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________________ विक्रम चरित्र करती है. अर्थात् वह जीव मुक्ति का अधिकारी बनता है. कहा भी है-- .. तृण सूखे घास का तिनका बहुत हलका होता है और उस से रूई हलकी होती है, लेकिन याचक तूल से भी हलका है. 'कवि कल्पना करता है फिर तो याचक को हवा क्यों नहीं वडा ले जाती ? क्यों कि वह शोचती है, कि याचक मुझ से भी कुछ मांगेगा. गृहस्थ के लिये कहा है, 'तू हाथ के उपर अपना हाथ करना अर्थात् दान देना, पर किसीके हाथ के नीचे हाथ मत रखना. अर्थात् भीख मत मांगना. जिसदिन तूने भीक्षा मांगी वह दिन तू गिनती में मत लेना. राख भस्म से कासी का बर्तन, खटाई से ताम्बे का बर्तन, रजस्वला स्त्री पानी से अर्थात् चौथे दिन स्नान से और गृहस्थ दान से शुद्ध होते है.' इस प्रकार उस मुसाफिर के कहने पर रत्नमंजरीने उस पथिक को सन्मान कर रात्रि में रहने के लिये अपने घर में स्थान दिया. . धन्य सेठ की पत्नीने उस से पूछा, “हे पान्थ ! तुमने शाम का भोजन कर लिया या नहीं ?" वह बोला, " मैं रात को कभी भी कुछ खाता नहीं हूँ. रात्रि में भोजन करनेवाले पुरुष का अवश्य ही नरक गमन होता है. अतः आत्महित के अभिलापी कभी भी रात्रिभोजन नहीं करते. कहा है कि अन्न मास के समान होता है. ऐसा मार्कण्डेय मुनिने अपनी P.P. Ac. Gunratrtasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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