________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 341 सरोवर की एक बड़ी मछलीने जलमें से अपना शिर निकाल कर / : कहा, 'हे महाराज! आपने तो केवल उस बगुले के बाहरी व्यवहार को ही देख उसे परम धार्मिक-दयालु मान लिया. परन्तु आपने उसके आंतरिक भावों को नहीं जाना है. इस दुष्टने इसी प्रकार छल करते करते हमारे पूरे कुटुम्ब को खा लिया है, अतः हे राजन् ! बाह्य दृष्टि से किसी व्यक्ति का पूरा परिचय नहीं पा सकते ! सहवास से ही उसका पूरा - परिचय होता है.' - राजा पुनः तापंस के पास जाकर विनम्र भावसे बोले, " हे तपस्वी, आप का दर्शन कर पवित्र हो कर जब मैं यहां से. ... प्रस्थान करने लगा उस समय में मैंने अपने पाचो रत्न आएके . .पास रखे. उन्हे आप क्यों छिपाते हैं ?" तापसने मीठे स्वर से उत्तर दिया, "हे पथिक ! मेरे पास तुम्हारे रत्न नहीं है, किसी अन्य के पास रखा होगा, तुम भूल गये हो ?" तापस की कपटभरी वाणी को सुनकर उससे अधिक वार्तालाप उचित नहीं समझा, वहाँ से चल दिया, परन्तु दोषी को डण्ड . . शनैमुच्चयते पादं जीवानामनुकम्पया / पश्य लक्ष्मण ! पम्पायां बकः परमधार्मिकः / / स. 10/107 // . पृष्टतः सेवते सूर्य जटरेण हुताशनम् / .. स्वामिनं; सर्वभावेन. खलो वञ्चति मायया // स. 10/108 // (तदा दिव्यवाण्या बृहन्मत्स्य उवाच शीलं संवासतो ज्ञेय न शोल दर्शनादपि / " बक वर्णयसे राम ! येनाह निष्कुलीकृतः // ) P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust