SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 602
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित जाय तो कहना ही क्या ? अर्थात् तब तो अनर्थ की सीमा भी नहीं रहती. + ये विषय भोग आदि दुःख से युक्त हैं, विषमय है, मायामय है, इन से अधिक निदापान संसार में कौन है ? इन से अधिक विरूप क्या है ? विषयों में लालची बना हुआ मन को निवारण करने पर भी विषयों में स्पृहायुक्त-आशायुक्त बनकर दौडता हैं, अतः हे मन! तुझ को कोडवार धिक्कार है.' इधर रत्नमंजरी के कामुक शब्दों को सुन कर चोर बोला, “हे ललने! वृद्ध जराग्रस्त पति को छोडकर तुम मुझे चाहती हे। यह ठीक नहीं. परस्त्रीगमन दोष के पाप से तथा दोनों लोक के विरुद्ध इस पाप कार्य से मुझे नरकगति मिलेगी. फिर तुम्हारे पति के जीते ही मैं तुम्हारे साथ संगम नहीं कर सकता, जैसे कि सिंह के वृद्ध हो जाने पर भी मृग उस की अवहेलना-तिरस्कार नहीं कर सकता." चोर का ऐसा कहने पर वह बोली, "अभी मेरा स्वामी मर गया है. यदि तुम्हें विश्वास न हो तो पास में आकर इस का वास देख ले.” चोर उसे देखने जाता है, इतने में तो रत्नमंजरीने निद्रित पति के गले को अंगुठे से दवा x यौवन धनसम्पतिः प्रभुत्वमविवेकता; एकैकमप्यनर्थाय किं पुनस्तश्चतुष्टयम् सर्ग 11/397 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy