________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित राजा की यह बात सुन कर वह कन्या बहुत प्रसन्न हो कर, आस पासमें जो नगर जनता खडी थी उस तरफ देखने लगी. इधर राजा विक्रमादित्य नगरमें से भोजन सामग्री ले कर नगर बहार जिस स्थान पर राजकुमारी को छोड कर गया था, उस स्थान पर आकर देखा तो कन्या और पेटी कुछ नही था. सोचने लगा. "क्या करूँ? कहाँ जाउँ ? किसको कहूँ ? बहुत परिश्रम से उस रत्न पेटी को लाया था, परन्तु उस के साथ साथ पेटी भी चली गई।" पुनः विचारने लगा, " इस प्रकार तो अधीर-कातर लोग सोचा करते हैं, साहस करना चाहिये फिर जो होना है, वह होगा ही; जैसे नारियल में जल हो आना और जिसको जाना है वह जायगा ही, जैसे राज-हाथी से खाया हुआ कपित्थ-कैथका फलका गर्भ नष्ट हो जाता है जिस का किसीको समझ में भी नही बैठता है?" इस तरह मन ही मन सोचता और राजकन्या को खोजता हुआ, महाराजा विक्रम नगर में प्रवेश कर जहाँ राजकन्या, वेश्या रूपश्री और नगर का राजा तथा लोगों का समूह खडा था वहाँ भाया. विक्रमादित्य का लक्ष्मीवती से पुन: मिलाप राजकुमारी चारो ओर देख कर अपने अभीष्ट पुरुष को खोज रही थी, दूर से महाराजा विक्रमादित्य को देख कर हर्षित होती हुई बोली, " हे राजन् ! वे आते है, यही मेरे अभीष्ट-स्वामी है. किसी कविने कहा है, "नयनों की गति अलख है, कोई नहीं समझाय; . काख लोग को त्याग कर, सस्नेही पर जाय. " P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gyn Aaradhak Trust