________________ विक्रम चरित्र कहा, तो धन्य को पत्नी जो उस समय तीव्र कामबाण से पीडित थी, उसने अपनी कुलमर्यादा छोडकर कहा, "मैं कामबाण से अत्यंत पीडित हूँ. तुम्हारे भोगरूपी अमृत के बिना मैं मरी हुई ही हूँ. एसा तुम्हे समझना. रागरूप समुद्र में बसे हुए मेरे मनरूप मत्स्य को भोगरूप अन्न का दान करके संतुष्ट करो. जसे हाथी स्पर्श में, भ्रमर गन्ध में और मृग शब्द में आसक्त होता है, वैसे ही मैं अभी तुम से हुई हूँ. अतः मेरे साथ विलास कर के अपने मनुष्य जन्म को सफल करो, तथा मेरे शरीर को अंगीकार कर के निश्चय ही इस घर में रहे हुए विपुल द्रव्य को ग्रहण करे।." इस प्रकार इन दोनों को बातें करते सुनकर महाराजा विक्रम संसार का स्वरूप इस प्रकार विचार करने लगे-- " इन्द्रियों में जीभ, कर्मों में मोहनीय कम, व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत और गुप्ति में मन गुप्ति ये चारों बडे कष्ट से ही जीते जा सकते है, ऐसा जो आगम में कहा है यह सच है. जिस में कभी किसी अन्य पुरुप को अंगुली बताने जितनी सहिष्णुता नहीं थी, वही कामवश नरवीर-पुरुष स्त्री के चरणों में गिर कर क्षणमें उस का दास बन जाता है. कवियों के द्वारा वर्णित स्त्री का चंचल मन भी भोगसागर में स्नान करने के लिये स्थिर होता दिखाई देता है. . सच ही कहा हैहै. यौवन, धन, सम्पति, प्रभत्व तथा अविवेकिता, ये एक एक अनर्थ करनेवाले होते है, और जब चारों ही एकत्र है। Jun Gun Aaradhak Trust P.P.AC. Gunratnasuri M.S.