SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 405 स्थान को जाने के लिये अलग हुए, बाद मैं भी वहां गया, और वहां जो तावीज पड़ा था उसे उठा लिया. और आकर अपने स्थान पर सो गया. घंटा भर समय के बाद रुक्मिणी आयी, मेने दरवाजा खोला, वह घरमें जा सो गई. प्रभात में जब उस तावीज को खोला तो उस में बंधे एक काग़ज में लिखा था; 'धनश्रेष्ठी के घर के बांये कोने में दस हाथ नीचे जमीन में चार करोड़ सोने के सिक्के गड़े पड़े है.' उस काग़ज को पढ़ते ही मेरे आनंद का ठिकाना न रहा. मैंने शीघ्र ही सोने के उस तावीज को बाजार में वेच कर नये कपड़े आदि खरीद कर भोजन से निवृत्त हो चन्द्र सेठजी से छूटी ले चम्पानगरी की ओर प्रस्थान किया." अपनी प्यारी प्रजाका सुख-दुःख देखना हरेक राज्य अधिकारी का परम कर्तव्य है. इसी उद्देश से महाराजा विक्रमादित्य रात्रि में नगर चर्चा देखने जाते थे, एक समय महाराजा अन्धेर पछेड़ा ओड़कर घूमते घूमते नगरी की एक सेरी में पहुंचे वहां दो सखियां का वार्तालाप सुन विस्मय 'प्राप्त किया, उन दो में से एक सौभाग्यसुदरी का रोमांचकारी जीवन और चम्पापुरी निवासी गगनधली श्रेष्टिने अपने जीवन का विरमयकारी प्रसंगो का वर्णन महाराजा के आगे कहना तथा अपना श्वसुरालय कोशाम्बीनगरी से रवाना होकर चपापुरी के प्रति रवाना होना आदि वहां तक का जीवनवृत्तान्त इस प्रकरण में पढ़ने में आया. अब आगे का रसमय जीवन आगामी प्रकरण में आपको पढ़ने मिलेगा. पाप छिपाया ना छिपे, छीपे तो मोटा भाग; . दावी दूबी ना रहे, रूई लपेटी आग. Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy