________________ विक्रम चरित्र करती थी, और कहती थी, “देखा, अब कभी ऐसा मत करना, जैसे कि तुमने मेरा शील भ्रष्ट करने के लिये किया. क्यों कि "अपनी ध्वजा पताका जिसने स्वर्ग लोक तक फहराया उस रावण की बूरी भावना ने ही उस को नष्ट किया." _अपने पराक्रम से संपूर्ण संसार को जिसने वश में किया था, और जिस रावण का डर स्वर्गलोक में देवताओं को भी बना रहता था; उसी रावण ने जब कि पर स्त्री रमण की मनमें इच्छा होने पर, सीता के प्रसंग को लेकर अपने कुल को नष्ट कर दिया और खुद भी नरक में गया.”x कुछ दिनों के बाद में उस वृद्धाने आकर पूछा, “हे सुरुपा! वह मूलदेव कहां है और कैसा है ? " सुरुपाने उत्तर दिया, "वह मेरे दिये हुए अन्न, जल आदि से संतुष्ट होकर सदा मेरे घर में ही रहता है, और बालक की तरह आनंद विनोद कर समय वीताता हैं ?" इधर अवंतीनगरी में महाराजा विक्रमादित्य सोचते हैं, " बहुत समय होने पर भी मूलदेव का चंपापुरी से कुछ समाचार नहीं पा रहा हूँ क्या बात है ? " यह जानने के लिए मूलदेव के भाई शशीभूत को महाराजाने राजसभा में बुला X विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि परस्त्रीषु रिरसया / कृत्वा कुलक्षय प्रापं नरक दशकन्धरः // स. 10/459 // P.P. Acr Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust.