________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 186 उस दीन मनुष्य को राजाने एक हजार स्वर्ण-मुद्रा का दान दिया / * जब दान देने पर भी वह दरिद्र मनुष्य कुछ भी नहीं बोला तब राजा विक्रमादित्य ने पूछा कि "तुम बोलते क्यों नहीं हो ?" ___ तब वह दीन वाणी से बोलाकि "लज्जा बोलने से रोकती है और दरिद्रता मांगने के लिये कहती है / इसलिये मेरे मुख से दो' इस प्रकार की वाणी नहीं निकलती है।" / उस दीन नमुष्य की इस प्रकार की दीन वाणी सुनकर राजाने शीघ्र ही पुनः दस हजार स्वर्ण मुद्रा और दिलायी। ... कोई चमत्कार करने वाली बात कहो, इस प्रकार राजा के कहने पर वह कहने लगाकि- .. "शरीर से बाहर नहीं निकलने वाली आपके शत्रुओं की कीर्ति को कवि लोग असती याने व्यभिचारिणी कहते हैं। परन्तु स्वतन्त्र होकर तीनों लोक में भ्रमण करने वाली अापकी कीर्ति को सती कहते हैं / तात्पर्य यह है कि आपकी कीर्ति अन्यों की अपेक्षा अतीव उत्कृष्ट है / अतः इसको कोई वश में नहीं कर सकते / क्योंकि सती स्त्री अपने पति के सिवाय आजीवन, अन्य किसी के भी वश में नहीं होती। 8 . . * अनिस्सरन्तीमपि देहगर्भात्कीर्ति.. परेषाजसती वदन्ति / स्वैरं भ्रमन्तीमपिच त्रिलोक्यां त्वत्कीर्तिमाहुः कवयः सतींतु / 1242 / 8 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust