज्ञवल्क्यः,
“पवित्र स्थ इति मन्त्रेण वे पवित्र च कारयेत् । .. अन्तर्दर्भ कुशच्छिन्ने कौशे प्रादेशसमिते” इति । कुशछिन्नति कुशमन्तरे कृत्वा छिन्ने। अतएव यज्ञपार्श्वः,
"श्रोषधौमन्तरे कृत्वा अङ्गष्ठाङ्गलिपर्वणोः । छिन्द्यात् प्रादेशमात्रन्तु पवित्रं विष्णुरब्रवीत् ॥
न नखेन न काष्ठेन न लोहेन न मृण्मयात्"-दुति ! अनन्तरं, स्वाहाा इति मन्त्रेण देवतार्थं ब्राह्मणसमीपेऽर्घ्यपात्रं स्थापयेत् । तथाच गार्यः,___ "खाहेति चैव देवानां होमकर्मण्युदाहरेत्” इति ।
देवानां होमकर्मण्यय॑दाने कर्मण्युपस्थिते पात्रं स्थापयितुं खाहाा इति मन्त्रमुच्चारयेदिति प्रकरणदेव गम्यते । अर्ध्वपाचं स्थापयित्वा विप्रहस्तेऽयं दद्यात्। तदाह याज्ञवल्क्यः,
“या दिव्या इति मन्त्रेण हस्तेम्वयं विनिक्षिपेत् ।” अर्घ्यदाने विशेषमाह गार्यः,
"दत्त्वा हस्ते पवित्रन्तु संपूज्यार्थ विनिक्षिपेत्” इति । (१) “सोऽरोदौत्, यदरोदौत् तत् रुद्रस्य रुद्रत्वं तस्य यदश्र व्यशौर्यत
तमजतमभवत्" इति ब्राह्मणवाक्यमधानुसन्धेयम् ।
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पराशरमाधवः।
[३ष,या का।
हस्तेविति बहुवचनमुपक्रमगतैकवचनानुरोधादविवचितम् । तदनन्तरमुदकपूर्वकं गन्धादि देयम्। तथा च याज्ञवल्क्यः,
"दत्त्वोदकं गन्धमात्यं धूपदानं प्रदीपकम्” इति । गन्धादिदानमाच्छादनस्याप्युपलक्षणं, तदन्तर्गतत्वात् । एवमासनप्रभृत्याच्छादनपर्यन्तं वैश्वदेविकानं काण्डानुसमयेन(१) कृत्वा पासमाद्याच्छादनपर्यन्तं पिचनं प्राचौनावौत्यप्रदक्षिणं कुर्यात् । तदाह याज्ञवल्क्यः,
"अपसव्यन्ततः कृत्वा पिढणामप्रदक्षिणम्” इति । ननु दैवे पिव्ये च श्रासनाद्याच्छादनपर्यन्तानां पदार्थानामपि पदार्थानुसमयेनैवानुष्ठानं न्याय्यं न तु काण्डानुसमयेन । पदार्थानुममये हि तेषां प्रधानप्रत्यासत्तिर्भवति अवैषम्यं च, अन्यथां केषाञ्चित् प्रधानप्रत्यासत्तिः केषाञ्चिति वैषम्यमापद्येत। सत्यम, आसनादिपदार्थषु वचनबलात्काण्डानुसमयएव स्वीक्रियते । वाचनिकत्वञ्च, 'अपसव्यं ततः कृत्वा'-इति वैश्वदैविकासनादिपदार्थकाण्डादूद्धं पिचनविधानात् । श्रासनादिदानप्रकारमाह मण्व,
“विगुणस्तु कुशान् दत्वा ह्युमन्तवेत्युचा सह । आवाह्य तदनुज्ञातो अपेदायान्तु न स्ततः ॥ यवार्थास्तु तिलैः कार्याः कुर्यादादि पूर्ववत् ।
दत्वाऽध्य संसवांस्तेषां पात्रे कृत्वा विधानतः ॥ (१) देवे रकैक काण्डं छत्वा पिये तत् कर्त्तव्यमिति काण्डानुसमयः। दैव
एकैकं पदार्थं कृत्वा पिये स पदार्थः कर्तव्य इति पदार्थानुसमयः । पदार्थसमूहः काखम् । तथाच देवे बासनप्रभृत्वाच्छादनान्तकृत्यधर्मवमापनानन्तरं पिचो तपकरणोपदेशादन काण्डानुसमयः ।
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३१०,मा.का
पराशरमाधवः।
पिढभ्यः स्थानमसौति न्युजं पात्रं करोत्यधः” इति ॥ द्विगुणान् द्विगुणभुमान् मतिलान् कुशानासनार्थं ददात् । तदुक्तं काठके। “पितॄणां द्विगुणांस्तिलैः” इति ।
श्रासनदानात्पूर्वं पश्चाच्चोदकं दद्यात् । तथा चाश्वलायनः । "अपः प्रदाय दीन् द्विगुणभुनानासनं प्रदाय” । अध: प्रदायेति श्राद्धे क्षण: क्रियतामिति पूर्ववत् जलं दत्त्वा । पिहनावा हयिष्ये इति ब्राह्मणान् स्पृष्ठा आवाहयेति तैरनुज्ञातः उशन्तस्वेनि मन्त्रेणावार नमो वः पितर इति तिलान् मस्तकादिदक्षिणपादान्तमवकीर्यायान्त नः पितर इति मन्त्रेणोपतिष्ठते । तथाच प्रचेताः,
"शिरःप्रभृति पादान्तं नमो व इति पेटके"-दति । उपस्थानानन्तरकृत्यमुक्तं पुराणे,
"जपेदायान्तु नः इति मन्त्रं सम्यगशेषतः । रक्षार्थं पिटसत्रस्य विकृत्वः सर्वतो दिशम्
तिलांस्तु प्रक्षिपेन्मन्त्रमुच्चार्यापहता इति" ॥ श्राद्याच्छादनान्तं पूर्ववत् कुर्यात्। अत्राथपात्रासनादौ विशेषोविष्णुना दर्णितः । “दक्षिणाग्रेषु दक्षिणापवर्गषु चमसेषु त्रिवपश्रामिञ्चेच्छनोदेवौरिति”। अयमर्थः । दक्षिणाग्रेषु दर्भषु दक्षिणापवर्गतयाऽऽसादितेषु पवित्रान्तर्हितेषु चमसेषु त्रिवर्णपात्रेषु शबोदेवीरभिष्टयति मन्त्रेण प्रतिपात्रमप भाभिच्चेदिति । शौनकोऽपि । “पात्रेषु दर्भान्तर्हितेष्वपः प्रदाय गरोदेवीरभिष्टयइत्यनुमन्त्रितासु तिलानावपति, तिलोऽमि सोमदेवत्यो गोमवो देवनिर्मितः । प्रनमद्भिः प्रत्नखधया पितृनिमाँसोकाम्प्रौणयाहि नः
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पराशरमाधवः।
[३१०,या का।
खधानम इति” । अत्र च पित्रादौनां त्रयाणामेकैकस्यानेकब्राह्मणनिमन्त्रणे सर्वेषामेकब्राह्मणनिमन्त्रणेऽपि त्रौण्येवाय॑पात्राणि न तु ब्राह्मणसङ्ख्यया । अतएव वैजवापः,
"स्तौ| पितॄणां त्रीण्येव कुर्यात्यात्राणि धर्मवित् ।
एकस्मिन्वा बहुषु वा ब्राह्मणेषु यथाविधि" । स्तोर्खा तिलानयॊदकेषु विवेत्यर्थः । अर्थपवित्रञ्चायुग्मसङ्ख्यया कर्त्तव्यम् । तदुक्तं चतुर्विंशतिमते,
"तिस्रस्तिस्त्रः शलाकाः स्युः पिटपात्रेषु पार्वणे” इति । तिलप्रक्षेपानन्तरं गन्धपुष्पाणि प्रक्षिपेत् । तदुक्तं ब्रह्मपुराणे,___ “पाः पुष्यैश्च गन्धैश्च ताः प्रपूज्याश्च शास्त्रवत्”-इति ।
या अास्ता प्रापस्ता गन्धादिभिः पूज्या इत्यर्थः । अनन्तरकर्त्तव्यमाह शौनकः,-"ताः प्रतिग्राहयिष्यन् स्वधार्ष्या इति”। ताअपो ब्राह्मणैः प्रतिग्राहयिष्यन् स्वधार्ष्या इति मन्त्रेण स्थापयेदित्यर्थः। ततः पवित्रान्तहितेषूदकपूर्वकं या दिव्या इति मन्त्रेणार्थीदकं दद्यात् । तथाच पैठौनमिः। “ततो ब्राह्मणहस्तेषूदकपूर्व दर्भान्प्रदायोदकपूर्वकम_दकं ददाति या दिव्या इत्युकाऽसावेतत्ते अर्घादकमित्यप उपस्पश्यैवमेवेतरयोः” इति । अत्र विशेषमाह धर्मः । “या दिव्या भाप इति पात्रं पाणिभ्यामुद्धृत्य नाम गोत्रञ्च ग्टहीत्वा मपवित्रहस्तेऽध्यं दद्यात्" इति । यत्तु पैठौनसिवचने हस्तेविति बहुवचनम्, तत् त्रौं स्त्रीनेकैकवेति विहितब्राह्मणमझ्यापक्षे। ब्राह्मणहस्तेषदकपूर्व दर्भान्प्रदायेति पित्रर्थब्राह्मणाचनएव बहुवचनप्रयोगात् । अन्यथा, एवमितरयोरिति पितामहप्रपितामहार्थवाहणा
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खा,पाका
पराशरमाधवः।
चनस्य पृथग्विधानं न स्यात् । ()एवमयं दत्वा तेषाम|दकानां संत्रवान् विप्रहस्तेभ्यः पात्रेषु गलितान् पिटपाने मंग्टह्य तत्याचं न्युजमधोमुखं “पिढभ्यः स्थानममि"-इत्यधः कुर्यात् भूमौ निद. ध्यात् इत्यर्थः । न्युअकरणानन्तरकर्त्तव्यमाइ वैजावापः,
"तस्योपरि कुशान्दवा प्रदद्यादेवपूर्वकम् ।
गन्धपुष्पाणि धूपञ्च दोपवस्त्रोपवीतकम्” इति ॥ दैवपूर्वकमित्ययं पदार्थानुसमयो याज्ञवलक्योक्नकाण्डानुसमयेन सह विकल्पते इत्यविरोधः । एवं गन्धपुष्पादिभिर्बाह्मणानभ्यर्यायौ करणाख्यं कर्म कुर्यात् । तदाह कात्यायनः,
"गन्धाब्राह्मणमात्याला पुष्पाण्य॒तुभवानि च ।
धूपं चैवानुपूर्वण अग्नौ कुर्यादतः परम्" इति । अग्नौ करणप्रकारमाह याज्ञवल्क्या,
"अग्नौ करिष्यन्नादाय पृच्छत्यवं तलुतम् । कुरुष्वेत्यभ्यनुज्ञातो हुवाऽमौ पिढयज्ञवत् ॥ इतशेषं प्रदद्यात्तु भाजनेषु समाहितः ।
यथालाभोपपन्नेषु रौप्येषु तु विशेषतः” इति ॥ श्रमौ करिष्यन् घृतप्लुतमन्नमादाय “अग्नौ करिव्ये”-इति ब्राह्मणान् पृच्छेत् । तशब्देन शाकादेनिरासः । ततः कुरुष्वेति तैरनुज्ञातः, “सान्निध्यमुपसमाधाय* मेक्षणेनावदाय सोमाय पित्मते खधा
__ * सन्निधावुपसमाधाय, इति मु० । (१) दत्त्वाऽयं संखवास्तेषां (७३४।६) इति याज्ञवल्क्यवचनं व्याचछे एव
मध्यं दत्त्वेत्यादिना।
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७३०
पराशरमाधवः।
श्व०,चाका ।
नमोऽनये कव्यवाहनाय स्खधानमः" इति पिण्डपित्यज्ञविधानेमानौ जुहुयात् । ततोमेक्षणं हुवा हुतशेषं यथालाभोपपनेषु पित्रादिभाजनेषु दद्यात् न वैश्वदेवभाजनेषु । तदुकं पुराणे,____ “अनौकरणशेषन्तु न दद्यादैश्वदैविके" इति ।
अनौकरणञ्च प्राचीनावौत्युपवीतौ वा कुर्यात् । तत्प्रकृतिभूतस्य पिण्डपित्यज्ञस्य दैविकत्वपैटकत्वाभ्यामुभयविधवेन विकल्पितोभयधर्मकत्वात्, तद्विकृतिभूताग्नौकरणहोमेऽपि प्राचौनाबौतित्वोपवौतिवयोर्विकल्पोऽवगम्यते। अत्र च यथाशाखं व्यवस्था द्रष्टव्या । अनौकरणञ्च स्मार्त्तत्वेन विवाहाम्रो कर्त्तव्यम् । यदा तु सर्वाधानेनौपासनामिनास्ति, तदा दक्षिणानौ जुहुयात्, तदमविधाने लौकिकानौ । तथा च वायुपुराणम्,
"अाहत्य दक्षिणाग्निन्तु होमार्थं वै प्रयत्नतः ।
अन्यर्थं लौकिकं वाऽपि जुहुयात्कर्ममिद्धये"-इति । अग्न्यर्थमौपासनामिकार्यसिद्ध्यर्थम् । दक्षिणायमविधाने पाणी होमः कर्त्तव्यः । तथा च स्मृत्यन्तरम्,____ "हस्तेऽमौकरणं कुर्य्यादनौ वा सानिको विजः" इति ।
सामिकः सर्वाधानेनाहितानिर्दक्षिणान्यमबिधाने हस्ते लौकिकेऽनौ वाऽौकरणं कुर्यादित्यर्थः । यदा वर्धाधानेनाहितानिरप्पमिमान्। तदोपासनानावनोकरणं कुर्यात्, तदभावे विजपाणवसु वा। तथाच मार्कण्डेयः, । "अनाहितामिस्खोपासनान्यभावे
* पित्रादिभोजनपात्रेषु.-इति मु० । + यदा व धानेनाहितामिरनाहितामिवाऽमिमान्, इति मु.।
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पा,पाका०]
पराशरमाधवः।
विजेऽस वा"-इति । अमाहितानिशब्देनार्धाधानेनाहितामिर्टयते । अखनौकरणं जलसमोपे श्राद्धकरणे वेदितव्यम् । तदाह कात्यायनः,
"विष्णुधर्मोत्तरे वाऽसु मार्कण्डेयनयः स्मृतः । .. स यदाऽपां समीपे स्थानाद्धं ज्ञेयो विधिस्तदा" इति । यत्तु मनुनोतम्,
"अन्यभावे तु विप्रस्थ पाणवेवोपपादयेत्” इति । तयाचारिविषयम् । तदाह जाकर्ण्यः,
"अग्न्यभावे तु विप्रस्य पाणौ दद्यात्तु दक्षिणे ।
अन्धभावः मतस्तावद्यावहाऱ्यां न विन्दति" इति । विद्यमानेऽप्यनौ काम्यादिषु चतर्ष श्राद्धेषु ब्राधणपाणवेव होमः । तदाहाकाराः,- ...
“अन्वष्टक्यं च पूर्वद्युर्मामिमामि च पाळणम् । काम्यमभ्युदयेऽष्टम्यामेकोद्दिष्टमथाष्टमम् ॥ चतुर्बाधेषु मानौनामग्रौ होमो विधीयते । । पियब्राह्मणहस्ते स्थादुत्तरेषु चतुर्वपि” इति । "हेमन्तगिभिरयोश्चतर्णमपरपक्षाणामष्टम्योऽष्टकाः" इति विहितान्यष्टकाश्राद्धानि। तत्राष्टकाश्राद्धानामुत्तरदिने नवम्या क्रियमाणं श्राद्धमन्वष्टक्यम् । पूर्वयुः सप्तम्यां क्रियमाणं श्राद्धं 'पूर्वद्युः'इति पदेन लक्षणयोक्तम् । प्रतिमासं क्रियमाणमापरपक्षिकं श्राद्धं 'मासिमामि' इत्यनेनोक्तम्। पार्वणं सर्वश्राद्धप्रकृतीभूतममावस्याश्राद्धम्। काम्यं पुत्रादिफलकाममया क्रियमाणं श्राद्धम्। आभ्यु
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पराशरमाधवः।
३१०,०का० ।
दयिकश्राद्धमभ्युदय इति पदेनोकम् । अष्टकाख्यश्राद्धमष्टम्यामिति पदेनोक्तम् । एकोद्दिष्टपदेन सपिण्डीकरणं लक्षणयोनं, मपिण्डौकरणे एकोद्दिष्टस्थापि सद्भावात् । एषां मध्ये प्रायेषु चतर्षु माग्निकानाममावेवाग्नौकरणहोमः, उत्तरेषु माग्नौनां पियवाह्मणहस्तएवेति । पाणौ होमे तु विशेषः कात्यायनेन दर्णितः,
"पित्र्ये यः पत्रिमूर्द्धन्यस्तस्य पाणावननिकः ।
हत्वा मन्नवदन्येषां वृष्णों पात्रेषु निक्षिपेत्”- इति । यत्तु यमेनोक्रम्,
"दैवविप्रकरेऽममिः कृत्वाऽमौकरणं द्विजः" इति। तत्र विकल्पेन व्यवस्था द्रष्टव्या। दैविकब्राह्मणपाणी होमपक्षेऽपि पियवाह्मणपात्रेष्वेव शेषं निक्षिपेत् । अतएव वायुपुराणम्,
"इत्वा दैवकरेऽनग्निः शेषं पिये निवेदयेत् ।
न हि स्मृताः शेषभाजो विश्वेदेवाः पुराणगैः” इति । पाण होमे यत्कर्तव्यं तदाह शौनकः । “अनग्निश्चेदाद्यं ग्टहीत्वा भवत्सेवामौकरणम्-इति पूर्ववत्तथाऽस्विति”। अयमर्थः। श्राद्यं इतनुतमन्नं ग्टहीत्वा "भवत्खेवाग्नौकरणहोमं करिव्ये” इति पूर्ववत् पृष्ट्वा तथाऽस्विति तैरनुज्ञातोजुड्यात्, इति । यमोऽपि,
“अनौकरणवत्तत्र होमोदैवकरे भवेत्।।
पर्यस्तदर्भानास्तीर्य यतो ह्यग्निसमो हि मः" इति । पर्यस्तदर्भाः परिस्तरणयोग्यदर्भाः। दैवकरग्रहणेन पिठ्यब्राह्मण* हेमन्तशिशिरयोरित्यारभ्य एतदन्तोग्रन्यो नाति ना पुस्तके ।
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३ष्य, च्या का० 1]
करोऽप्युपलक्ष्यते । उभयत्रापि विकल्पेना नौकरणस्य विधानात् । पाणितले तस्थान्नस्य विनियोगमाह गृह्यपरिशिष्टकारः, -
पराशर माधवः ।
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"यच्च पाणितले दत्तं यच्चान्यदुपकल्पितम् । ratभावेन भोकव्यं पृथग्भावो न विद्यते ॥
७४१
नं पाणितले दत्तं पूर्वमनन्त्यबुद्धयः । पितरस्तेन तृप्यन्ति शेषान्नं न लभन्ति ते” – इति । यदा दैवविप्रकरे होमस्तदा । पटमातामह श्राद्धदयार्थं सहदेवानुष्ठेयः । देवभेदेऽपि तत्राधिकरणकारकस्य संप्रतिपन्नत्वात् । यदा पित्रा करे होमस्तदा मातामहब्राह्मणकरेऽपि पृथगनुष्ठेयः, वैश्वदे विकतत्वेऽपि तत्राधिकरणकारकस्यासंप्रतिपन्नत्वात् (९) ।
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तथा च कात्यायनः, --
(१) दैवब्रह्मणहस्ते होमविधानपक्षे देवब्राह्मणहस्तएवासौकर होमस्याधारइति सएव तस्याधिकरणकारकं, व्याधारस्यैवाधिकरण कारकतया स्मरणात् । वैश्वदेवभेदेऽपि एकस्मिन् वैश्वदेवब्राह्मणहस्ते नौकर होमे कृतेऽपि शास्त्रोक्तएवाधारे स कृतो भवतीति नास्य पुनरावृत्तिः । पित्र्चब्राह्मणहस्ते होमपते हि पितृब्राह्मणहन्त एव होमस्याधिकरणकारकं भवति । मातामहपते तु न पिब्राह्मणो. वर्त्तते किन्त्वन्यएव । पित्र्यब्राह्मणहस्ते होमविधिस्तु पितृपक्षएव प्रवर्त्तते । तस्य च 'मातामहानामप्येवं ' - इत्याद्यतिदेशबलान्मातामहपते प्राप्तिः । एवच्च पिरब्राह्मणस्थाने मातामचब्राह्मणवत् पितामहस्तस्थाने मातामह ब्राह्मणहस्तोऽपि तत्पक्षीयाग्नौकरणहोमाधारतया अतिदेशेन प्राप्यते इति व्यक्तमधिकर णकारकस्य भिन्नत्यम् । तथाचाधिकरणकारकभेदात् होमोऽपि भेदेनैव कर्त्तव्यइति भावः ।
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७४२
पराशरमाधवः।
[३ब०,या का।
"मातामहस्य भेदेऽपि कुर्यात्तन्ने च* मानिकः” इति । वैश्वदेविकस्य भेदे तन्त्रे च मातामहस्य मातामहार्थब्राहाणस्थापि पाणौ होम साग्निकः कुर्य्यादित्यर्थः । पाचाणि दिः प्रक्षालयेत् । तथा च ब्रह्माण्डपुराणम्,
"प्रक्षाल्य हस्तपात्रादि पश्चादभिर्दिधाभवत् ।
प्रक्षालनं जलं दर्भेस्तिलमिनं क्षिपेछुचौ” इति। हस्तेन निर्मष्टं पात्रादौति मध्यमपदलोपौ समासः । श्रादिशब्देन वृतादिधारणार्थं ग्टह्यते । एवं प्रचालितेषु प्रात्रेषु हुतशेषं प्राचौगावीतौ पिटपात्रेषु निधाय सम्पादितान् पदार्थान् परिवेषयेत् । तथा च शौनकः,
"हत्वाऽयौ परिशिष्टन्तु पिटपात्रेष्वनन्तरम् । निवेद्यैवापसन्येन परिवेषणमाचरेत्” इति । अपसव्येनेति इतषनिवेदनेनान्वेति न परिवेषणेन । अतएव कार्णाजिनिः,
"अपसव्येन कर्त्तव्यं पिश्यं कृत्यं विशेषतः ।
अवदानादृते सर्वमेवं मातामहेष्वपि"--इति । परिवेषणप्रकारो मनुना दर्शितः,
"पाणिभ्यामुपसंग्टह्य स्खयमन्त्रस्य बर्द्धितम् ।
विप्रान्तिके पितॄन् ध्यायन् शनकैरूपनिक्षिपेत्”-इति । अवस्य वर्द्धितमनेन पूर्ण परिवेषणपात्रं विप्रान्तिके भोजनार्थ
* कुर्यात्तत्रैव,-इति ना० शाः ।
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३५०,या का०]
पराशरमाधवः।
पात्रे । स्वयमिति वचनात् वयं परिवेषणं मुख्यम् । अतएव वायुपुराणम्,
"फलस्थानन्तता प्रोता स्वयं तु परिवेषणात्" इति । यत्तु तत्रैवोत्रम्,
“परिवेषणं प्रशस्तं हि भार्यया पिलटतये ।
पिटदेवमनुष्याणां स्त्रीसहायोयतः स्मृतः" इति । तदितरापेक्षया वेदितव्यम् । भार्ययाऽपि सवर्णयैव परिवेषणं कार्य्यम् । तथा च नारायणः,
“यट्रव्यं यत्पवित्रञ्च यत्पिश्यं यत्सुखावहम् ।
द्विजातिभ्यः सवर्णया हस्तेनैव तु दीयते” इति । हस्तेन हस्तदयेनेत्यर्थः । हस्तेनापि न साक्षाद् देयं, अपितु दादिद्वारा । अतएव वृद्धशातातपः,
"उभाभ्यामपि हस्ताभ्यामाहृत्य परिवेषयेत्" इति । मस्येनोक्रम्',
"हस्तदत्तास्तु ये स्नेहा लवणव्यञ्जनादयः ।
दातारन्नोपतिष्ठन्ति भोका भुनौत किल्विषम्"- इति । विष्णुपुराणेऽपि,
"नापवित्रेण हस्तेन नैकेन न विना कुशम् ।
नायसेनैव पात्रेण श्राद्धेषु परिवेषयेत्” इति । पायसेन अयोमयपात्रेण नैव परिवेषयेत् । परिवेषणे कानि
* हस्तन, इत्यादिः रतदन्तोग्रन्थो नास्ति ना• पुस्तके ।
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पराशरमाधवः।
[३१०,या का।
पात्राणि प्रशस्तानौत्यपेक्षिते विष्णुः । “प्तादिदाने तेजसानि पाचाणि वा फल्गुपात्राणि वा प्रशस्तानि। अत्र च पिढगाथा भवति,
सौवर्णराजताभ्याञ्च खगेनौदुम्बरेण च ।
दत्तमक्षयतां यान्ति फल्गुपात्रेण वाऽप्यथ"-इति । खड्नेन खड्गम्मृगश्टङ्गकृतदर्यादिना । फल्गुपात्रेण काकोदुम्बरिकाख्यवक्षदारुकृतदादिना । अन्यान्य पि परिवेषणोयान्याह मनुः,
“भक्ष्यं भोज्यञ्च विविधं मूलानि च फलानि च । हृद्यानि चैव मांसानि पानानि सुरभीणि र॥ उपनौयं तु तत्मवं शनकैः सुसमाहितः ।
परिवेषयेत्तु प्रयतः गुणान् सर्वान् प्रचोदयन्” इति । शौनकोऽपि,
"शाकं सर्वमुपानीय निवेद्य च पृथक् पृथक् ।
विधिना दैवपूवं तु परिवेषणमारभेत्” इति । सम्पादितं सर्वपाचेषु प्रक्षिप्य पात्राभिमन्त्रणं कुर्यात् । तदाह प्रचेताः । “सवें प्रकृतं दत्वा पात्रमालभ्य जपेत्” इति । अत्र विशेषमाह याज्ञवल्क्यः,
"दत्वाऽन्नं पृथिवीपात्रमिति पात्राभिमन्त्रणम् । कृत्वेदं विष्णुरित्यन्ने विजांगुष्ठं निवेशयेत्” इति । अनन्तरकर्त्तव्यमाहात्रिः,
"हस्तेन मुक्तमन्नाद्यमिदमत्रमितौरयेत् ।
खाहेति च ततः कुर्यात् खसत्तादि निवर्तयेत् ॥ * खड्न, इत्यादि एतदन्तं नास्ति ना० शा. स. पुस्तकेषु ।
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३०.पा का०॥
पगशरमाधवः ।
०४५
गोत्रमंबन्धनामानि ददमन्नं ततः स्वधा । पिहन क्रमाददौर्यति स्वसत्तां विनिवर्तयेत्” इति । अयमर्थ: । विश्वेभ्यो देवेभ्य इति देवतोद्देशेन शब्दोच्चारणानन्तरमिदमन्नमित्युच्चारयेत्, ततः स्वाहेति मन्त्रमुच्चारयेत्, ततो न ममेति खत्वपरित्यागं कुर्यात्। ततः पित्रादिक्रमात् संबन्धगोत्रनामोच्चारणपूर्वकं* देवतोद्देश कृत्वेदमनमिति प्रदेयं द्रव्यं निर्दिथ्य, खधेति कव्यदानप्रकाशकं मन्त्रमुच्चार्य, न ममेति स्वत्वपरित्यागं कुर्यात् । अनन्तरशत्यमाह लघुयमः,
“अत्रहीनं क्रियाहीनं मन्त्रहीनञ्च यद्भवेत् । सर्वमच्छिद्रमित्युत्का ततो यत्नेन भोजयेत्” इति । अच्छिद्रं जायतामित्युक्वा । अनन्तरकर्त्तव्यमाह प्रचेताः,
“अपोशानं प्रदायाथ सावित्री निर्जपेदथ ।
मधवाता इति उचं (१) मध्वित्येतत्तिकं तथा"-इति । मधु इत्येतत् त्रिरावर्तनीयमिति चतुर्थपादस्यार्थः । माविौं मव्याहतिका जपेत् । तथा च याज्ञवल्क्यः ,
"मव्याहूतिका गायत्रौं मधुवाता इति वचम् ।
जम्वा यथासखं वाच्य भुञ्जौरंस्तेऽपि वाग्यताः" इति । यथासुखमित्यत्र जुषध्वमित्यध्याहारः । अतण्व व्यामः,
* सम्बन्धनामगोत्रोच्चारण पूर्वकं,-इति मु ।
(१) टच, इत्यार्थोऽयं प्रयोगः । “ऋचि बेरुत्तरपदादिक्षोपस छन्द
सि"..इति पाणिनिम्मरणात
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पराशर माधवः ।
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[३५०, पा०का० ।
“जुषध्वमिति ते चोकाः सम्यग्विष्टतभाजनाः । कृतमौनाः समश्नीयुरपोशानादनन्तरम् ” – इति । श्राद्धभोका बलिं न दद्यात् । अतएवाचिः, -
"दत्ते वाऽप्यथवाढते भूमौ यो निचिपेदलिम् । तदनं निष्फलं याति निराशेः पिटभिर्गतम्" - इति ॥ भोजनोपक्रमानन्तर कर्त्तव्यमाह कात्यायनः । “श्रश्नत्तु जपेयाहतिपूब्बां गायत्री सप्रणवां सत्त्रिर्वा रक्षोघ्नीः पित्र्थमन्त्रान् पुरुषसूक्रमप्रतिरथमन्यानि च पवित्राणि ( ९ ) " - इति । मनुरपि -
“स्वाध्यायं श्रावयेत्पित्र्ये धर्मशास्त्राणि चैव हि ।
श्राख्यानानीतिहासांख पुराणानि खिलानि च(९)" इति । अत्र सूजपो यज्ञोपवीतिना कर्त्तव्यः । श्रतएव यमदग्निः, - “अपसव्येन कर्त्तव्यं सर्व्वं श्राद्धं यथाविधि ।
स्तोत्रजपं मुका विप्राणाञ्च विमर्ज्जनम्" - इति ॥ दाटभोक्तृनियमानाह वृद्धशातापतः, --
“अपेक्षितं योन दद्यात् श्राद्धार्थमुपकल्पितम् । कृपणो मन्दबुद्धिस्तु न स श्राद्धफलं लभेत् ।
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}
(९) ऋग्वेदीय ४|४|१० पञ्चमक्कगता ऋचः रक्षेन्नाः । (२) खाध्यायेोवेदः । धर्म्मशास्त्राणि मानवादीनि । व्याख्यानानि सौपर्ण - मैत्रावरुणादीनि । इतिहासामहाभारतादयः । पुराणानि " सर्गख प्रतिसर्गश्च वंद्येामन्वन्तराणि च । वंशानुचरितचैव पुराणं पञ्चलक्षणम्" -- इत्युक्वलक्षणानि ब्रह्मपुराणादीनि । खिलानि श्रीसूक्त - शिवसङ्कल्पादीनि ।
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३ख,बा.का.
पराशरमाधवः
अपेक्षितं याचितव्यं श्राद्धार्थमुपकल्पितम् ।
न याचते दिजोमूढः स भवेत् पिघातकः” इति । ननु,
“याचते यदि दातारं ब्राह्मणे जामदुर्वलः । पितरस्तस्य दुष्यन्ति दात कुर्न संशयः" इति । "कृच्छ्रद्दादशरात्रेण मुच्यतेऽकर्मणस्ततः ।
तस्माद्विद्वान्नैव दद्यान्न याचेन च दापयेत्”-इति वायुपुराणस्मृतौ विरुध्येयातामिति चेत् । मैवम् । तयोरनुपकल्पितविषयत्वेनाप्युपपत्तेः । उपकल्पितवस्तुनोऽप्यत्यन्ताधिकस्य दानप्रतिग्रहौ शङ्खलिखिताभ्यां निषिद्धौ। “नात्यन्ताधिकं दद्यान प्रतिग्रहीयात्" इति । अनपेक्षितवस्तुनो निवारणप्रकारमाह निगमः,
"नानपानादिकं श्वाद्धे वारयेन्मुखतः क्वचित् ।
अनिष्टत्वाइहवादा वारणं हस्तसंजया"-इति । वारणं याचनस्याप्युपलक्षणार्थम् । मुखतोयाचने मौनभङ्गाविशेषात् । अपेक्षितवस्तु ददामौत्युक्वा न देयम् । तथाच यमः,
“यावद्धविष्यं भवति यावदिष्टं प्रदीयते ।
तावदन्ति पितरो यावनाह ददाम्यहम्” इति । भोजनकाले दादनियमाः ब्रह्माण्डपुराणे दर्शिताः,
“न चात्रु पातयेत् कर्ता* नाशद्धां गिरमौरयेत् ।
* आतु,-इति मु।
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पराशरमाधवः।
ख.,मा.का.।
न चोद्यौचेत भुञानान् न च कुर्वीत मत्मरम् । न दोनोनापि वा क्रुद्धो न चैवान्यमना नरः ।
एकाग्रमाधाय मनः श्राद्धं कुर्यात्मदा बुधः" इति । भोनियममाह सुमन्तुः,
"अक्रोधनो रसान सम्यगद्याघद्यस्य रोचते ।
श्रा हप्तीजनन्तेषां कामतो नावशेषणम्" इति । निगमेऽपि । “वृष्णों भुनौरन् न विलोकयमाना अनुमृत्य पाचम्" इति । बोधायनोऽपि,
"पादेन पादमाक्रम्य योभुङ्कोऽनापदि द्विजः ।
नेवासौ भुज्यते शाद्धे निराशाः पितरोगताः" इति । प्रचेता अपि,
"पौत्वाऽऽपोभानमनीयात् पात्रे दत्तमगर्हितम् ।
सर्वेन्द्रियाणं चापल्यं न कुर्यात्पाणिपादयोः” इति । मनुरपि,
“प्रत्युष्णं सर्वमन्नं स्थादनऔरंश्चैव वाग्यताः ।
न च विजातयोब्रूयुर्दात्रा पृष्टा हविर्गुणान्” इति । अनौरंचवेत्येवकारः प्रमादात्परस्परसंपणेऽपि भोजनानिवृत्त्यर्थः। अतएव भवः,
* सम्यगादद्यायदि,-इति मु.।। + क्रमतो,--इति ना। । पविलोकयन्तोनोडत्य, इति मु. ।
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३५.,चाका
पराशरमाधवः ।
988
"श्राद्धपको तु भुञ्जानो ब्राह्मणो ब्राह्मणं स्पृशेत् ।
तदनमत्यजन् भुक्का गायत्र्यष्टशतं जपेत्” इति । पुनः मएव,
"हकारेणापि योब्रूयाद्धस्तादाऽपि गुणान्वदेत् । भूतलाञ्चोद्धरेत्पात्रं मुश्चेद्धस्तेन वाऽपि तत् । प्रौढ़पादोवहिःकचोवहिर्जानुकरोऽथवा । अङ्गष्ठेन विनाऽभाति मुखशब्देन वा पुनः । पौतावशिष्टन्तोयादि पुनरुद्धत्य वा पिवेत् । खादिताद्धं पुनः खादेन्मोदकानि फलानि वा । मुखेन वा धमेदन्नं निष्ठौवेभाजनेऽपि वा ।
इत्थमन्नन् द्विजः श्राद्धं हत्वा गच्छत्यधोगतिम्” इति । पौढ़पादः श्रासनाद्यारूढ़पादः। वहिःकक्षउत्तरवासोवहि तकक्षद्वितयः* । दाढनियममाह शङ्खः,
“श्राद्धे नियुक्कान् भुञ्जानान पृच्छेलवणादिषु । उच्छिष्टाः पितरोयान्ति पृच्छतो नात्र संशयः ।
दातुः पतति वाहुर्वै जिहा भोनुश्च भिद्यते” इति । अन्यानपि भोक्तनियमानाह प्रचेताः,
“न स्पोद्दामहस्तेन भुञ्जानोऽन्नं कदाचन । न पादौ न शिरोवस्तिं न पदा भाजनं स्पृशेत् । भोजनन्तु न निःशेषं कुर्यात् प्राज्ञः कथञ्चन ।
* प्रौपादः, इत्यादिरेतदन्तोग्रन्थोनास्ति ना• पुस्तके ।
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५.
पराशरमाधवः।
[३०,वाका ।
अन्यच दधः चौराहा चौद्रात् सभ्यएवच"-इति । न च, "न निन्देयुनावशेषयेयुः" इति जमदमिवचनविरोधः,इति वाच्यं, तस्थाधिकावशेषणविषयत्वात् । अतएवोकन्तेनैव । "अल्पं पुनरुत्मष्टव्यन्तस्थासंस्कतप्रमौतानां भागधेयत्वात्" इति । उच्छिष्टयासंतप्रमौतादिभागधेयत्वञ्च मनुराह,
"असंतप्रमोतानां त्यागिनां कुलयोषिताम् ।
उच्छिष्टभागधेयं स्याद् दर्भेषु विकिरच यः" इति । , एवं नियमेन भुक्तवत्सु विप्रेषु यत् कर्त्तव्यन्तदाह प्रचेताः,
__"हप्तान् बुद्धाऽत्रमादाय मतिलं पूर्ववजपेत्" इति ।
पूर्ववत्मव्याहतिकाङ्गायत्री मधुमतौञ्च जपेत्, इति । तदाह कात्यायमः । “गायत्रौं मधुमतौं मधुमध्विति च जवा हप्ताः स्थति पृच्छति”-इति । प्रश्नानन्तरं व्यामः,
"बताः स्येति च पृष्टास्ते ब्रूयुस्तताः स्म इत्यथ"-दति । अनन्तरकर्त्तव्यमाह मनुः,
"सार्ववर्णिकमबाधं मनीयाशाव्य वारिण।
ममुत्सुनेझुकवतामग्रतो विकिरन्मुवि” इति । सर्ववर्णा व्यञ्चनविशेषा यस्मिंस्तामार्ववर्णिकम् । अत्र विशेषमाह प्रचेताः । “ये अनौति भूवि क्षिपेत्”-दति । भुवि दर्भास्ततायामिति । अतएव मनुना, “दर्भषु विकिरच यः”- दूत्युतम् । विकिरं दत्वा प्राचामेत् । श्रतएव मरीचिः,
"श्राद्धेषु विकिरं दत्वा योनाचामेन्मतिधमात् । पितरस्तस्य षण्मासम्भवन्युटिभोजिमः" इति ।
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३५०,वा का।
परापारमाधवः।
अनन्तरं गण्डूषार्थमुदकं दद्यात् । तथाच मदालसावाक्यम,
"ततस्वाचमनार्थाय दद्याच्चापः महात्मकृत्" इति । पित्र्यबाह्यणपूर्वकं हस्तप्रक्षालनाचमनार्थमुदकं दद्यात् । तदाहविष्णुः । “उदमखेष्वाचमनमादौ दद्यात् ततः प्रानखेषु ततस्तु प्रोक्षणम्” इति । श्राद्धदेणं मम्प्रोक्ष्य दर्भपाणि: सर्वं कुर्यात् । ततः पिण्डनिर्वपणं कुर्यात् । तदाह याज्ञवल्क्यः,
“मर्वमन्त्रमुपादाय सतिलं दक्षिणामुखः ।
उच्छिष्टमन्निधौ पिण्डान् दद्यात्तु पिढयज्ञवत्" इति । अयमर्थः । ब्रह्मणार्थपक्कन्तिलमिश्रं मर्वमन्त्रमुपादाय पिण्डान् कृत्वोच्छिष्टसंनिधौ पिढयज्ञकल्पेन पिण्डान् दद्यात्। एतच्च चस्पपाभावे वेदितव्यम् । यदा तु चरुश्रपणमझावस्तदाऽनौकरणशिष्टरुशेषेण मह सर्वमनमादाय अग्निमन्निधौ पिण्डान् दद्यात् । सदाह मनु:.---
"ौंस्तु तस्माद्धविःशेषात् पिण्डान् कृत्वा ममाहितः ।
औदकेनैव विधिना निव॑पेद्दक्षिणामुखः" इति । उच्छिष्टमविधिस्वरुपमाहात्रिः,
"पितृणामासनस्थानादग्रतस्विथ्वरनिषु ।
* एतत्यरं, 'पेटकब्राह्मणेषु प्रथम हरू प्रक्षालनपूर्वकमाचनार्थमुदक दत्त्वा पश्चादैश्वदेविक ब्राह्मणेषु दत्त्वाऽनन्तरं प्रोक्षितमिति मन्त्रेण श्राद्ध. देशं संप्रोक्ष्य दर्भपाणिः सर्वमुपरिकर्मजातं कुर्यादित्यर्थः' इत्यधिक पाठ मु.।
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७५२
पराशरमाधवः।
श्य,या का ।
उच्छिष्टसन्निधानन्तु नोच्छिष्टासनसन्निधौ”-इति । त्रिवरनिविति उच्छिष्टमंमगरहितासनदशोपलदार्थम् । श्रतएव व्यामः,
"अरनिमात्रमुत्सृज्य पिण्डास्तत्र प्रदापयेत् ।
यत्रोपस्पृशता वाऽपि प्राप्नुवन्ति न विन्दवः” इति । पिण्डदाने कालमाह मनु:,___ "पिण्डनिर्वपणं केचित् पुरस्तादेव कुर्वते” इति ।
भोजनात् पुरस्तादर्चनानन्तरमनौकरणानन्तरं वा पिण्डनिर्वपणं केचिदिच्छन्ति । अपरे त भोजनानन्तरमाचमनादर्वागढे वा ब्राह्मणविमर्जनात् पश्वादा पिण्डनिवपणं कचिदिच्छन्तीति, केचिदित्यनेनावगम्यते । भोजनात् पुरस्तात् पिण्डनिर्वपणं मपिण्डीकरणात् प्राविहितेष्वप्रशस्तेषु श्राद्धेषु, सपिण्डीकरण दिप्रशस्तश्राद्धेष पश्चादेव पिण्डनिर्वपणम् । तदाह लोकाधिः,
"अप्रशस्तेषु यागेषु पूर्व पिण्डावनेजनम् । भोजनस्य, प्रशस्ते तु पश्चादेवोपकल्पयेत्” इति । प्राचमनात् प्रागचं वा ब्राह्मणविसर्जनादूचं वा पिण्डनिर्वषणमिति पक्षाः शाखाभेदेन व्यवस्थिताः । तथाच स्मत्यन्तरम्,
"मुनिभिभिन्नकालेषु पिण्डदानन्तु यत् स्मृतम् । तत् स्वशाखामतं यत्र तत्र कुर्यादिचक्षणः” इति । तत्राश्वलायनशाखिनामाचमनात् प्रागचे वेति पक्षयोः समत्वेन विकल्पः । तथाचाश्वलायनः । “भुक्रवत्वनाचानेषु पिण्डान् निदध्यादाचान्तेषु वा" इति। यस्यां भाखायां कालविशेषोन श्रुतः, तत्र
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३५०, पा०का.]
पराशरमाधवः।
प्रयोगमौकर्यार्थमाचमनादू पिण्डनिर्वपणपक्षएव ग्रहौतव्यः । पिण्डनिर्वपणतिकर्त्तव्यता ब्रह्माण्डपुराणेऽभिहिता,
"मव्योत्तराभ्यां पाणिभ्यां कुर्यादुल्लेखनं द्विजः । प्रघर्षणं ततः कुर्यात् श्राद्धकर्मण्यतन्द्रितः । खण्डनं पेषणं चैव तथैवोल्लेखनक्रिया । वजेणथ कुणैर्वाऽपि उलिखेत् तु महौं दिजः" इति । खण्डनं कुशादेश्छेदनं, पेषणं भूघर्षणं, वज्रशब्देन स्पृश उच्यते(१) । उल्लेखनमन्त्रश्व कात्यायनेन दर्शितः । “उल्लिख्यापहताइति” । अनन्तरं प्रोक्षयेत् । “तामभ्युच्य"-इति श्राश्वलायनस्मरणात् । तत्र कुमानास्तृणुयात् । तदुकं ब्रह्माण्डपुराणे । “क्षिपेत् कुशास्तत्र च दक्षिणाग्रान्" इति । ततोऽवनेजनं कुर्यात् । तदाह सुमन्तुः
"असाववनेनिक्ष्वेति पुरुषं पुरुषं प्रति ।
विस्त्रिरेकेन हस्तेन विदधौतावनेजनम्” इति । प्रमाविति पित्रादौन् नामगोत्राभ्यां सम्बोध्य एकेन दक्षिणहस्तेन प्रतिपुरुषं त्रिस्त्रिरवनेजनमुदकनिर्वपणं कुर्यादित्यर्थः। अत्राश्वलायनेनावनेजने मन्त्रान्तरमुक्तम् । “प्राचौनाबौती लेखां त्रिरुदकेनोपनयेच्छुन्धन्तां पितरः"-इत्यादि। तदविरुद्धं, शाखाभेदेन व्यवस्थोपपत्तेः। पिण्डदानमन्त्राः कात्यायनेन दर्शिताः । “असावेतत्तइति ये च त्वामन्वित्येके” इति । असावित्यमुकगोचामुकशर्मबिति संबोध्य एतत्ते इति मन्त्रेण पिण्डदानं कुर्य्यात् । एके
(१) इत्य मेव पाठः सर्वेध पुस्तकेषु ।
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[३१०,वा का।
ये च त्वामन्विति मन्त्रेण पिण्डदानं कुर्यादित्याहुः । पिण्डदानं च सव्यं जान्वाव्य* कर्त्तव्यम् । तदुक्तं वायुपुराणे,
"मधुमर्पिस्तिलयुतांस्त्रीन् पिण्डानिर्वपेद्बुधः ।
जानु कृत्वा तथा सव्यं भूमौ पिपरायणः” इति ॥ पिण्डदानानन्तरकर्त्तव्यमाह मनुः,
"न्युष्य पिण्डान् पिढभ्यस्तु प्रयतो विधिपूर्वकम् ।
तेषु दर्भेषु तं इस्तं निमृज्यालेपभागिनाम्” इति ॥ तत्र मन्त्री विष्णुना दर्शितः । “त्र पितरो मादयध्वमिति दर्भमूलेष करावघर्षणम्” इति। अनन्तरकर्त्तव्यमाह कात्यायनः । "अत्र पितर इत्युत्कोदङ्मुख श्रातमनादावृत्यामौमदन्त पितरइति जपति" इति। श्रातमनात् प्राणयामोत्यवायुपीडावधि उदङ्मुख प्रामौत, ततोऽनुस्मन्नेव पर्यावृत्यामौमदन्तेति मनसा जपित्वोच्छ्मेत् । अत्र विशेषः कर्मप्रदीपे दर्शितः,
“वामेनावर्त्तनं केचिदुदगन्तं प्रचक्षते। आवृत्य प्राणमायम्य पिढन्ध्यायन्यथाईतः ॥
जपस्तेनैव चावृत्य ततः प्राणान् प्रमोचयेत्” इति । अमी मदन्तेत्यनुमन्त्रणानन्तरं विष्णुः। “श्रमो मदन्तेत्यनुमग्थ्य शेषावघ्राणं कृत्वा शन्धन्तां पितर इति पूर्ववदुदकनिनयनं पिण्डोपरि, ततोऽसावभ्यंक्रेत्यभ्यञ्जनं दद्यादसावंवेत्यञ्चनं, अथ वस्खमभावे
* जान्वाच्य,इति मु° पुस्तके पाठः । । ततखास्त,-इति मु• पुस्तके पाठः ।
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३०, खा० का ० 门
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૭૫૧
दशासूलीं वा एतदः पितरो वासो मानोत् प्रेत्य* पितरो
युङ्क्ष्वम्” - इति । तदनन्तरं व्याघ्रः, -
“गन्धपुष्पाणि धूपञ्च दोपञ्च विनिवेदयेत् ।
ras: पितरो वासो दशान्दत्वा पृथक् पृथक् ” - इति ॥
अर्चनानन्तरं मत्स्यः, -
“यत् किञ्चित्पच्यते गेहे भक्ष्यं भोज्यमगर्हितम् । निवेद्य न भोक्तव्यं पिण्डमूले कथञ्चन" - इति ॥
--
तदनन्तरं वृहस्पतिः, -
---
"अनभ्यचदपाचं तु तेषामुपरि निचिपेत् ” – इति । अनन्तरं विष्णुः । “अथैतानुपतिष्ठेत नमो वः पितर इत्यादिना मनोन्वावामह इति तचान्तेनाथैतान् पिण्डांश्चालयेत् परेतन पितर इति" । श्रनन्तरकृत्यमा हाश्वलायनः । “अग्निं प्रत्येयाद तमधावन स्तोमैरिति श्रभिमनौकरणाग्निं गार्हपत्यं यदन्तरिक्षं पृथिवीम् " - इति । अनन्तरकृत्यमाह मत्स्यः, -
“श्रथाचान्तेषु चाचम्य वारि दद्यात् मक्कत् सकृत् ” – इति । ब्राह्मणहस्तेषु सकृत्सकृदपो दद्यादित्यर्थः । एतदाचमनात् प्राक् पिण्डदानपचे वेदितव्यम् । श्राचान्तेषु तु पिण्डदानपचे श्राचम्य पिण्डदानं कृत्वा ब्राह्मणहस्तेषूदकं सकृत् मद्दद्यात् कुशाच देयाः । पद्मपुराणेऽपि -
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“श्रचान्तेषूदकं दद्यात् पुष्पाणि सयवानि " - इति ।
अत्र यवग्रहणं तिलोपलक्षणार्थं च शब्दः पुनरप्युदकदानसमुच्चय-
* होमानुगतेोन्यत्, - इति मु० पुस्तके पाठः ।
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परापूरमाधवः।
[३१०,या का।
यार्थः । कृतकार्यत्वेन तेषु च यवादिषु कुत्रचित् शुचौ देशे विसृष्टेषु पुनरुदकादिकं दद्यात् । तथा च मत्स्यः,
“श्राचान्तेषु पुनर्दद्यात् जलपुष्पाक्षतोदकम्” इति । अनन्तरकर्त्तव्यमाह मएव,
"दत्त्वाऽऽशौः प्रतिग्टहीयात् द्विजेभ्यः प्राङ्मुखो बुधः। अघोराः पितरः सन्तु मन्त्वियुक्त पुनर्दिजैः ॥ गोत्रं तथा व तां नस्तथेत्युक्रश्च तैः पुनः । दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदाः सन्ततिरेवच ॥ श्रद्धा च नो मा व्यगमबह देयञ्च नोऽस्त्विति ।
एताः सत्याशिषः सन्तु मन्त्वित्युक्तश्च तैः पुनः” इति ॥ अनन्तरं पात्रचालनं कृत्वा स्वस्तिवाचनं कुर्यात् । अतएव नारायणः,
"चालयित्वा तत्पात्रं स्वस्ति कुर्वन्ति ये विजाः । निराशाः पितरस्तेषां शवा यान्ति यथागतम्” इति । पात्रचालने विशेषमाह जाकर्ण्यः,
“पात्राणि चालयेत् श्राद्धे स्वयं शिष्योऽथवा सुतः ।
न स्त्रीभिर्न च बालेन नामज्जात्या कथञ्चन"-इति ॥ स्वस्तिवाचनप्रकारमाह पारस्करः । “स्वस्तौति भगवन् ब्रीति वाचनम्” इति । यज्ञोपवीतौ वैश्वदैविकहस्ते उदकं दत्त्वा पुरूरवावसंज्ञकेभ्यो विश्वेभ्योदेवेभ्यः खस्तौति भगवन् प्र॒हौति कर्ता व्यात् । विप्रेण च वस्तीति वक्तव्यम् । पिटब्राह्मणहस्तेष्वप्येवमेव । * यज्ञोपवीती, इत्यारभ्य एतदन्तोग्रन्थो नास्ति ना. पुस्तके ।
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खा,पाका.
पराशरमाधवः।
अनन्तरकत्यमाह याज्ञवल्क्यः । “ततः कुर्यादक्षय्योदकमेवच"इति । अक्षय्यमस्विति ब्राह्मणहस्ते जलं दद्यादित्यर्थः । मार्कण्डेयोऽपि,
"पितृणां नामगोत्रेण जलं देयमनन्तरम् । ब्राह्मणानां द्विजैर्वाच्यमक्षय्यमिदमस्विति" इति ॥ हस्तेष्वित्यध्याहत्य योजना। अनन्तरं दक्षिणां दद्यात्। मनुः,
"स्वस्तिवाचनकं कुर्यात् अक्षय्योदकमेवच । मतिलं* नामगोत्रेण दद्याच्छक्त्या च दक्षिणाम् ॥ गोभूहिरण्यवासांसि भव्यानि शयनानि च । दद्याद्यदिष्टं विप्राणमात्मनः पितुरेवच । वित्तशाश्येन रहितः पित्भ्यः प्रीतिमाचरन्” इति ॥ अत्र विशेषमाह पारस्करः । “हिरण्यं विश्वेभ्यो देवेभ्यो रजत पिढभ्यः अन्यच्च गोकृष्णाजिनं यावच्छक्यं दद्यात्।।
एकपंक्त्युपविष्टानां विप्राणं श्राद्धकर्मणि ।
भक्ष्यं भोज्यं समं देयं दक्षिण वनुसारतः” इति ॥ . अनुमारत इति, निमन्त्रितब्राह्मणविद्यागुणतारतम्येनेत्यर्थः । पित्र्यद्देशेन दक्षिणदानं प्राचौनावौतिना कार्यम्। अतएव जमदग्निः । “अपसव्यन्तु तत्रापि मत्स्यो भगवान् हि मे मनः” इति । तत्रापि दक्षिणादानेऽपौति। यत्तु तेनैवोत्रम्,
* सलिलं,-इति ना० स० पुस्तकयाः + नव्यानि,-इति मु• पुस्तके । 1 यावच्छकुयात्, इति ना० पुस्तके ।
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पराशरमाधवः।
[श्च०,या का।
"सर्वं कर्मापसव्येन दक्षिणादानवर्जितम्” इति । तद्ब्राह्मणोद्देशेन दक्षिणदानपचे द्रष्टव्यम्। स च पक्षो देवलेन दर्शितः,
"प्राचान्नेभ्यो द्विजेभ्यस्तु प्रयच्छेच्चैव दक्षिणम्" इति ॥ ब्राह्मणोद्देशेन दक्षिणादाने क्रममाह मएव,
"दक्षिणां पिटविप्रेभ्यो दद्यात् पूर्व ततो द्वयोः" इति। वैश्वदेविकब्राह्मणयोरित्यर्थः। अत्र पिढविप्रेन्य इति समभिव्याहाराचतीर्थ षष्ठी(१) । अनन्तरं याज्ञवल्क्यः,- .
"दत्वा तु दक्षिणं प्रत्या स्वधाकारमुदाहरन् । वाच्यतामित्यनुज्ञातः प्रकृतेभ्यः स्वधोच्यताम् ॥ ब्रूयुरस्त स्वधेत्युक्ने भूमौ मिश्चेत्ततो जलम् । विश्वेदेवाश्च प्रौयन्तां विप्रैश्चोक्त इदं जपेत् ॥ दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदाः सन्ततिरेवच । . श्रद्धा च नो मा व्यगमदा देयच्च नोऽस्विति ॥ इत्युक्तोक्का प्रिया वाचः प्रणिपत्य प्रसादयेत् । वाजे वाजे इति प्रोतः पिढपूर्वं विसर्जयेत्” इति ॥ अनन्तरं पुत्रार्थों मध्यमपिण्डं पत्न्यै दद्यात् । तथा च वायुपुराणे,___"पत्न्यै प्रजार्थों दद्यात्तु मध्यमं मन्त्रपूर्वकम्” इति ।
मध्यमं पिण्डमित्यर्थः । तत्प्रकारः । तत्र प्राचीनावौती, "त्रयां (१) पिटविप्रेभ्य इत्यत्र चतुर्थो निर्देशात् तत्समभिव्याहारात् इयोरित्यत्र घश्यपि चतुर्थ्यर्थएवेति भावः । पिट विप्रेभ्य इत्यत्र पिटभ्याति पाठस्तु प्रामादिकरव।
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अ०, बा० का ० 10
त्वौषधीनानुं रमं प्राशयामि भूतकृतं गर्भं धत्ख " - इति पत्न्या - अञ्चलौ मध्यमपिण्डं प्रयच्छेत् । तत्प्राशन * मन्त्रस्तु मत्स्येन दर्शितः, - " श्रधत्त पितरो गर्भमन्तः सन्तानवर्द्धनम् ” - इति । मनुरपि -
" पतिव्रता धर्मपत्नी पितृपूजनतत्परा । मध्यमन्तु ततः पिण्डमद्यात्सम्यक् सुतार्थिनौ । श्रनन्तं सुतं विन्देत् यशोमेधासमन्वितम् ॥ धनवन्तं प्रजावन्तं धार्मिकं सात्विकं तथा " - इति ।
पराशर माधवः ।
पिण्डप्रदानस्यायोग्यत्वमाह सएव -
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પૂર
“श्रप्राप्तयौवने वृद्धे सगर्भे रोगसम्भवे ।
वालपुत्रकलत्रेऽपि न दद्यात् पिण्डमञ्जलौ ” - इति । पत्न्या असन्निधानादौ पिण्डानां प्रतिपत्त्यन्तरमाह बृहस्पतिः - “श्रन्यदेशगता पनौ गर्भिणी रोगिणी तथा ।
तदा तं जीर्णवृषभः छागो वा भोक्तुमर्हति ” - इति ॥ आपस्तम्बोऽपि प्रतिपत्त्यन्तरमाह, -
"यदि पत्नी विदेशस्था उच्छिष्टा यदि वा मृता । दुरात्मा नानुकूला च तस्य पिण्डस्य का गतिः ॥ श्राकाशं गमयेत्पिण्डं जलस्थो दक्षिणामुखः । पितॄणां स्थानमाकाशं दक्षिणा दिक् तथैवच" - इति ॥ यत्तु देवलेनोक्रम,—
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* तत्प्रकार इत्यादिः एतदन्तोयन्यो नास्ति मुद्रितातिरिक्त पुस्तकेषु ।
+ पिण्प्रदानस्येत्यारभ्य एतदन्तोग्रन्थो नास्ति मुद्रितातिरिक्त पुस्तकेषु |
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पराशरमाधवः।
[३१०,या का।
"ततः कर्मणि निवृत्ते तान् पिण्टास्तदनन्तरम् ।
ब्राह्मणोऽमिरजो गौवा भक्षयेदभु वा क्षिपेन्”- इति ॥ तत्पुत्रार्थित्वाभावविषयम्। तीर्थश्राद्धे पिण्डानामस्खेव प्रक्षेपः । नदुनं विष्णुधर्मोत्तरे,
"तीर्थश्राद्धे मदा पिण्डान् क्षिपेत्तीर्थ समाहितः ।
दक्षिणाभिमुखो भूत्वा पित्र्या दिक् मा प्रकीर्तिता"-इति ॥ अनन्तरमुच्छिष्टं सम्मार्जयेत् । अतएव याज्ञवल्क्यः,
"तत्रैव सत्सु विप्रेषु दिजोच्छिष्टं न मार्जयेत्'-दति । अयमर्थः। विप्रविसर्जनात् प्रागुच्छिष्टं न मार्जयेदपि तु तेषु विसर्जितेषु पिण्डप्रतिपत्तौ च कृतायामिति । यत्तु व्यामेनोक्तम्,
"उच्छिष्टं न प्रमृज्यात्तु यावत्रास्तमितो रविः” इति । यच् वसिष्ठेनोक्तम्,"श्राद्धे नोदासनीयानि उच्छिष्टान्यादिनक्षयात् ।
योतन्ते वै स्वधाकारास्ताः शिवन्तः कृतोदकाः"--इति । तहान्तरसम्भवविषयम् । अतएव प्रचेताः,
"भृत्यवर्गवृतो भुते कव्यशेषं स्वगोत्रजेः ।
प्राप्तायां श्राद्धशालायां द्विजोच्छिष्टं न मार्जयेत्'-दति ।। उच्छिष्टमार्जनानन्तरं वैश्वदेवं कृत्वा शेषमन्नं ब्राह्मणैः सह भुनौत । तथा च मत्स्यपुराणम्,
* उच्छियान्नानि तत्कमात्,-इति ना पुस्तके । । अासायं श्राइकालेाऽयं,-इति मु. पुस्तके ।
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३० या का।
पराशरमाधवः।
"ततश्च वैश्वदेवान्ते समृत्यसुतबान्धवः ।
भुजौतातिथिसंयुक्तः सर्व पिटनिषेवितम्" इति ॥ यदा श्राद्धं निवर्त्य वैश्वदेवादिकं क्रियते, तदा तच्छेषादेव नत्कार्यम् । तदाह पैठौनमिः,
"श्राद्धं निवर्त्य विधिवईश्वदेवादिकं ततः । कुर्याद्भिक्षां ततो दद्याद्धन्तकारादिकं तथा"-इति ।
आदिशब्देन नित्यश्राद्धं परिग्टह्यते । तत इति पिल्पाकशेषादित्यर्थः । नित्यश्राद्धं पृथक्पाकेन कार्यम् । अतएव तदधिकृत्य मार्कण्डेयः । "पृथक्पाकेन ।त्यन्ये"-इति। अत्र नित्यश्राद्धमप्य-- नियतम् । तदाह सएव,
"नित्यक्रियां पितॄणाञ्च केदिच्छन्ति मानवाः ।
न पितृणां तथैवान्ये शेषं पूर्ववदाचरेत्” इति । यत्तु लौगाक्षिणोक्रम्,
"पित्रथं निर्वपेत्याकं वैश्वदेवार्थमेवच ।
वैश्वदेवं न पित्रर्थ न दार्श वैश्वदैविकम्” इति ॥ तदाहिताग्निकर्ट कश्राद्धविषयं, श्राहिताग्रेः श्राद्धात्प्रागेव वैश्वदेवम्यः तेनैव विहितत्वात् ।
पक्षान्तं कर्म निर्वत्य वैश्वदेवं च साग्निकः । पिण्डयज्ञं ततः कुर्यात्ततोऽन्याहार्यकं बुधः” इति ॥ पक्षान्तं कर्मान्याधानमन्वाहार्यकं दर्शश्राद्धम्(१) । यत्तु पुराणवचनम्,
(१) “पूर्व्वारनिं ग्रहाति उत्तरमहर्यति" इति श्रुत्वा, दर्शपौर्य
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पराशरमाधवः ।
[१५०, पा., का।
"प्रातिवासरिको होमः(१) श्राद्धादौ क्रियते यदि।
देवा हव्यं न ग्टहन्ति कव्यञ्च पितरस्तथा"-इति ॥ तत् पिढपाकादेश्वदेवकरणे वेदितव्यम् । अतएव पैठौनमिः,
"पिटपाकात् समुद्धृत्य वैश्वदेवं करोति यः ।
प्रासुरन्तद्भवेच्छ्राद्धं पितृणां नोपतिष्ठते” इति ॥ यदाऽनौकरणानन्तरं विकिरणनन्तरं वा वैश्वदेविकं कर्म क्रियते, तदाऽपि पृथक्पाकादेव तत्कार्य, तच्छेषाद्वैश्वदेवकरणे दोषस्थात्रापि समानत्वात् २) । अनौकरणानन्तरं वैश्वदेवकरणं च स्मृत्यन्तरेऽभिहितम्,
“वैश्वदेवाहुतौरमावर्वाग्* ब्राह्मणभोजनात् ।
* वैश्वदेवाहुतीः सर्वा पर्वाग् ,-इति मु० ।
मासाङ्गस्याग्राधानस्यामावस्यायां विधानात् पक्षान्तं कम्मामाधानमिति भावः । एवं पिण्ड पिटयज्ञादनु पश्चादायिते इति व्युत्पत्त्या घन्वाहार्यपदेन दर्शश्राद्धमुच्यते । तथाचोक्तम् । “पिढयजन्तु निर्वयं विप्रश्चन्द्रक्षयेऽमिमान् । पिण्डान्याहार्यकं श्राद्धं कुर्यान्भासानुमासिकम्" इति । “पमावास्यां द्वितीयं यदन्याहार्य तदुच्यते"
-इति च। (१) प्रालिवासरिकोहोमो वैश्वदेवहोमः । (२) तच्छेषात् अमौकरणशेषादिकिरण शेषाश्च । तच्छेधादैश्वदेवकरणेऽपि
पिटपाकात् समुद्धृत्यैव तत्करणं भवति, तदानीमपि धनोत्सर्गस्यावतत्वात् । एवञ्च पिटपाकात् समुद्धृत्य इति, प्राविवासरिकोहोम इति वचनदयोक्तदोषोऽत्रापि समानरव भवतीति भावः ।
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३१०, खा० का० ।
पराशरमाधवः ।
जुहुयातयज्ञादि श्राद्धं कृत्वा ततः स्मृतम्" इति ॥ यदि पिटपाकभेषावैश्वदेवं यदि वा पाकान्तरादुभयथाऽपि पिटपाकशेषादेव भोजनम् । तदाह याज्ञवल्क्यः,
“प्रदक्षिणमनुव्रज्य भुनौत पिटसेवितम्” इति । असति तु पिटशेषे पाकान्तरं कृत्वाऽपि भोक्तव्यमेव। अभोजनस्य निषिद्धत्वात् । तथाच देवलः,
"श्राद्धं कृत्वा तु यो विप्रो न भुङकेऽथ * कदाचन ।
देवा हव्यं न ग्टहन्ति कव्यानि पितरस्तथा"-इति ॥ यतः पिवशेषभोजनं नित्यं, अतएवैकादश्यादौ नित्योपवासपचे भोजनप्रत्याम्नायः स्मर्यते,
"उपवामो यदा नित्यः श्राद्धं नैमित्तिकं भवेत् ।
उपवास तदा कुर्यादाघ्राय पिटसेवितम्” इति ॥ पिटमेवितभोजननियमोऽनुज्ञापक्षएव । अतएव गातातपः,
"शेषमन्त्रमनुज्ञातं भुनौत तदनन्तरम् ।
दृष्टैः मार्धन्तु विधिवबुद्धिमान् सुसमाहितः” इति ॥ भोजनानन्तरं दाभोलोनियममाह वृहस्पतिः,
"तानियां ब्रह्मचारौ स्याच्छ्राद्धक्कच्छाद्धिकैः सह ।
अन्यथा वर्तमानौ तौ स्थानां निरयगामिनौ” इति । मत्स्यपुराणेऽपि,
"पुन जनमध्वानं यानमायाममैथुनम् ।
* भुक्त तु,-इति मु०।
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७६४
पराशरमाधवः।
[३, या०, का।
श्राद्धाच्छाद्धभुक्चैव सर्वमेतद्विवर्जयेत् ॥
खाध्यायं कलञ्चैव दिवास्वपञ्च खेच्छया"-इति । श्राद्धभोजिनो विशेषमाह यमः,
"पुनीजनमध्वानं भारमायासमैथुनम्।।
सन्ध्यां प्रतिग्रहं होमं श्राद्धभुत्वष्ट वर्जयेत्” इति । सन्ध्याहोमयोः प्रतिषेधस्वकृतप्रायश्चित्तस्य । कते तु प्रायश्चित्ते कुर्यादेव । श्रतएव भविष्यत्पुराणम्,
“दशकृत्वः पिवेच्चापो गायव्या श्राद्धभुग्विजः । ततः संध्यामुपासीत जपेच्च जुहुयादपि” इति । एवमुक्तरीत्या पार्वणं कर्तुमसमर्थः संकल्पविधिना श्राद्धं कुर्यात् । तदुक्तं स्मृत्यन्तरे,
"अङ्गानि पित्यज्ञस्य यदा कर्तुं न शक्नुयात् ।
संकल्पश्राद्धमेवासौ कुर्याद_दिवर्जितम्”- ॥ व्यासोऽपि,
“त्यकामेः पार्वणन्नैव नैकोद्दिष्टं मपिण्डनम् ।
अत्यनानेस्तु पिण्डोनिस्तस्मात् संकल्प्य भोजयेत्” इति । अयमर्थः। श्रालस्येन योऽग्निं त्यजति म त्यताग्निः, न तस्य श्राद्धेऽधिकारः, किंतु त्यकाग्निव्यतिरिक्रस्य मानिकस्य । विधरादेश्व(१)
* सर्वमेव विवर्जयेत्,--इति ना० । । भाराध्ययनमैथुनम्, इति मु० । । योयजेत्, इत्यादर्शपुस्तकेषु पाठः । परन्तु भोजयेदिति पाठस्यान्यत्र
दर्शनात् सङ्गततया च सरव मले निवेशितः। (१) विधुरोमतभार्यः ।
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३ अ०, था. का.
राशरमाधवः ।
पिण्डोपलचितश्राद्धेऽधिकार उक्रः । यस्मादत्यनानिनाऽधिकारिणा श्राद्धमवश्यं कर्त्तव्यं, तस्माद्विस्मृते* पार्वणविधावशनः संकल्पविधानेन कुर्यादिति । संकल्पविधानलक्षणं मएवाह,
“संकल्पं तु यदा कुर्यात्, न कुर्यात् पात्रपूरणम् ।
नावाहनानौकरणं पिण्डांश्चैव न दापयेत्”-इति॥ उच्छिष्टपिण्डोन दातव्यः,
“संकल्यं तु यदा श्राद्धं न कुर्यात् पात्रपूरणम् ।
विकिरश्च न दातव्यः - इति स्मृत्यन्तरात् । एवं दर्भ कर्त्तव्यं पार्वणश्राद्धमुक्तं, अथ तद्वितिभूतं प्रत्याब्दिकं निरूप्यते। तत्र लौगाधिः
"श्राद्धं कुर्यादवण्यन्तु प्रमौतपित्तकः खयम् ।
दुन्दुक्षये मासि मासि वृद्धौ प्रत्यब्दमेवच” इति ॥ तचेतिकर्तव्यतामाह जावकर्यः,
"पितुः पिढगणस्थस्य कुर्यात् पार्वणवत्सुतः ।
प्रत्यब्दं प्रतिमास विधिज्ञेयः सनातनः" इति । पितृगणस्थः सपिण्डौकतः । तस्य प्रतिसांवत्सरिकमनुमासिकञ्च श्राद्धं पार्वणविधिना कुर्यात् । यमदमिरपि,
"आसाद्या महपिण्डत्वमौरसो विधिवत् सुतः । कुर्वीत दर्शवच्छ्राद्धं मातापित्रोमतेऽहनि" इति ।
* तस्मादिस्तते,-इति पाठोऽत्र भवितुं युक्तः । + थापाद्य,-इति पाठीमम प्रतिभाति ।
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७६६
पराशरमाधवः।
[३१०, खा० का० ।
ननु दातिदेशान्मातामहानामपि श्राद्धं प्रसज्येत(१)। नायं दोषः । प्रत्याब्दिके पिण्डानां पर्युदस्तत्वात् । तथाच कात्यायनः,
"कममन्वितं मुक्का तथाऽऽद्यं श्राद्धषोडशम्(२) । प्रत्याब्दिकच्च शेषेषु पिण्डाः स्युः षडिति स्थिति" इति । क—समन्वितं मपिण्डीकरणम्(२) । यत्तु यमेनोकम्,
"मपिण्डीकरणदूर्व प्रतिसम्बत्सरं सुतैः । । मातापित्रोः पृथक्कार्यमेकोद्दिष्टं मृतेऽहनि"-इति ॥ या मृताहं प्रकृत्य व्यासेनोकम,
"एकोद्दिष्टं परित्यज्य पार्वणं कुरुते नरः।
अकृतं तद्विजानीयाद्भवेश्च पिढघातकः” इति ॥ तत्र पार्वणैकोद्दिष्टयोर्विकल्पः। तत्रापि वृद्धवाचारतो व्यवस्था । अमावास्थायां प्रेतपक्षे(४) च मृतानां पार्वणं नियतम्। तदाह
(९) दशैं मातामहानामपि श्राद्धसत्वादिति भावः । (२) कर्पूनम पिण्डदानार्थमवटविशेषोऽन्वष्टक्यश्राद्धे सो विहितः ।
पाद्यं पिटत्वप्राप्तेरादिभूतं, मरणोत्तरं कर्तव्येषु श्राद्धेषु मध्ये प्रथम कर्तव्यं वा । श्राइपोड़, "बादशप्रतिमास्यानि वाद्यं घाण्मासिके तथा । सपिण्डीकरणञ्चैव इत्येतत् श्राद्धयोड़ाम्" इति कात्या
यनेनैव विकृतम् । (३) कात्यायनीये करपे सपिण्डीकरणे कडूंविधानानुपलम्भात् सपिण्डी
करणस्य षोड़शश्राद्धान्तर्गतत्वाच कसमन्धितपदेनान्वरक्यश्राद्ध
ग्रहणमेव युक्तमुत्पश्यामः। (8) प्रेतपक्षोऽश्वयुक्कृष्णपक्षः।
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३१. था. का.
पराशरमाधवः ।
"श्रमाया तु चयो यस्य प्रेतपक्षेऽथवा पुनः ।
पार्वणं तस्य कर्त्तव्यं नैकोद्दिष्टं कदाचन"-इति ॥ यतेस्तु न काप्येकोद्दिष्टं, किं तु सर्वत्र पार्वणमेव । तथाच प्रचेताः
"दण्डग्रहणमात्रेण नैव प्रेतो भवेद्यतिः ।
अतः सुतेन कर्तव्यं पार्वणं तस्य सर्वदा” इति ॥ पत्र केचित्पावणैकोद्दिष्टयोरन्यथा व्यवस्थामाहुः,
"प्रत्यब्दं पार्वणेनैव विधिना क्षेत्रजौरसौ ।
कुर्यातामितरे कुर्युरेकोद्दिष्टं सुतादन”-इति जावकर्यवचनात्(९) । तदयुक्रम्,
"एकोद्दिष्टं तु कर्तव्यमौरसेन मृतेऽहनि ।
मपिण्डौकरणादू मातापित्रोस्तु पार्वणम्"-इति पैठौनसिवचनविरोधात्(२) । जावकर्यवचनं तु क्षयाहव्यतिरिकप्रत्यब्दकर्त्तव्याक्षयटतीयादिविषयत्वेनाप्युपपद्यते। यत्तु सुमन्तुनोकम,
"कुर्याच विधिवक्राळू पार्वणं योऽमिमान् द्विजः । पिबोरननिमान्धौर एकोद्दिष्टं मृतेऽहनि"-इति ॥ तदयुक्तम,
(१) तथा चौरसक्षेत्रणयोः पार्वणमन्येषामेकोहियमिति केषांचिन्मते
व्यवस्था पर्यावस्यति । (२) पैठौगतिवचने औरसस्याप्येकोहिछविधानात्तविरोधः ।
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पराशरमाधवः ।
३
च०,था.का..
“वनयस्तु ये विप्रा ये चैकामय एवच ।।
तेषां मपिण्डनादूर्ध्वमेकोद्दिष्टं न पार्वणम्” इति स्मृत्यन्तरे सानिकस्याप्येकोद्दिष्टविधानात्(२) । एकोद्दिष्टलक्षणमाह याज्ञवल्क्यः,
"एकोद्दिष्टं दैवहौनमेकाधैंकपवित्रकम् । श्रावाहनानौकरणरहितं ह्यपसव्यवत् । उपतिष्ठतामित्यक्षय्यस्थाने विप्रविसर्जनम् ।
अभिरम्यतामिति वदेव्युस्तेऽभिरतास्म ह” इति। कात्यायनोऽपि । “अथैकोद्दिष्टमेकं पात्रमेकोऽर्थ एकं पिण्डं • नावाहनं नाग्नौकरणं नात्र विश्वेदेवाः खदितमिति बप्तिप्रश्नः सुखदितमित्यनुज्ञानमुपतिष्ठतामित्यक्षय्यस्थाने अभिरम्यतामिति विमर्ग अभिरतास्मेत्यपरे"-इति। तच्चैकोद्दिष्टं त्रिविधं, नवं नवमिश्रं पुराणं चेति। अत्र प्रथमाहायेकादशाहान्तविहितं नवश्राद्धम्। तथा चाङ्गिराः,
"प्रथमेऽहि हतीये च पञ्चमे सप्तमेऽपिवा ।
नवमैकादशे चैव तन्त्रवश्राद्धमुच्यते"-इति ॥ वसिष्ठोऽपि,
* एकः पिण्ड इति ना।
(१) वश्मयः श्रौतामिमन्तः। एकामयः मानिमन्तः। (२) तथाच पार्वणैकोद्दिथ्योर्विकल्पव्यवस्थैव साधीयसौति भावः ।
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एम,पा.का.
पराशरमाधवः।
"मप्तमेऽकि हतीयेऽकि प्रथमे नवमे तथा । एकादशे पञ्चमे स्युर्नवश्राद्धानि षट् तथा ॥ केचित्पञ्चैव, नवमं भवेदन्तरितं यदि ।
एकादशेऽशि तत् कुर्यादिति स्मतिकतो विदुः(१)"-इति ॥ अच पक्षदयस्य व्यवस्था शिवख मिना दर्शिता,
"नवश्राद्धानि पञ्चाइराश्वलायनशाखिनः । .
प्रापस्तम्बाः षडित्याहुर्विभाषामैतरेयिणाम्।" इति । वैश्यादौनां विशेषो भविष्यत्पुराणे दर्शितः,
"नव सप्त विशां राज्ञां नवश्राद्धान्यनुक्रमात् ।
श्राद्यन्नयोर्वर्णयोस्तु(र) षडित्याहुमहर्षयः" इति ॥ पक्षां नवश्राद्धानामुपरि कर्त्तव्यमामिकं नवमित्रम् । तथा चावलायनः। “नवमित्रं षडत्तरम्()" इति। मासिकानामुपरि कर्त्तव्यं प्रत्याब्दिकादि पुराणम् । अतएव हारौतेम प्रायश्चित्तकाडे क्रमेण !
* प्रथमेऽडि तीयेऽडि सप्तमे नवमे तथा,-इति ना० । + विभाषा तैत्तिरौयिणाम्, इति ।
प्रायश्चित्तकाण्डकमेण,-इति बा. मु.।
(१) नवमदिनविहितं श्राइं यदि दैवात्तदानीं न छत, तदैकादति ____ तत् कर्तव्यमित्यर्थः । (२) पाद्यन्तयोर्वयो झणशूद्रयोः । (३) परमामुत्तरं घडुतरम् । नवभाडामामुपरि कथमित्वर्थः ।
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७.
पराशरमाधवः।
[३५०,पाका ।
नवमासिकयोः प्रायश्चित्तमभिधायोत्तरकालीनं श्राद्धं पुराणशब्देन व्यवहत्य प्रायश्चित्तं विहितम्,
"चान्द्रायणं नवश्राद्धे प्राजापत्यं तु मासिके ।
एकाहस्तु पुराणेषु प्रायश्चित्तं विधीयते” इति ॥ दत्यं पार्वणैकोद्दिष्टे अभिहिते, अथोभयात्मकं मपिण्डीकरणमुच्यते । तत्र लौगाषिः,
"श्राद्धानि षोड़शापाद्य विदधौत सपिण्डनम्” इति । षोड़श श्राद्धानि जावकर्यन दर्शितानि,
"दादश प्रतिमास्यानि आद्यषाण्मासिके तथा ।
चैपक्षिकाब्दिके चेति श्राद्धान्येतानि षोड़श” इति ॥ पत्राद्यपाण्मासिकाब्दिकशब्दाः जनमामिकोनषाएमामिकोमाब्दिकपराः। द्वादशमासिकानां कालो याज्ञवल्क्येन दर्भितः,
"मृतेऽहनि तु कर्त्तव्यं प्रतिमासं तु वत्मरम् ।
प्रतिसम्बत्मरञ्चैवमाद्यमेकादशेऽहनि"-इति ॥ वत्मरं वत्सरपर्यन्तं मासि मामिमृतेऽहनि श्राद्ध कर्त्तव्यं, मपिण्डौकरणदूर्ध्वं प्रतिसम्बत्मरं मृतेऽहनि कर्त्तव्यं, पाद्यं तु मासिकमेकादोहनि कर्त्तव्यम्(१)। ऊनषाएमामिकादौनां कालमाह गालवः,
"ऊनषाएमासिकं षष्ठे मामाई नमासिकम् । वैपक्षिकं त्रिपचे स्थादूनाब्दं दाद तथा"-इति ॥
• हादशेऽहनि,-इति मु.। (१) बाचं मासिकमूनमासिकमित्यर्थः। तथाच पाद्यमेकादशेऽहनीत्वस्य
खाद्यं दादशमासिकानामादिभूतं तेभ्यः पूर्व कर्तव्यमित्यर्थो वोध्यः ।
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१४०, ख०का० ।]
लोकगौतमोऽपि -
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पराशरमाधवः ।
篆
"एकदिविदिनेने विभागनोनएव वा ।
श्राद्धान्यूनाब्दिकादौनि कुर्यादित्याह गौतमः " - इति ॥
ऊनमामिकस्य कालविकल्पमाह गोभिलः, -
“मरणाद्द्द्वादशाहे स्यान्मास्यूने वोनमासिकम् ” – इति ।
जनानां वज्यं कालमाह गार्ग्यः,
-----
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"नन्दायां भार्गवदिने चतुर्दश्यां त्रिपुष्करे । जनश्राद्धं न कुर्वीत गृहौ पुत्रधनक्षयात्" - इति ॥ मरीचिरपि -
"द्विपुष्करे च नन्दास सिनीवाल्यां (१) भृगोर्दिने । चतुर्दश्याञ्च नोनानि कृत्तिकासु त्रिपुष्करे" - इति ॥ तिथिवारनक्षत्रविशेषाणां त्रयाणां मेलनं चिपुष्करम् । दयोमेंलनं द्विपुष्करम् । के ते विशेषाः ? द्वितीयामप्रमोद्वादश्यो भद्रातिथयः, भानुभौमशनैश्चरवारा:, पुनर्वसूत्तरफल्गुनी विशाखोत्तराषाढ़ापूर्वभाद्रपदानचत्राणि (२) ।
७७१
त्रिभागन्यून एव – इति मु० |
(१) नन्दास प्रतिपत्षष्ठे कादशीषु ! “सा दृष्टेन्दुः सिनीवाली" - इति कोषात् चतुर्दशीयुक्तामावस्या सिनीवालीशब्देनोच्यते ।
(२) तदुक्त ज्योतिषे -
"विषमचरणविष्यं भद्रा तिथिर्यदि जायते ।
दिनकर शनिमा पुत्राणां कथञ्चन वासरे ||
मुनिभिरुदितः सोऽयं योगस्त्रिपुष्करसंज्ञितः " - इति ।
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७७२
पराशरमाधवः।
[३१०,आका।
____ ("एवमेतानि षोड़शश्राद्धानि कृत्वा तत: सपिण्डनं विदधौत । तस्य कालमाहात्रिः । “अथ सपिण्डौकरणं सम्बत्मरे पूर्ण त्रिपक्षे वा यदहर्वा वृद्धिरापद्यते(२)" - इति । बोधायनोऽपि । “अथ सम्बत्मरे पूर्ण सपिण्डौकरणं त्रिपक्षे वा हतीये मासि षष्ठे वैकादशे वा द्वादशाहे वा” इति । एकादशाह-दादशाह-वतीयपक्ष-स्तीयमास-षष्ठमासैकादशमास-सम्बत्सरान्त-शुभागमाः,-दत्यष्टौ कालाः प्रकीर्तिताः । तत्र व्यवस्थामाह हारौतः,
“या तु पूर्वममावास्था मृताहाद्दशमी भवेत् ।
मपिण्डीकरणं तस्यां कुर्यादेव सुतोऽग्निमान्”- इति । मृताहादूर्द्धदिनमारभ्येत्यर्थः । कार्णाजिनिरपि,
"मपिण्डीकरणं कुर्यात् पूर्ववच्चानिमान् सुतः ।
परतोदशरात्राञ्चेत् कुहूरब्दोपरौतरः” इति । श्राहिताग्निना अमावास्यायां पिण्डपित्यज्ञस्यावश्यकर्त्तव्यत्वात् मपिण्डीकरणमन्तरेण तदसम्भवाच्चैकादशेऽहि दर्शागमे मपिण्डौकरणं
यस्य नक्षत्रस्यैकः पाद एकराशिघटकः अपरूपादत्रयं चापरराशि घटक, तनक्षत्रं विषमचरणधिध्यमित्युच्यते । तश्च कृत्तिकापुनर्वस प्रति । परमत्र कृत्तिकायाः पृथगुपादानात् तदिहाय पुनर्वसु
प्रतिकमेव दर्शितम्। (१) श्राद्धानि षोड़शापाद्य,-इति लोगाक्षिवचनं व्याकरोति एव
मित्यादिना। (२) त्रयाणां पूरणः पक्षस्त्रिपक्षः, तस्मिन्, मरणात् तृतीयपक्षे इति
यावत् । वृद्धिः शुभागमः ।
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ब,पा का
पराशरमाधवः।
कार्यम् । पिण्डपित्यज्ञकर्त्तव्यता तु श्रूयते । “अमावास्थामपरान पिण्डपित्यशेन चरन्ति" इति । सपिण्डौकरणात् पूर्व पिण्डपियज्ञस्थासम्भवो गालवेन दर्शितः,
"मपिण्डीकरणप्रेते पैटकं पदमास्थिते ।
त्राहिताः सिनीवाल्यां पिढयज्ञः प्रवर्त्तते” इति । दर्शानागमे तु मानिदोऽहि सपिण्डनं कुर्यात्। तदुकं भविष्यत्पुराणे,
"यजमानोऽग्रिमान् राजन, प्रेतवाननिमान् भवेत् ।
बादशाहे भवेत्कार्य सपिण्डीकरणं सुतैः” इति । गोभिलोऽपि,
“मानिकस्तु यदा कर्ता प्रेतश्चाननिमान् भवेत् ।
बादशाहे तदा कार्य सपिण्डीकरणं सुतैः” इति । प्रेतस्य भामित्वे तृतीयपक्षे मपिण्डौकरणं कार्यम् । तदाह सुमन्तुः,
"प्रेतश्चेदाहितानिः स्थात् कर्ताऽननिर्यदा भवेत् ।
मपिण्डीकरणं तस्य कुर्य्यात्पक्षे हतौयके"-दति। उभयोः सानिकत्वे द्वादशाहे मपिण्डौकरणं कार्यम् ।
“मानिकस्तु यदा कर्ता प्रेतो वाऽप्याग्निमान् भवेत् ।
द्वादशाहे तदा कार्य सपिण्डौकरणं पितुः” इति । उभयोरनमित्वे दादशाहादयः सप्त काला इच्छया विकत्यन्ते । तदुकं भविष्यत्पुराणे,
"मपिण्डौकरणं कुर्यात् यजमानस्वननिमान् ।
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पराशरमाधवः।
[३१०,यासका।
अनाहिताः प्रेतस्य पूर्णब्द भरतर्षभ । द्वादशेऽहनि षष्ठे वा त्रिपक्षे वा त्रिमा मिके।
एकादशेऽपि वा मामि मङ्गलं स्यादपस्थितम्”-इति । एतेषु मप्तसु कालेषु दादशाहः प्रशस्तः । तदाह व्याघ्रः,
"आनन्यात्कुलधर्माणां पुंसाञ्चैवायुषः क्षयात् ।
अस्थितेच शरीरस्य द्वादशाहः प्रास्यते १)" इति । एतत्सर्वं त्रैवर्णिकविषयं, शूद्रस्य तु दादशाहएव प्रतिनियतः(२) । अतएव सपिण्डौकरणं कर्त्तव्यमित्यनुवृत्तौ विष्णुः,
__ "मन्त्रवज हि शूद्राणां द्वादशेऽहनि कौर्तितम्" इति ।
* त्रिमासि वा, इति पाठान्तरम् । + याज्ञवल्का,-इति मु.। । अस्थिरत्वात्,-इति मु । $ हादशाहे सपिण्डनम्, इति मु. । .
(१) कुलधाणामानन्त्या दित्यनेन येषां हादशाहे सपिण्डीकरणं कुला
चारः, तेषां दादशाहः प्रशस्तः इत्यभिहितम् । पुंसाश्चैवायुधः क्षयादित्यनेन यदा ज्योतिरागमादिना संवत्सरादागधिकारिण बायः . क्षयोऽवधार्यते, तदाऽपि हादशाहः प्रशस्त इत्युक्तम् । घस्थितेच शरीरस्य इत्यनेन यदा अनुपेक्षणीय कार्यानुरोधेन विदेशगमनमा
वश्यक सम्भाव्यते, तदाऽपि बादशाहः प्रशस्त इति प्रतिपादितम् । (२) एकादशाहाद्यविधकालमध्ये हादशाहमपहाय सप्तविधकालवि
धानं ब्राह्मणादिवर्णत्रयविषयं, शूद्रस्य तु हादशा हरतु सपिण्डौ करणाकाल इत्यर्थः।
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प.पाका.1]
पराशरमाधवः ।
यदा संवत्मरपूनः प्रागेवैकादशाहादिषु षोडगाडानि हत्या मपिण्डौकरणं क्रियते), तदा पुनरपि स्वखकाले मासिकादौन्यावर्तनीयामि । तदाह गोभिला,
_ “यस्य संवत्मरादम्विहिता तु मपिण्डता।
विधिवत्तानि कुर्वीत पुनः श्राद्धानि छोड़" इति । विधिवदिति यथायोगमेकोद्दिष्टेन पार्वणेन वा विधिनेत्यर्थः । नदाह पैठौनमिः,
"मपिण्डीकरणादविर्याछाहानि षोड़श। एकोद्दिष्टविधानेन कुर्यात्माणि तानि तु ॥ मपिण्डीकरणदूखें यदा कुर्यात्तदा पुनः । प्रत्यब्दं यो यथा कुर्यात् नचा कुर्यात्मदा पुनः" इति । धावर्तनं चोईभाविमामेव माधोभाविनाम्(२) । तदाह कार्णाजिमिः,
(२) यद्यपि एकादशाहादयः सपिण्डीकरणकालतयेवोक्ता म तु घोड़श- , মাঝান, নঘষি মীয়াল মিন্ত্রী আলव्यत्वात् षोड़शश्राद्धान्यकृत्वा सपिण्डीकरणासम्भवात् क्रमानुरोधेन तदन्तापकर्षन्धायात् घोड़मश्राद्धान्यपि तेषु कर्तव्यागोति भावः। तदन्तापकर्षन्यायच मौमांसापश्चमाध्यायप्रथमपादौय-हादशमधि
करणम्। (२) तथाध यदा सपिण्डीकरण क्रियते, सदूईकालभाविनामेव भाडानां
खखकाले पुनराशतिः कार्या, न तु तत्पूर्वभाविनां खकालकतामामित्यर्थः।
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परापारमाधवः।
[३५०,या का।
"अर्वागब्दाद्यत्र यत्र मपिण्डौकरणं कृतम् ।
तदूर्द्धमासिकानां स्थाद्यथाकालमनुष्ठितिः” इति । मपिण्डीकरणादूर्द्धमावर्त्तनीयानामनुमासिकादौनां वृद्धिप्राप्तौ पुनरपकर्षः । तदाह शाङ्यायनिः,
"मपिण्डीकरणदर्वागपकृष्य कृतान्यपि ।
पुनरप्यपछष्यन्ते वृट्युत्तरनिषेधनात्" इति । निषेधश्च कात्यायनेनोकः
“निर्वयं वृद्धितन्त्रन्तु मामिकानि न तन्वयेत्” इति । मपिण्डीकरणस्य गौणकालमाह सृष्यश्रङ्गः,
"मपिण्डीकरणश्राद्धमुक्काले न चेत् छतम् ।
रौट्रे हस्ते च रोहिण्या मैत्रभे वा समाचरेत्” इति । मपिण्डीकरणेतिकर्तव्यतामाह याज्ञवल्क्यः,
"गन्धोदकतिलयुकं कुर्यात्पात्रचतुष्टयम् । अार्थं, पिटपात्रेषु प्रेतपात्रं प्रसेचयेत् ॥
ये समाना इति द्वाभ्यां शेषं पूर्ववदाचरेत्” इति । कात्यायनोऽपि। “ततः संवत्सरे पूर्ण चत्वारि पात्राणि मतिलगन्धोदकः पूरयित्वा चौणि पिढणामेकं प्रेतस्य प्रेतपाचं पिलपात्रेवासिञ्चति ये ममाना इति दाभ्यामेतेन पिण्डोव्याख्यातः" -इति । यदा पिता बियते पितामहस्तिष्ठति, तदा प्रपितामहादिभिः मह पितुः सापिण्ड्यम्। तदुकं ब्रह्माण्डपुराणे,
* कचम्,-ति मा.
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श्षा,पा०का०
पराशरमाधवः ।
899
"मृते पितरि थस्थाथ विद्यते च पितामहः ।
तेन देयास्त्रयः पिण्डाः प्रपितामहपूर्वकाः" इति । केचित्वत्र सापिण्यमेव(१) नाभ्युपगच्छन्ति, __ "व्युत्क्रमाच प्रमौतानाहर) नैव कार्या सपिण्डता"-इति वचनात् । अपरे पुनरस्य वचनस्य मातपित्तभव्यतिरिक्रविषयत्वं मन्यन्ते । उदाहरन्ति च स्कन्दपुराणवचनम्,
"युक्रमेण मृतानाच सपिण्डोतिरिष्यते ।
यदि माता यदि पिता मा नैष विधिः स्मृतः” इति । अत्र वृद्धाचाराव्यवस्था द्रष्टया(र)। मातः मापिण्ड्यं पितामशादिभिः सह कर्त्तव्यम् । तदाह शङ्कः
• चैव विधिः सता, इति मु.। मम तु, भर्ता चैष विधिः स्मृतः,
इति पाठः प्रतिभाति । मूलोक्तपाठे तु, एष इत्यनेन बुद्धिस्थस्य सपिण्डीकरणनिषेधस्य परामर्शः। तथाच, मावादिषुसपिण्डीकरणमिष्यते, तत्र नैष विधिन सपिण्डीकरणनिषेधविधिरित्यर्थः ।
(९) वापिराधं सपिण्डीकरणम् । (२) पितामहे जौवति पितुर्मरमे पिता व्युत्क्रमात् प्रमौत इत्युश्यते । (२) व्युत्क्रममतानां सपिण्डीकरणं न कार्यमित्येकं मतम् । स्थत्कम
मतामामपि मापिटभर्तृणां सपिण्डनं कार्यमित्यपरमतम् । तत्र रद्धाचाराद्यवस्था। येषां पूर्वजैः व्युत्क्रमम्मतानां सपिण्डनं न कतं, तेन न कार्यमेव तथाविधस्थले सपिहनम्। येषान्तु पूर्वजैः व्युत्क्राममतामामपि मात्रादीनां सपिण्डनं कृतं, तेव्युत्क्रमम्तमात्रादीनां सपिहनं कार्यमेवेति भावः।
98
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•७८
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शातातपः, -
पराशर माधवः ।
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[ ३५०, चा०
" मातुः सपिण्डीकरणं कथं कार्य्यं भवेत्सुतैः । पितामचादिभिः सार्द्ध मपिण्डीकरणं स्तम" - इति प्रमीतपिटकस्य विकल्पमाह यमः, -
" जीवत्पिता पितामह्या मातुः कुर्य्यात् सपिण्डताम् । प्रमtafvan: पित्रा पितामच्चाऽथवा सुतः” - इति । पुचिकासुतो मातृसपिण्डनं मातामहादिभिः सह कुर्य्यात् । तथाच बोधायनः,--
"आदिशेत् प्रथमे पिण्डे मातरं पुत्रिकासुतः ।
द्वितीये पितरन्तस्यास्तृतीये च पितामहम् ” - इति । चितारोहणे तु भर्चेव सापि नियतम् (९) । तदाह
"मृता याऽनुगता नाथं सा तेन महपिण्डताम् * । अति स्वर्गवासेऽपि यावदाभूतसंशवम् ( ९ ) – इति ।
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• 1
* वह पिण्डनम् - इति मु० ।
(१) तथाच पुत्रियाऽपि चितारोहणे कृते तस्या व्यमि सपिण्डीकर यां मन्त्रैव कर्त्तव्यं, न तु तत्पित्रादिभिरित्यर्थः । एवमनुमरणपक्षे, 'antaruas: fast fपतामह्याऽथवा सुतः ' - इत्युक्त विकल्पोऽपि म भवति इति द्रष्टव्यम् ।
(२) धनुम्टतायाः भूतसंज्ञव पर्य्यन्तं प्रलयकाल पय्र्यन्तं खर्गवासे सत्यपि, सा ae after महतीत्यर्थः । यद्यप्यनुमर नैव तस्याः स्वर्गवासएव भवति न तु प्रेतत्वमुत्पद्यते, तथापि भर्चा सह तस्याः सपिण्डनं कर्त्तव्यमिति तात्पर्य्यम् ।
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JO4
७७
३५०,याका• 1] पराशरमाधवः। यमोऽपि,
“पत्या* चैकेन कर्त्तव्यं मपिण्डीकरणं स्त्रियाः ।
माऽमृताऽपि हि सेनैक्यं गता मन्वातिव्रतैः(१)-इति। अकशब्दः पितामयादिविकल्पनिवृत्त्यर्थः,न चिपुरुषव्यावृत्त्यर्थः। मपिण्डौकरणस्थ पार्वणैकोद्दिष्टरूपत्वात्(२) । एतत्सर्वं बाह्यादिविवाहेषु द्रष्टव्यम् । पामरादिविवाहे चतुर्धा विकल्या:(९) । तत्र पक्षचयमाह भातातपः,
"तमात्रा तत्पितामहा तच्छश्रा वा मपिण्डनम् ।
* पित्रा,-इति मा० ।
(२) सा स्त्री असताऽपि नौवत्यपि मन्त्राङतिव्रतैः तेन भर्चा सह ऐक्यं
गता, धतो सतायास्तस्याः पत्या सह सपिण्डीकरणं मुक्तमित्यर्थः । पत्र, मन्त्राः पाणिग्रहणादिमन्त्राः, बाङतयो विवाहादिहोमाः, व्रतानि विवाहातया विहितानि ब्रह्मचर्यादीनि। एभिः करणैः सा पत्या स हैक्यं गता, साविवाहेन तस्याः तशरीराईत्व
निष्पत्तेरिति भावः। (२) पत्या चैकेन, इत्येकशब्देन पितामहादयोन व्यावन्ते । सपिली
करणस्य धावणविकृतितया पार्वणवत् त्रैपुरषिकत्वस्य पिटपक्षे न्याय्यत्वात् । किन्त्वेकशब्देन पितामयादिभिः सपिण्डीकरणमित्वयं
कल्योव्यवच्छिद्यते इति भावः । (९) वासरादिविवाहोदाना स्त्रीय सपिण्डीकरणं तस्या मात्रा पिता
मह्या तत् श्वश्रा वा कार्यमित्वादिविशेषविधिवषात् पत्या खपितामह्यादिभिर्वा सपिण्डनमिति सामान्यविधिळमादिविवाहोमास्त्री. विषये व्यवतिष्ठते । अपवादविषयपरित्यागेनोत्सर्गस्य उत्तेरिति भावः ।
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परापारमाधवः ।
..ग्रा.का.।
प्रासुरादिविवाहेषु वर्णनां* योषितां भवेत्”-इति । चतुर्थं पक्षमाह सुमन्तुः,
"पिता पितामहे योज्यः पूर्ण संवत्सरे सुतैः ।
माता मातामहे तददित्याह भगवन् शिवः” इति । मातुः सापिण्ड्ये गोत्रनियममाहा मार्कण्डेयः,- ।
"बाह्यादिषु विवाहेषु या बढ़ा कन्यका भवेत् । भर्दगोत्रेण कर्त्तव्या तस्याः पिण्डोदकक्रिया ॥
श्रासुरादिविवाहेषु पिटगोचेण धर्मवित्” इति । गोलाचिरपि,
"मातामहस्य गोत्रेण मातुः पिण्डोदकक्रियाः।
कुर्वीत पुत्रिकापुत्र एवमाह प्रजापति:(१)"-इति। पत्याः मपिण्ड्यं दर्शयति पैठौनमिः,
"अपुत्रायां मृतायान्तु पतिः कुर्यात् मपिण्डताम् । श्वश्रादिभिः महेवास्याः सपिण्डौकरणं भवेत्(२)" इति । पत्युः सापिण्डामाह गोलादिः,
* विनानां, इति पुस्तकान्तरीयः पाठः समीचीनः । विनानामिति
विवाहितानामित्यर्थः। + गोत्रनियमाह, इति ना. स.।
(९) पुलिकाया ब्राह्मादिविवाहेनोमाया बपि पिण्डादिकं तत्पिटगोत्रेण
पुत्लोदद्यादित्वर्थः । (२) यदा पतिः सपिण्डनं करोति, तदा श्वश्रादिभिः सहैव स्त्रियाः सपि
राहनं कुर्यादित्यर्थः।
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यथाका
पराशरमाधवः।
७८१
"सर्वाभावे स्वयं पत्न्यः स्वभवृणाममन्त्रकम् ।
मपिण्डौकरणं कुर्यः ततः पार्वणमेवच" इति । सुमन्तुरपि,
"अपुत्चे प्रस्थिते(१) कर्त्ता नास्ति चेच्छ्राद्धकर्मणि । तत्र पत्न्यपि कुर्वीत मापिण्ड्य पार्वणं तथा"-इति । यत्त समत्यन्तरम्,
"अपुत्त्रस्य परेतस्य नैव कुर्यात्मपिण्डताम् । अशौचमुदकं पिण्डमेकोद्दिष्टं न पार्वणम् ॥ अपुत्वा ये मृताः केचित्पुरुषा वा तथा स्त्रियः ।
तेषां मपिण्डनाभावादेकोद्दिष्टं न पार्वणम्()" इति । तत्पुत्त्रोत्पादनविधिप्रशंसापरतया व्याख्येयम्(३) । यतीनां मापिण्ड्य निषेधत्युशना,
* स्त्रियोऽपिवा,-इति मु० ।
(१) प्रस्थिते मते । संस्थिते,-इति तु युक्तः पाठः । (२) सपिण्डनाभावात् पार्वणं नेति, "सपिण्डीकरणादूई प्रेतः पार्वण
माम्भवेत्" इत्यनेन कृतमपिण्डनस्यैव पार्वणभागित्वोक्तरिति भावः। (३) अपुत्तस्यापि सपिण्डनं पार्वणश्चास्त्येव, पुर्वातवचनात् । अत्र तद
भावोक्तिस्तु पुत्त्रोत्पादनविधिप्रशंसाी । इत्यमभ्यर्हितः पुत्रोयसदभावे सपिण्डनं पार्वणचास्य न भवति, यतस्तदुत्पादने सर्वथा यतितव्य मिति तहिधिः प्रशस्यते। तथाच अपुत्तस्य सपिण्डनं पार्वणच नास्तीति सतोऽप्यभाववचनं अनुदरा कन्येत्यादिवदिति
भावः।
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७.२
पराशरमाधवः।
[३१०,०का।
“मपिण्डौकरणं तेषां न कर्त्तव्यं सुतादिभिः । त्रिदण्डग्रहणदेव प्रेतवं नैव जायते (१) ॥ एकोद्दिष्टं न कुर्वीत यतौनाञ्चैव सर्वदा । अहन्येकादशे तेषां पार्वणन्तु विधीयते” इति । इत्युभयात्मकं सपिण्डीकरणं निरूपितम् ।
अथ पार्वणविकृतिरूपं विश्राद्धनिरूप्यते।
तत्र याज्ञवल्क्यः
“एवं प्रदक्षिणावृत्तो वृद्धौ(२) नान्दोमुखान पितॄन् ।
यजेत दधिकर्कन्धुमिश्राः पिण्डा:* यवैः क्रिया" इति। एवं, पार्वणवदित्यर्थः । तथाच विष्णुधर्मोत्तरे,___ “वृद्धौ समर्चयेद्विद्वान् नित्यं नान्दोमुखान् पिढन् ।
सम्पादितो विशेषस्तु शेषं पार्वणवद्भवेत्” इति । पार्वणवदित्यनेनावाहनत्रिपुरुषोद्देशादयोऽतिदिभ्यन्ते । अयं तु विशेषः सम्पादितः, नान्दोमुखसंज्ञकाः पितरः, इति। एतच प्रदक्षिणावृद्वदरदध्यादौमां याज्ञवल्क्योकानामितरेषां च विशेषाण
* प्राप्ते, इति मु। + मिश्रान् पिण्डान्,-इति ना. मु. ।
(१) “वाग्दण्डोऽथ मनोदण्डः कायदण्डस्तथैवच । यस्यैषा नियता बुद्धि
खिदण्डीति स उच्यते"-इत्यक्तं दण्डवयं बोध्यम् । (२) वृद्धिराशास्यमानं कम विवाहादिकम् ।
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३००,या का०।
पराशरमाधवः।
७८३
मुपलक्षणम् । ते च विशेषाः कात्यायनेन दर्शिताः । “अाभ्युदयिके श्राद्धे प्रदक्षिणमुपचारः, पिश्यमन्त्रवर्जनवजो दर्भाः, यवैस्तिलार्थ, सुसम्पन्न मिति सप्तिप्रश्नः, सुसम्पन्नमित्यनुज्ञा, दधिवदराक्षतमिश्राः पिण्डाः, नान्दोमुखान् पिहनावहयिय्ये इति पृच्छति, नान्दोमुखाः पितरः प्रौयन्तामित्यक्षय्यस्थाने, नान्दोमुखान् पिढनर्चयिष्ये इति पृच्छति, नान्दोमुखाः पितरः पितामहाः प्रपितामहाश्च प्रौयन्तामित्यनेन खां कुर्यात्, यग्मानाशयेत्”-इति । प्रचेता अपि,
"माश्राद्धन्तु पूर्व स्थात् पिटणां तदनन्तरम् । ततो मातामहानाञ्च वृद्धौ श्राद्धवयं स्मृतम् ।। न जपेत् पैटकं जयं) न मांस तत्र दापयेत् । प्रामुखी, देवतीर्थन क्षिप्रं देशविमार्जनम्” इति । प्रामुखः, पिण्डदानादिकं कुर्यादित्यध्याहारः । अतएव प्रचेताः,
"अपसव्यं न कुर्वीत न कुर्यादप्रदक्षिणम्*(२) । यथा चोपचरेद् देवान् तथा वृद्धौ पिढनपि ।
प्रदद्यात्या ख: पिण्डान् वृद्धौ सव्येन(३) वाग्यतः" इति । पिण्डदाने विशेषमाह वसिष्ठः,
* न कुर्यात्तु प्रदक्षिणम्, इति ना० ।
(१) घनेन पाळणातिदेशप्राप्तपिटगाथादिजपोऽत्र निषिध्यते । (२) पत्र पाळणवत् वामावर्तनोपचारो न कर्त्तव्यः, किन्तु दक्षिणावर्ते
नेत्यर्थः । (३) सत्येन उपवीतिना । प्राचीनावी तित्वस्थापसव्यायामलान् ।
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068
पराशरमाधवः ।
थाका।
“प्रामुखो देवतीर्थन प्राक्कुलेषु(१) कुशेषु च ।
दत्वा पिण्डान् न कुर्वीत पिण्डपात्रमधोमुखम्” इति । पिण्डदानं न चोच्छिष्टसविधौ,
“प्रदद्यात् प्राङ्मुखः पिण्डान् वृद्धौ नाबा न वाह्यतः" इति शातातपस्मरणात् । नामोच्चारणं च प्रथमपिण्डएव न द्वितीये। तदुक्तं चतुर्विंशतिमते,__"एकं नाना परंतूष्णों दद्यात् पिण्डान् पृथक् पृथक्” इति ।
एकैकस्मै दौ दो पिण्डौ, तत्राचं नाना द्वितीयं दृष्णौं दद्यादित्यर्थः । वृद्धिश्राद्धे पिण्डदानं वैकल्पिकम् । तथा च भविष्यत्पुराणम्,
"पिण्डनिर्वपणं कुर्यात् न वा कुर्यानराधिप ।
वृद्धिश्राद्धे महावाहो, कुलधर्मानवेक्ष्य तु"-दति ॥ वृद्धिश्राद्धनिमित्तान्याह लोगादिः,
"नवाबचौलगोदाने सोमोपायनपुंसवे । खानाधानविवाहेषु नान्दोश्राद्धं विधीयते २)"-इति ।
(१) प्राक्कूलेषु प्रागग्रेषु । (२) गावः केशाः दीयन्ते खण्डान्ते पति व्युत्पत्या गोदानं नाम
केशान्तापरनामधेयरयोक्तसंस्कारविशेषः। सोमः सोमयागः । उपायनं प्रतिष्ठा। पुंसवः पुंसवनापरनामधेयोगर्भसंस्कारविशेषः । खान, अध्ययनानन्तरं महस्थाश्रमप्रवेशात् पूर्व कर्तयं समावतमापरनामधेयमालवनं गृह्यादौ विहितम्। बाधानमयाधानम् । गर्भाधानं वा।
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इच,पा.का.10
पराशरमाधवः।
१८५
कार्णाजिनिरपि,
"कन्यापुत्तविवाहेषु प्रवेशे नववेश्मनः । नामकर्मणि वालानां चूडाकर्मादिके तथा ।। सौमन्तोषयने चैव पुत्रादिमुखदर्शने ।
नान्दोमुखान् पिढगणान् पूजयेत् प्रयतो ग्रहो"-इति । वृद्धगार्योऽपि,
"अग्न्याधानाभिषेकादाविष्टापूर्त स्त्रियासतौर)।
वृद्धिश्राद्धं प्रकुर्वीत पाश्रमग्रहणे तथा"-इति ॥ इत्यं श्राद्धानि निरूपितानि । अधुना तत्की निरूप्यते । तत्र वृहस्पतिः,
“प्रमौतस्य पितुः पुत्रैः श्राद्धं देयं प्रयत्नतः।
ज्ञातिबन्धुसुच्छिष्यै विग्मृत्यपुरोहितैः(२)" इति । विष्णुपुराणेऽपि,
"पुत्त्रः पौत्रः प्रपौत्रो वा तददा धामन्ततिः । (१) अभिषेकोराजाभिषेकः । इलं. "बग्रिहोत्रं तपः सत्यं वेदानाचानु
पालनम् । अातिथ्यं वैश्वदेवश्च इशमित्यभिधीयते"-इत्युक्तलक्षणम् । पूर्त, “वापौकूपतड़ागादि देवतायतनानि च । पनप्रदानमारामाः
पूर्तमित्यभिधीयते”–इत्युक्तखरूपम् । स्त्रियाऋतौ गर्भाधाने । (२) “पुरोहितञ्च कुर्वीत रणुयादेव चर्विजम् । तेऽस्य सह्याणि कर्माणि
कुर्युवतानिकानि च"-इति स्मरणात् माकम्मका पुरोहितः, वैतानिककर्मकता ऋत्विक । वैतानिकं श्रौतम् । अतएव मर्य्यते । "धमाधेयं पाकयज्ञानमियोमादिकान् मखान् । यः करोति तो यस्य स तम्यविगिशोचते" इति ।
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पराशर माधवः ।
सपिण्डसन्ततिर्वाऽपि क्रियाह नृप,
तत्र मुख्यानुकल्प (१) विविनति शङ्खः,"पितुः पुत्रेण कर्त्तव्या पिण्डदानोदकक्रिया |
पुत्राभावे तु पत्नी स्वात् पत्न्यभावे तु सोदरः " - इति ॥
स्मृतिमङ्ग हेऽपि
“पुत्रः कुर्यात् पितुः श्राद्धं पत्नी तु तदसविधौ । धनहार्य्यथ दौहित्रस्ततो भ्राता च तत्सुतः ॥ भ्रातुः सहोदरो भ्राता कुर्याद्दाहादि तत्सुतः । ततस्त्वोदरो भ्राता तदभावे तु तत्सुतः " - इति ॥
पुत्रशब्देन मुख्या गौणाश्च पुत्रा गृह्यन्ते (९) । तेषां सर्वेषामभावे पौत्रः कुर्यात् । तस्याभावे तु पत्नी । श्रतएव वृहस्पतिना पौत्त्रस्य पुत्रिकापुत्त्रसाम्यमुकं -
न चैतावता तयोः समविकल्पः शङ्कनीयः,
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-
[३०, पा०का० ।
"पौत्त्रोऽथ पुत्रिकापुत्रः स्वर्गप्राप्तिकरावुभौ ।
रिक्थे च पिण्डदाने च समौ तौ परिकीर्त्तितौ” - इति ।
जायते " - इति
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(१) मुख्यकल्पः प्रथमकल्पः । अनुकल्पः प्रतिनिविकल्पः वाघत्कल्पः, - इति यावत् ।
(२) मुख्यौ पुत्रिकौरसौ इतरे क्षेत्रजादयो गौणाः । " याव्याभावे यथा तैलं सद्भिः प्रतिनिधीकृतम् । तथैकादश पुत्राः स्युः पुचिकौरसयोर्विना” – इति स्मरणात् । पुत्रिकौरसयोरप्यौरसस्य त्रैयम् । “संस्कृतायां सवर्णायां स्वयमुत्पादयेत्तु यम् । तमौरसं विजानीयात पुत्रं प्रथमकल्पितम्” इति स्मरणात् ।
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३००, व्या०का०
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पराशर माधवः ।
*
"नैव पौत्रेण कर्त्तव्यं पुत्रवांश्चेत् पितामहः " - इति
कात्यायनम्मरणात् । पत्न्यभावे तु मोदर इत्ययं क्रमः पत्न्यादायहरणे द्रष्टव्यः । अन्यथा यो दायहरः सएव कुर्यात् । श्रत va fararuस्तम्बौ । " यश्वार्थहरः स पिण्ड़दायौ " -- इति । पुत्र: पिटवित्ताभावेऽपि पिण्डं दद्यात्तदभावे मपिण्डोदद्यात्, मपिण्डा भावे समानोदकादयः कुर्युः । तथा च मार्कण्डेयपुराणम् - "पुत्राभावे मपिण्डास्तु तदभावे सहोदका: १) ।
मैतत्,—इति मु० ।
+ सुताः, इति ना० ।
| नास्तीदम ना० स० पुस्तकयोः ।
तजातीयैर्नरैः, -- इति मु० ।
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"
मातुः सपिण्डा ये वा स्युर्ये वा मातुः सहोदकाः ॥ कुर्युरेनं विधिं सम्यक् श्रपुत्त्रस्य श्रुताः + स्मृताः । कुर्य्यान्मातामहाचैव पुत्रिकातनयस्तथा । ॥
१९७
€
सर्वाभावे स्त्रियः कुर्युः स्वभर्तृणाममन्त्रकम् । तदभावे च नृपतिः कारयेत्तस्य रिक्थतः । तत्स्थानीयैर्नरैः सम्यक् दाहाद्याः सकलाः क्रिया:: सर्वेषामेव वर्णानां बान्धवो नृपतिर्यतः " - इति ॥
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(१) "सहेोदकाः समानोदकाः । “सपिण्ड़ता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्त्तते । समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोर वेदने" - इत्यनेन सपिण्ड्समानोदकयोर्भेद उन्नयः ।
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७८८
परापारमाधवः ।
३०.inक।
सर्वाभाव स्त्रियः कुर्यरित्यासुरादिविवाहोटस्त्रो विषयम् । अत पुत्त्राभावे तु पनौत्यनेन महाविरोधः । तस्याः पत्नीत्वाभावात अतएव गातातपः तस्याः पनौत्वं निषेधति,
"क्रयक्रौता तु या नारौ न मा पत्न्यभिधीयते ।
न सा देवे न मा पित्ये दामों तां कवयो विदः।'"-इति। पूर्वमध्यमोत्तरासु पुत्रादौनां व्यवस्थितमधिकारं दर्शयति पराशरो विष्णुपुराणे,
"पूर्वा क्रिया मध्यमा च तथैवोत्तरमंज्ञिताः । त्रिप्रकाराः क्रिया ह्येतास्तासां भेदं प्रणव मे ॥ श्रा दाहादा दशाहाच* मध्ये याः स्युः क्रिया मताः ।
* आद्याहाबादशाहाच,इति मु० ।
(१) "बासुरोडविणादानात्" इत्यादिना धनदानपूर्वककन्याग्रह सा.
स्यासुरविवाहत्वात् धनेन ग्टहीतायाञ्च क्रयकीतत्वात् न तम्याः पत्नी त्वम्। चतरवासुरादिविवाहो मायाः पत्नीत्वाभावात् सर्वाभावे तम्या. अधिकारः, ब्राह्मणादिविवाहोकायास्तु पनौत्वात् युत्ताभावे अधि. कार इति सर्वाभावे स्त्रियः कुर्युरिति पुत्त्राभावे तु पनी स्यादिननयोर्वचनयोर्न विरोधः। यद्यपि यासुरविवाहमात्रे द्रविगा दानो. तस्तबिवाहेनोकायारव कयक्रौततया पत्नीत्वाभावो न गान्धादि विवाहोताया इत्यासुरादिविवाहोऽस्त्रीविषयमित्यत्रादिपदभमड़न प्रतिभाति, तथापि बासरविवाहेनोकायाः सर्वाभावे धिकार दर्पनात् तदपेक्षया परतो निर्दिऐन गान्धर्वादिविवाहेनोमाया अघि तथात्वमिति भावः ।
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श्व०,वा का०]
पराशरमाधवः।
ताः पूर्वाः, मध्यमा मासि मास्कोद्दिष्टमंजिताः॥ प्रेते पिनत्वमापन्ने सपिण्डीकरणादनु । क्रियन्ते याः क्रियाः पित्र्याः प्रोच्यन्ते ता नपोत्तराः ।। पिनमात्सपिण्डैस्तु समानमलिलैस्तथा।। तत्महातगतैश्चैव राज्ञा वा धनहारिण ॥ पूर्वाः क्रियाश्च कर्त्तव्याः पुत्राद्यैरेव चोत्तराः ।
दौहित्रैर्वा नरश्रेष्ठ*, कार्यास्तत्तनयैस्तथा” इति ॥ सपिण्डाद्यैरवनिपत्यन्तैः पूर्वाः क्रिया मध्यमाञ्च कर्त्तव्याः । पुत्राद्यैरेव भ्राहमन्तत्यन्तैः दौहित्राद्यैश्चोत्तराः क्रियाः कर्त्तव्याः, न सपिण्डाद्यैरवनिपत्यन्तैरित्यर्थः। औरसः सुतोऽनुपनौतोऽपि दाहादिकाः क्रियाः कुर्यात् । तदाह सुमन्तुः,
"श्राद्धं कुर्यादवश्यन्तु प्रमौतपिटको हि यः।
व्रतस्थो वाऽव्रतस्थो वा एकएव भवेद्यदि"-इति ॥ अव्रतस्थोऽनुपनौतः । तदाह वृद्धमनुः,
“कुर्यादनुपनौतोऽपि श्राद्धमेको हि यः सुतः ।
पिढयज्ञाहुतिं पाणौ जुड़यावाह्मणस्य स:(१)".- इति ॥ अत्र विशेषः प्रचेतसा दर्शितः,
* दौहित्र गिनेयैश्च,-इति मु०। + व्याघेण,-इति मु। (१) अनुपनौतस्याहितामित्वाभावात्, “न पैत्रयज्ञियोहोमो लौकिकामो
विधीयते"--इति मनुना पिटयज्ञियहोमस्य लौकिकानौ निषेधाच अनुपनौतेन ब्राह्मण पाणावमौकर शहोमः कर्तव्य इति भावः ।
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७०
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परराश्रमाधवः ।
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"कृतचूडस्तु कुर्वीत उदकं पिण्डमेव च । स्वधाकारं प्रयुञ्जीत वेदोच्चारं न कारयेत्” - इति ॥ मातापित्रोरुभयोरपि कुर्वीतेत्यर्थः । तथा च स्मृत्यन्तरम्, - “कृतचूडोऽनुपेतस्तु पित्रोः श्राद्धं समाचरेत् । उदाहरेत् स्वधाकारं न तु वेदाचराण्यसौ " - इति ॥ यत्तु मनुनोक्तम्, -
रपि(९) सङ्ग्रहार्थम् । तथा च पुलस्त्यः, -
[ ३०
“न ह्यस्मिन् युज्यते कर्म किञ्चिदामौञ्जिबन्धनात् । नाभिव्याहारयेद्म स्वधानिनयनादृते " - इति ॥ तत् त्रिवर्षकृतचूड़ाविषयम् । तथा च सुमन्तुः - "अनुपेतोऽपि कुर्वीत मन्त्रवत् पैतृमेधिकम् । arit
कृतचूड़ः स्याद् यदि स्याच्च वित्सरः " - इति ॥ अथ मातामहादिश्राद्धाधिकार निर्णयः । तत्र व्यामः,"पितृन्मातामहांचैव द्विजः श्राद्धेन तर्पयेत् ।
१०, या०का०
अनृणं स्यात् पितृणान्तु ब्रह्मलोकं च गच्छति" इति ॥ मातामहानामिति बहुवचनं मातुः पितामहप्रपितामहयो
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" मातुः पितरमारभ्य त्रयो मातामहाः स्मृताः । तेषान्तु पितृवच्छ्राद्धं कुर्युर्दुहितसूनवः " - इति ॥
""
..
---
(१) मौनिबन्धनमुपनयनम् । स्वधानिनगनं श्राद्धसम्पादकमन्त्रजातम् । स्वधा श्राद्धं निनौयते सम्पाद्यते यनेनेति व्युत्पत्तेः ।
(२) पितामहप्रपितामहयेोरित्यत्र मातुरिति पूरणीयम् । तेन, श्राद्धकर्तुः प्रमातामह - बृद्धप्रमातामह येरित्यर्थः ।
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३५०,याका
परापारमाधवः ।
७८१
पिढश्राद्धवन्मातामहश्राद्धमपि नित्यं, अकरणे प्रत्यवायारणात् । तदुक्तं स्कन्दपुराणे,
"पार्वणं कुरुते यस्तु केवलं पिटहेतुतः ।
मातामह्यन्न कुरुते पितहा म प्रजायते"-इति ॥ ऋष्यश्टङ्गोऽपि,"पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा ध्रुवम् ।
विशेषेण कर्त्तव्यं विशेषान्नरकं व्रजेत्" इति ॥ मातामहश्राद्धं क्वचिदपवदति कात्यायनः,
"कममन्वितं मुक्का तथा श्राद्धञ्च षोड़शम्।
प्रत्याब्दिकञ्च शेषेषु पिण्डाः स्यः षडिति स्थितिः” इति ॥ कळू समन्वितं सपिण्डीकरणश्राद्धम् । षोड़शग्रहणमेकोद्दिष्टोपखक्षणार्थम् । सङ्घातमरणे श्राद्धक्रममाह ऋष्यश्टङ्गः,
"भवेद्यदि सपिण्डानां युगपन्मरणं तथा।
सम्बन्धासत्तिमालोच्य तत्कमाच्छाद्धमाचरेत्" इति ॥ अत्र पत्न्यादिसपिण्डेषु सम्बन्धामत्तिरेवं द्रष्टव्या । पतिपत्न्यो: सम्बन्धः प्रत्यासत्रः, एकप्रतियोगिकत्वादव्यवधानाच्च(१) । पुत्रस्य तु मातापिनदयनिरूप्यत्वेन विलम्बितप्रतिपत्तेर्विप्रकृष्टः सम्बन्धः । भ्रातस्तु पित्नजत्वव्यवधानेन ततोऽपि विप्रकृष्टः । एवमन्यत्राहनीयम् । पन्यादीनां पित्रोश्च सातमरणे सध्यण्टङ्गः,
..................... ......................................
(२) पतित्वं पत्नीमावनिरूप्यं, पनौत्वमपि पतिमात्रनिरूप्यमित्येकप्रति.
योगिकत्यमतरवाव्यवहितत्वच तत्संबन्धम्य ।
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E२
पराशरमाधवः।
श्ष,पाका ।
"पन्याः पुत्रस्य तत्पुत्रधाचोस्तत्तनयस्य च। वषाश्वोच्च पित्रोच महातमरणं यदि ॥
अर्वागन्दामादपिटपूर्व मापिण्ड्यमाचरेत्" इति। तत्पुत्रः पुत्रपुत्रः। तत्तनयो भारतनयः । यत्तु देवलेनोक्रम,
"पितरौ प्रकृतौ यस्य देहस्तस्याशचिर्भवेत् । . न दैवत्रापि पिश्यञ्च यावत् पूर्ण न वत्सरः" इति ॥ तत्पूर्वीकपल्यादिव्यतिरिक्रमपिण्डविषयम्। अतएव लोगाधिः,
“अन्येषां प्रेतकार्याणि महागुरुनिपातने।
कुर्यात् सम्बत्सरादर्वाक् श्राद्धमेकन्तु वर्जयेत्” इति ॥ प्रेतकार्याणि दहनादौन्याद्यश्राद्धान्तानि विवक्षितानि, ___“आद्यं श्राद्धमश्राद्धोऽपि कुर्यादेकादशेऽहनि"-इति
विशेषस्मरणत् । एकमित्यन्यदित्यर्थ:*(१) । पित्रोः सबातमरणे देवला,
"पिचोरुपरमे पुत्राः क्रियां कुर्युयोरपि । अनुवृत्तौ च नान्येषां महातमरणेऽपि वा” इति ॥
* एकमित्येकस्य वर्जयेदित्यर्थः, इति ना० । + वान्येवां, इति गा।
(१) बघाच पिटमाटमरसे वत्सरमध्ये पत्नवादीनां दाहादि प्रेतकार्य
आइप वयमेव । पलादिभिन्नसपिण्डानान्तु दाहाद्याद्यबाद पर्यन्तमेव वाय, न तेषां प्रेतमाडमपि,-इति व्यवस्थानिकर्षः ।
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३०, पा०का० 1]
अनुगमनेन पित्रोः सङ्घातमरणे मातुरनुगमनेन दिनान्तरमरणेऽपि तत्तद्वादशाहे क्रियां कुर्युः, श्रन्येषां पित्रोश्च सङ्घातमरणे यथाकालं न कुर्युः, किन्तु * त्रिपक्षएव । तदाह लौगाचिः,"पत्नी पुत्रस्तथा पौत्रो माता तत्पुत्रका श्रपि । पितरौ च यदेकस्मिन् म्रियेरन् वासरे तदा ॥
श्रद्यमेकादशे कुर्यात् त्रिपक्षे तु सपिण्डनम् ” - दूति । पित्रोरनुगमनं बिना सङ्घातमरणे मातुरनुगमनं विना दिनान्त
पराशर माधवः ।
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मरणेऽपि मातुस्त्रिपचे सपिण्डनं कुर्यात् । तथा च देवलः - “एकाहमरणे पित्रोरन्यस्यान्यदिने मृतौ ।
सपिण्डनं चिप स्यादनुयानस्मृतिं विना " - इति ॥ मातृपिश्रायस्य देवात्कालेकोऽपि पिढश्राद्धं पूर्वं कुर्यात् । तदाह काजिनि:
“पित्रोः श्राद्धे समं प्राप्ते नवे पर्युषितेऽपि वा । टिपू सुतः कुर्यादन्यत्रासत्तियोगतः ” – दूति ॥ अन्यत्र मातृपितव्यतिरिक्तविषये सम्बन्धासत्तियोगतः कुर्या - दित्यर्थः । यत्तु प्रचेतसोक्रम्, -
"नैकः श्राद्धद्वयं कुर्यात् समानेऽहनि कुत्रचित् " - इति ॥ तदैकस्मिन् श्राद्धे क्रियमाणे देवतैक्यात् यद्यन्यस्य प्रसङ्गात् सिद्धि
* यथाकालं कुर्युः किञ्च इति ना० ।
पत्नीपुत्रः षा पौत्रो भ्रातृतत्तनया यपि, — इति मु० ।
100
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पराशर माधवः ।
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[३०, ख०का० ।
स्तद्विषयम् (१) । यथा नित्यश्राद्धामावास्याश्राद्धयोर मावास्याश्राद्धेन नित्यश्राद्धसिद्धिः प्रासङ्गिकौ । यथा वा, दार्शिक युगादिश्राद्धयोर्युगादिश्राद्धेनैव दार्शिक सिद्धि: (९) । पित्रोर्ऋता है क्ये सत्यन्वारोहविषये लोगा क्षिण विशेष उक्तः, -
“मृतेऽहनि समासेन पिण्डनिर्व्वपणं पृथक् । नवश्राद्धन्तु दम्पत्योरन्वारोहणएव तु " - इति ॥ पिण्डनिर्श्वयणं श्राद्धं समासेन पाकाद्यैकयेन पृथगसपत्नीक (१)
कुर्यात् । नवश्राद्धमपि तथा कुर्यात् । स्मृत्यन्तरमपि - " एकचित्यां समारूढौ दम्पतौ निधनं गतौ ।
पृथक् श्राद्धं तथा कुर्यादोदनं न * पृथक् पृथक् " - इति ॥ श्रनेकमा भिरेकचित्यामन्वारोहणे कृते पाकाद्यैक्येन प्रथमं पितुस्तदनन्तरं साक्षान्मातुस्ततो ज्येष्ठादिक्रमेण कुर्यात् । तदाह भृगुः, -
च - इति मु 01
(२) अन्योद्देशेन प्रवृत्तावन्यस्यापि सिद्धिः प्रसङ्गः ।
(२) तथा च अमावस्येतरत्र नित्यश्राद्धविधेः, युगादीतरत्र च दर्शश्राद्धविधेरनुष्ठानप्रयेाजकत्वात् तत्तदिधीनां प्रामाण्यमुपपद्यते । नित्यश्राहेनामावस्याश्राद्ध सिद्धौ दर्शश्राद्धेन युगादिश्राद्धसिद्धौ चामावस्यादिश्राद्धविधीनां कुत्राप्यनुष्ठान प्रयोजकत्वाभावात् श्रप्रामाण्यं स्यादिति भावः । एवञ्च विशेषेण सामन्यसिद्धिर्न तु सामान्येन विशेषसिद्धिरिति तात्पर्यम् ।
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(३) तथाच पित्रोः श्राद्धं पृथगेव कुर्य्यात्, न तु पितुः श्राद्धं सपत्नीक तया कृत्वा तावतैव मातृ श्राद्धं कृतं मन्येतेत्यर्थः ।
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३०,याका
पराशरमाधवः।
७६५
“एककाले गतासूनां बहनामथ वा दयोः । तन्त्रेण श्रपणं कुर्यात् श्राद्धं कुर्यात् पृथक् पृथक् ॥ . पूर्वकस्य मृतस्यादौ द्वितीयस्य जघन्यतः।
टतौयस्य ततः कुर्यात् मचिपातेवचं क्रमः" इति । पूर्वकस्य मुख्यस्य पितः, द्वितीयस्य ततो जघन्याया जनन्याः, तृतीयस्य ततोऽपि जघन्यया मातुरित्यर्थ:(१) । पार्वणैकोद्दिष्टयोः मनिपाते जाबालिः,
“योकत्र भवेताञ्चेदेकोद्दिष्टं च पार्वणम् ।
पार्वणं तत्र निर्वत्य एकोद्दिष्टं समाचरेत्” इति ॥ अनेकनिमित्तमविपाते निमित्तानुक्रमेण श्राद्धं कुर्यात् । तथा च कात्यायन:,
"वे बहूनि निमित्तानि जायेरनेकवासरे।
नैमित्तिकानि कार्याणि निमित्तोत्पत्त्यनुक्रमात्” इति ॥ यद्यप्येकदेवताकश्राद्धदयमेकस्मिवहनि न युक्त, एकानुष्ठानेनेतरप्रयोजनस्थापि प्रसङ्गात् मिद्धेः; तथापि नैमित्तिकानि वचनबलादनेकान्यप्यनुष्ठेयानि । तथा च जाबालिः,
"श्राद्धं कृत्वा तु तस्यैव पुनः श्राद्धन तदिने । नैमित्तिकन्तु कर्त्तव्यं निमित्तानुक्रमोदयम्” इति ॥
* एकोवियन्तु निर्वय पार्वणं विनिवर्तयेत्, इत्यन्यत्र पाठः ।
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(९) माळपदमत्र सपनीमाढपरं बोध्यम् ।
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परापारमाधवः ।
प्रा.का.।
नित्यकाम्ययोरेकदेवताकयोः मविपाते काम्येनैव नित्यसिद्धिः। तदुक्तं स्मृतिसंग्रहे,
"काम्यतन्त्रेण नित्यस्य तन्त्रं श्राद्धस्य सिध्यति" इति॥ यचाशौचविधानजातमजहत्स्वार्थप्रयुक्त्या दृशा प्रोक्तं यत्र च संग्टहीतवपुषां श्राद्धं ममृद्ध्यै पदम् । अध्यायं तदवायनिर्णयविदां तार्तीयमार्त्तिच्चिदं
सोऽयं व्याचरुते खतन्त्रमहिमा मन्त्रीश्वरोमाधवः ।। इति श्रीमहाराजाधिराजपरमेश्वरवैदिकमार्गप्रवर्तक-श्रीवौरबुलभूपालसाम्राज्यधुरन्धरस्य माधवामात्यस्य कृतौ पराशरस्पतिव्याख्यायां माधवौयायां हतीयोऽध्यायः समाप्तः ॥ ॥
॥॥ समाप्तश्चाचारकाण्डम् ॥०॥
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शुद्धिपचम्।
ठे पती २ १२ ५ २५
हता स्मृतिष व्युत्पत्स
यहम्। कृती स्मृतिषु व्युत्पित्स् ज्यले
१८
१९
निधिवेशन्
२३ २४
०
०
०
निर्विशम पूर्वपक्षा तथा
। मुदितात्मविवेक खासभ्यते चित्तम्य पारभते परिणम्यमाण इत्युक्तमो० अ०१ पा०२ सू.
३८८
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पूर्वपक्षी तथा च मुनि मुहितात्मतत्त्वविवेक धारभ्यते चित्तस्य मारभते परिणममाना इत्युक्त-स . मी०६.पा.२२ सू. प्रमीत धर्म शिष्यैः,
१५ १८ ४६६९०
प्रमात
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१
सबै
धम्म চ্ছি : सव यस्य वत्सल लक्षणमुच्यते नसत्व तत्रेकादशे भूलत्वेन मल 'यसाम्य
तस्य वत्सल ! लक्षणे उच्छेते गुणत्व सत्रैकादशे मूलत्वेन मल "असङ्गस्य देहस्य
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