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________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित अनेक कलाओं में निपुण हो गया. क्यों कि सकल कलावान होते भी जिस व्यक्ति में धर्मकला-पुण्य उपार्जन करने की पुण्य कला नहीं, उस की सब कलायें भी निष्फल है, जैसे प्राणीओं को आंख के सिवाय शरीर के सब अवयव सुंदर होने से क्या ? सब अवयव भी वृथा है. + .. वह सुंदर माता पिता की इच्छानुसार ही हमेशा चलता है, और सदा देवगुरु के चरणकमलों की सेवा करता है. जो हमेशा खुश होकर अपने माता पिता के आदेशानुसार काम करता है वही हमेशा कीर्ति, प्रतिष्ठा और लक्ष्मी पाता हैं, जैसे एक ही चंदन के वृक्ष से सारा जंगल सुगधित हो उठता है, वैसे ही अच्छे गुणवान् एक ही पुत्र से चारों तरफ यश फैल जाता है. एक बार वह सुंदर पिता की . आज्ञा प्राप्त कर के बहुत सा माल सामान लेकर जहाज भर कर समुद्ग मार्ग से व्यापार के लिये गया, पवन के अनुकूल होने से उस का जहाज रत्नद्वीप के रमापुर शहर के पास जा पहुँचा. वहां व्यापार में उसने बहुत सा धन उपार्जित किया. उसी समय में रमापुर नगर से धन नामक एक श्रेष्ठी वहां पर पहले से आया हुआ था. उस ने भी बहुत द्रव्य कमाया, अतः अब धन श्रेष्ठी लक्ष्मीपुर जाने के लिये तैयार हुआ. अपने ही नगर में उसे जाते देख कर सुंदरने कहा, - + सकलाऽपि कलावतां कला विफला पुण्यकलां विना किल; सकलावयवा वृथा यथा तनुभाजामऽकनीनिक तनुः / / स. 11)843 // . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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