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________________ 446 . विक्रम चरित्र घर के अन्दर ठहरा हुआ है.” यह सुन कर अग्निक बहुत घबडाया और सोचने लगा, . " मैं इस का कुछ नहीं कर सकता, क्यों कि यह प्रतापी वीर पुरुष है. इस के पूर्वापार्जित पुन्य के कारण मुझ से भी वह अधिक बलवान है." ऐसा अग्निवैताल सोच रहा था, वहां पद्माने आकर उस दीन मानस अग्निवैताल का हाथ पकड कर अभयदान दे कडाह नीचे से बाहर निकाल कर, अपने पतिदेव के सामने लाकर खड़ा कर दिया. ___अग्निवैताल कांपता हुआ खडा था. रूपचंद्रने पूछा, “तुम कौन हो ?" अग्निवैतालने कहा, "मैं राक्षस हूँ." रूपचंद्रने कहा, “तुम मुझे पहचानते हो ? मैं राक्षसो को मारनेवाला भेषस हुँ.” अग्निवैतालने कहा, “हे भेषस!" बोलता हुआ कहने लगा, " आप की स्त्रीने मुझे अभयदान दे दिया है. आप मुझ से क्यों इस प्रकार कहते है ?" रूपचंद्रने , कहा, " यदि तुम मेरी बात मानने की प्रतिज्ञा करो तो मैं तुम्हे छोड सकता हूँ, अन्यथा मैं तुम्हें विना मारे नहीं छोडूंगा, अपनी जिन्दगी में मैंने कितने ही दुश्मनों का रण में वध कर डाले हैं." रूपचन्द्र की बात सुनकर अग्निवैताल डर गया, और रूपचंद्र की आज्ञा में रहने की प्रतिज्ञा की. शीघ्र ही रूपचंद्रने उस अग्निवैतान की नाक में एक कौड़ी लटका दी, और संध्या के समय उस पर सवार होकर महाराजा विक्रमके पास जान Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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