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________________ विक्रम चरित्र देने के लिये दिया था, लोभ से मैंने झूठ बोल कर उसे रख लिया है. अतः अब तुम मेरे साक्षी बन कर राजा के सामने यह कहना कि, इसने मेरे सामने भीम सेठ को बहु मूल्य रत्न दिया है, मेरा काम सिद्ध होने पर मैं तुम्है और सोनामोहरे दूगा. इस से आगे भी हम दोनों की दोस्ती कायम रहेगी' श्रीधरने भी हाँ कहा और इस से धन ओष्ठी मन ही मन खुश हुआ. श्रीधर के चले जाने पर धन श्रेष्ठी के पिताने उस से कहा, 'हे पुत्र ! तुझे यह करना उचित नहीं है, क्यों कि पराया धन हरण करने से इह लोक और परलोक दोनेा में दुःख ही होता है; इसी लिये कहा है, 'दुर्भाग्य, नौकरी, दासता, अंग का छेदन और दरिद्रता को चोरी का फल जान कर चोरी का त्याग करना चाहिये.' रास्ते में गिरा हुआ, भुला हुआ, खोया हुआ और अमानत रखा हुआ धन, बुद्धिमान पुरुष को कभी न लेना चाहिये. पराया धन हरनेवालों का यह लोक परलोक, धर्म, धैर्य, धृति और बुद्धि ये सभी नष्ट हो जाते है, अर्थात् दूसरे भव में वे नहीं मिलते.” - ऐसा कहने पर भी अपने पिता के शब्दों की अवगणना .. कर श्रीधर ब्राह्मण को बुलाकर सुंदर सहित महाराजा के पास पहुँचा. महाराजा के सामने सुंदर बोला, 'हे स्वामिन् ! मैंने एक करोड मूल्य का रत्न अपने पिता को देने के लिये धन श्रेष्ठी को रमापुर में दिया था, लेकिन धन के लाभ से नष्ट बुद्धि P.P..AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak,Trust :
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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