________________ 328 विक्रम चरित्र जब वह गोपाल अपनी प्रतिज्ञा को पुनः पुनः दोहरा कर महाकाली की प्रार्थना करने लगा, उसी समय महाकाली के पीछे छिपी उस दासीने कहा, “हे नर ! मैं तुझ पर अत्यंत प्रसन्न हुँ, मैं तुझे विद्या दूंगी." गोपाल को काव्य कलाकी प्राप्ति - इस प्रकार काली के वचन को सुन वह ग्वाल अति प्रसन्न हो गया. परन्तु महाकाली देवी स्वयं इस प्रकार दासी द्वारा किये गये कपट से चिन्ता व्यग्र बन गई, अर्थात् सोचने लगी, 'अपने नाम से इस प्रकार दिये गये वरदान को अगर मैं सत्य नहीं करूंगी, तो वह मेरे लिये ही अहितकर होगा, कारण कि कई वर्षो से जो मुझे प्रतिष्ठा अवंती निवासीयों से मिली है, वह सव चली जायगी. और मुझे बादमें कोई नहीं मानेगा-पूजेगा.' इस प्रकार वह किकर्तव्य-विमूढ हो गई. अंत में महाकाली देवीने निश्चय किया, 'मुझे अपनी प्रतिष्ठा को कायम रखने के लिए भी उसे विद्वान बनाना ही पडेगा, अन्यथा मेरे लिए यह महान अहितकर होगा.' ठीक हैं नीतिकारोंने भी यही बताया है कि ऐसा मूर्ख कौन होगा जो एक छोटी सी खीली के लिए अपने मकान को तोडेगा ? थोडे से लोहे के लिये पूरे जहाज को काटेगा ? एक धागे दोरे के लिये गले के सुन्दर रत्नहार तोडेगा और भस्म जैसी तुच्छ वस्तु के लिए रेशमी वस्त्र या चंदन जैसे मूल्यवान काष्ठ को जलायगा? मिट्टी के एक P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust