________________ 158 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित www.rrराजा की कन्या उस विषकन्या के गुण समूहों को याद करके अत्यन्त दुःख पाने लगी / जैसे भ्रमर की स्त्री जाई जाति के पुष्प, के गुणों को स्मरण करके दुःख पाती है। . इधर ब्राह्यण उस कन्या को भी समस्त नगर दिखाकर-ऐसा नगर कहीं नहीं है। इस प्रकार कहता हुआ नगर से बाहर होगया / और पूर्व के सांकेतिक स्थान परजाकर राजाने पुनः अपने उसी रूप को धारण कर लिया / ठीक उसी समय 'मही' भी वहां आ पहुँची / पूर्ववत् राजा और मन्त्री दोनों को शय्या पर बैठाकर आकाशगामी विद्या से अपने नगर को चली गई और भोजनादि से उन राजा-मन्त्री दोनों का अतीव सत्कार किया / - इसके बाद राजा अरिमर्दन ने कहाकि 'मैं अपने सब परिवार के साथ इस नगर में पुनः आऊँगा / फिर बाद में तुम इसी प्रकार मुझको शय्या पर सपरिवार उस नगर में पहुँचा देना। तब मेहीने कहाकि 'हे राजन् ! आप शीघ्र आजायें में आपकी इच्छा पूर्ण करूगी / इसमें कोई सन्देह नहीं !' ... . राजाने पूछा कि 'तुमको यह शय्या किसने दी ?' कंदोइन का पूर्व वृतान्तः- 'मेही' ने उत्तर दिया कि 'धरापुरी में धन नामका एक श्रेष्टी था। उसकी धन्या नामकी स्त्री श्रीशत्रुञ्जय आदि तीर्थों में यात्रा करके ध. ध्यान परायण होने के कारण प्रथम स्वर्ग को प्राप्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust