Book Title: Samvat Pravartak Maharaja Vikram
Author(s): Niranjanvijay
Publisher: Niranjanvijay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ der S TAALOEET BASTREDEOS933038888884de श PATEL रुपया SERITERARIES .ABUAAP Cer Relam LA abe L IAS Ddogs KARN प्रेमी मुनिश्री निरंजन महाराज Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - / ICICI श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमो नमः 912103 संयोजक का निवेदन COM 2297 परम तारक देव और गुरुवरकी असीम कृपाके फल स्वरूप आज अतीव आनंद का अनुभव हो रहा है, विक्रम संवत् 2003 का आर भित कार्य आजRAID पूर्ण होकर प्रगट हो रहा है. जगत में हरेक प्राणी मनोकामना के Reall -ME अनुसार कार्य का आरंभ तो करता ही है किन्तु आरभित कार्य पूर्ण होना-पुण्यबल, पुरुषार्थ एवं भवितव्यता पर ही निर्भर रहता है. मनमन्दिर विराजीत सर्वसमीहीतपूरक श्री शंखेश्वरपाचनाथप्रभु की तथा पूज्यपाद् शासनसम्राट् गुरुदेव की पुण्य कृपा से आज मेरे द्वारा संयोजित यह विक्रमचरित्र प्रकाशक की ओर से प्रकाशित हो रहा हैं. मैं यथामति इस पुस्तक का सुचारु रूपसे तैयार कर पाठकों के सन्मुख रख रहा हूँ. प्राचीन महर्षि के रचिलसेवथों का अनुवाद करना कोई सामान्य बात नहीं है, क्या कें, उन महापुरुषों का ज्ञान-अनुभव विशालसमुद्र सा है हमारा ज्ञान-एवं अनुभव एक विन्दु सा है. . इस ग्रंथका अनुवाद कोई विद्वान मुनिपुंगव के द्वारा हुआ होता तो श्रेष्ठत्तम कार्य होता. ऐसा मैं मानता हुँ, मैं; - अनुवाद करनेके लिये पूर्ण योग्य नहीं हूँ, किन्तु जब तक हमारे / , ACHARYA SRI KAILASSAGARSURIGYANNANDIR है. P.P. Ac. Gunratnasuri MSRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KERAK Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वानगणमें से कोई प्रतिभाशाली लेखक इस ओर ध्यान न दें और इस ग्रंथका विवेचनात्मक अनुवाद तैयार न करें तब तक साहित्यक्षेत्र में यह पुस्तक बहुत उपयोगी होगा यह मेरा विश्वास है. __ संस्कृत मूल ग्रंथ के साथ पुरा संबंध रखा गया है, तथापि इस भावानुवाद में सिर्फ शब्दशः अर्थ सभी जगह दिखाई नहीं पडेगा, फिर भी मूलचरित्र-ग्रंथका परिशीलन करने की इच्छा रखनेवालों को, इसमें से जरूरी उपयोगी जानकारी अवश्यमेव प्राप्त होगी, मूलभूत वस्तु को केवल हिन्दी भाषा में भावानुवाद करने की आकांक्षा से ही मैंने यथामति प्रयत्न किया हैं. - अनुवाद करने को अभिलाषा कब हुई ? विक्रम संवत् 1990 में जो अखिल भारतीय श्री जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक मुनि संमेलन राजनगर-अमदावाद में समारोहपूर्वक अच्छी तरह समाप्त हुआ था उस में श्री जैन समाज के लिये लाभप्रद अनेक शुभ प्रस्ताव किये गये थे, उस में से एक प्रस्तावके फलस्वरूप " श्री जैनधर्मसाहित्यप्रकाशकसमिति' का प्रादुर्भाव हुआ और क्रमशः उस समिति द्वारा सीजनसत्यप्रकाश" नामक मासिक पत्र प्रकाशित होने लगा, उसका ' क्रमांक 100 को विक्रमविशेषांक के रूप में तैयार करने का समितिने निर्णय किया था, उस निर्णय के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य का चलाया हुआ विक्रम संवत् के 2000 वर्ष पूर्ण होते थे, उस समय संवत्की दूसरी सहस्त्राब्दी के पूर्णाहुति और तीसरि सहब्दीके आरंभ काल में विक्रम विशेषांक प्रगट करने की जाहेरात P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की गई, और स. 1999 के चातुर्मास अन्तर्गत श्रीपर्दूषणा -पर्वाधिराज के आसपास के काल में 'श्री जैनधर्म सत्यप्रकाशकसमिति'ने विक्रमविशेषांक के लिये विद्वान पूज्य मुनिवरादि तथा अन्य लेखकोंको महाराजा विक्रम संबंधी लेख लिख कर भेजने के लिये मासिक और पत्रिका द्वारा विनति की, तदनुसार मेरे पर भी लेख के लिये समिति का निमंत्रण आया. उस समय में सौराष्ट्र में प्रसिद्ध श्री महुवा-बंदरगाह में शासनसम्राट्, परमोपकारी, परमकृपालु, पूज्यपाद आचार्य श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज की निश्रा में विक्रम संबंधी ऐतिहासिक सामग्री का यथाशक्ति अन्वेषण कर रह था और पूज्य गुरुदेव की कपासे फुल्सकेप कागज के 22 पेजका गुजराती लेख लिखकर समिति को मैंने भेजा था, वह लेख 'मालवपति विक्रमादित्य के हेडींग से उस अंक में छप चूका है. x __उपयुक्त लेख लिखते समय पूज्य पंन्यास प्रवर श्री शुभशीलगणि महाराज रचित संस्कृत श्लोकबद्ध श्री विक्रमचरित्र पढनेका अवसर मिला उसे पढते अनुवाद करने की दिल में इच्छा जाग्रत हुई, जैसे जैसे में विक्रमचरित्र आगे आगे पढता गया वैसे वैसे उस में नीतिशास्त्र के उपदेशक श्लोक ठोस से भरे हुए देखे तो लोकों को अति उपयोगी होगा, ऐसा जान कर उसका हिन्दी करने की अभिलाषा तीव्र होने लगी, क्योंकि, हिन्दी भाषा हिन्दुस्तान के सभी प्रान्तो में चल सकती है. मारवाड, + छोटी पुस्तक के आकार में गुजराती में यह लेख छप चूका था, अप्राप्य होने से वह पुस्तक पुनः स, 2009 में सचित्र रुप में छप गया है. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S, Jun Gun Aaradhak Trust Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8.58 023498 gyanmandir@kobatirth.org मेवाड, मालवा, पंजाब, बंगाल तथा कच्छ, गुजरात, बिहार, मध्यप्रान्त, यु. पी. आदि सभी प्रान्तों की जनता हिन्दी भाषा को बोल या समझ सकती है, इसी आशय से ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद करने की आवश्यकता हमको लगी. परन्तु अनेक प्रकार की अन्य प्रवृत्तियों के कारण अभिलाषा मन में ही रही. . . समयका आगे बढने के साथ जावाल श्री संघ की अत्याग्रहपूर्वक विनति से पूज्य मुनिवर्य श्री शिवानं दविजयजी महाराज के साथ विक्रम संवत् 2003 का चातुर्मास गुरुदेव की आज्ञानुसार जावालमें हुआ. इस चातुर्मास में श्रीसंघ के आगेवानोने शासन प्रभावना के अनेक शुभ कार्य उत्साहपूर्वक किये. उपरोक्त चातुर्मास में विक्रमचरित्र को हिन्दी भाषा में अनुवाद करने की दीर्घकाल से मन में अभिलषित जो इच्छा हृदय-घट में स्थित थी, इस इच्छा को शास्त्राध्ययन में सदा उद्यत, गुप्त दानवीर श्रीमान् ताराचंदजी मोतीजीकी सत्प्रेरणा मिली और जावाल में विक्रम संवत् 2003 के चातुर्मास में इस ग्रंथको लिखने का आरंभ किया. विक्रम सं. 2008 की सालमें प्रथम से सात सौ तक प्रथम भाग छपवा कर प्रकाशित किया, बाद विश्वविख्यात श्री राणकपुर की प्रतिष्ठा प्रसंग पर जाने के लिये पूज्यपाद आचार्य श्री विजयोदयसूरीश्वरजी, पूज्यपाद आचार्य श्री विजयनंदनसूरीश्वरजी अमदावाद से विशाल साधुसमुदाय के साथ मारवाड के प्रति विहार हुआ, प्रतिष्टाका कार्य बहुत अच्छी तरह संपन्न हुआ, और सादडी श्री संघ की अति आग्रहभरी विनति से वि. सं. 2009 का चातुर्मास पूज्य गुरुदेवों के साथ वहाँ ही हुआ. बाद मेरा दूसरा चातुर्मास गुरुदेव की आज्ञा से वि. सं. 2010 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का शिवगंज हुआ, शिवगंज-मारवाड से विहार कर सिरोही, जावाल, जीरावळाजी, आबु, भिलडीआजी, चारुप, पाटण आदि तीर्था की यात्रा करते करते श्री शंखेश्वरजी होकर वि. स. 2011 की साल मेरा पू. गुरुदेव की निश्रामें अमदावाद आना हुआ, साहित्य संबंधी अनेकानेक प्रवृत्तियों के कारण समय बितता गया और यह विक्रमचरित्र छपवाने का कार्य में विलब होता ही रहा. यकायक वि. स. 2012 की साल में शरीर में “लों प्रेशर" की बिमारीने आक्रमण किया. उस से औषध उपचार करते रहे और इसी बिच विक्रमचरित्र का अधुरा कार्य हाथमें लेने का निर्णय कर आगे का कार्य आरंभ किया और देवगुरुकी असीम कपासे निर्विघ्नरूप से वह कार्य आज पूर्ण हुआ और यह ग्रंथ सुचारु रूप में छपवाकर प्रकाशकने वाचक के करकमल में रसास्वादके लिये सादर प्रस्तुत किया. कर इस पुस्तक का संयोजन कार्य किया है, मूलग्रन्थ में कहां कहाँ लोकों की पुनरुक्ति है, वहां पर थोडा सा संक्षिप्त जरूर किया है, प्राकृत गाथा भी बहुत आती है, उसी का भावदर्शक अनुवाद के लिये कहीं कहीं संस्कृत श्लोक भी पुनः अवतरित है, इसी कारण कोई जगह पर उसका अनुवाद छोड दिया गया है, सभी प्रकार से मूल ग्रन्थ के साथ पूर्ण लक्ष रखा गया हैं, ऐसा होते हुए भी छद्मस्थ शुलभ मतिभ्रमसे या तो मेराअल्पाभ्यास के कारण अनजान में किसी भी प्रकार के कुछ Jun Gun Aaradhak Trust ... P.P.AC.Gunratnasuri.M.S... ..... Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ लिखने में ग्रन्थकार के आशयसे या जिनाज्ञा विरुद्ध क्षति -भूल हो गई हो और सज्जन महानुभावों को दिखाई देवे तो वे मेधावी मेरे पर कृपा कर मेरी स्खलना को सुधार कर योग्य मार्गदर्शन प्रदान करेंगे. आजतक यह ग्रन्थ शीघ्र छपवानेके लिये जनेक सज्जनोंने प्रेरणा की थी, उन प्रेरणाओं के फल स्वरूप ही इस समय यह इस महाग्रंथ में अनेक हाथ मुझे सहायक हुए है। उन्हों का मैं ऋणी हुँ. विक्रम सं. 2015 श्री नेमि सं. 10 -मुनि निरञ्जन विजयजी अषाड शुक्ल त्रयोदशी शनिवार ) સચિત્ર જ સુંદર હપ નવીન ચિત્રો સાથે જ ગુજરાતીમાં નવલ ટીકાયુકત શ્રી ગૌતમપછા મૂળ સાથે દ જન ધર્મનું રહય સરલ ભાષામાં જાણવા માટે સૌ કોઈને આ પુસ્તક पाया छे. હ, સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતા જીવ મોક્ષે જ્યારે જાય? સ્વર્ગે કયારે જાય? મનુષ્ય કયારે થાય? સ્ત્રી ક્યારે થાય? પશુપક્ષી કયારે થાય ? અને यारे न२४ य? आये।, डे, गो, सुलो, ढीयो, पांजिये। કેમ થાય વગેરે 48 પ્રશ્નો પ્રથમ ગણધર શ્રી ગૌતમસ્વામીજીએ પ્રભુ શ્રી મહાવીર દેવને પૂછેલા, તેના ઉત્તર પ્રભુશ્રીએ આપેલા તે વિસ્મયકારી બોધક દષ્ટાંત તેમજ સુંદર ચિત્રો સાથે પ્રગટ થઈ છે. જૈન પ્રકાશન મંદિર, 309/4 ડોશીવાડાની પોળ-અમદાવાદ 1, ARR.ACGunratnasuriM.S. Jun Gun Aar Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REEEDSeedseDESEDISE इस पुस्तककी विशेषताएँ MAVELBSVEINA@Jigove * AVESAVEDBAVEN SAAVEDBAVEZBATANGVEIS * आबाल वृद्ध सर्व जनोपयोगी अपनी राष्ट्रभाषा / सरल बोधक रोमाञ्चकारी शैली स्थान स्थान पर प्रसंग के अनुरूप मनोहर सुरेख और भाववाही चित्र * हिन्दी भाषा में बोधदायी दोहे * नीति, उपदेश आदि का वर्णन करते हुए संस्कृत सुभाषित * पुस्तक के अंतिम भाग में परिशिष्ठ के रूप में 'जैन साहित्य और विक्रमादित्य' लेख है जिस से संक्षिप्त रूप में विक्रम संबंधी जन साहित्य की जानकारी मिलती है. * अनुक्रमणिका के रूप में पुस्तक के अग्रिम भाग में सारे पुस्तक का टुक सार दिया है, जो व्याख्यानकार पूज्य मुनि भगवंतादि को बहुत उपयोगी बने. * चित्रों की विस्तृत सूची * इस तरह इस पुस्तक से बोध मिले और धर्म भावना की वृद्धि हो यह इस प्रकाशन की सफलता DAVIDOVE DEVE SADARBO AVETID RIBAVENDE Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवत् प्रवर्तक महाराजा विक्रम दूसरे भाग की-चित्रमूची: आठवा सर्गःमंगलमूर्ति श्री पार्श्वनाथ 20 चि. क्र. 1 व्याख्यान सभा में सूरीश्वरजी और महाराजा विक्रमादित्य... 2 शुकके पीछे पीछे मृगध्वज का जाना ... ... 3 गांगली ऋषि के आश्रम में वृक्ष की शाखा से वस्त्र और आभ षणों का यकायक बरसना.... ... ... ... राजकुमार शुकका बेहोश होना ... 5 केवली भगवान से प्रश्न, शुकराज की वाणी क्यों बंध हो गई ? 6 जितारी राजा द्वारा संघ का अवलोकन ... ... 7 राजा जितारीका शुक योनि में उत्पन्न होना... ... 8 राजा जितारी की रानी हंसी और सारसी की दीक्षा ... 9 श्रीदत्त और शंखदत्त द्वारा समुद्र में पेटी को देखना माता और कन्या को लेकर श्रीदत्त का वन में जाना, वहां बंदर का बंदरीयों के साथ आना ... ... ... 11 ज्ञानीमुनि द्वारा पूर्व बृ-तान्त सुनना... 12 अज्ञात फल का खाना और सोमश्री का रूप परिवर्तन 13 बंदर-व्यतर् द्वारा सोमश्री को ले जाना 14 ज्ञानीमुनि की धर्म देशना ... ... ... 15 सोमश्री को लेकर वानर रूप-व्यतर का गुरु निश्रा में आमा और पूर्व भवका कथन और परस्पर क्षमा याचना 71 80 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 16 रात्रि में स्त्री का रुदन, शुकराज का वहां जाकर तलास करनी 89. 17 विमान में बेठ कर शुकराज का शाश्वत तीर्थों की यात्रा करने जाना और पीछे से चक्रेश्वरी द्वारा नाम पुकारना... ... 94 हंसकुमार और सुरकुमार का युद्ध होना और हंसकुमार द्वारा सुरकुमार की सुश्रुषा .... ... ... .. 98 19 चरक सेवक के जीव-सर्प ने आकर सिंहमत्रीको डंसना... 103. सि हमंत्री का जीव का हंस होना और सुंदर पुष्पों से आदिनाथजी की पूजा करनी ... ... ... ... 104 कदली वन में यशोमती योगिनी के पास चद्रांक के साथ मृग ध्वज राजा का जाना ... ... ... ... 111 22 मृगध्वज राजा को शुभ ध्यान के योग से गृहस्थ-अवस्था में ही केवल ज्ञान की प्राप्ति... ... ... ... 113 23 रूपधारी शुकराज द्वारा उद्यान में आया हुआ असली शुक राज को मंत्री को बताया जाता है... ... 24 सत्य शुकराज का दोनों पत्नीया सह उद्यान में आना और मंत्री से वातालाप करना... ... ... ... 124. 25 शुकराज का विमान यकायक आकाश में ही रुकना ... 128. 26 केवली मुनिसे शुकराज का मिलन और गुरुवंदना कर धर्म देशना सुननी... ... ... ... ... 129 27 तीर्थाधिराज श्री विमलाचल की गुफा में शुकराज द्वारा पंच-परमेष्ठी महामंत्र का छ: मास तक जप और प्रकाश प्रगट होना .... ... ... ... ... 131 28 शुकराजकी रानी पद्मावतीको स्वप्नमें चन्द्रमाका मुखमें प्रवेश 134 शुकराज के वहां पुत्रजन्म, नाम स्थापन और पालनपोषन 135 30 राजसभा में तत्काल फलनेवाली काकडी के बीजके बारेमें विवाद 149. 31 श्रीद-त द्वारा कपटजाल में निष्फलता, सीडी लेकर घर जाओ 151. ना जाता ह... ... ... 122. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 32 शय्या पर बेठकर राजा, मंत्री और मही तीनों उडकर रत्न- पुर जा रहे है ... .... ... ... 154 33 अरिमर्दन राजा और मत्रीश्वरने रूप परिवर्तन कर राजसभा में प्रवेश किया ... ... ... ... 154 34 रत्नपुर की राजकन्या और कन्या रूपधारी अरिमर्दन राजा का परस्पर वार्तालाप हो रहा हैं ... ... ... 156 श्री धर्म घोष-ज्ञानीमुनि की धर्मदेशना और धीर तथा वीरमति के प्रेम के संबंध में राजा का प्रश्न... ... ... 168 36 महातीर्थ श्री शत्रुजय के मार्ग पर प्रयाण और चतुर्विध संघका मनोहर दृश्य ... . .... ... 180 37 तीर्थ यात्रा के लिये गिरिवर पर श्री चतुर्विध संघ अति उत्साहसे चढ रहा है ... . ... 185 38 वि. सा. मे. रा.-राजकुमारके गोदमें बदरका सोना और व्याघ्र 193 39 राजसभा में चारों चोरको पकड मंगवाना और रत्न की पेटीयां चोरों से मंगवानी और एक पेटी कोषाध्यक्ष से मंगवानी आदि वृ-तान्त से राजसभा में विस्मयता फेली ... ... 221 नवम सर्गःमंगलमूर्ति श्री पार्श्वनाथ '40-1 महाराजा की स्वारी घांसीवाडे में ... ... ... 224 11-2 महाराजा का और देवदमनी का चोपाट खेलना ... 229 42-3 क्षेत्रपाल और महाराजा विक्रम... .. 43-4 अग्निवैतालके कांधे पर महाराजा विक्रम का बेठ कर सीकोतरी पर्वत की ओर जाना ... ... .... ... 238 :44-5 इन्द्रकी सभा में देवदमनी का नृत्य . 145-6 महाराजा और राजकुमारी सांढनी पर चले... ... 218 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46-7 महाराजा सो गये और राजकुमारी पांव दबाने लगी ... 249. 4748 महाराजा द्वारा रात्रि में शब्दवेधी बाण मारना ... 250. 48-9 राजकुमारी द्वारा प्रभात में बाण मगवाना ... ... 251 49-10 रूपश्री वेश्या और राजकुमारी ... ... 252 50-11 वहांके राजाने लक्ष्मीवती को पूछा तुम किसकी कन्या हो ? 257 . 51-12 राजा और महाराजा का मिलन... ... ... 260 52-13 महाराजा वेश्या से रत्न की पेटी ले रहे है.... ... 261 53-14 उमादेवी का चरित्र देखना ... ... ... 267.. 54-15 उमादेवी वृक्ष के सहित आकाश में उड गई... ... 268 55-16 सोमशर्मा का उमादेवी का चरित्र देखने जाना 271. 56-17 सर्व रस नामक दण्ड लेकर सोमशर्मादि का भागना ... 276 57-18 राक्षस का पूजा करने घेठना और विक्रमने दण्ड उठा लिया 281 58-19 पुत्रवधने रत्ननों को कण्डों-उपले में थाप दिये... ... 288 51-20 सियाल गुहा को पूछने लगा ... ... ... 288 60-21 मतिसार मत्रीश्वर का सकुटुंब अवन्ती त्याग... ... 291. 61-22 चन्द्रसरोवर पर महाराजा और मंत्रीश्वर का मिलन ... 298 : 62-23 पंचदण्डवाले छत्र से युक्त सिंहासन पर महाराजा बिराज़ने जा रहे हैं ... ... ... ... ... 309. दशम सर्गः तृतीय भाग मंगलमूर्ति श्री पार्श्वनाथ 64-1 विक्रमादित्य की पुत्री प्रियंगुम जरी... ... ... .315.. 65-2 राजपुत्री पति को पुस्तक देती है... 322 66-3 जमाई का कालीका देवी के मंदिर में बेठना... 327. 17-4 राजा विक्रम और कपटी तापस... ___... 337 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ or or m 68-5 सरांवर की मच्छली और रामचन्द्रजी ... ... 340 69-6 पद्मपुर में राजा के सालाको शूली ... ... 348 70-7 वेश्याकी बुद्धि द्वारा तापस से पांच रत्नों को पुनः लेना / 71-8 महाराजा विक्रमने मोजडी को हृदय से लगाई ... 358 72-9 विक्रमने विधाता-देवी का हाथ पकडा .... ... 367 73-10 विवाह मंडप में यकायक ढाल में से बाघ का उत्पन्न होना 374 / '74-11 राजा विक्रम की सभा में अपूर्व मणि रत्न... ... 381 *75-12 एकदण्डया महल में रही हुई सौभाग्यसुंदरी और गगनधूलो ___की चारों आंखो का मिलन ... . ... ... 392 76-13 एकदण्डया महल में राजा का यकायक आना ओर योगी को ___ बुलाना तथा सौभाग्यसुदरी को गगनधूली प्रगट करने कहना 397 -77-14 थप्पड के मार से रूक्मिणी भूमि पर गिर पड़ी.., ... 404 78-15 तीनों खड्डे में रो-रोकर समय बिताते है और सुरूपा अन्न -जल नित्य दे रही है... ... ... .... 416 '79-16 गगनधली के घर महाराजा का पुन: आना और उसका गुणानुवाद करना ... ... ... ... 422 80-17 ज्योतिषी चन्द्रसेन की हस्तरेखा देख रहा है... 81-18 राजपुत्र रूपचन्द्र हाथी को पडकारता है. ... ... 432 82-19 पद्मा और अग्निक परस्पर बातें कर रहें है... 83-20 रूपचन्द्र का वैताल पर स्वार होकर राजसभा में जाना 447 84-21 महाराजा विक्रम और राजदेवी ... ... ... 451 __ ग्यारवा सर्गःमंगलमूर्ति श्री पार्श्वनाथ . 85-22 पूर्व भव में विक्रम चन्द्र वणिक मुनिजी को भाव से दान .. . 88 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86-23 चन्द्रवणिक बकरीयों से मारा जाता हुआ बकरे को बचाता है 463 87-24 अमरसिंह महाराजा शुक से पूछते है ... ... 471 88-25 राजपुत्री वरमाला हाथमें लेकर महाराजा विक्रम के पास पहूँची 478 88-26 कुहाडा लेकर कमल गणेशकी मूर्ति तोडनेको तैयार हुआ 484 88-27 रत्नम जरी वरमाला धन्यसेठ के गले में आरोपित कर रही है 503 89-28 चोर और रत्नम जरी के बिच वार्तालाप ... ... 509 90-29-1 नदी तट पर महाराज विक्रमादित्य और रत्नम जरी वार्तालाप करते है... ... ... ... 520 91-29-2 कोची के कथनानुसार राजा पेटी में बैठने जा रहे है 528 92-30 यकायक बुद्धिसागर मंत्री का कोची के घर आना ... 93-31 रमा तवु में जा रही है ... ... ... 94-32 छाहड भस्म की पोटली वृक्षके कोटर में रख रहा है... 95-33 स्त्री को देख ग्वाला ताजुब हो गया ... ... 541 96-34 राजा बंदरों का झुड को स्नान करते देख रहें ... 97-35 महाराजा विक्रम भट्टमात्र से अपना वृत्तान्त सुना रहे है 98-36 राजाने स्त्री को कंधे पर चडाई ... 99-37 महारामा से राक्षस कहते है 'हम आप के दास है' ... 100 -38 महाराजाने राक्षसो से नारी की रक्षा की ... ... 555 101-39 शतमतिने क्षण में सर्प के टुकडे कर डाले ... ... 102-40 बिना बिचारे कार्य का परिणाम तीनों पंडितो को सिंहने मार खाये ... ... ... ... ... 573 103-41 देवी को केशव ब्राह्मण कह रहा है . ... ... 578 . 104-42 चन्द्रमा के साथ रत्न की तुलना करते रत्न का समुद्रमें गिरना 579 105-43 राजाको शतमति सांपके टुकडे बता रहा है.... ... 580 106-44 स्त्रीने अपने पति से कहा, यह न होते तो सारा घर जल जाता 585 545 549 553 xxx x xxx v 560 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बारया शर्गःमंगलमूर्ति श्री पार्श्वनाथ 107-45 विक्रमचरित्र के ललाट में फूफी-भआ तिलक कर रही है 597 108-46 महाराजा विक्रमादित्य का लाक्षणिक चित्र ... ... 602 109-47 सुरसुदरी के पास मणिमय सिंहासन पर बेठ कर महाराजा ___ कथा सुनाते है ... ... ... ... 603 110-48 सुथार प्रथम प्रहर में काष्ट की पुतली को घड रहा है... 607 111-49 कपडेका व्यापारी-दोशी पुतली को कपडे से सजा रहा है 608 111-50 भीम भट्टारिका देवी के म दिर में जा रहा है... ... 611 113-51 सोम की स्त्री देवी के मन्दिर में बलिदान देने को तैयार हुई 613 114-52 वीरनारायण और देवी... ... 115-53 रूक्मिणी और नारद ... ... ... ... 623 116-54 नारद और मेघवती ... 117-55 कमलाने रूक्मिणी को कुएमें धक्का दिया ... 118-56 राजा, राणी और कंकण 119-57 राजा और रूक्मिणी ... .. 120-58 परकाय प्रवेश की विद्या देनेवाले योगी को महाराजा और ब्राह्मण नमस्कार करते है ... 121-59 कमलादेवी पट्टराणी पोपट-शुकको छै सो मोहरमे खरीद रही है 644 122-60 दुष्ट ब्राह्मण शुक के शरीर में और महाराजा विक्रम ... 646 5 mm au w 0 જૈનધર્મનાં દરેક ભાષાનાં, દરેક વિષયનાં પુસ્તકે માટે અમને પૂછો:– જૈન પ્રકાશન મંદિર 306/4 शीवानी पोण, समहापा-१ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . श्री नेमि-अमृत-खान्ति सद् गुरुभ्यो नमः संवत् प्रर्वतक महाराजा विक्रम द्वितीयभाग का ट्रंक सार सर्ग आठवा पृष्ठ 1 से 222 ...................... प्रकरण 33 से 42 प्रकरण 33 . . . . . . . . . . . . . पृष्ठ 1 से 30 तीर्थ महिमा और शुक्रराज चरित्र ___महाराजा विक्रमादित्य के गुरुदेव पू. श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी का सपरिवार अवती में पधारना, धर्मोपदेश करते हुए महातीर्थ श्री सिद्धाचलजी का महात्म्य फरमाना, श्री शत्रुजय नामके बारे में महाराजा द्वारा प्रश्न पूछना, प्रत्युत्तर देते सूरीश्वरजी अनेक रोमांचकारी प्रसंगो से भरपूर शुकराज की कथा सुनाते है, मृगध्वज का उद्यान में जाना, पोपट द्वारा गर्व खंडन और तोते के पीछे पीछे जाना, ऋषि के आश्रम में गांगलि ऋषि की पुत्री कमलमाला से मृगध्वज का लग्न, वृक्ष से वस्त्रअलंकार की वरसा होनी, अपने नगर प्रति वापिस लौटना, चन्द्रशेखर द्वारा नगर पर घेरा डालना, उसके समाचार जान कर महाराजा को परिताप होना. उतने में खुद के परिवार का यकायक आना और उन से मिलना, चन्द्रशेखर का भी वहां राजा के पास आना, मधुर शब्दों द्वारा कपटपूर्ण बोलना, और स्वस्थान जाना.. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 मगृध्वज का नगर प्रवेश करना, कमलमाला को पट्टरानी बनाना, पट्टरानी को शुभ स्वप्न आना, पुत्र जन्म होना, शुकराज नामकरन करना, उद्यान में राजा का आना, राजपुत्र शुकराज का यकायक मूर्छित होना, . शीतोपचार द्वारा शुद्धि में आना, शुद्धि में आने पर भी अवाक् होना और उसके लिये अनेक उपचार करने पर भी शुकराज अवाक् ही रहता है. प्रकरण 34 . . . . . . . . . . . . पृ. 31 से 49 शुकराज और राजा जितारि प्रजाके आग्रह से मृगध्वज राजा का कौमुदी महोत्सव के कारण उद्यान में जाना, उस वृक्ष को दूर से टालना और उस वृक्ष के निचे देवदुंदुभि नाद होना, सेवक द्वारा उस की खोज़ करने पर मालुम होता है की श्रीदत्तमुनिवर को वहाँ केवल झान प्राप्त हुआ है और देवों द्वारा केवल ज्ञान महोत्सव मनाया जा रहा है. पट्टरानी की प्रेरणा से केवली मुनिवर के पास जाना और केवली मुनिवर से शुकराज के विषय में प्रश्न पूछना; ज्ञानीमुमि द्वारा शुकराज का सविस्तार पूर्व भव कथन उस में जितारी राजा का जीवन, तीर्थ महिमा, सर्वश्रेष्ठ धर्म का ग्रहण, तीर्थ यात्रा के लिये दृढ प्रतिज्ञा, स्वप्न में गौमुख यक्ष का कथन, श्री सिद्धाचलजीकी स्थापना..जितारी राजा का देहान्त, हंसी-सारसी दोनों राणी की दीक्षा व स्वर्गगमन, शुक पक्षी को प्रतिबोध और अनशन व स्वर्ग गमन. ___केवली भगवान से प्रश्न व निर्णय और शुकराज द्वारा गुरुवंदना और बोलना. प्रकरण 35 * * * * * * * * * * * * पृ. 50 से 83 श्रीदत्त केवली का पूर्वचरित्र संसार की अपार लीला पर केवली भगवन्त श्रीदत्तमुनिवरने मृगध्वज राजा-शुकराज व सभा के आगे अपना रोमांचकारी जीवन वृत्तान्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहना. मदिर नामक गाँव में सोमश्रेष्ठि था, उसकी पत्नी सोमश्री, पुत्र श्रीदत्त, सूर्यकान्त राजा द्वारा सोमश्री का अपहरण होना, पत्नी को छुडाने के लिये श्रेष्टि का प्रयत्न व निष्फलता, धन लेकर कोई राजाकी सहाय के लिये जाना. पिता के जाने के बाद धनोपार्जन के लिये मित्र शंखदत्त के साथ श्रीदत्त का परदेश प्रयाण. समुद्र मार्ग से आगे बढते मार्ग में समुद्र के बिच एक पेटी देखनी, धीवर-नाविक द्वारा समुद्र से पेटी निकालवाना, उस पेटी में से एक कन्या का निकलना, उस कन्या के बारे में दोनों मित्रो में परस्पर विवाद, श्रीदत्त द्वारा शंखदत्त को छल से समुद्र में फे कना, कन्या को लेकर सुवर्ण कुल नगर में जाना, वहां के राजा को भेट धरना, राजा द्वारा कर-टेक्स माफ होना, उस राजा की स्वर्ण रेखा चामरधारिणी और पेटीवाली-कन्या को साथ लेकर बन में जाना. एक चंपा के वृक्ष निचे तीनों का बेठना, परस्पर मनोरंजन करना, उतनेमें वानर का वहां आना और मनुष्य भाषा में विस्मयकारक बोलना तथा वानर द्वारा स्वर्ण रेखा को उठा जाना, वन में ज्ञानीमुनि से श्रीदत्त की भेट, उन से वृतान्त पूछना. वानर के शब्दो का रहस्य पाना, माता का पूर्व वृ-तान्त जानना, स्वर्ण रेखा की राजा द्वारा खोज व श्रीद-त को केद करना-शूली की शिक्षा. उद्यान में ज्ञानीगुरु मुनिचन्द्रजी का आगमन, राजा का वहां जाना गुरुदेव द्वारा धर्मोपदेश, स्वर्ण रेखा को लेकर वानर-व्यतर का आना. ज्ञानी गुरु द्वारा श्रीद-त और शंखद-त का पूर्व जन्म कथन, यकायक शखद-त का भी वहां आ पहुचना, परस्पर मिलन व क्षमायाचना. शुकराजने गुरु वंदना कर केवली मुनि से पूछा, 'गत भव को प्रिया थी वे ही इस समय माता व पिता है, उस को मैं तात या माता किस प्रकार कहुँ ? ' गुरुदेवने कहा, 'यह संसार रूपी नाटक की विचित्रता है,' यह सुनकर शुकराजकुमार बोलने लगा, मृगध्वज राजाने कहा, “धन्य आपके समान परोपकारी महात्मा लोगो कों! और पूछा, 'मुझे इस संसार से वैराग्य कब P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त होगा ?" मुनीश्वरने फरमाया कि, “चन्द्रावती के पुत्र को देखोगे तब." मुनीश्वरने वहां से विहार किया, सभाजन आदि नगर में आये. प्रकरण 36 . . . . . . , . . . . . पृ. 84 से 99 चंद्रशेखर मृगध्वज राजा गुरुदेव द्वारा धर्मोपदेश सुनकर सदा मन में धर्म रखते थे और सोचते रहते थे कि, यह असारस सार से मेरा कब छूटकारा होगा? ऋषिपुत्री कमलमालने दूसरे पुत्र हसराज को जन्म दिया, एक दिन गांगलि ऋषि का राजसभा में आगमन, शुकराज का उनकी साथ आश्रगमें जाना, गौमुख यक्ष के साथ ऋषि का श्री सिद्धाचलजी की यात्राको जाना, शुकराज द्वारा जिनमन्दिर व आश्रम की देखभाल करनी, एक रात को रात्रि में कोई स्त्रीका करुण रुदन सुनना, उसकी तलास करने जाना, कारण जान कर पद्मावती राजपुत्री का वन में खोज करने जाना, विद्याधर व युवेग की मुलाकात, वायुवेग को लेकर जिनमन्दिर में दर्शन करने जाना, वहां पद्मावती की भेंट होनी, दोनों को आश्रम में लाकर स्वागत सन्मान करना, वायुवेग को आकाशगामिनी विद्याका विस्मरण होना, वह विद्याशुकराज द्वारा पुन: पाठ कराना, वायुवेगद्वारा शुकराज की भी आकाशगामिनी विद्या पढाना-शिखाना. __ ऋषि का तीर्थ यात्रा से आश्रममें लोटना, शुकराज को विद्या प्राप्ति हुई है वह जानना-आशीर्वाद देना, वहां से विमान में बैठकर वायुवेग और पद्मावती को चपापुरी जाना, अरिमर्दन राजा द्वारा शुकराज और पद्मावती के लग्न होना, वहां से वायुवेग विद्याधर के साथ शाश्वत तीर्थों की यात्रा करने जाना, और वायुवेग के आग्रह से उसके -- गगनवल्लभनगर' में जाना, वहां वायुवेगा के साथ शुकराज का दूसरा लग्न होना, और वहां से श्रीअष्टापदजी महातीर्थ की यात्रा को जाना, मार्ग में चक्रेश्वरी द्वारा पुकारना और उस से मिलन, शुकराज का देवी के साथ अपने माता का संदेशा भेजना, तीर्थ P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्राकर के अपने नगर प्रति जाना और उत्सव के साथ नगर प्रवेश करना. दिनों के बाद यकायक सारंगपुर के वीरांगद राजा का पुत्र सुरकुमार को हंसराज के साथ युद्ध करने आना. उस युद्ध में सुर का बेहोस होना और हंसराज उस की शीतवायु आदि द्वार शुश्रुषा करता है. युद्ध कारण पूर्व का वैरभाव जानना और परस्पर क्षमा प्रदान करना. प्रकरण 37 . . . . . . . . . . . पृ. 100 से 116 श्रीदत्त केवली के द्वारा सुर का पूर्वजन्म कथन श्रीद-त केवली द्वारा सुना हुआ गत जन्म का कथन, सुरकुमार सबके आगे कहता है, हंसकुमार और सुरकुमार का द्वेषका कारण सब जन जानने पाते है, गत जन्म में सिंह मत्री द्वारा चरक सेवक को पीटा जाना, चरक का जीवका श्रीजिन पूजा के प्रभाव से सुरकुमार होना, इत्यादि वृ-तान्त सुनकर लोग विस्मय हुए, उतने में वहां एक बालक का आना, मृगध्वज राजा को प्रणाम करना, उस से राजा पूछते है, तुम कौन हो ? इसी बिच आकाशवाणी होती है, बालक के साथ राजा मृगध्वज का कदली वन में योगिनी के पास जाना, उस के द्वारा चन्द्रावती के पुत्र का परिचय पाना, चन्द्रशेखर को कामदेव का वरदान, कैसे मिला और चन्द्रावती का दुष्कृत्य और यशोमती का परिचय, चन्द्रांक से यशोमती की कामाभिलाष, उस का योगिनी होना, यह सब वृतान्त जान कर मृगध्वज का मन उदास होना, शीघ्र ही दीक्षा का अभिलाष होना तथापि मत्रीयों के आग्रह से नगर में जाना, शुकराज को उत्सवसहित राज्य-आरोहन करा देना. गृहस्थ-अवस्था में ही शुभ भावना के योग से मृगध्वज राजा को रात्री में केवल ज्ञान प्राप्त होना, देवतादि के द्वारा केवल ज्ञान का महोत्सव करना, राणी कमलमाला, हंसराज और चन्द्रांक आदि का दीक्षा ग्रहण करना, चन्द्रावती का राज्याधिष्टायीका को प्रसन्न करना और चन्द्रशेखर के लिये शुकराज का सारा राज्य मांगना, देवी द्वारा समय की राह देखने के लिये कहना. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण 38 . . . . . . . . . . . पृ. 117 से 133 शुकराज का यात्रा के लिये गमन मृगध्वज केवली ‘क्षितिप्रतिष्ठित' नगर से विहार कर गये, शुकराजका न्याय से राज्यपालन करते समय पसार होता है, कोई एक दिन महाराजा शुकराज का अपनी दोनों पत्नी के साथ शाश्वत तीर्थो की यात्रा के लिये गमन करना, चन्द्रावती की सूचनानुसार चन्द्रशेखर का शुकराज के सदश रूप धारण करके आना और कपट जाल फेलाना; शुकराज के रूप में राजघुरा हाथ करना, चारण मुनिवर से अष्टापदजी पर धर्म देशना सुन कर देव और गुरुवर को नमस्कार कर शुकराजका अपने नगर के उद्यान में आना. तीर्थयात्रा करके जब शुकराजको अपनी पत्नीयां सह वापस आया देखा, तब कपटी चन्द्रशेखर द्वारा मंत्री को असली शुकराज को वापस जाने के लिये कहेने भेजता. शुकराज और मंत्री का वार्तालाप-भाग्य-कर्म की विचित्रता मानकर, शुकराज अपनी पत्नीयां सह वहां से रवाना होता है, और आकाश में विमान रुख जाता है वहां मार्ग में केवली भगवान-पिता मुनि का मिलन होता, केवली मुनिकी धर्मदेशना, श्री विमलाचल महातीर्थ की गुफा में छ मास तक नमस्कार महामंत्री का जाप-साधना करने जाने के लिये कहना, श्री केवली मुनि के कथनानुसार महातीर्थ पर जाप करते गुफा में प्रकाश होना-शुकराज का पुण्य प्रगट होना, चन्द्रशेखर को देवीने कहा, 'आज से तमारा शुकराज रूप चला जायगा,' यह सुनकर चन्द्रशेखर का भयभीत होना और वहांसे चले जाना. असली शुकराज का आना. मंत्रीयों द्वारा सन्मानित होना, अपना राज्य सभालना. दिनों के बाद अनेक विद्याधर आदि चतुर्विध के साथ उत्सव सहित महातीर्थ श्री विमलाचल पर यात्रार्थे आना, उस महातीर्थ का 'श्री शत्रुजय' नया नाम जाहेर करना. ___ भटकते भटकते चन्द्रशेखर का महातीर्थ पर आना, पाप का पश्चाताप होना. वैराग्य प्राप्त कर श्री महोदयमुनि के पास दीक्षा ग्रहण करनी और P.R.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम क्षय होने पर चन्द्रशेखर को केवलज्ञान प्राप्त होना. श्री महोदयमुनि से शुकराज का प्रश्न पुनः मुनि सदेह निवारण करते हैं, उस ज्ञानीमुनि द्वारा पूर्व भव कथन और श्री चन्द्रशेखर मुनिवर से परस्पर क्षमा याचना. प्रकरण 39 . . . . . . . . . . . पृ. 134 से 151 शुकराज को पुत्र प्राप्ति ___ शुकराज के वहां पुत्र जन्म, उस पुत्र का नाम चन्द्र रख्खा जाता है, एक रोज श्री कमलाचार्य नामक धर्माचार्य से मिलन-वंदना करना, उनके द्वारा कम और उद्योग की शक्ति जाननी. मुनिवर द्वारा धीर वणिक और धनगर्वित भीम एव अरिमर्दन राजा का वृत्तान्त तथा भीम और श्रीदत्त वणिक का रोचक उदाहरण देकर बोध प्रदान करना. प्रकरण 40 . . . . . . . . . . . प. 152 से 171 मंत्री द्वारा रत्नकेतुपुर नगर ढुंढने के लिये जाना अरिमर्दनका मेहीक दोई की स्त्री द्वारा मंत्री के साथ रत्नकेतुपुर जाना वेश परिर्तन करना, अरिमर्दनका राजकुमारी से मिलना. पश्चात् अपने नगर में जाकर सैन्य साथ कंदोई की स्त्री की सहाय से रत्नकेतुपुर आना वहां के राजा से मुलाकात, पुरुषद्वेषिणी राजपुत्री सौभाग्य सुदरी में परिवर्तन लाकर लग्न करना. सौभाग्यसुंदरी का माता होना पुत्र का नाम मेघकुमार रखना. वरसों जाने पर मेघवती के साथ मेघकुमार का लग्न. एक दिन श्री आदिनाथजी की पूजा के लिए राजा अरिमर्दन परिवार लेकर जाता है. श्री आदिनाथजी की मूर्ति देखते ही मेघकुमार और मेघवती का मूर्छित होना. उपचार करने से शुद्धि में आते है पर बोलते नहीं सकल प्रयत्न वृथा होते है. आखिर गुरुदेव श्रीगुणसुरिजी महाराज के पास जाना सुरिवर के द्वारा मेघकुमार और मेघवती का पूर्व जन्म जानना. वृत्तान्त संपूर्ण P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते दोनों दीक्षा ग्रहण करते है. अरिमर्दन का सम्यकत्व व्रत ग्रहण करना. ये वृतान्त सुनकर वैराग्य होना और शुकराज का अपने पुत्र को राज देकर दीक्षा ग्रहण करना. प्रकरण 41 . * * * * * * * * * * पृ. 172 से 200 अरिमर्दन राजा का नारीद्वेष . महाराजा विक्रम श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी की साथ श्री शत्रुजय गिरिराज की यात्रा करते है, वहां मंदिर का जीर्णोद्धार कराना, ओर अवती आना. दरवार में एक गरीब मनुष्य का आना. उसको द्रव्य देना. वो गरीब मनुष्य नंदराजा की कथा सुनाता है, जिस से राजा प्रसन्न होकर बहुतसा धन देता है. प्रकरण 42 . . . . . . . . . . . . प. 201 से 222 विक्रमादित्य का वेशपरिवर्तन कर नगर निरीक्षण महाराजा विक्रम का प्रजा के सुख दुःख जानने के लिये रात्रिभ्रमण, जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि का अनुभव होना. राजा व्यसनोंको नगरसे निकालते है. फीर चोरों के साथ भ्रमण कर राजमहल में चोरी करवानी तथा उनकी शक्ति का परिचय और उनको पकड कर सच्चा राह दीखाना. महाराजाका बुद्धिकौशल्यता का अपूर्व नमूना. सगे नवमा पृष्ट 223 से ३१०............................प्रकरण 43 से 46 प्रकरण 43 . . . . . . . . . . . पृष्ट 223 से 242 देवदमनी महाराजा विक्रम एक दिन आनद विनोद करने को गये थे, वापस आते समय देवदमनी के शब्द सुन कर महाराजा शोच में पड गये. राजसभा में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 आकर उन्होंने उस को बुलाने को सैनिक को भेजा. सैनिक नागदमनी को लेकर आया. महाराजाने देवदमनी को बुलाने का कारण कहा. प्रत्युत्तर में नागदमनीने देवदमनी के साथ चोपट खेलने का और उस के मकान तक भेदी मार्ग बनाने का कहना, महाराजाने मार्ग बनवाया, और चोपट खेलना शरू किया, सारा दिन खेलने में व्यतित कर रात को महाराजा नगरचर्चा सुननेदेखने चले, जनता का अभिप्राय ठीक नहीं था, महारराजा वापस महेल को आये, एक रोज गया, दुसरा रोज गया, महाराजा देवदमनी को हरा न शके. तीसरे रोज महाराजा नगरचर्चा को निकले. घुमते घुमते नगर बहार आये, वहां क्षेत्रपाल से मिलन हुआ, देवदमनी को जितने का उपाय मिल गया. अग्निवैताल की सहायता से देवदमनी हार गई, महाराजा और देकदमनी का उत्सवसहित लग्न हुआ. प्रकरण 44 . . . . . . . . . . पृ. 243 से 263 रत्नपेटी प्राप्ति के लिए प्रयास नागदमनी के कहने से महाराजा विक्रम ताम्रलिप्ति नगर में गये. नगर की शोभा देखते देखते महाराजा चन्द्रकी पुत्री लक्ष्मी देवी के महल में अदृश्य रूप से रहे. समय जाने पर राजपुत्री के पूर्व संकेतानुसार भीम सांढनी लेकर आया, राजकुमारीने भीम को रत्न पेटी उतारने को कहा, भीमने वयसा ही किया, महाराजाने अग्निवैताल की सहायता से राजकुमारी का वस्त्र हरण किया, राजकुमारी दुसरा वस्त्र लेने गई उस समय अग्निवैताल को भीम को दूर देश ले जाने को महाराजाने कहा, और महाराजाने राजकुमारी के साथ सांढनी पर स्वार हो चल दिया, रास्ते में महाराजाने जूगारी के रूप में अपना गलत .परिचय दिया. राजकुमारी अपने कम की निंदा करने लगी. रास्ते में उन्होंने मुकाम किया, रात में सिंहगर्जना सुनकर रानकुमारी गभराने लगी. महाराजाने अपने तीर से सिंह-वाघ को मार निश्चित होकर सो गये. प्रातःकाल को तीरको लाने के लिये राजकु P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारीको भेजा, राजकुमारी तीर लेकर वापस आई. और आगे प्रयाण किया, वे लक्ष्मीपुर के उद्यान में पहूँचे. महाराजा वन में ही राजकुमारी और रत्नपेटी को छोड कर भोजन सामग्री लेने को नगर में गये, उसी समय रूपश्री वेश्या वहां आई. कपट कर राजकुमारी और रत्नपेटी को अपने घर ले गई, उस को वेश्या जीवन जीने को कहा, बाद में कोटवाल के पुत्र को सौंप दी, राजकुमारी झरुखे में बेठी थी उस समये बिल्ली चुहे को ले जा रही थी, उस को कोटवाल पुत्रने मीट्टी को ठेला मारा और * अपनी बहादुरी का गुणगान गाने लगा. राजकुमारी को उस पर नफ़रत आई, और जल कर मर जाने का निर्णय किया, रूपश्री महाराज के पास दौडी, राजकुमारी जलने जा रही थी, वहां महाराज आये उसको समझाने लगे, वहां महाराजा विक्रम आ पहूँचे, राजकुमारी और महाराजा विक्रम का मिलन हुआ, परिचय-लग्न वेश्या को अभयदान देकर रत्नपेटी लेना और अवतीगमन. प्रकरण 45 . . . . . . . . . . . प. 264 से 285 उमादेवी नागदमनी के कहने से महाराजा सोपारक' नगर में सोमशर्मा के वहां छात्र रूप से रहने लगे, और सोमशर्मा की पत्नी उमादेवी का चरित्र देखने लगे. उमादेवी के पास ‘सर्व रस दड' होने से वह देवसभा में जाती थी. - महाराजा विक्रमने अग्निवैताल की सहायता से उसके पीछे जाकर सब कुछ सुना-देखा, दुसरे दिन गुरु से कहा और गुप्त रूप में वृक्ष में बिठाया. सोमशर्माने भी सब कुछ देखा-सुना और आगे क्या करना उस की मंत्रणा महाराजा विक्रम के साथ की, कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन क्षेत्रापालने जयसा कहा था वयसा उमादेवीने किया. बलिदान देनेकी तैयारी की. महाराजा विक्रम सर्व रस दंड को लेकर भागे, उन के पीछे सब कोई भागे. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 योगिनिया और क्षेत्रपालने उमादेवी का बलिदान लिया, भागे हुए महा-- राजा विक्रम और सब कोई श्रीपुर नगर में आ पहूँचे. मानवहीन नगर देखते देखते महाराजा राजमहेल में जा पहूँचे. वहां राजकुमारी चन्द्रावती से मिलन हुआ. उसने भी राक्षस की जुलम कथा सुनाई, उसी से महा.. राजाने राक्षस का मृत्यु का उपाय भी जान लिया, राक्षस जब पूजा में बैठा था उसी समय महाराजाने उस का 'वज्रदंड' लेकर उस का नाश किया अग्निवैताल की सहायता से श्रीपुर नगर के राजा और प्रजा को वहां लाई गई, महाराजाने प्रेम से महाराजा विक्रमादित्य के साथ अपनी पुत्री का लग्न किया. महाराजाने अग्निवैताल को भेज कर उमादेवी का समाचार मंगवाया.. समाचार जानकर पंडित और छात्र को बहुतसा द्रव्य देकर संतुष्ट किये.. वज्रदड, सर्व रसदंड और राजकन्या के साथ महाराजा अवती पहूँचे. प्रकरण 46 . . . . . . . . . . . . पष्ट 286 से 310. मंत्रीश्वरका देशनिकाल व महाराजा का पाताल प्रवेश नागदमनी के कहेने से महाराजा मंत्री मतिसार के कुटुंब अवती से दूर करते हैं, किन्तु मंत्रीकी छोटी पुत्रवधू अपनी होशियारी से दुःख के समय में आश्वासनरूप होती है, फिर भी भाग्य अपना रंग जमाता है, दु खी को दुःख ही मिलता है. एक दिन नागदमनी के कहेने से महाराजा विक्रम मतिसार मंत्री को बुलाने को जाते है. वहां पर पटह का शब्द सुन कर मंत्री को स्पर्श करने को कहेना, और इन्द्रजालिक की बनाई हुई वाटिका को फूल युक्त करना. ए देख कर राजा अपनी पुत्री विश्वलोचना का लग्न महाराजा. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम से करता है, जनता उस पर कुछ न कुछ बोलती है, मंत्री मति• सार महाराजा का परिचय देता है. * अग्निवैताल की सहायता से सदा फल देनेवाले आमका बीज लेकर मंत्री के साथ महाराजा अवती गये. नागदमनीने महाराजा को सुपात्र -दान देने को कहा, महाराजाने वयसा ही किया. एक दिन महाराजा घुमते घुमते पुरोहित के घरके पास आये, वहां हरताली और जईतु का संवाद सुना, महाराजाने उस का चरित्र देखनेको बटुकका रूप लिया, हरतालीका और सखीओं का भार अपने मस्तक पर लेकर उनके पीछे पीछे महारजा चले सखिया वसुधा स्फोटक दौंड से पृथ्वी फोड पाताल में गई. वहां * विषनाशक दौंड' से सर्प को दूर करते सरोवर में स्नान करने गई, दंड और पुष्पछाव बटुक-महाराजा विक्रम को देकर जलक्रीडा करने लगी. महाराजा विक्रम अग्निदैताल की :सहायतासे लग्न करने को तैयार हुवे. नागकुमार को अदृश्य कर नागकुमार जयसा अपना रूप बनाकर श्रीकी पुत्रीसे पाणीग्रहण किया. वह तीनों सखिया वहां जब आई तब विक्रम महाराजाने अपना बटुक का रूप बनाया, उन्होंने दौंड मांगा, महाराजाने अपना रूप प्रगट किया, ये देख कर वह ताज्जुब हुई, शादी करने को तैयार हुई, महाराजाने उनहों की साथ शादी की, बाद में नागकुमारो को प्रगट किये, नागकुमारोने सुरसुंदरी नामक कन्या और मणिदड महाराजा को दिया. चंद्रचूड नागकुमारकी कन्या कमला का लग्न नागकुमार से करके दंड और कन्याओं के साथ महाराजा अवती को आये. नवमा सर्ग समाप्त. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय भागः-सर्ग दवा पृष्ठ 311 से 455 .................... प्रकरण 47 से 55 प्रकरण 47 . . . . . . . . . . . . पठ 311 से 333 कवि कालिदास का इतिहास : परदुःखभजन न्यायी महाराजा विक्रमादित्य को प्रिय गुमजरी नामक पुत्री थी. उस को वेदगर्भ नामक विद्वान पढाते थे, एक दिन वेदगर्भ दूर से आ रहे थे उस समय प्रिय गुमंजरीने उनका उपहास किया. वेदगर्भ से यह सहन न हुवा, और शाप दिया, वह शाप विधिने उन्हों के हाथों से पूर्ण करना निर्मित किया था. पुत्री के लग्न विषय में चिन्तित महाराजाने वेदगर्भ को सुंदर वर की खोज करने को कहा, वेदगर्भने वह मजूर किया, प्रस्थान किया, कई दिनों के बाद एक ग्वाला के परिचय में आये, उन को वे लेकर आये और उन को राजसभा में कम से बोलना, चलना, बैठना वगरैह शिखाया. ___ एक दिन उस को लेकर वेदगर्भ सभा में आया. वह ग्वाला स्वस्ति कहेना भूल गया और उपरट बोल गया. वेदगर्भ ने उसका अर्थ -रहस्य समजाया, महाराजा वहुत प्रसन्न हुवे-आखिर में वह ग्वाला की. साथ राजकुमारी का लग्न हुवा. दिनों के बाद अपना पति मूर्ख है वह राजकुमारी जान गई. . ग्वाला को भी अपनी मूर्खता के लिये दुःख हुवा और काली माता की उपासना करने चला, उपासना करने पर देवी प्रसन्न न हुई. राजाने चिन्तित होकर देवी को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया. किन्तु परिणाम शुभ नहि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आया अंत में काली नामक दासी को वहां भेज कर वरदान के शब्द कहलाये. वह सुनकर कालिदास प्रसन्न हुए. वहां राजकुमारी आयी, देवी कालिकाने प्रत्यक्ष होकर कालिदासी का वचन प्रमाण किये. ग्वाला महान कवि कालिदास हुवे. प्रकरण 48 . . . . . . . . . . . . पृष्ट 334 से 353 - महाराजा विक्रम का देशाटन के लिये जाना. .. महाराजा विक्रम अपने साथ पांच रनो लेकर पद्मपुर में आये, वहां उनहोंने प्रथम दृष्टि से एक तापस को निलोभी मान कर अपने रत्न उस की पास रखने को गये. तापसने हा ना किया, पर अन्त में महाराजा वहां रत्न छोडकर चले. महाराजा भ्रमण करके वापस आये, और जहां तापस की मढुली थी वहां एक आलिशान मकान देखा, तापस को भी देखा, उस की पास जा कर महाराजाने अपने रत्नों के लिये कहा, तापसने इन्कार किया. महाराजा मंत्री और राजा के पास फरियाद करने चले, पर उनहों की चाल देख कर निराश हुए, अपने रत्नों की सहिमलामती दिखाई नहीं. . कामलता वेश्या से महाराजा का मिलन हुवा. दोनों ने मत्रणा को और तापस के पास जाने का समय ठीक कर लिया. पूर्व संकेतानुसार प्रथम महाराजा तापस के पास आये और अपने रत्न के लिये मांग कि, उसी समय कामलता वेश्या थाल में रत्नों लेकर आई और तापस को अपनी पुत्री जल कर मर रही है इस से अपनी सारी संपत्ति भेट करनी है इत्यादि कहने लगी, तापस संपत्ति के मोह में पडा, और महाराजा विक्रम के पांचो रत्न देकर अपनी प्रतिष्ठा रखने का प्रयास किया. महाराजाने एक रत्न तापस को भेट किया, उसी समय कामलता की दासी आई और कहा, " आप की पुत्रीने जल कर मरने का P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार छोड दिया है." यह सुनकर दासी को रत्न मरा थाल देकर तापससे कहा, 'वापिस आती हूँ.' यह कह कर कामलता चलती हुई. महाराजा विक्रमने बुद्धिमति कामलता को एक रत्न भेट किया और जो तीन रत्नों पास थे वे मार्ग में गरीव को दे दिये. प्रकरण 49 . . , . . . . . . . . . प. 354 से 364 नया राम बनने की आकांक्षा ___ महाराजा विक्रमादित्य राम जैसा राज करते है, असा मन में सोचते अपने को नया राम कहलाने चाहते थे. मंत्रीगणने महाराजा को ये आकांक्षा छोडनेको कहा पर भानभुले महाराजाने एक भी न सुनी-न मानी, आखिर में उनका गर्व दूर करने को अयोध्या से विद्वान को बुलाया, उसने महाराजा को अपने साथ अयोध्या चलने को समजाये, और महाराजा थोडे राजकर्मचारीओं के साय अयोध्या चले, वहां ब्राह्मणने श्री रामचन्द्रजी की प्रजावात्सल्यता दिखाने के लिये जमीन खुदवाई, उस में से एक रत्नजडित मोजडी मीली, महाराजाने उस को छाती से लगाई. वह मोजडी थी चमारन की-पद्मा चमारन की. विद्वान ब्राह्मणने उसकी कथा सुना कर महाराजा का गर्व दूर किया. प्रकरण 50 . . . . . . . . . . . . पृ. 365 से 378 विधाता से महाराजा का मिलन पृथ्वी पर्यटन करते हुवे महाराजा चैापुर नगर में आये. उस दिन धनशेठ के वहां उत्सव हो रहा था. महाराजा उत्सव का प्रयोजन जान कर शेठ के वहां गये, रात को विधाता से मिलन हुवा. भाग्य के लेख जान लिया, और वह बालक की शादी में आने का निर्णय कर लियास्वीकार लिया. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लग्न के समय महाराजाने बहुत सी सावधानी रखी. पर विधि का लेख मीट नहीं सकता. ढाल में से सिंह उत्पन्न हुआ और वरराजा को मार डाला. आनंद की जगह हा...हाकार हो गया, सब रोने लगे, महाराजा विक्रम आश्वासन देते हुए अपना बलिदान देने को तैयार हुए. देवी की प्रार्थना की, देवी प्रगट हुई और बालक को सजिवन किया तत्पश्चात् महाराजा अवती गये. प्रकरण 51 . . . . . . . . . . . . प. 379 से 357 रत्नप्राप्ति व उस का मूल्य एक दिन महाराजा विक्रमादित्य समक्ष एक वणिकने अपूर्व रत्न लाकर रखा. उस का मूल्य कराने को जौहरीओं को बुलाये. वे मूल्य कर न सके, किन्तु उन्होंने कहा, 'इसका मूल्य बलिराय करेंगे' महाराजा वणिक से रत्न लेकर पाताल में गये. अपनी बुद्धि से बलिराय की मुलाकात की, रत्न का मूल्य पूछा, रत्न देख कर बलिरायने युधिष्ठिर की कथा कही और मूल्य बताया, महाराजाने अवती में आकर वणिक को बुलाकर रत्न का मूल्य दिया. प्रकरण 52 . . . . . . . . . . . पृ. 388 से 405 एकदंडिया राजमहेल _एक दिन रात्रिचर्या में सौभाग्यसुदरी नामक कन्या का वचन सुन कर महाराजाने उनकी साथ शादी की. और उस को स्त्रीचरित्रा बताने को कहा, उसको एकदडिया महल में रखी. समय बीतने पर गगनधूली से सौभाग्यसुदरी की आंख मिली. उसने एक पत्र डाला, गगनधली पत्र पढकर उस को मिलने आया, और हमेश वो आता जाता रहने लगा. एक दिन महाराजा ये बात जान गये, उस पर विचार करते महाराजाने खडहरमें योगी की मायाजाल भी देखी. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ महाराजाने सौभाग्यसुदरी को भोजन बनाने को कहा, योगी को वहां बुलाया, योगी आया, भोजन के लिये बैठा. महाराजाने योगी के पास स्त्री को प्रगट करवाई, स्त्रीके पास पुरुष प्रगट करवाया, और सौभाग्यसुदरी से गगनधली. महाराजाने सब को अभयदान दिया और गगनधली से अपना परिचय देने को कहा, गगनलोंने अपना परिचय देना शरू किया, कोशांबीपुरी के चन्द्रशेठ की लडकी रूक्मिनी से कयसे शादी हुई, वेश्या की मोहजाल में कयसे फँसा, अपने बापकी मिलकत कयसे फना को, अपनी पत्नी गरीबी हालतमें घरबार छोडकर एक तावीज के साथ अपने बापके घर कयसे गई, वेश्या के घर से कयसे निकाला गया, अपनी पत्नी के हाथ से कयसे भिक्षा ली और अपनी स्त्री का कुचरित्र देखा, उस के प्रेमीकने उसे क्यों मारा, और उस के हाथ से गिरा हुवा तावीज उस के हाथ में कयसे आया, तावीज में रहा हुआ रहस्य जानकर वह कयसे अपने गांव आया. प्रकरण 53 . . . . . . . . . . . पृष्ट 406 से 423 गगनधूलीका रहस्यमय जीवन वृत्तांत चालु तावीज में रहा हुआ रहस्य जानकर अपने घर में खुदाई का काम शरू किया, उस को धन मिला, वह पुनः श्रीमत हुवा, अपने स्वसुर के घर गया, वहां रात को अपनी स्त्रीसे उस का चरित्र कहा. सुनते ही रूक्मिणीने अपना प्राण छोड दिया, उस के बाद रूक्मिणी की बहन सुरूपा से लग्न किया. सुरूपाने अपने प्रतिव्रत की प्रतीति के लिये कभी भी न मुरझानेवाली फूलकी माला दी. यह सुनकर सुरूपा के पतिव्रत की परीक्षा करने का महाराजाने निश्चम P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया. अपने सेवकों से अपना निर्णय कहा. मूलदेव नामक सेवक जाने को तयार हुवा. गगनधली के गाँव में जा कर मूलदेवने एक वृद्धा से परिचय किया. उसके द्वारा जाल बिछाई, बिछाइ हुई जाल में खुद ही फस गया. सुरूपा का कैदी बना. दिनों के बाद शशीभूत गया, वही वृद्धा को मिला, शशीभृत और वृद्धा दोनों सुरूपा के वहां केदी हुवे. अब खुद महाराजा गगनधली के साथ आये. सुरूपाने ये तीनों को एक पेटी में बंध कर महाराजा को दिये, रास्ते में उन्हों का परिचय-घटस्फोट हुवा, महाराजा गगनधली के गाँव वापस आये, और गगनधली-सुरूपा को अभिनंदन देकर अवती गये. प्रकरण 54 . . . . . . . . . . . पृ. 424 से 438 स्वामीभक्त अघटकुमार ज्योतिषी चन्द्रसेन को भविष्य कहता है, उस चन्द्रसेन और मृगावती की कामलोलुपता. चन्द्रसेन का ज्योतिषी को महाराजा के पास ले जाना वहां दुसरे दिन ज्योतिषी पट्टहस्ति का मृत्यु होनेवाला है, कहता है, इस बात की परीक्षा करने को ज्योतिषी को राजा अपने वहां रखता है. दुसरे दिन हाथी पागल हो जाता है, एक ब्राह्मणी को अपनी सूढ में लेकर मारने को तैयार होता है, राजकुमारका यकायक आना, राजकुमार और हाथी का युद्ध, हाथी का मृत्यु, प्रजा में हर्ष होना, राजकुमार को अभिनंदन देना, इस अभिनंदन समारंभ में मुख्य मंत्री के सिवा सब कोई आतें है इस से राजा मंत्री से नाराज होते है, मंत्री अनुपस्थि का प्रयोजन कहता है. इस हाथी के मरण से दुश्मनों आनंद मनायेगे, ये सुनकर राजा राजकुमार पर अप्रसन्न हो जाता है, राजकुमार इस वर्ताव को अपमान समज कर राज छोडकर अपनी पत्नी के साथ चला जाता है, रास्ते में पुत्र का जन्म होता है. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीनों अवती में आते हैं पत्नी और पुत्र को श्रीनशेठ की दुकान पास बीठा कर राजकुमार नौकरी की खोज में जाता है. उसी समय श्रीद् को ज्यादा विकरा होने से वह ये मा-लडके के पास आता हैं. उतने में राजकुमार भी आता है, और अवंती छोड कर जाने की बात करता है. श्रीद् शेठ उन्हों को अपने घर रखता है, रात में परिचय बढता है, साडी व घोडी इनाम में देता है. प्रकरण 55 . . . . . . . . . . . . प. 439 से 454 रूपचन्द्र की परीक्षा श्रीद् सेठ से रूपचन्द्र राजकुमार महाराजा विक्रम से मिलने का उपाय पूछता है. श्रीद् शेठ उस को रास्ता बताता है, किन्तु वह ठीक मालुम नहीं होने से खुद फलफलादि लेकर जाता है. पहेरगीर उस को राजसभा में नहीं जाने देता है. रूपचन्द्र उस को लप्पड मारकर स्वयं सभा में जाता है, महाराजा को भेट देता है. महाराजा प्रसन्न होते हैं, और उस को रहने के लिये मकान की व्यवस्था करने की भट्टमात्र को आज्ञा देते है. उसी पहेरगीर को महाराजा की आज्ञा का अमल करना पडता है, वह रूपचन्द्र को अग्निवैताल का भयजनक मकान रहने के लिये दिखाता है. रूपचन्द्र मकान देखकर खुश होकर पत्नी और बच्चे को लेने के लिये जाता है, श्रीद् सेठ को सब बाबत कह कर अपने भाग्य पर भरोसा रखकर पत्नी-पुत्र के साथ मकान पर आता हैं, बहार जाता है, उसी समय अग्निवैताल भतगण के साथ वहां आता है, और उस का पराभव होता है, रूपचन्द्र अग्निवैताल पर बैठ कर शहर में घुमकर राजसभा में जाता है. महारराजा उस का नाम अघटकुमार रखता है और अंगरक्षक बनाता है. एक रातको करुण रुदनस्वर सुनकर महाराजा अघटकुमार को प्रयो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर रही थी वहां अघटकुमार आता है. महाराजा वहां आकर छुप जाते है, रुदन का प्रयोजन अघटकुमार पूछता है, 'राजा कल मरजानेवाला है.' देवी कहती हैं, अघटकुमार महाराजा को बचाने का उपाय पूछता है, देवी उन को उस का पुत्र का बलिदान देने को कहेती है. और अघटकुमार अपने पुत्र का बलिदान देकर ही रहता है, बलिदान देकर अघटकुमार चला जाता है, बाद में महाराजा वहां आकर देवी के सन्मुख मरने को तैयार होते है, देवी प्रगट होकर महाराजा की इच्छा पूर्ण करती है. बच्चा को सजीवन करती हैं. दूसरे दिन महाराजा अघटकुमार को सहकुटुंब अपने वहां बुलाते है अपनी पत्नी के साथ अघटकुमार महाराजा के वहां जाता हैं. महाराजा बच्चे के लिये पूछते है, अघटकुमार ज्यों त्यों जवाब देता है. अंत में घटस्फोट होता है. वफादार अघटकुमार को महाराजा विक्रमने जागीरी दी. वह अपने राज में गया, पिताका वारसा प्राप्त कर न्यायी राजा होता है महाराजा . विक्रम और रूपचन्द्र की परस्पर प्रीति बढती है. सर्ग ग्यराहवा प्रकरण 56 से 64 ..................... पृ. 457 से 593 प्रकरण 56 . . . . . . . . . . . प. 457 से 468 महाराजा विक्रमादित्य का पूर्वभव श्रवण व प्रायश्चित् महाराजा विक्रमादित्यने आचार्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी से अपना पूर्व भव के लिये पूछा, आचार्य श्रीने महाराजा का पूर्व भव कहा साथ ही साथ भट्टमात्र, अग्निवैताल और खपर के संबंध में भी कहा, और अंत में पापका प्रायश्चित लेने की आवश्यकता बताई, और हरेक जीवको प्रायश्चित P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेना ही चाहिये कहा, महाराजाने गुरुदेव समक्ष सम्यक् आलोचना ली और पुण्य कर्म करने लगे, सो जिनालय और एक लाख जिन बिम्ब भी बनवाये. प्रकरण 57 . . . . . . . . . . . . पृ. 457 से 593 समश्या-पादपूर्ति लक्ष्मीपुर नगरके राजा अमरसिंह को एक पुत्र और पुत्री थी. पुत्र का नाम श्रीधर और पुत्री का नाम पद्मावती, बुद्धिशाली पद्मावती विद्वान थी साथ ही एक तोता भी पंडित था, दोनोंने अपनी बुद्धिमत्ता दिखाई. पुत्री जय विवाह योग्य हुई, तब तोता से मंत्रणा कर दूर देश के राजकुमारों को निमंत्रण दिया, चारों दिशा से आये हुवे राजकुमारों चारों दिशा में बैठे, तोताने क्रमशः राजकुमारों को भिन्न भिन्न समस्या कह कर पूर्ण करने को कहा, किन्तु सब आये हुए राजकुमारो का प्रयत्न निष्फल गया. कुछ दिनों के बाद तोता, राजकुमारी और मंत्रीश्वरादि योग्य वर की शोध में निकले, जहां जाते वहां समस्या कहते, किन्तु कोई पूर्ण कर नहि सकता. आखिर भ्रमण करते वे अवती में आये, तोताने महाराजा से वृत्तान्त कहा, महाराजा विक्रमादित्यने पादपूर्ति करके पद्मावती से लग्न किया. प्रकरण 58 . . . . . . . . . . . . पृ. 479 से 493 . गुलाव में कंटक पद्मावती के प्रेमपाश में बंधे हुए महाराजा से देवदमनी और अन्य रानियोंने पक्षपात की फरियाद की, और स्त्रीचरित्रमय कथा कहते हुवे मण्डक की, पद्मा की और रमा की कथा कह कर सत्य का दर्शन कराया, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजाने लोलुप धन्य किसान की कहानी सुनकर उसको द्रव्य . देकर सुखी किया. प्रकरण 59 . . . . . . , . . . . . प. 494 से 504 धन्य सेठ और रत्नमंजरी धमिष्ट धन्य सेठ की धर्मपत्नी उन्हों की अंतिम अवस्था में मर गई, पडोश में रहती हुई रत्नमजरी जो धर्म परायण थी, जो लग्न करना नहीं चाहती थी, उसी के दिल में धन्य सेठ की सेवा करने की इच्छा हुई, वह धन्य सेठ से मीली अपनी दिलकी बात कही, और अंत में लग्न किया. लग्न के वाद रत्नमजरीने धन्य सेठ की अनन्यभाव से सेवा की, उसकी प्रशंसा चोदिश होने लगी, महाराजा के कान तक पहोंची. महाराजाने परीक्षा लेने का विचार किया. प्रकरण 60 . . . . . . . . . . . . पष्ठ 505 से 513 रत्नमंजरी व महाराजा विक्रम महाराजा विक्रमादित्य मुसाफर का वेश लेकर धन्य सेठ के वहां आये रत्नमंजरीने उनका आतिथ्यसत्कार किया, रात को रहने की जगा दी. रात के समय रत्नमंजरी जो पति की सेवा कर रही थी उस को देख कर महाराजा मन ही मन प्रसंशा करने लगे. उसी समय द्रव्य हरण करने के लिये एक चोर श्रेष्ठि के घर में आया, उस को देखते ही रत्नमजरी का पाप उदय में आने से भावना द्वारा पतन हुआ, उसने चोरसे भोग की इच्छा प्रदर्शित की, चोर गभराया, उसने कहा, 'विवाहित पति के सामने वो असा नहि कर सकता, यह सुनते ही रत्नम जरीने अपने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पति को गले में नख देकर मार डाला, तत्पश्चात् भोग के लिये कहा, चोरने इन्कार करके दुसरे दिन इच्छा पूर्ण करने को कहा, यह देख महाराजा क्रोधित हुए. . . चौर जाने लगा तो रत्नम जरीने प्रवेशद्वारसे जाने को कहा, चोर जेसा प्रवेशद्वार के पास आया, उसी समय द्वार उस पर गिरा और यकायक वह वहीं मर गया. चोर को मरा हुआ देख कर रत्नमंजरी आंसु बहाने लगी, प्रभात में शोर मचा के पडोशी को इकट्ठे किये, झूठ बात कह कर चिता प्रवेश की बात कही, लोगों रत्नमजरी को चिता प्रवेश नहीं करने को समझाने लगे. . प्रातःकाल में कई लोगोंने महाराजा से बात कही, और रत्नम जरी की प्रशंसा की, महाराजाने ये सुनकर मन में हसते हुवे रत्नम जरी को मानपूर्वक स्मशान ले जाने को कहा. रत्नम जरी गुरु सन्मुख पाप-आलोचन कर अंतिम विधि कर घोडी पर सवार हुई, लोगों दर्शन के लिये दोडने लगे, रत्नम जरी नदी तट पर मणिभद्र यक्ष का मंदिर था वहां पहूँची. घोडी से उतरकर जनता को आशीर्वाद देती, भिक्षुको को दान देने लगी, महाराजा और महारानी आये, रत्नमंजरीने उन्हों को भी आशीर्वाद दिया, तत्पश्चात् महाराजाने रत्नमजरी के कानों में धीरे से रात का उस का चरित्र कहा, महाराजा सब कुछ जान चूके है, वह रत्नम जरी समझ गई और कहा, “राजा ! पापोदय से असा होता है, तुम्हें स्त्रीचरित्र जानना हो तो कोची हलवाईन के घर जाना" कहकर आशीर्वाद देकर चिताप्रवेश किया. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण 61 . . . . . . . . . . . पृ. 524 से 536 . कोची हलवाइन के वहां महाराजा का पहूँचना कोची हलवाईन के वहां महाराजा का जाना, कोची उनको पहचान लेती है, स्नानादि करा कर चूपचाप एक पेटी में बेटने को कहती है, महाराजा वैसा ही करते हैं, थोड़ी ही देर में बुद्धिसागर मुख्य मंत्री मोरपी छी-लेखनी देकर पेटीपे बेटाती है, पेटी वहां से उडकर महारानी मदनमजरी के महल में आती है, मदनमंजरी बुद्धिसागर को प्रेमसरोवर में स्नान कराती है, महाराजा अपनी पत्नी और मंत्री का दुष्ट कृत्य देखकर लालपीले होते है किन्तु शांति नहीं छोडते. प्रातःकाल होने से पहले मत्रीश्वर पेटी पे बेठकर कोची के घर आते है, और मोरपीछी देकर, अपनी और मदनमजरी को ओर से नमस्कार कर जाता है, बाद में कोची हलवाईन महाराजा को पेटी से बहार निकाल कर क्रोधकी शान्ति के लिये उपदेश देती हैं, महाराजा उसको नमस्कार कर महल को आते है, दूसरे दिन वुद्धिसागर गत्री और रानी मदनमंजरी को देशनिकाल का दंड देते हैं. प्रकरण- 62. . . . . . . . . . . . पृ. 537 से 551 छाहड और रमा - एक पंडितने महाराजा को स्रोचरित्रा की कथा सुनाते कहा, रमाने अपने प्रियतम से मिलने के लिये अपने पति छाहड को कयसा बनाया, छाहड के मन में रमा के लिये अविश्वास पैदा हुआ. छाहडने एक सिद्ध पुरुष . से अमृतकुपिका प्राप्त की, जब वो बहार जाता तो रमा को भस्म कर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देता, और आता तब अमृतकुपिका से अमृत छांटकर रमा को जीवित करता, कितने दिनों के बाद उसको यात्रा जाने की इच्छा हुई. उसने रमा से बात कही उस की भस्म करके वृक्ष की शाखा के कोटर में गठडी बांधकर रखी और वह यात्रा के लिये चला गया, तत्पश्चात् एक ग्वाल वहां आया, उसने गटडी देखी, लेने गया तो भस्म में अमृतबिंदु पड गया. यकायक रमा जीवित हो गई, और उस ग्वालसे आनद-प्रमोद करने लगी. छाहड का आने का समय हुआ, रमाने जलाकर भस्म करने को ग्वाल से कहा, ग्वालने वैसा ही किया, भस्म की गठही बांधकर कोटर में रख दी, यात्रा करके छाहड आया रमाको जीवित किया. उसी समय उसके अंगसे बास आने लगी, खोज करते ही ग्वाल मिल गया. सब वृत्तान्त जाना, इससे छाहडने विरक्त होकर तापस से दीक्षा ले ली. रमा भी कुमार्ग सेवन से पाप उपार्जन कर दुःखदायक नर्क में गई. दूसरे पंडितने लोहपुर में रहनेवालों की धुर्तताकी बात कही, महाराजाने वह गांव देखने का विचार किया, पहले भट्टमात्र को भेजा, उसके बाद महाराजा चले, रास्ते में एक वन में ठडे और गरम पानी के कुंड देखे, वानरलीला भी देखी, आश्चर्य गरकाव हो खुदने भी अजमायस की, और आगे चले, रास्ते में चोर मिले, उनसे घोडा, खाट, गुदडी और थाली लेकर लोहपुर आये, घोडा बेचकर कामलता वेश्या के वहां रहे. वेश्याने / धन देनेवाली गुदडी और दूसरी चीजें महाराजा से पडा ली और घरसे बहार निकाल दिये, रास्ते में भट्टमात्र से मुलाकात हुई. उस को महारामाने सब वृत्तान्त कहा. दोनोंने मत्रणा कर जहां कुंड थे वहां गए और पानी लेकर कामलता वेश्या के वहां गये. युक्ति से कामलतापे पानी छांटकर बदरी बनाई, बाद में भट्टमात्रने महाराजा को योगीवेश पहना कर जंगल में बिठाये और वह आया कामलता के वहां. कामलता की अक्का कामलता बंदरी हो जाने से शोर मचा रही थी. भट्टमात्रने उस के पास आकर योगीराज की प्रशंसा की, वेश्या को वहां ले चला. योगीमहाराजने लुटी हुई चीजें P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगवाई, और अब से किसी के साथ फरेव-कपट नहीं करने का कहकर कामलता को बदरी रूपसे मुक्त करके अवती चले. प्रकरण 63 . . . . . . . . . . . पृ. 552 से 581 महाराजा का मन्दिरपुर नगर में जाना एक दिन महाराजा मन्दिरपुर गये थे. वहां का सेठ भीमका पुत्र मर गया था, उस को चिता में रखते थे तो भी वारंवार वहां से घर चला आता था. यह बात वहां के राजा को सुनाई गई, राजाने ये शब को जलानेवाले को इनाम दिया जायगा जैसा ढिंढोरा पिटवाया. महाराजा विक्रम शब लेकर स्मशान में आये, वहां डाकन से मुलाकात हुई. उस का चरित्र देखकर महाराजाने ललकारा, डाकन अदृश्य हो गई, दूसरे प्रहर में शब के पास जंगल में सोये थे, वहां से राक्षस उठाकर दूसरे जंगल में ले गये, वहां धधकती हुई आग पे एक बडी कडाहि रखी थी, उसमें राक्षसो लोगों को डालते थे. वे जब महाराजा को डालने तैयार हुवे तब महाराजाने उनका सामना किया, और पराभव किया, जीवितदान दिया, तीसरे प्रहर में एक स्त्रीका रुदन सुन कर राक्षस से युद्ध किया. राक्षस को मारा, नारीको बचाई, चौथे प्रहर में शतं कर के शबसे जुआ खेलने लगे, शबको हराके उसको जलाया, मदिरपुर आये सब वृत्तान्त कहा. राजाने इनाम दिया. बह महाराजा विक्रमने गरिबों को दे दिया. वहां से भ्रमण करते हुए महाराजा स्त्रीयों के राज में आये, स्त्रीयोंने उनको सदाचारी जानकर चौद रत्नों दिये वे रत्नों भी महागजाने रास्ते में गरिबों को दे दिये. एक रातको महाराजा सोये थे उसी समय स्त्रीका रोने का अवाज सुनाई दिया, महाराजाने अपने अंगरक्षक 'शतमति' को भेजा, शतमति स्त्रीके पास पहुँचा, और रोने का कारण पूछा. 'महाराजा को सौंप आज डसेगा महाराजा का मृत्यु होगा.' उस स्त्रीने-देवीने कहा, कारण जानकर शतमति P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वापस आया, उसी समय महाराजा सोये हुए थे. शतमति सांपकी राह देखने लगा. उतने में काला भयंकर सांप आया. शतमतिने उसे मार डाला, और एक बर्तन में उस के टुकडे रख कर बर्तन को दूर रख दिया, सांपके मुँह से कुछ जहर के बुंद रानी की छाती पर गिरे थे. उसको शतमति अपने हाथों से पोंध्ने लगा, उसी समय महाराजा की आंख यकायक खुल गई. शतमति का कृत्य देखा, और मारने का विचार हुवा, किन्तु शांत रहे.. समय पूर्ण होते ही उसको विदा किया, दूसरा अंगरक्षक 'सहस्त्रमति' वहां आया, महाराजाने उसको शतमति को मार डालने की आज्ञा दी. सहस्त्रमति शतमति के वहां गया. उसी समय शतमति अपने घर पर नाटक करवा रहा था और दान दे रहा था. उसका पवित्र चहेरा देख कर शतमति निर्दोष है असा मान लिया, वापस आया और महाराजा को ब्राह्मणी और नेवला की कथा कह कर शांति से काम लेनेका कहा. या सुनाइ. उसका समय पूर्ण होते ही उस को विदा किया, तीसरा अंगरक्षक 'लक्षमति' आया, उस को भी महाराजाने शतमति को मारने की आज्ञा दी, लक्षमतिने महाराजा को श्रेष्ठी पुत्र सुदर की कथा कहते हुए चार पंडितो की तथा शशक और सिंह की कथा सुनाई. ___ उसको भी समय पूर्ण होते ही विदा किया, चौथा अंगरक्षक कोटि-. मति पहरे पर आया, महाराजाने उसको भी शतमति को मारने की आज्ञा दी. कोटीमतिने केशव की कथा महाराजा को शांत करने के लिये कही. उस का समय पूर्ण होते ही वह गया. प्रातःकाल होते ही महाराजाने कोटवाल को बुलाया, शतमति को फांसी * और सहस्त्रमति, लक्षमति, कोटीमति उन तीनों को देशनिकाल की सजा करने को उस से कहा, कोटवालने महाराजाने जो कहा सो किया. शतमति को जब फांसी पे ले जा रहा था तो शतमतिने महाराजा से मिलने की विज्ञप्ति की, कोटवाल शतमति को महाराजा के पास ले / P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.1 * आया, शतमतिने सांप के टुकड़े बताते हुए रात का सारा वृत्तान्त कहा, महाराजाने उस से संतोष हुआ और शतमति को गांव दिया. सहस्त्रमति, लक्षमति और कोटीमति को अच्छा इनाम दिया. प्रकरण 64 . . . . . . . . . . . . पृष्ट 582 से 593 राजसभा में ब्राहामण का आना एक दिन एक ब्राह्मणने स्त्रीचरित्र के लिये कहा. महाराजाने उस को * नजरकेद करके साक्षात्कार करनेको चले, दूर देश में जाकर साक्षात्कार करके वापस आये, ब्राह्मण को छोड दिया, और द्रव्य भी दिया. कुछ दिनों के बाद शालिवाहन से युद्ध हुआ. युद्ध में महाराजा की 'छाती में शालिवाहन का तीर लगा, उस से उन्हों का मृत्यु हुआ. महाराजा की अंतिम क्रिया करके महाराजा विक्रमादित्य का पुत्र विक्रमचरित्र युद्ध करने को आया, शालिवाहन का पराजय किया, उस से * संधी की, आचार्य श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वजी म. विक्रमचरित्र को सांत्वन देने आये, और नवीन महाराजा को शोकमुक्त किया. सर्ग बारहवा 'पृष्ट 595 से 658 ......................... .प्रकरण 65 से 67 प्रकरण 65 . . . . . . . . . . . पृष्ट 595 से 618 ___ श्री विक्रमचरित्र का राज्याभिषेक राजकुमार विक्रमचरित्र जैसे सिंहासन पर बैठने गये उसी समय 'सिंहासन अधिष्टायिका देवीने उस को रोका, और कहा, 'तुममें महाराजा P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 विक्रमादित्य जैसी योग्यता नही हैं." साथ ही सिंहासन को जमीम में गाड देने का सूचन किया. सिंहासन को जमीन में गाड दिया गया, और नया सिंहासन बनवा कर विक्रमचरित्र को उस पर बिठाया. विक्रमादित्य को बहनने नये महाराजा को आशीर्वाद दिया. उसी.समय सिंहासन पर की चामरधारिणीयों हंसी और महाराजा विक्रमादित्य के रोमांचकारी जीवनप्रसंग कहने लगी. शुकयुगल के वचन से महाराजा, भट्टमात्र और अग्निवैताल को शुकने कहा हुआ नगर की खोजमें भेजते है, दोनों वह नगर शोधकर महाराजा को समाचार देते है. महाराजा वहां जाते है, और वहां की अबोला राजकुमारी को वामन ब्राह्मण की कन्या सावित्री की, चार मित्रों की, . दो मित्रों की, और विश्वरुपराजा की कथा कह कर अग्निवैताल की सहायता से चारबार बुलाते है. और उस कन्या से लग्न करते है. प्रकरण 66 . . . . . . . . . . . पृ. 619 से 635. रूक्मिणी का कंकण __ दूसरी चामरधारिणी महाराजा विक्रमादित्य की गुण कथा कहने का शरु करती है. महाराजा की सभा में रुक्मिणी की कथा विप्रने कही, देवशर्मा की पुत्री को सौंतीली मा हैरान करती है, उसी को नारदजी इन्द्रपुत्र से मिलन कराता है, उसको स्वर्ग में ले जाते है, समय बितने पर नारदजी के सूचन से - उसी को वापिस उसी के गांव लौटाते है. रूक्मिणी घर को जाती है, उसी समय उस का एक दिव्य कंकण मार्ग में गीर जाता है. रूक्मिणी जब घर को आती है तब उसकी सौतीली मा-कमला सब आभूषण युक्ति से ले लेती है. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमीन पे गिरा हुआ ककण वहां के राजा के हाथ में आता है. वह अपनी राणी को देता है, राणी दूसरा कंकण के लिये हठाग्रह करती है, मंत्री से मंत्रणा कर राजा प्रजा को आभषण पहनकर भोजन के लिये निमंत्रण देता है, रूक्मिणी की सौतीली मा कमला अपनी पुत्री को आभषण पहेना कर भोजन के लिये भेजती है, मत्री आभषणयुक्त कमला की पुत्री को देख कर धाकधमकी से सब बात जान जाता है, अंतमें राजा और रूक्मिणी का लग्न होता है. राजा अपनी राणी को दिया हुवा क कण . ले लेता है. राणी निराश हो जाती है. - कुछ दिनों के बाद रूविमणी पुत्रा को जन्म देती हे, कमला रूक्मिणी को अपने घर ले आने के लिये अपने पति को कहती है. देवशर्मा राजा के ‘पास जाता हैं. और रूक्मिणी को घर ले आता है. एक दिन कमला उस को कुवे पे ले जा कर उस में गिरा देती है और अपनी पुत्री लक्ष्मी को राजा के वहां भेजती है. राजा कमला का कपट जान जाता है. और कूवे में गिरने तैयार होता है, मत्री उसको समजाता है. कूवे में गिरी हुई रूक्मिणी को तक्षक-नागदेव ले जाता है और पतिपत्नी के रूप में रहते है. तक्षक रूक्मिणी को उस के बच्चे के लिये कहता है, रूक्मिणी उस की आज्ञा लेकर राजा के वहां आती है और बच्चे को स्तनपान कराके कुछ आभषण छोड जाती है. दूसरे दिन राजा आभूषण देखता है, और अपनी पत्नी को पकडने के लिये तैयार होता है तीसरे दिन पतिपत्नी का मिलन होता है, तक्षक वहां आता है. राजाको डंस देता हैं, राजा उस को मार डालता है, और स्वयं भी मर जाता है, दोनों को मरे हुवे देख कर रूक्मिणी स्मशान में सेवकों के साथ मरसे आती है. वहां इन्द्रपुरा मेघनाद का यकायक आना, सबको जीवित करना. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..47 . . . . . . . . प्रकरण 67 . . . . . . . . . . . . पृ. 635 से 658 विक्रमादित्य की सभा में जादुगर की इन्द्रजाल तीसरी चामरधारिणीने एक वैतालिक की कथा कही, जिस में वैतालिकने अद्भुत चमत्कार दिखाया, महाराजा विक्रमादित्यने उन को पांडय देश से आई हुई भेट दे दी. चौथी चामरधारिणीने एक कृतघ्न ब्राह्मण की कथा सुनाई. महाराजाने परकाय प्रवेश की विद्या प्रदान करवाई. उस कृतघ्न ब्राह्मणने उपकार करनेवाले पर अपकार किया, तथापि अपकार करनेवाले पर भी महाराजाने उपकार किया. इत्यादि चार चामरधारिणी की रोमांचकारी कथा सुनकर विक्रमचरित्रा और सारी सभा आनंद अनुभव करने लगी. विक्रमचरित्रा का तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय की यात्रा के लिये जाना, वहां जावडशा द्वारा उस महागिरिवर का उद्धार करना उस में विक्रमचरित्र का सहयोग होना इत्यादि अद्भुत वृत्तान्तो के साथे चरित्र पूर्ण होता है, और अंत में विक्रम और जैन साहित्य के बारे में निबंध दिया गया है. શ્રી તત્ત્વાર્થસૂત્ર સાથે -તેના અભ્યાસકોને ખાસ ઉપયોગી. મૂળ સૂત્ર, નીચે હરિગીત છંદમાં કાવ્યરૂપે, પૂ. ઉપાધ્યાય શ્રી રામવિજયજીગણિ મ. કૃત ગુજરાતી અનુવાદ અને તેના ઉપર સુંદર વિવેચન અને ખાસ ઉપયોગી પ્રશ્ન શ્રેણી–યુત સુંદર છપાઈ તથા સુઘડ પાકું બાઈન્ડીંગ छता प्रत्यार भाटे 6. 3. 3-0-0 प्राप्तिस्थान- (2) 5. मुलास आतिहास (1) मासुमा ३चनाथ // है. हायामाना, रतनपण, અંબાજીના વડ પાસે–ભાવનગર અમદાવાદતે સિવાય પ્રસિદ્ધ જૈન બુકસેલરને ત્યાંથી પણ મલશે. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ધાર્મિક સ્થાનમાં પ્રભાવના કરવા યોગ્ય સસ્તા અને સુંદર શ્રીનેમિ-અમૃત-ખાંતિ-નિરંજન-ગ્રંથમાળાના પ્રકાશનો 1 શ્રાવક કર્તવ્ય હિન્દી 0-6 | 20 અખાત્રીજને મહિમા 2 જિનેન્દ્રગુણ મણિમાલા 0-11 19 ચિત્રો સહિત કથા 0-12 3 વીતરાગ ભકિત પ્રકાશ 05 21 ભગવાન શ્રી આદિનાથ 2-8 4 જિનેન્દ્રગુણ મણિમાલા-નવી 22 શાસનસમ્રા જીવનકથા કાવ્ય ભેટ આવૃતિ ખંડ 1-2 0-13 23 નેમિનાથ અને શ્રી કૃષ્ણ 2-0 24 મૌન એકાદશીનો મહિમા -4 5 લઘુ સંવાદ સંગ્રહ - 25 પિષ દશમીનો મહિમા 0-8 6 નૂતન સ્તવન મંજુષા 0-10 426 સિદ્ધચક્ર-યંત્રોદ્ધાર–પૂજનવિધિ. 7 મહાપ્રભાવિક નવસ્મરણ | (સંસ્કૃત) પોથી ભેટ તેત્રાદિ સંગ્રહ 0-6 - 27 હિન્દી વિક્રમચરિત્ર ભા. 1 5-0 '. 8 કલ્યાણકાદિસ્તવન સંગ્રહ 0-6 9 સ્થાપનાચાર્યજી સચિત્ર 0 - 1 428 સામાયિક સૂત્ર ગુજરાતી) 0-2 10 નવપદની અનાનુપૂવી 0-2 29 મનમોહન મજરી હિન્દી , ચિત્યવંદન વિધિ પ્રાચીન૧૧ સુરિસમ્રાટ્રની સંક્ષિપ્ત નૂતન સ્તવનાદિ જીવનપ્રભા 30 પર્વાધિરાજનો મહિમા 12 હિન્દી વિધિયુકત સામાયિક કથા (સચિત્ર) 0-3 સૂત્ર સચિત્ર 0-6 31 નાગકેતુ કથા (સચિત્ર) 0-3 13 હિન્દી મનમોહન સ્તવના 32 મેઘકુમાર કથા (સચિત્ર 0-3 - વલિ 33 શેઠ નાગદત્ત કથા સચિત્ર) 0-3 ' 14 સુબોધદાયક દુહા સંગ્રહ 0-4 34 સતી પ્રભંજના અને 415 રત્નાકર પચ્ચીશી સાથે 0-2 રોહીણી કથા (સચિત્ર) 0-3 x16 સ્નાત્ર પૂજા સચિત્ર 0-2 435 પૂ. 5 શ્રી શિવાનંદ૧૭ અવંતીપતિ વિક્રમાદિત્યની | વિજયજી ગણિ ચરિત્ર–ભેટ - ધાર્મિક જીવનકથા 15 ચિત્રો -10 36 શ્રી ગૌતમપૃચ્છા વૃતિ સંસ્કૃત * - 10 શ્રેષ્ટિ ગુણસાગર 11 ચિત્રો પિોથી–સોનેરી પાટલી સાથે 3-6 સહિત સુંદર કથા 0-8 37 મહાશ્રાવક આનંદસચિત્ર 0-5 19 જ્ઞાનપંચમીને મહિમા 38 શ્રી ગૌતમપૃચ્છી-ગુજરાતી નવલ વિવરણ યુકતમૂળ 30 સાત ચિત્રો સહિત 39 હિન્દી વિક્રમ ચરિત્ર બે જીવનકથા - | ભા. 2-3 બને ભાગ. 8-0 . . પ્રાપ્તિસ્થાન: જેને પ્રકાશન મંદિર, ડોશીવાડાની પિળ, અમદાવાદ. 0-4 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaraditak Trust Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . .. . . . . . . . . .. . .. . . . . . .. ..00 I . . . .. HDDIT .. . . . . . - - . श्रीयुत् कानराज हीराचंदजी महेता-मुथा विरामि-राणी राजस्थान ( मारवाड) जन्म वि. सं. 1987 स्वर्गवास वि. सं. 2089 ............ . 1000000 unanaca . . . . . . ऐसे नररत्न नवयुवक की स्मृतिमें शाह हीराचंदजीने "विक्रमचरित्र" प्रकाशनमें 500 रु. की सहायता प्रदान कर ज्ञान प्रचार का पुन्य श्रेय प्राप्त किया है. 11HUPATNI Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयुत् कानराजजी हीराचंदजी महेता-मुथा विरामी (रानी मारवाड ) धर्मप्रेमी जेठमलजी और हिराचंदजी ये दोनों भाई विरामी (राजस्थान) में निवास करते थे. जिस में से श्री जेठमलजी श्री बरकाणा गोडवाड जन महासभा के सेक्रेटरी थे उन्होंने ये पद पर रहकर वर्षों तक सेवा की थी और सुयश उपार्जन कीया था. और श्री हिराचंदजी भी बडे भाई की तरह धर्म प्रेमी सज्जन है. श्री धर्मप्रेमी हिराचंदजी के वहां कानराजजी का जन्म वि. संवत 1987 के श्रावण कृष्ण 13 को विरामी ग्राम में हुआ. उन्होंने वरकाणा बोर्डिंग में प्रारंभिक शिक्षण प्राप्त कर जोधपुर के कुशलाश्रम में मेट्रिक तक अभ्यास किया, पश्चात् सेवाडी के प्रमुख श्रीमत शाह उम्मेदमलजी रीखबाजी राठोउ की सुपुत्री श्री सुखीबाई के साथ स. 2004 फाल्गुन वदी 5 को आपका शुभ महुर्त में लग्न हुआ. श्री कानराजजी एक अच्छे सेवाभावी उत्साही, धर्मप्रेमी, मातापिता के परमभक्त व विनयवान् , आज्ञाकारी नवयुवक थे. विराम नवयुवक समाज के सिरमौर सितारे थे. युवक समाज को अपनी इस विभूति पर बडा गर्व था. और इन के सहयोग से धर्म व समाज तथा ग्राम सेवा का . हरकार्य बडी सुगमता से वे करते थे. श्री कानराजजी बडे मिलन सार व बडी उदार प्रकृति के थे. हरएक को सुख पहुँचाना, कीसी को जरा भी कष्ट न पहुँचे इसका उनको बडा ध्यान रहता था. विरामी ग्रामनिवासी जनता को अपने इस होनहार युवक विभूति से बडी 2 आशाएँ थी, पर कहा है कि " जिसकी यहाँ चाह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.0 उस की वहाँ चाह.” इस उक्ति अनुसार कराल कालने इस अर्धविकसित कलिका को कवलित कर लिया, और संवत 2009 कार्तिक वदी 6 के दिन आप स्वर्ग सिधार गये, सारा ग्राम शोकाकुल हो उठा. युवक समाज से खलबली मच गई. ___ आज थी उन की याद कर विरामीवासी जनता श्रद्धा के * आंसु प्रकट करती है. / आपकी धर्मपत्नी सुखीवहन सुशील एवं धर्म प्रेमी -- सन्नारी है, जीवन में धर्म क्रियादि में भावनाशील है. उपधान, * अट्ठाई और वरसीतप आदि कई तपस्या की है और सदा ही ' सादाई और धर्म परायणशील है. ऐसे नररत्न नवयुवक की स्मृति में शाह हीराचंदजीने : “विक्रमचरित्र" प्रकाशन में 500 रु. की सहायता प्रदान कर ज्ञान प्रचार का पुन्य-श्रेय प्राप्त किया है. श्रीमान जेठमलजी हीराचंदजी ये दोनों बांधवों अपनी सहज उदार वृत्ति से धर्मकार्य में समय समय पर धन व्यय करते ही रहे है, विरामी गांव के जिनमदिर में श्री कानराजजी की स्मृति-निमित्तक आरसपहान के महातीर्थो के मनोहर पट्ट करवाये और श्री संघ को भेट कीये है तथा आत्मोन्नतिकारक श्री उपधान की तपस्या भी अपने ही गांव में श्री संघकी निश्रा में अपनी ओर से वि. संवत 2011 की साल में कराई और शासन शोभा में वृद्धि कर अच्छा धव व्यय करके पुण्यभागी बने. जिस तरह आज तक धर्मकार्य में यथाशक्ति धन व्यय करते आये रसी तरह धर्मभावना नवपल्लवित रखें यही एक शुभकामना. -प्रकाशक P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gurt Aaradhak Trust Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदार महानुभावों की शुभ नामावलि:. प. पू. मुनिराज श्री खान्तिविजयजी म. सा. तथा पूज्य मुनिराज श्री निरञ्जनविजयजी महाराज श्रीके उपदेश से उन्होंने प्रथम भाग के अग्रिम ग्राहक होकर हमें प्रोत्साहन दिया था, उन्होंने पुनः दूसरे व तिसरे भाग में ग्राहक होकर हमें पुनः उत्साहित किया. नकल ] नाम [गाम 11 श्री कान्तिलाल पुनमचंदजी, मस्कती मारकीट, अमदावाद 11 , कुंदनमल समरथमलजी- , ,, 11 ,, चुनीलाल दीपचंदजी 27, , ,, कान्तिलाल चीमनलालजी , ,, भगवानजी पुनमचंदजी , 1. चन्दाजी मिश्रीमलजी का 5 , हजारीमल धर्मचंद , 5 , कान्तिलाल चुनीलाल 5 , मुलचंद आशाराम 5 , अचलदास नथमलजी .. 3 ,, हसमुखलाल गिरधारीलालजी , 2 , चन्दनमल करणदानजी , Co श्री अचलदास शुकनराजजीवाले .2 , रतनचंद जेठमलजी " " 1 ,, समरथमल हेमाजी मडार . C/o भगवानजी पुनमचन्दजी महावीर मारकीट ,, . x x Y 4 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ,, उमेदमलजी रीखबाजी राठोड सेवाडी ___1 , गुलाचंदजी उमाजी - मुंबई नं. 8 1 ,, अमरचंदजी हीराचंदजी .. . बाली / ४विक्रमचरित्र के तीनों भाग के अग्रीम ग्राहक होनेवाले 3 महानुभावकी शुभ नामावली नकल गाम 9 श्री ताराचंद मोतीजी मु. जावाल 5 ,, पुखराज कस्तुरचंदजी मलीया शिवगंज 5 , रीखवदास खीमाजी जावाल 5 ,, राजमल पुरवरान C/oजवानमल कस्तुरजी. मालगाम 3 , हंसराज पीथाजी दांतराई 5 ,, दूरगचंद धरमचंदजी विजयवाडा ,, सांकलचंद रासाजी मार ,, नागराज उमेदमलजी ढालावत , खीमेल ,. चंदनमलजी गुलाबचंदजी विजोवा ,, देवीचंद लुम्बाजी शिवगंज 1 ,, हीराचंद रूपाजी पोरवाल यह " जुहारमल देसाजी जा रही 1 ,, लखमीचंद थानमलजी. . . 1.. ,, छोगमल नेमाजी o aw x - - - 1 , भभूतमल गुलाबचंदजी, हस्ते शान्ताबहन शिवगंज 1 , उमरावबाई ..... शिवराज . 1.., पेपीबाई .. साडी .* P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ܚ ܚ 1 , भगवानदास बालचंदजी गुगलीया सादडी 1 ,, चुनीलाल लालचंद शिवगंज 1 , सेसमलजी रायचंदजी हस्ते सरेमल नावी 1 , मगनीरामजी भूताजी-कलापुरा , ....... शिवगंज 1 , नथमल भीकमचंदजी...... जावाल 1 .. मगनलाल सांकलचंदजी .... 1 ,, फुलचंद चमनाजी ... 1 , मगनलाल लालचंदजी ... " 1 , चंपाबाई ह. गेनमल भभूतमलजी ." 1 . भभतमल भगवानजा ............. . " 1 , देवीचंद गलबाजी 1 ,, समरथमल पानाचंरजी 1 , लालचंद सदाजी. 1 , सरूपचंद मुलाजी . 1 , हजारीमल डुगरचंद-दांतराई कोलापुर 1 . मुलचंदजी C/o पुनमचंद मुलचंद ही कोलापुर 1 , मनरूपजी ओटाजी हस्ते लखमीचंदजी सिरोही 1 , छोटालाल नरशींगजी C/o नरशींगजी डुंगाजी. 1 , खुमाजी मानाजी (सिल दर आबु) . C/o श्री अमीचंदजी भानाजी . पुना 1 , पुरवराज चीमनाजी सेवाडीवाले ... ,' 1 , भीकमचंदजी चन्द्रभाणजी मु. परेवा, वाया फालना 1 , सरदारमलजी भीमाजी का दांतराई , जारामल डुगरचंद दांतराई मुंबई P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܩ .7 विलीपुरम् ܩ ܩ .1 , कुंदनमल हमीरमल . सादडी 1 ,, धरमचंद देवाजी मेरमांडवाडा B. P. M. ., पुसालाल मेघराजजो बरलुठा ... C/0 जे. मेघराज शाहुकार 1, मीठालाल हजारीमलजी (विजोवावाले) दादर 1 ,, सोगमल नथाजी दोसी , दादर ,, सांकलचंद प्रेमाजी (ओसवाल रामसेनवाले) पुना ,, अगरचंद सरदारमल मी बाफणा सादडी , बरलुट जैन संघ मु. बरलुट (जी. सिरोही) 1 , राणमल हजारीमलजी विनायक 1 ,, लालचंदजी रामचंदजी बाफणा . ह. सेसमल जवानमल पेण सेवाडी . 1, देशाजी जेठमलजी मु. यादगीरी-म्हेसुर स्टेट 1.,. चंदनमल सुरजमलजी गांधी मु. बाकर। 1, सिंघवी पारसमल गोतमचंद रसमल गातमच द ... सोजत ܩ खडप स, प्रचार के लिये प्रथम भाग की पुस्तकें लेकर हमारी ग्रंथमाला को प्रोत्साहन दिया उन सहायक- .. 1. महानुभावों की शुभनामावली :नकल ) .. (गाम 21 शाह मुलचंदजी सजमलजी ह. सागरमलजी सादडी 11 शाह चंदनमलजी कस्तुरचंदजी ११.मीठालालजी पृथ्वीराजजी-मेलावाला .. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxx 0 0 , मियाचदजी संतोकचंदजी सादडी 10 , हीराचंदजी पुनमचंदजी उपधानवाले 5 ,, जसराजजी सहजमलजी ह. ओटरमलजी . , गुलाबचंदजी पुनमचंदजी 5 , सेरमलजी देवीचंदजी 3 ,, फतेचंद फोजमलजी 2 , कपूरचंद जुहारमलजी 1., सरेमल सागरमलजी 5 , सरेमल्ल धनराजजी बाली ,, ताराचंद जुहारमलजी सेवाडी , शान्तिलाल लालचंद पिड़वाडा 1 , देवीचंद गंगारामजी ह. राजमल बानी 1 , पुखराज गंगारामजी बाली , मांगीलाल धनराजजी नाडोल 1 ., संघवी चौथमलजी (मेवाड-राजस्थान) जाहजपुर 1, भुरमल ताराजी दांतराई 1 ,, लालचंद वक्ताजी दांतराई धर्मानुरागी सेठश्री थानाजी जेठाजी अमदावाद-माधुपुरा, की शुभ प्रेरणा से प्रेरित होकर जो महानुभावोंने इस पुस्तक के अग्रीम ब्राहक हुए उन सज्जनों की नामावलीः 1 शाह रमणलाल मोहनलाल. भा. 1-2-3 2 शाह मंगळचंद चुनीलाल. भा. 2-3 1 शाह नथमलजी गेनमलजी इ. मीसरीमल. भा. 2-3 0 0 0 0 0 0 xxx . . .. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 शाह हिंमतलाल जवानल मडारवाले. भा. 2-3 . 1 शाह कस्तुरचंद दलीचंद. भा. 2-3 1 शाह ताराचंद चुनीलाल. भा. 2-3 1 शाह करणराजजी जीवराजजी. भा. 2-3 1 शाह मेघराजजी प्रेमचंद. भा. 2--3 1 शाह शीवलाल मुलचंदजी साचोरवाला भा. 2-3 1 पुरोहित किशनाजी लुणाजी. भा. 2-3 1 माधवलाल मणीलाल पेथापुरवाला. भा. 2-3 1 महावीरचंद भोगीलाल, पांचप्रादवाळा. भा. 2-3 श्री गौतमपृच्छावृत्ति संस्कृत सटीक इस ग्रंथ में प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामीजीने भगवान श्री महावीरस्वामीजी को जो प्रश्न पूछे थे उन्हों का प्रत्युत्तर रोचक भाषा में दिया है. / इस ग्रंथ व्याख्यान के लिये उपयोगी है उस लिथे इसका संपादन बहोत परिश्रमपूर्वक किया गया है. भाववाही प्रभुश्री महावीरस्वामीजी और गौतमस्वामीजी के फोटों से अलंकृत सोनेरी पाटली है. . कीमत रु. 3-0-0 डाक खर्च रु. 1 अलग पता-रमेशचन्द्र मणीलाल शाह "C/o मणीलाल धरमचंद शाह जेसंगभाई की चाली, पांजरा पोळ-अमदावाद P.P.AC. Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAणा // श्रथा र महारामा विक्रम BOARDADDDOORDI 20 .. MAAAAAAAAI PHAAMANG 902 PO880888HHOROS982880 KOO O K. OPorec MORCELOPMENT OR.OM VARU ano ICATIO Af. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust लेखक साहित्य प्रेमी मनिक्षी निरंजन विजयजी महाराज Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A bru AI / / शासनसम्राट् तपागच्छाधिपति अनेक तीर्थोद्धारक प्रौढ प्रभावशाली जैनाचार्य, पूज्यपाद स्वर्गीय श्रीनेमिसूरीश्वर गुरुभ्यो नमो नमः संवत्-प्रवर्तक महाराजा-विक्रम [ प्रथम भाग-परिचय ] गग्गे काम गवी भली, तत्त सुरतरु वक्ष / मम्मे मणि चिंतामणी, गौतम स्वामी प्रत्यक्ष / / इसी परम पवित्र भारतवर्ष में धन धान्य-समृद्धि आदि परिपूर्ण सुविख्यात मालव देश है / इसी मालव देश में क्षिप्रा नदी के तट पर प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव के सुपुत्र अवंती कुमार के नाम से प्रसिद्ध होने वाली अवंती नगरी है। जो वर्तमान में उज्जैन के नाम से प्रसिद्ध है। ___ इसी अवंती नगरी में आज से 2500 वर्ष पूर्व श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामी के समय में चन्द्रप्रद्योत राजा गज्य करता था। उनके बाद क्रमशः नवनन्द, चन्द्रगुप्त-चाणक्य, अशोक महाराजा, सम्राट संप्रति, आदि राजाओं ने न्याय नीति से यहां राज्य किया था। बाद में इसी नगरी में गंधर्व-सेन ( गर्द मिल्ल ) नामक राजा हुए। जिनके भर्तृहरि तथा विक्रमादित्य नामक दो पराक्रमी पुत्र / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Tru Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) थे। भर्तृहरि अपनी प्रिया पिंगला (अनंगसेना)के द्वारा संसार के मोहजाल का परिचय प्राप्त कर अपने वैराग्यमय जीवन को प्राप्त / हुए / भर्तृहरि के वैरागी बन जाने पर अपने पराक्रम बल से उनका उत्तराधिकार विक्रमादित्य ने प्राप्त किया / इन्हीं महाराजा विक्रमादित्य ने अपने अतुल बल और उदार वृत्ति से अनेक परोपकारी कार्य कर जगत में अपूर्व यश उपार्जित किया / महाराजा ने भारतवर्ष की संपूर्ण जनता को उऋणि बना कर सुखी बनाया। इन्हीं महाराजा ने अपने नाम से नया विक्रम संवत् चलाया / इनके जीवन के अनेक रोमाञ्चक प्रसंगों तथा आश्चर्य जनक कहानियों से परिपूर्ण तथा अनेक सुन्दर आकर्षित भावपूर्णचित्रों से युक्त 500 पृष्ठ का प्रथम भाग गत दो वर्ष 'पूर्व प्रकाशित हो चुका है। ___ इस लिए पाठकगण वह पुस्तक प्राप्त कर एवं पढ कर उसका रसास्वादन करें। उसके अनुसंधान में उसका यह दूसरा भाग आपके हाथों में प्रस्तुत है / पाठकगण ! इसे आदि से अंत . पढ कर अपना अभिप्राय सूचित करें। प्रथम भाग की किंमत प्रचार के लिये मात्र रूपया पांच है। प्राप्ति स्थान-- (1) पण्डित भुरालाल कालीदास c/o सरस्वती पुस्तक भंडार, ठि० हाथीखाना, रतन पोल, अहमदाबाद (2) सोमचंद डी० शाह जीवन निवास के पास में, __पालीताणा (सौराष्ट्र) बम्बई व अहमदाबाद के प्रसिद्ध जैन बुकसेलरों से भी यह ग्रन्थ प्राप्त करसकते हैं: P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. ॐ ह्रीं श्रीधरणेन्द्र-पद्मावती सहिताय श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः HD RY संवत् प्रवर्तक ফ্লভাজা জিষ্ট্রি / .. [द्वितीय-भाग] मूल कर्ता-परम पूज्य पंडित श्री शुभशील गणिवर्य महाराज . __ हिन्दी भाषा संयोजक-:श्रीनेमि-अमृत-खान्ति चरणोपासकसाहित्य प्रेमी पृ० मुनि श्री निरंजनविजयजी महाराज तेतीसवां-प्रकरण -:( आठवें सर्ग से आरंभ ):--- तीर्थ महिमा और शुकराज चरित्र यस्मिञ्जीवति जीवन्ति, सञ्जना मुनयस्तथा / सदा परोपकारी च, स जातः स च जीवति // . "जिसके जीने से परम-पवित्र मुनिजन आदि साधु सन्त और सज्जन लोग जीते हैं अर्थात सुरक्षित हैं, और हमेशा परोपकार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ ~ विक्रम चरित्र 2 कार्यों में जो सदा प्रवृत हैं; इस संसार में उसी का जन्म सार्थक है और उसी का जीवन सफल है।" - इस भारत वर्ष में अपनी सारी प्रजा को उऋण करके अवन्ती पति महाराजा विक्रमादित्य अपने नाम से नया संवत् प्रवर्तन कर प्रजा का पुत्रवत् पालन करने लगे। पुण्य योग से एक बार सर्वज्ञ पुत्र जैनाचार्य श्री सिद्ध से नदिवाकरसूरीश्वरजी महाराज सपरिवार क्रमशः ग्रामानुग्राम भव्य जीवों को धर्मोपदेश देकर सन्मार्ग में स्थापन करते हुए अवन्ती नगरी में पधारे / अवन्ती पति महाराज ने अपने परोपकारी गुरुदेव का बड़ा भारी शानदार प्रवेश महोत्सव किया। बाद में प्रतिदिन पूज्य गुरुदेक के मुख कमलसे धर्मोपदेश सुनकर अपनी धर्मभावना बढाने लगे। ___एक दिन सूरीश्वरजी महाराज ने महाराजा विक्रमादित्य आदि महाजनों के आगे धर्मोपदेश देते हुए फरमाया कि "इस अनादि कालीन संसार में प्राणियों को मोक्ष के चार परम कारण प्राप्त होने अत्यन्त दुर्लभ हैं- . 1. आर्य क्षेत्र और सद् धर्म वान् उत्तम कुल में मानव जन्म प्राप्त होना / 2. जिन वचन रूप सद् शास्त्रों का श्रवण होना और 3. उस पर अटल श्रद्धा होनी तथा 4. संयम-शुद्ध चारित्र धर्म प्राप्त कर उसमें शक्तियों का पूर्ण विकास होना करना। * येचारों मोक्ष के परम साधन महाभाग्यशाली जीव को ही प्राप्त * "चत्तारि परमं गाणि दुल्लहाणीह जंतुणो ___ माणुसत्त सुई सद्धा संजमंमी अ वीरिअं / / 3 / / सर्ग 8 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust सर्वज्ञपुत्र विरुद धारक जैनाचार्य श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी महाराजा विक्रमादित्य आदि महाजनोंके आगे धर्मोपदेश देते हुए...पृट 2 (म. नि. वि. संयोजित....................विक्रम चरित्र दुसरा भाग चित्र नं. 1) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रमी श्री निरन्जनविजय संयोजित ~~ ~~~~~ ~uvvv vvv.. - - होते हैं / शास्त्रों में कहा भी है-- "देवलोक में देवता सदा ऐश-आराम और विषय विलास में अति आसक्त रहते हैं, नरक में जीव विविध प्रकार के दुःखों से सदा दुखी रहते हैं, पशु पक्षी आदि तिर्यश्च विवेक रहित होने से पूर्ण धर्म साधन नहीं कर सकते / अर्थात् इन तीनों गति से जीव को धर्म साधन का समुचित अवसर प्राप्त नहीं होता है। तब एक मनुष्य गति में ही धर्म-साधन की साधन सामग्री जीव को प्राप्त हो सकती है। 15 महा दुर्लभ मानवभव प्राप्त कर अविच्छिन्न प्रभावशाली त्रिकालाबाधित श्री वितरागसासन एवं शुद्ध सनातन जैन-धर्म प्राप्त कर धर्माराधन में मानव को विशेष उद्यम करते रहना चाहिये। महातीर्थ श्री शत्रुजय माहात्म्य अति दुर्लभ मानव जीवन पा, जो प्राणी शत्रुजय जाता / जिनवर प्रभु आदि नाथ दर्शन, पद वन्दन पूजन मन लाता // शुभ अनंत पुण्य होता है उसको, जन्मों का पाप हटाता है। निज दुःख दूर करके औरों के, सुख में हाथ बटाता है / महादुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त कर जो प्राणी तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय महा तीर्थ में रहे हुए श्री आदिनाथ प्रभु की |क्ति पूर्वक वन्दना करता है, उसको अनन्त पुण्य होता है / गिरिराज 5 "देवाविसय पसता, नेरइया निच्च दुःख संसत्ता / तिरिया विवेग विगला, मणुआणं धम्म सामग्गी // Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र श्री महातीर्थाधिराज श्री शत्रुजयगिरी के अनायासस्पर्श मात्र से कोटि गुण पुण्य होता है और यदि मन वचन और काया से शुद्धि पूर्वक स्पर्श हो जाय तो अनंत गुण पुण्य होता है। तीर्थयात्रा की इच्छा से श्री शत्रुजयतीर्थ के सन्मुख एक एक कदम जाने से मनुष्य कोटि कोटि जन्मों के पातकों से मुक्त हो जाता है। पापों से अत्यन्त घिरा हुआ मनुष्य तब तक ही भयंकर दुःख का अनुभव करता है, जब तक श्री शत्रुजय गिरि पर चढ़ कर श्री जिनेश्वर देव को नमस्कार न करलें।' ___ श्री शत्रुजयगिरि के दर्शन व स्पर्श मात्र से मनुष्यों को सहज में ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है / और जो प्राणी , श्री शत्रुजयगिरिवर के आस पास के पचास योजन के भीतर में जन्म लेता है वह प्रायः अल्प समय में ही परमगति-मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इस शत्रुजयगिरि पर मयूर, सर्प, सिंह आदि हिंसक प्राणी भी जिन दर्शन करके सिद्ध हो गये, सिद्ध होते हैं और सिद्ध होंगे।" ___उन्हीं प्राणियों का जन्म, धन तथा जीवन सार्थक है कि जो सिद्धाचल पर विराजित श्री जिनेश्वर देवों के दर्शन के लिये जाते हैं अन्यथा दूसरों का तो जन्म, धन और जीवन सब निरर्थक है / श्री जिनेश्वर देवों ने भी श्री सिद्धाचल तीर्थ को सब तीथ में सर्वोत्तम तीर्थ कहा है, सब पर्वतों में सर्व श्रेष्ठ पर्वत है, सब पुर क्षेत्रों में उत्तमक्षेत्र है।" पुराण में भी कहा है कि अड़सठ तीर्थों की यात्रा से, जो फल होता भर जीवन में वह आदिनाथ के स्मरणों से, पाता है प्राणी इसी तन में / / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरजनविजय संयोजित __"अड़सठ तीर्थों में यात्रा करने से जितना पुण्य होता है उतना श्री आदिनाथ प्रभु के स्मरण मात्र से ही होता है। इसके सिवाय और भी कहा है-शुभ भावना से जो प्राणी तीथोंधिराज श्री शत्रुजय का स्पर्श करता है, श्री रेवताचल-गिरनार तीर्थ को नमस्कार करता है और 'गजपद' कुण्ड में स्नान करता है तो उस प्राणी को फिर से इस संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता / इस तीर्थ का ध्यान करने से सहस पल्योपम र प्रमाण पाप नष्ट होते हैं, तीर्थ यात्रा के लिये नियम करने से / लाख पल्योपम प्रमाण पापों का नाश हो जाता है और तीर्थ यात्रा के लिये प्रयाण करने से सागरोपम 2 प्रमाण पाप समूह ' नष्ट हो जाते हैं / भव्य जीव को सदा मोक्ष और सुखादि को देने वाला श्री शत्रुजयमहातीर्थ प्रख्यात है; जिस पर ही पूर्व समय में श्रीपुण्डरीक आदि अनेक गणधर प्रभु सिद्ध हो गये हैं !" जैन शास्त्रों में कहा है कि इस श्रीसिद्धाचलजी पर चैत्र-पूर्णिमा के दिन पांचकोटि मुनियों के साथ श्री पुण्डरीक गणधर भगवंत ने अनशन कर मुक्ति प्राप्त की, उससे ही इस तीर्थ का 'पुण्डरीकगिरि' नाम जग में प्रसिद्ध हुआ / इसी श्री पुण्डरीकगिरि 卐 "अष्टषष्टिषु तीर्थेषु यात्रया यत्फलं भवेत् आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद् भवेत्" / / 12 / / सर्ग०८ 1) असंख्य वर्षों का एक "पल्योपम" होता है / (2) दश कोड़ा कोड़ी पल्योपम का एक "सागरोपम" होता है / (3) खाने पीने का सर्वथा त्याग करना। .P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र पर श्री भरत चक्रवर्ती के पुत्र सूर्ययशा आदि से सगरचक्रवर्ती तक श्री ऋषभदेव के वंशज असंख्य राजा मुक्ति को प्राप्त हुए / महाराजा दशरथजी के पुत्र श्री रामचन्द्रजी और भरतजी तीन करोड़ मुनियों के साथ और एकाणु लाख मुनियों के साथ श्रीनारदजी तथा पाँच पांडव आदि अनेकानेक पुण्यात्माओं की यह तीर्थ निर्वाण भूमि है और सदाकाल शाश्वत है।" तप तपते तपते सिद्ध हुये, श्रीपुण्डरीक गणधर जब से / गिरिपुण्डरीक यह नाम हुआ, सिद्धा चलकाजामें तब से / / फिर समय चक्र परिवर्तन से, शत्रुजय नाम हुआ प्याग।। यह प्रमुख तीर्थ पृथ्वी का है, यह तीन लोक से है न्यारा // हे गजन् ! अधिक क्या कहें इस परम पावन पुनीत भूमि का वर्णन अवर्णनीय है / सर्वज्ञ श्रीजिनेश्वर देवों के सिवाय कोई कहने को समर्थ नहीं। "स्वर्ग; मृत्यु और पाताल इन तीनों लोक में परम पवित्र श्री सिद्धाचल महातीर्थ के समान अन्य कोई तीर्थ नहीं है / युग के आदि में सबसे प्रथम प्रचलित सब लोक नीतियों के प्रकाशकबतलाने वाले श्री ऋषभदेव प्रभु ने इस सिद्धाचल तीर्थ पर पधार कर, इस महातीर्थ की महिमा स्वमुख से फरमाई है और इस सिद्धाचल पर पुण्डरीक गणधर आदि अनेकानेक मुनि महात्माओं ने आत्मलक्ष्मी रूप-शाश्वत-मोक्षधामको प्राप्त किया है तब से ही श्री सिद्धाचलजी का नाम श्री पुण्डरीकगिरी कहलाया और समय परिवर्तन से श्री पुण्डरीकगिरि का ही नाम जग में श्री शत्रुजय प्रसिद्ध हुआ।" .. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरन्जनविजयसंयोजित श्री सिद्धाचलतीर्थ श्रीशत्रुञ्जय नामकरण __पूज्य गुरुदेव के. मुख कमल से श्री सिद्वाचलजी की अपूर्व महिमा सुनकर महाराजा विक्रमादित्य ने पूज्य सूरीश्वरजी से पूछा कि, "पूज्य गुरुदेव, ! यह परम पावनकारी श्री पुण्डरीकगिरि वर का शत्रुजय नाम किससे और कब हुआ वह कृपा करके फरमाइये / " श्री सूरीश्वर महाराज ने फरमाया कि “राजन् ! इस महातीर्थ की सहायता से 'शुकराज' ने बाह्य 1 और अभ्यंन्तर 2 शत्रु पर विजय प्राप्त की, तब से इस महातीर्थ का शत्रुजय नाम जग में प्रसिद्ध हुआ।" . महाराजा विक्रमादित्य ने श्रीसूरीश्वरजी से पुनः विनंती की, हे परम कृपालु गुरु देव ! कृपा कर शुकराजा की वह कथा हमें सुनाइये / तब श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वर महाराज शुकराजा की रोमांचक कथा कहने लगे। शुकराज की कथा आरंभउस नीति विशारद राजा की-थी ख्याति भुवन में बड़ी प्रभा, अति ठाठ बाट से रोज रोज लगती थी जिसकी राजसभा। पापों का खण्डन होता था, सुनवाई में अन्याय नहीं, नृप निर्णय पर खुश होती थी, जनता करती थी हाय नहीं / / - (1) बाह्य - बाहर के अन्य राजादिक (2) अभ्यंतरः-आंतरिक क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कर्म शत्रु / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र AmAhn. इसी क्षेत्र में 'क्षितिप्रतिष्टित' नामक नगर में 'मृगध्वज' नामक अत्यंत न्याय परायण एक राजा हुआ / जैसे कहा है कि-- “जो राजा यशस्वी है, तेजस्वी है, शरण में आये हुए प्राणियों के रक्षण करने में निपुण है, दुर्जनों का सतत शमन करने वाला है, अपने शत्रुसमूहों का नाश कर चुका है, प्रजा का सदा प्रेम से पालन करने वाला है, सदा दान मार्ग में सद् लक्ष्मी का व्यय करने वाला है, तथा अपनी उचित लक्ष्मी का भोग करने वाला और सब कार्य में विनय विवेक से व्यवहार करने वाला है, नीति-मार्ग का सदा पालन करने वाला है, स्वीकार की हुई प्रतिज्ञा को पूर्ण पालन करने वाला है, और सदा कृतज्ञ है, वही अखंड आज्ञा वाला राजा इस पृथ्वी-मंडल में अपने विशाल राज्यको फैलाता प्रसिद्ध करता है / और भी कहा है "प्रजा का अभ्युदय राजा की राज्य वृद्धि करने वाला होता है और प्रजा में धर्म का अस्तित्व राजा के पापों का नाश करने वाला होता है तथा प्रजा में अनीति का प्रचार होने से राजा के धर्म और कीर्ति दोनों का नाश होता है और अपनी " “यस्तेजस्वी यशस्वी शरणगत, जनत्राण कर्म प्रवीणः, शास्ता शश्वत् खलानां, क्षतरिपुनिवहःपालकश्च प्रजानाम् / दाता भोक्ता विवेक नयपथपथिकः सुपतिज्ञः कृतज्ञः, * प्राज्यं राजास राज्यं प्रथयति, पृथिवीमण्डलेऽखंडितानः, 25 स०८ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaraulein Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरन्जनविजयसंयोजित सारी प्रजा को आनन्द में रखने पर ही देवता लोग राजा पर . संतुष्ट-प्रसन्न होते है / एक दिन मृगध्वज राजा राज-सभा में विराजमान थे, उस समय विलासीजनों को आनन्द कराने वाली वसंतऋतु का समय था। उद्यान की वनराजी अति फैली हुई थी, जिससे उद्यान की शोभा में अनुपम अभिवृद्धि हुई थी, यह देख कर उद्यान-पालक ने पाकर महाराज के आगे रोमांचकारी वसंतऋतु का वर्णन किया हेमन्त शिशिरमें ठिठुर ठिठुर,जाड़ोंसे जीव है दुख पाता। तब ऋतु वसन्त उपकार लिये, प्राणी के कारण सुख लाता॥ वन वक्ष प्रफुल्लित हराभरा, फूलों से अतिशय लगी लता। मधुपान दान पाकर मधुकर,रंजित हो गान किया करता / / आमों की मोर महक उठी, कानों में कोकिल कूक पड़ा। उपवन की शोभा भी लखिये कहने को माली मूक खड़ा // और महाराज को उद्यान में क्रीड़ा करने पधारने की विनती की। इसलिये एक दिन मगध्वज महाराज अपनी रानियों को साथ लेकर उद्यान में आनन्द-विलास करने आये। ___ वहां आकर महाराजा ने अपनी रानियों के साथ उद्यानमें आई हुई वापिका-बावड़ियां में जाकर बहुत समय तक जल-क्रीड़ा-- * प्रजासु वृद्धिन पराज्यवृद्धये, प्रजासु धर्मो दुरितापहःप्रभोः / प्रजास्वनीति नृपधर्म कीर्ति हन्नृपाय तुष्यन्ति सुराःप्रजोत्सवै / / _Jun Gun Aaradhat Trust 26 // सर्ग - P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र करने के बाद पत्नियों के साथ उस सुन्दर उद्यान में भ्रमण करने लगे। इतने में बहुत गहरी छाया वाले एक बड़े ही सुन्दर आम के पेड़ को देखा और राजा उसकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे- सोहग ऊपरि मंजरी, तू साहइ सहकार / अन्नि जि तरूअर तुड़ि कर इं, ते सव्वेपि गमार" ||26|| "कल्प वृक्ष के समान मीठे फलों के देने वाले हे आम्र वृक्ष ! तेरी मंजरियां सुन्दर सुशोभित हैं और वे मंजरिया मधुर फलों को उत्पन्न करने वाली हैं; तेरे पत्तों की श्रेणी अनुपम मंगल की देने वाली है, तेरी छाया सब प्राणियों को प्यारी लगती है, तेरा रूप बड़ा ही सुन्दर है, हे आम्र वृक्ष ! अधिक क्या कहूं-तेरा सारा ही अंग जगत के जीवों को अति उपकारक है, और जो कवि अन्यान्य वृक्षों के साथ तेरी तुलना करते हैं वे सब गंवार मुर्ख हैं-अर्थात धिक्कार के पात्र हैं।" मधु मंजरी छाया सुफल-तरुवर शुभद सहकार है। तरु अन्य से तुलना करे-वह ना. निराही गवाँर है।। इस तरह आम्र वृक्ष की अनेक प्रकार प्रशंसा करते हुए महाराजा रानियों के साथ उसी आम के पेड़ की शीतल छाया में बैठ गये / सुदर वस्त्रों तथा अलंकारों से सुशोभित अपनी रानियों को देखकर राजा मन में विचार करने लगे कि-"इस संसार में जो देवांगना के समान अलौकिक सुन्दर स्त्रियां मैंने प्राप्त की हैं, वैसी स्त्रियां संसार भर में अप्राप्य हैं, क्योंकि पृथ्वी में सर्वत्र कल्प P.P.AC. Gunratnasuri M.S... Jun Gun Aaradhak Trust Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य मी मुनि निरन्जनविजय संयोजित ranAnmM लताए नहीं मिलती हैं"। इस तरह राजा अपने मन ही मन गवे कर रहा था, ठीक उसी समय उस आम के पेड़ की डाली पर बैठा हुआ एक 'शुक' मनुष्य भाषा में बोल उठा:-" इस संसार में सब कोई प्राणी अपने मन माने गर्व में मस्त रहता है, इसमें क्या आश्चर्य है ? जैसे टिटिभि (टिटोडी एक पक्षी) जब वह सोती है तब अपने पांव आकाश की ओर करके सोती है, क्यों कि यदि आकाश गिर जाय तो सारे संसार के प्राणी दब जाय और उनका नाश हो जाय, इसी कारण सब प्राणियों को बचाने के लिये ही अपनी टांगें ऊंची करके सोती है / " ( यह भी अर्थ हो सकता है--"मेरे चरणों के भार से पृथ्वी कहीं टूट न जाय इस भय से टिटिभि पक्षी चरणों को ऊपर की ओर करके शयन करती है।) एक शुक (तोता) की बोधदायक वाणी सुनकर महाराजा अपने मन में इस प्रकार सोचने लगे कि-"इस शुक ने मुझे इस प्रकार गर्व करते देख, आज मुझे खूब लज्जित किया है। किन्तु यह बात कदापि नहीं हो सकती / पक्षी में इतनी जान कहाँ से आई / यह तो काकतालीय न्याय से अथवा अजाकृपाणि'न्याय से अकस्मात् वा मेरे मन के गर्व को जानकर बोला है। इस प्रकार वह महाराजा अपने मन ही मन अनेक प्रकार के तक-विर्तक कर रहा था। उस समय पुनः बह शुक मेढ़क और . P.P.AC. GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र 22 Ematrimm * हंस की उक्ति प्रेत्युक्ति वाला काव्य बोला / जैसे "क्रिसी कूप में एक मेढ़क रहता था। उस कूप के तट पर एक नाजहंस कहीं से आकर बैठा / इसे देख कर मेढ़क ने पूछा कि "हे पक्षिन् ! तुम कहाँ से यहाँ आये हो ? हन-मैं मानसरोवर से आया हूँ ! मेढ़क-वह सरोवर कैसा है ? हैस-बहुत विशाल है ! मेडक-क्या वह सरोवर मेरे इस कूप से भी बड़ा है ? , हंस-क्या पूछते हो ? इस कूप से तो वह सरोवर बहुत ही बड़ा है। मेढक-रे पापी ! तू मठ मत बोल ! इस प्रकार कूप में रहने वाला वह मेढक तट पर स्थित राजहंस को धमकाने लगा ! तात्पर्य यही कि जो दूसरे देशों को नहीं देखता है वह अज्ञानी व्यक्ति थोड़े में ही बहुत गर्व करने लगता है। . उस काव्य * को सुनकर राजा अपने मन में विचार करने * रे पक्षीन्नागतस्त्वं कुत इह सरसस्तत् कियद् भो विशालम्। . कि मद्धाम्नोऽपि बाढं नहि, सुमहत् पाप !मा जल्प मिथ्या। इत्थं कूपोदरस्थः शपति तटगतं ददुरो राजहंसं, . . नीच स्वल्पेन गर्वी भवति हि विषया नापरे येन दृष्ठाः' ।३८|सर्ग.८ .. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरज्जनविजय संयोजित arvvvvvvvvvvi लगा-यह शुक मुझ को कूप मडूंक (मेढक) कैसे बना रहा है ? . ठीक इसी समय शुक ने पुनः कहा-कि हे राजन् ! तुम कूप.. मेढक के समान ही हो !" राजा यह सुनकर सोचने लगा कि "निश्चय ही यह शुक पंडित की तरह बड़ा ज्ञानी है !" इतने में वह शुक राजा से फिर कहने लगा कि हे राजन् ! जैसे छोटे गांव में रहने वाला प्रामिण (गंवार) अपने दुर्बल बैल को जिसके कि सींग और दाँत भी हिलते हैं, उसे श्रेष्ठ बैल मान लेता है। संसार में मोह, यही अनोखी चीज है। क्यों कि झठी बात को भी मोह के कारण सच्ची मान लेता है / " बाद में उस शक ने एक छोटी सी कथा सुनाई। "एक गंवार के घर एक वृद्ध और दुर्बल बैल था / उसके सब दांत और दोनों सींग हिलते थे / उसकी पूछ के बाल निकल जाने से पूछ विचित्रं दिखाई दे रही थी। पेट वृद्धावस्था के कारण अतिं. दुर्बल हो चुका था और उसके ऊपर चन्द्राकार (फोले) फुन्सियां हुई थी। बैल का शरीर बहुत दुर्बल और कमजोर हो चुका था / इस प्रकार अपने इस असुन्दर बैल को भी, अच्छे बैलों के गुण-समूह को न जानने वाला वह गँवार अपने बैल को सर्व श्रेष्ठ मानकर अपने मन ही मन खुशी मना रहा था।" "हे राजन ! उसी प्रकार आप भी अपनी सामान्य स्त्रियों Jun Gun Aaradhak Trust Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 विक्रम चरित्र MAnnnnnnnnnnnnovan MAAN को देवांगनाओं के समान मान रहे हो !" इस प्रकार कहने पर भी जब उस राजा ने गर्व नहीं छोड़ा तब वह शुक पुनः देव भाषा में कहने लगा / “हे राजन् ! तुम्हारी अंतःपुर की स्त्रियों से भी अधिक सुन्दर रूपवाली 'कमल माला' नामकी श्री गागलि ऋषि की कन्या है। ____ यदि तुमको उसका रूप देखने की इच्छा हो तो मेरे पीछे पीछे चले आओ। ऐसा कहकर वह शुक वहाँ से उड़ गया। शुक के पीछे मृगध्वज राजा का जाना इसके बाद राजा अत्यन्त उत्सुक होकर अपने सेवकों से. कहने लगा कि "वायुवेग वाले घोड़े को तैयार कर शीघ्र लाओ।" . सेवकों ने राजा की आज्ञानुसार अच्छा घोड़ा लाकर खड़ा कर दिया। राजा सुसज्जित होकर उस घोड़े पर सवार हो शुक के पीछे पीछे वहां से चल दिया। . राजा के जाने के बाद उसकी सेना, परिवार आदि ने कुछ ' " दूर तक तो राजा का पीछा कर उसकी खोज की; परन्तु जब राजा को नहीं देखा तब उदास होकर नगर में लौट आये / क्योंकि सचिव (मंत्री) रहित राज्य, अस्त्र-शस्त्र रहित सेना, नैत्र रहित मुख, मेघ रहित वर्षा ऋतु, धनी व्यक्तियों में कृपणता, घृत रहित भोजन, दुष्ट स्वाभाव वाली स्त्री, प्रत्युपकार (बदला) चाहने वाला मित्र, प्रभाव रहित राजा, भक्ति रहित शिष्य, धर्म रहित P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAR P.P.AC.Gunratnasuri M.S. HTRANS): Viane म COM ran PS TERR Jun Gun Aaradhak Trust ENSE 4.CAMERASANA Saxi ASHTATA HERY ANTIDARSHAN AND દલસુખ मृगध्वजराजाने सुसज्जित होकर वायुवेग घोडे पर सवार हो शुक के पीछे पीछे वहाँ से चल दिया।...पृष्ट 14 (मु. नि. वि. संयोजित...... विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 2) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित mmmmmhmm. मनुष्य आदि ये सब वस्तु शोभा को प्राप्त नहीं कर सकते। इधर राजा, घोड़े के वेग से चलने के कारण शुक के पीछे पीछे एक सौ योजन मार्ग को पार कर एक विशाल जंगल में उपस्थित हु।। उस जंगल में सुवर्णदंड, विशाल कुम्भ तथा फहराती हुई पताकाओं से युक्त एक देव प्रासाद को देखा / इतने में वह शुक उसी देव प्रासाद के शिखर पर बैठ कर कहने लगा कि, "हे राजन ! जिनेश्वर श्री आदिनाथ को प्रणाम करके अपने जन्म को पवित्र कर / " राजा ने सोचा कि शुक कहीं न चला जाय, इस भय से घोड़े पर बैठे हुए ही जिनेश्वर को नतमस्तक होकर प्रणाम किया। ग़जा के मन की शंका हटाने के लिए वह शुक उसी देव प्रासाद में आ गया और जिनेश्वर देव को प्रणाम कर हर्ष पूर्वक स्तुति करने लगा किः "हे अदिनाथ ! जगन्नाथ ! विमलाचल को सुशोभित करने वाले तथा नाभी कुल रूपी आकाश में प्रकाश करने में सूर्य तुल्य ! आपकी जय हो (1) / ... आपकी मूर्ति तीनों भुवनों की कठिन पीड़ाओं को नाश करने वाली है। मनुष्यों को आनन्दित करने वाली, अमृत की वर्षा करने वाली, अभिलाषित वस्तु को देने में कल्प वृक्ष स्वरुप तथा (:) आदिनाथ जगन्नाथ, विमला चल मण्डन / जय नाभि कुलाकाश, प्रकाशन दिवाकर // 7 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ imarn.in विक्रम चरित्र w.mirrrrrrwwwwwwwww संसार रूपी समुद्र को पार करने की इच्छा करने वालों के लिए दृढ़ नौका रूप आपकी मूर्ति दृष्टि गोचर होने पर क्या क्या नहीं करती (1)? ... ... शुक की इस प्रकार की स्तुति सुनकर राजा घोड़े से उतर कर जिन प्रासाद में आया और हर्ष पूर्वक श्री जिनेश्वर प्रभु की स्तुति करने लगा। "मोक्ष का संकेत घर सगुणों के संकेत से मन्दार के माला को भी जीतने वाली, कठिन मोह जाल को काटने वाली, अत्यन्त हर्ष रूपी सरोवर को पूर्ण करने में मेघ माला स्वरूप, जिसके आगे लक्ष्मीवान रुपी ईस भी नमते हैं, दान कला से देवताओं के घर को जीतने वाली, राजाओं को आनन्द देने वाली ऐसी समृद्ध शोभा सम्पन्न आपकी मूर्ति मेरे पापों को नष्ट करें / 2 रोजा का गांगलि ऋषि से मिलन .. इधर उस जिन प्रासाद के समिपस्थ आश्रम में रहने वाले 'गांगलि-ऋषि' उस स्तुति का मधुर स्वर सुन कर आश्चर्य चकित 1. मति स्त्री जगतां महाति शमनं', मात जनानन्दिनी, मूर्ति वाञ्चित दान, कल्प लतिका, मूर्तिःसुधास्यन्दिनी / संसाराम्बु निधि तरीतु मनसा मूति ईढा नौरियं, मूर्ति नेत्र पथंगता जिनपतेः किंकिंन कतु क्षमा / / 1 / 58 / / 8 2 श्रेयः संकेत शाला सुगुण परिमलैं जेयमन्दार माला, छिन्न व्यामो जाला प्रमद भरसरः पूरणे मेघ माला। नम्र श्री मन्मराला वितरण कलया निजित स्वर्गिशाला, .. त्वन्मुति:श्री विशाला विदलतु दुरितं नन्दित क्षेणिपाला॥६॥ P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित ~ ~ हो शीव्रता से वहां आये और राजा की स्तुति समाप्त होने पर मधुर ध्वनि से जिनेश्वर प्रभु की स्तुति करने लगे। "हे नाभी कुल भूषण ! देवेन्द्र रूपी राज हंस जिसको प्रणाम करते हैं / कल्याण रुपी लता समूह के लिए मेघ स्वरुप ! महाअज्ञान रुपी वृक्ष के लिए नदी प्रवाह स्वरूप ! आपको प्रणाम करता हूँ।" इस प्रकार भक्ति पूर्वक जिनेश्वर देव की स्तुति करके गांगलि'ऋषि राजा से पूछने लगे कि, हे राजन! मृगध्वज ! अब मेरे आश्रम को सुशोमित करो। राजा अपना नाम सुनकर अत्यत चकित हुआ और ऋषि के साथ उनके आश्रम में आया। वहां 'गांगली' ऋषि ने उनका स्वागत किया। ____ 'गागली-ऋषि' ने कहा कि "हे राजन् ! में कृताथ हो गया।" क्योंकि मनुष्यों को आप जैसे व्यक्तियों के दर्शन भाग्य से ही होता है। बाद में गागलि ऋषि श्री जिनेश्वर प्रभु की पूजा में तत्पर रहने वाली अपनी पुत्री कमल माला' को उद्यान से स्वयं ले आये / और राजा से कहने लगे कि "हे राजन् !" आप मुझ पर प्रसन्न होकर मेरी इस कन्या को स्वीकार कीजिये / इस विषोय में आप तनिक भी विचार न करें।" इस प्रकार अत्यंत आग्रह करके ऋषि ने अपनी उस सुन्दर, रूपवती, गुणवति कन्या को उत्सव पूर्वक राजा को समर्पण कर दिया। . . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र ऋषि कन्या कमल माला का राजा के साथ लग्नः इसके बाद तपस्वियों में श्रेष्ठ वह गांगलि ऋषि ने अपनी पुत्री को जाप-विधि के सहित पुत्र उत्पादक मन्त्र दिया, क्योंकि प्राणियों को जंगल आदि विषम-स्थान में जाने पर भी धर्म के प्रभाव से राज्य, कन्या, लक्ष्मी आदि की प्राप्ति अवश्य होती है। दूसरे दिन राजा ने कहा कि-'हे महर्षि ! इस समय मेरा राज्य सूना पड़ा है इसलिए ऐसा उपाय कीजिए कि मैं अपने स्थान पर यहां से शीघ्र पहुंच जाऊ।" ऋषि ने उत्तर दिया ! "इस समय मेरे पास रेशमी दुकल आदि उत्तम वस्त्र नहीं हैं।" केवल बलकल के ही वस्त्र हैं / और दूसरा मेरे पास कुछ भी नहीं है / इसी समय ऋषि क्या देखते हैं कि पास ही खड़े वृक्ष की शाखाओं में से सुन्दर आभूषण तथा वस्त्र बरस रहे हैं और उनका ढेर हो गया है। सच है, पुण्य के प्रभाव से असंभव पदार्थ भी पुरुष को प्राप्त हो सकता है / जैसे, रामचन्द्र जी के समुद्र पार उतरने के लिए मेरू के समान विशाल पर्वत भी समुद्र में तैरने लगे थे / पुण्य के प्रभाव से ही चन्द्र और सूर्य आकाश में भ्रमण कर रहे हैं / पुण्य के प्रभाव से ही वृक्ष फल देते हैं / पुण्य के प्रभाव से ही मेघ जल बरसाता है और पुण्य के प्रभाव से ही समुद्र भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता!' पुण्य प्रभाविइं शशी सूर्य चालई, पुण्य प्रभाविइं फल वृत्त आलिई पुण्य प्रभाविई जल मेघ मुकई, समुद्र मर्याद थीकोन चुकई // 76|| Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - - द HABAR P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. PatanA PASSMETICS M 7 AFT AVE :... र Jun Gun Aaradhak Trust ARH IRAN इसी समय ऋषि क्या देखत...वृक्षकी शाखाओंमें में सुन्दर आभूषण तथा वस्त्र बरस रहे।...पृष्ट 20 - (मु. नि. वि. संयोजित...... विक्रम चरित्र दुसरा भाग चित्र न. 3) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरज्जनविजय संभाजित इसके बाद ऋषि कन्या कमलमाला उन आपण तथा वस्त्रों आदि को पहन कर श्री जिनेश्वर प्रगु के दर्शन करने जिनालय में गई / वहां वह श्री जिनेश्वर की स्तुति करने लगी। ___"हे स्वामिन् ! आप अतुल बलशाली हैं, यह मैं जानती हूं। इसलिये मैं आपको अपने हृदय में रक्खे रहती हूँ। श्राप मेरे हृदय से क्या निकल जाटोंगे? हे स्वामिन् ! आपके दोनों चरण कमल अपार सुख के देने वाले हैं / मैं पर्वत, नगर, वन, रण, कहीं भी रहूं आपके चरण कमल मेरे हृदय में बरावर विराजमान रहें।" इस प्रकार अत्यन्त भक्ति पूर्वक श्री जिनेश्वर देव की अनेक प्रेकार स्तुति कर लेने के बाद वह कमलमाला अपने आश्रम में चली आई। - इसके बाद मृगध्वज राजा भी श्री जिनेश्वर देव को प्रणाम करके अपनी प्रिया के साथ अश्व पर चढ़ा और अपने नगर की ओर जाने के लिये गांगलि ऋषि से मार्ग पूछने लगा। तब ऋषि ने कहा कि मैं तुम्हारे नगर के मार्ग से सवथा अनजान हूँ। राजा कहने लगा कि तब आपने मुझको कन्या क्यों दी ? मुनि ने उत्तर दिया कि मैंने जब अपनी कन्या को देखा और उसके विवाह के लिये उत्सुक हुआ। तब आम के पेड़ पर बैठा हुआ एक शुक बोला कि तुम अपने मन में कन्या के बारे में जरा भी सोच न करो। प्रातःकाल में ही अश्व पर चढ़ा हुआ मृगध्वज नामक राजा को मैं ले आगा। जाने वाली AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र 22 NNN - कन्या दे देना / इतना कह कर वह शुक शीघ्र ही वहां से कहीं उड़ गया। बाद में वास्तव में ही प्रातःकाल आपको मैंने देखा और तुरन्त ही अपनी कन्या देदी / इसलिये मैं आपके आने जाने का मार्ग नहीं जानता हूं। शुक के साथ राजा का अपने नगर को लौटनाः इसके बाद जब राजा चिन्ता से व्याकुल होने लगा तब ठीक उसी समय एक शुक ने आकर देव-भाषा में कहा कि हे राजन ! तुम मेरे पीछे पीछे जल्दी से चले आवो, मैं अपने भरोसे पर रहने वालों की उपेक्षा नहीं करता क्योंकि सुन्दरता सौभाग्य-शान्त-स्वभाव, सद्कुल में जन्म, शुद्ध आचरण, सब कार्यों में दक्षता, एवं जीवन भर सुयश की प्राप्ति, ये सब धर्म के प्रभाव से ही सभी प्राणियों को प्राप्त होते हैं और सद्धर्म के प्रभाव से देवता भी वश में हो जाते हैं। जैसे सूर्य से अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार पुण्यात्माओं के सभी विघ्न समूह नष्ट हो जाते हैं। __इसके बाद मृगध्वज महाराजा अपने मन में शुक का सुन्दर उपदेश सुनकर आश्चर्य चकित हुए। गांगलि ऋषि की अनुमति लेकर अपनी नव विवाहित स्त्री के साथ अश्व पर चढ़ कर शुक के पीछे पीछे चलने लगा; बहुत मार्ग उल्लंघन करने पर दूर से अपना नगर देखा, तब वह शुक एक वृक्ष की शाखा पर बैठ गया।. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित . तब राजा ने कहा, हे शुक ! आगे क्यों नहीं चलते हो ? नगर को परसैन्य से घिरा हुआ देखनाःशुक कहने लगा कि इसमें कुछ कारण है उसे आप सुनलें / तुम्हारी चंद्रवती नामकी कुटिल स्त्री आपको कहीं दूर चले गये जान कर आपके राज्य को ग्रहण करने के लिए अपने भाई को श्रमा कर ले आई है / उसके भाई चन्द्रशेखर ने अपनी चतुरंगी सेना से आपके नगर को छल से घेर लिया है / नगर में से आपके विश्वासी वीर सरदारों ने वीरता से अब तक युद्ध किया है। तब शुक के द्वारा नगर में जाना दुष्कर समझ कर राजा अपने मन में सोचने लगा कि यह संसार वास्तव में असार है क्योंकि प्यारी स्त्री भी इस प्रकार का धोखा देती हैं। कहा भी है कि-राज्य, भोजन की वस्तु, शैया, श्रेष्ठ गृह, श्रेष्ऽ स्त्री और धन इन सब को सूना छोड़ देने पर निश्चय ही दूसरे लोग अपने अधिकार में ले लेते हैं। : जड़ बुद्धि मैंने ही बिना विचारे वेग में प्राकर नगर को छोड़ा / इसलिए यह सब दोष मेरा ही है। इसमें किसी दूसरे का दोष नहीं / क्योंकि नीतिकार ने ठीक कहा है:___ समझ सोचे बिनु कहीं पर, काम करते आप हैं। मानिये उसका बुरा फल, सब तरह संताप है। 卐 राज्यं भोज्यं च शय्याच वरमेश्म वरांगना / धनं चैतानि शून्यत्वेऽधिष्ठीयन्ते ध्र वं परैः / / 66 . .. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र है संपदा गुण लोभिनी, उसके ही घर जाती सदा / जो स्पष्ट सज्जन है विवेकी, धैर्य रखता सर्वदा। नगर को सूना देख कर दूसरे मनुष्य उसकी इच्छा करते ही हैं क्योंकि हितदायक अथवा अहितदायक कार्य करते हुए पंडितों को यत्न पूर्वक पहले ही उसके परिणाम का निश्चय कर लेना चाहिए / अन्यथा अत्यन्त वेग में आकर अविचार से किये कार्यों का परिणाम व्याधि के समान हृदय में दाह देने वाला होता है / सहसा कोई काम नहीं करना चाहिए / क्योंकि अविवेक परम आपत्ति का घर है। विचार पूर्वक काम करने वालों को गुण की लोभी संपत्ति स्वयं आ मिलती है। - इस प्रकार जब राजा चिंता कर रहा था उस समय वह शुक कहीं चला गया था / उसी समय नगर की ओर से सेना को आते देख कर राजा अत्यन्त डर गया। सोचने लगा कि निश्चय ही इस वन में रहे हुए मुझ एकाकी को मारने के लिए यह शत्रु सेना आ रही है। अब मैं किस प्रकार अपनी इस प्रिया की रक्षा करू ? क्या किया जाय और क्या न किया जाय ? इस प्रकार के तर्क वितर्क से जब तक राजा शांत हुआ तब तक उसके आगे 'जय-जय' कार की ध्वनि होने लगी। राजा आये हुए अपने इस परिवार को देख मन में आश्चर्य चकित हुआ और उनसे पूछने लगा कि 'इस समय तुम लोग यहां कैसे आये ?" ___ उन लोगों ने उत्तर दिया-"हम लोग भी यह नहीं जानते कौन मनुष्य हमें इस विकट मार्ग से ले आया है।" -PP. Ac Gurethasuri M.S: Jun Gun Aaradhak Trust Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित इधर वाद्यों के शब्दों से दिशाओं को शब्दाय मान करते हुए मगध्वज राजा को आते हुए देखकर चन्द्रशेखर राजा के मन्त्रियों ने आकर उसे सूचना दी कि "हे राजन् ! यह मृगध्वज राजा सब लोगों का नाश करने वाला है इसलिए आप को अपनी रक्षा के लिए उपाय करना चाहिए। क्योंकि शत्रु अधिक बलवान 3. बलवानों के आगे शरदऋतु के चन्द्र के समान शांत भाव ही रखना चाहिए / उत्तम व्यक्तियों को नम्र निति से, शूर व्यक्तियों को भेद नीति से, नीच व्यक्तियों को कुछ देकर तथा तुल्य बलवालो से पराक्रम के साथ मिल जाना चाहिए ! चन्द्रशेखर का राजा के पास आगमनः तत्काल उत्पन्न बुद्धि वाला राजा चन्द्रशेखर अपने म्वरूप को गुप्त करके राजा मृगध्वज के समीप जाकर बोला कि "हे राजन ! मैंने लोगों के द्वारा आपको कहीं दूर देश गया हुआ समझ कर आपकी भक्ति भाव से प्रेरित होकर आपके ही नगर की रक्षा के लिए आया था, किन्तु आपके योद्धाओं ने इस बात को नहीं समझ कर मेरे साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। मेरे सुभटों ॐ बलवंतं रिपुदृष्ट्वा किलात्मानं प्रगोपयेत् / बलवद्भिस्तु कर्तव्या, शरच्चन्द्र प्रकाशता // 108 // उत्तम प्रणि पातेन शूरं भेदेन योजयेत् / कि नीच मूल्य प्रदानेन, समशक्ति पराक्रम // 106 / / P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 20 . विक्रम चरित्र ने उन लोगों के बहुत प्रहार सहन किये। अब आप स्वयं ही अपना राज सम्भाले। अपने साला चन्द्रशेखर की ये बातें सुन कर मृगध्वज राजा ने उसका अतीव सम्मान किया / बाद में बड़े उत्सव के साथ नगर में अपनी नूतन रानी कमलमाला के साथ प्रवेश किया। नगर की स्त्रियां अपना अपना गृहकार्य छोड़ कर राजा की नवीन रानी को देखने के लिए एकत्र हो गई क्यों कि स्त्रियों में नवीन वस्तु देखने की आतुरता अधिक बलवान होती है। कमल-माला का शुभ स्वप्नः- . . इसके बाद राजा मृगध्वज ने अपनी नवीन रानी कमलमाला को पटरानी बना निर्मल चित्त से न्याय पूर्वक अपनी प्रजा पर शासन करने लगा। कमल-माला ने अपने पिता से मिले हुए मन्त्र को अपने स्वामी को दिया। राजा ने दूसरे ही दिन पुत्रप्राप्ति के लिये विधि पूर्वक उस मन्त्र का जप किरण / इसमें सब राज-रानियों के क्रम 2 से एक एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कमल-माला ने एक दिन राजा से कहा कि मैंने आज रात को एक अच्छा स्वप्न देखा है / मैंने उस म्वप्न में अपने पिता के आश्रम के निकट जिन मन्दिरों में स्थित होकर कल्याण कारी भक्ति से श्री ऋषभ देव को प्रणाम किया और उन्हीं जिनेश्वर देव ने मुझे कहा कि "हे पुत्री ! इस समय यह एक मनोहर शुक लो / कुछ दिन बितने P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रमी मुनि निरव्यविजय संयोजित पर मैं पुनः तुमको एक सुन्दर हंस दूगा। "रात्री के इस स्वप्न को देखने के बाद मैं जागृति हुई / अब स्वामिन् ! आप मुझे यह बतलाइये कि इस स्वप्न का क्या फल मुझे प्राप्त होगा। वह मुझे बतलाइये! स्वप्न फल का कथन तथा पुत्र जन्मः राजा ने प्रातःकाल स्वप्न जानने वालों से विधि पूर्वक फल पूछ कर अपनी प्रिया कमल-माला को कहा / "जो कोई स्वप्न में राजा, हाथी, घोडा, सुवर्ण, बैल और गाय ये सब देखता है उसका कुटुम्ब बढ़ता है / जो स्वप्न में दीप, अन्न, फल, कमल, कन्या, छत्र और ध्वज देखता है अथवा मंत्र प्राप्त करता है वह सदा सुख का लाभ प्राप्त करता है / स्वप्न में गाय, घोड़ा, राजा, हाथी, देव इनको छोड़ कर अन्य सब कृष्ण (काली) वस्तुओं को देखना अशुभ है / कपास तथा लवण इनको छोड कर अन्य सब शुक्ल (सफेद) वस्तुओं का देखना शुभ है। देवता, गुरू, गाय, पीतर, सन्यासी और राजा ये स्वप्न में जो कुछ भी कहते हैं वह उसके अनुसार ही फल देता है। इस लिये हे प्रिया ! इस स्वप्न के अनुसार तुम्हें दो पुत्र प्राप्त होगे पहला पुत्र शीघ्र ही उत्तम तथा शुद्ध आचरण वाला होगा। राजा की ये बातें सुन कर रानी अत्यन्त प्रसन्न हुई तथा कुछ समय पश्चात् उसने गर्भ धारण किया / उस गर्भ के प्रभाव से रानी को बहुत अच्छे अच्छे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र दोहदर-विचार उत्पन्न होने लगे अर्थात् रानी कमल-माला के मन में अभिलाषा हुई कि नगर के जिनेश्वर देवों के मदिरों में ठाट-बाट से पूजा करवाई जाय, जीव दया पलाई जाय इत्यादि / राजा मगध्वज ने भी अपनी पटरानी कमलमाला की अभिलाषाओं को सम्मानित कर पूर्ण की। जिससे पटरानी आनन्द पूर्वक अपना गर्भ पालन करने लगी। गर्भ के नव मास पूर्ण होने पर जैसे पूर्व दिशा में चन्द्रमा-उदय होता है उसी प्रकार पटरानी कमला-माला ने शुभ दिन में पुत्ररत्न को जन्म दिया। पुत्र का 'शुकराज' नाम करणः- मृगध्वज राजा ने पुत्र जन्म के हर्ष से सारी प्रजा को अन्न पान आदि देकर सम्मानित किया। पुत्र जन्म का शानदार उत्सव मनाया / स्वजनों से विचार कर शुक-स्वप्न के अनुसार उस पुत्र का नाम 'शुकराज' ही दिया / पुत्र क्रमशः पच धाव माताओं से लालन-पालन होता हुआ पांच का होगया। सारे परिवार को आनद तथा सभी के मन को मोहने वाला वह राजकुमार प्रति दिन शुक्ल पक्ष की चन्द्र कला की तरह बढ़ने लगा। एक दिन मगध्वज राजा अपनी प्रिया और पुत्र के साथ क्रीड़ा करता हुआ उस उद्यान में आम की छाया में बैठ कर प्रिया 1. दोहद-गर्भनी स्त्री की गर्भ समय में होने वाली इच्छायें / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MMSNIWITH LYRA MANAK SSAILI MMU RAN ASNA HOTA P.P.AC.GunratnasuriM.S. TAGRA FACEIAS SCOR APAN AT a RANEEY का SAMYAMY AYA HilateivUYEAX Jun Gun Aaradhak Trust VMWAREYANA क + AUHANE SAHITYA Arun HARE 'हे प्रिये ! यही आमका पेड़ है जहा कि शुकके मुखसे तुम्हारे सौंदर्यका वृत्तान्त सुनकर शुकके पीछे पीछे दौडा था......'पृष्ट 29 (मु. नि. वि. संयोजित विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 4) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरव्यविजय संयोजित को कहने लगा कि हे प्रिये ! यही वह श्राम का पेड़ है जहां कि शुक के मुख से तुम्हारे सौंदर्य का वृतांत सुन कर शुक के पीछे पीछे दौड़ा था और उस वन में जाकर तुमसे विवाह किया / बाद में तुम्हारे साथ अपने नगर में आया ! . . शुकराज का मूर्छित होना: स्पष्ट शब्दों में इन बातों को सुनकर राजा की गोद में बैठा हुआ राजकुमार 'शुकराज' विद्युत के समान शीत्र ही मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा / अपने पुत्र को इस प्रकार देख कर राजा-रानी दोनों इस प्रकार कोलाहल करने लगे कि उसे सुनकर बहुरा से लोग एकत्रित हो गये / तथा चंदन, जल, पखे की वायु आदि अनेक प्रकार के शीतोहचार करके राजा आदि सब जनों ने मिल कर राजकुमार को सचेत किया। परन्तु वह शुकराज प्रसन्न नेत्र से सभी ओर देखता था, किन्तु लोगों को कुछ / कहता नहीं था अर्थात् वह बोलता नहीं था। तब राजा अपनी प्रिया सहित अत्यन्त उदास होकर सोचने लगा कि राजकुमार को अचानक क्या हो गया ? राजा ने अपने पुत्र के बोलने के लिए अनेक प्रयास किये किन्तु सब निरर्थक हुए, तब राजा ने पुनः कहा कि-हे प्रिये ! यमराजा प्रत्येक उत्तम पदार्थ में कुछ न कुछ दोष लगा देता है, जिस प्रकार चन्द्रमा में कलंक, कमल के नाल में कांटे, समुद्र के जल को नहीं पीने योग्य P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विक्रम चरित्र खाग, पंडितों को निर्धन प्रियजनों का वियोग होता है और सुन्दर रूप वालो को दुर्भाग्यता एवं धनवालो को लोभी बनाया, इस प्रकार हमारे सुन्दर राज पुत्र को भी गूंगा मगा बना दिया यह सब यमराज की लीला है / राज्य की सारी प्रजा राजा के इस दुख से दुखी हुई। ___तत्पश्चात् महाराजा उद्यान से नगर में आकर अनेक शास्त्रों के जानने वाले बहुत से वैद्यों को बुलाकर अनेक प्रकार का उपचार कराने लगे। इस प्रकार उपचार करते करते छः मास बीत गये परन्तु शुकराज कुछ भी नहीं बोला / गद्य लोग कहते थे कि कफ पित्त और वायु का विकार है / ज्योतिषी कहते थे कि ग्रह का दोष है / भौतिक उपसर्ग में निपुण लोग कहते थे कि भूत का उपद्रव है साधु लोग कहते थे कि पूर्व जन्म के पापों का फल the हे सुज्ञ वाचक ! इस प्रकरण में मृगध्वज राजा के साथ ऋषि पुत्री कमल-माला के लग्न का अद्भुत प्रसंग आया एकां शुकराज का जन्म व एक आम के पेड़ के नीचे मर्छित होना उसके लिए अनेक उपचार किये वे सब निरर्थक हुए अब आगे क्या होता है वह सब आगे के प्रकरण में दिखाया जायगा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि नरव्यनविजय संयोजित . ma ~ ~ . प्रकरण चौतीसवां / . शुकराज और राजा जितारिः धिरे धिरे काम करे तो कार्य सफल सब होते हैं। सिंचन तरूओं का खूब करे पण ऋतु आए फल देते हैं Ile इस प्रकार राजकुमार के गू गेपन को दूर करने के लिए महाराजा को बहुत से उपाय करते करते छः मास व्यतीत हो गये / राजपुत्र की चिंता के कारण राजा आदि सारा ही परिवार हमेशा चितातुर रहता था। कौमुदी-महोत्सव में राजा का गमनः- .... एक दिन प्रजाजनो ने राज सभा में मगध्वज राजा से नम्र विनती की "हे गजन हम कल कौमुदी महोत्सव मना रहे हैं, कृपा कर आप सपरिवार पधारें।" प्रजाजन के अति आग्रह होने के कारण कौमुदी महोत्सव में आने को राजाने स्वीकार किया। . दूसरे दिन महाराजा अपने परिवार सहित उद्यान में पधारे। उद्यान में घूमते घमते राजा को वही वृक्ष दृष्टि गोचर हुआ. कि * जहां अपना प्यारा पुत्र पूत्र मूर्छित हुआ था. तत्पश्चात् राजा ने अपनी प्रिया से कहा हे प्रिये ! इस दुखदायी वृक्ष से दूर रहना ही ठीक है / इतने में उसी आम के वृक्ष के नीचे देव दुदुभी का शब्द होने लगा / जब गजा ने किसी आदमी से पूछा कि यह क्या है ? तब किसी मनुष्य ने कहा कि “हे राजन्-उस वक्ष के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र 32 नीचे तपोध्यान में लीन "श्री दत्त" नामक मुनिश्वर को इसी समय वहां पर निर्मल केवल ज्ञानक उत्पन्न हुआ है / केवल ज्ञानी मुनिश्वर के प्रभाव से आकर्षित हो देवता स्वर्ग से आकर सुवर्ण का कमल बनाकर केवल ज्ञान का उत्सव मना रहे हैं। आनन्द दायक दुन्दुभी बजा रहे हैं उसी का यह दुन्दुभीनाद सुनाई देता __ यह बात सुनकर कमल-माला पटराणी ने कहा कि-हे स्वामी ! इस समय केवल ज्ञानी महात्मा से भक्ति पूर्वक नमस्कार कर पुत्र के बोलने का उपाय पूछना चाहिए। क्योंकि केवल ज्ञानी इस संसार की भूत, भविष्य और वर्तमान की सब बातें सम्पूर्ण तरह से जानते हैं। ज जो कर्म मनुष्य कोटि जन्मों में तीव्र तपस्या करने पर भी नष्ट नहीं कर सकते, वह कम समता-भाव का आलम्बन करके क्षण भर में नष्ट कर लेते हैं, और जिस आत्मा को आत्म ज्ञान प्राप्त हो चुका है, ऐसा साधु सामायिक रूपी शलाका से- शली जो अनादि काल से जीव और कर्म का परस्पर संयोग है, उसको प थक कर देते हैं अर्थात् आत्मा के सब कर्मों को हटाकर आत्मा को निर्मल कर देता है। सामायिक रूप सूर्य की किरणों से राग-द्वेष-मोह आदि अज्ञान रूप अंधकार को नष्ट कर देने पर परम-योगीजन अपने में ही अपनी आत्मा को देखने लगते हैं, अर्थात् त्रिकाल ज्ञानी होते हैं वे अपने त्रिकाल ज्ञान से सारे जगत के दार्थों को पूर्णरुप से देख सकते हैं। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित www श्री दत्त केवली मुनि की वंदनाः राजा रानी अपने परिवार सहित केवली मुनीश्वर को / प्रदक्षिणा देकर विधिपूर्वक वंदना की, और भक्ति पूर्वक स्तुति करके अपने पुत्र को गोद में लेकर मुनि भगवंत के सामने धर्म देशना सुनने के लिए बैठ गये / श्री दत्त केवली भगवान ने धर्मोपदेश देते हुए फरमाया कि “इस परिवर्तनशील संसार में प्राणी को उत्तम धर्मवान कुल में जन्म, आदर्श शीलवती स्त्री, सशक्त उत्साहित पुरुषार्थ रुपी लक्ष्मी से युक्त जीवन पवित्र आचरण वाले पुत्र और शुद्ध हृदय वाले मित्रों की प्राप्ति ये सब फल निश्चय कर के धर्म के प्रभाव से ही प्राप्त होते हैं।" और अधर्म के प्रभाव से स्वजन से विरोध भाव, नित्य रोगी रहना, मूर्खजनों से संगत, कर स्वभाव, अप्रिय वचन का उच्चार, रोषयुक्त रहना यह सब मनुष्यों को नरक गति से आने केचिन्ह 1 और जीव धर्म प्रभाव से जो स्वर्ग लोक से मनुष्य लोक में आते हैं। उनके हृदय में नित्य चार बातें जरुर रहती हैं जैसे कि-पहली दान देने की रुचि, दूसरी मधुर वाणी से बोलना, तीसरी देव पूजन की इच्छा, और चौथी सद्गुरू की सेवा 2 इत्यादि सद्बोध दायक मधुर वाणी से धर्म देशना सुनाई ! 1 "विरोधिता बन्धुजनेषु नित्यं सरोगता मूर्खजनेषु सङ्ग / क्र रस्वभावः कटुवाक् सरोषोनरस्य चिन्हें नरकागतस्य // 162 / / 8 2 स्वर्गच्युतानाभिह जीवलोके चत्वारि नित्य हृदये वसन्ति / दानप्रसंगो विमला च वाणी देवार्चनं सद्गुरुसेवन: च॥१६३।।८ * Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र केवली मुनि से शकराज के विषय में प्रानाः ___“धर्म देशना बाद में किया प्रश्न गुरू से। . . भूप समझने के लिये-किया यत्न शुरू से // - कहिये कृपाकर क्यों हुआ-इस वृक्ष नीचे आज है। पुत्र वाणी बन्द जिससे-यर्थ मेरा राज है // " CMS धर्मोपदेश के पश्चात् राजा ने केवली भगवान से पूछा कि हे भगवान ! मुझ पर प्रसन्न होकर यह बात बतायें कि इस वृक्ष के नीचे मेरे पुत्र की वाणी क्यों बन्द हो गई ? तब केवली भगवान ने कहा कि “इस पृथ्वी पर पुन्य और पाप के प्रभाव से प्राणियों को अनेक प्रकार के सुख और दुख प्राप्त होते हैं, क्योंकि कोई व्यक्ति हजारों का भरण पोषण करता है तथा कोई लाखों का भरण पोषण करने वाला होता है, कई मनुष्य ऐसे भी होते हैं, जिसको कि अपना एक का भी भरण पोषण करना मुकिल हो जाता है, इसका कारण अपना ही पुण्य अथवा पाप है।" ... केवली भगवान ने पुनः कहा “हे राजन ! मैं तुम्हारे पुत्र को / शीघ्र ही बोलने वाला कर दूंगा माप मत घबराइए / " तब राजा ने कहा कि हे स्वामी ! मेरे पुत्र को आप दगाकर / तत्काल स्पष्ट बोलने वाला बना दीजिए। तब केवली भगवान ने उस राजपुत्र को कहा कि हे शुकराज! विधिपूर्वक मुझे वंदना करो। P.P.AC.GunratnasuriM.S. , Jun Gun Aaradhak Trust Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KNP ALETEKI SEWHERI P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. thON Jun Gun Aaradhak Trust 'हाथ जोडकर राजाने केवली भगवानसे पूछा कि हे भगवान! मुझ पर प्रसन्न होकर यह बात बताये कि इस वृक्षके नीचे मेरे पुत्रकी वाणी क्यों बंध हो गइ 11 पृष्ट 32 (मु. नि. वि. संयोजित विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 5) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित तब शुकराज गुरु महाराज की आज्ञानुसार शीघ्र ही उठ कर हर्ष पूर्वक स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार बोला "अणुजाणह पसाऊ करी" हे गुरु महाराज कृपा करके वदना करने की आज्ञा दीजिए। तब गुरु महाराज ने कहा कि 'इच्छं" पुनः वह राजकुमार बोला कि-"इच्छामि खमासमणों वदिऊ, जावणि जाए निसीहिआए मत्थरण वदामि" इस प्रकार छोटे बालक को बोलता और भक्ति पूर्वक वन्दना करते हुए देख कर सब लोग अपने मन में आश्चर्य चकित हो गये। बोलकर मुनि बन्दना करता हुआ उस बाल को, देख कर सब चकित हैं फिर पूछते इस हाल को / / राजा ने पुनः पूछा कि "हे भगवान ! मेरे पुत्र को ऐसा क्यों हो गया ? श्री केवली द्वारा शुकराज के पूर्व जन्म का कथनः-- मृगध्वज महाराज के प्रश्न का उत्तर देते हुए केवली भगवान ने मधुर वाणी से फरमाया कि हे राजन ! इस राजकुमार के पूर्व जन्म का सब वृतान्त सुनो, इसके बाद केवली मुनीश्वर शुकराज का पूर्ण जन्म का सारा हाल राजा और सभा जन को सुनाने लगे-'पूर्व काल में 'भदिलपुर' में न्याय निषुण 'जितारी' नाम का राजा राज्य करता था, वह एक दिन राजसभा में बैठा हुआ था, उस समय द्वारपाल ने आकर नम्र निवेदन किया, 'हे राजन! MA P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र 34 विजयदेव राजा का दूत आया है, और द्वार पर खड़ा है यह आपके दर्शन करना चाहता है' राजा ने कहा 'उसे सभा में ले आओ ! बाद में उस राजदूत को द्वारपाल राज सभा में महाराज के पास ले आया। राजा ने उससे पूछा कि 'तुम यहां कहां से भाये हो और आने का क्या प्रयोजन है ? तब दूत कहने लगा कि हे राजन! पूर्व दिशा में 'लक्ष्मीवती' नाम की एक सुशोभित नगरी है, वहां विजयदेव नाम का परम धार्मिक राजा राज्य करता है उनकी प्रीतिमती नाम की पटराणी है वह सतियों में शिरोमणी है। उनको सोम भीम धन और अर्जुन नाम के चार पुत्र हुर तथा हसी और सारसी नाम की दो कन्याओं को जन्म दिया क्रमशः बड़े प्यार से उनका पालन पोषण किया। एक दिन राजा रानी ने सोचा कि आहार निद्रा भय और मैथुन यह सब मनुष्यों को और पशुओं को समान ही है। मनुष्यों को सिर्फ ज्ञान ही विशेष है / ज्ञान रहित मनुष्य पशु के समान ही हैं इसीलिए विजयदेव महाराजा ने अपने प्यारे पुत्रों व पुत्रियों को विद्ववान पंडितों के द्वारा अच्छी तरह से शिक्षित किये ! वे चारों पुत्र और दोनों कन्यायें सब शास्त्रों में पारंगत और परम धार्मिक हुए। . चारों राजपुत्र अस्त्र शस्त्र आदि क्षत्रियोचित और पुरुषों की बहोतर कलाओं में यथा योग्य प्रवीण हुए। और हसी व सारसी दोनों ने स्त्रियों की चौसट कलाओं का अध्ययन परिपूर्ण किया / क्रमशः वे दोनों राज कुमारी बाल्यावस्था का उल्लंघन कर Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित यौवन अवस्था को प्राप्त हुई दोनों बहनों ने एक दिन आपस में यह निश्चय किया कि हम दोनों कभी भी प्रथक नहीं होगी अथवा हम दोनों एक ही पुरुष के साथ विवाह करें जिससे हमारा कभी वियोग न हो सके। ___एक दिन दोनों कन्याओं को विवाह योग्य देखकर राजाने उनको पुछा- हे पुत्रियो ! मैं तुम्हारा विवाह किस देश के किस व्यक्ति के साथ करू? दोनों राज कन्याओं ने उत्तर दिया-पिताजी ! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो हम दोनो बहिनों का विवाह एक ही वर के साथ करें ताकि हमारा वियोग न हो और हम दोनों सदा प्रेम पूर्वक साथ रहें। "कन्याएं बोली तात हमें, वर एक चाहिये जिससे हम ... बिछुड़े ने परस्पर बहिनों से, स्वामि सौभाग्य न खोवे हम // . और नितीकार ने भी कहा है-"कन्या तो सुन्दर व रुपवानवर को, माता धन को पिता अच्छे ज्ञानवान को और बान्धवलोग के वल मिष्टान्न ही चाहते हैं।" * राजा ने अपनी पुत्रियों को उत्तर दियो कि "मैं तुम्हारी इच्छा के अनुसार एक ही वर के साथ तुम्हारा विवाह करूंगा।" वरं वरयते कन्या माता वित्त पिता श्रुतम् / बान्धवाःधन मिच्छन्ति मिष्टान्नमितरे जनाः // 11 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 विक्रम चरित्र स्वयंवर में जितारी राजा को निमन्त्रणः राजा ने अपने स्वजनों के साथ विचार करके शानदार स्वयंवर मंडप बनाया। माघशुल्का अष्टमी का निश्चय मूहूर्त करके बहुत से देशो में कुकुम पत्रिकाए भेजी गई / मैं इसी कुकुम पत्रिका को लेकर आपको यहां देने आया हूँ। आप कुकुम पत्रिका को पढ़ कर वहां अवश्य पधारें। इस कुकुत्रिका को पढ़ कर राजा अपने परिवार के साथ स्वयंवर में आया / दूती से कहे हुए, उनके वश को सुनती हुई अंग, बंग, तिलंग आदि बहुत से देशों के राजाओं को छोड़ कर सिंहासन पर बैठे हुए जितारी राजा के कण्ठ में उन दोनों कन्याओं ने मनोहर वरमाला पहनादी! मनोहर रूप-वाली उन दोनों कन्याओं से विवाह करके . राजा जितारी दहेज में दिये हुए बहुत से घोड़े और हाथियों को प्राप्त कर वहां से अपने नगर के प्रति प्रस्थान किया! दोनों पत्नियों सहित राजा को अपने नगर में आते हुए (सुनकर नगर की महिलायें नई विवाहित दोनों रानियों को देखने की अमिलाषा से एक नेत्र में ही अंजन लगाकर और कई महिलायें अपने अपने काम को अधूरा ही छोड़कर उत्सुकता से राज मार्ग में आकर खड़ी हो गई। इसके बाद राजा "जितारि" P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Irust Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - साहित्य प्रमी मनि निरञ्जनविजय संयोजित रति और प्रीति की तरह हंसी और सारसी दोनों मनोहर स्त्रियों से सुशोभित होकर उत्सव पूर्वक अपने नगर में प्रवेश किया। * एक दिन नगर के उद्यान में "श्रीधर" नाम के आचार्य गुरूदेव के पधारने की बधाई सुनी, हंसी और सारसी दोनों रानियों के साथ जितारि राजा उद्यान में आचार्य की वंदना करने के लिए आये / वहाँ पर आचार्य ने धर्मोपदेश देते हुए , फरमायाः- . . . "इस संसार में अनेक प्राणियों को धर्म के प्रभाव से ही उत्तम् आर्य कुल में जन्म; निरोगी शरीर, सौभाग्य दीर्घ आयु और बल प्राप्त होता है / धर्म से ही निर्मल यश, सद् विद्या तथा रिद्धि सिद्धि आदि की प्राप्ति होती है, 'घन घोर बन में और महाभय में धर्म ही रक्षा करता है, धर्म की. वास्तविक उपासना करने पर स्वर्ग और मोक्ष भी मिलता है।" रोजा का सर्व श्रेष्ट धर्म को ग्रहण करनाः राजा जितारि धर्मोपदेश सुनकर अहिंसा धर्म को ग्रहण करके अपनी स्त्रियों के साथ अपने राज महल में आया, और आनंद पूर्वक समय बिताने लगे / हसी सरल स्वभाव वाली स्त्री * थी और अपने स्वामी की उचित रूप से आज्ञा पालन करती हुई धर्म ध्यान में निमग्न हुई / उसने स्त्री जाति योग्य कर्म को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 विक्रम चरित्र an नाश कर मनुष्योंचित कर्म से बंध ( संबंध ) किया और दूसरी बहन सारसी वह कपटी स्वभाव वाली थी। वह पति के साथ . माया खेलती हुई और बाहर से प्यार दिखाती हुई स्त्रियोचित कर्म से बध (संबंध) किया। कुछ दिन व्यतीत होने पर कुटिल स्वभाव वाली सारसी हसी के साथ हमेशा क्लेश करती रही / एक ही वस्तु के दो चाहने वाले होने पर परस्पर अवश्य कलह होता है, और कलह के : कारण आपस में मतभेद जरूर होता है, उसमें भी सपत्नियों (सौत) का स्वभाव सरल होना तो असम्भव ही है। “पाठक गण ! देखो कैसे अब-भगिनी में आपस द्वेष चला। जब काम वासना बढ़ती है-होगा तब कैसे कहीं भला // पाठक गण ! दोनों बहिनों के आपस में कितना प्रम था और वियोग न हो जाय इसीलिए एक ही स्वामी के साथ विवाह किया था वे ही आपस में द्वष रखती हैं, यही स्वार्थी संसार की स्थिति है। यात्रिक संघ का अवलोकनः एक दिन “जितारि" महाराजा खिड़की पर बैठे हुए राज मार्ग पर अवलोकन कर रहे थे, उस समय यात्रियों को इकट्ठे हुए जाते देख कर सेवकों से पूछा, ये सभी यात्री कहां जा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun'Aaradhak Trust Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dr.coDrpootoant FiYMN HIARIES usunam RSS P.P.AC.Gunratnasuri M.S. VORI MOM/ MUHIJNT/aml UTVA DAREIV SHARINA AIITity uinine R BULUDHA -AIMIMARA mal स (ROSAN .Unrms ULUNAR vart . . Jilla JAPATH THATRAUT QE EMPTilarilittha ANILITHD. hindin न ta CH - Jun Gun Aaradhak Trust खिड़की पर बैठे हुए राजा जितारि मार्ग पर अवलोकन कर रहेथे, उस समय यात्रियों को इकटे हुए जाते देख कर सेवक से पृछा, ये सभी यात्रि कहां जा रहे हैं ? पृष्ट 38 (मु. नि. वि. संयोजित विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 6) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित - सेवकों ने जांच करके कहाकि यात्री संघ "शंखपुर" का रहने . 'वाला है, सौराष्ट्र देश में आया हुआ है, श्री सिद्धाचल महातीर्थ पर श्री आदिनाथ भगवान को प्रणाम करने, के लिये जा रहे हैं। वे लोग नगर बाहर के उद्यान में विश्राम के लिए ठहरे हुए हैं, ये लोग वहां से इस नगर में जिनमंदिर में दर्शन करने जारहे हैं।" - - - - - - राजा मृगध्वज ने यात्री संघ के विश्राम स्थान में जाकर उस संघ के साथ पधारे हुए श्रीश्रुतसागर सूरीश्वर'नामक गुरू को भक्ति। पूर्वक प्रणाम करके हाथ जोड़ कर पूछा कि आप लोग श्री सिद्धाचल तीर्थ पर क्यों जा रहे हैं ? तीर्थ महिमा का कथनः___ तब सूरीश्वरजी ने कहा कि "उस महातीर्थ का जन शास्त्रों में बहुत बड़ा महात्म्य है,"। श्री सिद्धाचल महातीर्थ के ऊपर बिराजित श्री प्रथम तीर्थ कर प्रभु के दर्शन मात्र से सज्जनों को दिव्यदृष्टि प्राप्त होती और पाप नष्ट होता है अर्थात् उनके प्राणियों के लिए अमृतांजन के तुल्य है और संसार के मोहजाल में 'फंसे हुए अज्ञानियों के लिए ऐसा अपूर्व धूआं है कि जो सारे अज्ञान को आंसू रूप से बहाकर नष्ट कर देता है। इस संसार रूप महासमुद्र में एक छोटे से सरोवर की तरह पार उतार देता है, जो प्राणी को श्रीसिद्धाचल दूर से भी दृष्टि गोचर होने पर पुण्य को प्राप्त करता है, वह मनुष्य जन्म सफल बनाता P.P.Ac nasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '40 . विक्रम चरित्र है पाप को नष्ट कर देता है, सज्जनों के नेत्रों को पवित्र करता है। वह शोभा सम्पन्न श्री पुंडरिकगिरि महातीर्थ सबसे उत्कृष्ट रूप में विजय मान रहे।" - "उस श्री विमलाचल महातीर्थ में चार तीर्थकर समवसरण कर चुके हैं और भविष्य काल में बाविसवें तीर्थकर श्री नेमिनाथ भगवान के सिवाय उन्निस तीर्थ कर समवसरण करेंगे / जहाँ पर श्रीपुडरिकगणधर आदि पांचकोटि मुनीयों के साथ तथा नमि विनमि आदि दो क्रोड़ मुनियों के साथ सिद्ध हुए, द्राविड़ऋषि तथा वारि खिलजी इस कोटि मुनियों के साथ एवं श्री कृष्णजी के पुत्र प्रद्युम्न और शाम्ब कुमार साढे तीन कोटि मुनियों के साथ इसी तीर्थ पर सिद्ध हुए हैं और जहाँ पर श्री पांचपांडव, नारद ऋषि, हराम, भरत, तथा अन्य दशरथजी के पुत्र एवं सेलगसूरी आदि अनेक उत्तम आत्मा कर्म से विमुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हुए : उस श्री शत्रुजय पर्वत पर सिद्ध हुए कि जिसको गणना देव भी "नहीं कर सकते / उनकी गणना आकाश को अंगुली से नापना तथा गहरी नदी के जल का परिणाम जानने के समान असम्भव ही है, हे राजन् ! अधिक क्या कहें !" / राजा की तीर्थ यात्रा के लिये दृढ़ प्रतिज्ञाः इस प्रकार उस महातीर्थ की बड़ा भारी महिमा सुनकर महाराज ने तत्काल मंत्री आदि के समक्ष प्रतिज्ञा की, कि श्री विमलाचल पर P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित श्री आदिनाथ को प्रणाम करके ही अम्न और जल ग्रहण करूंगा। और मैं इस महातीर्थ की पैदल चल के ही यात्रा करूगा, इस प्रकार निश्चय कर राजा अपनी हसी और सारसी उन दोनों पत्नियों के तथा परिवार अदि को साथ लेकर उस यात्री संघ के साथ साथ श्रीविमलाचलतीर्थ कीओर प्रस्थान किया / क्रमशःसंघको चलते चलते सात दिन व्यतित हुए, एक विशाल घनघोर जंगल में संघ ने आकर विश्राम किया. / राजा को अन्न-पानी सात दिन से त्याग था इससे वे थके हुए मालूम होते थे, इससे सकल संघ और मंत्री आदि व्याकुल होकर-सोचने लगे, कि महाराजा ने बिना सोचे ही यह प्रतिज्ञा ले ली; यहाँ से श्रीसिद्धाचल तीर्थ दूर है भूखे प्यासे महाराजा वहाँ कैसे पहुँच सकेगें, इत्यादि सोच कर मंत्री आदि यात्रीगण मिलकर सूरीश्वरजी के पास आकर पूछने लगे, कि अब कितना मार्ग बाकी है ?? तब सूरीश्वरजी ने कहा कि "यह काश्मीर देश है। मंत्रियों ने पुनः पुनः पूछा कि "राजा ने अत्यन्त दुष्कर प्रतिज्ञा ली है इसलिए रानी आदि सब लोग इस समय व्याकुल हैं," - सूरीजी ने राजा को बुलवा कर पूछा कि तुमने सहसा नियम : ले लिया है, इस लिए अब पारणा कर लो क्योंकि प्रतिज्ञा के अंदर 'सहसागार' आदि चार आगार सर्वत्र कहे जाते हैं अर्थात् विषम अवस्था में छूट ली जाती है; नहीं तो धर्म की अवहेलना होगी, हे राजन् ! लाभालाभ का विचार कर के सब कार्य करना चाहिये / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 . . :. . . . . .:: विक्रम चरित्र. wwwwwwwwwww राजा को अनेक प्रकार से समझाने पर भी उसने अपने नियम को। नहीं छोड़ा। दृढ़ मन वाले महाराजा ने उत्तर दिया, “मैं अपनी की हुई प्रतिज्ञा को पूर्ण करने का सामर्थ्य रखता हूं, प्राणान्त होने . पर भी मैं अपनी ली हुई प्रतिज्ञा नहीं छोडूगा !" स्वप्न में गोमुख यक्ष का कथनः मंत्री आदि सारा ही परिवार अत्यन्त दुखी हुआ / रात होने पर मंत्री आदि सब सो गये, तब सोये हुए मन्त्री को स्वप्न में तीर्थ के अधिष्ठायक श्री 'गोमुखयक्ष ने कहा कि तुम अपने मन में कुछ भी चिन्ता न करो मैं तुम्हारे मनोरथ को पूर्ण करूंगा; प्रातःकाल प्रथम प्रहर में जब संघ मार्ग में चलने लगेगा तब मैं सत्य ही श्री विमलाचल तीर्थ को सन्मुख में ले आऊंगा औरउस तीर्थको नमस्कार कराकर राजाजीका अभिग्रहको पूर्ण कराना इस प्रकार यक्ष ने सब को विश्वास क्रेलिये हरेकको स्वप्न दिया / प्रातःकाल में सूरीश्वरजी आदि मन्त्रीगण एकत्रित होकर रात्रि का स्वप्न का समाचार परस्पर कहने लगे। संघ के साथ मार्ग में चलते हुए राजा ने तीर्थ को देख कर भक्ति भाव से पूजादि कर अपने अभिग्रह को पूर्ण किया / - सारे संघ के यात्रीगण को आज बहुत ही आनन्द हुआ था, अच्छे अच्छे सुगंधी पुष्पोंसे तथा सुन्दर स्तोत्रों से द्रव्य और भाव से तीर्थ की स्तुति करके राजा आदि सभी ने अपने मानव जन्म को सफल किया / श्री आदिनाथ को प्रणाम करके आगे जाने में राजा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * साहित्य प्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित का मन मानता ही नहीं था, श्री जिनेश्वर को प्रणाम करके आगे पुनः जाता था तथा पुनः 2 लौट आता था / राजा को इस.. प्रकार बार बार करते देखकर मन्त्रियों ने कहा कि हे राजन् ! आप इस प्रकारक्यों लौट रहे हैं ? राजा ने कहा कि मैं, नहीं जानता हूँ कि मेरा पाँव आगे क्यों नहीं बढ़ता है। विमलानगरी का निर्माणः-- EMITS तब मन्त्रियों ने कहा कि यहाँ पर ही नगर की स्थापना करता हूँ। यहां ही सब लोग रहेगें। तब अनेक जिनेश्वरों के मन्दिरों से युक्त 'विमला' नाम की नगरी बसाकर राज धर्म ध्यान में लीनहोकर वहां पर रहने लगा। इधर गोमुख यक्ष ने आकर राजासे कहाकि "मैंने देवशक्ति" राजा से श्रीपुण्डरीक नाम,का पर्वत राज यहां पर बनाया था। अब आपकी तथा समस्त संघ की प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई / इसीलिये अब मैं शीघ्र : ही इस पर्वतगज का संहरण करूगा इसलिये सौराष्ट्र देश में भूषण स्वरूप मुख्य तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचल पर जाकर श्री ऋषभदेव प्रभु की भाव पूर्वक वन्दना कर आओ। क्योंकिः "देवताओं के द्वारा रचित चित्त को हर्ष देने वाला गृह आदि सब वस्तुएं एक पक्ष से अधिक नहीं रहते ऐसा जिनागम में कहा हुआ है।" ॐ विकुर्वितं सम वस्तु गेहादि चित्तहर्षदम्। . पक्षादुपरि नो कुत्र तिष्ठत्युक्त जिनागमे ।।२३८||सर्ग. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Sun Gun Aaradhak Trust Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र .. दूसरे दिन राजा हर्षि चितत्त से श्रीविमलाचल पर श्री जिनेश्वर आदिनाथ को प्रणाम करने के लिये संघ से युक्त होकर चले और क्रमशः वहां पहुंच गये ! वहां जाकर भाव पूर्वक स्नात्रपूजा महापूजा, ध्वजारोपण संघ मालारोपण आदि संघ सहित राजा ने मानव जन्म को सफल कर लिया / इस प्रकार सुन्दर यात्रा करके मनुष्य जन्म के उत्तम फलों को प्राप्त करता हुआ संघ के साथ नयी बसाई हुई श्री विमलापुरी में राजा वापिस लौट आये। ..तत्पश्चात हाथी घोड़े सेना रथ आदि से युक्त होकर राजा "जितारि" अपनी पत्नियों के साथ शीघ्र ही श्री भदिलपुरी में आये। धर्मोपदेशः-- एक दिन नगर के उद्यान में गुरु श्री श्रुतसागरसूरीश्वरजी को आये सुनकर अन्तःपुर के साथ राजा उनकी वन्दना करने के लिए। गया / सूरीजाने धर्मोपदेश देते हुए फरमाया कि पूज्य व्यक्तियों की पूजा करना, दया, दान, तीर्थयात्रा, जप, तप, आगम का श्रवण परोपकार ये मनुष्य जन्म में आठ फल हैं। जिनेश्वर की पूजा आदि स्वर्ग तथा मोक्ष देने वाली है इस प्रकार सुनकर राजा जीव-दया रूपी धर्म में अत्यन्त दक्ष हुआ। न्याय नीति से राज्य करता हुआ राजा अन्त समय में हर्ष पूर्वक अनशन लेकर एक , समय श्री नवकार महामन्त्र सुनते सुनते ध्यान में तत्पर हुआ इसी बीच में श्री आदिनाथ प्रभु के मन्दिर के शिखर पर एक शुक को शब्द करते हुए देखकर उसमें राजा ने मन लगा दिया / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vuuuuuuuuuuuu MM साहित्य प्रेमी मुनि निजनविजय संयोजित 'जितारी राजा का देहान्तः... जिन प्रसाद के शिखर पर स्थित शुक को देखते 2 उसी समय राजा ने शरीर त्याग कर दिया। मरते समय राजा का ध्यान शुक की ओर था इसी लिए वे वहां से मरकर उनकी आत्मा शुक की योनि में उत्पन्न हुई क्योंकि उच्च उच्चतर मध्यम हीन हीनतर स्थानों में अर्थात् जिसको जहां जाना है मरते समय चित्त में वही भाव उत्पन्न होता है। निरंतर अनेक पाप पुन्य करने के कारण तन्मय आत्मा वाले प्राणियों की अंत अवस्था में जैसी मति होती है वैसी ही गति होती है। मरण कब होगा ! उसको कोई . निश्चित समय नहीं है इसी लिये सदा सद् ध्यान करना चाहिये। दोनों रानी की दीक्षा व स्वर्ग गमनः राजा की मृत्यु के बाद प्रजाजन आदि लोग कहने लगे कि यह धमवान एवं पुन्य वान् राजा स्वर्ग में गया होगा क्योंकि प्राणियों की गति तथा अगतिको गृहस्थी मनुष्य कैसे जाने ? अर्थात त्रिकालज्ञानी के सिवाय मनुष्य नहीं जान सकते / स्वजन आदि मिलकर राजा की अंतिम प्रतक्रिया समाप्त की। बाद में इस संसार की असारता जानकर हंसी और सारसी दोनों रानियों को गैराग्य उत्पन्न हुआ / गुरु के समीप जाकर दोनों ने हर्ष पूर्वक दीक्षा ली / गुरु के आश्रय में ज्ञान ध्यान पूर्वक अच्छी तरह दीक्षा का पालन करते हुए निर तर छट्ट के पारणे, दो-दो उपवास छटट आदि घोर तपस्या करते हुए क्रम से उत्तम ध्यान में लीन ने दोनों आयु पूर्ण कर प्रथम स्वर्ग लोक में उत्पन्त हुई। . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र - अवधि ज्ञान से अवलोकनः- ... . वहां वे दोनों देवी होकर सुख पूर्वक समय बिताने लगी, अवधि ज्ञान से अपने पिछले भव के सम्बन्ध को देखने लगी। अपने स्वामी को पक्षी-तिर्यश्च गति में देख कर दोनों देवियों को। अत्यन्त दुख हुआ। बाद दोनों देवियां शिघ्र हो देव लोक से उस शुक को प्रतिबोध के लिए आकर कहने लगी कि "हे शुक पूर्वजन्म में तुम 'जितारी' नाम के महाराजा थे, अर्थात् हमारे स्वामी थे," इत्यादि पूर्व जन्म का सब वृतान्त कह सुनाया और पुनः कहा कि तुमने बहुत पुन्य आदि किया था परन्तु अंत समय में आर्तध्यान के कारण भाग्य संयोग से पक्षी भव को प्राप्त किया है। इसी लिए अब तुम अपने मन में शुभ ध्यान करो, जिससे तुम को * स्वर्ग और मोक्ष के सुख प्राप्त होंगे।' शुक-पक्षीका अनशन व स्वर्ग गमनः__ इस प्रकार धर्मोपदेश देकर शुक को अनशन ग्रहण कराया, बाद वह शुक धर्म भावना पूर्वक मरकर स्वर्ग में गया, और उन्हीं दोनों देवियों के स्वामी देव हुए इस प्रकार वह शुक-देव उन दोनों देवियों के साथ सुख का अनुभव करते हुए किस प्रकार बहुत सा समय व्यतीत हो गया यह नहीं जान सके। स्वर्ग से च्युत होकर दो तीन बार मनुष्य जन्म प्राप्त करके वे देवियां पुनः 2 जितारी देव की पत्नियां हुई अर्थात् 'दो मर्तबा मनुष्य भव और तीन बार देव भव तीनों जिवों ने क्रम से प्राप्त P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VARATRAMER MAITHIBIIIIII / MITTISITITION ITIHITSTIL HERI P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.. II (U1OTO/OIOTONI CAN Euye Jun Gun Aaradhak Trust जिन प्रसाद के शिखर पर शुकको देखते देखते उसी समय जितारि राजाने शरीर त्याग कर दिया / पृष्ट 45 (मु. नि. वि. संयोजित राजा जितारिकी हंसी और सारसी दोनों रानियों को वैराग्य उत्पन्न हुआ, गुरुके समीप जा कर | दोनों ने हर्षपूर्वक दीक्षा ली / पृष्ट 45. विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 7-8) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित O किये, जब अन्तिम भव में वे देवियाँ स्वर्ग से च्युत हुई तव 'जितारी' देव मोहके कारण बहुत दुखी हुआ। उस दुखके कारण वह देव वावड़ी उद्यान आदि में कहीं भी क्रीड़ा करने नहीं जाता था क्योंकि ईर्ष्या, विषाद, मद, क्रोध, माया लोभ आदिसे देवभी दुखी रहते हैं, अथोत् देव लोगों में भी पूर्ण सुख कहां है ? देव विषय में सदा आसक्त रहते हैं, नारकी के प्राणी अनेक प्रकार के दुख से दुखी रहते हैं; तिर्यव्च-पशु योनि सदा विवेकसे रहित है, तब केवल मनुष्य भव में ही पुन्य से जीव को धर्म की सामग्री प्राप्त होती है। केवली भगवान से प्रश्न व निर्णयः. एक दिन वह देव धर्मोपदेश सुनने की इच्छा से लक्ष्मीपुर के बाहर के उद्यान में रहे हुए श्री धर्म-घोषसूरीश्वरजी नाम के केवली भगवान समीप आया / सूरिजी महाराजने मधुर वाणीसे सुन्दर धर्म देशना दी। तत्पश्चात केवली भगवान से उस देव ने पूछा 'हे भगवन ! मैं सुलभ बोधि हूँ ? या दुर्लभ बोधी हूँ ?' तब केवली भगवान ने फरमाया कि "तुम सुलभ बोधि हो।" . यह सुनकर देव ने पूछा कि “किस प्रकार होगा ?" कृपा .कर बताइये / तब केवली भगवान ने कहा तुम्हारी दोनों देवियाँ जो पूर्व भव में स्वर्गसे च्युत होकर हंसीका जीव-शुभ कर्मके योग से 'क्षितिप्रतिष्ठित' नगर में 'मृगध्वज' राजा हुआ है, और सारसी का जीव. पूर्व भव. में किये हुए कपट के कारण P.P.AC. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र द्वितीय-भाग विमलाचल से निकट एक बागमें श्री आदिनाथ भगवान के मंदिर के समीप आश्रम में गांगलि ऋषि की 'कमल माला' नामकी कन्या के रुप में उत्पन्न हुई है। उन दोनों के संयोग से उनके . घर पुत्रके रुप में तुम जन्म ग्रहण करोगे और जाति स्मरण ज्ञान प्राप करके संसार रुपी समुद्र तरोगे। श्री केवली भगवान के मुख से यह बात सुनकर वह देव अत्यन्त प्रसन्न होकर सब अवयवों से सुन्दर शुक रुप बनकर तुम्हें उस आश्रम में लेजाकर ऋषिकी कन्या से विवाह कराकर अत्यन्त स्नेह से उस देव ने श्रृंगार के साधन; अत्यन्त मनोहर वस्त्र और आभूषण दिये, तथा पुनः उसी शुक रूप में तुमको अपने नगर में लाकर छोड़ा / वह देव भी अपने को सुलभ बोधि जानकर आनन्द से स्वर्ग में गया। वह जितारि देव आयु.पूर्ण होने पर स्वग से च्युत होकर तुम्हारा पुत्र हुआ है, जिसका बड़े उत्सव के साथ तुमने शुकराज नाम रखा है, इसी वृक्ष के नीचे तुम को अपनी राणी के साथ वार्तालाप करते देखकर जातिस्मरण ज्ञान हुआ इस कारण यह तुम्हारा पुत्र अपने मन में बिचारने लगा कि मेरे ये दोनों माता-पिता पूर्व जन्म में मेरी अत्यन्त प्रेमपात्र प्रिया थी, आज मैं उन्हें पिता और माता कैसे कहूं ? इसलिये मौन रहना ही अच्छा है, ऐसा अपने मनमें सोच कर तुम्हारे पुत्र ने मौन धारण किया, हे राजन् ! इस में कोई रोग का कारण नहीं है, इसीलिए P.P. Ac. Guriratnasuri M.S: .. Jun Gun Aaradhaइसलिए Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 49 तुम्हारे सब उपाय व्यर्थ गये / तब शुकराज बोल उठा,हे भगवन ! आपने जो कुछ कहा है वह सत्य है। शुकराज को मन में दुखी .. होते देख कर श्री दत्त केवली भगवान ने फरमायाः - हे शुकराज ! इसमें आश्चर्य जनक कोई बात नहीं / यह संसार एक विचित्र नाटक ही है, जिसमें हरेक जीव अनेक रूप से एक दूसरेके साथ पिता पुत्र, स्त्रीपुरुष, हजारों बार होचुके हैं। इस संसार में ऐसी कोई जाति नहीं, ऐसी कोई योनि नहीं, ऐसा कोई स्थान नहीं, कोई ऐसा कुल नहीं, जिसमें प्राणी अनेकों बार जन्मको प्राप्त करके मरणको प्राप्त नहीं हुआ हो, इसीलिए किसीसे राग, द्वष कुछ भी नहीं करना चाहिए, मन में समता धारण कर सबसे स्नेह व्यवहार करना चाहिये। ... इस संसार में हजारों माता पिता हो गये, कितने ही पुत्र स्त्री का संयोग वियोग हो गया, वास्तव में मैं किसी का नहीं हूं, और मेरा कोई नहीं है, क्योंकि यह संसार एक माया जाल है। पुनः श्री दत्त केवली भगवान बोलेकि हे राजन ! इस संसार आश्चर्य जनक घटना को देख कर मुझे भी वैराग्य हो आया ! अब मेरा सारा ही वृतान्त तुमको विस्तार के साथ सुनाता हूँ, वह सावधान होकर सुनो। P.P.AC.Gunratnasuri M.S.' Jan Gun Aaradhak Trust Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र द्वितीय भाग RAN पैतीसवां प्रकरण श्रीदत्त केवली का पूर्व-चरित्र . खल खंडन, मंडन (सुजन सरल सुहृद सविवेक। गुण गंभीर, रण सूरमा, मिलत लाख में एक / / . केवली भगवान श्री श्रीदत्त मुनीश्वरजी राजा मृगध्वज एवं . सभाजन के समक्ष अपना ही! रोमांचकारी चरित्र इस प्रकार सुनाने लगे। "इसी भारत वर्ष में "मंदिर" नाम का एक अत्यन्त रमणीय नेगर था। उस नगर में “सूरकान्त" नाम का राजा नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करता था। उस राजा के आदर पात्र श्रेष्ठियों में शिरोमणि एक "सोम" नामका श्रेष्ठी था। उसकी स्त्री का नाम "सोमश्री" था, उसके पुत्र का नाम 'श्रीदत्त" था, उस श्रीदत्त के निर्मल शीलवती "श्रीमती” नाम की स्त्री थी। इस प्रकार वह श्रेष्ठी सब प्रकार से भाग्यशाली था, क्योंकि प्रेम पात्र पत्नी, विनय युक्त पुत्र, गुणवान भाई, स्नेही बन्धुजन, अत्यन्त बुद्धिमानमित्र जन, नित्य प्रसन्न चित्त स्वामी; लोभ रहित सेवक, सदैव दूसरे के कष्ट को शान्त करने के उपयोग में आने वाला धन 'ये सब भाग्योदय से ही किसी पुण्यशाली, व्यक्ति को ही प्राप्त हो सकते हैं। "प्रेम भरी वनिता, विनयान्वित पुत्र, गुणी निज सहोदर भाई, बन्धु सस्नेह मिले, होसियार सुमित्र, प्रसन्न सदा रह साई / P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak 1. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित सेवक लोभ विना, जिसके धन में जनता सब दुःख दुराई, उपदेशक ज्ञान निधि गुरु वयं को-पाता है पुण्यसे भाग्य जगाई" सोम श्रेष्ठी का उद्यान में जाना-- एक दिन वह सोम श्रेष्ठी अपनी प्रिया के साथ बाग में मनोरंजन के लिये गया, उसी समय अनायास ही वहां राजा सूरकान्त भी अपने अन्तःपुर के साथ उपस्थित हुआ, तथा अपने रूप से अप्सराओं को भी तिरस्कृत करने वाली सोमश्री को देखकर मोह में अन्ध होकर बलात्कार पूर्वाक उसे वह दष्ट बुद्धि राजा अपने अन्तःपुरमें ले गया, क्योंकि प्रायः मुखों की बुद्धि दूसरेके धन और परस्त्री में ही रहती है। जैसे रोगी को जो शरीर के लिये अपथ्य होगा वही अच्छा लगता है, कामदेव कलाओं के कुशल व्यक्ति. को भी क्षण मात्र व्याकुल कर देता है, पण्डितों को भी तिरस्कार योग्य कर देता है, धैर्यवान पुरुषको भी धैर्य रहित कर देता है / . - इसके बाद निरुपाय होकर सोम श्रेष्ठि राजा के मान्य मंत्रियों के घर पर गया, उनको पात वाणी से अपनी स्त्री के अपहरण का सब समाचार कह सुनाया, इस पर मंत्री लोग राजा के समीप जाकर स्पष्ठ शब्दों में इस प्रकार कहने लगे किःसूरकान्त राजा को मन्त्री का उपदेशः___राजन ! पर स्त्री हरण करने में अत्यन्त घोर पाप होता है। . क्योंकि शास्त्र में ऐसा कहा है कि जो कोई देव मंदिर सम्बन्धी द्रव्य मक्षण करते हैं तथा पर स्त्री गमन करते हैं,वे प्राणी सात बार P.P.AC.Gunratnasuri M.S. - Jun Gun Aaradhak Trust Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विक्रम चारत्र द्वितीय भाग mmmmmmmmmm अत्यन्त घोर सातवी नरक में जाते हैं।'' "काम वशी होकर अन्यों की नारी हर कर लाता है। .. देव द्रव्य को खाने से सात बार नरक में जाता है / " .. मन्त्रियों की ये सब बातें सुन कर राजा सूरकान्त ने कहा कि 'मेरे प्राण भी चले जाय तब भी मैं उस वणिककी स्त्री सोमश्री को नहीं छोड़ सकता / आप लोगों का इस विषय में कुछ भी . बोलना व्यर्थ है।' . ... तब वे मंत्री लोग सोम श्रेष्ठी के समीप जाकर कहने लगे कि जैसे हाथी के कान में स्थिरता रहना असम्भव है ठीक उसी प्रकार राजा का इस दुष्ट कार्य से निवारण करना असम्भव है / जिस प्रकार विद्युत्पातको कोईरोक नहीं सकता, कोईनदीके वेगको रोक नहीं सकता, कोईअत्यन्त उत्कट वायुको रोकनहीं सकता, तथा अग्निको भी कोई मनुष्य धारण नहीं कर सकता / माता यदि पुत्र को विषभक्षण करावे, पिता अपने सन्तान का विक्रय करे, राजा यदि प्रजा के सर्वस्व का अपहरण करे तो इसका क्या उपाय हो सकता है ? अर्थात् यदि 'रक्षक' ही 'भक्षक' बन जाय तो इसका क्या उपाय हो सकता है ? 卐 "भक्खणे देवद्व्वस्स परत्थी गमणेण य / / सत्तमं नरयं जंति सत्तवारा उ मोयमा !" संर्ग॥२६॥ P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित .. माता जहर पिलाती शिशुको, पिता बेचने जाय। नृप हरता है धन दौलत तो, उसका नहीं उपाय / / - इसके बाद निराश होकर वह सोम श्रेष्ठी अपने घर पर आ गया तथा अपने पुत्र से कहने लगा कि:- 'इस दुष्ट राजा ने बल पूर्वक यद्यपि तुम्हारी माता को अपहरण कर लिया तथापि मैं द्रव्य व्यय. करके उसे राजा के हाथों से छुडाके रहूँगा।' अभी अपने घर छः लाख का द्रव्य है, उसमें से आधा खर्च कर किसी बलवान राजा की सहायता लेकर तुम्हारी माता को बल पूर्वक शीघ्र ही छुडाऊंगा / इस प्रकार विचार करके वह श्रेष्ठी धन लेकर तथा अपने पुत्र से प्रेमपूर्वक मिल कर चुपचाप किसी अज्ञात् दिशा को चल दिया। - इसके बाद घर में निवास करते हुए 'श्रीदत्त' की स्त्री ने .. एक कन्या को जन्म दिया, कन्या जन्म सुन कर श्रीदत्त अपने मन में विचारने लगा कि माता पिता से वियोग हो गया है. धन का भी नाश हो गया है, हा आज पुत्री का भी जन्म हुआ है, उधर राजा भी विरुद्ध है / भाग्य विपरीत होने पर कौन विपत्ति नहीं पाता ? पुत्री के जन्म लेते ही शोक होने . लगता है.। जैसे जैसे वह बढ़ती है वैसे वैसे चिंता भी बढती ही रहती है। उसके विवाह करने में भी खर्च करना पड़ता है / इसलिये इस संसार में कन्या का पिता होना निश्चय ही कष्ट कर ही माना जाता है, पिताके घर का शोषण करने वाली, पति के घर को भूषित करने वाली, कलह और कलंक समूह का घर कन्या को जिसने जन्म नहीं दिया, इस मनुष्यलोक में वहीं मनुष्य वास्तव में सुखी है। PP.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र द्वितीय भाग mmmmmmmmmmmmmmm इसके बाद एकदिन श्रीदत्त ने अपने मित्र 'शंखदत्त' को कहा कि "धनके बिना मनुष्य शोभा नहीं पासकता है, इसलिये धनका उपार्जन करना चाहिये / क्योंकि शील, पवित्रता, तप, क्षमा, सहनशीलता, लज्जलाता मृदुलता, प्रियता कुलीनता, ये सब मनुष्य धन हीनको शोभा नहीं देते हैं / जोमनुष्य निर्धन है वह रूपवान् हो तथा विद्वान् हो फिर भी पूजित नहीं होता / जैसे स्पष्ठ अक्षरों में राजा के नाम से युक्त तथा गोलाकार रुपये का नकली होने पर लोगों में उसका कुछ भी मूल्य नहीं होता, इसलिये समुद्र मार्ग से किसी देश में जाकर प्रचुर धन का उपार्जन करें, जो धन प्राप्त होवे उसका विभाग करके आधा आधा दोनों ले लेंगे। इस प्रकार निश्चय करके श्रीदत्त दशदिन की कन्या सहित स्त्री क घर में अकेली छोडकर स्वयं समुद्र मार्ग से परदेश चल दिया। श्रीदत्त और शंखदत्त का प्रयाण - इस प्रकार अपने मित्र के साथ धनोपार्जन के लिये समुद्र मार्ग से जाता हुआ क्रमसे श्रीदत्त व शंखदत्त कुशल पूर्वक सिंहल द्वीप पहुंचे। वहाँ नौ वर्ष रह कर बहुत सा धनोपार्जन किया, वहां से अधिक लाभ सुनकर कटाहाह' नाम के द्वीप के प्रति गये। क्योंकि धनहीन व्यक्ति एक सौ की अभिलाषा करता है, सौ रुपया वाला हजार की, सहस्त्राधिपति लक्ष की, लक्षाधिपति कोटिकी, + शील शौचं तपः शांतिर्दाक्षिण्यं मधुरता कुले जन्म | न विराजन्ति हि सर्वे वित्तहीनस्य पुरुषस्य // 31 // सगे 8 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. .. Jun Gun Aaradhak,Trust Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित कोटिश्वर राज्य की, राजा चक्रवर्ती बनने की, चक्रवर्ती देवत्व की: तथा देव इन्द्रसन की इच्छा करता है। इस प्रकार श्राशा और तृष्णाका कहीं पार नहीं हो पाता / वहां 'कटाहाह' द्वीप में व्यापार करते हुए दोनों मित्रों ने जब एक दिन गणना की तो पूर्व जन्म के पुण्य प्रभाव से सब धन मिल करको आठ कोटि हुआ। तब दोनों मित्रों ने बहुत से क्रयाणक-किराना की वस्तु और अनेक हाथी घोड़े लेकर समद्र मार्ग से अपने घर के लिये वापस प्रस्थान किया। मार्ग में उन दोनों मे जल में: थोड़ी दूर एक मंजूसा, -पेटीको देखा / धीवरों-मच्छीमारों को भेजकर उसको अपने समीप हर्ष पूर्वक मंगवायी। दोनों मित्रों ने परस्पर इस प्रकार निश्चय किया कि जो कुछ सुवर्णरत्न आदि होगा वह विभाग कर दोनों मित्र आधा आधा ले लेंगे। इस प्रकार निश्चय किया और उन दोनों ने उस पेटी को खोला तो उसमें देखते हैं कि 'नीम के पत्र पर श्याम वर्ण की एकाकन्या अचेतन अवस्था में पड़ी हुई है। उसको देख वे दोनों बोलने लगे कि इसको सर्प ने काट लिया है, इसलिये कोई इसको जल के प्रवाह में प्रवाहित कर गया है। तब शंखदत्त कहने लगा कि मैं निश्चय ही इसको जीवित करूगा, ऐसा कहकर उसने मंत्र बोलकर जलके छींटे बदन पर देकर शीघ्र ही उस बालाको जीवित कर दिया। .. ... कन्या के लिये परस्पर विवादः-- इसके बाद मनोहर रूपवाली उस कन्या को देख कर शंखदत्त . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. विक्रम चरित्र द्वितीय भाग स्पस्ट रूप में इसप्रकार कहने लगा कि-'इसको मैंने जीवनदान दिया है, अतः इस कन्या को मैं ही ग्रहण करूगा।' तब श्रीदत्त ने कहा कि हे मित्र ! इस प्रकार तुमको बोलना नहीं चाहिये, क्योंकि तुम्हारा यह विचार अनुचित है, कारण कि पहले ही अपने दोनों ने इस प्रकार निश्चय कर लिया है कि दोनों मित्र आधा आधा लेंगे। इसलिये तुम कुछ धन लेकर यह कन्या सुमे दे दो। .. तब कोध से रक्त नेत्र करके शंखदत्त कहने लगा कि-हे मूर्ख दुष्ट ! पापिष्ट ! हे निर्दयी श्रीदत्त ! जब तक मैं जीता हूँ तब तक तुम इस कन्याको किसी प्रकार ग्रहण नहीं कर सकते हो। ठीक ही कहा है-"सिद्धि और स्वर्ग की अर्गला (कपाट) रुप कन्या का निर्माण किसने किया। जिसके लिये मोहित होकर के देव तथा मनुष्य सब कोई. दिङमुढ हो जाते हैं"' / सुन्दर नेत्र वाली कन्या बलवान मनुष्य के मन को भी प्रेम पूर्वक अपने वश में कर लेती है। जिस तरह मच्छीमार मच्छी को पकड़ लेता है और जैसे मद्यपान करने से उन्मत्त होकर लोग अपना हित अथवा अहित नहीं समझते हैं, उसी प्रकार स्त्रियों से मोहित होकर मनुष्य विवेक हीन होजाते हैं। अपार समुद्रका पार पा सकते हैं, परन्तु स्वभावतः कुटिल स्त्रियों का तथा. दुराचारी व्यक्तियों म. "हा नारी निर्मिता केन सिद्घ स्वर्गऽगला खलु। .... यत्र स्खल ति हा मूढाः सुरा अपि नरा अपि" ॥३३०॥सग 8 P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीपसे धन कमाकर घर के प्रति समुद्रमार्गसे प्रस्थान, थोडी दृरमें मंजूसा-पेटीको देखना... AREE HTRAILERam NIXXII ANA HITI S P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. B. REHLS HES Mind A नानSAR188 Jun Gun Aaradhak Trust पेटीमें नीमेके पत्तोमें श्याम पड़ी हुइ, मनोहर रुपवाली कन्या को देख कर कन्यालेनेके बारेमें परस्पर दोनों में विवाद हुआ, श्रीदनद्वारा शंखदत्तको समुद्रमें फेंकना... पृष्ट 55 मु. नि. चि. संयोजित विक्रम चरित्र दुसरा भाग चित्र नं. 1) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित का पार पाना असम्भव है। इस प्रकार दोनों को विवाद करते देख कर नाव-खेवैयियों-नाविको ने कहा "आप लोगोंका इस प्रकार का विवाद करना अत्यन्त दुःख दायी है / इसमें कोई संदेह नहीं; दो दिनों के बाद तटपर एक "सुवर्ण कूल" नामक नगर आवेगा, वहां पर राजा के बहुत से चतुर मनुष्य रहते हैं। वे लोग आप दोनो के विवाद का समाधान कर देंगे, तब तक आप लोग शांत रहो।" . नाविकलोगों की यह बात सुनकर दोनों ने परस्पर विवाद करना छोड दिया / परंतु श्रीदत्त मन में सोचने लगा कि लोग जीवन दान देने के कारण यह कन्या शंखदत्त को ही दिलायेंगे। इसलिये गुप्त रुप से कोई उपाय किया जाय जिससे यह कन्या मुझको मिल जाय / इसप्रकार विचार करके वह निर्दयी श्रीदत्त छल से शंखदत्तको विश्वास देने लगा। कहा भी है कि "जिसका मुख कमल के समान प्रसन्न, वाणी चंदन के समान शीतल तथा हृदय कैंचीके समान घातक, ये तीनों प्रकार धूर्तों के लक्षण समझो शंखदत्त को समुद्र में फेंकना रात्रि होने पर शंखदत्त को नाव के उच्च भाग पर बठाकर श्रीदत्त बोलाकि हे मित्र ! समुद्र में एक बहुत बड़ा सुंदर कौतुक हो 卐 "मुखं पद्मदलाकारं वाचा चंदनशीतला / .... हृदयं कत्तरीतुल्यं त्रिविधं धूतलक्षणम् / / 336 // सर्ग ..P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र द्वितीय भाग NANA रहा है, एक बहुत बड़ा आठ मुख वाला मत्स्य इस समय नावके नीचे से जारहा है, यह सुनकर कुतूहल वश जव शंखदत्त उस मत्स्य को ध्यान से देखने लगा, तब श्रीदत्त ने छल से उसको समुद्र में गिरा दिया। बाद में शीघ्र ही लोगों के आगे अपना शोक प्रदर्शित करता हुआ आर्त स्वर से बोलने लगा कि हे मित्र ! अब तुम्हारे बिना मेरे प्राण भी चले जायेंगे, इस प्रकार सब लोगोंको कहता हुआ जोर 2 से रुदन करने लगा। इसकेबाद लोगों के समझाने पर शोक को त्याग कर हृदय में प्रसन्न होता हुआ, वहांसे चलते चलते समुद्र तटपर स्थित "सुवर्ण कूल" नाम के नगर में पहुँचा / श्रीदत्त ने नगर में जाकर घोड़ा तथा हाथी आदि वहां के 'धन' नामके राजा को उपहार दिया। राजा ने प्रसन्न होकर उस दुष्टचित्त श्रीदत्त को हाथी का मूल्य देकर सम्मानित किया। इसके बाद नाव पर से कन्या सहित सब वस्तुओं को उतार कर उस श्रीदत्त ने राजा के कर माफ कर देने पर सस्ते भाव से बेच डाली / कुछ समय व्यतीत होने पर एक . दिन श्रीदत्त ने ज्योतिषियों को बुलाकर उस कन्या के साथ विवाह करने के लिये मुहूर्त का निश्चय किया। इसके बाद श्रीदत्त राजा की सभा में गया, वहां जाकर श्रीदत्त ने राजा के समीपमें एक सुंदर चामर हारणो को देख कर किसी एक मनुष्य .. से उसके विषयमें पूछा। तब उस मनुष्य ने श्रीदत्त से कहा कि राजा से सम्मानित इस 'स्वर्णरेखा' से वही एक बार बोल सकता है जो उसको " P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित worw~ सम्मान पूर्वक पचास दीनार-सोना मोहर देता है, क्यों कि यह स्वर्ण रेखा राजा के अत्यन्त सम्मान की पात्र है। कन्या और स्वर्ण रेखा को लेकर श्रीदत्त का जानाः-- यह सुन कर श्रीदत्त मोहित होकर पचास दीनार देकर चुप. चाप उस कन्याके साथ स्वर्ण रेखाको रथमें चढ़ाकर एक बड़े वनः में ले गया। तथा वन में एक चंपाके विशाल वृक्षके नीचे दोनों स्त्रियोंके साथ बैठ कर जब श्रीदत्त अनेक तरह से मनोरंजन कर रहा था, उसी समय में बहुत सी वानरियों के साथ एक .. वानर आया / उसको देख कर श्रीदत्त ने स्वर्ण रेखा से कहा किइन वानरियों से इस वानर का क्या 2 सम्बन्ध है ? क्या ये सब. इस बन्दर की स्त्रियाँ हैं? तब स्वर्ण रेखा कहने लगी कि-पशुओंमें इतना विवेक कहां . से होवे ? कोई इसकी माता होगी कोई भगिनी तथा कोई कन्या, इस प्रकार आपस में एक दूसरे के अनेक प्रकार के अन्य सम्बन्ध भी होंगे / यह सब मैं कैसे बताऊ ? क्यों कि "पशु प्राणियों का जन्म निन्दित है / और उसमें विवेक नहीं होता, और कर्तव्य का ज्ञान भी नहीं होता है, उन्होंका जन्म निरर्थक है / तथा पशुओं को स्तन पान तक ही माता से सम्बन्ध रहता है / अधम मनुष्यों को स्त्री प्राप्ति तक, मध्य प्रकृति के मनुष्यों को जब तक गृहकाय में समर्थ रहती है तब तक माता के प्रति सद्भाव रहता है। परन्तु उत्तम प्रकृति के मनुष्यों का जीवन पर्यन्त तीर्थ के समान P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग ही माता के प्रति सद्भाव रहता है। बानर का मनुष्य भाषा में कथन- यह सब बात सुनकर जाता हुआ, वह बानर क्राघ से लाल नेत्र करके वापिस लौटा तथा श्रीदत्त को दृढतापूर्वक इस प्रकार कहने लगा कि "रे पापिष्ठ दुराचारी / दूसरे के दोषों को देखने वाले ! पर्वत परकी अग्निको देखता है परन्तु अपने चरणोंके नीचे नहीं देखता / इसलिये ठीक ही कहा है कि दुर्जन व्यक्ति राई और सरसों के समान दूसरे के छोटे 2 दोषों को देखता है परन्तु 'बिल्व' फल के समान अपने दोषोंको कभी नहीं देखता तथा सब कोई केश के अग्रभाग से भी बारीक दूसरे के दोषों को देखते हैं. परन्तु हिमाचल पर्वत के शिखर के समान विशाल अपने दोषों को नहीं देख सकते / अपने मन में सभी व्यक्ति अपने को गुणी ही मानते हैं। दूसरे के दोष का वर्णन सब कोई करते हैं परन्तु अपने दोषोंको नहीं कह सकते हैं / * अपने मन से सब सुन्दर हैं सब देखे पर दोष / / अपनी कमी छिपाता जन है, करे अन्य पर रोष // हे श्रीदत्त " तुम अपने मित्रको समुद्र में फेंक कर तथा अपनी माता और कन्या को अपने बगल में लेकर दूसरे के दोष को - आस्तन्यपानाञ्जननी पशूनामादारलाभाच्च नराधमानाम् / / " आगेहके मव तु मध्यमानामाजीवितातीर्थमिरोत्तमानम्।।३५६||८ * सनः स्वात्वनि गुणवान्, सर्गः परदोषदर्शने दक्षः। "मर्वस्य चास्ति वाच्यं, न.चात्मदोषान् वदति कश्चित्" // 36 / / P.P.AC.Gunratnasuri M.S... Jun Gun Aaradhak Trust Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LYRI Lad Glr-2 moc P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. A60.30 1602) 10.00. 3.75 FAIRSARAI ट a Jun Gun Aaradhak Trust वानर का मनुष्य भाषामें कथन: रे पापिष्ट दुराचारी ! दुसरे के दोषों को देखने वाले ! तुम अपने मित्रको समुद्रमें फेंक कर, अपनी माता और कन्या को बगलमै लेकर के दूसरे के दोष को कहते हो; तुम शीघ्र ही गहरे कूपमें गिरोगे। पृष्ट 60-61 (मु. नि. वि. संयोजित विक्रम चरित्र दुसरा भाग चित्र नं. 10) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित कहते हो; तुम शीघ्र ही गहरे कूप में गिरोगे, क्योकिं असत्य बोलने से मनुष्य वाणी अस्पष्टता तोतलापन तथा निरर्थक बृथा बोलने वाला एवं गूगापन, तथा मुख रोग को प्राप्त होते हैं। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि असत्य और तथा दुष्ट वचन कदापि न बोले / ____ इस प्रकार कहकर शीघ्रगति से वह बानर कूद कर कहीं दूर चला गया / तब श्रीदत्त सोचने लगा, कि यह जानवर इस प्रकार कैसे बोल गया ? मेरी माता तथा कन्या यहां से बहुत दूर हैं। तथा मेरी माता आदि इस प्रकार की आकृति वाली नहीं थी तो फिर वे दोनों यहां कैसे हो सकती है / इस प्रकार सोच कर 'स्वर्णरेखा' से पूछा कि तुम कौन हो ! तब स्वर्ण रेखा ने कहा कि क्या तुम मूर्ख मनुष्य की तरह इस पशु के बोलने पर तुम भ्रम में पड़ गये हो। _ इसके बाद श्रीदत्त ने वहां से उठकर वनमें इधर उधर घूमत हुए एक मुनीश्वर को देखा तथा उन्हें प्रणाम करके अंजलि बद्ध होकर पूछने लगा कि हे मुनीश्वर ! बानर के द्वारा मैं संदेह रूपी समुद्र में गिरा दिया गया हूं, इसलिये आप मुझको सत्य ज्ञान रूपी नौकासे बाहर निकालें / क्योंकि सज्जन व्यक्ति अपने कार्य से लापरवाह होकर दूसरे के परोपकार के कार्य में लगे रहते हैं। जैसे चन्द्रमा समस्त पृथ्वी को प्रकाशमान करता है, परन्तु अपने कलंक को साफ करने का अवसर उसको नहीं मिलता है। P.P.Ac. Gunratrasuri M.S. Jun.Gun AaradhakTrust .. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग .. इस पर अवधि ज्ञान वाले मुनि भगवन्त सब वृतान्त जानकर कहने लगे कि बानरने जो कुछ कहा है वह सब बातें बराबर सत्य है इसमें कोई सन्देह नहीं। .. ... सब श्रीदत्त कहने लगा कि "कन्या और माता का किस प्रकार सम्बन्ध हुआ, इसका वर्णन मुझको कहो।" श्रीदत्त का ज्ञानमुनी से मिलना तथा कन्या का पूर्व वृतान्न.. तब अवधिज्ञानी मुनीश्वर कहने लगे, कि 'प्रथम कन्या का सम्बन्ध सुनलो / जब तुम दश दिन की अवस्था वाली कन्याको छोड़कर धन के लिये नौका पर आरूढ होकर चल दिये, तब कुछ दिन बाद शत्रुराजा के डरसे सब लोग उस नगर से इधर उधर भागने लगे। तुम्हारी स्त्री भी कन्या को लेकर गंगा के तट पर 'सिंहपुर' नाम के नगर में अपने बन्धुओं के समीप चली गई, तथा अपने बन्धुओं के समीप रहती हुई तुम्हारी स्त्री को ग्यारह वर्ष बीत गये / एक दिन रात्रि में एक दुष्ट सर्पने तुम्हारी कन्या को काटलिया, तब उप्त कन्या की माता तथा मामा आदि 'अनेक प्रकार के उपचार करने लगे, परंतु दुर्भाग्य से वह सब कुछ भी उपयोगी न हुआ, क्योंकि जो कुछ भाग्य में लिखा है उसका परिणाम सबको मिलता है, यह जानकर धैर्यवान व्यक्ति विपत्ति में भी कायर नहीं होता, तब उस कन्या की माता ने स्नेह से उसे एक पेटी में रखकर अपार जल राशि समुद्र में रख दिया। तुमने जिसको छल से लेलिया है, वही तुम्हारी पुत्रा है, यह सब वृत्तान्त सत्य है। .. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरज्जनविजय संयोजित माता का पूर्व वृतान्त अब अपनी माता के समाचार सुनो जव तुम्हारी माता को राजा सूरकान्त ने अपने अन्तःपुर में रख लिया, तब तुम्हारे पिता उस राजा से तुम्हारी माता को छुड़ाने की इच्छा से द्रव्य लेकर चुपचाप दुसरे नगर में अपने घर से चल दिया / तुम्हारे पिता ने नगर के किसी एक पल्लीपति को अत्यन्त प्रसन्ने कर दिया, इसके बाद वह पल्ली पति तुम्हारे पिता से कहने लगा कि :"जो कुछ कार्य हो वह शीघ्र मुझको कहो।" ____ तब तुम्हारा पिता कहने लगा कि "राजा सूरकान्त मेरी स्त्री को चुराकर ले गया है। उस अपनी स्त्री को मैं आपके सहयोग से छ ड़ाना चाहता हूँ। अपने कार्य को सिद्ध करने में समर्थ तो बहुत से लोग देखे जाते हैं, परन्तु जो परोपकार करने वाले हैं, ऐसे मनुष्य पृथ्वी में थोड़े ही मिलते हैं। इसके बाद वह सोम उस पल्ली पति की सेना लेकर राजा सूरकोन्त की सीमा में पहुँचा / सूरकान्त उस विशाल सेना को देखकर अत्यन्त व्याकुल हो गया, फिर भी सन्मुख आकर शत्रु से युद्ध करने लगा, परन्तु जब सूरकांत की सब सेना नष्ट हो गई, तब वह भाग कर अपने किले में चला गया। किले के द्वार को बंद करके बख्तर पहनकर सावधान होकर स्थिर हो गया। इधर सोम सैन्य के साथ बल पूर्वक द्वार को तोड़कर नगर में पहुँच गया। किन्तु युद्ध करते P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग करते सोम के मस्तक में एक अत्यन्त तीक्ष्ण बाण लग गया, जिससे तत् क्षण में उसके प्राण पखेरू उड़ गये। जिस कार्य को एक दूसरे रूप में सिद्ध करना चाहता था, वह एक दूसरे ही रूप में बदल गयो / यह एक भाग्य की ही बात है / भार्या को छुड़ाने में अपने प्राण ही चले गये / सच है प्राणी सोचता कुछ और है और कुदरत करती है कुछ और / सूरकान्त युद्ध करते करते अपनी सेना के नष्ट हो जाने से कहीं भाग गया। इधर राजा की वह भिल्ल सेना अनुचित रूप में नगर को लुटने लगी। क्योंकि __ "चन्द्रबल, ग्रहबल, सेनाबल अथवा पृथ्वी का बल तब तक ही कार्य करता है, अपना सब मनोरथ तब तक ही सफल होता है, मनुष्य तब तक ही सज्जन रहता है, और मंत्र-तंत्र आदि का महात्म्य या पुरुषार्थ तब तक ही काम देता है, जब तक मनुष्यों का पुण्य विद्यमान रहता है, पुण्य के नष्ट होने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है / " . 卐 तावच्चन्द्रबलं ततो ग्रहबलं तावबलं भूबलं, तावसिध्यति वान्छितार्थमखिलं तावन्जनः सज्जनः / मुद्रामंडलमंत्र तंत्र महिमा तावत्कृतं पौरूषम् , यावत् पुण्यमिदं नणां विजयते पुण्यक्षयात्क्षीयते ॥३८६।स.८ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दत्तका हानीमुनिले मिलना: 2214. RADIO न्याका पूर्व वृत्तान्त तथा माताका पूर्व वृत्तान्त सूना रहे हैं।...पृष्ट 62-63 न Rasomai Lices. सामश्रीने वनमें किसी एक अज्ञात वृक्षका फल खा लिया, उस फलके प्रभावस उनका सारा शरीर गौरवणे एवं युवतीके समान सुन्दर हो गया।...पृष्ट 65 A.नि.वि.संयोजित.विक्रमचरित्रसरा भागचित्र नं.११-१२) P.P.AC.Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak Trust Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरजनविजय संयोजित सोमश्री का अज्ञात फल खाने से रूप का परिवर्तन इसके बाद एक भिल्ल सोमश्री को लेकर शीघ्र उस नगर से बाहर निकला। परन्तु रात्रि में जब सब सो गये तब छल करके सोमश्री कहीं भोग गई / उसने वन में भ्रमण करते हुए किसी एक अज्ञात वृक्ष को फल खा लिया / उस फल के प्रभाव से उसका सारा शरीर गौरवर्ण एवं युवती के समान सुन्दर हो गया। क्योंकि मंत्र रहित कोई भी अक्षर नहीं है, कोई वनस्पति की ऐसी जड़-मूल नहीं जो औषध न हो, पृथ्वी स्वामी रहित नहीं है परन्तु उसकी विधि बताने वाले संसार में दुर्लभ हैं। दूसरे दिन देवांगना के समान रूप लावण्यवाली उस सोमश्री को वन में देखकर एक धनसार्थवाह नामके व्यापारी उसको समझाकर चुपचाप उसको लेकर वेग से हर्ष पूर्वक सुवर्णकुल के तट पर पहुँचा। पहले उस नगर में बहुत वस्तुएं खरीदी परन्तु दूसरे दिन उस नगर में वही चीजें सस्ती मिलने लगी / धनसार्थ / वाह सोचने लगाकि बिना द्रव्य के किस तरह से ये सब सस्ती __वस्तुयें खरीदूगा / यह विचार कर वह श्रेष्टी उस सोमश्री को बेचने के लिये बाजार के चौक में ले आया / उस नगर की रुपवती नाम की एक वैश्या ने एक लाख द्रव्य देकर उसे खरीद लिया और अत्यन्त यत्न से नत्य आदि सब कलायें उस सोमश्री को सिखादीं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग सोमश्री का नाम परिवर्तन अपने शरीर की क्रान्ति से सुवण को जीतने वाली उसको देखकर उस नगर नायिका ने सोमश्री का 'सुवर्णरेखा' नाम रखा। इसके बाद एक दिन नत्य करती हुई उस सुवर्णरेखा को देख कर राजा ने उसको अपने समीप में चामर हारिणी बनाया ! ___हे श्रीदत्त ! वही यह तुम्हारी माता है / इसने लोभ तथा लज्जा से अपना स्वरूप तुम्हारे पास प्रकट नहीं किया क्योंकि:. "वैश्यायें लोभ की राजधानी हैं, वहां से जो कोई प्रस्थान करता है, वह समस्त संसार को जीत लेता है। जिन वेश्याओं के हृदय में कुछ और रहता है, वाणी में कुछ और तथा क्रियो एक दूसरे प्रकार की ही रहती है। वे वेश्यायें किसी को सुख का कारण कैसे हो सकती है ?" ____श्री दत्त ने पुनः प्रश्न किया कि 'यह पशु जाति का वानर ये सब बातें कैसे जानता है ?' को श्री दत्त के पास भेजी। वे दासियां उसके पास जाकर कहने लगी कि "सुवर्णरेखा कहां है ?" प्रलोभस्य राजधानीयं ज्ञेयः पण्याङ्गनाजनाः / सतः प्रयाणकं कृत्वा विश्वं विश्वं जयत्यसौ। ४००स०८ मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् क्रियायामन्यदेव हि, यासा साधारणस्त्रीणां ताः कथं सुखदेतवे ।४०१॥स. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित पिता की पूर्व कथा तब मुनिने उत्तर दिया कि मस्तक में बाण लगने पर तुम्हारा पिता सोम श्रेष्ठी दूरस्थित मन्दिरपुर नाम के नगर में बाण से घायल होकर वहां सोम श्री के ध्यान से प्राण त्याग करने के कारण व्यन्तर जाति में प्रत हुआ। क्योंकि "रज्जुग्रहण से, विष भक्षण से, जल प्रवेश, तथा अग्नि प्रवेश से शरीर त्याग करने वाला तथा पर्वत के शिखर पर से गिर करके मरने वाला, शुद्ध भाववाला व्यक्ति भी व्यन्तर(प्रत)बन जाता है / " व्यन्तर ने तुमको उस सोमश्रीमाता तथा पुत्री से युक्त देखकर उस व्यन्तर ने वानर का रूप धारण करके तुमको ये सब बातें कही हैं। वह व्यन्तर पूर्व स्नेह के कारण इस सोम श्री को लेकर जायगा। मुनिके ऐसा कहने पर वह व्यन्तर अकस्मात् कहीं से शीघ्र आकर सोम श्री को उठाकर कहीं चला गया। इसके बाद श्रीदत्त मुनि को प्रणाम करके अपने मन में अत्यन्त आश्चर्य करता हुआ, कन्या सहित नगर में आकर अपने घर में स्थित हो गया। - इधर रुपवती वेश्या ने सखियों से पूछा कि 'स्वर्णरेखा - कहां है ?' तब सखियोंने मधुर वचनसे उत्तर दिया- 'श्री दत्त'ने सोमश्री ___ से कहा कि मैं तुमको पचास दीनार दूगा ऐसा कहकर .. उसको लेकर बन में गया था। इस पर रुपवती ने अपनी दासियों P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 68 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग श्री दत्त ने उत्तर दिया कि-"मैं कुछ नहीं जानता हूँ कि वह कहां गई है।" ___ तब वे दासियां कहने लगी कि रे दुष्ट ! पापिष्ठ ! तुम। प्रत्यक्ष ही झूठ क्यों बोल रहे हो ? - इसके बाद रुपवती राजा के पास जाकर कहने लगी कि "हे स्वामिन् / मैं एक ठग द्वारा ठगी गई हूँ; "वह धूर्त भी इसी नगर में रहता है" श्रीदत्त को कैद करना___राजा ने पूछा-'किस से ठगी गई हो ?' तब रुपवती ने उत्तर दिया कि 'दुरात्मा श्री दत्त ने सुवर्णरेखा का अपहरण कर लिया है / ' इस पर राजा ने श्रीदत्त को बुलाकर पूछा। तब श्री दत्त विचार ने लगा कि "यदि मैं कहूंगा कि वानर स्वर्ण रेखा को ले गया तो कोई नहीं विश्वास करेंगे।" इस प्रकार सोचकर वह मौन ही रह गया / तब राजा ने आदेश दिया कि इसे कारागार में लेजाश्रो / तब दण्ड पाश धारण करने वालों ने ऐसा ही किया। उसकी दुकान में सील देकर राजा ने उसकी कन्या को अपने अन्तःपुर में रख लिया। क्योंकि:-- "गंगा नहाये न काक पवित्र, जुआरी न सत्य कभी कहिं बोले / सर्प क्षमा करता न किसी पर, स्त्री.न बिना कुछ काम के बोले // धीरज धारण हो ही जड़ाकेन, भूपति मित्र न शाश्वत भोले / ज्ञान कथा न सराबी को भाती है, ये सब भग्य समाज के रोड़े॥" P.P.Ac, Ginrassfasuri M.s. Jun Gun Aaradhak Trust Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित 66 / ____ काक में पवित्रता, जुआ खेलने वालों में सत्य, सर्प में क्षमा, स्त्रियों में काम वासना की शान्ति, नपुंसक मनुष्य में धैर्य, मद्यपान करने वालों में तत्वज्ञान की विचारण और राजा का सदा के लिये मित्र होना किसने देखा है और न सुना है ? इसके बाद श्री दत्त ने हृदय में इस प्रकार सोचकर, अब इस समय मैं सत्य बोल दू', जो होना होगा सो हो जायगा; राजा के आगे बानर का सब वृतान्ते कह सुनाया। राजा आदि सब व्यक्ति श्रीदत्त की यह बात सुनकर कटाक्ष पूर्वक कहने लगे कि "श्री दत्त ने अपूर्व सत्य वचन कहा है।" क्योंकि जो असंभव हो एसा यदी प्रत्यक्ष भी देखने में आवे तो भी बोलना न चाहिये / जैसे-वानर का गीत गाना तथा पत्थर का जल में तैरना। भीमराजा की कथा___ यह कथा इस प्रकार है कि श्रीपुर नाम के नगर के भीमराजा का मंत्री समुद्र में एक शिला को जल में तैरता हुआ देखकर नगर में आया और राजो आदि सब व्यक्तियों को शिला के तरने का सब समोचार कहा / ____ इसे सुनकर राजा ने कहा कि 'यदि प्रत्यक्ष भी देखा हो तो भी वह असंभव जैसी होतो नहीं बोलना चाहिये / ' राजा की यह बात सुनकर वह मंत्री मौन रह गया / इसके बाद राजा एक दिन घोडे पर चढकर नगर से बहुत दूर बाहर निकला / वहां मार्ग में वानरों का अपूर्व नृत्य गीत P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग आदि देखकर पीछे लौट कर नगर में आ गया। अपने आँखों से देखी हुई घटना नगर निवासियों को कहने लगा / परन्तु कोई भी व्यक्ति इस असंभब बात को मानने के लिये तैयार नहीं था। तब राजा अत्यन्त उदास हो गया। श्रीदत्त को श ली की आज्ञाः इसके बाद मन्त्री राज सभा में आया और राजा तथा प्रजा जन के आगे राजा और उसने जंगल में जो कुछ देखा था, उस विषय को लेकर एक श्लोक बनाकर बोला, जिसका तात्पर्य है कि प्रत्यक्ष देखने पर भी असम्भव बात किसी को कहनी न चाहिये जैसे यदि कहीं बानर को नृत्य गीत करते देखा हो तथा जल में पत्थर को तैरते देखा भी हो तो किसी से यह न कहे कि मैंने ऐसा होते देखा है। ऐसा श्री दत्त से कह कर राजा क्रोध से लाल नेत्र करके श्री दत्त को शुली पर चढ़ाने के लिये अाज्ञा दी / कहा है। _ 'कहां राजा हरिश्चन्द और कहां उनको चाण्डालदास को बनना, कहाँ पार्थिव अर्जुन और कहां उनका राजा विराटे के घर में नट के समान नृत्य करना, कहां राजा रामचन्द्र और कहां उनका बनवास ? सच है इस संसार में कर्म के अनुसार के 'असंभाव्यं न वक्तव्यं प्रत्यक्षं यदि दृश्यते / यथा वानर गीतानि तथा तु तरिता शिला' ॥४२१शास.. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Guri-Aaradhak Trust Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरज्जनविजय संयोजित भाग्य का परिणाम विचित्र होता है / इसलिये बुद्धिमान व्यक्ति को भूतकाल तथा भविष्यकाल की चिन्ता नहीं करनी चाहिये परन्तु वर्तमान काल के अनुसार व्यवहार करना चाहिये / इसके बाद उद्यान पालक के मुख से, 'एक 'मुनिचन्द्र' नाम के ज्ञानी गुरू उद्यान में आये हैं, यह बात सुनकर राजा अपने परिवार के साथ उनकी वन्दानी करने के लिये उद्यान में आया / मुनीश्वर को प्रणाम करके धर्मोपदेश के लिये प्रार्थना की। ' मुनिचन्द्र की धर्म देशना तब मुनिश्वर राजा को बोध देने के लिये बोलने लगे कि "जो न्याय करने वाला नहीं हो तथा धर्म का आचरण करने वाला नहीं हो वहां धर्मोपदेश क्या दिया जाय ?" तब राजा ने कहा कि 'हे भगवन् ! मैं न्याय और धर्म का बराबर पालन करता हूं।' __ तब पुनः मुनिश्वर कहने लगे कि 'तुम ठीक ठीक न्याय नहीं करते हो, क्योंकि तुम सत्यवादी श्रीदत्त का व्यर्थ ही प्राण ले रहे * क्व च हरिश्चन्द्रः क्वान्त्यजदास्यं, क्व च पृथुसूनुः क्व च नटलास्यम् / क्व च वनवासः क्वासौ रामः, . कटरे विकटो विधिपरिणामः।।४३०||स. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trus Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग हो।' कहा है किः-- "मज्जन लोग कष्ट पाते हैं, दुर्जन लोग सुख भोगते हैं, पुत्र मरते हैं, पिता जीवित रहते हैं, दाता दरिद्र हो जाते हैं और कृपण धनी हो जाते हैं / हे लोगों ! देखो कलियुग का यह सब व्यवहार कैसा आश्चर्य जनक है। जनक है। ' ज्ञानी मुनि की यह बात सुनकर राजा आश्चय चकित हो गया और अपने सेवक को शीघ्र भेजकर श्रीदत्त को बुलवाया और आदर पूर्वक अपने समीप बैठाया। इसके बाद राजा ने पुतः प्रश्न किया कि 'श्रीदत्त को आपने सत्यवादी कैसे बताया ?' जब राजा मुनीश्वर से इस प्रकार पूछ रहाथा ठीक उसी समय में वानर स्वर्णरेखा को पीठ पर लेकर अकस्मात् वहां उपस्थित हो गया / वह सब के देखते ही मुनीश्वर को विधिपूर्वक प्रणाम करके तथो स्वर्णरेखा को पीठ पर से उतार कर देशना सुनने की इच्छा से लबको आश्चर्य चकित करता हुआ, उनके समीप बैठ गया, क्योंकि पशुपक्षि के योग्य जो बात तथा कार्य है वह बात तथा कार्य मनुष्यों में देखकर. तथा मनुष्य के कार्य 5 सीदन्ति सन्तो विलसन्त य सन्तः पुत्रा नियन्ते जनकश्चिरायुः। - दाता दरिद्रः कृपणो धनाढयः, ___पश्यन्तु लोकः कलि चेष्टितानि ॥४३६क्षास.. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्र मी मुनि निरन्जनविजय संयोजित पशुओं में देख कर किस मनुष्य के हृदय में कौतुक नहीं होता। ... इसके बाद देशना जब पूर्ण हो गई तब श्रीदत्त ने मुनीश्वर से पूछा कि "हे भगवन् ! किस कर्म के प्रभाव से मुझको माता तथा पुत्री के विषय में अनुराग हुआ ? _____ तब मुनीश्वर ने उत्तर दिया कि यह पूर्व जन्म के संस्कार से ऐसा हो गया है।" . .. मुनि द्वारा श्रीदत्त और शंखदत्त का पर्व जन्म कथन। तब पुनःश्रीदत्त ने पूछा कि 'मेरापूर्व जन्म किस प्रकार था ?' . मुनीश्वर कहने लगे कि 'हे श्रीदत्त ! तुम अपने पूर्व जन्म का वृतान्त सावधान मन से सुनो।" ___ पंचाल देश में एक 'काम्पील्य पुर' नाम का नगर था। वहां . 'चैत्र' नाम के ब्राह्मण को 'गोरी' और 'गंगा' नाम की कामदेव की रति और प्रीति के समान अद्भुत रूप लावण्य वाली दो स्त्रियां थीं / एक दिन उसे चैत्र ने अपने मित्र मैत्र से एकान्त में कहा कि हे मित्र ! इस समय किसी दूसरे देश में धनोपार्जन के लिये चलना चाहिये ।क्यांकिः-- . 'डर से, आलस्य से और अति आलस्य के कारण कौवा कायर पुरुष तथा मृग अपने देश में ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं,कारणकि के सभीताः परदेशस्य बह वालस्यः प्रमदितः / स्वदेशे निधनं यान्ति काकाः का पुरुषामृगाः // 4478 P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग परदेश की मुसाफरी का कष्ट वे सहन नहीं कर सकते हैं।" जो घर से निकल कर अनेक आश्चर्य से भरी हुई इस समस्त पृथ्वी को नहीं देखते हैं, वे मनुष्य कूप के मेढ़क के समान संकुचित भाव वाले होते हैं। इस प्रकार विचार करके वे दोनों मित्र मैत्र' और चैत्र' द्रव्योपार्जन के लिये 'कोकाण' देश में पहुंचे। वहां पहुँच कर क्रमशः बहुत सम्पत्ति का उपार्जन किया प्रचुर द्रव्य उपार्जन करने के बाद एक दिन मार्ग में अत्यन्त लोभ के वशीभूत होकर सोये हुए चैत्र को मारने के लिये मैत्र उठा / धन कैसी बुरी चीज है जो अपने प्यारे मित्र को मारने के लिये तैयार हो गया। पर उसी समय भाग्योदय से उसमें विवेक गुण प्रगट हुआ और वह विचारने लगा कि मेरे जैसे विश्वासघातीको नरकमें भी स्थान न मिलेगा / पाप करने वाले प्राणी अत्यन्त घोर नरक में जाते हैं। क्योंकि लोभ पाप का मूल है, स्वाद व्याधि का मूल है तथा, स्नेह दुःख का मूल है / इन तीनों के त्यागने से ही सच्चा सुख मिलता है। - पृथ्वी कहती है कि "मुझको पवतों का भार नहीं है, तथा सात समुद्रों का भी भार नहीं है परन्तु कृतघ्न और विश्वासघाती ये दोनों मुझको बहुत बड़े भार स्वरूप हैं" और भी कहा है कि कूट साक्षी (मिथ्यासाक्षी देने वाला), मिथ्या बोलने वाला, कृतघ्न चिरकाल तक क्रोध रखने वाला, ये चार कर्म से चण्डाल हैं और पांचवा जाति से चण्डाल होता है। ये सब बातें सोच कर मैत्र Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I ज्ञानीगुरु मुनिचन्द्रजी धर्म देशना दे रहे है। S ...... GUS API un Gun A 5 श्रीदत्तका पिता पत्लि-सोमधीके ध्यानसे प्राण त्याग कर व्यन्तर होना...... उस व्यन्तरने वानर रूप धारण करके सब बातें कही हैं; और इस सोमश्री को लेकर जायगा, उतनमें ही वह व्यन्तर सोमश्रीको उठाकर कहीं चला गया / .. पृष्ट 67 AR (मु. नि. वि. संयोजित...... . विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 13-14) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NOT74 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. ARL . PROFESS Jun Gun Aaradhak Trust O सोमश्री को लेकर व्यन्तर का गुरु निश्रामें आगमन, ज्ञानी गुरुद्वारा श्रीदत्त और शंखदत्त का पूर्वभव कथन, श्री दत्तसे शंखदत्तका पुन: मिलन, परस्पर दोनोंकी क्षमा-याचना पृष्ट 80 म..चि....संयोजित.......बिक्रम चरित्र दसरा भाग चित्र नं. 15) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित अपने आत्मा की अत्यन्त निन्दा करते हुए दया युक्त हृदय होकर वापस अपने स्थान पर जाकर बैठ गया। सच है 'उत्तम व्यक्तियों का चित्त कुमार्ग में जाते हुए भी स्वयं उससे विरक्त हो जाता है, . परंतु दुष्ट हृदय वाले पापी मनुष्यों का चित्त अनेक उपदेश देने पर भी कुमार्ग से निवत नहीं हो सकता है। - इसके बाद वे दोनों मित्र अनेक देशों में भ्रमण करके तथा बहुत सा धन उपार्जन करके मार्ग में आते हुए नदी के प्रखर / प्रवाह में अचानक पड़ कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। कहा है-- | "मनुष्य जलमें मग्न हो जाय, मेरु पर्वत के शिखर पर चढे, युद्ध में शत्रुओं को जीते, व्यापार कृषि कम आदि कला तथा विद्या की शिक्षा ले, पक्षी के समान बहुत प्रयत्न करके अनन्त आकाश में उड़ जाय, परन्तु जो भावी नहीं है वह नहीं हो सकता तथा भाग्यवश जो भावी है, उसका नाश भी किसी प्रकार से नहीं हो सकता"* पश्चात् तिर्यग्योनि आदि में तृष्णा बुभुक्षा, आदि अनेक कष्टों को प्राप्त करके चैत्र का जीव तुम 'श्रीदत्त' नाम से इस समय हुए हो। और अनेक योनियों में * मज्जत्वम्भसि यातु मेरुशिखरं शत्रु जयत्वाहवे / * वाणिज्यं कृषिसेवानादि सकला विद्याकलाः शिक्षतु / / - आकाशं विपुलं प्रयातु खगवत् कृत्वा प्रयत्नं परम् / ना भाव्यं भवतीह कर्मवशतो भाव्यस्य नाशः कुतः ॥४५८||स०८ i P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग भ्रमण करके तथा अनेक कष्टों को प्राप्त करके मैत्र का जीव 'शंखदत्त' नाम से तुम्हारा मित्र हुआ है। _उधर चैत्र की दोनों स्त्री गंगा और गौरी चिरकाल तक अपने स्वामी की आने की राह देखकर अन्त में निराश होकर समार से विरक्त हो गयी। वे दोनों स्त्रियां मासोपवासादि अनेक तप करती हुई एक दिन गंगा - तट पर एक परमसुन्दरी वैश्या को देखकर विचारने लगी कि इस वैश्या को धन्य है क्योंकि प्रतिदिन अपने अभिलषित पुरुष को सेवन करती है / परन्तु हम दोनों को धिक्कार है जो स्वामी का कहीं से किसी भी प्रकार का समाचार नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार दुःख चिन्तन करती हुई, अपने उपवासादि पुण्य कर्म का ध्यान छोड़कर, शरीर त्याग करके ज्योतिष्क देवी के स्थान में देवीपद को प्राप्त हो गयी। १इसके बाद वहां से च्युत होकर वे दोनों गंगा और गौरी श्रेष्ट स्वभाव वाली तुम्हारी दोनों स्त्रियां पूर्व जन्म के अनुराग के कारण सुन्दर रुप वाली तुम्हारी माता और कन्या हुई / "हे श्री दत्त ! पूर्व जन्म के बैर के कारण तुमने शंखदत्त को समुद्र में अत्यन्त कोध से गिरा दिया / यही सब तुम्हारा कुकर्म है।" गुरु मुख से इस प्रकार अपने पूर्व जन्म का वृतान्त जानकर श्रीदत्त के मन में वैराग उत्पन्न हो गया। तथा सोचने लगा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ তত साहित्यप्रेमी मुनि निरजनविजय संयोजित mmmmmm~~~~ इसकी प्रकार जीव अपने पूर्व जन्म में किये हुये कर्मों के वश से अनेक प्रकार के सुख और दुःख को प्राप्त करते हैं। क्षण में अनुरक्त, क्षण में विरक्त, क्षण में क्रोध, क्षण में शान्ति, इस प्रकार मोह में आकर वानर के समान मुझ से चपलता हो गई। फिर गुरुसे कहने लगाकि 'हे स्वामिन् / मुझ पर अब प्रसन्न होकर इस अपार संसार रुपी विषम समुद्र से पार होने के लिये कोई उपाय दिखाइये, क्योंकि सज्जन व्यक्ति अपने कार्यों से विमुख होकर परोपकार करने में लीन रहते हैं / जैसे चन्द्रमा अपने कलंक को छोड़कर पृथ्वी को प्रकाशित करने में आसक्त रहता है।' "इस भव समुद्र को तैरने में, है धर्म नाव के तुल्य बना। उस नाव खेवने में मानों चारित्रय बांस है सदा बना॥" तब गुरु उपदेश देने लगे कि संसार रूपी समुद्र में पार होने के लिये धर्म ही नौका के समान है / तथा चारित्र के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। ___श्री दत्त ने प नः पूछा कि "हे भगवन् ! यह मेरी कन्या; मैं किसको दू?' तब मुनीश्वर ने कहा कि 'शंखदत्त को क्यों नहीं दे देते हो ?' तब श्रीदत्त नेत्र से अश्रु गिराता हुआ गद्गद् स्वर से कहने लगा कि उसको मैंने समुद्र में गिरा दिया है / अब उस मित्र से मिलन किस प्रकार हो सकता है ? . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S! Jun Gun Aaradhak Trust Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग "लक्ष्मी, स्त्री, माता, पिता, ये सब बार बार दूसरे जन्मों में प्राप्त हो सकते हैं परन्तु साधु संगति की प्राप्ति होना कठिन है। तब मुनि कहने लगे कि 'हे श्रीदत्त ! तुम खेद न करो तुम्हारा प्रिय मित्र अभी यहां आ मिलेगा। श्रीदत्त से शंखदत्त का पुनः मिलन ___ यह सुनकर नीदत्तजब तक अपने मन में आश्चय से विचार करता है तबतक शंखदत क्रोध से रक्त नेत्र किये हुए तत्काल वहां उपस्थित हो जाता है, तथा प्रथममुनि को विधि पूर्वक प्रणाम करके राजा के समीप बैठ जाता है / अत्यन्त क्रोध से भरा हुआ शंखदत्त को देखकर उसके क्रोध को शान्त करने के लिये मुनीश्वर ने इस प्रकार देशना दी कि "क्रोध प्रेम को नाश करता है, अभिमान विनय का नाश करने वाला है, माया मित्रता का नाश करती है; लोभ सर्वस्व का नाश कनने वाला होता हैसक्रोध जब देह रूपी , घर में प्रवेश करता है तब उसमें तीन प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं; तथा स्वयं भी तप्त होता है और दूसरे को भी ताप देता है। इस प्रकार वह अतीव हानिकारक होता है। ____ इस प्रकार अनेक उतम देशना से शांत हुए शंखदत को अपने समीपमें बैठाकर मुनीश्वरसे श्रीदत ने पूछा कि 'हे गुरो शंखदत ! किस प्रकार यहां आया ?' __ तब मुनीश्वर कहने लगे कि समुद्र में गिरता हुआ तुम्हारे है "कोहो पीइं पणासेइ माणो विरण्य णासणो / माया मित्ताणि णासेइ लोहो सव्वविणासणों" // 484 // 8 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित 76 मित्र को एक फलक (पाटिया ) प्राप्त हुआ। तथा उसी के अवलम्बन से सात दिन में वह सागर के तट पर आ पहुँचा। वहां तट पर उसको संवर नाम के उसके मामा मिल तथा कुशल समाचार पुछकर अपने घर ले गये। अन्नपानादि से अत्यन्त प्रसन्न होकर इसने मामा से पूछा कि स्वर्णकूल “यहां से कितनी दूर है / " मामा से उत्तर मिला कि "यहाँ से छतीस योजन दूरी पर है।'' इस प्रकार मामा से जानकर अपनी वस्तु तथा कन्या आदि का लेने के लिये यह यहां शिघ्र आया है / .. उन दोनों श्रीदत्त और शंखदत्त का पूर्व जन्म का बैरभाव जान - कर हित करने की बुध्दि से मुनि शंखदत्त से इस प्रकार कहने लगे क्योंकि:-"सज्जन व्यक्तियों का चित्त दया से श्रावृत रहता है / तथा वाणी अमृत से भी अधिक मधुर होती है और शरीर परोपकार करने में सतत तत्पर रहा करता है।" 'मुनि कहने लगे कि “हे शंखदत्त ! श्रीदत्त को तुमने पूर्व जन्म में मारने की इच्छा की थी, उस के बदले में तुमको मारने के लिये श्रीदत ने तुम्हें समुद्र में गिरा दिया था। इस प्रकार ' __घात प्रतिघात से तुम्हारे बैर भाव की शुद्धि हो चुकी है / अब तुम दोनों स्थिर प्रीति करलो / क्यों कि जो कर्म किया जा *कृपाकवचितं चेता, वचः पीयूषपेशलम् / परोपकार व्यापार, वपुः स्यात् सुकृतात्मनाम् / / 464 ॥स.८ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग चुका है। उसका नाश कोटि कल्प में भी नहीं हो सकता / किये हुए कर्म का शुभ या अशुभ फल जीव को अवश्य ही भोगना पड़ता है। परस्पर शुमा-याचना वहाँ पर बैठे हुए राजा ने यह सब बात सुनकर दिल में धम के बिना कल्याण नहीं हो सकता है, यह सोच कर उन मुनि से 'सम्यक्त्व मूल द्वादश व्रत' को अच्छे उत्सव के साथ ग्रहण किया। क्योंकि गृहस्थों के लिये पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, और चार शिक्षा व्रत, ये 12 व्रत मोक्ष दने वाले हैं। . बाजू में बैठे बानर रूपी व्यन्तर ने गुरु का उपदेश सुनकर अपनी पूर्व जन्म की स्त्री में अनुराग को त्याग किया और इस प्रकार क्रमशः श्रीदत्त, शंखदत्त, राजा और उस व्यन्तर, श्रीदत्त की कन्या तथा सोमश्री ने परस्पर क्षमा की याचना की / ___ इसके बाद स्वर्णरेखा वेश्याकर्म का त्योग करके जिनोपदेशित * धर्म का आचरण करती हुई स्वर्ग जायगी तथा क्रमशःमुक्ति को भी प्राप्त करेगी अन्य भी बहुत से संसारी लोकों ने ज्ञानीमुनि की धर्म देशना सुन तथा श्रीदत्त तथा शंखदत का वृतांत सुनकर, पाप बुद्धि को नष्ट कर, धर्म मार्ग में प्रवृति कर धर्म का मार्ग ग्रहण किया। श्रीदत्त और शंखदत्त ने जैन धर्म को स्वीकार किया तथा मुनि को प्रणाम करके हर्ष पूर्वक अपने 2 स्थान को गये / श्रीदत्तने आधे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरज्जनविजयजी संयोजित 81 द्रव्य के साथ कन्या को शंखदत को देकर उत्सवपूर्वक शेष धन सातों क्षेत्रों में दे दिया तथा केवली मुनि से संसार से तारण करने बाली दीक्षा लेकर तीव्र तप करता हुअा वह बिहार करने लगा। तप रूपी अग्नि से दुष्ट कर्म रूपी इन्धन के समूह को भस्म करता हुआ क्रमशः श्रीदत्त क्षपक श्रेणी को प्राप्त हो गया। अज्ञान रूपी अन्धकार को शुक्ल ध्यान के प्रखर किरणों से नाश करता हुआ उस श्रेष्ठ श्रीदत्त मुनि ने क्षणमात्र में निर्मल केवल ज्ञान को प्राप्त किया। वही श्रीदत्त मैं केवल ज्ञान प्राप्त करके सांसारिक प्राणियों के हित करने की भावना से विहार करता हुआ यहां इस समय आया हूँ। पूर्व जन्म में चैत्र रूपी मुझको जो गौरी और गंगा प्रियायें थीं वे इस जन्म में कर्मवश मेरी माता और पुत्री हुई। दुष्ट कर्मों के अधीन होकर अज्ञान से मैंने माता तथा पुत्री के ऊपर प्रेम किया। (श्रीदत्त केवली कथा समाप्तम् ) उस केवलो भगवंत की यह सब बात सुन कर वह राजकुमार केवली से बोला कि 'जा हंसी और सारसी पूर्व जन्म में मेरी प्रिया थी वे ही इस समय मेरी माता तथा पिता हैं। उसको मैं तात तथ माता किस प्रकार कहूँ।' शुकराज से केवली का उपदेश तब उस केवली भगवंत ने कहा कि "हे शुकराज ! यह संसार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग रूपी नाटक विचित्र ही है। क्योंकि __ "संसार में ऐसी न कोई दिखती कुल जाति है / .. शत वार जिसने जन्म पाया हो न मानव जाति है।। शत सहस्त्रों बार सबके सब हुअा सुत ताप है / - जीव जब तक मोक्ष पाता यह कहां तक पाप है।" इस संसार में ऐसी कोई जाति नहीं है, न ऐसी कोई योनि है, न ऐसा कोई स्थान है, न ऐसा कोई कुल है कि जहां पर इस जीव ने अनेक बार जन्म धारण न किया और मरण प्राप्त न किया हो / अर्थात् यह जीव सब स्थानों में अनेक समय भ्रमण कर चुका है और जहां तक मुक्ति मोक्ष प्राप्त नहीं होगा वहां तक जोव का भ्रमण चालू ही रहता है / इस संसार में भ्रमण करने वाले प्राणियों को परस्पर अनेक बार माता पुत्र आदि का सम्बन्ध हो चुका है / इसलिये इस प्रकार के न्याय को देखते हुए बुद्धिमानों को लोक व्यवहार का त्याग नहीं करना चाहिये, क्योंकि निश्चय से व्यवहार बलवान है / यही नीति कहाती है। ___ इसके बाद संसार को नाटक प्रायःसमझ कर तात माता आदि शब्द बोलते हुए शिशु शुकराज को देखकर मृगध्वज श्रीदत्त मुनि से बोला कि 'हे स्वामिन् ! पृथ्वी पर आपके समान जो मनुष्य हैं वे धन्य हैं / युवावस्था में ही जिन लोगों के चित में वैराग्य को प्राप्त कर लिया है; मेरा चित संसार से विमुख होकर मुझे वैराग्य कब प्राप्त होगा?" इस प्रकार राजा के पूछने पर केवली श्रीदतमुनि के कहा कि हे राजन! जब तुम तुम्हारी रानी चंद्रावती का पुत्र तुम्हारे दृष्टि P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जन विजय संयोजित गोचर होगा तब तुमको मोक्ष का सुख देने वाला वैराग्य भाव प्राप्त होगा। / ___ उन मुनीश्वर से कहे हुए वचनों को अपने हृदय में धारण करके और उन केवली मुनीश्वर को विधि पूर्वक प्रणाम करके अपने पुत्र आदि के संबंध में सब बातों को स्वप्न के समान समझता हुआ वह ओनंद पूर्वक राजा अपने नगर में आया / ___ इसके बाद वे केवली मुनि भव्य प्राणी रूप कमल के प्रबोध के लिये, प्रकाशमान ज्ञान रूपी किरण युक्त दिवाकर स्वरूप केवली श्रीदत्तमुनि पृथ्वी में ग्रामानुग्राम विचरने लगे। Ho ; . पारस में और संत में, बड़ा ही अन्तर जान / . एक लोहा कंचन करे, एक करे आप समान ||1|| चेतन तें ऐसी करी, ऐसी न करे कोय / विषया रस के. कारणे, सर्वस्व बेठो खोय / / 2 / / जो चेताये तो चेतजे, जो बुझाय तो बुझ / ____खानारा सौ खाई जशे, माथे पडशे तुझ // 3 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '84 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग प्रकरण छत्तीसवां चन्द्र शेखर "तरवर-सरवर-संतजन, चौथा वर्षे मेह, परमारथ के कारणे, चारों धरिया देह / " गत प्रकरण के अंदर श्रीदत्त केवली भगवंत ने महाराजा मृगध्वज को शुकराज का रोमांचकारी पूर्व भव इत्यादि वर्णन किया / उस वर्णन को सुनकर महाराजा अपने मन में बहुत ही आश्चर्य चकित हुए। महाराजा अपने मन में, इस संसार के अनोखे माया जाल पर सदा सोचते ही रहते थे, इस असार संसार से मेरा छुटकारा कब होगा ? यह दिल की चाहना थी। इस इच्छा की पूर्ति के लिये श्री दत्त केवली मुनि के वचन सदा याद रखते थे और धर्म भावना में रत रहे हुए न्याय नोति से प्रजा का पालन कर रहे थे। गांगलि ऋषि का राजसभा में आगमन-- - जब बह राजकुमार शुकराज दस वर्ष का हुआ तब कमल माला को पुन: एक दूसरा मनोहर पुत्र उत्पन्न हुआ। राजा मृगध्वज ने उसका जन्मोत्सव करके स्वप्न के अनुसार हर्ष पूर्वक "हंसराज" नाम रक्खा। इसके बाद दस वर्ष की अवस्था वाला हंसराज और शुकराज के साथ राजा जब सभा में बैठे थे। तब P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित .nawwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww द्वारपाल आकर निोदन करने लगा कि "हे राजन् ! आपके दर्शन की इच्छा से गांगलिऋषि द्वार पर आये हैं। यदि आपकी आज्ञा हो तो वह यहां आगे।" राजा की आज्ञा प्राप्त कर वह द्वारपाल तीन शिष्यों से युक्त जटाधारी गांगलिऋषि को वहां पर ले आया / आदर-सत्कार करने के अनन्तर आर्शीवाद प्राप्त करके राजा उन ऋषि श्रेष्ट को उच्च आसन पर बैठाकर पूछने लगा कि जिन मन्दिर आदि सब कुम्लल तो हैं ?' __ ऋषि ने उत्तर दिया कि “जब आप जैसे राजा पृथ्वी का पालन करने वाले इस पवित्र पृथ्वी पर विद्यमान हैं तो लोगों को किस प्रकार कोई विघ्न हो सकता है ? जैसे मेघ के बराबर वर्षा करते रहने पर क्या कहीं पर दुर्भिक्ष (अकाल) प्रकट होता है ?" ___ अपने पिता को आये हुए सुनकर कमल-माला भी आई और पिताजीके चरणों में प्रणाम करके एक स्थान पर खड़ी हो गई। तब राजा ने पूछा कि “आप किस प्रयोजन से अभी यहां आये हैं।" ___ ऋषि कहने लगे कि मेरे आगमन का क्या कारण है वह मुझ से सुनिये / एक दिन स्वप्न में मुझको गोमुख नामका यक्ष ' आकर कहने लगा कि “मैं प्रधान तीर्थ श्री विमलाचल पर के श्री . जिनेश्वर भगवान को प्रणाम करने के लिये जारहा हूँ; तुम भी आओ।" वक्ष के इस प्रकार कहने पर मैंने कहा कि 'इस आश्रम P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग... और मन्दिर की देखभाल कौन करेगा ?' तब वह यक्ष बोलाकि तुम हंसराज तथा शुकराज दोनों में से किसी एक दौहित्र को लाकर यहां रक्खो। ऐसा करने से तीर्थ सुरक्षित रहेगा / फिर उस यक्ष के प्रभाव से मैं बहुत थोडे समय में ही यहां आगया हूं। इसलिये हे मृगध्वज ! मुझको तुम शीघ्र कोई भी एक पुत्र समर्पित करो। राजा ने कहाकि "मेरे दोनों पुत्र अभी छोटे हैं / इसलिये मैं उन दोनों को वन में जाने के लिये कैसे आदेश दू।" परन्तु पुनः ऋषि मुनि की प्रार्थना पर विचार कर राजा वन में जाने के विषय में अपने दोनों बालकों को पूछने लगा। गांगलिऋषि के साथ हंसराज की जाने की अभिलाषा-- __तब हंसराज पिताजी के चरणों पर प्रणाम करके विनय पूर्वक बोला कि "हे पिताजी ! गांगलिक ऋषि को श्री शत्रुजय तीर्थ पर श्री जिनेश्वर देव को प्रणाम करने के लिये जाने की इच्छा है इसलिये मैं आपकी आज्ञा से आश्रम की रक्षा करने लिये जाऊंगा" क्योंकिः "धन्य लोग जग वे बड़ भागी जननी जनक वचन अनुरागी वे नर धन्य सकल बुध कह ही, गुरुवर. वचन सदा अनुसरही" - "वे पुरुष धन्य हैं जो माता पिता के वचनों को सादर स्वीकार करते हैं / संसार में वे भी विशेष धन्यवाद के पात्र हैं जो * पूज्य गुरुवरों के हितकारी वचनों का सदा आदर करते हैं।"* * "ते धन्या ये पितुर्मातुर्वाक्यं च वृण्वते मुदा।। ... ते च धन्यतमा लोके गुरूणां च वचोहितम् ।।५४४||प्त. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : साहित्यप्रेमी मुनि निरजनविजय संयोजित हंसराज की बात सुनकर माता तथा पिता दोनों ने हर्ष पूर्वक कहाकि "हे पुत्र तुम धन्य हो ! क्योंकि तुम्हारा इस प्रकार का उत्तम वचन है / दीप से कुलदीपक पुत्र विलक्षण होते हैं। क्योंकि दीप वर्तमान वस्तु को ही प्रकाशित करता है, परन्तु कुलदीपक पुत्र अपने गुणों की उत्कृष्टता से बहुत पूर्व में हुए पूर्वजों को भी प्रकाशित करते हैं।" , राजा की यह बात सुनकर शुकराज ने कहा कि "हे तात ! मुझको आज्ञा दीजिये क्योंकि श्री विमलाचल तीर्थेश्वर को प्रणाम करने की इच्छा मुझे भी पहले से ही है / सच कहा कि 'आदि में सूक्ष्म, मध्यम में विशाल, पद पद पर विस्तार वाली तथा प्रवाह वाली नदियों के समान सज्जन पुरुषों की अभीलाषा कभी निष्फल नहीं होती। "जैसे गिरिवर से निकली नदी आगे बढत विशाल / होती है यों सुजन की इच्छा क्रमिक विशाल / " इसके बाद दोनों पुत्रों के विनय युक्त वचन सुनकर जब तक मन्त्रियों का मुख महाराजा देखते हैं, उस समय मंत्री कहने लगे कि "ऋषि मुनि याचना करने वाले हैं, आप देनेवाले हैं। जिन मन्दिर और आश्रम का रक्षण करना अपना कर्तव्य है / ऐसी स्थिति में यदि शुकराज रक्षण करने वाले होवें तो हम भी सहर्ष इसका पूर्ण अनुमोदन करते हैं।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग Arrown-- श कराज का ऋषि के साथ आश्रम में जाना मंत्रियों का वचन सुनकर शुकगज माता-पिता के चरणों में प्रणाम करके सिंह के समान गांगलि ऋषि के साथ चल दिया। फिर गांगलि मुनि महाराजा को शुभ आशीर्वाद देकर शुक के साथ पृथ्वी का लंघन करते हुए अल्प समय में ही अपने आश्रम में आ पहुँचे / शुकराज श्रीआदिनाथ प्रभु को प्रणाम तथा स्तुति कर के उस आश्रम में ही रहने लगा। तथा वहां स्वर्ग और मुक्ति की लक्ष्मी को देने वाले बहुत से क्रिया अनुष्ठान किये। इस प्रकार शुकराज तीर्थ और आश्रम का संरक्षण यत्न पूर्वक करने लगा। गांगलि मुनि भी विमलाचल पर श्रीजिनेश्वर भगवान को प्रणाम करने के लिये चल दिये। "तीर्थ के मार्ग की धूली से लोग निष्पाप हो जाते हैं / तीर्थों में भ्रमण करने से संसार के भ्रमण से मुक्त होते हैं। तीर्थ में धन का व्यय करने से संसार में लोग स्थिर सम्पति वाले होते हैं, एवं तीर्थेश्वर की पूजा करने वाले जगत्पूज्य होते हैं।" * श्री तीर्थपान्थरजसोविरजीभवन्ति, तीर्थेषु बंभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति / तीर्थ व्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः, तीर्थेश्वरार्चनकृतो जगदर्चनीयाः ॥५५६।।स.८ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित 8 -~ ~~~ ~~vimom रात्रि में स्त्री का रुदन शुकराज ने जब उस बन में प्रवेश किया तो बिना वृष्टि के दावानल शान्त होगया, फल पुष्प आदि की अत्यन्त वृद्धि हो गई, तथा बलवान प्राणी निर्बल प्राणियों को पीड़ित नही करते थे। एक रात्रि में किसी स्त्री का दुरसे रुदन सुनकर शुकराज वहां गया और उससे रुदन का कारण पूछा। तब वह स्त्री कहने लगी कि 'चम्पापुरी में अरिमर्दन नाम के राजा हैं / उसको श्रीमती नाम की पत्नी से पद्मावती नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई, उस पद्मावती की मैं धात्री माता हूं, मेरा नाम रमा है / तथा जैसे प्रेम से माता अपने सन्तान को स्तन पान आदि से पालन करती है, ठीक वैसे ही मैं भी प्रेम पूर्वक पुत्रीवत उसका पालन करती थीं। एक दिन पद्मावती को तथा मुझको कोई आकाश चारी अपने विमान में लेकर आकाश मार्ग से चलदिया / यहां पर मैं अकस्मात् विनान से गिर गई हूं। तथा वह आकाश चारी पद्मावती को लेकर कहीं चला गया है। इसलिये मैं रुदन कर रही हैं। क्योंकि प्राणियों को पिता, माता, मित्र, पुत्र, स्त्री, आदि का वियोग अत्यन्त दुष्कर होता है / इसमें कोई संदेह नहीं है। "मात पिता सुत बालिका-बनिता सुजन सुयोग / स्वजन हानि संताप से-होता सबको सोग / / " P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 विक्रम- चरित्र द्वितीय भाग पद्मावतीको ढूढने के लिये शुकराज का गमन तब शुकराज मधुर वचनों से उसको धीरज देकर तथा आश्रम में उसको रखकर पद्मावती को आस पास में ढूढने के लिये वहां से शीघ्र चल दिया / परन्तु आश्रम के पास वाले जिनप्रसाद के पीछे एक मनुष्य को रुदन करते हुए देखकर शुकराज ने उससे पूछा कि 'तुम कौन हो ? तथा कहां से यहां आये हो ?' ___तब उसने कहा कि, मैं आकाश चारी हूँ, और वायुवेग मेरा नाम है / पृथ्वी को देखने के लिय वैतादयगिरी पर आये हुए हैं 'गगन वल्लभ' नाम के नगर बरोबर है से भला था / तथा चम्पापुरी के राजो की कन्या को लेकर आकाश मार्ग से मैं आ रहा था जैसे ही मेरा विमान यहां मंदिर के शिखर पर पहुंचा और अकस्मात रुक गया / इस विमान से प्रथम तो एक स्त्री गिर गई, और बाद में वह राज कन्या भी गिर गई, पश्चात् मैं भी यहां गिर गयो हूं। इसका कारण कुछ भी मुझे तो ज्ञात नहीं हो रहा है कि ऐसा क्यों हुआ ?' ' वायुवेग को आश्रम में लाना _____ तब शुकराज कहने लगा कि "हे वायुवेग ! इसी तीय के * प्रभाव से तुम्हारा यह विमान रुका तथा तुम्हारा पतन हुआ है / " इसके बाद उस वायुवेग को लेकर शुकराज जिन प्रासाद में गया तथा भक्ति भाव पूर्वक श्री जिनेश्वर देव को दोनों ने , P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रिमें स्त्रीका रुदन : MAA TERRIES LammaALLER 40RH P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Ms. INI.. Lions HA ZEENUARHAR Avisuamund RALLUMIA REAL Credit W.JM ORAN / HEARTISRAECHAIAH DIRSASURPRESEARESIDALA AAN REETTIDOICIALISEERINRHATRUSSEHERRIRLIFE Math RAMEERRCH HI Jun Gun Aaradhak Trust OTE DETINARO ho H NEduROG ANDROID TOTKE 200OC NIA SAWAS ASED - RER cલસુખ. एक रात्रिमें किसी स्त्रीका दूरसे रुदन सुनका शुकराज बहा गया और उससे रुदनका कारण पूछा ।...पृष्ट 89 (मु. नि. वि. संयोजित....... विक्रम चरित्र दसरा भाग लिन 16) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित प्रणम किया। वहां पद्मावती को देखकर वायुवेग बोला कि मैं दुरात्मा होने के कारण ही इस कन्या का हरण किया था, / इस लिये कहा है कि. . "सर्प समान क र खल दल है, किन्तु सर्प से बढ़ कर खल है / मन्त्रौषधि वश सपं भी होता, खल संमुख सदुपाय भी रोता।" __ सर्प भी क्रूर होता है, और खल भी क्रूर होता है, उन दोनों में से खल व्यक्ति अति भयंकर क्र र है। सर्प.मंत्र तथा औषधि के वश में हो सकता है परन्तु खल व्यक्ति किसी भी उपाय से वश में नहीं होता है।' इसके बाद श्री जिनेश्वर की स्तुति तथा प्रणाम करके पद्मावती सहित वायुवेग को परोपकार कुशल शुकराज शीघ्र ही आश्रम में लाये तथा वह धात्री पद्मावती को देखकर जैसे चन्द्रमा को देख कर समुद्र प्रसन्न होता है उसी प्रकार प्रसन्न हुई / तथा शुकराज ने भोजनादि के द्वारा वायु वेग आदि तानों का सम्मान किया / क्योंकिः-- जल में शीतलता, दूसरों के भोजन में आदर मान, स्त्रियों मैं आज्ञा-पालन तथा मित्रों के सद वचन में ही उत्तम रस है। तथा प्रसन्न नेत्र, शुद्धपन, मधुर वाणी, और नत मस्तक आदि उत्तम गुणों वाले सज्जन पुरुष बिना वैभव के ही सन्मानित होते हैं। “सविनय सादर शत हंसी खुशी, निर्मल मन मीठी बाणी से / अतिथि जनों को वश में करते, सज्जन साञ्जलि पाणी से।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ तत्पश्चात् वायुवेग विद्याधर को शुकराज ने पूछा कि तुमको आकाशगमन विद्या याद है या भूल गये ? तब वायुवेग ने कहा कि आकाशगमन विद्या मुझको याद तो है, परन्तु वह अभी कुछ भी कार्य नहीं कर रही है / शकराज को आकाशगामिनी विद्या की सिद्धि शुकराज ने कहा कि 'हे विद्याधर ! वह विद्या मुझको सुनाओ इसके बाद विद्याधर से कही हुई आकाशगमन की विद्या को लेकर जिनालय में जाकर श्री जिनेश्वर भगवान के आगे तप पूर्वक विद्या का जाप करने लगा। इस प्रकार आकाशगमन विद्या सिद्ध करके शुकराज ने वह विद्या पुनः विद्याधर को सिखा दी। इस प्रकार दोनों परस्पर उपकार के द्वारा आकाश चारी हो गये / ठीक ही कहा है कि देना लेना, गुप्त कहना और पूछना, भोजन करना तथा कराना ये छ प्रकार का प्रीति का लक्षण कहा गया है। "लेना देना पूछना गुप्त बताना भेद / खाना पीना परसपर मैत्री के छ भेद / / '' गांगलि ऋषि का तीर्थ यात्रा से लौटना कुछ दिनों के बाद विमलाचल पर्वत पर श्री जिनेश्वरदेव को प्रणाम करके प्रसन्नता पूर्वक गागलि ऋषि आ गये, तथा शुकगज P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरज्जनविजय संयोजित 62 ने आकाशचारी विद्या सिखी है, यह जानकर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई, क्योंकि "सज्जन व्यक्ति दूसरे की लक्ष्मी को बढती हुई देखकर जैसे बढते हुए चद्रमा का देखकर समुद्र प्रसन्न होता है, ठीक वैसे ही प्रसन्न होते हैं।" __ इसके बाद गांगलि मुनि से प्रेम पूर्वक मिल कर शीघ्र ही वायुवेग तथा उन दोनों स्त्रियों के साथ उतम विमान पर आरूढ़ होकर शुकराज आकाश को उलंघन करता हुआ तथा अनेक नगर समुद्र पर्वत आदि को देखता हुआ चम्पापुरी में आ पहुँचा। विद्याधर के मुख से शुकराज का अपूर्व चरित्र सुनकर राजा 'अरिमर्दन' ने अत्यन्त आनन्दित होकर बहुत उत्तम उत्सव पूर्वक घोडे, हाथी, सुवर्ण आदि देकर शुकरराज का पद्मावती के साथ विवाह कर दिया / "श्री वीतराग भगवान के द्वारा बताया गया अहिंसा रूपी धर्म जिनके मन में स्थापित है उसके वश में सुर असुर, राजा, यक्ष, राक्षस, भूत आदि सब हो जाते हैं।" इसके बाद शुकराज पदमावती को वहीं मायरे में छोड़कर वायुवेग विद्याधर के साथ राजा से आज्ञा लेकर शाश्वत' चैत्यों का वन्दन करने के लिये वहां से चल दिया / तथा शाश्वत चैत्यों का वन्दन करता हुआ और अपने मित्र के साथ ग्राम, नगर, पर्वत आदि को देखता हुआ 'गगनवल्लभपुर' नगर में जा पहुंचा। वहां वायुवेग अपने माता पिता के आगे हर्ष पूर्वक बोला कि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 ... विक्रम-चरित्र द्वतिय भाग "इस महापुरुष शुकराज ने मेरा बहुत बड़ा उपकार किया है।" इससे प्रसन्न होकर वायुवेग के . पिताने सुन्दर उत्सव पूर्वक अपनी वायुवेगा नाम की सुन्दर कन्या का भी विवाह शुकराज के साथ कर दिया। अष्टापद तीर्थ की यात्रा के लिये शुकराज का गमन * अपनी स्त्री वायुवेगा को मायरा में ही छोड़कर शुकरराज वायुवेग के साथ अष्टापद का माहात्म्य सुनकर जिनेश्वर देवों की वन्दना करने के लिये चल दिया पीछे शुकराज 2 इस प्रकार नाम ग्रहणपूर्वक बार बार पुकारती हुई किसी स्त्री को सुना / शुकराज ने पीछे घूमकर देखो तो "दिव्य आभूषणों से युक्त एक स्त्री उसकी ओर आरही है।" निकट आने पर राजकुमार ने पूछा कि तुम कौन हो ? कहां से यहां आई हो? इस प्रकार शुकराज के प्रश्न पूछने पर वह कहने लगीकि मैं 'जिनेश्वरदेवकी सेवा करने वाली चक्रेश्वरी नाम की देवी हूं, मैं सदा धर्मी जीवों के अनेक विघ्नों को नाश करने वाली हू', मैं गोमुख यक्ष के आदेश से इस समय श्रीपुण्डरीकगिरी की रक्षा करने के लिये चाली थी, चलते 2 मध्य मार्ग में जब मैं क्षितिप्रतिष्ठित नगर के ऊपर आई तब रोजमहल समीप के उद्यान में करूण स्वर से किसी स्त्री का रूदन सुनकर, वहां पर गई और उस स्त्री से. रूदन का कारण पूछा, तब उस स्त्री ने उत्तर दिया कि "शुकरराज नामका मेरा पुत्र P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S . YOG N P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. (AIC STATWANA CON SARANATEGORE Upr CAVTA 41 1I/ANI Jun Gun Aaradhak Trust ABHIBITESH Hindi mal EDIT पीछे शुकराज, शुकराज इस प्रकार नाम ग्रहण पूर्वक वार बार पुकारती हुई किसी स्त्रीको सुना। शुकराजाने पीछे घूमकर देखा तो दिव्य आभूषणोंसे युक्त एक देवी उसकी ओर आ रही है।...पृष्ट 94 (मु. नि. वि. संयोजित...... विक्रम चरित्र दुसरा भाग चित्र नं. 17) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित .65 गांगलिऋषि के साथ गया परन्तु अभी तक उसका कोई समाचार मुझे नहीं मिला है, इसलिये ही मैं रूदन कर रही हूं।" देवी ने उत्तर दिया कि 'तुम्हारे पुत्र के कुशल समाचार जानकर तुमको शीघ्र कहूंगी।' इस प्रकार तुम्हारी मोता को आश्वासन देकर, तत्काल अवधिज्ञान से तुमको यहां जानकर आई हूँ। इस लिये तुम पीछे लौटकर, अपने नगर में जाकर, अपनी माताजी के चरणों में प्रणाम कर, अपने निर्मल चरित्रों से उसको प्रसन्न कर दो। "माता चरण प्रणाम ही, सब तीर्थों का ध्यान। बिना कष्ट तप जानिये, जल बिन स्नान समान // " क्योंकि माता के चरणों का सेवन करना बिना यात्रा के ही तीर्थ है, बिना देह कष्ट का तप है तथा बिना जल का स्नान है ! नीतिकार ने कहा है - "जिसने नौ मास तक गर्भ का वहन किया, प्रसव समय में अत्यन्त उत्कट कष्ट को सहन किया, पथ्य आहारों से स्नान आदि क्रियाओं से दूध पिलाना एवं रक्षा के अनेक उपायों से तथा विष्ठा मूत्र आदि मलिन पदार्थों से कष्ट प्राप्त कर के भी जिसने पुत्र को अनेक प्रकार से रक्षण किया, ऐसी एक माता ही स्तुति के योग्य है।" * ऊढो गर्भ, प्रसवसमये साढमत्युग्रशूलं, पथ्याहारैः स्नपनविधिभिः स्तन्यपानप्रयत्नैः / विष्ठा मूत्रप्रभ्रतिमलिनैः कष्टमासाद्य सद्य / स्त्रातः पुत्रः कथमपि यया स्तूयतां सैव माता // 606 / / स.८ P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग रक्रेश्वरी देवी के द्वारा माता को समाचार पहुंचाना__ यह बात सुनकर शुकराज की आंखों में आंसू भर आये और दुखित होकर शुकराज ने कहा कि "समीप में प्राप्त तीर्थ को प्रणाम किये बिना ही, मैं किस प्रकार पीछे लौट जाऊं ? क्योंकि विवेकी को चाहिये कि धर्म का अवसर प्राप्त होने पर उसमें विलम्ब न करे। जैसे बाहुबलि को एक रात बीत जाने पर तक्षशिला के उद्यान में आये हुए श्री ऋषभदेव प्रभु के दर्शन न हो सके / इसलिये हे देवी ! तुम मेरी माता को कहना कि तेरा पुत्र देवों की बन्दना करके शीघ्र ही आ जायेगा।" इस प्रकार चक्रेश्वरी देवी से कह कर शुकराज मित्र के साथ श्री अष्टापद तीर्थ में श्री जिनेश्वरदेवों को प्रणाम करने के लिये हर्ष पूर्वक पुनः वहाँ से चल दिया। - उधर चक्रेश्वरी देवी के द्वारा अपने प्यारे पुत्र की कुशलता का सन्देश सुनकर कमलमाला भी स्वस्थ हुई. शुकराज श्री जिनेश्वर देवों की वन्दना करके लौट आया। बाद में वायुवेगा तथा पद्मावती दोनों स्त्रियों के साथ विमान पर आरूढ़ होकर क्षितिप्रतिष्ठ नगर के उद्यान में आया। अपने प्यारे पुत्र का आगमन सुन कर उस के माता तथा पिता ने हर्षित हो नगर में . तोरण आदि बन्धवाये। शुकराज का अपने नगर में प्रवेश अत्यन्त प्रसन्नता से उत्सव पूर्वक शुभ मुहूत में शुकराज को P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरञ्जनषिजय संयोजित नगर प्रवेश करवाया शुकराज ने आते ही विनय पूर्वक अपने माता पिता के चरण कमलों में प्रणाम किया / क्यों किः__ "जिससे धर्म वृद्धि को प्राप्त हो तथा बन्धु वर्ग यश एवं कुल, वृद्धि को प्राप्त हो. वही वास्तव में पिता का पुत्र है / दूसरे स्वछंदी (उछ खल ) तो शत्रु ही है / राजा मृगध्वज ने जिन मंदिर में स्नात्र पूजा आदि करके तथा अनेक प्रकार के दाने प्रदान के द्वारा पुत्र के आगमन की खुशी में उत्सव किया / क्यों कि 'देवपूजा, गुरू को उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, शास्त्राध्ययन और परोपकार ये आठ मनुष्य जन्म के फल हैं।' इसके बाद एक दिन राजा अपने पुत्र शुकराज और हंसराज के साथ उद्यान में आकर परिवार के साथ आनन्द विनोद कर रहे थे। इसी बीच में अकस्मात दूर में मनुष्यों का कोलाहल सुनकर उसके समाचार जानने के लिये राजा ने अपने एक सेवक को शीघ्र ही वहां भेजा। वह सेवक वहां औरगया अ वहां के समाचार जान कर राजा से आकर बराबर सुना दिये कि "सारंगपुर में वीरांगद नाम का ऐक राजा है / उसका पुत्र सूर आपके पुत्र हंस के साथ वैर भाव , धारण करता हुआ बहुत सेना के साथ उनसे युद्ध करने के लिये यहां आ रहा है।" * यै वद्धि नीयते धर्मो वन्धुवगः कुलं यशः / पितुः पुत्रारत एव स्युर्वैरिणः स्वैरिणः परे // 617. स.८ Jun Gun Aaradhak Trust": P.P.AC.Gunratnasturi M.S. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग 68 तब राजा ने कहा कि राज्य तो मैं करता हूं फिर मेरे पुत्र के साथ वह वैर क्यों करता है ?' इतने में राजा के दोनों पुत्र भी उद्यान में से निकट आपहुचे। राजा दोनों पुत्रों से युद्ध के बारे में परस्पर विचार कर रहे थे / इतने में शत्रु की सेना में से एक सेवक आकर उनसे कहने लगा कि 'तुम्हारे पुत्र हंसराज से पूर्व जन्म में पराजित राजा सूर वैर भाव का स्मरण करता हुआ "द्वष नष्ट हो जाता जिसके, दर्शन से आनन्द लहे। पूर्व जन्म का मित्र बन्धु, वह है ऐसा बुध वर्ग कहे // '. महाराजा मृगध्वज पुत्र स्नेह के कारण और शुकराज भ्रातृ स्नेह के कारण सूर राजकुमार के साथ युद्ध करने को तैयार हुए तब हंसराज ने कहा कि 'इस राजकुमार सूर को मेरे साथ बैर है इसलिए मुझे ही युद्ध करने दी जिये।' हंस और सूर का परस्पर युद्ध ___ यह कह कर यमराज के तुल्य हंस राजकुमार रथ पर आरूढ़ होकर राजा सूर के साथ बाहु युद्ध करने लगा। इसके बाद हंसराज ने मृगध्वज आदि राजाओं के देखते देखते ही सूर के सब शस्त्रों को काट डाले / तब अत्यन्त ऋद्ध होकर सूर जब तब हंस को मारने के लिये उद्यत हुआ, तब तक हस ने सूर को पृथ्वी पर धर पटका / पुनः हंस ने गिरे हुए बेहोश सूर को बान्धव के समान शीघ्र ही सीतवायु आदि उपचारों के द्वारा सूर को स्वस्थ किया / Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMA P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust ab गिरे हुए बेहोश सूरकुमारको बान्धवके समान शीधहीं सीत-वायु आदि उपचारों के द्वारा सूरकुमारको हंसकुमारने स्वस्थ किया, यह देख मूसुमार मनही मन लज्जित हुआ।...पृष्ट 98 (मु. नि. वि. मयोजित...... विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 18) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संबोमित 16 जब इस प्रकार हंस ने सूर को स्वस्थ किया तब मूर कहने लगा कि "हंस ने मुझको बाह्य तथा अन्तर दोनों ही प्रकार का चैतन्य दिया है। क्योंकि मैं अभी रौद्र ध्यान से भर कर नरक में चला जाता / परन्तु दयालु गुरु समान हंस ने मेरी रक्षा को है / हंस ने मुझको इस समय ज्ञान दृष्टि दी है / इसलिये मुझको कल्याण और सुख देने वाला विवेक प्राप्त हुआ है / एक कविने उचित ही कहा है "पर उपकारी नाश काल में, भी न मलिन मुख करता है / देखो चन्दन कुल्हाड़ी को, दे सुगन्ध मुख भरता है।" - "सज्जन व्यक्ति सदा परोपकार के लिये अपनाविनाश काल प्राप्त होने पर भी विकार को प्राप्त नहीं करते, जैसे चन्दन वृक्ष अपने खुद को काटने तथा नष्ट करने वाले कुठार के मुख को भी सुगन्धित करता है" * सज्जनों की यह रीति हमेशा चली आ रही है। इसके बाद सूर ने उठ कर उत्तम पुरुषों के समान परस्पर वै र भाव को त्याग कर, प्रेम पूर्वक हंस को क्षमा प्रदान की। पाठक गण ! इस प्रकरण में राजकुमार सूर को मुनि के द्वारा गत भव सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त हुआ और पूर्व भव सम्बन्धी वैरभाव को स्मरण करके हंस राजकुमार के साथ युद्ध किया / सूर मैदान में पराजित होकर भूमि पर गिरा और बेहोश हो गया। उस समय हंस राजकुमार ने अपने शत्रु सूर को जलादि द्वारा सिंचन कर सचेत किया। प्राचीन कालीन मानवता में अपने शत्रु पर भी प्रेमभाव दर्शाना यह सुन्दर शिक्षा इस प्रकरण से मिलती है। * सुजनो न याति विकृति परहितनिरतो विनाशकालेऽपि छेदेऽपि चन्दनतरुः सुरभयति मुखं कुठारस्य. ॥६३८।स. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग सैंतीसवां प्रकरण "काम पूर्ति हो धर्म से-धर्म सकल सुख हेत, रे मन ! मानो धर्म-परमारथ फल देत // " "काजल तजे न श्यामता मोती तजे न श्वेत, दुर्जन तजे न कुटिलता-सज्जन तजे न हेत // " गत प्रकरण के अन्दर सूर तथा हंस का युद्ध प्रसंग आया है / युद्ध भूमि में बेहोश होकर गिरे हुए शत्रु सूर पर भी हस. कुमार ने परम कृपा दिखाकर अपनी सज्जनता और कुलीनता का परिचय दिया। बाद में दोनों को परस्पर वैरभाव निवृत्त हुअा। अब आगे का हाल इस प्रकरण में लिखा जाता है। . यह अद्भुत कौतुक देखकर मृगध्वज ने सूर से पूछा कि आपने मेरे पुत्र से युद्ध क्यों किया ? श्रीदत्त केवली के द्वारा सूर के पूर्व जन्म का कथन .. तब सूर कहने लगा कि “एक समय सारंगपुर के उद्यान में श्रीदत्त नाम के केवली भगवंत पृथ्वी को अपने चरण कमल से पवित्र करते हुए आ पहुंचे / उस समय मैं अपने पिता के साथ मुनि को प्रणाम करने के लिए उद्यान में गया / उन ज्ञानी भगवंत ने मोक्ष सुख को देने वाली धर्म देशना लोगों को दी / 'धर्म धनार्थी' को धन देनेवाला, कामार्थी को काम देनेवाला, सौभाग्यार्थी को सौभाग्य देनेवाला, पुत्रार्थी को पुत्र देनेवाला, राज्यार्थी को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित 101 राज्य देने वाला, अर्थात् विशेष कर के क्या कहा जाया ? मनुष्य को संसार में कौन सा ऐसा पदार्थ है जो धर्म नहीं दे सकता ? यह धर्म स्वर्ग और मोक्ष को भी देने वाला है।" देशना के अन्त में मुनि भगवंत से पूछा कि मैंने पूर्वजन्म में क्या पुण्य किया था ?" "केवली भगवंत कहने लगे कि तुमने पूर्वजन्म में जिनार्चन (जिन-पूजा) किया था। मैंने पुनः पूछा कि "कौन से भव में जिन पूजा की थी ? ज्ञानी मुनि ने कहा कि "भदिद्लपुरी में एक जितारी नाम के राजा थे। उन्होंने अपनी स्त्री हसी और सारसी के साथ शंखपुरी के संघ से युक्त होकर विमलाचल महा-तीर्थ की यात्रा के लिये गये, लौटकर आते हुए जितारी राजा मार्ग में ही मृत्यु को प्राप्त कर गये / इसके बाद जितारी राजा का मन्त्री सिंह सब लोगों के साथ भदिदलपुरी को चल दिया। जब सिंह प्राधे मार्ग में आया तब चरक नाम के सेवक को कहा कि 'मैं विश्राम-स्थान पर रत्नकुण्डल भूल गया हू" इसलिये तुम शीघ्र जाओ और वे रत्नकुडल ले आओ।" इस प्रकार मन्त्री की आज्ञा हो जाने पर सेवक वहां से रत्नकुडल लाने के लिये चल दिया, क्योंकि सेवा से धन चाइने वाले, मूर्ख सेवक लोग अपने शरीर स्वतन्त्रता की तकको खो देते हैं / इसके बाद वहां जाकर उप्तको रत्नकुडल नहीं मिला तो पुनः लौटकर चरक सेवकने मन्त्रीजी से कहाकि- "हे मन्त्रिश्वर ! - मुझको वहां पर बहुत खोज करने पर भी वह रत्नकुडल नहीं P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग मिला है / प्रायः उसी समय में कोई भिल्ल वह रत्नकुडल उठा ले गया होगा।" सिंहमन्त्री द्वारा चरक सेवक को पीटा जाना ___ तुमने ही वह रत्नकुडल ले लिया होगा, ऐसा कहते हुए चरक को उस मन्त्री ने खुब पीटा। "सुख या दुःख किसी को कोई न देता है यह नियमित है, निज कर्म सूत्र में गुथा हुआ-फल को पाना नय निश्चित है।" - "क्योंकि सुख तथा दुःख का कोई देने वाला नहीं होता है। दूसरे मुझको सुख या दुःख देते हैं यह तो मन्द बुद्धि वाले ही सोचते हैं / “यह मैं करता हूं" इस प्रकार का व्यर्थ ही मनुष्यों में अभिमान है सब लोग अपने कर्म-सूत्र से ग्रथित हैं / " / ___ इसके बाद उस चरक को वहीं मूर्छित अवस्था में ही छोड़कर और लोगों के साथ पृथ्वी का अतिक्रमण करता हुआ सिंह मन्त्री भद्दिलापुरी में जा पहुंचा। इधर शीतल वायु आदि से अपने आप स्वस्थ शरीर होकर चरक अपने मन में विचारने लगा कि 'धन-सत्ता से वित मन्त्री का बार बार धिक्कार है / इस प्रकार रौद्र ध्यान करते हुए चरक प्यास से दुःखी होकर मृत्यु को प्राप्त हो गया / पुनः वही चरक भदिदुलापुरी के समीप वन में भयकर सपं हो गया, क्योंकि शास्त्र में फरमाया है 'आर्तध्यान में मरने से प्राणी पशुयोनिको प्राप्त escation P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust D Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 103 करता है, रौद्र ध्यान में मृत्यु होने पर नरक में जाता है, धर्म ध्यान में मृत्यु होने पर देवगति को प्राप्त होता है, उसे शुभ फल मिलता है / शुम्ल ध्यान में मृत्यु होने पर उसे मुक्ति प्राप्त होती है। इसलिये व्याधि का अंत करने वाले हितकर संसार से निस्तार करने वाले औषध की तरह श्रेष्ट शुक्ल ध्यान में ही मत्यु के लिये बुद्धिमानों को भावना करनी चाहिए / " इसके बाद वह सर्प आकर के क्रोध से उस मत्री को डस गया। मत्री उसके जहर से मरकर भयानक नरक को प्राप्त हो गया / रौद्र ध्यान परायण वह सर्प भी मरकर दुष्कर्म के योग से उसी भयंकर नरक को गया / नरक में गये दोनों जीव परस्पर सदा कलह करते हुए अत्यंत दुःख से दुःखी होकर समय को बिताने लगे। जिन पूजा के प्रभाव से चरक का सूर रूप में जन्म ___ चरक का जीव नरक से निकल कर लक्ष्मीपुर नाम के नगर में अत्यन्त मनोहर रूप वाला भीम नाम का धन श्रेष्ठी का पुत्र हुआ। उस जन्म में पवित्र श्रेष्ठ पुष्पों से भाव सहित श्री जिनेश्वरदेव की पूजा करने के कारण तुम सूर नामक वीरांगद राजा के पुत्र हुए हो। क्योंकि 'जो कुछ भाग्य में लिखा है उसका परिणाम लोगों को प्राप्त होता ही है / यह जानकर बुद्धिमान् लोग विपत्ति में भी कायर नहीं होते। उधरसिंह मंत्री भी नरक में अनेक महान् कष्टों को भोगकर P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग श्री विमलाचल पर बावडी में हंस हुओ। उस हंस को तीर्थ का दर्शन होने से पूर्व भव का जाति स्मरण ज्ञानप्राप्त हुआ। इसी कारण वह अपने पांखों से जल लाकर श्री जिनेश्वर देव को स्नान कराता था तथा बन में से अपनी चोंच में सुन्दर 2 पुष्पों को लाकर श्री युगादीश जिनेश्वर का भाव पूर्वक पूजन करता था। इस प्रकार निरन्तर जिनेश्वर देव की पूजन करने के कारण वह हंस मर कर देव हुआ, वही देव इस समय हंस नामका आप का पुत्र है / मुनि से यह बात सुनकर मैं अपने शत्रु हंस को मारकर अपने वैर का बदला लुगा / इस प्रकार भाव को प्रगट करता हुआ क्रोध पूर्वक जब मैं वहां से चला तब श्रीदत्तमुनि ने मेरे क्रोध को शान्त करने के लिये अनेक प्रकार के वचन कहे, परन्तु मैं उनके उपदेश की अवज्ञा करके इस समय हंस के साथ युद्ध करने के लिये यहां आया हू। बलशाली आपके पुत्र हंस से युद्ध करता हुआ तत्काल हार गया है। इसलिये अब मैं वैर भाव को त्याग करके श्रीदत्त मुनि के समाप संसार रूपी समुद्र से शीघ्र तारण करने वाले दीक्षा व्रत की प्रहण करूगा / इसके बाद अत्यंत स्नेह से हंस को नमस्कार . करके सूर तत्काल व्रतग्रहण करने के लिये श्रीदत्त मुनि के समीप गया, शास्त्रों में कहा है 'विषय समूह कायर पुरुष को ही अपने अधीन में करता है, सत्पुरुष को नहीं / कारण कि जैसे मकड़ी का तन्तु मच्छर को ही बांधता है परन्तु गजेन्द्रको नहीं बांध सकता।' बहुत बड़े भाग्य से प्राणी में धर्म क्रिया करने की अभिलाषा उत्पन्न होती है किन्तु वह अभिलाषा फलवती होवे अर्थात धर्म किया जावे यह तो स्वर्ण में सुगन्धि जैसा सुमेल है। .. Jun Sun Aaradhak Trust P.P.AC.Gurnratnasuri M.S. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H ushth P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. न An arka Jun Gun Aaradhak Trust सिंहमंत्रीका जीव क्रमशः श्री विमला चल तीर्थ पर वावडीमें हंस हुआ, वह उस चरक सेवकके जीव-सर्प ने / हंस अपनी चोंचमें सुंदर सुंदर पुष्प आकर क्रोधसे उस- सिंहमंत्री को उस 1 लाकर श्री आदिनाथजीकी पूजाकरता था पृष्ट 103 पृष्ट 104 (मु. नि. वि. संयोजित. विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 19-20) लिया। . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाशवाणी सुनकर कौतुफसे राजा उस. वालक को साथ लेकर उस कदली वनमें गया. HAR NYMRATURE porrna P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. 20 abar/ owan 90 SILIM Jun Gun Aaradhak Trust . 'हे राजन् ! मैं वही यशोमती हूँ और मैंने धर्मध्यान के प्रभावसे अवधिज्ञान को प्राप्त कर लिया है। पृष्ट 111 (मु. नि. वि. संयोजित...... विक्रम चरित्र दुसरा भाग चित्र नं. 21) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित 105 म गध्वज राजाको श्रीदतकेवली के वचनों का स्मरण होआना __ ये सब समाचार सुनकर मृगध्वज अपने मन में विचारने लगा कि 'पृथ्वी में जो मनुष्य व्रत ग्रहण करते हैं वे धन्य हैं।' "पिण्डों के लोभ लगाकर के तब तक संसार में पितर रहे। जब तक न पवित्रात्मा सुत कोई कुल में यति के धर्म गहे // " पुराणों में भी कहा है कि 'पिण्ड की अधिलाषा से पितर लोग तब तक संसार में भ्रमण करते है, जब तक कुल में पुत्र विशुद्ध अन्तःकरणवाला संयासी नहीं होता / पूर्व समय में ज्ञानी ने कहा था कि "जब तुम चन्द्रवती के पुत्र को देखोगे तब तुम्हारे हृदय में शुद्ध वैराग्य उत्पन्न होगा। परन्तु आज तक चन्द्रावती के पुत्र को मैंने नहीं देखा, अब मैं वृद्ध हो गया हूं। 'क्या ज्ञानीमुभि का वचन मिथ्या होगा ?' इस प्रकार मृगध्वज राजा उस बन में जब विचार कर ही रहा था तब ही एक बालक ने आकर राजा को प्रणाम किया। तुम कौन हो? कहां से आये हो ? ये सब बातें राजा जब तक उससे पूछता है इसीबिच में श्राकाश. वाणी हुई कि “यह चन्द्रावती का पुत्र है, बदि तुम्हारे चित्त में सन्देह होता है तो, हे राजन ! यहाँ से ईशान कोण में पांच कोस तक जाओ / वहाँ दोनों पर्वतों के मध्य में केले के वृक्षों से पूर्ण एक वन है। उसमें यशोमति नामकी एक योगिनी नित्य अत्यन्त उग्रतप करती है वहां जाकर तुम उस यशोमति * "तावद्भ्रमंति संसारे पितरः पिण्डकांक्षिणः / यावत्कुले विशुद्धात्मा यतिः पुत्रों न जायते ॥इति पुगणे।।६८८. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग योगिनी से पूछना / उससे तुमको चन्द्रावती के पुत्र की उत्पति का सब वृतान्त ज्ञात हो जायगा।" . _ यह आकाश वाणी सुनकर अत्यन्त कौतुक से राजा उस बालक के साथ शीव्र ही उस कदलीवन में पहुँचा / वहां ध्यान में लीन योगिनी को देखकर राजा ने पूछा कि क्या यह चन्द्रवती का पुत्र है ?' . योगिनी द्वारा चन्द्रवती के पुत्र का परिचय ___ यह सुनकर योगिनी ने कहा कि 'हे राजन् सत्य ही यह चन्द्रवती का पुत्र है, क्योंकि यह असार संसार रूपी जहर से भी अधिक विषम है / इसलिये कहा है कि:_ 'मैं कौन हूँ ? तुम कौन हो ? कहां से आये हो कौन मेरी माता . है ? कौन मेरा पिता है ? ये सब यदि गहराई पूर्वक देखा जाय तो स्वप्न के व्यवहार के जैसा ही यह सब संसार है।"रात, दिन, मास वर्ष बराबर होते हैं / लोग वृद्ध तथा बालक पुनः पुनः होते हैं / काल भी इसी प्रकार आता जाता रहता है। वह योगिनी पुनः कहने लगी कि "चण्डपुरी में एक सोम नाम का राजा था / जो इन्द्र के समान सतत न्याय मार्ग से प्रजा का पालन करता था उस राजा को जैसे रामचन्द्रजी के सीताजी थी उसी प्रकार अन्तपुर में सबसे श्रेष्ठ 'भानुमती' नामकी पति कोऽह कस्त्वं कुत आयात: को मे जननी को मे तातः / यद्यवं दृष्टः संसारः सोऽयं स्वप्नव्यवहारः।।६६हास 8 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित 107 व्रता स्त्रो थी। हिमवान क्षेत्र से एक युगल (स्त्री पुरुष) पूर्व भव में स्वर्ग को गया / पश्चात स्वप्न में सूचना देकर भानुमती के गर्भ में प्रवेश किया / क्योंकि ( युगलिक जीव पुनः निश्चय पूर्वक देवगति में जाते हैं तथा अपनी अवधि के समाप्त होने पर ऐश्वर्यवानों के घर में आते हैं ) इसके बाद अपने गर्भ की अभिलाषा को पूर्ण करती हुई, समय पूर्ण होने पर भानुमती ने पुत्र तथो पुत्री रूप में अत्यन्त मनोहर दो सन्तानों को जन्म दिया। तब राजा ने उत्तम उत्सव करके पुत्र का नाम चन्द्रशेखर तथा पुत्री का नाम चन्द्रवती रखा / वे दोनों क्रमशः बढ़ते हुए परस्पर जाति स्मरण ज्ञान हो जाने के कारण प्रेम से युगलिक की तरह परस्पर लग्न करने इच्छा करने लगे, इसी बीच में सोमराजा ने तुम्हारी चन्द्रावती के साथ शादी की तथा चन्द्रशेखर का यशोमति के साथ विवाह कराया। चन्द्र शखर को कामदेव का वरदान जब तुमको 'शुक' पोपट माया-छल करके गांगलि ऋषि के आश्रम में ले गया तब तेरी पत्नी चन्द्रवती अपने पूर्व मनोरथ को सिद्ध करने के लिये तथा तेरे राज्य को हड़प कराने के लिये चन्द्रशेखर को बुला कर ले आई थीं। बाद में उसी समय तुम वहां से लौट आये तब उसने अनेक प्रपच करके तुम्हारे से ठगाई की। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 - विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग wwwwwwwwwwww - बाद में चन्द्रशेखर ने भक्ति पूर्वक कामदेव की आराधना की। तथा प्रेम के कारण चन्द्रवती के लिये याचना की। कामदेव ने प्रसन्न होकर उसको अदृश्य होने वाला काजल दिया और कहा कि 'जब तक मृगध्वज महा० चंद्रवती के पुत्र को नहीं देखेगा तब तक तुम इस अजन से अदृश्य रहोगे। जब राजा मृगध्वज चंद्रवती के पत्र को देखेगा तब मैं चंद्रवती के पुत्र का वृत्तान्त कह कर अपने स्थान को चल दूंगा," तब वह चंद्रशेखर प्रसन्न होकर नेत्रों में वह अब्जन लगा करके अदृश्य शरीर होकर चंद्रवती के समीप चला आया, और चंद्रवती को देव से दिये हुए वर का समाचार कहा, और कहा कि अब क्या करना चाहिये / .. तब चंद्रवती ने कहा कि मैं गर्भ को गुप्त रूप से रख रही हूँ। यदि प्रातःकाल पुत्र का जन्म हो जायगा तब क्या होगा ?'' चंद्रशेखर ने उत्तर दिया कि 'उत्पन्न होते ही तुम्हारे पुत्र को मैं गुप्त रीति से लेकर मेरी स्त्री यशोमती को दे दूंगा, फिर हम दोनों सुख पूर्वक काम सुख में लीन होकर इसी अंतपुर में रहेंगे, कोई मुझको देखेगा भी नहीं।" ये सब विचार करके तथा यक्ष के प्रभाव से चन्द्रवती के पुत्र को लेकर यशोमती को दे दिया, तथा कहा कि "मृगध्वज की स्त्र चन्द्रबती का चन्द्रांक नाम का यह श्रेष्ठ पुत्र है / इसको धर्म के लिये पुत्रवत् पालन करना।" इस प्रकार कह कर पुनः P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निजनविजय संयोजित 106 अपनी इष्ट सिद्धि के लिये चन्द्रशेखर अदृश्य विद्या से चन्द्रबती के समीप गुप्त रूप से रहने लगा। द्रांक से यशोमती की काम अभिलाषा इघर प्रतिदिन अत्यन्त क्रान्तिमान् बालक को बढ़ते हुए देखकर यशोमती इस प्रकार विचारने लगी कि 'मैं कभी भी अपने पति का मुख नहीं देख सकती है। इसलिये पालन किये हुए इस शिशु रूपी वृक्ष का ही फल ग्रहण करू / ' ये सब बातें अपने मन में विचार कर यशोमती चन्द्रांक से कहने लगी कि 'यदि तुम मेरी ओर देखो तो मैं राज्य के साथ तुम्हारी आज्ञाकारी हो जाऊगी।' कामदेव के लिये कहा है कि:- "जिसकी आज्ञा, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तथा स्वर्ग के अधिपति इन्द्र भी शिरोधार्य करते हैं / वह उत्तम वीर समस्त संसार को जीवने बाला तथा विषम-बाण माला कामदेव किस धैर्यवान् व्यक्ति को भी चंचल नहीं करता ?" - यशोमती की इस प्रकार की अनुचित बातें सुनकर वज्र से आहत हुए के समान दुःखी होकर शीघ्र ही चन्द्रांक कहने लगा कि हे माता! तुम इस प्रकार की अनुचित बातें क्यों बोल रही हो। वास्तव में स्त्रियाँ स्वयं रक्त नहीं होने पर भी वित्त को रक्त (रागयुक्त) कर देवी है / स्निग्ध नहीं होने पर भी चित्त को स्निग्ध कर देती . Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग है / तथा अमूढ (चतुर) होकर चित्त को मूढ़ बना देती हैं। तब यशोमती कहने लगी कि 'हे बालक ! मैं तुम्हारी माता नहीं हूं / तुम्हारी माता मृगध्वज की स्त्री चन्द्रवती है। मेरे तुम्हारे बीच में माता पुत्र का संबंध नहीं है / इसलिये तुम अपने द्वारा मुझको तृप्त करो।' __उसकी बात सुनकर चन्द्रांक अपने मन में विचारने लगा कि अहो ! ब्रह्मा ने इस प्रकार की दुष्ट आशय बाली नारियों को क्यों बनाया है / क्यो किः रानी यशोमति का योगिनी होना... "अच्छे कुल में भी उत्पन्न हुई कामिनी स्त्रियां कुल में कलंक लगाने वाली होती हैं / जैसे सोने की बनाई सांकल भी बन्धन को देने वाली होती है / इसमें कोई संदेह नहीं है।' "कुलजा हो या सुन्दरी, कुल कलंक की मुल / बेड़ी सोना की बनी, नारि स्वर्ग प्रति कूल // " राजा कीपत्नी, गुरू की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी माता और अपनी पत्नी की माता, ये पांचों माता ही के समान मानी गई हैं। यह स्त्रियों का चरित्र विचार कर तथा उसकी वाणी का अनादर * कामं कुलकल काय कुल जातपि कामिनी / शृखला स्वर्ण जाता हि बन्धनाय न संशयः ।।७३८।।सद _ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरंजनविजय संयोजित विचार कर तथा उसकी वाणी का अनादर करके चन्द्रांक वहां से अपने मातापिता के चरणों के दर्शन के लिये चल दिया / इस प्रकार यशोमती दोनों ओर से भ्रष्ट होकर हृदयमें विषाद करती हुई संसार के सम्बन्ध का त्याग करके योगिनी होगई / हे राजन् ! मैं वही यशोमती हूँ और मैंने धर्म ध्यान के प्रभाव से अवधिज्ञान को प्राप्त कर लिया है। तुम्हारी स्त्री को सब . समाचार मैं जानती हूं / हे मृगध्वज ! यक्षने आकाशवाणी द्वारा तुमको अपनी स्त्री का समाचार जानने के लिये मेरे पास भेजा है। इन सब बातों से राजाको अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ / पर योगिनी उसे-शिष्ट एवं मधुरवाणी से कहने लगी कि: "पुत्र मित्ता हुई अनेरा, नरह नारि अनेरी, मोहई मोहियो मूढ, जपई मुहिआ मोरी मोरी। अतिह गहना अतिह अपारा संसारसायर खारा। बूज्झउ बूज्झउ गोरख बोलइ सारा धम्म विचारा // 745 / / 8 / / कवण केरा तुरंग' हाथी कवण केरी मारी / नर किं जातां कोई न राखए हीअडइ जोइ विचाग / / 746 / / 8 / / क्रोध परिहरि मान मन * करि माया लोभ निवारे / अवर वइरि मनि म आणे केवल आपु तारे / / 747 // 8 // " 'मनुष्य को पुत्र तथा मित्र अनेक हुआ करते हैं / स्त्रियां भी अनेक होती हैं। ये सब मनुष्य को मोहित कर देते हैं। मोहित हो करके मूर्ख लोग ये सब 'मेरा मेरा' बोलते रहते हैं / परन्तु Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri: M.S. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग , धर्म के सार को विचार करके यह समझना चाहिये कि यह अत्यन्त गहन तथा अपार संसाररूपी सागर खारा है। मधुरता का इसमें अंश भी नहीं है / इसलिये बुद्धिमान लोग आसक्त नहीं होते हैं, यह गोरखनाथजी का उपदेश है / हाथी, घोडे, स्त्रियां ये सब किसीके नहीं हैं। क्योंकि नरक जाने के समय में कोई भी इनमें से रक्षा नहीं करता है / यह सब विचार बराबर करना चाहिये / क्रोधका त्यागकर, मानको हटाकर, माया, लोभ आदि से निवृत्त होकर दूसरोंसे वैरभाव न करके अपनी आत्मा के तारण के लिये सदैव धर्म उद्योग करते रहना चाहिये / मंत्रियों के आग्रह से मृगध्वज का नगर में प्रोना-- - यह सब उपदेश सुनकर राजा शान्त होगया तथा योगिनी को प्रणाम करके चन्द्राकके साथ अपने नगर के उद्यान में आ गया / तथा सन्मुख आये हुए मंत्रियों से कहने लगाकि 'आप लोग शुकराजको राज्य दे देवें / मैं इस समय यहीं रह कर गुरु से व्रत ग्रहण करूगा। नगर में जाने से मुनियों को भी दोष लग जाता है / इस लिये मैं नगर में नहीं आऊंगा / ' .. तब मंत्री लोग कहने लगेकि 'राजन् ! एक बार राजभवन को पवित्र करो, क्योंकि जो जितेन्द्रिय नहीं है उनको वनमें भी दोष लगता है' * कहा है कि:--- * वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां : गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः / .. . - अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते, . . निवतरागस्य गृहं तपोवनम् / / / 752 / / 8 / / P.AC.GupatnasuriM.S... . Jan Gun Aaradhak Trust Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___. साहित्यप्रेमी मुनि निरंजनविजय संयोजित 113 'रागवान् व्यक्तियों को वन में भी दोष लगता है / घर में भी पांच इन्द्रियों को वश करना तप ही कहा गया है / जो निन्दित कर्मों में प्रवृत नहीं होता तथा राग से रहित है उसके लिये घर . भी तपोवन है।' गृहस्थ-अवस्था में ही मृगध्वज राजा को केवल ज्ञान.मंत्रियों के इस प्रकार समझाने पर राजा मृगध्वज चन्द्रांक के साथ घर आया / उसको देखकर चन्द्रशेखर शीघ्र ही अपने नगरको चल दिया। इसके बाद राजाने उत्तम उत्सव करके शुकराज को राज्य दे दिया तथा सप्त क्षेत्रों में द्रव्यका व्यय करता हुआ नगरमें अट्ठाई महोत्सव किया। इसके बाद सब . विषय वासनाको त्याग करके प्रातःकालमें व्रत ग्रहण करूगा, इस प्रकार की भावना हृदय में करते हुए तथा कर्म समूह का त्याग किये हुए और शुभध्यान में लीन राजा को रात्रि में समस्त संसार को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान उत्पन्न हो गया / प्रभात में स्वर्गसे देवता लोग आकर उस राजासे कहने लगेकि 'हे राजन् ! अब मुनि वेष को धारण करो। हम सब तुम्हारे चरणों की वन्दना करेंगे।' इसलिये ठीक ही कहा है कि 'समता के आलम्बन करने से आधे क्षण में ही सब कर्म नष्ट हो जाते हैं। जिन कर्मों को मनुष्य कोटि जन्मोंमें तीव्र तप करके भी नहीं नष्ट कर सकते, / दान दारिद्रयका नाश करता है। शील दुर्गतिका नाश करता है / बुद्धि अज्ञानका नाश करती है। शुद्ध भावना संसार सेमुक्त करा देती है। . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग देवता आदि के द्वारा केवलज्ञान का महोत्सव इसके बाद राजाने देव प्रार्थना से जब मुनिवेष धारण कर लिया तब देव तथा मनुष्योंने उन केवली मुनिको प्रणाम करके केवलज्ञानकी प्राप्तिका महान् महोत्सव किया, बाद में राजर्षी ने संसाररूप सागरसे पार करने में नौका के समान धर्मका उपदेश बहुत मधुर भाषामें दिया / जैसे शरीर में आरोग्य अनित्य है, युवावस्था भी अनित्य है / इसी प्रकार ऐश्वर्य और जीवन भी अनित्य है, तथापि परलोक के साधन में लोग उदासीन भोव रखते हैं, यह मनुष्यों का व्यवहार आश्चर्य कारक है / सूर्य के आगमन और गलन से प्रतिदिन आयु का क्षय होता है / संसार के अनेक कार्यों के बड़े भार से तथा सतत व्यवहार में लगे रहने के कारण समय का ज्ञान नहीं होता है। जन्म, वृद्धावस्था विपत्ति, मरण और दुख ये सब देखकर भी प्राणियों को भय नहीं होता। क्योंकि मोह रूपी प्रमाद की मदिर। का पान करके . संसोर में प्राणियों को सुख की भ्रांति है। जैसे छोटे बालकों को / अंगूठे को अपने मुह में रखने से स्तन का भ्रम होता है / यही अज्ञान दशा है। र धर्मोपदेश के बाद में हंसराज और चन्द्रांक के साथ कमलमाला ने भी उन राजर्षि के समीप शीघ्र व्रत को ग्रहण किया / तथा आदि से अन्त तक चन्द्रवती का सब दुष्ट वतान्त : जानते हुए भी वे राजर्षि मगध्वज तथा चन्द्रांक किसी के आगे नहीं बोले / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. TAIN S Jun Gun Aaradhak Trust न राजमहल, प्रातःकालमें व्रत ग्रहण काँगा इस प्रकार की शुभ-भावना हृदयमें रखते हुए; ___अपने गजमहल में गृहस्य -अवस्थामें ही महाराजा मृगध्वज को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। पृष्ट 113 (मु. नि. वि. संयोजित. विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 22) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य शुकराज का उद्यान में आगमन पष्ठ 123 ANATAN KAHNA mariaw AranyanUNTRATE ARE ~-stem 2S P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Sin ISLAM CCATI Jun Gun Aaradhak Trust मंत्रि से परस्पर वार्तालाप : शुकराज कहने लगा कि यह सब उपदेश आप अपने नये स्वामी को दे, इस नगरका सच्चा स्वामी शुकराज मैही हूँ पृ. 124 (मु. नि. वि. संयोजित. विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 23-24) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित 115. इसके बाद उन राजर्षि रूपने सूर्य संसारके भव्य प्राणी रूपी कमलों को विकसित करते हुए वहांसे बिहार कर दिया / इधर बादमें शुकराज न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करने लगा। चन्द्रवती पर देवीकी प्रसन्नता-- इधर रानी चन्द्रवती चन्द्रशेखर में अत्यन्त स्नेह रखती हुई अतीव भक्तिके साथ राज्यकी अधिष्ठात्री देवीकी आराधना करने लगी। इसके बाद वह देवी प्रसन्न होकर प्रत्यक्ष हो गई और उसको कहने लगी कि 'हे चन्द्रवती ! तुम अपना अभीष्ठ वर मांगो। क्योंकि बिना उपकारके किसीको किसीके साथ प्रेम नहीं होता, अभिष्ठ वस्तु देने पर ही दे ता लोग अभीष्ट फल देते हैं। तब चन्द्रवतीने कहा कि तुम मुझ पर प्रसन्न होकर यह शुकराज का विशाल राज्य चन्द्रशेखरको दे दो। तब देवीने कहा कि शुकराज जब कहीं अन्यत्र जावे तब तुम चन्द्रशेखरको राज्य लेने के लिये बुलाना, उस समय मैं चन्द्रशेखरके शरीरका वर्ण-रूप सब शुकराजके समान बना दूगी। इसमें सन्देह नहीं। इस प्रकार वर देकर देवी अन्त र्धान हो गई। ___ चन्द्रवती प्रसन्न होकर शुकराज के अन्यत्र चले जाने की प्रतीक्षा करने लगी / क्योंकि क्रूर कर्म करने वाला मनुष्य दूसरे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग के छिद्र को प्राप्त कर शीघ्र ही उसकी समस्त लक्ष्मीका अपहरण कर लेते हैं / जैसे बिल्ली दूध के अपहरण की ताक में सदा लगी रहती है। - इस प्रकरणमें फेवली भगवंत मुनि के द्वारा पूर्व जन्मादि तथा भविष्योंका कथन, और राजा आदि से योगिनी का मिलन, चन्द्रशेखरको कामदेवके द्वारा वरदान मिलना, चन्द्रांक राजकुमार से यशोमति की कामाभिलाषा होना। बाद में यशोमति का योगिनी होना और सांसारिक माया जाल को देखकर मृगध्वज महाराजाको वैराग्य प्राप्त होना।' गृहस्थ अवस्था में ही राजाको केवलज्ञान की प्राप्ति, अनन्तर चन्द्रवती रानी से राज्य अधिष्ठात्री देवी की आराधना, तथा देवी का प्रसन्न होना इत्यादि रोचक वर्णन इस प्रकरण में आया है। . अब पाठक गण आगे के प्रकरणमें राजा शुकरराजकी यात्रा गमन आदि का रोमाञ्चकारी वर्णन पढ़ेंगे / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य प्रेमी मुनि निरंजनविजय संयोजित अडत्तीसवां प्रकरण माया जाल पसार कर नारी करती खेल / देखो नाटक आज यह 'चन्द्रा' 'शेखर' मल / / पाठक गण! गत प्रकरण में सूचित महाराजा शुकराज का तीर्थयात्राके लिए प्रस्थान करना, और चन्द्रवती के द्वारा अपने भाई चन्द्रशेखरको शुकराजका रूप धारण करवाना, तथा स्त्रीचरित्र द्वारा कपट पूर्ण नाटक करना, इत्यादि रोमांचकारी वर्णन इस प्रकरणमें आपको मिलेगा। शुकराज का यात्रा के लिये गमन____ इसके बाद एक दिन शाश्वत् तीर्थों पर के श्री जिनेश्वर देवों को प्रणाम करने जाने के लिये शुकराज चलने लगा, तब पद्मावती और वायुवेगा उसकी दोनों स्त्रियां कहने लगी कि 'हम दोनों भी इस समय आपके साथ साथ यात्रा के लिये चलें जिससे हम दोनों को भी शाश्वत जिनेश्वरदेवों के दर्शन व प्रणाम करने से पुण्य प्राप्त होगा' श्री जिनेश्वर देवोंका जन्म-स्थान, दीक्षा-स्थान, केवलज्ञान उत्पति स्थान और मोक्ष गमनका स्थान इत्यादि स्थानोंको वन्दन करना उत्तम प्राणियोंका परम कर्तव्य है, क्योंकि शास्त्रमें कहा भी है:-'मैं प्रभुजी के दर्शन के लिये जिनमन्दिरमें जाऊ।' इस प्रकारका प्रतिदिन ध्यान व विचार करने वाले को चतुर्थ-भक्त एक उपवास का फल प्राप्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग होता है। जिनमंदिर जाने के लिये खडा होता है, तब उसे छठ-दो उपवासका फल प्राप्त होता है और उस मंदिरके रास्ते पर चलने से अष्ठम-तीन उपवासका फल प्राप्त होता है और उसी मार्गमें जो श्रद्धा से चलता है तो उसे दशम-चार उपवासका फल प्राप्त होता है। चलते-चलते मदिर के पास आने से द्वादशम-पांच उपवासका फल प्राप्त होता है और जिनमंदिर में प्रवेश करने से पाक्षिक-पन्द्रह उपवास का फल प्राप्त होता है / जिनमंदिर में जाकर श्री जिनेश्वर प्रभुके दर्शन करने पर एक मासोपवास का फल प्राप्त होता है, प्रभुजी के दर्शन से कई-गुण अधिक पुण्य जिन पूजा में होते है और कोटिबार जिन पूजा करने से जो पुण्य होता है, इससे कोटि गुणा अधिक पुण्य स्तुति-स्तोत्र पाठ करने से होता है। स्त्रोत्र से कोटिगुणा पुण्य शुद्धमन से जाप करने से होता है, जाप से कोटि गुणा पुण्य प्रभुजीका मनमें निर्मल ध्यान करने होता है, और ध्यान से कोटिगुण पुण्य प्रभुजी के ध्यानमें एकाग्रचित्त हो तन्मय होने से होता है।' इत्यादि शास्त्र कथन बतलाकर शाश्वत तीर्थों की यात्रा और दर्शनों के लिये साथ ले जाने की अत्यन्त इच्छा दोनों पत्नियोंने बताई। ___इस प्रकार उन दोनोंकी उत्कट इच्छा देखकर शुकराजने मंत्रियों से कहा कि “मैं अभी तीर्थ यात्रा के लिए जाऊंगा, इस लिए जब तक मैं यात्रा करके न लौट आऊ तब तक आप लोग प्रयत्नपूर्वक राज्यकी रक्षा करें।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 116. - इस प्रकार मंत्रियोंको समझाकर शुकराज दोनों पत्नियों के साथ विमान पर आरूढ होकर आकाशमार्गसे श्री जिनेश्वर देशको प्रणाम करने के लिए चल दिया। चन्द्रशेखर का शुकराज रूप धारण करना इधर चंद्रवती स्वयं गुप्त रूप से देवता द्वारा शुकरूपधारी चन्द्रशेखरको ले आई तथा देवीके प्रभावसे शुकराज का रूपधारी चन्द्रशेखर रात्रि में ऊचे स्वरसे शब्द करता हुआ उठा और कहने लगा कि कोई विद्याधर मेरी दोनों स्त्रियों को लिये हुए जा रहा है, इसलिये हे लोगों ! उसका पीछा शीघ्र करो।' . इस प्रकार की घटना होते देख वहां मंत्रियों ने आकर पूछा कि आप कब आये ? ___ तब वह कहने लगा कि "मैं अभी गत्रिमें बिना यात्रा किये आ रहा हूँ'; कोई दुष्ट विद्याधर मेरी दोनों स्त्रियों को छल से लेकर मेरे देखते ही देखते पूर्वदिशामें चला गया / " तब मंत्रियों न कहा कि आपकी आकाशगामिनी विद्याका क्या हुआ ? तब इसने उत्तर दिया कि उस दुष्ट विद्याधर ने मेरी आकाशगामिनी विद्याका भी हरण कर लिया है। मंत्रियों ने कहा कि दोनों स्त्रियो के साथ विद्याधर को / जाने दीजिये परन्तु आपके शरीरमें तो कुशल है न ? Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग राजाने कहा कि मेरा शरीर तो बराबर स्वस्थ है परन्तु दोनों स्त्रियों के बिना मेरा प्राण शीघ्र ही कहीं निकल न जाय / "धर्म क्रियामें सहाय, कुटुम्ब आपत्तिमें जो ठावलम्बन भारी। मित्र समान जो है विसवास में, श्रीभगिनी हित साधनकारी // मात पिता सम व्याधि उपाधिमें, संग पलंग में काम दुलारी। है न त्रिलोक में कोई कहीं पर, न्योनर के हितु गेह की नारी॥" क्योकि प्रथमतः धर्म को धारण करने वाली, कुटुम्ब पर आपत्ति काल होने पर अवलम्बन देने वाली, विश्वासमें सखी के समान, हित करने में भगिनी, लज्जाशील होने के कारण पुत्रवधू तुल्य, व्याधि और शोक में माता के समान, शय्या पर होने पर काम देने वाली इस प्रकार की भार्या के समान हितकारी तीनों लोकों में और कोई नहीं हो सकता है ? मन्त्रियों ने कहा कि 'हे स्वामिन् ! लक्ष्मी, पुत्र, स्त्री, ये सब मनुष्यको अनेक होते हैं, परन्तु जीवन बार बार नहीं मिलता / हजारों माता पिता, तथा सैंकोड पुत्र स्त्री इस संसारम बीत गये हैं। इसलिये इस संसार में किसी का कोई भी अपना नहीं है / जो प्रातःकाल देखनेम आता है वह मध्याह्नमें देखने में नहीं आता। तथा जो मध्याह्न देखने में आता है वह रात्रि में देखनेमें नहीं पाता। इस संसार में प्रत्येक पदार्थ अनित्य ही है।' ___ इस प्रकार मंत्रियों के समझाने पर बह कपटी चन्द्रशेखर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्र मी मुनि निरज्जनविजय संयोजित राज कुल में विश्वास उत्पन्न करके राज्य करने लगा / इसलिये कहा है कि बिना छल-कपट किये कोई किसी के धन का हरण नहीं कर सकता / जैसे बगुला धीरे धीरे चलता हुआ मछलियों को पकड़ लेता है तथा जो अनेक प्रकार की माया रचकर के दूसरों को ठगते हैं वे महा मोह के मित्र होकर स्वर्ग और मोक्ष के सुखों से स्वयं ही वंचित रहते हैं। इसके बाद देवीके प्रभावसे शुकराजरूप धरी वह चन्द्रशेखर सच्चे शुकराज के समान समस्त प्रजा का पालन करने लगा तथा गुप्त रूप से चन्द्रवती के साथ प्रेम करता हुआ वह . चन्द्र शेखर माया का घर बन गया / चारण मुनि की श्री अष्टापदतीर्थ पर धर्म देशना इधर शुकराज शाश्वत् श्री जिनेश्वरदेवोंको प्रणाम करता हुआ श्री अष्टापद तीर्थ में गया / वहाँ स्वयं चौबीस जिनोंको भक्ति-भाव से प्रणाम किया। तथा वहाँ आकाशचारी चारण मुनि से संसार रूपी समुद्रमें नौका के समान-इस प्रकारकी धर्मदेशनाको सुनने लगा कि "जो मूर्ख इस अत्यन्त अलभ्य मनुष्यत्व को प्राप्त करके प्रयत्न पूर्वक धर्म नहीं करता है वह अत्यन्त कष्ट से प्राप्त चिन्तामणि को प्रमाद कर के समुद्र में गिरा देता है तथा कल्पवृक्ष को काट कर गृह में धतूरे के वृक्ष को लगाता है / चिन्तां . मणि का त्याग करके काँच के टुकड़े को ग्रहण करता है / अथवा. पर्वत के समान हस्ती को बेचकर गधे को खरीदता है जो प्राप्त P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 122 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग हुई धर्म की सामग्री का परित्याग करके इधर-उधर भोग की इच्छा से दौड़ते फिरते हैं।" इस प्रकार की धर्म देशना सुनकर तथा मुनि भगवंत एवं देवों को प्रणाम करके वहाँ से अपनी स्त्रियों के साथ श्वसुर के घर पर गया। तथा वहां तीन दिन रहकर पुनः वहाँ से शुकराज चल दिया। क्योंकिः "श्वसुर कुल में वास करना स्वर्ग के सम जानिये, किन्तु तीन या चार दिन ही पांचे अति मानिये, लोभ में फंस मिष्ट मधुरों के अधिक दिन जो रहें - वह खरा खर है अधम पशु नीच उसको सब कहे" * “यदि मनुष्य तीन पांच अथवा सात दिन रहे तो श्वसुर के गृह में निवास स्वर्ग तुल्य होता है। परन्तु यदि मिष्टान्न आदि के लोभ से अधिक दिन रह जाय तो सन्मान कम हो जाता है और खिचड़ी आदि साधारण अन्न मिलने लग जाता है / इससे सुसराल में ज्यादा समय तक रहना अनुचित है / यह बुद्धिमानोंका मन्तव्य है। इस तरह विचार कर शुकराज विमानसे शीघ्रता से चलता हुआ उदयाचल पर्वत पर सूर्य के समान अपने नगर के उद्यान में आया। श्वसुरगृह निवासःस्वर्ग तुल्योनराणाम, यदि वसति दिनानि त्रीणि वा पंच सप्तः / अथ कथमपि तिष्ठेन्मृष्ट लुब्धो वराको, निपतनि खत्तु पापे काजिकं क्षिप्रयुक्तम् , / / 810 // 8 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 123 . सत्य शकराज का उद्यान में आगमन-- "दुनिया कहे मैं दोरंगी, पल में पलटी जा; सुख में जो सोइ रहे, वांको दुःखी बनाउ॥" तब खिड़की में बैठा हुआ चन्द्रशेखर उद्यान में आये हुए शुकराज को देखकर अपने मन्त्रियों से कहने लगाकि "जो विद्याधर मेरी स्त्रियों को आकाशगामिनी विद्या सहित हरण कर ले गया था वही मेरा स्वरूप धारण करके बाहर उद्यान में पुन आया है तथा स्त्री को वश करने वाली विद्या से स्त्रियों को भी अपने वश में कर लिया है / इसलिये वे सब इसका ही पक्षपात करती है। अब यह दुष्ट मेग राज्य ले लेगा।" इसलिये आप लोग इसको इच्छित वस्तु देकर शीघ्र यहां से हटादो / क्योंकि 'शत्रुको बलवान् समझकर अपनी आत्मा की रक्षा करनी चाहिये / परन्तु जो स्वयं बलवान हो तो शरद् ऋतु के चन्द्र के समान शीतलता धारण करना चाहिये / बुद्धि से किया गया कार्य जिस प्रकार शीघ्र सिद्ध होता है, उसी प्रकार से अस्त्र, हाथी, घोड़े, तथा सेना से नहीं होता राजा प्रसन्न होकर नौकर को धन देता है। नौकर इस सन्मान के कारण अपने प्राणों से भी स्वामी का उपकार याने रक्षण करता है / जैसे चक्र का अारा नाभी को धारण करता है, तथा आरा नाभी में स्थिर रहता है। उसी प्रकार का स्वामी और सेवक में परस्पर व्यवहार रहता है।' इसके बाद बुद्धिवन नाम का मन्त्री नगर बाहर के उद्यान में जाकर तथा उसको देखकर आश्चर्य चकित होकर मधुर वाणी से कहने . लगाकि "हे विद्याधर ! मैं आपके सब सामर्थ्य देखलिया है; पूर्व Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 ... विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग में आप हमारे स्वामी की पत्नियोंका हरण कर के दूर चले गये। थे; अब क्या आप मेरे स्वामी का राज्य लेने के लिये आये हो ? क्या तुम नहीं जानते कि 'पर स्त्री हरण करने से घोर नरक को देने वाला महा पाप होता है, क्योंकि ऐसा कहा है कि "प्राण को सन्देह में देने वाला अत्यन्त शत्रु भाव का कारण तथा इह लोक और परलोक दोनों जन्म दुःख रूप परस्त्री गमन अवश्य त्याग करना चाहिये / " पर स्त्री गामी पुरूष इहलोक में सर्वस्व हरण, बन्धन, शरीर के अवयवों का छेदन आदि दुखों को प्राप्त करता है तथा प्राण त्याग करने पर परलोक में घोर नरक को प्राप्त करता है। किसी व्यक्ति के प्राण लेने में मरने वाले को एक क्षण ही दुःख होता है परन्तु किसी के धन का हरण कर लेने से उसको पुत्र पौत्रादि सहित जीवन पर्यन्त दुःख होता है। 'उस मंत्रीकी इस प्रकार की बातें सुनकर आश्चर्य चकित . होता हुआ शुकराज कहने लगा कि "ये सब उपदेश आप अपने स्वामी को देवें; इस नगरका स्वामी शुकराजमें ही हूँ।" . यह सब सुनकर मंत्री पुनः कहने लगा कि 'आप इस समय इस प्रकारकी मिथ्या बातें क्यों बोलते हैं ? मृगध्वज राजा का पुत्र शुकराज अभी नगर में विद्यमान है; इसलिये आप यहांसे शीघ्र . दूर चले जाइये, अन्यथा मृत्युको प्राप्त हो जायेंगे, आप कितना ही बोलें परन्तु आपको यहां मानने के लिये कोई तैयार न होगा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित * तब पद्मावती तथा वायुवेग कहने लगी कि 'यही मृगध्वज राजा के पुत्र शुकराज हम दोनों के स्वामी है / . मंत्री से परस्पर वार्तालाप___ तब पुनः मंत्री बोला कि 'आप दोनों मिथ्या क्यों बोलती हैं ?' क्सिी ने ठीक ही कहा है कि:---. "मिथ्या माया मूढ़ता, साहस रहित विवेक / निर्दयता अपवित्रता, नारी दोष अनेक / / " . 'मिथ्या, कथन, साहस, माया, मूर्खता, विवेकशून्यता, अपवित्रता, निर्दयता ये सब दोष स्त्रियों में स्वभाव से ही रहते हैं / राजा लोग समीप में रहने वाले मनुष्य क. विशेष जानता है, चाहे वह विद्या रहित, नीच कुल में ही' उत्पन्न, एवं अपरिचित ही क्यों न रहे क्योंकि राजा; स्त्रियां और लतायें आदि ये सब जो समीप में रहता हैं उसको लपेट लेते . हैं और उसका ही आलम्बन करते हैं / अश्व, शस्त्र, शास्त्र, वीणा, वाणी, मनुष्य, स्त्री ये सब आश्रित पुरूष के अनुसार ही योग्य अथवा अयोग्य हुअा करते हैं।' के - शुकराज द्वारा कर्म की विचित्रता को चिंतवन-- ... मन्त्रीकी ये सब बातें सुनकर शुकराज. सोचने लगाकि किसीने मेरा स्वरूप धारण करके मेरा राज्य ले लिया है। अब के अश्वः शस्त्र शास्त्र वीणा वाणी नरश्च नारी च / पुरुषविशेष प्राप्ता भवंत्ययोग्याश्च // 833 ॥स.॥ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग क्या करना चाहिये / चन्द्र का बल, ग्रह-बल, पृथ्वी का बल ये सब तब तक ही सहायक होते हैं, तथा तब तक ही सब लोगों का अपना सब अभीष्टसिद्ध होता है, मनुष्य तब तक ही सज्जन रहता है, तथा मन्त्र-तन्त्र आदि का प्रभाव और पुरुषार्थ तब तक ही काम देता है जब तक कि मनुष्यों का पूण्य बलवान रहता है / पुण्य के क्षय हो जाने पर सब कुछ नष्ट हो जाय करता है / ' "ब्रह्मदत्त को अन्धता, भरत राजा का जय, कृष्ण का सर्वनाश, अन्तिम श्री जिनेश्वर देव का नीचकुल में उत्पन्न होना, मल्लीनाथ में स्त्रीत्व, नारद का निर्वाण, चिलातिपुत्र को प्रशम भावना की प्राप्ति आदि इन सब उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि अतुल बलशाली कर्म और पुरुषार्थ स्पर्धा से परस्पर विजय प्राप्त करते हैं।" "तुलसी रेखा कमकी, ललाटमें लिख दीन, का पूर्व जन्म पूण्य पापमें, अखिल जगत अधीन // ". - यदि मैं इस राजा को मारकर बल पूर्वक राज्य लेने लूगा तो लोग परस्पर अनेक प्रकार से बोलेंगे कि यह दुष्ट मृगध्वज राजा के पुत्र को मारकर राज्य लेकर बैठ गया है लोकापवाद बहुत बलवान होता है। क्योंकि 'चित्त चित्त में बुद्धि भिन्न भिन्न होती है तथा प्रत्येक कुण्ड में जल भिन्न भिन्न स्वाद वाला होता है, . प्रत्येक देश में विलक्षण. आचार होता है। प्रत्येक मुख में भिन्न भिन्न प्रकार की वाणी होती है / ' सारिका शुक सर्प हाथी, सिंह मुख झट बंद हो, मनुज मुख को बंद करने काम से बहु फंद हो / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 127 उन्मत हाथी, सिंह, दुष्ट सर्प, शुक, सारिका इन सबके मुख को सहज में बन्द किया जा सकता है / परन्तु मनुष्य के मुख को बन्द नहीं कर सकते हैं / इसलिये इस विषय में अब खेद नहीं करना चाहिये। क्योंकि कर्म का परिणाम सबसे अधिक बलवान होता है / विद्याधर, वासुदेव, चक्रवर्ती, देवेन्द्र, वीतराग कोई भी कर्म की गति से मुक्ति नहीं हो सकते / इसलिये संतोष में रहना ही उतम है, “सम्पन्न-अवस्था में हर्षित-गर्वित नहीं होना चाहिये, क्योंकि संपति भोगने से पूर्वकृत पुण्य का क्षय होता है तथा विपत्ति में विषाद भी नहीं करना चाहिये / क्योंकि उससे पूर्व के पापों का क्षय होता है / " ये सब बातें मन में विचार कर तथा धैर्य धारण करके शुकराज वहां से पत्नी सहित विमान पर आरूढ होकर आकाश मार्ग से चल दिया। ___ वह बुद्धिनिधि नामका मन्त्री प्रसन्न होकर चन्द्रशेखर के समीप आया और कहने लगाकि 'वह कपटी शुकराज मेरी युक्ति से यहां से भागकर चला गया।' ___ यह सुनकर कपटी शुकराज वेषधारी चन्द्रशेखर अत्यन्त प्रसन्न होकर तत्काल उस मन्त्री को बीस गांव पुरस्कार में दे दिये, क्योंकि ब्राह्मण भोजन से प्रसन्न होते हैं; मयूरमेघ की गर्जना से प्रसन्न होते हैं, साधु व्यक्ति दूसरों की सम्पति देखकर प्रसन्न होते हैं, दुर्जन व्यक्ति दूसरे की विपत्ति देखकर प्रसन्न होते हैं / "विप्र भोजन से खुसी रह, मोर खुस धन गर्जना / .... अन्य सम्पति से सुजन खुस, विपति देकर दुर्जना // " P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरंजनविजय संयोजित ~ - इधर शुकराज शून्य हृदय होकर आकाश मार्ग से स्थान स्थान - में भ्रमण करता हुआ दोनों पत्नियों द्वारा प्रेरित होने पर भी लज्जावश अपने श्वसुर के घर पर नहीं गया / कहा भी है किः.. "उतम व्यक्ति अपने ही गुणों से जगत् में प्रसिद्धि को प्राप्त करते हैं और मध्यम पुरुष पिता के गुणों द्वारा जगत् प्रसिद्ध होते हैं। अपने मामा के गुणों द्वारा प्रसिद्ध होने वाले व्यक्ति अधम कहे जा सकते हैं और अपने श्वसुर के गुणों द्वारा प्रसिद्ध होने वाले व्यक्ति अधम से भी अधम कहे जाते हैं। . इसके बाद प्रसन्न मुखवाला शुकराज कम के फल की चिन्ता करता हुआ, घूमते घूमते छ महिनों के बाद सौराष्ट्र देश में पहुँच गया / "जिसको सम्पति रहने पर हर्ष नहीं हो, विपत्ति में विषाद न हो, रण में धैर्य धारण करने वाला हो, इस प्रकार के तीनों भुवन के तिलक समान पुत्र को कोई विरली माता ही जन्म देती है।" शुकराज का अपने पिता केवली मुनि से मिलनः-- .. एक दिन आकाश मार्ग से जाता हुआ अपने विमान को अचानक रूका देखकर शुकराज सोचने लगाकि 'मेरे जलेहुए घावपर यह एक क्षार और कहां से आ पड़ा ?' जैसे लगे हुए स्थान पर अवश्य करके चोट लगा करती है तथा घर में धान्य का नाश होने से जठराग्नि भी प्रदीप्त हो जाती है अर्थात् दुकाल में ॐ उत्तमाः स्वगुणैः ख्याता मध्यमास्तु पितुर्गुणैः / अधमाः मातुलै ख्याता श्वसुरैश्चाधमाधमाः // 51 // 8 / / __P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun.Gun Aaradhak Trust Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निराश होकर- शुकराज का गमन और अपने पिता-कवली मुनि से एकाएक मिलन। VA) P.P.AC.GupratnasuriM.S. (मु. नि. वि. संयोजित. विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 25-26 SHARE Jun Gun Aaradhak Trust FOR ASIANDIA S : एक दिन शाकाशमों से जाता हुआ अपने विमान को अचानक एका देख कर शुकराज सोचने लगा कि " मेरे जले हुए घाव पर यह क्षार - खार और कहां से आ पड़ा।" पृष्ट 128 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विमलाचल महाताथ पर पंचपरमेष्ठी महामंत्र का श्री शुकराज द्वारा जप। yi --- DDA Saa P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. ( मु. नि. वि. संयोजित विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 27 Jun Gun Aaradhak Trust ESARJUL गुरुदेव द्वारा बताई गई विथि से श्री पंचपरमेष्ठी मंत्रगज के जाप करते हुए, गुफामें छै मास वीतने पर अपर्व तेज के प्रकाश को शुकगाजने देखा / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 126 अधिक मास आता है / आपत्ति आने पर मित्र भी विरोध करते हैं। किसी प्रकार के छिद्र होने पर अनेक अनर्थ होने लगते हैं / - इसके बाद शुकराज नीचे भूमि पर इधर उधर देखता हुआ वन में . अपने ज्ञानी पिता को सुवर्ण कमल पर बैठे हुए देखा / तुरन्त ही , विमान से उतर कर शुकराज, देव, दानव तथा राजाओं से पूजित हैं चरण कमल जिसके ऐसे अपने पिता मृगध्वज केवलिमुनि को विधि पूर्वक प्रणाम किया तथा श्री केवलीमुनि भगवंत ने उसे धर्म . देशना देते फरमाया किः , "इस जगत् में धर्म यही सर्व मंगलों में श्रेष्ट मंगल है, सर्व . दुःखों का औषध जो कोई हो तो सर्व श्रेष्ट धर्म ही औषध रूप .. है, और सहायक बलों में धर्म ही श्रेष्ट बल है। इसीलिये इस जगत् में संसार से पार करने वाला और सभी प्राणियों को शरण . करने योग्य एक धर्म ही है। क्रोध मान, माया, लोभ, और दूसरे के दोष का त्याग करना आदि को श्री जिनेश्वर देवों ने स्वर्ग और मोक्ष को देने वाला धर्म बताया है।" __'उत्तम मनुष्य अपने प्राण जाने पर भी परके दोष को ग्रहण नहीं करते हैं और जीव-हिंसा नहीं करते।' इत्यादि देशना के अन्त में . अश्रु पूर्ण नेत्र होकर शुकराज ने गद्गद् कंठ से कहाकि मेरे समान रूप धारण करके किसी मनुष्य ने मेरा राज्य ले लिया है। ' चन्द्रशेखर और चन्द्रवती के सारे वृतान्त को जानते हुए भी केवलीमुनि भगवंत अनर्थ की आशंका से बोले नहीं / तब शुकराज पुनः कहने लगाकि 'हे भगवान तुम्हारा श्रीष्ट दर्शन होने पर भी यदि P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित मेरा राज्य चला जाय तो यह मेरा दुर्भाग्य है।' कहा भी है कि “यदि करीर (केर) के वृक्ष में पत्र नहीं होते है तो इसमें बसंत का क्या दोष है ? उल्लूक पक्षी यदि दिन में नहीं देखता है तो इसमें सूर्य का क्या दोष ? चातक के मुख में यदि वर्षा का जल नहीं पड़ता है तो इसमें मेघ का क्या दोष ? पूर्व में विधाता ने जो ललाट में लिख दिया है वही प्रमाण है, इसके विपरीत फल नहीं हो सकता।' श्री विमलाचल महातीर्थं पर पंचपरमेष्ठी महामंत्र का जपःशुकराज के द्वारा इस प्रकार अनेक प्रार्थना करने पर श्री मृगध्वज केवली मुनि ने कहाकि 'मोक्ष और सुख का देने वाला श्री विमलाचल नामक महातीर्थ है। इस तीर्थ की गुफा में निर'तर छैः मास तक मंत्रराज पंचपरमेष्ठी का याने नवकार महामंत्र का एकाग्र मनसे स्मरण करो। जिस समय गुफा में महान तेज प्रगट होगा तब शत्रु बिना युद्ध के ही घर चला जायगा / " क्योंकि 'पंच परमेष्टी नमस्कार मंत्र, शत्रुञ्जय पर्वत, गजेन्द्रपद तीर्थ का जल, ये तीनों त्रिलोक में अद्वितीय है। "मंत्र बिना अक्षर नहीं कोई, मूल मात्र औषध शुभ होई, हो न अनाथ जगत् यह जानों, योजक्र जन मिलता नहीं मानों // " म पत्र नैव यदा करीरविटषे दोषो वसन्तस्य किम, ____नोलूको हि विलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् / वर्षा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम्, यत्पूर्व विधिनाललाटफलकेऽलेखि 'प्रमाणं हि तत् / 865 / 8 / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 131 ___ जगत में कोई भी अक्षर बिना मंत्र का नहीं है। कोई भी मूल बिना औषध का नहीं है, पृथ्वी अनाथ नहीं है / इन सबकी योजना करने वाले सुज्ञ मनुष्य ही दुर्लभ हैं। इसके बाद शुकराज केवली मुनिको प्रणाम करके तथा 'प्रसन्नता पूर्वक विमान पर आरूढ होकर नवकार मन्त्र की साधना करने के लिये श्री महातीर्थ :विमलाचल पर चल दिया तथा गुरुदेव द्वारा बताई गई विधि से श्रीपंच परमेष्ठी मंत्रराज का जप करता हुआ शुकराज ने गुफा में छै मास बीतने पर अपूर्व तेजके प्रकाश को देखा। ___ इसके बाद शुकराज अपनी दोनों पत्नियों के साथ विमान में बैठ प्रसन्नता पूर्वक अपने नगर की ओर चल दिया। ___इधर कपटी शुकराज को राज्य की अधिष्ठात्री देवी ने कहा कि "आज से तुम्हारा शुकराज का रूप चला जायगा, और अब तुम्हें चन्द्रशेखर का रूप प्राप्त होगा।" __ यह सुनकर चन्द्रशेखर भयभीत होकर शीघ्र नगर से चुपचाप * निकल कर, वन में चला गया / इधर अपनी दोनों पत्नियों के साथ विमान में बैठकर शुकराज नगर में आया और अपने राज्य को संभाल लिया। __सब मन्त्रियों से सम्मानित होने पर तथा स्त्री प्राप्ति संबंधि समाचार पूछे जाने पर उसने सब समाचार कह सुनाये / इसके बाद शुकराज अनेक विद्याघरों के साथ संघ का स्वामी होकर श्रीविमनाचल तीर्थ पर श्री ऋषभदेव प्रभु को प्रणाम करने Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित के लिये उत्सव के साथ चल दिया / स्नात्र पूजा, ध्वजारोहण आदि अनेक शुभ कार्य करके वह संघपति शुक्रराज प्रसन्नत: पूर्वक मन्त्रियों से कहने लगा किः-- 'जप कर मन्त्र इसी पर्वत पर, गर्व किया अरिजन के चूरः / __इसी हेतु शत्रुञ्जय इसका, नाम हुआ जगमें मशहूर / / ' ... इसी पर्वत पर मन्त्रराज नवकार के जप करने से मैंने शत्रु को जीता था। इसलिये इस पर्वत को आज से श्रीशत्रुञ्जय कहो / अर्थात् उसी दिन से इसका नाम तीर्थराज श्री शत्रुञ्जय नाम हो गया। राजा चन्द्रशेखर की दीक्षा व केवलज्ञानः-. ___ इधर चन्द्रशेखर श्री विमलाचल महातीर्थ पर आकर तथा युगाधीश श्रीआदिनाथप्रभु को प्रणाम पूजा आदि करके अपने मन में विचारने लगा कि "मैंने जो अनेक प्रकार के दुष्कर्म किये हैं / 'उन पापों से मुझको निश्चय करके नरक में जाना पड़ेगा।" इस प्रकार मन में विचार करने से उसे वैराग्य प्राप्त हुआ और इसी कारण श्री महोदय मुनि से उसने उसी तीर्थ में भाव पूर्वक दीक्षा लेली। - शुकराज श्रीमहोदय मुनि के समीप आकर भक्तिपूर्वक जीवदया मूलक धर्म का श्रवण करने लगा। देशना के अन्त में शुकराज ने उन मुनिश्वर से पूछा कि- "हे मुनीश्वर ! छल करके मेरा राज्य किसने ले लिया था ?" P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 133 " : तब महोदय मुनि कहने लगे कि-"हे शुकराज ! सुनो इस जन्म से बावन भव पूर्व जीवन में तुम राजा थे तथा उस समय तुमने छल करके जिसका राज्य ले लिया था उसीने इस जन्म में छल करके तुम्हारा राज्य ले लिया था / " शुकराज ने पूछा कि "मैंने किसका राज्य पूर्व जन्म में ले : लिया था ?" ___तव मुनीश्वर कहने लगे कि- “यह तुम्हारे मामा राजा चन्द्रशेखर का राज्य तुमने लिया था / " इसलिये कहा है किः-- "किये कर्म का क्षय नहि होवे, भोग विना शत कल्पों में, कर्म क्षय के कारण भव में, भोग नियत अति स्वल्पों में // " कोटि कल्प बीत जाने पर भी किये हुए कर्मों का क्षय नहीं होता / शुभ या अशुभ जो कर्म पूर्व जन्म में किया जा चुका है उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है। __. यह सुन आश्चर्य चकित होकर शुकराज ने शीघ्र ही उठकर उस श्री चन्द्रशेखर मुनि भगवंत को प्रणामादि किया। इसके बाद श्री चंद्रशेखर ने अपने किये हुए दुष्ट कर्मों की मन ही मन निन्दा : करता हुआ गिरिराज की पावन छाया में अष्ट प्रकार के कर्मो / का नाश करने वाले केवलज्ञान को प्राप्त किया। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 साहित्य प्रेमी मुनि निरंजनविजय संयोजित ~ ~ ~ ~ उनचालिसवां-प्रकरण “शुद्ध हृदय जन को सदा-स्वप्न शकुन फल देत / भावी सुखदुख सूचना-समझ सुजन लेत // " पाठक गण! गत प्रकरण के अन्दर शुकराज की भाग्य दशा, चन्द्रवती की कपट कला, श्री विमलाचल महातीर्थ पर शुकराज द्वारा पञ्च परमेष्ठी के महामंत्र का जप, इत्यादि सुन्दर वर्णन आपने पढ़ा है। अब इस प्रकरण में शुकराज की अपने राज्य की प्राप्ति, केवली मुनि भगवंत का मिलन, कर्म और उद्योग की बोधदायक चर्चा तथा केवली मुनि द्वारा धन गर्वित वणिक पुत्र की बुद्धि वर्द्धक कथा, इत्यादि वृतांत से पर्याप्त मनोरजन द्वारा ज्ञान प्राप्त करेंगे। शुकराज को पुत्र प्राप्ति शुकराज श्री शत्रुञ्जय तीर्थ में उत्सवपूर्वक यात्रा करके पुनः अपने नगर में आ पहुँचा / एक दिन उसकी प्रथम पत्नी पद्मावती स्वप्न में चन्द्रमा को अपने मुख में प्रवेश करते हुये देखकर जग गई तथा अत्यन्त प्रसन्न हुई / दान शील आदि का जो भी पवित्र (गर्भावस्था की इच्छा) दोहद उसको हुआ राजा ने प्रसन्न चित से उन सबको पूर्ण किया। इसके बाद गर्भ समय पूरा हो जाने पर रानी ने शुभ दिन तथा शुभ मुहू त में सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया / राजाने इस खुशी में अन्न पान वस्त्र आदि से अपने स्वजनों को सम्मा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 135 नित करके जन्ममहोत्सव मनाया / उस बालक का नाम 'चन्द्र' रक्खा गया / तथा प्रतिदिन क्रमशः बढ़ते हुए उस बालक को पंडितों से विद्याग्रहण कराई और युवावस्था प्राप्त हो जाने पर सूर नाम के राजा की सुन्दर कन्या से उस चन्द्र का विवाह करा दिया। ____एक दिन श्री कमलाचार्य नाम के धर्माचार्य पृथ्वी पर विहार करते २बहुत साधुओं के साथ उस नगर के उद्यान में पधारे / उन आचार्य देव को आये हुए सुनकर धर्म सुनने की कामना से राजा पत्नी तथा पुत्र के साथ वहां गया और प्रणाम करके उनके चरणों में विनय पूर्वक बैठ गया। वहां उसने गुरू चरणों में बैठकर इस प्रकार का उपदेश सुना किः "वृथा जिन्दगी मनुज की-धर्म अर्थ बिन काम / दुर्लभ मानव जन्म में-धर्म सकल सुख धाम // " यह मनुष्य जीवन धर्म, अर्थ, और काम के साधने के बिना व्यर्थ ही है / इनमें भी धर्म सर्व श्रेष्ठ है, क्योंकि अर्थ और काम की प्राप्ति धर्म से ही होती है। कोटि जन्मों में भी दुष्प्राप्य मनुष्य जन्म आदि सब धर्म सामग्रियों को प्राप्त करके संसार रूपी महान समुद्र को धर्म रुपी नौका से पार करने का सतत प्रयत्न करना चाहिये / हरेक प्राणी पुरुषार्थ के बिना कर्मयोग मात्र से ही धीर वणिक् के समान सुख सम्पति को प्राप्त नहीं करते ? केवलीमुनि भगवंत द्वारा धीर वणिक की कथा- . इसके बाद रानाने उस वणिक् की कथा पूछी और वे उस P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित वणिक् की कथा कहने लगे कि 'विश्वपुर' नाम के नग में धीर'. नामका एक अत्यन्त गरीब वणिक् रहता था। उसकी स्त्री का नाम धीरमती तथा पुत्र का नाम धरण था / वे तीनों जंगलसे लकड़ियां लाकर तथा उनको बेचकर उसीसे अत्यन्त कष्टपूर्वक जीवन निर्वाह करते थे / दरिद्रता के पांच भाई हैं--ऋण, दुर्भाग्य, आलस्य, भूख, सन्तान की अधिकतायें तथा दरिद्र, रोगी, मूर्ख, प्रवासी और नित्य सेवा वृत्ति से निर्वाह करने वाला ये पांचों व्यक्ति जीवित भी मृतक के ही समान हैं। कर्म और उद्योग का विवाद - ... एक दिन कर्म और उद्योग दोनों आपस में विशेष रूप से परस विवाद करते थे। कर्म कहता 'मैं ही संसार में सब प्राणियों को सुख सम्पति देता हूँ।' उद्योग बोला कि 'मेरे प्रभाव से ही लोगों को सुख सम्पति प्राप्त होती है।' ____ कर्म ने कहा कि 'मेरी सहायता के बिना तुम अभीष्ट नहीं दे सकते हो।' तुम भी मेरे प्रभाव से ही प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हो / जैसे सेवक राजा की सेवा करता है वैसे ही समस्त संसार मेरी सेवा करता है। यदि तुम मेरी सहायता के बिना ही लोगों को इच्छित देते हो तो इस दरिद्र धीर वणिक् को इच्छित दो।' . उद्योग ने लक्षद्रव्य मूल्य का एक मनोहर हार शीघ्र लाकर वनमें धीर को दे दिया। तव प्रसन्न होकर घर जाता हुआ धीर लक्कड़े पर हार को . रखकर जल पीने के लिये सरोवर में गया ............. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fri P.P.AC.GunratnasuriM.S. --- -- Srees Jun Gun Aaradhak Trust शुकराच की रानी पद्मावती स्वप्न में पुत्र जन्म उसका चंद्रकुमार चंद्रमा को अपने मुख में प्रवेश करते नाम स्थापना और पालन पोषण. देख कर जग गई। पृष्ट 134 प्रष्ट 135 (मु.नि. वि. संयोजित...... विक्रम चरित्र दूसग भाग चित्र नं.२८-२९) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजसभामें राजा सभक्ष तत्काल फल दनवाल काकडी के बीज के बारे में भीम और श्री दत्त का विवाद. पष्ट 145 SHRISH SINE Mitr SHR लिया है.' इसन्निय यह सीडी लेकर अपने घर जाओ। पृष्ट 151 अनुसार भीमने कह दिया कि 'तुमने हाथ से सीडी का स्पर्श कर श्री दत्त सीडी पर हाथ रख कर उपर चढने लगा तब शत के E- Gu (मु. नि. वि. संयोजित......विक्रम चरित्र दसरा भाग चित्र नं. 30-3 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग .. इधर पक्षीने उस हार को मांस का टुकडा समझकर वनमें .. अत्यन्त दूर एक वृक्ष के कोटर में लेजाकर छोड़ दिया / फिर उद्योग उस हार को वहां से पुनः ले आया। . इस प्रकार चार पांच बार धीर को उद्योग का तो देना तथा ; पक्षी का हरण करना होता रहा / अन्त में उद्योग ने कोटि मूल्य का एक रत्न लाकर वणिक् को दिया और वणिक् ने सरोवर के / किनारे रखा तो मत्स्य उस रत्न को भी निगल गया / क्योंकि मनुष्य अदृष्ट से प्रेरित होने के कारण क्या कर सकता है ! मनुष्यों को बुद्धि प्रायः कर्म के अनुसार ही प्राप्त होती है। इसके बाद उद्योग अनेक उपाय करके भी जब कुछ नहीं / कर सका तब वह पुनः कर्म से जाकर मिला! . . "धीर को सेठ महान् बनाने को-लक्ष करोड़ का हार दिया है, कोशिश की अति उद्यमने पर-काक ने हार को ले ही लिया है; ... बाद में कर्म ने कोशिश की-फिर भी न सफलता प्राप्त हुई है, उद्यम कर्म विना न 'निरजन'-कोई कहीं पर जीव जिया है।" - ' तब कर्म ने कहाकि तुम इस धीर वणिक् को अभी तक धनवान नहीं बना सके अब मेरा प्रभाव देखो / इसके बाद कर्म ने जो कुछ भी बारम्बार स्वर्ण आदि धीर को दिये वह सब उद्योग के बिना अकस्मात् क्षण मात्र में ही नष्ट होगया / यह जानकर कर्म सोचने लगाकि मैं व्यर्थ में ही गर्व करता हूँ। क्योंकि उद्योग के बिना कुछ भी नहीं दे सकता हूँ। तब कर्म तथा उद्योग के योग से धीर अतीव धनी होगया / अन्त समय में शुभ ध्यान P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138.. साहित्यप्रेमी मुनि निरंजनविजय संयोजित करता हुआ. धर्म का आचरण करके वह स्वर्ग में गया / : कहा भी है:___ "कोई भी किसी प्राणी के सुख तथा दुःख का कर्ता अथवा हर्ता नहीं है / लोग अपने पूर्व कमों के ही फल का भोग करते हैं।सबुद्धि से यही सोचना चाहिये / कई व्यक्ति श्रेष्ट वचन को सुनकर वणिक् पुत्र के समान अहंकार का त्याग कर सुख को प्राप्त करते हैं। श्रीकेवलीमुनि ने धन गर्वित वणिक-पुत्र की कथा सुनाई: श्रीपुर में धनद नामक एक श्रेष्ठी था उसकी स्त्री का नाम धनवती था। उसके रूपलावण्य से सुन्दर एक पुत्र था उसका नाम लक्ष्मीधर था / जलमार्ग तथा स्थल मार्ग से बहुत से वणिक् पुत्र धन का उपार्जन करने के लिये चारों दिशाओं में जाते थे / परतु लक्ष्मीधर को धनदने अच्छे 2 पंडितों के समीप खूब पढाया / वह शिक्षित होने पर वह सदा देवता और गुरु की आराधना नम्रता पूर्वक करने लगा, जैसाकि शोक तथा संताप दायक भनेक पुत्रों के उत्पन्न होनेसे क्या ? कुल का तो अवलम्बभूत वह एक ही पुत्र भेष्ट है जिससे कुल प्रसिद्ध हो / जैसे वन को एक ही वृक्ष अपने पुष्पों की सुगध से सुगंधित कर देता है उसी प्रकार सुपुत्र कुल को प्रसिद्ध कर देता है। इसके बाद क्रमशः उस धनद की लक्ष्मी भाग्य संयोग से नष्ट हो गई / तथा उसी का चन्द्र नामक पुत्र धनवान हो गया। 卐 सुखदुःखनां कर्ता हर्ता च न कोपि कस्यचिज्जन्तोः / इति चिन्तय सद्बुद्धया पुरा कृतं भुज्यते कर्म // 627||8 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 136 क्योंकि 'जब कुमुद समूह शोभा से रहित होते हैं तब कमल समूह शोभायुक्त होते हैं / उलक हर्ष का त्याग करता है, तब चन्द्रवाक् प्रसन्न होता है; सूर्य उदय होता है तब चन्द्र अस्त होता है इस प्रकार एक ही समय में भाग्य संयोग से भिन्न भिन्न व्यक्तियों में भिन्न भिन्न कर्म का परिणाम होता है / ' . चन्द्रने अपने भीम नाम के पुत्र का लक्ष्मीपुर में धीर नामक श्रेष्ठी की कन्या चन्द्रवती से विवाह कराया / तथा धीर श्रेष्ठी ने दीवाली के पर्व में दीपावली क्रीड़ा के लिये जामता-भीमको बुलाने के लिये अपने दूत को भेजा / तथा भीम आभूषणोंको धारण करके अपने समान चार कुमारों के साथ ले जाता हुआ श्रेष्ठी पुत्र लक्ष्मीधर को बुलाने के लिये आया। परन्तु लक्ष्मीधर उत्तम वेष भूषां के अभाव से साथमें जाना नहीं चाहता था / किन्तु भीम ने अत्यन्त आग्रह करके उसको भी साथ ले लिया तथा अतीव प्रसन्नता पूर्वक अपने मित्रों सहित श्वसुर के घर पहुंचा। .. यहां श्वसुर ने भक्ति पूर्वक उत्तम अन्न पान पक्वान्न आदि देकर उन के मित्रों के साथ अपने जामाता को भी सम्मानित किया। वहां वणिक पुत्र भीम अपने मित्र श्रेष्ठी पुत्र लक्ष्मीधर को समय समय पर कार्य करने के लिये कहता था। एक समय उस वणिक पुत्र लक्ष्मीधर को पानी लाने के लिये भेजा। जब वह श्रेष्ठी पुत्र अपने मित्र की आज्ञानुसार पानी लाने को चला तब पीछे से फटे वस्त्र देखकर वह वणिक पुत्र भीम अपने मित्रों के साथ र हंसने लगा / उन लोगों की हंसी सुनकर वह श्रेष्ठि पुत्र Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 साहित्यप्रेमी मुनि निरजनविजय संयोजित लक्ष्मीधर पीछे लौट कर और अन्योक्ति से उन लोगों को कहने लगा कि: "विपतिमान को क्यों हंसते हो-रे धन मद से मूढ़ कुलोक, लक्ष्मी नहीं स्थिर है जगमें-यह देती है सबको शोक; हँसना नहीं किसी को चहिये-देख देख अरहठ के गर, छन में भरता छन में खाली-कभी नहीं करना अन्धेर / " "हे धन के मद से अन्धमूढ़ ! आपत्ति में पडे हुए को देखकर क्या हंसते हो ? लक्ष्मी कभी भी कही स्थिर रही है ? अरठ (जलयन्त्र) के चक्र में नहीं देखते हो ?' कि सब धेड़े बार बार पानी भरती खाली करती हैं।"; श्रेष्ठी पुत्र की इस प्रकार की वाणी '. सुनकर वह वणिक् पुत्र गर्व छोड़कर अपने निर्धन मित्र को वस्त्र और आभूषण देकर सम्मानित करके क्षमा माँगने लगा। तथा उसे पूर्ण धन देकर उस श्रोष्ठि पुत्र को अपने समान धनवान बना दिया / इसलिये कहा है कि सज्जन व्यक्ति अत्यन्त कुपित होने पर भी संयोग प्राप्त करके सरल हो जाते हैं, परन्तु नीच व्यक्ति नहीं ! जैसे अत्यन्त कठिन सुवर्ण के द्रवित करने का उपाय तो है, परन्तु तृणको द्रवित करने का कोई भी उपाय नहीं है।' "आपद्गतं हससि किं द्रविणान्धमढ़, .. ... .लक्ष्मीः स्थिरा भवति नैव कदापि कस्य / ... यत्किं न पश्यसि घटीनलयन्त्रचक्र, ..... रिक्ताभवन्ति भरिताः पुनरेव रिक्ताः // 645' P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 141 श्री केवलीमुनि द्वारा अरिमर्दन राजा की कथा- . .. इस प्रकार उत्तम प्रकृति के मनुष्य दूसरों से भी हित वाणी सुनकर शीघ्र ही उत्तम मार्ग को ग्रहण कर लेते हैं / राजा अरिमदन के समान लोग धर्म के प्रभाव से अपने अभिलाषित सुख सम्पति को शीघ्र ही प्राप्त कर लेते हैं / इसी भरत क्षेत्र में पूर्व समय में स्वर्णपुर नाम का एक नगर था / जो गगनचुम्बी श्री जिने श्वर देवों के मंदिरों में समूह से शोभायमान था / उस नगर में अरिमर्दन नाम के राजा थे। उस न्याय परायण राजा को गुणशील आदि रत्नों की खानि लक्ष्मीवती नाम की स्त्री थी / तथा उसको मतिसार नाम का नीति निपुण एक वृद्ध मन्त्री था। जो बराबर राजा का मनोरन्जन करता रहता था जैसे किः "गुरु भूप-मन्त्री वैद्य साधु-सन्त बूढ़ा ही लसे, . मल्ल गायक नृत्य गणिका-विन जवानी ना लसे // " वृद्धावस्था राजा, अमात्य, वैद्य, साधु, इन लोगों को सुशोभित करती है / परन्तु वैश्या मल्ल, गायक तथा सेवक लोकों को वही वृद्धावस्था तिरस्कृत करती है। एक दिन राजा स्वप्न में उत्तम विमान, वन, प्रासाद, सरोवर आदि से सुशोभित स्वर्ग को देखकर जागृत हुआ और अपने मन में सोचने लगा कि 'यदि इस स्वर्ग के समान मेरी . . नगर न हुआ तो मेरा जन्म निष्फल ही व्यतीत होगा। .... प्रातः काल राजा का मुख उदासीन देखकर मंत्री ने पूछ। कि'हे राजन् ! आपको क्या चिन्ता है ? वह मुझको कहो / ' P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनबिजय संयोजित राजा ने कहा कि 'मैं अभी कुछ भी नहीं कह सकता हूं।' मंत्री ने कहा कि-'हे राजन् ! यदि कोई दुःसाध्य बात भी हो तो मुझको कहदो मैं उसका उपाय करूगा / ' . राजा कहने लगा कि 'आज मैंने स्वप्न में स्वर्ग देखा है इसलिये द्रव्य का व्यय करके मेरे नगर को स्वर्ग के समान बनाओ। तब मन्त्री ने सूर्यकान्त मणि, चन्द्रकान्त मणि, स्फाटिकरत्न, मरकतमणि आदि के समहों से सब प्रासादों को सुन्दर बनवाया। क्योंकि वेमंत्री शिष्य, सेवक, पुत्र स्त्री, धन्य है जो राजा, गुरु, स्वामी, पिता, पति की आज्ञा का पालन हर्षित होकर करते हैं। उस मन्त्री ने राजा के सात मजिल के प्रासाद के आगे सुवर्ण का घर और मयूर आदि से शोभायमान तोरण बनवाया / एक दिन झरोखे पर बैठ कर नगर की शोभा देखता हुआ। वह राजा अपनी स्त्री से कहने लगा कि-'हे प्रिय ! इस्त्र प्रकार का नगर पृथ्वी पर कहीं नहीं है / ' क्योंकि अपने मन में सब कोई अभिमान करते हैं / जैसे टिट्टिम नामका पक्षी आकाश के गिरने के भय से अपने पांव ऊंचे करके सोता है। राजाकी बात सुनकर तोरण पर बैठी हुई शुकीने शुक पोपट से कहा कि--'हे शुक ! इस प्रकार का रमणीय नगर पृथ्वी पर अन्यत्र तुमने कहीं देखा है।' तब शुकने कहा कि-'हे प्रिय ! श्रेष्ठ रत्नों के प्रासादों से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग तथा स्वर्ग से भी स्पर्द्धा करने वाली, शोभा से युक्त, रत्नकेतुपुर नामका एक नगर है / वहां रत्नचन्द्र नाम के राजा हैं। उनकी स्त्री का नाम रत्नवी है / उनके अत्यन्त सुन्दर और सौभाग्य वाली लक्ष्मीवती नामकी कन्या है / उन चारों के आगे यह नगर तथा यहाँ का राजा आदि उसी प्रकार के हैं जैसे सुवर्ण के आगे अग्नि / क्योंकि जल में और वृक्ष में, पृथ्वी में और पर्वत में, काष्ट में और वस्त्र में, स्त्री में और पुरुष में, नगर में और सुमेरू पर्वत में, महान् अन्तर है / इसी प्रकार इन दोनों नगरों में भी महान अन्तर है / इसलिये यह राजा अपने नगर को देखकर व्यर्थ में ही गर्व करता है।' ___"उत्तम व्यक्तियों को कहीं भी गर्व करना उचित नहीं है / जो मनुष्य जाति, लाभ, कुल, ऐश्वर्य, बल, रूप, तपस्या, शास्त्र इन आठों का अभिमान करता है, तो उसे ये सब चीजें दूसरे जन्म में हीन हो जाती हैं।' यह सुनकर राजा जब उस शुक के समीप पहुँचा, तब तक वे शुकी और शुक राजा की दृष्टि से उड़कर अगोचर हो गये / तब राजा विचारने लगा कि मैंने इतना द्रव्य व्यय करके इस नगर को सुन्दर बनवाया तो भो ये शुक और शुकी इस प्रकार बोलकर क्यों चले गये ? इस प्रकार विचार करता हुआ राजा उदास हो गया / मन्त्रियों ने राजा को उदास देखकर इस का कारण पूछा। तव राजा ने सब वृतान्त कह सुनाया। Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित इसके बाद राजा ने रत्नकेतुपुर नगर और राजा रत्नचन्द्र को देखने के लिए सब दिशाओं में अपने नीजि सेवकों को भेजे / सेवक लोग सब दिशाओं में भ्रमण कर लेने पर भी, रत्नकेतुपुर का पता नहीं पाने से उदासीन मुख होकर राजा के समीप . जौट आये और कहने लगे कि-'हे राजन् ! पृथ्वी में रत्नकेतुपुर नगर आदि का कहीं भी पता नहीं है / ' _____तब राजा ने मन्त्री से कहा कि-'हे मन्त्रिन् ! अब मेरी मृत्यु निकट आगई है / यदि उस नगर का पता प्राप्त न होगा तो मेरे लिये अग्नि की ही शरण है।' तब मन्त्री कहने लगा कि-'हे राजन् ! कुछ काल तक और प्रतीक्षा कीजिये / यदि मैं पृथ्वी में भ्रमण करके छः मास के अन्दर में उस नगर का समाचार नहीं ला सकू तो आप प्राणत्याग देना। इस पर राजा ने कहा कि-'मैं अब नहीं रह सकता हूँ।' तब मन्त्रियों ने समझाया कि किसी कार्य में शीघ्रता करना अच्छा नहीं होता / ऐसा कहा भी है कि-'सहसा कोई कार्य नहीं करना चाहिथे, क्योंकि अविवेक परम आपत्ति का कारण होता है। विचार कर कार्य करने वाले को; गुण की उपासक सम्पत्ति स्वयं ही प्राप्त हो जाय करती है / इस प्रकार समझाने पर भी जब राजा ने अपने दुराग्रह को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 145 नहीं छोड़ा। तब मन्त्री ने कहा कि-'हे राजन् ! सज्जन व्यक्ति जो कुछ कहते हैं, वह सब प्राणियों के लिये निश्चय रूपेण शुभकारक होता है / जैसे प्रत्येक स्थान में भीम नाम के वणिक् को सुख की प्राप्ति हुई। भीम वणिक की कथा___ श्रीपुर में धीधन नामका एक धनाढ्य श्रेष्ठी था! उसके दूकान में प्रतिदिन अनेक प्रकार की बुद्धि लोगों को मिला करती थी। एक दिन रमापुर से भोम नामका वणिक् प्रयाण करते करते श्रीपुर अया। उस नगर में घूमते घूमते वह धीधन की दुकान में जा पहुँचा / भीम ने वहां जाकर पूछा कि-'हे अष्ठान् ! तुम्हारी दुकान में क्या क्या चीजें बीका करती हैं ? श्रेष्ठी ने कहा कि 'यहां अच्छी अच्छी बुद्धि मिलती है। किराना चीजें यहाँ नहीं बिकती।' चार सौ दाम लेकर श्रेष्ठी ने उसको चार बुद्धियाँ दे दी। प्रथम-चार व्यक्ति जो कहें वह करना, द्वितीय-सरोवर के घाट पर स्नान नहीं करना, तृतीय-एकाकी मार्ग में नहीं जाना, चतुर्थगुप्तबात स्त्री से नहीं कहना / यदि किसी कार्य में बुद्धि न चले तो शीघ्र मेरे पास चले आना। इस प्रकार चार बुद्धियां लेफर भीम उस नगर से चल दिया। घूमते घूमते भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह चन्द्रपुरी में जा पहुंचा और उन बुद्धियों का स्मरण करता हुआ, वह किसी देव मन्दिर में जाकर रातको सो गया। Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित . इधर कोई परदेशी उस नगर में आकर किसी भष्ठी के हाट में, रात्रि में, निर्भय होकर सो गया / परन्तु अकस्मात् शूलरोग हो जाने के कारण वह परदेी वहां मर गया / प्रातःकाल उस हाट का स्वामी अपने घर से आया और वहां किसी मरे हुए आदमी को देखकर सोचने लगा कि 'इसको यहाँ से कौन हटायेगा ?' तब वहां अनेकों आदमी एकत्रित हो गये और कहने लगे कि 'इसको शीघ्र बाजार से हटाओ / ' इस पर हाट का स्वामी कहने लगा कि 'इसकी ज्ञाति मैं नहीं जानता हूं अतः मैं इसका स्पर्श कैसे करू?'' तब महाजनों ने कहा कि 'किसी गरीब को भोजन आदि कुछ देदो तो वह इस मृतक को हाट से खींचकर बाहर कर देगा।' तब सब कोई उस दुकान के मालिक के साथ देवमन्दिर में गये / वहां भीम को देखकर उन लोगों ने कहा कि-'दुकान से एक मृतक मनुष्य को खींचकर तुम बाहर करदो / तुमको इस दुकान का मालिक आज खाने के लिये अच्छा भोजन देगा।' तब वह भीम उन पंचलोगों की बात मानकर, उस मृतक को रस्सी से बांध कर, श्मशान में खींचकर फेंकने गया / वहां उस मृतक के वस्त्र के अचल में चार दिव्य रत्नों को देखा / भीम उन चारों रत्नों को लेकर, सरोवर के कोण में स्नान करने के लिये जाने लगा। जाते समय उसको द्वितीय बुद्धि का स्मरण हो आया और वह घाट से हटकर दूसरे स्थान में स्नान करके श्रेष्ठी के घर पहुंचा। जब भोजन करने के लिये बैठा तब सहसा रत्नों का स्मरण हो P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 147 जाने से, वह वहां से आकर स्नान करने के स्थान में विस्मृत हुए रत्नों को लेकर, पूर्व में खरीदी हुई वुद्धि की प्रशंसा करने लगा। रत्न मिल जाने से प्रसन्न होकर पुनः श्रेष्ठी के घर पर गया / तथा भोजन करके नगर में नाना प्रकार के कौतुकों को देखने लगा। "राहगीर को अवश्य चाहिये, छोटा सा भी साथी। . होवे क्यों न महान व्यक्ति वह, तोभी चहिये साथी / देख लीजिये नेवले ने भी, श्री भीम का उपकार किया। प्राण बचा तब उस दिन से वह, मिलकर जाना मान लिया / / " इसकबाद एकाकी नहीं जाना इस तृतीय बुद्धि का स्मरण करके, किसी साथी को प्राप्त करने के लिये भीम ने तलाश की किन्तु कोई. साथी न मिला, तो आजु-बाजु तलाश करनेपर एक नेवला नौलिया) दिखाई दिया / उसे पकड़ कर अपने साथ ले लिया। कारण कि प्रथम और दूसरी बुद्धि के फल स्वरूप ही चार रत्न सरोवर के कोण में मिल गये तो उस धीधन श्रेष्ठी की बुद्धि पर उसे अति विश्वास उत्पन्न हो गया। प्रत्यक्ष फल्न मिलने पर नास्तिक को भी आस्था उत्पन्न हो जाती है। . . उस नेवले को लेकर भीम कई गाँव-नगर आदि देखता हुआ, ग्रिष्म ऋतु होने के कारण, मध्याहन समय में वन में किसी स्थान पर खेलते हुए नकुल को छोड़कर स्वयं एक वृक्ष की छाया में सो गया / इधर एक सर्प वक्ष के कोटर से निकला और जैसे ही वह Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित भीम को काटने लगा कि उस नकुल ने, क्रोध से क्षण मात्र में उसके अनेक खण्ड कर दिये / भीम जब सोकर उठा तब नकुल से खण्डित हुए सर्प को देखकर, अपने लिये हितकारक बुद्धि की भी अत्यन्त प्रशंसा करने लगा। इसके बाद घर जाकर हरपुर नाम के गांव में ही श्रेष्ठी रुपवती नामकी सुन्दर कन्या से विवाह करके सुखपूर्वक रहने लगा / स्वर्ण द्वीप में समुद्र मार्ग से जाकर बहुत धन का उपार्जन किया / और बोनेपर उसी समय फल देने वाला ककड़ी का बीज भी प्राप्त किये। पश्चात् वहां से अपने घर पर आकर नित्य ककड़ी का शीघ्र फल __. देने वाले बीज बोता था। और उसका फल अपनी स्त्री को देता था। एक दिन उसकी स्त्री ने पूछा कि, तुम नित्य ककड़ी का फल . कहां से लाते हो ? तब भीमने सब सही समाचार उसे सुना दिये / " भीम की रूपवती स्त्री पूर्व में श्रीदत्त नाम के श्रेष्ठी से प्रेम संबंध होने के कारण, प्रयत्न करके उसकेयहाँ जानेकी इच्छा करती हुई भी कुछ दिनों तक, अनुकूल स्थिति की राह देखती हुई, भीम के घर में रही / एक दिन रूपवती ने श्रीदत्त से कहा कि 'मैं तुम्हारे घर आना चाहती हूं' तब.श्रीदत्त ने कहा कि 'यदि तुम मेरे घर में आना चाहती हो तो भीम के यहां जो तत्काल फल देने वाले ककड़ी के बीज हैं,उनको अग्नि में पकादो जिससे वे उगने न पावें / AC.Gunratnasari un Aaradhak Trust Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग .. 146. क्योंकि यदि छल करके तुम मेरे घर नहीं आओगी तो राजा मेरे सर्वस्व का हरण कर लेगा।" तब रूपवती ने कहा कि "मैं तुम्हारे कहने के अनुसार कार्य अवश्य करूंगी।" "पर पुरुषों के संगम कारण, कुन्टा क्या न किया करती। मात-पिता, पति-पुत्रों के भी, प्राण हरण से ना डरती / / " इसके बाद श्रीदत्त श्रेष्ठी गजा की सभा में आकर बैठा। उसी समय भीम भी राजा से मिलने के लिये आया / तब श्रीदत्त श्रेष्ठी ने कहा कि "अभी किसी के घर में तत्काल फल देने वाला बीज नहीं देखा जाता है?" तब भीम ने अभिमानपूर्वक उत्तर दिया कि-"ऐसा न बोलो। मेरे घर में तत्काल फल देने वाले ककड़ी के बीज हैं।" श्रीदत्त ने कहाकि--"मनुष्य को कभी झूठ नहीं बोलना चाहिये। यदि तुम्हारे घर में इस प्रकार के बीज होतो, तुम मेरा सब धन ले लेना और यदि उस प्रकार के बीज तुम्हारे घर में नहीं होंगे तो, मैं तुम्हारे घर में जिस वस्तु पर हाथ दूगा वह तत्काल ही ले लगा।" तब भीम ने घर से बीज लाकर राजा के आगे में उसको बोये / परन्तु तत्काल फल नहीं आये / इस पर भीम अपनी हार मान गया। तब वह श्रीदत्त बोला कि-"मैं शीघ्र ही तेरे घर में जाता हूं और P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित द्विपद आदि जो भी सुन्दर वस्तु में मेरी इच्छा होगा उसे मैं ले लूगा।" उसके ऐसे कथन पर भीम ने मनही मन सोचा कि इसकी इच्छा मेरी गृहिणी(स्त्री)लेने की है। ऐसा समझकर वह भीम शिघ्र बुद्धि देने वाले धीधन श्रेष्ठी के समीप गया और उसे सब समाचार कह सुनाया / यदि बातों में हार जाने के कारण गृहिणी दूसरे के घर में जाय तो बुद्धिमान व्यक्ति अशोभित हो जाता है / तब श्रेष्टी ने कहाकि 'तुम अपनी पत्नी सहित अच्छी अच्छी वस्तुओं को ऊपरले मंजिल में ले जाना और सिढ़ी लगाकर कहना कि तुम सिढ़ी द्वारा ऊपर चढ़कर, अपनी इच्छा अनुसार चस्तु लेलो / इसके बाद जब वह ऊपर चढ़ने के समय में सिढी पर हाथ देवे, तब तुम उससे स्पष्ट कहना कि 'इस सिढी को हाथ से स्पर्श करने के कारण इसको ही लेलो।' इस प्रकार धीधन से बुद्धि लेकर भीम घर पर आकर उस धीधन के कथनानुसार सब काम कर लिया। ठीक समय श्रीदत्त भी वहां आपहुंचा / गृह के ऊपर के मालमें बैठी हुई भीम की कुल्टा पत्नी रूपवती, श्रीदत्त को अपने रहने का स्थान बतलाने लगी / रूपवती को संकेत करते हुए देखकर, भीम अपनी पत्नी का सब दुश्चरित्र जान गया। अर्थात् वह समझ गया कि “यह फुल्टा स्वयं श्रीदत्त के यहां जाना चाहती है।" जब वह श्रीदत्त सिढी पर हाथ रखकर ऊपर चढने लगा ROMARR RRE mmmmmmmmmmmmon P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग तब भीमने कह दिया कि "तुमने हाथ से सीढी का स्पर्श कर लिया है इसलिये यह सिढी लेकर अपने घर जाओ।' इस प्रकार छलित होकर श्रीदत्त किंकर्तव्यमूढ (असमंजस) हो गया / इधर भीमने रूपवती को भी व्यभिचारिणी समझकर घर से बाहर निकाल दी तथा विनय, शील सम्पन्न दूसरी स्त्री से उत्सव पूर्वक विवाह कर लिया / क्योंकिः-नन्द मन्त्री चाणक्यने ठीक कहा है "छोड़ो धर्म दया से हीन,तजो गुरू जो क्रिया विहीन ... कुल्टा धरनी से मुख मोड़,प्रेम रहित भाई को छोड़ // 25 // "5 "दया से रहित धर्म का त्याग कर देना चाहिये, क्रिया से . हीन गुरु का त्याग कर देना चाहिये, दुश्चारिणी स्त्री का त्याग कर देना चाहिये / तथा स्नेह हीन बान्धवों का त्याग कर . देना चाहिये / ' इसी प्रकार भीमके समान, जो मनुष्य श्रेष्ट व्यक्तियों के वाक्य को स्वीकार करता है, उसका सब मनोरथ सिद्ध हो जाता है / इसमें तनिक भी संशय नहीं है। पाठक गण ! आपने इस प्रकरण में भीम के द्वारा ली गई चारों बुद्धियों की अपूर्व कथायें आदि पढ़कर आनन्द प्राप्त किया होगा / अब आगे के प्रकरण में आप रत्न केतुपुर की रोचक कहानी पढ़कर आनन्द प्राप्त करें। म त्यजेद् धर्म दयाहीनं, क्रियाहीनं गुरुत्यजेत् / .दुश्चारिणीं त्यजेद् भाया निःस्नेहान बान्धवान् त्येजत्॥१०.३६।।८ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जन विजय संयोजित प्रकरण-चालिसवां "राग द्वष जाकु नहीं, ताकु काल न खाय / काल जीत जग में रहो, एहज मुक्ति उपाय // " पाठक गण ! आपने गत प्रकरण में महाराजा अरिमर्दन का स्वप्न में स्वर्ग देखना, शुकराज, राजा व सभाजनों के आगे अरिमर्दन की कथा का कहना, तथा उसी कथा के अन्तर्गत भीम वणिक् द्वारा खरीदी गई चार बुद्धियों की विशेषताओं का तथा संसार के कपटी जनों का परिचय प्राप्त कर चुके हैं / अब आप इस प्रकरण में अरिमर्दन द्वारा मन्त्री की सहायता से रत्नकेतुपुर को जाना तथा उसका कन्यारूप धारण कर वहाँ की राजकुमारी सौभाग्यवती से नर द्वषी होने का कारण पूछना और उसका कारण बताना तथा राजा अरिमदन द्वारा मेही से आकाशगामि शैया को पाने की कथा जानना और अपनी सेना सहित अरिमर्दन का रत्नकेतुपुर पहुंचकर वहाँ के राजा रत्नकेतु से मिलना और म्त्री-द्वष का कारण बताना तथा रत्नावती के साथ अरिमर्दन का विवाह होना आदि रोचक कथाएँ आप इस प्रकरण में पढ़ेंगे मंत्री द्वारा रत्नकेतुपुर नगर हूँढ़ने के लिये जाना इस प्रकार समझाने पर राजा अरिमर्दन ने तीन मास की अवधि मन्त्री को दी / वह मन्त्री रत्नकेतुपुर तथा वहांके राजा आदि का पता लगाने के लिये वहां से चल दिया / बहुत से देश, नगर P.P.AC. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग ग्राम, पर्वत, वन आदि में भ्रमण करता हुआ, वह मन्त्री खिन्न हो रत्नवती नामके नगर में पहुंचा। वहां जिनालय में जाकर श्री ऋषभ जिनेश्वर की स्तुति आदि करके 'मेही' नामके कन्दोई की स्त्री के घर में भोजन के लिये बैठा / मन्त्री का उदासीन मुख देखकर कन्दोई मेही की स्त्री बोली कि. तुम्हारा मुख उदास क्यों है ? अपना दुःख मुझ को कहो / तब मन्त्री ने राजा विषयक अपना सब कार्य कह सुनाया। मेही ने कहाकि 'तुम स्वस्थ हो जाओ, तुम्हारा सब इष्ट सिद्ध हो जायगा। यदि रत्नकेतुपुर जाने की तुम्हारी इच्छा हो तो राजा को कार्य सिद्धि के लिये यहां ले आओ।' . तब मन्त्री प्रसन्न होकर अपने नगर में आया / और राजा से कार्य शुद्धि करने का सब सम चार कह सुनाया / तब राजा प्रसन्न होकर सवालाख मूल्य का द्रव्य लेकर मन्त्री के साथ रत्नवतीपुरी में पहुंच, और मेही से मिला / इसके बाद उसके यहां सन्तोष पूर्वक भोजन आदि किया / __इसके बाद मेही ने कहा कि “वह रत्नकेतु नगर यहां से तीन सौ योजन है / उस नगर के राजा की सौभाग्य सुन्दरी नामकी कन्या मनुष्य से द्वष करने वाली है।" . राजा ने कहाकि "वहां जाने की मेरी इच्छा है इसलिये मुझको वहां ले चलो।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित . मेही ने कहाकि “यदि वहां शीघ्र जाने की तुम्हारी इच्छा हो तो मन्त्रीश्वर के साथ इस शय्या पर बैठ जाओ। . इसके बाद शय्या पर बैठा हुआ राजा, मन्त्री के साथ तत्काल ही मेही की आकाश गामी विद्या द्वारा रत्नकेतुपुर के बाहर वाले उद्यान में पहुंचा दिया गया / इसके बाद समुद्र पार करने पर मेही ने राजा से कहाकि “यही वह नगर है। मैं तो पीछी लौट जाऊँगी, तुम अपना कार्य सिद्ध करो।" तब राजा ने कहाकि "मुझको आकाश गामी विद्या नहीं आती है तो फिर मैं अपने नगर को वापस कैसे पहुंच सकूगा ?" तब मेही ने कहाकि 'आप दोनों इस नगर के प्रासादों में सौभाग्य सुन्दरी को देखें / मैं अपने घर जाकर आज से ग्यारहवें दिन में इस वन में, यहीं पर वापस आऊँगी / रत्नकेतुपुर में अरिमर्दन राजा और मंत्री द्वारा वेश परिवर्तन इस प्रकार कहकर मेही चली गई पश्चात् राजा रूप परिवर्तन शील विद्या से अत्यन्त रूपवती कन्या हो गया / मन्त्रीने एक ब्राह्मण का रूपधारण कर के उस कन्या को हाथ से पकड़ लिया। और स्थान स्थान में नगर की मनोहर शोभा को देखता हुआ राजा की सभा में जा पहुँचा और राजा को आशिर्वाद दिया। राजा ने पूछा कि "आप किस स्थान से, तथा किस प्रयोजन से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak 'Trust Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग आये हो ?" ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि “मैं बहुत दूरसे तुम्हारे नगर का सुन्दर स्वरूप सुनकर उसे देखने के लिये आया हूं।" . ___ तब राजाने कहाकि “आप ! रत्न के प्रासादों से शोभायमान इस नगर का भला प्रकार देखो।" तव ब्राह्मण ने कहाकि--"-मुझको यह नगर देखने में मेरी यह कन्या साथ रहन से घूमने में बाधा रूप होती है, क्योंकि इसको साथ लेकर मैं इधर-उधर कैसे घूम सकता हूँ? और मुझे. शहर देखने की तीव्र इच्छा है परन्तु क्या किया जाय ? इसलिये यह कन्या तब तक आपके अन्तःपुर में रहे जबतक मैं नगर को न देख लू। - तब राजा की आज्ञा से कन्या को अन्तःपुर में छोड़कर वह ब्राह्मण प्रसन्न होकर नगर को देखने के लिये बाजार में चल दिया / वह कन्या अन्तःपुर में प्रहेलि प्रश्न आदि से यहां की. राजकुमारी का इस प्रकार से मनोजन करने लगी कि जिसने वह राजकुमारी इसके साथ व.त ही स्नेह करने लग गई। . इसके बाद एक दिन उस विप्र कन्या ने राज कुमारी से पूछाकि 'हे सखी ! तुम पुरुष से क्यों द्वष करती हो ?? .... . . राजकुमारी का नर-द्वीप का कारण बतानाः तब राजकुमारी कहने लगी कि “मलयाचल पर्वत के महान Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 156. वनमें श्रीआदिनाथ के प्रासाद में चटका (चिड़ा)और चटक(चिड़ी) दोनों रहते थे। वे श्री आदिनाथ प्रभू की सदा पूजा करते थे। एक दिन चटकी ने कहाकि 'हे चटक ! अब घोंसला बनाओ क्योंकि मेरेनिकट भविष्य मेंही प्रसवका समय आवेगा।' परन्तु जब बहुत कहने पर भी चटक ने कुछ भी नहीं किया / तब वह चटकीने बहुत सा तृण लाकर घोंसला बना लिया / उसके बने हुए घोंसले में वे दोनों रहनेलगे / एक दिन उस वनमें बांस समूहों के परस्पर संघर्षण से दावाग्नि उत्पन्न हो गयी / उस समय चटकी ने कहाकि हे स्वामिन् ! सरोवर से जल लाकर इस घोंसले ‘पर छिटको, जिससे अग्नि इसे न जला सकेगा। बहुत कहने पर भी जब वह चटका जल लाने के लिये नहीं उठा तब वह चटकी स्वयं जल लाकर मन में कुछ सोचने लगी / परन्तु जब वह सोच ही रही थी उसी समय में दावाग्नि वहाँ पहुँच गई / और वह दुष्ट चटक उठकर वनमें कहीं अन्यत्र चला गया / चटकी दावाग्नि से जल गई / वही मैं श्रीआदिनाथ प्रभु की पूजा के प्रभाव से इस जन्म में रत्नकेतु की कन्या हुई हूँ। "अनुभव किया है पूर्व भव में, पुरुष होता है कर / इसलिये ही द्वष-मेरा, पुरुष में है मशहूर " . मुझे इसी पूर्व भर का स्मरण रहने के कारण पुरुषों से मुझ को द्वेष रह गया / पुरुष प्रायः दुष्ठ आशय वाले होते हैं। इसमें कोई संशय नहीं है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aainment आमदन राजा और मत्रीचरने रुपपवितन कर असभामं प्रवेश किया। HTSPARSil P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HI / INION HOM .. % 34 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. P.P.AC. Gumatinasuri M.S. VER THAN PuA Jun Gun Aaradhak Trust शय्या पर बैठ कर राजा, मंत्री और मही तीने। राजकन्या व कन्यारूप धारी अरिमर्दन राजा का उड़कर रत्नपुर जा रहे हैं। पृष्ट 154 परस्पर वार्तालाप हो रहा है। पृष्ट 156 (म. नि. वि. संयोजित... ... विक्रम चरित्र दसरा भाग चित्र नं. 32-34) Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 157 उस विप्रकन्या ने कहाकि 'हे राजपुत्रि! क्रोध में आकर स्त्रियाँ भी मिथ्या भाषण आदि अनेक असत् कार्य क्या नहीं फरती हैं ? ___ यह बात सुनकर राजपुत्री ने कहाकि 'हे सखी ! मैं क्या करू ! मनुष्य के प्रति द्वष मुझको नहीं जाता है।' ___ पुनःविप्र कन्या ने कहाकि 'हे राजपुत्रि ! वायु के वेग से जैसे मेघ समूह नष्ट हो जाता है / उसी प्रकार क्रोध से सव पुण्य कार्य नष्ट हो जाते हैं। ____ इधर उधर नगर की शोभा देखकर वह ब्राह्मण राजा के समीप आकर बोलाकि "मैं जो अपनी कन्या आपके यहां रख गया था वह कन्या अब मुझको देदे।।" तब राजाने अपनी दासी को विप्रकन्या को लाने के लिये अपनी कन्या के पास भेजा और वहाकि 'उसका पिता आगया है इसलिये उसको यहां ले आओ।' वहाँ राजपुत्री ने कहाकि 'मैं इस विप्रकन्या का वियोग क्षण मात्र भी नहीं सहन कर सकती हूं।' वह दासी राजा के पास खाली लौट आई और उसने राजा को राजकुमारी का अभिप्राय सब कह सुनाया / ब्राह्यण ने यह सुनकर कहाकि 'हे राजन् ! मेरी कन्या शीघ्र दे दीजिये / नहीं तो मैं यहाँ अपनी आत्म हत्या कर डालूगा / ' . राजा स्वयं पुत्री के समीप गया और उस विप्रकन्या को लाकर उसने ब्राह्मण को देदी / ब्राह्मण अपनी कन्या लेकर कहीं अन्यत्र चल दिया ! Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunqatnasuri M.S. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित www.rrराजा की कन्या उस विषकन्या के गुण समूहों को याद करके अत्यन्त दुःख पाने लगी / जैसे भ्रमर की स्त्री जाई जाति के पुष्प, के गुणों को स्मरण करके दुःख पाती है। . इधर ब्राह्यण उस कन्या को भी समस्त नगर दिखाकर-ऐसा नगर कहीं नहीं है। इस प्रकार कहता हुआ नगर से बाहर होगया / और पूर्व के सांकेतिक स्थान परजाकर राजाने पुनः अपने उसी रूप को धारण कर लिया / ठीक उसी समय 'मही' भी वहां आ पहुँची / पूर्ववत् राजा और मन्त्री दोनों को शय्या पर बैठाकर आकाशगामी विद्या से अपने नगर को चली गई और भोजनादि से उन राजा-मन्त्री दोनों का अतीव सत्कार किया / - इसके बाद राजा अरिमर्दन ने कहाकि 'मैं अपने सब परिवार के साथ इस नगर में पुनः आऊँगा / फिर बाद में तुम इसी प्रकार मुझको शय्या पर सपरिवार उस नगर में पहुँचा देना। तब मेहीने कहाकि 'हे राजन् ! आप शीघ्र आजायें में आपकी इच्छा पूर्ण करूगी / इसमें कोई सन्देह नहीं !' ... . राजाने पूछा कि 'तुमको यह शय्या किसने दी ?' कंदोइन का पूर्व वृतान्तः- 'मेही' ने उत्तर दिया कि 'धरापुरी में धन नामका एक श्रेष्टी था। उसकी धन्या नामकी स्त्री श्रीशत्रुञ्जय आदि तीर्थों में यात्रा करके ध. ध्यान परायण होने के कारण प्रथम स्वर्ग को प्राप्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग : - 156 किया / काल क्रमसे स्वर्ग से च्युत होकर, इस नगरमें मेही नामकी स्त्री हुई तथा धन श्रेष्ठीने धर्म में परायण होकर प्राण त्याग करके, द्वितीय स्वर्ग को प्राप्त किया / और वह देव पूर्व जन्मका स्मरण करके स्वर्गसे यहां आया तथा मुझको एक आकाशगामी शय्या दी। र उस दिनसे वह मेही सब लोगोंका उपकार करती हुई, धर्मक्रियामें लीन होकर, समय को विताने लगी। क्योंकि पुण्य कर्म करने वाले व्यक्तियां को आरोग्य, सौभाग्य, धनाढ्यता, नायकता आनन्द,सर्वदा विजय, और अभीष्ट की प्राप्ति होती है / हे राजन! वह मैं ही हूं। ... - इसके बाद राजा उससे प्रेमपूर्वक मिल कर मतिसारके साथ अपने नगरमें आया। यात्राके बहाने से, उत्तम सेनाके साथ, रत्नपुरीमें मेही से आकर मिला तथा मेही से कहने लगा कि'मुझको सेना के साथ उस नगर में पहुंचा दो। मैं चालाकी से उस राज कन्या से विवाह कर लूगा / ' तब मेहीने कहाकि-'समस्त सेना शय्या का स्पर्श करे।' सेना द्वारा शच्या स्पश करते ही शय्या आकाश मार्ग से चलने लगी। मेही ने उस शय्या के योगसे समग्र सेनाके साथ राजाको उस वनमें पहुँचा दिया। अरिमर्दन का सेना सहित रत्नकेतुपुर में उड़कर जाना इधर राजा रत्नकेतु कोई शत्रु राजा के आने की भ्रान्ति से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.' Jun Gun Aaradhak Trust Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरुजनविजय संयोजित सावधान होकर युद्ध करने के लिये नगरसे बाहर निकला / ... इधर अरिमर्दन राजासे शिक्षित, उसके सेवकने, रत्न केतु राजा : को कहा कि-'अत्यन्त धर्मात्मा अरिमर्दन नामका राजा परदेशसे यहां यात्रा करने के लिये आया है। वह स्त्रियों को देखता तक नहीं है और स्त्रियों के वचन भी नहीं सुनते हैं यदि कोई स्त्री उसे देखले तो वह तत्काल हो मृत्यु को प्राप्त करेगा।' . . यह बात सुनकर राजा रत्नकेतु ने कुछ शांति अनुभव की और अरिमर्दन के पड़ाव पर गया / उस समय राजा अरिमर्दन - श्री आदिनाथ प्रभु की उत्तम पुष्प, गन्ध, अक्षत आदि से अष्ट प्रकार से पूजा कर रहा था / पूजा करने के बाद दोनों राजा आपस में बड़े प्रम से मिले। ____ रत्नकेतु राजा ने राजा अरिमर्दन से पूछा-'आप सेना सहित कहां और किस हेतु से अभी जा रहे हैं ?' ____ इस पर अरिमर्दन कहने लगाकि-'मैं संसार भव भ्रमण से छूट कारा पाने के लिये, श्री जिनेश्वर देव की यात्रा करने के लिये यहां * आया हूँ / ' क्योंकि तीर्थ के मार्ग की धूलि के स्पर्श मात्र से भी / लोग निष्पाप हो जाया करते हैं तथा तीर्थ में भ्रमण करने से :: संसार भ्रमण दूर हो जाता है, तीर्थ में द्रव्य व्यय करने से स्थिर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है / श्री जिनेश्वर देव की पूजा करने से लोग पूज्य होते हैं / ध्यान से हजार पल्योपम, अभिग्रह से : लक्ष पल्योपम और तीर्थ के मार्ग में चलने से सागरोपम प्रमाण Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितिय भाग . 161 भोगने योग्य दुष्कर्म भी नष्ट हो जाते हैं / प्रत्येक मनुष्यको अपना शरीर तीर्थ यात्रासे, चित्त को धर्म ध्यान से, धन को सुपात्र को दान देने से और कुल को सदाचार पालन कर सुशोभित एवं पवित्र करना चाहिये / अरिमर्दन राजा को इतने धर्मीष्ट समझ कर, राजा रत्नकेत ने : कहाकि 'आप प्रसन्न होकर मेरे घर में भोजन करें। रिमदन राजा का नारी-दुष इस पर राजा अरिमर्दनने कहा 'मैं नगर के मध्यमें कदापि नहीं जाऊंगा / क्योंकि यदि मेरे सामने कोई स्त्री आगई तो मैं स्वयं प्राण त्याग दूगा / इसलिये आप मुझको भोजन के लिये आग्रह न करें।' ___ राजा रत्नकेतु ने पुनः कहाकि 'मैं सब स्त्रियों को अपने घर में बन्द कर दूंगा और मेरी स्त्री भी मेरे कहने से गुप्त ही रहेगी।' इस प्रकार आग्रह देखकर अरिमर्दन को बात माननी पड़ी। इस प्रकार जब अरिमर्दनने बात मानली तब राजा रत्नकेतु अपने नगरमें आया और तत्काल नगर में अपने कथनानुसार व्यवस्था करदी / नगरको सुसज्जित करके और राजसी भोजन बनवाकर राजा रत्नकेतु अरिमर्दन को अपने घर लाया तथा पुरुष : से द्वष करने वाली राज कन्या के गृह के समीप में बने हुए "भोजन मण्डल में, पंखा आदि ढ़ाल कर अरिमर्दन राजा का अत्यन्त सन्मान किया। क्योंकि: P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित . "जल में शीतलता ही रस है, पर घर भोजन में आदर / प्रसन्नता रस वनिता जनमें, मित्रों का रस प्रम प्रखर // "" जल का शीतल होना ही रस है, दूसरे के अन्न में आदर ही रस है, स्त्रियोंमें आज्ञापालन ही रस है, मित्रों का वचन ही रस है / ______ नर द्वषी पुत्री के गृहमें ही उस अरिमर्दन राजाको विश्राम करने के लिये रत्नकेतु ने स्थान दिया / बाद में रत्नकेतुने पूछा कि 'हे राजन ! तुमको स्त्रियों से द्वेष क्यों है ? तब अरिमर्दन कहने लगा कि 'मुझको ऐसा पूर्व जन्म से ही है।' पुनः रत्नकेतु राजा ने अरिमर्दन राजा से अाग्रह पूर्वक कहा कि 'हे राजन् ! आप कृपा कर अपना पूर्व भव संबंधी वृतांत सुनाईये तब आग्रह वश होकर राजा अरिमर्दन अपना पूर्व भव सुनाइने लगा / कौतुक से नरोपिणी राजकुमारी भी गुप्त रूप से ' समीप में बैठ कर राजा का पूर्वभव सुनने लगी। ....... अपने पूर्व भव का वृतान्त सुनाते हुए राजा अरिमर्दनने कहाकि 'मलयाचल पर्वत पर चटक और चटकी दोनों अपनी इच्छा से रहते थे। तथा जल-पुष्प आदि से वे दोनों अपने कल्याण के लिये जिनमन्दिर में श्री आदिनाथ जिनेश्वर प्रभुकी पूजा करते थे। - एक दिन चटक ने कहा कि 'हे चटकी ! अब हमको घोंसला बना लेना चाहिये / चटकके इस प्रकार अनेक बार कहने पर भी जब चटकी ने कुछ नहीं माना और न कुछ किया ही; तब चटक ने वृक्ष पर अत्यन्त कष्ट सहन कर एक घोंसला बना P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 163 लिया / परन्तु वनमें अचानक दावानल लग गया / दावानल लगते हुए देख कर, चटक ने कहा कि 'हे चटकी ! जल लाकर इस घोंसले पर छिटको अन्यथा यह भी जल जायगा / बार बार कहने पर भी जब वह दुष्ट आशयवाली चटकी न उठी और न बोली ही बल्कि निश्चिन्त होकर बैठ गई / तब चटक श्री आदिनाथ प्रभुका ध्यान करता हुआ घोंसले पर जल सिंचने लगा। तब तक दावानल घोंसले तक पहुँच गया और वह चटक वहीं मृत्यु को प्राप्त हुआ। अरिमर्दन का ऐसा वृत्तान्त सुनकर राजा की कन्या विवारने लगी कि-'यह क्या मिथ्या बोलता है / मैंने तो इससे विपरीत ही पूर्व भवमें देखा था / ' सच ही कहा है कि 'अज्ञान से आवृत जीव, हित अथवा अहित, कुछ भी नहीं जानता है। जैसे धतूरा खाये हुए मनुष्य संसार को स्वर्णमय पीला समझते हैं। ऐसा विचारते हुए राजकन्याने कहाकि-'हे राजन् ! मिथ्या क्यों बोलते हो ? जलाशय से जल लाकर घोंसले को मैंने सिंचा था। - राजकन्या के ऐसा कहने पर अरिमर्दन ने तत्काल उत्तर दिया “नहीं मैंने सींचा था / " इस प्रकार दोनों, परस्पर अनेक प्रकार के विवाद करने लगे / अन्त में राजकन्याने पर्दे को हटाकर . जब राजा के मुख को देखा तब जैसे सूर्य से अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार उस राज कन्या का पुरुषों में जो द्वष भाव था वह नष्ट हो गया / Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरुजनविजय संयोजित अरिमर्दन राजाका नरद्वपिनी सौभाग्यवती के साथ विवाह____ राजा रत्नकेतु अपनी प्यारी राजकुमारी का पुरुष संबंधी द्वषभाव नष्ट हुआ देखकर बहुत प्रसन्न हुआ, बाद में राजा अरिमर्दन रत्नकेतु से प्रेम पूर्वक मिलकर चलने लगा तब राजकन्या, कहने लगी कि “पूर्व जन्म में यह मेरा पति था इसलिये इस जन्म . में भी यही मेरा पति हो, अन्यथा अग्नि ही मेरा पति होगा।" तब . अत्यन्त आग्रह करके राजा रत्नकेतु ने अच्छे उत्सव के साथ अपनी कन्या भी राजा अरिमर्दन को दे दी / कहा है कि "धन, सौभाग्य, पुत्र, राज्यासन, धर्म सभी कुछ देता है। दुर्लभ स्वर्ग मोक्ष भी-मानव, धर्मों का फल लेता है।" .."धन की अभिलाषा वालों को धन देने वाला, इच्छित . चाहने वालों को इच्छानुसार देने वाला, सौभाग्य चाहने वालों : को सौभाग्य देने वाला, पुत्र की चाहना वालों को पुत्र देने वाला; राज्यार्थियों को राज्य देने वाला सत्य धर्म ही है। कितनी बातें बताई जायें, जगतमें कौन ऐसी वस्तु है जो धर्म नहीं देता ? यह अत्यन्त अलभ्य स्वर्ग और मोक्ष का भी देने वाला है ?"* ... * धर्मोऽयं धनवल्लभेषु धनदः कामाथिनां कामदः / सौभाग्यार्थिगु. तत्प्रदः किमपर पुत्रार्थिनां पुत्रदः // राज्यार्थिष्वपि राज्यदः किमथवा नानाविकल्पैर्नृणाम् / तत्कि यन्न ददाति किं च तंनुते स्वर्गापवर्गावपि // 1140 // 8 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 165 राजाअरिमर्दनका सौभाग्यवती सहित अपनेनगरमें आना इसके बाद उस राजकन्या से विवाह करके राजा अरिमर्दन मेही की सहायता से रत्नपुरी में आगया / वहां मेही द्वारा की गई भक्ति से प्रसन्न होकर राजाने मेही को लक्ष्यमूल्य वाले चार मणि रत्न दिये तथा उससे प्रेमपूर्वक मिल कर चलता हुआ तथा तीर्थों की वन्दना करता हुआ अपने नगरके उद्यान में आया / मन्त्री ने नगर में तोरण आदि लगाकर सब प्रकार से नगरको सुसज्जित किया / जब अच्छे मुहूर्त में वाद्य आदि के साथ राजा नव विवाहिता स्त्री सहित नगरक राजमार्ग पर जा रहा था तब वाद्य का शब्द सुनकर रानी सहित राउ ५खन के लिये सब पुरुष तथा स्त्रियां अपना अपना कार्य जोड़कर मार्ग में एकत्रित होने लगे / अत्यन्त उत्सुकता के कारण कोई एक ही नेत्र में अञ्जन कर के, कोई आधे मस्तक में ही केश वेश करके, . कोई आधे मुख को ही मण्डित करके स्त्रियां वहां देखने के लिये शीघ्रता से आने लगी / राजा पदपद में दान देता हुआ, गीत, नत्य के साथ अपनी पत्नी सहित राजमहलमें पहुंचा / इस प्रकार सौभाग्य शाली राजा और रानी; दोनों का चन्द्रमा और. रोहिणी तथा शिव पार्वत जैसा सुन्दर योग हुआ इस तरह लोग मानने लगे। . . इसके बाद एक दिन स्वप्न में सूचना देकर कोई बहुत बड़ा पुण्यशाली जीव शुभ घड़ी में सौभाग्यवती के गर्भ में आया / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित में के प्रभाव से उस रानी को देवपूजा आदि की जो जो शुभ च्छायें होती थीं राजा उन्हें अच्छी तरह से पूर्ण करता था समय पूर्ण होने पर एक दिन शुभ मुहू त में सौभाग्यवती ने एक हुत सुन्दर बालक को जन्म दिया / राजाने जन्मोत्सव करके उस बालक का 'मेघ कुमार' नाम रखा / * वह बालक पञ्चधात्रियों से स्तन्नपान आदिसे पालित कर द्वितीया के चन्द्रमा के समान प्रतिदिन बढने लगा / क्योंकि छलता, गिरता, आनन्द दायक हँसता, लालाको गिगता हुआ सा पुत्र किसी किसो धल्या स्त्री के गोद में ही खेलता है। फिर राजा ने उस मेघकुमार को पढ़ाने के लिये लेखशाला में भेजा / वह पण्डित से धर्म, कर्म, आदि के अनेक शास्त्र ढ़ने लगा। क्योंकि आहार, निद्रा, भय, मैथुन ये सब तो पशु और [नुप्य में समान होते हैं / मनुष्य में ज्ञान ही एक विशेष है। शान से होन मनुष्य पशु के समान ही है। - इसके बाद चन्द्रपुर के राजा चन्द्र भूप की सुन्दरी मेघवता मकी कन्यासे शुभ मुहू तमें मेघकुमारका विवाह किया गया / ना वर और वधू सुन्दर वनमें श्री आदिनाथ जिनेश्वर प्रभु को णाम करने के लिये गये। परन्तु श्री आदिनाथजी की मूर्ति देखकर दोनों वधू और वर मूति होगये / शीतल उपवारों से स्वस्थ रने पर भी वे दोनों बोलते नहीं थे / राजाने मन्त्र-तन्त्र आदिसे हुत उपचार किया / परन्तु स्त्री सहित मेषकुमार कुछ भी नहीं ला / वैद्य लोग कफ, पित्त तथा 'वायु का विकार' कहते थे। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 167 ज्योतिषी लोग 'ग्रह का दोष' बतलाते थे / मन्न जानने वाले भूतका उपद्रव' कहते थे / मुनिजन पूर्व जन्म के 'कर्म परिणाम' कहते थे / केवलज्ञानी श्री गुणसूरिजी महाराज का आगमन__ इसी समय में उस नगर के उद्यान में श्री गुणसूरिजी संसारी प्राणियों को प्रबोध देने के लिये बिहार करते हुए पधारे / तथा उद्यानपालकफे मुख से सूरिजी का आगमन सुनकर राजा पुत्र वधू तथा पुत्र के साथ वन्दना करने के लिये वहां आये / सूरिजी महाराज ने देशना दी कि "पिता, माता, स्त्री, मित्र, पुत्र, स्वामी, सहोदर आदि इन सबसे धर्म श्रेष्ट है, धर्म नित्य है / यह मृत्यु होनेपर भी साथ जाता है; दुःख को नष्ट करने वाला है / परन्तु माता, पिता, आदि ऐसे नहीं हैं। प्राणियों के लिये धर्म महा मंगल कारक है। यह समस्त पीड़ाओं को नष्ट करने वाला है। माता के तुल्य है तथा समग्र अभिलाषाओं को पूरा करने वाला है / यह पिता के तुल्य है / नित्य हर्ष देने वाला है दान मित्र के तुल्य है। विपत्ति को नाश करने वाला है / शील-सुख को देनेवाला है / तप-शीघ्र पाप रूपी कीचड़ सुखाने के लिये आतप (धूप) के तुल्य है / सद्भाव ना-संसार का नाश करने वाली है।' इस प्रकार की धर्म देशना सुन लेने के बाद राजा ने पूछाकि "हे भगवन् ! मेरा पुत्र और पुत्रवधू किस दुष्कर्म के प्रभावसे नहीं बोलते हैं ? यह बताइये / " .. तब श्री गुणसूरिजी कहने लगे कि नहीं बोलने का कारण कहने पर दोनों ही गृहत्याग कर के संसार रूपी समुद्र को पार करने मुनि वाला व्रत धारण कर लेंगे।' P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 : साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित / राजा ने कहाकि "हे ज्ञानी गुरुदेव ! जो होना है वह होगा! परन्तु ये दोनों बोलने लगें ऐसा उपाय कीजिये / " मुनि द्वारा पुत्र व पुत्र-वधू का पूर्व-जन्म का वृतान्त तब श्री गुणसूरिजी कहने लगे कि "पहले इन दोनों के पूर्व जन्म का समाचार सुनों / पूर्व समयमें भीमपुर में शूर नामका एक अत्यन्त न्यायी राजा था / उसने शत्रु के वीरपुर नाम के नगर को भग्न किया तथा शत्रु पर विजय प्राप्त की थी। परन्तु कोई भट (सैनिक) सोम नामके श्रेष्ठी का रूप लावण्य वाले तीन वर्ष की अवस्था वाला धीर नामका पुत्र और दो वर्ष की अवस्था वाली वीरमती नामकी कन्या दोनों को लेकर अपने नगर को चला गया। तथा बात सा द्रव्य लेकर दोनों को कमलश्रेष्ठी को दे दिया / क्रमशः युवावस्था होने पर उन दोनों का विवाह करा दिया। वहां एक समय श्री धर्मघोप नामके ज्ञ। ये उनको प्रणाम करने के लिये कमल अपनी प्रिया के साथ वहां गया / उनका उपदेश सुनकर कमल ने पूछा कि "हे स्वामिन् ! इन दोनों-धीर और वीरमती का परस्पर किस प्रकारअधिकप्रेम होगया ?" तब उस जन्म का भाई बहन का सम्बन्ध बतलाने पर उन दोनों ने सुन्दर वन में जाकर तथा श्री आदिनाथ देव को प्रणाम करके और गृह का त्याग करके दीक्षा लेली / बाद में तीव्र तपस्या करके दोनों स्वर्ग को गये / इसके बाद स्वर्ग से च्युत होकर वे दोनों तुम्हारे पुत्र तथा पुत्र वधू हुए हैं / जातिस्मरण ज्ञान हो जाने के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P.P.AC.Gunratnasuri M.S. -EHAda Jun Gun Aaradhak Trust वहाँ एक समय श्रो धर्मघोष नामके ज्ञानी मुनि आगे ...... उपदेश सुनकर कमल ने पूछा कि " इन दोनों धीर और वीरमती का परस्पर किस प्रकार अधिक प्रेम हो गया ?" पृष्ट 168 (मु. नि. वि. संयोजित... .. विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 35) Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ اس کے سر برتر NIAN P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. 711 YAT INT ब E AGO A Jun Gun Aaradhak Trust RAGNI E-LRUS Immm श्री शत्रजय महातीर्थ के मार्ग पर प्रयाण और चतुर्विध सघ का मनोहर दृष्य / पृष्ट 180. (मु. नि. वि. संयोजित...... विक्रम चरित्र दूसरा भाग चित्र नं. 36 ) / Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग मी 166 कारण पूर्व जन्म का स्मरण करके दोनों ने मौन धारण कर लिया है। ___ यह सुनते ही राजा अरिमर्दन के पुत्र और पुत्रवधू दोनोंने सांसारिक मोह को त्याग करके, इस भयानक संसार समुद्र को. पार करने के लिये, गुरु के समीप दीक्षा व्रत ग्रहण कर लिया। अत्यन्त तीव्र तपस्या करके समस्त कर्म बन्धनों को नाश कर केवल ज्ञान को प्राप्त करके क्रमशः मोक्ष को प्राप्त करेंगे। क्योंकि 'जिस कम बन्धन को कोटि जन्मोंमें, तीव्र तपस्या से नष्ट , नहीं करते हैं, उसी को लोग समता का अवलम्बन घर के आधे क्षण में ही नष्ट कर देते हैं। क्षण म हा नष्ट कर दत हा इस प्रकार की धर्म देशना सुनकर राजा अरिमर्दनने पूछा कि 'हे गुरो ! मैंने ऐसा कौनसा पुण्य कार्य किया जिससे इस जन्म में मेरा सब कोई अभिलाषित सिद्ध हुआ एवं आश्चर्यकारी राज्य लक्ष्मी को पाया ?' __ तब गुरु ने कहा कि "तुमने पूर्व जन्म में श्री जिनेश्वरदेव की भावसहित पूजा की थी। इससे इस जन्म में तुम्हारे सब मनोरथ पूर्ण हुए हैं। ___ इस प्रकार राजा अरिमर्दन जिनधर्म का प्रभाव सुनकर तथा. श्री गुरुदेव के समीप सम्यक्त्व व्रत ग्रहण करके अपनी प्रिया के साथ घर पर आया / शुद्ध सम्यक्त्व के पालन करने से क्रमशः सब कर्म-बन्धनों को नष्ट करके मोक्ष को प्राप्त किया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहत्या में गत जनवजन स्यान अरब द्रव्य या सामन्य काट कर अन्दाष्टक अग्रज प्रगान यात्रा कर मनट प्रका याट रक शमान 6 र नया महनाज मादन्ट यात्र करमा छ मान समाचार र साथ प्रधान क मा का नाद का मार्ग अस्त र अत्तात ! मा हुन गुहार हात तरत और सात / / " * “जो सदा उत्तम मार्गअलत हैं तथा निट इंदना को मी श्रम मार्ग की और प्रत करते हैं इस प्रकार अयं संसार समुद्र से लेते हुए दूसरों को भी बात है। इस माझ पुरुषों के *अद्रा नुवं प्रथि यः प्रवतत प्रश्न्त यत्यन्यजनं अनिन्दः / स व संत्र्यास्त्रहितरिया गुरुः, स्वयं तरंस्तारयितुं पर हमः 1164 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उकार-न्द्रि द्वनच गम ई लामन कनें बाहर अल जन्मस्को ऋन्ह लाग देशाता है और में - "महावन अव अन्न और वजन्द्र 6 नंत बाद अन अन जानब कुन.. स्टा स्ट ल ल यान देंट नट है माता बहानाजान अन्तलाचन 3 लत में का नत्र म त बजार में प्राई छ अत्म अन्दर-मंत्र ऋ.ना व्यापक मान्न तर कदमट या बाहर क टनी भरकर ने अम बाइक कामन का.. शुक्रराज पुन महान मानत प्रहग क्र: जान्नयन पटक अन्त्र प्रकार संता ऋभुक मुनिवर काम का नाम कर वक्त ज्ञान प्राप्त किया / बहमें उन प्रवास विवरण ऋतं हम अनेक सत्र्य प्राणान्या को मोक्ष नागर स्थापन ऋ जन्म मरा हुल दूर कर में पचान . * महातबारात, भयमात्रामजाविनः / नानायिकस्था अमापदंशका गुरबो मतरः !! 1166 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित ___734 1 प्रकरण इक्तालीसवां ....... "स्मृत्वा शत्रुजयं तीर्थ, नत्वा रैवतकाचलं / स्नात्वा गजपदे कुण्डे, पुनर्जन्म न विद्यते // " . पाठक गण ! इस विक्रम चरित्रके दूसरे भाग के प्रथम प्रकरण से ही श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी भगवंत ने महाराजा विक्रमादित्य को धर्मोपदेश देते हुए श्री सिद्धाचल महातीर्थ का नाम शत्रुजय कैसे व कब पड़ा ? इसके उत्तर में श्री सूरीश्वरजी ने अनेक सुन्दर व रोचक कथाओं से भरपूर महाराज शुकराज का विस्तृत चरित्र सुनाया। यह सब हाल प्रकरण 33 वें से प्रारम्भ होकर४०वें प्रकरण तक आप भलिप्रकार ध्यानपूर्वक पढ़ गये होंगे। .. श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी भगवंत के मुखकमल से : महाराजा विक्रमादित्यने श्री शुकराज का अद्भुत चरित्र सुनकर अपने मन में यह निश्चय किया कि महातीर्थ श्री शत्रुजय की / : धर्म ध्यान पूर्वक, गुरुदेव श्रादि चतुर्विध श्री संघ के साथ पैदल यात्रा कर अपने मानव जीवन को अवश्य सफल बनाना चाहिए और इस निश्चय के अनुसार महाराज ने गत प्रकरणमें पूज्यपाद् श्री सूरीश्वरजी भगवंत को संघ के साथ पधारने के लिए भाव भक्ति पूर्ण नम्र प्रार्थना की। ..."हे गुरुदेव ! आप श्री ने जो महातीर्थ का माहतम्य फरमाया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग .173 - है और छ:रिक पालता हुआ पैदल चल कर, विधि पूर्वाक जो * प्राणी महातीर्थ की यात्रा करता है उसको अधिक पुण्य होता है। / अत यह सुनकर मैंने अपने मन में महातीर्थ की इसी प्रकार यात्रा करने का निश्चय किया है / अतः हे परम कृपालु गुरुदेव ! आप * भी श्री संघ के साथ पधारने की कृपा करें तो हमें बड़ी ही प्रसन्नता होगी ! क्योंकि एक कविवर ने ठीक ललकारा है: 'सगत कीजे संतकी, निष्फल कदीय न जाय / लोहा पारस स्पर्श से, कञ्चन से बढ़ जाय / / ' संसार रूपी सागर से जो तैराता है वही तीर्थ कहलाता है / तीर्थ दो प्रकार के बताये गये हैं / (1) स्थावर और (2) जंगम | स्थावर तीर्थ में श्री जिनेश्वर प्रभूजी की * 'पंच' कल्याणक भूमि तथा मूर्तिजिन मन्दिरी आदि समझनाचाहिये तथा जंगम तीर्थमें हिलते, चलते, बोलते आदि तीर्थ / इस तीर्थमें विचरते श्री तीर्थङ्कर प्रभू से लेकर श्री गणधर प्रभू, श्री केवली प्रभू, श्री आचार्य भगवंत, श्री उपाध्याव भगवंत और सब सामान्य गुरूदेव, साधु-साध्वी वर्ग का समावेश होता है। यह + छरि-(१) एकाहारी (2) भूमि संस्थारी (3) पादचारी . (4) शुद्ध सम्यकत्वधारी (5) सचित्त परिहारी (6) ब्रह्मचारी। * पंच कल्याणक (1) च्यवन (2) जन्म (3) दीक्षा (4) केवल ज्ञान प्राप्ति (5) और निर्वाण / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जन विजय संयोजित जंगम तीर्थचलता फिरता कल्पवृक्ष है / कल्पवृक्ष तो उसके पासमें जाने वाले व्यक्ति को ही इच्छित फल दे सकता है। परन्तु गुरू साधु भगवंत तो साक्षात् जंगम कल्पवृक्ष के समान है, उनके पास जाने वालोंको तो धर्मोपदेश रूप-ज्ञान फल अवश्य मिलता है / जिससे प्रत्येक प्राणी उस उपदेशके पालन से अपने भूत, भविष्य और वर्तमान के पापों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है / इसके अलावा जो प्राणी छोटेबड़े गांवों में बसते हैं उनके गांवों में जा जाकर, अनेक शारीरिक कष्ट भोगकर, हर प्राणी को धर्मोपदेश देने हेतु स्वयं साधु जन वहां पहुंचते हैं और उन प्राणियों को जाग्रत करते है / इससे इन प्राणियों को भी धर्म का ज्ञान हो जाता है और धर्माराधन कर ... ये प्राणी जन्म-जरा और मरणके भय कर कष्टों से छुटकर, मोक्ष धाम रूप परम शांति को प्राप्त कर सकते है / इसीलिए स्थावर कल्पवृक्ष तुल्य स्थावर तीर्थों से शास्त्रोंमें जंगम तीर्थ स्वरूप साधु "जन की अधिक महिमा बताई गई है।" ____ इस प्रकार महाराजा विक्रमादित्य की आग्रह पूर्ण भक्ति भाव से विनंती सुनकर पूज्य श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी महाराज ने भी श्री संघ के साथ आने की महाराजा को अनुमति दी / इससे महाराजा और भी अधिक उत्साहित हुए / पूज्य श्री सिद्धसेनदिवाकर सूरीश्वरजी की ओर से संघ के साथ आने की स्वीकृति जानकर महाराजा, मंत्री मडल एवं धर्म प्रेमी जनता अत्यत प्रसन्न हुई / बाद में सकल संघ को एकत्र कर श्री चतुर्विध संघ के सामने महातीर्थ श्री शत्रुजय की यात्रा करने की अपनी * P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 175 / इन्छा प्रदर्शित की, अपने अज्ञाकारी मंत्री मंडल एवं राज्य के सब अधिकारी वर्ग को श्री सव के लिये अति शिघ्र सामग्री जुटाने की आज्ञा प्रदान की ! महाराजा की आज्ञानुसार राज्य कर्मचारियों ने शीघ्र ही अनेक प्रकार की आवश्यक व्यवस्था एवं तैयारी करदी, दूसरी ओर अपूर्व उत्साह के साथ महाराजा ने अनेक अन्य राज्यों के राजाओं, सामंतों, श्रीमंतों, आचार्यों, साधू, साध्वी एवं समस्त धर्मप्रेमी जनता के नाम आमंत्रण पत्रिकाएं भेज दी! ____ महाराजा की ओर से आमंत्रित होकर इस संघ का अपूर्व लाभ लेने हेतु अनेक राजा, सामंत, श्रीमंत, आचार्य, साधू-साध्वी तथा अनेक साधारण धर्म प्रेमी गृहस्थ भी शीघ्र ही बड़े उत्साह के साथ उज्जयनी नगरी में प्रवेश करने लगे। दिनों दिन उज्जयनी में मानव समूह बढ़ने लगा / महाराजा ने भी अपनी नगरी में आने वाले आगन्तुकों का उदार भाव से स्वागत किया। आपने अतिथियों के लिए ठहरने, भोजन और विश्राम की समुचित :: व्यवस्था करदी। - उज्जयनी नगरी के महाराज की इस अपूर्व धर्म भावना का असर अवंती नगरी की प्रजा पर भी बहुत अधिक पड़ा / फलतः वहां को प्रजा ने भी बड़े ही उत्साह के साथ अपनी नगरी को बड़े ठाट बाट से सजाया / जगह जगह तोरण-पताका फहराती नजर आ रही है / चौराहों पर शहनाई आदि तरह-तरह के बाजों की मधुर ध्वनी सुनाई दे रही हैं / प्रत्येक गली के दोनों किनारों पर सुन्दर-सुन्दर द्वार बनाये गये हैं जो महापुरुषों के नाम से अलंकृत हैं / इस अपर्व अवसर का लाभ लेने में शायद ही कोई P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 साहित्यप्रेमी मुनि निरजनविजय संयोजित अवंति निवासी शेष रहा हो / नगर की महिलाए छोटे 2 समूह में अलग-अलग एकत्र होकर सुमधुर स्वर से प्रभु स्तवन, राज्य महिमा आदि के भाव पूर्ण गीत गा रही हैं / इस प्रकार आज की उज्जयनी नगरी को इन्द्रपुरी की उपमा दे दी जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। दर्शकगण तो प्रायः यह अनुमान लगा कर वहीं इन्द्रपुरी को साक्षात्कार मान उसका आनन्द ले रहे हैं। . . ... महाराजा विक्रमादित्य के संघ का अाज प्रयाण दिन है। मालव देश की प्राचीन राजधानी अवंतीपुरी में आज प्रातःकास से ही अद्भुत जागृति फैली हुई है। मानव मेदनी से सारी अवंती नगरी भर गई है / आज नगरी का कोई भी राज मार्ग ऐसा नहीं होगा जहां मानव मेदनी विशाल समुह में न हो / यहां आज बड़े-बड़े राज्य मार्ग भी संकीर्ण प्रतीत होते हैं। स्थान-स्थान पर मानव समूह आज की संघ यात्रा की बातें बड़े प्रेम पूर्वक करते नजर आ रहे हैं / महाराजा विक्रमादित्य की धर्मभावना की स्थान 2 पर प्रशंसा हो रही है और महाराजा की उदार वृत्ति के लिए धन्यवाद दिया गया, शुभ मुहुर्त और शुभ तिथि में महाराजा विक्रमादित्य ने सकल चतुर्विध संघ के साथ श्री अवंती पार्श्वनाथ जो भगवान को भाव पूर्णे नमस्कार कर नगरी के बाहर वाले उद्यान की ओर अपने पूज्याचार्य श्री सूरीश्वरजी भगवंत की आज्ञानुसार प्रथम प्रस्थान किया। ... श्री संघ का वर्णन करना इस निजि क्तो लेखनो के वश के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग.. . 177 बाहर की बात है / परन्तु पाठक गणों को तो इसका कुछ न कुछ रसास्वादन कराना आवश्यक है / अस्तु ! .. .. . . ____ जिस समय श्री विक्रमादित्य महाराजा का संघ प्रथम प्रयाण कर राज्य महल से निकला उस समय के जन समूह की गणना करना तो प्रायः असंभव ही प्रतीत होता है / सबसे आगे संघ में सुमधर ध्वनी वादन करते हुए अनेक प्रकार के वाद्य कलाकारों का समूह अनेक प्रकार की पोशाकों में सुसज्जित होकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए चल रहे हैं / उनके पीछे राज्य की चतुरगीनी सेना जो राजकीय सैनिक पोशाक में पंक्ति बद्ध बड़े मान के साथ अपने हथियारों सहित ठाट से चल रही है / ठीक सेना के बाद ही अनेक.पूज्याचार्य साधू समुदाय, अपने त्यागमय जीवन का प्रदर्शन करते हुए. बड़ी शांति से चलते नजर आ रहे हैं। . इसी साधू समाज के पीछे अनेक राजा, महाराजा, सामत, श्री मत तथा अन्य प्रजा-जन बड़े विशाल समूह में दिखाई दे रहे हैं। इसी समूह में और साधू समाज के ठीक पिछे के भाग में संघपति महाराजा विक्रमादित्य दिखाई दे रहे हैं / महाराजा के गले में पुष्पहारों का ढेर लगा है ! केवल पुष्प-हारों के बीच महाराजा का मुख पूर्णिमा के चांद की भांति सुशोभित हो रहा है और सिर पर का मुकुट चंद्रमा की कलाओं की पूर्ति कर रहा है। : .. ..: महाराजा के हाथों में रत्न जड़ित श्रीफल सुशोभित हो रहा Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरजनविजय संयोजित है। सुन्दर वेष भूषा से महाराजा आज बड़े ही सुन्दर दिखाई रहे हैं। आज का दिवस महाराजा विक्रमादित्य के तथा प्रजाजन के लिए धन्य है / समूह के अंत में साध्वीगण तथा महिला-समाज का विशाल समूह चल रहा है / समूह बीच महिला-समाज अपने कोकिल कंठसे सुमधुर स्वर द्वारा गीतगान गाताइआ दृष्टिगोचर हो स. 21 समूह के प्रध्य में राज्यशाहो ठाट के साथ सुन्दर वेश भूषा युक्त होकर, आभूषणों को अपने कोमल तन पर सुशोभित कर महाराजा की रानियों का समूह स्त्री समाज की शोभा बढ़ाते हुए महाराजा के पद चिन्हों का अनुसरण करते हुए चलता जा - उपरोक्त विशाल मानव सघ के साथ महाराजा विक्रमादित्य का यह शानदार. जलम संघ रूप में अपनी धार्मिक भावनाओं को एकत्र कर के धर्म-कर्म करने निमित्त प्रभुभक्ति में लीन होता जा रहा है। जिनका आज प्रथम विश्राम अवन्ती नगरी के बाहर वाले उद्यान की शोभा बढ़ा रहा है / यह उद्यान मालव देश की विशाल पवित्र क्षिप्रानदी के तट पर स्थित है। 14.1 . पाठक गरण ! महाराजा विक्रमादित्य के संघ के इस वणेन का समस्त हाल पढ़ कर कहीं आश्चर्य में न पड़ जाय / शका होना मानव स्वभाव है.। परन्तु प्रमाण मिलने पर उसे बुद्धिमान अपने हृदय में स्थान नहीं देते / अस्तु / वर्तमान काल में समाचार पत्र पढ़ने वाले हर-समय के समाचारों से परिचित रहते हैं। उन्हें P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 176 देश में घटनेवाली घटनाओं का ज्ञान रहता ही है / अतः उपरोक्त संघ की पुष्टी में वर्तमान काल का प्रसंग यहां देना अनुपयुक्त नहीं होगा। - गत वि० सं० 1661 में अहमदाबाद निवासी सेठ माणकलाल मनसुखलाल भाई ने शासन सम्राट पूज्याचार्य देव श्रीनेमिसूरीश्वर जी महाराज की अध्यक्षता में श्री सिद्धाचल महातीर्थ तथा गिरनार तीर्थ का एक संघ निकाला था / इस संघ का वर्णन करना तो सूर्य को दीपक दिखाने के तूल्य है। कारण कि जो आनन्द प्रत्यक्ष दर्शन में आता है वह लेख द्वारा नहीं / एक प्रत्यक्ष दर्शक के कथनानुसार यह संघ अहमदाबादसे रवाना होकर कई ग्रामों में होता हुआ जा रहा था / प्रत्येक ग्राम के जिनालय में पूजा, आंगी प्रभावना का लाभ संघपति बड़े उत्साह के साथ लेते / प्रत्येक कार्य की व्यवस्था बड़ी सुव्यवस्थित थी। जहां भी विश्राम होता वहां संघ के लिए एक दिन पूर्व ही संपूर्ण व्यवस्था हो जाती / ग्रामों ग्राम नौकारसी आदि बड़े 2 भोजों का आयोजन होता जिसमें 20,000 हजार तक मानव समुह भाग लेता / इस संघ की व्यवस्था तो वास्तव में बड़ी ही चित्ताकर्षक थी। जहां संघ विश्राम करता था वह मैदान करीब 2-3 मील के घेरे को रोक लेता था / संघ के स्थान को देखकर दूर से यही ज्ञान होता था कि यह तो कोई राजकीय छावनी पड़ी हुई है। वास्तव में वह एक धर्मराज की छावनी थी जो अधर्मराज के विरुद्ध धर्म कार्य कर धम की विजय दुन्दुभी बजा रही थी। हा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित NA संघ के विश्राम स्थान पर एक मुख्य द्वार-लगा होता था जिस पर सुन्दर अक्षरों में श्री 'मनसुखनगर' शब्द शोभा दे रहे थे। वास्तव में वह विश्राम स्थान एक नगरीके तूल्य ही था / नगरी में जो भी जनता के आवश्यकता को वस्तुए होती है वह सब सघ. . के साथ. उस स्थान पर लग जाती / जैसे कि डाकखाना, दवाखाना, बैंक; पुसीस स्टेशन आदि / केवल ये लगने से ही इसका कोई अर्थ नहीं निकलता बल्कि उसका वह पूर्ण रूप से कार्य भी करते थे। ...... प्रवेश द्वार से करीब आधा मील के फांसले पर एक विशाल मंडप दृष्टिगोचर होता था। जहां जाने पर ज्ञात होताकि यहांतो कोई पवित्र तीर्थ है और वास्तव में वह सघ एक चलता-फिरता पावन तीर्थ ही था / संघपति की उत्तम व्यवस्था के अनुसार चांदी के जिन मन्दिर और मेरूप त संघ के साथ था / वह जगह जगह पर संघ के विश्राम स्थान पर लगा दिये जाते थे। प्रातःकाल संघ के लोग बड़े प्रेम से संघपति सहित प्रभु पूजा का यहांआकर सबलोग लाभ लेते तां शाम को प्रभु भक्ति की सदा ही धूम लगती / स्थान स्थान से आई हुई सगीत मन्डलियों ने तो यहां प्रभु भक्ति का अपूर्व दृश्य उपस्थित कर दिया था। : -- संघ का विश्राम स्थान कई भागों में विभक्त होता था / जिनमें से. मुख्य 2 भागों का वर्णन करना अनुपयुक्त न होगा। श्रीजिनेश्वर देव के मन्दिर के दोनों ओर सामने ही विशाल तम्बू लगे होते थे। जिनमें एक ओर तो अपने कुटुम्ब सहित संघपति रहते और दूसरी ओर अनेक साधू समुदाय के सहित शासन सम्राटः आचार्य P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरिज द्वितीय भाग 181 देव श्री विजयनेमि सूरीश्वरजी म. सा० आदि अनेक सूरीश्वरजी सह परिवार विराजते थे / इस श्री संघ में पूज्य श्री सागरानंद सूरिजी, श्री मोहन सूरिजी. श्री मेघ सूरिजी आदि करीबन 800 सौं साधु-साध्वीजी महाराज का समुदाय साथ था / आचार्य देव. शाम प्रतिक्रमण, व्याख्यान आदि होता। . . दूसरे भाग में भोजनालय था / यहां करीब 20,000 व्यक्तियों का भोजन होता था। पास ही में अलग स्थान पर तपस्वियों के भोजन की व्यवस्था थी जैसे कि आम्बील एकासना श्रादि / भोजनालय के पास ही बड़ी पवित्रता के साथ जल व्यवस्था थी। गरम और शीत दोनों प्रकार का जल नियत समय पर तैयार मिलता। जल स्थान के ठीक पीछे की ओर स्नानागार था जहां से एक सीधा मार्ग जिन मन्दिर की ओर जाता। ताकि स्नान कर लोग पूजा का लाभ ले सके / - विश्राम स्थान के मध्य भाग जो कि 'माणक चौक' के नाम से प्रसिद्ध था; उसके चारों रास्तों पर बाजार लगता / प्रत्येक वस्तु के नियमित भाव से मिलने की व्यवस्था थी। पास ही डाकखाना और बैंक के तम्बू लगे थे। और उनके पीछे की ओर उनके कर्मचारियों के निवास के तबू थे ! विशाल संख्या से जुड़ा हुआ मुंबई का "श्री स्वयं सेवक मडल" भी अच्छी तरह यात्रीगण की सेवा करते थे। . .... .... . - किनारे पर राजकीय पुलिस के तंबू थे / नियत समय के अनु P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविज संयोजित सार सिपाही अपनी अपनी ड्यूटी देकर संघ की रक्षा का भार संभः लते। पुलिस विभाग समय 2 पर अनेक राज्यों के आने से और बढ़ गया था। रास्ते में धांग्रधां, भावनगर, पालीताना आदि राज्य आने से उनके महाराजाओं ने भी श्री संघ की ओर भक्ति भाव से प्राकर्षित होकर अपनी सिपाही-सेना भेज कर संघ की रक्षा का भार और भी अधिक सरल व सबल बनाया / / ___ स्त्री समाज के लिए तो अलग ही सुन्दर व्यवस्था रहती। किसी भी कार्य में स्त्री-समाज और पुरुष समाज में भेद भाव नहीं बर्ता नाता पर उनकी व्यवस्था अलग अवश्य होतो / स्त्री समाज में किसी भी पुरुष को आवारा फिरने का कतई अधिकार नहीं था। पूजा, प्रभुभक्ति, सामायिक प्रतिक्रमण, व्याख्यान आदि के लिए स्त्री समाज के लिए अलग ही पूर्व से निश्चित स्थान कर दिये गये ताकि उन स्थानों का उपयोग केवल स्त्री-समाज ही ले सके। . .. . .: जब संघ अपने विश्राम स्थान से प्रातः प्रयाण कर आगे की ओर चलता उस समय का दृश्य बड़ा ही मनोहर था। मीलों तक श्री संघ के मानव समुह की पक्तिये दृष्टिगोचर होती / इस समुह में करीब 2000 बैलगाड़ी, घोड़े, रथ, मोटर आदि भी थे ताकि संघ में सम्मलित वृद्ध धर्म प्रोमियों को तथा छोटे बड़े अन्य लोगों के असबाब आदि को ढोने का काम सरलता पूर्वक हो जाय / संघ-पति साधु समुदाय के पीछे कर बद्ध श्रीफल लिए बड़े शान्त भाव से करीब 20 हजार सघ साथियों के साथ चलते दृष्टि P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम--चरित्र द्वितीय भाग 183 गोचर होते थे / जय-जयकार के नारों से समस्त आकांश मंडल गूज उठता / इन जयकारों के आगे श्री संघ के आगे चलने वाले वाद्य समूह के बाजों की आवाज भी कमजोर पड़ जाती थी! . वास्तव में यह संघ वर्तमान काल का एक अपूर्व आदर्श था / धन्य है उन धर्म प्रेमियों को जिन्होंने इस असंवभ कार्य को भी संभव कर अपने साथ-साथ अनेक धर्मानुयायियों को धर्म का 'लाभ, प्रभू दर्शन का लाभ, साधू समाज के दर्शन तथा संघ के दर्शन का लाभ देकर उनका जीवन अपने साथ 2 सफल बनाया। __ पाठक गण ! वर्तमान काल में जबकि आज कल जगह 2 धर्म विरोधी भावना को उत्तेजना दी जारही है, अनेक पापाचार पनप रहे हैं वैसे समय में भी इस प्रकार के महान् धर्म कार्य करने व कराने वाले होते हैं तो भला वह भारत का स्वर्ण युग तो विश्व विख्यात है जबकि भारत सोने की चिडिया कहलता था। वैसे समय में अगर विक्रमादित्य जैसे महाराजा का एक महान् 'विशाल संघ इस प्रकार का हो तो कोई नवीन व आश्चर्य जनक बात नहीं। आशा है आप अब अपने मन में तनिक भी सन्देह को स्थान न देकर विक्रमादित्य महाराजा के सघ समूह को कल्पित न मानेगे। - इसके साथ-साथ अगर आजकल के भी भारत के पूर्व उत्सवों की ओर तथा मेलों आदि की ओर भी दृष्टि डाली जाय तो वह जानकर भी हमें रोमांच हुए बिना नहीं रहेगा / * .. *. भारत का प्रथम स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस, महात्मा गांधी के अग्नी संस्कार का दृश्य, भारत के प्रसिद्ध कुम्भ P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित के मेले का वर्णन आदि के समाचार, समाचार पत्रों में पढ़ने वाले महानुभाव तथा भारत की प्रसिद्ध नगरी बम्बई, राजधानी दिल्ली और कलकत्ता आदि जैसे नगरों के निवासी यह भलि प्रकार जानते हैं कि इन उपरोक्त अवसरों पर भी कितने विशाल समूह में मानव-भेदनी एकत्र होती है / जिसको सख्या करना तो दूर रहा पर अनुमान तक लगाने में बड़ी कठिनाई प्रतीत होती है / सरकार के व्यवस्था करने वाले कर्मचारी, पुलिस, रेल आदि के कार्य कर भी असफल हो जाते हैं। मानव समाज पर काबू पाना मुश्किल होजाता / यह सब जानकर भी अगर हम अपने पूर्व परिचित राजा महाारजा विक्रमादित्य के संघ की विशाल मानव मेदनी के विशाल समूह पर भी शंका कर बैठे तो फिर यह दोष तो किसे दिया जाय फिर तो कर्म की विचित्रता ही माननी होगी। राजा विक्रमादित्य का विशाल संघ के साथ प्रयाण__ महाराजा विक्रमादित्य के संघ में महान् चौदह बड़े बड़े मुकटधारी राजा थे। सित्तर लाख शुद्ध श्रावकों के कुटुम्ब थे। श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी आदि क्रियाकलाप में कुशल और सद्गुणी पांच सौ. जैनाचार्य सह परिवार भी तीर्थ बन्दना करने हेतु महाराजा विक्रमादित्य के साथ थे / छः हजार नौ सौ सुवर्ण के श्रेष्ट देवालय तथा अत्यन्त मनोहर तीन सौ चाँदी के देवालय थे। पाँच सौ हस्तिदन्त के देवालय और अठारह सौ काष्ठ के देवालय भी संघ के साथ थे। दो लाख नौ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N (सु. नि. वि. संयोजिन... ... निकम चरित्र दसरा भाग चित्र नं. 38) राजकुमार ने सन म साचाकि इस वानर का खाकर व्याघ्र अपन स्थानका चला जायगा और मैं अपने स्थान चला जाऊंगा!" पृष्ट 193 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155748 2 HEROERTERE PATHOSALM DINARY 5 .4 INS .. TION Sakal 0.7 Jun Gun Aaradhak Trust DEPALI i KOSTALE SERIES SHA ARSHA 2. 10 S 719 A P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. CHAN . श्री जिनेश्वरदेव को प्रणाम करने के लिये भाव मक्ति सहित तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय गिरिवर पर श्री चतुर्विध संघ अति उत्साह से चढ रहा है। पृष्ट 185 (मु. नि. वि. संयोजित...... विक्रम चरित्र दुसरा भाग चित्र न. 37) Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग , " . . सौ रथ, अठारह लाख घोड़े, छः हजारः हाथी, खच्चर, ऊँट वृषभ आदि तथा स्त्री पुरुषों की संख्या की तो कोई गणना नहीं थी / . . art देवालय के पताकाओं में लगी हुई किंकिणियों (घुघरीयां) के मधुर शब्द जैसे समस्त देश के संघों को आमंत्रित करते हों इस प्रकार लगते थे / विक्षालस्कन्ध, सुन्दर आकृति तथा अनेक आभूषणों से भूषित. हस्ती के समान गतिवाले वृषभ रथको धारण करते थे। देवालय के चारों कोणों पर दिव्य रूप वाले सुन्दर आभूषणों से सुशोभित मृग के समान नेत्रवाली स्त्रियां चामर लेकर खड़ी थी / श्रीजिनेश्वर प्रभु के गीतों को मधुर ध्वनि से गाति हुई चामर को बुला रही थी। - इस प्रकार स्नात्र पूजा, ध्वजारोपन आदि करता हुआ तथा प्रभावना देता हुआ चतुविध श्री संघ एक गांव से दूसरे गांव चलता चलता महाराजा विक्रमादित्य श्री संघ के सहित श्री शत्रुञ्जय महातीर्थ के समीप पहुच गया / तरण तारण, परमपवित्र श्री शत्रुजयगिरीराज का दूर से दर्शन करते ही गजा विक्रमादित्य और सकल संघ के यात्रिक गण भाव उल्लास से नाच उठे और आज का दिन अतीव उत्तमोत्तम मनाने लगे / प्रेम भाव से गिरिराज की वन्दना की। बाद में श्री शत्रुञ्जय की तलेटी में संघ अति उत्साह से धूमधाम पूर्वक आ पहुँचा / याचकों को यथेच्छ दान देता हुआ श्री जिनेश्वरदेव को प्रणाम करने के लिये श्रीशत्रुञ्जय गिरिराज पर चढ़ा / स्नात्र पूजा, ध्वजारोपण, आदि P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 साहित्यप्रेमी मुनि निरज्जनविजय संयोजित भाव भक्ति से सब कार्य करके श्री जिनेश्वर प्रभु की स्तुति में भक्ति पूर्वक गाने लगे:-- . . . 'हृदय बीच जिसके तुम प्रभुवर ! वास बनाकर रहते हो। उनके पाप नष्ट करके प्रभु, ज्ञान रत्न रब देते हो सुर असुरों के आनन्द दायी, मुख है कगल सदृश तेरा जिसको देख कृतार्थ हुये हम नष्ट हुआ दुख सब मेरा / / ' 'देव, असुर, महीपति आदिके मस्तक समूहों से प्रणाम किया गया है जिसके चरण को-ऐसे शत्रुञ्जय पवत के मुकुट मणिस्वरूप श्री ऋषभदेव भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ / ' हे प्रभो ! जो मनुष्य तुम्हारे चरण कमल का सेवन करते हैं, उनकी देव, दानव, राजा सब कोई भक्ति पूर्वक सेवा करते हैं / * और भी कहने लगे कि-- ____"हे प्रभो ! जिसके हृदय में आप प्रतिदिन वास करते हो, उसके हृदय में जिस प्रकार सूर्य के उदय होने से अन्धकार नाश होता है उसी तरह आपके निवास से उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं। हे नाभिराज पुत्र ! देव, दानव सबको सुख तनोषि वं विभो ! यस्य : मानसे वास मन्यहम् / - - तस्य पापानि गच्छन्ति तमांसीव दिनोदयात् / / 12148 र निरोक्ष्य त्वन्मुखाम्भोज सुरासुर सुखप्रदम् / कृतार्थो हम भूवं श्री नाभि पाल नन्दन ! ॥१२१शा।।। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग wwwwwwwwwwwww देने वाले तुम्हारे मुख को देखकर मैं कृतार्थ हो गया हूं। हे सुवर्ण के समान शरीर कान्ति धारण करने वाले प्रभो! मुझको अपने चरणों में स्थान दो", इस प्रकार की स्तुति बड़े भक्ति भाव से की / प्रभुदर्शन, चैत्यवंदन आदि करके सूरिश्वरजी के साथ मन्दिर व्यवहार के चोक में आये ! .... .. कई प्रसादों को जीर्ण और कुछ भाग गिरा देखकर राजा विक्रमादित्य ने श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी से कहा कि 'हे गुरू देव, क्या ये प्रासाद गिर जायेंगे ?' श्री शत्रुञ्जय पर मंदिर का जिर्णोद्धार-... - आचार्य श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी ने कहा कि 'हे राजन् ! श्री जिनेश्वरदेवों ने नवीन जिन मन्दिर बनाने का अपेक्षा जीर्णोद्धार में आठ गुना अधिक पुण्य शास्त्रों में कहा है। कई लोग बड़े 2 नये मन्दिर अपनी ख्याति के लिये बनवाते हैं। कोई पुण्य के लिये तथा कोई कल्याण के लिये बनवाते हैं / परन्तु नवीन मंदिर बनाने की अपेक्षा जीर्णोद्वार में इससे आठ गुणा अधिक फल प्राप्त होता है। जीर्णोद्धार से बढकर जिन शासन में दूसरा कोई भी पुण्य कार्य नहीं है / पूर्व काल में इस महातीर्थ पर महाराजा चक्रवर्ती भरत ने श्री ऋषभदेव भगवान का मणि और चांदी मय भव्य प्रासाद बनवाया था। तथा द्वितीय चक्रवर्ती राजा सगर ने इस तीर्थ पर श्री आदिनाथ भगवान का भव्य मन्दिर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 साहित्यप्रमो मनि निरञ्जनविजय संयोजित बनवाया था। पूर्व काल में अनेक राजा, धनाढ्य व्यक्तियों ने बहुत द्रव्यों का व्यय करके अनेक प्रासाद बनवाये थे। .... / इसके बाद महाराजा विक्रमादित्य ने शत्रुज्जय तीर्थ में श्रेष्ठ कीर काष्ठकों से प्रासाद का उद्धार करवाया / फिर बादमें वहां से प्रस्थान करके राजा विक्रमादित्य सकल संघ के साथ श्री नेमिनाथ प्रभु को प्रणाम करने के लिये गिरनार महातीर्थ पर आये। वहाँ भाव भक्ति पूर्वक स्नात्र पूजा, ध्वजारोपण, आदि कार्य करके हर्ष पूर्वक श्री नेमिनाथ भगवान की अनेक प्रकार से स्तुति करने लगे। इस प्रकार विस्तार पूर्वक दोना महातीथों की यात्रा करके राजा विक्रमादित्य उत्सव के साथ वापस अवन्तीपुरी में लौटा / श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वर जी से धर्म कथाओं का श्रवण करते हुए अपने जन्म को सफल बनाया। उत्तम साहसिकों में अग्रणी, राजा विक्रमादित्य न्याय माग से पृथ्वी का पालन करते हुए, दान धर्म में सदा परायण रहने लगा। . . विक्रमादित्य की राजसभा में एक दीन मनुष्य का आना... एक दिन सभा में एक गरीब मनुष्य को आये हुए देखकर तथा कुछ बोलतेहुए नहीं देखकर राजा सोचने लगाकि स्खलित गति, दीन स्वर, खिन्न गात्र, अत्यन्त भय-ये सब जो मरण के ...चिन्ह हैं, वे ही चिन्ह याचक में भी होते हैं / इसके बाद दयार्द्र होकर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 186 उस दीन मनुष्य को राजाने एक हजार स्वर्ण-मुद्रा का दान दिया / * जब दान देने पर भी वह दरिद्र मनुष्य कुछ भी नहीं बोला तब राजा विक्रमादित्य ने पूछा कि "तुम बोलते क्यों नहीं हो ?" ___ तब वह दीन वाणी से बोलाकि "लज्जा बोलने से रोकती है और दरिद्रता मांगने के लिये कहती है / इसलिये मेरे मुख से दो' इस प्रकार की वाणी नहीं निकलती है।" / उस दीन नमुष्य की इस प्रकार की दीन वाणी सुनकर राजाने शीघ्र ही पुनः दस हजार स्वर्ण मुद्रा और दिलायी। ... कोई चमत्कार करने वाली बात कहो, इस प्रकार राजा के कहने पर वह कहने लगाकि- .. "शरीर से बाहर नहीं निकलने वाली आपके शत्रुओं की कीर्ति को कवि लोग असती याने व्यभिचारिणी कहते हैं। परन्तु स्वतन्त्र होकर तीनों लोक में भ्रमण करने वाली अापकी कीर्ति को सती कहते हैं / तात्पर्य यह है कि आपकी कीर्ति अन्यों की अपेक्षा अतीव उत्कृष्ट है / अतः इसको कोई वश में नहीं कर सकते / क्योंकि सती स्त्री अपने पति के सिवाय आजीवन, अन्य किसी के भी वश में नहीं होती। 8 . . * अनिस्सरन्तीमपि देहगर्भात्कीर्ति.. परेषाजसती वदन्ति / स्वैरं भ्रमन्तीमपिच त्रिलोक्यां त्वत्कीर्तिमाहुः कवयः सतींतु / 1242 / 8 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 साहित्यप्रेमी मुनि निरजनविजय संयोतिज दीन मनुष्य की इस प्रकार की श्रेष्ठ अर्थ गाम्भीर्य पूर्ण वाणी को सुनकर राजा ने प्रसन्न होकर एक लाख स्वर्ण मुद्रा और दी। दीनपुरुष द्वारा नंदराजा की कहानी का कहना -- राजा के पुनः कहने पर वह दीन पुरुष चमत्कार करने वाली एक बहुत बोध दायक कथा सुनाने लगा / 'राजा लोग कुलोनों का संग्रह करके राज्य करते हैं / आदि मध्य तथा अत कहीं भी वे विकार को प्राप्त नहीं करते / विशाल पुरी में एक नन्दराजा राग्य करता था / उसकी रानी का नाम भानुमति था / उसके विजय नामका पुत्र था / सकल नीति शास्त्र में पार गत बहुभ त नामका एक मन्त्री था। तथा अनेक शास्त्र के रहस्य जानने वाला शारदानन्दन नामका गुरु था / .. राजा सभा में सदा रानी भानुमती को साथ में रखता था / एक दिन राजा को मत्री ने कहाकि हे राजन् ! यह आप उचित कार्य नहीं करते हो / क्योंकिः-- -- 'मत्री मैद्य गुरुजन जिसके प्रिय प्रिय वचन सुनाता है। कोश देह धर्मों से वह नृप नष्ट भ्रष्ट हो जाता है।' * वैद्योगुरूश्च मन्त्री च यस्य राज्ञः प्रियंवदाः / शरीरधर्मकोशेभ्यः क्षिप्रं स परिहीयते / / 1246 / / 8 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग . "वैद्य, गुरु, मन्त्री ये सब जिस राजा के प्रिय बोलने वाले ही रहते हैं, वह राजा शरीर, धर्म, कोष भंडार से शीघ्र ही क्षीण होजाता हैं तथा निम्र वस्तुओं से कुछ दूर रहने पर अधिक फल देने वाले होते हैं:-जैसे राजा, अग्नि, गुरु, स्त्री, इन सबका सेवन मध्य भाव से करना चाहिये / अर्थात् इनके अत्यन्त समीप रहने से स्वयं को नुकसान पहुंचाने वाले होते हैं। .. तब राजाने कहाकि 'हे मंत्रिन् ! तुमने ठीक कहा परन्तु मैं राणी के बिना एक क्षण भी यहां नहीं रह सकता हूँ / ' तब मंत्री ने कहाकि 'हे स्वामिन् ! श्राप रानीजी का एक सुन्दर चित्र / बनवाकर सभा में समीप रखो / ' इस प्रकार मंत्री के कहने पर राजा ने चित्र बनाने वाले को अपनी स्त्री को दिखलाया और चित्रकार ने उसका आबेहूब चित्र बना दिया / ____इसके बाद राजाने अपनी रानी के चित्र को शारदानन्दन गुरू को दिखाया / तब गुरु ने कहा चित्र में रानी के जानु साथल के भाग में जो तिल का चिह्न है सो इस चित्र में नहीं दिखाया है। यह आश्वर्य कारक वचन सुन राजा मन ही मन चकित होकर किसी और की सलाह लिये बिना हो व्यभिचारी की आशंका से क्रुद्ध होकर शारदानन्दन गुरु को मारने का कार्य गुप्तं रुप से 'बहुश्रु त' मंत्री को सौंपा और मंत्री ने दीघ विचार कर गुरु को भूगर्भ में छिपा दिया। इसलिये कहा है कि पण्डितों को अच्छा या बुरा काम करते समय उसके परिणाम-फल की चिन्ता अवश्य करनी चाहिये, क्योंकि - " ' Jun Gun Aaradhakrish P.P.AC.Gunratnasuri M.S Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित * अत्यन्त वेग में किये गये कार्यों से विपत्ति आने पर उसका परिणाम शूल के समान हृदय में पीड़ा देने वाला होता है। राजा पर नयी आपत्ति- इसके बाद एक दिन राजपुत्र विजयपालक शिकार खेलने के लिये वनमें गया / वह अशिक्षित अश्व पर आरूढ होकर मृग के पीछे वनमें दौड़ते 2 बहुत दूर निकल गया जब अपने सब सेवक बहुत पीछे रह गये तब व्याघ्र को आते हुए देखकर भयसे भय त होकर वह वृक्ष पर चढ़ गया / उस वृक्ष पर व्यंतराष्टित एक बानर था / उसने कहा 'हे राजकुमार ! अब कुछ भी डरो नहीं / हम दोनों के यहां रहने पर यह व्याघ्र हम लोगों को क्या कर सकता है ?' इस प्रकार वह राजपुत्र और वानर दोनों मैत्री भाव को प्राप्त करके वृक्ष पर बैठे हुए थे / वह व्याघ्र भी उसी वृक्ष के नीचे उपरोक्त दोनों को खाने की इच्छा से बैठ गया। * जब सोते हुए राजकुमार को गोद में लेकर वानर बैठा था तब उस व्याघ्र ने कहाकि 'हे वानर ! मुझको बहुत भूख लगी है। इसलिये राजपुत्र को नीचे गिरा दो जिसको खाकर मैं सुखी होजाऊं और चला जाऊ / ' वानर ने कहाकि 'इस समय यह मेरे आश्रय में है अतः मैं इसे नहीं गिरा सकता हूँ। तब व्याघ्र ने कहाकि 'मनुष्य जिसका आश्रय लेते हैं उसीके घातक होते हैं।' इसके बाद जब राजकुमार जगा और वानर सोने लगा तो Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग 163 राजकुमार वानर को गोद में लेकर बैठा / तव व्याघ्र कहने लगा कि 'हे राजपुत्र ! मुझको इस समय बहुत भूख लगी हुई है इसलिये यह वानर मुझको देदो और तुम सुखी होजाओ।' तब राजकुमार ने मन में सोचाकि 'इस वानर को खाकर व्याघ्र अपने स्थान को चला जायगा और मैं अपने स्थान चला जाऊंगा।' इस प्रकार सोचकर उस स्वार्थी राजकुमार ने अपनी गोद से उस वानर को नीचे गिरा दिया। ___ बाघ के मुख में गिरता हुआ वह वानर हंसकर चालाकी पूर्वक शीघ्रता से पुनः राजपुत्र के पास पहुँचा और वहां जाकर अत्यन्त करुण स्वर से रोने लगा। ___ व्याघ्र ने पूछा कि 'हे वानर ! यहां भयस्थान में आकर तुम क्यों हंसे और मित्र के समीप जाकर इस प्रकार क्यों रोते हो ? वानर ने कहा कि 'हे बाघ ! मित्र द्रोह के पाप से यह मेरा मित्र नरक में जायगा / इसीलिये मैं रो रहा हूं और कोई कारण नहीं / ' यह बात सत्य है-ऐसा कहकर व्याघ्र निराश होकर अपने स्थान को चला गया / फिर बाद में राजकुमार को वानर ने 'विसेमेरा' इत्यादि पाठ सिखा दिया हो इस तरह राजकुमार पागल की तरह 'विसेमेरा' शब्द को ही सतत बकते बकते जंगल में घूमने लगा। .. . . इधर राजकुमार का. 'अश्व' व्याघ्र के डर से अपने नगर में जाकर 'हेषा' रव करने लगा / राजपुत्र से शून्य घोड़े को देखकर सब राजपरिवार अत्यन्त चिंतातुर होगया / नौकर चाकर सहित P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित * सहित राजा उसको खोजने के लिये वनमें चल दिया / अनुचरों ने राजकुमार को पागल के समान 'विसेमेरा' इत्यादि शब्द बारम्बार बोलता देखा। - अतः यह भूत आदि से डर गया है यह उन्हें निश्चय हो गया। उस पागल राजकुमार को राजा के समीप ले आये। उसे देखकर राजा अत्यन्त दुःखी हुआ। इसके बाद अनेक प्रकार के उपचार करने तथा कराने पर भी जब राजपुत्र को कुछ भी लाभ नहीं हुआ। तव राजा बोलाकि 'यदि मैंने शारदानन्दन गुरु का वध कराया न होता तो वह मेरे पुत्र को शीघ्र ही स्वस्थ कर देता / ' इस प्रकार राजा अपने अविचार से किये गये कार्य पर पश्चाताप करने लगा। तब मन्त्री ने शारदानन्दनगुरु से ये सब वृतान्त कह सुनाया / और शारदानन्दन की कही हुई उक्ति राजा से आकर इस प्रकार कही कि 'हे राजन् ! मेरी एक पुत्री है जो सर्व शास्त्रों में पारंगत है / वह मंत्रों के द्वारा आपके पुत्र को स्वस्थ कर देगी। - इसके बाद पर्दे के अन्दर एक भाग में कन्या वेषधारी शारदानन्दन को और दूसरे भाग में राजा आदि सब लोगों को मन्त्री ने बैठाया। राजाने कहाकि-हे पुत्री मेरे पुत्र को स्वस्थ करदो। तब वह कन्या वेषधारी शारदानन्दनगुरु इस प्रकार श्लोक * कहने लगा किः-- विश्वासप्रतिपन्नानां वञ्चने का विदग्धता। कमारुहय सप्तहि हन्तु किं नाम पौरुषम् / / 1208 / / Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग 165 "विश्वासी जन को ठगने में है न बहुत कुछ चालाकी / गोदी में सोये वानर को-मार दिखाना नालाकी // " __ "विश्वास किये हुए व्यक्ति को ठगने में क्या चतुरता ? गोद में आरूढ होकर सोये हुए बंदर को मारने में क्या पुरुषार्थ ? यह सुनकर वह राजकुमार प्रथम अक्षर को छोड़कर 'सेमिरा' ये तीन अक्षर ही बोलने लगा। / तब कन्या वेषधारी गुरु पुनः दूसरा श्लोक बोलने लगाकिः- सेतु'गत्वा समुद्रस्य गंगासागर संगमें - ब्रह्महा मुच्यते पापै मित्रदोही न मुच्यते // 1281 / / 8 / / "समुद्र के पुलपर जाकर तथा गंगा और सागर के संगम पर जाकर ब्रह्महत्या करने वाला पापसे मुक्त हो सकता है, परन्तु मित्र द्रोही मुक्त नहीं हो सकता। इसके बाद राजकुमार 'मिरा' ये दो अक्षर बोलने लगा। कन्या रूपधारी गुरू पुनः तीसरा श्लोक बोलेः मित्रद्रोही कृतघ्नश्च स्तेयी विश्वास घातकः / चत्वारो नरकंयान्ति यावच्चन्द्र दिवाकरौ // 1282 / / 8 / / "मित्र का द्रोह करने वाला, कृतघ्न, चोरी करने वाला, तथा विश्वासघाती ये चार जव तक इस संसार में चन्द्र और सूर्य हैं तब तक नरक में ही बास करते हैं / " __ यह सुनकर पुनः राजकुमार 'रा' यह केवल एक ही अक्षर बोलने लगा तब गुरू ने पुनः चौथा श्लोक कहाकिः "चाह सही कल्याणों की है तो राजन् ! कुछ दान करो। . देकर दान सुपात्र जनों में-धर्म गृहस्थी किया करो।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 166 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित हे राजन् ! यदि तुम राजकुमार का कल्याण चाहते हो तो सुपात्रों को दान दो / क्योकि गृहस्थ दान से ही शुद्ध होता है / * _ मन्त्री कन्या के मुख से चारों श्लोक सुनकर विजयपालक राजकुमार बिलकुल स्वस्थ हो गया और राजकुमार के मुख से जंगल में बना हुआ सारा ही वृतान्त राजा एवं प्रजाजन ने सुना तब सब लोग आश्चर्य चकित हुए, तथा विद्वान मन्त्री कन्या की भूरी 2 प्रशसा करने लगे अवसर प्राप्त कर राजाने कहा कि 'हे बालिके ! तुम तो गांव में ही रहती हो तो भी तुम वनके बानर, बाघ तथा मनुष्यों के वे सब चरित्र कैसे जानती हो ?' तब उस कन्या वेषधारी गुरू ने कहा कि 'हे राजन् ! देवता तथा गुरू की कृपा से सरस्वती मेरी जिहवा पर है / इसीलिये मैंने तुम्हारी रानी भानुमती के जांघ के तिलको जाना था उसी प्रकार सब कुछ जानती हूँ।' ___ इस प्रकार कन्या वेषधारी शारदानन्दन गुरू के द्वारा एक-एक श्लोक कहने पर क्रमशः एक-एक अक्षर को छोड़ कर वह राजकुमार स्वस्थ हो गया। तथा राजा अत्यंत आश्चर्य करने लगा। पश्चात् उठकर राजा ने पदे को हटाकर देखा तो उन्हें कन्या रूप धारी शारदानन्दगुरु ही दिखाई दिये / इन्हें देख कर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ, और मन्त्री तथा गुरू को बहुत सा धन देकर प्रसन्न किया। * राजंस्त्वं राजपुत्रस्य यदि कल्याणमिच्छसि / देहिदानं सुपात्रेभ्यो गृही दानेन शुद्धयति // 1283 / / 8 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग राजा विक्रमादित्य की अपूर्व दानशीलता-. इस प्रकार आश्चर्यकारक 'बहुश्रुत' मंत्री की कथा सुनकर राजा ने प्रसन्न होकर, उसको कोटि स्वर्ण मुद्रा देने की आज्ञा कोषाध्यक्ष को करदी और साथ ही कोषाध्यक्ष को यह भी कहा कि कोई भी याचक मेरे दर्शन के लिये आवे तो उसको एक हजार सोना मोहर दे दें, और जिसके साथ मैं वार्तालाप करू उसको एक लाख सोना मोहर तथा जिसको मैं इनाम देने को कहू उसको कोटि सोना मोहर दे दिया करें / इस प्रकार राजा विक्रमादित्य ने जगमें अनन्तदानशीलता की ख्याति प्राप्त की। इसके बाद एक दिन राजा द्वारा आयोजित दान पुण्य के उत्सव में अनेक देशों से निमंत्रित बड़े-बड़े व्यक्ति आये / उस समय अठारह प्रकार की प्रजा को राज्य-कर से मुक्त कर दिया गया और दिक्पालों को बुलाने के लिये अपने चतुर दूतों को भेज दिये। ___ सिन्धु देव को बुलाने के लिये भेजा गया 'श्रीधर' नाम का ब्राह्मण समुद्र के तीर पर जाकर समुद्र की स्तुति करने लगा कि 'हे जलाधिप ! मैं तुम्हारी स्तुति क्या करू, क्योंकि संसार के पोषण करने वाले मेघ भी तुम्हारे यहां याचक हैं / तुम्हारी शक्ति का क्या कहना ? तुम ही लक्ष्मी के उत्पत्ति स्थान हो / तुम्हारी महिमा मैं क्या बोल। क्योंकि जिसका द्वीप महीनामसे प्रसिद्ध है। तुम्हारी शक्ति का वर्णन कैसे करू / क्योंकि जिसके क्रोध से सारे संसार का प्रलय ही हो जाता है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित तब प्रत्यक्ष होकर प्रसन्न समुद्र श्री अधिष्ठायक सिन्धु देव ने आदर पूर्वक श्रीधर को कहा कि राजा दूर रहने पर भी सतत मेरे समीप में ही रहता है / क्योंकि मित्र का भाव रहने के कारण दूर रहने पर भी सूर्योदय होने पर कमल, तथा चन्द्रोदय होने पर कुमुद जैसे अत्यन्त हर्ष प्रकट करते हैं। तुम ये चार श्रेष्ठ रत्न लो और मेरे मित्र राजा विक्रमादित्य को देना और इन रत्नों का यह प्रभाव कहना कि प्रथम रत्न इच्छित सम्पत्ति देने चाला है, दूसरा इच्छित भोजन के योग्य वस्तु देने वाला है, तृतीय इच्छानुसार सैन्य देने वाला है तथा चतुर्थ इच्छानुसार सब आभूषणों का देने वाला है।' . इसके बाद उन चारों रत्नों को लेकर वह ब्राह्मण पीछे लौटकर आ गया और वे चारों रत्न राजा को देकर सिंधुदेव की कही हुई उन सब रत्नों की महिमा कह सुनाई। अत्यन्त देदिप्यमान उन रत्नों को देखकर प्रसन्न होकर राजा ने उस ब्राह्मण से कहाकि 'इन रत्नों में से अपनी इच्छा के अनुसार तुम कोई एक रत्न लेलो / ' ... ब्राह्मण ने कहा कि 'मैं परिवार से पूछ कर आऊं।' घर आकर उस ब्राह्मणने अपने कुटुम्ब के आगे उन रत्नों की सारी महिमा कह सुनायी। __ तब पुत्र ने कहा कि 'सैन्य देने वाला मणि लूगा,' स्त्री ने ने कहा कि 'मैं भोज्य वस्तु देने वाला मणि लगी / ' पुत्रवधु ने कहा कि 'मैं भूषण देने वाला मणि लूगी'। ब्राह्मण ने कहा कि 'मैं द्रव्य देने वाला मणि लगा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग 166 - इस प्रकार जब कुटुम्ब में कलह होने लगा और एक मता नहीं हो सका तब ब्राह्मण ने विक्रमादित्य महाराज को अपने कुटुम्ब के सब कलह का हाल कह सुनाया। राजा अत्यंत प्रसन्न होकर उन चारों को संतुष्टि के लिये तत्काल वे चारों रत्न ब्राह्मण को दे दिये / इस प्रकार याचकों को मन की इच्छानुसार दान देता हुआ राजा विक्रमादित्य दृसरे कर्ण के समान विश्व में विख्यात दानी हुआ / एक संसार के अनुभवि कवि ने ठीक ही ललकारा है. "तुटेकु संधाइए, रुठेकु मनाइए, भुखेकु जीमाइए, बहोत सुख पाइए।" पाठकगण ! इस प्रकरण के अन्दर राजा नन्द की रोमांच कहानी का हाल पढ़ चुके हैं। जिसमें राजा नन्द द्वारा किये अविचार पूर्ण गुरु हत्या का आदेश दिया जाना तथा मंत्री बहुश्रुत द्वारा बुद्धिमान से गुरु शारदानन्दन को युक्ति पूर्वक बचाना आदि, तथा विजयपालक राजकुमार द्वारा वानर के साथ विश्वास घात का प्रसंग उपस्थित होकर अन्त में उसका पागल होना तथा उसी गुरु शारदानन्दन के द्वारा पुनः ठीक होना इस कारण से पुत्र की स्वास्थ्यता के कारण राजा नन्द का प्रसन्न होना / राजकुमार विजयपाल के द्वारा वानर के साथ किये गये विश्वासघात से पाठक गणों को बोध होना परमावश्यक है तथा वानर जैसे पशु द्वारा शरण में आये हुए का पालन करने जैसी अद्भुत उदारता का भी बोध होना नितान्त आवश्यक है इसी --- P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित कारण शास्त्रकारों ने 'विश्वासघात-महापाप' नामक उक्ति को महानता दी है। हमें वास्तव में किसी भी प्राणी के साथ कभी भी विश्वासघात न करने का प्रयत्न करना चाहिये / पाप का भयंकर फल हरप्राणी को भोगना ही पड़ता / किसी कविने ठीक ही कहा है: "बाबा जग में श्रायके बुर न करना काम / बन्दे मौज न पावसी, बिरथा हो बदनाम // " आगे महाराजा विक्रमादित्य की अपूर्व उदारता का हाल आप इस प्रकरण में पढ़ गये हैं और महाराज को समुद्र का अधिष्ठायक सिंधु देव की ओर से महान महिमा वाले रत्नोंका तनिक मोह मनमें न रख दीन हीन श्रीधर ब्राह्मण को चारों ही रत्न देकर उदारता का परिचय दिया इस से भहारांजा की दानशीलता का पूर्ण परिचय मिलता है / - अब पाठकगण आगामी प्रकरण में राजा द्वारा प्रजाकी गुप्त रूपसे रक्षा के लिये रात्री को नगर चर्चा देखने निकलना इत्यादि रोमांचकारी हाल पढ़ेगे। SE P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र द्वितीय भाग बयाँलीसवाँ प्रकरण "नर जन्म पाकर लोक में, कुछ काम करना चाहिये ! अपना नहीं तो पूर्वजों, का नाम करना चाहिये / / " एक दिन महाराजा विक्रमादित्य अपने सभी सामन्तों के साथ राज्य-सभा में विराज रहे थे। आपने अपने सभी राज्य कर्मचारियों से अपनी प्रजा के दुःख-सुख की बात पूछी / साथ ही आपने अपने सुयोग्य मंत्री भट्टमात्र से भी यही प्रश्न किया / आपने अपने मन्त्री भट्टमात्र से यह भी पूछा कि 'हे मंत्रीश्वर ! कोई भी राजा अपनी प्रजा को किस प्रकार सुखी रख सकता है ? राजाको अपनी प्रजा के सुख के लिये क्या क्या करना चाहिये ? तुम इस पर सविस्तार प्रकाश डालो !' मंत्रीश्वर ने उत्तर दिया:--हे राजन् ! राजा और प्रजाका सम्बन्ध पिता-पुत्र का है / अतः जिस प्रकार पिता अपने पुत्र को सुखी रखने के लिये उसके साथ प्रेम का व्यवहार करता है तो प्रेम वश वह पुत्र अति प्रसन्न रहकर पिताकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करने हेतु सदा तैयार रहता है। अगर पिता जरा भी क रता वश होकर पुत्र को डांटता-फटकारता है तो उसके उत्तर में पुत्र भी पिता की ओर उसी भाव से करता का प्रदर्शन कर हठ और ढीटाई दिखाता है। अतः हे राजन् ! राजा को भी अपनी प्रजा को सुखी रखने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित के लिये एक सुखी पिता-पुत्र की तरह प्रजा को प्रेम की दृष्टि से देखना चाहिये / अगर राजा क रता से प्रजा को देखेगा तो प्रजा. भी राजा से असंतुष्ट होकर सदा दुःखी रहेगी / विक्रमादित्य का वेश-परिवर्तन कर नगर निरीक्षण राजाने 'कहाकि हे मंत्रीश्वर मैं सब बातों की परीक्षा करना चाहता हूं। ऐसा कहकर सभा विर्सजन की / एक समय वेष बदल कर नगर बाहर ईख के खेत में गया / ईख की रक्षा करने वाली एक वृद्ध स्त्री से राजा कहने लगा कि 'हे माता मैं बहुत प्यासा हूं। इसलिये मुझको थोड़ा ईख का रस पीने के लिये दो / ' तब वह स्त्री एक ईख को हाथ में लेकर उससे बोलीकि 'हे भाई मैं ईख का रस निकालती हूं, तुम अपना हाथ नीचे रखो और ईख का रस पीओ। उस ईख रस को पीकर राजा का पेट भर गया / तथा महल में जाकर मन्त्रीश्वर को ये सब समाचार कह सुनाया और महाराजा मन में सोचने लगाकि "ईख के अन्दर भरपूर रस होता है और उससे अच्छी आमदनी भी होती है तथापि खेतका मालिक राज्य कर नहीं दे रहा है तो अब से ईख के खेत पर राज्य कर डालना चाहिये / अथवा ईख के खेत का पालक मुझको कुछ नहीं देता है इसलिये ईख के खेत का हरण कर मैं ले लूगा।” ऐसा विचार कर कर भाव से वेष बदल कर पुनः दूसरे 'दिन उसी ईख के खेत में गया, और ईख के खेत की मालिका से P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग कहने लगाकि 'मुझको प्यास लगी है इसलिये शीघ्र तुम मुझको ईख रस पीने के लिये दो / ' तब वह बुड्डी एक ईख को हाथ में लेकर उसका रस निकालती हुई बोली कि 'भाई हाथ नीचे रखो .. और रस पीओ / ' परन्तु बहुत प्रत्यन करने पर भी उनमें से कल की अपेक्षा बहुत कम रस निकला। ' तब विक्रमादित्य ने पूछाकि 'हे माता कल ही मैंने एक ईख. में से बहुत सा रस पीया था / आज उतना रस क्यों नहीं निकल रहा है , स्त्री ने कहाकि 'कल तक राजाकी दृष्टि अच्छी थी और आज शायद् राजा की दृष्टि क्रूर होगई होगी।' महल में जाकर ये सब समाचार राजाने मन्त्री से कहे / , तब भट्टमात्र ने कहाकि 'हे राजन् ! यह सौम्य दृष्टि का प्रत्यक्ष चमत्कार देखो / ' राजाने कहाकि हे भट्टमात्र ! तुम्हारा कथन सत्य और निःशंक है / इसके बाद राजाने कहाकि 'लकड़ियां बेचने वालों को मारने. की मेरी इच्छा है।' 5. भटट ने कहाकि उन लोगों की भी ऐसी इच्छा होगी / फिर वेष बदल भट्टमात्र और राजा दोनों बाहर निकलकर लकड़ी बेचने वालों को देखकर मंत्रीने कहाकि, राजाविक्रमादित्य आज मर गया है / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित लकड़ी बेचने वाले ने कहाकि 'अच्छा हुआ क्योंकि आज हमें लकड़ों का मूल्य अधिक मिलेगा / ' इस प्रकार राजा और मंत्री वहां से और आगे चले और नगर से बाहर आये / राजाने पुनः मंत्रीश्वर से कहाकि 'अब अहिर रबारी की स्त्री का सन्मान करने की मेरी इच्छा हो रही है। भट्टमात्र ने कहाकि 'उन लोगों की भी ऐसी ही शुभ इच्छा होगी।' फिर बादमें भट्टमात्र तथा विक्रामादित्य दोनों बाहर गये / और एक वृद्ध रबारी को देखकर मंत्री कहने लगेकि 'राजाविक्रमादित्य आज मर गया है / ' - यह बात सुनकर वह गोरस के पात्रों को तोड़कर उसी समय अत्यन्त रोदन करने लगीकि 'हे वत्स विक्रमादित्य ! करुणा सागर !! तुम कहां चले गये / तेरे बिना यह पृथ्वी अब कौन पालन करेगा। इस प्रकार उसको रोदन करती हुई देखकर राजा प्रगट हुआ और उसको अपने महल लेजाकर बहुत सा धन देकर उसका सम्मान किया। ___ राजा से बहुत धन प्राप्त करके वह अत्यन्त प्रसन्न हुई और पुनः प्रसन्नता पूर्वक शीघ्र ही अपने घर चली आई। इन उपरोक्त दोनों घटनाओं से महाराजा विक्रमादित्य को यह निश्चय होगया कि जिस मनुष्य की जैसी भावना होगी उसे वैसा ही फल मिलेगा। नीति के अनुसार यह भी ठीक ही कहा है कि "जैसी दृष्टि वैसी सृष्टी / " P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग . महाराजा को यह भी निश्चय हो गया कि रक्षक और आश्रित के परस्पर स्नेह भाव होने पर ही दोनों सुखी रह सकते हैं। अगर स्वयं ही अपने दोष कोई न देखकर केवल दूसरों के दोषों को निकाले तो दोनों की आत्मा को शांति के बदले महान् दुख ही प्राप्त होता है / अतः सज्जन लोग सदा प्रथम अपने दोषों को ही स्वीकार करते हैं / जैसे, "बुराबुरा सबको कहे, बुरा न दीसे कोय / जो घट खाजा आपना, मुझ सा बुरा न कोय / / " इसके बाद राजाविक्रमादित्य न्याय मार्ग से उदार. आशय करके समस्त पृथ्वी का पालन करने लगा / अवन्ती में इस प्रकार न्याय निती से प्रजाका पालन करता हुआ राजाविक्रमादित्य दानशीलता तथा तपस्या की भावना करने लगा। ___एक दिन रात्रि में पुनः राजाविक्रमादित्य वेष बदलकर लोगों के समाचार जानने के लिये नगर में भ्रमण करने लगा / एक श्रेष्ठी के घर पर चौरासी दियों को देखकर वह अत्यन्त विस्मित हुआ। - इसी प्रकार दूसरे दिन भी रात्रिमें भ्रमण करता हुआ उसी घरमें चौरासी दीपों को देखकर पुनः आश्चर्य चकित हुआ और विचारने लगाकि 'क्या इस श्रेष्टी के घर पर चौरासी से न अधिक और न कम दीपक जलते हैं इसका क्या कारण है ! कुछ भी कारण ज्ञात नहीं हो रहा है / इस प्रकार सोचकर प्रातःकाल राज सभामें उस देश को बुलाकर लोगों के समक्ष महाराजा ने उन P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित NANNo चौरासी दीपकों का कारण पूछा। ____ तब श्रेष्ठी कहने लगाकि 'हे राजन् ! मेरे घर में यह आचार है कि जितनी स्वर्ण मुद्राएँ मेरे घरमें रहे उतने ही दीपक रहते हैं / इसलिये रात्रि में घर पर मैं चौरासी दीपक जलाता हूं। अतः आप मुझपर क्रोध न करें।' तब राजाने हंसकर कहाकि 'तुम अभी तक कोटीश्वर नहीं हुए. इसका मुझ को खेद है यह कहकर राजाने कोषाध्यक्षको बुलाकर सोलह लाख सोना मोहरे उसको और दिलाई / क्योंकिः_ "सज्जन पुरुष एक वे ही हैं जो स्वार्थ छोड़कर परोपकार में तत्पर रहते हैं / वे सामान्य व्यक्ति हैं जो अपने स्वार्थ के साथ साथ परोपकार करते हैं / वे मानव राक्षस तुल्य है जो अपने स्वार्थ के लिये दूसरे के हित को नष्ट करते हैं / परन्तु जो मनुष्य बिना प्रयोजन दूसरे के हित को नष्ट करते हैं उनको तो अधमाधम ही कहना उचित है / इसके बाद राजाविक्रमादित्य की कृपा से वह , श्रेष्ठी कोटीश्वर होगया। तथा राजा भी अपने नगरको इस प्रकार समृद्ध देखकर ठात्यन्त प्रसन्न हुआ। अपने शत्रुओं को जीतकर देश से सात व्यसनों को निकाल दिया / चे सात व्यसन ये हैं: * एके सत्यपुरुषाः परार्थनिरताः :स्वार्थ परित्यज्य ये, में सामान्यास्तु / परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये ! तेऽमि मानव. राक्षसाः परहितं स्थार्थायनिघ्नन्ति ये, .. यतु ध्नन्ति निरर्थक परहितं ते के जानी महे // 1341 / / 8 10 0 /ActunrairattiM.S. JunGuidaladhak prush Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र द्वितीय--भाग 207 माल हा 1 जुआ खेलना, 2 मांस खाना, 3 मदिरा पान करना, 4 शिकार खेलना-करना, 5 वैश्यागमन करना, 6 चोरी करना, और पर स्त्री सेवन करना; ये सात व्यसन जगत में अतिशय घोर नरक को देने वाले हैं। व्यसन उन्हें कहते हैं जो आत्मा को आपत्ति में डालें, या आत्मा के सद्गुणों को ढक देवे, अर्थात् आत्मा का कल्याण न होने देवे / बुरी आदत को भी व्यसन कहते हैं। व्यसन सेवन करने वाले व्यसनी कहलाते हैं और वे संसार में बुरी दृष्टि से देखे जाते हैं। १-जुआ खेलना-रुपये-पैसे और कोड़िये वगैरह से मूठ खेलना और हार-जीत करते हुए शर्त लगाकर कोई काम करना, वह जूा कहलाता है / जुआ खेलने वाले जुआरी कहलाते हैं। जुआरी लोगों का हर जगह अपमान होता है / अपनी जाति के लोग भी उनकी निंदा करते हैं और सरकार उन्हें दंड देती है। २-मांस भक्षण-जीवों को मारकर अथवा मरे हुए जीवों का कलेवर खाना मांस खाना कहलाता है। मांस खाने वाले हिंसक और निर्दयी कहलाते हैं। ३-मदिरापान-शराब, भांग, चरस, गांजा वगैरह नशीली चीजों का सेवन करना मदिरा पान कहलाता है। इनके. सेवन करने वाले शराबी और नशेबाज कहलाते हैं / शराबियों को धर्म-कर्म और भले बुरे का कुछ भी विचार नहीं रहता और P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजयजी संयोजित उनकी ज्ञान तथा विचार शक्ति नष्ट हो जाती है। लोगों का उन पर विश्वास नहीं रहता है। ४-शिकार खेलना-जंगल में स्वेच्छा पूर्वक फिरने वाले रीछ, मृगले, बाघ, सूअर तथा, खरगोश-सचले आदि जानवरों तथा आकाश में उड़ने वाले निर्दोष छोटे छटे पक्षियों को अथवा और किसी जीवों को बंदूक वगैरह हथियारों से मारना; ऐसे बुरे कर्म करने वालों को महान् पाप का बंध लगता है। इन पापियों के हाथ में बंदूक आदि देखते ही जंगल में रहने वाले जानवर एवं पक्षिगण भयभीत हो जाते हैं। ५-वैश्यागमन करना-वैश्या से खेलने की इच्छा करना उसके घर आना जाना, अथवा उससे अनुचित संबंध रखना चश्यागमन कहलाता है, वैश्या व्यभिचारिणी स्त्री होती है; उससे संबंध रखने से व्यभिचार का दोष लगता है। उससे सम्बन्ध करने से अनेक प्रकार के भयंकर बुरे रोग भी पैदा होते हैं / वैश्या की प्रीति तो मात्र पैसे की होती है। ६-चोरी करना-जान बूझ कर किसी की वस्तु लेना या किसी की गिरी हुई, या पड़ी हुई, या रक्खी हुई, या भली हुई चीज को उठा लेना, अथवा उठा कर किसी और को दे देना ही चोरी है / जिसकी वस्तु चुराई जाती है, उसके मन में बड़ा भारी खेद होता है और इस खेद का कारण चोर होता है / चोरी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'विक्रम चरित्र द्वितीय-भाग 206 करते समय चोर के मन के परिणाम बड़े मलीन होते हैं। इस कारण से चोर को अशुभ कर्मों का बंध होता है और इह लोक में भी चोर दण्ड पाते हैं सब लोग उनका तिरस्कार करते हैं। ७-पर स्त्री सेवन-जिसका नाति जाति और धर्म दृष्टि से विधिपूर्वक लग्न-विवाह हुआ हो उसको छोड़कर और सब स्त्रियाँ माँ-बहन के समान तथा छोटी बहन वेटी के समान समझनी चाहिये / परायी स्त्री के प्रति बुरी दृष्टि से देखना भारी पाप है। जैसे अपनी खुद की बहन, बेटी के प्रति दूसरा कोई आदमी बुरो दृष्टि से देखे तो अपने को बुरा लगता है; उसी तरह और के लिये भी समझना चाहिये / ___ उपरोक्त सातों व्यसनों से दूर रहने के लिये महाराजा विक्रमादित्य अवसर अवसर पर अच्छी अच्छी शिक्षा दायक कहानियों एवं भजन आदि का प्रचार कराया करते थे जिससे प्रजा सदा अपना जीवन उच्च बना सके। महाराजा स्वयं भी इन सातों व्यसनों से सदा दूर रहते थे / मानों सारे मालव देश से ही ये सातों व्यसन भाग कर दूर चले गये थे। - महाराजा विक्रमादित्य के राज्य में नीति का उल्लंघन, असत्य का आरोपण, परचक्र का आगमन तथा प्रजा का पीड़न ये सब नहीं होते थे, देवता की प्रतिमा का भङ्ग, वर्णव्यवस्था का भंग, Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजयजी संयोजित पुण्यकार्य का भङ्ग, अपकीर्ति ये सब विक्रमादित्य के राज्य में कभी भी नहीं होते थे। ____एक समय कुछ चोर नगर में रात को चोरी किया करते थे परन्तु दिन में धनिकों-सा वेष धारण करके नगर में फिरा करते थे। सुवर्ण बाजार, मणि बाजार और वस्त्र बाजार के लोग आकर राजा से कहने लगे कि चोरों ने हमारा बहुत सा धन चुरा लिया है। इस पर राजा ने चोरों को पकड़ने के लिये सब चौराहों पर चौकीदारों को नियुक्त किया। परन्तु बहुत अन्वेषण करने पर भी चोर पकड़े नहीं जा सके। इसके बाद राजा सोचने लगा कि सामथ्ये रहने पर भी यदि राजा पीडित होती हुई प्रजा का रक्षण नहीं करता है तो उसका नरक में पतन होता है / क्योंकि दुर्बलों का, अनाथों का, बाल वृद्ध, तपस्वी तथा अन्याय से पीडितों का राजा ही रक्षक है / अर्थात् एकमेव राजा ही इन लोगों का आधार है / कहा भी है "राजा जनता से कर लेकर, चोरों से रक्षा नहीं करे। स्मृति कहती है तब वह राजा उसी पाप से कभी मरे / / ॐ लोकेभ्यः करमादाता चौरेभ्य स्तान्न रक्षिता / वदीयलिप्यते राजा पातकैरितिहि स्मृतिः // 1352 / / 8 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र द्वितीय-भाग 211 NNN लोगों से 'कर' लेने वाला, परन्तु चोरों से रक्षण नहीं करने वाला राजा चोरी के पाप से युक्त होता है / इस प्रकार स्मृति में कहा है।" विक्रमादित्य का वेष परिवर्तन कर चोरों को पकड़ने के लिये निकलना ये सब विचार करके राजा तलवार लेकर अकेला ही रात्रि में चोरों को पकड़ने के लिये घर से बाहर चल दिया / क्योंकि सिंह शकुन, चन्द्रबल अथवा धन-सम्पत्ति नहीं देखता है / वह एकाकी भी लक्ष्य से भिड जाता है, क्योंकि जहा साहस है वहां सिद्धि भी प्राप्त होती है। - राजा गुप्त रूप से भ्रमण करता हुश्रा माणिकचौक में पहुँचा और विचारने लगा कि प्रायः चोर यहां अवश्य आते रहते होंगे। वह राजा धीरे धीरे चलते रत्नचौक में पहुंचा तो पीछे से आते हुए मनुष्यों को देख कर विचारने लगा कि 'यदि पाते हुए चौकीदार मुझको नहीं पहचान कर प्रहार कर बैठे तो मेरी क्या गति होगी ?? फिर बाद में ये आने वाले चोर ही हैं ऐसा हृदय में निश्चय करके राजा ने भी अपने आपको चोर रूप बनाकर चोर का जैसा नाम रख लिया। विक्रमादित्य का चार चोरों से मिलन इसके बाद जब वे सब चोर उस चौक पर आकर एकत्रित हो गये और राजा से मिले तब राजा ने पूछा कि तुम लोग इस P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजयजी संयोजित समय किस प्रयोजन से कहां जाते हो ? उन चोरों ने कहा कि 'आज हम लोगों ने मेघश्रेष्टी के घर में विदेश से आये हुए बहुत धन को देखा है। इसलिये हम लोग उसका हरण करने के लिये जायेंगे | क्योंकि हम चोर है और धन चाहते हैं / तुम कौन हो ? तथा किस प्रयोजन से कहां जाते हो ?' ___ तब राजा ने कहाकि 'मैं प्रजापाल नामका संसार प्रसिद्ध चोर हूँ। मैं आज राजा का कोष देख आया हूं। जो तैल मूग आदि वेचकर कष्ट से धन इकट्ठा करता है उसका धन हरण करने से निश्चित शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है / क्योंकि जो कोई किसी को मारता है तो मरनेवाले को एक क्षण ही दुःख होता है / परन्तु धन का हरण करने से तो पुत्रपौत्र के साथ साथ जीवन पर्यन्त उसको कष्ट होता है / परन्तु राजा के घर में तो बिना परिश्रम के ही बहुत धन प्राप्त होता है / इसलिये उसको धन चोरने से अल्प दुःख होता है। / तब चोरों ने कहा-हे चोर ! तुमने सत्य कहा है / इसलिये अब हम लोग राजा के घर में ही चोरी करने के लिये जावेंगे।' राजाने कहा--'चोरी के धनमें तुम चारों का ही भाग है या दूसरे का भी ? ला : तब चोरों ने कहा कि 'विक्रमादित्य का व्यवहार बहुत कठिन है / इसलिये मस्तक के कटने के भय से उसके चौकीदार आदि कोई भी चोरी में सहाय नहीं करते हैं। विक्रमादित्य जो इस समय चोर के रूप में था वह कहने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र द्वितीय--भाग 213 लगा कि 'तुम लोगों ने ठीक ही कहा है / परन्तु यदि तुम लोगों की रुचि होतो मैं भी साथ साथ चलू ?' ___ तब उन लोगों ने कहाकि 'भाग देने से चोरी में कोई कमी नहीं होती। इसलिये तुम भी हमारे साथ ही चलो; अब तो हम लोग राजा के महल में ही चलेंगे।' ___चोर रूप में रहे हुए हुए राजा ने पूछा कि 'तुम लोगों में क्या क्या शक्ति है ? एक चोर कहने लगाकि 'मैं गन्ध से घर के भीतर की वस्तुओं को जान जाता हूँ। दूसरा कहने लगाकि 'मैं हाथ से स्पर्श करते ही अत्यन्त मजबूत ताला तथा कपाटी को खोल देता हूं या कमल के नाल के समान तोड़ देता हूं।' _____ तीसरे चोरने कहाकि 'मैं जिसका शब्द एक बार सुनता हूं उसको सौ वर्ष तक और उनके बाद भी उसे शब्द द्वारा पहचान लेता हूँ। चौथा चोर, कहने लगाकि 'मैं सब पशु पक्षियों की भाषा जानता हूं।' - वे चारों चोर कहने लगे कि 'तुम्हारे में कौनसी शक्ति है ?? तब वह चोर रूप में रहा हुआ राजा कहने लगाकि 'मैं जिसके बीच में रहता हूँ, उसको राजा से कोई भी डर नहीं रहता है।' तव प्रसन्न होकर चोरों ने कहाकि 'तुम भाग्य से मिल ही गये Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजयजी संयोजित विक्रमादित्य सोचने लगा कि अभी इन लोगों को तलवार से मार दूं। पुनः सोचने लगा कि व्यर्थ ही इन लोगों को मार डालना अच्छा नहीं / पहले गुप्त रूप से इन लोगों का चरित्र देख लेना चाहिये / पीछे युक्तिपूर्वक अपना कार्य करूगा / क्योंकि जो काम पराक्रम से नहीं हो सकता उसको उद्योग या कोई उपाय से करना चाहिये जैसे कौवे न सुवर्ण के हार से कृष्णसर्प को भी मार दिया था। विक्रमादित्य का चोरों के साथ चोरी करना इसके बाद राजमहल का किला आदि उलांघ करके राजा के महल में जाकर राजा ने चोरों से धीरे धीरे कहा कि 'हे गन्ध ज्ञानी ! इस महल में क्या है ? वह तुम ठीक 2 बताओ / ' - तब उसने गन्ध से जान करके कहाकि 'इस घर में पितल, ताम्र आदि बहुत हैं दूसरे में चांदी तथा तीसरे में सुवर्ण और चतुर्थ में रत्न राशि है / इस प्रकार सब कुछ उसने बता दिया। ... तब राजा ने कहाकि अपन कोटिमूल वाले मणि का ही हरण करेंगे / इसलिये हे ताले को स्पर्श से ही खोल देने वाले ! तुम ताला को हाथ से स्पर्श कर खोल दो / तब उसने स्पशे से ही ताले को क्षण भर में खोल दियः / पश्चात् उसमें चोरी करने के लिये वे लोग प्रवृत्त हो गये / उस समय बाहर सियालियों ने शब्द किया / उस शब्द को सुनकर शब्द ज्ञानीने कहाकि यह सियाल कहता P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र द्वितीय-भाग है कि 'धनका मालिक साथ में ही है, तब तुम लोग चोरी कैसे करते हो ? ___ शब्द ज्ञानी के ऐसा कहने पर सब लोग चोरी करने से रूक गये। तब विक्रमादित्य कहने लगाकि 'राजा सर्वदा सातवीं मंजिल पर सोता है / वह यहां कैसे आगया ? सियाल ब्यर्थ ही बोलता है। अथवा यह पशु पक्षि की भाषा पहिचानना नहीं जानता तुम लोग यह रत्नराशी शीघ्र ही लेलो / ' ___ इसके बाद जब पुनः वे लोग दिवार भित्ती तोड़ने लगे तब शब्दज्ञानी पुनः बोलाकि सिायल कहता है कि-'गृहस्वामी देख रहा है / इसलिये इस चोरी को छोड़ दो / . . ___इस प्रकार सुनकर सब लोग फिरसे रूक गये, तब विक्रमादित्य कहने लगाकि 'हम लोगो के बीच में कोई भी इस गृहका स्वामी नहीं है। यह सियाल तो व्यर्थ ही बोल रहा है; तुम लोग रत्नराशि को लेलो।' - जब पुनः वे सब चोरी करने लगे तब शब्द ज्ञानी पुनः कहने लगाकि सियार कुत्ते से कह रहा है कि तुम राजा के घर से उत्तम भोजन करते हो तब तुम क्यों नही राजा को चोरी का समाचार देते हो; मैं समझ गया कि नीच व्यक्ति ऐसे ही कृत्तघ्न होते हैं। तब कुत्ते ने कहाकि बीच में ही स्वामी मौजुद हैं; तब भला, धनकी चोरी कैसे हो सकती है ?? ___यह सुनकर जब वे सब डरकर इधर-उधर भागने लगे। तब विक्रमादित्य ने कहा कि राजा यदि मध्य में है तो भी मैं जिसके बीचमें रहता हूँ उसको राजा से कोई डर नहीं होता। तब P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनिजयजी संयोजित फोगट तुम लोग क्या डरते हो ? पशु पक्षियों के शब्द पर मूर्ख लोग विश्वास कया करते हैं / बुद्धिमान नहीं; यह सुनकर चोरोंने अच्छी तरह से चोरी की और वहां से चोरों ने एक एक रत्न की पेटी लेकर घर चल दिये। ___उस समय राजा कहने लगाकि 'हम लोगों के बीच में गृहस्वामी नहीं है, सियाज झूठ ही बोलता था। हम लोगों को रत्न से भरी हुई एक एक पेी हाथ लगी / ' चोरों के साथ पुनः मिलन का गुप्त संकेत इसके बाद माणिकचौक पर आकर जब चोर घर जाने लगे तब राजा ने कहा कि 'फिर सब भाई कैसे मिलेंगे ? ___ उन लोगों ने कहा कि 'सन्ध्या समय में हमारा पुनः यहां ही मिलन होगा।' राजा ने कहा कि 'यहां तो सैंकड़ों आदमी बराबर रहा करते हैं / इसलिये पहचानने में कठिनाई पड़ेगी।' तब उन लोगों ने कहाकि 'जिनके हाथ में बिजौरा हो उन्हीं को तुम अपना साथी समझना।' इस प्रकार संकेत करके वे चोर अपने घर चल दिये। - राजा भी अपने महल में आकर उस रत्न की पेटी को गुप्त स्थान में रखकर सोगया / प्रातःकाल बंद जन के मंगल शब्दों से उठा / तथा पच परमेष्ठि नमस्कार--नवकार महामन्त्र जपकर के तथा प्रातः काल की धर्म क्रिया करके सभाजनों से शोभायमान सभा में गया। 3 इधर कोषाध्यक्षने प्रातःकाल ज्योंही कोश-गृहमें प्रवेश करते ही देखा तो भित्ती टुटी हुई दीखी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र द्वितीय-भाग 217 ज्यों ही वह मणियों को देखने के लिये कोश गृह के बीच में गया तो पांच रत्न पेटियाँ चुराई हुई देखकर वह सोचने लगाकि 'जिसने इन पेटियों की चोरी की है वह बहुत बलवान है इसलिये मैं भी एक. पेटी को गायब कर राजा के समीप जाकर पेटियों के चुराये जाने के समाचार सुनाऊगा।' इस प्रकार सोचकर उसने अत्यन्त ऊचे स्वर में कहा कि किसी ने भंडार की दिवार तोड कर रत्न की पेटियां चुरा ली हैं। चौकीदार ! सिपाहियों ! शीघ्र दौडो !! ____ इसके बाद कोषाध्यक्ष सहित सब लोगों ने वह स्थान देखा और वे लोग राजा के आगे जाकर कहने लगे कि रत्न की पेटियां चोराई गई हैं। ___राजा ने कहाकि 'चौकीदार ! तुम नगर की रक्षा नहीं कर रहे हो तथा चोरों को नहीं पकड़ रहे हो / इसलिये तुम लोगों को ही चोरी का दण्ड देना होगा।' - इसके बाद चौकीदारोंने समस्त नगर में स्थान-स्थान पर खोज की। परन्तु जब चोर कहीं भी नहीं मिले तो उदास होकर घर में आकर बैठ गये। ___ तब एक चौकीदार की स्त्री ने पूछा कि 'तुम्हारा मुख उदास क्यों है ? / तब चौकीदार ने रत्न पेटी की चोरी हो जाने के सब समाचार सुना दिये और महाराजा ने आज फरमाया है कि 'चारी का दण्ड. तुम लोगों को देना होगा इसीलिये आज मुख उदास है / "कायर कभी न होइये-कायरता बेकाम . धीर बनो आपत्ति में-धीरज ही आराम ||" स्त्री कहने लगी कि 'तुम हृदय में कुछ भी दुःख न करो। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजयजी संयोजित कायर होने से कभी भी कार्यसिद्ध नहीं होता; क्योंकि सदाचारी, धीर,धर्म पूर्वक दीर्घ दृष्टि वाले तथा न्याय मार्ग का अनुसरण करने वाले, लक्ष्मी जाय अथवा रहे उसका सोच नहीं करते / / मैं एकाकी हूं, असहाय हूँ, कृश हूँ, परिवार रहित हूँ, इस प्रकार की चिन्तासिंह को स्वप्न में भी नहीं होती। बुद्धिमान् लोग भूतकाल की चिन्ता नहीं किया करते / भविष्य की भी चिन्ता नहीं किया करते / वेतो केवल वर्तमान की ही चिन्ता करते रहते हैं / निर्दय हृदय वाले 'चोर तो बराबर ही नगर में चोरी करते हैं / जब राजा क्रोधित होकर आपको शिक्षा देना चाहता है / इसलिये कहा है कि 'काकमें पवित्रता, जुआरी में सत्य, सर्पमें क्षमा, स्त्रियों में काम की शान्ति, "जपुसक में धैर्य, मद्य पीनेवालों में तत्व का चिन्तन, तथा राजा का मित्र होना ये सब किसने देखा है या सुना है ? अपने घर की सब सम्पत्ति राजा को देकर कहो कि 'मैं जीविका के लिये अन्यत्र जाता है; आप सेवकों के ऊपर इस प्रकार नाराज हो गये हैं जिससे अब हम लोग आपके समीप नहीं रह सकते। - स्त्री के इस चातुर्यपूर्ण सुझाव पर वह चौकीदार राजाके समीप गया और कहने लगा कि 'हे स्वामिन् आप सेवकों से असंतुष्ट हो गये हैं इसलिये मैं अब दूसरी जगह जाऊंगा।'.. राजा कहने लगा कि 'हे चौकीदार डरो नहीं चोर, लोग पकड़े 'जायं या नहीं पकड़े जायं, भले ही चोरी करते रहें, परन्तु तुमको . कोई डर नहीं, अब तुम स्वस्थ हो जाओ और माणकचौक पर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र द्वितीय--भाग 216 जाओ और बिजौरा हाथ में रखे हुए जो कोई हो उन्हें पकड़ कर यहाँ ले आओ। राजा की आज्ञा प्राप्त कर प्रसन्न होकर वह चौकीदार वहाँ से. निकलकर माणिकचौक पर गया / क्योंकि 'पतिव्रता स्त्री अपने पति की, नौकर स्वामी की, शिष्य गुरु की, पुत्र पिता की आज्ञा में यदि संशय करें तो वे अपने व्रत को खण्डित करते हैं। .. इधर वे चोर लोग दूसरे दिन की शाम को वहाँ आये / और अपने रात्रि में मिले हुए 'प्रजापाल' नाम के बन्धु की राह देखने लगे / इसी समय काक का शब्द सुनकर शब्द ज्ञानी कहने लगा कि काक कहता है कि 'तुम लोग शीघ्र यहाँ से भाग चलो तुम लोगों को पकड़ने के लिये लोग रहे हैं। तव अन्य तीन चोर कहने लगे कि हे भाई ! अभी तुम चुप होजात्रो, रात में यदि तुम्हारी बात मानी होती तो रत्न की पेटी कैसे मिलती ? अभी यदि यहां से चले जायेंगे तो पुनः वैसा अपूर्व निडर बन्धु कैसे मिलेगा ?' इस प्रकार के विचार कर वे लोग प्रसन्न होकर उसकी राह देखने लगे। ___इसके बाद चौकीदार ने जब हाथ में बीजोरा वाले मनुष्यों को देखा तो उन्हें पकड़ कर ले जाने लगा। __ तब वे चोर लोग कहने लगे कि 'तुम पूरा धन हम लोगों से ले लो और हम लोगों को छोड़ दो, अथवा हमारे घर में जो वृद्ध हैं वे राजा के समीप आयेंगे। - चौकीद.र कहने लगा कि राजा की हमें ऐसी ही आज्ञा है कि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजयजी संयोजित बीजोरे से युक्त आदमियों को खूब मजबूती से बाँध कर यहां ले आओ।' इसके बाद चौकीदार ने उन चारों को राजा के समीप ले जाकर खड़े कर दिये। तब राजाने कहाकि 'रत्नों की पेटी शीघ्र दे दो / अन्यथा तुम लोगों को चोरी का दण्ड दिया जायगा / ' यह सुनकर चोरों ने सोचाकि रात्रि का बन्धु यही तो है / ' ऐसा समझकर शीघ्र ही राजा के आगे चार रत्न की पेटियां लाकर रखदीं। __राजाने तब क्रोधित होकर कहाकि 'और दो पेटियो कहां गई ? ____ तब चोर कहने लगेकि हम लोगों ने चार ही पेटियां ली थीं। अधिक नहीं ली / तब राजा ने कहाकि 'हे चौकीदार ! तुम इन चारों को शीघ्र शूलीपर चढ़ा दो।' तब चौकीदार राजा की आज्ञा पूर्ण करने के लिये चला। उस समय शब्द ज्ञानी ने चुपचाप कहाकि रातमें इस राजाने अपने साथ चारी करते हुए कहा था कि मैं जिनके साथ रहूंगा उनको राजा से डर नहीं होता / यह सब विचार कर उन लोगों ने चौकीदार से कहाकि हम लोगों को राजा के पास पुनः एक बार ले चलो / हम लोग सभी पेटियाँ दे देंगे। ___ जब वे सब राजा के समीप लाये गये तब उनमें से शब्दज्ञानी ने राजा से कहाकि रात्रि में चोरी करने के लिये एक आदमी ने हम लोगों से मिलकर कहा था कि जिसके बीच में मैं रहूँगा उसको P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजयजी संयोजित बीजोरे से युक्त आदमियों को खूब मजबूती से बाँध कर यहां ले आओ।' इसके बाद चौकीदार ने उन चारों को राजा के समीप ले जाकर खड़े कर दिये। ___ तब राजाने कहाकि 'रत्नों की पेटी शीघ्र दे दो / अन्यथा तुम लोगों को चोरी का दण्ड दिया जायगा / ' यह सुनकर चोरों ने सोचाकि रात्रि का बन्धु यही तो है / ' ऐसा समझकर शीघ्र ही राजा के आगे चार रत्न की पेटियां लाकर रखदी / राजाने तब क्रोधित होकर कहाकि 'और दो पेटिया कहां गई ? ___ तब चोर कहने लगेकि हम लोगों ने चार ही पेटियां ली थीं। .. अधिक नहीं ली / तब राजा ने कहाकि 'हे चौकीदार ! तुम इन चारों को शीघ्र शूलीपर चढ़ा दो।' तब चौकीदार राजा की आज्ञा पूर्ण करने के लिये चला। उस समय शब्द ज्ञानी ने चुपचाप कहाकि रातमें इस राजाने अपने साथ चोरी करते हुए कहा था कि मैं जिनके साथ रहूंगा उनको राजा से डर नहीं होता / यह सब विचार कर उन लोगों ने चौकीदार से कहाकि हम लोगों को राजा के पास पुनः एक बार ले चलो / हम लोग सभी पेटियाँ दे देंगे। ___जब वे सब राजा के समीप लाये गये तब उनमें से शब्दज्ञानी ने राजा से कहाकि रात्रिमें चोरी करने के लिये एक आदमी ने हम लोगों से मिलकर कहा था कि जिसके बीच में मैं रहूँगा उसको P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ macmoanasana VIRAL Sor VIDYA AVAN P.P. Ac. Gunratnasuri M.S., JESTACTORS - - K IFEST पदार रह RAAT HTT AAA Jun Gun Aaradhak Trust YYYYY चोरो ने राजाजी से कहा - चोरी को छोडकर दूसरी किसी भी चीजकी मांग कर सके है / पृष्ट 221 ( मु. नि. वि. नयोजित... ...विक्रम चरित्र दसरा भाग चित्र नं. 39) . Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमचरित्र द्वितीय--भाग 221 राजा से डर नहीं होगा, तब फिर हम लोगों की आज मृत्यु क्यों हो रही है ? इसका कारण ज्ञात नहीं होता !! उन दोनों पेटियों का मूल्य हमारे घर से ले लीजिये, जब राजा रुष्ट होता है तब लोगों का क्या क्या हरण नहीं करता ?' तब एक पेटी जो राजाने गुप्त रक्खी थीं सो पेटो सभा में लाकर हाजर की बाद में राजाने कोषाध्यक्ष से कहाकि दूसरी मणि की पेटी तुम ले आओ। तब राजा के डर से खिन्न होकर कोषाध्यक्ष ने शीघ्र ही दूसरी पेटी लाकर देदी। ___ तब राजा कहने लगाकि 'साथ साथ चोरी करने के कारण तुम लोग मेरे बान्धव ही होगये, इसलिये तुमको अब कुछ डर नहीं रहा / परन्तु तुम लोगों से एक वस्तु की याचना करता हूं।' तब चारों ने कहाकि चारी को छोड़कर दूसरी किसी भी चीन की याचना कर सकते हो। ____ तब राजाने कहाकि 'चोरी के पाप से लोग यहाँ तथा परलोक . में भी बहुत दुःख प्राप्त करते हैं। इस संसार रूपी वनमें भ्रमण करते रहते हैं / कहा भी है किः “काम न आता एक है-धीरज वृद्धि सुकम- . पर धन चोरी से वृथा-होता है सब धम / / " __ "दूसरे की चीजों के चुराने वाले की इस लोकमें व परलोकमें धर्म, धैर्य बुद्धि, इन सभी की चोरी (कमी) होजाती है / चोरी करने वाले के कुटुम्बी राजा से पकड़े जाते हैं तथा चोरी का त्याग करने से चोर भी स्वर्गको जाता है,जैसे रोहिणीया चोर स्वर्ग को गया। * अयं लोकः परोलोको धर्मो धैर्य धृतिः मतिः / मुष्णता परकीयं स्वं मुषितं सर्वमप्यदः // 1446 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 साहित्यप्रेमी मुनि निपञ्जनविजयजी संयोजित इसपर उन चारों चोरों ने चोरी नहीं करने का नियम जिन्दगी भर के लिये राजाके समीप ले लिया / इससे वे लोग सुखी हो गये। बादमें प्रसन्न होकर राजाने उन चोरों को जीविका के लिये सम्मान पूर्वक पांच सौ गांव दे दिये / बादमें चारों चोरों ने. अपने जीवन को बदलकर धम की ओर तथा सदाचार की ओर ध्यान बढ़ाया इससे वे चोर फिर से बड़े यशस्वी तथा राजा साही ठाट-बाट भोगते हुए राज्य के मालिक बने। "जब तुम आये जगत में, जगत हँसत तुम रोय / अब करणी ऐसी करो / तुम हँसो जग रोय / / " तपागच्छीय-नानाग्रन्थ रचयिता कृष्ण सरस्वती विरुदधारक-परम पूज्य आचार्य श्री मुनि सुदरसूरीश्वर शिष्य पंडितवर्य श्री शुभशीलगणि विरचिते श्री विक्रमादित्य विक्रम चरित्र श्री शत्रुजयोद्धारकरण स्वरूप वर्णनो : ___ नामाष्टमः सर्गः समाप्तः नाना तीर्थोद्धारक-श्राबाल ब्रह्मगरी--शासन सम्राट श्री मद्विजयनेमिसूरीश्वरस्य पट्टधर कवि रत्न शास्त्र विशारद-पीयूषपाणि जैनाचार्य श्री . मद् विजयामृत सूरीश्वरस्य तृतीयशिष्य . रत्न वैयावच्चकरण दक्ष मुनि .. श्री खान्तिविजय तस्य शिष्य - मुनि निरंजनविजयेन कृतो विक्रम चरित्रस्य हिन्दी भाषायां भावानुवाद : तस्य अष्टमः सर्गः समाप्तः ॥अष्टम् सर्ग समाप्तम् // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्री अवंतीपार्श्वनाथाय नमोनमः तेंयांलीसवाँ प्रकरण (नवमा सगका आरंभ). ...... देवदमनी ) सुरतसे कीरत बडी, वीन पंख उड़ जाया . सुरत तो जाती रहे किरत कबुह न जाय // . पंचदण्डछत्र कथा / संवत प्रवर्तक महाराजा विक्रम के शासनकालमें अवंतीमगरी बहुत ही आवाद थी. विश्वभरमें वह प्रसिद्ध थी. उस नगरीमें नायदमनी नामकी एक घाँसन रहती थी. वह बहुत ही चालाक, बुद्धिमान और मालदार भी थी. दूर दूर तक वह अति प्रसिद्ध थी. जनतामें उसके बारेमें कई प्रकारकी बातें होती थी. नागदमनी कई आश्चर्यकारक बातों से अपनी जिंदगी बिताती थी. सारी जनतामें उसकी चालाकी और बुद्धि के लिये सन्मान था। - उस नागदमनी को एक सुंदर स्वरूपवान कन्या थी... उसका नाम देवदमनी था. वह अपनी मातासे भी स्वाई थी. क्रमशः युवावस्था को प्राप्त कर वो अनेक कलामे निपूण हुई। . सारी अवंतीनगरीमे देवद्मनी की चालाकी, नीडरता और बुद्धि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4TATE विक्रम चरित्र बल आदि गुणों की खूब खूब प्रशंसा होने लगी. अवंती के राजमार्ग पर ही उसकी सुंदर हवेली शोभा दे रही थी. उसके वहाँ वहुतसी दासियाँ थी. उसका समय आनंद-प्रमोद से बीत रहा था / कोई एक दिन अवंतीपति महाराजा विक्रमराज हस्ती पर आरुढ हो लाव-लश्कर एवं दरबारियों को साथमें लेकर नगर बाहरके बगीचेमें आनंद-विनोद करने ‘पधारे, बहुत देर तक बागमें आनंद-विनोद मनाकर वापिस नगरीमें लोट रहे थे. राज दरंबारियों के साथ महाराजा की सवारी घाँसीवाडेमें नागदमनी घाँसनकी जो सुंदर हवेली थी उसके पासमें आ पहुँची। उस समय देवदमनी की एक दासी... हवेली के पासमें झाडू-बहारी लेकर स CHUSKHE PRILCATE FOREURS ALS BHA राजनौकर दासीको धूल उडाडनेकी मना कर रहा है नाचिन , P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित कचरा निकाल रही थी, उससे धूल बहुत उड़ रही थीं, राजनौकरने आगे आकर उस दासी से कहा:- : नौकर-बाई! घूल मत उड़ाओ। दासी-क्यों? ___ नौकर-महाराजा अवंतीपति की सवारी इस मार्ग पर आ रही हैं, देखों! . ..'ति TOIN नौकर और दासी की बातें सुनकर देवदमनी बोली, देवदमनी-क्या! महाराजाने अपने मस्तक पर 'पंचदण्वाला छत्र" धारण किया हुआ है - // देवंदमनीके मधुर वचन सुनकर महाराजा मन ही मनविचार-उलझनमें पड़ गये, वे सोचने लगे, क्या पंचदंडवाला छत्र भी हो सकता है ? "आजतक न कहीं देखा, न कहीं सुना यह आश्चर्यकारक बात का विचार मनमें राजा करते रहे, सवारी राजमहल आ पहुँची. ' 'देवदमनीके वचन महाराजांके कानोंमें. गुंज रहे थे, क्यों कि जगतमें पूर्वे कभी नहीं सुनी हुई नयी बात कहीं सुनी जाय तो उस बातको जानने के लिये सभीका बहुत इच्छा-इन्तेजारी रहती है. महाराजा सोचते थे कि 'मुझे / / पंचदंडवाले छत्रका वृतान्त सूझमें नहीं आता। तीनों महाराजाने राजमहलमें आकर देवपूजा करके पश्चात् शीघ्र 5 . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sani विक्रम परित ही भोजन किया, बादमें महाराजाने देवदमनीको बुलानेके लिये अपने नौकर को भेजा. नौकरने नागदमनीके घर नाकर कहा नौकर-हे नागदमनी! आपकी देवदमनी नामक कन्या को महाराजा बुला रहे हैं। .... नागदमनी-क्यों बुला रहे हैं? .... नौकर-आपकी पुत्रीने महाराजाके आगे कुछ न कुछ अधिक बात की होगी! उस अधिक बोलनेबाली को मेरे साथ शीघ्र ही राजसभा भेजो। नागदमनी-एसी छोटीसी बातों में महाराजा यदि कोपः करेगें तो, फिर प्रजा को बोलनेका कुछ अधिकार ही नहीं रहेगा, महाराजा उदार आशय और प्रजावत्सल होने चाहिए; जैसे पुत्रपुत्रियाँ मा-बाप के आगे कुछ भी कहे तो भी क्या... मा-बाप कोप करते हैं? नौकर-आप की पुत्री को महाराज दंड नहि देगें, क्यों गभराते हो? महाराजा आप की पुत्री से "पंचदंड वाले छत्र" का वृतान्त पूछना चाहते हैं। .. नागदमनी-राजाजी से जाकर कहो कि "विनय के बिना कदापि विद्या प्राप्त नहीं होती है!! ... नौकर-विना विलंब किये भाष की पुत्रीको महाराजा के पास भेजिये। ERE गया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 227 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित का नागदमनी उलझनमें पड़ गई थी, वह मनमें सोचने लगी . कि बालक-आदिके अज्ञानमूलक बचन सुनकर महाराजा कोंपकर कुछ कर बैठे. तो क्या होगा? इस तरह मन ही मन व्याकुल होने लगी, बादमें राजनौकर से बोली....नागदमनी-चलो! मैं ही महाराजा की सेवामें हाजीर होती हूँ। दोनों ही राजसभामें आये। नागदमनीको देख कर विक्रमने कहा ... . . राजा-तेरी पुत्री के वचन सुननेसे मुझे कोप नहीं हुआ है, पंचदंड वाले छत्र का स्वरूप नानने की इच्छा हुई है; इसीलिये मैंने तेरी पुत्री को राजसभामें बुलाई थी। जब तुमही आई हेा तो तुम ही वह पंचदंड वाले छत्र का वर्णन करो। . . . नागदमनी-हे राजन् ! आप उस पंचदंड वाले छत्र का वर्णन जानना ही चाहते हो तो, सर्व प्रथम आप के राजमहलसे मेरी हवेली तक सुंदर गुप्त-सुरंगमार्ग बनवाइये, फिर मेरी पुत्री के साथ चौपाट-चौसर बाजी खेलिये उसमें आप उससे तीन वार जीतो, बादमें उससे व्याह करना. हे राजन् ! मेरी पुत्री आप को पांच आदेश-कार्य बतायेगी, वह परिपूर्ण होने बाद मैं या मेरी पुत्री आपको पंचदंड वाले छत्र का सविस्तार वर्णन कह सुनायेगी। मी महाराजा-नागदमनी! आज तक तीनों भुवनमें 'पंचदंडवाले. छत्र' न कहीं देखा है, अथवा न कहीं उसका वर्णन सुना है। इस लिये तेरी पुत्री को राजसभामें मेजना, मैं शीघ्र तुम्हारे, कथनानुसार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 . विक्रम चरिक सब कार्य करवाऊंगा। इस प्रकार महारांजा का कथन सुनकर, वह नागदमनी राजसभासे अपने घर गयी। .... महाराजा दूसरे दिन मनोहर सिंहासन पर बिराजमान हो कर, अपने नौकरोंकों वुलाकर नागदमनी के कथनानुसार सब कार्य अति शीघ्रतासे करने की आज्ञा दी। महाराजाकी आज्ञानुसारं राजमहल और नागदमनी को हवेली के बोचमें प्रचुर धन खर्च करके एक सुंदर गुप्त. मार्ग शीघ्रातिशीघ्र बनवाया गया। महाराजाने देवदमनी को बुलाने के लिये अपने नौकर को उसके घर भेजा। नौकर-हे नागदमनी ! आप के कथनानुसार महाराजाने : सब कुछ करवाया है, इसलिये आपकी पुत्री को राजसभामें महाराजा वुला रहे हैं, मेरे साथ शीघ्र भेजिये। .. नाकर ....... नागदमनीने देवदमनीको नौकरके साथ सज-धज के जानेका कहा. - अपनी माताके कथनानुसार देवदमनी सुंदरसे सुंदर वस्नु-अलंकार आदि श्रृंगार सज-धज कर: राजसभा में जाने के लिये घर से रवाना हुई। एक तो युवावस्था है, साथ ही साथ सुंदर वस्त्र-आभुषण, आदि श्रृंगार सज, देवकन्या के समान शोभती हुई देवदमनी जब राजसभामें आयी तब सभी सभाजन आदि उसकी दिव्य रूप-कान्ति, देखकर क्षणभर उसके प्रति स्थिर दृष्टि से देखने लगे सब लोके मनमें विचार करने लगें, कि क्या? यह कोई देवलोक में से अप्सरा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 229 साहित्यप्रेभी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित तो यहाँ नहीं आयी? सारी सभा के लोक उसके रूपके प्रति आकर्षित हो गये। एक अनुभवी कविने ठीक ही ललकारा है "एक नूर आदमी, इजार नूर कपडां; सात लाख नूर टापटीप, क्रोड़ नूर नखरां // " Kitns Tyari dURTHI TTINUETNIL Hin .. महाराजा ओर देवदमनी द्यूत खेल रहे हैं। A1-42 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 1. 5 विक्रम चरित्र म उस देवदमनी से महाराजाने चोपाटबाजी-चौसर खेलने का आरंभ किया, खेलते खेलते समय बितने लगा. दोनों की दाव-पाशे बरोबर समान ही पड़ने लगी, महाराजा उलझनमें पड गये और मनमें विचारने लगे कि यदि यह मुझे जीत जायेगी तो जगतमें मेरी हाँसी होगी और लोक में मेरी निन्दा होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं; इस प्रकार का विचार कर महाराजाने अग्निवैताल का स्मरण किया, शीघ्र ही अग्निवैताल हाजीर हुआ, अब महाराजा उत्साहपूर्वक बाजी खेलने लगे, मध्याह्न होने लगा और भोजन का समय बीत रहा था, . तब महामंत्री आदिने महाराजासे भोजन के लिये निवेदन किया। महामंत्री हे राजन् ! भोजन का समय हो चुका है, इसलिये आप श्रीमान् भोजन के लिये पधारिये। / महाराजा- हे मंत्री! आप सब लोक भोजन कर लिजीए; मुझ को यहाँ से उठने का अभी अवसर नहीं है। मंत्रियोंने कहा हे स्वामी! भोजन नहीं करने से आप श्रीमान् का शरीर क्षीण हो जायगा; यह समस्त पृथ्वी आप ही के आधार पर है, इत्यादि मंत्रीगण बारं बारं कहते रहे, तब पिछले पहोरमें जब एक घण्टा दिन शेष रहा तब तक महाराजा चौसर बाजी खेलते ही रहे, तदन्तर रात्रिभोजन के पाप के डर से चालु चौसर बाजी पर वस्त्र आच्छादित कर के भोजन करने के लिये उठे। मार्कण्ड महर्षिने फरमाया है, किसूर्यास्तके बाद जलको रुघिर-लोही केसमान और अन्नको मांसके समान-बराबर मार्कण्ड महर्षिने कहा है, इस लिये बुद्धिमान मनुष्य को सर्वथा रात्रि भोजन नहीं करना चाहिए / 1 'अस्तं गते दिवानाथे भापो साधरमुच्यते, बन्नं मांससमः प्रोकं मार्कण्डेम महरिया 6.9-19 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wm साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनधिजय संयोजित 231 ___ अवंतीपति महाराजा भोजन कार्य निपटा कर देवदर्शन आदि नित्यकार्य करके संध्या समय बितने पर, जब कि निशादेवीने सारी पृथ्वी पर अपना राज्य फैला दिया था, उस समय वीर शिरोमणि विक्रम महाराजा अपने विषयमें प्रजाजन का क्या क्या अभिप्रायविचार है वह जानने के लिये नगरी में चुपचाप भ्रमण करने चले / अवंतीनगरीके चौरासी. चौटे- बाजारमें भ्रमण करते करते रात्रिमें प्रजाजन के मुखसे यह सुना कि “महाराजाने देवदमनी के साथ चोपाटबाजी-युत् खेलने का जो आरंभ किया, वह अविचारी कार्य है, क्या राज्यमें महाराजा को अच्छी शिक्षा-सलाह देनेवाला कोई मंत्री आदि नहीं है? सच ही यह चूत खेलने का आरंभ कर के महाराजाने अपनी मूर्खता प्रदर्शित की है; यह देवदमनी महान् देवी उपासक हैं, उसने तो सिकोतरी नामक देवी को सिद्ध की है, इसलिये उसको कोई पराजित नहीं कर सकता है / ". एक वृद्धने कहा कि भाई ! राजालोगो की रीति नीति विचित्र होती हैं; वे बड़े लोग कहलाते हैं। एक कविने ठीक ___ -कहा हैं ___ "राजा, जोगी, अगन, जल, इनकी उलटी रित 2 डरते रहिए. परसराम ओछी पाले मित. // " . .. अपने प्रजाजनों के मुखसे कई विचित्र बातें सुन कर मनमें कुछ खिन्न होकर महाराजा राजमहलमें आये; सुख शैया में सोये किन्तु विचारमशः बागृति अवस्था में हो रात्रि विताई P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 विक्रम चरित्र सच ही कहा है किचिंतासे चतुराई घटे, घटे रूप और ज्ञान चिंता बड़ी अभागणी, चिंता चिता समान.॥ दूसरे दिन नगरीमें महाराजाका भ्रमण ____ दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही महाराजा अपने ईष्ट देवादि का स्मरण करते सुखशैया से उठे और शौच' आदि प्रातःकार्य किये बाद में देवदर्शन-देवपूजादि नित्यकार्य पूर्ण कर महाराजा राजसभामें पधारे; छड़ीदारने छड़ी पुकारी. सभाजनोंने खड़े होकर राजाजीका सन्मान किया. देवदमनी तो राजसभामें प्रथम से ही आकर महाराजा की प्रतीक्षा कर रही थी. महाराजाने आते ही पूर्व दिनकी अपूर्ण रही हुइ चौसरबाजी खेलने का आरंभ किया. पूर्व दिन की तरह ही सारा दिन बीता, तीसरा प्रहर बीतने पर शेष दिन रहा तब मंत्रीगण. के आग्रह से बाजी पर वस्त्र ढांककर महाराजा भोजन करने के लिये : उठे / भोजन आदि सब कार्य निपटाकर रात्रि होते ही वेश बदल कर नगरीमें भ्रमण करने चले, भ्रमण करते महाराजा कारु और नारी के पा९में आ 1 कारु और नारु की जाति के नाम:। चक्रिको मोचिको लोहकारी रजक गंच्छिको माछिकः शूचिको भिल्ली बालिका कारवो नवीस. 8 // . स्वर्णकृन्नापितः:: : कान्दविकः . कौटुम्बिकस्तथा.. मालिकः काछिकश्चापि ताम्बुलिकश्च सप्तमः // स. 1-49 // F: मन्धर्वः कुम्भकारः स्यादेते। नारक स्मृताः I कोर-चिकित करनेवाले सुतार करेगा मोबिलोहारू / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित पहुँचे / वहाँ पर घूमते घूमते लोगोंको परस्पर बातें करते महाराजाने ईस तरह सुना कि-''महाराजाने देवदमनी के साथ द्यत खेलनेका आरंभ करके व्यर्थ ही दुःखको आमंत्रण दिया, यह दुष्ठबुद्धि देवदमनी राजाजीको अवश्य कष्टमें डालेगी, यह तो देवताओं का भी दमन करती है, "इसीलिये लोग उसको देवदमनी कहते हैं / " देवदमनी के . बारेमें अनेक प्रकारकी विचित्र बातें सुनकर महाराजा . अपने महलमें आये, सुख शैयामें सोये किन्तु नींद नहीं आयी, शैय्यामें सोते सोते विचारने लगें, कि - इसको में किस तरह पराजित कर शकु; कोई उपाय सूझमें नहीं आता.' थकावट के कारण अन्तिम - रात्रिमें थोडी नींद आयी.. प्रातःकाल होते ही मंगलशब्दों के साथ महाराजा जागृत होकर, नित्यकार्य और देवदर्शन-पूजा आदि कर राजसभामें आये, पूर्व दिनकी तरह चौसरबाजी खेलने लगें. खेलते खेलते. आज तीसरा दिन भी बीता;-सांयकाल का भोजन, देवदर्शन आदि नित्यकर्म कर रात्रि होते ही हमेशकी तरह अंधेर पछेड़ा ओढकर नगरीमें भ्रमण करने निकले। - धूमते धूमते " महाराजा नगरीके बाहर आये, जहां पर गन्धवाहा नामका स्मशान है उसके पासमें ही एक देवकुलीका४ रजक-धोबी, 5 घांसी-तेली, 6 माछिक-मच्छीमार, 7 दर्जी, 8 भिल्ल, 9 शिकारी, यह नव - कारु जाति कही जाती है / नारु :-1 सोनी, 2 हजाम, 3 कंदोई-मीठाइवाला 4 खेती करनेवाले-किसान, फूलमाली, 6 काछिक-खटिक तरकारी-शाक बेचने-- वाला, "तांबुलिक-पानवाला, 8 गन्धर्व-गायक वर्ग 9 कुम्भकार-कुम्भार यहः गव नाई जाति कही जाती हैं: fis WHERE P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 * विक्रम चरित्र miris छोटा मन्दिर था, उस देवकुलीकामें से डमरु की आवाज-ध्वनि सुनाई दीया। आवाज की गजके अनुसार महाराजा उस देवकुलीकामें आकर देखते हैं, तो वहाँ पर एक भयावह-भयंकर रूप देखा। जैसेकि-ऊँटके समान ओष्ठ, बिल्ली के समान आँखे, गधे के समान दांत, कुदाल के समान नख, पत्थर के समान अंगुलियाँ, बहुत बड़ा पेट, चिपटा हुआ नाक, मूषक- चूहे के समान कान, काली भयानक काया, और घृणा उत्पन्न करनेवाला मुख, विचित्र प्रकारके मस्तक पर केश, ढाल और तलवार युक्त दोंनो हाथ, गलेमें मानवकी खोपरियों की माला, हूकारा करता पृथ्वीको कम्पित करनेवाला और अश्वपर आरूढ साक्षात् यमके समान महा भयानक रूप-आकृति को देखकर वीरशिरोमणि महाराजाने आश्चर्य प्राप्त किया, क्षेत्रपाल और महाराजा विक्रम पि में. 3::: R.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित ....... 235 " वह भयानक आकृति देवकुलीकामेंसे शीघ्र बाहर आयी तो उसके पीछे पीछे मानों बड़ी सेना दिखाई देने लगी, महाराजाने उचें-स्वरसे उसको पूछा कि-आप! कौन है ? और कहाँसे आये हैं? . ___ सामनेसे अवाज आयी मैं इस नगरी को प्रतिदिन रक्षा करनेवाला क्षेत्रपाल हूँ। . महाराजाने कहा-मैं परदेशी हूँ मेरा नाम विक्रम है, यदि तुम इस नगरीके रक्षक हो तो इस समय. राजाकी रक्षा करो. _ तब ज्ञानसे सर्व हाल जानकर क्षेत्रपाल बोला कि 'इस समय राजा देवदमनी की संकट-जालमें फँसा पडा है; भाग्य से ही इस संकटमेसे राजा का छूटकारा हो जाय. राजा व्यर्थ ही उससे स्पर्धा कर रहा है, उसको देवता अथवा दैत्य-राक्षस भी जीत नहीं सकते हैं.' . 19. ., ... महाराजा-हे क्षेत्रपाल! आप एसा करो कि-जिससे राजा जित जाय, इस कष्ट से उसका छूटकारा शीघ्र ही हो जाय। . :: : क्षेत्रपाल-तुम्हारे आगे कहने से क्या लाभ ? यदि राजा बलि वमेरह देकर पूछेगा, तो सब बातें कहुँगा! : 10 महाराजा-मैं तुम्हारी बलि आदि देकर पूजा करूंगा, तुम' प्रसन्न हो कर, राजा के जय का उपाय बतालायें, तब क्षेत्रपालने राजाको पहचान कर कहा कि-हे राजन्! तुमने जो इस देवदमनी के साथ धूत-चौसरबाजी खेलने का आरंभ किया हैं, वह अच्छा नहीं किया, क्योंकि वह दुःसाध्य है! P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 विक्रम चरित्र __महाराजा-क्षेत्रपाल ! मैं तो उसके साथ चोपटबाजी. खेलने का आरंभ कर चूका 6, अब तो मैं प्रतिज्ञाभंग के, भयसे उसका त्याग नहीं कर सकता हूँ; मैं तुम को बलि दूंगा, तुम जयका कोई उपाय अभी बतलाओ। . . 181 .... क्षेत्रपाल–देवदमनीके आगे मेरा नाम नहीं लेना, क्योंकि वह देव और दैत्य सबसे दुःसाध्य है। ... महाराजा-मैं आपका नाम किसी के आगे नहीं दूंगा। क्षेत्रपाल–अनेक वृक्षोंसे व्याप्त एक सिद्धमीकोत्तरं नामका पर्वत है, वहाँ पर सिद्धसीकोत्तरी . नामक देवीका एक मनोहर मन्दिर है, जहाँ सिद्धसीकोत्तरी देवी अपने प्रभाव से " रहती हैं; इस कृष्णचतुर्दशीको रात्रिमें वहाँ इन्द्र आवेगा, चौसठ योगिनीयाँ, बावन वीर, गणाधिप, भूत, प्रेत, पिसाच, आदि अनेक प्रकार के देवता आयेंगे; वहाँ उस सभामें वह देवदमनी अद्भुत नृत्य करेगी. उस समय 'तुम जाकर गुप्त रूप से रहे कर. नृत्य . करनेके समय उसके चितको क्षोभित व्याकुल कर उसकी तीन वस्तु हरण कर नगरमें आना, बाद धूत-चौसरबाजी खेलते समय इन तीन वस्तुएँ पृथक् पृथक् दिखायेगे, तो देवताओं को भी दुःसाध्य वह देवदमनी शीघ्र तुम से पराजित हो जायगी. क्षेत्रपालते कही हुई इन सब बातों को समझकर-मनमें प्रसन्नताको धारण करते हुए; महाराजा विचारनेः लगे, कि अब मेरे सब मनोरथ सिद्ध हो गये. सका भाग्यके बिना देव, दानव या मनुष्य किसी का भी मनोरथ, शीघ्र P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 237 साहित्य मी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित सिद्ध नहीं होता। इस प्रकार विचार करते करते अपने सब कार्य सिद्ध हुए मानता हुआ महाराजा अपने महलमें आये. और सुख शैयामें सुखपूर्वक सोये, सोते हुओ शीघ्र ही निद्रा'घिन हुए, क्योंकि शिरपर की चिंता आज दूर हो गई थी, इससे रातभर आनंदसे सोये। ... - प्रातःकाल होते ही मंगल शब्दोंसे जागरित हो महाराजाने प्रातः कार्य और देवदर्शन पूजन आदि कार्य निपटाकरः क्षेत्रपालका आह्वान् कर भक्तिपूर्वक आठ. मूटक प्रमाण बलि देकर, नाना प्रकार के सुगंधी पुष्पों से क्षेत्रपाल का बहुत ठाठ से पूजन किया। .बादमें महाराजा राजसभामें आकर देवदमनी के साथ चौसरबाजी खेलने लगे, पूर्व की तरह शामको राज महल में पधारे, भोजन आदि : अग्निवैताल हाजीर हुआ और कहने लगा, कि " हे राजन् ! क्या कार्य है बताईए R E PASHRS पुन्हा जी को भी .. . .. . 11... . .. .. . . . .... . .. ...... . . . .... . ... महाराजाने अग्निवैताल के आगे सब वृत्तान्त कहा और कहा देशी है. अभी ही सिद्धसीकोत्तरी के पर्वत पर जाना है; वहाँ पर इन्द्र को सभामें आज देवदमनी नृत्य करने वाली हैं. अग्निवेताल विक्रम महाराजा को कन्धे पर लेकर रात्रिमें सिद्धसीकोत्तरी पर्वतपर आ पहुंचा; इन्द्र की सभामें अदृश्य-गुप्त रूपमें अग्निवैतालं और महाराजा चपचाप आयो i T i STATE THE HERE THE Pos : P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 238 विक्रम चरित्र Wate SENA LER CORDER : अग्निवैतालके कंधेपे बेठकर विक्रम सिद्ध सीफोत्तरी पर्वतकी ओर जा रहा है चित्र नं. 1 इन्द्र की सभामें अनेक देवता, चौंसठ योगिनियाँ, बावन वीर, अनेक भूत, प्रेत और विचित्र रूपको धारण करनेवाले राक्षस आदि से भरी हुई थी। सभी के बीचमें देवदमनी सुंदर श्रृंगार सज-धज और हाव-भाव समय महाराजाने अग्निवैताल को कहा कि-किसी भी तरहसे इसको क्षोभित-व्यांकुल करो, तवं अग्निवेताल-भ्रमर. बनकर नृत्य करती हुई देवदमनी के मस्तक पर से पुष्पको पांवके झांझर पर मिराया, अकस्मात् फूलका गिरना तथा भ्रमर को देख कर देवदमनी क्षोभित खलबली-व्याकुलं हो गई। देवदमनी का सुंदर नृत्य और मनोहर गीत सुनकर- इन्द्र आदि समस्त सभासद् प्रसन्न हुए; ईस प्रकार के मधुर आलाप के साथ मनोहर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निग्अनविजय संयोजित 239 TAMIN WA Sin सिद्धसीकोत्तरी पर्वत पर इन्द्र की सभामें देवदमनीका नृत्य.... चि. नं AN SER PM SEY नृत्य देख महाराजा विस्मय प्राप्त कर मनमें सोचा, " यदि यह कन्या मेरी गृहिणी नहीं हुई तो नपुंसकं-हिजड़े के . समान मेरा जन्म व्यर्थ समजुंगा." इस तरह राजा संकल्प-विकल्प करता रहा. - इन्द्र महाराजाने देवदमनी पर प्रसन्न होकर, एक दिव्य फूलोंकी P.P:AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 240 विक्रम चरित्र माला भेट दी; देवदमनी जब वह माला अपनी सखी को दे रही थी. उस समय बीचमें से ही अग्निवैतालने माला का हरण कर विक्रमराजा को दे दी। मनोहर आलाप और मधुर गीतो सुनकर फिर इन्द्र महाराजा आदि देवता लोग बहुत संतुष्ट हुए, तब एक श्रेष्ठ नूपुर-झांझर देवदमनी को भेट दिया, वह झांझर जब अपनी सखीको देने लगी तब उसका भी अग्निवैताल ने हरण कर राजा को दिया. देवदमनीने पुन: उत्साहपूर्ण हो कर मनोहर आलाप के साथ सुंदर नृत्य किया, वह देख इन्द्र महाराजाने पुनः प्रसन्न हो कर एक पानबिडाताम्वुल देवदमनी को दिया, वह भी अग्निवैतालने हरण कर महाराजाको दे दिया। इस प्रकार इन्द्र महाराजासे दिया हुआः 1 दिव्यमाला, 2 श्रेष्ट झांझर, 3 ताम्बुल ये तीनों वस्तुएं लेकर राजा अग्निवैतालकी सहायतासे अपने स्थान पर चला आया। निश्चित होकर महाराजा सुख शैयामें सोये, बहुत रात्रितक जागनेसे प्रभात होने पर भी आज महाराजा जागृत नहीं हुए थे, इतने में देवदमनी सज-धज कर राजसभामें आयी, तब अंगरक्षकने कहा, "अभी महाराजा सोये है." तब नौकर के द्वारा देवदमनीने महाराजा को कहा, "यह क्या तमाशा कर रहे हो! तुमने मेरे . साथ चौसरबाजी खेलने का आरंभ किया, और अभी तक निश्चिन्त हो सुखपूर्वक सो रहे हो?" "आज कुछ अधिक नींद आ गई." ऐसा कह - कर महाराजाने शीघ्र उसके साथ पूर्वकी तरह चौपटबाजी खेलने का प्रारंभ किया. ... चौसरबाजी खेलते हुये महाराजाने कहा, " तुमने मुझको जबरदस्ती से क्यों उठाया ?" - तब देवदमनीने कहा, "मेरे साथ स्पर्धा कर के क्यों सो गये?" P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रमा मुनि निरञ्जनविजय संयोजित खेलते खेलते छल-कपट से महाराजा नींद आती हो वैसे झोंके खाने लगे, झोंके खाते हुए राजा को देख देवदमनीने कहा, "क्या आपको नींद आती है?" तब महाराजा बोले, "आज सीकोत्तर पर्वत पर-कौतुक देखते रहने के कारण मुझको रात्रिमें निद्रा नहीं आयी, इसी लिये आलसझोंके आ रहे है." इस तरह बातें कर खेलते खेलते महाराजाने कहा, "सीकोत्तर पर्वत पर इन्द्र की सभामें सुंदर रूप धारण कर एक नर्तक गर्वसे सुंदर नृत्य करते हुए, भ्रमरको देखकर व्याकुल-चंचल हो गया." ऐसा कह कर जब राजाने फूल की माला दिखाई, तब चित्तमें व्याकुलता प्राप्त कर देवदमनी बाजीके प्रथम दाव-पाशा हार गई। क्यों कि "नदी का वेग, हाथी का कान, ध्वजाका वस्त्र इन सब के समान चित्त, धन, यौवन और आयु चंचल-अस्थिर है "+ पुनः चौसरबाजी खेलते पूर्व की तरह बातें करते हुए महा- . राजाने ताम्बुल दिखलाया, तब दूसरी बार देवदमनीने पार्शमें हार प्राप्त की, बादमें पुनः खेलते रहे और महाराजाने बातें करते हुए, जब झांझर . दिखलाया तब देवदमनी तीसरी बार भी चौसरबाजी के पारों में शीघ्र , हार गई-पराजित हो गई। - क्यों कि सच ही कहा कि . 'बहुत धनाढ्य होने पर भी चिंता से आतुर मनुष्य का चित्त __ शीघ्रतासे कार्य करते हुये अस्तवस्त-अस्थिर हो जाता है / + चलं चित्तं चलं वित्तं चलं यौवनमेव च। . चलमायुनंदीवेगगजकर्णध्वजान्तवत् // 108 // सर्ग 9 // 1 चिन्तातुरस्य मर्त्यस्य भूरिलक्ष्मीवतोऽपि च। विसंस्थुलं भवेच्चित्तं कुर्वतः कार्यमञ्चसा // 111 सर्ग 9 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~AM 242 FER विक्रम चरित्र Fji क्षणमें अनुरक्त-प्रेमवान, विरक्त-अप्रसन्न क्षणमें, क्रोधवान, क्षणमें क्षमावानं; इस प्रकार मोह अज्ञानवश बातबातमें कपि-बंदर के समान चंचल-विवल हो जाते है, उसके साथ प्रीति कीस काम की? ...1.417, महाराजाने देवदमनी को चौसरबाजी में तीन बार पराजित कर के उस की माता की साक्षी में बड़े उत्सव और धामधूम से विवाह-शादी। कर ली. देवदमनी के साथ महाराजा का विजय और विवाह के समाचार चारों ओर नगरीमें फैल गये, इस बात को सुनकर सब लोग आनंद मनाने लगे. नीतिकारने कहा है..'बालक से भी हित कारक-अच्छी बात का ग्रहण करना चाहिये, अमेध्य-अपवित्र वस्तुसे भी सुवर्ण निकाल लेना चाहिये, नीच व्यक्ति से भी उत्तम विद्या लेनी चाहिये और दुष्कुल-हलके कुल में से भी स्त्रीरत्न ले लेना चाहिये.२ . या महाराजाके आदेशानुसार मंत्रीगणने ध्वजा-पताको और तोरणों से सारी नगरी को सुशोभित की. स्थान स्थान पर नृत्य, गीत आदि कर उत्सव मनाया, सारी प्रजा आज आनंदसागरमें स्नान करने लगी, भाट, चारण और याचक गणको महाराजाने बहुत सा दान दिया, चारों और महाराजा की बहुत प्रशंसा होने लगी और जय जय कार हुआ. लोगों की वैसी ही बुद्धि उत्पन्न होती है, वैसी मति और वैसी ही भावना और सहायक भी वैसे ही मिल होते है, कि जैसी होनहार ...भवितव्यता होती है। 2 बालादपि हितं ग्राह्यममेध्यादपि काञ्चनम्। नीचादप्युतमा विद्या स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि // 114 / सं. 9 / 3 सा सा संपद्यते बुद्धि : सा मंति: सा च भावनी / / सहीयास्तादृशा ज्ञेया' यादृशी भवितव्यता // 117 / स; .9 / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुम्मालिसवाँ प्रकरण रत्नपेटी प्राप्ति के लिए प्रयास हे मर्द वो जो काम पर, अपने डटा रहे। मेदानमें उत्साह से, आगे सदा बढता रहे // पाठक गण! आपने गत प्रकरण में देवदमनी के कथनानुसार पंचदंड वाले छत्र की प्राप्तिके लिए देवदमनी को चौसरमें हराने का रोमांचकारी हाल पढ़ा है। अब आप महाराजा विक्रमादित्य का साहसपूर्वक उनकी बुद्धिमानी से देवदमनी के द्वारा बताये गये पाँच आदेशों को पूर्ण करने की तथा पंच-दंड-वाले छत्र को प्राप्त करने का हाल ध्यानपूर्वक पढ़ें. महाराजा का देवदमनी के साथ बड़ी धूमधाम से विवाह सम्पन्न हो गया। महाराजा का समय आनंद प्रमोदमे बित रहा था. ' एक दिन अवसर प्राप्त कर महाराजाने नागदमनी से कहा, "तुम्हारे कथनानुसार तीन बार चौपटबाजीमें तेरी पुत्री को जीतकर प्रतिज्ञा के अनुसार, जैसे विषमेंसे भी अमृत ले लेना चाहिये, इस उक्ति को प्रमाण कर दुष्कुलमें उत्पन्न तेरी पुत्री के साथ उत्सवपूर्वक मैंने विवाह किया. अब तुम पंचदंड वाले छत्रका स्वरूप कहो और उसको प्राप्त करने का उपाय बताओ.": . अवसर पाकर नागदमनीने महाराजा से निवेदन किया, "हे महाराजा! अगर आप अबशीघ्र ही मेरे पाँचों आदेशों को पूर्ण करें तो मैं P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . विक्रम चरित्र 24 भी अपने प्रण को पूरा कर आपको पंचदंडवाला छत्र प्राप्त करवाऊं. अत: आप मेरे बताये अनुसार कार्य करने का प्रयत्न करें." कह कर नागदमनीने कहा, "हे राजन! ताम्रलिप्ति एक बड़ी सुंदर नगरी है, जिसके महाराजा के महलकी तीसरी मंजिल में एक प्रकाशमान रत्नों की पेटी है; अतः उन रत्नों से पंच-दंडवाले छत्र की जाली बनानी . होगी, वैसे रत्न आप के खजाने में भी नहीं हैं, अतः आप उन्हें शीघ्र ही ले पधारें." - नागदमनी की यह बात सुन महाराजा विक्रमादित्य अपने कार्य में लग गये. आपने अपनी नगरी की रक्षा का भार अपने सुयोग्य मंत्री भट्टमात्र को सौंप कर नागदमनी के बताये अनुसार ताम्रलिप्ति नगरी की ओर प्रस्थान किया. ताम्रलिप्ति नगरमें प्रवेश रास्ते में अनेक वनों, नदियों, पहाडों और ग्रामों को पार करते हुए महाराजा विक्रमादित्य अपने केन्द्र बिन्दु नगर के निकट पहुँचे. दूर से ही महाराजा को ताम्रलिप्ति नगर बड़ा ही आकर्षित करने लगा. नगर की सीमा के पूर्व ही एक सुन्दर बाग आया जो बड़ा ही सघन एवं सुन्दर था. अगर उसे नन्दनवन कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगा. इस बाग में लवंग, इलायची, दाखे, ईख आदि विविध फल फूल आदि के वृक्षसमूह भी सोने में सुगंध का काम कर रहे थे. पवन को सुगन्धित शीतल लहरियों प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षिता कर देती थी. . . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित .245 महाराजा विक्रमादित्य भी इस बाग से आकर्षित हो देखने की इच्छा से उस बाग में जा पहुँचे. वहाँ जा कर महाराजाने देखा कि वहां नगरके सभी नागरिक एकत्र होकर भोजन बना रहे हैं, यह देख महाराजाने यहाँ किसी भोज या उत्सव आदि के होने का अनुमान लगाया. पर जब महाराजाने नगर के एक व्यक्ति से इसका कारण पूछा तो उत्तर में उसने कहा, " हे भाई! हमारे नगर के महाराजा चन्द्रने बहुत सा धन खर्च करके अपने नगर को रत्नभय ही बना दिया है, नगर में बडे बडे सुन्दर महल हैं / जिसमें चित्रशाला, हाथीदांत की पुतलियाँ है जो श्वेत निर्मल जल की तरह सुशोभित होती है . चंद्रोदय के समान सफेद मोतियों की जालियां जगह जगह लगी हुई हैं . इस सब सुन्दरता के रक्षण के लिए महाराजा का आदेश है कि नगर में कोई भोजन न बनाये कारण कि भोजन बनने से नगर में धुंआ होगा और उससे नगर की सुन्दरता के नष्ट होने का भय है." बाद में उस व्यक्तिने महाराजा का अतिथीरूप में स्वागत कर, भोजन करवा कर विश्राम करने के लिए निवेदन किया. इस से राजा और भी अधिक प्रभावित हुआ. वह कहने लगा, "भोजनके बाद वृक्षों की छायामें विश्राम करके सब लोग संध्याकालमें नगरमें चले जायेंगे. हमारे इस नगरकी शोभाकी समानता लंका या अमरावती कोई भी नगर नहीं कर सकता. श्री जिनेश्वर देवों के, शिवजी के और कृष्णजी आदि देवों के सुंदर मन्दिरों के समूहों से. कैलास पर्वत के समान घवल नगर अत्यन्त शोभायमान है." :: यह सुन कर विक्रमादित्यने सोचा, " अब मेरा अभिलाषित P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 1246 विक्रम चरित्र कार्य यहाँ अवश्यमेव सिद्ध हो जायगा. क्योंकि इस प्रकारका नगर, "राजा, धनाढय व्यक्ति आदि के देखने से तथा हाथी, अश्व, छत्र, चामर आदि के देखने से और शुभ-मनोहर शब्द सुनने से कार्य सिद्ध होता है, एसा शुकन शास्त्रोमें कहा गया है." ऐसा विचार करते हुए विक्रमादित्य उद्यानमें भोजन तथा विश्राम कर के नगर के द्वार पर आये. स्थान स्थान पर हाथी, अश्व और गगनचुम्बी हवेलियों को देखता हुआ स्वयं राजा अदृश्य शरीर हो कर नगर के मध्यमें घूमने लगे. इधर राजा चन्द्र भी सब लोगों के साथ प्रसन्तापूर्वक संध्याकालमें अपने अपने स्थान पर आये. चन्द्र राजाकी कन्या लक्ष्मीवतीने अपने राजमहल की सातवी मंजिलमें जा कर, नगरमें से श्रेष्ठ नर्तकियों को बुला कर मनोहर आलाप और संगीत का सुंदर नृत्य कराया. नृत्य चल रहा था ; राजपुत्री सुखपूर्वक सुन रही थी, उस समय विक्रम महाराजा अदृश्य रूपसे नगरमें घूमते धूमते वहाँ आये और अदृश्य रूपसे राजमहल की सातवी मंजिल पर जा कर प्रसन्नतापूर्वक मनोहर नृत्य देखने लगे. बहुत रात्रि तक नृत्य करा कर तथा आदरपूर्वक ईनाम और तांबुल देकर नर्तकियों को बिदा कर के राजपुत्रीने द्वार बन्द करा दिये. विक्रमादित्य रत्नकीपेटी लेने के लिये महल में गुप्त रूपसे रहे थे, ११महाराजा विक्रमादित्य राजकुमारीके महलमें अदृश्य रूपमें रहे, उसी समय रात्रिमें राजकुमारीके पूर्वसंकेतानुसार भीम नामका कोई राजा प्रतिघण्टा दश कोस चलनेवाली सांढनीको राजमहलके निचे रख Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 247 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित कर, लंबे वांसकी सहायतासे राजमहलमें आकर राजकुमारीसे कहा, " हे राजकुमारी ! शीघ्र आओ और सांढनी पर बैठकर चलो. समय मत बिताओ अब यहाँसे चलेगें." तब राजकुमारीने कहा, 'हे राजन् ! पहले मेरी रत्नपेटीको शीघ्र निचे उतारो, बाद मैं आऊँगी." तब भीभने उस प्रकार किया. रत्नपेटीका हरण जब वह लक्ष्मीवतीको लेकर निचे उतरने लगा तब विक्रमादित्य विचारने लगा, " यह भीम रत्नसे भरी पेटी और राजकन्याको लेकर शीघ्र चला जायगा." ऐसा सोचकर अदृश्य रूपसे अग्निवैतालकी सहायतासे बड़ी शीघ्रतासे विक्रमादित्यने राजकन्याके मस्तक परका -वस्त्रहरण कर लिया. बादमें लज्जाके कारण जब राजकन्यां दूसरा वस्त्र लानेके लिये महलमें गई तबतक राजा विक्रमादित्यने अग्निवेतालकी सहायतासे भीमको उठा कर दूसरे देशमें रखवाया और स्वयं उसके स्थान पर खड़ा हो गया. जब कन्या दूसरा वस्र ओड़ आई तब . उसको सांढनी पर चढ़ाकर पेटीके साथ साथ राजा विक्रमने चहाँसे चल दिया.. सांढनीको उज्जयिनीकी ओर जाते हुए देखकर राजकुमारीने कहा, "हे स्वामिन् ! पूर्व दिशाको छोडकर दक्षिण दिशा में क्यों जा रहे हो ?" / तब विक्रमादित्यने कहा, "भीलोंकी वस्तीमें भीमपुर नामका एक गाँव है; वहाँ पर अनेक प्रकारके नट, धूर्त आदि रहते हैं. चतुरंग नामके भीलके घर एक दिन मैं गया था. वहाँ जाकर एक कन्या Jun Gun Aaradhak Trust P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 :-, विक्रम चरिश NAL ASNA A RE anASST KEEPERSON llIC/से महाराजा विक्रम राजकुमारीको सांढनी पर चढा कर चले. चित्र नं. 6 और बहुतसा द्रव्य जुगारमें मैं हार गया था, इस लिये वहाँ जाकर धन और तुम्हें देकर में ऋणसे मुक्त होना चाहता हूँ.” - यह सुनकर वह कन्या डरती हुई मार्गमें अपने कर्मकी निन्दा करने लगी. " मैंने बिना विचार किये ही यह कार्य कर लिया. अब इस मनुष्य से मेरा छुटकारा कैसे हो सकेगा ? मैंने सोचा था कुछ, परन्तु हो गया कुछ और ही. मैं अब क्या करे ?" राज़ कन्या बडे संकट में पड़ गई. सच ही कहा है, 'हरेक प्राणी के सुख या दुःखका कर्ता अथवा हर्ता अन्य कोई नही है. लोग अपने किये हुए कर्मका ही फल भोंगा करते हैं. ' अब हृदयमें सन्तोष कर लेना ही ठीक है, क्यों कि जो होनहार है वह होके ही रहेगा. भाग्यको दोष देनेसे क्या लाभ ? अब मैं छुट कर कहीं भी नहीं जा सकती.' . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 249 ..... उन्मार्ग में चलनेसे वृक्षकी अस्तव्यस्त कंटीली डालियोंसे पीड़ित होकर वह कन्या बोली, "धीरे धीरे चलो. क्यों कि मेरे शरीरमें वृक्षकी शाखाओंसे पीडा हो रही है." - . . विक्रमादित्यने कहा, 'यदि वृक्षके कण्टकोंसे पीडित होती हो तो मेरे जैसे घतकारके हाथमें पड़ कर क्या सहन कर सकोगी?' यह सुनकर राजकुमारो मन ही मन अत्यन्त दुःखित होती हुई चुप रह गई... बहुत तेजगति से चलनेके कारण शीघ्र ही राजा विक्रमादित्य अपने राज्यकी सीमामें पहुँच गये. पर संध्या समय निकट होने से उन्होंने एक नदीके तट पर अपनी साँढनीको बैठाकर दोनों नीचे उतरे. राजाने उस राजकुमारीसे कहा, "हे राजकुमारी ! मैं अव सोता. हू. तू मेरे पाव दबा. " .... KNO HWAR . महाराजा विक्रम सो गये ओर राजकुमारी पांव दबाने लगी. चि नं. 7 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 विक्रम चरिख mmmmmmmmmmmm कन्या राजाके पाँव दबाने लगी. थोडे ‘समय बाद दूरसे सिंहका शब्द सुनाई पड़ा. सिंहके शब्दको सुनकर राजकुमारी राजाको उठाने लगी. और कहने लगी, " यहाँ पर भयंकर शब्द सुन रही हूँ." तब राजाने उठकर सिंहका शब्द जिस दिशासे आ रहा था उसी दिशा में एक बाण फैंका और पुन: उसी स्थितिमें सो गया के कुछ कालके बाद वह कन्या पुनः बाधका शब्द सुनकर अत्यन्त डरती हुई राजाको जगाकर अत्यन्त गद्गद् कण्ठसे कहने लगी, "अब बाघका शब्द सुननेमें आ रहा है." तब राजाने उठकर बाघके शब्दकी दिशामें बाण मारते हुए बोला, "हे बालिके ! डरो नही." ऐसा कह कर निर्भय होकर पुनः सो गया. WEST ફ્લેખ महाराजा विक्रमने उठ कर शब्दकी दिशामें बाण मारा. चि. नं. 8 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmm ~ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित / र प्रातःकाल कुमारी को बाण लाने के लिये भेजी. वह मृत सिंह और बाघ के समीप गई जौर उन्हें मरा हुआ देख कर, बाण उनके शरीरमें से लेकर राजाकों दियें. राजाने उन्हें लेकर वापस अपने तूणीरभाथा में रख लिया. . . - AAR RE VOM MARAT JAIN ESS SHARENESH HD 8 Eve राजकुमारी बाण लेकर आई और राजाको देती है. चि. नं 9. राजाने कुमारी को कहा, "हे बालिके ! तुम उत्तम भद्र स्वभाववाली हो. मैंने जो यह कार्य किया है, उसे किसी के आगे. कहना नहीं.” 7 यह बात सुन कर राजकन्याः अपने मतमें विचार. करने लगी, यह कोइ. निश्चय ही एक उत्तम पुरुष है, . इस की धीर व. गंभीर वाणी से यह एक वीर पुरुष ज्ञात होता है, सिंह की भांति -- ही इस के सारे गुण मिलते है जैसे कि, : .., जि .. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 की / विक्रम चरित्र "मैं हूँ अकेला, कोई नहीं है, मेरा साधन जीवन का। जंगल में सोये सिंहो को, कभी न होता भय तन का". hd इस जगतमें जैसे अपनी शक्ति को विना प्रगट किये शक्तिवान मनुष्य को लोगों से तिरस्कार प्राप्त होता है, क्यों कि वही अग्नि, काष्ट में भी होते हुओ उस्का लोग तिरस्कार करते हैं किन्तु प्रगट--ज्वलित अग्नि का कोई लोग तिरस्कार नही कर सकते. + .PV MMUSEU KAISE A KUT ANAM INNI JAN CON रूपश्री वेश्या राजकुमारी के पास आती है. और अपने यहां ले जाने का प्रयत्न करती है . चि.नं. 1. इस के बाद वहाँ से सांढनी पर बैठ कर राजकुमारी के साथ राजा लक्ष्मीपुर के उद्यान में पहुँचा। वहाँ नदीके तट पर राजकन्या, + अप्रगटीकृतशक्तिः शक्तोऽपि जनात्तिरस्कियां लभते / निघसन्नन्तरुणि लङ्घयो वहिन तु ज्वलितः // स. 9/176 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेभी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 253 रत्नकी पेटी और सांढनी को छोड़ कर राजा नगर में भोजन सामग्री लेने के लिये गया. राजकन्या और रत्नपेटी का हरण इधर उस नगर में रहनेवाली रूपश्री नामकी नगरकी नायिका वेश्या उस उद्यान में आई, पेटी तथा सांढनी के साथ राजकुमारी को लेकर वह अपने घर चली आयी। वह वेश्या रूपश्री मनमें सोचने लगी, "यह कन्या अत्यन्त रूपवती है, इस लिये अब इस के द्वारा मेरे घरमें हमेशां राजकुमार और बड़े बड़े धनीलोग आयेंगे." वह वेश्या उस राजकुमारीको कहने लगी, "मेरे घरमें आये हुए पुरुषों को तुम प्रसन्न किया करो. यहाँ हम लोगों को राजाकी स्त्रियों से भी अधिक सुख होता है." यह सुन कर राजकुमारी कहने लगी, ..." मैं दुर्गति देनेवाला तुम्हारा धर्म कदापि स्वीकार नहीं करूँगी. क्यों कि :'मदिरा मांस खास भोजन है, जिस कुलटा नारी जनका, नही ठिकाना कहीं कुच्छ हैं, जिस अभागिनी तन मनका; कौन महान पुरुष चाहेगा, उस वेश्या संग वास कभी, वेश्या के संग रहनेवाले, होते रिट नट घूर्त सभी.' चरपुरुष, भट, चोर, दास, नट, विट, आदि से चुम्बित वेश्या के अधर पल्लव का कौन कुलीनपुरुष चुम्बन करता है? + + कथुम्बति कुलपुरुषो वेश्याधरपल्लवं मनोज्ञमपि / / चारभटचोर चेटक. नटविट निष्ठीवन शरावम् // स. 9/183 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FF विक्रम चरित्र FE जो अनेक प्रकार के विट, समूहों से झूठा है तथा मद्यमांस में नीरत और अत्यन्त नीच, वाणी से कोमल और चित्त से दुष्ट वैश्या को कौन विशिष्ट-सदाचारी पुरुष स्वीकार करता है?१ ... - वेश्यायें इसलोक में सदा नीच पुरुषों की संगति करती है; इसलिये वह दूसरे जन्ममें अवश्य नरकगामिनी होती है." इस प्रकारके अच्छे विचारोंवाली उस राजकुमारीको वेश्याने कोतवाल पुत्रको अर्पण कर दी. राजकुमारी सोचने लगी, " मैं किस प्रकारके संकटमें पड़ गई? अपने पूर्वजन्म से कोई भी व्यक्ति छुट नहीं सकता. मैंने पूर्वजन्ममें ऐसा कौनसा दुष्कर्म किया होगा ? जिससे मुझे अत्यन्त दुःख देनेवाली यह विपत्ति प्राप्त हुई है. "काला करम न रुसीइ देव न दीजइ दोस; लिखिउं लाभइ सिरतणउं अधिक न काजइ सोस. " प्रातःकाल मैं तुमसे विवाह करूंगा." ऐसा कह कर उस कोतवाल पुत्रने राजकुमारीको घरके झरोखेमे बैठा कर मोजमानने को वह समान वयके लड़कोंके साथ क्रीडा करनेके लिये समीपके बगीचेमें गया. वहाँ बालकोंके साथ क्रीडा करते हुए बिल्लीके मुखमें एक चूहेको देखकर मिट्टीके ढेलेसे मार कर लडकोसे कहने लगा, " तुम लोग' मेरे बाहुबलको देखो, क्यों कि मैंने अभी एक ही मिट्टीके ढेलेसे चूहेको मार डाला. मेरेः समानः बलवान संसारमें कोई नहीं है 1 या विचित्र विटकोटि निघृष्टा. मद्यमांस. निरताऽति निकृष्टा कोमला वचास चेतसि दुष्टा तां. भजन्ति गणिकां न विशिष्टः स.९ // 18 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित इस लिये कहा है कि तुलाका दण्डमान और दुर्जनका . व्यवहार समान ही हैं; क्यों कि ये दोनों थोडेमें ही ऊपर जाते हैं और थोडे में ही नीचे हो जाते हैं. किसीने ठीक कहा है " तानसेनकी तानमें, सब तान गुलतान, . आप आपकी तानमें, गद्धा भी मस्तान. " .. इधर कोतवाल के पुत्र के कार्य झरोखे से देखकर अपने पूर्व कर्म की निन्दा करती हुई राजकुमारी सोचने लगी, “एक यह भी पुरुष है, जो अपने इस साधारण कार्य पर भी इस प्रकार अभिमान प्रकट करता हुआ अपने बाहुबल का गर्व कर रहा है. कहाँ यह अभिमानी व्यक्ति और कहाँ.. वह पहला पुरुष जिसने एक एक बाण में सिंह तथा वाघ को मार कर भी मुझको कहा था कि 'किसो के आगे यह वृत्तांत कहना नहीं.' अपने गुणों का वर्णन करना और न करना इन दोनों कारणों से नीच जौर उत्तम व्यक्ति का अन्तर जाना जा सकता हैं, जैसे कि काक और हंसमें सियाल और सिंहमें, अश्व और गध्धेमें, देव और दैत्यमें.. अमृत और जलमें, बबूल और आम्रमें, राजा और सेवकमें, सरोवर और सागरमें. राहू और चन्द्र में, बकरी और हाथी में, दिन और रात्रिमें, ग्राम और नगरमें, तेल और घृतमें, इत्यादि वस्तुओं में जितना अन्तर है, ठीक उतना ही इस पुरुष में और उस पुरुष में है." - मन ही मन ये सब बातें सोचकर वह राजकुमारी वेश्याके पास जाकर कहने लगी, “तुम मुझको जिस किसी मनुष्यको क्यों देना चाहती हो? यदि पहलेका देखा हुआ पुरुष मुझको नहीं मिलेगा तो मैं शीघ्र ही चितामें प्रवेश कर मर बाऊंगी. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 . ___ ..विक्रम चरित्र www.wwwwwwwwwwwww यदि तुम जबरदस्ती मुझको जिस किसी मनुष्यके पास छोर दोगी तो मैं यहाँके राजाके पास जाकर इसके लिये फरियाद करूँगी.. * जो पुरुष मुझे इस नगरमें लाया है उसीके साथ मैं विवाह करुंगी, अन्य किसी धनिकके साथ भी में विवाह करना कदापि नहीं चाहती हूं." यह सब बात सुनकर डरती हुई वेश्या राजा के पास जाकर बोली, "मेरी कन्या पति के वियोग से जल कर मरना चाहती है." राजाने कहा, "स्त्रियों को जल कर मरना उचित नहीं. चितामें जल कर आत्महत्या करने से जीव दुर्गति को प्राप्त करता. है; यदि पति के मोह से स्त्री चिता जलना चाहती है, तो उसको कौन रोक सकता है।" - इस प्रकार राजा की आज्ञा प्राप्त करके मनमें प्रसन्न हो कर वेश्या सोचने लगी, "यदि वह कुमारी चितामें जल कर मरेगी तो रत्न से भरी हुई पेटी और सांढनी भाग्यसंयोग से मेरे घरमें रह जायगी." इस प्रकार अपने मनमें दुष्ट विचार करती हुई वह वेश्या राजभवन से अपने धर आई . जगत में दिखाई दे रहा है कि तृणसे जीवन निर्वाह करने वाले मृग का शत्रु शिकारी, जल मात्रसे निर्वाह करनेवाली मछलियों का शत्रु मच्छीमार, सन्तोष से रहनेवाले सज्जन का शत्रु दुर्जन, ये सब बिना किसी कारण के ही शत्रु होते है। + __ + मृगमीनसज्जनानां तृणजल सन्तोषविहित वृत्तीनाम् / लुब्धक धीवरपिशुना निष्कारण वैरिणा. जगति // स. 9/213 / / P.P.AC.Guntatnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 257 / इसके बाद राजा की आज्ञा से उस कन्या को घोडे पर चढ़ा कर जब वह वेश्या मार्ग में जा रही थी तब उस नगर के राजाने उस को देखा. उसका सुंदर रूप देख कर राजाने पूछा, " तुम किस की कन्या हो?" .. ... THA - - लक्ष्मीवतीका सुंदर रुप देखकर राजाने पूछा “तुम कीसकी कन्या हो ?" .. चित्र नं. 11 उस कन्याने उत्तर दिया, "मैं इसकी कन्या नहीं हूँ, यह वेश्या हैं और इसने मुझको छलकपट करके फंसा रखी है. इस नगर में दीन-दुःखी मनुष्यों का रक्षण करनेवाला कोई अच्छा मनुष्य नहीं है. राजा भी दीन और अनाथ आदि का पालन करनेवाला नहीं है. उसे कर्तव्य अकर्तव्य का जरा भी खयाल नही है. दुर्बल, अनाथ, वृद्ध, तपस्वी, अन्याय से पीडित आदि का रक्षक तो राजा ही हो सकता है." - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mamin विक्रम चरित्र ___यह सुन कर राजाने कहा, "हे बालिके !. तुम ऐसा क्यों बोलती हो ? मैं सतत न्यायमार्ग से ही प्रजा और पृथ्वी का पालन कर रहा हूँ ?" कन्याने कहा, “क्या कर्तव्य या अकर्तव्यका विचार, नहीं * करना इसीको आप न्यायमार्ग मानते हो?" राजाने पूछा, "तुम कौन हो ? किस की पुत्री हो और कहाँ जा रही हो?" - इस पर कन्याने कहा, " बहुत बोलने से मुझे प्रयोजन नहीं. ताम्रलिप्ति नगर से जो पुरुष मुझे यहाँ ले लाया, उसे छोड़ कर मैं दूसरे से कदापि विवाह नहीं करूँगी." ___ इस पर राजाने पूछा, "वह कहाँ है ? अथवा अभी वह कहाँ गया है ?" कन्याने कहा, "वह इसी नगर में भोजन सामग्री लेने गया था, इसी बीच यह वेश्या मुझे छल कर के नगर में ले आई, अतः अब उस पुरुष का पता मुझे नहीं हैं; अर्थात उसको कहीं देखती नही हूँ. उसके वियोगमें मैं बडी दुःखी हूं." - यह सुन कर राजाने कहा, "तुम शरीर को क्यों व्यर्थ हो भस्म करना चाहती हो ? जीवन्त नर मनोइच्छित को शीघ्र प्राप्त कर सकते हैं, इसी लिये हे बालिके ! इस नगरमें तुम अपने अभिलषित पुरुष को पहचान कर उसका स्वीकार करो." P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak-Trust Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित राजा की यह बात सुन कर वह कन्या बहुत प्रसन्न हो कर, आस पासमें जो नगर जनता खडी थी उस तरफ देखने लगी. इधर राजा विक्रमादित्य नगरमें से भोजन सामग्री ले कर नगर बहार जिस स्थान पर राजकुमारी को छोड कर गया था, उस स्थान पर आकर देखा तो कन्या और पेटी कुछ नही था. सोचने लगा. "क्या करूँ? कहाँ जाउँ ? किसको कहूँ ? बहुत परिश्रम से उस रत्न पेटी को लाया था, परन्तु उस के साथ साथ पेटी भी चली गई।" पुनः विचारने लगा, " इस प्रकार तो अधीर-कातर लोग सोचा करते हैं, साहस करना चाहिये फिर जो होना है, वह होगा ही; जैसे नारियल में जल हो आना और जिसको जाना है वह जायगा ही, जैसे राज-हाथी से खाया हुआ कपित्थ-कैथका फलका गर्भ नष्ट हो जाता है जिस का किसीको समझ में भी नही बैठता है?" इस तरह मन ही मन सोचता और राजकन्या को खोजता हुआ, महाराजा विक्रम नगर में प्रवेश कर जहाँ राजकन्या, वेश्या रूपश्री और नगर का राजा तथा लोगों का समूह खडा था वहाँ भाया. विक्रमादित्य का लक्ष्मीवती से पुन: मिलाप राजकुमारी चारो ओर देख कर अपने अभीष्ट पुरुष को खोज रही थी, दूर से महाराजा विक्रमादित्य को देख कर हर्षित होती हुई बोली, " हे राजन् ! वे आते है, यही मेरे अभीष्ट-स्वामी है. किसी कविने कहा है, "नयनों की गति अलख है, कोई नहीं समझाय; . काख लोग को त्याग कर, सस्नेही पर जाय. " P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gyn Aaradhak Trust Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 . विक्रम चरिक ....................................mai n.......... ___ इस नगर के सिंहराजाने महाराजा विक्रमादित्य को देखते ही शीघ्र * भक्ति से उनके चरणकमलों में प्रणाम किया. राजा विक्रमादित्य कहने लगा, " तुम्हारे नगर में इसी प्रकार का अन्याय होता है ? तुम शिष्ट और अशिष्ट की कोई परोक्षा ही नहीं करते हो।" . PAN विक्रमादित्यने कहा, "तुम्हारे नगरमें इसी प्रकारका अन्याय होता है !" . चित्र नं.१२ महाराजा विकमादित्य के इस प्रकार के शब्द सुन कर राजा सिंह कहने लगा, “इसी स्त्रीने चितामें जलने के लिये प्रार्थना की परन्तु मैंने मूर्खता से इसकी परीक्षा नहीं की. हे स्वामिन् ! मेरा बहुत बड़ा अपराध हो गया है। इस के लिये क्षमा करे." ऐसा कह कर वह सिंह राजा महाराजा विक्रमादित्य के चरणो में गिर पडा....... . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun.Gun Aaradhak-Trust Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 261 महाराजा विक्रमादित्यने कहा, "हे राजन् ! इसमें तुम्हारा कुछ भी अपराध नहीं है, यह सब अजान से ही हुआ है. इस के लिये दुःस्त्र न करो, मैं अपने कार्य के लिये ताम्रलिप्ति नगरीमें गया था. वहाँ से रत्नसे भरी पेटी तथा इस कन्या को ले आया हूँ." फिर बाद में सिंह राजाने सब समाचार जान करके महाराजा विक्रमादित्य का उस कन्या से पाणिग्रहण का उत्सव विस्तार से कराया. NEET IN कार POTA MINKS VAA स Cl/KETC MUS SENTERTA - 2305 "6.8M 0 - KUMS REETr 3 Etrus चित्र नं. 13. - महाराजा उस वेश्यासे रत्न पेटी ले रहे है. तदुपरान्त वेश्या को अभयदान दे कर उससे रत्न पेटी लेकर, उस लक्ष्मीवती प्रिया के साथ अपने नगर प्रति महाराजा विक्रमादित्यने चल दिया. सच है-अपने और पराये का विचार क्षुद्रबुद्धिवाले करते है। उदार पुरुष तो समस्त पृथ्वी को अपना कुटुम्ब समझते हैं. जैसे अंजलिमें P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 विक्रम चरित्र स्थित पुष्प दोनों हाथों को सुवासित करता है. ठीक उसी प्रकार उदार विचारवाले अनुकुल या प्रतिकुल में समान ही व्यवहार रखते हैं. . इस प्रकार रत्नं पेटी के साथ लक्ष्मीवती को लेकर महाराजा . विक्रमादित्य उज्जयिनीपुरी के मनोहर उद्यानमें पहुँचे. बहुत बड़े उत्सवके साथ वहाँ से नगर प्रवेशकर राजमहल गये. उस नवीन रानी लक्ष्मीवती के लिये एक शोभा सम्पन्न महलमें रहने के लिये अलग व्यवस्था कर दी गई. . नागदमनी को बुलाकर वह रत्न की पेटी दे दी और कहा, " मैंने तुम्हारे आदेश को पुरा कर दिया है अब तुम पांच दण्डवाला छत्र बनाओ." नागदमनी ने महाराजा विक्रमादित्य से उत्तर में कहा, " हे राजन् ! केवल इन रत्नो से पाँच दंड वाला छत्र नहीं बन सकता. ये रत्न तो केवल उसकी जाली ही बनाने के काममें आयेंगे. इस लिये अब आप मेरे दूसरे आदेश को पूरा करें, ताकि आप शीघ्र ही उस पाँच . दंडवाले छत्र को देख कर अपनी इच्छा पूर्ण कर सको.” / महाराजा विक्रमादित्य ने नागदमनी से कहा, "तुम शीघ्र ही अपना दूसरा आदेश भी सुनाओ. चाहे वह आदेश कठिन हो या सरल मैं उसे पूर्ण कर अपने मनकी अभिलाषा पूर्ण करना चाहता हूँ. अतः तुम मुझे पाँच दंड' शीघ्र ही प्राप्त हो वैसा उपाय करा." .. सामान पाठक गण! आपने अपने चरीत्र नायक महाराजा विक्रमादित्य द्वारा अपनी इच्छा पाँच दंड वाले छत्र की प्राप्ति के लिए नागदमनी के आदेशानुसार ताम्रलिप्ति नगरी जाकर चंद्रराजा की पुत्री के महल से रत्न P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जन विजय संयोजित 263 पेटी के साथ साथ उसी राजकुमारी लक्ष्मीवती को भी लाये तथा बादमें सिंह राजा के द्वारा उसके साथ विवाह आदि करने का रोचक हाल पढ़ ही गये हैं. अब आगे महाराजा विक्रमादित्य का नागदमनी के आदेश के अनुसार दूसरे आदेश को पालन करने हेतु श्रीसेापारक नगर में जाना तथा सोमशर्मा पंडितकी पत्नी उमादेवी का चरीत्र देखना आदि रोमांचकारी हाल आगामी प्रकरण में पढ़े. किसी भी व्यक्ति द्वारा सफलता प्राप्त करने में केवल उसकी बुद्धिमानी, शक्ति आदि पर निर्मर नहीं. पर उसके कई पूर्व जन्मसंचित किये पुण्य तथा वर्तमान काल के उपकार या पुण्य कार्य के सहारे की भी आवश्यकता होती है. अन्यथा सब कार्योमें सफलता पाना महान् दुष्कर है. किसीने ठीक ही ललकारा हैं-. .. 1 "राज्य भोग सपत्ति मकुल, विद्या रूप विज्ञान; 1. अधिक आयू आरोग्यता, प्रगट धर्म फल जान." .. जो पराये काम आता, धन्य है जगमें बही / . द्रव्य ही को जोडकर, कोई सुयश पाता नहीं // 1 // नर जन्म उस का व्यर्थ है, जो प्रेम का भूखा नहीं। जो प्रेम का करता निरादा, सुख नहीं पाता कहीं // 2 // पारस में और संतमें, बड़ा हो अंबर जान / एक लोहा कंचन करे, एक करे आप समान // 3 / / P.P. Ac. Gunrathasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेंतालीस्वाँ प्रकरण / उमादेवी - पाक ". जगत के सभी पदार्थोंमें सद् और असद् का भेदभाव दिखाई दे रहा है, जैसे अमृत और विष, सज्जन और दूर्जन. उसी तरह नारी जातिमें श्रेष्ट और दूष्ट स्वभाव का भेद दिखाइ देता है. इस लिये एक अनुभवी कविने नीच स्वभाववाली नारीयों के लिये कहा है, ... “नारी विष की वेलडी, नारी नागन रूप; . नारी करवत सारीखी, नारी डाले भव कूप." पाठक गण ! आपने गत प्रकरणमें महाराजा विक्रमादित्य द्वारा नागदमनी के प्रथम आदेश को पूर्ण करने का हाल पढा. अब आप इस प्रकरणमें नागदमनी के द्वारा दूसरा आदेश की पूर्ति में महाराजा को क्या क्या करना पड़ा उस पर से नारी चरित्र का अनोखा मनोरंजन हाल पढ़ें. .अपने दूसरे आदेशमें नागदमनीने कहा कि " श्री सोपारक नगरमें सोमशर्मा नामके ब्राह्मण की उमादेवी नाम की प्रिय बोलनेवाली प्रिया-स्त्री है. उस नगर में जा कर उसका चरित्र स्वयं जान कर आओ." ऐसा सुनकर राजा विक्रमादित्यने शीघ्र ही उस और चल दिया. मार्गको काटता हुआ राजा श्री सोपारक नगरको सीमामें उपस्थित हुआ. अत्यन्त सुन्दर उद्यान और महलों को देखे. अनेक प्रकार के वृक्ष तथा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MVN साहित्यप्रेमी मुनि निरअनविजय संयोजित फल पुष्पादि शोभित लताओंसे, निर्मल जलसे भरे हुए जलाशयों से, हंस आदि अनेक पक्षियोंके मधुर स्वरों से, स्वच्छ जलवाले सातसौ सरोवरोंसे तथा श्री जिनेश्वरके प्रासादों से युक्त उस श्री सोपारक नगर को देखा. श्री शत्रुञ्जय महातीर्थ की तलहट्टी में स्थित उस नगर का महात्म्य हीनबुद्धि मनुष्य क्या कह सक्ते है ? जिस स्थान की मिट्टी के स्पर्श मात्र से ही मनुष्य आदि सकल प्राणी मोक्ष, का लाभ प्राप्त करते हैं. श्री जिन मंदिर में प्रभू पूजा . इसके बाद नगरकी शोभा देखता हुआ महाराजा विक्रमादित्य श्रीआदिनाथ प्रभुके मन्दिर में गया. नाना प्रकारके पुष्पों से प्रभु की पूजा की और भक्तिभावसे इस प्रकार स्तुति करने लगा, "देवता तथा दानव और राजाओं से जिनका चरण सदा पूजित एवं वन्दित हैं, ऐसे श्री सोपारक नगर की वाटिका के भूषणरूप श्रीऋषभदेव प्रभुकी मैं स्तुति करता हूँ. हे प्रभो ! तेरे चरणकमलकी सेवा जो करते है, वे शीघ्र ही परमानन्दको प्राप्त करते है, हे प्रभो ! तुम जिसके हृदय में वास करते हो उसके पापरूपी अन्धकार को नष्ट कर देते हो. हे आदिनाथ प्रभु ! आज आपके दर्शन कर मैं कृतार्थ हो गया हूँ. हे नाभि राजाके नन्दन !' सुवर्ण के समान शरीर की कान्ति धारण करनेवाले ! अपने चरण के समीप मुझे स्थान दो. अनन्त संसार में भ्रमण करता हुआ तथा अनेक दुःख को प्राप्त कर के मैंने भाग्य से ही आज तुमको प्राप्त किये है." इस प्रकार स्तुति करने के बाद राजाने वहाँके पूजारी से पूछा, “यहाँ सोमशर्मा नामके ब्राह्मणका घर कहाँ है ?" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ um है कि पुनः सोही विक्रम चरित्र पूजारीने कहा, " यहाँ सोमशर्मा नामके व्यक्ति अनेक हैं. किसके विषयमें आप पूछ रहे हैं ?" राजाने कहा, " जिसकी स्त्रीका नाम उमादेवी है. उसके विषयमें मैं पूछ रहा हूँ." . 1. तब उसने कहा, " सोमशर्मा ब्राह्मण तिरसठ विद्यार्थी ओंको अपने तरफसे भोजन देकर विना कुछ धन लिये ही विद्या पढाता है, भीमपाटकमें उसका मनोहर मकान है." इस प्रकार सोमशर्मा के घरका संपूर्ण पता लगाकर राजा विक्रमादित्य लेखनी तथा पाटी लेकर छात्रके वेशमें वहाँसे चला. रूप परावर्तनी विद्याके बलसे अटारह वर्षका अपना रूप बनाकर नगरकी शोभा देखता हुआ सोमशर्मा के घर समीप पहुँचा. श्री सोमशर्मासे परिचय. जब विद्याथीं वेशमें राजा पंडित सोमशर्मा को प्रणाम करके खड़ा हो गया, तब सोमशर्माने पूछा, "तुम कौन हो और किस प्रयोजनसे यहाँ आये हो?" तब उस छात्र रूपधारी राजाने कहा, "आपका नाम सुनकर आपसे विद्याध्ययन करने के लिये ही आया हूँ.'' ब्राह्मणने प्रसन्न होकर कहा, “यथेच्छ पढो. यहाँ द्रव्य की भी कोई आवश्यकता नहीं है." - इस प्रकार उमादेवी का चरित्र जानने के लिये राजा विक्रमादित्य बड़ी सावधानीसे छात्र रूपमें वहाँ रहने लगा. उमादेवी मधुर स्वरसे बोलनेवाली तथा वस्त्रसे अपने मुखको सतत् ढका हुआ रखती हुई अपने पतिकी सेवा करती थी. उमादेवीके चरित्र देखनेके लिये प्रयत्न करने पर भी वह विक्रम-छात्र वस्त्रसे मुख आच्छादित रहनेके कारण P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जन विजय संयोजित 267 उमादेवीका मन नहीं जान सका. क्यों कि समुद्रका पार प्राप्त किया जा सकता है, आकाशके नक्षत्रोंकी गणना हो सकती है, किन्तु नारीचरित्रका सहज ही में यथातथ्य ज्ञान प्राप्त कर लेना आसान नहीं, अर्थात् छल-दम्भ करनेवाली- स्त्रीका कोई पार नहीं पा सकता है किसीने सच ही सुनाया है "नारी बदन सुहावना, पीठी बोली नार; - जो नर नारी वश हुआ, भंग हुआ घरबार.." एक दिन जब प्रहर रात बीत गई, पंडितके साथ साथ सब छात्र सो गये. तब उमादेवीने एक दण्ड लिया. इधर राजा विक्रमादित्य . जो इसका चरित्र देखने ही आया था; वह चुपचाप उठ कर उसके चरित्र को जानने के लिये सावधानीसे एकान्तमें रह कर देखने लगा. AAR JI महाराजा विक्रम सावधामीसे उमादेवीका चरित्र देख रहे हैं. चित्र नं. 14 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N 268 विक्रम चरित्र उस उमादेवीने दण्डको तीन वार घुमाया और पतिका नाम लेती हुई उसकी शय्याके समीपमें आघात किया. इसके बाद हुँकार . करती हुई अपने घरसे बहार निकली. उसके पीछे पीछे चुपचाप साव'धानीसे राजा विक्रमादित्य भी निकला. घरसे कुछ दूरी पर एक धात्रीका. वृक्ष था उस पर उमादेवी अतिशीघ्र चढ कर वृक्ष पर दण्डसे तीन वार आघात किया. क्षणमें ही वह वृक्षके सहित उमादेवी आकाशमें उड गई. राजा दूरसे यह सब कुछ देख कर विस्मयपूर्वक वहाँ पर ही A HAMIT inR Mammy PAN . . : . उमादेवी वृक्षके सहित आकाशमें उड गई. चित्र नं. 15 खड़ा रहा. थोडी देर के बाद उसी वृक्ष पर चढ़ी हुई, वह ब्राह्मणकी स्त्री वापिस लौट आई. वृक्ष-पूर्वकी तरह अपने स्थान पर स्थिर हुआ और उमादेवी वृक्ष परसे निचे उतर कर अपने घर आई, राजा भी , चुपचाप उसके पीछे पीछे सावधानीसे घर आया. घरमें आकर सोये P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित . 269 हए अपने स्वामि की शय्याके उपर पूर्वकी तरह तीन वार दण्ड घुमा-' कर अपने स्थान पर जाकर सो गई. राजा भी अपने स्थान पर सो गया. . ___ यह सब वृतान्त देख कर हृदयमें कुतूहल-अचम्भा करता हुभा राजा विक्रमादित्य प्रातःकाल उठ कर पुनः पूर्वकी तरह अपना पाठ पढ़ने लगा. पढने लगा. . .. . . उमादेवीका देवसभामें जाना- ... : दूसरे दिन राजा वृक्षकी गुहा-कंदरामें गुप्त होकर बैठ गया. उमादेवी पूर्व दिनकी तरह ही सब दण्ड भ्रमणादि कार्य करके उसी वृक्ष पर चढ कर दक्षिण दिशाको चली गई. पर्वत, नदी, वन भादिका उलंघन करती हुई वह उमादेवी अनेक उद्यानसे शोभायमान जम्बू द्वीपमें पहुँची. वहाँ वृक्षको स्थापित करके नीचे उतर कर देवीके प्रासादमें देवीको प्रणाम करनेके लिये गई. राजा भी अग्निवैतालकी सहायतासे अदृश्य रूप होकर उसके पीछे पीछे गया और सब वृतान्त देखने लगा. वहाँ सीकोत्तरी के पास चोसठ योगिनी और बावन क्षेत्रपाल आदि अनेक देवता आकर अपने स्थान बैठ गये. इस के बाद उमादेवी ने सीकोत्तरी देवी व योगिनी और क्षेत्रपालोंको नत मस्तक करके सभी को पृथक् पृथक् प्रणाम किया. तब सीकोत्तरी आदि देवियोंने कहा, "हे उमादेवी! अब इस सभा को अलंकृत करो." तब उमादेवी वहाँ सभामें बैठ गई. तब क्षेत्रपालने क्रोधित होकर उमादेवी से कहा, " मुझ से मनोहर . . . 'सर्वरस'दण्ड लेकर तुम चली गई. परन्तु पूर्व कथनानुसार अब तक मेरा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 विक्रम चरित्र 270 m inlanannini पूजन क्यों नहीं कर रही हो? इधर उधर के बहाने बताकर तुम समय बीता रही हो.", - उमादेवीने कहा, "अभीतक सब सामग्री प्राप्त नहीं हुई थी। परन्तु भाग्य से अब मिल गई है; बत्तीस लक्षणों को धारण करनेवाले मनोहर चौसठ छात्र पूरे हो गये हैं. एक मेग पति है. एक पृथक पृथक योगिनीयों का और मेरे पति है वह तुम्हें चढ़ा दूँगी. अब आप क्रोधित न होवे. अब आप स्पष्ट रूपसे बलिदान की विधि बतावें." क्षेत्रपालने कहा, "कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को एकान्तमें विद्यार्थीओंके लिये चौसठ मण्डल और एक अलग . मण्डल अपने पति के लिए बनवाना. उन सब के बैठने के लिए पैंसठ विशाल आसन करना. भोजन करने के लिये उतने ही पक्वान्न बनाना और पैंसठ पात्र लाना. विद्यार्थीयों को गले में पहनाने के लिये करीर के पुष्प की पैंसठ मालायें बनवाना. उन सब के सिरमें पृथक् पृथक् तिलक करके हाथों में रक्षा. सूत्र बांधकरके उन लोगों के उपर अक्षत डाल देना. यह सब करने के बाद जब जलकी तुम कल्पना करोगी तब हम लोग उन लोगों का भक्षण करेंगे." उमादेवीने मनमें सोचा, "मैं कपट करके पति के पाससे पहले सब सामग्री मंगवा लू गी." फिर प्रगटमें बोली–दोंनो हाथ जोड़कर . क्षेत्रपालको कहा, "तुम्हारे कथनानुसार सब कार्य मैं शीघ्र कर लूंगी." . ये सब बातें सुनकर विक्रमादित्य दंग हो गया-चमत्कृत हो मनम . सोचने लगा, "इस संसार में स्त्रीयाँ क्या क्या करती है ? यह ब्राह्मणी न जाने क्या करेगी; अरेरे, यह सभी छात्रोंमें मेरा भी मृत्यु होगा, अब क्या P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 271. साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित किया जाय ? महाराजा को मन ही मन कई विचार आ गये. मृत्यु का भय किसकों नही हैं ? परन्तु पुनः साहस और धैर्य को धारण कर महाराजाने मनमें निश्चय किया; "यह बेचारी ब्राह्मणी क्या करेगी? मैं इस प्रकार कार्य करुंगा जिससे सब सुखी हो जायेंगे. क्योंकि उद्यम, साहस, धर्य, बल, बुद्धि और पराक्रम ये 'छ' जिस के पास हैं, उसका देव भी कुछ नहीं कर सकते." ... कोई पर्वत के शिखर पर चढ़े अथवा समुद्र लाँघ जाय, पाताल में चला जाय परंतु स्वयं के किये हुए कर्म के अनुसार-विधिसे कपाल में जो लिखा गया है, उस का फल प्राणीओं को भोगना ही पड़ेगा.. और कहा भी हैं'सूर्य उदित पश्चिम में होवे-अग्नि किसी को नही दहे सभी असंभव हो सकते हैं-किन्तु कर्म यह अटल रहे.' यदि सूर्य पश्चिम दिशामें उदित होने लगे. पर्वत के शिखर पर यदि कमल विकसित होवे, मेरु पर्वत चलने लगे, अग्नि शीतल हो जाय, फिर भी भावि होनेवाली कर्म की रेखा बदल नहीं सकती हैं." यह सब विचार कर महाराजा विक्रमादित्य देवी का मन्दिर देख कर पहले ही वृक्ष पर चढ़ने के लिये वहाँ से चल दिया. वहाँ से आकर वृक्ष पर चढ़ कर वह चुपचाप बैठ गया. इधर उमादेवी भी वृक्ष . + उदयति यदि भानुः पश्चिमायां दिशायां, .., 'विकसति यदि पद्म पर्वताग्रे शिलायाम्, प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्नि- .. स्तदपि न चलतीयं भाविनी कर्मरेखा. / सर्ग 9/320 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FREE की विक्रम चरित्र: पर चढी और विशाल आकाश का लंघन करती हुई, अपने स्थान पर आकर पूर्ववत् सो गई. राजा विक्रमादित्य भी वृक्ष से उतर कर अपने प्राणों को बचाने का उपाय सोचता हुआ अपने स्थान पर आकर सो गयाः सोते हुए वह सोचने लगा " नागदमनी के कथनके अनुसार मैं गुप्त रूपसे इसका सब चरित्र देखेंगा!" .. प्रातःकाल उठ कर वह विक्रमादित्य जंगल जाने के लिये पण्डित सोमशर्मा के साथ बाहर गया और कहने लगा, " हे पंडितजी! आप कौन कौन शास्त्र जानते हो?" 'ब्राह्मणने कहा, " मैं अनेक शास्त्रोंको अर्थके साथ जानता हूँ, जसे लक्षण, अलंकार, छन्द, नाटक, गणित, काव्य, तर्क-न्यायशास्त्र और धर्मशास्त्र आदि." तब विक्रमने पूछा, "क्या आप अपना मरण भी जानते हो?" ..पण्डित सोमशर्माने कहा, " हे वत्स ! मैं अपना मरण कब होगा, यह तो नहीं जानता हूँ ___ तब विक्रमादित्यने कहा, " तब तुम क्या जानते हो ? यदि अपना मरण नहीं जाना तो दूसरा जाननेसे भी क्या लाभ !" ........ तब सोमशर्माने पूछा, "हे छात्र ! क्या तुम सद्गुरुके प्रसादसे मृत्युका सब विषय जानते हो?" ........ विक्रमादित्यने कहा, "हाँ, मैं गुरुको कृपासे मरण जानता हूँ." सोमशर्मा पूछने लगा, " मेरा मरण कब होगा ? वह कहाँ ?" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 273. ___.. विक्रमादित्यने कहा, " इस कृष्ण चतुर्दशी के दिन आपका मृत्यु है, और हम चौसठ विद्यार्थीओं का भी तुम्हारे साथ साथ मृत्यु निश्चित है; अर्थात् अपने पेंसठ व्यक्तियों का ही योगिनी एवं क्षेत्रपालो को बलिदान दिया जानेवाला है." यह सुनकर पण्डित सोमशर्मा कुछ . घबराया. बादमें महाराजा विक्रमने पण्डितजीको धैर्य धारण करने कहा और उमादेवीके साथ द्वीपगमन, चौसठ योगिनीयों तथा बावन क्षेत्रपालोंके 'पास जाना और वहाँ क्षेत्रपालका कथन आदि जो कुछ देखा और सुना था, वह आदिसे अन्त तक का सब वृतान्त पण्डितजीसे कह सुनाया. इन सब बातोंको सुनकर घबराया हुआ पण्डित कहने लगा, .." हे छात्र ! अब इस प्रकारके संकटसे अपने प्राणों की रक्षा कैसे होगी ?" छात्र के रूपमें रहे हुए विक्रमादित्यने कहा, "हमें डरना नहीं चाहिजे, यहाँ पर कुछ न कुछ उपाय करना ही चाहिए. विपत्ति में कायर व्यक्ति घबराते हैं; बुद्धिमान व्यक्ति कदापि नहीं 'डरते. क्यों कि हरेक प्राणीने अपनी पूर्व अवस्था में जो शुभ या अशुभ कर्म किया है, उसके फलका भोग करना ही पडता हैं, इस में कोई संदेह नहीं.. आपको आपकी पत्नीका चरित्र जानने की इच्छा हो तो, उस वृक्ष पर मैं तुम्हें पहूँचा दूंगा और उस वृक्ष पर गुप्त हो कर बैठ जाना. मैं वेश बदला दूंगा ताकि आप सब हाल खूद देख सकोगे." - P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विकम चरित्र 274 : उमादेवी के चरित्र जाननेका सोमशर्मा का यत्न / छात्र की ये सब बातें सुनकर वह ब्राह्मण लौट कर घर आया और पत्नी से कहने लगा, "मैं धन के लिये चन्द्र नामके गाँवमें जाता हुँ, प्रात: काल आ जाऊंगा." ऐसा कहकर वह रात्रिमें निर्भय होकर NE APIe1919Dilipmal 29DILDATE-. - - MARANKIN NER MADS. LATI ( सोमशर्मा धात्री के वृक्षपर जाकर गुप्त रूप में बैठ गया. चित्र नं. 16) उस धात्री के वृक्ष पर जाकर गुप्त रूपमें बैठ गया. रात्रिमें छात्र द्वारा बताये हुए सारे सारा दृश्य देख, पुनः प्रातःकाल घूमते घूमते घर आया. एकान्तमें उस छात्रसे कहने लगा, “तुम्हारे कथन के अनुसार रात्रि में मैंने सब दृश्य देखे है. अब किसी भी तरह अपने प्राण नहीं बच सकेंगे." विक्रम ने कहा, "तुम धैर्य रखो और साहस करो: तुम्हे विजयलक्ष्मी अवश्य प्राप्त होगी. चतुर्दशी की रात्रि में मैं जो कुछ करूं. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 275 वह सब छात्रों के साथ तुम भी शंका रहित हो कर करना. क्यों कि विद्वानोंने शंका को महाविष कहा है. यह तुम्हारी स्त्री जो कुछ करना चाहे वह करे!'' इस प्रकार सब छात्रों को भी समझा दिया. . दूसरे दिन प्रातःकाल उमादेवीने पण्डितजी से कहा, "हे स्वामिनाथ ! आज कुलदेवीने स्वप्नमें मुझको कहा कि इस चतुर्दशी के दिन यदि तुम चौसठ छात्रों के साथ अपने स्वामी को बलिदान को श्रेष्ट विधिसे भोजन नहीं कराओगी, तो सब छात्रों का और तुम्हारे पतिदेव का भी मरण होगा." .. पण्डितजीने कहा, "हे प्रिये! अपने प्यारे छात्रों को आदरपूर्वक अवश्य भोजनादि कराओं, इससे क्या अधिक है?" ... ...: चतुर्दशी का दिन निकट आने पर उमादेवी जो कुछ सामग्री माँगती वे सब वस्तुों उस को पण्डित ला देता था...... ....... फिर बादमें पैंसठ मण्डलों पर क्षेत्रपाल द्वारा बताई हुई, विधि के अनुसार उमादेवीने सब छात्रों के सहित सोमशर्मा को भी बैठाकर 'सर्वरस'. नाम के दण्ड को पृथ्वी पर रखा और हाथमें जलपात्र लेकर, जब अर्घ्य देने लगी-जल छांटने लगी. तब महाराजा विक्रम उठा और उठकर वह 'सर्वरस दण्ड' ले कर वहाँसे भाग चला. पण्डितजी और सभी छात्रों से युक्त राजाविक्रम के पीछे पोछे उमादेवी भी कुछ दूरी तक भागी, किन्तु वे सब लोक बहुत दूर निकल गये थे, उन लोगों से मिलना असंभव देख, वह निराश हो कर पुनः 'अपने घर को ओर लौट आई. , 56 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : PER विक्रम चरित्र 276 गुमन INNI सभी छात्रों से युक्त पंडितजी विक्रम के साथ भागे. चित्र नं. 17 विक्रमादित्य का श्रीपुर में पहुँचना * तेंसठ छात्रों और पण्डितजी के साथ चलते चलते राजा विक्रमादित्य सोपारक नगरसे बहुत दूर तक आये, थोड़ा समय इधर उधर व्यतीत करने की अभिलाषा से जहाज में बैठ कर और निर्भय हो कर सभी कटाह नाम के द्वीप की ओर चले. क्रमश: कटाह द्वीप-बंदरगाह पर आये, किनारे पर उतर कर सभीने स्नान, नास्ता आदि कर वृक्ष. की छायामें थोडा बहुत आराम किया. बादमें सभी को साथ ले कर राजा विक्रमादित्य आगे चले, चलते चलते एक नगर के पास / ' पहुँचे. नगर के आसपास का वातावरण मानव रहित शून्यतामय दिख रहा था, यह देख राजा को मनमें विस्मय हुआ, साहसिक शिरो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 277 मणि महाराजा विक्रमादित्य इस नगर के विषय में जानना चाहते 3 उत्सुक थे; किन्तु बहुत समय तक वहाँ पर आता जाता कोई मानव नहीं मिला. . F. उस नगर के बहार उद्यानमें पण्डितजी और छात्रो को छोड़कर राजा नगर देखने गया. नगरमें प्रवेशकर निर्भय होकर चारों ओर घूमते घमते बड़ी बड़ी शून्य हवेलीयाँ और बाजारमें शून्य दूकानोंमें वस्तुसमूहों को देखता हुआ; महाराजा राजमहलमें आ पहुँचा. क्योंकि उत्तम मनुष्य कहीं भी जाते हैं, तो डरते नहीं है जैसे बलवान सिंह किसी भी पर्वत कन्दरा-गुहामें जाते हुए डरते नहीं है. +' ' ' ..... जब महाराजा विक्रमादित्यने उस राजमहलमें प्रवेश कर, राजमहलकी, बेनमून कला-कारीगरी का अवलोकन कर, आस-पासमें देखा तो कोई नोकर चाकर दिखाई नहीं दिया, , राजाने मनही मन सोचा कि इतना सुंदर राजमहल होते हुए कोई भी रक्षक क्यों नहीं है ? 'सुंदर कलात्मक और शून्य राजमहल देखते देखते महाराजा क्रमशः सिडी चढ कर राजमहल की सातवीं मंजिल पर जा पहुँचा, वहाँ एक कमरेमें अत्यन्त दिव्यरुप को धारण करनेवाली एक नवयौवना कन्या को देखा. देखकर राजा सोचने लगा, : यह कन्या एकाकी यहाँ क्यों है? अथवा किसी नगरमें से कोई राक्षस इसे हरण कर यहाँ लाया होगा ? रूप और आकार से निश्चय यह कोई राजकन्या सी मालुम पड़ती है! + " नरोत्तमा हि कुत्रापि वजन्तो गिरिगह्वरे / . न बिभ्यन्ति मनाक् सिंहा इव सारबलोत्कटाः " // स. 9/359 // . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र ROC जिस प्रकार चन्द्रमाँ को देखकर चकोरी प्रसन्न होती है, उसी तरह दिव्यरुप और श्रेष्ट आकार वाले राजा को आते देखकर वह प्रसन्न हुई. और आसनपर से खडी होकर सन्मानपूर्वक मधुर भाषामे बोली, "हे नरश्रेष्ट ! आप शीघ्र पीछे लौट जाइए, अन्यथा आप को बिना कारण ही विघ्न उठाना पड़ेगा. " .. . . ...राजाने पूछा, "मुझको क्या क्या विन होगा वह कहो?" तब वह कन्या लज्जासहित बोलो, "हे नरोत्तम ! आप सुनो-यह श्रीपुरनामका नगर है, इस नगरमें न्याय नीति परायण विजय नामक एक राजा थे, उनकी राणीका नाम भी विजयां था, चन्द्रावती नामकी उनकी * कन्या हूँ. भीम नाम के दैत्य-राक्षसने इस नगरकों उजाड़ कर दिया, सब लोग अपने अपने प्राण बचाने की इच्छासे दशों दिशाओंमें भाग गये हैं. उस राक्षसने मेरे साथ विवाह करने की इच्छासे मुझको ही यहाँ रखा है, इस राक्षस से मेरा छूटकारा होना असंभव हैं. यह राक्षस दुष्ट और मनुष्यों से दुःसाध्य है अर्थात्-यह किसी मनुष्य द्वारा मारा जाना असंभव है. क्यों कि-विधाताने बिच्छू के पूंछ में, सर्पके मुखमें, और दूर्जन के हृदयमें सदा के लिये विभाग कर के विष रखा है + इस राक्षस अर्थात् यह पूंछ में, - इस लिए उस राक्षस से मेरा उद्धार होना दुष्कर हैं." तब महाराजा विक्रमादित्यने कहा, "हे राजकन्ये ! डरो नहीं, साहस रखो! जैसे प्राणियों + वृश्चिकानां भुजंगानां दुर्जनानांच वेधसा: विभज्य नियतं न्यस्तं विषं पुच्छे मुखे हृदि " // स.९/३६९॥ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 279 साहित्यप्रेमी मुनि नरञ्जन विजय संयोजित को दुःख बिना बुलाये ही आता हैं, वैसे ही सुख भी बिना बुलाये प्राप्त हो जाता है; इसलिये अब ज्यादा-चिन्ता करने जैसी बात नहीं है; हे बालिके ! मैं निर्भय होकर वैसा ही कार्य करंगा, जिससे तुमको वह दुष्ट राक्षस क्षणमें ही छोड़ भागेगा. यदि तुमकों उस राक्षस को मारने का कोई उपाय मालूम हो, तो कहो ?" ऐसा राजा के पूछने पर चन्द्रावतीने बताया, "वह बड़े बड़े देवताओं से भी दुःसाध्य है वह अपने इष्ट 'देव की पूजा-पाठमें बैठता और पुष्पों से पूजा करता है; उस अवसर पर अपना वज्रदण्ड पृथ्वी पर रख कर, स्नान आदि से पवित्र हो कर पूजा पाठ करने बैठता है, उस समय उसको ध्यान से कोई देवता या राक्षस भी विचलित नहीं कर सकता हैं, और उस समयमें उससे पूछने पर भी वह किसी से नहीं बोलता है; यदि उसी समय कोई मनुष्य उस के मस्तक पर जोर से प्रहार करे तो, उस की मृत्यु अवश्य हो जायँ. कदाचित् वह राक्षस देवकी पूजा करके शीघ्र उठ जाय, तब तो इन्द्र भी उस को जीत नहीं सकते. दूसरे मनुष्यों की क्या बात करें !" यह सब बात सुनकर राजा मनमें प्रसन्न हुआ. - राजाने कहा, “राक्षस इस प्रकार पृथ्वी पर दण्ड को रख करके दृढ भावसे देवपूजा करता है, तो मेरा मनोरथ अवश्य सिद्ध हो ही जायेगा." इतनेमें राक्षस का आने का समय होने आया, तब राजकन्या बोलो, "हे नरवीर ! राक्षस अभी आ जायगा, इस लिये आप गुप्त प से कुछ समय तक छिप जाइए.' भीम राक्षस से युद्ध का आहवान्:- "तुम डरो नहीं." इस प्रकार उस राजकन्या से कहकर राजा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 TE विक्रम चकि कन्या के. कथनानुसार वहाँ पर गुप्त होकर छिप गया, कुछ ही देर के बाद राक्षस वहाँ आया, और कन्या से पूछा, " यहाँ मनुष्य की गंध कहाँ से आ रही है ? बताओ यहाँ कौन मनुष्य है.'' कन्या निर्भय होकर बोली, " यहाँ मैं मनुष्यनी हूँ, यदि तुमको मांस की इच्छा हो तो मुझे ही चबा जाओ.". " .'आखीर मनुष्य मेरा क्या करेगा.' ऐसा विचार कर वह राक्षस दण्डको पृथ्वी पर रखकर स्नान आदिसे पवित्र होकर देवपूजामें प्रवृत्त हो गया, अनुकूल अवसर देख विक्रमादित्यने उसके समीपसे दण्ड ले लिया और कहने लगा. "हे राक्षस ! भक्तिपूर्वक देवकी पूजा करों, क्योंकि तुमको मारनेके लिये मैं तुम्हारा काल होकरः आ गया हूँ; यह तुम्हारी अन्तिम देवपूजा है. मैं संमुख आये हुए क्रूर मनुष्य, देव, दानव, या राक्षसको ही मारता हूँ अन्यको नहीं.". यह बात सुनकर राक्षस सोचने लगा, “यह नरवीर कौन है ? जो अभी मेरे सामने भी इस प्रकार बोलनेका साहस कर रहा है ?" यह सब सोचता हुआ वह राक्षस देवपूजन समाप्त करके कहने लगा, "रे मूर्ख ! तुम मेरे आगे इस प्रकार. कटुवचन क्यों बोलते हो? तुमने मेरी शक्तिका परिचय किये बिना ही, सहसा इस प्रकार गर्वयुक्त वाणी बोलने का क्यों साहस किया / क्यों व्यर्थमें कटुवचन बोलकर अपने प्राणोंको धोखेमें डाल रहे हो ?' चुपचाप उल्टे पैर अपने स्थानको चले जाओ. मैंने कितने ही देव, दानव और मनुष्योंको जीता है. तुम मेरे आगे क्या चीज हो?" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak. Trust Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित NUDIMOLOTEMOVEX JESUS ASAVIIIIII Tauruuuuuuuuuurumaunee TATCHINA 12 STER SARS HARA SARAL HTSER283 RECam Mool TulapurionlimsaiGOINEE - - काका राजा Muturnia) राक्षस पूजा करने बैठा और विक्रमने दण्ड उठा लिया. 'चित्र नं. 18 ... विक्रमादित्य कहने लगा, "रे रे राक्षसाधम ! तेरे इस प्रकार गर्व करनेसे क्या मैं भयभीत हो जाऊँगा ? देवताओंसे भी असाध्य खर्पर नामके चोरको मैंने क्षणमात्रमें ही यम-लोकको पहुँचाया है. देवताओंसे भी .दुर्ग्राह्य अग्निवैताल दैत्यको क्षणमात्रमें ही मैंने अपना सेवक बना लिया है। इस प्रकार अन्य दैत्योंको भी मैंने मारे और "आधीन किये है ? मैं विक्रमादित्य आज इस पुरको ध्वंस-उजड़ करनेके पापका प्रायश्चित तुमको अभी देता हूँ. क्या तुमने पृथ्वीमें भ्रमण करते, हुए मुझ–विक्रमादित्यको आज तक देखा या सुना नहीं है ? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 . विक्रम चरित यदि तुमको अपने प्राण बचानेकी अभिलाषा हो तो, इस कन्याको छोड़कर यहाँ से अपने स्थानको चले जाओ." राजा विक्रमादित्य की निर्भय वाणी सुनकर क्रोधसे लाल नेत्र करके धम-धमाते राक्षसने तीन कोस ऊचा विस्तारवाला भयंकर अपना रूप बनाया। चरण के आघात से पृथ्वी को कम्पित करता हुआ देव और दानवों को डराता हुआ वह राक्षस राजाको मारने दौडा. अग्नि वैतालकी सहायता से राक्षस के शरीर से भी दुगना शरीर बनाकर राजा क्रोधसे. लाल नेत्र कर के राक्षस के कंधे पर चढ़ बैठा और उसीके 'वज्र दण्ड' से उसके शिर एक ऐसा जोरसे प्रहार किया कि जिससे वह दुराशयवाला राक्षस क्षण मात्रमें ही दुर्गति को प्राप्त हो गया.x कहा भी हैं कि' "घी रहित भोजन, प्रियजनोंका वियोग. अप्रियजनोंका संयोग यह सब पापका फल हैं." तीन वर्ष, तीन मास, या तीन पक्ष और तीन दिन में ही अत्यंत उग्र पाप या पुण्य का फल यहाँ ही प्राप्त हो जाता है, कहा भी है कि __x वास्तवमें जैन धर्मानुसार भूत-प्रेत-पिशाच-राक्षस आदि सब व्यन्तर 'जातिमें गिने जाते है, उस व्यन्तर जातिमें हलके स्वभावके देव होते, व कुतुहली-कुतुहल-प्रीय होनेके कारण दूसरे प्राणीओं के शरीर में अथवा कोई कोई स्थानोंमें प्रवेश कर अनेक चेष्टांए द्वारा लोगोंको कभी कभी दुःखी करत और आनंद विनोद मानते हैं। उन्हों को कोई मनुष्य मार नही सकते क्योकि उमका आयु अनपवर्तनीय-निश्चल होता है, किन्तु कोई महापुण्यशालि व्यापक * क्षण में उसको मार भगाता-वहाँ से दूर हठाता हैं। भूत-प्रेत-आदि व्यता “जातिके देव होने के कारण कुतुहल प्रिय जरुर है किन्तु मांस-दारु वर्गर " वे आहार नहीं करते केवल चेष्टा करते रहते हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 283 12. 'कुत्सित बुद्धिसे राजा नष्ट हो जाता है. समय आजाने पर फल पकता है. जठराग्नि से अनाज पकता है और पापीजन अपने पाप से ही नष्ट हो जाता है.'+ ..... यह विस्मयकारक दृश्य देख कर राजकन्या विचारने लगी,. 'क्या यह कोई देव, कंदर्प अथवा राजा ही मेरी रक्षा करने आया है ?? - अग्निवैताल उस मरे हुए राक्षस के सब अंगोको खाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ. चन्द्रावती राजकन्या भी राजाके पराक्रमको देख कर मन ही मन अत्यन्न प्रसन्न हुई. . श्रीपुर नगर का पुनः स्थापन: - इसके बाद राजाने अग्निवैतालसे कहा, "सब लोगों को ला कर इस नगरको फिरसे अभी का अभी बसा दो. इस नगर के राजा विजयको भी जहाँ हा वहाँसे शीघ्र ले आओं. यह राज्य उसे ही दे दूंगा." राजाकी आज्ञा प्राप्त कर के अग्निवैताल शीव्र ही राजा तथा प्रजाको लाने के लिये चल दिया और थोड़े ही समयमें उस नगरको पुनः पूर्ववत् बसा दिया. राजा विजय मनमें सोचने लगा, 'यह विस्मयकारक सब वृतान्त कैसे और किस तरह अति शीघ्र बन गया. यह जिज्ञासा पूर्ण करने कि अभिलाषा से महाराजा विक्रमादित्य से राजा विजयने पूछा, "आप कौन हो और कहाँ से आये है ? यह बात बताईये.” . न महाराजा विक्रमादित्य बोला, "आपको यह पूछनेसे क्या लाभ ? और क्या प्रयोजन है.", + “कुमंत्रैः पच्यते राजा-फलं कालेन पच्यते / अग्निना पच्यते चान्न-पापी पापेन पच्यते // सर्ग 9406 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 विक्रम चरित्र इसके बाद राजा विक्रमादित्यके उपकारसे और विलक्षण पराक्रमसे राजा विजयने समझ लिया, 'यह कोई असाधारण उत्तम पुरुष है.' फिर बादमें प्रसन्न होकर राजा विजयने आग्रह पूर्वक धामधूमसे उत्सव करके अपनी पुत्री चन्द्रावतीका. महाराजा विक्रमादित्यके साथ विवाह कर दिया. . इधर पंडितजी आदि सब छात्र इधर-उधर देखते हुए नगरमें राजाके महलमें पहुँचे. वहाँ राजाका उपकार करनेवाले और अद्भुत स्त्रीके साथ विक्रमादित्यको देखकर वे लोग अत्यन्त प्रसन्न हो गयें, उन्होंने राजाके चरणकमलमें सप्रेम प्रणाम किया. इसके बाद विक्रमादित्यने वैतालसे कहा, " शीघ्र जाओ और विप्रपत्नी उमादेवीका सोपारक नगरमें जाकर सब समाचार ले आओ." _महाराजाकी आज्ञानुसार अग्निवैतालने उमादेवीका हाल जानकर राजासे कहा, "योगिनी तथा क्षेत्रपालोंने उमादेवीको भक्षण कर लीयें है". .. राजा विक्रमादित्य राजा विजयको पूछकर पंडित, छात्र और अपनी प्रिया चन्द्रावतीके साथ अग्निवैतालकी सहायतासे पुनः सोपारक नगरमें आ पहुँचे. और पंडित तथा छात्रोंको बहुतसा द्रव्य देकर संतुष्ट किये. वहाँ इसके बाद जिन मंदिरमें जाकर श्री आदिनाथकी भावभक्तिसे स्तुति करके प्रसन्न हुआ. र बादमें महाराजा क्रमशः सोपारक नगरसे अवन्तीनगरीमें आया, 'वज्रदण्ड' और 'सर्वरसदण्ड' वे दोनों दण्ड नागदमनीको दे दिये. दण्डोंको देकर राजाने नागदमनीको कहा, ". अब छत्रके लिये मागेका कर्तव्य कहो." P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 285 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित ___ पाठकगण ! आपने महाराजा विक्रमादित्यके द्वारा किये गये साहसपूर्ण कार्यका हाल पढा जो नागदमनीके द्वारा बताये गये. दूसरे आदेशके पालनके हेतु किया गया था., महाराजाने अपनी चातुरीसे किस प्रकार त्रेसठ विद्यार्थी और गुरुको बाल-बाल बचाकर उस विप्र .. पत्नी उमादेवीका सदाके लिये अंत कर दिया. . .. सच है कि एक पुण्यशाली सारी नावको तिरा देता है और एक पापी पूरी नावको डूबा देता है. धन्य है महाराजा विक्रमादित्यको जिसने अपनी जान खतरेमें डाल कर भी अनेक व्यक्तियोंकी रक्षा की हैं. किसीने ठीक ही कहा है. "जो पराये काम आये-धन्य है जगमें वही, द्रव्यही को जोडकर-कोई सुयश पाता नही." . अधिकारपदं प्राप्य नोपकारं करोति यः; . अकारो लोपमात्रेण ककारद्वित्वतां व्रजेत् // 1 // अधिकार कुं पायके-करे न पर-उपकार,... अधिकारमें से अ गया-बाकी रहा धिक्कार // 2 // . देखत सब जग जात है, थिर न रहे इहाँ कोय; इसुं जाणी भलं कीजिए, हैये विमासी जोय // 3 // अखियां खुली है जवलग, तब लग ताहरु सब कोय; . - अखियां मीचाणा पीछे, और ही रंग ज होय // 4 // ' जीवन-जोवन राजमद, अविचल रहे न कोय; जो दिन जाय सत्संगमें, जीवन का फल सोय // 5 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छियालीसवाँ प्रकरण मंत्रीश्वरका देश निकाल व महाराजा का पाताल प्रवेश " उद्यम किजे जगतमें, मिले भाग्य अनुसार / मोती मिले कि शंख पर, सागर गोतामार // " पाठक गण ! आपने गत प्रकरणोंमें नागदमनी के आदेशानुसार महाराजा विक्रमादित्य द्वारा दिखाई गई महान् वीरता व साहस और अद्भुत आश्चर्यकारी-चमत्कारी कार्यों के विवरण को पढा. महाराजाने अपने इच्छित फल 'पंच-दंड वाले छत्र' की प्राप्ति के हेतु क्रमशः रत्नपेटी, सर्वरसदंड तथा वज्रदंड को प्राप्त किया. अब आप तीसरे आदेश का रोचक हाल पढ़ें. . महाराजा विक्रमादित्य ने पुनः नागदमनी को याद दिलाते हुए कहा, " हे नागदमनी ! अब तुम मुझे तीसरे आदेश-कार्य को बताओ-ताकि मैं उसे भी शीघ्र पूरा कर लूँ." . . इस पर नागदमनीने उत्तर दिया, " हे राजन! आपका मंत्री जो मतीसार हैं उसे अपने सकुटुम्ब के साथ देश निकाल दे दो." मंत्रीश्वर का पूर्व परिचयः मतीसार के तीन पुत्र हैं, जो उत्तम विद्वानों से शिक्षा आदि प्राप्त कर, स्वयं ही विद्वान बन गये हैं. इनके नाम क्रमशः सोमा चंद, और धन है. इन तीनों पुत्रों के विवाह बडे बडे धनीका 10 प्राप्त करताय विदा बन गये हैं. इनके नाम काममा सो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित पुत्रियों के साथ हो चुके हैं. जिनमें सब से छोटे पुत्र धन की स्त्री अति बुद्धिमानी है..। "धार्मिक जन के ही होते हैं, विनयवान सुत सरल यहाँ, न्याय उपार्जित धन और सुन्दर-वधू भली मिलती ही कहाँ ?"; उन तीनों पुत्रों में छोटे पुत्रकी स्त्री सब पक्षीयोंकी भाषा भी जानती थी. श्वसुर और सासु की भक्ति करने में सदा तत्पर और चतुर थी. विना भाग्य के विनयी तथा पुण्यात्मा पुत्र प्राप्त नहीं होता है, वैसे ही विना भाग्य के न्यायमार्ग से उपार्जित धन और विनयवान पुत्रवधू भी प्राप्त नहीं होते. . एक दिन वह मंत्रीकी पुत्रवधू संध्या कालमें अपनी हवेली के ऊपर बैठी थी. उस समयमें पूर्व दिशामें अकस्मात् सियाल का शब्द सुनकर वह विचारने लगी, " क्या मेरे श्वसुर मतीसारको विना अपराधके आजसे छै महिनों के बाद राजा देश निकाल का दण्ड देगा ? अतः उसका कुछ उपाय सोचना चाहिये. क्यों कि जो भविष्य की चिन्ता करता है वह सुखी होता है, और जो भविष्य की चिन्ता नहीं करता वह अवश्य दुःखी हो जाता है. चतुर सियार-लोमडीकी कथा जैसे जंगलमें वसनेवाले सियार- लोमडी ने गुहाकी वाणी से अपनी आत्मरक्षा की. किसी वनमें एक सिंह रहता था. एक दिन भक्ष्य नहीं मिलने से भूखसे पीडित हो कर गुहामें आकर वह सोचने लगा, 'रात्रिमें इस गुहामें आकर पशु रहेंगे, तब में उनको खाकर अपनी भूख शान्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 हा विक्रम चरित्र करूँगा.' इस के बाद रात्रि होने आई तब उस गुहामें रहने के लिये एक सियाल आया. परन्तु गुहाके बाहर सिंह के चरण चिहन--पगले देखकर वह विचारने लगा कि इस गुहामें अवश्य पहिले सिंह गया होगा. इस लिये यहाँ रह कर गुहासे सिंह के आनेका समाचार पूछत' . यह सोच कर वह सियाल बोला, ' हे गुहे ! बोला तो अभी मैं अन्दर आऊँ या न ?' बाहरमें सियालका शब्द सुनकर सिंह सोचने लगा, 'यदि यह गुहा अभी नहीं बोली तो यह सियाल भीतर नहीं आयेगा, इस लिये मैं ही प्रत्युत्तर देता हूँ.' यह सोचकर सिंह बोला, ' हे सियाल ! आओ आओ शीघ्र चले आओ.' पुत्रवधूने रत्न कण्डोमे थाप दिये. 4 KISE SS || SA-ANI 10 K... .. सियाल गुहाको पूछने लगा. चित्र न. 19-20 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 289 सिंहका शब्द सुनकर अन्य वनके पशु जान गये. सियाल भी बारंबार यह पढ़ने लगा, 'अनागतकी चिन्ता करनेवाला कदापि दःखी नहीं होता.' वनमें रहते रहते मैं वृद्ध हो गया; परन्तु गुहाकी वाणी तो कभी नहीं सुनी.” इस प्रकार सोचकर वह सियाल बुद्धि के प्रयोगद्वारा मृत्युसे बच गया. " .. मतीसार-मंत्रीश्वरकी पुत्रवधूने मनमें निश्चय किया कि 'मैं भी वैसाही उपाय करुंगी.' यह सोचकर एकएक रत्नको प्रत्येक कण्डेमें-छाणामें रखकर थापने लगी. परिवारके लोगोंके निषेध करने पर भी जब उसने अपने कार्यक्रमका त्याग नहीं किया; तो लोग उसकी हँसी उड़ाने लगे. वे लोग कहने लगे, 'वाह ! यह कुलबघू अपने कुलका उद्धार करेगी ?' लोगोंका इस प्रकार . व्यंग सुनकर भी वह मंत्रीकी पुत्रवधू अपना कार्य नहीं छोड़ती थी. क्योंकि 'सर्वथा अपने हितका आचरण करना चाहिये; लोक बहुत बोलकर क्या करेंगे? ऐसा कोई भी कार्य नहीं है. जिसमें सब लोग . संतुष्ट ही रहे !'+ वह मनमें सोचती थी, " यदि मैं किसीके आगे अपने मनकी बात कहूँगी तो भी कोई मानेगे नही, अरे और की क्या बात करे ! मेरे श्वसुर और सासु भी यह बात मानेंगे ही नही, दुनीया दुरंगी है." वैसा सोचकर किसी भी बात का विचार न करके अपना कार्य बराबर करती रही, इस प्रकार उस मंत्रीको पुत्रवधूने . दूसरोंकी बातोंका अनादर करके उसने अनेक रत्न कण्डोमें थाप दिये. + "सर्वथा स्त्रहितमाचरणीयं किं करिष्यति जनो बहुजल्पः / विद्यते स नहि कश्चिदुपायः सर्वलोक परितोषकरो यः ॥सर्ग 9/44 9 // . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 ____ .... . विक्रम चरित्र इस तरह समय आनंदपूर्वक बीत रहा था, मंत्रीश्वर राज्य का कारभार बराबर कर रहे थे, महाराजा भी मंत्रीश्वर के उपर प्रसन्न रहते थे; सियाल की भविष्य वाणी को करीब छ मास बीतने आये. मंत्री मतीसार को देश निकाला :- बराबर छ मासके अन्तमें अकस्मात् मतीसार को बुला कर महाराजाने कहा, 'मुझको तुम राज्यका हिसाबवही बताओ, अन्य था मेरे राज्य से बाहर चले जाओ.' इस प्रकार राजा की आज्ञा मान कर जब मंत्री हिसाब देने लगा तब राजाने निष्कारण ही छल-कपट-से क्रुद्ध हो कर उस की सब संपत्ति ले ली और उस को अपनी राज्य की सीमाहदसे बाहर चले जाने की आज्ञा फरमाई. होता है राजाज्ञा-अनुसार अवंती छोड चला, किन्तु बुद्धिमती उसकी पुत्रवधू घर का सारभाग उन उपलों को समजकर वह लेकर घरसे निकली, और सभीने कुछ थोडासा सर सामान ले अपने नशीब के भरोसे चल पड़े. कोई कहते थे कि यह चतुर है इसलिये किसी मतलब से ही कण्डों को लेकर जा रही है. कोई कहते थे कि आज तक प्रजाको मंत्रीने अति कष्ट दिया है, उसी दुष्कर्म का यह फल हैकोई कहते थे कि यह मंत्री अत्यन्त भला है और इसने किसी को * भी दुःख नही दिया है, न जाने राजाने इसको देशनिकालका भयंकर दण्ड क्यों दिया ? कोई कहता कि सच ही आज कल भलाईका जमाना नहीं है? कोई कहते थे कि इस मंत्रीने इस जन्म में तो कोई पाप P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित नहीं किया परंतु यह कोई पूर्व जन्म के पापोंका ही फल है. क्यों कि 39IAN SE OS T-EN .. -- A .. - NM ICC AN (राजाज्ञानुसार मंत्रीश्वर का सकुटुंब अवती से प्रस्थान करना. चित्र नं. 21) किसी भी प्राणी के सुख अथवा दुःख का कर्ता या हर्ता कोई अन्य नहीं है; सब अपने अपने पूर्व जन्म के किये गये कर्मों का ही फल भोगते हैं. कोई कहते थे कि यह राजा नागदमनी से प्रेरित हो कर शिष्ट व्यक्तियों का भी इस प्रकार अपमान करता है. इस प्रकार नगरमें लोगो की तरह तरह की बातें सुनाई देती थी. 'एक वृद्धने कहा, "भाई ! सुनो मैं एक दोहरा सुनाता हूँ"जोगी किस का गोठिया, राजा किस का मित; वैश्या किसकी इसतरी, तीनों मित कुमित." P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 C विक्रम चरित मंत्री मतीसार का रत्नपुरमें जाना:- ... मंत्री अपने परिवार सहित दूर देश चला गया. क्रमशः जाते जाते वह कुटुम्ब के साथ कोई एक नगर के समीप पहुँचा. और विचारने लगा कि अब हमलोग किस प्रकार जीवननिर्वाह करेंगे वहाँ पर किसी मनुष्य से पूछा, "भाई! इस नगर का क्या नाम / है? और नीतिमार्ग से पालन करनेवाला राजा कौन है ? इसकी रानी तथा कुमार और कुमारी का क्या नाम है?" . तब वह मनुष्य कहने लगा, " यह रत्नपुर नामक नगर है, इस के राजा का नाम रत्नसेन है. और इसकी रानी का नाम रत्नवती है. चन्द्रकुमार नामक विद्वान् पुत्र है और कुमारी का नाम विश्वलोचना है." यह सब सुनकर मतीसार मंत्री उसी नगरी में धनोपार्जन का उपाय करने लगा. परन्तु इससे उनका निर्वाह न होता था. ठीक ही कहा है कि दरिद्र, रोगी, मूर्ख, प्रवासी और सेवक ये पांचों जीते हुए भी मरे तुल्य हैं. उस मंत्री का कुटुम्ब भूख से पीडित होकर परस्पर कलह नित्य करता रहता था. इस प्रकार कुटुम्ब को कलह करते देखकर, उस छोटी पुत्रवधूने कण्डे में से एक बहु मूल्य मणि निकाल कर निर्वाह के लिये अपने श्वसुरजी को दिया. अपने पतिदेव और उनके दोनों बड़े भाईयोंको भी एक एक वहु मूल्य रत्न दिया. ये लोग रत्न लेकर दूर देशोंमें व्यापारके लिये चले गये. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 293 - उन लोगोंको गये जानकर वह सोचने लगी, ' श्वसुर आदिके बिना हम कैसे अपना समय बितायेंगे ? धन देने पर भी ये लोग हमसे दूर चले गये. आपत्ति आने पर प्राणीका कोई मी आत्मीय नहीं होता. अथवा इन लोगोंका कोई दोष नहीं है. यह तो अपने पूर्व जन्मके किये गये कर्मों का ही दोष है. तो भी जब तक यह दुर्भाग्य दूर न हो जाय, तब तक वेष बदलकर गुप्त रहना ही अच्छा है. क्यों कि बिना पतिके स्त्रियोंका शील रक्षण अत्यन्त दुष्कर है.' यह सब मनमें सोचकर वह छोटी पुत्रवधूने अपने पतिके बड़े भाईयोंकी स्त्रियोंके साथ रात्रिमें दूसरे नगरको जानेके लिये प्रस्थान किया. और दूसरे नगरमें जाकर शील रक्षाके लिये उसने पुरुष वेषको धारण कर तथा एक रत्न बेचकर एक वृद्ध स्त्रीके घरमें वे सब रहने लगी, उस वृद्धाके द्वारा अन्न आदि सामग्री मंगवाती थी: / प्रतिदिन भोजन करके पुरुष वेषवाली वह पुत्रवधू झरोखेके पांस बैठती थी. एक दिन झरोखेमें बैठे हुए उसने अपने श्वसुरको थोडे दूरमें रोते हुए देखा और वृद्धासे कहा, "वह रोते हुए मनुष्यको यहाँ ले आओ." मतीसारका कुटुम्बसे पुनः मिलन... वृद्धाने उसके पास जाकर कहा, "उस झरोखे में बैठा हुआ एक कुमार तुम्हे बुला रहा हैं." इस प्रकार कहकर लकड़ीके भारेको उठाये हुए उस वृद्ध मनुष्यको वह बुढ़िया अपने घरमें ले आई. इसके बाद उस कुमार-वेषधारी पुत्रवधूने कहा, " तुम क्यों इतना P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .294 .. .. . विक्रम चरित रुदन मचाते हो ? यदि तुम मेरे घरमें कार्य करोगे तो तुम्हारा सब दुःख मैं दूर कर दूंगा." . - वृद्धने कहा, "मैं तुम्हारे कथनके अनुसार सब कार्य करुंगा. क्योंकि पथिक जिस किसीका क्या क्या कार्य नहीं करता ? किस किसको प्रणाम नहीं करता ? इस दुर्भर पेटके लिये सभी कुछ करना पड़ता है. पैदल मुसाफरी करने जैसा कोई कष्ट नहीं, क्षुधाभूख के समान कोई रोग नहीं है, मरणके समान कोई भय नहीं और दारिद्रयके समान कोई शत्रु नहीं है. "अधिक चले तो वृद्ध हो-भूख समान न रोग; मृत्यु बराबर भय नहीं-दारिद्र से बढ़ कर रोग." - इसके बाद वह पुरुषवेशधारी-कुमार उस वृद्ध को बराबर साधारण कार्य करने को कहता और अच्छा अच्छा भोजन देता था. इस प्रकार क्रमशः अपने पति आदि तीनों भाईयों को भी उसने अपने घरमें नौकर बनाकर उत्तम भोजन आदि देकर सुख से रखती थी. अपने परिवार को एकत्रित देखकर मतीसार मंत्री की पुत्रवधूने पुन : अपना स्त्रीका रूप बना लिया यह देखकर मतीसार अपने मनमें अत्यन्त चकित हो गया. - तब पुत्रवधूने पूछा, "हे तात! सवालाख मूल्य का रत्न तुम्हारे पास था, तो भी यह दुदर्शा तुम्हारी क्यों हुई?" ... मंत्री कहने लगा, "मैं मणि लेकर बाजारमें गया और कहा कि मेरे पास एक लाख का हीरा है." यह सुनकर झवेरीने कहा, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 295 ~ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित दिखाओ' तो, तब मैंने उसे दिखाया. देखकर उस * व्यौपारीने लापरवाहीसे हँसकर कहा, 'तुमको साधारण पत्थर देकर किसीने ठग लिया.' तब मैंने कहा, 'मेरी पुत्रवधूने निर्वाह के लिये मुझे . दिया है.' व्यौपारीने कहा, 'तुमको उसने ही ठग लिया. ' बादमें मैं दूसरी दूकान पर गया और उसे दिखाया. परंतु उस व्यौपारीने भी पूर्ववत् ही कहा और मेरी खिल्ली उडाई. इस प्रकार मने घूम 'घूम कर बहुते से व्यौपारियों को दिखाया परंतु सभी ने कहा, 'यह पत्थर है.' तब मैंने सोचा, 'दुष्कर्म के प्रभाव से ही रत्न भी साधारण पत्थर बन गया.' बादमें खिन्न होकर मैं बजार के बाहर आया क्यों कि : 'फलता नही कदापि जगत में-कुक शील मति सुन्दरता; , 'पूर्व जन्म कृत कर्म वृक्ष ही फलते सुख दुःख वरषरता.' 'किसी को भी सुंदररूप कुल शील, विद्या अथवा सेवासे ‘फल नहीं मिलता बलके वृक्ष की भाँति पूर्व कृतकर्म और तपस्या निश्चय से फल देते हैं.'+ ... + नैवाकृति : फलति नैव कुलं न शीलम् , विद्या च नैव न च जन्मकृता च सेवा। कर्माणि पूर्व तपसा किल संचितानि. काले फलन्ति पुरुषस्य यथेह वृक्षाः // सर्ग 9/499 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , 296 विक्रम चरित्र बाजारके बाहर आकर जब मैंने अपने परिवारके किसी भी मनुष्यको नहीं देखा तब दुःखी होकर पुन: नगरमें गया और लकडी बेचकर तथा दूसरोंका काम करके बडे कष्टसे अपने पेटको भरता हुआ, फिरता फिरता यहाँ आया. इस प्रकार पूर्वकृत कर्मके फलको भोगता हुवा इधर-उधर भटकता ही था, कि तुमने मुझे देख लिया." पुत्रवधूने पूछा, "उस रत्नको फेंक दिया या आपके पास है।" मंत्रीने कहा, " वह मेरे वस्त्र में बंधा हुआ सुरक्षित है." पुत्रवधूने कहा, "वह मणि मुझको दिखाइये." इस प्रकार पुत्रवधूके कहने पर मंत्रीने उस रत्नको दिखाया. उस मणिको स्वभावसे तेजस्वी देखकर वे दोनों चौकन्ने रह गये-विस्मय हो गये. इसी प्रकार मंत्रीके तीनों पुत्रोका भी उसने पूछा और उन लोगोंने भी वैसा ही उत्तर देकर अपना अपना रत्न उसको पुनः दे दिया. वे रत्न भी अपने वास्तविक तेजसे युक्त दिखाई दिये. इसके बाद वह मतीसार अपनी छोटी पुत्रवधूका पूछ पूछ कर ही सब काये करने लगा. क्यों कि "जो अपने बुद्धयादि गुणोंसे विशिष्ट होते हैं, राजा, माता तथा पिता भी उनका सदा सन्मान करते हैं."+ . इस के बाद एक लाख मूल्य में एक रत्न बेचकर मंत्री अपन कुटुम्ब के साथ सुखसे अपने दिन बिताने लगा. क्यों कि पतिव्रता स्त्री, + यो बुद्धयादि गुणेः शिष्टविशिष्टो जायते जनः। सन्मान्यते महीपाल मातृपित्रादिभिः सदा ॥सर्ग 9508 / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 297. विनयी पुत्र, उत्तम गुणोंसे युक्त पुत्रवधू, बंधु, प्रधान, उत्तम मित्र ये सब लोगों को धर्मके प्रभावसे प्राप्त हो सकते हैं. किसी ने ठीक ही कहा हैं कि'पविता स्त्री विनयी बालक भली वधू प्रेमी भाई; मित्र निच्छली धर्म किये पर मिलते हैं सब सुखदाई.' बराबर छ मास के अन्तमें एक दिन सियाल का शब्द सुनकर पुत्रवधूने कहा, " प्रातःकाल पूर्व दिशामें चन्द्र नाम के सरोवर पर राजा विक्रमादित्य तुमसे मिलेंगे इसलिये अभी सब कार्य को छोडकर उसके पास चले जाइये. अपनी बुद्धिमति पुत्रवधू के कथनानुसार मंत्रीश्वर शीघ्र तैयार हो कर, उस ओर चल दिया. विक्रमादित्य द्वारा मतीसार मंत्री का पुनः सन्मान इधर राजा विक्रमादित्य नागदमनी को बुलाकर पूछने लगा, "तुम अपना चतुर्थ आदेश कहो." नागदमनीने कहा, "हे राजन् ! रत्नपुर में शीघ्र जाकर अपने मंत्री मतीसार को सन्मानपूर्वक शीघ्र ही ले आओ" इस प्रकार राजा नागदमनी के कहने पर मंत्री को लाने उस ओर चल दिया. राजा जब चन्द्र नामके सरोवर पर पहुँचा तो ठीक उसी समय मतीसार मंत्री भी. उस के सामने हो आया. राजा मंत्री को बहुत आदर से भेट पड़े और खूब हर्षित हुआ. मंत्री ने महाराजा का भक्तिपूर्वक सन्मान किया. और। महाराजा को बहुत आदर सहित अपने घर ले आया. महाराजा विक्र-- मादित्य मंत्री की सम्पति देख कर चकित हो गया. __ राजा को आश्चर्ययुक्त देख कर मंत्रीने कहा, "आपकी कृपा और 1 निष्कपटी-निर्मल चित्तवाला. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 विक्रम चरित्र पुत्रवधू की बुद्धिमत्ता से यह सब सम्पत्ति हुई है, और पूर्व जन्म में किये गये बुरे कर्म के फल को भोग कर अब सुखी हुआ हूँ. MA 53S Audur Munlo .in (चन्द्र नामके सरोवर पर महाराजा और मंत्रीश्वरका मिलन. चित्र नं. 22) . राजाने कहा, "पुत्रवधू की बुद्धिमानी से है ? कैसे व क्या हुआ ?" मंत्रीने पुत्रवधू की बुद्धिमानी और दूर-दर्शिताका सब हाल कह सुनाया. - राजाने कहा, "मैंने तुमको देश निकाला दे दिया था, इसलिये इस सम्पत्ति की प्राप्तिमें मेरी कोई कृपा नहीं है." ..... इधर उसी समय नगरमें पटह का शब्द सुनकर राजाने मंत्रीसे कहा, " इस नगरका राजा अभी क्यों पटह बजवा रहा है ? " तब मंत्रीने सब समाचार जानकर महाराजा विक्रमादित्य का कहा, "पहले इस नगरमें एक ऐन्द्रजालिक आया था, उस समय P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जन विजय संयोजित 299. राजा सभामें ही था. ऐन्द्रजालिकने राजा से कहा, 'अगर आप की आज्ञा हो तो अपना कौशल दिखाऊँ.' राजाने कहा, 'तुम अपना कौशल अवश्य दिखाओ.' * इस प्रकार राजा की आज्ञा पाकर ऐन्द्रजालिकने अनेक प्रकार के खेल करके अपना कौशल दिखाया, और इसने राजासे कहा, 'हे राजन् ! यदि आपकी रुचि हो तो नित्य फल देनेवाली आम की वाड़ी दिखा दूं.' राजाने कहा, ' इससे बढ़कर और क्या चीज देखने योग्य हो सकती है ?' इस प्रकार राजाकी उत्कट इच्छा देखकर ऐन्द्रजालिकने नित्यः फल देने वाले आमकी गुटिकाका रोपण करके आमकी वाड़ी बना दी, और इसके समीप एक रम्य पर्वत बनाया. वाटिकाके मध्यमें एक नदी प्रवाहित कर दी. नदीके जलसे वृक्षोंको सींच करके पत्र, पुष्पः और फलोंसे उसे परिपूर्ण किया. उपरोक्त विस्मयकारक कार्यको देख सभी लोग चकित हो गये. इस प्रकार सदा पके हुए फलबाले आमोंकी वाटिका बनाकर राजासे कहा, ' यदि आपकी आज्ञा हो तो इन आमोंके फलोंको शरीरकी पुष्टि के लिये आपके परिवारको ढूँ. 'दो' इस प्रकार राजाके कहने पर ऐन्द्रजालिकने आश्चर्य करनेके लिये उन लोगोंको दिया. उन फलोंको परिवार सहित खाकर राजा सोचने लगा, 'यदि इस ऐन्द्रजालिकको मार दूं तो यह सब योंही रह जाय' राजाने इस प्रकार सोचकर उसे मरवा दिया, और अपने सेवकोंको वाटिकासे फल लानेके लिये भेजा. जब वे P.P.AC.Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित 300 लोग फल लेने गये तो उनके हाथोंमें फलके बजाय पत्थर आने लगे, और नदीका जल लेने गये तो हाथोंमें घूल आने लगी. यह देखकर राजाने शान्तिक. क्रिया करवाई तो भी धूल और पत्थर ही मिले, राजा सोचने लगा, 'यह मैंने अच्छा नहीं किया. जो ऐन्द्रजालिकको मरवा दिया इस लिए कुछ भी हाथ न लगा.' ठीक ही कहा है, बिना विचारे सहसा कोई कार्य नहीं करना चाहिये. क्योंकि विना विचारके कार्य करनेसे आपत्तिका ही सामना करना पड़ता है. विचार कर कार्य करनेसे गुणोंको चाहने वाली सम्पत्ति खुद ही मिलती है, विना विचारके कार्य करनेवाले प्राणी दुःखी होते हैं. वह ऐन्द्रजालिक मरकर तत्काल देवयोनीमें गया और देव होकर उसने इस वाटिकाको मटिआमेट-नाश कर दिया. राजाने मंत्रियोंके साथ विचार कर नगरके चारों तरफ पटह वजवा कर कहलाया, 'जो कोई इस वाटिकाको पुनः फलयुक्त और इस नदीको जलसे पुनः प्रवाहित करेगा उसको राजा बहुत सम्मानित करेगा. साथ ही साथ अच्छा उत्सव कर, आधा राज्य उसे समर्पित करेगा. अधिकमें अपनो कन्या विश्वलोचनाकी उसके साथ सादी-विवाह करेगा." यह सब बातें सुन कर विक्रमादित्यने कहा, "हे मंत्री! तुम जाकर पटहका स्पर्श करो; बाद में सब कुछ कर दूँगा ! मुझको कुछ भी लेनेकी चाह नहीं है." जब मंत्रीने जाकर पटहका स्पर्श कर लिया, तब राजा विक्रमादित्यने अग्निवेतालकी सहायता से वाटिकाका पूर्ववत् बना दिया. क्योंकि मनुष्य से असाध्य कार्यको भो देवताको सहायता से लोग क्षणमात्र में ही साध्य कर देते हैं. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 301 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित * महाराजाका विश्वलोचनासे विवाह-: . राजाकी आज्ञासे अग्निवेतालने उस व्यन्तर को भी दूर कर दिया और वाटिका से फल लाकर राजा को दिया. राजाने भी अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार अपना आधा राज्य उसे दे दिया. क्योंकि 'मेरु हिमालय हिल सकता है-जलधि करे मर्यादा भंग; लेकिन सज्जन नहीं बदलते-अपनी बात को किसी प्रसंग.' आलस्यमें भाकर भी सज्जन व्यक्ति जो बोलते हैं, वह पत्थर में टंक से लिखे गये अक्षरों के समान कभी भी अन्यथा नहीं होते हैं. इस लिये कुल और शील ज्ञात नहीं रहने पर भी राजाने विश्वलोचना नामक अपनी कन्या विक्रमादित्य के व्याह दी, राजाके इस कार्य पर कई लोग कहने लगे, 'कुल या शील को जाने विना ही राजाने अपनी कन्या विदेशी को दे दी यह अच्छा नहीं किया. मूर्ख भी ऐसे अज्ञात व्यक्ति को कन्या नहीं देता, तो फिर विद्वान् हो कर भी राजाने एकाएक ऐसा क्यों किया ?' . - ये सब बातें सुन कर मंत्री मतीसारने राजा रत्नसेन को कहा, " यह कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है. यह राजा विक्रमादित्य है, कि जिसने खपर और अग्निवेताल को अपने वशमें कर लिया है. यह महाराजा विक्रमादित्य का मुझको बुलाने के लिये यहाँ एकाएक ही आना हुआ हैं." इस प्रकार मंत्री की बात सुनकर राजाने नगरके कोने कोनेमें उत्सव मनाया, जौर अग्निवेतालकी सहायतासे उन सदा फलनेवाले P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 . : विक्रम चरित्र आम्रों के बीज लेकर मंत्री और अपनी स्त्रीके साथ राजा विक्रमादित्य / भी अपने नगरमें आया. और नागदमनी को बुलाकर आम्रों के बीज दिये तथा मत्रीश्वरको आदर सहित अपने प्राचीन पद पर स्थापित किया. इसके बाद राजा विक्रमादित्यने नागदमनी से कहा, " अब तुम अपना पंचम आदेश-काय का निर्देश करों." "सभी दानों में सुपात्र-दान सर्व श्रेष्ट कहा; . सन्मान पूर्वक देता-वही मोक्ष निदान कहा." इस संसारमें प्रचुर पुण्य एकत्र करना सभी प्राणियोंके लिये बहुत आवश्यक है, क्योंकि मजबुत नींवके सिवाय मकान भी नहीं टीकता है, तो फिर इस संसारमें सभी प्राणियों सुख प्राप्त करने चाहते है और वह सुख पुण्यके सिवाय ओर कोई प्रकार अपनी इच्छासे प्राप्त करना अशक्य है; इसी लिये महाराजा विक्रमादित्य तो. प्रथमसे ही बड़ी उदारतासे दान दे रहे थे, - तथापि नागदमनीने पंचम आदेशके रूपमें महाराजा विक्रमा- . दित्यसे नम्र निवेदन किया, "हे राजन् ! आप सर्व प्रकारके दानोंमें जो श्रेष्ट सुपात्र दान सर्वत्र प्रसिद्ध हैं वह सुपात्र दान अधिकतर रूपमें देना आरंभ करें." सुपात्र दान याने क्या ? सुयोग्य सदाचारसे युक्त जो सद्गुणी व्यक्ति हो उसको सन्मानपूर्वक दान देना उसीको सुपात्र दान शास्त्रम कहा गया. P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 303 साहित्यप्रेमी मुनि निरअनविजय संयोजित सुपात्र-दान। राजाने सुपात्र की परीक्षा के लिये प्रथम ब्राह्मणों को बुलवाये और पूछा, "तुम में से सुपात्र कौन है ?"' . ' ब्राह्मणोंने कहा, "हम सब सुपात्र ही हैं.' . राजाने पूछा, " आप लोगों को क्या क्या दान दिया जाय वह बतलाइये?" . - वे लोग कहने लगे, " लोग अपनी सद्गति के लिये, पृथ्वी, ___रत्न, पत्नी, गाय, यंत्र तथा मुशल आदि का दान देते हैं." , महाराजाने कहा, "जो तीव्र तपस्या करके ब्रह्मका अन्वेषण करते हैं, वे ही ब्राह्मण हैं, आत्मज्ञान के लिये चक्रवर्ती राजा भरतने जिनको स्थापित किया वे ब्राह्मण कहे जाते हैं. दूसरे नहीं, और .. पुराण में भी कहा है, कि ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण और शिल्प से शिल्पी होते है, अन्यथा गोकळगाय एवं इन्द्रगोपक नामके जन्तुके समान वह नाममात्र के लिये ही हैं." ये सब बातें सुनकर ब्राह्मण लोग अत्यन्त क्रुद्ध हो कर कहने लगे, " हे पापिष्ट ! आप ऐसा क्यों कह रहे हो. नागदमनी के संग से ही तेरी बुद्धि बिगड़ी हैं." इस प्रकार ब्राह्मणोंकी बातें सुनकर राजाने : विचार किया, 'ये ब्राह्मणलोग व्यर्थ ही अहंकार से भरे हुए हैं. ये अपने आपको बहुत बड़े मानने लग गये हैं. यदि देखा जाय तो . + “ब्राह्मणो ब्रह्मचयेंग यथा शिल्पेन शिल्पिनः / अन्यथा नाममात्र स्यादिन्द्रमोपक कीटवत्" // स. /56 // . P.P.AC. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304. विक्रम चरित्र लोकमें प्रसिद्धि के कारण या परंपरा के कारण और कर्म-विवाह आदि उपयोगी होनेसे लोग इन्हें दान दे रहे हैं, किन्तु ब्रह्म का अन्वेषण याने सदाचार से युक्त हो कर सत्यको . खोज करना भूल गये है। खैर कैसे भी हो.' वैसा मनमें सोच ब्राह्मणों को नौकर के द्वारा दान दिला कर रवाने किये. . ... इस के बाद जैन साधुओंको बुला कर राजाने पूछा, तब साधुओंने कहा, " दो प्रकार के गुरु होते हैं. एक कर्मकाण्ड, विवाह, शान्तिक आदि कर्म करानेवाले वे गृहस्थ कर्मगुरु कहलाते है, और दुसरे जो स्वयं निष्पाप होकर उत्तम धर्म उपदेश करते हैं. क्योंकि महावत के घारण करनेवाले बड़े धीर और भिक्षा मात्र से जीवन नर्वाह करनेवाले . तथा सामायिक में स्थित धर्मोपदेशक सद्गुरु कहलाते हैं. किन्तु सब वस्तुओंकी अभिलाषा करनेवाले, सब वस्तुओंको भक्षण करने वाले, परिग्रह रखनेवाले, ब्रह्मचर्य से रहित और मिथ्या उपदेश करनेवाले वैसे सद्गुरु कदापि नहीं हो सकते. कहा भी है कि :-. 'चार वण में जो उत्तम है-शील सत्य गुण से संयुक्त, दान उसी को देना चाहिये-जिसको देने से हो मुक्त.' - 'चारों वर्गों में जो शील सत्य आदि से युक्त हो, मोक्ष की अभिलाषा करनेवाले हों उन्हें ही दान देना, वह ही सुपात्र दान है. '+ / ऐसे निस्पृही साधुओं की ये सब सुन्दर बातें सुनकर राजान विचार किया, 'निष्पाप, निरहंकार और तप करने में तत्पर ये लोग ही + "चतुवर्णेषु ये शोल सत्यादि गुग संयुताः / तेम्वेव दीयते दान बनोशामिगतिमिः // स. 1/5.6 // . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित . 305 दानके योग्य हैं.' राजाने अंजलीबद्ध हो कर नमस्कार करके साधुओं को कहा, "आप लोगोंको जो कुछ वस्त्र आदि लेना हो वह लीजिये." तब वे लोग मुहपत्ती-मुत्रवस्त्रिका से मुखको आच्छादित करके कहने लगे. “हे राजन् ! जैन धर्ममें चौवीस तीर्थकर भगवंत हुए हैं, उसमें दूसरे तीर्थंकर से लगाकर तेवीसवें तीर्थंकर प्रभु तक के बावीस मध्यम तीर्थकर प्रभु के साधुओं को राजपिण्ड+ खप शकता है; किन्तु प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ और अन्तीम तीर्थंकर श्री महावीर देव के साधुओं को 'राजपिण्ड' खपता नहीं है, यह जैन शासन में सदा के लिये आज्ञा याने मर्यादा है." शास्त्रोंमें दान के पांच प्रकार बताये है-"अभयदान और सुपात्रदान मोक्ष देने वाला है, और अनुकंपादान, उचित दान एवं कीर्ति दान ये तीन दान भोग' सामग्री को देनेवाले है. इसलिये हे राजन्! दीन दुःखी आदि लोगों को अपनी इच्छा के अनुसार दान दो. दीनों को दिया हुआ दान भी कल्याणकारक होता है." राजाने यह सुनकर दीनों को दान दिया. और बाद में अपना हाल जानने की इच्छा से अंधेर पछेडा ओढकर वह रात्रिको नगरी में घूमने निकला. महाराजा घूमता घमता जब पुरोहित के घर के पास लोकविचार सुनने को खड़ा हुआ तो देवदमनी की बहन 'हरिताली' नाम की उत्तम आभूषण और वस्त्रों को पहन कर वहाँ आ गई. और जइतु नाम की मालिका को उत्सुकतापूर्वक जाती देखकर उससे पूछा, " अभी तुम इतनी शीघ्रता से कहां जा रही हो?" + राजपिण्ड राजा की ओर से वन्न पात्र और भोजन बादि लेना P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 ..... विक्रम चरित्र जइतु कहने लगी, " पाताल में नाग श्रेष्ठि के पुत्रका विवाह आज रात्रि में बड़ी धूम-धामसे होगा. अत : नाग कुमार लोग एकत्रित होंगे वहीं मैं यह पुष्पों से भरी छाब लेकर जा रही हूँ." . हरितालीने कहा, "हे सखि, मुझे भी वहाँ निमंत्रण है. इसलिये "वसुधास्फोटनदण्ड' पृथ्वी को फोडनेवाला दण्ड लेकर बाहर उद्यानमें योगिनियों के साथ मैं कुछ काल तक क्रीडा करूंगी. अतः पुरोहित की गोमती नाम की कन्या को " विषनाशक"-विषापहार नामक दंड के साथ बुलाकर बाहर उद्यान में तुम आजाओ. वहाँ सब कोई मिलेंगें और बाद में चले जायँगे." यह कहकर हरिताली बाहर उद्यान में चली गई. .. जइतु पुरोहित के घर जा कर उस की कन्या को साथ लेकर पुष्पकी छाब लेकर जा रही थी परंतु फुल छाब के भारसे पीडित हो कर जइतु गोमतीसे कहने लगी, " यदि कोई बटुक मिलता तो इसे कुछ मेहनताना देकर यह छाब उठवाती." . यह सब सुनकर राजा विक्रमादित्य बटुकका स्वरूप लेकर उसके पास प्रगट हो गया. मालिनीने इसे देखकर कहा, "रे बटुक ! तुम इस भारको ले लो तो तुम्हें योग्य मजदूरी दिला दूंगी." महाराजाका बटुक वेष- ... ... बटुकने कहा, "मैं अपने मस्तक पर रख कर आपका सभी भार उठा लूंगा." बटुकसे इस प्रकार योग्य मेहनताना : ठहरा कर मालिनीने. अपने पुष्प छाब उसके सीर पर रख दिया. बादमें ये दोनों उद्यानमें चले गये जहाँ हरितालीका थी, वहाँ जाकर देखा तो हरि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जन विजय संयोजित , 307 तालिका चौसठ योगिनियोंके साथ नृत्य कर रही है. हरितालिकाके क्रीडा कर लेने पर वे तीनों एक वृक्ष पर चढे और इन दोनोंके साथ हरितालिका और योगिनियों हुंकार करती हुई आकाश मार्गसे स्वर्णद्वीपमें गई. वहाँ वनमें क्रीडा करके कुछ दूर आगे जाकर वज्रदंडसे आघात करके पृथ्वीको फोड दिया तथा पातालके विवर-बाम्बी द्वारमें विषनाशक दण्डसे सर्पो को दूर करती हुई और अत्यन्त भयानक सर्पो को हाथमें धारण करती हुई, उन दोनोंके साथ हरितालिका आदि सब पाताल नगरके समीप चली गई. . - वहाँ जाकर उन्होंने पुष्पको छाब और दोनों दण्ड बटुकको सोंप दिया और आप तीनों सरोवरमें स्नान करने गई. बादमें यहां पर विक्रम-बटुकने उन सब वस्तुओंको लेकर कौतुकवश पाताल नगरकी शोभा देखने चला गया. नागकुमार .सब नाना अलंकारोंसे भूषित होकर जलूस रूपमें बाजारमें आया; ठीक उसी समय बटुक भी वहाँ पहुँचा. विक्रमादित्य-बटुक अग्निवेतालकी सहायतासे नागकुमारोंको अदृश्य करके और स्वयं सुन्दर रूप बनाकर उसके मनोहर घोड़े पर सवार हो गया. हार, कंकण, आदि आभूषणोंको धारण करनेसे मानों एक नागकुमार सा ही दोखने लगा. और +मायनमेंलग्नचौरी मातुगृहमें जाकर 'श्रीद'की पुत्रीसे पाणिग्रहण कर लिया.' ... इधर हरिताली. आदि. तीतों.स्त्रियाँ जब स्नान करके बाहर आई तो बटुकको वहाँ नहीं देखा; अतः वे सब निराश होकर उसे खोजती मायनयाने मायरा-विवाहसे पहले मातृका और पितृनिमन्त्रणका कृत्य। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 .. विक्रम चरित्र हुई नागपुत्रोंको देखनेके लिये श्रीदके घर पहुँची. वहाँ अग्निवेतालकी सहायतासे विक्रमादित्य पुनः बटुकका रूप धारण कर बैठा था. वहीं मायनमें माताके घरमें विवाह करते हुए बटुकको देखकर इन्होंने कहा, "हमलोगोंका दण्ड आदि समान लेकर हमें ठगकर यहाँ आकर भारी संकट डाल दगी ?" यह सुनकर विक्रमादित्य अपने असल रूपमें प्रगट हो गया. विक्रमादित्यको देखकर वे सब कन्यायें ताज्जुब सी हो गई और लज्जित होकर कहने लगी कि "हम लोगोंसे भी पाणिग्रहण कर लो, " श्रीद श्रेष्ठि भी विक्रमादित्यको देखकर अति प्रसन्न महाराजा का सुरसुन्दरी से विवाह - नागकुमारों के पिताने कहा, "कृपया हमारे कुमारों को प्रगट कर, दो.” यह सुनकर दयाल राजाने वेताल की सहायता से नागकुमारों को नाम की कन्या को मणि दंड के साथ राजा विक्रम को समर्पित कर दी. - चन्द्रचूड नागकुमारने कहा, "हे राजन् , लक्ष्मी के समान . गुणवाली कमला नामक मेरी कन्या को आप स्वीकार कर लो.” राजाने वह कन्या स्वयं न लेकर नागकुमार को दिलवा दी. इस प्रकार पांच स्त्रियों के साथ पाणि ग्रहण करके मनोहर विषनाशक भूस्फोटक और मणिदंड को लेकर वहांसे चलदिया. * भूमिस्फोटक दंड के प्रभाव से पाताल नगर से उत्सव के साथ भवन्ती में आगया. वहाँ आकर राजाने तीनों. दण्ड नागदमनी को दे दिये. नागदमनीने उन पांचों दण्डों से अच्छा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जन विमय संयोजित 109: छत्र बनाया. इस छत्रमें पूर्वमें लाये गये मणियों द्वारा बड़ी चतुरता से जाली बनाई.. नागदमनीने राजा के महल के पास सदा फल देनेवाले. आमोका बगीचा बना दिया और इसमें स्फटिक से एक सुन्दर सभागृह बनाया. इसमें उत्तम रत्नों द्वारा सुन्दर सिंहासन बनाया.. राजा शुम मुहूर्त में उस सिंहासन पर बैठा और पांच दंडवाला छत्र धारण RAN MILASH TAH 605530000 000000RROR GHAD - - पंचदण्डवाले छत्र से युक्त सिंहासन पर महारावा विराजने जा रहे हैं. चित्र नं. 23 ... किया. उस समय राजाने याचकों को बहुतसा. दान देकर धनी बना दिये. कोई कहते हैं कि प्रचुर दान देकर राजा विक्रमादित्य बत्तीस पुत्तलिमोसे युक्त सिंहासन पर बैठा. राजा विक्रमादित्यने राज्य कर सब छोड़ दिया और न्याय मार्ग से राज्य करने लगा. उनका सौभाग्य से पांच दंड P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ विक्रम चरित्र वाला छत्र प्राप्त हुआ. जिससे क्रमश: महाराजा को राज्यलक्ष्मी दिनोदिन. बढ़ने ही लगी. और आप नीति से प्रजा को पुत्रवत् पालन करने लगा. . पाठक गण ! आपने महाराजा द्वारा नागदमनी के पाँचों आदेशों के पालन का : रोमांचकारी हाल: पढ़ ही लिया है. इस नवमें सर्ग में पांच-दंड वाले छत्र की मनोहर कथा पढ़ कर आपने कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये होंगे. यह सब महाराजा के पुण्य बलका ही प्रताप है. इससे प्रत्येक व्यक्ति को अपना पुण्य बल प्राप्त करने के लिए यथा शक्ति धर्म-ध्यान में मन लगा कर पुण्य संचित करना चाहिए, धर्म वधन्ता धन वधे, धन वधे मन वध जाय / मन वधे मनसा वधे, बघत बघत बघ जाय // . तपगच्छीय-नानाग्रंथ रचयिता कृष्ण सरस्वती बिरुदधारकपरमपूज्य-आचार्य श्री मुनिसुंदरसूरीश्वर शिष्य पंडितवर्य श्री शुपशीलगणि-विरचिते श्री विक्रमादित्य विक्रमचरित्र-चरिते पञ्चदण्डवर्णनो . नाम नवमः सर्ग समाप्तः नानातीर्थोद्धारक-आघालब्रह्मचारि-तपोगच्छाधिपति शासनसम्राट श्रीमधिजयने मिसूरीश्वरशिष्य-कविरत्न शास्त्रविशारद-पीयूषपाणि जैनाचार्य श्रीमद् विजयामृत सूरीश्वरस्य तृतीयशिष्यः ...वैयावच्चकरणदक्ष मुनिवर्य श्री खान्तिविजयस्तस्य / शिष्य मुनि निरंजनविजयेन कृता विक्रम. यरितस्य हिन्दीभाषायां भावानुवादः..... तस्यच नवमांसर्ग समाप्तः // द्वताय-भाग-समाप्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाली विभूषण मनमोहन श्री पार्श्वनाथाय नमोनमः संवत् प्रवर्तक महाराजा विक्रम '. (तृतीय भाग) सेंतालीस प्रकरण ( दशम-सर्गका आरंभ) कवि कालीदासका इतिहास "भाग्य बनाता पुरुषको धन बल बुद्धि निधान, यत्न करने पर मूर्ख भी हो जाता विद्वान." अवंतीपति महाराजा विक्रमादित्य अपने सुविख्यात मालवदेशकी गद्दीको सुशोभित करते हुए राज्यकार्य बड़ी बुद्धिमता एवं पराक्रमसे चला रहे है. अपने सभी शत्रुओंको सदाके लिए पराजित कर राज्यको निष्कंटक बना दिया है. महाराजा नित्य ही अपनी राजसभामें आते है और जगत् विख्यात बत्तीस-पूतलीवाले उस सिंहासन पर बिराज कर न्यायपूर्वक कार्य करते हैं. यह दिव्य सिंहासन-पंच-दंड-वाले P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र. छत्रसे ओर भी अधिक शोमा पा रहा है. जब महाराजा इस सिंहासन पर विराज कर राज्यकार्य करते हैं, तो उस समय उस सिंहासन के प्रभाव से महाराज की बुद्धि और भी अधिक प्रखर हो जाती है, इससे महाराजा को अपने प्रत्येक कार्यमें सफलता ही प्राप्त होती है... महाराजा का राजदरबार भी अनेक विद्वानांसे परिपूर्ण है. और होना ही चाहिए, कारण कि जो राजा स्वयं विद्वान है, वही विद्वानों का. आदर भी करना जानता है और विद्वान लोग भी ऐसे आश्रय की खोज किया करते हैं. भारत-प्रसिद्ध " नौ रत्न” महाराज की राजसभा की शोभा बढ़ा रहे हैं। जिसमें सुप्रसिद्ध कवि काली दास इन सब का शिरोमणि हैं। मादित्यके राज्य का वर्णन करते हुए कहा है, विद्वदजन निम्नलिखित काव्यसे भली प्रकार जान जाये गे कि कालीदास कितना महान विद्वान था और विक्रमादित्य महाराजा का राज्यकार्य कैसे चलता था। कवि कालीदामजीने कहा है, "वन्यो हस्ति स्फटिक घटिते, भित्ति मार्गे स्वविम्बम्, दृष्ट्वा दूरात्प्रतिगज इति त्वद्विषां मंदिरेषु हत्वा कोपाद्गलितरदनस्तं, पुनवर्वी क्षमाणो, मन्दं मन्दं स्पृशति करिणीशंकया साहसाङ्कः // स. 10/2 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 313 हे राजन् ! आपके शत्रुओंसे रहित उनके स्फटिकमणिके राजमहलोंको मानवरहित देख कर जंगल के हाथी उनमें प्रवेश कर जाते हैं, स्फटिकमणिमें अपनी छाया देख कर उनसे वे भिड़ जाते हैं और तब तक टक्कर ले ते ही रहते हैं जब तब कि उनके बड़े बडे दात टूटकर गिर न जाते, बाद में अपने दाँत रहित छवि प्रतिबिम्बको देख, वे उन्हें हस्तिनी समझ, अपनी सूड उठाकर उन्हें चूमते हुए प्रेम करते हैं. इस प्रकार काव्यके रचयिता का परिचय कौन जानना नहीं चाहेगा ? यदि महान पंडित कालीदास का जीवन इतिहास पूर्ण रपसे . लिखा जाय तो संभव है कि एक महान ग्रंथ बन जाय तो कोई आश्चर्य नहीं. ग्रंथकार यहा उनका संक्षेप में परिचय देते हैं: राजकुमारी प्रियंगुमंजरी अपने चरित्रनायक महाराजा विक्रमादित्य को एक पुत्री थी, जिसका नाम प्रिय गुमंजरी था. राजकन्या बडी ही सुन्दरी थी. एक योग्य पिताकी संतान होने के नाते वह बचपन से ही बड़ी चतुर थी. इसकी स्मरणशक्ति बड़ी तीव्र और मधुरभाषी होने से प्रत्येक व्यक्ति को वह प्रिय लगती थी. जब प्रियंगुमंजरी आठ वर्ष की हुई तब महाराजाने पढ़ानेका प्रबन्ध किया. अपने नगरके महान विद्वान् पंडित श्री वेदगर्भको अपनी पुत्री के गुरुपद पर नियुक्त किये. वेदगर्भ एक प्रखर पंडित थे. सभी शास्त्रो के वे पूर्ण जानकार थे. . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 विक्रम चरित्र प्रियंगुमंजरी ने अपने गुरुसे शिक्षा प्राप्त करना प्रारंभ किया. "अपनी प्रबल बुद्धिसे प्रियंगुमंजरी नित्य ही अपना पाठ समय पर याद कर गुरु को सुना देती. कुछ ही कालमें इस बुद्धिमती कन्याने अपने गुरु से सभी शास्त्रों का अध्ययन पूर्ण कर लिया, और स्वयं न्याय व्याकरण आदि के साथ साथ स्त्रीसमाज की चौंसठ कलाओं में भी निपुण हो गई. शनैः-शनैः प्रियंगुमंजरी बड़ी होने लगी, और क्रमशः यौवनावस्था को प्राप्त हुई अब वह अपने महल में ही रहती और अपनी सखी-सहेलियों के साथ राजमहल, उद्यान और सुन्दर क्रीडाविहारादि स्थानों में समय व्यतीत कर रही हैं. उसे अब भले बुरे का भी ज्ञान होने लगा था. बड़ो का आदर छोटे के प्रति रनेह, नौकर-चाकरो के प्रति वात्सल्यभाव तथा अन्य व्यवहारों को भी वह समझने लगी थी. वेदगर्भ द्वारा शाप प्राप्तिः वसंत ऋतु थी, ठंडी ठंडी सुगंधित हवा चल रही थी; प्रत्येक व्यक्ति इस सुन्दर समय में अपने मन को प्रसन्न करने हेतु सुबह-शाम घूमने जाते थे. इस ऋतु में प्रत्येक प्रकारकी वनस्पति फल-फूल आदिसे सुशोभित हो जाती है, यह ऋतु एक सुखदायक ऋतु होती हैं. कोयल की कूक, फूलोंकी महक और शीतल वायु चल रहा हो उस समय किसका मन मोहित नहीं होता ? फलों का राजा आम इसी P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित समय फलकर विश्व को तृप्त करता है.. ऐसे सुन्दर समय में एक दिन मध्याहन में प्रियंगुमंजरी अपने महल के झरोखे में बैठी हुई आमों का रसास्वादन कर JITAL HTTE YYYYYWWY LJI-LFIER -IN PRETRIETRan PAK RRENTRIESSERIES MOVE ATM Title Vis RJEE . MAESE. SJohnny राजकुमारीने अपने गुरुको आते देखा. चित्र नं. 1 रही थी. ठीक उसी समय प्रियंगुमंजरी के गुरु श्री वेदगर्भ कहीं से आ रहे थे. कडी धूप में चलने से थक कर उसी झरोखे के नीचे छाया में वैठे. प्रियंगुमंजरीने अपने गुरु को नीचे बैठे हुए देख कर, प्रश्न किया, "हे गुरुदेव ! आप यहाँ कैसे विराज रहे है? आप की क्या इच्छा है ? कृपया मुझे कहिये.” वेदगर्भ-हे राजकुमारी ! मुझे आम खाने की इच्छा है. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र प्रियंगुमंजरी-आप कैसा आम खाना चाहते है ? गरम या ठंडा ? . वेदगर्म–में गरम फल खाना चाहता हूँ. प्रियंगुमंजरी-अच्छा लीजिये, ऐसा कह कर राजकुमा... रीने अपने झरोखे से आम नीचे गिरा दिया. झरोखेसे आम इस चतुराईसे डाले कि पंडितजी के वस्त्र में न पड़कर धूलवाली जमीन पर गिर पडे. वेदगर्भ उन्हें उठा कर उनकी धूल फूंकने लगे यह देखकर प्रियंगुमंजरी ने हास्य करते-व्यंगपूर्वक विनोद करते हुए कहा, “गुरुदेव क्या आम अधिक गर्म है ? जिससे आप उन्हे मुखसे फूंक मार मार कर ठंडा कर रहे है ?" इस बात को सुनकर पंडितजी अप्रसन्न हो गये, और उन्होंने अपना यह अपमान समझ राजकुमारी को शाप दिया, " हे राजकुमारि ! तुमने अपने गुरु का अपमान किया है इस लिये तुम्हें एक गोपाल एवं मूर्ख पति मिलेगा." ऐसा कह कर पंडित वेदगर्भ वहाँसे चल दिये. अपने गुरुदेव के मुख से शाप सुनकर वह दुःखी हुई. साथ ही मन में यह निश्चय किया. " में सर्व विद्या विशारद के साथ ही विवाह करूँगी, अन्यथा अग्नि में जलकर मर जाऊँगी.” . समय धीरे धीरे व्यतीत होने लगा. इधर राजकुमारी प्रियंगुमंजरी दिनों दिन वृद्धि को प्राप्त करती हुई पूर्ण यौवनावस्थामें पहुँच गई. Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 317 योग्य वरकी खोजः____ एक दिन नीति एवं धर्म के ज्ञाता महाराजा विक्रमादित्यने अपनी पुत्री को पूर्ण यौवनावस्था में देख उसके पाणिग्रहण कराने की चिंता उत्पन्न हुई, इस लिये महाराजाने अपने दूतों को इधर-उधर किसी योग्य विद्वान एवं शक्तिशाली राजकुमार की खोजमें भेज दिया. किसी ने ठीक ही किया कहा है “मात, पिता, विद्या विभव, वयस रूपकुल प्रीत; इन गुणवालों के यहाँ कन्या दीजे मीत." . प्रत्येक माता-पिता का कर्तव्य है कि वह अपनी कन्या के लिये कुलवान, शीलवान, कुटुम्बवान, विद्वान, धनवान, . समान अवस्था एवं आरोग्यवान इन सात बातों को अवश्य ही वरमें देखें. मूर्ख, निर्धन, परदेशी,, शूरवीर, वैरागी-मुमुक्षु और कन्यासे तीन गुणा अधिक उम्रवाले व्यक्ति को कन्या नहीं देनी चाहिए. उपरोक्त बातों को सब देख कर ही कन्या देनी चाहिए, आगे तो फिर कन्या अपने भाग्य के अनुसार सुख या दुःख को प्राप्त करती है. राजा अपनी पुत्री के लिये योग्य वर की चिंता में , रहने लगे. एक दिन राजसभा में राजा को चिंताग्रसित देख वेदगर्भ ब्राह्मणने महाराजा से प्रश्न किया, “हे राजन्! मैं आपको कई दिनों से चिंताग्रसित देख रहा हूँ, आप कृपया मुझे अपनी चिंता का कारण कहें." . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 विक्रम चरित्र महाराजा ने वेदगर्भ को उत्तर दिया, " विप्रदेव ! आप बिलकुल ठीक कहते हैं. मुझे अपनी प्रिय पुत्री प्रियंगुमंजरी के लिए योग्य वरकी चिंता लगी हुई है." __ वेदगर्भने उत्तर दिया, “राजन् ! आप इसकी चिंता न करें, मैं शीघ्र ही प्रियंगुमंजरी के योग्य किसी विद्वान नर को खोज लाऊँगा.” इस प्रकार कहकर वह अपने मनमें इस उचित अवसर के लिये बड़ा ही प्रसन्न होने लगा. अब उसे निश्चय हो गया कि अब मेरा दिया शाप शीघ्र मेरे द्वारा ही पूर्ण रूपसे सफल होगा." पुनः बोला, “हे राजन् ! राजा लोगों के कार्य तो उनके सेवक ही करते हैं. तथा राजा लोग स्वयं भी अपने सेवकों से ही करवाते हैं. और अन्य सभी लोग अपना कार्य अपने ही हाथों से करते हैं. अर्थात् आपने मेरे योग्य कार्य सौंपा हैं. वह कार्य अच्छी तरह करूंगा." वेदगर्भ की पूर्व ग्वाले से भेंट: एक दिन वेदगर्भ ब्राह्मण महाराजा विक्रमादित्य की आज्ञानुसार प्रियंगुमंजरी के वर की खोज के लिए निकला.. अनेक नगर, वन, पहाड़ आदि में ढूँढने लगा. पर उन्हें कहीं भी अपनी इच्छानुसार वर नहीं मिला. एक दिन वह पंडित एक जंगल के रास्ते जा रहा था, चलते चलते उसे प्यास लगी. पानी की खोज में वह चारों ओर देखने लगा, पर उसे कहीं भी पानी दृष्टिगोचर नहीं हुआ. थोडा आगे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 319 बढ़ने पर उसे गायों को चराता हुआ एक बाला-गोपाल दिखाई दिया, उसे देखते ही वेदगर्भ पंडित शीघ्र उसके पास पहुँचा, और उससे प्रश्न किया, “हे गोपाल ! मुझे बड़ी जोर से प्यास लगी है, मुझे कोई कुआ, तालाब या नदी दिखाय कि जिससे में . वहाँ जाकर जल पीकर अपनी प्यास शान्त करूं." गोपालने उत्तर दिया, " यहाँ निकट में कोई जलस्थान तो नहीं है.” उसे अधिक प्यास से व्याकुल देख ग्बालेने पुनः कहा, “हे ब्राह्मण ! अगर तुझे खूब प्यास लगी है, तो करचंडी बना, मैं अभी अपनी गायो के दूध से ही तेरी प्यास बुझा दूंगा." गोपालका उन्तर सुनकर पंडित बड़ा ही प्रसन्न हुआ पर उसे 'करचंडी' शब्द का अर्थ समझ में नहीं आया. बहुत विचारने पर भी वह 'करचंडी' शब्द का अर्थ नहीं समझने पाया इससे वह और भी अधिक उदास हो गया. और अपने आपको धिक्कारता हुआ मनमें कहने लगा, 'मैं एक मुख गोपाल के 'करचंडी' शब्दका भी अर्थ नहीं जान पाया, मुझे व्याकरण आदि शास्त्र पढने से क्या लाभ ?' इस तरह वह किंकर्तव्य-विमूढ हो गया.. पंडित को अधिक समय तक चुप और उदास देख गोपालने पुनः पंडित से कहा, "हे ब्राह्मण ! क्या तुम्हें दूध पीकर अपनी प्यास नहीं बुज़ानी है ? तुम चुप क्यों हैं ? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 विक्रम चरित्र शीघ्र ही अपने दोनों हाथो को इकट्ठा कर मेरी तरह करपात्र बनाईये, और मैं आपको अपनी गायों के स्तनसे दृध निकाल कर पिलाता हूँ." ब्राह्मणने तुरंत ही गोपाल के बताये अनुसार करपात्र बनाकर गायके पास बैठ गया. और गोपालने बडे आदर और प्रेमके साथ पंडित को दूध पिलाया. वेदगर्भने पेट भर दूध पिया और वह तृप्त हो गया. दूध पीकर वह खड़ा हो गया और गोपालकी चतुराई पर विचार करने लगा. उसने निश्चय किया, "वह गोपाल ही प्रियंगुमंजरी के * योग्य वर है. मेरा भी मनोरथ इससे पूर्ण हो जायगा. अतः इसके साथ ही राजकुमारीका विवाह कराना चाहिये.” इस प्रकार वह विचार कर ग्यालेको समझाबुझा कर अपने घर ले आया. और उसे छ मास तक अपने पास रखकर उसे स्नान करने, सुन्दर कपड़े पहनने, सुन्दर शुद्ध और मिष्ट भाषामें वार्तालाप करने, ब्राह्मण के अनुसार "स्वस्ति" शब्दसे आशीर्वाद देने, राज्य सभामें बैठने उठने का भली प्रकारसे ज्ञान कराया. . , एक दिन समय पाकर पंडित वेदगर्भ उसी गोपाल को अपने साथ महाराजा विक्रमादित्य की राज्यसभा में ले गया. वेदगर्भने राजसिंहासन पर बिराजे हुए महाराज को स्वस्ति शब्द कह कर आशीर्वाद दिया. परन्तु पास ही खड़ा वह गोपाल तो स्वस्ति शब्द को भूल गया और बदलेमें 'उषरट' शब्द बोला, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 321 महाराज विक्रमादित्य उस अपूर्व शब्द 'उपरट' को सुन बहुत आश्चर्यचकित हुआ. महाराजाके भाव को वह चतुर पंडित वेदगर्भ ताड़ गया, और तुरंत ही उनको संबोधितः कर कहने लगा, "हे राजन् ! इस नवीन पंडितने आपको अपूर्व आशीवर्वाद दिया है. आप इस अपूर्व आशीर्वाद का अर्थ सुनिये. इस आशीर्वाद में जो प्रथम उ शब्द है, जिसका अर्थ उमा-पार्वती होता है, और 'श' अक्षर से शंकरका बोध होता है. 'र' अक्षर से रक्षतु और 'ट' अक्षर से टंकार अर्थ निकलता है / संपूर्ण शब्द का यह अर्थ होता है कि हे राजन् ! उमा-पति त्रिशलको धारण करनेवाले शंकर तुम्हारी रक्षा करें, और तुम्हारी कीर्ति टंकार चारों और फैले. यह आशीर्वाद इस ब्राह्मणने दिया है."x __. वेदगर्भ के द्वारा इस प्रकार उस अपूर्व आशीर्वाद के गूढार्थ को सुन कर महाराजा बड़े ही चकित हुए और कहने लगे, “यह कोई सरस्वती पुत्र तो नहीं है ?" प्रियंगुमंजरीका विवाहः__राजा के इस प्रकार का वचन सुन वेदगर्भ ने उत्तर दिया, “हे राजन् ! मैं सरस्वती की आराधना कर आपकी x उमया सहितो रुद्गः शंकर शूलपाणियुक् / रक्षतु तव राजेन्द्र, टणत्कार करें यशः / / स. 10/38 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र प्रिय पुत्री प्रियंगुमंजरी के लिये यह योग्य वर खोज लाया हूँ. इस प्रकार अपनी वाकूचातुरी से महाराज को वेदगर्भने प्रसन्न कर लिया. कुछ समय पश्चात् राजाने शुभ दिन के शुभ मुहूर्त में प्रियंगुम जरी का विवाह उस गोपाल के साथ कर दिया. इधर उस गोपाल का विवाह प्रियं गुम जरी के साथ होनेसे वेदगर्भ अपनी सफलता पर अति प्रसन्न हुआ. उसने उस गोपाल को यह भी कह दिया, " तुम कुछ समय किसीसे नहीं बोलना, तेरे इस प्रकार मौन रहेने से तुम्हें लोग पंडित समझने लगेगे." EMAKASH Sas राजपुत्री अपने पतिको पुस्तक संशोधनार्थ देती है. चित्र नं. 2 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय. संयोजित . 323 वेदगर्भ की आज्ञानुसार वह गोपाल अब बिलकुल मौन रहने लगा. चारों और राजा के जमाई की इससे प्रशंसा होने लगी.. पर प्रिय गुमजरी को अपने प्रिय पति के साथ बात करने की अति उत्कंठा होने लगी. कारण कि वह स्वयं भी तो पंडिता थी अतः वह विद्वान पंडित के साथ वार्तालाप अति शीघ्र करना चाहती थी पर उसे मौन देख वह हताश हो गई. एक दिन प्रिय गुमंजरी स्वरचित एक नवीन ग्रंथ संशोधन के लिए पतिदेव को दे कर प्रार्थना करने लगी, " हे स्वामि ! आप इस पुस्तक का संशोधन करने का कष्ट करें." राजकुमारी के आग्रह से वह पुस्तक उसने लेली और उसमें अपने बड़े बड़े नाखूनों से कई काट-काट कर दी; कई अक्षरों की मात्राओं को मिटा डाला. और कई स्थानों पर अनुस्वार आदि हटा दिये, जिससे वह ग्रंथ कुछ का कुछ अशुद्ध बन गया. राजकुमारीने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक वह ग्रंथ लिया, पर ज्योंही उस अन्थ को उठा खोलकर देखा तो. एकदम उदास हो गयी, वहाँ तो अर्थ का अनर्थ ही हो गया था, और उसके मनमें यह निश्चय हो गया, “यह तो कोई मूर्ख है, क्या वेदगर्भ पंडितजी का शाप सफल हुआ ?" इससे वह मन ही मन बहुत दुःखी हुई. एक दिन राजकुमारीने अपने पति के कुल आदि की / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 . . विक्रम चरित्र जांच करने का निश्चय किया, पुनः वह पति को लेकर सुन्दर चित्रशालामें गई, इस चित्रशालामें पशु, पक्षी आदि कई प्रकारके सुंदर चित्र चित्रीत थे, जैसे ग्वाले गायों व भैसे चराते हो और कुँवे पर पणीयारियां पाणी भरने जाती हो, बागमें छोटे छोटे बच्चे खेलते हो, सुन्दर राजसभा बैठी हो उसमें राजा, सामंत, शेठ, व्यापारी आदिसे सुशोभित हो, और चोर डाकूओं के कई प्राचीन संस्कृतिदर्शक सुन्दर सुन्दर चित्र थे. ___ राजकुमारी अपने चित्रशालामें स्वयं गुप्त रूपसे छिपी रही. उसका पति सब जगह घूमा. पर कहीं भी कुछ न बोला. आखिर में जाते जाते वह भैंस चराता हुए एक खाले के चित्र के समीप पहूँचा, उसे देखते ही वह गोपाल अपनी स्थिति का विना विचार किये ही प्रसन्न होकर "डीउ डीउ" शब्द का उच्चारण करने लगा. , यह देखते ही राजकुमारी को अब पूर्ण रूपसे निश्चय हो गया, " मेरा पति अवश्य ही कोई भैस चरानेवाला गोपाल है। क्यों कि " आकारोसे वचन, गमनसे, देहदशा संस्कारों से; नर की जाति समजमें आती, ऊँच नीच' व्यवहारोंसे." 'मनुष्य की उच्च या नीच कुल जाति आदि उसके व्यवहार शरीर, वचन और आकार से ही प्रगट हो जाती है.' . इस प्रकार वह सोचने लगी, “संसार के मानव P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 325 जानते हैं कि महाराजाके जमाई वडे ही विद्वान हैं, पर मैंने तो इस की मूर्खता की परीक्षा आज इसके 'डीउ-डीठ' शब्द के उच्चारण से कर ली. वास्तव में ही यह कोई गोपाल है." इस प्रकार सोच-विचार करते करते राजकुमारी प्रियंगुम जरीने अपने मनमें निश्चय कर लिया, " अब मैं अपने इस मूर्ख पति का मुँह नहीं देगी, और न इससे कभी भी बोलुंगी." . इधर वह गोपाल भी अपने मनमें विचारने लगा, “संसार जानता है कि महाराजा का जामाता बड़ा हा विद्वान है, पर मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ. मुझे इसके लिये धिकार है. संसार कहता है कि वह स्वरस्वती का पुत्र है, पर मैं तो एक अक्षर भी नहीं जानता हूँ. इस प्रकार वह अपनी मूर्खता पर विचार करता करता महल से दूर निकल गया, और नगर के उद्यानमें महाकाली का मन्दिर था, वहाँ आ पहूँचा. देवी की सुन्दर मूर्ति के दर्शन-नमस्कार कर गोपालने मन ही मन निश्चय किया, " देवी को प्रसन्न कर विद्या प्राप्त किये बीना यहासे नहीं हटूंगा” इस प्रकार मन दृढ कर देवी के सामने अड्डा जमाकर ध्यानमें बैठ गया. गोपाल द्वारा महाकालीकी आराधना वह गोपाल महाकाली के मन्दिर में देवी सन्मुख बड़े विनय और भावभक्ति से स्तुति करता हुआ कहने लगा, "हे भगवति ! मैं अब तेरी ही शरणमें हूँ, तू मुझे विद्या P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र दान दे, मुझे विद्वान बना, अन्यथा मैं अब तेरे ही चरणों में अपने प्राणों का बलिदान कर दूंगा, मैं तो तेरा पुत्र-सरस्वती पुत्र प्रसिद्ध हो चुका हूँ.” इस बातकी लाज रख. 'परन्तु इन सब बातों को कहने पर भी देवी प्रसन्न नहीं हुई. जब कालीका देवी से कुछ भी उत्तर न मिला तब वह गोपाल भी अपनी प्रतिज्ञा-निश्चय के अनुसार देवी के सन्मुख ही बैठा रहता और अपने मनकी इच्छा को बार बार दूहराता रहता. इस प्रकार वह कई दिनों तक भूखा-प्यासा रहने से दूबला-पतला हो गया. यह खबर अवंती नगरी में तुरंत ही सर्वत्र फैल गई कि महाराजा विक्रमादित्य का जमाई देवीके मन्दिर में अपनी इच्छा को पूर्ण करने के उद्देश्य से आराधना में बैठा है. ___ वह कई दिनों से जल-अन्नादि त्याग कर चुका है. यह खबर अवंतीपति महाराजा विक्रमादित्य को भी लगी, और वे स्वयं उसे देखने वहीं पधारे. उसका शरीर देख कर महाराजा चिंतातुर हो गये, उनके मनमें नाना प्रकार के विचार उठने लगे.. 'कही यह मर न जाय और मेरी प्रिय पुत्रीका वैधव्य याने विधवापना मुझे देखना न पड़ें?' इस प्रकार अपने जामाता को प्रतिज्ञा पर अटल देख उसने भी अपनी और से एक दिन महाकाली की बड़ी पूजा का आयोजन किया. ताकि संभव है देवी प्रसन्न हो जाय, P.P.AC.Gunratnasuri-M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 327 महाराजाने अपने निश्चय के अनुसार अपनी देखरेख में अपने कई दास-दासीयों सहित महाकालो की अपूर्व पूजा का आयोजन किया. अनेक प्रकार की विधिपूर्वक महाकाली की पूजा करवाई. परन्तु अन्तमें महाकाली को प्रसन्न न होते देख महाराजा स्वयं भी हताश हो गये. अंतमें उन्होंने एक और उपाय सोचा. उन्होंने अपनी एक चतुर दासी को बुलाया, जिसका नाम भी काली ही था. महाराजाने उसे समझा कर काली के मन्दिरमें भेज दिया. वह दासी गुप्त रूप से काली के मन्दिर में प्रवेश कर महाकाली की मूर्ति के पीछे छिप गई. EVER to Trum Ndaul IMEANI ufurnal Miniatri RAN MiAMA MILIMIT AMITIU uyti 14 AVI महाराजका जमाई काली माता के मंदिरमें अड्डा जमाकर बैठे. चित्र नं. 3 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 विक्रम चरित्र जब वह गोपाल अपनी प्रतिज्ञा को पुनः पुनः दोहरा कर महाकाली की प्रार्थना करने लगा, उसी समय महाकाली के पीछे छिपी उस दासीने कहा, “हे नर ! मैं तुझ पर अत्यंत प्रसन्न हुँ, मैं तुझे विद्या दूंगी." गोपाल को काव्य कलाकी प्राप्ति - इस प्रकार काली के वचन को सुन वह ग्वाल अति प्रसन्न हो गया. परन्तु महाकाली देवी स्वयं इस प्रकार दासी द्वारा किये गये कपट से चिन्ता व्यग्र बन गई, अर्थात् सोचने लगी, 'अपने नाम से इस प्रकार दिये गये वरदान को अगर मैं सत्य नहीं करूंगी, तो वह मेरे लिये ही अहितकर होगा, कारण कि कई वर्षो से जो मुझे प्रतिष्ठा अवंती निवासीयों से मिली है, वह सव चली जायगी. और मुझे बादमें कोई नहीं मानेगा-पूजेगा.' इस प्रकार वह किकर्तव्य-विमूढ हो गई. अंत में महाकाली देवीने निश्चय किया, 'मुझे अपनी प्रतिष्ठा को कायम रखने के लिए भी उसे विद्वान बनाना ही पडेगा, अन्यथा मेरे लिए यह महान अहितकर होगा.' ठीक हैं नीतिकारोंने भी यही बताया है कि ऐसा मूर्ख कौन होगा जो एक छोटी सी खीली के लिए अपने मकान को तोडेगा ? थोडे से लोहे के लिये पूरे जहाज को काटेगा ? एक धागे दोरे के लिये गले के सुन्दर रत्नहार तोडेगा और भस्म जैसी तुच्छ वस्तु के लिए रेशमी वस्त्र या चंदन जैसे मूल्यवान काष्ठ को जलायगा? मिट्टी के एक P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित छोटा सा टुकडा के लिये कामघट' कौन तोड़ेगा ? : देवी द्वारा दिये गये वरदान की खबर चारों ओर हवा की तरह फैल गई. साथ यह खबर प्रियंगुमंजरी को भी लगी. और प्रसन्न हो उस महाकाली के मंदिर में शीच जा पहूँची. उसने जाकर अपने पति को देवी के पास बैठा देखा. उसने पति से प्रश्न किया, “क्या आप पर काली माता प्रसन्न हो गई ? ' इस प्रकार अपने पति के पास आई हुई, प्रियंगुमंजरी द्वारा कहे गये शब्दों को सुन महाकाली को और भी अधिक अपनी प्रतिष्ठा की चिंता हुई. अंतमें अब उसने अपने विचार के अनुसार प्रकट होकर उस मूढ ग्वाल को अपूर्व सुन्दर काव्य-कविता करने की शक्ति और अन्य विद्याएँ भी प्रदान कर दी. प्रकट रूपसे काली द्वारा पुनः दिये गये वरदान को पा कर वे दोनो पति-पत्नी उत्साहसे अपने राजमहल की ओर चले. वह ग्वाल तो सीधा ही राजसभा में जाकर राजा के पास पहुँचा, अपने जामाता को आते हुए देख विक्रमादित्यने हस्ते हुए कहा, "हे कालीदासीपुत्र पधारिये, और कोई सुंदर काव्य सुनाइये." जमाई-मैं कालीदासी पुत्र नहीं हूँ, किंतु मैं अपने भाग्यवश कालीदेवी का दास बना हूँ, अर्थात् मैं कालीदास हूँ. ... कालीदासको महाराजा तथा प्रियंगुमंजरी द्वारा परीक्षा - महागजा विक्रमादित्यने अपने जामाता कालीदास को . ... 1 कामघ. याने कामकुम्भः-काम इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला घट. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र विद्वान जान उस की परीक्षा के लिये उसके सामने एक समस्या रखी.. विक्रम महाराजाने कहा, “वाहनोपरि तरंति समुद्राः" अर्थात् वाहन पर बैठ कर समुद्र तरते है. आप इस समस्या की पूर्ति कीजिये." इस समस्या की पूर्ति का उत्तर कालोदासने शीन ही दिया. " पर्वत उपर उठे मेवको, देख अधिक जल भरते; अर्थात् जल से परिपूर्ण मेघों को पहाडों पर वरसते देख विद्वान लोग कहने लगे कि समुद्र पहाड रूपी वाहनों से लरते है."x . इस प्रकार राजा विक्रमादित्य द्वारा दी गई समस्या को शीघ्र ही पूरी करते देख वहा की राजसभा के सभी उपस्थित लोगों के साथ साथ महाराजा विक्रमादित्य को भी बहुत आश्चर्य हुआ, और साथ ही सभी कालीदास की चमत्कारपूर्ण विद्यासे प्रसन्न हो गये. राजसभा से निवृत्त हो वह कालीदास सीधा अंतःपुर में अपनी प्रिया पियंगुमंजरी के पास गया. अपने पतिको आया *" मेदनीधरशिरस्सु पयोदान् बर्ष तो जलभृतश्चरतोऽलम् / वीक्ष्य पंडितजना जगुरेव वाहनोपरि तरन्ति समुद्राः ।।स. 10 / / 71 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित देख प्रसन्न होकर प्रियंगुमंजरीने उसका स्वागत किया. साथ ही अपने पति को निवेदन किया, “हे पतिदेव ! क्या आप को मुझसे कुछ वाग् विलास करने की इच्छा है ?" कालीदासने उत्तर में अपनी प्रिया को एक संस्कृत काव्य कहा जो गूढार्थ से पूर्ण था. जिसका भाव निम्न लिखित हैं. " पर्वत राज दिशा ऊत्तर मैं, देव स्वरूप हिमालय है, मानदंडसा शोभित भू का, शंकरका ससुरालय है. . अर्थात् हे प्रिये! भारत देश के उत्तर में हिमालय नाम का एक विशाल पर्वत है जो कि पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा तक फैलता हुआ समुद्र का स्पर्श करता है. उसे से देख यही ज्ञात होता है, मानो वह पृथ्वी का माप लेने का एक माप-दंड हो, और उसे किसीने पृथ्वी के माप के वास्ते पृथ्वी पर लगाया हो ?"x . अपनी प्रिया को पुनः आगे कहते हुए कालीदासने कहा, 'हे प्रिये ! जो तुमने अपने वार्तालाप में "अस्ति" “कश्चिद् " ओर “वाग्" यह तीन शब्दों का प्रयोग किया उनके आधार से मैं तीन काव्यों की रचना करूँगा. इस प्रकार *" अस्ति कश्चिद् वागविलासा भवतो रुचिरः पते!" x “अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराजः / पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्ड: सं. 10 // 73 // कुमारसंभवे प्रथम श्लोकः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun AaradhakTrust. Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. विक्रम चरित्र कालीदासने प्रतिज्ञा कर अपनी प्रिया को अपनी विद्वत्ता द्वारा प्रसन्न किया. . महाकाव्योंकी रचना कालीदासने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार बाद में समयानुसार " अस्ति” शब्द पर “कुमारसंभव” " कश्चिद् " शब्द पर "मेघदूत” और “वाग्" शब्द पर रघुवंश जैसे महान् काव्यों की रचना की, जो आज भी विश्वमें अद्वितीय काव्यों की श्रेणी में गिने जाते है. इस प्रकार कालीदास की चमत्कारपूर्ण काव्य कला से अवंती की जनता तथा उसकी प्रिया और महाराजा आदि प्रसन्न हो उसे महाकवि कालीदास कहने लगे. सच है मनुष्य की प्रशंसा उस विद्या, के आधार पर ही होती है. अन्यथा उसे जगतमें कोई नहीं पूछता हैं. परंम कृपालू मा सरस्वती के भंडार की तो अपूर्व महिमा है. अन्य प्रकार की वस्तुएँ तो उपयोग और खर्च करने से घटती हैं, परन्तु यहा. तो संसार के इस नियम के विरुद्ध ही कार्य होता है. विद्या का जितना ही उपयोग किया जाता ... है उतनी ही विद्या बढ़ती है. जैसे किसी कविने भी ठीक __ ही कहा है. - "हे सरस्वति आपके भंडारकी बड़ी अचंभी बात; ... ज्यों खरचे त्यों त्यों बढे, बीन खर्चे घट जात."* * अव्यये व्ययमायाति, व्यये याति सुविस्तरम् / . अपूर्व : कोऽपि भंडारस्तव भारति दृश्यते / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय. संयोजित 333 पाठक गण! आपने इस प्रकरण से भली प्रकार जानकारी प्राप्त कर ही ली होगी, कि पंडित वेदगर्भने अपनी चतुराई से किस प्रकार अपने शाप की पूर्ति की, तथा प्रियंगुमंजरीने किये गये गुरु अपमान के अपराध में मूर्ख पति पाकर कितना कष्ट भोगा, पर महाकाली के आराधन से वही ग्वाल मूर्ख होते हुए भी एक महान् पंडित हो गया. अतः प्रत्येक मानव को अपना व्यवहार आदर्श रूपमें बनाना चाहिए ताकि प्रियंगुमंजरी की भाति हमें भी कहीं कष्ट न भोगना पडे. गुरु की महिमा तो अपार है अतः उनके आगे तो सदा विनीत भाव से ही रहना चाहिए, . साथ ही प्रत्येक को विद्वान भी बनने का अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिये. कारण कि विद्या से ही विनय और सद्ज्ञान प्राप्त होता हैं. * अब आप आगामी प्रकरण में महाराजा द्वारा पंचरत्न को लेकर विचित्रनगर में पहूँचना और विचित्र न्याय देने का . रोचक हाल पढ़ेंगे. जिस घर जिन मन्दिर नही.. . जिस घर नही मुनिदान जिस घर धर्मकथा नही, वो नही पूण्य का स्थान. . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडतालीवाँ-प्रकरण महाराजा विक्रम का देशाटन के लिये जाना " सज्जन दुर्जन ज्ञान हो, जानत विविध चरित्र, देशाटन खुदको करा, देता अधिक पवित्र." . देशाटन करने से अनेक प्रकार के अनुभव होता हैं, अनेक प्रकार के मनुष्यों का परिचय होता है और कई प्रकार के नविन स्थान आदि देखने से उस की बुद्धि तीव्र हो जाती हैं. इस प्रकार की बाते विद्वानों से सुनकर महाराजा विक्रमादित्य को देशाटन करने की ईच्छा हुई. एक दिन राज्यकार्य से अवकाश लेकर महाराजा अपने भंडारमें से अपूर्व पाँच रत्न को साथ में ले देशाटन के लिये निकल पड़ा.. . . ..... ___ अवंतीनगरी से प्रस्थान कर अनेक शहरों, जंगलो, पहाड़ों और नदीयों आदि को पार करते हुए एक अज्ञात देशमे. जा पहूँचा. घूमते फिरते वह सुन्दर शहर में पहूँचा. लोग जिस . को “पद्मपुर" कहते थे. यह नगर वास्तव मे 'यथा नाम तथा गुणाः” के अनुसार सुन्दर भी अधिक था; परन्तु इसमें बसनेवाले सभी निवासी ठग थे. यहाँ का जो राजा उसका नाम अन्यायी और इस का मंत्री नो सर्वभक्षी और पाषाणहृदय नाम से प्रख्यात था. इस प्रकार की नगरी की जानकारी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 335 प्राप्त करने के लिये नगर में भ्रमण करते हुए किसी शाहुकार की दुकान पर महाराजा जा पहूँचे. उनके पहुंचने के साथ ही उसी दूकान पर एक तापस भी आया और उसने दूकानदार से 'एक' सेर घी की याचना की. तापस की याचना को सुनकर सेठने उस तापस को एक सेर घी के बजाय 'दो' सेर घी दे दिया. ... .. ____तापस वह घी लेकर सीधा अपने गुरु के पास गया, और उन्हें वह घी अर्पण किया. घी को अधिक देख गुरुने उस चेले को पूछा, " यह घी तो एक सेर से अधिक दीखता है.” उत्तर में चेले ने कहा, "यह तो दो सेर थी है." पुनः तापस के गुरुने शिष्य को रुखे स्वर से कहा, "तुम यह अधिक घी क्यों लाया ? चोरी रुपी पाप वृक्ष का फल इस संसार में वध-फासी और वन्ध-काराबास आदि की प्राप्ति और परभव में नरक की प्राप्ति अर्थात् वहाँ पर नारकीय वेदनाओं को सहन करना पड़ता है.x तुम शीघ्र जाकर इस अधिक घी को वापस दे आ." ...' अपने गुरु की आज्ञा पाकर वह चेता घी लेकर उसी सेठ की दूकान पर आया. और उसे अपना अथिक घी को ... वापस लेने का आग्रह किया.. .. . इस प्रकार तापस द्वारा अधिक घी के लोटानेकी क्रिया ___x" चौपापद्रुमस्येह वधबन्धादिकं फलम् / .... जायते परलोके तु फलं नरकवेदना" // स. 10/86 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ विक्रम चरित्र आदि को देख विक्रमादित्य उस पर बहुत ही प्रसन्न हुआ. . और उस तापस को निर्लोभी समझ उस के पीछे पीछे उनकी परीक्षा करने के उद्देश्य से राजा उनके आश्रम पर गया. . तापस के आश्रम पर जाकर महाराजा विक्रमादित्य उन / दोनों तापसों को नमस्कार किया. और अपने पास के पांचों अमूल्य रत्न निकाल कर उन तापसों के आगे दिखा कर विनती करने लगा. "हे महात्मन् ! मैं देश भ्रमण करने के लिये निकला हूँ आपका नाम और जगत प्रसिद्ध कीर्ति सुनकर आपको वंदना करने आया हूँ, ये मेरे पास पांच अमूल्य रत्न है, पांच रत्न साथमें रखकर भ्रमण करने में मैं असमर्थ हूँ, अतः आप इन को अपने पास रखिये, कारण कि विद्वानोंने कहा हैं, 'जहाँ पर मनुष्यों की सुंदर आकृति-रूप है, वहाँ पर गुणों का समूह अवश्य ही आ जाता है.. और जहाँ पर संपत्ति है, वहाँ पर भय भी निश्चित रहता हे.' x इस लिये परदेश में भ्रमण करनेवालो को संपत्ति रखने से भय रहता है, अतः मः . यह पांचों रत्न आप के पास रख कर जाना चाहता हूँ, कृपा .. कर आप इन्हें अपने पास रख कर मुझे पर्यटन में भयमुक्त बनाने की कृपा करें. मैं वापस आ कर. आपसे यह रत्न . ले लूँगा.” उत्तर में तापसने मौन होकर अपने हाथों के इसारा / से कहा, "धन को देखने की बात क्या; हम तो छूते तक 4 यत्राकृतिगुणास्तत्र जायन्ते मानवे खलु / यत्र स्याद्विविभस्तत्र भीतिर्भवति निश्चितम् // स. 10/95 // . . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 337 . राजा विक्रम अपने पास के पांचों रत्न तापस को संभालने दे रहा है।। .. चित्र नं. 4. .. नहीं हैं. कारण कि साधुओं के लिए द्रव्यसंग्रह करना बड़ा. .. दोष है, कहा भी है "दोष मूल इन धन दौलत का, मुनियो ने है त्याज्य कहा, - अर्थ नहीं यह भी अनर्थ है, क्यों अनर्थ रखते हो यहा." - इस प्रकार उस तापसने उन रत्नों को अपने पास रखने से बिलकुल ईन्कार कर दिया और पुनः आगे कहा, "हे भाई!' अगर आप इन रत्नों को अपने साथ नहीं रखना चाहते तो इन्हें तुम्हारे हाथों से निकट के उस नाले " में रख दे. ". .. __P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 . . . . . . . . . विक्रम चरित्र . इस प्रकार उस तापस की निर्लोभता देख कर महाराजा विक्रमादित्य मन ही मन उनकी प्रशंसा करने लगा. " धन्यवाद है इन निर्लोभी तापसों को जो त्यागमय . वृत्ति से अपने जीवन को सार्थक बना रहे हैं, एक सेर घी के बदले में दो सेर आ जाने से उसे वापस लौटाना, पांच रत्न जैसी अमूल्य वस्तुओं को बड़ी खुशामद से देने पर भी अपने हाथ से उसे छूना तक नहीं, यह कोई कम त्याग है. येहि सच्चे निर्लोभी, निर्मोही होने का प्रमाण है." इस प्रकार वे मन ही मन उस तापस की प्रशंसा करने लगे. . बाद में तापस के बताये स्थानानुसार महाराजा विक्रमादित्य पास ही के नाले में रत्नों को रख आये और तापस को प्रणाम कर. अपने उद्देश्य के अनुसार संसार के कौतुक देखने के लिए वहाँ से प्रस्थान किया. महाराजा विक्रमादित्य के जानेके बाद उन तापसोने लोगों से टग ठग कर काफी धन एकत्र कर लिया. उस धनसे अपने लिये देवलोक के महलों से भी अनुपम एक मठ बनवाया.. उस में वह तापस धर्म के आडम्बर में लोगों को . ठगता हुआ अपना समय बिताने लगा. ... बहुत दिनों के बाद महाराजा विक्रम अनेक देशों का भ्रमण कर पुनः उस नगरमें आया. अपने पूर्व निश्चित स्थान पर जा कर देखा तो एक नवीन विशाल सुन्दर मठ बना हुआ है. उस मठ को देख कर आश्चर्ययुक्त हो गया. उस मठ में प्रवेश करने पर उसे P.P.AC.Gunratnasuri M.S. . Jun Gun AaradhakTrust Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 339. यह बात मालूम हुई, यह तो उसी तापसोंने अपना मठमंदिर बनाया है.' तापस को प्रणाम कर उसने अपने उन रखे हुए पांचों रत्नों की मांग की. परन्तु उत्तर में तापसने कहा, . " तुम किस से रत्न मागते हो? तुमने किसे रत्न सापे थे. तुम कौन हो ? मैं तुम्हें नहीं जानता, तुम्हारी बुद्धि बिगड गई हैं क्या ?" इस प्रकार वह तापस 'उल्टा चोर कोटवाल को डंडे.' उक्त कहावतानुसार विक्रम महाराजा से लड़ने लगा.. यह सब देख महाराजाने मनमें निश्चय किया, 'यह तो तापस ही ठग है. इस की नियत उन रत्नों को देने की नहीं है, वह उन्हें हजम ही करना चाहता है, शास्त्रकारोंने भी तो ठीक ही कहा है'कुछ भी करता नहीं किसी का, मायाशील पुरुष अपराध, तो भी हम विश्वास न करते, उस पर सर्प सदृश पलआध. माया करने वाला पुरुष किसी का कुछ भी नहीं बिगाडता है, फिर भी लोग उस पर विश्वास नहीं करले. जैसे . कि सर्प नहीं भी काटता हो तो भी लोग उस से तो डरते ही हैं ॐ क्यों कि प्रकृति का ऐसा स्वभाव है कि ठग, वञ्चक, दुर्जन और घातक जन ये सभी बहुत सावधानी से अपना पाँव उठाते है, अर्थात ये बड़े चतुर होते है. _ विचार करते महाराजा विक्रमादित्य को और भी एक * मायाशीलः पुरुषो यद्ययपि न करोति कचिदपराधमू / ... सर्प इवाविश्वास्यो भवति तथाप्यात्मदोषहतः / / स. 10/105 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 .: विक्रम चरित्र ___ अति प्राचीन श्री रामचन्द्रजी का जीवन प्रसंग याद आया वह ईस तरह जगत में प्रसिद्ध है... , श्री रामचन्द्रजी अपने प्यारे भाई लक्ष्मण के साथ वन को जा रहे थे. रास्ते में एक सरोवर आया, वहाँ पर एक बगुला अपना पौष उठा कर शांति से खड़ा था. उसे दिखाते हुए रामचन्द्रजीने कहा, "हे भाई लक्ष्मण ! यह देखो, बगुला अपना पाव कितनी चतुराई से धीरे धीरे उठाता व रखता है. कारण कि पाँव के ऊठाने-रखने से कहीं किसी जीव की हत्या न हो ‘जाय इस बात को ध्यानमें रख अपना, पाव इस प्रकार उठता ': रखता, ईस प्रकार रामचंद्रजी को लक्ष्मण से कहते सुन उसी TA -ARONLINE KAN MnANIA सरोवर की मच्छली श्री रामचन्द्रजी को कह रही है. चित्र नं. 5 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 341 सरोवर की एक बड़ी मछलीने जलमें से अपना शिर निकाल कर / : कहा, 'हे महाराज! आपने तो केवल उस बगुले के बाहरी व्यवहार को ही देख उसे परम धार्मिक-दयालु मान लिया. परन्तु आपने उसके आंतरिक भावों को नहीं जाना है. इस दुष्टने इसी प्रकार छल करते करते हमारे पूरे कुटुम्ब को खा लिया है, अतः हे राजन् ! बाह्य दृष्टि से किसी व्यक्ति का पूरा परिचय नहीं पा सकते ! सहवास से ही उसका पूरा - परिचय होता है.' - राजा पुनः तापंस के पास जाकर विनम्र भावसे बोले, " हे तपस्वी, आप का दर्शन कर पवित्र हो कर जब मैं यहां से. ... प्रस्थान करने लगा उस समय में मैंने अपने पाचो रत्न आएके . .पास रखे. उन्हे आप क्यों छिपाते हैं ?" तापसने मीठे स्वर से उत्तर दिया, "हे पथिक ! मेरे पास तुम्हारे रत्न नहीं है, किसी अन्य के पास रखा होगा, तुम भूल गये हो ?" तापस की कपटभरी वाणी को सुनकर उससे अधिक वार्तालाप उचित नहीं समझा, वहाँ से चल दिया, परन्तु दोषी को डण्ड . . शनैमुच्चयते पादं जीवानामनुकम्पया / पश्य लक्ष्मण ! पम्पायां बकः परमधार्मिकः / / स. 10/107 // . पृष्टतः सेवते सूर्य जटरेण हुताशनम् / .. स्वामिनं; सर्वभावेन. खलो वञ्चति मायया // स. 10/108 // (तदा दिव्यवाण्या बृहन्मत्स्य उवाच शीलं संवासतो ज्ञेय न शोल दर्शनादपि / " बक वर्णयसे राम ! येनाह निष्कुलीकृतः // ) P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 विक्रम चरित्र दिलाना अनिवार्य समज विक्रम इस नगर के पाषाणहृदयी मंत्री के पास अपनी बात सुनाने पहूँचा. .. विक्रम राजा जब मंत्रीश्वर के पास पहूँचा तब उसे यह मालूम हुआ कि वे एक वणिक्ले वार्तालाप कर रहे हैं, अतः राजा विक्रम उन दोनों की वार्ताकाप को ध्यानपूर्वक सुनने लगा. ___मंत्रीने 'हर' नाम के एक वणिक को एक लाख रुपये सूद-व्याज पर एक वर्ष के लिये दिये थे, परन्तु दूसरे ही दिन उसे पकड़ मंगवा कर एक वर्ष के व्याज मांगने लगा, और उस वणिक को कारागार की सजा फरमाई, हताश हो उस विचारे वणिक्ने आखिर में इस अन्यायी मंत्री को पूरे वर्ष का व्याज जब देने का कवुल किया; तब उस वणिक को कारागार से छोड़ा. उन दोनों को बातों से राजा विक्रम को यह मालूम हो गया, 'यह मंत्री मेरा क्या न्याय करेगा ? जब कि येह स्वयं ही अन्यायी हैं.' इस प्रसंग को देख महाराजा को अति दुःख हुआ और इस अन्याय के लिये बार बार अपने मनमें विचार करने लगा. इस तरह मंत्री द्वारा उस हर वणिक को ठग कर धन लेते देख विक्रमादित्यने सोचा, 'इसी प्रकार के मंत्री तथा अपनी जाके दुःख सुख पर ध्यान न देने वाले राजा के होने पर प्रजा दुःखी होती है, और वहाँ शांति नहीं होती, किसीने ठीक ही कहा है कि ऐसी हालत होने वाले राज्य का P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 343 - प्रजा को चाहिए कि वह ऐसे राजा को छोड़ कहीं अन्य , स्थान पर चली जाय. जैसे"राक्षसरूप महीप, मंत्रीगण व्याघ्र सदृश हो क्रुर; जैसा राज्य छोड़कर जनताको भाग जाना चाहिये दूर." ... महाराजा विक्रमादित्य इस प्रकार अपने मनमें तरह तरह के विचार कर ही रहे थे कि ईतने में एक किसान आकर पाषाणहृदय मंत्री को अपनी प्रार्थना सुनाने लगा. वह कहने लगा, "हे मंत्रीराज ! मेरे खेत को एक राहगीर ने अपने बैल छोड़कर रास्ते पर के खेत को खिला दिया है; कृपया आप मुझे नुकशान का बदला दिलाने की व्यवस्था करें." इस प्रकार वह अपनी बात सुना ही रहा था, कि वह राहगीर भी उसके पीछे पीछे वहाँ आ गया, और वह भी मंत्रीसे अपनी प्रार्थना सुनाने लगा, " हे मंत्रीश्वर, मैं अपने रास्ते रास्ते जा रहा था. मेरी गाडी, सामान से परिपूर्ण थी. अचानक ही उस गाडी का पहिया टूट गया. अतः मैंने अपने बैलों को खोल कर अपनी गाडी के साथ बांध कर अपनी गाडी सुधारने लगा. मेरे बैल बंधे होते हुए भी कैसे इसके खेत को खा गये ? हे मंत्रीराज ! यह मेरी झुठी ही फरियाद करता है. इसने बिना कारण क्रोधित होकर मेरी गाडी को उसे पापड की तरह तोड़ दिया. अब मैं आप की शरण में हूँ. मेरा यहाँ परदेश में कोई नहीं है. अतः मेरा उचित न्याय कीजिए." - दोनों की बाते सुन मंत्रीश्वर ने अपना निर्णय दिया, P.P.AC..Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 विक्रम चरित्र " जब गाडी के टूट जाने से तुमने अपने बैलों को गाडी से बाधा तो यह निश्चय है कि तुम्हारे बैलोंने ही इसके खेत खाया हैं ?" अतः मत्रीश्वरने इस अपराध में उस राहगीर का सारा माल जप्त करने का आदेश दिया. राहगीर इस आदेश को सुन बहुत रोया. बार बार प्रार्थना की पर उसकी सुनवाई कोन करे ? पाषाणहृदय मंत्रीने इस राहगीर का माल जप्त करवा ही लिया. आखिर वह निराश हो वहाँ से चला गया. - बाद में उस किसान को भी मत्रीने फटराते हुए कहा, “रे दुष्ट ! तुमने फिजूल ही उस राहगीर की गाडी को तोड़ डालाः इस अपराध में तुम्हारा भी घर जप्त किया जाता है. तुरंत ही मत्रीश्वरने अपने कर्मचारियों से उसके मकान का सारा ही माल मंगवा लिया. वह किसान भी विचारा दुःखी होकर लौट गया. इस प्रकार इस अन्यायपूर्ण दृश्य को देख महाराजा विक्रम निराश हो वहाँ से राजा के महल की और चल दिया अब उन्होंने यहां के राजा को मिलने का निश्चय किया. ____ महाराजा विक्रम इस शहर के अन्यायी राजा के पास पहुँचे ही थे, कि इतने में एक वृद्धा वहाँ आई और रोती हुई कहने लगी, “हे राजन् ! आप के राज्य में इस प्रकार का अन्याय होता है ? आप को प्रजा के दुःख सुख की कोई परवाह ही नहीं ? राजा का कर्तव्य है, कि वह दुष्टों को , दंड दे और धर्म की रक्षा करे. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 345 - राज्य में मत्स्यगलागल न्याय (बडा छोटे को खाय) की तरह ही चलता रहा तो संसार शीघ्र नष्ट हो जायगा, राजाओं की शोभा उनके न्याय करने में है, नहीं कि केवल मुकुटकुंडल पहनने में. मुकुट-कुंडल आदि तो नट भी पहैनते है." - इस प्रकार वृद्धा के द्वारा सत्य और कटु बातें सुनाने पर भी राजाने उस वृद्धा से कहा, "तुम्हारे मतलब की बात सुनाओ. इतनी बाते कहने की क्या आवश्यकता ?" वृद्धा कहने लगी, “हे राजन् ! मेरा पुत्र रात्रि को गोविन्द सेठ के मकान पर चोरी करने गया था. जब वह उसके मकान की दीवार को तोडकर मकान में घुसना चाहा उसी समय दीवार के गिर जाने से वह उसके नीचे दब कर / मर गया. हे राजन् ! अब मेरी वृद्धावस्था है, और वह मेरा एक मात्र सहारा था. मैं उसके आधार पर ही जीवित थी. अब मेरा सहारा कौन है ? आप कृपा कर मेरी प्रार्थना पर विचार कीजिये और मेरा न्याय कीजिये.” . ' वृद्धा की बाते सुन राजाने गोविन्द सेठ को . बुलवाया और उस से कहा, "हे सेठ! तुमने ऐसी कमजोर दीवार क्यों बनाई ? जिससे कि इस वृद्धाका इकलौता पुत्र मारा गया ? अतः इस अपराध में तुम्हें शूली की सजा दी जाती है." राज्यकर्मचारी उसे पकड़कर शूली पर ले जाने लगे, परन्तु उसी * समय गोविन्द सेठने पुनः प्रार्थना करते हुए कहा, "हे राजन्! मेरी थोडी सी विनती सुन लीजिए, इस दीवार के गिरने P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 विक्रम चरित्र में मेरा कोई दोष नहीं है. यह तो दीवार बनाने वाले कारीगर का दोष है, जिसने दीवार को कमजोर बनाया है.” राजा को गोविन्द सेठ की बात समजमें आई, और उसने गोविन्द सेठ को छोड़ देने की आज्ञा देकर उस दीबार बनाने वाले कारीगर को बुलवा कर कहा, "हे कारीगर! तुमने गोविन्द सेठ की दीवार को इतना कमजोर क्यों बनाई जिससे कि इस वृद्धा का इकलौता पुत्र मारा गया ? अतः तुम्हे शूली की सजा दी ले जाने लगे. उसी समय कारीगरने रोकर गिडगिडाते हुए स्वरसे कहा, "हे राजन् ! इस दीवार के कमजोर बनने में मेरा कुछ भी दोष नहीं है, कारण कि जिस समय मैं गोविन्द सेठ के मकान की दीवार को बना रहा था, उसी समय कामलता नाम की वेश्या उधर से नीकली, उसके आने से मेरा ध्यान उस और चला गया और इससे दीवार में कुछ इंटो की कमी रह गई. अतः हे दीनानाथ ! आप मेरी प्रार्थना पर ध्यान दे.” राजाने कारीगर की प्रार्थना को उचित समझ कर उसे छोड़कर 'कामलता' नामक वेश्या को बुलाने का आदेश दिया. राजाज्ञा से तुरंत ही कामलता को राजसभा में बुलाई गयी. उससे सब बाते कहकर उस को शूली पर चढ़ाने की आज्ञा दी. वेश्याने तुरंत दुःखी होकर राजासे निवेदन किया, " हे महाराज ! मुझे आप इस अपराध में क्यों शूली का दंड दे रहे हैं. मैं निर्दोष हूँ, आप कृपा कर मेरी प्रार्थना सुनिये. जव में चौराहे पर होकर जा रही थी, उसी समय उसा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 347 रास्ते पर एक नंगा साधु आ गया. उसे देख मैं लज्जित हो गई. अतः मुझे विवश होकर वह रास्ता छोडना पड़ा और दूसरे रास्ते से गई जो कि गोविन्द सेठ के मकान के पाससे जाता है.” इस प्रकार वेश्या की बातें सुन राजाने उसे भी निषि समझ उसे छोड दिया और उस दिगम्बर को बुलाने का आदेश दिया. दिगम्बर साधु के आने पर राजाने उस से प्रश्न किया, "तुम क्यों नंगे होकर घूमते हो? तुम्हे नंगा देख यह वेश्या अपना रास्ता छोड गोविन्द सेठ के घर के पास होकर गई और इस से उस कारीगर का मन विचलित हो गया. इस कारण से उसने दीवार को ठीक नहीं बनाया और दीवार के कमजोर रहने से इस वृद्धाका पुत्र मारा गया. अतः तुम्हें इस अपराध में शली की सजा दी जाती है.” तुरंत ही जल्लाद लोग उस दिगम्बर को शूली पर ले गये. शूली की फांस बहुत बड़ी थी और दिगम्बर दुबला-पतला था, जब वह मास में डाला जाता तो वह नीचे गिर जाता. इस प्रकार बार बार गिरने पर जल्लाद निराश हो मंत्री से सारा हाल कह सुनाया और मंत्री राजा के पास जा कर सारा वृत्तान्त कहने लगा, “दुबलापतला है अतः राजन् ! दिगम्बर साधु शूली की मास में नहीं फँसता हैं, उसे तो फांसी लगती ही नहीं हैं.” राजाने उत्तर दिया, “किसी मोटे ताजे आदमी को पकड़कर लेजाओ जो कि उस मासी के फंदे के योग्य हो." इस प्रकार राजा की आज्ञा मंत्री द्वारा सुनकर जल्लादने उस दिगम्बर को तो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 विक्रम चरित्र छोड़ दिया और किसी मोटे ताजे आदमी की खोज में निकला. ढूँढते ढूँढते उन्हें राजा का साला दिखाई दिया, मिनीml Rok NATO ट2 antahilayith theet - PHHA ज जल्लाद मोटा ताजा आदमी को ले आया. चित्र नं. 6 जो कि मोटा-ताजा था. उसे फांसी के योग्य देख बलपूर्वक पकड़ कर ले गये और शूली पर चढ़ा दिया. यह सब दृश्य विक्रमादित्य वहाँ बैठे बैठे देख रहे थे इस प्रकार इस अन्यायी राजा के न्याय को देख वे बड़े चकित हुए. . ."अविचारी नृप सचिव गणों के, देख सभी कर्तव्य यहाँ विक्रमनृपने ह्रदय से शोचा, कैसा है अन्याय यहाँ ?" P.P.AC. Gunratnasurim.s. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 349 इस प्रकार अविवेक से काम करने वाला राजा और मंत्री आदि अधिकारियों को देख कर विक्रमने विचार किया, " यहाँ तो अन्याय का ही बोलबाला हैं. यहाँ न्याय का तो नामनिशान भी नहीं है. अतः अगर मैं भी अपने रत्नों की बात यहाँ निकालूगा तो निश्चय ही मुझे लेने के बजाय देने पड़ जायेगे. अतः अब यहाँ से तो न्याय की आशा छोड़ अपनी ही बुद्धि से काम लेना चाहिए.” ऐसा विचार कर विक्रम वहाँ से रवाना हो कामलता नामक उस वेश्या के यहां गये, वहाँ जाकर उन्होंने कामलता को तापस के द्वारा पांच रत्न ले लेने की सारी कहानी कह सुनाई. राजा की सारी बात सुन कर उस वेश्याने राजा विक्रमादित्य को आश्वासन देते हुए कहा, “हे महानुभाव ! आप चिंता न कीजिये, मैं अपनी बुद्धिबलसे आपके पांचो रत्न उस तापस से आप को दिला दूंगी. और उसने ओर यह भी कहा, “हे महानुभाव! मैं एक रत्नों का थाल भर कर उस तापस के यहाँ जाउँगी, उस समय आप भी थोडी देर बाद वहां आकर तापस से अपने पांचो रत्ने को मांगना.” इस प्रकार विक्रमादित्य को युक्ति बतला कर दूसरे दिन आने का निश्चित समय बता दिया. निश्चित समय के अनुसार दूसरे दिन वेश्या थाल भर कर रत्न ले उस तापस के वहां गई, और विनती करने लगी, " हे महाराज! मेरी पुत्री आग में जल कर मरने वाली है, उसके विना मेरी सभी संपत्ति व्यर्थ है. मैं अब अपनी सभी . संपत्ति दान-पुण्य में लगा देना चाहती हूँ. अतः मैं आपके P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 . विक्रम चरित्र लिए इन अमूल्य रत्नोंसे भरा हुआ थाल लाई हुँ,आप इसे ग्रहण कीजिये.” इस प्रकार इन दोनों की बातें हो रही थी, उसी समय महाराजा विक्रम भी पूर्व संकेत के अनुसार आ पहुँचे और उस तापस से अपने पांचों रत्न मांगे. तापस अब ऐसी परिस्थिति में फँस गया की उसकी गति सांप छुछ्न्दर की सी हो गई. तापस सोचने लगा, “अब क्या किया जाय ? अगर मैं इस आदमी के रत्न नहीं दूंगा तो इससे इस वेश्या पर यह प्रभाव पड़ेगा कि तापस कोई ठग है. ठग समझे जाने के साथ साथ मैं अमूल्य थाल भरे रत्नों को खो बैलूंगा. अतः अब तो पथिक को उसके रत्न लौटाने में ही लाभ है." IMINAN SHAILEN ___w355 तापसने पथिक को उसके अमूल्य पांचों रत्न दे दिये चित्र नं. 7 .. इस प्रकार सोच बिचार कर उस ठग तापसने पथिक का P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जन विजय संयोजित 351 उसके पांचों अमूल्य रत्न शीव लौटा दिये. पांचो रत्न ले कर महाराजाने एक रत्न प्रसन्नतापूर्वक उस तापस को भेट कर दिया. इस प्रकार ये सब बाते हो ही रही थी कि वेश्या के पूर्वं सकेतानुसार उस की दासीने आकर कहा, “हे बाईजी ! आप की पुत्रीने जल कर मरने का विचार त्याग दिया है. अतः आप शीघ्र ही घर चलिए.” दासी की बात सुन उसे रत्नों का थाल देते हुए वेश्याने कहा. “तूं यह थान्त लेकर चल, मैं भी पीछे पीछे शीघ्र ही आती हूँ.” इस प्रकार वह रत्न भरा थाल ले कर दासी चली गई. और वेश्या तापस से कहने लगी, " हे महाराज ! आप मुझे आज्ञा दे तो में अपनी पुत्री से मिल कर उसका निर्णय जान पुनः लौट आऊँ.” इस प्रकार कहती हुई वह वेश्या अपने घरकी और चल पडी. बहुत समय तक वह तापस वेश्या के लौट आने कि राह देखता रहा. वह पथिक रूप विक्रम महाराजा भी कामलता के घर पहूँच गये, और उसकी बुद्धिमत्ता पर प्रसन्न होकर एक रत्न जो बहु मूल्य था वह उन्होंने कामलता को दे दिया, रात्रि भर उस के यहां विश्राम कर प्रातःकाल अपनी 'नगरी अवंती की ओर प्रस्थान किया, ___ जब महाराजा विक्रम अपनी नगरी की ओर जा रहे थे उस समय उन्हें रास्ते में एक गरीब मनुष्य मिला. महाराजा विक्रमादित्य को देख वह कहने लगा, " दारिद्रय से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 विक्रम चरित्र बढ़ कर संसार में कोई भी दुःख नहीं है. जैसा कि कीसी कविने कहा है:"लक्ष्मी रहित मनुष्य जगत में, सुन्दर भी न सुहाता है, लक्ष्मीवान कुरुप क्यों न हो! तब भी पूजा जाता हैं." निर्धन आदमी चाहे कितना ही सद्गुणी सुन्दर या विद्वान क्यों न हो, उस बेचारे को कोई नहीं पूछता; परन्तु धनवान मनुष्य कितना ही कुरूप या निर्गुणी और मूर्ख क्यों न हो, तो भी सब जगह उसकी लोगों से सन्मान-पूजा होती ही रहती हैं. 4 / अतः "हे माता लक्ष्मी ! तुम्हारी कृपा जिस मनुष्य पर हो जाती है, उसके तो अवगुण भी गुण बन जाते है, जैसे कि धनी-मानी जनों के आलस्य को स्थिरता कही जाती हैं, चंचलता को उद्योगिता, मूकता याने गुंगेपन को मित भाषिता,.भोलेपन को सरलता और पात्रापात्र का विचार न करना अर्थात् सबको समान समझने का जो अविवेक उसको उसकी उदारता कहते है."ॐ x लक्ष्मी विना सुरूपोऽपि मान्यते न नरः क्वचित् / कुरूपोऽपि श्रियायुक्तः पूज्यते निखिलैर्जनैः / / स. 10/187 // * आलस्य स्थिरतामुपैति भजते चापल्यमुद्योगिताम् / "मूकत्वं मितभाषितां वितनुते मौग्ध्यं भवेदार्जवम् / / पात्रापात्र विचारभावविरहो यच्छ्त्युदारत्मताम् / मार्त लक्ष्मि ! तव प्रसादवशतो दोषा अपि स्युर्गुणाः / स. 10/188 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित 353. उस गरीब मनुष्य की इस प्रकार बातें सुनकर महागजा बहुत प्रसन्न हो गये, उसे अपने पास के बचे हुए तीनों अमूल्य रत्न दे कर उस की दारिद्रता का नाश कर महाराजाने आगे प्रस्थान किया. कई जंगल, पहाड़ो आदि को पार कर महाराजा अपने राज्य में पहूँच गये, अवंती में प्रवेश कर वे अब अपने महल में रहने लगे, राज्यव्यवस्था में पुरे ध्यान से लक्ष देते रहे और राज्य सभा को सुशोभित करने लगे. पाठकगण! आपने महाराजा विक्रमादित्य का संसार के परिभ्रमण से नाना प्रकार के अनुभवों को प्राप्त करने का रोचक वृत्तान्त, कपटी तापस की परीक्षा, अन्यायी राजा और पाषाण हृदय मंत्रीके अन्यायों का प्रत्यक्ष दर्शन, कामलता वेश्याकी बुद्धिमत्ता, उसके द्वारा पांचों रल प्राप्त कर अपराधी उस तापस के प्रति भी उदारता बताकर उसको अमूल्य एक रत्न दिया, वेश्याके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित कर उसको भी एक रत्न दे दिया. अवती जाते मार्ग में एक दरिद्र ब्राह्मण का भेटा होना उसके प्रति दयाभाव से उसको तीनों रत्न का दान करना आदि हाल इस प्रकरण में पढ़ चुके __ अब आप लोग आगामी प्रकरण में महाराजा को अभिनव-नूतन राम बनने की अभिलाषा उत्पन्न हइ और अयोध्या जाकर वहां वृद्ध ब्राह्मण के मुखसे रामराज्य की सुदर रोमांचकारी कथा सुनकर आनद प्राप्त किया. इस तरह आप भी कई बोधक कथाओं को पढ़कर अवश्य आनंद प्राप्त करेगे.. . જૈનધર્મનાં દરેક ભાષાનાં, દરેક વિષયનાં પુસ્તકો માટે અમને પુછા:જૈ ન પ્ર કા શ ન મંદિર . 308/4 शीवापानी पोण, समहापा-१ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनपचासवाँ-प्रकरण नया राम बनने की आकांक्षा "बड़ा बड़ाई ना करे, वड़ा न बोले बोल; हीरा मुखसे ना कहे, लाख हमारा मोल. वह अमात्य क्या जो भूपतिका नहीं दिखाता सुन्दर राह; भूपति वह क्या मंत्रीश्वरकी जो सुनता नहि उचित सलाह." . महाराजा विक्रमादित्य अपनी राजसभा का कार्य नियमित रूपसे चलाते है, प्रजा के सुख-दुःख का पूर्ण ध्यान रखते हुए राज्य को देखभाल करने के साथ अपना समय सुखशांति पूर्वक व्यतीत करते हैं. एक दिन महाराजा को बैठे बैठे अचानक यह विचार उत्पन्न हुआ, “मैं भी अपनी प्रजा का पालन रामचंद्रजी की तरह ही करता हूँ. उनके राज्य में “किसी को कोई कष्ट नहीं था. अतः वह समय रामराज्य कहलाया, उस तरह मेरे राज्य में भी कोई दुःखी नहीं हैं. अन्याय का नाम निशान तक नहीं, तो क्या मैं भी रामका तरह प्रख्यात नहीं हो शकता? इस लिये मैं भी अब अपना नाम " अभिनवराम' रखता हूँ ताकि मुझे भी संसार का सारी जनता "राजाराम' कहे और मेरे राज्य को 'रामराज्य' के नाम से जान सके और राम के समान ही मेरा भा सन्मान करे.” इस प्रकार महाराजा विक्रमादित्यने अपने गव पूर्ण विचार, अपने मंत्रीश्वर आदि के सन्मुख प्रदशित किया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित मंत्रीगण राजा को गर्व युक्त देख अप्रसन्न हो गये; और वे लोग राजा को किसी प्रकार शिक्षा मिले ऐसा उपाय सोचने लगे... __ एक दिन अवसर पाकर महाराजा विक्रमादित्य को उनके मान्य मंत्रोओंने बातचीत के प्रसंग में कहा, "हे राजन! इस संसार में अनेक मनुष्य है, जो एक एक से बडे हैं. पृथ्वी में * अनेक रत्न हैं जो एक एकसे अधिक मुल्यवान हैं. अनेक बुद्धिमान हैं जो एक एक से अधिक चतुर है. तथा कई बलवान, धनवान है, जो एक एक से बढ़ कर है; अतः किसी भी मनुष्य को अपने ऐश्वर्य-ज्ञान, बुद्धिबल आदि पर गर्व नहीं करना चाहिए, गर्व किसी का भी न रहा है और न रहेगा. इस प्रकार समझाने पर भी महाराजा पर कुछ भी असर न देख मंत्री आदि अधिकारीयोंने राजा को गर्व से मुक्त करने के लिये पुनः कोई उपाय ढूंढनेका निश्चय किया, कारण कि किसीने ठीक ही कहा है. भद्रा राजा, सर्प ये; सन्मुख से भय देत; दुश्मन, बिच्छु, बाणियो, पीछे से सब लेत. “भद्रा-तिथि, राजा और सर्प ये सब सामने से बड़े भयंकर होते हैं. परन्तु दुश्मन, बिच्छु और महाजन-वणिक लोग पीछे से नुकशान देनेवाले होते हैं. ये सामने तो * भद्गा भप भुगम ए मुहि दुहिला हूँति।। वइरी वींछी वाणिआ ऐ पूठिंई दाह दीयंति / / स. 10/199 // . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 356 विक्रम चरित्र कुछ भी नहीं करते किन्तु पिछे से हानि कर देते है. इस लिये हम लोगों को चाहिए कि हम महाराजा को गर्व से मुक्त करने का कोई ठोस उपाय खोजे." कुछ दिन बाद संयोग से राजाने नगरी के पंडितों को बुलाकर कहा, " आप-लोगों में से कोई मुझे राम-राज्य की कथा सुना सकते हैं ?" इसके उत्तर में एक वृद्ध मंत्री ने आगे आकर उत्तर दिया, "हे राजन् ! अयोध्या नगरी में एक वृद्ध ब्राह्मण है, वह राम राज्य की कथा अच्छी तरह कुल परंपरासे जानता हैं, अतः आप उन्हें बुलाकर उन्हों से रामराज्य की कथा सुनिये." वृद्ध मंत्री की बात सुनकर महाराजाने शीघ्र ही उस वृद्ध ब्राह्मण को बुलाने के लिये अयोध्या को दूत भेज दिया. जब दूत उस वृद्ध ब्राह्मण को लेकर आया तो उसका बडा आदर करके महार जाने पुनः अपनी इच्छा इस ब्राह्मण के आगे प्रगट की. उत्तर में अयोध्या निवासी ब्राह्मणने कहा, "हे राजन् ! में आप को यहाँ रहकर रामराज्य की कथा भली / भाति नहीं सुना सकता. अतः आप अयोध्या पधारे तो में / आपको राम-राज्य की कथा अच्छी तरह से सुनाऊँगा. ___ यहाँ पर रहते हुए श्री रामचंद्रजी को थोड़ा भी वृत्तान्त मैं अच्छी तरह नहीं कह सकता हुँ." उस वृद्ध ब्राह्मण का सलाह भानकर और राज्य व्यवस्था का सब भार मंत्रीश्वर को सापकर महाराजा विक्रमादित्य अपना राज रसाला साथ Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. suri M.S. . . Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित लेकर, उस अयोध्या निवासी ब्राह्मण के साथ ही अयोध्या की ओर चले. चलते चलते क्रमशः वहाँ पर पहुंचकर ब्राह्मणसे महाराजाने रामराज्य की कथा सुनाने का पुनः आग्रह किया. तब उत्तर में उस ब्राह्मणने अपने हाथ से संकेत कर एक पुरातन स्थान बताते हुए कहा, "हे राजन् !. आप प्रथम इस स्थान को खुदवाईये.” राजाने शीघ्र ही अपने साथ के नौकरों को आज्ञा दी कि वे इस स्थान को खोदे. राजा की आज्ञानुसार वह स्थान खोदा गया, सात हाथ खोदने के बाद उस जमीन के अन्दर एक जुना पुराना मकान मिला, जो रत्नों की ज्योति से चमकता था, उसे देख राजा अपने सेवक सहित आश्चर्यचकित हो गये, उस घर में एक स्थान पर अनेक मूल्यवान द्रव्यों से भरा एक घडा भी मिला थोडे दूर स्थान पर रत्नों से सुसजित एक सुंदर मंडप मिला. इसी प्रकार एक रत्न जडित सिंहासन जो रत्नों के प्रकाश से चारों ओर प्रकाशित हो रहा था. छोटी बड़ी अनेक किंमती वस्तुएँ निकलती रही उस में एक रत्नों से जडित मोजडी-जुति निकली, उसे देखकर राजा विक्रम और भी अधिक विस्मित हुए, उन्हैने आदर के साथ उस जुति के आगे अपना शिर झुकाकर उसे प्रणाम किया, आदरपूर्वक उसे हाथ में लेकर अपने मस्तक और हृदय से लगाया. . . - यह देख कर उस वृद्ध ब्राह्मणने महाराजा विक्रम से कहा, "हे राजन् ! आप इस जुति को इतना मान क्यों देते P.P.AC.Gunratnasuri M.S... Jun Gun Aaradhak Trust Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 विक्रम चरित्र ANS महाराजा विक्रमने मोजडी को हृदय से लगाई. चित्र नं. 8 हैं ? यह जुति तो एक चमारिन की हैं, आप इस को शिरसे मत लगाईये." राजा सुनकर आश्चर्यचकित हो बोले, " इतनी सुन्दर और बहुमूल्य मणियों से जडित यह मोझड़ी चमारिण की हैं ? हे विप्रवर ! आप कृपा कर उस चमारिन का परिचय मुझे सुनाईये." ___ उस ब्राह्मणने कहा, "हे राजन् ! श्री रामचन्द्रजी के समय में इस स्थान पर चमार लोगों का निवास था, यहा कई चमार लोगों के मनोहर घर थे, उन चमारों में भीम नामका एक चमार रहता था. उसकी स्त्री बड़ी कर्कशा अरि दूर्वि नीता थी, जिसका नाम पदमा था, वह अपने पति से लड़ती-झगडती थी, .पति के आदेशों को भी अवज्ञा करती P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित .. 359 एक दिन पति के वचनो से क्रुद्ध हो वह स्त्री एक ही जुति पहन कर अपने पीहर--पिता के घर चली गई, और एक जुति यहा छोड गई. पीहर जाने पर उसके माता-पिता आदिके पास पति के दोष कह सुनाये, माता-पिताने उसे दो-तीन दिन रखकर आश्वासन दे कर बहुत समझाया, 'हे पुत्रि ! अपने पति की आज्ञा में रह कर, ससुराल में रहनेवाली स्त्री ही कुलवती कहलाती है, और कुलवती स्त्री को पतिका ही शरण श्रेष्ठ है, ईसी लिये तुम अपने ससुराल चली जा.' पर पद्माने नहीं . माना, पद्माने पिताजी से कहा, 'मैं अपमान के कारण वहाँ नहीं जाऊँगी.' ईस तरह माता-पिता, भाई आदि के वचन भी नहीं माने. एक दिन उसके पिताने क्रुध्ध होकर कहा, 'क्यों तुझे राम-लक्ष्मण और सीता लेने आयेगें तब ही तु ससुराल जायगी ? ' उत्तर में पद्माने कहा, 'हा' उसने यह बात पकड ली. उसे अब जब भी ससुराल जाने को कहा जाता तो उत्तर में कहती, 'तुमहीने तो कहा था, कि राम-लक्ष्मण और सीताजी लेने आयेगें तब जायगी ! अतः अब तो मैं ईसी हालत मैं जाऊँगी.' यह बात धीरे धीरे सारी अयोध्या नगर में फेल गई, और अयोध्यापति श्री रामचन्द्रजी के पास पहूँची. रामचन्द्रजीने अपनी प्रजा की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने का निश्चय कर अपने भाई लक्ष्मण और सीता के सहित उसके पीहरमें पहूँचे. पद्मा के पिताने अपने मकान पर एकाएक अयोध्यापति राम-लक्ष्मण P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र सीता को आये देख अपना अहोभाग्य मानने लगा. उनके सत्कार के लिये रत्नजड़ित सिंहासन आदि का प्रबन्ध किया. महाराजा रामचन्द्रजी अपने एक गरीब प्रजाजन के इस प्रकार का अच्छा सत्कार और रत्नजडित सिंहासन, सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त मणि आदि द्वारा बनाये गये अनेक घरों को देख बहुत संतोष माना कि अपनी साधारण प्रजा भी ईतनी समृद्धिशाली हैं-मैं कृतकृत्य हूँ-धन्य हूँ ! . .. पद्मा के पिताने महाराजा श्री रामचन्द्रजी से आने का कारण पूछा, 'हे राजन् ! अपने प्रिय भाई लक्ष्मण और महाराणी सीता के साथ यहाँ पधारने का क्यों कष्ट उठाया ? मेरे योग्य सेवा फरमाईये ?' उत्तर में रामचन्द्रजीने कहा, 'हे भाई, तेरी पुत्री और गांव के भीम चमार की स्त्री को मैं लेने आया हूँ, कारण कि उस की प्रतिज्ञा है कि जब मुझे लक्ष्मण, सीता सहित रामचन्द्र लेने आयेंगे तभी में ससुराल जाऊँगी, उसी कारण मुझे यहाँ आना पड़ा.' यह सुन कर चमार बहुत ही हर्षित हुआ. _उस पद्मा के पिताने घर में जाकर अपनी पुत्री से समाचार सुनाया, “हे पद्मे ! तेरी प्रतिज्ञा की टेक रखने और तुझे ससुराल पहुँचाने के लिये श्री रामचन्द्रजी, लक्ष्मण और सीता सहित यहाँ आये है ?' पद्माने चकित होकर पूछा, 'आप क्या कहते हो? क्या सच ही रामचन्द्रजी मुझे लेने आये ?' वह शीघ्र दौड़ती हुई दरवाजे की ओर आई और सचमुच ही रामचन्द्रजी आदि तिनों को कई मनुष्यों के बीच P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित में रत्नजड़ित सिंहासन पर विराजमान देखे. नमस्कार कर . आदरपूर्वक सीताजी को अपने घर में ले आई. सीताजी की साडी में तेल का छोटा सा धब्बा देख, पद्माने सीताजी से प्रश्न किया, 'हे स्वामिनि ! क्या आपके महेलों में तेल के दीपक जलते है ? जिस से आप को साडी से . तेल की गंध आती है ? - सीताजीने उत्तर दिया, 'हा, हमारे महल में तो तेल के ही दीपक जलते है, परन्तु तुम्हारे यहाँ किस वस्तु का दीपक जलते है ?' पद्माने कहा, 'हमारे यहाँ तो रत्नों के दीपक जलते है, रत्नों से सारा घर प्रकाशमान रहता है.' इस प्रकार सीत जी और पद्मा की बातें हो रही थी, कि इतने में रामचन्द्रजी अपने भाई लक्ष्मण सहित आ गये. और पद्मा को इस तरह समजाने लगे. 'हे पुत्री, स्त्री जाति के लिये पति ही शरण है, अतः तुम मान को छोड़ कर अपने पति के घर चलो. हम लोग इस लिये तुम्हारे घर आये हैं.' रामचन्द्रजी की बात सुन कर पद्मा शीघ्र ही मान गई. और उस रत्नजड़ित मोजडी-जुति को वहाँ ही छोड़ महाराजा आदि के साथ रवाना हो कर अपन पति के घर पहूँच गई. रामचन्द्रजी; लक्ष्मणजी और सीताजी पद्मा को उस के पति भीम चमार के वहाँ पहूँचा कर, अपने राजमहल में पधारे, प्रजा का पुत्रवत् पालन कर न्याय मार्ग से राज्य को चलाते हुए-सुखपूर्वक समय बीताने लगे." P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 विक्रम चरित्र - महाराजा विक्रमादित्यने रोमांचकारी इतनी कथा सुनकर इस वृद्ध ब्राह्मण से प्रश्न किया, "उस पद्मा की. वह दूसरी जुति कहां है ? जो कि वह अपने पिता के घर छोड आई थी ?" उत्तर में वृद्ध ब्राह्मणने कहा, "वह तो उसके पीहरवाले स्थान में ही है, अतः वहाँ की भूमि खोदने पर वह भी मील सकती है.” महाराजाने उस स्थान को भी खुदवा कर दूसरी भी प्राप्त की जो कि ठीक उसी के समान थी, जैसी भीम चमार के वहां निकली थी. महाराजाने उस वृद्ध ब्राह्मण से पूछा, "आपने ये सब बाते कैसे जानी कि ये जुति, सिंहासन, मंडप बगेरे इन इन जगहों पर है ? " ब्राह्मणने कहा, “हे राजन् ! ये सभी बाते परंपरागत कथनानुसार मुझे ज्ञात है. इन सब बातों से यह भली भाति स्पष्ट होता है, कि महाराजा रामचन्द्रजी कितने प्रजावत्सल-प्रेमी थे, उन कि प्रजा कितनी सुखी थी, अपने आप खुद सादाई से रहते थे और विनम्र थे कि एक चमार के घर तक गये, उसके घर में अतुल धन राशि देख राम, लक्ष्मण और सीताजी प्रसन्न हुए, किन्तु धन राशि ले लेने की भावना उन्होंने नहीं की; आप ईन सब बातों को ध्यान में रख कर आप स्वयं को " अभिनव राम" और अपने राज्य को " रामराज्य" कहलाने का या समझाने का मोह-गर्व छोड़ दें, हे राजन् ! यह विचार भी कभी नहि करना चाहिये, कि मैं बड़ा राजा हु. राम के तो स्मरण मात्र से ही अग्नि शांत हो जाती है। सेकड़ो तरह के रोग नष्ट हो जाते है, जिसने बाल्यकालम P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित पिताजी की आज्ञा को नहीं टाला और एक महान राज्य को छोडने में अल्प दुःख का अनुभव तक नहीं किया, जिस महाराजा रामचन्द्रजी की स्त्री सीता भी अपने पवित्र शील गुण के कारण विश्वभर के स्त्रीसमाज के लिये आज भी आदर्श रूप हैं, जिन राम के हनुमान, सुप्रांव जैसे महान वीर सेवक हुए, उस रामचन्द्रजी की बराबरी आप कैसे कर सकते हैं ? मेरी तो पुनः आप से येही सलाह है, कि आप अपने गर्व को त्याग कर ' नवीन राम' बनने का विचार त्याग दीजिये. है राजन् ! श्री रामचन्द्रजी के जीवन का एक ही प्रसंग संक्षिप्त रूपसे कह सुनाया, मैं अधिक और रामचन्द्रजी के लिये क्या प्रशंसा करूं ?" महाराजा विक्रमादित्यने ईन सब बातों को सुनते ही . " नविन राम " बनने की अपनी भावना को छोड़ दिया, और अयोध्या से अपने रसाला व सेवकों के साथ रवाना होकर अवंती नगरी में आ पहूँचे. अयोध्या की सफल यात्रा की उपलक्षता में याचकों को बहुत उदारता से दान देने लगे. पाठकगण ! आपने इस प्रकरण में महाराजा विक्रमादित्य द्वारा किये गये गर्व का हाल पढ़ा ही है, उनका गर्व नहीं रहा. राजा विक्रमादित्य तो क्या ? पर आजतक के इतिहास के देखने से यही मालुम होता हैं; कि क्या ? पर "गर्व किसी का भी न रहा है, और न रहेगा. कारण कि इस विश्वरूप नाटकशाला में अनेकों नट आते है जो अपना अपना कार्य कर चले जाते है; उनका कार्य एक एक से बढ़कर होता है, जैसा जिसका कार्यक्षेत्र होता है, वैसी ही उसकी प्रसिद्धि-ख्याति जगत में होती है. अतः किसी भी व्यक्ति को इस प्रकार का गर्व कदापि नहीं करना चाहिए कि, ‘जो कुछ हूँ सो मैं हूँ.' अगर कोई इस प्रकार करता भी है तो विद्वान P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र लोग यही समझते हैं कि ईसको ज्ञान नहीं. जो व्यक्ति गर्व से दूर रह कर अपना कर्तव्य पूरा करने का प्रयत्न करता हैं और यथाशक्ति सन्मार्ग पर चलता हुआ, दान पुण्यादि धर्मकार्य करता रहता है, उनका उन धर्मादिक कर्तव्य के प्रभावसे ईह लोक और परलोक का दोनों मार्ग उज्जवल बन जाता है उपरोक्त जीवनके अमूल्य कर्तव्यो से ही मानवजीवन की सफलता मानी जाती है. अब आप आगामी प्रकरण में महाराजा का विधाता से मिलाप, उस से वार्तालाप आदि का हाल पढ़ कर उनके साहस और परोपकारी कार्य आदि की जानकारी प्राप्त करेंगे. भगवान श्रीनेमिनाथ अने श्रीकृष्ण इस पुस्तक में त्रिकालज्ञ.नी कथित जैन साहित्यदृष्टिसे छयासी . 22-2-av 4.C-Centevnadhee हजार वर्ष पूर्व हुए भगवान श्रीनेमिनाथ, / कृष्णवासुदेव, बलदेवजी, वसुदेवजी, MAHI यादव, पाण्डव, कौरव, सत्यभामा, रुक्ष्मणि, शाम्ब, प्रद्युम्न, जरासंघ, कंस आदिका जीवनपरिचय व द्वारिकादहन और श्रीकृष्ण के आगामी भवका वृत्तान्त बोधक, सरल व संस्कारित शलीमें पढने मीलेगा, मनोहर 34 चित्र, 208 पृष्ठ, मूल्य केवल दो रुपये. प्राप्तिस्थान : जशवंतलाल गिरधरलाल शाह C/o जैन प्रकाशन मन्दिर, 309/4 डोशीवाडा की पोल, अमदावाद नापानी yes P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचासवाँ-प्रकरण विधाता से महाराजा का मिलाप " पहले बचन देकर, समय पर पालते है जो नहीं; वे है प्रतिज्ञा-घातकारी, निन्दनीय सभी कहीं. राड पडे राजपुत छूपे नहि; कम छूपे नहि भभुत लगाया." महाराजा विक्रमादित्य अपना राज्यकार्य बड़ी निपुणता से चला रहे है, प्रजा बड़ी सुखी हैं, न्याय उचित रीति से , किया जाता है, और दोषी को कड़ा दण्ड भी दिया जाता हैं. राजसभा नियत समय पर लगती है, जो अनेक विद्वानों-नौं रत्नों आदि से सुशोभित रहती है, वे लोग अवती नरेश के राज्य को उन्नति पर ले जाने के लिये विचार विनिमय आदि करते रहते हैं. एक दिन राजसभा में बैठे बैठे महाराजा के मनमें अचानक विचार आया, 'मैंने अपने देश के, और निकट प्रदेश में तो कई प्रकार के कौतुक देख आया हूँ; परन्तु अभी तक दूर दूर के देशो में कभी नहि गया हूँ. अब का बार दूर दूर के देशो में जा कर वहां की नीति, रीति आदि की अनुभव प्राप्त करना चाहिए, इस प्रकार विचार कर विदेश में भ्रमण करने जाने का इन्होने निश्चय किया. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र राज्यव्यवस्था का योग्य प्रबंध कर, एक दिन अपने पूर्व निश्चय के अनुसार महाराजाने अवंती नगरी से विदेशभ्रमण के हेतु प्रस्थान किया, अनेक स्थानों का भ्रमण करते और अनेक प्रकार के कौतुक देखते हुए वह अपने देश से बहुत दूर निकल गये. चलते चलते वह कोई एक सुन्दर नगर में पहूँचे, जिसका नाम 'चैत्रपुर' था, नगर में घूमते शहर की सुन्दरता देखते देखते आगे बढ़े, एक सुन्दर हवेली के समीप में कई व्यक्तियों को एकत्रित हुए देखे, उसी स्थल जाकर महाराजाने एक आदमी से पूछा, “ये लोग यहां क्यों एकत्रित हुए है ?" / उस नगरवासीने कहा, "आज ईस सेठ के यहां उत्सव है, इस सेठ का नाम धनद् हैं, यह सेठ बड़ा ही धनवान है." विक्रमराजा-किस कारण से यह उत्सव करा रहे है ? . नगरवासी-इस सेठ को अभी तक कोई संतान नहि था, अनेक मनोरथो के बाद में प्रभु भक्ति और धर्म के प्रभाव से सेठ के यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ है, जिस का कल ही छट्ठा दिन है, उसके निमित्त यह उत्सव मनाया जा रहा है; कल यहाँ पर छठी का जागरण होगा, ईस नवजात शिशु के भाग्य को लिखने के लिये कल कर्म-अधिष्टात्रि देवीविधाता यहां आयगी. * महाराजा विक्रम यह जानकर वहां से अपने विश्राम 'स्थान पर चले आये, और मनमें निश्चय किया कि विधाता , . कौन है ? क्या कर्म लिखती है ? आदि देखना चाहिए ! P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित . दूसरे दिन अपने निश्चय के अनुसार संध्या समय पर महाराजा विक्रमादित्य काले कपड़े पहन-अदृश्य होकर उस धनद् सेठ के मकान में आकर एकान्त में गुप्त रूप में रहे, कुछ रात्रि व्यतीत होने पर, कम अधिष्टात्रि देवी का आगमन हुआ, उसने धनद् सेठ के पुत्र की ललाट में कर्म का लिखना आरंभ किया. जब विधातादेवी कर्म लिख कर वापिस लौटने लगी तब विक्रम महाराजाने उसका हाथ पकड कर रोका, और पूछा, “इस बालक के भाग्य में क्या लिखा है ?" LI NATOPATI समा bas. EY महाराजाने कर्म-अधिष्टात्रिदेवी का हाथ पकड़ा. चित्र नं. 9 देवी-आप कौन हो ? आपको ईस विषय से क्या मतलब ? राजा-मैं विक्रम हुँ, ललाट में क्या लिखा यह बताये "बिना आप को नहि जाने दूंगा. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र बहुत आग्रह करने पर विधाताने उत्तर दिया, "जय यह बालक बड़ा होकर धनवान् श्रेष्ठि की कन्या से विवाह करेगा, उस समय व्याघ्र-वाघ के मुख से उसकी मृत्यु होगी." यह कह कर वह शीघ्र ही चली गई. महाराजा विक्रम भी वहां से लौट कर अपने विश्राम स्थान पर आ गये. दूसरे दिन प्रातःकाल उठकर महाराजा नित्य कार्यादि से निवृत्त हो, उसी धनद् सेठकी हवेली पर आ पहूँचे. सेठने अपने मकान पर आये हुए अतिथि का बढ़ा आदरभावसे सत्कार किया, भोजन आदि करा कर उन्हे आदरपूर्वक बैठा कर . पूछा, " आप कहां के रहेवासी हो ? और आपका क्या नाम है ?" * महाराजाने अपना परिचय देते हुए कहा, "हे सेठजी ! मैं अवंतीनगरी का रहेवासी हूँ. और विक्रम मेरा नाम है, में विदेश भ्रमण हेतु बाहर निकला हुँ. और घूमते घूमते यहाँ आया हूँ.” उस नगर से बिदा होते समय सेठने विक्रम से कहा, " मेरे इस पुत्र के विवाह-शादी पर आने की आप कृपा करे." विक्रमने कहा, "आप मुझे बुलाने आयेगे तो मैं अवश्य ही आप के पुत्र के विवाह पर आऊँगा." ईस प्रकार कह कर महाराजा वहां से रवाना होकर, अन्य देशो में अनेक प्रकार के कौतुक देखते कई देश-विदेशों का भ्रमण कर बहुत Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 369. समय बाद अवती नगरी को पधारे, और पूर्ववत् राज्य कारभार चलाने लगे. इधर चैत्रपुर में घनद् सेठका पुत्र बड़े प्यारसे लालन कराता हुआ, दिन प्रतिदिन बड़ा होने लगा; एक विद्वान पंडित के पास धनद् सेठने पुत्रको विद्या पड़ाना आरंभ किया. क्रमशः. वह धनद्कुमार शीघ्र ही विद्या ग्रहण करने लगा. इस प्रकार अल्प समय में ही वह धार्मिक और व्यवहारिक शिक्षा आदि सकल विद्याओं में कुशल हो गया. ठीक ही कहा है, प्रत्येक माता-पिता का कर्तव्य है कि अपने बालक को विद्या अवश्य ही पढ़ावे और वह विद्या भी कैसी पढ़ानी चाहिए इस के. लिये विद्वानोने कहा"जीवन में शिक्षा असी हो, जिसको पा सुख शांति रहे; मृत्यु बाद भी आसानी से, परलोक गये पर शांति रहे." प्रत्येक माता-पिताका कर्तव्य है, कि अपने घरमें जन्म प्राप्त करने वाले लड़के को दो प्रकार की शिक्षा दे, एक तो यह कि इस भव में न्याय-नीतिपूर्वक अपना कर्तव्य पालन करता हुआ जीवन व्यतीत करे, और दूसरी शिक्षा ऐसी देनी . चाहिए कि अपने जीवन में धर्म-ध्यान, जप, तप, दया, परोपकार आदि सत्कार्य कर परलोक में सद्गति को प्राप्त कर सके. ॐ अर्थात् धार्मिक और व्यवहारिक विद्या प्रत्येक * जाय मि जीवलोए, दो चेव नरेण सिक्खअव्वाइ। कम्मेण जेण. जीवइ जेण मओ सुग्गइ जाइ // स. 10/268 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 विक्रम चरित्र व्यक्ति के लिये पूर्ण आवश्यक है, ताकि वह अपना ईह लोक और परलोक सफल बना सके. "माता पिता उसे जानना, जानना प्यारा मित्र; वडील उन्हे जानना. शीखवे धर्म पवित्र." धनद् सेटने अपने पुत्र की विवाह योग्य उमर को देख उस की शादी करने का मनमें निश्चय किया, कई स्थानो पर सुयोग्य कन्याकी तलाश करने लगे, तलास करते करते ‘धनद् सेठने सोलह धनवान श्रेष्ठियों से अपने पुत्र के लिये सुन्दर और गुणी कन्याओं कि मांग की. शुभ दिन और शुभ मुहूर्त का निश्चय कर अपने पुत्र की शादी की तैयारी करने लगे. परन्तु धनद् सेठ के प्रत्येक कार्यो में कुछ ने कुछ अपशुकन और विघ्न होने लगे, यह देख सेठ बड़ें सोच-विचार में पड़ गया. काफी विचार करने पर उसे स्मरण हुआ, 'मैंने अवंती नगरी के विक्रम को वचन दिया था, कि मैं अपने पुत्र के विवाह प्रसंग पर आप को बुलाने आऊँगा; यह बाते भूल जाने की कारण ही वे अपशुकन होते होगे ?' ऐसा सोच शोघ ही सब कार्य छोड़, धनद् सेठने अवंती नगरी, को प्रस्थान किया. अवंती नगरी में पहूँच उसने अवतीनिवासीयों से विक्रम का निवासस्थान पूछा, पर उन्होंने कहा, '' यहाँ तो कई विक्रम है, आप किस विक्रम के विषय में पूछते है ?" धनद् सेठने विक्रम के रूप, रंग और शरीर, अवस्था आदि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 371 सारी बाते बताई, तब अवंतीनिवासीयोंने निश्चय कर उत्तर दिया, “ये सभी लक्षण तो महाराजा विक्रमादित्य से ही मिलते है.” अतः उन्होने तो विक्रमादित्य के महल का रास्ता बता दिया. राजमहल के पास जाकर देखा तो सुसजित हाथी पर आरूढ हो कर स्वारी सामने आ रही थी, उसे देखते ही धनद् सेठने राजा को तथा राजाने भी धनद् सेठ को पहिचान लिया. हाथी पर से ही महाराजाने धनद् सेठ से पूछा, 'हे धनद् सेठ ! क्या आपने अपने पुत्र का विवाह कर लिया ?" इस प्रश्न को सुनकर धनद् को निश्चय हो गया, कि ये तो वही विक्रम महाराजा अबती नरेश हैं; मैं ने तो इनका महाराजा के योग्य कोई आदरसत्कार अपने घर नहीं किया, इस प्रकार मनमें उस को चिंतित देख कर महाराजाने कहा, "हे सेठ! आप क्यो चिंतातुर दिखाई दे रहे है ? आप अपने आने का कारण बतावें ?" तब उत्तर में धनद्ने अपने आने का कारण बताते हुए अपने पुत्र की शादी की बात सुनाई और कहा, "हे राजन् ! मैंने तो अपने घर पर आप का कोई योग्य सन्मान नहीं किया. इस के लिए मैं आप से क्षमा याचना करता हूँ.” . इस प्रकार की बातों को सुन कर सभी मंत्री-अधिकारी - आदि उस सेठ को देखने लगे और उसका परिचय जानने . के लिये उत्सुक होने लगे. यह जान कर विक्रम महाराजाने अपने पूर्व चरित्र को दोहराते हुए चैत्रपुर में जाने और धनद् P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 . विक्रम चरित्र सेठ के अतिथि बनने की बातें कह सुनाई. बाद में धनद्ने महाराजा से निवेदन किया; " मैं अपने घर में आप के पधारे विना अपने पुत्र की शादी नहीं करूंगा, अतः आप शीघ्र ही अपने परिवार के साथ पधारें.” उत्तर में विक्रमादित्यने कहा, "हे धनद् ! मेरे पूरे कुटुम्ब लावलश्कर के साथ चलने से तुमे व्यवस्था आदि में काफी धन खर्च करना होगा." धनद्ने उत्तर दिया, “हे राजन् ! आप इसकी चिंता न कीजिये. मैं आप के गौरव के अनुसार आपका अवश्य ही सत्कार करुंगा, आप सपरिवार अवश्य पधारिये." - महाराजाने धनद् को आश्वासन दे कर रवाना करते हुवे कहा, " मैं यहां का प्रबन्ध कर अपने परिवार और लश्कर' सहित आता हूँ. आप चल कर कार्य प्रारंभ कीजिये." .. इस प्रकार धनद् अपने नगर में पहुँचा. धनद् सेठने शीघ्र ही अपने घर से बहुत साधन-सामग्री लेकर, महाराजा विक्रम के आने के मार्ग में भोजन, विश्रामस्थान आदि की उसने सुन्दर व्यवस्था की, इस प्रकार की व्यवस्था देख राजा "विक्रम भी आश्चर्य चकित हो गये. सेठने अपने नगर-चैत्रपुरी में भी महाराजा के ठहरने का और भोजन सामग्री, पीने का जल आदि की बहुत उत्तम व्यवस्था कर रखी. जब महाराजा विक्रमादित्य भी अपने वचनानुसार पधारें, तब धनद् सेठने - खुब धन खर्च कर प्रदेश उत्सव करके अपूर्व सत्कार किया. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित 373 चैत्रपुर की सारी जनता भी ताज्जूव हो गई और सेठ की उदारता की प्रशंसा करने लगी. जैसे चन्द्र विकासी कमल-कुमुदीनी चन्द्रमा को देख खिल उठती है उसी प्रकार सपरिवार विक्रमादित्य महाराजा को देख धनद् अति प्रसन्न हुआ. धनद् सेठने स्वादिष्ट भोजन पेयपान, वस्त्र, आभूषण आदि से महाराजा का अपूर्व स्वागत किया. महाराजा के आने के पश्चात् सारे नगर को तोरणपताका-आदि से सज्जित कर 'शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में 'विवाह का कार्य प्रारंभ किया गया, निश्चित समय पर वरात रवाना हुई; वर अपूर्व सुसज्जित रथमें बैठा था, विक्रम महाराजा अपने शस्त्रादि से सज्जित हुआ, और पूरे लश्कर के साथ होने से बरात की शोभा और भी जादा बढ़ गई. धनद्कुमार का छठी का जागरण की बात पूर्ण स्मरण के कारण कर्म-अधिष्टायक देवी-विधाता के लेख के अनुसार कोई वाघ वरको / न मार दें इस से सचेत-सावधान होकर महाराजाने लश्कर को ढाल, तलवार आदि नाना प्रकार के हथियारों से सुसज्जित कर वर-धनद्कुमार की रक्षा के लिये चारों ओर कड़ा पहरा का बंदोबस्त लगा दिया. धनद्कुमार-वर महाराजा आदि से रक्षित होता हुआ, ठीक समय पर विवाह मंडप में पहूँचा. वहाँ विधिविधानपूर्वक विवाह कार्य होने लगा, बरात में आये हुए लोग भी मंडप में अपने अपने योग्य स्थान पर बैठ गये; उस समय भी महा P.P.AC.Gunratnasuri-M.S. Jun Gun Aaradhak Trust . Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 विक्रम चरित्र राजा स्वयं अपने ढाल, तलवार सहित कई सेवकों के साथ वरकी रक्षा करने लगे. / * मंडप में सुचारू रूप से विवाह विधि चल रही थी, मंडप में चारो ओर आनंद का वातावरण दिखाई दे रहा था; सब की मुखमुद्रा प्रसन्न थी; धनद् सेठ के स्वजन लोग और सारा परिवार अपार आनंद मना रहा था, उसके बीच में वर के पास में रक्षण के लिये खड़ा रहा हुआ सैनिक की ढाल में एकाएक अचानक वाघ का रूप उत्पन्न हुआ और धनद्कुमार रूप उस वर को क्षण मात्र में मार डाला. - अपने प्यारे पुत्र को मरा हुआ देख धनद् सेठ बेहोश / हो गया, और सेठ का सारा परिवार बहुत दुःखी हो गया, क्षणभर में ही नगरी की जनता में शोक का बादल फैल गया. . यह तो निश्चित है कि अपने पुत्र के मृत्यु पर किसे दुःख नहीं होता, नीति में भी कहा है कि पिता, माता, पुत्र, पुत्री, पत्नी, भाई और मित्र आदि सगे सबंधियों के वियोग से मनुष्य को बहुत दुःख होता है.x महाराजाने शीघ्र :अपने सेवकों के द्वारा सेठ को शीतोपचार आदि प्रयोग से सावधान किये, और सेठ को आश्वासन दे शान्ति पहँचाई, बाद में महाराजाने कहा, " मुझे तो पहले से ही यह मालूम था, क्यों कि, छठीका जागरण के . X पितृ मातृ सुता पुत्र, पनि, वन्धु सु हृत्सताम् / वियोगे जायते दुःख, मानवनां भश हृदि // सं. 10/298 / / .P.P.AC.Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EEN. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. ENSE SONILI 4U DHARU 202 HINT 306 HCCI ASTRA RAVETAS ETA CHAR प KE Jun Gun Aaradhak Trust waz सैनिक कि ढाल में एकाएक वाघ का रूप उत्पन्न हुआ और धनद्कुमार रूप उस चर को क्षणमात्र में मार डाला. पृष्ट 374 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित दिन मैंने कर्म अधिष्टात्री विधाता-देवी से जान लिया था इसी लिये मैं इन की शादी में आने का स्वीकार किया था, और आप के पुत्र के संरक्षण के लिये मैं अपने साथ कई सैनिक आदि भी लाया था, बहुत व्यवस्था करने पर भी विधाता से लिखा लेख अन्यथा नहीं हुआ. क्या करें ?" ईस प्रकार महाराजा धनद् सेठ को धैर्य देकर समझाते थे, पर धनद् सेठ अपने प्यारे पुत्रके वियोग से अति शोकातुर हो बहुत दुःखी होता था; और पुत्र के साथ साथ मरने की अभिलाषा करता था; विक्रम राजा अपने मित्र की यह दारुण दशा देख स्वयं भी बहुत दुःखी होता हुआ अपनी तिक्ष्ण तलवार म्यान से निकाल कर दैव-विधाता के प्रति वोला, " हे दैव-कर्म अघिष्टात्री देवी! यदि धनद् सेठ का पुत्र पुनः जीवित नहीं होगा तो, मैं यहां ही अपना बलिदान करूँगा." महाराजा का इस प्रकार का साहस देख उसी समय कर्म-अधिष्टात्रीदेवी प्रगट हुई, शीघ्र ही महाराजा की तलवार पकड़ ली और बोली, "हे राजन् ! ईस श्रेष्टिपुत्र को मैं किस तरह जीवित करूँ? क्योंकि ईस श्रेष्टि पुत्रने पूर्व जन्म में केसरी सिंह को मारा था, और आज उसी सिंह के जीवने इनको मारा है; ईसमें किसीका दोष नहीं, जैसा कि विद्वानोने कहा है 'दानव देव भूप मानव हो या गंधर्व यक्ष विकराल, पाप कर्म का भोग भुगाकर सबको करता वश में काल.' P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 विक्रम चरित्र जो जो जीवने अपने शुभ या अशुभ कमें किये गये हो, उसे भोगे विना उस पुण्य-पाप से छूटकारा किसी भी दशा में नहीं होता है." कर्म की तो गति ही विचित्र है, ईस में दूसरी व्यक्ति क्या कर सकती है ? कर्म और काल का तो नियम अटल हैं. ईस के आगे किसी का कोई उपाय नहीं चलता, जैसे जिस ब्रह्मा को संसार रूपी पात्र बनाने में कुम्भार के समान नियंत्रित किया है, रुद्र को कपाल-खोपरी जैसी अपवित्र वस्तु हाथ में लेकर भिक्षा मांगने के लिये विवश किया हे, दशावतार रूप आवागमन से विष्णु को जिसने हमेशा संकट में डाल रखा है, सूर्य को भी आकाश में ही नित्य घूमने को नियत किया है, ऐसे कर्म को मेरा नमस्कार है." यह सब सुनकर राजा विक्रमादित्यने विधाता से कहा, "हे देवी! ईस धनद् के पुत्रने पूर्व जन्म में जो सिंह को मारा था, उस संबंधी पाप कर्म तो ईस के मरने से अब नष्ट हो गया हैं, कारण कि उसी पाप से यह अभी मरा है, अब तुम ईस को पुनः जीवितदान दे दो, अन्यथा म x ब्रह्मा येन कुलालवनियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे, रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटन कारितः; विष्णुयेन दशावतारगहने क्षिप्तो महासकटे, . सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे. // स. 10/306 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust . . Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 377 अपना प्राण त्याग दूंगा. ईस प्रकार महाराजा के निश्चय को देख विधाताने उस धनद् पुत्र को पुनः जीवित कर दिया, और क्षण में देवी अलोप हो गई. ईस प्रकार राजा विक्रमादित्य के प्रयत्न से धनद् कुमार को जीवित देख सभी लोग प्रसन्न हो गये. सच है, रणमें, वनमें शत्रुओं के वीचमें, जलमें, अग्निमें, पर्वत की चोटी पर, नीदमें हो या जागता हो, किसीभी विषम स्थानमें हो तो भी अपने प्रबल पुण्य प्रभाव उपरोक्त परिस्थितियों से रक्षा होती हैं. ईस प्रकार महाराजा विक्रमादित्य के अपूर्व साहस द्वारा पुनः जीवित कराये गये, पुत्र का धनद् सेठने पुनर्जन्म का बहुत आडम्बर से महोत्सव मनाया और लोगों को बहुतसा दान दिया. बड़ी धामधूम से पुत्र की शादी निर्विघ्न सानंदसंपन्न होने पर महाराजा विक्रम का बहुत बड़ा उपकार मान उन्हों को धन्यवाद देता हुआ महाराजा को तथा उनके परिवार आदि सेवक लोगों को वस्त्रालंकार से सन्मानित कर विदाई दी. __महाराजा अब वहाँ से प्रस्थान कर अपने लाव-लश्कर सहित अवंती की ओर चले, क्रमशः अवतीनगरी में पधारे और अपना राज्यकार्य संभाला-चलाने लगे. "जो पराये काम आता, धन्य है जगमें वही; द्रव्य ही को जोड़कर, कोई सुयश पाता नहीं." पाठकगण! आपने इस प्रकरण में महाराजा विक्रमादित्य का विदेश Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 विक्रम चरित्र भ्रमण के लिये निकलने का तथा धनद् सेठ से उसका परिचय होने आदि का हाल पढ़ा ही है. महाराजा द्वारा कम अधिष्टात्री देवी-विधाता से मिलकर उस सेट के पुत्र के भाग्य-लेख का हाल मालूम कर उसकी मृत्यु का कारण जान कर ठीक उस की मृत्यु के समय विवाह कार्य में उपस्थित होकर अपने प्राणों का बलिदान देने तक की तैयारी प्रदर्शित कर संसार में परोपकार का एक अद्भुत उदाहरण उपस्थित करने आदि . . का रोमांचकारी हाल पढ़ ही लिया है. आशा है, आप लोग भी विक्रम महाराजा के चारत्र से परोपकार का पाठ लेगे. __अब आप आगामी प्रकरण में महाराजा का मणि का मूल्य कराना आदि रोचक कथा पढेगें. प्रथम तीर्थकर भगवान श्री आदिनाथ प्रथमावृत्ति अति अल्प संमयमें खतम हो जानेके कारण द्वितीयावृत्ति मुद्रित की गई हैं ! जिसमें परमात्मा श्री ऋषभदेव के समयमें हुए युगलिये कैसे थे, उस समय जनता व्यवहारसे अनभिज्ञ थी, उन लोकों को परमात्मा श्री ऋषभदेवने कौनसी 2 कलाएँ शिखाई, उनमें धर्मका प्रभाव और प्रचार किस तरह किया, उन के पूर्वभव भी अच्छी तरह बतलाये, उनके पुत्र परिवार भरत, बाहुबलि आदिका रोचनीय वर्णन और अक्षयतृतीया पर्व की उत्पत्ति किस कारणसे हुई, यह सब वृत्तान्त आपको अच्छी और सरल भाषामें बोधदायक सुहावने चित्रोंके साथ पढने के लिये प्रकाशित किया है / पृष्ठ 272, 40 मनोहर चित्र, मूल्य मात्र 2-8-0 प्राप्तिस्थान : जशवंतलाल गिरधरलाल शाह C/o जैन प्रकाशन मन्दिर, 309/4 डोशीवाडा की पोल, अमदावाद P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TGAO : ईक्कावनमाँ-प्रकरण रत्न प्राप्ति व उसका मूल्यः " किंमत घटे नहि वस्तु की, भाखे परीक्षक मूल; . 'जैसा जिसका पारखा, वैसा करे मणिका मूल." .. ... महाराजा विक्रमादित्य अपनी राजसभा में अपने अंतुल। बुद्धिमान, बलशाली और चतर सभासदों के साथ सभा की शोभा बढ़ा रहे है. कालीदास जैसे महान् कवि के साथ नौ रत्न .. अपनी बुद्धि से मालवपति महाराजा की कीर्ति दिगन्त में फैला रहे हैं. सामने सुन्दर बत्तीस पुतलियों वाले सिंहासन पर महाराजा विक्रम विराज रहे है. उसी समय एक वणिक् ने सभा में प्रवेश किया, और सारी सभा को दिखाते हुए महाराजा के सन्मुख एक रत्न प्रस्तुत किया.. यह रत्न बड़ा ही प्रकाशमान था, और देखने से अमूल्य सा प्रतीत होता था. उस रत्न को देख महाराजाने उस वणिक से प्रश्न किया, “हे वणिक ! तुम्हे यह रत्न कहाँ से मिला है ? ".. .. वणिक-महाराज! मुझे यह रत्न खेडते हुए खेतमें से मिला है... महाराजा--क्या तुम्हे ईस रत्न का मूल्य मालूम है ? वणिक-जी नहीं ! मुझे इस का मूल्य मालुम नहीं है. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 विक्रम चरित्र यह उत्तर सुन कर महाराजाने अपने सेवकों को भेज कर नगरी के प्रमुख जौहरी लोगों को रत्न की परीक्षा के लिये बुलाया. राजाज्ञा के अनुसार सभी प्रमुख जौहरी राजसभा में उपस्थित हुए. .. महाराजाने उन जौहरी लोगों को वह रत्न दिखा कर कहा, "आप लोग इस रत्न को देखिये और ईस की परीक्षा कर ईस रत्न का मूल्य मुझे बताईये.” . काफी समय तक सभी उपस्थित जौहरी लोगोंने उस रत्न को भली भाति देखा, परन्तु कोई भी उस रत्न का मूल्य नहीं बता सका, काफी समय होने पर भी सभी को चुप देख PARAN (PE0 AN Hors / PANE AALAN PM M MJn जौहरी मणि रत्न देख रहा है. चित्र नं. 11 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 381 महाराजाने पुनः पूछा, “आप लोग चूप क्यों है ? आप मणि रत्न का मूल्य शीघ्र बतावें." महाराजा के ईस प्रश्न के उत्तर में एक चतुर जौहरीने उत्तर दिया, “हे राजन् ! हम लोग तो ईस रत्न का मूल्य नहीं बता सकते है, अगर आपको ईस रत्न का मूल्य जानना ही है, तो आप पाताल के राजा बलि के यहाँ पधारें, क्यों कि बलि राजा रत्नों के उत्तम परीक्षक हैं; वही आपको इस रत्न का यथार्थ मूल्य बता सकेगा दूसरों की ताकात नहीं. हमने तो आज तक न तो इस प्रकार का अपूर्व रत्न देखा है और न सुना ही है, फिर आप ही कहिये कि हम इस का मूल्य कैसे बता सके ?" इन लोगों से इस प्रकार का निराशाजनक उत्तर सुन कर महाराजाने उस रत्न की परीक्षा कराने का निश्चय किया, रत्न लाने वाले वणिक को कहा, "मैं इस रत्न की परीक्षा कराने पाताल में जाऊँगा, तुम अपने रत्न को दो दिन के लिये . मेरे पास ही रहने दो.” वणिकने वह रत्न महाराजा को सौंप दिया और अपने घर गया. वणिक से रत्न लेकर महाराजा विक्रमादित्य अग्निवैताल की सहायता से पाताल में पहूँचे, वहां जाकर वह राक्षसाधिराज बलि के महल में गये; राजमहल के द्वार पर कृष्ण नामक एक द्वारपाल खड़ा था, उस द्वारपालने महाराजा से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 विक्रम चरित्र कहा, “आप कौन हो ? किस कार्य के लिये आपका यहां आना हुआ है ?" . विक्रमने कहा, "मै वलि महाराजा के पास सब कहूंगा हे द्वारपाल ! तुम अपने स्वामि से जाकर कहो कि आपसे मिलने के लिये एक राजा आया है." यह सुन कर द्वारपाल महाराजा बलि के पास गया, और नमस्कार कर अपने स्वामि से निवेदन किया, " हे राजन् ! प्रवेशद्वार पर कोई राजा आया है, वह आपसे अभी मिलना चाहता है. उन को अंदर प्रवेश करने दूं या नहीं ?" बलि राजाने द्वारपाल को कहा, "तुम उससे जाकर पूछो कि क्या आप राजा युधिष्ठिर है ? " राजा बलि की आज्ञा पाते ही द्वारपाल लौट कर दरवाजे पर आया और उसने विक्रम से कहा, “क्या आप राजा युधिष्ठिर है ?" "ना, बलि राजा से जाकर कहिये कि मंडलिक आया है." ऐसा विक्रमने द्वारपाल से कहलाया. तब द्वारपालने बलिराजा के पास जाकर कहा, "वह अपने को मंडलिक कहता है." यह सुन बलिराजाने द्वारपाल से कहा, “तुम जाकर उस से पूछो कि क्या आप मंडलिक याने दशमुख-रावण है ?" - तब कृष्ण सेवकने दरवाजे पर आकर उस से पूछा, " क्या आप राक्षसाधिपति-रावण है?" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित 383 ' तब विक्रमने कहा, "ना, मैं महाराजा राम का भक्त सेवक हूँ.” द्वारपालने पुनः जाकर बलि राजा से कहा, "वह महाराजा राम का भक्त सेवक हुँ, ऐसा कहता है." तब बलिराजा ने उस द्वारपाल से कहा, " तुम जाकर पूछ कर आओ कि क्या तुम हनुमान हो ?" द्वारपालने फिर दरवाजे पर आकर उस को पूछा, “क्या आप हनुमान है ?" तब विक्रमने कहा, “ना, मैं कुमार हुँ; बलि राजा के पास कुछ कार्य के लिये आया हूँ.” यह उत्तर सुन पुनः बलि राजा के पास जाकर उसने निवेदन किया, "वह आनेवाला अपने आप को कुमार बताता है.” तब बलि राजा बोला, “क्या पार्वतीपुत्र-पॅड़मुख कुमार है ?" द्वारपाल : वापिस लौट कर आया और पूछा, “क्या पार्वतीपुत्र-छे मुखवाले कुमार हो ?" उत्तर में विक्रमने कहा, "मैं शंकरसुत कार्तिकेय नहीं हुँ ! मैं तो वर्तमान काल में पृथ्वी का रक्षण करनेवाला कोटवाल हुँ.”. यह सुन कृष्ण-द्वारपालने आकर बलि राजा से निवेदन किया, " वह तो अपने को कहता है, म वर्तमान में पृथ्वी का रक्षक-तलार-कोटवाल हूँ.” यह सुन कर बलिराजा विस्मय होते हुए विचारने लगे, 'वह पृथ्वीका राजा कहीं विक्रमादित्य तो नहीं हैं. ऐसा सोच कर अपने कृष्णद्वारपाल से कहा, "यह काव्य उन्हें सुनाकर जो उत्तर दे वह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 विक्रम चरित्र शीघ्र ले आओ.x द्वारपालने वह काव्य विक्रम को सुनाया"धर्मराज या दशमुख अथवा हनुमान या षण्डमुख; अथवा विक्रमार्क भूपति ! जो आया मेरे घर मुख." उत्तर में विक्रमने द्वारपाल द्वारा एक काव्य बलि राजा से कहलाया, "हे राजन् ! उन्होंने पूछने पर ईस प्रकार .. उत्तर दिया है." “राजा हूँ मैं मंडलिक हूँ, भक्त रामनृप शीतल का; समझ कहो कुमार मुझे नृप-या तलार पृथ्वीतल का." द्वारपाल के द्वारा लाया गया विक्रम राजा का काव्य से उत्तर सुन बलि राजा को निश्चय हो गया कि, वह पृथ्वी का राजा विक्रमादित्य ही है, अतः उसे आदर सहित अंदर लाने का आदेश दिया. द्वारपाल भी बलि राजा के आदेश से राजा विक्रमादित्य को आदर और सन्मानपूर्वक राजमहल में ले आया. - * बलिनोक्तं सूक्तम्-धर्मपुत्रो दशमुखो हनुमान् षण्डमुखः पुनः / विक्रमार्क इति पृष्ठ बलिना हरिसंनिधौ // स. 10/329 // विक्रमोक्त सूक्तम् राजाऽहं मंडलिकोऽहं वठोऽहं रामभूपते / कुमारोऽहं तलारोऽई द्वारस्य जल्प बलेः पुरः / / स. 20/328 / / Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 385 विक्रमादित्य को आते हुए देख, बलि राजाने कुछ सामने आकर उन का बड़ा आदर-सत्कार किया. आसन पर बैठा कर, कुशल समाचार की पृच्छा करने के पश्चात् आने का कारण पूछा. उत्तर में विक्रमादित्यने कहा, “हे राजन् ! मैं आपके पास एक रत्न की परीक्षा कराने के लिये आया हूँ.” यह कह कर अपने पास का वह रत्न बलि राजा के सामने रख दिया. राजा विक्रम से लाया हुआ उस रत्न को हाथ में लेकर देखा तब बलि राजा बहुत विस्मित हुआ और कहने लगे, “ईसः .. अपूर्व रत्न का मूल्य कोई नहीं कह सकता." . विक्रम-हे राजन् ! यह अमूल्य रत्न कहाँ से आया ? ____बलि राजा-पूर्व काल में-आज से 84 हजार वर्ष के पहले अयोध्या नगरी में सत्यवादी, धर्मात्मा, धर्म-कर्म कुशल आदि अनेक गुणों से युक्त युधिष्ठिर नामका राजा. राज्य करते थे; धर्म कृत्य में सदा तत्पर युधिष्ठिर महाराजाः न्याय नीतिपूर्वक राज्य चलाते थे और प्रजा का पुत्रवत् पालनः करते थे. एक दिन महाराजा के सत्यवादिता आदि उत्तमः गुणों से वरुणदेव प्रसन्न होकर उन्हे-युधिष्ठिर को बहु मूल्य-. वान अपूर्व बहुत से कोटि अयुत असंख्य रत्न दिये और युधिष्ठिर . महाराज की प्रशंसा कर वरुणदेव अपने स्थान. चले गये. / धर्मात्मा युधिष्ठिर ने राजा वरुणदेव से दिये गये उन सब अपूर्व रत्नों का उपयोग अपनी प्यारी प्रजा के कार्यो में तथाः .. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 'विक्रम चरित्र दीन-दुःखी को दान में ही किया. ईस प्रकार उस परोपकारी कार्यो में दिये गये रत्नों में से गिरा हुआ, यह एक अपूर्व रत्न है, वही रत्न आपके हाथ में आया हैं; हे राजन् ! ईस अलौकिक-श्रेष्ट रत्न का मूल्य क्या बताऊँ ? ईस अपूर्व रत्न का मूल्य कोई नहि कह सकता है." __ महाराजा विक्रमने बलि राजा का उत्तर सुन कर उनसे पुनः निवेदन किया, “हे राजन् ! यह तो मैं भी मानता हूँ कि वास्तव में यह रत्न अमूल्य है पर आप वर्तमान समय' को देख ईस का कुछ न कुछ तो मूल्य बता दीजिये. ताकि मुझे इस से कुछ शांति मिले." . महाराजा विक्रम की मूल्य जानने की इस प्रकार की प्रबल इच्छा को देख कर बलि राजाने उस रत्न का मूल्य तीस करोड सुवर्ण-मुद्रा सोना महोर बताया यह सुन * महाराजा विक्रम भी अत्यंत चकित हुए पर अपना . मनोरथ सिद्ध जान कर प्रसन्नतापूर्वक बलि से विदा लेकर वैताल सहित अपनी नगरी में पधारे. अवती में आ कर महाराजाने उस वणिक को बुलाया और अपनी राजसभा में 'उस वणिक से उस रत्न का मूल्य बता कर वणिक् को तीस.. : करोड सोना महोर के साथ साथ दस गाँव और पांच मनोहर घोडे इनाम देकर आदरपूर्वक विदा किया. अब महाराजा विक्रम भी अपने राज्य को पूर्ववत् चलाने लगे. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 387. ___ पाठकगण ! आपने महान् परोपकारी विक्रम महाराजा का पाताल में राक्षसाधिराज बलि राजा के पास में जाकर उस अमूल्य रत्न के मूल्य का पता लगाना तथा युधिष्ठिर जैसे महान् सत्यवक्ता-धर्म निष्ट की कथा श्रवण कर उनके परोपकार की प्रशंसा का परिचय किया और महाराजा विक्रमने लौट कर वणिक को उस रत्न का मूल्य दे कर संतुष्ट करने आदि हाल आर भली भाँति जान गये होगे. . अब आप आगामी प्रकरण में विक्रमादित्य राजा का सौभाग्यमंजरी और गगनधूलि से परिचय कर तथा उनकी * रोमांचकारी कथा का हाल पढ़ेगे. . - - શ્રી નેમિ-અમૃત-નાન્તિનિજન સંઘમાળા ગયા-૧૮) # मा પંચમીનો મહિમા म्य EVAN / M OOOONDARICORDARTHra अपने वालकां को पढाईए ज्ञानपंचमी महान् पर्व का इतिहास, उस पर्वकी महिमा, વરદત્ત-ગુણમંજરી सूचक दो कथा एवं ज्ञान की महत्ता, ज्ञान आशातना से होने वाले गेरलाभ इत्यादि सुदृढ संस्कारों को पोषण करनेवाली और हर्षपूर्वक पढे एसी सरल शैलों में तैयार की गई हैं। 6 मनोहर चित्रो सहित पृष्ठ 72, किंमत आठ आने प्राप्तिस्थानः-जैन प्रकाशन मन्दिर, 309/4 डोशीवाडानी पोल, अमदावाद. . IRMAN-माती tar-AAAAAB P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... बावनवाँ-प्रकरण एकदण्डिया राजमहल " अन्तर अंगुली चारका, साच झूठ में होय; सब मानत देखी करी, सुनी न मानत कोय." एक दिन की बात है कि महाराजा विक्रमादित्य प्रजा के सुख-दुःख की जांच करने के उद्देश्य से गुप्त वेश में अपनी नगरी में परिभ्रमण कर रहे थे. अंधकारमय रात्रि थी, सारी नगरी को प्रजा निद्रा की गोद में सोने की तैयारी कर रही थी. ऐसे समय में महाराजा अकेले गली गली में घूम रहे थे. उस समय घरके चोतरे पर दो कन्याएँ आपस में वार्तालाप कर रही थी, महाराजा मकान की ओट में खड़े रह कर चुपचाप, उन दोनों की बातें सुनने लगे, उन दोनों कन्या में से सौभाग्यसुंदरी नाम की कन्या बहुत चतुराई से बात करती थी, वह अपनी सखी से पूछने लगी, "हे सखि ! तेरे पिताजी तेरी शादी करेगें, और जब तु ससुराल जायगी तब वहाँ कैसे रहेगी ?" उसके उत्तर में कहा, "मैं जब ससुराल जाऊँगी वहाँ अपनी सासससुर और अपने पतिदेव आदि सभी का विनयपूर्वक सदा सेवा करुंगी, यही स्त्रीका आचार है, और क्या ?" यह सुन कर सौभाग्यसुदरी बोली, “वाह ! ठीक है, स्त्री गुलाम की तरह घर में सभी की सेवा चाकरी किया करे! और क्या करे ?" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 389 सौभाग्यसुदरी के प्रति उस की सखी बोली, " तुम भी तो बता कि, तु ससुराल जा कर क्या करोगी ?" सौभाग्यसुंदरी-हे सखि ! जब मेरी शादी पिताजी कर देंगे तब मैं अपने सुसराल जा कर अपने पति को धोखा दे कर मनपसंद पुरुषके साथ प्रेम करूँगी और मौजविलास से समययापन करूँगी. दोनों कन्या की इस प्रकार बातें सुन कर महाराजा विक्रमादित्य बड़ी दुविधा-असमंजस में पड़ गये. मन ही मन स्त्रीसमाज की प्रशंसा और कपटलीला की बातें सोचने लगे; कारण कि उनके सामने दोनों ही उदाहरण प्रस्तुत थे, चलते चलते काफी विचार विमर्श के बाद महाराजाने निश्चय किया कि, किसी भी प्रकार सौभाग्यसुदरी को अपनी बनाना चाहिए और उस की स्त्रीलीला को अवश्य देखना चाहिए. अतः उन्होंने अपनी इच्छा को प्रातः ही कार्य रूप में परिणित करने का निश्चय किया, बाद में महाराजा अपने महल में आकर सो गये. प्रातःकाल होते ही मंगल शब्दों से उठकर नित्य कार्य और देव दर्शन-पूजा पाठ कर महाराजाने अपने सेवकों को बुला कर रात की सारी बाते उन्हे कह सुनाई और आदेश दिया, “तुम सौभाग्यसुंदरी के पिता को मेरे पास बुला लाओ." साथ ही महाराजने उन्हे रात्रि के अपने अनुमान : Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 विक्रम चरित्र आदि से स्थान-गली का संकेत बता दिया ताकि मकान का पता लगाने में सुविधा रहे. महाराजा के आज्ञानुसार दूतगण-सेवक लोगने बताये गये संकेत के आधार पर जाकर शोघ ही सौभाग्यसुदरी के पिताजी का मकान खोज लिया वहाँ पहूँच कर उन्होंने उस के पिताको महाराजा का आदेश सुना कर राजाजी के पास चलने के लिये कहा. यह सुन सौभाग्यसुदरी का पिता प्रथम तो व्याकुल सा हुआ, दूतों के आग्रह से उन्हों के साथ ही रवाना होकर महाराज की सेवामें उपस्थित हुआ. वहाँ आकर उन्होंने महाराजा से नमस्कारपूर्वक निवेदन किया, “हे राजन् ! ईस सेवक के लिये क्या आज्ञा है ? फरमाईये मैं हाजिर हुँ.”. . महाराजाने कहा, " सेठजी! क्या आप की पुत्री का नाम सौभाग्यसुंदरी है ?" “जी हा." सेठजीने कहा. बाद में महाराजाने सेठजी से कई प्रकार कि बातें कर के आखिर में महाराजाने बातों बातों में सेठजी से कहा, "आप की पुत्री के साथ विवाह करने की मेरी इच्छा है." पहले तो सेठजीने आना-कानी की पर महाराजा के विशेष आग्रह को वह न टाल सका और अन्त में महाराजा की इच्छा स्वीकृति कर धमधामसे शादी की. उस सेठजा पर प्रसन्न होकर महाराजाने उसे बहुतसा धन दिया. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 391 महाराजाने अपने पूर्व निश्चय के अनुसार उस की लीला देखने के हेतु, नगरी से कुछ दूरी पर सौभाग्यसुदरी के लिये एक स्थभवाले महल में रहने की सब व्यवस्था कर दी. साथ ही उसके चरित्र को देखने के लिये उस महल पर गुप्त पहरा लगा दिया, समय बीतने लगा, अवसर देख महाराजाने एक दिन सौभाग्यसुंदरी से आनंद-विनोद करते करते, पूर्व बात का स्मरण कराते हुए कहा, " हे सौभाग्यसुंदरी! अब तुम अपनी प्रतिज्ञा को पूरी करो." यह सुन वह विस्मयसी होकर बोलो, " पतिदेव ! आप कौनसी प्रतिज्ञा के लिये कह रहे हो ?" महाराजाने कहा, " अपनी शादी के पहले एक रात्रि में जो कि तुमने अपनी सखी से कहा था, 'मैं अपने पति को धोखा देकर मनपसद-परपुरुष के साथ प्रेम करूंगी.” ये सब बातों का स्मरण होते ही सौभाग्यसुंदरी कुछ लजित हुई; किन्तु उसने मनमें निश्चय किया, " यह प्रतिज्ञा पूर्ण कर के दिखाऊँगी.” उसने परस्पर चलती हुई बात में उपरोक्त बात टाल दी. समय बीतने लगा, महाराज भी राज्य के अन्यान्य कार्यो में रहते थे, सौभाग्यसुदरी अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने की फिकर में थी; और महाराजा भी उसकी कामलीला देखने चाहते थे, इस लिए उसकी आर पूर्ण संभाल रखते थे. ओक बार अवंती नगरी में एक व्यापारी आया, जिस को लोग गगनधूली के नाम से बुलाते थे; वह प्रतिदिन अपने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 विक्रम चरित्र व्यापार के निमित्त शहरमें चक्कर लगाया करता था, और प्रायः वह एक स्थंभवाले महल के पास होकर ही निकलता था, इस प्रकार प्रतिदिन उस को पालखी में बैठ कर निकलते हुए देख सौभाग्यसुंदरीने उसका रूप, सुंदरता और चतुराई से आकर्षित होकर एक दिन अवसर पाकर एक पत्र में कुछ. लिख कर पानके बीड़े में रख कर उसकी पालखी में फेंका-डाल दिया. उस पत्र का आशय इस प्रकार था. "हे नर श्रेष्ट ! मैं आपकी सुन्दरता पर अत्यन्त मोहित हुँ, मेरी प्रीति आपके प्रति जागृत हो उठी है, अतः तुम ":. -. ":A L : vvv - - w -i .... R LATERY स Vvvvv Hymnt भारपाय Kinam 4TAALATHLETICKNAK GIRamype AURAVANAVANA SANTOTHAINDA )// सौभाग्यसुदरी और गगनधली की परस्पर चारों आंखो का मिलना। / चित्र नं. 12 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित अपनी चतुराई से मेरे पास आकर मुझ से प्रीति करो. अन्यथा मैं तुम्हारे वियोग में अपने प्राण को त्याग दूंगी." यह पत्र पढ़ कर वह व्यापारी चकित हो गया, और तुरंत ही ऊपर देखा तो झरुखे में सौभाग्यसुदरी पर उसकी दृष्टि पड़ी, दोनों की चारों आंखे से मिलना हुआ और सौभाग्यसुदरी का रूप देख वह भी उस पर आसक्त हो गया. अब वह गगनधूली उस सौभाग्यसुदरी के पास पहूँचने का उपाय सोचने लगा. अपने मुकाम पर आकर उसने अपने . मनकी बात मित्र से कही, मित्रने उस को महल पर चढ़ने का उपाय बता दिया.. मित्र के कथनानुसार वह उसी दिन बाजार से एक गोहगोधा और रेशम की डोरी खरीद लाया. उसने सारी तैयारी कर ली, और मनमें सोचने लगा कि, अब मेरी सब कामनाये पुरी हो जायेगी, थोड़ा सा दिन बाकी था, वह कव पूर्ण होवे और कब रात हो जाय, ताकि शीघ्र सौभाग्यसुंदरी से * . मेरा मिलन हो जाय, एक-एक क्षण भी युग की तरह वीत रही थी, रात हुई. सर्वत्र अंधेरा फैल गया, एक पहोर रात चीतने पर गगनधूली अपने स्थान से एक स्थभिया महल की ओर चला; पहरेदारों से अपने को बचाता हुआ, महल के समीप आया, गोह की कमर में रेशमी डोरी बांध उसे महल की दीवार पर फेंका. गोह दीवाल से चिपट गयी. गगनधूली सेठ उस डोरी के सहारे उपर चढ़ महल पर पहूँच Jun Gurr Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरि गया. इस प्रकार वह बाद मैं रोज आनेजाने लगा. मैं दोनों में प्रगाढ़ प्रेम हो गया. ___ राजा विक्रमादित्य भी यहां समय समय पर आतेजा थे. एकबार उन्होंने अपने साथ का दिनों दिन के प्रेम में अंत पाया अर्थात् प्रेम व्यवहार दिनों दिन कम होने लगा. अत उसकी जांच करने का महाराजाने निश्चय किया. अंत वह सौभाग्यसुंदरी के महल की वख्त वेवख्त एकाएक मुलाकात लेते थे, एक दिन अचानक महाराजा महल में अ पहूँचे. उस समय चारों ओर भोग सामग्री और पान-बीड़ आदि प्रत्यक्ष पड़े हुए देख कर, महाराजा मनमें सोचने लगे कि यहाँ कोई पुरुष अवश्य ही आताजाता हैं; आखिर में बहुत सावधानी से पता लगाने पर गगनधुली और सौभाग्यसुंदरी की प्रेमलीला रूप नाटक को संपूर्ण जान लिया. महाराजा मनमें विचारने लगे, 'अपनी घरकी बात बुद्धिमान मनुष्यों को कहीं प्रकट नहीं करनी चाहिए. कुलटा स्त्रीयों के लिये कहना ही क्या ? एक स्थल पर बताया है कि "सदा विचारते रहो क्षण क्षण पलटे रूप, नारी दोष अनेक है वे है माया स्वरूप." इस तरह विचार करते करते कोई एक दिन रातको उस एक स्थ भिया महल से कुछ दूरी पर, जंगल में एक जूना पुराणा दुटा हुआ खंडेर में कुछ प्रकाश दिखाई दिया, तब कुतुहल 17 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 395 महाराजने उस तरफ चल दिया, वहाँ जाकर भीत्ती के आड में खड़े होकर चुपचाप देखने लगे; तो वहाँ कोई आश्चर्यजनक बात दिखाई दी. एक जटाधारी योगीने अपनी जटामें से एक नवजवान कन्या को प्रगट की, और उस कन्या के साथ आनंद-विलास कर योगी सो गया. योगी के सो जाने पर उस कन्याने अपने लंबे लंबे बाल में से एक खुबसुरत मनुष्य को प्रगट किया, और उस मनुष्य के साथ उस कन्याने भी आनंद-विलास कर के मनुष्य को छिपा दिया. . यह सब आश्चर्यकारी वृत्तान्त देख महाराजा विक्रम मन ही मन चकित से हो गये. और सोचने लगे, 'नारी चरित्र की लीला तो अपार है, इस का पार कोई नहीं पा सकता है.' इस प्रकार वे विचार करते करते अपने राजमहल में जाकर सो गये. एक दिन महाराजा अचानक सौभाग्यसुंदरी के महल में . ऐसे समय पर पहूँचे, जब कि गगनधूली सौभाग्यसुदरी के साथ आनंद मना रहा था. महाराजा का आगमन जानकर शीघ्र ही सौभाग्यसुंदरीने उसे छिपा दिया, जब महाराजा महल में पहूँचे तब सौभाग्यसुंदरीने उन्हों का सुंदर स्वागत किया. इस महल में जाते समय महाराजाने अपने दृतों को संकेत बता कर उस खंडहरवाले योगी को इस महल में बुला लिया और सौभाग्यसुंदरी से आदेश किया कि आज तुम P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak'Trust Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र पांच मनुष्यों के लिये स्वादिष्ट भोजन सामग्री बनाओ और उन्होंके बैठने के लिये पाँच आसन भी लगा दो. योगी के आने पर उसे भोजन करने के लिए आसन पर बैठने को कहा, जब योगी आसन पर बैठ गये तब महाराजाने कहा, " हे योगीराज! आप योगिनी विना अकेले नहीं शोभते, अतः अपनी योगिनी को भी प्रकट करें.” योगी-हे राजन् ! आप क्यों मेरा अपमान करते हैं, मेरे पास योगिनी का क्या काम ? मैं तो स्वतः अकेला-अवधुत हूँ. महाराज-आप अधिक खुशामद न करावे, और शीघ्र ही योगिनी को प्रकट करें. योगी मनमें समझ गया कि राजा किसी ने किसी तरह से मेरी माया-जाल जान गया है, और राजा का विशेष आग्रह देख कर अन्त में योगिराज को योगिनी प्रगट करनी ही पड़ी. अर्थात् योगीने झोलिका में से एक योगिनी प्रगट कर दिखाई. महाराजाने उस योगिनी को पास में बैठा कर योगिनी से कहा, "हे देवी! आप भी तो कुछ चमत्कार दिखाएँ; जैसे कि योगीराजने अपने प्रभाव से तुम्हें प्रगट कर दिखाया है." __योगिनी-मैं कोई चमत्कार नहीं जानती हूँ. महाराजा-वाह ! यह कैसे हो सकता हैं, आप भी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gurt Aaradhak Trust Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित तो कोई न कोई को प्रगट करें. ..महाराज के इस प्रकार कहने से वह योगिनी भी मन में समझ गई कि पुरुष प्रगट करने की बात का पता महाराज को .. लग गया हैं. यह विचार कर, बिना आनाकानी किये शीघ्र ही उसने एक पुरुष को प्रगट कर दिया. .. ___तीन आसन पूरे हो गये और चौथे आसन पर महाराजा स्वयं बैठ गये, अब एक आसन को खाली दिखा कर महाराजाने सौभाग्यसुदरी से कहा, "हे प्रिये ! क्या तुम भी कोई पुरुष प्रगट कर सकती हो ?"" .... IPLITUDIO महाराजा एकदण्डयां महल में सौभाग्यसुदरी से कह रहे है. . चित्र नं. 13 सौभाग्यसुंदरी-महाराज! मैं कोई योगिनी थोडी ही Jun Gun Aaradhak Trust * P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र हूँ जो इस प्रकार चमत्कार बताऊँ. महाराजा-वाह ! क्या तुम इस आसन को याही खाली रखोगी ? अरे अपने प्रेमी गगनधूली को क्यों नहीं बुलाती ? राजा के यह शब्द सुनते ही वह स्तब्धसी हो गयी, प्रथम तो वह योगी और योगिनी की मायाजाल को देख आश्चर्य में डूबी हुई थी; मन ही मन सोचने लगी 'क्या करूँ !' आखिर में उसने अधिक समय न लगा कर छिपाया हुआ उस गगनधूली को वहाँ बुला लीया, गगनधूली अति स्वरूपवान था, उसको पांचवे आसन पर बैठाया, सभीने बड़े प्रेम से भोजन किया और बाद में महाराजाने कहा, “हे योगीराज! मैंने सौभाग्यसुंदरी को सखी से बातें करते * हुए सुन, उसकी परीक्षा के लिये यह सब रचना की हैं." कहते हुवे महाराजाने आदि से अंत तक का सब वृत्तान्त संक्षिप्त रूप से कह सुनाया. _____ महाराजाने सभी को अपराध की क्षमा प्रदान कर जीवितदान देकर पुनः योगा से कहा, “जब आप जैसे योगी भी स्त्रीचरित्र में फंस जाते हैं, तो इस सौभाग्यसुंदरी और मुझ जैसे की तो गणना ही कहा हैं ?" महाराजाने गगनधूली से पूछा, "हे श्रेष्ठीवर! आप मुझे बताईये कि आप इस नगरी में कबसे आये हैं ?" ___ गगनधूली-मुझे इस नगरी में आये छै मास हो गये हैं.” P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 399 गगनधूली के गले में मनोहर सुगंधी फूलों की माला देख महाराजाने पूछा, “आप के गले की यह माला कुम्हलाती क्यों नहीं हैं ?" उसके उत्तर में गगनधूलीने अपना वृत्तान्त कहना शरू किया, “हे राजन् ! चंपानगरी में एक धन नामका शाहुकार रहता था, उसकी धन्या नाम की स्त्री थी, उसे एक पुत्र हुआ, उसका नाम बड़े महोत्सव के साथ धनकेली रखा गया, जब वह पुत्र आठ वर्ष का होने पर उसे अनेक प्रकार की विद्याएँ पंडितों से पढ़ाई गई, उसने विनय सहित विद्याएँ ग्रहण की; क्रमशः उसने यौवनावस्था में प्रवेश किया और वह व्यापार में अपने पिता का सहायता करने लगा, इस प्रकार धीरे धीरे उसने सारे व्यापार को अपने हाथ में ले लिया तब व्यापार से निवृति ले कर धनश्रेष्टिने धर्म ध्यान में मन लगाया. एक दिन धनश्रेष्ठिने अपना सारा ही धनका विभाजन किया, जिस में से अमुक हिस्सा धर्म कार्य में खर्चा, अमुक हिस्सा व्यापार कार्य के लिये रोकड़ हाथ पर रखा और अमूल्य रत्न-सोना-आदि घर की भूमि में खड्डा कर उस में गाड़ा. उन को गुप्त रूपसे छिपा दिया, क्यों कि अवसर पर या आपत्ति में काम आ सकता हैं. खड्डे में गाड़ा हुआ धन को विगत-स्थान और संख्या आदि की यादि का एक काग़ज लिखकर उस काग़ज को सोने के तावीज में बंधकर . * धनश्रेष्ठि अपने गले में रखने लगा.. जब पुत्र धनकेली अपने व्यापार में दक्ष हो गया, तब P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 विक्रम चरित्र वह विदेशों में व्यापार करने के लिये कई अन्य व्यापारी साथियों के साथ माल लेकर जानेआने लगा; वह धनकेली बड़ा धनवान था और सबसे अधिक उसका ही माल आता-- जाता था, अतः उसके वाहनों के अधिक चलने से गगन में धूल बहुत उड़ती थी, उस के साथीयोंने उस धूली का गगन तक उड़ान होने के कारण उसको गगनधूली के नाम से संबोधित करने लगे. हे राजन् ! मैं वही गगनधूली हुँ." गगनधूली आगे कहने लगा, "हे राजन् ! माता पिता की इच्छा से कौशाम्बापुरी के चन्द्र नाम के श्रेष्ठि की पुत्री से जिसका नाम रुक्मिणी था, उससे अति विशेष समारोह के साथ मेरा विवाह हुआ, और नववधू के साथ मेरा समय आनंद से व्यतीत होने लगा. इस प्रकार कुछ समय मैं अपनी नववधू के स्नेह में ही रत रहा, पर मनोविज्ञान का साधारण सा नियम है कि सब समय एक सा रूप अच्छा नहीं। लगता, कुछ नवीनता की चाहना लगी रहती है, इस नियम के अपवादमें से मैं भी न बच सका, कुछ समय पश्चात् मेरा . कामलता नामक वेश्या से परिचय हो गया, उससे विमोहित होकर मैं उसके कथित प्रेम में विश्वास करने लगा, और आनंद विलास में रत हो, अपना जीवन व्यतीत करने लगा.... - उस देश्या में मोहित होकर सारा दिन मैं उसी के घर में रहता था, अपने घर से बहुतसा धन मंगा मंगा कर व्यय किया करता था, मेरे माता पिता वृद्ध हुए थे, मुझे बहुत बार बुलाया करते थे किन्तु मैं एक बार भी घर नहीं P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित गया. कुंछ दिनों के बाद मेरे वियोग के दुःख से दुःखी हो मेरे माता और पिता दोनों का अवसान हुआ, तो भी मैंमूढ घर नहीं गया. मेरे पिता के गले का तावीज मेरी पत्नीने ले लीया और उस को अपने हाथ में बांधकर रखने लगी.. . ___उस वेश्या के द्वारा मेरा धन क्रमशः खेच लिया गया, और तब ही मेरी दरिद्र-अवस्थाका प्रारंभ हुआ, मेरे मातापिता के अवसान के पश्चात् जन और धन दोनों के अभाव में दुःखी हो, मेरे जैसे 'अधम पति को छोड़ खाली घरसे मात्र वह सोने का तावीज लेकर रुक्मिणी कौशाम्बीपुरी में अपने पिता के घर चली गयी. क्योंकि"दुःखि या हो सुखि या कैसा भी-घर माता पिता प्यारा है। संकटमें नारी लोगों का निज जननी जनक सहारा है." जैसे कि-' फलों के गिर.जाने पर वृक्ष को पक्षिगण छोड़ चले जाते हैं, सुखे हुए सरोवर को सारस पक्षी भी छोड़ देते हैं; बासी-कुम्हलायें हुए पुष्पों को भोरे-भवरे नहीं चाहते त्यज देते है, वन के जल जाने पर मृगादि-हरिण वगेरे उस वन को छोड़ देते है, कामी पुरुषों के गरीब हो जाने पर वेश्या उन्हे छोड़ देती हैं. राज्यभ्रष्ट राजासे सेवक लोग चले जाते है, इन उपर के उदाहरणों से ये ही समझना चाहिए कि बिना स्वार्थ के कोई किसीका नहीं चाहता या मानता. अर्थात् सब की पीछे स्वार्थ लगा ही रहता है, जगत में कोई भी निस्वार्थी . नहीं होता हैं. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak. Crust Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 विक्रम चरित्र दिया. सर्वस्व अर्पण करनेवाले मुझ कामी का लक्ष्मी के चले जाने पर उसे कामलता वेश्याने मुझ को अपने घरसे अपमानीत कर निकाल दिया. - शास्त्र का कहना ठीक ही है 'मेघों-बादल की छाया, घास की अग्नि, दूष्टों की प्रीति, -स्थल मिट्टी पर पड़ा हुआ जल, वेश्या का प्रेम, और स्वार्थी मित्र, ये छः पानी के बुलबुला-बुबुद् के समान क्षणिक होते है.' इस प्रकार के विचार करता करता जब मैं घर आया, तब घर की भग्नावस्था देख कर मन ही मन बहुत दुःखी हुआ, अपनी स्त्री को लाने मैं जब कौशाम्बीपुर में उस के मायके गया, तब वहां इस दरिद्रावस्था के कारण मुझे किसीने नहीं पहचाना, और श्वसुर के घरमें प्रवेश करने न मिला. तब मैंने भिक्षुका वेष लेकर अपनी स्त्री का चरित्र और व्यवहार को जानने के लिये श्वसुर के घर के पास में रह कर वह रात्रि व्यतीत करने का विचार किया. आश्चर्य की बात तो यह है कि मुझे अपनी पत्नी के हाथ से भिक्षा ग्रहण करनी पडी. 'किन्तु उसने मुझे नहीं पहचाना. - मेरे सद्भाग्य से श्वसुर के घर की पास में ही एकान्त -स्थान भी मिल गया. वहां चोतरे पर जागृत अवस्था में ही पड़ा रहा, ठीक मध्यरात्रि में मेरी स्त्री रुक्मिणी लड्डु-मो“दक से भरा थाल लेकर दरवाजा पर आई और द्वारपाल से .. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 403 दरवाजा खोलने को कहा, किन्तु द्वारपालने उस दिन दरवाजा नहीं खोला, तब रुक्मिणी को पुनः अन्दर लौट जाना पढ़ा. दूसरे दिन मैं (गगनधूली) फिरसे भिक्षा लेने गया, भिक्षा देते समय रुक्मिणीने पूछा, 'हे भिक्षुक ! तुम कौन हो ? और कहां से आये हो ?' मैंने कहा, 'कर्मयोग से मैं दरिद्र हो गया हूँ, किन्तु वणिक जाति में मेरा जन्म हुआ हैं.' कम्पित स्वर से यह उत्तर दे मैं स्थिर और स्तब्ध रहा तब फिरसे उसने मुझे कहा, 'यदि तुम मेरा कहना मानो और किसी से यह बात नहीं कहोगें, ऐसी प्रतिज्ञा करो तो मैं तुम को अपने पिता के घर में नौकर रखवा सकती हूँ, और अच्छे अन्नादि से तेरे को सुखी करूँगी. प्रतिज्ञा यह है कि, प्रतिदिन मध्यरात्रि के समय तुम्हे मेरे कहने पर द्वार खोलना पड़ेगा.' मैंने यह बात स्वीकार लिया. अपने पिता से कह कर रुक्मिणीने द्वारपाल की जगह मुझे दिलवा दी और मैं द्वार पर रहने लगा. उसी दिन ठीक मध्यरात्रि में हाथ में मोदक से भरा हुआ थाल लेकर दरवाजे पर रुक्मिणी आयी और मुझे एक मोदक देकर द्वार खोलने के लिये कहा, मैंने शीघ्र दरवाजा खोल दिया, रुक्मिणी आगे बढी, मैं भी उसका चरित्र देखने के लिये उसके पीछे पीछे चला. चलते चलते रुक्मिणी सराफा बाजार में आकर रुक गई, मैं भी चुपके से वृक्षके आड में एक स्थान पर खड़ा रह गया, 'आगे का कृत्य देखने के लिये आतुर हो रहा था. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 विक्रम चरित्र . इतने में ही संकेत स्थान पर एक नवजवान पुरुष आया, आते ही उसने रुक्मिणी के गाल पर जोर से थप्पड़-तमाचा के मार कर कहा, 'कल रात्रि में तुम क्यों नहीं आई ?' तमाचा मार से रुक्मिणी एकाएक नीचे गिर पडी, और गिरने से इस के हाथ में बांधा हुआ जो तावीज था, वह भूमि पर गिरा पड़ा. JANSAGir mamima L ESS NiREE SALI %3DHANNEL - - , ____ थप्पड़ के मारसे रुक्मिणी भूमि पर गिर पड़ी. चित्र न. 14 फिर सावधान होकर उसने कहा, 'हे प्रिय ! इस में मेरा दोष नहीं, रात्रि में मैं तो आ ही रही थी. किन्तु द्वारपालने दरवाजा नहीं खोला इसी कारण मैं नहीं आ सकी. . आज मैंने एक नये द्वारपाल को रख लिया हैं. वह अवश्य ही सदा मेरे कहने से द्वार खोल दिया करेगा, और नित्य रात्रि में आ सकुँगी ? बाद में प्रेम बिलास करके वे अपने अपने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 405 स्थान को जाने के लिये अलग हुए, बाद मैं भी वहां गया, और वहां जो तावीज पड़ा था उसे उठा लिया. और आकर अपने स्थान पर सो गया. घंटा भर समय के बाद रुक्मिणी आयी, मेने दरवाजा खोला, वह घरमें जा सो गई. प्रभात में जब उस तावीज को खोला तो उस में बंधे एक काग़ज में लिखा था; 'धनश्रेष्ठी के घर के बांये कोने में दस हाथ नीचे जमीन में चार करोड़ सोने के सिक्के गड़े पड़े है.' उस काग़ज को पढ़ते ही मेरे आनंद का ठिकाना न रहा. मैंने शीघ्र ही सोने के उस तावीज को बाजार में वेच कर नये कपड़े आदि खरीद कर भोजन से निवृत्त हो चन्द्र सेठजी से छूटी ले चम्पानगरी की ओर प्रस्थान किया." अपनी प्यारी प्रजाका सुख-दुःख देखना हरेक राज्य अधिकारी का परम कर्तव्य है. इसी उद्देश से महाराजा विक्रमादित्य रात्रि में नगर चर्चा देखने जाते थे, एक समय महाराजा अन्धेर पछेड़ा ओड़कर घूमते घूमते नगरी की एक सेरी में पहुंचे वहां दो सखियां का वार्तालाप सुन विस्मय 'प्राप्त किया, उन दो में से एक सौभाग्यसुदरी का रोमांचकारी जीवन और चम्पापुरी निवासी गगनधली श्रेष्टिने अपने जीवन का विरमयकारी प्रसंगो का वर्णन महाराजा के आगे कहना तथा अपना श्वसुरालय कोशाम्बीनगरी से रवाना होकर चपापुरी के प्रति रवाना होना आदि वहां तक का जीवनवृत्तान्त इस प्रकरण में पढ़ने में आया. अब आगे का रसमय जीवन आगामी प्रकरण में आपको पढ़ने मिलेगा. पाप छिपाया ना छिपे, छीपे तो मोटा भाग; . दावी दूबी ना रहे, रूई लपेटी आग. Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेपनवाँ-प्रकरण गगनधूली का रहस्यमय जीवनवृत्तान्त चालु "मन मेला तन उजला, बँगुला कपटी अंग; तासे तो कौवा भला, तन मन एक ही रंग." पाठकगण ! आपने गत प्रकरण में महाराजा की सौभाग्यसुदरी * से शादी इत्यादि एक डण्डियां महल में गगनधूली का प्रवेश एवं जंगल के खंडेहरमें योगी की मायाजाल आदि आश्चर्यजनक बातें पड़ी. गगनधली द्वारा अपनी जीवन कहानी महाराजा से कहने का आरंभ करना, और अपना गगनधली नाम कैसे प्रसिद्धि में आया आदि बताना, बाद में अपनी शादी होना, कामलता वेश्या के प्रेम में फँसना और धन, माल आदि से खुव्वार होना, धन नष्ट होने पर वेश्या द्वारा तिरस्कार पाना, दरिद्र-अवस्था में श्वसुर के घर जाना, वहां पत्नी के हाथ से भिक्षा लेना, वहां पर ही द्वारपाल की नौकरी करना, अपनी स्त्रीका दृष्ट चरित्र अवलोकन करना, सोना का तावीज हाथ लगना इत्यादि सब हाल रसमय रीती से आप लोग पढ़ चूके हैं, अब आगे का वृत्तान्त इस प्रकरण में बताया जा रहा है. गगनधूली कहने लगा कि, " अपने घर पहुंचते मैंने जमीन खोदा और इसमें से अतुल धनराशी को प्राप्त किया, बाद में घर वगैरे सुदर बँधवाया; सवारी के लिये घोड़ा और घरमें अच्छे नौकरचाकर आदि भी रखें. एक दिन मैं सुंदर वस्त्रालंकारादि से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 407 सज्जित होकर कौशाम्बीनगरी में अपने ससुराल गया, वहां पर पहले की बजाय मेरा अच्छा आदर-सन्मान किया गया, किन्तु मैंने अपनी स्त्री की परीक्षा के लिये नहीं बुलाया और न उस की ओर देखा मेरा यह बरताव देख वह-रुक्मिणी मन , ही मन दुःखी हुई. . भोजनादि कर जब मैं रात्रि को सेो रहा था, तब मेरी स्त्री-रुक्मिणी आई, और धीरे धीरे मेरे पाँव को दबाने लगी, थोड़ी देर के बाद मैंने एकाएक झपक कर आंखे खोल उसके प्रति कहा, 'हे प्रिये ! तुमने ठीक नहीं किया, जो मुझे नींद में से जगा दिया, मैं अभी एक सुंदर स्वप्न को देख रहा था.' रुक्मिणी वोली, 'स्वामिनाथ ! आप ऐसा कौनसा सुंदर स्वप्न देख रहे थे कि, जिसके विघ्न से आप इतने व्यग्र और दुःखी हो गये ?' उत्तर में मैंने कहा, " यदि तुम सुनना ही चाहती हो तो सुनो ! मुझे घरकी द्वाररक्षा के लिये एक स्त्रीने अभी नौकर रखा था, उस स्त्रीने मेरे खाने पीने का अच्छा इन्तजाम किया, और जब रात्रि में वह बाहर जाती तब मुझे खाने के लिए एक मोदक दे जाती, बाद में वह जब सराफा बाजार में गई, मैं भी उसके पीछे पीछे गया. . .. वहां एक पुरुष आया. उसने उस स्त्री से कहा, 'कल P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 .विक्रम चरित्र 3 रात को क्यों नहीं आई ?' और यह कहते कहते ही उसने उसको एक जोर का तमाचा मारा. तमाचे की मारसे वह स्त्री गिर पडी, उस स्त्रीने उठ कर कहा, 'क्षमा करें! द्वारपाल ने दर। वाजा नहीं खोला. इस लिए नहीं आ सकी थी.' , जहाँ वह स्त्री गिरी वहाँ उसका एक तावीज गिर पड़ा था. और जब मैं उस तावीज को लेने के लिए झुका ठीक. उसी समय तुमने मुझे जगा दिया, और मेरी आँखे खुल गई.' इस पर भी जब वह स्तब्ध रही तो मैने गुस्से में आख लाल कर कहा, 'हे रुक्मिणी, मुझे स्वप्नावस्था से जगाकर तुमने ठीक नहीं किया-यह खानदानी लड़की के लक्षण नहीं हैं.' . अपनी पाप कहानी सुन कर रुक्मिणी का हृदय फट गया और वह उसी क्षण मर गई. यह देख में तो प्रथम घबराह गया. और सोचने लगा, 'क्या करूं?' आखिर में मैंने संसार को जानने के लिए उस रुक्मिणी के उस मुर्दा को उठा के सराफा बाजार में जहाँ उस का जार से मिलन होता था, वहाँ ले जा कर रख दिया, और आड़ में छिपकर. एक जगह चुपचाप खड़ा रह गया. थोडी देर बाद वही उसका-लम्पट जार पुरुष वहाँ आया; और नीचे पड़ी हुई रुक्मिणी को देख उसने समझा, 'शायद रुक्मिणी रुठ कर सो गई होगी.' इस कारण गुस्से में आ उसने कहा, 'हे पापीनी ! आज बहुत देर से क्यों आई ?' P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 409 उसका उत्तर नहीं देने से दो चार लातें मारी, तब भी वह नहीं बोली तो उसने टटोल कर देखा. सावधानी से देखने पर उसने विचार किया कि, मर्म स्थल पर मेरी चोट लगने से इस की मृत्यु हुई है, आज मुझे स्वीहत्या लगी, उसका पश्चाताप करने लगा और घबराने लगा, पर घबराने से कोई काम न चलता देख बाद में उसने उसको उठाया और एक खड्डा में फेंक कर उपर धुल डाल-गाड़ दिया. इतना कर वह जार अपने स्थान पर चला गया. हे राजन् ! मैं अपनी स्त्री के इस हाल को देख कर बहुत घबराया ! मेरा सारा शरीर कांपने लगा. नारी चरित्र पर आश्चर्यपूर्वक दुःखानुभव करता हुआ वहाँ से धीरे धीरे मैं अपने श्वसुर घर आकर चुपचाप सो गया. जब सुबह हुई तब उसके माता पिता अपनी पुत्री मक्मिणी को नहीं देख कर दुःखी हुए. मैंने उनको रातका सारा वृत्तान्त सुना दिया, जो कि प्रथम से लेकर गत रात्रि में घटित हुआ था, वह सब सुनाकर बाद मैं श्वसुर की अनुमति ले वहाँ से जब मैं चलने को तैयार हुआ तब मेरे श्वसुर की दूसरी कन्या सुरु पा हाथ मे पुष्पमाला लेकर आई, और कहते लगी 'अब आप मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये.' मैंने कहा, 'शायद तुम भी अपनी बड़ी बहन के समान ही निकला तो? मुझे ऐसी पत्नी से कोई प्रयोजन नहीं है ?' उस कन्याने विनयपूर्वक कहा, 'हे जीजाजी ! P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 विक्रम चरित्र अपने पूज्य माता पिता को साक्षी रख कर मैं प्रतिज्ञापूर्वक आप के गले में यह वरमाला डालती हूँ. यह माला कभी भी शुष्क हो जाये तो आप समझ लेना कि, मेरे शोल में कुछ मलिनता आई हैं. मेरे शील के प्रभाव से यह माला सदा ताजी ही रहेगी.' इस प्रकार कि जब उसने प्रतिज्ञा कि तो मैंने उस से विधिपूर्वक विवाह कर उस को अपने घर ले आया. अब मेरे विवाह के 12 वर्ष हो गये किन्तु हे राजन् ! अभी तक मेरी यह माला कुमलाई नहीं हैं, और मेरे गले में ही पूर्ववत् शोभायमान है." यह बात सुन कर महाराजा विक्रमादित्य बहुत आश्चर्य में पड़ गये और कहने लगे, “स्त्रियों के चरित्र को कभी कोई नहीं जान सका-और न जान सकेगा, शास्त्र में भी कहा है कि 'घोड़ो की चाल, वैशाख मासकी मेघ गर्जना, स्त्रियों के चरित्र, भावि कर्म रेखा, वर्षा नहीं होना अथवा अति वृष्टि होना इस को देवताओं भी नहीं जानते फिर मनुष्य की तो गणना ही क्या ? अपार समुद्र को पार किया जा सकता है, किन्तु स्वभाव से हि महा कुटिल स्वभाववाली स्त्रीयों का पता पाना अत्यन्त कठिन हैं.”x X अश्वप्लुत माधवगजित च स्त्रीणां चरित्र भवितव्यता च; अवर्षण चाप्यतिवर्षण च देवा न जानन्ति कुतो मनुष्याः // स. 10/439 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 411 . इस तरह मनमें सोच कर राजाने कहा, “हे गगनधूली ! तुम बुरा न मानो तो तेरी स्त्री की मैं परीक्षा करवाऊँ ?" गगनधूलीने कहा, "हे राजन् ! स्वेच्छा से आप मेरी पत्नी की सच्चाई की परीक्षा किसी भी प्रकार से कर सकते है." तब महाराजा विक्रमादित्यने अपने मूलदेव शशी आदि नामवाले चतुर सेवकों को बुलाकर गगनधूलो कि स्त्री के शील महात्म्य की सारी कथा सुनाई. इन बातों को सुन कर उस सेवकों में से एक मूलदेव नामक सेवकने राजासे कहा, “हे राजन् ! आप आज्ञा दें तो, मैं गगनधूली की पत्नी की परीक्षा कर सकता हूँ, और मिनटों में मैं उस स्त्री को शील से चलित कर दूंगा." महाराजाने कहा, "अच्छी बात है-मूलदेव तुम अपनी इच्छानुसार खर्च के लिए द्रव्य ले जाओ.' ___अब मूलदेव महाराजा विक्रम से गगनधूली का पता लेकर चला, चम्मापुरी में पहूँच कर उसने गगनधली के घर का पता लगा दिया. गगनधूली के मकान के पास में ही एक वृद्धा का घर था. उसको थोडा सा द्रव्य देकर वृद्धा के घर में वह रहने लगा, उस वृद्धा को कुछ और द्रव्य का लोभ देकर मूलदेवने कहा, "गगनधली की स्त्री सुरुपा को मेरे साथ मिलन के लिए तुम आकर्षित कर सको तो, मैं तुम्हे और बहुतसा द्रव्य ढुंगा ?" वह वृद्धा लोभ' में आकर गगनधूली के घर गई, और P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 विक्रम चरित्र जाकर बोली, “मेरे घर एक देवकुमार के समान सुन्दर और रईस आदमी आया है, वह तेरी सुन्दरता पर मोहित हैं. हे सुन्दरी ! तेरा पति बहुत दिनों से परदेश में है, तुम अकेली रहा करती हो, चलो मन बहलाने के लिए मेर घर में विराजमान सुन्दर पुरुष से जरा बातें तो करो ! या तुम कहो तो उसे यहाँ ले आऊँ-वह पुरुष बहुत रूपवान व धनवान है. मिलो तो ठीक रहे ?" - वृद्धा कि बातें सुनकर सुरुपाने कहा, " मैने कभी परपुरुष का नाम तक नहीं सुना. वह भले ही कितना ही सुन्दर क्यों न हों, मुझे उससे मिलने की क्या आवश्यकता ?" . द्रव्य के लोभ में फंस कर वह कुटिल वृद्धा फिर भी बार बार सुरुपा के पास में आकर मूलदेव के समाचार और पत्र वगेरे लाकर दिया करती है. और भलाने वाली बातें बार . बार किया करती है, तब सुरुपाने सोचा, " उस पापी और कामी पुरुष को यहाँ बुलाकर क्यों न मजा चखाया जाय ? अर्थात् जिससे वह किसी को शीलभ्रष्ट करने की बात ही जीवनभर कभी न करें?" ऐसा मन में निश्चय कर सुरुषाने उस कुट्टीनी वृद्धा को चार दिनों का बायदा कर के कहा, " उस सुन्दर रईस पुरुष को चार दिन बाद लाना.” वह वृद्धा अपन घर जा मूलदेव को सुरुपा के समाचार कह सुनाये. सुरुपाने अपने घर में गुप्त रूपसे एक गहरा खड्डा खदवाया, और उस पर जीर्ण रस्सीवाली चारपाई-खोटया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित 413 - रखवाई, उस पर बिछौना डाल और शैय्या को सुन्दर-सुशोभित बनाई. बहार से सुंदर दिखाई देनेवाली, उस शैय्या पर बैठनेवाला व्यक्ति शीघ्र ही खड्डे में जा गिरे इस तरह सब व्यवस्था बनाई गई. वह कुटिल वृद्धा सुंदर पान-बिड़ा लेकर सुरुपा के घर आई, पान-बिड़ा को लेकर सुरु पाने वृद्धा से कहा, "तुम कल उस सुंदर पुरुष को अवश्य लाना, मैं उन का पूर्ण आदरसम्मान करूँगी." प्रभात होते ही उस वृद्धा के साथ मूलदेव सुंदर वस्त्रालंकार से सज्जित होकर आया, वृद्धा के साथ आते मूलदेव को देखकर मधुर वचनों से आदर सन्मान कर उस को प्रसन्न कर दिया वह कुटिल वृद्धा मूलदेव को पहूँचा कर अपने घर लौट गई. क्यों कि उसका काम केवल यहां पहूँचाने का और मिलानेका था. गगनधली की प्रिया सुरुपाने उस को आनंद से बैठाया और प्रेम से भोजनादि से संतुष्ट किया, बाद उस खड्डेवाली सुदर शैय्या पर मूलदेव बैठने गया, ज्योंही मूलदेव उस शैय्या पर बैठा कि जीर्ण रस्सी टुट गई और वह खड्डे में धड़ाम से गिर पड़ा, अब वह खडडेसे बहुत प्रयत्न करने पर भी उपर नहीं आ सका. उपर से सुरुपा बोली, " अरे ! यह क्या हुआ ?" बाद में सुरुपा उस को खड्डे में ही रोजाना खानेके लिये दिया P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र करती थी, और कहती थी, “देखा, अब कभी ऐसा मत करना, जैसे कि तुमने मेरा शील भ्रष्ट करने के लिये किया. क्यों कि "अपनी ध्वजा पताका जिसने स्वर्ग लोक तक फहराया उस रावण की बूरी भावना ने ही उस को नष्ट किया." _अपने पराक्रम से संपूर्ण संसार को जिसने वश में किया था, और जिस रावण का डर स्वर्गलोक में देवताओं को भी बना रहता था; उसी रावण ने जब कि पर स्त्री रमण की मनमें इच्छा होने पर, सीता के प्रसंग को लेकर अपने कुल को नष्ट कर दिया और खुद भी नरक में गया.”x कुछ दिनों के बाद में उस वृद्धाने आकर पूछा, “हे सुरुपा! वह मूलदेव कहां है और कैसा है ? " सुरुपाने उत्तर दिया, "वह मेरे दिये हुए अन्न, जल आदि से संतुष्ट होकर सदा मेरे घर में ही रहता है, और बालक की तरह आनंद विनोद कर समय वीताता हैं ?" इधर अवंतीनगरी में महाराजा विक्रमादित्य सोचते हैं, " बहुत समय होने पर भी मूलदेव का चंपापुरी से कुछ समाचार नहीं पा रहा हूँ क्या बात है ? " यह जानने के लिए मूलदेव के भाई शशीभूत को महाराजाने राजसभा में बुला X विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि परस्त्रीषु रिरसया / कृत्वा कुलक्षय प्रापं नरक दशकन्धरः // स. 10/459 // P.P. Acr Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित कर अपने भाई के बारे में उस को पूछा, किन्तु कुछ समाचार नहीं मिले. जब महाराजाने मूलदेव की खोज करने जाने को कहा, तब महाराजा के समीप शशीभृतने प्रतिज्ञा की, "मैं शीघ्र गगनधली की उस स्त्री को किसी भी तरह से शील से चलित करूँगा. और मेरे भाई को खोज लाऊँगा.” इस प्रकार उसने भी फिरते फिरते चम्पापुरी में उसी वृद्धा के घर जाकर मुकाम किया. ___ उस वृद्धा के द्वारा मूलदेव का सब वृत्तान्त जान लिया. दूसरे दिन वह वृद्धा उसी प्रकार शशीभृत कि दूती बन कर आई और सुरुपा के आगे शशीभृत के गुण गाये. वह भी सुरुपा द्वारा उसी प्रकार छलसे उसी खड्डे में गिरा दिया गया. जब तीसरे दिन वह वृद्धा शशीभृत की खबर निकालने आई तब सुरुपाने उसे आदर सहित घर में लाकर, और प्रेम से दो चार मीठी बातें कर सदाकी जी खानेवाली इस पापकारी दुष्टा को भी उसी खड्डे में गिरा दिया. नीतिशास्त्र का कहना सच हैं कि " तीन वर्ष या तीन महीने तीन पक्ष या तीन दिवसमें; - अत्युत्कट धर्माधर्मा का फल पाता नर इसी लोक में." 'बहुत बडे-उग्रह पाप या पुण्य का फल मनुष्यों को यहां ही तीन वर्ष या तीन महीने या तीन पक्ष अथवा तो तीन दिन में ही प्राप्त हो जाता है. ... P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र सुरु पाने उन तीनों को थोढ़ा थोडा अन्न जल देकर किसी प्रकार उस खड्डे में ही जीवित रख्खा और राज कहती थी, “यह तुम्हारे पापों का तुम फल भोग रहे हो." (e) एन तीनों खड्डे में रो-रोकर समय विताते है. चित्र न. 15 इधर महाराजा विक्रमादित्य मूलदेव और शशीभृत की बहुत उत्सुकता से राह देख रहे हैं, दोनों की ओर से आज तक कोई समाचार ही नहीं आये, उसका कोई पता नहीं चलता, क्या करें ? एक दिन महाराजा गगनधूली से पूछा, "हे वणिक ! देखो मूल देव और शशीभृत दोनों ही अभी तक नहीं आये हैं, और तुम्हारी यह माला भी नहीं सूखा है, यह बहुत आश्चर्य है, इस का कुछ कारण बताओ ?" गगनधूलीने कहा, "हे राजन् ! मेरा विश्वास है कि P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 417. आप के दोनो दूत वहां छले गये है, या हार गये हैं ! अथवा आपसे प्राप्त धन को लेकर कहीं अन्यत्र दूर देश में मोज मानने चले गये हैं. कुछ दिन बाद जब गगनधूलीने अपने देश जाने की बात कहीं, तब राजाने उससे कहा, "हे गगनधूली ! देखो तुम्हारे वहां मैं भी चलूगा, क्यों कि मेरे दूत भी नहीं लौटे हैं, और तुम्हारी स्त्री की परीक्षा भी हम करना चाहते हैं ? ". / गगनधूलीने कहा, "हे राजन् ! आप जरूर पधारना, मेरी शक्ति के अनुसार मैं आपका आदरसत्कार करूँगा." राजाजी सहित गगनधूली का चंपापुरी की ओर प्रस्थान ___ गगनधूली अपना व्यापार संबंधी लेना-देना आदि सब कार्य से निवृत होकर-धन का संचय कर अवंतीपति महाराजा विक्रमादित्य भी अपने दलबल सहित गगनधूली के साथ चपा-- पुरी के और प्रस्थान किया. मार्ग में गगनधुली महाराजा के आगे तरह तरह की बाते कर आनंद-विनोदपूर्वक समय विताता था, क्रमशः प्रयाण करते करते महाराजा सहित गगन-- धूली च पापुरी में आया. महाराजा को अपनी नगरी के सुंदर भवन में ठहराने कि गगनधूली ने सब व्यवस्था किया, और खुद अपने घर को गया, प्रेमसे अपनी पियासे मिलने पर प्रश्न किया, “तुम्हारा शील मलिन करने के लिये मूलदेव और शशीभृत नाम के दो आदमी यहां कभी आये थे क्या ?" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '418 विक्रम चरित्र तब उत्तर में सुरुपाने प्रारंभ से अंत तक के सारे ही समाचार अपने पतिदेव को सुना दिये. अपनी प्रिया से सब समाचार सुनकर गगनधूलीने कहा, "हे प्रिये ! उन दोनों की खबर लेने के लिये महाराजा विक्रम खुद यहां आये हैं. तुम कहो तो उन्हे भोजन के लिये निमत्रण दे यहां बुलाऊँ ?" सुरुपाने पतिदेव से कहा, 'घर में सारा ही सामान 'विद्यमान है. मैं भोजन सामग्री तैयार करती हुँ, अतिथि आदि को भोजन कराना हमारा परम धर्म है, हमें अतिथि सत्कार समुचित प्रकार से करना ही चाहिए.' इस प्रकार पत्नी के साथ विचार विमर्श कर गगनधूलीने महाराजा विक्रम के पास आकर कहा, “हे राजन् ! आपके दोनों बुद्धिमान सेवक मूलदेव और शशीभत यहां आये तो अवश्य. लेकिन आने के बाद मेरी पत्नीने उन दोनों को तिरस्कार कर निकाल दिये. यह हकीकत कहने के बाद श्रीमान महाराजा से अपने यहाँ सपरिवार भोजन के लिए निमत्रण किया, महाराजाने भी 'निमंत्रण का सहर्ष स्वीकार किया. महाराज, मूलदेव और शशीभृत का मिलन ___ निमंत्रण दे कर गगनधूली शीघ्र ही अपने घर पहूँच गया. इधर पहले ही सुरुपाने मूलदेव ओर शशीभत के पास जाकर कहा " देखो, मुझे देवताओंने यह वरदान दिया है कि, जो 'मेरा कहना नहीं मानेगा उसका उसी समय मस्तक के दो टुकड़े हो जायगे. यदि तुम मेरी बात को अक्षरशः P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित . 419 मानने कि प्रतिज्ञा करते हो तो, मैं तुम लोगों को इस गर्ताखड्डेमें से निकाल सकती हूँ." उन तीनोंने कहा, "हे सति ! तुम जो कहोगी उसको हम अवश्य मानेगें.” तब सुरुपाने उन तीनों को खड्डे से निकाल कर स्वच्छ जल से स्नानादि कराया. और उन को अपने घर के भोयरा-तलघर में रक्खा . और नीचे के कमरे में रसोई बनाने लगी. महाराजा विक्रम ठीक समय पर गगनधूली के वहां सपरिवार भोजन के लिये आ पहुंचे. किन्तु राजाने भोजन सामग्री कहीं भी बनते न देख कर गगनधूली से कहा, "हे वणिक ! भोजन का समय तो हो गया है, किन्तु कहीं रसोई बनती हुई नहीं दीख रही है. और कुछ तैयारी भी नहीं. , मालुम होती है, हम सभी भूख से बहुत पीडित है, यदि शीघ्र खाने का प्रबन्ध नहीं हुआ तो हम चले जायगे." महाराजा से इस प्रकार की बात सुन कर मुसकराते हुए गगनधूधी ने सबको आसन पर बिठाया और नीचे से शीघ्र सारी सामग्री को मंगवा कर जिमाना शुरू किया.. स्वादु व मधुर सुन्दर मिष्टान आदि अपनी अपनी रुचि के अनुसार भोजन करके महाराजा विक्रम तथा उनके परिवार सभी आनंदित हुए. भोजन के बाद महाराजा विक्रमने कहा, “हे गगनधूली ! तुमने इतने शीन और इतना सुन्दर इन्तजाम कैसे Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 विक्रम चरित्र कर लिया ? और हमारे लिए भाति भाति के इतने स्वादिष्ट मिष्ठान्न कैसे तैयार कर लिए ?" गगनधूलीने कहा, "हे राजन् ! मेरी पत्नी के पास दो यक्ष और एक यक्षिणी है, ये तीनों मिनटों में हजारो 'लोगों के लिए भोजन तैयार कर देते हैं. उसी का यह सब 'परिणाम हैं." ___ महाराजाने कहा, "हे गगनधली ! आप उन यक्ष यक्षिणी को मुझे दे दो, मेरे रसोईघर का कार्य ठीक से चलेगा. इस आग्रह को मानकर गगनधली की प्रियाने कहा, "हे राजन् ! आप अपने देशमें पहूँचने तक भोजनादि की सुविधा प्राप्त कर, पुनः यदि यक्ष यक्षिणी को वापिस यहां पहूँचा सके तो, मैं आप को उन्हें दे सकती हु, अन्यथा नहीं." इस बातका महाराजाने स्वीकार करने पर उसने एक पेटी में खाने-पीने का सामान रख उस को चन्दनादि से सुवासित कर मूलदेव, शशीभत और उस वृद्धा को उस में बैठा कर पेटी को सुरुपाने महाराजा को सेप दिया, उस पेटी को लेकर बड़े उत्साह से महाराजा विक्रम दल-बल के साथ वहांसे अपने देशकी ओर चले. दूसरे दिन रास्ते में जब भोजन का समय हुआ, तब महाराजाने उस पेटी की पुष्पादि से पूजा कर उस पेटी से भोजन सामग्री मांगा, लेकिन उस से तो कुछ नहीं प्राप्त हुआ. भार चल. . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 421 . बार बार महाराजा द्वारा भोजन सामग्री मांगने पर अन्दर से आवाज आया, “क्या भोजन तेरा बाप देगा ! मैं कहां से लाऊँ ? " पेटी के अंदर से मूलदेव और शशीभृतने कहा, "हे राजन् ! सुरुपाने हम दोनों का और एक वृद्धा को इस पेटी में बन्द कर रक्खा हैं." महाराजा विक्रमने पेटी में रहे हुए, उन परिचित व्यक्ति के शब्दों को सुन कर उस पेटी को खुलवाया, तो अन्दर से अपने प्यारे दोनों सेवक मूलदेव व शशीभूत और एक वृद्धा को अति कृश शरीर व दुर्बल दुःखी रूपमें पाया. - मन में लज्जित होते हुए मूलदेवादि ने बहुत दीन स्वरसे आदि से अन्त तक का अर्थात् खड्डे में गिरने से लेकर आज तक का सारा वृत्तान्त कहा और बोले, “हे राजन् ! क्या कहें, हमारी की हुई प्रपंच जाल में हम-ही फंस पडे." यह सुन महाराजा ताज्जुब हो गये. ___महाराजा विक्रम सुरुपा के चरित्र पर आश्चर्य करते हुए अत्यन्त प्रसन्न हुए. गगनधूली को वहां बुलाकर कहा; "हे वणिक ! तुम धन्य हो और बहुत भाग्यवान हो, क्योंकि तेरी पत्नी जैसी पतिव्रता स्त्री हमने अभीतक कहीं नहीं देखी, तुमने अपनी पत्नी के लिये पूर्व मेरे पास जो कुछ भी कहा था, वह सब सर्वथा सत्य है, और सचमुच वह बड़ी ही पवित्र है. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 422 विक्रम चरित्र हे गगनधूली ! ऐसी सती स्त्री बड़े भाग्य से ही मिलती है, जो बड़ी सुन्दर एवं शीलवती हो, सदा अच्छे आचार. विचार रख सकती हो, और वही सतियों के गुणों से सदा युक्त हो, इत्यादि." - इस तरह प्रसंशा करके गगनधली के साथ उसके घर आकर पुनः सुरुपाके समक्ष उसकी फिर प्रसंशा किया और 'क्षमा याचना की और कहा, “हे स्त्री ! तुमे धन्य हो, तुम सतियों में श्रेष्ठ हो, तुम्हारे में हमको एक भी दोष देखने में नहीं आया, निष्कल क सदाचार में सदारत तुम इस संसार के लिये आदर्श रूप हो, और तुम्हारा निर्मल चरित्र जगत् प्राणी के लिये अनुकरणीय हैं." VNX XXX YYYY H REE गगनधूली के घर महाराजा का पुनः आना. चित्र न. 16 इस प्रकार गगधूली की व सुरुपा की फिर से बार बार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित . 423 -- . हार्दिक प्रशंसा कर दोनों से प्रेमपूर्वक मिलकर महाराजा विक्रमने अपनी अवंतीपुरी की ओर प्रस्थान किया. अपने स्थानको आकर .. राज्य कारभार संभाला, प्रिय पाठकगण ! आपने इस प्रकरणमें गगनधलीने अपनी स्त्री से सावीज प्राप्त करना तथा उसमें के पत्राधारसे अखुट धनमाल प्राप्त करना, पश्चात् अपने ससुराल में जाना, वहाँ अपनी स्त्रो से उदासीन रहना, स्त्री का / पांव दवाने को आना, और कल्लित स्वप्न की बात बीसे गगनधली द्वारा कहना, उसे सुनकर उसकी स्त्रीका एकाएक हृदय फट कर देहान्त हो जाना. . पश्चात् गगनधली को घर जाते समय पत्नी की छोटी यहन-साली-सुरु पाने आकर, अपने को अपनाने की अत्यन्त आग्रह सहित प्रार्थना करके कहा, - "मेरी पहनाई हुइ यह वरमाला यदि कभी भी कुमला-शुष्क हो जाथ तो, समजना कि मेरा शील कुछ मलिन हुआ है." ऐसा आग्रह करने / पर गगनधलीने सुरु पा का स्वीकार करना, उस विकसित पुष्पमाला को गगनधली के कंठ में देख विक्रम महाराजा का पूछना. गगनधली का - अपनी स्त्री का शील महिमा बताना, उस बात का महाराजा द्वारा अस्वी कार करना, और परीक्षार्थ अपने सेवक मूलदेवादि को भेजना, उसमें भी सफलता न मिलने पर, स्वय विक्रम का गगनधली के साथ उसके घर _____ पर पहूँचना, वहां उसका यथाशक्ति शील, गुण देख, उनकी सीमातीत - प्रशंसा करना और वापस महाराज का स्वदेश लौटकर राजकार्य संभालना - इत्यादि विवरण पढा अब अगले प्रकरण में स्वामीभक्त अघटकुमारका अद्भुत रोमांचकारी रसमय वृत्तांत पढने मिलेगा. ". संत वचन बरसे सुधा, श्रोता कुंभ-समान / ढका मोह का. ढकना, पडे न घटमे ज्ञान. " P.P.AC.Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोपनवा-प्रकरण स्वामीभक्त अघटकुमार "भाग्यवान नृपको मिले, सेवक स्वामीभक्त; रूपचन्द्र पर इसी लिये, विक्रम हुए अनुरुक्त." महाराजा विक्रमादित्य अपने पुण्य प्रभाव से बहुत अच्छी सरह राज्य कारभार चला रहे हैं, महाराजा की सेवामें एक पराक्रमी अघटकुमार नामका सैनिक रहता था, जिसने अपनी * शकि से अग्निवैताल जैसे असुर को भी अपने वशमें किया था, अग्निवैताल को वश करने के कारन राज्य के अधिकारीयों में और सारी नगरी में उस की ख्याती बढी हुई थी, प्रत्येक स्थान पर प्रजादि में उसके पराक्रम की ही बातें हुआ करती थी. उस का अघटकुमार नाम कैसे हुआ वह रसमय वृत्तान्त यहां पर निदेशित किया जाता है. . वीरपुर नगरमें राजा भीम न्यायनीति से राज्य का पालन करता था, उसको पद्मा नाम की महारानी थी, उनसे जन्मा हुआ रूपगुणादि से युक एक रूपचन्द्र नाम का पराक्रमी पुन था. राजा भीम से सम्मानित चन्द्रसेन नामका एक शूरवार कोटवाल था, जो कि परम राजभक्त था. उसी ही नगर म गंगादास नामका एक राजपुरोहित भी रहता था, उस का. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित मगावती नाम की खी थी. एक दिन भीम राजा की आज्ञानुसार चन्द्रसेन किसानों के खेतों में राज्य की हासीलानुसार का मालका बँटवारा करने गया था, उस समय खेतों के समीप में एक वृक्ष के नीचे बहुत से किसानों की भीड़ जमी हुई थी, उन्हों के बीच में एक ब्राह्मण बैठा था, वह सभी की हस्तरेखा देख देखकर भून व भविष्य के फलको बता रहा था; उस भीड़ में चन्द्रसेन जा पहूँचा, और मोका पाकर उसने भी अपना हाथ उस भविष्यवेत्ता को बताया. और फिर उससे प्रश्न किया, " मेरे भाई वगैरेह कुटुम्बी जन कितने है ? सो बताईये ?" ज्योतिषी चन्द्रसेन की हस्तरेखा देख रहे है. चित्र न. 17 Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 विक्रम चरित्र - - ज्योतिषीने प्रश्नलग्न पर विचार कर और हस्तरेखा को देख कर कहा, “हे महाशय ! आप तीन भाई, एक बहिन और पांच सुंदर स्त्रीयों के स्वामी है." उस ब्राह्मण के सत्यतापूर्ण वचन सुन कर चन्द्रसेन बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उस ब्राह्मण से कहा, "हे विप्रदेव ! इस खेतसे आप अपनी इच्छ'नुसार मुंग ले लीजिये." ब्राह्मणने अपने से उठाया जा सके उतने मुंग बांधा पश्चात् उसे उठाकर वह वहां से रवाना हुआ, रास्ते में ही संध्या हो गयी, तब वह ब्राह्मण वीरपुर नगर के निकटस्थ किसी देवमादिर में रात्रि बिताने के लिये रह गया. गंगादास पुरोहित की पत्नी मगावती प्रथम से ही चन्द्रसेन कोटवाल से कामासक्त थी, इस लिये पूर्व संकेतानुसार मगावती रात्रि के समय मोदक-लड्डु का थाल भर कर, उसी देवमंदिर में आई, और ये सोनेवाला चन्द्रसेन ही है, जैसा समझ कर सोया हुआ उस जोषी ब्राह्मण को प्रेम से जगाया, और अच्छी तरह मोदक खिलाये, दिनभर का भूखा ब्राह्मण मौन धारण कर शान्ति से पेटभर मोदक मिल जाने से आति प्रसन्न हुआ. पर एक थालभर मोदक खा जाने से मृगावती को आश्चर्य हो रहा था. उस में उसने उसके अङ्ग का स्पर्श करा, स्पर्श करते ही उसका शरीर को सुखी और कहा चमड़ी होनेका अनुभव हुआ, इस से उसे पता चला कि यह तो कोई अन्य ही पुरुष हैं, चन्द्रसेन नहीं हैं. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरजनविजय संयोजित तब मृगावतीने पूछा, “तुम कन हो ?" ब्राह्मणने उत्तर दिया, "मैं एक ब्राह्मण हुँ ?" मृगावती बोली, “मुजे किसी पुरुष से बहका कर यहाँ क्यों ले आया है ?" उस ब्राह्मणने कहा, "हे मृगलोचनि ! कुछ भी हो, मैंने तो तेरे शरीर का स्पर्श तक भी नहीं किया है, तुमने ही मुझे जगाकर मोदक खिलाया. यदि तुम मोदक का मूल्य लेना चाहती हो तो ये मेरे पास मुंग हैं, सो ले जाओ, पर व्यर्थ प्रपंच क्यों करती हो ?" उस ब्राह्मण की निरस बात सुन उदास होकर मृगावती यहां से अपने घर लौट आई, और अपनी हवेली के झरोखे में बैठ कर मनमें सोचने लगी, " आज चन्द्रसेन कहां सोयेगा ?" इस बातका पता लगाने लगी. . कुछ देर के बाद झरोके में बैठी हुइ मृगावतीने दूरसे चन्द्रसेन को दीपक लेकर देवमंदिर की ओर जाते हुए देखा. तब वह भी पुनः मोदक का थाल भर के फिर से उस मंदिर की ओर चली. शास्त्र में कहा है कि"उल्लु अंध दिवस में होता, रात्रि अंध होता है काक; कामीजन तो सदा अंध ही, देखता नहीं है दिनरात." उल्लु पक्षी को दिन में कुछ नहीं दिखता, इसी तरह कौए को रात्रि में कुछ नहीं दीख पडता है. किन्तु कामी पुरुष तो कोई अपूर्व प्रकार का अंघे है, जो कि रात और 1 धुवड पक्षी. P.P.AC.GunratnasuriM.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 विक्रम चरित्र दिन सदा अंधा ही रहता है.४ चन्द्रसेन घूमता हुआ उसी देव मंदिर में आ पहूँचा, जो कि उस मंदिर में ब्राह्मण सोया हुआ था. चन्द्रसेनने उस ब्राह्मण को दूसरी जगह जाने को कहा, उस पर ब्राह्मणने कहा, "मुझे रात में कुछ दिखता नहीं, मैं रतांध हूँ, इस समय में कहाँ जाऊँ ? " तब चन्द्रसेनने अपने नौकर द्वारा दीपक सहित उस ब्राह्मणको पासके ही भीमयक्ष के मदिर में पहूँचा दिआ, और उसी मंदिर में दीपक को रख कर चन्द्रसेन का नौकर अपने स्थान लौट गया, वह ाह्मण भी शान्ति से वहां सो गया. जब मृगावति दूसरी बार मोदक का थाल लेकर चन्द्रसेन को मिलने के लिये आ रही थी, तब दूरसे भीमयक्ष के मंदिर में दीपक का प्रकाश देख कर वह वहां पहूँची, वहां वह ब्राह्मण एकान्त में सोया हुआ था. उस को चन्द्रसेन की भ्रान्ति से जगा कर कहा, “हे प्रिय ! मोदक खाओ.' वह ब्राह्मण उठा और हाथ में एक मोदक लेकर खाने लगा, विशेष आग्रह करने पर भी उसने खाने से इन्कार कर दिया, क्यों कि उस विप्रका पेट पहले से ही भरा हुआ था. मृगावतीने धीरे धीरे उस के समीप जाकर थोड़ा वातो x दिवा पश्यति नो घूकः काको नक्तं न पश्यति / अपूर्वः कोऽपि कामान्धो दिवा नक्त न पश्यति // स. 10/523 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरअनविजय संयोजित 429 लाप किया, और देह का स्पर्श करने से जान गई, 'अरे ! यह तो वही ब्राह्मण है, फिर भी यह यहां कहां से आ गया ?' काम में अंधी होकर मृगावतीने कहा, “तुमने फिर से मुझे बहका कर यहां क्यों लाये ? अब मेरी इच्छा को पूर्ण करो." तब ब्राह्मणने कहा, “हे मृगलोचनि! तुम क्यों असत्य बोलती हो ? मैंने तुम्हारे शरीरका स्पर्श भी नहीं किया; तुम्हारे दिये हुए मोदक खाये हैं, उसका मूल्य लेना हो तो ये मेरे मुंग ले जाओ, मैं तो अपनी स्वीको छोड कर पराई स्त्री की ओर देखता भी नहीं हु. अन्य स्त्रियों को मैं अपनी मां-बहेन के समान मानता हूँ. इस लिये तुम मेरी बहन हो. मुझ से तुम्हारी बूरी इच्छा की तृप्ति न हो सकेगी, यहाँ से शीघ्र अन्यत्र चली जाओ." - यह सब सुनकर मृगावती निराश होकर जब पुनः अपने घर लौट आई, और मन ही मन इस घटना पर आश्चर्य करने लगी, पश्चात् मनमें संतोष धारण करके सो गई. - चंद्रसेन देवमंदिर में मृगावती की राह देखता ही रहा, और आखिर में वह भी वहा ही सो गया, प्रभात होते ही अपने घर गया, और नित्यकार्य में लगा. . इधर प्रभात होने पर उस ब्राह्मणने उठकर स्नानादि कर नित्यकर्म और पूजापाठ किया, बाद में वह ब्राह्मण नगर की ओर जा रहा था. उस समय चंद्रसेन कोटवाल का सामने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 विक्रम चरित्र मिलना हो गया, रात्रि में मृगावती के दिये हुए पान चबाने से रक्त दन्तवाला उस ब्राहमण को देख कर चंद्रसेनने कहा, "आज आप बहुत प्रसन्न मालुम होते हो ?" तब उसने उत्तर में कहा, "सब आप की कृपा है ?" चंद्रसेनने कहा, " आन आप राजसभा में अवश्य पधारना, वहां मैं राजाजी से आप को कुछ धन दिलवाऊँगा." - भोजन आदि से निवृत होकर उचित समय पर उसने दरबार में पहूँच कर राजा को सुंदर शब्दो से आशीर्वाद सुनाया. उसी समय अवसर पाकर चंद्रसेनने कहा, “महाराज! ये विप्रदेव अच्छे विद्वान है, लग्न आदि देख कर भूत, भविष्य और वर्तमान की सभी बातें बतला देते है." . राजाने पूछा, “अच्छा-कहिये विप्रदेव ! कल मेरे राज्य में क्या होगा ?" तब उस जोषीने शीघ्र ही प्रश्नलग्न देख उत्तर दिया, " कल आपका पट्ट हस्ती मर जायगा.” इस बात को सुन कर राजाने कहा, “क्या इसके लिये कुछ शान्ति 'का उपाय करना ठीक होगा ?" ब्राहूमणने कहा, " राजन् ! भावी को कोई नहीं रोक सकता, जो होनहार है, वह होकर ही रहता है." क्यों कि .. “मेरु पर्वत कभी चलायमान हो जाय, अग्नि कभी ठन्डी हो जाय, मानो कभी पश्चिम दिशा में सूर्य उदित हो जायें-पवत के शिखर पर कमल खिल जाय, ये सब असम्भव घटनाये P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित 431 शायद कभी घटित हो जाय, किन्तु मनुष्य के भाग्य में लिखी हुई शुभाशुभ कर्म रेखा कभी भी मिथ्या नहीं हो सकती." ॐ ... तब राजाने उस ब्राहमण को कल के लिये सत्यासत्य का निर्णय होने तक अपने राजमहल में अपनी पास ही रक्खा , और गजराज की रक्षा के लिये सैनिको को नियुक्त कर दिया. इतना प्रबन्ध होने पर भी भावि को कोई नहीं रोक सकता. इस युस्ति के अनुसार प्रभात होते होते तो वह पट्ट हस्ती मद से पागल हो गया. पांवमें बंधी जंजीर-सांकल को तोड़कर नगर में जा, प्रजा के घर-द्वार को भग्न करता सम्पूर्ण शहर में उन्मत होकर फिरने लगा. प्रजा-लोगों में घबराइट मच गई. मेरु पर्वत से मंथने पर समुद्र का जल जैसे क्षुब्ध हुआ था. ठीक उसी तरह-वही दशा इस हाथीने आज सारे हो शहर की कर दी. उस मदोन्मत हाथी के पास जाने की कोई हिम्मत नहीं करता था, इस उपद्रवी हाथीने एकाएक कृष्ण पाहूमण की स्त्री को अपनी सूंड से पकड़ लिया, और ऊपर उठा कर आकाश में चिघाड़ने-उछालने लगा. इस बात से राजा और सारी प्रजा में हाहाकार मच * प्रचलित यदि मेहः शिततां याति वह्नि,रुदयति यदि भानुः पश्चिमायां दिशायाम् ; विकसति यदि पद्म पर्वताप्रे शिलायां, तदपि च न हि मिथ्या भाविनी कर्म रेखा / / स.१०/५४३ // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 * विक्रम चरित्र गया. किन्तु उस हाथी से ब्राह्मणो का छूडाने की हिम्मत किसी मनुष्य में नहीं थी, इस दयनीय दशा को देख कर राजपुत्र रूपचंद्रने उस ब्राहूभणी की रक्षा के लिये भाला लेकर हाथी के सामने जाकर जोर से कहा, “अरे, दुष्ट गजराज ! तुम सबल होकर भो उस अबला को क्यों परेशान करते हो ? यदि तुम्हारे में बल हो तो मेरे सामने आ जाओ." राजपुत्र की इस ललकार को सुन कर गजराजने ब्राह्मणी को छोड़ दिया. और शीघ्र राजकुमार को पकड़ना चाहा. राजपुत्र रूपचन्द्र हाथी को पढ़कारता है. चित्र न. 18 गजराज क्रोध से धमधमता हुआ, रक्त नेत्र कर यमराज की तरह राजपुत्र के ऊपर धस आया. किन्तु राजपुत्रने भी अपने बल और पराक्रम से उस का अच्छी तरह सामना P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Juan Gun Aaradhak Trust Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 433 किया, बाद में राजपुत्रने गजराज को अपनी चालाकी से खुब घुमघुमाया और जोर से मर्मस्थान पर भाला मार कर हाथी को एक क्षण में ही पृथ्वी पर गिरा दिया. ___ इस प्रकार राजकुमार के द्वारा मदोन्मत्त गजराज को पल में गिर कर मरे हुए देख, महाराजा और एकत्रित सारी प्रजा राजकुमार की वीरता पर हर्षोन्मत हो गई, 'जय, जय की' ध्वनि से प्रजाने आकाश भर दिया. सारा राज्य में राजकुमार के पराक्रम की तारीफ होने लगी, महाराजाने प्रसन्न है। अपने वीर पुत्र को अभिनंदनार्थे अपने नगर को तोरण पताकादि से सुशोभित कर एक बड़ा महोत्सव मनाया, और एक विराट सभा बुलाकर उस सभा में महाराजाने राजकुमार को अघटकुमार के नाम से घोषित किया. क्यों कि राजकुमारने अपने पराक्रम से अघटित घटना को घटित कर दिखाया था, इसी लिये उन दिन से रूपचंद्र का अघटकुमार नाम लोकमें प्रख्यात हुआ. नगर की सारी प्रजाने भी अपने महाराजा को विशेष रुप से बधाई दी, महाराजाने उस भविष्यवेता ब्राह्मण को बुलाकर उसका सम्मान कर खुब धन देकर विदाय किया. उत्सव में राज्य के छोटे बड़े सभी सम्मानित लोग बधाई देने आये किन्तु राज्य के प्रधान मंत्री सुमतिराज एक नहीं आये, इस से राजा को बुरा लगा, अतः उस बात को लेकर महाराजाने मंत्रीश्वर को कुछ भला बुरा भी कहा, मंत्रीने P.P.AC. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '434 विक्रम चरित्र उत्तर में शान्तिपूर्वक निवेदन करते कहा, 'हे राजन् ! राजकुमार को राज्य का प्रधान हाथी मारना नहीं चाहिये था, क्यों कि वह राज्य का रक्षक हैं, जैसे राज्य के लिये हाथी महत्व का अंग माना जाता है, देखिये युद्ध के समयमें हाथी द्वारा शत्रु के नगर का दरवाजा तुड़वाया जा सकता है, और राज्य में वह मंगलकारक माना जाता है. हे राजन् ! मैं अधिक क्या कहूँ, मुझे बहुत दुःख हो रहा है, अपने इस प्रधान हस्ती के मरने से आप के शत्रुओं द्वारा उनके राज्य में मंगल मनाया जायगा. क्यों कि प्रधान हस्ती के मरने से सेना के बल में कमी हो जाती है, इसी लिये राजकुमारने यह कोई अच्छा काम नहीं किया है, हाथी को तो किसी ढंगसे वशमें करने का था, पर उसे मारना उचित नहीं था; और आप इस अनुचित कार्य के चिये बड़ा उत्सव मना कर राजकुमार को प्रोत्साहन दे रहे है, यह ठीक नहीं. हुआ. राज्य के सभासदों को बुलाकर आप विजय की खुशिया मना रहे है. जब कि आप के शत्रु वर्ग आप की इसी विजय में आप की हार देखते है, मैं हस्ति को मारने के विषय को उचित नहीं समझता. इसी लिये मैं इस उत्सव में सम्मिलित नहीं हुआ, और कोई कारण नहीं है. क्यों कि “माता, पिता, मित्र, भाई, पुत्र, पुत्री आदि स्नेहीजन और हाथी, घोड़े तथा गाय वगेरे की मत्यु हैाने से, और P.P. Ac. 'Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 435 प्रिय वस्तुओं के वियोग या नाश होने से हरेक प्राणी को दुःख होता हैं.” सुमति-मंत्रीश्वर के उपरोक्त ये युक्ति युक्त वचन भीमराजा को उचित लगे, और मंत्रीश्वर का नहीं आने का रहस्य भी समझमें आ गया, बाद में एक दिन भीमराजाने राजकुमार को उन शब्दों के द्वारा उपालंभ दिया, 'जैसे कुपुत्र से युक्त कुल, अन्याय से उपार्जित धन और रोगों से घेरा हुआ शरीर ये बहुत दिनों तक नहीं रहते हैं.' . भीमराजा से अपमानीत होकर राजकुमार मन ही मन बहुत दुःखी हुआ, और मनमें सोचने लगा, 'अधम मनुष्य. धन चाहते हैं, मध्यम मनुष्य धन और मान दोनों को चाहते है किन्तु उत्तम मनुष्य तो केवल मान ही की इच्छा रखते है.' अपनी प्रतिष्ठा की महत्वता को समजनेवाला राजकुमारने अपनी स्त्री को साथ लेकर और किसी को कुछ कहे सुने बिना ही रात्रि में घर से देशान्तर जाने के लिये प्रस्थान कर दिया. राजकुमार और उसकी पत्नी चलते चलते वीरपुर से बहुत दूर निकल चूके थे, रास्ते में राजकुमार की पत्नीने शुभ मुहुर्त में सूर्य समान तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया. क्रमशः घूमते घूमते अनेक छोटे बड़े गाम, नगर और वनों को उल धन करते करते रूपचन्द्रकुमार अपने पुत्र और पत्नी सहित अवतीपुरी में आ पहुँचा. रूपचन्द्र पुत्र सहित अपनी पत्नी को बाजार में 'श्रीद् ' नामके श्रेष्ठी की दूकान के बगल P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak. Trust Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र पास में बैठाकर वह नौकरी की खोज के लिये नगरी में घूमने लगा. ___ इधर पुण्यवान् उस बालक के प्रभाव से श्रीद सेठ की दूकान पर माल लेने वाले ग्राहक लोगों को भीड लग गई, जिस से श्रीद् सेठ की विक्री उस दिन खुब हुई, और नफा भी अधिक हुआ, श्रीद् सेठ विस्मित होकर विचारने लगा, 'आज एकाएक इतनी बिक्री कैसे हो गई ?' थोड़ी देर के बाद सेठने अपनी दुकान के पास में ही एक युवान स्त्री को अपनी गोद में बालक लेकर बैठी हुई देखा. उस स्त्रीके पास आकर उस वृद्ध सेठने पूछा, 'अरे बहन ! तेरी गोद में पुत्र है या पुत्री है सो कहाँ ?" .. श्रीद् सेठ के पूछने पर उस स्त्रीने अपना पुत्र उस सेठ को बताया. सेठ सूर्य जैसी कान्तिवाला सुन्दर बालक देखकर अति आनन्दित हुआ, और मन में सोचने लगा, 'इसी भाग्यशाली के प्रभाव से आज मेरी दुकान में इतनी अधिक बिक्री हुई और नफा भी खुब हुआ है !' - उसी समय रूपचन्द्र नगरी में से घूम घूमाकर वापस आया, और अपनी प्रिया से कहने लगा, “है प्रिये ! इस नगरी से चलो-यहाँ अपना निर्वाह होना असम्भव है. क्यों कि यहाँ कोई मुझे नोकरी रखने को तैयार नहीं है." उपरोक्त बातचीत को सुनकर सेठजीने कहा, "हे पथिक ! आज आप मेरे यहाँ पाहुना-महेमान रहिये. जितने दिन सानुकुलता रख P.P. Ac. Gunratnasuri M:9. Jun Gun Aaradhak Trust Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 437 उतने दिन आप यहां मेरे घर रहिये." सेठजी के आग्रह को मान कर स्त्री सहित रूपचन्द्र भोजन कर रातभर वहाँ ही ठहर गया. रात्रि में सोये हुए राजकुमार को देख कर सेटजी के मनमें एक सन्देह उत्पन्न हुआ, उसने पास में सोये हुए अपने नौकर को धीरे स्वर से कहा, 'कहीं यह परदेशी रात्रि में चोरी तो नहीं कर जायगा ? ' कुमार की पत्नीने उपरोक्त बात सुन कर कहा, 'सेठजी! आप का ऐसा सोचना ठीक नहीं है, मेरे स्वामी वीरवृत्ति से कमाकर खानेवाले है, पर चोरी आदि नीच कम वे कभी नहीं करेगें, आप निर्भय रहे. क्यों कि "भूखा और दुबला जरासे जर्जरित, सिंह क्या घास कभी खाता है ? महापुरुष अपनी मान मर्यादा का, कभी उलंघन नहीं करतें हैं." इस प्रकार रूपचन्द्र की पत्नी का कथन सुन सेठजी बहुत प्रसन्न हुआ, और रूपचन्द्र तथा सेठजीने परस्पर नाना प्रकार की बड़ी रात तक बातें निर्भय हो करके की और सब आनंद से सो गये. पाठकगण ! आपने इस प्रकरण में चन्द्रसेन कोटवाल का एक प्रसंग और राजकुमार रूपचन्द्र का रसमय स्वरूप पढा, भीमराजाने प्रथम अपने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 विक्रम चरित्र - - प्यारे पुत्र के वीरतापूर्ण कार्य से प्रजा का भयमुक्त करने का प्रसंग देख बड़ा उत्सव मनाकर पुत्र को सम्मानीत किया, किन्तु सुमति-मंत्रीश्वर के. विचारानुसार अपने विचार बदल कर, राजकुमार को कुछ कड़े शब्दों से उपालभ दिया. राजकुमार उसको अपमान समझकर किसी को कहे विन! ही अपनी पत्नी को लेकर परदेश की ओर प्रस्थान कर दिया. क्योंकि उत्तम स्वभाववाल व्यक्ति अपना मानभंग कभी सह नहीं सकते है. फिरते फिरते एकदा उसका अवन्ती में आगमन हुआ, अब उसके बाद राजकुमार का महाराजा विक्रमादित्य से किस तरह समागम होता है, और आगे का जीवन कीस तरह बितता है, ये सब आपको अगले प्रकरण में बताया जायगा. - गतिमस्वामिजीहत चोवोशी घंटाकर्ण, अमारा नया प्रकाशन श्री जिनेन्द्र दर्शन चोविशी तथा अनानुपूर्वी . संपूर्ण शास्त्रिय दृष्टिसे परिकर सहित चोवोश श्री तीर्थकर भगवान तथा श्री गौतमस्वामिजी, श्री सिद्धचक्रजी, वीशस्थानक, घंटाकर्ण, मणीभद्र, पद्मावतीदेवी, चक्रेश्वरीदेवी एवं अंबिकादेवी आदिके पचरंगी सुंदर चित्रो सहित उच्चे आर्ट पेपर पर सुंदर आकर्षक छपाई हुई किंमत 1-8-0 अधिक कोपीयाँ साथ में ले लेने वाले को योग्य कमिशन दिया जायगा. - एक नकल नमूने के लिये मगावकर देखोः जैन प्रकाशन भन्दिर . टि. 309/4 डोशीबाडाकी पोल, अहमदाबाद. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचावनवाँ-प्रकरण रूपचन्द्र की सत्त्व परीक्षा " उदारता धनकी करे, एसा लाखो लोक; टाणे शिर आगल करे, एसा विरला कोक, करे कष्ट में पाडने, दुर्जन कोटी उपाय; पुन्यवंत को वे सब, सुख के कारण होय." श्रीद श्रेष्ठी के घर में राजकुमार रूपचन्द्रने अपने पुत्र और पत्नी सहित आनंद से रात्रि बिताई, प्रभात होते ही निद्रा त्याग सब जागृत हुए. जब की ये स्नान आदि नित्य क्रिया निमाटा कर स्वस्थ हुए, तब प्रसन्न होकर श्रेष्ठीने रूपचन्द्र की पत्नी को बहु मूल्यवाली एक सुंदर साडी भेट दी, और रूपचन्द्र के लिये एक श्रेष्ट घोडी उपहार में भेट दी. इस प्रकार सेठजी श्रीद् और राजकुमार रूपचन्द्र का आपस आपस में स्नेहसंबंध दृढ बना. रूपचन्द्रने विनयपूर्वक श्रीद् सेठजी से पूछा, " हे सेठजी ! आप यह बतलाईये कि, मैं महाराजा विक्रमादित्य के दरबार में कैसे प्रवेश कर सकता हूँ? और महाराजा की सेवा किस तरह करूँ ?" ____ उत्तर में श्रीद् सेठजीने कहा, "जो मनुष्य महामंत्री भट्टमात्र की छ मास तक नित्य सेवा करके यदि उनकी प्रसन्नता P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 विक्रम चरित्र - प्राप्त करें तो बाद में महामंत्री उस को महाराजा विक्रमा दित्य के पास ले जाता है, और उसको महाराजा की सेवा प्राप्त होती है." सेठजी का कथन सुनकर रूपचंद्रने मन ही मन कुछ सोच विचार कर, आज ही राजदरबार में जाने का निश्चय किया. महाराजा के आगे उपहार करने योग्य फलफलादि सामग्री लेकर रूपचंद्र राजदरबार की ओर चला. रूपचंद्र राजसभा के द्वार पर आया और जब प्रवेश करने लगा, तो द्वारपालने उसे रोका, द्वारपाल को एक चपेटा मारकर जमीन पर गिरा दिया, और शीघ्र आगे बढा. बड़ी अदरसे चलता हुआ निर्भयतापूर्वक गजसभाके बीचमें होता हुआ रूपचंद्र महाराजा के आगे आकर खड़ा हुआ. महाराजाने उस की ओर देखा तो रूपचंद्रने शीघ्र ही अपने हाथ में का फलफलादि सामग्री महाराजा के चरणों में रख कर, विनय सहित नमस्कार कर अपने उचित स्थान पर खड़ा हो गया. प्रभावशाली चहेरा और मनोहर रूप देख महाराजा उस के प्रति आकर्षित हो गये; रूपचंद्रने बड़े विनय सहित महाराजा से कुछ बातचीत की. उसकी वचन, चतुराई, विनय एवं बार्तालाप करने की रीति नीति दे प्रसन्न होकर महाराजाने रूपचंद्र को दश हजार सोना महोरे देकर, भट्ट मात्र के प्रति कहा, " आप इस आगन्तुक के लिये रहने का सब प्रबंध कर दीजिये." P.P. Ac. Gunfatnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 441 राजसभा विसर्जन होने पर भट्टमात्रने द्वारपाल से कहा, " इस अतिथि के लिये एक सुंदर घर आदि का प्रबंध करो." __ वह द्वारपाल रूपचंद्र पर तो प्रथम से अप्रसन्न था ही, क्यों कि उसने उसी द्वारपाल को चपेटा मार गिराया था, फिर भी राज आज्ञा का पालन करना तो उसे आवश्यक था, मन ही मन द्वारपालने विचारा, 'इस को अनर्थ की गर्ता में डालने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है. अब ठीक मेरे हाथ अवसर आया है. उस चपेटे का बदला लेने का ह्रदय से सोचता हुआ द्वारपाल उस को साथ लेकर नगर में चला, चलते चलते जहां पर अग्निवैताल का निवासस्थान था, वहां आकर खडा हुआ. और उस अग्निवैताल का घर दिखा कर रूपचंद्र से कहा, “इस मकान में आप मुकाम कीजिये." ऐसा कहकर वह अपने स्थान पर लौट पड़ा.. बाहर से उस मकान को देख रूपचंद्र श्रीद् सेठजी के घर में रही हुई अपनी पत्नी का लेने के लिये चला. रास्ते में दीन, दुःखी, गरीबो को दान देता हुआ श्रीद् शेठजी की हवेली पर आ पहूँचा. और अपनी स्त्री से मिल कर सारा वृत्तांत सुनाया. श्रीद् सेठजी भी इस वृत्तान्त को सुनकर प्रसन्न तो हुआ किन्तु अग्निवैतालवाले घर में रहने की बात उसे अच्छी न लगी. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 विक्रम चरित्र राजा विक्रम से जो सोने की अशर्फिया मिली थी उन में से बाटते बाटते केवल दो अशर्फिया पास रही थी. रूपचंदने दोनो अशर्फिया अपनी पत्नी को दे दी. उसकी पत्नीने भी स्वाभाविक उदारता से दोनो गिन्नियां उस सेठजी की पुत्रवध को दे दी. श्रीद् सेठजी के हृदय में इस बात की चिन्ता होने लगी, 'इस विचारे पथिक की जान खतरे में पड गई.' किन्तु वीर रूपचंद्रने साहस कर श्रीद सेठजी से कहा, "आप इस लिए चिन्ता मत कीजिये, मेरा सब कुछ अच्छा मंगलकारक होगा. आप प्रसन्नता से मुझे जाने की आज्ञा दीजिये." श्रीद सेठजीसे दी गई घोडी पर चढकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी पत्नी और पुत्र के साथ अग्निवैतालवाले घर में आ पहूँचा. रास्ते में लोग बोल रहे थे, "हा, यह बेचारा महान अनर्थ में फंसाया गया, यह अग्निवैताल के मकान में कसे रहेगा ?" . उस घर में पहूँचते ही उसकी पत्नीने कहा, "हे पतिदेव ! घर में बहुत कचरा पडा है, इस की सफाई कराने बाद यह घर रहने योग्य होगा.” उस मकान की सफाई करने लिए मजदूर की आवयश्क्ता थी, ढुंढने पर भी पास में कोई मजदूर न मिला, इसी लिए पत्नी को उसी घर में रख कर वह मजदूर की खोज करने नगर में गया. उस की पत्नी अपने प्यारे पुत्र को पालने में मुलाकर झुलाती हुई गाने लगी, "अरे पुत्र, तू रोता क्यों / देख, जभो तेरे पिताजी तेरे खेलने के लिये अग्निकों' का 1 एक प्रकार की चिडियां या एक प्रकार का खिलौना. P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 443 पकड़ कर लाएंगे, तुम उस से खेला करना, थोडी देर शान्त रहो.” उसी समय द्वार पर अग्निवैताल आया और पशुओं , में श्रेष्ठ घोड़ी तथा मनुष्य को आवाज सुनकर आनंद-मग्न हो गया. " आज मेरा भोजन अपने आप यहां आ पहूँचा है, आज आनंद से भोजन मिलेगा.” अग्निकने अपने गण, भूत, प्रेतादिकों से कहा, "इन प्राणियों के पास चला." घोड़ी के मुख में लोह की लगाम लगी थी, घोड़ी को देख कर अग्निवैताल डर गया वह घोड़ी के पीछे गया. ज्योंही अग्निक घोड़ी के पीछे जाकर खडा हुआ कि घोडीने एकाएक लात मार दी, और अग्निवैताल उस आघात से गिर पड़ा. शीघ्र ही सावधानी से उठ खडा हुआ. उठने के बाद अग्निवैतालने अंदर से पालना झुलाते हुए गाने की आवाज सुनी, और वह डर गया. उस को डरा हुआ देख कर पद्माने कहा, " तुम मत डरो, चिरंजीवी रहो, तुम हूँ.” प्रत्युत्तर में कहा, "सुनो मै भेषसी हूं और मेरा भक्ष्य राक्षस है. . सुदर मुहूर्त में मैने इस पुत्र को जन्म दिया है, पिताने इस का नाम मुकुन्द रक्खा है. एक ज्योतिषीने इस बालक के ग्रह नक्षत्रादि को देखकर कहा है, 'एक अग्निक P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 विक्रम चरित्र HTHHTHHATTI -- ann દલઝમ: 'पद्मा और अग्निक परस्पर बातें कर रहे है. चित्र न. 19 को मारकर उस का खन इस बालक को पिलाओ तो दाघायु होगा. इसी कारण मेरे पतिदेव यहां आये है, और अग्निवैताल की खोज के लिये इसी नगर में गये है." / 1. पद्मा की बात सुनकर अग्निवैताल घबडाया हुआ सा बोला, “हे देवी! आपने अभी मेरे प्रणाम करने पर 'चिरजीवी रहो.' ऐसा आशीर्वाद मुझे दिया है, फिर आप मुझ मारने की बात कर रही हैं, यह कैसी असंगत बात है। स्त्रीने पूछा, “क्या तुम अग्निक हो ?" अग्निकने कहा, “ह मैं अग्निक हुँ. श्रेष्ठ व्यक्ति जो कुछ भी एक बार कह" है, उस का मरते दम तक पालन करते है, आपने मुझ अना P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 445 शीर्वाद दिया है, अतः मुझ पर कोई आपत्ति न आए ऐसः आप को करना चाहिए. क्यों कि"एक बार ही राजा बोले, साधु पुरुष बोले एक बार, कन्या एक बार दी जाती, ये तीनो नहीं बारम्बार."* राजा तथा साधु पुरुष एक ही बार बोलते है, अर्थात् जो कुछ कहना या करना होता है, उसे प्रथम बार में ही कह या कर डालते है, कन्यादान भी एक ही बार होता है, ये तीनों बाते वारंवार नहीं होती." इस प्रकार से अग्निवैताल के विनय प्रार्थना करने पर पद्माने कहा, " अच्छी बात है, तुम इस कडाह के नीचे छिप जाओ, मैं तुम्हे अपनी बुद्धि के प्रभाव से बचा लूंगी." . पद्मा की बातों पर विश्वास रखकर अग्निवैताल शीघ्र ही कडाह के नीचे छिप गया. ठीक उसी समय रूपचंद्र बाहर से आया. पद्माने घरसे वाहर आकर रूपचंद्रसे एकान्त में सारी घटना कह सुनाई. रूपचंद्र जानबूझ कर ऊँचे स्वर से बोलने लगा, “देखो! वह अग्निवैताल अवश्य यहां आया हुआ है, कहाँ ठहरा है ? शीघ्र बताओ." ‘पद्माने कहा, "हे प्राणनाथ ! वह तो आकर इसी * सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति साधवः .. सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् // स. 10/139 // 'P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 . विक्रम चरित्र घर के अन्दर ठहरा हुआ है.” यह सुन कर अग्निक बहुत घबडाया और सोचने लगा, . " मैं इस का कुछ नहीं कर सकता, क्यों कि यह प्रतापी वीर पुरुष है. इस के पूर्वापार्जित पुन्य के कारण मुझ से भी वह अधिक बलवान है." ऐसा अग्निवैताल सोच रहा था, वहां पद्माने आकर उस दीन मानस अग्निवैताल का हाथ पकड कर अभयदान दे कडाह नीचे से बाहर निकाल कर, अपने पतिदेव के सामने लाकर खड़ा कर दिया. ___अग्निवैताल कांपता हुआ खडा था. रूपचंद्रने पूछा, “तुम कौन हो ?" अग्निवैतालने कहा, "मैं राक्षस हूँ." रूपचंद्रने कहा, “तुम मुझे पहचानते हो ? मैं राक्षसो को मारनेवाला भेषस हुँ.” अग्निवैतालने कहा, “हे भेषस!" बोलता हुआ कहने लगा, " आप की स्त्रीने मुझे अभयदान दे दिया है. आप मुझ से क्यों इस प्रकार कहते है ?" रूपचंद्रने , कहा, " यदि तुम मेरी बात मानने की प्रतिज्ञा करो तो मैं तुम्हे छोड सकता हूँ, अन्यथा मैं तुम्हें विना मारे नहीं छोडूंगा, अपनी जिन्दगी में मैंने कितने ही दुश्मनों का रण में वध कर डाले हैं." रूपचन्द्र की बात सुनकर अग्निवैताल डर गया, और रूपचंद्र की आज्ञा में रहने की प्रतिज्ञा की. शीघ्र ही रूपचंद्रने उस अग्निवैतान की नाक में एक कौड़ी लटका दी, और संध्या के समय उस पर सवार होकर महाराजा विक्रमके पास जान Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 447 के लिये चला. रास्ते में जन समुदाय अग्निवैताल को इस तरह देखकर, आश्चर्यचकित, होकर कहने लगे, "अरे, इस वीरने तो वैताल की भी इस तरह बुरी दशा कर ढाली ?" my TICLRH -INE JITEN SONHANN SearcT Kee STRATE HINES ELU रूपचन्द्र वैताल पर स्वार होकर राजसभा में जा रहा है. चित्र न. 20 __ आपस में लोग बोलते थे, “यदि कोई पुरुष इस रूपचन्द्र के विरुद्ध बोलेगा तो, वह उसे इस अग्निवैताल के द्वारा मरवा डालेगा. देखो कितना आश्चर्य है कि, जो भूत प्रेत दूसरों के शिर चड कर जाते हैं, उस भूत, प्रेत को भी रूपचन्द्रने अपने वीरता से अपने वश में कर लीया है." . ऐसी बात सुन कर नगर के व्यापारी तथा अन्य लोग भी अपना अपना कार्य छोड के देखने लगे थे. कितनेक दूकानदार आदि जनसमूह अग्निवैताल के भय से भागने लगे. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 विक्रम चरित्र रूपचंद्र जब किसी वस्तु के लिये कहता था, तब वह दूकानो से उठा कर शीघ्र ला देता था. . जब रूपचंद्र अग्निवैताल पर चढ कर महाराजा विक्रम की राजसभा में पहूँचा. तब महाराजा सहित मंत्रीगण रूपचंद्र के साहस से प्रसन्न तथा आश्चर्यचकित हो गये. रूपचंद्र जब अग्निवैताल के द्वारा मंगवा कर सुंदर वस्त्रादि मंत्रियो को देने लगा तो, वे मंत्री लोग आदि भय से इधर उधर भागने लगे. रूपचंगने मंत्रियों से कहा, " आप लोग भागते क्यों है ? यह अग्निवैताल मेरे वश में है, यह मेरी आज्ञा के विरुद्ध कुछ नहीं कर सकता है. आप लोग इन वस्त्रों को धारण कीजिये.' तब मंत्रिगण रूपचंद्ग से दिये गये वस्त्र स्वीकार कर हर्षित हुए. महाराजा विक्रम रूपचंद्र की इस वीरता से बहुत प्रसन्न हुए, और उन्होंने उसका पूर्ण सन्मान किया. इस प्रकार अग्निवैताल और रूपचंद्ग में गाढ प्रेम हो गया. अग्निवैताल जैसे रूपचंद्ग के अधीन था, उसी प्रकार रूपचंद्ग भी राजा का भक्त बन गया. राजा विक्रमने रूपचंग का नाम अघट रक्खा. क्यों कि उसने किसी से भी नहीं होनेवाला अघटित काम कर दिखाया था. तब से जनता में राजकुमार पचन्द्र अघटकुमार के नाम से प्रसिद्ध हुआ. Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित .. इधर अग्निवैताल से रूपचंद जो कुछ भी कहता था, उसे वह शीघ्र ही कर दिखाता था, क्यों कि वनका राजा जो सिंह उसका न कोई अभिषेक करता है, न कोई उस को संस्कार-शिक्षा पढाता है, न कोई चुनाव आदि करते है, फिर भी अपने पराक्रम से ही संपूर्ण जगल का राजा बन कर, सिंह मृगेन्द्र की पदवी को स्वयं प्राप्त करता हैं.'x . . "उद्यम साहस धैर्य बल बुद्धि पराक्रम जिसके; __ ये षड्गुण रहते है सन्मुख भाग्य सहायक उसके." उद्यम, साहस, धर्य, बुद्धि, बल और पराक्रम-वीरता आदि गुण जिन व्यक्ति में होते हैं, भाग्य भी उसी का सहायक होता है. . महाराजा विक्रमादित्यने अघटकुमार को अपना अंगरक्षक-बोडीगार्ड बना लिया. राजदेवी द्वारा विक्रम तथा अघट की परीक्षा" लगी राजदेवी लेने जब विक्रम अघट परीक्षा: साहस परिचय दे उन्होंने पूरी की निज इच्छा." शान्तिपूर्वक राज्य कार्य चल रहा था. सब शान्त और प्रसन्नचित होकर अपना अपना कार्य कर रहे थे. एक रात * नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते मृगैः / विक्रमाजितसत्त्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता / / स. 10/634 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 विक्रम चरित्र महल के कुछ दूर से रोनेकी आवाज आई. राजाने कहा, "हे अघट ! देखो तो इस मध्यरात्रि में कौन, कहाँ, क्यों रो रहा है ?" अघट उस आवाज की दिशा में चला. आगे चल कर देखा तो एक स्त्री पीपल के पेड पर रो रही थी. अघटने पूछा, “हे देवी! तुम कौन हो? क्यों रो रही हो?" उस स्त्रीने उत्तर दिया, "मैं इस राज्य की अधिष्ठात्री देवी राजलक्ष्मी हूँ, कल राजा विक्रम मर जायगा, तब मेरा क्या होगा? इस लिये रो रही हु." .. अघटने पूछा, " हे देवी, राजा विक्रम दीर्घायु बन सके इस का कोई उपाय है ? " राजदेवी ने कहा, " यदि तुम अपने पुत्र की बलि मुझे दो तो इस अनर्थ की शांति हो सकती है. इस का और कोई दूसरा रास्ता नहीं हैं.' सुनते ही अघट अपने घर गया और स्त्री को जगा कर उस से पूछा, “हे प्रिये ! राजयक्ति की परीक्षा हैं; तुम्हारा क्या विचार है ?" अघटने देवी से कही गई सारी बातें सुना दी. पद्माने साहसके साथ कहा, "हे प्राणनाथ ! मुझे अपने पुत्र की बलि देने से महाराजा को शांति प्राप्त होती हो तो मैं ऐसा करने के लिये तैयार हूँ.” अपनी प्रिया की साहस भरी वाणी सुन कर, उस के पास से अघटने अपने पुत्र को ले लिया, और उस पेड़ के नीचे आकर खुशी से अपने पुत्रका बलि दी. देवी को पुत्र की बलि दे देने के बाद अघट अपने घर चला गया. Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 451 ___ इधर राजा विक्रम भी छिपकर सब देख रहे थे. क्यों कि अघट की परीक्षा करने के लिए ही तो राजाने आधी रात में भेजा था. विक्रमादित्य अघट के साहस, राजभक्ति तथा त्याग को देख कर मन ही मन उसे धन्यवाद देते हुए उसी पेड़ के नीचे जाकर राजदेवीको संबोध कर तलवार से अपना शिर काटने के लिये तैयार हो गए. . TSca ल -1 महाराजा विक्रम और राजदेवी. चित्र नं. 21 ज्यों ही विक्रमादित्यने अपना शिर काटने के लिये तलवार उठाई कि, देवी प्रत्यक्ष होकर बोलने लगी, " हे वीर, भप ! तुम बड़े साहसी, दानवीर और बुद्धिमान हो, तुम अपना शिर मत काटो, मैं तुम पर प्रसन्न हूँ. तुम अपनी इच्छा से P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 विक्रम चरित्र वर मांग कर सुखी रहो.” - लंका पर विजय प्राप्त करनी थी, समुद्र में बाँध बाँध कर पैर से चलकर पार करना था. रावण जैसा दुर्जेय शत्रु था, सहायक दुर्वल वानर थे, फिर भी रामने लडाई में सारे राक्षस वंश का नाश कर डाला. इस से यही जान पडता हैं कि, महान पुरुषो के कार्यो की सिद्धि उनके पुरुषार्थ और सत्व से ही प्राप्त होती है. वस्तु संपत्ति या साधन से नही.x शुभ कार्यों में महान् पुरुषों को भी अनेक विघ्न आते है, और अशुभ कार्य में प्रवृत्त होने पर तो शायद ही कोई विघ्न आ सकता है.. __राजा विक्रमने कहा, "हे देवी! यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो सर्व प्रथम अघटकुमार के पुत्र को जीवित कीजिये." देवी ने कहा, "हे राजन् ! अघटकुमार के पुत्र को मैं जीवित कर देती हुँ-लो.” विक्रमादित्य अघटकुमार के उस जीवित पुत्र को लेकर अपने महलमें आए. बच्चेको सुरक्षित स्थान में रख कर-छुपा कर सो गए. प्रातःकाल ही पद्मा सहित अघट को अपने महल में 4 विजेतव्या लङकाचरणतरणियो जलनिधिविपक्ष: पौलास्त्यो रणभुवि सहायाश्च कपयः / तथाऽप्याजौरामः सकलमवधीद्राक्षसकुल .. क्रियासिद्धिः सत्वे भवति महतां नोपकरणे // स. 10/648 // Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 453 बुलवाया. अपनी प्रिया पद्मा के साथ अघट को राज दरबार में जाते देख कर लोग आपस में कहने लगे, “देखो ने उसने आते ही राजा को अपने वश में कर लिया, महाराजा इसका कितना सन्मान करते है. अपने महल में भी बुलवाने लगे." अघटकुमार अब महाराजा के पास गया तो राजाने प्रेम से पूछा, “हे अघटकुमार, तुम्हारे कोई संतान है, या नहीं ? " अघटने कहा, " हे महाराज ! एक छोटा सा पुत्र है." राजाने पूछा, "वह कहां है ? " अघटने कहा, “वह अभी ननिहाल-मामा के घर पर हैं.' इस तरह छिपाते छिपाते अन्त में राजा से अघटने सत्य बात बता दी, "मेरा एक पुत्र था, उसे मैंने महाराजा की शान्ति के लिये देवी को बलि चढा दी." राजाने रात का सम्पूर्ण वृत्तान्त मंत्रियों तथा सभासदों को कहा. सुन कर उस अघट-रुपचंद्र को सभीने गले लगाया, और वह बालक जिसे अघटने रात में देवी को बलि दे डाली थी, सन्मानपूर्वक दे दिया. राजाने रूपचन्द्र को इस राजभक्ति तथा बहादुरी के लिये सन्मान किया, और ग्राम की जागीरी आदि उन्हे भेट / में दी. अब वह रूपचंद्र सुखी हो गया. विक्रमादित्यने उस से माता पिता के नाम ग्रामादि प्रेम से पूछा रूपचंद्गने अपनी सारी कहानी कह सुनाई. फिर बहुत सन्मान के साथ रूपचंद्ग को अपनी राजधानी में पहूँचाया गया, इसके पिता अपने पुत्र के पराक्रम को सुन कर तथा लक्ष्मीसंचय को देख बहुत P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 विक्रम चरित्र प्रसन्न हुए. कुछ दिन के बाद महोत्सव के साथ रूपचंद को राजगादी दे दी गई. इस प्रकार महापराक्रमी अघट भूपति न्याय नीति से राम की तरह प्रजा का पालन करने लगा. रूपचंद्र को राज्य की प्राप्ति की खबर सुन कर विक्रमादित्य बहुत प्रसन्न हुए. विक्रमादित्य और अघट में दिनानुदिन परस्पर प्रेम बढने लगा. समय समय पर अघट राजा विक्रम के यहां आकर सूक्तिया सुन तथा सुनाकर अपने जीवन को आनंदमग्न करता था. कहा भी है. नीति तथा उपदेशात्मक वाक्यों का रसास्वादन करता हुआ पुलकित शरीरवाला कवि, कामिनी के बिना भी सुख प्राप्ति करता है.x इस तरह से और भी कितने-भट्टमात्रादि महामंत्री विक्रमादित्य के प्रख्यात यशस्वी सेवक हुए. गुणवन्ता गंभीर नर दयावान दातार अंतकाल तक न तजे धैर्य धर्म उपकार." प्रिय पाठकगण ! अघटकुमार-रूपचंद्र का श्रीद् श्रेष्ठी के वहां ठहरना उस से विना मादित्य के मिलने का उपाय पूछना, उस के बताये गये उपाय जा महा विनाऽपि कामिनीसंग कवयः सुखमासते / / स. 10/661 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित मंत्री भट्टमात्र की छ मास सेवा करने पर वह राजाजीसे मिलायेगा, उस बात की उपेक्षा कर सिधा ही राजद्वार में प्रवेश करना, उन के तेजप्रभाव देख, महाराजा द्वारा बहुमान होना. उतारा के लिये आदेश करना, द्वारपाल द्वारा अग्निवैताल राक्षस का मदिर बताना, वहांसे रूपचंद्र द्वारा उस वैताल को वश में करना, उस पर सवार होकर राजसभा में जाना, महाराजा विक्रम का उनकी इस प्रकार की वीरता देख अत्यन्त प्रसन्न होना, राज्य अधिष्ठायिका देवी तथा विक्रमादित्य द्वारा की गई परीक्षा में उत्तीर्ण होना अघटकुमार के नाम से संबोधित करना, इत्यादि विवेचन आपने इस प्रकरण में पढा. अब आगे का रहस्यपूर्ण महाराजा का पूर्व---भवा दि वृतान्त अग्यारवें सर्ग से पढियेगा। / तपागच्छीय-नानाग्रंथ रचयिता कृष्णसरस्वती बिरुदधारक परमपूज्य-आचार्य श्री मुनिसुंदरसूरीश्वर शिष्य पंडितवर्य श्रीशुभशीलगणिविरचितेविक्रमादित्यचरितेसौभाग्यसुंदरी :परिणयनतत्परीक्षाकरणाद्य घटकुमार मिलनस्वरूपो दशमः सर्ग समाप्तः नानातीर्थीद्धारक-आचाल ब्रह्मचारि-शासनसम्राट श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वर शिष्य कविरत्न शास्त्रविशारद-पीयूषपाणि-जैनाचार्यश्रीमद् विजयामृतसूरीश्वरस्य तृतीयशिष्यः वैयावच्चकरणदक्ष मुनिवर्य श्रीखान्तिविजयस्तस्य शिष्य मुनि निरंजनविजयेन कृतो विक्रम चरितस्य हिन्दी भाषायां भावानुवादः तस्य च दशमः सर्ग समाप्तः P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवता===== प्रगति बताकर जिस समाजमें होता मर्यादा का लघन ! // भीतर घोर विपमता है, पर समताका ही बाह्य-प्रदर्शन ! | हा ! अनुशासहीन जहाँ हैं. पद-लोलुप जनता का शासन ! सुधरेगा समाज वह कैसे ? व्यक्ति व्यक्तिका कलुषित जीवन ! आह ! अराजकता है छायी, कैसे मिट सकती बर्बरता ! हटा ! हटा ! इस महालय में घुसी जा रही है दानवता ! क्षण-भंगुर धन-जनके मदमें मनुज अरे क्यो अकड़ रहा तू ? तुच्छ २स्वत्वके लिये परस्पर कुत्तों-सा क्यों झगड़ रहा तू ? आह ! मोह-वश क्यों पापांसे निज जीवनको जकड़ रहा तू ? क्यों न छोड़कर अधम प्रेयको, परम श्रेयको पकड़ रहा तू ? मृग-तृष्णामें प्यास बुझी कब ? बढ़ती नित गई विकलता ' रोक ! रोक ! तेरे जीते जी, कहीं मर न जाये मानवता ! | ( रचयिता : श्री. भवदेवजी झा. एम. ए. शास्त्री हिन्दी कल्याण के मानवता-अकसे-साभार उध्धन) 1. असभ्यता. 2. अधिकारके लिये. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्थं भनपार्श्वनाथाय नमः। छप्पनवाँ-प्रकरण ( ग्यारहवा-सर्गका आरंभ ) महाराजा विक्रमादित्य का पूर्वभव श्रवण व प्रायश्चित माया सुख संसारमें, वह सुख जगमें असार; धर्म कृपा से सुख मिले, वह सुख जगमें सार. ___ एक दिन धर्मोपदेश श्रवण के बादः विक्रमादित्य महाराजांने श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी महाराजसे पूछा, “हे गुरुदेव ! किस कर्म के प्रभाव से मुझे यह मनोहर राजलक्ष्मी की प्राप्ति हुई ? और कौन से शुभ कर्म से अग्निवैताल सदैव मेरे पास रहकर मेरा कार्य करता है, तथा किस कारण से भट्टमात्र के प्रति मेरी प्रीति में दिनोंदिन इतनी वृद्धि होती जा रही हैं ? अर्थात् इस अत्यधिक प्रीति का हेतु क्या है ? खपर नामक बलशाली चोर किस कर्म के बल से सहज ही में मेरे से मारा गया?" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 विक्रम चरित्र गुरुदेव बोले, " हे राजन् ! तुम अपने पूर्व जन्म के संबंध को सुनोगुरुदेव द्वारा पूर्व भव कथन ___" आघाटक नामक नगर में चंद्र नाम का एक वणिक रहता था. उस के राम और भीम नाम के दो अतिशय प्रीतिपात्र मित्र थे. वे तीनों ही हमेशा प्रीतिपूर्वक साथ रहते थे. धीरे धारे उन के पास का सारा धन खर्च हो जाने से वे तीनो दरिद् हो गये. एक दिन दरिद्रता के दुःख से दुःखित हो वे तीनों विचार करने लगे, 'जैसे लोग अपनी कन्या के लिये सत्कुल आदि की तलाश करके ही कन्या व्याहते है, उसी तरह विधाता भी अच्छे कुल, विद्याशील, शौर्य, सुरूपता की ठीक तरह से परीक्षा करके दरिद्रता देता है.x लोगो में कहा जाता है कि मरे हुए व्यक्ति तथा द्व्य रहित होने से दुर्दशा को प्राप्त हुए दरिद् व्यक्ति, इन दोनो व्यक्तियो में मृत व्यक्ति अच्छा है, क्यों कि मृत को. तो उसके संतान से पानी भी मिलता है. लेकिन द्रव्यहीन को तो बिंदु मात्र पानी भी प्राप्त नहीं होता. बुरा भाग्य ऋण आलस बहु सुत भूख पेट में सदा रहे, यह पाँचो दुर्गुण दद्धि के, घर में आठों पहर रहे. .4 परीक्ष्य सत्कुल विद्या, शील शौर्य सुरुपताम् / विधिददाति निपुण कन्यामिव दरिद्रताम् // स. 11/6 / / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhek Trust Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 459 ___ ऋण, दुर्भाग्य, आलस, भूख, और अधिक सन्तान ये पाचो चीजें दरिद्रता के साथ उत्पन्न होती हैं तथा साथ ही उसका नाश होता है, अर्थात् ये पाँचो दरिद्रता के साथ ही रहनेवाली है. और भी कहा है कि, हे पुत्र! तू ऋण मत करना. क्यों कि व्याधि या रोग इसी भव में और पाप कर्म परभव में दुःख देते है. लेकिन ऋण तो इस भव में या परभव में दोनो ही जगह दुःखदायक होता है. इस लिये समझदार व्यक्ति को चाहिये कि कोई प्रकार का ऋण नहीं करना चाहिये. इस प्रकार का विचार कर वे तीनों ही मित्र उस स्थान को छोड . कर लक्ष्मीपुर नामक एक रमणीय नगर की ओर जाने के लिये रवाना हुए. चलते चलते रास्ते में एक सुंदर सरोवर के किनारे पहूँचे. वहां वे तीनों आराम के लिये ठहर गये, और आराम के बाद अपने साथ लाया हुआ भोजन करने के लिये बैठे, उसी समय वहां पर दो मुनि महाराज दूर से आते हुए दिखाई दिये. जिन का शरीर तपस्या से कृश हो गया था. चंद्ने अपने साथीओं से कहा, "अपने सद्भाग्य से ही ये दोनो पूज्य महात्मा पधारे है, अतः शुद्ध भावना से इन दोनो मुनिराजों को शुद्ध दान देना चाहिये. जैसे कि, 'ज्ञानदान से मनुष्य ज्ञानवान् , अभयदान से निर्भय अन्नदान से हमेशा सुखी तथा औषधदान से वह निरागी बनता है. लेकिन साधनसंपन्न होने पर भी दान न देने P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Sun Aaradhak Trust Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 विक्रम चरित्र - से वह आगामी जन्म में दरिद्री बनता हैं. दरिद्तावश वह अनेक पाप करता है. पाप करने से वह नरक में जाता है, और इस प्रकार बार बार वह दरिद्रता के चक्कर में ही घूमता रहता है.x . कृपणोपार्जित धन का भोग कोई भाग्यवान पुरुष ही करता है. जैसे की दात बडे कष्ट से अन्न को चाबते है, लेकिन जिह्वा तो बिना प्रयत्न किये ही उसे निगल जाती है. .. * एक कविने कहा है, "इस जगत में कृपण के समान दाता न कोई हुआ है और न होगा. क्यों कि कृपण तो बिना स्पर्श किये ही अपना सब धन दूसरो को दे देता है, अर्थात् दूसरा के लिये छोडकर मरता है. कृपण ही सच्चा त्यागी है, क्यों कि वह सब कुछ यहा पर ही छोड़कर जाता है. मैं दाता को ही कपण मानता हूँ. क्यों कि वह तो मरने पर भी धन को नहीं छोड़ता. अर्थात् दान, पुण्य कर के परभव में पुनः इस लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है. "कितना ही धनवान् कृपण हो, इस से क्या सुख लोगो का ? फलफूलों से लदा ढाक तरु, क्या फल देता जीवों का ?" * अदत्तदानाच्च भवेद् दरिद्रो, दरिद्रभावाद् वितनोति पापम् / पाप हि कृत्वा नरकं प्रयाति, पुनदरिद्रः पुनरेव पापी || 11/11 " P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित - करण यदि समृद्ध हो तो भी उस के आश्रितो को क्या लाभ ? क्यों कि उन्हें इस की समृद्धि से कोई लाभ या फल प्राप्त नहीं होगा, किंशुक-पलाश के फलने पर भी भूखा तोता उस के फलों को क्या करे ? तोता भूखा होने पर भी पलाश के फल का भक्षण नहीं करेगा. धनी होने पर भी जो दान नहीं कर सकते उन्हे मैं महा दरिद्रो में भी अग्रगण्य मानता हूँ. क्यों कि जो समुद्र कीसीकी प्यास नहीं बुझा सकता वह जल रहित (मरुभूमि) के समान ही है. जगत में पाँच प्रकार के मुख्य दान है. अभयदान, सुपात्रदान, अनुकंपादान, उचितदान और कीर्तिदान. इन में अभयदान व सुपात्रदान ये दोनो ही मोक्ष सुख को देनेवाले या कर्मो से मुक्ति दिलाने वाले है, बाकी तीन प्रकार के दान भोग सामग्री देनेवाले है. - किसी के पास धन, साधनसामग्री होती है, किसी के पास चित याने उदार दिल होता है, और कहीं अन्यत्र चित व वित्त अर्थात् मन-भावना व धन दोनों होते है. लेकिन धन, मन, और सुपात्र दान का संयोग ये तीनो तो किसी पुण्यवान् व्यक्ति को ही प्राप्त होते है.x . X केसि चि होई वित्तं चित्तमन्नेसि उभयमन्नेसि / * चित्तं बित्तं पत्तं तिन्नि वि केसि च धन्नाण // स. 11/21 / / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र इस तरह परस्पर विचार कर वे तीनों मित्र उठे, और सन्मानपूर्वक चंद्रने अपने मित्र सहित दोनों मुनियों को नमस्कार किया तथा चंद्रने अपने भाते में से शुद्ध अन्न का भावभक्ति सहित दान दिया. कहा भी है, “प्रिय वचन सहित दान, गर्व रहित ज्ञान, क्षमायुक्त वीरता, त्याग सहित धन, ये चारों कल्याण कारक प्राणीको मिलने इस जगत में दुर्लभ है.x NADU ASTRO SANA awade THANTE RSSIMURALLERS TWASAN AULMITRA TASHW. m Aad चन्द्र वणिक मुनिजी को भाव से दान दे रहा है. चित्र न. 22. एक समय वह चंद्र वणिक को वीर नाम के काई x वीर न होता क्षमायुक्त है, प्रेम सहित नादान / त्याग सहित ना धन मिले अहंकार बिन ज्ञान / / P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविय संयोजित व्यापारी के बीच कलह उत्पन्न हुआ, फल स्वरूप वीर की दृढ मुष्टि के प्रहार-आघात से चंद्र का उसी समय मृत्यु हो गई, वह चंद्र का जीव मर कर तूं राजा हुआ है. राम और भीम भी समय बितने पर, वहां से मृत्यु को. प्राप्त हुए, और वे दोनों मर कर भट्टमात्र तथा अग्निवेतालके रूप में उत्पन्न हुए, अतः वे तुम्हारे पूर्व भव के संबंध से प्रीतिपात्र मित्रवर बने, तुम्हे मारने वाला वह वीर व्यापारी मर कर अज्ञानमय सप के प्रभाव से यहां खर्पर चोर के रूप में उत्पन्न हुआ था. जो देवताओं से भी दुर्दमनीय रहा. . . . हे राजन् ! पूर्व कर्म के परिणाम स्वरूपमय खर्पर चार तुम्हारे द्वारा मारा गया और पुनः दूसरी नरक में गया. कहा है, "कर्म का फल, इस लोक में जो कर्म किया जाता उसी का परलोक में मिलता है. क्यों कि वृक्ष के मूल में पानी देने से ही शाखाओं में फल लगते है. किया हुआ कर्म सौ करोड कल्प के बीत जाने पर भी नष्ट नहीं होता, और किये गये शुभ या अशुभ कर्मों का फल जीव को अवश्य . भोगना ही पड़ता है. कर्म ऐसा बलवान है कि, उस ने किसी को नहीं छोडा. जिस कम ने ब्रह्मा को ब्रह्माण्डरूप भाण्ड-बरतन बनाने के लिये कुंभार के रूप में नियुक्त किया, जिस कर्मने शिवजी को अपने हाथो में कपाल याने खप्पर लेकर भिक्षाटन करने को मजबूर किया, जिस कर्म के कारण विष्णु दशावतार के गहन P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र वन रूप महा संकट में पड गये, और जिस के प्रभाव से सूर्य हमेशा आकाश में घूमता है, उस कर्म को सदैव नमस्कार हो. और भी कर्म ही मुख्य है, कर्मा के आगे शुभ ग्रह भी कुछ नहीं कर सकते, क्यों कि वसिष्ठ द्वारा राजगद्दी के लिये निकाला हुआ सुंदर लग्न भी श्री रामचंद्रजी को बनवास देनेवाला बना. rrin al AN Z चन्द्र वणिक बकरीयों से मारा जाता हुआ बकरे को बचाता है. चित्र नं. 23 .. हे राजन् ! तुमने पूर्व जन्म मे बकरीयों से मारे जाते --- हुए एक बकरे को दया भाव से छुडा कर उस की रक्षा का थी, इस से तुम्हारी आयु सौ वर्ष की हुई.” परमकृपाळु. गुरुदेव के मुखकमल से यह वृत्तान्त सुन कर महाराजा विक्रम जीवदया आदि कार्यो में विशेष रूप से संलग्न हुए. गुरुदत P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 465 श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजीने पूर्वजन्म का वृत्तान्त पूर्ण कर आगे कहा, "हे राजन् ! प्राणी जो पाप कर्म करते है उन पापों का बिना पश्चाताप व प्रायश्चित किये छुटकारा नहीं हो सकता." गुरुदेव द्वारा प्रायश्चित लेने की आवश्यकता बताई: सिद्धसेन गुरुने बतलाया, पाप छिपाया नहीं करो; पापालोचनसे होता है, दुःख दूर यह मनमें धरो. शास्त्रों में कहा भी है, " किये गये पापों की आलो-- चना गुरु के पास करनी चाहिए.' मनमें अलोचना लेनेकी धारणा करके गुरु के पास जा रहा हो, और यदि रास्ते चलते कदाचित् मृत्यु हो जाय तब भी वह-जीव आराधक ही कहलायेगा.x शरीर द्वारा जीवहिं सादि पाप लगे हो उनका कायासे तपश्या, काउसग्ग आदि अनुष्ठान द्वारा प्रतिक्रमण करना,, वचन द्वारा कर्कश शब्दादिसे जो पाप हुए हो, उन का वचन से मिच्छामिदुक्कड देकर प्रतिक्रमण करना, मन द्वारा संदेहादि से जो पाप बंधा हुआ हो, उस का मन से प्रायश्चित कर के प्रतिक्रमण करना. इस प्रकार सभी पापों का प्रतिक्रमण करना चाहिए. चपल स्वभाव के लोग माया, कपट, परवंचना, x आलोअणापरिणआ सम्म संपड़िओ गुरुसगासे / जई अंतरावि काल.करिज्ज आराहओ तहवि // स. 11/35 // . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. dun Gun Aaradhak Trust Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र करते हैं, तथा विश्वास रखने लायक नहीं होते, ऐसे पुरुष मर .. कर स्त्री बनते है, लेकिन जो स्त्री संतोषवाली, सुविनीत, सरल स्वभावी होती है, तथा हमेशा शांत, स्थिर व सत्य बोलनेवाली होती है, वह मर कर पुरुष रूप में उत्पन्न होती है. दुर्वचनरूपशल्य को दूर करने की इच्छावाला वैरागी और संसार से उद्विग्न, अत्यंत श्रद्धावान जीव शुद्ध हेतुपूर्वक जो आलोचना करता है, वह जीव आराधक कहलाता है. ' गूढ, अतिगूढ या तत्काल सुखदायक जो जो अशुभ कर्म या पाप किये हुए है, उन सब को गुरुदेव के सन्मुख प्रकाशित कर उन की निन्दा व गर्दा अन्य के पास प्रगट करने से प्राणी उन सभी पापा से मुक्त हो जाता है. भव्यात्मा-पुरुष अपने 'एक जन्म के किये गये हुए पापों की आलोचना लेकर अनन्त - "भवो द्वारा उत्पन्न हुए पापो को भी अनायास ही नाश कर देता है. आलोचना मुक्तिसुख की परंपरा प्रदान करती हे," - महाराजा विक्रमने आलोचना के इन फलों को गुरुदेव के मुख से सुन कर भक्तिभावयुक्त हो उन्होंने सम्यक् आला चना ली, अर्थात् गुरुदेव के सन्मुख अपने पापों को कह कर उनका प्रायश्चित पूछा, गुरुदेवने भी विक्रमराजा के मुख स "उसके किये हुए पापो को सुन कर उस की विशुद्धि करने / लिये उन अपराधानुसार प्रायश्चित बतलाया. उसे सह स्वीकार कर महाराजाने भी अनेक धर्मकृत्य करके, अपने पा का उन्मूलन किया. . Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 467. महाराजा के धर्मकृत्य और धर्मकरणी महाराजा विक्रमादित्यने कैलास पर्वत के समान सौं जिनालय बनाये और उस ने सभी जिनेश्वरो के एक लाख जिनबिम्ब बनवाये-भरवाये. वर्तमान जिनेश्वर श्री वर्धमान स्वामी के सभी आगमो व सिद्धांतो को सोने और चांदी के अक्षरों में लिखवाया उन्होने एक लाख साधर्मिक बधुओ को भोजन करवाया और उपर से सुंदर अन्नपान वस्त्र आदि दे कर के उन्हे संतुष्ट किया. प्रतिदिन वह श्री जिनेश्वर देव की त्रिकाल पूजा-अर्चा करता था. इस प्रकार प्रायश्चित पूर्ण करने के लिये तथा पायोच्छेदन के लिये राजाने तीन वर्ष तक पूजादिक नियम किये.. शास्त्रों में कहा भी है कि कुसुम अक्षत, चंदन, धूप, दीप,. नवेद्य, फल और जलादि अष्ट प्रकार से जो पूजा की जाती है, वह आठों कर्मों का नाश करनेवाली होती है. निश्चय ही वह राजा विक्रमादित्य सदैव प्रासुक-उबाला हुआ पानी ही पीता था. . साथ ही निरंतर परोपकार करता हुआ, वह जीवन .व्यतीत करने लगा. और कहा भी है, "बुद्धिमान लोग शास्त्र को ज्ञान प्राप्ति के लिये, धन को दान करने के लिये, जीवन को धर्म के लिये और शरीर को परोपकार के लिये ही धारण करते हे. “परोपकाराय सतां विभूतयः" महाराजा विक्रमादित्य हमेशा ही नवकारसी आदि पच्चक्खाण करते और अष्टमी आदि पर्व तिथि के समय एकाशन P.P. Ac. Gupratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 विक्रम चरित्र आदि तप भी किया करते थे. वे सदा तीन सो नवकार गिनते थे और गुरु का योग होने पर वे गुरुवंदन अवश्य करते थे... - इस प्रकार गुरुदेव श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी से कहे गये सारे प्रायश्चित राजाने अंगीकार कर सम्यक् प्रकार से श्री जिनेश्वरदेव के कथित धर्म का पालन करते करते वे क्रमशः स्वर्ग व मोक्ष सुख को प्राप्त करते रहे. जो तीनो लोकका आधार है, समुद्र, मेघ, सूर्य तथा चंद्रादि अपने अपने कर्तव्य बजा रहे है, जिस के प्रसाद से देव, दानव तथा नृपति अपने अपने सुखों को भोगते है, और जिस के आदेश से ही चितामणी, कामधेनु, तथा कल्पवृक्ष आदि फल देते है, वह श्रीमज्जिनेंद्र प्रणीत धर्म (जैनधर्म) आप की शाश्वत कल्याण लक्ष्मी को कुशल रक्खे. ॐ इस प्रकार विक्रमादित्य महाराजा जीवदया धर्म का पालन करते थे, वे स्वयं तो पालन करते ही थे पर उनको देखने से अन्य लोग भी जीवदया पालन में तत्पर रहते थे. कहा है, " यथा राजा तथा प्रजा." अतः प्रजा भी उस का अनुकरण करती थी. लोग भी यथाविहित धर्म करते हुए सु * आधारो यस्त्रिलोक्या जलधिजलधराकेन्दवो यन्नियोज्या, भुज्यन्ते यत्प्रसादाद रसुरनराधीश्वरः संपदस्ताः; आदेश्या यस्य चिन्तामणिसुरसुरभिकल्पवल्यादयस्ते, श्री मज्जैनेन्द्रधर्मः कुशलयतु स वः शाश्वती शम लक्ष्मीम् / / // स. 11)54 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 469 राज्य में रहने के साथ तथा भयरहित अपने कामों को करते थे. ओर आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे.. ___पाठकगण ! इस प्रकरण में आपने महाराजा का पूर्व भव कथन गुरुदेव के मुखसे सुना, दयाभाव से चन्द्र वणिकने बकरीयां से मारा जाता बकरे कों बचाया. उस पुण्य के प्रभाव से दूसरे भवमें सो वर्ष की आयु प्राप्त कि 'जियो और जिनेदो.' यह सिद्धान्त कितना जीवन में आदरणीय है, वह इस से प्रगट होता है. सतावनवाँ-प्रकरण समस्या-पादपूर्ति जो जामे निशदिन वसे, सो तामे परवीण; सरिता गज को ले चले, उलत चलत है मीन. इस भारतवर्ष में लक्ष्मीपुर नामक नगर में अमरसिंह नामके राजा राज्य करते थे. उन की प्रेमवती नामकी भार्या थी, कुछ समय के बाद राजा की भार्या को एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, जिस का नाम श्रीधर रखा गया. और उसके अनन्तर एक पुत्री हुई, उसका नाम पद्मावती रखा. बहुत. प्रेम से लालनपालन पाती हुई, वह पुत्री धीरे धीरे बड़ी हुई.. महाराजा अमरसिंह के वहां एक कोई देवताई. तोता था, वह बहुत ही बुद्धिशाली था. एक वख्त सुनने पर वह तोता हर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 विक्रम चरित्र बात को कभी नहीं भूलता था. उसी तोते के साथ साथ पंडित के यहां वह कन्या पढने लगी. कुछ ही समय में वह पदमावती विदुषी बन गई. कहा है- . ... जिस प्रकार पानी में पड़ा हुआ थोडा तैल भी अपने आप ही फैल जाता है, दुष्ट को कही हुई गुप्त बात भी सर्वत्र प्रगट हो जाती है, और सुपात्र को दिया हुआ अल्प दान भी अधिक फल देनेवाला होता है, उसी तरह बुद्धिमान् मनुष्य को प्राप्त शास्त्र भी स्वयं ही विस्तार को प्राप्त हो जाते है, अर्थात् बुद्धिमान अपनी बुद्धि से ही शास्त्रों के अर्थादि विस्तारपूर्वक कह सकता है. .. जब वह तर्फ-न्यायशास्त्र आदि सभी विद्याओ में पारंगता बन गई, तब वह पंडित, राजकन्या व उसके सहपाठी तोते को साथ लेकर राजा के सन्मुख पहूँचा. राजकन्या के विद्या ग्रहण कर उपस्थित होने से राजा बहुत खुश हुआ, और उसने कन्या को अपने पास बिठाया, तदनर अमरसिंह राजाने उस तोते से कहा, " हे शुकराज ! तुम मेरी पुत्री से कोई समस्या पूछो." तब महाराजा तथा पंडितजी के सामने राजकन्या तथा शुकराजने परस्पर व्याकरण, छद, अलंकार, आदि की समस्या पूछी. राजा अपनी पुत्री को विदुषा जानकर बहुत प्रसन्न हुए. कन्या को पूर्ण यौवनावस्था प्राप्त एवं विवाह योग्य जानकर, राजाने शुकराज से पूछा, "ह शुक्रराज! किस भूपति के पुत्ररत्न के साथ इस कन्या का, विवाह करना चाहिए ?" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित HARMA SHA ECIPUR अमरसिंह महाराजा शुकराज से पूछते हैं. चित्र नं. 23 अमर भूप से शुक बोला "हे राजन् ! यह बात सही; कन्या का उत्तर जो देवे; शादी उस से करे वही. जो राजपुत्र राजकन्यासे पूछी हुई चारों समस्याओं की पूर्ति करेगा, उसी के साथ राजकन्या का पाणिग्रहण कराना चाहिये. इस लिये हे राजन् ! चारो दिशाओं में दूतों को भेज कर राजपुत्रों को शुभ मुहूर्त में शीघ्र ही बुलवाईये. उन राजपुत्रों में से जो शीघ्र ही इन समस्याओं की पूर्ति करेगा, उस के साथ राजकन्या का पाणिग्रहण होगा." . राजाने इस बात को मान लिया, और चारों दिशाओं में आमत्रण देकर, राजकुमारो को बुलवाया, चारों दिशाओं P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 विक्रम चरित्र से शुभ दिन में राजकुमार आ गये. उन आते हुए राजकुमारों को राजा ने यथायोग्य आवास-ठहरने के लिये दिये. तब शुक राजा के पास गया, और हाथ जोडकर बोला, "हे राजन् ! अब सभी राजकुमार आ गये हैं, अतः जो राजकुमार राजकन्या के पूछे हुए प्रश्नों का उत्तर देगा, अर्थात् समस्या की पूर्ति करेगा, उसके साथ अपनी पुत्री का उत्सव सहित पाणिग्रहण करवाये." तब राजाने शुक से कहा, " जैसो इच्छा है वैसा ही करो.” तब शुक राजा के पास से उठ कर पूर्व दिशा में स्थित राजपुत्रों के पास गया और बोला, "राजकन्या द्वारा पूछी हुई समस्या की पूर्ति जो करेगा, उसे राजा अपनी पुत्री खुशी से महोत्सवपूर्वक देगे. यदि आप में से कोई समस्यापूर्ति न कर सकें तो अन्य व्यक्ति को दी जायगी." यह सुन कर पूर्व दिशा से आये हुए राजपुत्र बोले, " हे शुक ! तुम्हें जो ठीक लगे वह समस्या हमारे सामने कहो" शुकने समस्या का चतुर्थ पाद कहा, “एक ल्ली बहुएहिं .'' अर्थात् भाषा में स्पष्ट कर के शुकराजने कहा, “एक ही बहुतेसे." वे राजपुत्र समस्या के अर्थ को जानते नहीं थे. तब शुकराज उन राजपुत्रों से बोला, "हे राजपुत्रों! निश्चय ही कन्या आप में से किसी को नहीं दी जायगी. अतः आप जसे आये वैसे ही उठ कर चले जाये." तब खिन्न होकर वे अपने अपने स्थान का P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित चले गये. तब शुकराज दक्षिण दिशासे आये हुए और दक्षिण दिशास्थित राजकुमारों के पास पहूँचा, और उन राजकुमारों से इस प्रकार बोला, “हे राजपुत्रों! आप यदि मेरे पूछे : हुए प्रश्न का उत्तर देगें तो राजा अमरसिंह अपनी पुत्री को उत्सवपूर्वक आप को प्रदान करेगे. यदि प्रश्न का . प्रत्युत्तर नहीं दे सको तो दूसरे राजपुत्र मेरे प्रश्न का उत्तर देंगे उस के साथ राजा अपनी पुत्री का उत्सवपूर्वक विवाह करेगे." तब उन राजपुत्रों ने कहा, “शुकराज! तुमे समस्या आदि जो पूछना हो वह कहो. तब शुकराज इस प्रकार वाला, "कि किज्जइ बहुएहिं." समस्या का अर्थ नहीं जाननेवाले उन राजकुमारों को शुकराजने कहा, “हे राजपुत्रों! आप अपने घर जाइये." तब वे राजपुत्र खिन्नवदन होकर अपने अपने नगर की और चले गये. शुकराज भी पश्चिम दिशा से आये हुए और उसी दिशामें स्थित राजपुत्रों को सन्मुख यह समस्या बोला, "तहिं परिणी काह करेसि." इस प्रकार की समस्या को सुन कर . उन्होंने लाख कोशीस की किन्तु समस्या की पूर्ति करने में वे असमर्थ रहे. शुकराज ने उन को प्रत्युत्तर देने में असमर्थ नान कर उत्तर दिशा से आये हुए और उत्तर दिशा में बैठे हुए राजपुत्रो से "कवण पीआयूँ खीर" यह समस्या पूछी; किन्तु वे राजकुमार भी समस्या पूर्ति का हल न होने पर निराश P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 विक्रम चरित्र होकर चारों दिशाओं के राजकुमार म्लान मुख हो अपने अपने देश लौट गये. राजा भी सभा से उठ कर अपने महल में चला गया. शुकराज भी राजकन्या के साथ राजमहल में लौट आया. तब अमरसिंह राजाने शुकराज को बुलाकर पूछा, " हे शुकराज! अब राजकुमारी के विवाह का क्या किया जाय ? सब राजकुमार भी लौट गये हैं.” * शुकराजने धैर्यतापूर्वक कहा, “हे राजन् ! आप वृथा खेद न करें. महात्मा लोग आगे होनेवाले कार्यो के लिये खेद नहीं करते है, कहा भी है बुद्धिमान लोग अतित काल अर्थात् बीती हुई बात का अफसोस नहीं करते, न भविष्य की ही चिन्ता करते है, वे केवल वर्तमानकाल पर विचार कर उसी समयानुसार कार्य करते हैं." x राजा और शुकराजने आगे क्या कार्य किया जाय तथा अपनी राजकन्या का लग्न किसके साथ कैसे हो इस संबंध में सलाह की. सलाह कर के शुकराज उस राजकुमारी तथा अपने साथ कुछ मंत्री आदि परिवार को लेकर राजकन्या के लिये पति की शोध में परदेश की ओर चले. चलते चलते वे कई देशों में, घूमे और कई राजाओं तथा राजपुत्रों से समस्याए पूछी पर कोई भी समस्या पूर्ति न कर सके. क्रमशः घूमते घूमते अवन्ती नगरी के बाहर उद्यान में आ पहूँचे. . * अतीत नैव शोचन्ति भविष्य नैव चिन्तयेत् / .. वर्तमानेन कालेन; वर्तयन्ति विचक्षणाः / / स.. 11/93 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित . 475 परिवार सहित राजकुमारी को उसी उद्यान में छोडकर शुकराज महाराजा विक्रमादित्य के पास में पहूँचा. महाराजा विक्रमादित्य की राजसभा में पहूँच कर शुकराजने विनय सहित राजा को अपनी बात सुनाई. और कहा, “कन्या द्वारा पूछी हुई समस्याओं का उत्तर देने में अभी तक कोई राजपुत्र सफल नहीं हुआ. अतः हे राजन्! आप उन समस्याओं की पूर्ति कीजिये. इस से सारी पृथ्वी पर आप की कीर्ति फैल जायगी. अगर आपने इस समस्याओं की पूर्ति नहीं की तो सारी पृथ्वी पर आप का अपयश फैल जायगा." विक्रमादित्य महाराजा बोले, “हे शुकराज ! उस राजकन्या को आप यहां ले आइये और समस्या बताईये." महाराजा द्वारा समस्यापूर्ति ___वह पद्मावती राजकुमारी शुक आदि मंत्री वगेरह के साथ अपने हाथ में सुंदर वरमाला लिये हुए रवाना हुई. फिर राजसभा में गोबर आदि से भूमि को पवित्र कर सुंदर चार गहूँलिये बनाई, और देवांगना के समान रूपावाली वह राजकुमारी राजसभा में उपस्थित हुई; उस समय नगर की अनेक स्त्रियां आदि उस राजकुमारी को देखने के लिये अपने अपने काम को छोड कर त्वरापूर्वक राजसभा में आ पहूँची. थोडी देर के बाद भूपति विराट सभा में सपरिवार उपस्थित होने पर उस कन्याने " एकल्ली बहुएहि " यह समस्या कह सुनाई. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 विक्रम चरित्र .. समस्या के इस मनोरम चतुर्थ पद को सुनकर राजाने . बड़ी खुशी से बहुत से लोगों के सन्मुख इस समस्या की पूर्ति / इस प्रकार की- .. - "करि कमलि सरि जनोई, संझा जयइ ब्राह्मणा; कुंवर पोपट इम भणइ, एकल्ली बहुएहिं." . . अर्थात् ब्राह्मण कमलके समान जनोई करके बहुते के साथ * 'संध्या को जीतता है. अर्थात् संध्या पर विजय प्राप्त करता है और उस संध्या द्वारा अनेक प्रकार के पापों को नाश करता है. (उसी तरह श्रावक लोक भी बहुतों के साथ एक प्रतिक्रमणरूप-क्रिया कर के अनेक प्रकारके पापों का नाश करते है.) / तब दूसरी समस्या के इस पद को इस प्रकार कहा" कि कीजइ बहुएहिं." . महाराजाने इस सुंदर चतुर्थ पाद को सुनकर इस समस्या की पूर्ति इस श्लोकद्वारा की- "कूति पांडव जाइआ, गांधारी (शत) सुपुत्र; पाचे सइ जि निरजिआ (ण्य) किं जाए बहुएहि." हाथमें कमडल या कमल-फुल लेकर, शरीर पर जनोई पहनकर . संध्या सब एक ही गायत्री मंत्र का जप अनेक ब्राह्मण लोंक करते हैं। वह गायत्री एक होते हुए भी बहुतों से जपी जाती हैं. उसका मतलब वह हैं कि एक भी बहुतों को पवित्र करती है. यह सुन कर राज. कुमारी प्रसन्न हुई. प्रथम समस्या का दूसरी तरह यह भी भावाथ हा सकता है. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 477 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित - .. अर्थात् कुंतीने पांच पाण्डवोंको जन्म दिया और गांधारी ने सो पुत्रों को. लेकिन पांच ही पाण्डवोने सो कौरवो को जित लिया, इस लिये बहुत पुत्रों को जन्म देने से क्या ? वीरपुत्र एक भी अच्छा है.. - तीसरी गहूंली के पास खडी होकर राजकन्या तीसरी समस्या के पाद को इस प्रकार बोली, "तेहिं परिणी काह करेसि” इस सुंदर पाद को सुनकर राजाने पुनः सब के सामने इस प्रकार समस्यापूर्ति की "पंचासवरिसवरपरिणावइ पांच वरसनी नारी; पोपट कूवरि इम भणइ ते परिणी काह करेसि." : ___ अर्थात्-हे शुकराज कुंदरी यह पूछती है कि पचास वर्ष का पुरुष पांच वर्ष की स्त्री से साथ विवाह कर के क्या करेगा ? इस बाद चौथी गहूली के पास आकर कुमारीने कहा, "करण पीआवू खीर" इस समस्या को कहा. तब इस पाद की पूर्ति के लिये राजा इस प्रकार बोले, नहीई रावणजाईड दहमुह एकसरीर; माई वीअंभी चीतबइ कवण पिआवू खीर." अर्थात्-जब रावण का जन्म हुआ तो उसके दस मुंह और एक शरीर था. अतः उस की मां विचारमें पड गई कि किस मुख को खीर-दूध पिलाऊँ ? ( यह लोकमान्यता है रावण P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 .. विक्रम चरित्र को दस मुख थे यह जैन मान्यता नहीं है. उन्हों के गले में नवरत्न का हार था इस से दश मुख दिखते थे.) PR ANS: vratrical बर . DROPHON.PHT EGenu राजपुत्री वरमाला हाथ में लेकर महाराजा विक्रम के पास पहुँची. चित्र नं. 25 इस प्रकार जब महाराजा विक्रमने चारों समस्याओं की पूर्ति कर दी, तब राजपुत्रीने आगे बढ कर राजा के गले में वरमाला पहनाई. तदनन्तर प्रचुर धन के व्यय से सुंदर उत्सव पूर्वक राजा विक्रमादित्यका राजपुत्री पदमावती के साथ विवाह हुआ. . पाठकगण ! अपने पुण्यबल से अनेकानेक कार्यो में जब सहजमें ही सफला मिलती है, तब उसमें कोई कारण हो तो शुभ कायो से उपा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 479 कीया हुआ पुण्य ही है, क्योंकि जिस व्यक्ति के पास अद्रश्य रूप में पुण्यभंडार भरा हुआ है उसको सहजमें ही कार्य सिद्धि प्राप्त होती है उसी तरह इसी प्रकरण में महाराजा विक्रमादित्यने अपनी बुद्धिमत्ता से गूढ - गुप्त समस्या भी सहज में पूर्ण कर दी, और जगत में यश का डंका - बजवा दीया. इसी लिये हरेक प्राणी को चाहिये कि परोपकारी कार्यो में अपनी यथाशक्ति और यथामति प्रयास करते रहना परम जरूरी हैं. . धरम धरम सहु को करे, धरम न जाने कोय. .. ढाई अक्षर धरम का, जाने सो पंडित होय. . अठ्ठावनवाँ-प्रकरण गुलाव में कंटक महोब्बत अच्छी कीजिये, खाइये नागपान; बुरी महोब्बत करके, कटाईये नाक और कान. महाराजा विक्रम का पद्मावती से लग्न होने के बाद वे दोनेा खूब आनंद में दिन बिताने लगे. राजा का अधिकतर समय पद्मावती के साथ ही बीतने लगा. यह देख कर अन्य रानियोंने राजा से कहा, “आप हम सब को समान माने. आप किसी का अधिक सन्मान और किसी का अपमान करें, यह आप के लिये उचित नहीं है." देवदमनी आदि रानियों के इस प्रकार कहने पर भी राजा नहीं माने, तब उन्होने कहा, “आप किसी रानी को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 480 विक्रम चरित्र शुद्ध कुलवाली और किसी को अशुद्ध कुलवाली कैसे गिन सक्ते है ? यह तो कदापि नहीं कहा जा सकता. नीति में भी कहा हैविष से भी अमृत का लेना, कंचन अपवित्र वस्तु से भी; नीचों से भी उत्तम विद्या; कन्या रत्न कहीं से भी. विष में से भी अमत लेना चाहिये, स्वर्ण गदे द्रव्यो में। पडा हो तो भी ले लेना चाहिये, यदि उत्तम विद्या नीच व्यक्ति के पास होवे तो भी ग्रहण कर लेना चाहिये और कन्या रत्न दुष्कुल में भी होवे तो वहां से ले लेनी चाहिये.” . महाराजाने कहा, मैं तो इस तरह नहीं मानता हु. लोग बोलते है, इस लिये मैं क्या करु ? इस पर देवदमनी आदि रानीयोंने मिल कर राजा को एक कथा कह सुनाई. “एक राजा हमेशा अपनी परमप्रिय स्त्री के हाथसे ही। भोजन करता था, एकदा राजा और रानी साथ ही में भोजन कर रहे थे. उस समय रसोईयेने थाली में पकाया हुआ मत्स्य परोस दिया. यह देख वह रानी भोजन करते. करत एकाएक उठ गई. एकाएक उठने पर राजाने पूछा, 'हे प्रिय तुम उठ क्यों गई ?' तब उसने उत्तर दिया, 'हे राजन् / में आप के सिवा किसी परपुरुप का स्पर्श भी नहीं कर और इस थाली में नर मत्स्य है." . Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 481 --...--- मत्स्यका एकाएक हास्य एकाएक रानी के इस प्रकार कहने पर वह मत्स्य हँसने लगा. उसे हंसते हुए देख राजाने विस्मित होकर रानी से पूछा, 'तुम्हारे ऐसा कहने पर यह निर्जीव मत्स्य क्यों हँसा?" रानीने कहा, 'हे स्वामी ! मैं इस के हँसने का कारण नहीं जानती.' तदनन्तर उस राजाने राजसभा में जाकर सब मंत्रिगण को रानिवास का वृत्तान्त सुनाते हुए मत्स्यहास्य का कारण पूछा, तब मंत्री लोग हाथ जोडकर बोले, 'अपने प्रियजन और विशेष कर अपनी बीयों की चेष्टाओं और उसके कृत्य के बारे में अन्य किसी व्यक्ति से नहीं पूछना चाहिये. कहा भी है, कि धनका नाश, मनका संताप, घरका दुश्चरित्र अथवा पत्नी आदि का दुराचरण, कोई दूसरों से ठगा जाना तथा अपमानित होना आदि बाते बुद्धिमान् व्यक्ति को किसी से नहीं कहना चाहिये. हम लोगों से तो राज्य अथवा अपने द्वेषी राजाओ को जितने आदि सम्बन्धो की बाते ही पूछिये.' उस राजा को जब मत्रियों से जवाब नहीं मिला, मनका संतोष नहीं हुआ और उसने अपने राजपुरोहित को बुलवाया और उसे मत्स्यहास्य का कारण पूछा, तब पुरोहितने कहा, 'हे राजन् ! मैं मत्स्यहास्य का कारण नहीं जानता हूँ.' राजा बोला, 'क्या तुम वृथा ही राज्य के ओरसे तनखा -वेतन खाते हो ? जवाब क्यों नहीं दे सकते ? हे पुरोहित ! P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 विक्रम चरित्र यदि तुम इसका कारण नहीं बतलाओगे तो मैं तुम्हारा सांग कुटुम्ब नाश कर दूंगा, इसमें संशय मत करना.' __ यह सुनकर राजपुरोहित मन ही मन दुःखी होता हुआ अपने घर आया, उस समय उसकी बालपांडिता नामक पुत्रीने 'उन्हे देखा तो उसे ज्ञात हुआ, 'निश्चय ही मेरे पिताजी आज उदास मालुम होते है, क्यों कि दुःखसे उनका चहेरा काला सा पड गया हैं. तब उस बालपंडिताने अपने पिता से पूछा, 'हे पिताजी ! आज आप उदास क्यों दिखाई दे रहे है ? ' ' हे पुत्री ! क्या कहूँ ? मैं राजा से पूछे गये प्रश्न का उत्तर न दे सका, क्यों कि मत्स्यहास्य का कारण मुझे मालुम नहीं था.' राजा सन्मुख हुई वह सब बात संक्षिप्त रूपसे उसे कही, तब पुत्री बोली, 'हे पिताजी ! आप खेद न करे, मत्स्यहास्य का कारण राजा के सन्मुख मैं स्वयं कहूंगी' अपनी “पुत्री की बात से प्रसन्न होता हुआ भोजन कर पुरोहित पुनः राजसभा में गया और राजा से कहा, 'मेरी पुत्री आपका मत्स्य के हँसने का कारण बतायगी.' तब राजाने राजपुरोहित की कन्या को मान पुरस्स बुलवायी, और चित्रशाला में बैठा कर वहाँ एक पदों डलवाया पर्दै के पीछे रही हुई उस बालपंडिता को मत्स्य के हसन कारण पूछा, तब पुरोहित पुत्री बोली, 'यह बात आप रानी से ही पूछीथे. क्यों कि मेरी लज्जा मुझे आप से यह बात कहने के लिये रोकती है.' राजा बोला, 'रानी यह नहीं बताती है; अतः यह बात तुम ही कहो.' पुरा म ही कहो.' पुरोहितकन्या P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 483. बोली, 'आप इस का कारण अभी ही जानना चाहते है, पर उसे अभी जानने से आप को ‘मण्डक' की तरह पश्चाताप करना पडेगा-जैसे कि मण्डककी कथा: 'श्रीपुर नामके नगर में गरीब कमल रहता था. वह हमेशा जंगलसे लकडियां लाकर वेचता था. और इस प्रकार दुःखपूर्वक अपना गुजरान करता था. कहा हैं अच्छा कुल, विद्या, शील, शूरता व सुंदरता की परीक्षा कर के जैसे कन्या दी जाती है, वैसे ही विधाता निपुण व्यक्ति को दरिद्रता देता हैं, लक्ष्मीभ्रष्ट पुरुष से रेती और भस्म भी अच्छे है, क्यों कि निर्धन को कभी कोई नहीं पूछता जब कि रेती और भस्म को तो लोग कभी किसी पर्व समय पर पूजते हैं. एकदा वह निधन कमल फिरता फिरता जंगल में गया. वहां एक देव मन्दिर में उसने 'गणपतिजी' की एक काष्टमय बडी मूर्ति को देखा. तब कमलने सोचा, . 'इस मूर्ति के विशाल काष्ठ से मेरा निर्वाह कई दिनों तक चलेगा.' ऐसा दुष्ट विचार कर वह उसे तोडने को तैयार हुआ. अपनी मूर्ति को तोडने के लिये उद्यत कमल को देख कर, गणपति स्वयं प्रकट हुए, और उसे कहा, "तुम मेरी मूर्ति को मत तोडो. तेरी जो इच्छा हो वह मांग लो.' तब कमलने कहा, 'हे गणपनिजी , यदि आप मुझ पर प्रसन्न हुए हों तो मेरी बहुत समय की भूखको अन्न देकर दूर कीजिये.' गणपतिजीने. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484 विक्रम चरित्र ECARTAL कुहाडा लेकर कमल मूर्ति तोडने को तैयार हुआ. चित्र न. 25 कहा, 'हे कमल ! तुम हमेशा वी-गुड से मिश्रित पांच-मालपूआ-मण्डक और पांच स्वर्ण मुद्दा यहां से लेते जाना. जब तक तुम उन मडक को नहीं खाओगे तब तक वे समाप्त नहीं होगे, और जब तुम उन्हे खाओगे तब वे पूर्ण होंगे, पर यह बात तुम किसी और से मत कहना. जिस दिन यह बात तुम किसी को भी कहोगें, उस दिन से मैं तुम्हे मडकादि कुछ नहीं दूंगा.' तदनतर वह कमल हमेशा पांच सुवर्ण मुद्रा सहित घा गुड मिश्रित-मालपूआ लाकर अपना और कुटुम्ब का सुख पूर्वक निर्वाह चलाने लगा. वह अपने सगे सम्बधियों को भी मण्डक आदि देता था, और बाद में वह स्वयं खाता था: इस प्रकार धीरे धीरे वह बहुत लक्ष्मीवान् बन गया. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 485 सम्बन्धियों को मण्डकादि हमेशा देने से कमल बजाय उसका ‘मण्डक' नाम ही प्रसिद्ध हो गया. एकदा उसकी स्त्रीने उस से पूछा, 'आप यह प्रतिदिन मालपूआ-मण्डकादि कहां से लाते है.' तब कमलने कहा, 'हे प्रिये ! यह कहने में मैं असमर्थ हुँ. मण्डकादि लाने का वृत्तान्त कह देने से हम सब दुःखी हो जायगे.' परन्तु उसकी स्त्रीने हठ पकडी और कहने लगी, 'यदि आप न कहेंगे तो मैं आत्महत्या कर लगी और उस हत्याका पाप तुम्हे लगेगा.' ___ कहा है कि-वज्र का लेप, मूर्ख व्यक्ति, स्त्रियां, बन्दर, मछली, और शराब पीनेवाले व्यक्ति एक ही बात को पकडे रहते हैं और उसे वे कभी भी नहीं छोडते. अपनी स्त्री के हठाग्रह करने पर उसने सारा वृत्तान्त कह सुनाया. प्रातःकाल होने पर जब वह गणपतिजी के पास गया, तब गणपतिजीने कहा, 'तूने मेरे कहने विरुद्ध कार्य किया है, अतः अब तुम यहाँ कभी मत आना, अगर वापस आयगा तो प्राणनाश का उपद्रव होगा.' है राजन् ! ऐसा होने पर वह कमल पश्चाताप करता हुआ अपने घर आया. और अंत में बहुत दुःखी हुआ. इसी तरह आप भी मत्स्यहास्य के कारण को जान कर दुःखी होगे.' इस प्रकार बालपंडिता की वार्ता में एक दिन निकल गया. दूसरे दिन पुनः राजाने बालपंडिता को बुलाकर मत्स्य P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 विक्रम चरित्र हास्य का कारण आग्रहपूर्वक पूछा, तब पुरोहितकन्याने कहा, "हे राजन् ! इस का कारण जानने से आप सिंदूर प्राप्त करनेवाले पद्म के समान दुःखी होंगे, राजा के आग्रह पर पुरोहित कन्याने पद्म का वृत्तान्त कहना शुरू किया. पद्म की कथा: पहले किसी समय में पद्मपुर नामक एक नगर में पद्म नामक एक कौटुम्बिक किसान रहता था. वह बहुत धनवान था. धीरे धीरे उसके पास का सारा धन नष्ट प्रायः हो गया. तब वह अपने मनमें विचार करने लगा, 'जल रहित, कंटकयुक्त, और व्याघ्र समूह से भरा हुआ जंगल अच्छा है, घास पर सोना तथा पेडों की छाल के वस्त्र पहनना अच्छा है, लेकिन सगे संबधियों के बीच निर्धन होकर रहना अच्छा नहीं है.' ___ यह विचार कर वह परदेश चला गया. किसी नगर के नजदीक में स्थित किसी एक सिद्ध पुरुष की सेवा करने लगा, वह सिद्ध पुरुष प्रसन्न हुआ और बोला, : पद्म, तुम इस सिंदूर को ग्रहण करो. यह उत्तम वस्तु है, और सुबह प्रार्थना करने पर पांच सौ सेना महोर देता है. यदि तू किसी के भी सामने यह मैंने दिया है यह मत कहना. याद ऐसा कहेगा तो वह तुरंत मेरे पास लौट आयगा' उसके सामन पद्मने यह मजुर किया, 'मैं किसी से नहीं कहूंगा.' वह पद्म सिंदूर ग्रहण करके वहां से चला और नजदीक के नगर में P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 487 आया. और वेश्या के घर गया. वहां त्रैलोकसुदरी वेश्या के साथ हमेशा बडे आमोद-प्रमोद में क्रीडा करने लगा. वहां वह सिंदूर से लक्ष्मी प्राप्त कर उसे देता और सुखपूर्वक रहता था. ____ एकदा उस वेश्या की माता-अक्काने अपनी पुत्री से पूछा, 'हे पुत्री! वह पुरुष हमेशा ही तेरी मांगी हुई लक्ष्मी कहां से लाकर देता है ? ' अंत में अक्काने अपनी पुत्री द्वारा उस की लक्ष्मी प्राप्ति का कारण क्या है वह जान लिया, तब वह छल कपट से उस सिंदूर को प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगी. कहा कि वेश्या, अक्का, राजा, चोर, पानी, बिल्ली, बंदर, अग्नि और सोनी ये मनुष्यों को हमेशा ठगते हैं. त्रैलोकसुदरी के हमेशा ही हठपूर्वक पूछने पर पद्मने अत में सिंदूर द्वारा लक्ष्मी प्राप्ति का कारण उसे कह दिया. तब वह सिंदूर तुरंत पद्म की सारी सम्पति सहित उस योगी पास चला गया. अतः पद्म पुनः दरिद्र बन गया, और बहुत पश्चात्ताप करता हुआ अपने घर लौट गया. . राजपुरोहित की पुत्री वालपंडिता बोली, 'हे राजन् ! आप भी मत्स्यहास्य का कारण जानकर मंण्डक और पद्म की तरह दुःखी होंगे, और आप को पश्चात्ताप होगा, लेकिन फिर भी राजाने उससे मत्स्यहास्य का कारण बताने के लिये अति आग्रह किया. तब वह बालपंडिता बोली, 'हे राजन् ! 12 P.P.AC.Gunratnasuri M.S: Jun. Gun Aaradhak Trust Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 विक्रम चरित्र मत्स्यहास्य का कारण जानने पर आप को रमा नामनी की स्त्री की तरह पश्चाताप करना पडेगा. जिस की कथा इस प्रकार है. रमा की कथा : लक्ष्मीपुर नामक नगर में मुकुन्द नामक एक क्षत्रिय राजा था. उसका रमा नाम की पत्नी थी. एकदा उसने पास ही के एक नगर के राजा चंद्र को देख लिया, जिस से उसके रूप पर मोहित हो गई. और उसे वरण करने की इच्छा करने लगी, अतः वह हमेशा चिंतातुर रहने लगी. जब मुकुंद उसे चिंतातुर रहनेका कारण पूछता तो इधर उधर की मिथ्या बातें वह कह देती. कहा भी है कि,-चिंतातुर लोगों का कहीं सुख नहीं मिलता न उन्हे नींद आती है. __ . राजा के थोडा बहुत बोलने पर भी वह उस पर बहुत गुस्से हो जाती. एक दिन क्रुद्ध होकर उसने कहा, 'मैं अन्य राजा के साथ विवाह करूंगी.' तव मुकुंदने कहा, 'इस प्रकार बोलना उचित नहीं है, क्यों कि कामभोग की इच्छा से कोई स्त्री किसी दूसरे राजा के पास नहीं जाती. कहा भी है ऐश्वर्य का अल कार मधुरता, शौर्य का भूषण वाणी पर काबु-संयम, ज्ञान का भूषण शांति, शास्त्र ज्ञान का भूषण, विनय, धन का भूषण योग्य सदुपात्र में धन का व्यय करना, तपस्या का भूषण अक्रोध, प्रभाव-अधिकार का भूषण क्षमा, तथा धर्म का भूषण दंभ रहिता है. लेकिन सभी में उत्तम और सर्वगुणो का आश्रयस्थान शील-सदाचार ही परम भूषण. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 489 है.४ अतः हे रानी, यदि तुम मुझे छोडकर जाओगी तो तुम्हारे लिये वह अवश्य अनर्थकारी होगा. बाद में और पश्चात्ताप ही करना होगा. यह सुन कर पत्नीने कहा, 'आप ऐसा न कहो. मैं वहां अवश्य जाउँगी, और उसके लिये आप मुझे “पान" / याने विवाह के कर्तव्य से मुक्ति का चिहन दे दे.' उसका ऐसा कहने पर राजाने भी उसे पान देकर विदा कर दिया. __रमाने अपने पति से तलाक-छुट्टी लेकर राजा चंद्र के नगर में गई, उतने समय में अकस्मात् राजा चंद्र कि. मृत्यु हो गई. तब वह पुनः लौट कर अपने पुराने स्वामी के पास आई. पर जब रमा चली गई थी, तो राजा मुकुंदने एक बुद्धिमती तथा विनयशील स्त्री के साथ विवाह कर लिया था. रमाने अपने को स्वीकार करने के लिये अत्यंत अनुनय विनय-प्रार्थना कि, इस पर मुकुंदने कहा, 'तुम जिस क्षत्रिय के साथ विवाह करने गई थी, उसी के पीछे काष्टभक्षण क्यों नहीं किया अर्थात् सती क्यों न हो गई ? अब मैं तुम्हे अपने घर में नहीं रख सकता.' हे राजन् ! उन दोनों से त्यक्ता होने पर जिस तरह वह रमा नामक स्त्री अत्यंत दुःखी हुई, उसी प्रकार इस वृत्तान्त के सुनने पर आप भी हमेशा पश्चात्ताप करोगे.' x ऐश्वर्यस्य विभूषण' मधुरता, शौर्यस्य वाक्सयमो, ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रेव्ययः; . . अक्रोधस्तपसः क्षमाप्रभवतो धर्मस्य निर्व्याजता, सर्वेषामपि सर्व कामगुणितशील पर भूपणम् / / स. 11/183 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490 विक्रम चरित्र - इतना कहने पर भी राजाने अति आग्रह किया, तब बालपंडिता बोली, 'हे राजन् ! पर स्त्री से ऐसी बात पूछना आपके लिये योग्य नहीं है. फिर भी यदि आप जानना ही चाहते हैं तो आप अपने 'पुष्पहास' नामक मंत्री को अभी बुलाकर पूछ सकते हैं.' राजाने कहा, 'वह मंत्री तो जेल में डाला गया है.' बालपंडिताने कहा, 'उसे जेलखाने में से जल्दी ही बुला कर पूछ लीजिये, उस पुष्पहास मंत्री पर देवता प्रसन्न है. अतः उसके द्वारा आराधना करने पर देव सभी शुभाशुभ कह __ वालपंडिता के इस प्रकार कहने पर राजाने पुष्पहास मंत्री को जेलखाने से निकलवा कर अपनी सभा में बुलवाया. सभा में आने पर जब वह मंत्री हँसा तब उस के मुख से फूलों का समुह गिर पडा. मत्स्यहास्य का रहस्यस्फोट राजाने कहा, 'हे मत्रि ! मत्स्य के हँसने का क्या कारण था ?' राजा के द्वारा इस प्रकार पूछने पर मत्रीन लेखनी, कागज और श्याहि मँगवाकर वहाँ रख दिया. तब देवने उस कागज पर स्पष्ट रूप से इस प्रकार लिख दिया, 'हे राजन् ! तुम्हारी प्रिया महावत के साथ प्रेमपाश में बधा हुई है, यदि तुम्हे शंका हो तो उस के पीठ पर का वन उतार कर देखो, जिससे तुम्हारा संशय नाश हो जायगा. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 491 तब राजा अपनी रानी के पास जाकर एकान्त में उस के पीठ पर से वस्त्र हटा कर देखा. इस से देव कथनानुसार मार के चिह्न देख कर, उन के मन का संशय दूर हो गया. अपनी पत्नी को दुःशीला जान कर वह राजा मन ही मन चमत्कृत हुआ. पश्चात्ताप करने लगा." जब राजा विक्रमने यह बात सुनी तो उन्हें भी आश्चर्य हुआ और तब से वह अपनी सभी पत्नियों को समान मानने लगा. मन मोती और दूध रस इन का एही स्वभाव; फाटे फिर वे नव मिले करो क्रोड उपाय, लोलुपता दुःख का मूल है : उज्जैनी नगरी में धन्य नामक एक किसान रहता था. एकदा वर्षा ऋतु के दिन में घर के समीप अत्यंत कीचड होने की वजह से तथा पैर फिसल जाने से गाढ कीचड में कटीभाग तक फंस गया. उसने बाहर निकलने के बहुत प्रयत्न किये, किन्तु कीचड से मुक्त नहीं हुआ, तब वह सहायता के लिये लोगों को चिल्ला चिल्ला कर बुलाने लगा. उस समय अचानक महाराजा विक्रमादित्य उधर से निकल रहे थे, उन्होंने उस किसान को खिंच कर बाहर निकाला और पूछा, “तुम इस में कैसे फँस गये." तब धन्यने जवाब दिया, "हे नृप! मेरे इस पंक में डूबने का कारण सुनिये, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492 विक्रम चरित्र इस नगर में एक किसान कुटुम्ब रहता है, उस का नाम भीम और उस की स्त्रीका नाम लक्ष्मी है, क्रमशः उसके धन्य तथा सोम नामक दो पुत्र हुए. उसके घर पाँच भैसे थी. उन के दूध से दस सेर घी बनता था. जिस में से भीम की पत्नी आठ सेर घी का संग्रह करती और दो सेर घी से अपने कुटुंब का निर्वाह करती थी. धन्य के बड़े होने पर उसके पिनाने द्रव्य खर्च कर के उस का विवाह कराया. धन्य भी चतुर किसान की तरह हल चला कर कृषि कर्म से जीवन यापन करने लगा. वर्षाः काल में जब धन्य खेत में काम करता, तो उसकी माता अपनी पुत्रवधू के हाथ उसे खेत में भोजन भेजा करती थी. माता अपने पुत्र के लिये एक पलि-कछली घी हमेशा भेजती थी उसकी माता कुटुंब के प्रत्येक व्यक्ति को एक एक पलि से जरा भी अधिक घी नहीं देती थी. क्यों कि सारे कुटुंब की आजिवीका घी बेचने से व खेती से ही हुआ करती थी. एक दिन माता किसी गाँव जा रही थी, तो उसने पुत्रवधू को आदेश दिया, 'अपने घर में जितने घी का व्यय होता है उतने ही घी से काम चलाना, अधिक घी का उपयोग मत करना.' सासु के चले जाने पर उस की पुत्रवधू ने गुप्त रीति से अधिक घी का उपयोग कर के सुंदर भोजन बना कर अपने पति को खिलाने लगी, साथ ही उसने अपन पति से यह भी कहा, 'यदि अब से आप इस परिवार से अलग होकर रहे तो मैं अधिक घी से हमेश आपका पोषण P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित - - - करुंगी.' तब उस के पतिने कहा, 'मैंने आजतक एसा सुंदर भोजन कभी नहीं किया था.' तब हे राजन् ! मैंने पत्नी की बात का स्वीकार किया. स्त्री के बचनों में विश्वास करता हुआ माता के घर आने पर उन्हें मनचाहे शब्दों में बोल कर झगडा कर के मूढ मनवाला मैं माता पिता से अलग हो गया. तब मेरे पिताने मुझे एक भैंस, एक हल तथा पांच सौ रुपये दिये. पहले तो पत्नी मुझे खुब आदरपूर्वक स्नानादि करवा कर अधिक घी खिला कर सेवाभक्ति करने लगी. फिर कुछ समय जाने के बाद वही मुझे केवल थोडा ही घी देकर भोजन कराने लगी. तदनंतर धीरे धीरे घरनिर्वाह की चिंता द्वारा मेरा शरीर सुखने लगा. और इसी कारण निर्बलता से कीचड में गिर गया, और मेरी यह दूर्दशा हुई." इस प्रकार उस किसान का वृत्तान्त सुनकर महाराजा विक्रमादित्य को किसान की दरिद्रता से दुःखी हालत देख करुणा आई, और अपने भंडार से एक करोड सुवर्णमुद्रा निर्वाहार्थ दी. पाठकगण ! इस प्रकरण में राणीओं द्वारा कही हुई बात में से यह सार लेना आवश्यक है कि कोई कार्य दीर्घ विचार किये बिना नहीं करना चाहिये, बीना विचारे कार्य करने से पश्चात्ताप करना पडता है, और अन्तिम में लोलुपता दुःख का मूल है उस विषय से धन्य किसान की कहानी सुन महाराजा के दील में करुणा उत्पन्न हुई और अपने भंडार में से सहाय देकर सुखी कीया. अपनी शक्ति के प्रमाण में परोपकारी कार्या में सहयोग देते रहना मानवमात्र का कर्तव्य समजे. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनसाठवा--प्रकरण पंच परमेष्ठी छे जग उत्तम, चौद पूरवना सार; गुण जस कहेतां पार न आवे, महिमा जास अपार. धन्यशेठ व रत्नमंजरी एक समय विक्रम राजा नगरचर्चा सुनने के लिये रात्रि में वेष बदल कर धूमने निकले, एक चौराहे पर लोगों आनंद पूर्वक इस तरह की बातें करते हुए सुना "इस नगर में धन्य नामक एक धनाढय श्रेष्ठी है, वह धर्म ध्यान के प्रति विशेष अनुरागी है, द्रव्य तथा भाव से त्रिकाल जिने पूजा करता है. उस की धर्मकार्य में मग्न, शीलवान् एक धर्मपत्नी है, उस स्त्री के समान इस समय पृथ्वी पर भी कोई अन्य सद्गुणी नारी देखने में नहीं आती. लोगों के मुख से उस सेठ और स्त्री का बहुत बहुत वर्णन सुनकर राजा आश्चर्य पाता हुआ अपने स्थान पर आया. और आनंदपूर्वक रात्रि बिताई. __ दूसरे दिन जब राजा राजसभा में आये तब उन्होंने मंत्रियों से धन्य श्रेष्ठी का निवासस्थान वगेरह पूछा, इस पर म त्रियोंने कहा, "हे स्वामिन् ! आपके नगर में धन्य नामक कितने ही धनवान व्यक्ति है. उन धनाढयां में कोई सदाचारी है, कोई शराबी, कोई पापी तो कोई वेश्यागामी है, P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित 495 कोई मांसभक्षी है, कोई शिकारी है, कोई परस्त्री लंपट, कोई झूठ बोलनेवाला, कोई परद्रोह करनेवाला, कोई अनामत रकम खा जानेवाला, कोई झूठी साक्षी देनेवाला, कोई कपण और कोई निधन भी है. साथ ही कुछ धन्य नाम के सेठ लोग धर्मकार्य में तत्पर, कोई स्वदारा संतोषी, कुछ पर स्त्री त्यागी, कुछ दूसरों की निन्दा न करनवाले, कुछ विचक्षण भी है, तो कोई मूर्ख भी है, पर इन सब में धन्य नाम का धनपति श्रावक है, जो पूरा धर्मिष्ठ, शीलवान, शांत तथा गुणों का भंडार है, वह श्रावक के 21 गुणों से युक्त है. + - और वह धनद् सेठ मार्गानुसारी के पेंतिश गुण से भी युक्त है.४ * श्रावक के 21 गुणः-१ अक्षुद्र 2 रूपवान् 3 प्रकृति से सौम्य 4 लोकप्रिय 5 अक्रूर 6 पापभीरू 7 अशठ 8 दाक्षिण्यवान 9 लज्जालु 10 दयालु 11 मध्यस्थ सौम्यद्रष्टि 12 गुणरागी 13 सत्यवादी 14 सुपक्षयुक्त 15 सुदीर्घदशी 16 गुणदोष को विशेष जाननेवाला 17 वृद्धानुसारी. 18 गुणवालो का विनय करनेवाला 19 किया हुआ उपकार को सदा याद करनेवाला कृतज्ञ 20 परोपकारी 21 लन्धलक्ष. x मार्गानुसारी के फेतीश गुणः-१ न्यायोपार्जित धनवाला, 2 शिष्टाचार की प्रशंसा करनेवाला, 3 समान कुल, शीलवान भिन्न गोत्र में विवाह करनेवाला, 4 पापभीरू, 5 प्रसिद्ध देशाचारानुसार बर्ताव करनेवाला 6 राजादि की निंदा न करनेवाला, 7 जहाँ पडोशी अच्छे हो और न अत्यंत P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496 _ विक्रम चरित्र वह धन्य धीरे धीरे वृद्धावस्था को प्राप्त हुआ, गात्र, शिथिल पड गये, दांतो को गिर जाने से मुह ढीला पड़ गया और धीरे धीरे सारे शरीर की सभी प्रकतिओ में कमी आने लगी. जरावस्था के लिये कहा भी है कि अवयव धीरे धीरे संकुचित होते है, गति धीमी पड गुप्त, न अतिप्रकट स्थान में रहनेवाला, 8 अनेक द्वार वाले घर में नहीं रहनेवाला 9 सदाचारी के साथ-मैत्री करनेवाला, 10 मातापिता का पूजक 11 उपद्ववाला स्थान का त्याग करनेवाला, 12 निंदनीय कार्यों से उन्मुख याने त्यागी 13 आयके अनुसार खर्च करनेवाला, 14 अपनी स्थिति अनुकूल वस्त्राभूषणादि पहननेवाला, -15 बुद्धिके आठ गुणोको धर्ता-याने धारक 16 सुयोग मिलने पर धर्म सुनने वाला, 17 अजीर्ण होने पर भोजन छोडनेवाला, 18 उचित समय पर भोजन कर उसे अच्छी तरह पचानेवाला, 19 धर्म, अर्थ, काम इन तीनो पुरुषार्थों का परस्पर बाधा न हो उस तरह साधन करनेवाला, 20 अतिथि, साधु और दीनों की शक्तिअनुसार सेवा करनेवाला, 21 कदाग्रह रहित, 22 सद्गुण पक्षपाती, 23 देशकाल के अनुसार निन्द्य आचार को त्यागनेवाला, 24 शक्तिअशक्ति को जाननेवाला, 25 व्रतधारी ज्ञानी वृद्धजनो का पूजक, आश्रित तथा अनाश्रितो का यथाशक्ति पोषणकर्ता, 26 दीर्घदशी, 27 कृतज्ञ, 28 विशेषज्ञ, 22 लोकप्रिय, 30 लज्जावान्, 31 दयावान्, 32 सौम्य, 33 काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर को जीतनेवाला, 34 परापकारी, 35 इन्द्रियों को वश में रखनेवाला. अर्थात् ए पेंतिश गुण जीवन में आचरीत हो जाय, तो मानवता को सुशोभित करने वाले है. 1 सुश्रषा, 2 श्रवण', 3 ग्रहण, 4 धारणा, 5-6 उहाऽपाह' 7 अर्थ विझान, 8 तत्त्वज्ञान की विचारणा. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 497 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित जाती है, दाँत गिर जाते है, दृष्टि भी मद पड़ जाती है, रूप का नाश हो जाता है, मुहमें से लार गिरती है, बंधुजन-स्वजनादि भी उस वृद्ध का कहना नहीं मानते, यही नहीं पत्नी भी सेवाभक्ति कम कर देती है, अतः धिक्कार ऐसी जरावस्थासे पीडित पुरुष को जिस की आज्ञा उस के पुत्र भी नहीं मानते. + हाथ कांपता है, सिर धुनता है, ऐसा व्यक्ति क्या करेगा, लेकिन जब उसे यमपुरी ले जाने के लिये कहता है तो वह उसे मना करता है, अर्थात् उस की ऐसी बुरी हालत होने पर भी वह मरना नहीं चाहता. अर्थात् जीना सभी का . पसंद है, मरना किसी को भी अच्छा नहीं लगता है. धर्महानि वृद्धापन सुत का मरण दुःख कहलाता है। भूख महादुःख होता सब में क्यों कि उदर पिस जाता है. इस प्रकार की वृद्धावस्था प्राप्त होने पर भी वह हमेशा पदकर्म करता है, और त्रिकाल जिनेन्द्र पूजा तथा गुरु की सेवा कर के अपने अशुभ कर्मो का नाश करता है उसकी गुणसुंदरी नामक पत्नी थी जो गुणवती और पतिपरायण थी. अपनी सुशील पत्नी होने से वह अपने को धन्य सम+ गात्र संकुचित गतिविगलिता दन्ताश्च नाशं गता, दृष्टिर्न श्यति रुपमेव हसते वक्त्र च लालायते; वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते, धिक्कष्ट जरयाभिभूतपुरुष पुत्रोऽप्यवज्ञायते / / स. 11/252 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 विक्रम चरित्र झता था. उस के पास अट्ठारह करोड की सम्पति थी. जिसे / वह सात क्षेत्रों में खर्च करता था, और उनके दिन आनंद में बीतते थे, लेकिन एक कमी थी, उस को कोई संतान नहीं था. . रत्नमंजरी उसी नगर में श्रीपति नामक एक सेठ था, उसे श्रावक धर्म का पालन करनेवाली श्रीमती नामक स्त्री थी. लोग उन की खुब तारीफ किया करते थे, क्यों कि जो ऋद्धि, वृद्धि, कीर्ति और स्वजन समूह से युक्त होता है, उसी की लोग प्रशंसा अधिक करते है. अर्थात् ये सब चीजे उस के पास थी. उस सेठ के सोम, श्रीदत्त और भीम नामक तीन पुत्र थे, उस के बाद सुंदर तथा शुभलक्षणा एक पुत्री का जन्म हुआ, उस समय सेठने पुत्र जन्म से भी अधिक उत्साह के साथ उस का जन्मोत्सव मनाया, और उसने काफी द्रव्य खर्च किया, पुत्र जन्मका महोत्सव तो सभी करते है, लेकिन पुत्री के * जन्म होने पर उत्सव तो कहीं भी देखने में नहीं आता. कहा भी है___पुत्री के जन्म होते ही शोक होता है, बडी होने पर उसे किसे देना इस की बड़ी चिंता होती है, पुत्री का विवाह करने के बाद वह सुखी होगी या नहीं इस का तक वितक होता रहता है, सच है, कन्या का पिता होना कष्ट कर ही है. लेकिन इस श्रीपति सेठने तो पुत्र जन्म से अधिक हर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 499. aaunee - के साथ अपनी पुत्री का जन्मोत्सव किया. सभी स्वजन लोगो का वस्त्रालंकार आदि से सन्मान किया और उस पुत्री का नाम रत्नमंजरी रक्खा. क्रमशः जब वह पूर्ण युवावस्था को प्राप्त हुई तब सुंदर नारी के समान रूपवती दिखने लगी. सुंदर लक्षणों से शोभायमान, हमेशां सभी दोषो से दूर, खूब लावण्यवाली, हाथी.के समान चालवाली और चौसठ कलाओं से पूर्ण वह रत्नम जरी इतनी सुंदर दिखती थी कि सभी स्त्रियों को रूप और सौन्दर्य में उसने हरा दिया था. अपनी सुदरता से वह साक्षात् कामदेव की पत्नी रति के समान मालुम पडती थी. पूर्ण युवावस्था के प्राप्त होने पर भी उसके शरीर में काम विकार पैदा नहीं हुए थे, उसे विवाह की जरा भी इच्छा नहीं थी. उसे और वह देव गुरु की पूजा आदि धर्मक्रिया हमेशा करती थी, अर्थात् वह परम धार्मिक थी. - पुरुष जाति से उस को कोई द्वेष नहीं था, केवल धर्म क्रिया में उसके दिन व्यतित होने लगे. उस की माताने एक दिन अपनी गोद में बिठाकर उसको पूछा, “हे पुत्रि! तुझे कैसा वर पसंद है ? अर्थात्-तू किस के साथ शादी करना चाहती है ? " तब लज्जित होती हुई वह बोली, " देव, दानव, राजा, किन्नर, सेठ, कुबेर मुझे कोई भी वर पसंद नहीं है." उसके माता-पिताने बहुतसे प्रयत्न किये, किंतु उसने शादी करना मंजूर नहीं किया. वह वणिकसुता :जगत को मोहित करनेवाली सुंदर अवयववान, शुक्ल पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हुई थी. यौवनमद से उन्मत्तः तारुण्य वृक्ष की मंजरी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र के समान और लावण्य की खान समान उस रत्नमजरी की अवस्था शादी के योग्य हुई. ईक्कीस वर्ष की उम्र हो जाने पर भी उस के मन में विवाह करने की इच्छा नहीं हुई, साथ . ही पुरुषो के साथ विकाररहित रहते हुए निःसंकोच वार्तालाप किया करती थी. . ___ उसी वीच धन्य श्रेष्ठी की पत्नी गुणमंजरी का समाधिपूर्वक देहान्त हो गया. सेठने अपनी पत्नी की उत्तरक्रिया वगेरह की, उघर उस धन्यसेठ की उम्र 80 वर्ष की हो गई थी. रत्नम जरी जो उस के पडोस में ही रहती थी उसे वृद्ध और पत्नी रहित देख कर उसने मन में उस धन्य सेठ को अपना पति बनाना चाहा, और एक दिन धन्यसेठ को आदरपूर्वक कहने लगी, “गृहस्थों का समय गुणवान स्त्री के बिना नहीं कटता. हे धन्य सेठ ! अपनी पूर्व पत्नी के शोक का त्याग करो. मन को प्रफुल्लित करो, और किसी स्त्री के साथ विवाह कर हमेशा सुखी बनो." धन्यने कहा, " मेरा -शरीर शिथिल हो गया है, और मैं अतिशय वृद्ध हो गया हूँ. अतः अब मेरे साथ कौन सी कन्या विवाह करेंगी?" तब रत्नमंजरी ने कहा, “किसी वृद्ध कन्या को विवाह द्वारा अलकृत करो, जिस से वह आप की हमेशा अच्छी तरह सेवा करेगी." धन्य सेठ बोला, " उठने, चलने, बोलने और खडे रहने में भी मैं तो अशक्त हूँ, तो फिर स्त्री को ग्रहण कर क्या करूँ ? " वह बोली, " यदि तुम्हारी इच्छा मेरे साथ "विवाह करने की हो तो मैं अभी तुम्हारे साथ शादी कर के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 501 अपनी कन्यावस्था का त्याग कर दूं. पुण्य और कृपा के पात्र वृद्ध श्रेष्ठ पति को पाकर मैं जल्दी ही अपने स्वजनों को कृतार्थ करना चाहती हूँ. यदि आप मेरा पाणीग्रहण करें तो मैं अपने आप को आप के संग से कृतार्थ कर दूं.” रत्नम जरी की इच्छा जान कर धन्य सेठ बोला, “तुम सुरूपा है, सुंदरी योवनशालिनी है, और रूप सौभाग्यादि गुणों से शोभित तुम्हारा मिलना देवों को भी दुर्लभ सा है, किन्तु मैं तो वृद्ध हुँ. मेरे केश सफेद हो गये है, दांत गिर गये है, यौवन रूप नष्ट हो गया है, अब तो मैं धृणापात्र बन गया हूँ. अतः हे गजगामिनी, यदि तुझे विवाह करना हो तो सुंदर यौवनवान व स्वरूपवान किसी अन्य वर को पसद कर. तुम्हारे मेरे मध्य सरसव और मेरुपर्वत जितना अंतर है. कहाँ मैं ? और कहाँ तुम ? कहा भी है. अनुचित फल की इच्छावाले अधमपुरुष का निवारण विधाता ही कर देते है. जैसे अंगूर के पकने के समय में कोओं के मुंह में रोग उत्पन्न हो जाता है." . जब धन्यने रत्नमजरी को बहुत युक्ति से समझाया. तब रत्नमजरीने कहा, " आपने जो कहा वह योग्य है, पर कन्या यदि चाहे तो अपनी स्वेच्छा से वृद्ध को अपना पति पसंद कर सकती है. जैसे कि सुन्दर वर कन्या कहे, पिता कहे गुणवाना : माता धन को चाहती, ओर लोग मिष्टान्न... P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र कन्या केवल वर का रूप देख कर पसंद करती है, माता वर के धन को देखती है, पिता वर के विद्या तथा गुणों को और भाई आदि वर के कुल को देखते है. लेकिन अन्य स्वजन लोग तो केवल मिष्टान्न ही चाहते है. जिस पुरुष में सुंदर कुल, शील, भाग्यशालिता विद्या, धन, सुंदर शरीर और योग्य वर ! आदि गुण हो उस पुरुष को पिता अपनी पुत्री को दें.'. वर में माता-पिता तथा बांधव इन गुणो का होना पसंद करते है, लेकिन कन्या तो अपने मनपसंद पति की ही इच्छा करती है. कहा भी है-- __ कन्या तो अपनी रुचि के अनुसार चाहे वह राजा हो या रंक स्वरुपवान् हो या कुरुप उसे ही मन से चाहती है, हे धन्य सेठजी ? मै भोगसुख के लिये या धन प्राप्त करने की इच्छा से व पुत्र प्राप्ति के लिये तुम्हें नहीं वरती हूँ, मैं केवल पुण्य की पूर्ति करने के लिये, शीलपालन के हेतु से तुम्हारे समान सुशील व्यक्ति को प्राप्त करके अपनी कौमार्यवस्था का त्याग करना चाहती हूँ. अतः अब आप अपने हृदय में विचार करके अभी ही मुझे अंगीकार कर सुखी बने. मैंने मन, वचन और काया से आप को वरण कर लिया है, और आप के गले में मै अभी ही वरमाला पहनाती हु. उसी समय आकाश में देवदुदुभी का नाद हुआ, और ऐसी मनोहर आ काशवाणी हई कि इस कन्या का कथन सुंदर है, साथ ह' अशोक, चंपा आदि पंचवर्ण के सुगंधित फूलों की उन 5 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरक्ष विजय संयोजित 503 के मस्तक पर वर्षा हुई, साथ ही अकस्मात् एक पुष्पमाला रत्नमंजरी के हाथ में आई, जिसने प्रेमपूर्वक धन्य सेठ के गले में आरोपित कर दी. MOREHIVIT , mar रत्नम जरी वरमाला धन्यशेठ के गले में आरोपित कर रही है. चित्र नं. 26 जब रत्नमंजरी के पिताने अपनी पुत्री के इस वृत्तान्त को सुना तो उसने भी शीघ्र ही उस वृद्ध धन्य श्रेष्ठी के साथ अपनी पुत्री का विवाह महोत्सव किया, रलमंजरी की पतिसेवा - अपने पतिके चरणों को घोकर आनंदित मन से वह चरणोदक हमेशा पीने जगी, और हमेशा अपने पति को भोजन कराने के बाद ही वह भोजन करती थी. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 विक्रम चरित्र / मौनम्रतवाली, सदाचारी, सद्गुणों से युक अाक्रोधवाली, और अल्पभाषिणी वह हमेशा आनंद से अपने पति के साथ समय बिताने लगी. उस के पतिव्रत के प्रभाव से उसके चरण जल से वात, पित, कफ से होनेवाले तमाम रोग नष्ट हो जाते थे. उस के चरणजल से पुत्र रहितों को पुत्र प्राप्ति और घढा हुआ सर्पादि का जहर भी उतर जाता था. उस के दृष्टि मात्र से जंगल का सूखा वृक्ष भी नवपल्लवित हो उटता था. और उसके दृष्टि-मात्र से ही सर्प-माला, अग्नि-पानी, और सिंह-सियार बन जाता था. जहाँ जहाँ वह सुंदर गुणशालिनी रत्नमंजरी रहती थी वहां अंतिवृष्टि, अनावृष्टि, चूहे, टिड्डी, तोते, स्वचक्र, परचक्रके ये सात ईति-सात भय नहीं होते थे, मूलचरित्रकार ही कहते हैं, " उसी, स्त्री का अद्भुत महात्म्य क्या कहे. वह चौंसठ कलानिधान, शीलरुप अलंकार धारण करनेवाली रत्नमंजरी साक्षात् लक्ष्मी की तरह उस घर में रहने लगी.” . धन्य सेठ भी ऐसी प्रिया को पा कर, प्रिया सहित धर्म कर्म में खूब तत्पर रहेता है. और इतना सुखी है कि उसे सूर्य के उदय तथा अस्त होने का भी पता नहीं चशा. सातों क्षेत्रों में वह खूब धन का व्यय करता था. इस प्रकार राजा विक्रम धन्य श्रेष्ठी व रत्नमंजरी का वृत्तान्त सुन कर आश्चर्यचकित हुए. फिर सभा विसर्जन कर अपने नित्य कर्मों को करते हुए शेष दिन व्यतीत किया। रात्रि हुई तब अपने आपको महासती रत्नमंजरी का रूप मार P.P.AC. Gunratnasuri M.S Jun Gun Aaradhak Trust Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 505 चरित्र देखने की इच्छा हुई, और उसे देखने का विक्रम महाराजाने दृढ निश्चय मन ही मन कर लिया.. प्रिय पाठकगण ! अब यहां यह प्रकरण पूरा कर आगे का रहस्यमय वृत्त न्त अगले प्रकरण में पढ़ें तामाकरण साठवाँ-प्रकरण रत्नमंजरी व महाराजा विक्रम : 'कीर्ति केरा कोटडा, पाडया नहीं पडत.' रात्रि में विक्रमराजाने एक मुसाफिरका वेश धारण किया. अपने सखा के रूप में एक छोटीसी तलवार लेकर निकल पडे उन्होने अपनी अंगुली में केदार मुद्रा पहनी थी; योगी के योग्य वस्त्र पहने हाथ में सुंदर दण्ड धारण किये, और गंगा की मिट्टी से अपने बारह अंगो पर लेप करके इस प्रकार अपना वेष बदल कर धन्य के दरवाजे पर पहूँचे. पधिक रूपधारी राजाने यहां जाकर कहा, "हे सुभगे ! मैं नगर में घूमता हुआ तुम्हारे घर पर अतिथि रूप में आया हूँ.” साथ ही अतिथि सत्कार का लाथ बताते हुए बोले, " जिस व्यकि के घर अतिथि को भोजन तथा रात्रि में रहो का स्थान मिलता है, सज्जनलोग उसी की प्रशंसा करते है. और मुकिरूपी स्त्री भी उस की इच्छा P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र करती है. अर्थात् वह जीव मुक्ति का अधिकारी बनता है. कहा भी है-- .. तृण सूखे घास का तिनका बहुत हलका होता है और उस से रूई हलकी होती है, लेकिन याचक तूल से भी हलका है. 'कवि कल्पना करता है फिर तो याचक को हवा क्यों नहीं वडा ले जाती ? क्यों कि वह शोचती है, कि याचक मुझ से भी कुछ मांगेगा. गृहस्थ के लिये कहा है, 'तू हाथ के उपर अपना हाथ करना अर्थात् दान देना, पर किसीके हाथ के नीचे हाथ मत रखना. अर्थात् भीख मत मांगना. जिसदिन तूने भीक्षा मांगी वह दिन तू गिनती में मत लेना. राख भस्म से कासी का बर्तन, खटाई से ताम्बे का बर्तन, रजस्वला स्त्री पानी से अर्थात् चौथे दिन स्नान से और गृहस्थ दान से शुद्ध होते है.' इस प्रकार उस मुसाफिर के कहने पर रत्नमंजरीने उस पथिक को सन्मान कर रात्रि में रहने के लिये अपने घर में स्थान दिया. . धन्य सेठ की पत्नीने उस से पूछा, “हे पान्थ ! तुमने शाम का भोजन कर लिया या नहीं ?" वह बोला, " मैं रात को कभी भी कुछ खाता नहीं हूँ. रात्रि में भोजन करनेवाले पुरुष का अवश्य ही नरक गमन होता है. अतः आत्महित के अभिलापी कभी भी रात्रिभोजन नहीं करते. कहा है कि अन्न मास के समान होता है. ऐसा मार्कण्डेय मुनिने अपनी P.P. Ac. Gunratrtasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित . 507 E संहिता में लिखा है, जो बुद्धिमान् पुरुष रात में हमेशा आहार . का त्याग करते है, उन्हे एक महिने में एक पक्ष 15 दिन के उपवास का लाभ मिलता है, और शास्त्र में नरक के चार द्वार है, 'जिस में पहला रात्रि भोजन है, दूसरा पर स्त्री गमन, तृतीय सन्धान केरी वगेरे का पाणी के अंशवाला आचार और चौथा अनंतकाय कंदमूल का भक्षण करना है वह.' - यह सुन कर रत्नमंजरी बोली, “हे पथिक ! तुम बहुत पुण्यवान् हो और उत्तम पुरुष लगते हो, क्यों कि तुम्हारा मन धर्म में दृढ है. जो रात्रि भोजन नहीं करते वे अवश्य ही स्वर्गगामी होते हैं, और जेस रात में खाते है वे नरकगामी होते हैं." इस के बाद उसने सुंदर चित्रशाला में सुंदर शय्या पर सुखप्रद बिछौना बिछाकर राजा के सोने का प्रबंध कर दिया. विक्रमराजा भी पंचपरमेष्ठी को मन में नमस्कार करके उस का .' चरित्र देखने के लिये कपटनिद्रा से सो गये. पर कौतुक से जागते ही रहे. रत्नमंजरीने अपने पति के चरणों को धोया, और फिर उस पानी से गंगाजल की तरह, आदर सहित अपने अंगों को घोया. गंगा के समान पवित्र रूई की तरह कोमल, कपूर, कस्तूरी आदि से सुगंधित की हुई सुंदर शय्या पर अपने हाथ का सहारा देकर यत्नपूर्वक अपने पति को सुलाया, वह क्षणभर वहां उस के पास टहरी. तब उसने पैर और शरीर को योग्य रूप से दबाया. जब तक पति सुख से नहीं सो गये तब तक वहीं रही. अपने पति को सोया जानकर वह P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र धीरे से उठी, और धर्म ध्यान करने में तत्पर हुई, फिर दो घडी तक धर्म ध्यान करके पुनः अपने पति के पास गई, और . पति को पंखे से ह्या करने लगी. इधर राजा जो कपटनिद्रा से सोये थे, रत्नमजरी को पतिभक्ति देख कर विचार करने लगे, 'धन्य वी प्रिया सतीरत्न है, यह सचमुच अपने पति से ही संतुष्ट है, और परपुरुष से विमुख है. गृहस्थ होते हुए भी सदाचारिणी है. अतः यह सती देवों की भी प्रशंसापात्र है.' रजमंजरी का एकाएक पतनः ___ मध्यरात्रि बीतने पर कोई चोर द्रव्य हरण की अभिलाषा से धन्य सेठ के घर में गुप्त रूप से घुसा. अपने पति को निद्रावश जानकर, और उस सुंदर आकृतिवान चोर को देख कर कोई पूर्व भवके अशुभ कर्म संयोग से रत्नमंजरी सुध बुध खो बैठी. उस चार के रूप को देख कर उस की काम अभिलाषा यकायक जागृत हो गई. उस स्वरूपवान नवयुवक चोर को देखते ही, कामबाण के प्रहार से विह्वल होकर, उस चोर को धीरे धीरे कहा, " यह घर, धन और मेरी यह देह इन सब को तुम भोगसुख प्रदान कर के कृतार्थ करो. हे परम आनन्द के देनेवाले, सरीर सौन्दर्य से कामदेव को भी निरस्कृत करनेवाले, मेरी देह से भोग भोग कर के मुझे कृतार्थ करो." ... उस की उस बात को सुनकर चोरने डरते हुए धार खर में कहा, " तुम इस प्रकार मत बोलो, जैसा कि-. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust. Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 509 गंदी जगह के कीडे, देवलोक के इन्द्र को, एवं गरीब को और राजा को, सभी को मृत्यु का भय समान होता है. मैं जुआ खेलने वाला, चोरी करनेवाला और व्यसन सेवन फरनेवाला हूँ. अतः माता, पिता, सज्जनों और सकल लोक द्वारा त्यक्त हूँ. फिर तुम सुंदर शरीरवान एवं पतिवाली और शीलवान हो, अतः तुम्हें चोर के साथ ऐसी इच्छा रखना योग्य नहीं. एक तो चोरी करते समय मन में भय होता है, और दूसरा भय तुम्हारे साथ बात करने से मेरे हृदय में SH चोर और रत्नमंजरी के बिच वार्तालाप. चित्र न. 27 तत्पन्न हुआ है. फिर तुम जागती हो, अतः मेरा चोरी करने का प्रयास निष्फल हुआ. क्यों कि लोग जागते है, वहां से घोर कभी धन ग्रहण नहीं कर सकता." जब चोरने इस प्रकार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र कहा, तो धन्य को पत्नी जो उस समय तीव्र कामबाण से पीडित थी, उसने अपनी कुलमर्यादा छोडकर कहा, "मैं कामबाण से अत्यंत पीडित हूँ. तुम्हारे भोगरूपी अमृत के बिना मैं मरी हुई ही हूँ. एसा तुम्हे समझना. रागरूप समुद्र में बसे हुए मेरे मनरूप मत्स्य को भोगरूप अन्न का दान करके संतुष्ट करो. जसे हाथी स्पर्श में, भ्रमर गन्ध में और मृग शब्द में आसक्त होता है, वैसे ही मैं अभी तुम से हुई हूँ. अतः मेरे साथ विलास कर के अपने मनुष्य जन्म को सफल करो, तथा मेरे शरीर को अंगीकार कर के निश्चय ही इस घर में रहे हुए विपुल द्रव्य को ग्रहण करे।." इस प्रकार इन दोनों को बातें करते सुनकर महाराजा विक्रम संसार का स्वरूप इस प्रकार विचार करने लगे-- " इन्द्रियों में जीभ, कर्मों में मोहनीय कम, व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत और गुप्ति में मन गुप्ति ये चारों बडे कष्ट से ही जीते जा सकते है, ऐसा जो आगम में कहा है यह सच है. जिस में कभी किसी अन्य पुरुप को अंगुली बताने जितनी सहिष्णुता नहीं थी, वही कामवश नरवीर-पुरुष स्त्री के चरणों में गिर कर क्षणमें उस का दास बन जाता है. कवियों के द्वारा वर्णित स्त्री का चंचल मन भी भोगसागर में स्नान करने के लिये स्थिर होता दिखाई देता है. . सच ही कहा हैहै. यौवन, धन, सम्पति, प्रभत्व तथा अविवेकिता, ये एक एक अनर्थ करनेवाले होते है, और जब चारों ही एकत्र है। Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित जाय तो कहना ही क्या ? अर्थात् तब तो अनर्थ की सीमा भी नहीं रहती. + ये विषय भोग आदि दुःख से युक्त हैं, विषमय है, मायामय है, इन से अधिक निदापान संसार में कौन है ? इन से अधिक विरूप क्या है ? विषयों में लालची बना हुआ मन को निवारण करने पर भी विषयों में स्पृहायुक्त-आशायुक्त बनकर दौडता हैं, अतः हे मन! तुझ को कोडवार धिक्कार है.' इधर रत्नमंजरी के कामुक शब्दों को सुन कर चोर बोला, “हे ललने! वृद्ध जराग्रस्त पति को छोडकर तुम मुझे चाहती हे। यह ठीक नहीं. परस्त्रीगमन दोष के पाप से तथा दोनों लोक के विरुद्ध इस पाप कार्य से मुझे नरकगति मिलेगी. फिर तुम्हारे पति के जीते ही मैं तुम्हारे साथ संगम नहीं कर सकता, जैसे कि सिंह के वृद्ध हो जाने पर भी मृग उस की अवहेलना-तिरस्कार नहीं कर सकता." चोर का ऐसा कहने पर वह बोली, "अभी मेरा स्वामी मर गया है. यदि तुम्हें विश्वास न हो तो पास में आकर इस का वास देख ले.” चोर उसे देखने जाता है, इतने में तो रत्नमंजरीने निद्रित पति के गले को अंगुठे से दवा x यौवन धनसम्पतिः प्रभुत्वमविवेकता; एकैकमप्यनर्थाय किं पुनस्तश्चतुष्टयम् सर्ग 11/397 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 विक्रम चरित्र कर मार डाला. इसी तरह संसारमें मोह राजा नाटक भजवाता है. पली के कर से मृत पति को, देख नृपति मनमें जाना, नारी चरित कठिन है निश्चय, इस में पड कर पछताना. पत्नी द्वारा पति के मारे जाने पर महाराजा सोचने लगा, “अहो ! नारी चरित्र बडा ही दुर्घट है. अरे ! जिन के अंचल के पवन से रोग की वृद्धि है, उन के आलिंगन से मृत्यु हेने में आश्चर्य ही क्या ? .. . . .9 पानी में मछली की पद पंक्ति-पदचिहन मार्ग आकाश में भी पक्षी के पद चिह्न और महिला के हृदय का भाव ये तीनों ही मार्ग अगम्य है. कोई नहीं जान सकता हैं. + हल, स्त्री और पानी का स्वभाव एक सा है, तीनों ही उपर से नीचे की तरफ जाते है. कामातुर-पापी स्त्री अपने पति, पुत्र और स्वजन का नाश करती है, और क्रमशः खुद का भी नाश करती है." - रत्नम जरीने अपने मृत पति को चार पाई से नीचे रख दिया, और उस चोर से कहा, " अब तुम कृपा कर मुझे भाग सुख दो." चोर बेला, "आज मैं तुम्हारे साथ विषयसुख का सेवन नहीं करूंगा. अतः हे स्त्री ! आज तुम संतोष धारण + जलमज्झे मच्छपय आगासे पखिआण पयपंती; महिलाण हिअयमग्गो तिन्नि वि मग्गा अमग्गत्ति / / स. 11/10 07 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित करा." ऐसा कह कर चोर जाने लगा तो उसने उसे रोका, इस पर वह बोला, " अभी मुझे जाने दो, कल जो तुम कहोगी वही करूँगा." . इन दे.नों की इस बातचीत को सुन कर क्रोधवश राजा विक्रमादित्य हाथ में तलवार लेकर घर के दरवाजे पर तैयार होकर खडे हो गये, लेकिन उनने मन में विचार किया, "इन दानों को मारने से मुझे क्या लाभ होगा? बल्कि प्राणीयों को मारने से निश्चय ही मुझे पाप लगेगा." / जब वह चोर दीवार में किये हुए छिद्र द्वारा कष्ठ से जाने लगा तो उसे रत्नमंजरीने कहा, " तुम घरके दरवाजे में होकर ही सुख से जाओ.' जब वह दरवाजा खोला तो थोर उसमें से जाने लगा. इतने में अकस्मात् किंवाड गिर जाने से एकाएक वह चोर वहीं मर गया. कहा है कि-. . द्रौपदी वचन से सौ कौरवों के वंश की मूल का नाश हो गया. सुग्रीव को मारने के लिये आतुर वाली अपनी स्त्री तारा द्वारा मारा गया, सीता के प्रति आसक्त होने के कारणः / त्रिलोकविजयी रावण मृत्यु को प्राप्त हुआ. प्रायः स्त्रो वचन के प्रपंच में पडे हुए अथवा आसक्त सभी नष्ट होते है.'४ : * द्रोपद्यावचनेन कौरवशत निर्मूलमुन्मूलितम् ; सुप्रीवस्य वधायमोहमतुली लं) वाली हतस्तारया. सीतासक्तमनाखिलोकविजयी प्राप्तो वध रावणः; . प्रायः स्त्रीवचनप्रपंचविरतः सर्व क्षय यास्यति // स. 11/117 // P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 विक्रम चरित्र दुष्ट आशगवाली थी आंख से किसी दूसरे पुरुष को देखती है, तो वाणी द्वारा किसी अन्य से वार्तालाप करती है, यदि किसी के साथ आलिंग करती हो तो उस समय में फिर अन्य का ही मन में ध्यान करती है. जैसे-स्त्री को छोड़ कर कहीं भी एक स्थान पर विष और अमत साथ नहीं प्राप्त होते. आसक्त होने पर सेकश रूपी अमृत से भरी होती हैं, और विरक्त होने पर वही विषमयी बन जाती है. राक्षस के समान दुष्ट आशयवाली चंद्र कि रेखा की तरह तेडी कुटिल, संध्या की समान क्षणक्षर राग रखनेवाली और नदी की तरह नीच पुरुष के प्रति जानेवाली होती है. इस प्रकार उस स्त्रो का चरित्र जान कर और चोर को -मरा हुआ जान कर, महाराजा विक्रमादित्य अपने स्थान पर आकर, इष्ट देश का स्मरण करते हुए सो गये. इयर चोर को इस तरह मरा हुआ देख कर वह चोर के पास जा कर आंसू गिराने लगी, और इस तरह बिलाप करने लगी, “हे पति ! मुझे छोडकर तुम इस समय कहाँ गये ? हे नाथ! हे प्राणाधार! हे वल्ला! हे प्रियोतम। विरहाग्नि में मुझे जलती छोडकर तुम कहा चले गये ?" थोडी देर रोने के बाद वह जब स्वस्थ हुई तब विचार करने लगी, 'मेरे दोनों पति मर गये, मेरा यह लौकिक लोकविदित पति भी मर गया, और यह लोकोत्तर-सुंदर पात भी मर गया, मेरा सती धर्म भी गया, और मेरे पल्ले केवल P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निग्अनविजय संयोजित अपयश ही रहा. अरे! अपने पति को मारने और अन्य पुरुषको आलिंगन करने की इच्छा इन दोनों पागों से अनंत दुःखदायी किस नरक में मेरा पात होगा ? हाय रे ! सुबह मैं पति रहित हो जाउँगी, तब मेरी क्या दशा होगी ? परलोक में भी नरक में गिरने से मैं मान दुःख को कैसे सहूँगी ? कुत्सित वनवाली, अलकार रहित, पति रहित विधवा बनी हुई मैं पापिनी अपना मुंह किस दिखाउंगी ? मैने पति की हत्या करके जो पाप किया है, वह लज्जा से मैं किसी को नहीं कह सकती. अन तो मेरे लिये कोठी में मुंह डाल कर राना ही रहा. यदि उच्च स्वर से रेती भी हूँ, तो मेरा सब धन राजा ले लेता है, अतः अब तो पति के साथ मेरा मरना ही अच्छा है. सुबह इस के लिये कोई प्रपंच करना पडेगा. अग्निप्रवेश कर के या जल में डुब कर मर जाना अच्छा है, लेकिन विधवा होकर जीवन धारण करना मेरे लिये उचित नहीं है. - यदि स्त्री शुद्ध स्वभाव की हो, विविध प्रकार के दान देती भी है, तब भी पतिरहिता स्त्री निन्दा के पात्र बनी ही रहती है.' इस प्रकार विचार कर उसने अपने पति के मत शरीर को, भूमि पर पड़ी हुई दोनों लाशो पर कपडा ढक दिया. फिर प्रातःकाल रत्नम जरी रातो हुई लोकों के आगे इस प्रकार कहने लगी, " हाय! हाय ! रात को मेरे घर में कोई चोर घुस गया, उस नीचने मेरे पति और एक पुण्यशाली अतिथि की हत्या कर डाली. उस अदिथिने मेरे पति की रक्षा करने के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र लिये उस चोर के साथ युद्ध किया, उस बीच उस के ममस्थान पर उस चोरने ऐसा प्रहार किया कि, वह अतिथि तुरंत ही मर गया. अतः अब मेरे लिये मरने के सिवाय कोई उपाय नहीं है. इस लिये मैं अब जल्दी ही अपने पति तथा अतिथि को लेकर जंगल में जाती हूँ. पति के मर जाने पर कोई स्त्री रोती है, तो कोई मर जाती है, कोई अन्य पति करती है, तो कोई घर में ही रहती है ' पर मैं अपने पति के साथ लोगों के सामने उसी चिता में जल कर मरूँगी, और परलोक जाकर निर्मल यश प्राप्त करूंगी. कहा है कि-'सच्ची सती यही है, जो पति के पर धोकर पीती है, और प्रिय के परलोक जाने पर अपने पति के शरीर के साथ ही स्वयं भी उसी 'चिता में जल भरती है.' जसे-- साची सती स मानीइ, पति एग थोई विति प्रिय परलोकपंथीह दहइ देह जि दहति. ऐसा कह कर उसने उस चोर तथा अपने पति के शरीर को शुद्ध पानी द्वारा स्नान करा कर साफ किया. सुत्रह धन्यप्रिया रत्नम जरीने धर्मकार्य में धन का व्यय किया, और सज्जनों की साक्षी में बह काष्टक्षक्षण के लिये तैयार हुई. धन्य सेठ के मर जाने का समाचार तथा उस के साथ ही रत्नमंजरी के काष्टभक्षण की तैयारी के समाचार सुनकर उजयिनी नगरी के लोग उस सती के दर्शनार्थ आने लगे. उस सब की आखो में आंसु थे. लोग सती को नमस्कार कर P.P.AC. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरअनविजय संयोजित बारबार इस प्रकार कहने लगे, "हे माता! तुम्हारे विना हमारा समय किस प्रकार बीतेगा? तुम्हारे बिना जगत शून्य हो जायगा. यह अवन्ती नगरी विधवा बनेगी. लोगों की आशा रूपी लता सूख कर नष्ट हो जायगी, और हम सबपे आप के मरने से भारी दुःख आ पडेगा, अतः आप सती बनने का विचार सर्वथा छोद दे." क्यों किन होनेवाले तथा से पुत्ररहित की इधर कुछ लोग महाराजा विक्रमादित्य के पास गये और राजाजी से कहा, "धन्य की पत्नी सती रत्नम जरी अपने पति के साथ कर स्वर्ग में जाने को तैयार हुई है. वह रत्नमांजरी प्रत्यक्ष कामधेनु, कल्पलता और कामकुंभ समान है. हमारे लिये तो रत्नमजरी कल्पवृक्ष के समान ही है, क्यों कि उस के पादप्रक्षालन (पैरधोने) से वात, पित्त, व कफ से उत्पन्न होनेवाले तथा विष जन्य और दुष्कर्म जनित कई रोग नष्ट हो जाते है, उस से पुत्ररहित स्त्री पुत्र को प्राप्त करती थी, निर्धन लोग धनवान हो जाते थे, अभागे लोग सौभाग्यवान तथा कुरूप सुरूप बन जाते थे लोगों की यह यात सुन कर शीलरत्नविभूपित महाराजा विक्रमादित्य की रानी अंगारसुंदरी राजा से कहने लगी, “हे राजन् ! मैं भी अपने शरीर को उस के चरणोदक से पवित्र करूं, जिस से मेरा वंध्यत्व -बांझपन नष्ट हो जाय, और कुल की वृद्धि हो." - रानी की यह बात सुन कर रत्नमंजरी के स्व प को जानने वाले राजा अंदर से मनमें हसने लगे, और उपर से घोले, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 विक्रम चरित्र " उस सती शिरोमणि का चरणोदक तेरे पुत्र प्राप्ति के लिये मैं लेकर आउंगा." उपर से गंभीरता बताते हुए राजाने लोगो से कहा, "जल्दी ही उस सती शिरोमणी के लिये उस के सतो होने का उत्सव करे. मैं अभी कहा आता हूँ. अतः मेरे आने तक आप सब लोग नदी तट पर ठहरें, मैं भी सती के पास जाकर अपने मन की कुछ बातें पूछना चाहता हूँ. क्यों कि जो खी इस प्रकार सती होती है, और काष्टअक्षण करती है. वह जो कुछ बोलती है वह सत्य होता है." वे लेग सती का महोत्सव करने के लिये धन्यश्रेष्ठी के रत्नम जरी एक सुंदर पात्र में चीनी-सकर सहित क्षीर का भोजन करने के लिये प्रसन्न मन से तैयार होकर बठी थी. भोजन करने के बाद उसने अपना सब धन सात क्षेत्रों में खर्च कर, गुरु को साक्षी कर के इस प्रकार की अंतिम आराधना की. फिर श्रीनीजिनेश्वर देव को प्रणाम कर के लोगों से क्षमायाच करती हुई रत्नमांजरी घोडी पर सवार होकर सती होने के लिये राजमार्ग से रवाना हुई. उस के रवाना होने पर बाजे बजने लगे, बाजों के स्वर को सुनकर लोग अपना अपना काम छोडकर सती स्त्री रत्न मंजरी को देखने के लिये आने नगे. उसने जो अक्षत फक उसे लोग, “मैं लू, मैं लूं" कहते हुए संतान प्राप्ति के हेतु से ग्रहण करने लगे, अंत में वह रेखां, नदी के तट P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 519 पर पहुँची, वहां पर मणिभद्र यक्ष का मंदिर था. उसके पास जाकर रत्नमंजरी घोडी पर से नीचे उतरी, भिक्षुकों को दान में बहुत द्रव्य दिया, अंत में प्रसन्न मन से चिता के पास आ पहूँची. इतने में महाराजा विक्रमादित्य भी बहुत से नौकरों के साथ आ पहुँचे, और उन्होंने लोगों के द्वारा सती का सुंदर महोत्सव कराया. __राजा विक्रमादित्य को आया हुआ देख कर रत्नमंजरी बोली, “हे राजन् ! तुम चिरंजीवी रहा. चिरकाल यश प्राप्त करते हुए, भूमि का पालन करो, और चिरकाल धर्म में रुचि रक्खो. लेागों का जिस तरह तुमने उपकार किया है, उसी तरह चिरकाल तक उपकार करते रहो, और पुत्रपौत्रवान बनो." रानी श्रृंगारसुंदरी भी वहां उस सती के पास आई, और उसे प्रणाम करके उसने पुत्रप्राप्ति के लिये उससे चरणोदक मांगा. तब सतीने थालीमें से एक मुट्ठी गीले चावल-अक्षत रानी को देकर कहा, “तुम पति के साथ पुत्र पौत्र से युक्त होकर चिरकाल तक जय प्राप्त करो." . तत्पश्चात् राजा विक्रमादित्य यातें करने के लिये सती के पास गये, और उस के कान में कहने लगे, "तुम तीनों काल को जाननेवाली हो, और राजा की भी हितकारिणी हो, और अपने शील के प्रभाव से तुम लोगो को संतान देती हो, तुम्हारे चरणोदक से लोगों के शरीर से रोग नष्ट हो जाते है लेकिन तुमने रात्रि में चोर-अन्य पुरुष को सेवन करने की इच्छा से 14 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 . विक्रम चरित्र अपने पति के गले का अंगुठे से दवाकर मार दिया था. तुम्हे चोर के साथ संभोग की जो इच्छा की थी, अब उस सुखेच्छा को छोडकर तुम्हे अग्नि में गिरने से सुख कैसे होगा ? तुम अब अग्नि प्रवेश कर के क्यों मरती हो? तुम नया पति कर के अपने यौवन को कृतार्थ करा. मृत्यु प्राप्त करने से भी जीव अपने किये हुए दुष्कर्म से कभी छूट नहीं सकता. हे रत्नमंजरी! तुम अभी तो काष्ठभक्षण के लिये तैयार हुई हो, लेकिन रात्रि में तो तु ने अपने पति को मारा है, अतः तुम स्त्रीचरित्र किये बिना मेरे. आगे सत्य बात कहा, मैं तुम्हारा चरित्र किसी से नहीं कहूँगा.' Wha . AYA 3 ...P.S. 7 .......... . asarSap AB Jes (IFICENTER 11-' ---TATION HindAMMAR - 1EMA - - - ---- - ON आर. CLAIMM -:... MER M महाराजा विक्रमादित्य और रत्नमंजरी वार्तालाप करते हैं. चित्र न. 20 ... 'विक्रमादित्य राजाने अतिथि रूप से रात्रि का मेरा सत्र घृत्तान्त जान लिया है, ऐसा जान कर * रत्नमजरी बाला, Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित "हे राजन् ! यह बात मुझ से मत पूछो, क्यों कि जैसा समय आता है, अर्थात् जिस समय जैसा कम-उदय में आता . है, वैसा मनुष्य का बर्ताव भी. हो जाता है. हे राजन् ! तुम अपने पैरों के निचे जलती हुई आग को नहीं देख पाते. कहा है कि __ दूसरे के राई और सरसों जैसे छिद्र देखते हो, लेकिन ... अपने बिलफल जितने बडे बडे छिद्र भी नहीं दिखते. + विष्णु, शंकर और कपिल आदि मुनिगण, चक्रवत्ती तथा मनुष्य आदि / सभी स्त्रीयों के दास है.. गुरु, गाय, सेना, पानी, स्त्रियों और पृथ्वी ये छ निन्दा के योग्य नहीं हैं. इन की निन्दा करनेवाले स्वयं निन्दा के पात्र बनते है. हे राजन् ! आप को स्त्रीचरित्र जानने की इच्छा है, तो उसे जानकर तुम्हे दुःख होगा! पहेले भी घांचन के आदेश से सुम्हारी बहुत निन्दा हो चुकी है, और अब तुम मेरे पास से स्त्रीचरित्र सुन कर निन्दित होगें. तुमने बिलों में जगह जगह चूहे तथा सर्प देखे होंगे, पर अभी दृष्टि विष सर्प नहीं देखा होगा, जिस के देखते ही प्राण नष्ट हो जाता है. तुमने समुद्र में छीप, शंख, कौडी देखी होगी, लेकिन कौस्तुभमणि नहीं देखा होगा. हे राजन् ! नीम कथेरी, करोर, __ + राईसरसवमित्ताणि परछि आणी पास से। .. . भप्पणो बिल्लमित्ताणि पिच्छंतो नः वि पाससे // सर्ग' 11/18 // देखते ही देखी होगा trasuri m.s. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 विक्रम चरित्र धतूरे आदि के अनेकों पेडों को तुमने देखा होगा, लेकिन कल्पवृक्ष को कभी नहीं देखा होगा. . रसभूमि, विषभूमि, तथा मरुभूमि तुमने अवश्य देखी होगी, लेकिन कहीं भी रत्न और मोती से भरी हुई भूमि नहीं देखी होगी. हे राजन् ! न मैं अधम हुँ, न जड हूँ और न .. मैं स्त्रियों में शिरोमणि हु, लेकिन मैं मर कर पृथ्वीतल पर अपने यश को छोडकर सुरलोक को जाउंगी." यह सुन कर राजा बोला, "हे रत्नमांजरी! तुम कुछ तो स्त्रीचरित्र कहा." रत्नमंजरीने कहा, “तुम अपने नगर के अंदर रहनेवाली काची हलवाइन को पूछो, वह कोची मेरा तथा अन्य स्त्रियों का भी चरित्र जानती है, अतः अवन्तीपुरी में रहनेवाली कोची हलवाइन से स्त्रीचरित्र पूछना. हे राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो. और मिच्छा मि दुक्कड-मेरा पाप मिथ्या हा.” इस प्रकार कह कर उसने दोनों पुरुषों के साथ चिता में प्रवेश किया. सब अपने अपने स्वार्थ को रोते हुए लोगों के साथ महाराजा अपले नगर में आये. रत्नमंजरी जल कर भस्म हुई, और स्वर्ग लोकमें गई. . . . .' बाबा जगमें आय के मत कर बुरा काम; / बडे मोज न पावत बिस्था भये बदनाम. - पाठकगण / गत प्रकरण में और इस प्रकरण में रत्नम जरी का अदः / भुत रोमांचकारी जीवन का हाल एवं मोहराजाने एक स्त्रीरत्नको किस तरह विङक्ति कर स्त्रीचरित्र का उदाहरण जगत के सामने पेस किया, इसी लिन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित अपने महापुरुषोने कहा है कि, जो कोई व्यक्ति कसोटीकाल में आपत्ति को पार कर शुद्ध सुवर्ण की तरह निर्मल होकर दीप उठते हैं, वही जगत में प्रशंसा को प्राप्त करते हैं. उसी तरह हरेकको चाहिये की आपत्तिकाल में धीरज धरे और अपने व्रत में अविचल रहेना, वही उन्नतिका एक श्रेष्ठ मार्ग हैं. शीघ्र मंगाईये !! / श्रावक कर्तव्यः-हिन्दी भाषा में:-प्रभात से लेकर रात्रि में शयन तक के तमाम श्रास्वक जीवन के उपयोगी विषयोंका अच्छी तरह विवेचन किया गया हैं, 1 श्रावक के मुख्य कर्तव्य, 2 ईक्कीस गुण, 3 हित शिक्षा छत्रीशी, 'मण्ह जिष्णाण' की सज्झाय का संक्षिप्त विवेचन, 4 धर्ममय विचारणा, 5 बारह व्रतोंकी संक्षिप्त और सरल समज, 6 तत्वमय विभाग में-देव का स्वरूप, अठारह दोषों का वर्णन, 7 गुरु का स्वरूप, पंचमहाव्रत का वर्णन, 9 धर्म का स्वरूप, 10 दान-शील तप भाव का स्वरूप और 11 दिनकृत्यभाग में 12 नवकार मंत्र का जाप कैसे करना, 13 चौदह नियम धारण करनेकी रीति, 14 श्रीजिनेश्वरदेव की पूजा प्रकरण में 15 दश त्रिकके तीस भेद और उसका विवेचन, 16 पांच अभिगम, 17 सात प्रकार की शुद्धि, अष्ट प्रकार पूजा की विधि, 18 रात्रि भोजन के दोष. 39 जिनमन्दिर में आरति व मगल दीपक कैसे करना- उतारना, 2.0 भावनापूर्वक शयन, 21 चार शरणा, 22 अत्मभाव की विचारणा, 23 तेरह काठियों का स्वरुप, 23 मीठाई आदि के काल की समज, 24 पच्चक्खाण विषयक खुलासा व दश पच्चक्खाण के फल, 25 श्री शत्रजय के इक्कीश खमासमण, इत्यादि विविधता से भरपूर और शासनसम्राट गुरुदेव का जीवन सहित पृष्ट 208 प्रचार के लिये मात्र किमत आठ आने, पोस्ट खर्च दो भाने अलग, बहुत कम नकल है शीघ्र मगाहये: पता-रमेशचन्द्र मणिलाल शाह Co शाह मणिलाल धरमचंद ठि. जेसिंगभाई की चाली में, घर नं. 63, पांजरापोल, अमदावाद. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकसठवाँ-प्रकरण कोची हलवाइनके वहां महाराजा का पहूँचना . स्त्रीचरित्र जानने की उत्सुकतावाले राजा विक्रमादित्य कोची हलवाइन के घर जाने के लिये अपने महल से रवाना हुए. बाजार में आकर चोराहे पर राजाने लोगों से कोची हलवाइन का घर के बारे में पूछा, तब लोगोंने कहा, "इस बाये तरफ के रास्ते से जाइए, और वहां आप परदेशी को भोजनशाला मिलेगी. पास में ही कोची हलवाइन का घर है. आप को वहां पर उत्तम प्रकार के पकवान् श्रेष्ठ चावल, दाल, व्यजन और शाक आदि, दही-दूध से संयुक्त सुंदर भोजन सामग्री द्रव्य देने पर मिलेगी. और निधन को मुफ्त भोजन मिलता है तथा अल्प दाम से मध्यम प्रकार की भाजन सामग्री मिलेगी. वहां इस प्रकारकी अच्छी व्यवस्था हैं. वहां चन्द्रमणि और सूर्यमणि के समूह से बनाये हुए एक मंजिल से लेकर सात मंजिल तक के सुंदर महलों की परपरा है, जो इस प्रकार दिखती है, माना अपने मित्र सूर्य तथा चंद्रको मिलने के लिये आनंदपूर्वक आकाश में जा रहे हो. पंचवर्णों वाले मणियों से वधे दर्पण की तरह निमल भूतल में लोग अपना प्रतिबिंब देखते रहते है. जहाँ द्राक्ष के आसव स्वरूप अमृत जल से भरी हुई तथा सुख से उतरने के लायक सुंदर सोपाना से युक्त मनोहर वावडियां है. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 525. साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित .. __ जहां भिखारियों को सदा दान देनेवाली प्रत्यक्ष कल्पलता के समान कोची हलवाइन रहती है. इसके पाससे भोग की इच्छावाले भोग प्राप्त करते है, भोजन की इच्छावालों को भोजन मिलता है, और पुत्र की इच्छावालों को पुत्र भी मिलता है. वह कोची कोपायमान होने पर चंडिका जैसी भयंकर और संतुष्ट होने पर ईष्ट को देनेवाली है." इन सब बातो. को सुनकर राजा मन में चमत्कृत होते हुए, अपना वेष बदल कर उस कोची हलवाईन के घर के द्वार पर आकर खडे हो गये. उस के घर में अनेक दरवाजे है, और अनेक प्रकार के लोग वहां है. पांच प्रकार की ध्वनि करनेवाले मनाहर बाजे बज. रहे थे, देवविमान जैसे तथा से कडो स्त्रियों से भरे हुए उन मनोहर घरों को देख कर राजा अपने मन में बहुत खुश हुए. . अदृश्य रूप कर के राजा विक्रमादित्य घर के अन्दर गये, वहां सोने के सिंहासन पर बैठी हुई कोची हलवाईन को देखा. याचकगण उस की स्तुति कर रहे थे. कामदेव की . पत्नी रति और प्रीति के समान उस का मनोहर रूप को देख कर राजा अपने मन में विचारने लगे, “क्या यह साक्षात् इन्द्राणी है ? या देवांगना है ? किन्नरी है ? या कोई पातालकुमारी है ? " ऐसा विचार कर रहे थे कि दासी : उन्हे कोई परदेशी समझ कर स्नानागार में ले गई, और स्नानपीठ पर बिठा कर कोटीपाकादि तैलों द्वारा मालिश करके कस्तूरी आदि सुगंधित मिश्रित जल से स्नान कराया. राजा विक्रमादित्यने पुनः पर P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 526 विक्रम चरित्र देशी का ही रूप धारण किया और फिर दासी उसे भोजनस्थान में ले गई, जब उसने भोजन करने के लिये कहा तो राजा बोले, “मैं रात्रि में भोजन कभी नहीं करता. क्यों कि-श्री कृष्णने युधिष्ठिर से कहा, 'जो धर्मश्रद्धा से युक्त कोई गृहस्थी हो या विवेकवान हो, उनको रात्रिभोजन नहीं करना चाहिए, तपस्वी जन हो उस को विशेष प्रकार से रात्रि भोजन त्यागना आवश्यक हैं. जो व्यक्ति सदाकाल रात्रि भोजन त्यागता है उसको एक मास में पंदश दिन के उपवास का श्रेष्ठ फल मिलता है.' इस प्रकार जानकर में रात्रि भोजन नहीं करता हुँ, सूर्य होते तक दिन में दो ही बार भोजन करने का मुझे , नियम है.” उस के बाद चंदन का विलेपन कर हार और पुष्प समूह से शोभायमान उस राजा को वह दासी कोची के पास ले गई. राजाने विनयपूर्वक कोची को नमस्कार किया, इतने में तो उसने राजा का नाम लेकर कहा, “हे राजा विक्रमादित्य ! पधारिये. निरंतर प्रजाका न्याय करनेवाले, आप कुशल तो है ? आपकी पत्नी और मेरी पुत्री सदृश परम शीलवती देवदमनी कुशलपूर्वक तो है ? किस कारण से आपने यहाँ तक आने का कष्ट किया ? जगत में सभी प्राणियों को अपना ही कार्य प्रिय होता है, दूसरे किसी का कार्य प्रिय नहीं होता. आप अपने कार्य से आये है, अथवा अपने मन का संशय निवारण करने . आये है, सो कहो. कोची पुनः बोली : जिस स्त्रीने अपने पति के साथ अग्नि प्रवेश किया है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित . वह रत्नम जरी उत्तम सतीरत्न थी, लेकिन कल किसी कुकर्म के उदय से और पापरूप राक्षस से प्रेरित होकर चोर के साथ क्रीडा करने की इच्छा से उसने अपने पति को गुप्त रूप से मार डाला. बाद में चोर और अपने पति को मरा जान कर उसे खूब पश्चाताप हुआ. अपने किये हुए दुष्कर्मो की निन्दा करती हुई उसने अग्निप्रवेश किया-क्यों कि-क्षण में आसक्ति, क्षण में मुक्तता, क्षण में क्रोध, क्षण में क्षमावान् ऐसा मन, मोहादि की क्रीडा से बंदर की तरह चपलता को प्राप्त करता है. अर्थात् मन बन्दर की तरह चपल होता है, और परस्पर विरोधी भावों की क्षण क्षण में ग्रहण करता है. : अग्नि में प्रवेश करते समय नदी तट पर रत्नम जरीने आपको सत्य ही कहा है कि, 'आप पर्वत पर दूर जलते हुई आग-अग्नि को देख सकते है, लेकिन अपने पैरे। के पास जलती हुई आग को नहीं देख पाते. हमेशां निश्चल वुद्धि से शास्त्र का चिंतन करना चाहिये, आराधित राजाके प्रति भी निःशक नहीं रहना चाहिये, अपनी गोद मैं रही हुई स्त्री की भी बड़ी सावधानी से हमेशा देखभाल करनी चाहिये, क्यों कि शास्त्र में कहा है, राजा और युवती कभी भी वश / में नहीं रहती.x + शास्त्रं सुनिश्चिलधिया परिचिन्तनीयमाराधितोऽपि. नृपतिः परिशङ्कनीयः / / अङ्कस्थिताऽपि युवतिः परिरक्षणीया, शास्त्रे नृप च युक्तौ च कुतः स्थिरत्वम् (वशित्तम् ) // स. 11/538 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 . . विक्रम चरित्र कदाचित् कोई तैरनेवाला समुद्र को पार कर ले, लेकिन कोई भी पंडित स्त्रोचरित्र का पार नहीं पा सकता. अतः आप स्त्रीचरित्र देखना ही चाहते है नो कुछ समय के लिये आप इस पेटी के अंदर गुप्त रूप से छिप रहिये. इस में आप जोरसे न खांसे और न जोर से श्वासोश्वास ही ले, और यह पेटी जहां जाए वहां इस में ही रहना. जब मैं आप को इस पेंटी में से बाहर निकालू तभी आप उस में से बाहर निकलें... उस में ही आपका हित है, बडे सावधान रहना." REACCESSSSS 22222600 14 ANIMAL V AIIA Tim mmmmmmmmmmm | नानु सटे. प कांचीक कथनानुसार राजा 'पेटी में बैठने जा रहे. चित्र न. 29 स्त्रीचरित्र को देखने की इच्छा से राजा उस के कथना. नुसार पेटी के अंदर बैठे, इतने में प्रधानमत्रो बुद्धिसागर वह P.P. Ac. Gunratrasuri M.S. . ' Jun Gun Aaradhak Trust: : Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित - 529 आया. वह मंत्रीश्वर पांच मुद्राएँ धारण किये हुए मान लो देश का स्वामी, महाराजा का प्रिय, राज्य में सब बातों का कर्ता हर्ता और सभीको छोडने बांधनेवाला था. उस कोची के सामने मोतीसे भरा हुआ सोनेका थाल रख दिया और उसके पैरों पर गिर कर बोला, "हे इच्छित फल को देनेवाली, मुझ पर प्रसन्न होकर अभी ररररररररह 222227222 1-A2 F ना TEC समा मालुसरे एकाएक बुद्धिसागर मत्री का कोची के घर आना. चित्र न. 30 मदनमजरी के साथ मेरा संयोग करवाओ" तब कोची हल-- वाइन बोली, "हे विचक्षण मंत्री! इस सुंदर मोरपीछी-लेखनी को लेकर इस पेटी पर बैठ जाओ, फिर इस मोरपीछी को लेकर इस पेटी के चारों तरफ फिरागें, तो यह पेटी आकाश मार्ग से. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 विक्रम चरित्र इच्छित स्थान को पहोंच जायगी." कोची के कथनानुसार विधि करने से मत्री पेटी सहित वहां से आकाश मार्ग द्वारा मदनमजरी के निवास स्थान पर पहूँचा. नृपप्रिया मदनमजरी अपने मन के ईष्ठ व्यक्ति मत्री को आया देख कर उठ खडी हुई, और आसन देकर बोली, " हे मंत्रीश्वर ! आज तो आप बहुत दिनों से यहां पधारे है.” मंत्री बोला, “हे प्रिये ! मेरे लिये हमेशा आना संभव नहीं है." रानी बोली, "हे वल्लभ ! आप के वियोग से जलता हुवा मेरा मन बिलकुल आप में आसक्त हो रहा है, और दूर रहने पर भी मैं आप के समीप हुँ, आप के सुख में सुखी और दुःख में दुःखी हूँ, क्यों कि आप के वियोग में जो दिन निकलता है वह अपरिमित है, आप के वियोग में बीतनेवाला मेरा जन्म ही व्यर्थ है." कह कर मदनमजरीने मत्री को स्नान करवाया, और मंत्री को विविध रसवाला स्वादिष्ट भोजन करवाया, पानादि खिलाकर सुंदर शय्या की तैयारी की. कई प्रकार के शृंगारादि से भोग रूपी अमृत के दान से और कर्णप्रिय वचनों से रानी ने मंत्रीश्वर को खुश किया. भागों को भागते हुए रात्रि के चीत जाने पर रानीने मंत्री को कहा, “हे स्वामिन् ! एक क्षण की तरह आज की रात्रि बीत गई है." तब मंत्री बोला, “अब मुझे जलदी ही जाना चाहिये, क्यों कि कदाचित् राजा यहां आ जाये तो हमारी क्या गति होगी?" मत्री के वचन सुन कर रानीने कहा, " आप अपना मन यहां छोड जाए। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 531 और मेरे अंतःकरण को अपने साथ ले जाएँ, क्यों कि मैं अवला ठहरी. मैं आपके स्थिर मनोबल से ही बल प्राप्त कर जीवित रह सकती हूँ. अन्यथा आपके बिना मैं मरी हुई हूँ ऐसा समझे. आप अधिकतर रातों में आकर मेरे वियोगरूपी अग्नि को शांत कीजिये. हम दोनेा का संयोग करनेवाली कोची हलवाइन का दोनों पैर पकड कर मेरा प्रणाम कहियेगा." यह सब देख कर राजा विक्रमादित्य अपने चित्त में इस प्रकार विचार करने लगे, 'अहो मदनमजरी का चरित्र तो पापमय हैं.' कहा है कि कामान्ध औरत देखती क्या, कुल प्रतिष्ठा सुजनता, मानमर्यादा स्वयं की भी न रखती कुशलता; स्वच्छंद मन व्यभिचारिणी जो काम करती कठिन है, वह काम नागिन (सर्प) मत्तगज या सिंह से भी कठिन है... __ इस लिये संसार को दुःख देनेवाली हथिनी की तरह ऐसी स्त्रियों का दूर से ही त्याग करना चाहिये. ऐसे किसी मंत्र की तथा ऐसे किसी देव की उपासना करनी चाहिये कि जिससे यह स्त्री रूपी पिशाचिनी शीलरूपी जीवन को न खा सके. मान लो जगत का संहार करने की इच्छा से क्रूर विधाताने सर्प के दांत, अग्नि, यमराज की जिह्वा और विष के अंकुर इन सब को मिला कर स्त्रियों को बनाया हो! कदाचित् संयोग से बिजली. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 विक्रम चरित्र स्थिर रह सकती है, हवा भी स्थिर रह सकती है लेकिन स्त्रीयों का मन स्थिरता को प्राप्त नहीं कर सकता.' x उपरोक्त विचार करते करते राजा अपनी पत्नी तथा मंत्री को मारने के लिये तैयार हुए, लेकिन फिर शान्तचित्त से विचार किया, 'क्या इन पापाशय लोगों को मारना चाहिये ? इन दोनों को मारने से व्यर्थ ही लोक में मेरी निन्दा होगी, अतः यह पाप करना मुझे उचित नहीं.' यह सोच कर राजा अपने स्थान पर चुपचाप बैठा रहा. ____ मंत्री अपना काम पूरा कर के पेटी पर आकर बैठा, और आकाश मार्ग से पहले की तरह कोची हलवाइन के घर पहूँच . गया. फिर लेखनी सहित पेटी को कोची को अर्पण कर, रानी द्वारा कहे गये कुशलपृच्छा और प्रणाम को कह कर, प्रणाम कर के मंत्री अपने स्थान पर गया. .. - कोचीने पेटी में से जब राजा को बाहर निकाला, तब राजाने भी कोची को प्रणाम किया, और मधुर स्वर से बोला, " तेरे प्रसाद से मैंने रानी के चरित्र देख लिया, और अपनी स्त्री के इस प्रकार के चरित्र को देख कर मेरे हृदय में अतिशय खेद हुआ." तब कोची बोली, “हे राजन् ! स्त्रीचरित्र .. * सापिण्डयेवाहिदष्ट्राग्नि, यमजिह्वा विषाङ्कुरान् / .. जगज्जिधांसुना नाय; कृता क्रूरेण वेधसा || 517. यदि स्थिराभवेद् विद्युत्, तिष्ठन्ति यदि वायवः / देवात् तथापि नारीणां न हि स्थेम मनोभवेत् // स. 11/572 // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित जास्तव में विषम हैं, क्यों कि एक पुरुष द्वारा नारी को कदापि संतोष नहीं हो सकता. कहा है कि - . विशिष्ट सत्वो से सुशोभित अंगोवाली सास, और पांच पतिवाली द्रौपदी को पूर्ण संतोष नहीं हुआ, ऐसा महाभारत का वचन सुनिये. दुर्वासा ऋषि के सामने नारदने जो उत्तम पांच वाक्य पूछे जो महाभारत में कहे हुए है, " यदि द्रौपदी पांच वाक्य सत्य कहेगी तो यह आत्र वृक्ष इस अकाले समय में भी फलदायक हो जायगा. " x ये पांच प्रश्न इस प्रकार थे... यह सारा प्रसंग महाभारत में इस प्रकार है. एक बार युधिष्ठिरने 88 हजार ऋषियों को उन का इच्छित भोजन देने का गर्व किया, इस पर युधिष्ठिर का गवः उतारने के लिये उन्होंने माघ मास में आम मांगा. अकाल में आम मांगने पर युधिष्ठिर चिंता में ... डबे. तब नारदने कहा कि, 'यदि द्रोपदी इन पांच प्रश्नो का सत्य उत्तर दे .... तो आम्रवृक्ष शीघ्र फल देगा. __ पंचतुष्टि 1 सतीत्व च 2 संबन्धे चातिशुद्धता 3 / . 1 पत्यौ प्रीति 5 मनस्तुष्टिः सत्यपंचकमुच्यताम् // .. द्रौपदीने ऋषियों को शान्त करने के लिये यह वचन अंगीकार किया. .. और हरेक प्रश्न के जवाब में. एक एक श्लोक कहा. पहले लोक से सभा में मूसल आम्रवृक्ष बन गया, दूसरे लोक से वह नव पल्लवित हुआ, तीसरे से उस पर मंजरी पैदा हुई, चौथे से फल लगे, और पांचवें से फल पक गये. . बाद में युधिष्ठिरने ऋषियों की इच्छा पूर्ण की. . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र (1) पति की वल्लभता (2) पांच पर की स्थिति (3) नई नई इच्छाएं (4) सतीत्व (5) परदर्शन. इस का जवाब द्रौपदीने इस प्रकार दिया. ' (1) वर्षाऋतु का समय कष्टकारक है, लेकिन जीवनोपाय कृषिकर्म जलपानादि का हेतु होने से लोगों को वह समय प्रिय है. वैस ही-हे नारद ! स्त्रीका भरणपोषण करनेवाला होने से ही पुरुष स्त्रीका वल्लभ-प्रिय है (2) सुंदर पाची पाण्डब मुझे प्रिय हैं लेकिन मेरा चित्त छठे की तरफ आकृष्ट होता है. (3) जिस प्रकार गाय जंगल में नये नये घास को खाने की इच्छा करती है, उसी प्रकार स्त्रियों को नये नये पुरुषों को प्राप्त करने की इच्छा होती है. (4) जब तक एकान्त नहीं मिलता, वैसा क्षण नहीं मिलता, प्रार्थना करनेवाला पुरुष नहीं मिलता. हे नारद ! तभी तक स्त्री का सतीत्व टिकता है, अन्यथा, सतीत्व नहीं बच सकता. स्थान समय एकान्त का-और प्रार्थनाशील; मिलता नहीं इस से बना, रहता नारी का शील. . (5) जिस प्रकार नया घडा जल भरा होने पर झरता रहता है, उसी प्रकार भाई, पिता, पुत्र, अथवा किसी भी स्वरूपवान् पुरुष को देख कर स्त्रीयोनि-आर्द्र हो जाती हैं। __एक समय किसीने पूछा : __ हे प्राज्ञ ! प्रसिद्ध कीर्तिवाले पाण्डु देव ! श्रुत, कुल, आ पुरुषों की रक्षा कौन करता है ? राजा, वन और वनिता क रक्षा करने का क्या उपाय है ? इस के जवाब में कहते है, 'सतत P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित अभ्यास से श्रुत ज्ञान की रक्षा होती है, कुलका रक्षण वडिल पुरुषों की सतत सावधानी से होता है. पुरुष का रक्षण धर्म क्रिया से ही होता है, दान से राजाओं की और कुसुम-पुष्प से वनकी रक्षा होती है, लेकिन स्त्रीओं की रक्षा किस तरह होती है, यह मैं अर्थात् कोई नहीं जानता..... .. स्पर्श न्दिय रूप महासर्प से ग्रस्त स्त्री या पुरुष अपने पति, माता, पिता आदि को ठगनेवाला कौनसा काम नहीं करता है ? स्पशेन्द्रिय के विष से व्याप्त श्री देवकी नन्दन कृष्णने गोपिकादि स्त्रियों के साथ क्या रमण नहीं किया है ? कामदेव के बाण के विष से विहवल बने हुए महादेवजीने क्या तपस्वीनी का सेवन नहीं किया था ? क्या कामवाण से विद्ध ब्रह्माजीने भी विहवल मन होकर अपनी पुत्री ब्राह्मी के साथ विषय सेवन नहीं किया ? क्या इन्द्रने कामविह्वल हो कर अहल्या का सेवन नहीं किया ? क्या पाराशर आदि तापस भी कामग्रस्त नहीं हए ? हे राजन् ! स्त्रियों में तो काम विशेष प्रमाण में होता है, तो फिर वह एक पति से कैसे संतुष्ट होगी? क्यों कि पुरुष से स्त्री का आहार दुगुना होता है, लज्जा चौगुनी, कार्यव्यवसाय छगुना और काम आठ गुना होता है." का मन कुच शांत हुआ और वे बोले, 'यदि स्त्री कामग्रस्त ही हो तो क्या किया जाय ?" .. "संशयों का आवत, अविनय का घर, साहसों का 15 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र नगर, दोषों का भंडार, सैकडो कपटो का स्थान, अविश्वास का क्षेत्र, श्रेष्ट व्यक्तिओं द्वारा भी न समझा जा शके वैसा, सर्व माया से भरा हुआ करण्डक और अमृतमय विष समान स्त्री रूपी यंत्र लोकधर्म के नाश के लिये किसने बनाया ?'+ कहकर आनंदित मनवाले राजा कोची को नमस्कार करके अपने स्थान पर आये. संसार के स्वरूप का स्मरण करते हुए राजाने बुद्धिसागर मंत्री और मदनमजरी रानी दोनों को अपने देश से बाहर जाने का अर्थात् देशनिकाल का दण्ड दिया. पाठकगण ! रत्नमजरी के कथनानुसार महाराजा विक्रम कोची हलवाइन के वहां गये, और वहां क्या देखा, देख कर मनोमन ही खिन्न हुए, राजराणी और मत्रीश्वर आदि की अयोग्य कारवाही के हेतु देशनिकाल कर अपनी सारी प्रजा में न्याय का ऊच्चा आदर्श का उदाहरण बताया, वासना कैसी बुरी है, मंत्रीश्वर और राजराणी को भी उसी वासना के कारण देशनिकाल होना पडा. दुःखी होकर भटकना पडा, वाचक ऐसी वासना से सदा ही दूर रहना, वही सुख का परम श्रेष्ट मार्ग है. , नारी तो झेरी छुरी, मत लगावो अंग; दश शिर रावण के कटे, परनारी के संग. नागणी से नारी बुरी, दोनु मुख से खाय; जीवता खाय कालजा, मुवा नरक ले जाय. * आवतः संशयानामऽविनयभवन पत्तन साहसानाम् , दोषाणां सन्निधान कपटशतगृह क्षेत्रमप्रत्ययानाम् / अग्राह्य यन्महद्भिर्नरवरवृषभैः सर्वमायाकरण्ड, स्त्रीयंत्र केन लोके विषममृतमय धर्मनाशाय सृष्ठम् // 11/600 " P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासठवाँ-प्रकरण नारी विष की वेलडी, नारी नागण रूप; नारी करवत सारखी, नारी नाखे भवकूप. छाहड और रमा . कदाचित् बुद्धिमान् लोग समुद्र-को पार कर लें, लेकिन स्त्रियों की चेष्टा-चरित्र का पार कोई नहीं पा सकते. एक दिन राजसभा में बैठे हुए महाराजा विक्रमादित्य केत्र कोई एक पंडितने आकर स्त्रीचरित्र के विषय पर छाहड की कथा सुनाई जो इस प्रकार है. "श्रीपुर नामक नगर में छाहड नामका एक किसान रहता था. धारानगरी में रहनेवाले धन नामक कृषक की पुत्री रमा के साथ उस का विवाह हुआ. एक समय छाहड अपनी पत्नी को पीहर से लाने के लिये सुंदर वेष धारण कर के सुंदर रथ में बैठ कर धासनगरी में गया. सासने अपने जमाई को अपने पुत्र की तरह अच्छे पक्वान, दाल, चावल, घी आदि प्रेम से खिक्षा कर उस का खूब स्वागत किया. सुंदर वस्त्र और आमूषणां से सरकार पाकर अपनी पत्नी को अपने नगर में ले जाने के लिये हड तैयार हुआ.. - रमा भी सुंदर वखाभूषण पहन कर अपने स्वजन सबन्धियों से मिलने को गई. रास्ते में जिस प्रेमी व्यक्ति के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र 538 साथ रमा हमेशा विलास किया करती थी, वह मिल गया, उसने रमा से कहा, " तू तो अब अपने पति के साथ ससुराल जा रही है, अतः हम दोनो का एक समय वार्तालाप हो तो अच्छा.” तब रमा बाली, "हे प्रिय ! यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है, तो मैं तुम्हारा मनोरथ जल्द ही पूरा करुंगी. यदि तुम्हे मुझ से मिलने की इच्छा हो तो एक सुंदर रथ में बैठकर जल्दि ही हमारे जाने के रास्त में एक दो कोस दूर जा कर ठहरो. वहां एक ऊँचा तंबू खडा कर के और तवू के एक तरफ रथ स्थापित कर के तुम अपने मित्र को युक्तिपूर्वक वहां खडे रखो. तुम स्वयं तंबू के अंदर रहना. तुम अपने मित्र को सिखा रखना कि, जब छाहड आकर यह पूछे, 'तुम यहां क्यों ठहरे हो.' तो वह यह जवाब दे, 'मेरी पत्नी को रास्ते में अकस्मात् प्रसव का समय आ गया है. अभी उसे प्रसूति का दर्द हो रहा है, और मैं इसकी क्रिया जानता नहीं हूँ. अतः यहां ठहरा हूँ.' उसे इस प्रकार सिखा कर वह रमा अपने स्वजनों के घरों में घूम फिर कर खूब देर बाद प्रसन्न मुख अपने पिता के घर लौटी. छाहड अपनी पत्नी को अपने रथ में बिठा कर सास संसुर को प्रणाम करके अपने नगर के प्रति रवाना हुआ. रास्ते में ऊंचे तंबू को देख कर सरल बुद्धिवाला छाहडने उस को . पूछा, 'अरे भाई! यहां जंगल में रथ को छोडकर क्यों खडे हो ?' उसने जवाब दिया, 'अरे क्या कहूँ, यहां मेरी पत्नी को प्रसूतिकाल का दर्द हो रहा है. अतः इसी लिये अभी में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 539 यहां ठहरा हूँ. स्त्री के बिना स्त्री का यह दर्द कौन शांत कर सकता है.' तब छाहडने अपनी पत्नी से कहा, 'तू इसकी पत्नी के पास जा, और शांति का उपाय कर.' यह सुन कर रमाने कहा, 'रास्ते में रुकना हम लोगों के लिये अच्छा नहीं है.' तब छाहड बोला, 'हे प्रिये ! क्या रास्ते में दर्द से पीडित स्त्री को छोड़ कर अपने घर जाना हमें शोभा दे सकता हैं ?' . . पति के कहने से रथ से उतर कर रमा उस ऊंचे तंबू के भीतर उस कपट स्त्री (अपने प्रिय) के पास गई, वहां उसे भोग विलासपूर्वक प्रसन्न कर उसकी E -E Mmhd 2015. ST स म पूर्वोक्त आशा पूरी अपनी कांचली है SUITME करके शीघ्रता में CRICA CENSE * उलटी ही पहन कर रमा जल्दि से अपने . रथ में अपने पति (रमा तंबु में जा रही है. चित्र न. 31.) की बांयी तरफ आकर बैठ गई. - उस की कांचली उलट देख कर छाहड बोला, 'तेरी ... कंचुकी उलटी कैसे हो गई है ? और तेरी साडी मलिन क्यों हुई ? और तेरा शरीर ऐसा क्यों हो गया ?' पति के प्रश्न को सुन कर रमाने कहा, 'मैंने कचुकी खोले बिना ही पहनी थी और साडी में सल पहले से ही पडे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540 विक्रम चरित्र हुए थे.' इस पर छाहड बोला, 'मैं तुम से यह पूछता हूँ, ये आंखे किस से मिलाई और क्या उस स्त्रीने संतान को जन्म दिया है ?' तब वह रमा अपनी चतुराई का गर्व करती हुई बोली.' - छाहड छल्ला ते भला जेह नामिई छइल; रन्नि सिउ आवई दिकरा खेडित वल्ल. 631 स्त्री के इस प्रकार के जवाब से छाहड अपनी पत्नी के दुष्ठ चरित्र को मन में समझ गया. और उस पर अविश्वास रखता हुआ अपने नगर में आया. उसने किसी सिद्धपुरुष से एक अमृतकुंपिका प्राप्त की, और जब कभी वह बाहर जाता तो छाहड़ अपनी पत्नी को जला कर उस की राख को एक पोटली MPA R AN में बांध कर रख जाता. जब वह घर आता तो उस अमृत+ से उसे जिन्दा कर अपना घर का काम करवाता. (छाहा भस्म की पोटली कोटर में रख रहा है.) चित्र न. 32 अपनी पत्नी से कहा, S एक बार उसने +जैन मतानुसार यह बात योग्य नहि लगती. किन्तु मूल सस्कृत चरित्रकारने यह दन्तकथा के रूप से सुनी वैसी ही चरित्र में संग्रहीत का है। उसके अनुसार हमने मी अनुवाद में वैसी ही रखी है. जैन मतानुसार असंगत है, वांचकगण यह शोचे. ~ संयोजक. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 541 'मैं गया तीर्थ की यात्रा करने के लिये जाता हूँ. वहां से छ महिने बाद आउंगा. तब तक तू समाधि में रहे.' कह कर अपनी पत्नी को जला कर उस की राख को एक पोटली में बांध लिया, और अमृतकुंपिका को साथ लेकर वह कोई विषम वन में चला गया. जंगल में एक बडे वटवृक्ष की शाखा के कोटर में अपनी स्त्रीकी भस्म को रखकर वह (छाहड) दीपावली के त्यौहार पर यात्रा करने निकला. . . इधर उस वटवृक्ष की छाया में बकरियां चराने के लिये एक ग्वाल सदा आता था. एक दिन उस शाखा के सूखे पत्तों देख कर वह वहां आया. उसने वह राख की पोटली देखी तो उसे नीचे उतारा. उसे खोलते समय उस के अंदर की अमतकुंपिका में से एक बिन्दु उस में गिर गया. इतने में वहां वस्त्राभूषण सहित एक सुंदर स्त्री खडी हो गई. इस से वह आश्चर्यचकित हो गया, और भयाकुल होकर वह वहां से भागने लगा. तब वह रमा बाली, 'तुम यहां का आओ, और मुझे भीगदान देकर अपनी - प्रिया बनाओ.' यह * ALL सुनकर वह ग्वाल वापस वहां आया, और SC उस से पूछा, 'तुम (स्त्री को देख ग्वाला ताजुब हो गया.) कौन . हे? किस चित्र नं. 33 प P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 विक्रम चरित्र कारण से किसने तुम्हे इस प्रकार कर दिया ?' उस के जवाब में रमाने कहा, 'मेरे पतिने मुझे जला कर मेरी भस्म को यहां रखा हैं, और वह दीपावली के दिन यात्रा के लिये गया है, छ महिने बाद वह आयगा. अतः उस के आने तक तुम मेरे साथ पति की तरह रहो.' तब वह ग्वाला उस के साथ आनंदपूर्वक रहने लगा, और वह उस से अपना घर का काम करवाता रहा. - समय बीतने लगा, रमाने एक बार उस ग्वाल से पूछा, 'दिवाली के बाद कितना समय बीता है ? " तब उसने समय जान कर कहा, 'अब एक दो दिन शेष है.' तब रमाने कहा, 'अब मेरा पति आयगा. अतः मेरी भस्म करके पूर्ववत् इस वृक्ष के कोटर के भाग में रख दो, और तुम अपने स्थान को जाओ; लेकिन मेरी प्रीति को मत भूलना.' तब उस के कथनानुसार उस की भस्म बना कर पोटली में बांध कर पूर्ववत् उस कोटर में रख दी, और अपने हृदय में उस के चरित्र को याद करता हुआ वह थोडे दूर जंगल में गया, और वहां अपने बकरों को चराने लगा. उधर छाहड अपनी यात्रा से लौटा. वह उस वृक्ष के नीचे आया और भस्म को __नीचे उतार कर अपने अमृत से उसे पुनः जीवित बना दिया. उस समय रमा के वस्त्र से बकरी आदि के शरीर से निकलन वाली गंध आ रही थी, यह जान कर उस छाहडने सांचा, 'क्या यह स्त्री किसी ग्वाले द्वारा भोगी गई है?' इतना सोच कर वह जंगल में इधर उधर देखने लगा, और म P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित कते हुए थोडे दूर पर एक ग्वाले को वहां देखा. और उसके पास जा कर उस से पूछा, 'तुम यहां कैसे और कहां से आये हो ? ' तब उस ग्बालेने उत्तर दिया, 'जंगल में भटकता भटकता मैं यहां आया था, तो एक अबला को वटवृक्ष के नीचे देख कर, और भोग के लिये प्रार्थना करने पर उसे बहुत दिन तक कई बार भोगा है, अब मैंने उस की भस्म कर के वटवृक्ष के कोटर में रख दिया है.' छाहडने अपनी पत्नी का विषम चरित्र जान कर उस के पास आया, और इस प्रकार से मर्म वचन कहा मई गई पलाइणी छापरी छारएण; छाहड भणइ ते ढाढ नर जे रत्ता तीअगुणेग. // सर्ग 11/657 / / __पति का ऐसा वचन सुन कर रमा बोली, 'आप ऐसा क्यों कहते है ! मैं तो हमेशा आप के गुणों में आसक्त बनी : हुई रहती हूँ.' तब छाहड बोला, 'मैं जानता हूँ कि तू बहुत से पुरुषों में आसक्त हैं, अब तू मेरे आगे जूठ क्यों बोलती है ? ' फिर रमा का त्याग कर वैराग्यवासित हो छाहडने कोई तापस के पास तापसी दीक्षा ग्रहण की. और उस दीक्षा का पालन करने से आयु क्षय होने पर स्वर्ग में गया, और उधर रमा अनेको बार अपने शील खंडन से तथा कुमार्ग सेवन से अति दुःखदायक नरक में गई.” .. . र यह छाहड और रमा की कथा पंडित से सुन कर विक्र P.P.AC.'Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 544 विक्रम चरित्र मादित्यने राजभण्डारी से उस पंडित को एक करोड सोनामहोरे. दिलवाई और रवाना किया. नारी बदन सोहामगुं, मीठी बोली नार; जे नर नारी वश पडया, लूटया तस घरवार. ... एकदा विक्रम राजा अपनी सभा में बैठे, हुए थे, इतने में वहां एक बुद्धिमान और चतुर व्यक्ति आया, उसने कहा,, "लोहपुर नगर में रहने वाले सभी व्यक्ति धूत हैं. पांडित या मूर्ख सभी लोगों को ठगते हैं." उस के बाद राजा ने उसे उचित दान देकर विदा किया और स्वयं उस नगर को देखने के लिये उत्सुक हुए. . एक दिन राजाने अपने प्रिय मित्र और मंत्री भट्टमात्र को पूर्व दिशा में उस नगर के प्रति जाने के लिये पहले रवाना किया. फिर स्वयं भी नमस्कार महामंत्र स्मरण कर रवाना हुए. कहा है, सिंह कभी शुकुन नहीं देखता, न चंद्रबल ही देखता है, वह अकेला ही लाखों से भिड जाता है, अतः जहां साहस होता है वहीं कार्य सिद्धि होती है. क्रमशः चलते चलते राजा एक जगल में पहुंचे. वहां उन्होंने ठन्डे और गरम जल के दो कुंड देखें. कुंड देख कर वे वहाँ ठहरे ही थे कि, इतने में वहां एक बंदरों का झुड आया, उन्होंने ठंडे पानी के कुंड में स्नान किया, जिस से वे क्षणभर में निर्मल शरीरवाले मनुष्य बन गये, पश्चात् आसपास के वृक्षों के कोटरों में से वस्त्रों को लेकर पहना और पास के श्री जिनेश्वरदेव के मंदिर में जा कर उत्तम सुगधात P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 389 HE T-ChavthaNPANI INHA that 6 Mal Rel AL परमाTMERIALA R राजा बंदरों का झुंड को स्नान करते देख रहे है. चित्र वं. 31 फूलों से श्री जिनेश्वरदेव की पूजा की, तथा सुंदर स्तोत्रों से प्रभु की स्तुति कर के और अह त प्रभु का ध्यान धर, वारंवार नमस्कार कर के उन्होंने पाप समूह को नष्ठ कर बहुत बडा पुण्य उपार्जन किया, कहा है कि जिसने एक भी पुष्प बहुमान पूर्वक प्रभु को चढाया है, उस मनुष्य को चिरकाल के लिये शिवसुख का फल हस्तगत होता है. जब वे मनुष्य गरम जल के कुंड में नहाये इस से वे. क्षणभर में पुनः बन्दर बन गये और श्री जिनेश्वरदेव को नमस्कार कर के अपने स्थान पर गये. यह देख कर महाराजा को मन में आश्चर्य हुआ. फिर स्वयं उन्हों ने भी ठडे जल के कुंड में. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र नहाकर श्री जिनेश्वरदेव के मंदिर में सुंदर फूलों द्वारा भावभक्ति सहित प्रभु की पूजा की, और सुंदर राग से स्तुति आदि / कर के वहां से आगे बडे. राजाने आगे जाते हुए वनमें पांच चोरों को देखा. वे आपस में लड रहे थे. राजाने उन्हें पूछा, " तुम लोग आपस में क्यों लड रहे हो ? लडने से तो केवल पत्थर हाथ आते है, मोदक नहीं, अर्थात् लडने से केवल हानी होती है, लाभ बिलकुल नहीं, कहा है-'वैर, अग्नि, व्याधि, वाद और व्यसन ये पांचो वकार बढने पर महा अनर्थ करते है.x चोरोंने यइ सुन कर राजा से कहा, "हमने इस जंगल में एक योगी के पास चार आश्चर्यजनक वस्तुएं देखी, उन्हे देख कर हमारा मन लेने के लिये ललचा गया. उन चारों वस्तुओं के नाम और गुण यों है (1) खडी से चित्रित एक घोडा है, जो क्षण में सजीव हो जाता है, और लकडी से मारने पर वह आकाश में हवा की तरह उडता है. उसे बेचने से एक लाख सोने की मुहर मिल सकती है. (2) एक खाट है, जिसे स्पर्श करने पर वह दिव्य प्रभाव के कारण आकाश में उडने लगती है. (3) एक कन्था याने गुदडी है, जिसे पीटने पर उस में से 500 सोना 4 वैर वैश्वानरो व्याधिर्वाद व्यसन लक्षणाः। महानाय जानन्ते वकाराः पंच वर्धिताः // स.. 11/678 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित ___ 547 मुहरे निकलती है, और (4) चौथी एक थाली है जो आगे रखने पर मनुष्यों को इच्छित भोजन देती है. इन चार वस्तुओं को देख कर हमारा मन लोभायमान हो गया. लोभ मनुष्य या नारी के पास क्या क्या अशुभ -पाप नहीं कराता है ? शरीर शिथिल होता है किन्तु आशा शिथिल नहीं होती है. शरीर का रूप नष्ट होता है, किन्तु पाप-बुद्धि नष्ट नहीं होती है. वृद्धावस्था आती है किन्तु ज्ञान नहीं आता है, धिक्कार है ऐसे प्राणीओं की लीला को. हमने ये चारों चीजे योगी के यहां से ले ली है, और अब हम पांच है, अतः हम में इन चीजों को बांटने के लिये झगडा हो रहा है.” राजाने उन लोगों की बात सुन कर कहा, "ये चारों चीजे मुझे दे दो, और मैं विचार कर के तुम लोगों में बांट दूंगा.” फिर उन चारों वस्तुओं को प्राप्त करके राजा बोले, “तुम लोगोंने उस योगी को मारा है. अतः उस का पाप तुम्हे फलेगा." इतना कह कर राजा खाट पर बैठ. गये और आकाशमार्ग से ऋद्धि-शोभा में स्वर्ग पुरी के समान : मनोहर लोहपुर नगर में शीघ्र पहूँच गये. लोहपुर में विक्रम राजाने एक व्यापारी को अपना मित्र बनाया, और उसे थाली और खाट देकर नगर देखने गये. . उस नगर में कामलता नामक वेश्या थी, जो व्यक्ति, उसे एक लाख रुपये आदरपूर्वक देता, वह उसके पास एक रात रह सकता था. राजाने उस खडी चित्रित घोडे को सजीव. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .548 विक्रम चरित्र किया और उसे बाझार में बेचकर उस द्रव्य को देकर वे एक रात वेश्या के यहां रहे. राजाने सुवह उस कन्था से 500 सोनामुहरें प्राप्त की, और सुंदर वेष को धारण किया तथा गरीबों को योग्य दान दिया. वेश्या की अक्काने गुप्त रीत से यह सब जाना कि, वह खटिका अश्व देता है और कन्था द्रव्य देती है, तब उस अक्काने कपटपूर्वक राजा से दोनों वस्तुएं ले ली. फिर उसके पास धन न होने से उस वेश्याने उन्हे निकाल दिया. जिस से खेदीत हो कर वे शोचने लगे, 'जिस प्रकार शास्त्र में वेश्या का वर्णन है, उसी प्रकार की छल कपटवाली वेश्याएं होती है; यह बात आज मैंने प्रत्यक्ष जानी. स्त्री तो पाकी बोरडी, हांस सहुने थाय; सौने लागे वाल ही, मूलवी नावे काय. इधर अवन्ती से जो पहले रवाना हुआ था वो भट्टमात्र मित्री घूमता हुआ यहां आ पहूँचा, और विक्रम राजा से भिला. राजाने रास्ते में दोनों कुड देखे, वह तथा पांच चोर मिले आदि वेश्या की सारी हकीकत अर्थात् अथेति अपना सारा ही वृत्तान्त सुना दिया. फिर दोनोने विचार करके कुछ तय किया, और वनमें गये; वे दोनो कुन्डो से ठण्डा और गरम पानी लाये. राजा और भट्टमात्र दोनो प्रकार के पानी को साथ लेकर नगरमें आये. राजा उस वेश्या के घर गये. कामलता जब स्नान कर रहा थी तब राजाने किसी प्रकार गुप्त रूप से उस पर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित SEAR (WW CAT SHNO KRONA महाराजा विक्रम भट्टमात्र से अपना वृत्तान्त सुना रहे है. चित्र नं. 35 छींट दिया, जिस से वह उसी क्षण बन्दरी रूप बन गई. अपनी पुत्री को बन्दरी बनी हुई देख कर उस की अक्का जोर जोर से अपनी छाती पीट पीट कर रोने लगी, और करुण रुदन से अन्य लोगों को भी रुलाने लगी, फिर वैद्य, ज्योतिषी तथा मंत्र तत्रादि जाननेवालों को बहुत धन देकर अपनी पुत्री को ठीक कराने का प्रयत्न करने लगी. इधर भट्टमात्रने राजा विक्रमादित्य को मनोहर देष युक्त योगी बना कर जंगल में भेज दिया, और स्वयं गणिका के घर गया. गणिकाने उन्हे देखकर समझा, 'ये कुछ मंत्र संत्र मानले होगें' करुण स्वरसे उन से कहा, "मेरी पुत्री बन्दरी बन गई है. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' विक्रम चरित्र अतः इस दुःख से मैं आत्महत्या कर के मरनेवाली हूँ. अगर इसे कोई ठीक करेगा तो मैं उसे मुह मांगा धन दूंगी." भट्टमात्र ने कहा, "मैंने उद्यान में एक योगी को देखा है वह सभी प्रकार की विद्याएं जानते है.” तब वेश्या बोली, " यदि तुम उस चोगी को मुझे दिखाओ तो मैं तुम्हे अपनी आजीविका के लिये बहुत धन दूंगी." ... तव भट्टमात्र वेश्या को जंगल में ले गया, और आसन पर बैठे हुए योगी को बताया, वेश्याने उन्हें प्रणाम किया. फिर ध्यान में मस्त योगी को वेश्याने विनयपूर्वक कहा, “हे परोपकारी! दया के सागर जगद्वन्द्य योगीराज ! मुझ पर खुश हो कर जल्दि ही मेरी पुत्री को ठीक कर दीजिये. आप जो मांगोगे वह मैं दूंगी. और इस कार्य का आप को बहुत पुन्य होगा.” क्षणभर ध्यान करने का नाटक कर के तथा क्षणभर मस्तक हिला कर योगीने कहा, “तुमने एक परदेशी पुरुष को ठगा है, और उस पाप से तुम्हारी पुत्री बन्दरी बन गई है, 'किया हुआ पाप इस भव या परभव में भुगना ही पडता है. इस परदेशी से तुमने जो खट्टिका और कन्था ली है. वह लाकर मेरे चरण में रख दो, तब मैं मंत्र के प्रभाव से तुम्हारी पुत्री को ठीक कर दूंगा यदि तुम मेरा कहना नहीं करोगी ता. तुम्हारी पुत्री की मृत्यु हो जायगी.” .. . योगी का वचन सुन कर अक्का मन में भयभीत हुई, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 551 और शीघ्र ही जाकर उसने कन्था व खट्टिका आदि लाकर उस योगी के सामने रख दी. और वह बोली, " अब आप मेरी पुत्री को जल्दि ही अच्छी कर दीजिये.” योगीने शीतकुंड के पानी से मंत्रोच्चारपूर्वक उसे स्नान कराया, तब वह शीघ्र ही पुनः कामलता के रूप में-स्त्री बन गई. फिर योगीने कहा, "अब कभी किसी परदेशी को मत ठगना." खान पान घृत पक्व बिना हो, प्रियजन से रहना अति दूर; दुष्टजनों की संगति हो तब, जानो पाप हुआ भरपूर. घी विना का भोजन, प्रियजन का वियोग और अप्रियजनों का सयोग ये सब पाप के कारण है. राजा विक्रमादित्य वेश्या को किसी को ठगने का निषेध कर के भट्टमात्र के साथ अपनी नगरी अवन्ती के प्रति रवाना हुए. रास्ते में लोगों को तरह तरह के उपकार करते हुए, जाते जाते वे चारों वस्तु भी दान में दे दी, और स्वर्गपुरी समान अपने नगर में पहूँचे. पाठकगण ! इस प्रकरण में आपने राजाकी चतुराई, साहस तथा बुद्धि, प्रतिभा की कथा पढी, आगे प्रकरण में शव की अद्भुत कथा राजा का साहस तथा उसके परिणामो को पढे. ...... P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सठवाँ-प्रकरण संकट साधु शिर पडे, लेश न भूले भान; जिम जिम कंचन तापीए, तिम तिम वाधे वान. . एकदा महाराजा विक्रमादित्य मन्दिरपुर नगर में जा पहूँचे. वहां श्रीद नामक सेठका पुत्र मर चुका था. उसे स्मशान में ले जाकर चिता पर * रखा. ज्यों ही चिता में अग्नि लगाई गई कि, वह मृत शरीर दिव्य प्रभाव से उस श्रेष्ठी के घर पहुंच गया. दूसरे दिन भी इसी तरह चिता में डालने के बाद अग्नि लगाने पर पुनः सेठ के घर पहूँच गया. इस तरह उस को मरे आठ दिन हो गये. इस प्रकार होने से डरा हुआ सेठ उस नगर के महाराजा के पास गया, और अपने नगर की कल्याण कामना से सारी बातें कह सुनाई. .. राजाने शव संबन्धि यह बात ज्योतिषी से पूछा, और राजा तथा सेठ दोनों के मन में नगर के , भावि अनिष्ट की आशङ्गा होने लगी. तब राजाने शहर में ढिंढोरा पिटवाया, 'इस शव को जो जलायेगा उसे मैं कोटि द्रव्य दूंगा, और उस का बडा सन्मान किया जायगा.' जब महाराजा विक्रमने जो वहां साधारण वेश में गये हुए थे. उन्होंने ढिंढोरा सुना तो उस पटह का स्पर्श किया और राजा के पास पहूँचे. राजा से पूछ कर विक्रमने शव को खुद ले लिया, और रात के प्रथम प्रहर में स्मशान भूमि में पहुंचे. मध्यरात्रि में वहाँ रोती हुई एक स्त्री को देखा. राजा विक्रमने उस से रोने का Gumratnasun Sun Gun Aaradhak Trust Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित *553 कारण पूछा, तब उस स्त्रीने कहा, " राजा के नौकरोने आज मेरे पति को अपराध बिना ही शली पर चढा दिया है. वह अभी जिन्दा है और में उसके लिये भोजन लाई हूँ, लेकिन शली बहुत ऊँची होने से मैं पहूँच नहीं सकती; इस लिये मैं रो रही हूँ.” .. तब विक्रम राजाने से अपने कंधे पर चड कर उसे भोजन देने को कहा, जिस से स्वस्थ होने पर उस का पति मर कर वर्ग में जायें. राजा के कंधे पर चढ कर वह स्त्री खडी हो गई. और छुरी से अपने पति के शरीर में से मांस काट काट कर खाने लगी, ऐसा करने से राजा के शरीर पर रक्त की बूंदे गिरने लगी, राजाने उसे पानी की बूदे समझा जाताना और मन में विचारने लगे, *अभी बरसात कहां से आया ?? लेकिन तुरंत ही उपर देख राजा सारी स्थिति समझ गय और यह डाकिनी है, ऐसा जान कर बडे जोर से उसे ललकारा. इस से राजा को छलना असंभव जान कर तुरंत ही वह डाकिनी वहां से अदृश्य हो गई. (राजाने उसे कधे पर चडाई चित्र नं. 36) . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र दूसरे प्रहर में राजा वहां से कुछ दूर जंगल में गये, और शव को पास में रख कर सुख से सो गये. तब कोई राक्षस आया और उस मुर्दै तथा राजा विक्रम दोनो को उठा कर वहां से किसी दूसरे जंगल में ले गया. वहां धधकती हुई आग पर एक बडी कडाही रखी थी, उस में कई राक्षस बहुत से लोगों को दूरसे ला लाकर डाल रहे थे. वे लोग राजा विक्रम को उस में डालने को तैयार हुए कि, एकदम राजा विक्रम उठ खडे हुए, और उन्हे मारने लगे. राजाने उन को दड-लकडी और मुष्ठि के प्रहारों से ऐसा मारा कि वे राजा के पास आकर कहने लगे, "हम आप के दास है." तब राजाने उस को जीवदयामय 'अहिंसा परमोधर्म समझाया और उन्हे अहिंसक बनाये. रात्रि के तीसरे प्रहर में राजा एक वावडी के पास गये और वहां ठहरे. इतने की रोने की आवाज़ सुनी, दूर से आती हुई आवाज को सुन कर HARE राजा वहां गये, और DEHS. उस से रेराने का कारण ( राक्षस कहते है. हम आपके दास हैं) पूछा, वह बाला, राजा भीम की पत्नी हुँ, चित्र नं. 37 P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित और मेरा नाम मनोरमा है, मेरा शील भंग करने के लिये एक दुष्ट राक्षस मुझे हर कर यहां ले आया है. इस _ जगत में जगत का हित करनेवाला ऐसा कोई भी पुन्यशाली व्यक्ति मुझे नहीं दिखता जो मुझे अधम के पंजे में से छुडाये.” राजाने पूछा, " वह कहां है ?" तब उसने वन में दूर स्थित उस राक्षस को अपनी अंगुली के इसारे से बताया. विक्रम राजा भी उस स्त्री की रक्षा करने की इच्छा से उस राक्षस की पास गये, और युद्ध कर के उस राक्षस को मार डाला, हर और उस नारी की रक्षा की... चित्र न. 19 . रात्रि के चौथे प्रहर. में महा राजाने उस शव से कहा, " हे शव ! उठ और, मेरे साथ जुआ खेल.” तब शवने कहा, " यदि तुम हार गये तो कमलनाल की तरह पकड कर तेरे मस्तक को काट दूंगा.” तब महाराजाने उस से कहा, "यदि तुम हार गये तो तुम्हे चिता में घास की तरह जलना पडेगा." इस प्रकार परस्पर शर्त पर वे दोनो जुआ खेलने लगे, और उस में वह शव हार गया, तव चिता जला कर महाराजाने उसे जलाया, और वह जल्दि जल गया. उस नगर में जाकर विक्रम राजाने राजा से उस शव के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र संबंध की सारी कथा आदि से अन्त तक कह सुनाई. जिसे सुन कर राजा बहुत खुश हुआ. श्रीद सेठ के पास से पूर्व कथित धन लेकर राजाने विक्रमादित्य को दिया. विक्रमराजा ने भी दानेश्वरी कर्ण की तरह वह धन तुरंत वहीं गरीबों को बांट दिया.. स्त्रीराज्य में गमन रूप देवकुमार सम, देखत मोहे नर नार; सोही नर खिण एकमें, बल जल होवे छार. एकदा महाराजा विक्रमादित्य पृथ्वी का भ्रमण करते करते बहुत दूर स्त्रीराज्य में पहुंचे. वहां बहुत ही सुन्दर सुन्दर स्त्रियां थी. प्रेमासक्त रति की तरह कांतिवाली शंखिनी व पद्मिनी जाति की कई सुंदर स्त्रियां अपने हावभावादि चेष्टाओं के द्वारा पुरुषों को मोहित करती थी. कहा है कि एक नूर आदमी, हजार नूर कपडां; लाख नूर टापटीप, कोड नूर नखशं. ' महाराजा विक्रम को मनोहर स्वरूपवान देख कर कई निया उन से भोग-विलास के लिये प्रार्थना करने लगी. 4 तब महाराजा X क्यों कि नारीया के लिये कवियोंने कहा है, . " उगाडो दीप रहे, पतंग जिम जपलाय, तेम लीना नेत्रमा मुरल जन भरमाय. 1 वादलना गर्जन थकी, श्वान हडकायु थाय, तम P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित विक्रमादित्य ने कहा, "मैं प्राण जाने पर भी अपनी परिणित स्त्री के बिना अन्य स्त्री की इच्छा नहीं करता. कहा है, 'सज्जन पुरुष अकार्य के लिये आलसी, प्राणीवध में पंगु, पर निंदा सुनने में बहरे, और पर घी को देखने के लिये जन्मांध होते है."x विक्रमादित्य को सुशील और सदाचारी जान कर उन स्त्रियांने महात्म्ययुक्त बहु मुल्यवान चौदह रत्न दिये. चौदह रत्नोंका प्रभाव __उन रत्नों के अलग अलग गुण थे. प्रथम रत्न से अग्नि उत्पन्न होकर स्तभ बनता था. दूसरे के प्रभाव से लक्ष्मी प्राप्त होती थी, तीसरे रत्न से पानी, तो चोथे रत्न से वाहन प्राप्त होता था, पांचवे रत्न के प्रभाव से शरीर पर किसी प्रकार का अस्त्र शस्त्र नहीं लगता था. छठे रत्न के प्रभाव से स्त्री, मनुष्य और राजा वशी में होते थे, सातवा रत्न मांगने पर सुंदर रसवती भोजन सामग्री देता था, आठवें रत्न के प्रभाव से कुटुंब, धनधान्यादि में वृद्धि होती थी. नव में रत्न से समुद्र पार उतर सकते थे, दश में रत्न से विद्या प्राप्त होती . ठमकारथी, मुरखजन भरमाय, 2 स्त्री तो पाकी बोरडी, होस सहुने थाय; सोने लागे वाल ही, मूलवी नावे कांय. 3 नारी वदन सोहामणु, मीठी वोली नार, जे नर नारी वश पडया, लुटाया तस घरवार. 4" - + अलसो होइ अकज्जे पाणि बहे पंगु सया होई / ____ परतत्तीसु अ बहिरो जच्च घो परकलतेषु // स. 11/756 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र थी, ग्यारवां रत्नके प्रभाव से भूत प्रेतादि छल नहि कर सकते और वश में रखता, बारहवें रत्न के होने पर सांप नहीं काटता था, तेरहवें रत्न शिबिर-सेना तैयार कर देता था, चौदहवें रत्न से सुखपूर्वक आकाशगमन हो सकता था. महाराजा इन चौदह रत्नों को ले कर अपने नगर के प्रति रवाना हुए और रास्ते में हर्ष पूर्वक याचकों को वे रत्न दे दिये. विक्रम महाराजा स्वोपार्जित धन को सात क्षेत्रों में व्यय कर अपने जन्म को सफल कर रहे थे. उस समय उस के पास शतमति, सहस्त्रमति, लक्षमति तथा काटिमति नामक चार अंगरक्षक थे, वे चारों बडे शुरवीर व स्वामिभक्त थे. , रात्रि में सोये हुए महाराजा की रक्षा के लिये एक एक प्रहर में वे चारों बारी बारी पहरा देते थे, क्यों कि 'हीन बुद्धिवाला सेवक आगे जाता है, खुशामदखोर रात में जागता है लेकिन शुरवीर सेवक हाथ में तलवार ले कर दरवाजे पर खडा रहता-रक्षा करता है, अर्थात् सावघानी से पहरा देता है.' एकदा महाराजा विक्रमादित्य शय्या में सो रहे थे, इतने में उन्होने नगर के बाहर-दूर से किसी स्त्री के करुण राने की आवाज सुनी, तब उन्होंने अंगरक्षक-शतमति से कहा, "हे शतमति, तुम नगर के बाहर जाओ, और राती हुई स्त्रा को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित पूछो कि, वह क्यों रो रही है ? " तब शतमति बोला, "हे राजन् ! आप को अभी नींद आ जायगी, राजन् ! आपके कई शत्रु हैं, अतः आप को छोड कर यहां से जाने की मेरी इच्छा नहीं होती है. कहा है, 'जिस महापुरुष पर सब कुछसारा कुल अवलंबित हो, उसकी यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये. जैसे कि गाडेके चक्र में जिसमें आरे लगे होते हैं वह तूंबी के नाश होने पर उस आरे को कोई सहारा नहीं रहता. वह तूंवी नष्ट होने पर सारा चक्र, चक्र के आरे आदि कैसे टीक सकता है.” तब राजा बोले, “मैं तब तक स्वस्थ होकर जागता रहता हूँ, तुम मेरी आज्ञा का पालन करो. पुनः जल्दि आओ क्यों कि, उद्यम करने पर दरिद्रता नहीं रहती, पढने से मूर्खता का नाश होता है, और मौन रहने से झगडा नहीं होता. उसी तरह जागनेवाले को कोई भय नहीं रहता." शतमति के जाने के बाद राजा पान खा कर अपनी पत्नी के पास पहूँचे, और थोड़ी ही देर में वहां रानी के पास में ही शय्या में शान्त चित्त से सो गये. शतमति भी राजा की आज्ञा पा कर वहां से रवाना हुआ, और नगर के बाहर रोनेवाली स्त्री के पास जा कर उसे राने का कारण पूछा, तब वह स्त्री बोली, " मैं अवन्ती नगरी के राजा की राज्यलक्ष्मी की अधिष्ठायिका देवी हूँ. मैं हमेशा राजा पर आनेवाले विघ्नों को दूर करती हूँ. जहाँ राजा सो रहे है, उस मकान के छत में से एक काला भयंकर सर्प उतर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 विक्रम चरित्र कर इस प्रहर के अंत में महाराजा को डस लेगा. अब मैं विन का नाश करने में समर्थ नहीं रही, अतः हे धीर ! मैं “वीर वीर " कर के उच्च स्वर से रो रही हूँ.” तब शत-. मति बोला, “हे देवि ! तुम शांत हो जाओ, मैं आप की इच्छानुसार सारा कार्य अच्छी तरह कर लूगा." ऐसा कह कर शतमति शीघ्र ही राजमहेल में लौट आया. महाराजा को रानीवास में जा कर सोया हुआ देख कर उस ने मन में / विचार किया, 'राजा को जगाने या उन के पास जाने का यह उचित अवसर नहीं है, अभी प्रहर पूरा होते ही देवी के कथनानुसार भयंकर सर्प अवश्य आयगा, इस में शंका नहीं.' कुछ ही देर में तो जहां महाराजा सोये थे, वहां छत पर से एक काला भयंकर सर्प उतरने लगा, उसे देख कर शतमति तुरंत तैयार हुआ, और अपनी तलवार से उस के दो तीन टुकडे कर डाले, और उसे एक बर्तन में डाल दिया, लेकिन उस के जहर के कुछ बिंदु सोई हुई रानी की छाती पर गिर गये. विघ्न रूप जान कर उस को पोंछने क्षण में ( सर्प के टुकडे कर डाले. चित्र नं. 39) के हेतु से शतमा CATEना SHAREDNES मे ASTRA 62402 P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित - धीरे से उन जहर के बिन्दुओं को अपने हाथ से पोंछ रहा था, उसी समय एकाएक जागे हुए महाराजाने रानी की छाती पर शतमति के हाथ को देखा, और मन में शतमति के इस कार्य को अनुचित जान कर उस पर महाराजा क्रोधित हुए, और वे विचारने लगे, 'अब मैं इसे जल्दि ही मार डालू.' फिर सोचा, 'मैं खुद उसे कैसे मारूं ? इसे अन्य सेवक के. हाथों से मरवा दूंगा.' . इस प्रकार के विचार से शतबुद्धि को मरवाने की इच्छा होने पर भी विक्रमराजाने अपने मुँह के भाव को उस से छिपाते हुए, उस का समय पूर्ण होने पर उसे घर जाने को छुट्टी दे दी, वह शतबुद्धि राजा का विघ्न हट जाने के कारण घर गया. और गानेवालों को बुलाया व महाराजा की शांति के लिये दान देने लगा. और नाटकादि से महोत्सव मनाने लगा. . दूसरे प्रहर में महाराजाने अपनी रानी को रवाना कर द्वारपर से सहस्रबुद्धि अंगरक्षक को बुलाया, और कहा, “तुम जाओ, और शतमति को मार डालो." यह सुन कर सहस्रमति बोला, “हे स्वामिन् ! आप को अभी नींद आयगी. पहले के कई अपराधी आप के शत्रु है, अतः मेरा यहां से दूर हटना उचित नहीं." इस पर महाराजाने कहा, "मैं स्वस्थतापूर्वक जाग रहा हूँ, और तुम जल्दि ही जाकर यह काम कर के. मेरी आज्ञा का पालन करेरा, क्यों कि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र 'उद्यमी को दरिद्रता नहीं सताती, जाप करते रहने से पाप नहीं होता, मेघ की वृष्टि होने पर दुष्काल नहीं पडता, इसी तरह जागनेवाले को कोई भय नहीं रहता." महाराजा की आज्ञा से सहस्रमति चिन्ताकुल होता हुआ शतमति के घर गया, उस समय शतमति नाटक करवा रहा था. शतमति को हर्षित और दान देने में तत्पर देख कर उसे लगा कि इस का कोई अपराध नहीं लगता, क्यों कि'दूसरों की विपत्ति में सज्जन पुरुष अधिक सौजन्य धारण करते है. जैसे उनाले में-वसंत ऋतु में वृक्षो की छाया अति कोमल पत्तों से युक्त होती है. बुरा काम करनेवाले, अन्य स्त्रो में आसक्त पुरुष और चोर का मुख प्रसन्न नहीं रहता, क्यों कि उस का मन सदा भय से व्याप्त रहता है. महान पुरुषों के दूर रहते हुए भी सज्जन पुरुष खुश होते है, जैसे आकाश में चन्द्र के उदय होने से पृथ्वी पर रहा हुआ समुद्र उल्लास पाता है. हर एक पर्वत में माणिक्य नहीं होते, न प्रत्येक हाथी के सिर में गजमुक्ता (मोती) ही होते है, इसी तरह सभी जगह साधु नहीं होते. हरएक जंगल में चंदन नहीं होता है, वह तो केवल मलयाचल पर होता है, वैसा ही सच्चे साधु बहुत कम स्थानों में होते हैं. 4 x शैले शले न माणिक्यं मौक्तिक न गजे गजे / साधवो नहि सर्वत्र चन्दनं न वने वने / / स. 11/800 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 563. इस प्रकार के सुंदर नृत्यादि कपट रहित धीर पुरुष ही हर्ष पूर्वक करवा सकते है.' ___सहमति को आते देख कर शतमतिने उसे पूछा, "हे मित्र ! इस समय तुम महाराजा को अकेले छोडकर क्यो आये हो ? राजा के कई शत्रु है, आज सचमुच ही राजा पर एक बड़ा संकट आया था, लेकिन लोगोंके और हमारे भाग्य से ही वह संकट टल सका, अतः तुम अभी जल्दि वापस जाओ, तुम्हारे पहरे का समय बीत रहा है. धीर वीर पुरुष हमेशां ही अंगीकृत कार्य को अच्छी तरह पूर्ण करते है. मेरु हिमालय हिल सकता है, उदधि करे मर्यादा भंग; किन्तु सुजनने बात कहीजो, उस का होता कभी न भंग. ___ सभी पर्वत विचलित हो, समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लं धन भले ही कर ले, लेकिन सज्जन पुरुषों की प्रतिज्ञा हमेशा अचल रहती है, जैसे सूर्य और दिनने एक दूसरे को अंगीकार किया है, तो वे एक दूसरे को नहीं छोडते. सूर्य के बिना दिन नहीं और दिन के बिना सूर्य नहीं. सज्जन पुरुष आलस में भी जो शब्द बोल देते हैं, वे पथ्थर पर के खदे अक्षरों की तरह कभी अन्यथा नहीं होते.” / शतमति के मुख के आकार, क्रिया तथा वातचीत से उसे निर्दोष जानकर सहस्रमति प्रगट रूप में इस प्रकार बोला, P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र "तुम्हारे यहां गीत नृत्यादि का बडा उत्सव हो रहा था, उसे देखने के लिये मैं आया था, क्यों कि तापस भोजन से, मोर बादल की गर्जना से, साधु लोग दूसरे की सम्पति से और दुष्टजन दूसरे की विपत्ति में खुश होता है." तब शतमतिने पान आदि देकर उस का सम्मान किया. सहस्रमति शीघ ही राजा की रक्षा के लिये पुनः स्वस्थान पर लौट आया. राजाने उस से पूछा, “तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया ?" सहस्रमति मौन धारण कर खडा रहा. राजाने उसे चुपचाप खडा देख कर कहा, " तूं भी मेरे लिये शतमति की तरह हो गया है." तब राजा को शांत करने के लिये सहस्त्रमतिने कहा, "हे राजन् ! कोई भी काम विना विचार किये नहीं करना चाहिये. बिना विचारे किये गये कार्य से ब्राह्मणी की तरह बाद में पञ्चाताप करना पडता है. जैसे कि ब्राहमणी और नोवले की कथा - श्रीपुर नामक एक नगर में कृष्ण नामक एक ब्राह्मण रहता था. उस के घर के पास ही एक समय नकुलीने एक बच्चे को जन्म दिया. उस ब्राह्मण की रूपवती नामक भार्या थी. वह उस नकुल के बच्चे का पुत्रवत् पालन करने लगी, कुछ समय पश्चात् उस ब्राह्मणी ने सुंदर स्वरूपवात् पुत्र का जन्म दिया जिस का नाम चंद्र रखा. एक दिन वह ब्राह्मणी अपने छोटे बालक को घर में .. छोड कर पानी भरने जा रही थी, तब ब्राह्मणीने नकुन्न को Jun Gun Aaradhak Trust Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 565 कहा, "मैं पानी भरने जाती हुँ, तुम इस बालक की रक्षा करना." ऐसा कह कर ब्राह्मणी पानी भरने के लिये गई, इसी वीच उस घर में एक काला सांप निकल आया. सर्प को देख कर नकुल उस के पास गया, और युद्ध करके उसे मार गिराया. उस सांप के टुकडे टुकडे कर के हर्षित होता हुआ वह नकुल खून से रंगे मुख यह समाचार प्रगट करने के लिये उस ब्राह्मणी के सामने दरवाजे पर गया. पाणी लेकर आती हुई, उसे इस हालत में देख कर ब्राह्मणीने समझा, 'निश्चय ही इसने मेरे पुत्र को मार डाला है.' ऐसा सोचकर ब्राह्मणीने क्रोध में उस नकुल को मार डाला. घर में आकर उसने अपने पुत्र को झुले में खेलता हुआ सुरक्षित देखा. और सर्प की दुर्दशा देख कर सारा मामला समझ गई. नोवले के प्रताप से ही अपना बालक बच गया था. बाद में उसे पश्चाताप हुआ. _ अतः हे स्वामी ! इस प्रकार पूर्ण विचार किये विना कोई भी काम करने से पश्चाताप करना पड़ता है, अतः अभी कुछ समय आप धैर्य धरे.” सहस्रमति की बात सुन कर महाराजाने सोचा, " यह मेरी आज्ञा का पालन किये बिना आया है, इस लिये यह भी शतमति के जैसा ही है." द्वितीय प्रहर के बीत जाने पर महाराजाने उसे विदा किया लक्षमति नामक अंगरक्षक के पहरे पर आने पर उसे बुलाकर वही (शतमति को मारने का) कार्य सोपा, महाराजा की आज्ञा P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र सुन कर लक्षमति बोला, “हे स्वामिन् ! आप को कदाचित् निंद आयगी, पहले से ही आपके कई विरोधी शत्रु है, यहां से दूर जाने का मेरा मन नहीं होता." राजाने कहा, “तुम शीघ्र ही जाओ, में शांतचित्त से अभी जागता रहूँगा, तुम मेरे आदेश का पालन कर के शीघ्र ही वापस आओ. जागते हुए मनुष्य को किसी का भय नहीं होता. जसे रणांगण में खड्गबद्ध तैयार राजा को किसी का भय नहीं होता है." राजा की यह बात सुन कर लक्षमति को लगा, 'महाराजा को अवश्य ही कुछ बुद्धिभ्रम हुआ है. अर्थात् कुछने कुछ शंका हुई है. नहीं तो ऐसी बातें वे नहीं कहते.' अतः वह बोला, "हे स्वामी ! थोडी देर देखिये, मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा, लेकिन पहले मैं एक कहानी कहना चाहता हूँ, वह आप ध्यान से सुनिये. श्रेष्टी पुत्र सुंदर की कथा लक्ष्मीपुर नामक नगर में एक भीम नामक सेठ था. उस के रूप, लावण्य सौभाग्य तथा विनय आदि गुणों से युक्त एक सुंदर नामक पुत्र था. आंगन में खेलते हुए, घुटनों पर चलनेवाले अपने पुत्र को देख कर मातापिता और स्वजनों को महान् आनंद होता है. क्रमशः बडा होनेपर पिताने पुत्र को पंडितों के पास पढाया, और वह भी धर्म कर्म आदि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित अनेक कलाओं में निपुण हो गया. क्यों कि सकल कलावान होते भी जिस व्यक्ति में धर्मकला-पुण्य उपार्जन करने की पुण्य कला नहीं, उस की सब कलायें भी निष्फल है, जैसे प्राणीओं को आंख के सिवाय शरीर के सब अवयव सुंदर होने से क्या ? सब अवयव भी वृथा है. + .. वह सुंदर माता पिता की इच्छानुसार ही हमेशा चलता है, और सदा देवगुरु के चरणकमलों की सेवा करता है. जो हमेशा खुश होकर अपने माता पिता के आदेशानुसार काम करता है वही हमेशा कीर्ति, प्रतिष्ठा और लक्ष्मी पाता हैं, जैसे एक ही चंदन के वृक्ष से सारा जंगल सुगधित हो उठता है, वैसे ही अच्छे गुणवान् एक ही पुत्र से चारों तरफ यश फैल जाता है. एक बार वह सुंदर पिता की . आज्ञा प्राप्त कर के बहुत सा माल सामान लेकर जहाज भर कर समुद्ग मार्ग से व्यापार के लिये गया, पवन के अनुकूल होने से उस का जहाज रत्नद्वीप के रमापुर शहर के पास जा पहुँचा. वहां व्यापार में उसने बहुत सा धन उपार्जित किया. उसी समय में रमापुर नगर से धन नामक एक श्रेष्ठी वहां पर पहले से आया हुआ था. उस ने भी बहुत द्रव्य कमाया, अतः अब धन श्रेष्ठी लक्ष्मीपुर जाने के लिये तैयार हुआ. अपने ही नगर में उसे जाते देख कर सुंदरने कहा, - + सकलाऽपि कलावतां कला विफला पुण्यकलां विना किल; सकलावयवा वृथा यथा तनुभाजामऽकनीनिक तनुः / / स. 11)843 // . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568 विक्रम चरित्र 'यह करोड रूपये के मुल्य का मणि आप अपने नगर पहूँचने पर मेरे पिता को दे दें, मैं बहुत माल लेकर आया हूँ. अतः क्रयविक्रय में अभी मुझे बहुत दिन लगेंगे'-इस प्रकार कह कर वह मणि उसे देकर सुंदर तो उसी शहर में ठहर गया, धन श्रेष्टी भी बहुत सा अपना कमाया हुआ द्रव्य ले कर क्रमशः अपने नगर में पहुँच गया. फिर भीम सेठ के घर जाकर वह धन श्रेष्ठी उसे मिला, और सुंदर के कुशल समाचार कहे लेकिन लोभ रूपी पिशाच के वश में होने से उसने वह करोड मुल्यवाला मणिरत्न भीम शेठ को नहीं दिया. कहा किलाभ भूत जिस जन के उपर, यदि रहता है कहीं सवार; तब वह कर सकता है गुरुजन, मात पिता सुरका अपकार. लोभ से ग्रसित मनुष्य अच्छे कुल में होने पर भी अपने को भूल जाता है, न वह देव गुरु को याद करता है क्यों कि-पाप का मूल लोभ, रोगों का मूल रसास्वाद अर्थात् भोजन में लोभ, और दुःखो का मूल प्रेम है, इन तीनों को छोडने से प्रत्येक व्यक्ति सुखी होता है, दरिद्ग सौ रूपये की, सौ रूपयेवाला हजार की, हजारवाला लाख की और लाख। वाला करोड की इच्छा करता है, इस प्रकार लोभ बढता ही जाता है. .. . . __कुछ समय बाद बहुत धन कमा कर वह सुंदर भी - समुद्ग मार्ग से जहाज द्वारा अपने नगर में आ पहुँचा, फिर धीरे धीरे सब माल-सामान आदि उतारा और घर में पहुँच P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य मी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 569 कर अपने पिता से मिला, और धन ओष्ठी द्वारा भेजे गये रत्न के बारे में पूछा. जब सुंदर के पिताने रत्न के प्राप्त होने की बात से इन्कार किया, तो वह करोड मूल्य का मनोहर रत्न धन ओष्ठी से जाकर मांगा. तब धनने उसे कहा, " मैंने तो वह करोड मूल्यवाला मणि रत्न प्रगट रूप से तुम्हारे पिता को दे दिया है." सुंदर के यह पूछने पर, " तुम्हारा साक्षी कौन है ?" धनने कहा, "श्रीधर नामक ब्राह्मण मेरा साक्षी है. तुम्हारा पिता किसी न किसी कारण से मेरे दिये हुए मणि का इन्कार करता होगा." कहा है कि-दांत हिलते है, बुद्धि अस्थिर हो जाती है, हाथ पैर कांपने लगते है, दोनो आंखे अन्दर धंस जाती है, बल नष्ट हो जाता है, रूप की शोभा नष्ट हो जाती है, वृद्धावस्था में यमराजा का इस तरह बडा आक्रमण होता है, तब भी केवल तृष्णारूपी नटी हृदय रूपी नगर में सदा नाचती रहती है.x . फिर धन ओष्ठीने शीघ्र ही अपने घर श्रीधर ब्राह्मण को बुलाया और दश सोनामोहर देकर गुप्त रूप से कहा, "सुंदरने मुझे रमापुर में पहले एक किमती रत्न उस के पिताजी को - 4 दन्तैच्चलितं धिया तरलितं पाण्यहिणा कम्पितम् , १..दृग्भ्यां कुङ्मलितं बलेन गलितं रूपश्रिया प्रोषितम् ; . . प्राप्ताया यमभूपतेरिह महाधाट्यां जरायामियम् , -:.., तृष्णा केवलमेमकैव सुभटी हृत्यत्तने नृत्यति // स. 11/863 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र देने के लिये दिया था, लोभ से मैंने झूठ बोल कर उसे रख लिया है. अतः अब तुम मेरे साक्षी बन कर राजा के सामने यह कहना कि, इसने मेरे सामने भीम सेठ को बहु मूल्य रत्न दिया है, मेरा काम सिद्ध होने पर मैं तुम्है और सोनामोहरे दूगा. इस से आगे भी हम दोनों की दोस्ती कायम रहेगी' श्रीधरने भी हाँ कहा और इस से धन ओष्ठी मन ही मन खुश हुआ. श्रीधर के चले जाने पर धन श्रेष्ठी के पिताने उस से कहा, 'हे पुत्र ! तुझे यह करना उचित नहीं है, क्यों कि पराया धन हरण करने से इह लोक और परलोक दोनेा में दुःख ही होता है; इसी लिये कहा है, 'दुर्भाग्य, नौकरी, दासता, अंग का छेदन और दरिद्रता को चोरी का फल जान कर चोरी का त्याग करना चाहिये.' रास्ते में गिरा हुआ, भुला हुआ, खोया हुआ और अमानत रखा हुआ धन, बुद्धिमान पुरुष को कभी न लेना चाहिये. पराया धन हरनेवालों का यह लोक परलोक, धर्म, धैर्य, धृति और बुद्धि ये सभी नष्ट हो जाते है, अर्थात् दूसरे भव में वे नहीं मिलते.” - ऐसा कहने पर भी अपने पिता के शब्दों की अवगणना .. कर श्रीधर ब्राह्मण को बुलाकर सुंदर सहित महाराजा के पास पहुँचा. महाराजा के सामने सुंदर बोला, 'हे स्वामिन् ! मैंने एक करोड मूल्य का रत्न अपने पिता को देने के लिये धन श्रेष्ठी को रमापुर में दिया था, लेकिन धन के लाभ से नष्ट बुद्धि P.P..AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak,Trust : Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 571 वाले धन श्रेष्ठीने उसे रख लिया है.' इस तरह फरियाद पेश की, महाराजाने बुद्धि के निधान मतिसागर मंत्री को बुला कर कहा कि इन दोनों के झगड़ों का अपनी बुद्धि से तुम निपटारा करो, जैसी लक्ष्मी बिना व्यक्ति को प्रतिष्ठा नहीं मिलती, वैसे ही बुद्धि के बिना भी व्यक्ति को प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती, कहा हैं कि-बुद्धि विना की विद्या श्रेष्ठ नहीं होती, विद्या से बुद्धि ही उत्तम हैं, वुद्धिहीन होने से तीन पंडित सिह जीवित करने से नष्ट हो गये. इस की कथा इस प्रकार है चार पंडितों की कथा रमापुर नगर से चार पण्डित विदेश के लिये रवाना हुए. रास्ते में जाते जाते उन से विवाद छिड गया, और उन में तीन प्रगट रूप से कहने लगे, 'बुद्धि से विद्या बढ कर है. इस में कोई संशय नहीं, क्यों कि विद्वान् , महाराजा तथा बडे बडे सेठ साहुकारों और सभी जगह से मान प्राप्त करते है, कहा है कि-विद्वता और राजापन ये दाना कभी भी समान नहीं हो सकते. राजा तो केवल अपने देश में पूजा जाता है, उसे बाहर कोई नहीं जानता, लेकिन विद्वान तो सभी जगह पूजा जाता है, अर्थात् वह जहां जाता है, वहीं लोग उस को विद्वान जान कर उस का आदरमान करते है. लेकिन-चोथा अकेला बोला, 'विद्या से भी बुद्धि बडी होती है, जैसे कि किले में रहे हुए शरवीर महाराजा भी बुद्धिमान् लोगो द्वारा बन्दी बनाये जाते है, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572 . विक्रम चरित्र ..जिस के पास बुद्धि है वही बलवान है, बुद्धि हीन को बलवान् नहीं कह सकते. वन में रहने वाले मदोन्मत बलवान् सिंह को भी खरगोश ने अपनी बुद्धि से कुएँ में गिरा दिया. जैसे कि शशक और सिंह की कथा __मन्दराचल पर्वत पर एक सिंह रहता था. वह हमेशां अनेक पशुओं का वध करता था. तब वन के सब पशु मिल कर सिंह के पास गये, और कहने लगे, 'हे मृगेन्द्र ! यदि आप की इच्छा हो तो हम सब में से एक एक पशु नित्य आप के पास उपस्थित हो जाय, जिस से आप को भी श्रम नहीं करना पडेगा.' ऐसा सुन कर सिंहने उन सब की बात मजूर की. एक दिन वृद्ध खरगोश की बारी आई, तब उसने अपने प्राण बचाने के लिये, सिंह को मारने के लिये एक उपाय सोचा. वह उस दिन धीरे धीरे देर से सिंह के पास पहूँचा. तब सिंहने क्रोधित होकर पूछा, 'इतनी देर क्यों कि?' तब खरगोशने विनम्र स्वर से कहा, 'हे स्वामिन् ! इस में मेरा कोई अपराध नहीं है. रास्ते में दूसरे सिंहने मुझे रेक लिया. अतः देर हो गई.' सिंहने कहा, 'वह कहाँ है ?' तब वह खरगोश सिंह को लेकर एक कुएँ के कांठे पर पहुंचा और कहा, 'वह सिंह इस में हैं.' तब सिंहने कुएँ के अंदर देखा और अपनी ही परछाई को अन्य सिंह समझ कर उसे मारने कुएँ में कूद पडा, और मर गया. इस ' लिये निर्बल होने पर भी PLAC. Guriratnasun M.S. un Gun Aaradhak Trust Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 573 : / शशकने अपने बुद्धिबल से बलवान् सिंह को मार डाला. अतः बुद्धि ही बडी है.' इस प्रकार वादविवाद करते हुए चारों पांडित जा रहे थे. 'रास्ते में परने की तैयारीवाला सिंह को देखा. उन में से एक बोला, 'इसे मांस आदि-देकर-खिला कर जीवित कर दे.' क्यों कि ज्ञानदान से ज्ञानवान् , अभयदान से निर्भय, अन्नदान से सुखी और औषधदान से हमेशा जीव निरागी रहता है.' तब बुद्धिमान् . पंडित बोला, 'इस दुष्ट सिंह को अच्छा करने से सभी को महा अनर्थ होगा, अर्थात् शीघ्र ही मरणांत कष्ट होगा. कहा है कि, वैश्या, अक्का, राजा, चोर, पानी, बिल्ली और अन्य नख-दांतवाले जानवर सिंह आदि, अग्नि और सुनार का कभी विश्वास नहीं करना चाहिये.' उस बुद्धिमान पंडित के मना करने पर भी जब उन in तीनों पंडिताने उसे मांस खिलाकर स्वस्थ iPadalan किया, तब यह दूरJAN दी बुद्धिमान पंडित वहां से शीघ्र ही दूर जगल में चला गया, इधर उस सिंहने ( बिना विचारे कार्य का परिणाम.) . स्वस्थ होने पर उन - चित्र न. 40 . तीनो पांडितो को PROXIN NGUVU P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 574 विक्रम चरित्र - अपने पंजे से मार कर खा गया. जिस प्रकार बुद्धिमान पंडितने अपनी बुद्धि से अपने प्राण बचाये, उसी तरह हे म त्रिन् ! तुम भी अपनी बुद्धि से इन का न्याय करा.' तब मत्रीने धन श्रेष्ठी को पूछा, 'रत्न देते समय तुम्हारा .. साक्षी कौन है ? ' धन सेठने कहा, 'यह यहां खडा हुआ श्रीधर ब्राह्मण मेरा साक्षी है.' बुद्धि के निधान मतिसागर मत्रीने सच्ची बात निकालने के लिये श्रीधर से पूछा, 'हे श्रीधर ! तुमने जो रत्न देते समय देखा था, उस रत्न प्रमाण में कितना बडा था ?' भोले-श्रीधरने मन में विचार किया, 'जब रत्न करोड रूपये के मूल्य का है, तो अवश्य घडा जितना बडा होगा ही इस में शंका नहीं है.' ऐसा सोच कर वह बोला, 'वह रत्न घडे जितना बडा था.' तब मंत्रीने पूछा, 'वह कहां बांधा जाता है ?' ब्राह्मणने विचार कर कहा, 'वह कंठ में और कान में बांधा जाता हैं.' मंत्रीने कहा, 'हे ब्राह्मण ! तुमने सत्य नहीं कहा, क्यों कि घडे जितना बडा माणिक्य गले या कान में कभी नहीं बांधा जाता है. अतः तेरी साक्षी झुठा है.' तब महाराजाने ब्राह्मण को झुठा साक्षी जान कर उसे नौकर द्वारा चाबुक से मरवाया. इस प्रकार असत्य बोलने से वह जीवनभर दुःखी हुआ. क्यों कि-जैसे कुपथ्य करने से कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते है, इसी प्रकार असत्य बोलने से शत्रुता, P.P. Ac. Gunrainasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित. विषाद, लोगों मैं अविश्वास आदि उत्पन्न होते है. मृषावाद के पाप से जीव निगोद तथा तिथं च योनि और नरक मैं जाता है, अतः भय से अथवा दूसरे के आग्रह से भी कभी झुठ नहीं बोलना चाहिये. इस से वह महाराज क्रुद्ध हुए.' और उसने धन श्रेष्ठी का सारा धन ले लिया, और उस में से क्रोड मूल्यवाला वह रत्न सुंदर को दे दिया. वह धन वणिक भी मृत्यु पर्यंत गरीब और दुःखी बना रहा, अधिक में इज्जत खोई.” लक्षमति विक्रमादित्य महाराजा को रात में यह सारी कथा कह रहा था, उसने अंत में कहा, “जो लोग बिना सोचे समझे कार्य करते है, वे बाद में दुःखी होते है, इस में शंका नहीं है. अतः हे महाराजा ! आप कुछ समय धीरज धरे, में अवश्य ही आप की आज्ञानुसार कार्य कर दूंगा." ___ महाराजाने अपने मन में सोचा कि यह लक्षमति भी सहस्रमति के जैसा ही है. तीसरा प्रहर पूर्ण होने पर महाराजा को नमस्कार कर वह रवाना हुआ. पहरे पर कोटिबुद्धि हाजर हुआ, उस को बुला कर महाराजाने उसे भी शतमति को मारने की आज्ञा फरमाई. कोटिमतिने महाराजा से कहा, " आपको अकेला छोड कर जाने के लिये मेरा मन जरा भी तैयार नहीं होता.” महाराजा बोला, " मैं अभी स्वस्थचित्त होकर जागता. P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र रहुँगा, और तुम शीघ जाकर मेरे आदेश का पालन कर के आओ. कहा है, 'बहुत बडे जंगल में भी अकेला सिंह रहता है। लेकिन उसे किसी शिकारी पशु या मनुष्यों से भय नहीं लगता." यह सुन कर कोटिमतिने विचार किया कि अवश्य ही महाराजा को इस समय बुद्धिभ्रम हुआ लगता है. क्यों कि शतमति तो सुंदर रत्नों की खानवाले रोहणाचल पर्वत की तरह गुणों का खजाना है, और वह कदापि किसी का प्रतिकूल या बुरा कार्य नहीं करता है. इस तरह विचार कर वह बोला, " है राजन् ! आप थोडी देर धीरज धरे. मै आप की आज्ञा का पालन करुंगा लेकिन उसके पहले मैं आपको एक अच्छी कहानी कहता हूँ वह सुनिये.' कर महाराजा बोला, “अच्छा, पहले कहानी कहों उस के बाद कार्य कर देना." शीघ्र ही कोटिबुद्धि इस प्रकार कथा कहने लगा. केशव की कथा _“लक्ष्मीपुर नामक नगर में केशव नामक एक ब्राह्मण रहता था. उसने धन प्राप्ति के लिये बार बार महेनत की पर उसे केवल दरिद्रता ही मिली. चाहे पर्वत के शिखर पर जाओ, अथवा समुद्र का उल्लधन कर विदेश जाओ, अगर पाताल में चले जाओ, लेकिन सभी जगह विधाता-कर्म के लेख का ही * फल मिलेगा. . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित 577 एक बार केशव की पत्नीने उसे कहा, 'हे पतिदेव ! अन्न बिना हम दोनों दुःखी होते है, अतः धन के लिये किसी दूसरे देश में जाइये. क्यों कि _ जिस के पास धन है वही नर कुलीन है, वहीं पंडित, ज्ञानी, गुण का जाननेवाला, वही वक्ता और लोगों का मान्य है. सभी गुण धन में है. अर्थात् संसार में जहां धन होता है, वही सभी गुण माने जाते है परदेश से डरनेवाले बहुत आलसी ऐसे कौए, कायर मनुष्य, और मृग अपने देश में हा मृत्यु पाते है. जो बाहर जाकर अनेक आश्चर्य से पूर्ण समस्त पृथ्वी का अवलोकन नहीं करते वे कुएँ के मेंढक के समान होते है.' इस प्रकार सुन कर वह ब्राह्मण लक्ष्मी प्राप्त करने के लिये श्रीनगर में गया. वहां अन्य लोगों के कार्य करता हुआ भी हमेशा पूर्व के भाग्य उदय से दुःखी हो रहा. कहा है कि-इस मनुष्य भव में आने पर पहले तो माता के पेट में रहने का-गर्भवास का दुःख भोगना पडता है, बचपन में मल से व्याप्त शरीर तथा माता के स्तनपान का दुःख है, युवावस्था में भी स्नेहीओं का विरह से दुःख उत्पन्न होता है, और वृद्धावस्था तो स्वयं ही दुःखद है. अतः हे मनुष्य ! क्या संसार में स्वल्प सुख भी कहीं है ? अर्थात् इस संसार में जरा भी सुख नहीं है. ए. - इस प्रकार निर्धन रूप में घूमते घूमते केशव ब्राह्मण P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 578 विक्रम चरित्र AAA . डालूंगा.' माल ने तीन वर्ष निकाले: आखिर एक दिन वह चांडिकादेवी के ___ मदिर में आ पहुँचा. वहां वह एक बडा पथ्थर लेकर बार बार उस प्रकार कहने लगा, 'हे देवी! तू मुझे धन दे, नहीं तो मैं इस / पथ्थर से तेरी मूर्ति . के टुकडे टुकडे कर / * डालूगा.' dren इस से डर कर ( देवी और केशव ब्राह्मण. चित्र न. 41) वह वा उस प्रत्यक्ष होकर कहने लगी, 'तेरे भाग्य में कुछ नहीं है, यदि तुझे धन दिया भी जाय तो उस में से तेरे हाथ में कुछ नहीं रहेगा.' फिर भी वह बोला, 'मैं तुमसे यह बातें सुनना नहीं चाहता हुँ. तुम मुझे धन दो वरना मैं तुम्हारी मूर्ति के दो टुकडे कर डालूंगा.' तब डर कर उस देवींने करोड रूपये का मूल्यवान एक रत्न उसे दिया. वह भी उसे प्राप्त कर खुश होता हुआ समुद्र / मार्ग से घर जाने के लिये जहाज में बैठ कर रवाना हुआ. पुनम की रात में चंद्रमा की कांति देख उस तेजस्वी मणि को हाथ में ले कर वह ब्राह्मण कहने लगा, 'इस माणिक्य और चंद्रमा दोनो में से कौन अधिक तेजस्वी है ?' इस . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 579 . प्रकार वह ब्राह्मण उस जहाज पर खडा हुआ बार बार अपने हाथ में रत्न को रख कर देख रहा था, इतने में दुर्भाग्यवश वह रत्न उस के हाथ से छूट कर समुद्र में गिर पडा, तब वह ब्राह्मण . बहुत पश्चाताप करने लगा. . इस प्रकार जो लोग विना विचारे काम करते हैं वे अति दुःखी होते है, इस में जरा भी संदेह नहीं. अतः हे स्वामिन् ! आप कुछ प्रतीक्षा करे, मैं आप की आज्ञा का पालन करुंगा.” कोटिमति की बात सुन कर महाराजाने विचार किया, 'यह भी . सहस्रमति और लक्षमति जैसा ही चित्र न. 42 हैं.' चोथे प्रहर के अंत में कोटिमति छूटी ले कर घर गया. - कुछ समय बाद दिन उगने पर महाराजाने कोतवाल को बुलाया और उसे आज्ञा दी, "तुम शीघ्र ही शतमति को फांसी पर चढा दो. और साथ ही साथ इसी क्षण सहस्रमति, लक्षमति, कोटिमति को भी देशनिकोल की सजा दे दो.” . यदि माता ही जहर खिला दे, पिता ही पुत्र को बेच दे अथवा यदि राजा सर्वस्व का हरण करे तो उस का शोक दुःख क्या ? अर्थात् उस का कोई इलाज नहीं हैं. राजा की P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 580 विक्रम चरित्र आज्ञा का पालन करना, अग्नि में प्रवेश करना अथवा सिंह के विकराल मुख में हाथ डालाना तीनों ही महा कष्टदायक काम है. वह निर्दय कोतवाल शतमति को फांसीपर चढाने के लिये महाराजा की आज्ञा से नगर के बाहर ले गया, तब शतमति बोला, “अभी मैंने महाराजा का कुछ भी नुकशान या अपराध नहीं किया है, और यदि महाराजा मुझे बिना विचार किये ही मरवाना चाहते हैं, तो भी मुझे एक क्षणभर के लिये महाराजा के पास तुम ले चलो.' शतमति के कहने से कोतवाल उसे महाराजा के पास ले गया. उस समय शतमतिने रात में मारे हुए सपके टुकडों को लाकर महाराजा को बताया. और रात में देवी के रुदन से ले (राजा को शतमति सांपके टुकडे बता रहा है.) कर बना हुआ सारा - चित्र न. 43 वृत्तान्त महाराजा को .. . कह सुनाया.. तब शतमति की चतुराई और स्वामीभक्ति देख कर . महाराजा खुश हुए और संतुष्ट होकर शतमति को महाराजाने कुछ देश ईनाम में दिये, फिर सहस्रमति, लक्षमति, और कोटिमति वे तीनों अंगरक्षक को बुला कर उन्हों को Mitalit: / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 581: नगर आदि ईनाम दे कर उन का पद आगे बढा दिया. कहा है कि___महाराजा खुश होने पर श्वेत छत्र, सुंदर मनोहर घोडे: और सदा मदमस्त रहनेवाले हाथी भी दान में दे देता है.. . महाराजा खुश होने पर नौकरों को केवल द्रव्यादि दे सकता है. लेकिन वे सेवकगण तो मात्र सम्मान प्राप्त करने के हेतु महाराजा के लिये अपने प्राण भी अर्पण कर देते है. ..अब महाराजा विक्रमादित्य भट्टमात्रादि सेवको 'से सेवित होकर सदा न्याय से राज्य कर के पृथ्वी का पालन करने लगे. दुष्टों का दमन, न्याय मार्ग का आचरण, अपनी प्रजा का पालन, हमेशां देवता और गुरु चरणों में नमस्कार करनेवाले, छ दर्शन जाननेवालों का सम्मान, और उचित कर्तव्य का पालन, परोपकार, त्याग और लक्ष्मी का उपभोग करनेवाला ही सच्चा राजा है. पाठकगण ! इस प्रकरण में तीन बाते मुख्य आई. एक मन्दिरपुर में सेठ पुत्र के शव के बारे में महाराजा द्वारा उपकार करना, दूसरी बात स्त्रीराज्य में गमन कर मोहित न हुए उस के लिये स्त्रीयों द्वारा चौदह अमूल्य रत्न * प्राप्त किये किन्तु वे अमूल्य मणि भी याचको को दिये. धन्य हैं उन्हों की 'उदारता, और तीसरी वात यह हैं कि भ्रम के कारण शतमति को मारने की आज्ञा फरमाई; परन्तु नेकदार अंगरक्षकोने किस तरह महाराजा की सेवा की वह रोमांच हाल पढे, उस परसे अपने जीवन में भी आदरणीयः आदर्श स्वीकृत करे. . . .. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pura चौसठवाँ-प्रकरण OF एकदा महाराजा विक्रमादित्य अपनी सभा में बैठे हुए थे. तब एक ब्राह्मण आया, और स्पष्ट रूप से इस प्रकार एक श्लोक बोला. मरुत्तटिन्याः किल वालुकानां, सरित्यते;रिपृषन्मणीनाम् ; नभस्युडूनां च शरीरिणां च, विज्ञायते नैव बुधेन संख्या.* ..' इसी समय राजसभा में स्थित एक दूसरा पांडित बोला, " आप एक अन्य श्लोक भी सुनिये. घोडों की गति + माधव का गर्जन, भाग्याक्षर-नारी की चाल; वर्षा का होना या रूकना, कौन जान सकता तत्काल ? यह श्लोक सुन कर महाराजा विक्रमादित्य बोले, “हे पांडित, यह आप का कथन पूर्ण रूप से उचित नहीं. क्यों कि, पंडितजन स्त्रीचरित्र को जान सकते है, उस का किनारा भी पा सकते है.". . उस पंडित को जेल में डाल कर महाराजा स्त्रीचरित्र जानने के लिये उत्तर दिशा की तरफ रवाना हुए. धीरे धीरे . * स्वर्गगगा या मारवाड की नदी की रेती, समुद्र में रहे हुए जलबिन्दुओ और मोती, मणि एवं तारों जगत में रहे हुए प्राणियों की संख्या यह वडे बडे पंडित जन भी नहीं जान सकते. // स. 11/918 // + वैशाख मास में मेघ की गर्जना. P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित , 583 महाराजा एक पर्वत पर पहुंचे. वहां कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित और नासिका पर स्थिर दृष्टि किये हुए, एक प्रशान्त मूर्ति मुनि को देखा. कहा है कि-जो गरमी की ऋतु में आतापना लेते है, सर्दी की ऋतु में निर्वस्त्र रहते है और बरसात की मौसम में अंगो को संकुचित कर के रहते है; वे सचमुच ही संयम से सुशोभित महान् साधु पुरुष है." . उस समय मुनि महाराजने काउसग्ग में ही ज्ञान से विक्रमादित्य महाराजा को जान कर काउसग्ग पार कर 'धर्मलाभ, पूर्वक उस का नाम लेकर महाराजा को संबोधन कर धर्मापदेश दिया. धर्मोपदेश देने के बाद महाराजाने मुनि से कहा, " मुझे एक अपूर्व विद्या दीजिये.” तब साधु द्वारा मनोकामना पूरी होने से साधु को नमस्कार कर विक्रमादित्य खीचरित्र की परीक्षा के लिये आगे बढे. ____ अनेक नगर, ग्राम, जंगल, नदी, पर्वत आदि देखते हुए राजा पृथ्वी के आभूषण रूप लक्ष्मीपुर नामक नगर में पहुँचे. नगर की शोभा देखते हुए महाराजा आगे बढते गये, और एक जुगारी के अड्डे में आ कर ठहरे. वहां एक प्रहर ठहर कर जब महाराजा आगे बढने लगे तो एक जुगारी क्षत्रियने उन्हे भोजन के लिये आमत्रण दिया. जुगारीने अपने नौकर को घर भेज कर अपने अतिथि के लिये भोजन बनवाया. वह जुगारी जुआ खेलने में पडा. अतः भोजन की बात भूल गया, तब उस की पत्नीने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 584 . .. ..... विक्रम चरित्र - - * उस नौकर को अतिथि व पति को बुलाने के लिये भेजा. जुआ खेलने में मस्त उस जुगारी ने नौकर के साथ अतिथि को घर भेज दिया. घर आये हुए उन अतिथि को देख कर उस जुगारी की स्त्री कामदेव के पांचो बाणों से पीडित हुई, अर्थात् उस के मन में कामवासना व्याप्त हुई. कहा है कि-कामदेव के पुष्परूपी बाणों से घायल हुए हृदय के कारण विवेक पानी की तरह बह जाता है. - वह अतिथि अपने दोनों पैर धो कर खाने के लिये बैठा, तब उस स्त्रीने अतिथि को कि हुई श्रेष्ठ रसोई के साथ चावल, दाल, घी आदि परोसा, और इस प्रकार मन में सोचने लगी 'यदि यह व्यक्ति मेरा पति बन जाय तो मैं गोत्रदेवी को अद्भुत बलिदान दूंगी.' उस पुरुष को रूपवान देख कर उसी समय वह क्षत्रियपत्नी मोहरूपी पिशाच से ग्रस्त हो गई. कहा है कि-उल्लू दिन को नहीं देखता, कोआ रात को नहीं देखता लेकिन कामान्ध व्यक्ति ऐसा अद्भुत है जो न रात में देखता हैं न दिन में देखता है. धतूरा खाया हुआ व्यक्ति सारे जगत को कंचनमय देखता है, उसी तरह कामि स्त्री सारे जगत को पुरुषमय देखती है, और कामी पुरुष सारे जगत को स्त्रीमय देखता है. महाराजाने अपने मन को शुद्ध रखते हुए उस की. मनोगत इच्छा को जान कर कहा, "हे स्त्री ! शीलवान् स्त्री P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 585 को परपुरुप के सामने ऐसी चेष्टाएं नहीं करनी चाहिये. अतः मान के विकारों को शान्त करा.” ऐसा सुन कर अपनी मनोकामना को पूर्ण न होती देख कर मन में उस स्त्रीने विचार किया, “कहीं यह पुरुष बहार जाकर मुझे बदनाम न कर दे.' इस लिये वह जोर जोर से चिल्लाने लगी. उस की चिल्लाहट सुन कर घर आते हुए जुगारी को उस अतिथि के बारे में शौंका उत्पन्न हुई, और बह खड्ग निकाल कर जलदी चलने लगा, पति को दूर से / घर आता हुआ जान कर उस स्त्रीने विचार किया, 'यह अनिधि वृथा ही मारा जायगा, अतः इसे बचाना चाहिये.' कहा है कि-माह से व्यक्ति क्षण में आसक्तिवान् , क्षण में मुस्त, क्षण में कोपायमान और क्षण में क्षमावान् बनता है. माह से व्यक्ति में वदर की तरह चंचलता आ जाती है. अतः मोह व्यक्ति को बन्दर की तरह नचाता हैं. अतः उस स्त्रीने. अतिथि को बचाने के लिये चुल्हे में से जलती हुई लकडी लेकर घर के छापरे में आग लगा दी, और शीघ्र / ही चिल्लाने लगी, .." दौडओ, दौडो, मेरा (यह न होते तो सारा घर जल जाता.).. घर जल रहा हैं." चित्र नं. 43 र उस समय अतिथि को KESTRA- - W ester Centra.ASON sASAP PO यो JOR P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 586 विक्रम चरित्र जलते हुए घर को बचाने के लिये आग बुझाते हुए देख कर उस जुगारीने अपनी तलवार म्यान में डाल दी. तब उस स्त्रीने अपने पति को उच्च स्वर से कहा, " यदि ये महापुरुष यहां न होते, तो आज सारा ही घर जल जाता." रूपे देवकुमार सम देखत मोहे नरनार. ___ सोही नर खिण एक मां बल जल होवे छार. ... उस का ऐसा मायामय स्त्री चरित्र जान कर महाराजाने अपने नगर के प्रति चल दिया. अपने नगर में आ कर उस पंडित को जेल से बाहर निकलवा कर उस का सन्मान किया, और उसे कोषाध्यक्ष के पास एक करोड सोनामहार दिलवाई. विक्रमादित्य उस काव्यका स्मरण करते हुए लोगों को दान देते हुए अपना समय बिताने लगे. महाराजा विक्रम का स्वर्गगमन आता है जब काल का झोंका, प्राण-तैल तब देता धोका; सकता नहीं किसी का रोका, बार बार मिले न मौका.. ___ प्रतिष्ठानपुर नगर में शालिवाहन नामक बलवान राजा था. उस के पास सुंदर हाथी, बलवान् घोडे आदि विशाल संख्या में थे. उस के पास शूद्रक नाम का खूब बलवान सेवक था, जो बावम हाथ की शिला को उठा सकता था. उस राजा के पास और भी अन्य उपचास-४९ बलवान् शूरवीर सेवक थे. P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 587 एक समय शालिवाहन महाराजा विक्रमादित्य के कुछ गावों पर हमला कर के पुनः अपने नगर को गया. जब यह बात भट्टमात्र मंत्रीने जानी तब महाराजा से कहा, "हे स्वामी ! शालिवाहन हमारे गावों पर इस तरह हमला कर जाय यह अच्छा नहीं है, अतः सेना लेकर शालिवाहन पर आक्रमण कर के उसे जीतना चाहिये, क्यों कि सामर्थ्य होते हुए कौन व्यक्ति दूसरे का पराभव सहन करेगा. सिंह कभी दूसरे की गर्जना सहन नहीं कर सकता, केवल डरपोक तथा सियार ही दूसरे से किया गया तिरस्कार सहन करते है." महाराजाने कहा, "हे मंत्रीवर ! तुमने सत्य कहा है, राजा हमेशा चार नीति से काम लेते है. यदि साम से राजा का काम शीत्र ही बन जाय तो जीव को कष्ट देनेवाले दाम की जरूरत नहीं, और यदि दाम से काम निकल जाय तो भेद की जरूरत नहीं, अगर भेद से काम बनता है तो दण्ड का क्या प्रयोजन ?" तब मंत्री बोला, "पहले शालिवाहन के पास चतुर दूत भेजे, यदि शालिवाहन दूत के वचनों को न माने तो बाद में उसे जीतने की तैयारी करे." तब मंत्री से परामर्श करके महाराजाने एक दूत भेजा. प्रतिष्ठानपुर में पहुँच कर दूत राजा शालिवाहन की सभा में गया. और विक्रमराजा द्वारा कथित सब बात को वह कहने लगा, " "हे शालिवाहन भूपति ! आपने हमारे महाराजा विक्रमा- . P.P. Ac. Gunratnasuri M's. Jun Gun Aaradhak Trust Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 588 विक्रम चरित्र दित्य के गावों पर अभी जो हमला किया था, वह अच्छा नहीं "किया, अतः शीघ्र ही हमारे महाराजा विक्रमादित्य के पास जाकर उन से मित्त कर अपराध की माफी मागिये. यदि आप नहीं मानते तो महाराजा विक्रमादित्य अपनी सेना तैयार करके आप को जीतने के लिये आएंगे. -:. . यह सुन कर शालिवाहन राजाने क्रुद्ध होकर और भ्रकुटी चढा कर कहा, "हे दूत ! हमारे सामने अब ज्यादह कहने की जरूरत नहीं. तेरे स्वामी को कहना कि मैं युद्ध के लिये तैयार हूँ, और शीघ्र ही सेना लेकर रणांगण में आता हूँ.” . . दूतने शीघ्र ही महाराजा विक्रमादित्य से जाकर कहा, "हे स्वामिन् ! शालिवाहन तीने जगत को तृण के समान गिता है, और इस समय तो वह आप को तुच्छ समझता है, अतः आप शीघ्र ही सेना लेकर युद्ध के लिये प्रस्थान कीजिये." यह सुन कर महाराजाने अपनी विशाल सेना तैयार की और प्रतिष्ठानपुर की तरफ प्रयाण किया. उस समय महाराजा ने सनिकों को खूब धन देकर संतुष्ट किया और इस प्रकार महाराजा से सन्मान प्राप्त कर के सेवकगण भी खुश खुश हुए. कहा हैं कि वीर लडाई, वैद्य विमारी, विप्र मरण चाहे सब का; सन्तपुरुष की अभिलाषा यह हो, सुख शुभ जगमें सब का. ....... अनेक मत्त हाथी, घोडे और सुभटों से सुशोभित दोनों P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 589 गजाओं की सेनाएँ मैंदान में मिली. रथी रथवालों के साथ, घुडसवार घुडसवारों के साथ, पैदल सैनिक पैदल सैनिकों के साथ और हाथीवाले हाथीवालों के साथ लडने लगे, तलवारें तलवारों से भिड गई, भालेवाले भालेवालों से, बाणवाले बाणवालों से, अस्त्रबाले अस्त्रवालों के साथ, दंडवाले दंडेवालों से लड़ने लगे. इस तरह उन दोनों बलवान सेनाओं में घोर युद्ध हुआ. वह इतना भयंकर था, आकाश में मानो कि देव भी उसे देखने के लिये आये. इसी तरह जब युद्ध हो रहा था, इतने में विक्रम महाराजा की छाती में शालिवाहन राजा का छोडा हुआ तीर आकर लगा. उस समय सेना के बीच में रहे हुए विक्रम महाराजा को अपने मंत्री आदिने घेर लिये, और उपचार करने लगे, . किन्तु स्थिति चिंताजनक रही तब भट्टमानादि मंत्री इस प्रकार बोले, "हे स्वामी ! आप जरा भी आत ध्यान न करे, दृान से जीव कुगति में जाता है. कहा है कि आत ध्यान करने से जीव तिर्य चगति में जाता है, और साथ ही राजन् ! जिस प्रकार हम आज तक आपकी सेवा करते आ रहे हैं, उसी तरह हम विक्रमचरित्र-आपके पुत्र की सेवा हमेशा करेगें, तब श्री विक्रमादित्यने शुभ ध्यान में मग्न होकर पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करते हुए स्वर्ग सुख को प्राप्त किया. . विक्रमादित्य महाराजा के स्वर्गवास का समाचार सुन कर सारी सेना में विषाद की गहरी छाया छा गई. विक्रम महा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र राजा के विक्रमचरित्र को पिता के स्वर्गगमन से महान् आघात हुआ. दुःखी मन से स्वर्गीय पिता के देह की अंतिम विधि बडे धूमधाम से कर अग्निसंस्कार किया. x मतान्तः - विक्रम महाराजा की मृत्यु के बारे में दूसरा हाल इस प्रकार मिलता है कि-एक समय विक्रम महाराजा और शालिवाहन राजा के बीच युद्ध हुआ. उस में विक्रम महाराजा घायल होकर अपने नगर में लौट आये, और खिन्न रहने लगे. अति विषाद से इस प्रकार की उदर व्याधि-पेट की पीडा उत्पन्न हुई, कि उन्हे क्षणभर भी आराम नहीं मिला. उन्होंने अग्निवैताल का स्मरण किया पर वह भी उस समय उपस्थित नहीं हुआ. राजवैद्य को दिखाने पर वैद्यने कहा कि, यदि आप कौए का मांस खाय तो जी सकते है. महाराजाने रोग शांति के लिये और जीने की इच्छा से काकमांस का भक्षण किया तब भी दुष्कर्म के उदय से राजा का रोग बढता ही गया. और लोकोक्ति भी है कि काकमांस खाया, साहस छोडा, आत्मा को दुःखी किया लेकिन अमर न हो शका, अतः हे विक्रम ! तुम इस प्रकार जन्म हार गये. अन्त समय में आचार्य श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी महाराज वहां आये, और उन्हें कहने लगे, 'हे राजन् ! तुम खेद न करो, उत्तम जन आपत्ति में शोक नहीं करते, धन, जीवितव्य, स्त्री, और आहार इन चारों से किसी को भी तृप्ति नहीं हुई, सभी जीव इन से अतृप्त रहकर ही जगत छोड गये हैं, छोडते है. और छोडेगे.२ 1 खद्धो काओ मुक च साहस, विनडिअं अप्पाण'; अजरामर न हुआ हा विक्कम ! हारिओ ज़म्मो. स. 11/1029 / / .. 3 . धनेषु. जीवितव्येषु स्त्रीषु चाहार कर्मसु;.... अतृप्ताः प्राणिनः सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च. स. 11/131 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 591 है उसी का कीर्तिकारक, जन्म इस संसार में; दे दिया सर्वस्व जिसने, और के उपकार में. विक्रम महाराजा की मृत्यु के दूसरे दिन शालिवाहन राजा से युद्ध करने के लिये विक्रमादित्य का पुत्र विक्रमचरित्र आया. उसने थोडे ही समय में शालिवाहन राजा की सारी सेना को दशों दिशाओं में भगा दी. तब शालिवाहनने विक्रमचरित्र के साथ संधि की, और अपने नगर में गया. उधर विक्रमचरित्र भी अपने नगर में आया, किन्तु पिता के मृत्युजनितशोक में रातदिन मग्न रहने लगा, उस समय पू. आचार्य श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी महाराज उस का शोक छुडाने के लिये वहां आये, विक्रमचरित्र को इस प्रकार उपदेश देकर शान्त किया. "हे राजन् ! धम', शोक, भय, आहार, निद्रा, काम, कलि और क्रोध जितने प्रमाण में करे, उतने ही प्रमाण में 4. इस प्रकार पू. आचार्य श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी-गुरुमुख से उपदेश को सुन कर अंत समय में महाराजाने धर्म की आराधना कर स्वर्ग में गये, तत्पश्चात् पू. आचार्य श्री सिद्धसेनदिवाकर सूरीश्वरजी गुरुदेवने पिता के मृत्यु के शोक में डुबे हुए विक्रमचरित्र का शोक दूर करने के लिये धर्मोपदेश दिया. गुरुदेव के उपदेश को सुन कर विक्रमचरित्र का शोक कुछ हलका हुआ, और शोक छोड कर शीघ्र ही उस ने अपने पिता के मृत्युकार्य को . सपन्न किया, - मूरख जाने मुझ विना, चाले नहीं व्यवहार; गये युधिष्ठिर राम-नल, फिर भी चले ससार. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र बढते जाते है. कितने ही तीर्थ कर, गणधर, सुरेन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव आदि महान् समर्थ पुरुष काल के ग्रास बने हुए है, वहां साधारण जीवों की तो गिनती ही क्या ? जिस महाराजाने श्री शत्रुजय आदि महातीर्थी की कितनी ही बार यात्राए की और अपना जीवन सार्थक किया, ऐसा राजा की * मृत्यु का शोक करने की क्या जरूरत है ? वह तो स्वर्ग के सुखों का भोग करके वहां से च्युत होकर थोडे ही सवों में मोक्षप्राप्त करेगें अतः शोक का त्याग करो.” इस प्रकार गुरुवाणी सुन कर विक्रमचरित्र का चित्त शान्त हुआ.. जब तुम आयो जगत में, जग हसत तुम रोय; अब जैसी करणी करो, तुम हसत जग रोय. प्रिय पाठकगण ! मनुष्य अपनी बुद्धि और पुरुषार्थ से किस प्रकार के अद्भुत कार्य कर सकता है. साहस से किस प्रकार आपत्ति का सामना और अपना कार्य सिद्ध कर सकता है, मनुष्य यदि बिना विचारे कार्य करे तो किस प्रकार महान अनर्थ में गिरता है ? और महाराजा विक्रम की मृत्यु की बातें भी आपने जानी. सामान्य नियम के अनुसार पिता की मृत्यु तथा उस से शोकात होना आदि बातें भी विक्रमचरित्र के विषय में आपने पढी. दुःख के समय में आप्तजन, सज्जन तथा गुरुजनों का क्या कर्तव्य होता है यह भी आपने देखा. अब आगामी अन्तीम सर्ग में: विक्रमचरित्र का राज्याभिषेक सिंहासन की पुतलियों एवं चार चामरधा-- रिणी की रोमांचकारी बातचित आदि आप अवश्य पढेगे. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित तपागच्छीय-नानाग्रंथ रचयिता कृष्ण सरस्वती बिरुद्धारक-. परम पूज्य-आचार्य श्री मुनिसुंदरसूरीश्वर शिष्य पंडितवर्य __श्री शुभशीलगणि विरचते विक्रमादित्य चरित्रे श्री विक्रमादित्य स्वर्गगमनो नामैकादशः सर्ग समाप्तः नानातीर्थीद्धारक-आबालब्रह्मचारि-शासनसम्राट् श्रीमद् विजयनेमिः सूरीश्वर शिष्य कविरत्न शास्त्रविशारद-पीयूषपाणि-जैनाचार्य श्रीमद् विजयामृतसूरीश्वरस्य तृतीयशिष्यः वैयावच्चकरणदक्ष मुनिवर्य श्री खान्तिविजयस्तस्य शिष्य मुनि निरंजनविजयेन कृतो विक्रमचरितस्य हिन्दी भाषायां . भावानुवादःतस्य च एकादशः सर्ग समाप्तः कर्म कभी नहीं छपते हैतारा की ज्योतमें चंद्र छूपे नहि, सूर्य छूपे नहि बादल छायो,, रण चडया रजपूत छूपे नदि, दाता छूपे नहि घर मांगन आयो.. चंच नारीको नैन छूपे नहि, प्रीत छूपे नहि पीढ देखायो कवि गंन कहे सुन शाह अकबर, कर्म छुपे नहि भभूत लगायो.. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 MANUNVENDEVEJASSENDENSO मानव ! मानवता छोड नहीं (ले. पं. प्रकाशचन्द्रजी कविरत्न ) . भानव! मानवता छोड नहीं ! ! रवि की किरणों भूपर आती, तेरे पद- रजको छू जाती; हे मानव! तू जग में महान. देवोंकी भी कर होड नहीं, मानव ! मानवता छोड़ नहीं. विज्ञान मुक्ति का कारण है, क्यों ! वेलि कपट विषकी बोई; यदि श्रद्धा का अधु-मिश्रण है, बैरी न यहां तेरा कोई, तू बुद्धिवाद के पाहनसे से, जिस में तेरी छवि अंकित हैं. सहृदयताका घट फाड नहीं, तू उस दर्पण को तोड़ नहीं मानव ! मानवता छोड नहीं. मानव ! मानवता छाड नहीं! " (हिन्दी कल्याण-मानवता अंक में से साभार उद्धरीत,) 2 DRVEDGEVENS VENDEVE SEVENS SVE NAVIGNONVENDEVE NE NOVEDADEVE MESSAGEASONO NOVASGEN P.P. Ac. Gynratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शेरीसा पार्श्वनाथाय नमोनमः पैसठवां--प्रकरण : ( बारहवा-स्वर्ग का आरंभ) जिस का कारज जो करे, दूसरे से नव होय; दीपक प्रगटे कोड दश, रवि चिण रात न जाय, श्री विक्रमचरित्र का राज्यतिलक ___ महाराजा विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद जब मत्रियोंने पाटवी राजकुमार बिक्रमचरित्र को सिंहासन पर बैठाना चाहा, तो सिंहासन की पुतलिया एकाएक इस प्रकार बोली "हे विक्रमचरित्र, आप इस सिंहासन पर नहीं बैठ सकते, क्यों कि विक्रमादित्य महाराजा के समान प्रथम योग्यता प्राप्त किजिये." पुतलियों का यह वचन सुन कर मत्रीगण आपस में इस प्रकार कहने लगे, “यह वचन सिंहासन की अधिष्ठायिकाः P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र देवियों के हैं." तब उन्होने उस पुतलियों से पूछा, "हे पुतलियों! इस सिंहासन की हम्हें क्या व्यवस्था करनी चाहिये ?" तब पुतलियोंने कहा, “अब इस सिंहासन को भूमि में गाड़ दो.” सिंहासन के अधिष्ठाता के वचन की महत्ता समझ कर उन मांत्रियोंने उस सिंहासन को पुतलिया सहित जमीन में भूमिगृह-तलघर कर उस में गाड़ दिया. उस के बाद मांत्रियोंने राजा विक्रमचरित्र को अन्य बडे मनोहर सिंहासन पर बिठाया, और सारे नगर में बडा उत्सव मनाया. नये महाराजा को नमस्कार कर के सभी नगरजन व मंत्रीगण आदि खुश हुए. उस समय विक्रमादित्य की बहनने आकर अपने भतिजा को अक्षत आदि सामग्री से बधाई देती हुई हर्षित हो कर इस प्रकार मंगल उच्चारण किया, “हे विक्रमचरित्र ! तुम धैर्य, उदारता, गंभिरता, शौर्य आदि उत्तम गुणों से महाराजा "विक्रमादित्य के समान विभूषित हो कर चिरकाल तक राज्य करो." उपरोक्त आशीर्वादात्मक मगंल शब्द सुन कर सिहासन पर की चारों चामरधारिणी हँस पडी, तब विक्रमचरित्रने उन से पूछा, “तुम क्यों हँसती हों ?" तब पहली चामरधारिणी बोली, "महाराजा विक्रमादित्य का एक एक जीवन प्रसंग इतना अद्भुत था कि उस का वर्णन करना भी शक्य नहीं हैं, तो आप उन के समान कैसे हो सकते है ?" महाराजा P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित विक्रमचरित्रने अपने स्वर्गीय पिता के जीवन प्रसंग सुनाने के लिये कहा, तब प्रथम चामरधारिणी इस प्रकार बोली, " एक बार महाराजा विक्रमादित्य सभा में बैठे थे. इतने HEN Kams Whe CareerCDTAAHA P mov OSCAFTEKC दोपहर MAN X HER KAN 4.LLYUT THEHEATHER HER 6.REPARA FORCE Air विक्रमचरित्र के ललाट में फूफी-भूआ तिलक कर रही है. चित्र न. 41 में एक शुकयुगल आकर सभामंडप के तोरण पर बैठा, तब शुकीने कहा, "हे स्वामी! यह नगरी बहुत ही सुंदर है." तब वह तोता बोला, “हे प्रिये ! हम जिस नगर में जा रहे है, वहां एक विधवा का घर भी इस राजसभा से अच्छा है." यह कह कर तोते की जोडी यहां से उड़ गई. महाराजा यह वचन सुन कर उस नगर को देखने के लिये बहुत उत्सुक हुए. और अपने मंत्री भट्टमात्र तथा अग्निवैताल के सामने इस प्रकार वोले, "तुम दोनों तोते से कहे हुए नगर का पता लगा कर मुझे कहो." राजा की आज्ञा पा कर P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 598 विक्रम चरित्र अग्निवैताल तथा भट्टमात्र दूर दूर तक सब जगह घूमते घूमते तिलंग देश पहूँचे. उस देश के मुकुट समान सुंदर श्रीपुर नामक नगर में सात महिने के बाद पहुंचे. उस नगर में भीम नामक बलवान् और न्यायी राजा था. उस की पद्मा नामक रानी और सुरसुंदरी नामक पुत्री थी. वह सुंदरी सर्वकलारूपी समुद्र की पारगामिनी, चतुर, शील से शोभित, सुंदर बुद्धिवाली, और रूप द्वारा देवांगनाओं को भी जीतनेवाली थी. उस स्वर्गसमान सुदर नगर में स्थान स्थान पर घूमते हुए तोरण पर बैठे हुए. तोते के जोडे को उन्होंने देखा, उस समय तोतेने अपनी पत्नी -शुको से कहा, "हे प्रिये ! अवन्ती में मैंने इस नगरी का Sectoral CHEHEME RED KISGAZIES राजसभा में तोरण पर शुक और शुकी बैठी है. चित्र न. 45 वर्णन किया था, वही यह नगरी देव विमान से भी अति सुदर है, देखो.” P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित तोते के इस वचन को सुन कर भट्टमात्र और अग्निवैताल दोनों हर्पित हुए. शीघ्र ही वे उस नगर को देख कर चक्रेश्वरी देवी के स्थान में गये. वहाँ थोड़ी ही देर बाद सुखासन-मेना में बैठ कर सखियों सहित देवांगना से भी सुंदर एक राजकन्या आई, वहाँ आकर देवी को प्रणाम किया. जाते समय भट्टमात्र और अग्निवैताल को देख उन दोनों को परदेशी मान कर दासीद्वारा अपने महलपे बुलाये, और दोनों को दासी द्वारा स्नान करवा कर, आदरपूर्वक भोजन कराया. रात्रि में अग्निवैताल और भट्टमात्र के साथ महल में अपने पास में एक दीपक को रख कर सभी संवादों को-समस्या, वाद-विवाद और प्रश्नोत्तर के रहस्य को जाननेवाली वह सुरसुंदरी, तांबूल खाती हुई शय्या पर जा कर बैठ गई. अपनी शय्या के दोनों तरफ एक काष्ट का मनोहर बकरा व घोडा शोभा के लिये रखा, आगे चांदी और सोने का एक मणिमय सिंहासन भी रखवाया. उस समय द्वार पर स्थित भट्टमात्रने अग्निवैताल को कहा, 'अब अपना कार्य सिद्ध हो गया, अतः अब विक्रम महाराजा को यहाँ बुलाना चाहिये. इस लिये तुम बुला लाओ, मैं यहां ठेरता हूँ. महाराजा को बुलाने के लिये वहाँसे अग्निवैताल रवाना हुआ. तब भट्टमात्र मन ही मन विचारने लगा, 'अब मैं अकेला हूँ. क्या करूं?' इतने में वह बकरा बोल उठा, 'हे भट्टमात्र ! तुम यहाँ क्यों आये हो ? इस स्थान पर शक्ति बिना कोई नहीं आ सकता.' ___काष्ठ के बकरे को बोलता हुआ देख आश्चर्य चकित . 19 P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र . हो भट्टमात्र बकरे की ओर देख रहा, और कुछ भी उत्तर नहीं दिया, इतने में बकरेने उसे इतने जोर से लात मारी कि, वह सीधा उज्जयिनी नगर के दरवाजे के बाहर आकर गिरा, तब वह विचारने लगा, 'मैंने अग्निवैताल को भेज दिया सो मूर्खता की.' जब स्वस्थ होकर उसने अपने चारों तरफ देखा तो दरवाजे को देख कर उसने जाना, 'यह तो उज्जयिनी नगरी मालूम हो रही है.' इस से वह मन ही मन चमत्कृत होकर विक्रम महाराजा के पास आया, और उसने बकरे आदि की सारी घटना कही, इतने में अग्निवैताल भी वहा आ पहुँचा. महाराजा विक्रमादित्यने विचार विनिमय कर के भट्टमात्र को नगर की रक्षा का कार्य सांपा और स्वयं अग्निवैताल के साथ उस नगर में गया. नारी को देख कर अदृश्य रूपवाले अग्निताल के साथ चक्रेश्वरी देवी के स्थान पर गये, और उसे नमस्कार कर के कुछ देर के लिये वहीं ठहरे. उस समय आकाश में काली छाया छाई हुई देख कर महाराजा विक्रमादित्य बोले, 'क्या अधी वर्षाकाल आ गया ? अतः शीघ्र स्वस्थान पर चलना चाहिये.' तब वैताल बोला, 'वही कन्या सुरसुंदरी इधर आ रही है. वह पद्मिनी स्त्री है, उसके शरीर की सुगंध से आकर्षित होकर भवरों की पंक्ति एक त्रित हुई है, और इस से आकाश काला दिख रहा है, हे राजन् ! देखो वही सुरसुंदरी कस्तुरी और काजल से सुशोभित शरीरवाली आती प्रतीत हो रही है.' इतने ही में रप की शोभा Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 30 . में देवाङ्गना को भी जीतनेवाली वह कन्या पालखी में बैठकर सखियों के सहित वहा आई. पालखी में से उतरते हुए उस कन्याने विक्रमादित्य महाराजा को देखा. उन के रूप से मोहित-शून्यचित्ता बन गई, और उस के पैर विचलित हो गये. क्यों कि-.. . इन्द्रियों में रसेन्द्रिय, कर्मों में मोहनीय कर्म, व्रतो में ब्रह्मचर्य और गुप्ति में मनगुप्ति ये चारों दुःख से जीते जाते है. . विक्रमादिता को देख कर वह सुरसुंदरी विचारने लगी, 'क्या यह इन्द्र है ? या देव ? या नागेन्द्र है ? या किन्नर है ? अधवा कोई विद्याधर है ?' शन्धचित्तसे मन्दिर में भक्ति पूर्वक देवी को नमस्कार किये, और इस प्रकार बोली, 'हे देवी ! यदि यह सुंदर पुरुष मेरा पति हो जायगा तो मैं सवालाख सोनामोहरों की भेट आप के चरणों में धलंगी.' इतना कह कर वह अपने महल गई. . . विक्रमादित्य महाराजा भी उसका सुंदर रूप देख कर . उसे प्राप्त करने की इच्छा से अत्यंत आतुर हुए. तब वह शीघ्र ही देवमंदिर में गये, और भक्तिपूर्वक देवी को नमस्कार , करके दो हाथ जोड कर बोले, 'हे देवी! यह कन्या मेरी : प्रिया बनेगी तो मैं सवालाख सेनामाहरों से आप की / पूजा करूंगा.' देवी को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर के सुरसुंदरी अपने महल गई, और मोहित होने से उसने अपनी सखी को भेज P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602 विक्रम चरित्र कर महाराजा को आदरपूर्वक अपने महल बुलाये. आने पर उसने महाराजा को सखियों द्वारा स्नान करवाया, और सुंदर अन्नपानादि से राजा का सुंदर सत्कार किया. ____कहा भी है कि-पानी का आनद शीतलता में है, दूसरे का अन्न खाने का आनंद उस के आदर में है, संसार में मनुष्य को अपनी स्त्री अनुकूल रहे तो आनंद मिलता है और मित्रों को परस्पर भीठे वार्तालाप में आनंद आता है, आदर सहित भूखा सुखा भोजन होवे तो भी वह अमृत तुल्य लगता है, और आदर रहित मिष्टान्न होवे तो भी वह झहर तुल्य लगता है. इस लिये एक कविने कहा है आव नहीं आदर नहीं, नहीं नयनो में नेह; उस घर कवु न जायीए, कंचन वरसे मेह. x ___ वह कन्या विचारने लगी, 'इस में सत्त्व और औदार्य आदि गुण किस प्रकार के हैं, उसकी परीक्षा कर के देखना चाहिये.' रात्रि में वह कन्या महल के अंदर कमरे में अपनी शय्या पर बैठी और पास ही सुंदर दीपिका रखी. और उस शय्या के दोनों तरफ बकरा और घोडा रखवाया. उसके आगे एक मनोहर रत्वमय सिंहासन स्थापित करवाया. जब महाराजा विक्रम दरवाजे के पास आये तो बकरेने पूछा, 'तुम कौन हो? और यहा किसकी शक्ति से आये हो ?' x आव है, आदर है, और नयनों में है स्नेह; उस घर सदा जायीए, यदि पथ्थर वरसे मेह. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OLIDAVINDEEINDEVIISAVRIDAY अपने बाहुबल से भारतवर्ष को ऋणरहित करनेवाले संवत्प्रवर्तक 5 महाराजा विक्रमादित्य ENEZI BRASOV AVENGEAVOAVEDAVENDRED OVEDAVENIENVENIAVENJARIJAVNAVNE NAVED (मु. नि. वि. संयोजित............विक्रमचरित्र तृतीय भाग) चित्र नं. 16 पृष्ट 602 RAYVANSAVENSAVERSALA SA P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ti m HD M Jun Gun Aaradhak Trust M अ T.. iKIP NARRIATRA ANTRAGINIK PAHILPAKHAFIR : T 28 2RROLMER ON SSC 3FM रिristo ट Akee %3DIA SN 4.3 hITILA - ( 44 .UR IIR P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Hom 20 de JUR HARE VEMB राजपुत्री सुरसुंदरी के आगे महाराजा विक्रमादित्य मणीमय सिंहासन पर बैठ कर कथा सुनाते है. पृष्ट 603 (मु. नि..वि. संयोजित विक्रमचरित्र. तृतीय भाग चित्र. न. 47) Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित महाराजाने जवाब दिया, 'मैं स्वबल से यहाँ आया हूँ, तब वह बकरा बोला, 'यदि ऐसा है, तो मेरी स्वामिनी यह जो पलंग पर स्थित हुई है उसे जो चारबार बुलावेगा उस से वह शादी करेगी.' तब महाराजाने अग्निवैताल से कहा, 'तुम्है दीपक में अधिष्ठित होकर मैं जो वार्ता कहूँ उस का स्पष्ट प्रत्युत्तर देनाः' तब अग्निवैताल दीपक में अधिष्ठित हो गया. बादमें महाराजाने दीपक से कहा, 'दीपक ! तुम मेरी बात का उत्तर दोगे?' तो दीपक बोला, 'मैं तुम्हारी बात में होंकारा दूंगा.' महाराजाने राजकुमारी को सुनाते हुए एक कहानी शुरू की 'कौशांबी नगरी में 'वामन' नामक ब्राह्मण रहता था, . उस को 'सावित्री:' नाम की पत्नी, 'नारायन' नामका पुन और 'गावित्री' नाम की पुत्री तथा 'अच्युत' नाम का एक मामा था, वह कन्या बडी हुई, और शादी करने लायक हो गई, यह जान कर उस के माता, पिता, मामा और भाई ये चारों व्यक्ति चारों दिशाओं में गये, और सुंदर वरों की शोध की. उस का वाग्दान संबन्ध तय कर के अपन घर आये. चारोंने परस्पर बात की. इस बातको सुनकर सब लोग आश्चर्य चकित हुए; और चिंता सागर में डूब गये. तय किये हुए मुहूर्त पर विवाह के लिये चारों वर अपने अपने स्वजनों को लेकर आ पहुंचे. जब वे चारों वर गावित्री से लग्न करने आये तो क्रोधित होकर आपस में लडने लगे. एक ने कहा 'मैं इस कन्या से शादी करुंगा.' दूसरेने कहा, 'मैं करूंगा.' इस तरह P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .604 विक्रम चरित्र जब ये चारों लड रहे थे उसी समय एकाएक साप के काटने से वह कन्या क्षणभर में ही मर गई. इस से इस विवाद का बंत आया. . . उन चारों में से एक वर उस के साथ चिता में जल कर मर गया, दूसरा शीघ्र ही उसकी हड्डिया को लेकर : तीर्थ में डालने के लिये चला, तीसरा वर झोपडी बांध कर वहीं स्मशान में रहने लगा, और शिक्षा लाकर उसे पिंड देकर * उस बचे अन्न से निर्वाह करने लगा, चौथा वर पृथ्वी पर ... इधर उधर भटकने लगा, और घूमते घूमते वसंत नगर में आ पहुँचा... .., . यहाँ मुकुन्द नामक ब्राह्मण की पत्नीने उसे भोजन के लिये निमंत्रण दिया. जब वह भोजन करने लगा तो उस समय ब्राह्मणी का पुत्र रोने-चिल्लाने लगा, उसे भोजन परोसने , में विघ्न डालते देखा. उस से माताने एकाएक उस पुत्र को . अग्नि में डाल कर उस ब्राह्मण को भोजन परेसा. यह देख कर उस ब्राह्मण वरने सोचा, 'पहले तो मुझे एक कन्या की हत्या लगी है, और अभी पुनः मेरे कारण से इस बालक की मृत्यु हुई, अर्थात् उसे बालहत्या निरर्थक ही लगी. निश्चय ही मेरी नरक गति है।गी. धिक्कार हा मेरे जीवन को, और पृथ्वी भ्रमण करने को भी धिक्कार हो, तथा बालहत्या द्वारा उदरपूर्ति करानेवाले इस भोजन को भी धिक्कार हो. स्वार्थी जीव इस लोक में Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित - माता, पिता, पुत्री, पुत्र, मित्र आदि के वध आदि दुर्गति देनेवाले कौनसा पाप नहीं करते ? कहा है कि दुःख से भरे जानेवाले इस पेट के लिये मैंने क्या क्या किया ? किस किस की प्रार्थना न की, किसे किसे मस्तक नहीं नमाया ? और क्या क्या योग्य या अयोग्य कार्य न किया ?' - इस प्रकार खिन्न चित्तवाले उस ब्राह्मण को देख वह ब्राह्मणी बोली, 'हे अतिथि ब्राह्मण! आप भोजन कीजिये, मेरा पुत्र जिंदा है, निरर्थक चिंता न करें. भोजन करने के - बाद उस स्त्रीने घर में से कुछ चूर्ण लाकर अग्नि में डाल कर क्षणभर में पुत्र को जीवित किया, क्यों कि मंत्र तंत्र मणिचूर्ण महौषधि आदि वस्तुओं का जगत में इष्ठफलं देनेवाला अपूर्व प्रभाव होता है. . .... वह ब्राह्मण उस स्त्री के पास से थोडा चूर्ण मांग कर * ले आया, और जिस जगह कन्या को जलाया था, वहां की रक्षा लेकर उस में चूरण डाल कर उस गावित्री कन्या को जीवित किया, कन्या के साथ मरा हुआ ब्राह्मण भी उस के साथ जीवित हो गया, और इधर तीर्थ स्थान पर गया हुआ ब्राह्मण भी एकाएक वहाँ आ गया. उस समय रूपवती कन्या को जीवित देख कर पुनः इन चारों में पूर्ववत् झगडा होने लगा. तब विक्रम महाराजा बोले, 'हे दीप ! तुम कहो कि * मंत्रतंत्रमणिचूर्ण महौषध्यादिवस्तुनः ... अचिन्त्यो विद्यते लोके प्रभावोऽभीष्टदायकः // स. 12/78 / / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महार विक्रम चरित्र - वह कन्या किसे वरण करेगी ?' दीपक बोला, 'यह तो मैं नहीं जानता.' तब महाराजाने कहा, 'जो इस बात का उत्तर जानते हुए भी नहीं देगा. उसे सात गांव के जलाने का पाप लगेगा.' हत्याजनित पाप के भय से शय्या पर स्थित वह राजकुमारी सुरसुंदरी शीघ्र ही इस प्रकार बोली, 'तीर्थ में अस्थि डालनेवाला पुत्र हुआ, जीवित करनेवाला पिता बना, जो साथ में उत्पन्न हुआ वह भाई बना, अतः पिंड देनेवाला ही उस का पति बनेगा.' इस प्रकार महाराजा विक्रमने उस राजकन्या को एकबार बुलाया. फिर महाराजाने अग्निवैताल को घोडे में स्थापन होने के लिये कहा, और फिर पूछा, 'हे घोडे ! अब तुम मुझे उत्तर दोगे?' घोडा बोला, 'मैं तुम्हारी बातों का जवाब दूंगा.' तब सुरसुंदरी के सुनते हुए महाराजाने दूसरी कथा शुरू की. घोडे में रहा हुआ अग्निवैताल होकारा देने लगा. चार मित्रों की कथा शंख नामक नगर में सुथार, दोशीबनिया, सेानी और ब्राह्मण ये चार मित्र रहते थे. वे चारों परदेश जाने के लिये अपने नगर से रवाना हुए. चलते चलते वे एक अटवी में आ पहुंचे. सूर्यास्त हो जाने के कारण वहीं एक वृक्ष के नीचे रात्रि व्यतीत करने का उन सबने निश्चय किया. 'वन में जागते हुए व्यक्ति को कोई भय नहीं होता.' यह सोच कर वे चारों P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित प्रहर में अपनी अपनी बारी से एक एक प्रहर जागते रहने का . निश्चय कर वहाँ ठहरे. MERENCE HALAHIRISM AMROHA MEHATANAMO (SHOKyu maa NAM स्वाज દલસુખ सुथार प्रथम प्रहर में पुतली को घड़ रहा है. चित्र न. 48 पहले प्रहर में सुथार के जागने की वारी थी. उसने अपनी बारी के समय लकडी में से सोलह वर्ष की एक सुन्दर कन्या की पुतली बनाई. दूसरे प्रहर में दोशी बनिये की बारी आई, तब उसने उस काष्ठपुतली को सुन्दर वस्त्रों द्वारा सज्जित कर दी, तीसरे प्रहर में सोनीने उस पुतली को आभूषणों से सजाया, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / विक्रम चरित्रः - - चौथे प्रहर में उस ब्राह्मणने मंत्र से उस सुंदर रूपवाली पुतली को मंत्र द्वारा जीवित बना दिया. सुबह वे चारों उस सुंदर रूपवती कन्या से विवाह करने के लिये आपस में विवाद करते-लडने लगे. 4 554 HT TAK FROrammer -5 . 0. SPECAT Gua Np WORDS कपड़े का व्यापारी पुतली को सजा रहा है. चित्र न. 49... महाराजा विक्रम बोले, 'हे घोडा! वह स्त्री किस की होगी ?' घोडा बोला, 'मैं नहीं जानता कि वह स्त्री किस की होगी ?' पुनः महाराजा विक्रम बोले, 'यह जानते. हुए P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित भी जो नहीं बोलेगा उसे सात गावों के जलने से होनेवाली हत्या का पाप लगेगा.' हत्या के भय से शय्या में स्थित वह सुरसुंदरी बोली, - 'जिसने पुतली का निर्माण किया वह उस कन्या का पिता हुआ, जिसने उसे कपडे आदि पहनाये वह मामा हुआ, और जिसने उसे जीवित किया वह उस का गुरु हुआ, अतः जिसने उसे आभूषण पहनाये वह उसका पति होगा.' इस प्रकार दूसरी बार सुरसुंदरी के बोलने पर महाराजाने फिर उस अग्निवैताल को, भद्रासन-सिंहासन में अधिष्ठित किया और कहा, 'हे भद्रासन ! मैं कथा कहता हूँ, तुम मुझे उत्तर-होंकारा दोगे?' सिंहासनने उत्तर दिया, 'बोलने तो नहीं जानता हूँ, किन्तु मैं तुम्हारी बात में हाकारा करुंगा.' तब महाराजाने सुरसुंदरी के सुनते हुए तीसरी कथा कही- . . दो मित्र की कथाः 'प्राचीन काल में विक्रमपुर नगर में सोम और भीम नामके दो मित्र थे, उस सोम का विवाह ध्वरापुर में हुआ था, अपनी प्रिया को ससुराल से लाने के लिये सोम कई बार ध्वरापुर गया, लेकिन वह भोली-मुग्ध बुद्धिवाली स्त्री पीहर से घर नहीं आती थी. सच कहा है कि-'स्त्री को पीहर में,, पुरुष को ससुराल में, और संयमी-चारित्रधारी को गृहस्थी लोग P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र के साथ सहवास लंबे समय के लिये है। तो ये तीनों शोभा नहीं देते.' . इस तरह सेोमने बहुत दिन तक मन ही मन दुःखी हो कर, अपने प्यारे मित्र भीम से कहा, 'मेरी पत्नी पीहर से मेरे घर नहीं आती है, अब मैं क्या करूं? कहा है कि मित्र 'परम विश्वास का एवं सलाह का स्थान है. लेना देना पूछना, गुप्त बताना भेद; . खाना पीना परस्पर, मैत्री के है छः भेद. भीमने सोम से कहा, 'एक बार और चलो, में साथ ‘आकर भौजाई-भाभी को समझाने का प्रयास करं नहीं तो और कोई उपाय करेंगे.'-अतः भीम स्वयं एक बार अपने मित्र की '' पत्नी को लाने के लिये सोम के साथ चला. रास्ते में भट्टारीका देवी का मन्दिर आया. भीम देवी को प्रणाम करने का बहाना करके मित्र सेाम को रथमें ही छोडकर मन्दिर में गया, नमस्कार कर देवी से इस प्रकार कहा, 'हे देवी! यदि मेरे बचनसे मेरे मित्र की पत्नी मित्र के घर आ जायगी, तो अपना शिर दे कर तेरी पूजा करूंगा.' जब वे दोनों वहां गये तो उस की-सोम की पत्नी हर्षित हुई, और भीम के समझाने से उसने सोम के घर आना स्वीकार किया. सोम और भीम दोनों मित्र उसे लेकर -लौटे. और दोनों खुशी से अपने नगर के प्रति शीघ्र रवाना हुए, रास्ते में देवीका मन्दिर आने पर देवी को नमस्कार करने के Jun Gun Aaradhak Trust Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित HEATREORA Dain बहाने से भीम रथ की डोरी अपने मित्र को सौंप कर देवी के मन्दिर में गया. और उसने अपने शिर को छेद कर देवी KAS की पूजा की. सामने मित्र के बहुत देर होने परभी न आनेके कारण रस्सी पत्नी के हाथों में दी, और देवी के मन्दिर में गया. वहां nanm dision मित्र का शिर कटा (भी देवी के मन्दिर जा रहा है. ) हुआ देख कर उसने चित्र न. 50 भी अपना शिर काट डाला. दोनों के न आने से थोडी देर राह देख कर सेम की पत्नी भी वहां गई. वहां देवी के आगे पति और देवर के शिरों को कटे हुए देख कर वह चकित और आहत हुई,. 'यह क्या और कैसे हुआ ? ' सेम की पत्नीने विचार किया ' ' मरे हुए पति को छोड कर मै ससुराल जाउंगी तो लोग कहेंगे कि पति और देवर को मार कर यह आई है, और पीहर जाउंगी तो भी लोग यही निन्दा करेंगे. अतः पति की तरह मेरी भी मृत्यु देवी के सामने ही हो यही अच्छा है.' . इस प्रकार विचार कर उसने पास ही पड़ी हुई छरी ली, और अपने गले में मारने लगी, इतने में देवी प्रगट होकर बोली, 'हे स्त्री ! तुम साहस न करो.' देवी का वचन सुन कर बोली, 'तो तुम अपने दोनों सेवकों को जीवित करदों.' P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . विक्रम चरित्र . fuupNDENT METER UES AGO तब भट्टारी का देवीने कहा, 'तुम इन दोनों के मस्तक उन के ‘धड़ से मिला दो.' यह सुन कर जलदी . में अपने पति और का देवर के मस्तकों को उलटे लगा दिये. (देवी के मन्दिर में...चित्र न. 51) अर्थात् पति के धड़ - ‘पर देवर का मस्तक और देवर के धड़ पर पति का मस्तक जोड दिया, तब देवीने उन दोनों को शीघ्र सजीवन कर दिये. - इस प्रकार वार्ता कह कर महाराजा विक्रमने कहा, ' 'हे अद्रासन! तुम कहो वह पत्नी किस की होगी ?' तब भद्रासनने कहा, 'मैं यह नहीं जानता, कि वह किस की पत्नी होगी ?' तब महाराजा विक्रमने कहा, 'यहाँ पर यह बात जानता हो और फिर भी नहीं बोलेगा, उसे सात गाव के जलाने की हत्या का पाप लगेगा.' .. यह सुन कर हत्या के भय से शय्या में रही हुई उस सुरसुंदरीने कहा, 'जिस के धड़ पर पति का मस्तक वही 'उस का पति होगा. क्यों कि शरीर में मस्तक की ही प्रधानता है.' इस प्रकार बुद्धिद्वारा विक्रमदित्य महाराजाने सुरसुंदरी का तीसरी बार बुलाया. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित इस के बाद अग्निवैताल को शय्या में अधिष्ठित करके : विक्रम महाराजा बोले, 'हे शय्या ! तुम मेरी बात का जवाब दोगी ?" तब वह शय्या बोली, 'मैं तुम्हारी बातका हकारा : रूपी जवाब दूंगी.' विक्रमादित्य महाराजा उस राजकुमारी के सुनते हुए, इस प्रकार की कथा कहने लगे. विश्वरुप राजा की कथा . 'बेन्नाट नगर में 'विश्वरूप' नामक एक राजा था, उस के सूर नाम का एक सेवक था, उस सेवक को शीलवती कमला नाम की पत्नी व वीरनारायण नाम का पुत्र था. उस को भी पद्मावती नाम को विनयवती पत्नी थी. वीरनारायण को विशिष्ट प्रकार का सेवक जान कर खुश होकर महाराजाने एक लाख की आयवाला एक नगर उसे दे दिया, और उसे अपना अंगरक्षक बनाया. अतः वह रात को दरवाजे के बाहर तलवार लेकर महाराजा की रक्षा के लिये जागता रहता था. कहा है कि इशारे से तत्त्व को जाननेवाला, प्रिय वाणी बोलनेवाला, देखने में प्रिय लगनेवाला, एक बार कहने से समझनेवाला चतुर प्रतिहारी प्रशंसनीय है, . ... ___ एक बार रात में महाराजाने करुण स्वर से रुदन करती हुई स्त्री की आवाज सुन कर वीरनारायण को कारण जानने के लिये भेजा. वीरनारायणने स्मशान में जाकर रोती हुई स्त्रोको.. * रोने का कारण पूछा, उस समय महाराजा भी कौतुक से उसके पीछे पीछे आये थे, वे भी छीप कर उन दोनों के संवादों को सुनने लगे. वीरनारायण के कारण पूछने पर उस स्त्री ने कहा, 'मैं P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 614 विक्रम चरित्र इस राज्य की अधिष्ठात्री देवी हूँ. आज 64 योगिनियों अपनी तृप्ति के लिये यहां के महाराजा को लाकर अग्नि के जलते हुए कुंड में डालनेवाली हैं. महाराजा के उसमें जलजाने पर राज्य सूना हो जायगा. अतः मैं निराधार और दुःखित बनूंगी. इस राजा के कोई साहसी सेवक नहीं है जो अपने शरीर का भोग देकर महाराजा की रक्षा करे.' वीरनारायण बोला, 'मैं ही महाराजा के सेवकों में मुख्य हूँ. हे देवी! मुझे महाराजा की रक्षा की विधि बतलाओ, जिस से मैं तुम्हारे कथनानुसार करूँ.' देवी बोली, 'वह काम किसी से भी करना शक्य नहीं है,' तब वीर बोला, 'मुझे बताओ, शक्य अशक्य का क्या प्रयोजन है ? क्यों किनीच पुरुष विघ्न के भय से काम का प्रारंभ ही नहीं करते, मध्यम पुरुष कार्य प्रारंभ करके भी विघ्न आने से बीच में ही रुक जाते. SANI है, लेकिन उत्तम पुरुष हजार प्रकार के विघ्न आने पर भी (वीरनारायण और देवी. चित्र. न. 52) प्रारंभ किये हुए काम को नहीं छोडते.' तब देवी बोली, 'हे वीर ! बत्तीस लक्षणवाले पुरुष / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 615 . बिना योगिनियों का कार्य सिद्ध नहीं हो सकता, राजा और तुम दोनों ही बत्तीस लक्षणवाले उत्तम पुरुष हो.' तब वीरनारायण बोला, 'महाराजा तो समस्त राज्य का आधारभूत है. कहा है कि - जिस पुरुष द्वारा कुल का अथवा जगत का कल्याण हो या सब को सुख उत्पन्न हो, उस मनुष्य की अपने शरीर तथा द्रव्य से भी रक्षा करनी चाहिये, जैसे चक्र में मध्यभाग का तुम्बी टूट जाय तो उस पर आधार रखनेवाले आरे कभी नहीं रह सकते, इसी तरह कुल के अधिपति मुख्य मनुष्य बिना अन्य मनुष्य नहीं रह सकते. __आगम में भी कहा है-जिस पुरुष पर वंश आश्रित हो, उस पुरुष की आदरपूर्वक रक्षा करनी चाहिये. मैं उसी राजा का सेवक हूँ. और मेरे मरने से जगत को कुछ नुकशान नहीं होगा, अतः हे देवी! कुछ देर ठहरा मैं अपने शरीर को अग्नि में डालता हूँ.' इतना कह कर शीघ्र ही वह घर गया और अपने माता पिता को सारी हकीकत कह दी. और उन्होंने भी सहर्ष उसे अनुमति दे दी. अनुमति पाकर वह शीघ्र ही घर से रवाना होकर देवी के पास चला, और देवीके पास आकर पूछा, 'हे देवी ! अब मैं क्या करूं ?' देवीने कहा, 'स्नान कर के इस अग्निकुंड में कुद पडो.' देवी के कथनानुसार उसने अपने शरीर को अग्नि में डाल दिया. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... विक्रम चरित्र - - उस के माता पिताने पुत्र विना अपना जीवन निरर्थक है, और उसकी पत्नीने भी पति बिना जीवन निर्थक है, विचार कर के जिस कुंड में वह गिरा था उसी कुंड में आकर स्वयं भी कुद पडे. यह सब वृक्ष की आड में छोपे हुए महाराजाने देखा तब उसने विचारा, 'उन चारों की मेरे निमित्त हत्या हुई है, मेरे जीने से क्या ?' अतः वे भी अग्निकुंड में कूदने के लिये तत्पर हुए, तब देवीने प्रकट होकर महाराजा को दोनों हाथों से पकड कर रोका, महाराजाने कहा, 'तुम कौन हो, जो मेरे इस कार्य में अन्तराय करती हो.' देवी वाली, 'मैं इस राज्य की अधिष्ठायिका हुँ.' हे राजन् ! कुंड में कूदने का साहस मत करे.' महाराजाने कहा, 'हे देवी! यदि तुम इन मनुष्यों को जीवित करोगी तो ही मैं जीवित रहूँगा. अन्यथा नहीं.' . तब देवीने थोडा पानी छांटा और क्षण मात्र में सब जीवित हो गये. तब महाराजा बोला, 'हे देवी! तुमने खूब इन्द्रजाल फैलाया.' तब देवी ने कहा, 'तुम्हारी तथा इन सब मनुष्यों की परीक्षा करने के लिये ही मैने यह जाल किया है.' उस से चमत्कृत हुआ, महाराजा आदि सब लोग देवी को नमस्कार करके घर आये. और गाव नगर आदि देकर सेवक का महाराजाने अधिक आदर किया. महाराजा विक्रमादित्य बोले, 'हे शय्या ! उन महाराजा P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित आदि में सब गुणों में मुख्य साहस गुणवाला साहसिक कोन था?' शय्या बोली, 'हे राजन् ! मैं नहीं जानती, कि उन में अधिक साहसी कौन है. महाराजाने कहा, 'जो जानते हुए भी इस का जवाब न देगा, उसे सात गावों को जलाने का पाप लगेगा.' उस समय हत्या के भय से शय्या में रही हुई उस राजकन्याने कहा, 'निश्चय ही महाराजा को उन चारों में अधिक सत्त्वशाली जानना चाहिये. क्यों कि महाराजा ही पृथ्वी का आधार है, सेवक नहीं.' इस प्रकार महाराजाने रात में कन्या को चार बार बुलाया अर्थात् महाराजा के प्रश्नों का उत्तर देने के लिये उसे चार बार बोलना पडा. प्रभात में सुंदर महोत्सवपूर्वक महाराजाने उस के साथ लग्न किया, तत्पश्चात् तिलंगदेश के राजा-सुरसुंदरी के पिताने कहा, 'हे महाशय ! उठिये और भोजन कीजिये.' विक्रमादित्य महाराजाने कहा, 'मैं ने चक्रेश्वरी देवी को सवालाख सोनामहोर भेट करने की मानता की है. अतः उसे दिये विना मैं भोजन नहीं करूंगा.' तब कन्याने भी यही कहा, अर्थात् सवालाख सोनामोहरों की मानता उसने भी की थी. भेरी आदि वाद्यों के शव्दपूर्वक महाराजा विक्रम अपनी प्रिया सहित चक्रेश्वरी देवी के मंदिर में गये, वहाँ उन दोनों ने अलग अलग भक्तिपूर्वक सवा लाख सोनामोहर देवी के सामने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. विक्रम चरित्र रखी, फिर गुरु को नमस्कार और गुणगान कर के पत्नी सहित अपने स्थान पर गये, आनंदपूर्वक सब लोगोंने भोजन किया. सुरसुंदरी को लेकर विक्रमादित्य महाराजा अग्निवैताल के साथ महोत्सवपूर्वक अपने स्थान पर लौटे. उसके रहने के लिये एक बडा महल बनवाया. रातदिन न्यायमार्ग से राज्य करते हुए उनका सुखपूर्वक समय बीतने लगा. इस प्रकार प्रथम चामरधारिणी स्त्रीने विक्रमादित्य महाराजा का रोमांचकारी वृत्तान्त कहा, फिर उसने विक्रमचरित्र को / कहा, "हे राजन् ! आप महाराजा विक्रमादित्य के समान कैसे हो सकते हो ?" पाठकगण ! अपनी बुद्धि-चतुराई से राजपुत्री सुरसुदरी को चार बार बुलवा कर उस से उत्सवपूर्वक विवाह किया. जब तक मनुष्य का पुण्य भंडार बलवान है, तब तक सर्वत्र उस को जय मिलता है. इस लिये हरेक प्राणियों को चाहिये की दया, परोपकार, प्रभुस्मरण, देवपूजा आदि मानवजीवन को सफल करनेवाले सद्कर्तव्य करते रहना, इस भव में और परभवमें वहीं पुण्य सदा सहाय करते है. बुद्धिमान मानव को अधिक कहने की क्या आवश्यकता. सुत दारा और लक्ष्मी, पापी के भी घर होय; संत समागम प्रभु-भजन, ए दो दुर्लभ होय.' P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust . Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छासठवाँ-प्रकरण सज्जन-दुर्जन जाणीए, जब मुख बोले वाणी; सज्जन मुख अमृत झरे, दुर्जन विक्की खाणी. रुक्मिणी का कंकण .. अब विक्रमचरित्र महाराजा के सामने दूसरी चामरधारिणी ने सभा के समक्ष अमृततुल्यवाणी से विक्रमादित्य महाराजा के एक जीवन प्रसंग का वर्णन करना आरंभ किया. " एक बार महाराजा विक्रमादित्य की राजसभा में कोई पंडित आया, और उसने यह अपूर्व कथा सुनाई. . 'चम्पकपुर' नगर में 'चम्पक' राजा राज्य करता था. उस की स्त्रियों में उत्तम शीलवती 'चम्पका' नाम की पत्नी थी. उस नगर में 'देवशर्मा' नामका ब्राह्मण था. और उसकी 'प्रीतिमती' नामकी स्त्री थी. जिस प्रकार पूर्व दिशा में रोहिणी का जन्म होता है, उसी प्रकार उसने सुंदर रूपवाली कन्या को जन्म दिया. पति आदिने उसका 'रुक्मिणी' नाम रखा. वह धीरे धीरे बडी होने लगी, और उसके तुतलाते हुए शब्द मातापिता को. आनंद देने लगे. .. जब वह आठ वर्ष की हुई तो उस की माता प्रीतिमती दैवयोग से मृत्यु को प्राप्त हुई. देवशर्माने अपने अपनी पत्नीका मृत्युकार्य सभी संबन्धियों को बुलाकर विधिपूर्वक किया. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र क्रमशः सूक्मिणी बड़ी होने लगी, घरकार्य करके, हमेशा यथा समय अन्नादि जिमाने से तथा भक्ति और विनयादि गुणों के कारण पिता को अपनी पुत्री पर असीम स्नेह रहा. देवशर्मा के पडोश में एक कमला नाम की विधवा ब्राह्मणी रहती थी, वह देवशर्मा को अपना पति करना चाहती थी. अतः उसे इस प्रकार कहने लगी, 'हे ब्राह्मण ! तुम्हारी प्रिया मर गई है, और तुम्हे स्वादिष्ट भोजन करने को चाहिये, यह तुम्हारी पुत्री छोटी है, और अच्छी तरह रसोई करना नहीं जानती. अतः किसी दूसरी स्त्री से तुम शादी कर लो. नई पत्नी करने से तुम्हे सुख प्राप्त होगा, अभी तुम्हारी उम्र कम है. अतः कोई भी ब्राहाण तुम्हें अपनी कन्या देगा.. बुढापा आने पर तुम्हें कोई भी अपनी पुत्री नहीं देगा. जब तुम्हारी पुत्री युवावस्था को प्राप्त करेगी, और तुम किसी वर के साथ विवाह कर दोगे, और वह अपने ससुराल चली जायगी, तब तुम्हारी दशा क्या होगी? मेरे शब्द आहे जाकर अत्यंत सुखकारी होंगे यह तुम्हें स्पष्ट जान लेना. कहा भी है स्त्रियों का भी हित, मित, और सुखकर वचन ग्राह्य होता है, और भाइयों का भी दुःखप्रद वचन त्याज्य होता है.x x हित मितं च सुखद वचो ग्राह्यं स्त्रियामपि, त्याज्य दुःखप्रदं वाक्य बान्धवानामपि तम / स. 12/190 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust 0 Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित , यह सुन कर ब्राह्मणने कहा, 'मैं अब दूसरी पत्नी नहीं करना चाहता, क्यों कि कोई भी स्त्री पहले की प्रिया समान नहीं मिलेगी, फिर मेरी यह पुत्री भोजन आदि देकर मेरी भक्ति करती है, जिस से मैं अपनी पत्नी को भी भूल गया हूँ.' : कमल की कपटजाल. तब उस कमलाने सोचा, 'मैं कुछ ऐसा कर कि जिस से इस का पुत्री उपरसे प्रेम कम हो जाय.' ... अब वह कमला ब्राह्मणी कई बार मोका देख कर गुप्तरूप से रुक्मिणी के न जानते हुए रसोई में अधिक नमक डाल जाती, और पुनः चुपचाप अपने घर चली जाती. कभी कभी वह रसोई में कचरा भी डाल कर चली जाती, कडवी व खारी रसोई देख कर पिता पुत्री से कहता, 'हे पुत्री ! तूने रसोई कडवी क्यों बनाई ?' तब पुत्री उसे जवाब देती, 'पिताजी, मैंने रसोई कडवी नहीं बनाई.' इस प्रकार वह ब्राह्मण हमेशा ऐसे भोजन से दुःखी होने लगा. धीरे धीरे उस का पुत्री पर से स्नेह कम हो गया, फिर वह उस विधवा ब्राह्मणी के आगे जाकर कहने लगा, 'यह कन्या मुझे हमेशा कडवी रसोई खाने को देती हैं.' ... कमला बोली, 'मैंने तुम्हें पहले ही कहा था, पर तुमने माना नहीं.' तब ब्राह्मणने उसे कहा, 'तू मेरे लिये दूसरी पत्नी ढूढ कर ले आ.' तब कमलाने अन्य कन्या के लिये P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 / विक्रम चरित्र प्रयास किया लेकिन कहीं भी कोई ऐसी बडी कन्या न मिली, जिस से ब्राह्मण दुःखी हुआ. यह देख वह ब्राहमणी बोली, 'जो तुम्हारी इच्छा हो तो मैं तुम्हारी पत्नी बन जाऊँ.' ब्राहमण बोला, 'तू मेरी पत्नी बन जाय तो बहुत ही अच्छा हो, क्यों कि यदि रोगी की जो इच्छा हो और वही वैद्य खाने को दे, तो रोगी को बहुत आनंद होता है.' - तब ब्राहमणने कमला को अपने घर में रख लिया. उसने भी स्नान कराने और अन्नपानादि से ब्राह्मण को खुश खुश किया. नीति में कहा भी है, हाथी एक वर्ष में वशमें आता है, घोडा एक महिने में, लेकिन बी तो पुरुषको एक दिन में ही वश में कर लेती है.' कमलाने एक दिन अपने पति से कहा, 'अन्य जनों के बालक गायें चराने के लिये हमेशा बाहर जाते है, पर अपनी पुत्री नहीं जाती.' पत्नी के वचनों को मानकर देवशर्माने पुत्री को गायें चराने के लिये बाहर भेजा. वह कमला रुक्मिणी को चाहे जैसा वैसा कुछ भोजन देने लगी और कठोर वचने द्वारा उसे बहुत दुःख देने लगी. इस प्रकार अपर माता कमला के दुःखदायी वचनों को सहन करती हुई, और गायों को चराती हुई रुक्मिणी मन ही मन बहुत दुःखो होने लगी. कहा है वालक के लिये माता का मरना, युवावस्था में पत्नी का मरना और वृद्धावस्था में पुत्र की मृत्यु तीनों बडे दुःखदायी होते है. इस प्रकार खिन्न मनवाली रुक्मिणी हमेशं गायों . . को चराती थी. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद X SAMA Ran/ w 61440 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित - -...एकदा वह इस प्रकार गायें चराती हुई वन में करील वृक्ष के नीचे आराम कर रही थी. उधर स्वर्ग में इन्द्र के पुत्र मेघनाद की पत्नी मेधवतीने नारद के आने पर * उनका आदर नहीं किया, अतः नारद उस से नाराज हुए और नारद मन में विचार करने लगे, ( रुक्मिणी और नारद चि. न. 53) : यह स्त्री बहुत गर्व ___ रखती है, अतः बुद्धिपूर्वक इस के गर्व का खंडन करना चाहिये. जो व्यक्ति दुष्ट आचरणवाली और गर्विष्ट होती है, वे अपने ही किये कों से महान् अनर्थ अथवा संकट में पडती है. इतना सोचते हुए नारद पृथ्वी पर आये, और उन्होंने रुक्मिणी को करील के पेड के नीचे बैठी हुई देखा. तब वे पुनः स्वर्ग में गये और इन्द्र के पुत्र मेघनाद से कहने लगे, 'हे मेघनाद ! पृथ्वीतल पर मैंने एक ब्राह्मण की पुत्री को देखा है वह अतीव सुंदर स्वरूपवाली है, उस के समान सुंदर देवलोक में कोई देवांगना भी नहीं होगी, यदि वह तुम्हें पसंद हो तो हम दोनों वहां जाय.' मेघनादने कहा, 'हम दोनों उस कन्या को लेने के लिये वहाँ जाय.' इस प्रकार विचार कर मेघनाद नारद के साथ .. 'पृथ्वीतल पर आया. वहाँ उसने रुक्मिणी से गांधर्व विवाह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र किया, और उसे स्वर्गलोक में ले जा कर अलग स्थान में रखा. मेघनादने नारद का बहुत सन्मान किया, उस के बाद नारद तप करने के लिये आकाश मार्ग से पृथ्वीतल पर आ उत्तरे. _ अब मेघनाद उस रुक्मिणी के साथ दिनरात निरंतर सुखभोग करने लगा, और अपनी पहली प्रिया मेघवती को भल ही गये. उधर मेघवतीने जब देखा कि आज कल बहुत समय से मेघनाद नहीं आते तो उसने अपनी सखी से बात की, 'आजकल वे इधर कभी भी नहीं आते. अत्तः कहां रहते है ? तुम इस बात की जांच करो.' तब सखीने मेघनाद की तलाश की, और उसे मनुष्य पत्नी के साथ देखा तो वह आ कर अपनी स्वामिनी से इस प्रकार बोली, 'हे स्वामिनी! तेरे पतिः / विषयक्रीडा में आसक्त हो कर मनुष्य स्त्री के साथ विमान में अन्यत्र रहते है.' यह सुन कर मेघवतीने अपने पति को बुलवाये तब भी वे नहीं आये, तब वह सोचने लगी, ‘निश्चय ही मुझ से नाराज हुए नारदने दूसरी स्त्री के साथ विवाह करवाया है. सच ही शास्त्र में कहा है-- ____ परस्पर कलह करवानेवाले, मनुष्यों को युद्ध आदि में मरवानेवाले और सावद्ययोग में प्रवृत्त होने पर भी नारद सिद्धपद को प्राप्त करते है, उस में एक शील के पालन का ही महात्म्य है. + . +कलिकारओ वि जणमारओ वि सावज्जजोगनिरओ वि; जनारो वि सिज्झइ तखलु सीलस्य माहप्प. / / स. 12/225 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित __मैंने पहले एक समय आते हुए नारद का सन्मान नहीं किया था, अतः संभव है कि, उन्होंने मेरे लिये यह दुःखदायक अवसर उत्पन्न किया है. यदि मैं पुनः नारद का सन्मान करतो वह भोले भाले ऋषि पुनः ठीक कर देंगे जिस से मेरे पति निर तर मेरे ही वश में रहेंगे.' ___कुछ समय बाद एकदा नारद ऋषि पुनः स्वर्ग में आये, तब उसने आदर सहित स्वागत आदि करके उन्हें खुश किया, तब नारदने मेघवती से पूछा, 'पहले जब मैं आया था, तब तो तुमने मेरे सामने दृष्ठिपात भी नहीं किया, लेकिन आज तुम किस कारण से इतना आदरसन्मान ... करती हो?' मेघवतीने कहा, 'उस समय किसी काम में लगे रहने के कारण मैंने आप का आदर नहीं किया होगा. अतः मेरा - वह अपराध क्षमा करें और मुझ पर प्रसन्न हो.' नारद ALA ALPHITRAL बोले, पूज्यजनों की पूजा का उल्लंघन करने से इह लोक में तथा परलोक में भी प्राणी दुःखी होते है, कहा है, देवों को (नारद और मेघवती चित्र नं. 54) P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र प्रतिमा भंग करने से तथा गुरुजनों की अवहेलना करने से प्राणियों को दुर्गति तथा दुःख परंपरा प्राप्त होती है.' मेघवती बोली, 'मैंने आप की जो अवज्ञा की वह कृपा करके अब क्षमा करें.' अतः प्रसन्न हुए नारदने कहा, 'तुझे जो कुछ काम हो वह कहे, जिस से मैं वह शीघ्र ही कर दूंगा.' मेघवती बोली, 'मेरा पति मेरी सौत को शीघ्र ही छोड दे, ऐसा करे.' उसका ऐसा कहने पर 'तथास्तु' कहकर ऋषि मेघनाद के पास गये. और बोले, 'देवता लोगों को मनुष्य स्त्री के साथ भाग करना जरा भी योग्य नहीं है, उनके शरीर में रस, खून, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा आदि सात धातु होते हैं.' इत्यादि कई युक्तियों से नारदने-मेघनाद को रुक्मिणी से विमुख कर दिया. तब मेघनादने पूछा, 'इस स्त्री को कहा ' छोडना योग्य है ?' . नारद बोले, 'इस स्त्री को जिस पेड के नीचे से लाये थे * वहीं पर छोडना ठीक है.' नारद के ऐसा कहने पर मेघनादने उस स्त्री को शीघ्र ही उस पेड के नीचे ले जा कर आभूषणे सहित छोड दिया. फिर मेघनाद स्वर्ग में जा कर अपनी पूर्व प्रिया मेघवती के साथ रह कर सुखपूर्वक समय व्यतीत * करने लगा. मेघनाद रुक्मिणी को वहाँ छोड गया, उस के बाद वह . * वहाँसे उठ कर पिता के घरकी तरफ चली. रास्ते में अकस्मात * एक 'कंकण' कई पृथ्वी पर गिर पडा, अन्य सब दिव्य P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 'आभूषणों सहित वह घर गई. तब उसे अपर माताने पूछा; "हे पुत्री ! तू इतने समय तक कहां रही ?' पुत्रीने जवाब दिया, 'मैं स्थान का नाम आदि कुछ भी नहीं जानती, लेकिन मैं इतना जानती हूँ कि जहा मैं रहती थी वह स्थान सूर्य के विमान सदृश तेजस्वी था. और मन को आनंद देनेवाला था, ऐसे घर में मैं सुखपूर्वक अब तक रहती थी. वहाँ दिव्य शरीर के रूप की शोभावाले, दोषरहित मनुष्य रहते हैं, और सुंदर वेशधारी तथा मनोहर हार तथा बाजुबंध आदि द्वारा शोभित है.' ब्राह्मणी भी आभूषणों के लोभसे बोली, “हे पुत्री ! तुम्न घर आई वह बहुत अच्छा किया, चिन्ता से कई स्थानों पर तेरी खोज को थी. आज मेरे सद्भाग्य से तू यहाँ आ गई है, उस ब्राह्मणीने विचार किया, 'मैं अपनी पुत्री लक्ष्मी के लिये छल कपट से सभी आभूपण इस से ले लूंगी.' थोडी देर के बाद कमला बोली, 'हे पुत्रो! यदि तेरे यह आभूषण आदि राजा देखेगा तो ले लेगा, ऐसा कह कर उस दुष्ट बुद्धिवालीने उस के सत्र आभूषण उतार कर ले लिये.. और अपनी पुत्री के लिये किसी गुप्त स्थान में रख दिये. . . . एक बार वहाँ का राजा गांव के बाहर सुंदर घोडों को लेकर क्रीडा करने गया था. वहाँ घोडे के पैर के खुर के आघात से रुक्मिणी का गिरा हुआ एक दिव्य कंकण प्रगट हुआ, और उसे राजाने देखा. राजाने उसे ले लिया और अपनी पट्टरानी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 628 विक्रम चरित्र को दिया. वह दिव्य कंकण देख के पटरानीने कहा, 'हे राजन! ऐसा ही दूसरा कंकण मुझे ला कर दो.' राजा बोला, 'हे प्रिये ! मुझे एक ही कंकण मिला है.' तब पटरानी बोली, 'मुझे लगता है कि आपने दूसरा कंकण किसी दूसरी रानी को दिया है, अतः यदि आप अभी दूसरा कंकण ला कर दोगे तो ही मैं जीऊंगी नहीं तो अग्नि"प्रवेश करूंगी: कहा है कि 'वजूरलेप, मूर्ख, स्त्री, बदर, मछली, काले रंग का दाग और शराब पीनेवालों का कदाग्रह एकसा ही होता है, - अर्थात् ये अपनी पकडी बात कभी नहीं छोडते.' / राजाने राजसभा में आ कर मांत्रियों से बातचीत की, मांत्रियोंने कहा, 'हे राजन् ! ऐसा दिव्य कंकण इसी नगर में किसी के पास होना चाहिये.' यह अपनी प्रिया के कदाग्रह के कारण राजाने कंकण प्राप्त करने के लिये मनियों के साथ मंत्रणा की और नगर में एक बड़ी भोजनशाला शुरू - की, राजाने यह भी घोषणा करवाई, 'जो स्त्री पुरुष अपने अपने आभूषण पहन कर कुटुंब सहित इस भोजनशाला में * भोजन करने आयेंगे, उन्हे राजा बहुत सा द्रव्य देकर सन्मान - करेगा.' इस से कई लोग सुंदर वस्त्र आभूषण पहन कर भोजन करने आने लगे... तब वह ब्राह्मणी भी अपनी पुत्री लक्ष्मी को रुक्मिणी के कंकणादि सब आभूषण पहना कर लोभ से शीघ्र ही उस P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित - 'भोजनशाला में भोजन करने आयी. ब्राह्मणी की वह पुत्री कानी थी. अतः उसे देख कर मत्रियोंने विचार किया कि, ये आभूषण इस के कदापि नहीं हो सकते . यह सोच कर मत्रियोंने आभूषण के बारे में उसे पूछा, ‘परंतु उसने कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया, तब चाबुक आदि द्वारा उसे शिक्षा दी और पूछा, 'यह आभूषण किस के हैं ? सत्य बताओ, यदि न बतायेगी तो तुझे खूब मार पडेगी.' इस से डर कर उसने कहा, 'यह मेरी बहन रुक्मिणी के आभूषण हैं.' तब राजाने उस रुक्मिणी को बुलवाया और उस को देख कर वह राजा उसके रूप पर मोहित हो गया. उस के पिता को सन्मानित करके उत्साहपूर्वक राजाने उस से विवाह कर लिया. राजा आनंदपूर्वक समय बिताने लगा. तत्पश्चात् राजाने छल से वह कंकण अपनी पटरानी से ले लिया और नई पली को दे दिया. राजा उस में पूर्ण आसक्त हो गया. और अब वह पहली पत्नी का नाम भी . नहीं लेता. नब पहली रानीने राजा से कंकण मँगवाया तो राजाने कहा, 'दूसरे कंकण विना तुम काष्ट भक्षण करेगी, अतः उस ककण से तुम्हें क्या प्रयोजन है ?' कंकण प्राप्त करना असंभव जान कर पहली रानीने काष्ठभक्षण का निर्णय शीघ्र छोड दिया. इधर समय बीतने पर अच्छे सुंदर स्वप्न से सूचित शक्मिणीने एक पुत्र को जन्म दिया. उस समय अपने स्वजनों / का सन्मान कर के राजाने उस का बडा जन्मोत्सव मनाया. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 630 विक्रम चरित्र उस ब्राह्मणीने अपने पति से कहा, 'अब हम अपनी पुत्री रुक्मिणी को घर लावे, क्यों कि पुत्री को पुत्र हुआ है, अतः उसे कुछ समय के लिये पीहर लाना चाहिये. यदि पिता अपनी पुत्री को घर पर न लावे तो लोग हमेशा पिता पर आक्षेप करते हैं.' अपनी पुत्री को बुलाने के लिये उसने अपने पति को राजा के पास भेजा. वह राजा के पास जाकर स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार बोला. 'हे राजन् ! आप मेरी पुत्री को पुत्र सहित मेरे घर भेजे.' परन्तु राजाने उसे भेजना अस्वी कार किया तब, वह ब्राह्मण आत्महत्या करने को तत्पर हुआ. ब्राह्मण को मरने के लिये तत्पर देखकर राजाने पत्नी को भेजा और ब्राह्मण पुत्री को लेकर अपने घर गया. तब वह सौतेली माता छलपूर्वक बोली, 'मैंने पहले किसी से सुना हैं कि, स्त्री प्रथमवार पुत्र या पुत्री जन्म देती है, वह एक बार जीर्ण वस्त्र Se पहन कर कुएँ के पानी - में अपने प्रतिबिंब को (MX IAN ANN A AAAAEERAN Hale पुनः संतान प्राप्तिः होती है.' कह कर कमला उसे जीर्ण बस्त्र रात काम जाते पहना कर कुए के कि (कमलाने रुक्मिणी को कुएमें धक्का दिया.) नारे ले गई. जब चित्र न. 55 रुक्मिणी कुएके जल में देख रही थी तब कमलाने उसे धक्का मारकर कुए में गिरा P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित दिया, उस कुए में गिरती हुई रुक्मिणी को नागराज-तक्षकने पकड लिया. PRAKAS ACREATI भूगर्भ द्वारा तक्षक उसे अपने स्थान पर ले गया, उसे अपनी पत्नी बना लिया, और आनंद से रहने लगा. उस के साथ कुए, तालाब तथा उपवनादि में क्रीडा करते समय बीतने लगा. इधर उस क्रूर ब्राह्मण पत्नीने रुक्मिणी के सुंदर वस्त्राल कार आदि अपनी ( राजा-रानी और कंकण, पृष्ठ 628 में देखा) पुत्री लक्ष्मी को पह. चित्र नं. 56 नाये, और उसने रुक्मिणी के पुत्र को स्तनपान कराने के लिये एक धाव माता रखी, क्यों कि राजाओं की रानिया पुत्र को स्तनपान नहीं कराती हैं. फिर लक्ष्मीको ब्राह्मणीने राजा के महल में भेजा. एक आंखवाली लक्ष्मी को देख कर राजाने मन में विचारा 'यह किस प्रकार हुआ ?' राजा के पूछने पर वह बोली, 'हे स्वामी! मैं विषम स्थान में यकायक गिर गई थी, उस / से मेरी आंख में फूला पड़ गया है.' राजाने सोचा, 'निश्चय ही यह मेरी प्रिया नहीं है, 21 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र कोई मायाविनी है,' राजाने उसे पूछा, 'तुझे किसने भेजा है, तब उसने कुछ जवाब नहीं दिया. राजाने उसे चाबुक आदि से खुब मारा तब उसने राजा के सामने अपनी माता का किया हुआ सब काम कह दिया. अपनी प्रिया को कुएं में गिरी हुई जान कर राजाने कहा, “मैं भी उसी कुए में गिरंगा.' मत्रियोंने कहा, 'हे राजन् ! आप छः महिने तक राह देखिये, उतावल नहीं कीजिये. धीरज से सत्र ठोक होगा.' फिर राजाने उस ब्राह्मणी को अपने देश से बाहर निकाल दिया, और उस के बाद अपने पुत्र का पुनः बडे धामधूम से जन्मोत्सव करवाया. अपने पुत्र के जन्मोत्सव का वृत्तान्त तक्षक के मुँह से सुन कर रुक्मिणोने कहा, 'हे कान्त ! मैं अपने पुत्र को देखना चाहती हूँ.' तक्षक की आज्ञा लेकर वह रात में राजमहल में आई, और अपने पुत्र को स्तनपान करा कर उसने गुप्त रूप से पुत्र के लिये आभूषण आदि भी रखे, सुबह राजाने पुत्रके पास सुंदर आभूषणादि देख अपनी पत्नी को आई हुई समझ कर प्रिया को पकड़ने के लिये दूसरे दिन रात्रि में सावधानी के साथ छिप कर खडा रहा.. रात्रि हुई और रुक्मिणी पुत्र को स्तनपान कराने के लिये आई, तब राजाने उसे पकडना चाहा पर पकड न सका, अव: दूसरे दिन राजा विशेष रूप से सावधान रहा, उसने अपनी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित -ALL श RaIHAR /-BKCLES पत्नी को स्तनपान कराते हुए अच्छी तरह देखा. राजाने जाते समय अंचल को पकड लिया, और अपनी उस पत्नी के साथ शय्या ( राज और रुक्मिणी चित्र नं. 57 ) पर लेट कर भोग सुख द्वारा आनन्दका अनुभव करने लगा. तक्षकने जब रात को अपनी पत्नी को न देखा तो अवधिज्ञान के उपयोग से अपनी पत्नी को राजा के स्थान पर है वह जाना. तब वह उसे लेने के लिये वहाँ गया, और अपनी पत्नी के साथ राजा को देख क्रोध के कारण सर्प रूप धारण कर राजा की पीठ में डंक मारा-लेकिन जब वह वापस जा रहा था, तब राजाने उसे दीवार के साथ पछाड कर मार डाला, राजा के शरीर में भी विष व्याप्त हो गया, जिस से वह भी उसी क्षण मर गया, रुक्मिणी अपने दानों पतियों को मरा हुआ देख कर खूब दुःखित हुई. सुबह होते होते सारे नगर में बात फैल गई, सब लोग चकित हो गये. अति दुःखी रुक्मिणी अपने दोनों पतिओं के शरीरे को लेकर काष्टभक्षण करने के लिये स्मशान में गई. उस समय अकस्मात् 'मेवनाद' देवलोक से यहां आ गया. उसने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र मरने को तैयार हुई रुक्मिणी को कहा, 'हे पत्नी ! तुम अपने पति के जीते हुए काष्टभक्षण क्यों कर रही हो?' रुक्मिणी के पूछने पर मेघनादने उस के साथ का अपना सारा सम्बन्ध कह सुनाया.तब रक्मिणींने कहा, 'यदि आप मेरे दोनो पतियों को जिलाओगे तो मैं जीती रहूँगी, अन्यथा मैं भी मर जाऊंगी.' कर्म की विचित्रता देखीये, रुक्मिणी को तीन मति हुए. रुक्मिणी के कहने से मेघनादने शीघ्र अमृत छींट कर उन दोनों को जीवित किया. अब वे तीनों इकट्ठे हुए और तीनों पत्नी को ले जाने के लिये झगडने लगे. इस प्रकार कथा कह कर, वह पंडित पूछने लगा, “हे सभासदों ! बुद्धि से विचार कर कहिये कि, वह पत्नी किसकी होगी ?" कोई भी इस प्रश्न का जवाब न दे सका. तब विक्रमराजाने कहा, " मनुष्य जाति की होने से वास्तव में वह राजा की पत्नी होगी." इस प्रकार कथा सुन कर विक्रमादित्य महाराजाने उस पंडित शिरोमणि को दस करोड सोने की अशर्फिचा दी. इसी प्रकार दूसरा भी कोई पंडित महाश्चर्यकारी अच्छी मनोरंजक वार्वा विक्रमादित्य महाराजा के सामने कहता तो महार,जा उसे एक करोड अशर्फिया दे देते. इस तरह महाराजा विक्रमादित्य की उदारता बता कर उस चामरधारिणीने कहा, 'हे विक्रमचरित्र! आप उन जैसे किस प्रकार होंगे? आप में विक्रम महाराजा के समान बुद्धि Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 635 और उदारता कहों देखने में नहीं आई, उसीसे मुझे हंसी आई." यह विक्रमादित्य महाराजा का रोचक वृत्तान्त द्वितीय चामरधारिणाने विक्रमचरित्र और सभा के आगे कहा. ___पाठकगण ! देखीएं, महाराजा विक्रमादित्य में उदारता एवं बुद्धि चातुर्य. पूर्व के पूण्योदय से मानव सब कुछ प्राप्त कर सकता है; आत्मा में अनंत शक्ति है, परोपकार करना, दया का पालन करना, दीन दुःखी मानवबन्धुओं को सहायक होकर उद्धार करना यही उन्हों का सर्वोत्तम श्रेष्ठ कार्य जीवनभर रहा, जिस से आज दो हजार और पंदर वर्ष बितने पर भी 'परदुःखभंजन के नाम से सब कोई पुकारते हैं. वांचक आप भी उपरोक्त गुणों में से एक दो गुण अपने में उतारने का प्रयत्न करें. यही शुभेच्छा. . ग्रंथ-पंथ सब जगत के, बात बतावत दाय; / सुख दीये सुख होत है, दुःख दीये दुःख होय. काका पालन कार्य जीवनदायक होकर पदर वर्ष वित सडसठवाँ-प्रकरण जितने तारे गगन में, उतने वैरी होय; पूरव पूण्य जो तपे, बाल न बांका होय. विक्रमादित्य की सभा में जादुगर की इन्द्रजाल राजा विक्रमचरित्र के आदेश से तीसरी चामरधारिणी सभा समक्ष सुललित संस्कृत भाषा में इस प्रकार कहने लगी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र "एक बार प्रातःकाल अनेक मंत्री, सामत आदि से भरी हुई सभा में महाराजा विक्रमादित्य बैठे हुए थे. उस समय प्रतिहार द्वारा निवेदन करवाने के बाद कोई एक वैतालिक-जादुगर, 'हे राजन् ! आप चिरायु हो ?' ऐसा कहते हुए सभा में आया और नमस्कार कर बोला, 'हे राजन् ! आप को कुछ आश्चर्यकारी कला दिखाना चाहता हुँ. अतः आप सावधान हो कर देखिये.' ____महाराजाने कहा, 'हे कलावान् ! तुम अपनी कला बताओ.' तब सभाजनादि उत्सुक होकर देखने लगे. वैतालिक वहां से अदृश्य रूपवाला बन कर कहीं चला गया, सभी सभासद आश्चर्यचकित हुए, इतने में कोई पुरुष अपने बाएं हाथ में एक सुंदर स्त्री और दाहिने हाथ में तलवार लेकर सभा में आया. उसने महाराजा को नमस्कार करके कहा, 'इस संसार में मैं केवल दो चिजों को ही सारभूत मानता हुँ. एक लक्ष्मी और एक स्त्री, कहा भी है हे लक्ष्मी माता ! तुम्हारे प्रसाद के वश दोष भी गुणरूप हो जाते है. आलस्य स्थिरता को प्राप्त करता है, चपलता उद्योगिता कहलाती है, मौन मितभाषिता में परिणत हो जाता है, मुग्धता-कमवुद्धि, सरलता रूप हो जाती हैं, योग्य-अयोग्य पात्र के भेद को नहीं जान सकने की शक्ति को उदारता का नाम दिया जाता है. x और स्त्री के लिये भी कहा हैx आलस्यं स्थिरतामुपैति भजते चापल्यमुद्योगिताम् , मूकत्वं मितभाषितां वितनुते मौग्ध्यं भवेदार्जवम् ; Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित वह स्त्री सचमुच हि लक्ष्मी समान है, जो सुधर्म में रक्त है, विवेकस हित है, शान्त है, सती है, सरल है, प्रियबोलनेवाली है, सब कार्यों में निपुण है, अच्छे लक्षणवाली है, सद्गुणी है, सद् आचरणवाली है, गृहकार्य में कुशल है, अच्छी मतिवाली है, सदा संतुष्ट है, विनययुक्त है और सौभाग्यवाली है. + कुछ पंडितजन सरस्वती को भी साररूप मानते हैं, लेकिन यह बात मुझे जरा भी नहीं जचती है. क्यो कि जैसे थोडी लक्ष्मीवाला मनुष्य स्वयं शोभता है, अन्य / को शोभाता है, किन्तु थोडी विद्यावालों मनुष्य को क्यों कोई सन्मान देता नहीं या विनवता नहीं, इस लिये जगत में लक्ष्मी को ही लोग मानते है. ____ अपना हित चाहनेवाले सत्पुरुषों को अन्य स्त्रियों पर कभी भी वासनायुक्त दृष्टि नहीं करना चाहिये, साथ ही विचक्षण पुरुषों को परस्त्री और पर द्रव्य को लेने का जरा भी पात्रापात्र विचारभावविरहोयच्छ न्युदारात्मनाम् , मातलक्ष्मी ! तव प्रसादवशनो दोषाअपि स्मुः गुणाः. स. 12/316 4 सा सद्धर्मरता विवेककलिता शान्ता सती सार्जवा, सोत्साहा प्रियभाषिणी सुनिपुणा सल्लक्षणा सद्गुणा / / सवृत्ता गृहनीतिविस्मितमुखी दानोन्मुखी सन्मतिः संतुष्टा विनयान्विताऽतिसुभगा श्रीरेव सा स्त्रीनं नु. स. 12/318 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र मन नहीं करना चाहिये, प्राण कंठ में आ जावे तब भी परेरापकार करना चाहिये. क्यों कि परोपकार करने से इस जन्म में और परलोक में भी सुख प्राप्त होता है. कहा भी है-- विरल पुरुष ही गुणों को जानते हैं, विरल पुरुष ही निर्धन व्यक्ति से स्नेह रखते हैं, स्वाभाविक गुणयुक्त विरलपुरुष ही इस प्रकार अपने दोषों को देखते है. सज्जन पुरुष अपने कार्यों से पराङ्मुख होकर भी पराये कार्य में तत्पर रहते हैं, जैसे कि चंद्रमा अपने कलंक को दूर करने की चिन्ता छोड कर पृथ्वी का उज्वल करता रहता है. आज देवता तथा दानवों का स्वर्ग में युद्ध होगा. मैं इन्द्र का नौकर हूँ, इस से वहां जाता हूँ, यह मेरी प्रिया स्वर्ग की युद्धभूमि में युद्ध करते समय निश्चय ही मुझे विघ्न रूप हो जाती है, अतः मैं अपनी पत्नी को अभी आप के पास छोडकर देवलोक में इन्द्र के पास युद्ध के लिये जाता हूँ, जब तक मैं वापस न लौटुं तब तक आप उसे अपने अन्तःपुर में रखकर यत्नपूर्वक इस की रक्षा करे.' इस प्रकार कहकर सभी सभासदों के देखते हुए वह वैतालिक खड्ग लेकर देवलोक में गया. कुछ ही क्षण बाद आकाश में युद्ध की ध्वनि सुनाई देने लगी. उसे सुन कर सभाजन आपस में कहने लगे, 'अभी देवता तथा दानवों का युद्ध चल रहा है.' तत्पश्चात् उस वैतालिक के अंग-दा हाथ, दो पैर, मस्तक, शरीर आदि क्रमशः एकएक राजसभा Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित में गिरे, इस से सभी जनों के मन में भी आश्चर्य हुआ. तब राजसभा में रही हुई वतालिक की पत्नीने अपने पतिके सब अवयवों को नीचे गिरा हुआ देख कर राजा से इस प्रकार कहा, 'हे राजन् ! आप मेरे भाई हैं, मेरे पति स्वर्ग में मर गये है. अतः आप ऐसी व्यवस्था करें कि जिस से मैं अपने पति के अवयवों के साथ अग्निप्रवेश करु-काप्टभक्षण करूं.' महाराजाने कई हेतु और युक्तिपूर्वक उसे अग्नि में जलने से रोकना चाहा, लेकिन उसने नहीं माना, सभी लोक आश्चर्य सहित देख रहे थे, उसी समय वैतालिक की स्त्रीने अपने पति के अवयवों को लेकर नगर बाहर जा कर जल्दि से अग्निप्रवेश किया. इस से राजा शोकातुर हुआ. वह अधी सभा में आकर बैंठा, उतने में वैतालिक आकाश में से आकर महाराजा को इस प्रकार कहने लगा, 'आप के प्रसाद से मैंने क्षणमात्र में स्वर्ग में विजय प्राप्त की है. युद्ध के मैदान में दानव हार गये हैं, और देव जीत गये है, इस से इन्द्रने मेरा बहुमान किया है, अब मैं अपनी पत्नी को लेकर अपने स्थान पर जाता हूँ, मेरी पत्नी मुझे दीजिये.' यह सुन कर महाराजा विस्मय हुए, तथा विपाद से विवश और दीनभाव वाले महाराजाने उस को उस की पत्नी का अग्निप्रवेश आदि का हाल सुना दिया. यह सुन कर वैतालिक बोला, 'हे राजन् ! आप झूठ क्यों बोल रहे है ? मेरी प्राणप्रिया पत्नी अभी आप के अंतःपुर में ही विद्यमान हैं.' P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र महाराजा और मांत्रियों सहित सभा में वह वैतालिक महाराजा के अंतःपुर में से उस स्त्री को लेकर आया और महाराजा के प्रति बोला, 'हे राजन् ! मैंने पहले सुना था कि आप पर स्त्री से पराङ्गमुख है, तो अब थोडे जीवन के लिये ऐसा काम क्यों किया?' यह सुन कर महाराजाने अपना मुंह नीचा कर लिया और दीनता धारण की, तब वैतालिकने शीघ्र ही उस स्त्री का सहरण कर लिया, और वह बोला, 'हे राजन् ! मैंने आप के सामने यह सब इन्द्रजाल फेलाई थी, आप खेद न करें. __ इस से महाराजा उस वैतालिक पर प्रसन्न हुए. और पांडयदेश से आई हुई भेट उसे दिलवाई. वह भेट इस प्रकार थी-- आठ करोड सोनामोहरें, तिरानवें-९३ तोले मोती, मद / की गंध से लुब्ध भ्रमरों के कारण मदोन्मत पचास हाथी, लावण्यवती तथा सुदर दृष्ठिवाली सौ वारांगनाएं. यह सब पांडयदेश के राजाने दंड के रूप में जो महाराजा विक्रमादित्य को अर्पण किया था. विक्रमादित्य का इस प्रकार वृत्तान्त कह कर तीसरी चामरधारिणीने विक्रमचरित्र से कहा, 'आप उन के तुल्य कैसे हो सकते है ? सो कहिये.' इस प्रकार तीसरी चामरधारिणी का कहा हुआ वृत्तान्त समाप्त हुआ. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित चाथी चामरधारिणीः अब चौथी चामरधारिणीने नवीन राजा विक्रमचरित्र के आदेश से महाराजा विक्रमादित्य का एक जीवन प्रसंग कहा विक्रमादित्य एक बार अपनी सभा में बैठे थे. उस समय परदेश से कोई एक ब्राह्मण फिरता हुआ आया, राजाने उसे पूछा, 'क्या तुमने पृथ्वीतल पर कोई नवीन कौतुक देखा है ?" वह ब्राह्मण बोला, 'श्रीगिरि में 'हर' नाम का एक योगीराज रहता है. वह परकाय प्रवेश की विद्या को जानता है, वह निर्मल आशयवाला है, मैंने भक्तिपूर्वक छै महिने तक उस की सतत सेवा की, तब भी उस योगीने मुझे अपनी विद्या नहीं दी. अतः आप मेरे साथ वहां आकर मुझे उस योगी के पास से वह विद्या दिलवाइये, क्यों कि जगत में फिरते मैंने सुना है कि 'आप सदा सब लोगों का उपकार करने में तत्पर रहते है.' ब्रह्मण के कहने पर उस पर कृपा करने विक्रमादित्य महाराजा उस के साथ साथ शीघ्र ही श्रीगिरि पर गये, और दोनेांने योगी को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया. महाराजा के विनयभक्ति से योगिराज सहज में खुश हुए और बोले, 'हे नरोत्तम! मेरे पास से परकाय प्रवेश विद्याको तुम ग्रहणः करो." P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र राजा बोले, 'हे योगीराज ! आप वह उत्तम विद्या इस ब्राह्मण को दीजिये, क्यों कि आप के चरण कमल के प्रतापसे मेरे पास सब कुछ हैं.' यह सुन कर योगीराज महाराजाको एकान्त में ले जा कर बोला, 'यह ब्राह्मण इस विद्या के योग्य नहीं है, क्योंकि वह कृतन और भविष्य में स्वामी को धोखा देने वाला है, अतः उसे विद्या देने से बहुत अनर्थ होगा. कहा है कि जैसे कोई थका हुआ और छाया की शोध करनेवाला हाथी वृक्ष के नीचे आश्रय लेता है, लेकिन आराम लेने के बाद वह हाथी उस पेड का नाश करता है, उसी तरह नीच व्यक्ति अपने आश्रयदाता का ही नाश करते है.' विक्रमादित्य महाराजा के अति आग्रह से उस योगीने महा राजा और ब्राह्मण को परकाय प्रदेश की विद्या दी, फिर वे दोनेांने विद्या साध कर विद्या सिद्ध की. बाद योगो को प्रणाम ( योगी को महाराजा और ब्राह्मण नमस्कार कर के वहां से करते है. चिंत्र नं: 58 ) रवाना हुए, फिरते फिरते अवन्ती नगरी के बाहर उद्यान में आये. AATE PROPMENin P.P. Ac. sunratnasuri M.S. . Jun Gun AaradhakTrust Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 643 इधर महाराजा का पट्टहस्ती मर गया था, अतः मंत्री आदि व्यक्ति वहां बाहर के उद्यान में आकर एकत्र हुए, और उसे गाडने के लिये एक बड़ा खड्डा खुदवा रहे थे, यह जान विक्रमादित्यने उस ब्राह्मण से कहा, 'तुम मेरे शरीर की रक्षा करना, मैं इस हाथी को शीघ्र जिलाता हूँ.' . महाराजाने अपना शरीर उस ब्राहाण को सौंपा, और हाथी के शरीर में प्रवेश किया, हाथी को उसी क्षण संजीवन किया, उस से लोगोंने नगरी में स्थान स्थान पर उत्सव किया-मनाया. . उधर ब्राह्मणने अपनी देह को छोड कर जो राजा का शरीर था उस में प्रवेश किया, और नगर में जाकर मत्रियों से मिला. अन्तःपुर-रानीवास में प्रवेश कर सारा अन्तःपुर देखा.. मनियोंने जब महाराजा को आलसी, सत्वरहित और विचित्र प्रकार से बोलते सुना तो वे परस्पर विचार करने लगे, 'यह किसी प्रकार भी विक्रमादित्य महाराजा नहीं लगते.' इसी प्रकार षट्टरानी आदिने भी मन में ये ही सोचा. उधर महाराजा हाथी को जीवित करने के बाद अपने शरीर को देखने के लिये गये. वहां उन्होंने अपने शरीर को न देख कर और ब्राह्मण के शरीर को पक्षियों से भक्षण किया हा देख कर सोचने लगे, 'निश्चय ही वह ब्राहमण कृतघ्न निकला, अतः उसने मेरे शरीर में प्रवेश किया होगा. शायद उसने मेरे राज्य को भी ले लिया होगा. अब क्या होगा? यह सोचते हुआ महाराजा वन भ्रमण करने लगे. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 644 विक्रम चरित्र कहा है कि विषयी को दुःख होता है, धनिकों का होता है गर्व, मन खंडित होता वामा से, राजा का प्रिय सदा न सर्व कौन मरण का प्राप्त करता, किस याचक का होता मान, दुर्जन के चंगुल में पड कर, रहा कुशल से किसका प्राण. __ तब गजरूपधारी वन में घूमते हुए राजाने एक मरे हुए तोते का शरीर देखा. उन्होंने तोते के शरीर में प्रवेश किया फिर वन में किसी पुरुष के हाथ पर बैठ कर उसे कहा, 'तुम मुझे शीघ्र ही उज्जयिनी नगरी ले जाओ. वहां राजा के मकान के सामने मुझे बेचने के लिये तुम खडे रहना, और छसो मोहर लेकर पट्टरानी कमलादेवी के हाथ में ही गझे देना.' यह -मनुष्य उस तोते को लेकर वहाँ गया, और छसौ मोहर TA Ravi Hlililil RAHASUNDHIP SHARE (कमलादेवी पट्टर।नी पोपट-शुक खरीद रही है. चित्र नं. 59) P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 645 --- लेकर रानी को वह तोता दे दिया. रानी भी उसे प्राप्त कर के खुश हुई, कमलादेवी तोते से जो जो प्रश्न पूछे उन सभी प्रश्नों का उत्तर उसने यथोचित दिया. उस तोतेने मन में विचार किया, 'यदि मैं अपने आपको प्रगट कर दूंगा तो विना विचारे यह पट्टरानी उस ब्राह्मण को मरवा डालेगी. या तो यदि यह राजा रूपधारी ब्राह्मण मुझे तोते के शरीर में जानेगा. तो मुझे मरवा डालेगा.' ___ अब वह सौभाग्यवान् तोता रानी द्वारा हमेशा अच्छा 'भोजन आदि प्राप्त करता है, और आनंद से समय वीताता हैं. महारानी को तोते विना क्षण भी चैन नहीं पडता. एक समय तोतेने पूछा, 'हे देवी! यदि मैं मर जाऊं तो क्या हो ?' देवीने कहा, 'यदि तुम मर जाओगे तो मैं भी काष्ट'भक्षण करुंगी.' एक बार इस तोतेने अकस्मात भीती पर गो-गराली को मरते देखा. राजा का जीव तोते में से निकल कर उस में अधिष्टित होकर दीवार पर रहा, रानीने जब तोते को मरा हुआ देखा तो उसने नकली राजा से कहा, 'मेरा इच्छित. प्रिय तोता मर गया है, अब उस के बिना मै नहीं जी सकती मैं काष्ठभक्षण करुंगी.' जब रानी काष्ठभक्षण के लिये तैयार हो गई तब राजा शरीरधारी ब्राह्मणने रानी को प्रसन्न करने के हेतु कहा, 'मैं इस तोते को अभी जिलाता हूँ, इस में क्या बड़ी बात है ? '. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र जब ब्राह्मणने अपने जीव को उस तोते में डाल कर जीवित किया, उतने में वहां छिपकली-गिराली के शरीर में रहे हुए विक्रमादित्य महाराजा के जीवने शीव ही अपने शरीर में प्रवेश कर लिया. उस के सत्व, साहस, संकेत, बोलने और चलने आदि की सब क्रियाओं से मंत्री से लेकर सेवक तक सबने उन्हें विक्रमादित्य महाराजा के रूप में पहचाना, राजाने भी उन सब को अपना बना हुआ विस्तृत हाल सुनाया. यह सुन कर सब ताज्जुब हो गये. फिर राजाने तोते को हाथ में लेकर कहा, 'हे पापी ! दुष्ट आशयवाले, मैंने तुझे विद्यादान दिलाकर तेरे उपर उपकार किया, उस के बदले तुमने अपने स्वभाव अनुसार ही किया ? अतः तुझे धिक्कार है, लेकिन मैं दयापूर्ण हृदय से तुझे मारता नहीं हूँ, मैं यहां से तुझे ( तोता-शुक और महाराजा. चित्र न. 6.) मुक्त करता हूँ, तुम अपने स्थान पर चले जाओ, और आजीविका उपार्जन करो.' . . इस प्रकार कह कर चौथी चामरधारिणी बोली, 'हे विक्रमचरित्र! तुम्हारे पिता इस प्रकार कृपा-दया के धारण TEST FOR मामला Urgin HEL P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 647 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित करनेवाले थे. लेकिन तुम में उन के जैसी अपूर्व दयालुता का अभाव होने से में उस समय हँसी थी." _ अपने पिता विक्रमादित्य का चारों चामरधारिणी द्वारा इस प्रकार का रोमांचकारी चरित्र सुन कर विक्रममरित्र खुब प्रसन्न हुआ. और हमेशा न्याय मार्ग द्वारा पृथ्वी का पालन करते हुए राज्य करने लगा. श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी के पास में श्री जिनेश्वरदेव द्वारा प्रकाशित धर्म को सूनते महाराजा विक्रमचरित्र धर्मपरायण हुए. श्री शत्रुजय के उद्धारक जावडशाह: प्रभु श्री ऋषभदेवजी के सुपुत्र सुराष्ट्र के नाम से सुप्रसिद्ध हुई भूमि सौराष्ट्र की गोद में सदैव शाश्वत तीर्थाधिराज श्री शत्रंजय भव्य जीवों के अनंतकाल से आकर्षित कर रहा है. वर्तमान चोवीसी में सबसे प्रथम महातीर्थ श्री शत्रुजय पर भरत चक्रवतीने चतुर्विध संघ के साथ आरोहण किया था. बिच मैं अनेकानेक आत्मा इस पवित्रतम भूमिके प्रभाव से संसार समुद्र पार उतर गये, उस की कोई गिनती नहीं है. श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से अवतीपति विक्रमादित्य महाराज भी चतुर्विध संघ के साथ महातीर्थ पे जाकर श्री आदीश्वरजी से भेटे थे. और आत्मा को पावन किया था. . 22 . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 648 विक्रम चरित्र यही गौरव से पूर्ण सौराष्ट्र की भूमि में कांपल्यपुर नामक नगर में श्रेष्ठी भावड अपना जीवनकाळ व्यतीत करते थे. भावडशाह विनयी, विवेकी थे और धर्मपरायण भी थे, धर्म ही प्राण हैं, यह सिद्धांत उनके लिये था. उन्हों की भाग्यवती पत्नी भावल भी पतिको अनुसरण करनेवाली, धर्म कार्य में सदा रत रहनेवाली थी. धर्मिष्ट दंपती के जीवन में किसी कर्म के योग से परिवर्तन आया. सुखो सेठ धनहीन हो गये. सुखसागर में रहनेवाले सेठ दुःख के दावानल में जा पडे. धनहीन होने पर भी वे दीन नहीं बने. धर्म उन के दुःख में साथी था. धन उन्हों को छोड कर गया था. किन्तु वे धर्म को नहीं छोडते थे. निर्धनता का तिमिर जीवन में छा चूका था उस में भी उन्होंने प्रकाश का किरण देखा, उद्यम, अविरत श्रम, उत्साह और धैर्य से वे आगे कदम भर रहे थे. भाग्य के योग से एक तपस्वी मुनिराज उन्हों के घर गोचरी के लिये आये. उन्होंने शुद्ध-निर्दोष आहार भावपूर्वक देकर निर्धन स्थिति को नाश करने का उपाय पूछा. और मार्गदर्शन के लिये विज्ञप्ति की. ज्ञानी मुनिराजने धर्मिष्ठ श्रावक भावड से कहा, "यहां पर कोई घोडी बेचने आवे तो उसको खरीद लेना. जिस से तुम्हारा भाग्योदय होगा. सुख-समृद्धि प्राप्त होगी; उसी धन द्वारा तुमारे पुत्र को श्री शत्रंजय तीर्थ का उद्धार करने को मार्गदर्शन करायगाauri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 649 - गंभीर वाणी से मुनि महाराज बोलते रहे. जैसे निर्मल पवित्रगंगा नदी का प्रवाह बह रहा हो, उन की वाणी में सत्य था, ज्ञान की ज्योत थी, धर्मपरायणता की चिनगारी थी. पूज्य मुनि महाराज की वाणी सुनते ही दंपती के हृदय में आनंद की लहेरों उठने लगी. कई दिनों वित गये, एक दिन घोडे बेचनेवाला वहां आया, भावडने ज्यों त्यों कर के उस की पास से घोडी खरीदी. घोडी घर में आते ही आनंद की वर्षा हुई. थोडे ही दिनों के बाद घोडीने बचेरा को जन्म दिया. उस बच्चे के जन्म से भावड के भाग्य में यकायक परिवर्तन आया. व्यापार बहुत बढ गया. कीर्ति प्रतिष्टा उन को ढुढती हुई आई. इस बाल अश्व को कांपिल्यपुरके राजा तपनरायने देखा. उस का मन आकर्षित हुआ. आखिर तीन लाख सोना महार देकर उस को खरीदा. - धन की अधिकता से व्यापार में होते हुए लाभ से उन्होंने बहुत से सुलक्षणवाले घोडे खरीदे, बेचे और धनोपार्जन किया. उन्होंने एक ही रूप और रंग के बहुत से घोडे इकट्ठे किये. भावड के भाग्य में ये परिवर्तन आया था, उसी समय महाराजा विक्रमादित्य अवंती में राज्य कर रहे थे. उन की कीर्ति की सुवास, उदारता की बातें सुन कर महाराजा को घोडे भेट करने की इच्छा भावड को हुई. वे अवंती आये. उन्हों P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 650 विक्रम चरित्र ने एक रूप और एक ही रंग के कई घोडे महाराजा के चरणों में सादर अर्पण किये. मालव का महाराजा-भारत का मुकुटमणि महाराजा विक्रमादित्य से कैसे भेट स्वीकार ले, महाराजाने किमत देने के लिये प्रयास किया किन्तु शेठने इनकार किया, तब उन्होने मधुमती वगेरे बार गांव का भावड को अधिपति बनाया. वही मधुमती जो हाल सौराष्ट में महुवा के नाम से मशहुर है. __ समय का प्रवाह आगे बढा. भावड ओष्ठी के वहां पुत्र का जन्म हुवा, माभोम का एक अणमोल रत्न अपनी छाती से लगाने का अवसर मिला. भावडशाह के घर में पुत्रजन्म से आनंद की घटा छा गई. हर्ष की वर्षा बरसने लगी', विश्व के रंगमंच पे आया हुआ बालक का सत्कार किया गया. उस का नाम जावड रखा गया. जावड दिनों के साथ बड़ा होने लगा. बाल्यकाल से विद्या संपादन करने लगा. जब वह युवावस्था में आया उसी समय जैन शासन के सूर्य जैनाचार्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरसूरीश्वरजी स्वर्गस्थ हुए. _आचार्यश्री की स्वर्गस्थ होने की व्यथा जैन भाईओं अनुभव रहे थे उसी समय कपर्दी यक्ष का निज परिवार के Sunratnasuri M. Jun Gun Aaradhak Trust Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित साथ सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर मिथ्यात्वी होने का समाचार भी संघ को उपलब्ध हुए. कपर्दी यक्षने महातीर्थ श्री शत्रुजय में अनेक पाप प्रवृत्ति शरू की. इससे महातीर्थ की यात्रा दुर्लभ हो चूकी. गाव गाव के संघ चिन्तित होकर आने लगे. और 'अब करना क्या ?' यह सोचने लगे. इस तरह दिन बितने लगे. कई वर्षों बित गये. महातीर्थ की आशातना टालने का कोई उपाय हाथ न लगा. कपदी यक्ष की पाप प्रवृत्ति को रोकने का विचार युगप्रधान श्री वजूस्वामीजी और अनेक आचार्य तथा मुनिवरोंने किया. आशातना को दूर करने का अनेकानेक पुरुषार्थ किये गये, किन्तु सब में निष्फलता प्राप्त हुई. - कपदी यक्ष की प्रवृत्ति आगे बढ रही थी, उसी समय जावडशा के मातापिता का देहान्त हुआ. जावडशा पे दुःख का पहाड तूटा. यह दुःख के साथ और भी अकस्मात एक दुःख आ पडा मधुमती-जावडशा के गाँव में म्लेच्छों ने आक्रमण किया. घोर हत्या की. जावडशा इस म्लेच्छों के हाथ में फँस गये. म्लेच्छोंने उनकों अपने साथ अपने देश ले गये, किन्तु जावडशाने अपनी बुद्धिबल से म्लेच्छों के अधिपति को खुश कर दिया, जिससे वे अपना धर्म पालन अच्छी रीत से कर सके, जावडशा जब मुक्त हुए, तब वहां आग्रह से म्लेच्छों के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र देश में भी जैन मदिर बनवाया, और धर्म ध्यान करते वही समय पसार करने लगे. ___एक दिन कोई ज्ञानी मुनि भगवंत विहार करते वहां पधारे धर्म देशना देते हुए ज्ञानी गुरुदेवने कहा, “जावडशा के हाथसें तीर्थाधिराज का जीर्णोद्धार होगा." यह सुन कर जावडशाने पूछा, "वे जावडशा कौन हैं ? " तब ज्ञानी गुरुदेवने पुनः कहा, "वे जावडशा तुम....तुम....” / जावडशा को उस ज्ञानी मुनि महाराजने शाश्वत श्री शत्रुजय तीर्थ को दुर्दशा सुनाई. और गुरुदे की आज्ञानुसार जावडशाने इस कार्य की सिद्धि के लिये चक्रेश्वरी देवी का आराधन किया. देवी प्रसन्न हुई. उनके आदेशानुसार 'तक्षशिला' नगरी से राजा ' जगन्मल्ल' द्वारा धर्म चक्र के पास से श्री ऋपभदेवजी की प्रतिमा ले कर वो पुनः अपनी मधुमतो में आये. जावडशा म्लेच्छों के हाथ में फंस गये थे उसी समय के पूर्व उन्होंने चीन आदि देशो में माल बेचने को बहुत से वहाण भेजे थे. पुण्य योग से वह आ गये, इस समाचार से जावडशा का हृदय आनंद से भर गया. उसी समय आनंद में श्री वजूस्वामीजी के पधारने के समाचार से अधिकता हुई, जावड़शा श्री वजूस्वामीजी को वंदना करने गये, श्री वजूस्वामीजीने देशना दी. ये देशना से सारे गांव में उत्साह छा गया. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित एक दिन व्याख्यान देते हुए गुरुदेवने महातीर्थ श्री शत्रुजय का अच्छा सुंदर वर्णन किया. इस बिच में एक दिव्य कान्तिवाली अपरिचित कोई व्यक्तिने आकर गुरुदेवके चरणों में नमस्कार करके कहा, "हे गुरुदेव ! आपके प्रताप से देवलोंक में मैं कदर्पि यक्ष के रूप में उत्पन्न हुआ हूँ, लाख देवों का में स्वामी हूँ, मेरे योग्य कार्यसेवा फरमाईये." गुरुदेवने उसके साथ कुछ विचारणा की और रवाना किया. सूरीश्वरजी जावडशा से सब बात सविस्तर कहीं गुरुदेव के शब्दों से जाव उशा का हृदय आनंद का अनुभव करने लगा. उन्होंने श्रीशत्रुजय तीर्थ का संघ ले जाने की तैयारी की, तैयार हो जाने के बाद श्री वजस्वामीजी की निश्रा में बड़ी धामधूम से संघने प्रयाण किया. - रास्ते में जो भी उपद्रव होते थे वे सब श्री वजूस्वामीजी निवारण करते थे. आखिर वे तीर्थाधिराज शत्रुजय जा पहूँचे वहां बहुतसी अपवित्र वस्तुए पड़ी हुई थी, मदिरों में घांस दिखाई रही थी, जावडशाने शीघ्र ही वहां स्वच्छ करवाया, शत्रुजी नदी के निर्मल जल से पवित्र कर के मुख्य मंदिर में प्रतिमा को विराजमान की. इन मगल समये-प्रतिष्ठा निमिते जावडशाने बहुतसा द्रव्य का सद्व्यय किया. श्री वजूस्वामीजीने तीर्थ पर के उपद्रवों का निवारण किया. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र आनंद से भरा हुआ जावडशाने श्री शत्रुजय महातीर्थ का उद्धार कर सदा के लिये रक्षण की व्यवस्था करने का मन से निर्णय किया. किन्तु कुदरतने और ही सोचा था, अपना निर्णय पूर्ण करने की तैयारी करे उसके पहले ही हर्षावेश में वहीं पर जावडशाह और उनकी पत्नी का यकायक देहान्त हुआ. तीर्थ का पुनरुद्धार करने से उनकी कीर्ति पुष्प की सुगंध की तरह चोदिश प्रसर गई. उन्होंने परलोक के लिये बहोतसा पुण्य इकट्ठा कर परलोक प्रयाण किया. सुनने में आता है कि, यह तीर्थोद्धार के समय में महाराजा विक्रमचरित्र वहां हाजर थे, उन्होंने भी तीर्थोद्धार के शुभ कार्य में सहयोग और धन व्यय ठीक किया था. और गुरुदेवों के मुखसे श्री जिनेश्वर भगवान द्वारा कथित धर्म को सुन कर विक्रमचरित्र भी धर्म में प्रवृत्त-उद्यत हुआ और शत्रुजय महातीर्थ में श्री विक्रमादित्य महाराजा द्वारा कराये हुए श्री युगाधिश के मंदिर में जाकर जिर्णोद्धार कराया और श्री ऋषभदेव भगवान को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके पुनः अपने नगर में आये. __ तत्पश्चात् न्याय के मंदिर समान राज्य का चिरकाल पालन किया और अंत में आयु पूर्ण कर देवलोक में गये. इस प्रकार जो मनुष्य शुद्ध भाव से दान देते है वे जगह जगह सर्वत्र शाश्वत सुख की परंपरा को प्राप्त करते है. P.P. Ac. Gunratrasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित 655 ग्रंथकारकी भिन्न भिन्न प्रकार की प्रशस्तियाः लघु पौषध शाला के भूपणरूप अद्भत भाग्यवाले श्री मुनि सुंदरसूरीश्वरजी हुए, उन सूरी के शिष्य शुभशील नामक साधुने विक्रमादित्य राजाके चरित्र विक्रमराजा के चलाये गये संवत् 1499 वर्ष बाद रचना की.x . ॐ तपगच्छ के भूषण स्वरूप बारह वर्ष पर्यत आयंबिल xxलोक संख्या. सर्ग 12-395-396-397. * लसत्कियावारिविशिष्टसाधु मणि तपागच्छमहाम्बुराशिम् ; श्रीमान् जगच्चंद्रगुरुर्न वीनो, निशाकरोऽजीजनदेव वय: // 1 // चक्रे द्वादशवर्षाणि गेनाचाम्लतपोऽन्त्रहम् ; जगच्च द्रगुरुः सोऽस्तु तपागच्छकरः श्रिये // 2 // तत्पट्टेऽजनि देवेन्द्रसूरिरदद्भुतचित्र कृत् ; अवक्री कविसंसेव्योऽतिचार रहितः सदा // 3 // सत्तत्पट्टा खण्डलाशाद्रिशङगे, श्रीमान् विद्यान'दसूरि विवस्वान्; पापध्वान्त ध्वसयन् गोविलास-रासीत् प्राणिस्वान्तभमितलस्थम् // 4 // तत्सत्पदृव्यूढपाथोदमार्ग, तेजोराशिः ध्वस्तदोषाकरश्रीः; आसीत् श्रीमान् धर्म घोषावसूरि-श्चन्द्रोनव्यो भ्रान्तिरिक्तोऽक्षयी च / / 5 // तत्पढेऽजनि सर्वशास्त्रविद् श्रीसोमप्रभसूरिशेखरः; भव्याम्भोजवन विबोधयन् गोभिर्भानुरिवावनीतजे / / 6 / / तत्पदृगगनतरणिः, श्री सोमतिलकगुरुर जनि महिमनिधिः; येनानेके भव्याः प्रबोधिताः सदुपदेशेन // 7 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र की तपश्चर्या करने वाले महान् तपस्वी श्रीमान् जगच्चंद्रसूरी-- श्वरजी के पट्टधर शिष्य विशुद्ध चारित्रशील कवि लोगों से सन्मानित आचार्य श्रा विद्यानंदसूरीश्वरजी के शिष्य परमप्रतापी श्री धर्म घोषसूरीश्वरजी हुए, उनके बाद उनके पट्टशिष्य सर्वशास्त्र में पारंगत श्री सोमप्रभसूरीश्वरजी नामक आचार्य हुए जिन्होंने पृथ्वी तल पर अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोध किया उनके पट्टधर शिय आचार्य श्री सोमतिलकसूरीश्वरजी हुए और उनके शिष्य महान प्रभावशील आचार्य सोमसुंदरसूरीश्वरजी के शिष्य अनेक ग्रन्थ प्रणेता आचार्य श्री मुनिसुंदरसूरीश्वरजी के शिष्य पंडित श्री शुभशील गणिने इस विक्रमचरित्र की रचना की है. तत्पपूर्व वसुधाधरतुंङ्गशंङ्गे श्रीदेवसुदरगुरुर्गरिमाभिरामः; सूर्यायमानवदनो. नवकायकान्तिः गोभिः प्रबोधितजनाब्जहृदन्तरालः // 8 // तत्पट्टवासवककुगिरिभूषणोऽभूत श्रीसोमसुदरगुरुस्तरणिः प्रतापी; * तारं गशैलशिखरे जिनतीर्थ नाथम् , प्रातिष्ठपत् वरतमोत्सवपूर्वकं यः / / 9 / / तस्याद्योऽजनिशिष्यः श्रीमुनिसुदरसूरिरमलमतिविभवः; येनानेके ग्रन्था गुर्वावल्यादयोविहिताः // 10 // कृष्णसरस्वतीत्येव दधानो विरुद भवि; तच्छिष्योऽभत् द्वितीयश्च जयचंद्राभिधोगुरुः // 11 // मुनिसुदरसूरीशविनेयः शुभशीलभाक्; चकार विक्रमादित्यचरित्र मन्दधीरपि / / 12 / / प्रसाद विबुधैः कृत्वा ममोपरि निरन्तरम् ; यत्लेन शोधनीयोऽयं ग्रन्थः कूटोपसारतः // 13 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित (3) __ + ग्रंथकर्ता लिखते है कि परमाराध्य गुरुदेव श्री मुनिसुदरसूरीश्वरजी महाराजा की कृपा से अल्प बुद्धिवाले मैंने इस ग्रंथ की रचना की है जिसे विद्वजनोंने मेरे पर कृपा कर शुद्ध किया है. संवत् प्रवर्ततक महाराजा विक्रम द्वारा स्थापित संवत 1499 में वर्ष के महाशुक्ला चतुर्दशी रवि पुष्य आदि शुभ योगसमन्वित मुहूर्त में स्तंभनतीर्थ में शुभशील गणि (मैंने ) विक्रमराजा का चरित्र लिखा है. जब तक पर्वत सागर, सूर्य, चंद्र, आकाश, पृथ्वी, नक्षत्र एवं धर्माधर्म का विचार करने में निपुण महान् पुरुषों से युक्त यह संसार शोभेगा, तब तक महाराजा की कीर्ति से युक्त यह ग्रंथ जैन शासन में सजन पुरुषों के चित्त को आनंद देगा. एक हस्तलिखित पुस्तकमें निम्नलिखित विशेष पाठ उपलब्ध है:-, 4 तेषां पादप्रसादेन मया मूर्खेण निर्मितः ग्रन्थो विद्वज्जनैः शोध्यः कृपां कृत्वा मनोपरि। श्रीमद्विक्रमकालाच्च खनिधिरत्न संख्यके वर्षे माथेसिते पक्षे शुक्ल चतुर्दशीदिने। पुष्ये रवौ स्तम्भतीर्थे शुभशीलेन पंडिता ( साधना) विदधे चरित ह्येतद् विक्रमाक स्य भूपतेः / / यावद् भूधरसागरा रविशशी ख भर्धवस्तारकाः, धर्माधर्म विचारणेकनिपुण-यावद् जगद् राजते / तावद् विक्र ाभराजविलसत्कीर्तिप्रभामिश्रितो ग्रंथोऽयं जिनशासने सुहृदयां (दा) चित्ते चिरौं नन्दतात् // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र बघागच्छीय-नानाग्रंथ रचयिता कृष्ण सरस्वती बिरुद्धारक परम पूज्य-आचार्यश्री मुनिसुदरसूरीश्वर शिष्य पंडितवर्य _ श्री शुभशीलगणि विरचते विक्रमादित्य चरित्रे चतुश्चामरधारिणी वर्णन श्री विक्रमचरित्र राज्योपवेशन यात्राकरण स्वर्गगमनो द्वादशः सर्ग समाप्तः नानातीर्थीद्धारक-आबालब्रह्मचारि-शासनसम्राट् श्रीमद् विजयनेमि. सूरीश्वर शिष्य कविरत्न शास्त्रविशारद-पीयूषपाणि-जैनाचार्य श्रीमद् विजयामृतसूरीश्वरस्य तृतीयशिष्यः वैयावच्चकरणदक्ष मुनिवर्य श्री खान्तिविजयस्तस्य शिष्य मुनि निरंजनविजयेन कृतो विक्रमचरितस्य हिन्दी भाषायां भावानुवादःतस्य च द्वादशः सर्गः समाप्तः संवत प्रवर्ततक महाराजा विक्रम भाग 2-3 समाप्त ECHANYA SA KALASSAGARSINIGYANMANIK SRI MAHA VIH: JAWARADHANA RENUKA Kesa, Gandhinagar-382 03. 22270204 Jun Gun Aaradhak Trust Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम चरित्र श्री उदयभानुने वि. स. 1565 में विक्रमसेन रास की रचना की. वि. सं. 1596 में श्री धर्मसिंहजीने विक्रम रास लिखा. श्रो जिनहरने 1599 में विक्रम पंचदंड रास:लिखा. श्री मानविजयजीने वि. स. १७२२-२३में विक्रमादित्य चरित्र लिखा.. श्री अभयसोमजीने वि. सं. 1727 के करीब विक्रमचरित्र खापरा चोपाई की रचना की. श्री लाभवर्धनजीने विक्रम चोपाई की रचना वि. स. १७२७में की। श्री परमसागरजीने विक्रमादित्य रास वि. स. 1724 में लिखा. श्री अभयसोमजीने विक्रमचरित्र-लीलावती चोपाई वि. स. 1724 में निर्माण की. श्री मानसागरजीने विक्रमसेन रास वि. स. 1724 में लिखा. श्री लक्ष्मीवल्लभजीने विक्रमादित्य पंचदंड रास वि.स.१७२७ में लिख।।। श्री धर्मवर्धने वि. स. 1736 के करीब शनिश्चर विक्रम चोपाई की रचना की. श्री कान्तिविमलजीने वि. स. 1767 में विक्रम कनकावती रास लिखा और श्री भाणविजयजीने विक्रम पंचदंड रास वि. स. / 1830 में लिखा. विक्रमकी अद्भुत बाते श्री रुपमुनिजीने लिखी. ..' महाराजा विक्रमादित्य के जीवनसबंधक यह ग्रंथा आज भी ... साहित्य की दुनिया के अणमोल रत्न है, और जैन ग्रंथभंडारो में , रत्न ही समजकर आजदिन पर्यंत सुरक्षित रख्खे है, ऐसा विश्वविख्यात इतिहासकार साक्षर श्री राहुलजी कहते है. -जैन साक्षरे के लेखो के आधारसे / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 661 श्री मेरुतुगाचार्यने भी प्रबंधचिंतामणि ग्रंथ में भी महाराजा विक्रमादित्य के लिये लिखा गया है. __ महाराजा विक्रम के लिये लिखे गये कई पुस्तकों कहांसे उपलब्ध हो सकते है, और प्रकाशक कौन है वह भी यहां देखे. 1290 से 1294 के करीब लिखा गया ग्रंथ पंचदंडात्मक विक्रमचरित्र अज्ञात कृत हिरालाल हंसराज जामनगर, सिंहासन द्वात्रिशिका क्षेमकर कृत लाहौर के सूचिपत्र में विक्रमचरित्र उ. देवमूर्ति कृत लीमडी भंडार से. . साधुपूर्णिमा रामचंद्रसूरिकृत विक्रमचरित्र दानसागर भंडार 'विकानेर, और उ. जै. सा. सं. ई. श्री शुभशील कृत विक्रमचरित्र प्र. हेमचंद्राचार्य सभा अमदावाद. और दुसरी आवृति पंडित भगवानदास हरखचंद अमदावाद. श्री राजवल्लभ कृत सिंहासन द्वात्रिंशिका गोविंद पुस्तकालय विकानेर श्री राजमेरु श्री इन्द्रसूरि. श्री पूर्ण चंद्र कृत विक्रमचरित्र, विक्रमचरित्र पंचदंड प्रबंध उ. जैन ग्रंथावली. इस प्रकार महाराजा विक्रमके संबंध में जैन श्वेतांबर साहित्य में 55 जितने पुस्तकों दिखाई देते हैं. जैन दिगम्बर साहित्य में भी श्री श्रुतसागर कृत विक्रम- . चरित्र एक ही पुस्तक दिखाई देता हैं. निम्नलिखित ग्रंथोमें गुजराती में महाराजा विक्रमादित्य का जीवन उपलब्ध होता है. वि. सं. 1499 में विक्रमचरित्र कुमार रास लिखा गया. ' उपाध्याय श्री राजशीलने वि. स. 1563 में विक्रमादित्य खापरा रास निर्माण किया. Jun Gun Aaradhak Trust Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉદ્દેશથી જ પ્રગટ થતું આ પત્ર છે માટે આપ તાકીદે શાસનસેવાના કાર્યમાં સહકાર આપશો.' વીતેલા વર્ષ દરમ્યાન વિદ્વાન લેખકે અને પૂર્વ સહકારથી શાસ્ત્રીય, રસિક, ચરિત્ર તથા સાહિત્ય પ્રગ ‘ખૂબ જ ચાહના એણે મેળવી છે. અવનવા સમાચારેનું આકર્ષણ જેમાં ન હોય, રજૂ થતા ન હોય, અર્થકામની અભિલાષાઓ ઉ વાનગીઓ જેમાં ન પીરસાતી હોય એવા સીધા સાદા સામયિકને ઘરમાં પ્રવેશ કરાવવા કેટલું બળ જોઈએ ? અમારું બળ આ છે - (1) . આચાર્ય મહારાજાઓ આદિ અનેક ગી ભગવંતોના આશીર્વાદ અને સતત પ્રેરણા એને મળી : પૂ. મુનિવર અને પંડિત શ્રાવકેની શાસ્ત્રશુદ્ધ લેખવાર્તા પ્રગટ કરે છે. (3) સમાજમાં ફેલાઈ રહેલા વિકૃત જે લખાણોનો. શાંત, ઉદાત્ત અને પ્રતિપાદન શૈલીથી કે શાસનસેવા કરવાની કથા ભારતીની અભિલાષા છે. આજે જયારે મનને અને તે પછી તનને બગાડે સાહિત્ય છુટથી બાળકે આગળ આવી રહ્યા હોય વાંચનમાં તેઓ મન પરેવતા થાય તેવું કરવું તે ખૂ નીચેના સરનામે તાકીદે લવાજમ મોકલી આપો : - વાર્ષિક લવાજ”. કથા ભા' PP. Ac. Gunratrasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust