________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरज्जनविजयजी संयोजित 81 द्रव्य के साथ कन्या को शंखदत को देकर उत्सवपूर्वक शेष धन सातों क्षेत्रों में दे दिया तथा केवली मुनि से संसार से तारण करने बाली दीक्षा लेकर तीव्र तप करता हुअा वह बिहार करने लगा। तप रूपी अग्नि से दुष्ट कर्म रूपी इन्धन के समूह को भस्म करता हुआ क्रमशः श्रीदत्त क्षपक श्रेणी को प्राप्त हो गया। अज्ञान रूपी अन्धकार को शुक्ल ध्यान के प्रखर किरणों से नाश करता हुआ उस श्रेष्ठ श्रीदत्त मुनि ने क्षणमात्र में निर्मल केवल ज्ञान को प्राप्त किया। वही श्रीदत्त मैं केवल ज्ञान प्राप्त करके सांसारिक प्राणियों के हित करने की भावना से विहार करता हुआ यहां इस समय आया हूँ। पूर्व जन्म में चैत्र रूपी मुझको जो गौरी और गंगा प्रियायें थीं वे इस जन्म में कर्मवश मेरी माता और पुत्री हुई। दुष्ट कर्मों के अधीन होकर अज्ञान से मैंने माता तथा पुत्री के ऊपर प्रेम किया। (श्रीदत्त केवली कथा समाप्तम् ) उस केवलो भगवंत की यह सब बात सुन कर वह राजकुमार केवली से बोला कि 'जा हंसी और सारसी पूर्व जन्म में मेरी प्रिया थी वे ही इस समय मेरी माता तथा पिता हैं। उसको मैं तात तथ माता किस प्रकार कहूँ।' शुकराज से केवली का उपदेश तब उस केवली भगवंत ने कहा कि "हे शुकराज ! यह संसार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust