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________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जन विजय संयोजित 351 उसके पांचों अमूल्य रत्न शीव लौटा दिये. पांचो रत्न ले कर महाराजाने एक रत्न प्रसन्नतापूर्वक उस तापस को भेट कर दिया. इस प्रकार ये सब बाते हो ही रही थी कि वेश्या के पूर्वं सकेतानुसार उस की दासीने आकर कहा, “हे बाईजी ! आप की पुत्रीने जल कर मरने का विचार त्याग दिया है. अतः आप शीघ्र ही घर चलिए.” दासी की बात सुन उसे रत्नों का थाल देते हुए वेश्याने कहा. “तूं यह थान्त लेकर चल, मैं भी पीछे पीछे शीघ्र ही आती हूँ.” इस प्रकार वह रत्न भरा थाल ले कर दासी चली गई. और वेश्या तापस से कहने लगी, " हे महाराज ! आप मुझे आज्ञा दे तो में अपनी पुत्री से मिल कर उसका निर्णय जान पुनः लौट आऊँ.” इस प्रकार कहती हुई वह वेश्या अपने घरकी और चल पडी. बहुत समय तक वह तापस वेश्या के लौट आने कि राह देखता रहा. वह पथिक रूप विक्रम महाराजा भी कामलता के घर पहूँच गये, और उसकी बुद्धिमत्ता पर प्रसन्न होकर एक रत्न जो बहु मूल्य था वह उन्होंने कामलता को दे दिया, रात्रि भर उस के यहां विश्राम कर प्रातःकाल अपनी 'नगरी अवंती की ओर प्रस्थान किया, ___ जब महाराजा विक्रम अपनी नगरी की ओर जा रहे थे उस समय उन्हें रास्ते में एक गरीब मनुष्य मिला. महाराजा विक्रमादित्य को देख वह कहने लगा, " दारिद्रय से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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