________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग : - 156 किया / काल क्रमसे स्वर्ग से च्युत होकर, इस नगरमें मेही नामकी स्त्री हुई तथा धन श्रेष्ठीने धर्म में परायण होकर प्राण त्याग करके, द्वितीय स्वर्ग को प्राप्त किया / और वह देव पूर्व जन्मका स्मरण करके स्वर्गसे यहां आया तथा मुझको एक आकाशगामी शय्या दी। र उस दिनसे वह मेही सब लोगोंका उपकार करती हुई, धर्मक्रियामें लीन होकर, समय को विताने लगी। क्योंकि पुण्य कर्म करने वाले व्यक्तियां को आरोग्य, सौभाग्य, धनाढ्यता, नायकता आनन्द,सर्वदा विजय, और अभीष्ट की प्राप्ति होती है / हे राजन! वह मैं ही हूं। ... - इसके बाद राजा उससे प्रेमपूर्वक मिल कर मतिसारके साथ अपने नगरमें आया। यात्राके बहाने से, उत्तम सेनाके साथ, रत्नपुरीमें मेही से आकर मिला तथा मेही से कहने लगा कि'मुझको सेना के साथ उस नगर में पहुंचा दो। मैं चालाकी से उस राज कन्या से विवाह कर लूगा / ' तब मेहीने कहाकि-'समस्त सेना शय्या का स्पर्श करे।' सेना द्वारा शच्या स्पश करते ही शय्या आकाश मार्ग से चलने लगी। मेही ने उस शय्या के योगसे समग्र सेनाके साथ राजाको उस वनमें पहुँचा दिया। अरिमर्दन का सेना सहित रत्नकेतुपुर में उड़कर जाना इधर राजा रत्नकेतु कोई शत्रु राजा के आने की भ्रान्ति से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.' Jun Gun Aaradhak Trust