SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय सयोजित पिताजी की आज्ञा को नहीं टाला और एक महान राज्य को छोडने में अल्प दुःख का अनुभव तक नहीं किया, जिस महाराजा रामचन्द्रजी की स्त्री सीता भी अपने पवित्र शील गुण के कारण विश्वभर के स्त्रीसमाज के लिये आज भी आदर्श रूप हैं, जिन राम के हनुमान, सुप्रांव जैसे महान वीर सेवक हुए, उस रामचन्द्रजी की बराबरी आप कैसे कर सकते हैं ? मेरी तो पुनः आप से येही सलाह है, कि आप अपने गर्व को त्याग कर ' नवीन राम' बनने का विचार त्याग दीजिये. है राजन् ! श्री रामचन्द्रजी के जीवन का एक ही प्रसंग संक्षिप्त रूपसे कह सुनाया, मैं अधिक और रामचन्द्रजी के लिये क्या प्रशंसा करूं ?" महाराजा विक्रमादित्यने ईन सब बातों को सुनते ही . " नविन राम " बनने की अपनी भावना को छोड़ दिया, और अयोध्या से अपने रसाला व सेवकों के साथ रवाना होकर अवंती नगरी में आ पहूँचे. अयोध्या की सफल यात्रा की उपलक्षता में याचकों को बहुत उदारता से दान देने लगे. पाठकगण ! आपने इस प्रकरण में महाराजा विक्रमादित्य द्वारा किये गये गर्व का हाल पढ़ा ही है, उनका गर्व नहीं रहा. राजा विक्रमादित्य तो क्या ? पर आजतक के इतिहास के देखने से यही मालुम होता हैं; कि क्या ? पर "गर्व किसी का भी न रहा है, और न रहेगा. कारण कि इस विश्वरूप नाटकशाला में अनेकों नट आते है जो अपना अपना कार्य कर चले जाते है; उनका कार्य एक एक से बढ़कर होता है, जैसा जिसका कार्यक्षेत्र होता है, वैसी ही उसकी प्रसिद्धि-ख्याति जगत में होती है. अतः किसी भी व्यक्ति को इस प्रकार का गर्व कदापि नहीं करना चाहिए कि, ‘जो कुछ हूँ सो मैं हूँ.' अगर कोई इस प्रकार करता भी है तो विद्वान P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy