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________________ 568 विक्रम चरित्र 'यह करोड रूपये के मुल्य का मणि आप अपने नगर पहूँचने पर मेरे पिता को दे दें, मैं बहुत माल लेकर आया हूँ. अतः क्रयविक्रय में अभी मुझे बहुत दिन लगेंगे'-इस प्रकार कह कर वह मणि उसे देकर सुंदर तो उसी शहर में ठहर गया, धन श्रेष्टी भी बहुत सा अपना कमाया हुआ द्रव्य ले कर क्रमशः अपने नगर में पहुँच गया. फिर भीम सेठ के घर जाकर वह धन श्रेष्ठी उसे मिला, और सुंदर के कुशल समाचार कहे लेकिन लोभ रूपी पिशाच के वश में होने से उसने वह करोड मुल्यवाला मणिरत्न भीम शेठ को नहीं दिया. कहा किलाभ भूत जिस जन के उपर, यदि रहता है कहीं सवार; तब वह कर सकता है गुरुजन, मात पिता सुरका अपकार. लोभ से ग्रसित मनुष्य अच्छे कुल में होने पर भी अपने को भूल जाता है, न वह देव गुरु को याद करता है क्यों कि-पाप का मूल लोभ, रोगों का मूल रसास्वाद अर्थात् भोजन में लोभ, और दुःखो का मूल प्रेम है, इन तीनों को छोडने से प्रत्येक व्यक्ति सुखी होता है, दरिद्ग सौ रूपये की, सौ रूपयेवाला हजार की, हजारवाला लाख की और लाख। वाला करोड की इच्छा करता है, इस प्रकार लोभ बढता ही जाता है. .. . . __कुछ समय बाद बहुत धन कमा कर वह सुंदर भी - समुद्ग मार्ग से जहाज द्वारा अपने नगर में आ पहुँचा, फिर धीरे धीरे सब माल-सामान आदि उतारा और घर में पहुँच P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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