________________ 648 विक्रम चरित्र यही गौरव से पूर्ण सौराष्ट्र की भूमि में कांपल्यपुर नामक नगर में श्रेष्ठी भावड अपना जीवनकाळ व्यतीत करते थे. भावडशाह विनयी, विवेकी थे और धर्मपरायण भी थे, धर्म ही प्राण हैं, यह सिद्धांत उनके लिये था. उन्हों की भाग्यवती पत्नी भावल भी पतिको अनुसरण करनेवाली, धर्म कार्य में सदा रत रहनेवाली थी. धर्मिष्ट दंपती के जीवन में किसी कर्म के योग से परिवर्तन आया. सुखो सेठ धनहीन हो गये. सुखसागर में रहनेवाले सेठ दुःख के दावानल में जा पडे. धनहीन होने पर भी वे दीन नहीं बने. धर्म उन के दुःख में साथी था. धन उन्हों को छोड कर गया था. किन्तु वे धर्म को नहीं छोडते थे. निर्धनता का तिमिर जीवन में छा चूका था उस में भी उन्होंने प्रकाश का किरण देखा, उद्यम, अविरत श्रम, उत्साह और धैर्य से वे आगे कदम भर रहे थे. भाग्य के योग से एक तपस्वी मुनिराज उन्हों के घर गोचरी के लिये आये. उन्होंने शुद्ध-निर्दोष आहार भावपूर्वक देकर निर्धन स्थिति को नाश करने का उपाय पूछा. और मार्गदर्शन के लिये विज्ञप्ति की. ज्ञानी मुनिराजने धर्मिष्ठ श्रावक भावड से कहा, "यहां पर कोई घोडी बेचने आवे तो उसको खरीद लेना. जिस से तुम्हारा भाग्योदय होगा. सुख-समृद्धि प्राप्त होगी; उसी धन द्वारा तुमारे पुत्र को श्री शत्रंजय तीर्थ का उद्धार करने को मार्गदर्शन करायगाauri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust