________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग रूपी नाटक विचित्र ही है। क्योंकि __ "संसार में ऐसी न कोई दिखती कुल जाति है / .. शत वार जिसने जन्म पाया हो न मानव जाति है।। शत सहस्त्रों बार सबके सब हुअा सुत ताप है / - जीव जब तक मोक्ष पाता यह कहां तक पाप है।" इस संसार में ऐसी कोई जाति नहीं है, न ऐसी कोई योनि है, न ऐसा कोई स्थान है, न ऐसा कोई कुल है कि जहां पर इस जीव ने अनेक बार जन्म धारण न किया और मरण प्राप्त न किया हो / अर्थात् यह जीव सब स्थानों में अनेक समय भ्रमण कर चुका है और जहां तक मुक्ति मोक्ष प्राप्त नहीं होगा वहां तक जोव का भ्रमण चालू ही रहता है / इस संसार में भ्रमण करने वाले प्राणियों को परस्पर अनेक बार माता पुत्र आदि का सम्बन्ध हो चुका है / इसलिये इस प्रकार के न्याय को देखते हुए बुद्धिमानों को लोक व्यवहार का त्याग नहीं करना चाहिये, क्योंकि निश्चय से व्यवहार बलवान है / यही नीति कहाती है। ___ इसके बाद संसार को नाटक प्रायःसमझ कर तात माता आदि शब्द बोलते हुए शिशु शुकराज को देखकर मृगध्वज श्रीदत्त मुनि से बोला कि 'हे स्वामिन् ! पृथ्वी पर आपके समान जो मनुष्य हैं वे धन्य हैं / युवावस्था में ही जिन लोगों के चित में वैराग्य को प्राप्त कर लिया है; मेरा चित संसार से विमुख होकर मुझे वैराग्य कब प्राप्त होगा?" इस प्रकार राजा के पूछने पर केवली श्रीदतमुनि के कहा कि हे राजन! जब तुम तुम्हारी रानी चंद्रावती का पुत्र तुम्हारे दृष्टि P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust