________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित देख प्रसन्न होकर प्रियंगुमंजरीने उसका स्वागत किया. साथ ही अपने पति को निवेदन किया, “हे पतिदेव ! क्या आप को मुझसे कुछ वाग् विलास करने की इच्छा है ?" कालीदासने उत्तर में अपनी प्रिया को एक संस्कृत काव्य कहा जो गूढार्थ से पूर्ण था. जिसका भाव निम्न लिखित हैं. " पर्वत राज दिशा ऊत्तर मैं, देव स्वरूप हिमालय है, मानदंडसा शोभित भू का, शंकरका ससुरालय है. . अर्थात् हे प्रिये! भारत देश के उत्तर में हिमालय नाम का एक विशाल पर्वत है जो कि पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा तक फैलता हुआ समुद्र का स्पर्श करता है. उसे से देख यही ज्ञात होता है, मानो वह पृथ्वी का माप लेने का एक माप-दंड हो, और उसे किसीने पृथ्वी के माप के वास्ते पृथ्वी पर लगाया हो ?"x . अपनी प्रिया को पुनः आगे कहते हुए कालीदासने कहा, 'हे प्रिये ! जो तुमने अपने वार्तालाप में "अस्ति" “कश्चिद् " ओर “वाग्" यह तीन शब्दों का प्रयोग किया उनके आधार से मैं तीन काव्यों की रचना करूँगा. इस प्रकार *" अस्ति कश्चिद् वागविलासा भवतो रुचिरः पते!" x “अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराजः / पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्ड: सं. 10 // 73 // कुमारसंभवे प्रथम श्लोकः / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun AaradhakTrust.